Friday 17 December 2021

अपना पराया: दीपेश और अनुपमा को किसने समझाया अपने पराए का अंतर

‘‘भैया, आप तो जानते हैं कि बीना को दिल की बीमारी है, वह दूसरे का तो क्या, अपना भी खयाल नहीं रख पाती है और मेरा टूरिंग जौब है. हमारा मां को रखना संभव नहीं हो पाएगा.’’

‘‘भैया, मैं मां को रख तो लेती लेकिन महीनेभर बाद ही पिंकी, पम्मी की परीक्षाएं प्रारंभ होने वाली हैं. घर भी छोटा है. इसलिए चाह कर भी मैं मां को अपने साथ रख पाने में असमर्थ हूं.’’

दिनेश और दीपा से लगभग एक सा उत्तर सुन कर दीपेश एकाएक सोच नहीं पा रहे थे कि वे क्या करें? पुत्री अंकिता की मई में डिलीवरी है. उस के सासससुर के न होने के कारण बड़े आग्रह से विदेशवासी दामाद आशुतोष और अंकिता ने उन्हें कुछ महीनों के लिए बुलाया था, टिकट भी भेज दिए थे. अनुपमा का कहना था कि 6 महीनों की ही तो बात है, कुछ दिन अम्माजी भैया या दीदी के पास रह लेंगी.

इसी आशय से उन्होंने दोनों जगह फोन किए थे किंतु दोनों जगह से ही सदा की तरह नकारात्मक रुख पा कर वे परेशान हो उठे थे. अनु अलग मुंह फुलाए बैठी थी.

‘‘अम्माजी पिछले 30 वर्षों से हमारे पास रह रही हैं और अब जब 6 महीने उन्हें अपने पास रखने की बात आई तो एक की बीवी की तबीयत ठीक नहीं है और दूसरे का घर छोटा है. हमारे साथ भी इस तरह की अनेक परेशानियां कई बार आईं पर उन परेशानियों का रोना रो कर हम ने तो उन्हें रखने के लिए कभी मना नहीं किया,’’ क्रोध से बिफरते हुए अनु ने कहा.

दिनेश सदा मां के प्रति अपनी जिम्मेदारी से कोई न कोई बहाना बना कर बचता और जब भी दीपेश कहीं जाने का प्रोग्राम बनाते तो वह बनने से पूर्व ही ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता था. यदि वे मां को साथ ले भी जाना चाहते तो वे कह देतीं, ‘‘बेटा, इस उम्र में अब मुझ से घूमनाफिरना नहीं हो पाएगा. वैसे भी तुम्हारे पिता की मृत्यु के पश्चात मैं ने बाहर का खाना छोड़ दिया है. इसलिए मैं कहीं नहीं जाऊंगी.’’

वे मां को कभी भी अकेला छोड़ कर कहीं जा नहीं पाए और न ही मां ने ही कभी अपने मन से उन्हें कहीं घूमने जाने को कहा. उन्हें याद नहीं आता कि वे कभी अनु को कहीं घुमाने ले गए हों. आज अंकिता ने उन्हें बुलाया है तब भी यही समस्या उठ खड़ी हुई है. पोती को ऐसी हालत में अकेली जान कर इस बार मां ने भी उन्हें जाने की इजाजत दे दी थी लेकिन दिनेश और दीपा के पत्रों ने उन की समस्या को बढ़ा दिया था.

अनु जहां इन पत्रों को पढ़ कर क्रोधित हो उठी थी वहीं मां अपराधबोध से ग्रस्त हो उठी थीं. उन की समस्या को देख कर मां ने आग्रहयुक्त स्वर में कहा था, ‘‘तुम लोग चले जाओ, बेटा, मैं अकेली रह लूंगी, 6 महीने की ही तो बात है, श्यामा नौकरानी मेरे पास सो जाया करेगी.’’

अनु और मां का रिश्ता भले ही कड़वाहट से भरपूर था पर समय के साथ उन में आपस में लगाव भी हो गया था. शायद इसीलिए मां के शब्द सुन कर पहली बार अनु के मन में उन के लिए प्रेम उमड़ आया था किंतु वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे? इस उम्र में उन्हें अकेले छोड़ने का उस का भी मन नहीं था. यही हालत दीपेश की भी थी. एक ओर पुत्री का मोह उन्हें विवश कर रहा था तो दूसरी ओर कर्तव्यबोध उन के पैरों में बेडि़यां पहना रहा था.

अभी वे सोच ही रहे थे कि पड़ोसी रमाकांत ने घर में प्रवेश किया और उन की उदासी का कारण जान कर बोले, ‘‘बस, इतनी सी समस्या के कारण आप लोग परेशान हैं. हम से पहले क्यों नहीं कहा? वे जैसी आप की मां हैं वैसी ही हमारी भी तो मां हैं. आप दोनों निश्ंिचत हो कर बेटी की डिलीवरी के लिए जाइए, मांजी की जिम्मेदारी हमारे ऊपर छोड़ दीजिए. उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी.

6 महीने तो क्या, आप चाहें तो और भी रह सकते हैं, बारबार तो विदेश जाना हो नहीं पाता, अत: अच्छी तरह घूमफिर कर ही आइएगा.’’

रमाकांतजी की बातें सुन कर मांजी का चेहरा खिल उठा, मानो उन के दिल पर रखा बोझ उतर गया हो और उन्होंने स्वयं रमाकांत की बात का समर्थन कर उन्हें जाने के लिए प्रोत्साहित किया.

पुत्री का मोह उन से वह करवा गया था जो वे पिछले 30 वर्षों में नहीं कर पाए थे. 2 दिन बाद ही वे न्यूयार्क के लिए रवाना हो गए. वे पहली बार घर से बाहर निकले पर फिर भी मन में वह खुशी और उमंग नहीं थी. उन्हें लगता था कि वे अपना मन वहीं छोड़ कर कर्तव्यों की बेडि़यों में बंधे जबरदस्ती चले आए हैं. यद्यपि वे हर हफ्ते ही फोन द्वारा मां का हालचाल लेते रहते थे लेकिन उन्हें यही बात बारबार चुभचुभ कर लहूलुहान करती रहती थी कि आवश्यकता के समय उन के अपनों ने उन का साथ नहीं दिया.

यहां तक कि उन की भावनाओं को समझने से भी इनकार कर दिया. वहीं, उन के पड़ोसी मित्र रमाकांत उन की अनुपस्थिति में सहर्ष मां की जिम्मेदारी उठाने को तैयार हो गए. वे समझ नहीं पा रहे थे कौन अपना है कौन पराया, खून के रिश्ते या आपसी आवश्यकताओं को निभाते दिल के रिश्ते…

कैसे हैं ये खून के रिश्ते जिन में एकदूसरे के लिए प्यार, विश्वास यहां तक कि सुखदुख में साथ निभाने की कर्तव्यभावना भी आज नहीं रही है. वे मानवीय संवेदनाए, भावनाएं कहां चली गईं जब एकदूसरे के सुखदुख में पूरा परिवार एकजुट हो कर खड़ा हो जाता था. दिनेश और दीपा उन की मजबूरी को क्यों नहीं समझ पाए. वे अंकिता के पास महज घूमने तो जा नहीं रहे थे कि अपना प्रोग्राम बदल देते या कैंसिल कर  देते. मां सिर्फ उन की ही नहीं, उन दोनों की भी तो हैं. जब वे पिछले 30 वर्षों से उन की देखभाल कर रहे हैं तो मात्र कुछ महीने उन्हें अपने पास रखने में उन दोनों को भला कौन सी परेशानी हो जाती? सुखदुख, हारीबीमारी, छोटीमोटी परेशानियां तो सदा इंसान के साथ लगी रहती हैं, इन से डर कर लोग अपने कर्तव्यों से मुख तो नहीं मोड़ लेते?

न्यूयार्क पहुंचने के 15 दिन बाद ही दीपेश और अनुपमा नानानानी बन सुख से अभिभूत हो उठे. अंकिता की पुत्री आकांक्षा को गोद में उठा कर एकाएक उन्हें लगा कि उन की सारी मनोकामनाएं पूरी हो गई हैं.

अंकिता उन की इकलौती पुत्री थी, उन की सारी आशाओं का केंद्रबिंदु थी. उस का विवाह आशुतोष से इतनी दूर करते हुए बहुत सी आशंकाएं उन के मन में जगी थीं पर अपने मित्र रमाकांत के समझाने व अंकिता की आशुतोष में रुचि देख कर बेमन से विवाह तो कर दिया था पर जानेअनजाने दूरी के कारण उस से न मिल पाने की बेबसी उन्हें कष्ट पहुंचा ही देती थी. लेकिन अब बेटी का सुखी घरसंसार देख कर उन की आंखें भर आईं.

आकांक्षा भी थोड़ी बड़ी हो चली थी अत: आशुतोष और अंकिता सप्ताहांत में उन्हें कहीं न कहीं घुमाने का कार्यक्रम बना लेते. स्टैच्यू औफ लिबर्टी के सौंदर्य ने उन का मन मोह लिया था, एंपायर स्टेट बिल्ंिडग को देख कर वे चकित थे, उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि 102 मंजिली इमारत, वह भी आज से 67-68 वर्ष पूर्व कोई बना सकता है और इतनी ऊंची इमारत भी कहीं कोई हो सकती है.

टाइम स्क्वायर की चहलपहल देख कर लगा सचमुच ही किसी ने कहा है कि न्यूयार्क कभी सोता नहीं है, वहीं मैडम तुसाद म्यूजियम में मोम की प्रतिमाएं इतनी सजीव लग रही थीं कि विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वे मोम की बनी हैं. वहां की साफसफाई, गगनचुंबी इमारतों, चौड़ी सड़कों व ऐलीवेटरों पर तेजी से उतरतेचढ़ते लोगों को देख कर वे अभिभूत थे, वहां जीवन चल नहीं रहा था बल्कि दौड़ रहा था.

आशुतोष और अंकिता ने मम्मीपापा के लिए वाश्ंिगटन और नियाग्रा फौल देखने के लिए टिकट बुक करने के साथ होटल की बुकिंग भी करवा दी थी. उन के साथ वे दोनों भी जाना चाहते थे पर आकांक्षा के छोटी होने के कारण नहीं जा पाए. वाश्ंिगटन में जहां केनेडी स्पेस म्यूजियम देखा वहीं वाइटहाउस तथा सीनेट की भव्य इमारत ने आकर्षित किया. वार मैमोरियल, लिंकन और रूजवैल्ट मैमोरियल ने यह सोचने को मजबूर किया कि यहां के लोग इतने आत्मकेंद्रित नहीं हैं जितना कि उन्हें प्रचारित किया जाता रहा है. अगर ऐसा होता तो ये मेमोरियल नहीं होते.

नियाग्रा फौल की खूबसूरती तो देखते ही बनती थी. हमारे होटल का कमरा भी फैल व्यू पर था. यहां आ कर अनु तो इतनी अभिभूत हो गई कि उस के मुंह से बस एक ही बात निकलती थी, ‘मेरी सारी शिकायतें दूर हो गईं. जिंदगी का मजा जो हम पहले नहीं ले पाए, अब ले रहे हैं. मन करता है इस दृश्य को आंखों में भर लूं और खोलूं ही नहीं.’ उस का उतावलापन देख कर ऐसा लगता था मानो वह 20-25 वर्ष की युवती बन गई है, वैसी ही जिद, प्यार और मनुहार, लगता था समय ठहर जाए. पर ऐसा कब हो पाया है? समय की अबाध धारा को भला कोई रोक पाया है?

देखतेदेखते उन के लौटने के दिन नजदीक आते जा रहे थे. उन्होंने अपने रिश्तेदारों के लिए उपहार खरीदने प्रारंभ कर दिए. एक डिपार्टमैंटल स्टोर से दूसरे डिपार्टमैंटल स्टोर, एक मौल से दूसरे मौल के चक्कर काटने में ही सुबह से शाम हो जाती थी. सब के लिए उपहार खरीदना वास्तव में कष्टप्रद था लेकिन इतनी दूर आ कर सब के लिए कुछ न कुछ ले जाना भी आवश्यक था. वैसे भी विदेशी वस्तुओं के आकर्षण से भारतीय अभी मुक्त नहीं हो पाए हैं. यह बात अनु के बेतहाशा शौपिंग करने से स्पष्ट परिलक्षित भी हो रही थी.

एकदो बार तो दीपेश ने उसे टोका तो वह बोली, ‘‘जीवन में पहली बार तो घर से निकली हूं, कम से कम अब तो अपने अरमान पूरे कर लेने दो, वैसे भी इतनी अच्छी चीजें भारत में कहां मिलेंगी?’’

अब उसे कौन समझाता कि विकेंद्रीकरण के इस युग में भारत भी किसी से पीछे नहीं है. यहां का बाजार भी इस तरह की विभिन्न वस्तुओं से भरा पड़ा है. लेकिन इन्हीं वस्तुओं को हम भारत में महंगी या अनुपयोगी समझ कर नहीं खरीदते हैं.

अंकिता और आशुतोष के सहयोग से खरीदारी का काम भी पूरा हो गया. अंत में रमाकांत और उन की पत्नी विभा के लिए उपहार खरीदने की उन की पेशकश पर अंकिता को आश्चर्यचकित देख कर वे बोले, ‘‘बेटी, वे पराए अवश्य हैं लेकिन तुम यह क्यों भूल रही हो कि इस समय तुम्हारी दादी की देखभाल की जिम्मेदारी निभा कर उन्होंने अपनों से अधिक हमारा साथ दिया है वरना हमारा तुम्हारे पास आना भी संभव न हो पाता. परिवार के सदस्यों के लिए उपहार ले जाना मेरी नजर में रस्मअदायगी है लेकिन उन के लिए उपहार ले जाना मेरा कर्तव्य है.’’

लौटने पर अभी व्यवस्थित भी नहीं हो पाए थे कि भाई दिनेश और बहन दीपा सपरिवार आ गए, क्रोध भी आया कि यह भी नहीं सोचा कि 6 महीने के पश्चात घर लौटने पर फिर से व्यवस्थित होने में समय लगता है. दीपेश के चेहरे पर गुस्सा देख अनु ने उन्हें किनारे ले जा कर धीरे से कहा, ‘‘गुस्सा थूक दीजिए. यह सोच कर खुश होने का प्रयत्न कीजिए कि कम से कम इस समय तो सब ने आ कर हमारा मान बढ़ाया है. आप बड़े हैं भूलचूक माफ कर बड़प्पन दिखाइए.’’

अनु की बात सुन कर दीपेश ने मन के क्रोध को दबाया सकारात्मक सोच से उन का स्वागत किया. खुशी तो उन्हें इस बात पर हो रही थी कि सदा झुंझलाने वाली अनु सब को देख कर अत्यंत खुश थी. शायद, उसे अपने विदेश प्रवास का आंखों देखा हाल सुनाने के लिए कोई तो चाहिए था या इतने दिनों तक घरपरिवार के झंझटों से मुक्त रहने तथा मनमाफिक भ्रमण करने के कारण उस का तनमन खुशियों से ओतप्रोत था और अपनी इसी खुशी में सभी को सम्मिलित कर वह अपनी खुशी दोगुनी करना चाहती थी.

‘‘मैं ने और अनु ने काफी सोचविचार के पश्चात तुम सभी के लिए उपहार खरीदे हैं, आशा है पसंद आएंगे,’’ शाम को फुरसत के क्षणों में दीपेश ने सूटकेस खोल कर प्रत्येक को उपहार पकड़ाते हुए कहा.

अटैची खाली हो चुकी थी. उस में एक पैकेट पड़ा देख कर सब की निगाहें उसी पर टिकी थीं. उसे उठा कर अनु को देखते हुए दीपेश ने कहा, ‘‘यह उपहार रमाकांत और विभा भाभी के लिए है, जा कर उन्हें दे आओ.’’

‘‘लेकिन उन के लिए उपहार लाने की क्या आवश्यकता थी?’’ अम्मा ने प्रश्नवाचक नजरों से पूछा.

‘‘अम्मा, शायद तुम भूल गईं कि तुम्हारे अपने जो तुम्हें कुछ माह भी अपने पास रखने को तैयार नहीं हुए थे, उस समय रमाकांत और उन की पत्नी विभा ने न केवल हमारी समस्या को समझा बल्कि तुम्हारी देखभाल की जिम्मेदारी उठाने को भी सहर्ष तैयार हो गए. अम्मा, तुम्हारी निगाहों में उन की भलमनसाहत की भले ही कोई कीमत न हो या तुम्हारे लिए वे आज भी पराए हों पर मेरे लिए आज रमाकांत पराए हो कर भी मेरे अपनों से बढ़ कर हैं,’’ कहते हुए दीपेश के स्वर में न चाहते हुए भी कड़वाहट आ गई.

अनु उपहार ले कर रमाकांत और विभा भाभी को देने चली गई थी. सच बात सुन कर सब के चेहरे उतर गए थे. दीपेश जानते थे कि उन के अपने उन से उपहार प्राप्त कर के भी खुश नहीं हैं क्योंकि वे उन के प्रेम से लाए उपहारों को पैसे के तराजू पर तौल रहे हैं जबकि रमाकांत और विभा उन से प्राप्त उपहारों को देख कर फूले नहीं समा रहे होंगे क्योंकि उन्हें उन से कोई अपेक्षा नहीं थी. उन्होंने एक मां की सेवा कर मानवीय धर्म निभाया है.

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‘‘भैया, आप तो जानते हैं कि बीना को दिल की बीमारी है, वह दूसरे का तो क्या, अपना भी खयाल नहीं रख पाती है और मेरा टूरिंग जौब है. हमारा मां को रखना संभव नहीं हो पाएगा.’’

‘‘भैया, मैं मां को रख तो लेती लेकिन महीनेभर बाद ही पिंकी, पम्मी की परीक्षाएं प्रारंभ होने वाली हैं. घर भी छोटा है. इसलिए चाह कर भी मैं मां को अपने साथ रख पाने में असमर्थ हूं.’’

दिनेश और दीपा से लगभग एक सा उत्तर सुन कर दीपेश एकाएक सोच नहीं पा रहे थे कि वे क्या करें? पुत्री अंकिता की मई में डिलीवरी है. उस के सासससुर के न होने के कारण बड़े आग्रह से विदेशवासी दामाद आशुतोष और अंकिता ने उन्हें कुछ महीनों के लिए बुलाया था, टिकट भी भेज दिए थे. अनुपमा का कहना था कि 6 महीनों की ही तो बात है, कुछ दिन अम्माजी भैया या दीदी के पास रह लेंगी.

इसी आशय से उन्होंने दोनों जगह फोन किए थे किंतु दोनों जगह से ही सदा की तरह नकारात्मक रुख पा कर वे परेशान हो उठे थे. अनु अलग मुंह फुलाए बैठी थी.

‘‘अम्माजी पिछले 30 वर्षों से हमारे पास रह रही हैं और अब जब 6 महीने उन्हें अपने पास रखने की बात आई तो एक की बीवी की तबीयत ठीक नहीं है और दूसरे का घर छोटा है. हमारे साथ भी इस तरह की अनेक परेशानियां कई बार आईं पर उन परेशानियों का रोना रो कर हम ने तो उन्हें रखने के लिए कभी मना नहीं किया,’’ क्रोध से बिफरते हुए अनु ने कहा.

दिनेश सदा मां के प्रति अपनी जिम्मेदारी से कोई न कोई बहाना बना कर बचता और जब भी दीपेश कहीं जाने का प्रोग्राम बनाते तो वह बनने से पूर्व ही ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता था. यदि वे मां को साथ ले भी जाना चाहते तो वे कह देतीं, ‘‘बेटा, इस उम्र में अब मुझ से घूमनाफिरना नहीं हो पाएगा. वैसे भी तुम्हारे पिता की मृत्यु के पश्चात मैं ने बाहर का खाना छोड़ दिया है. इसलिए मैं कहीं नहीं जाऊंगी.’’

वे मां को कभी भी अकेला छोड़ कर कहीं जा नहीं पाए और न ही मां ने ही कभी अपने मन से उन्हें कहीं घूमने जाने को कहा. उन्हें याद नहीं आता कि वे कभी अनु को कहीं घुमाने ले गए हों. आज अंकिता ने उन्हें बुलाया है तब भी यही समस्या उठ खड़ी हुई है. पोती को ऐसी हालत में अकेली जान कर इस बार मां ने भी उन्हें जाने की इजाजत दे दी थी लेकिन दिनेश और दीपा के पत्रों ने उन की समस्या को बढ़ा दिया था.

अनु जहां इन पत्रों को पढ़ कर क्रोधित हो उठी थी वहीं मां अपराधबोध से ग्रस्त हो उठी थीं. उन की समस्या को देख कर मां ने आग्रहयुक्त स्वर में कहा था, ‘‘तुम लोग चले जाओ, बेटा, मैं अकेली रह लूंगी, 6 महीने की ही तो बात है, श्यामा नौकरानी मेरे पास सो जाया करेगी.’’

अनु और मां का रिश्ता भले ही कड़वाहट से भरपूर था पर समय के साथ उन में आपस में लगाव भी हो गया था. शायद इसीलिए मां के शब्द सुन कर पहली बार अनु के मन में उन के लिए प्रेम उमड़ आया था किंतु वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे? इस उम्र में उन्हें अकेले छोड़ने का उस का भी मन नहीं था. यही हालत दीपेश की भी थी. एक ओर पुत्री का मोह उन्हें विवश कर रहा था तो दूसरी ओर कर्तव्यबोध उन के पैरों में बेडि़यां पहना रहा था.

अभी वे सोच ही रहे थे कि पड़ोसी रमाकांत ने घर में प्रवेश किया और उन की उदासी का कारण जान कर बोले, ‘‘बस, इतनी सी समस्या के कारण आप लोग परेशान हैं. हम से पहले क्यों नहीं कहा? वे जैसी आप की मां हैं वैसी ही हमारी भी तो मां हैं. आप दोनों निश्ंिचत हो कर बेटी की डिलीवरी के लिए जाइए, मांजी की जिम्मेदारी हमारे ऊपर छोड़ दीजिए. उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी.

6 महीने तो क्या, आप चाहें तो और भी रह सकते हैं, बारबार तो विदेश जाना हो नहीं पाता, अत: अच्छी तरह घूमफिर कर ही आइएगा.’’

रमाकांतजी की बातें सुन कर मांजी का चेहरा खिल उठा, मानो उन के दिल पर रखा बोझ उतर गया हो और उन्होंने स्वयं रमाकांत की बात का समर्थन कर उन्हें जाने के लिए प्रोत्साहित किया.

पुत्री का मोह उन से वह करवा गया था जो वे पिछले 30 वर्षों में नहीं कर पाए थे. 2 दिन बाद ही वे न्यूयार्क के लिए रवाना हो गए. वे पहली बार घर से बाहर निकले पर फिर भी मन में वह खुशी और उमंग नहीं थी. उन्हें लगता था कि वे अपना मन वहीं छोड़ कर कर्तव्यों की बेडि़यों में बंधे जबरदस्ती चले आए हैं. यद्यपि वे हर हफ्ते ही फोन द्वारा मां का हालचाल लेते रहते थे लेकिन उन्हें यही बात बारबार चुभचुभ कर लहूलुहान करती रहती थी कि आवश्यकता के समय उन के अपनों ने उन का साथ नहीं दिया.

यहां तक कि उन की भावनाओं को समझने से भी इनकार कर दिया. वहीं, उन के पड़ोसी मित्र रमाकांत उन की अनुपस्थिति में सहर्ष मां की जिम्मेदारी उठाने को तैयार हो गए. वे समझ नहीं पा रहे थे कौन अपना है कौन पराया, खून के रिश्ते या आपसी आवश्यकताओं को निभाते दिल के रिश्ते…

कैसे हैं ये खून के रिश्ते जिन में एकदूसरे के लिए प्यार, विश्वास यहां तक कि सुखदुख में साथ निभाने की कर्तव्यभावना भी आज नहीं रही है. वे मानवीय संवेदनाए, भावनाएं कहां चली गईं जब एकदूसरे के सुखदुख में पूरा परिवार एकजुट हो कर खड़ा हो जाता था. दिनेश और दीपा उन की मजबूरी को क्यों नहीं समझ पाए. वे अंकिता के पास महज घूमने तो जा नहीं रहे थे कि अपना प्रोग्राम बदल देते या कैंसिल कर  देते. मां सिर्फ उन की ही नहीं, उन दोनों की भी तो हैं. जब वे पिछले 30 वर्षों से उन की देखभाल कर रहे हैं तो मात्र कुछ महीने उन्हें अपने पास रखने में उन दोनों को भला कौन सी परेशानी हो जाती? सुखदुख, हारीबीमारी, छोटीमोटी परेशानियां तो सदा इंसान के साथ लगी रहती हैं, इन से डर कर लोग अपने कर्तव्यों से मुख तो नहीं मोड़ लेते?

न्यूयार्क पहुंचने के 15 दिन बाद ही दीपेश और अनुपमा नानानानी बन सुख से अभिभूत हो उठे. अंकिता की पुत्री आकांक्षा को गोद में उठा कर एकाएक उन्हें लगा कि उन की सारी मनोकामनाएं पूरी हो गई हैं.

अंकिता उन की इकलौती पुत्री थी, उन की सारी आशाओं का केंद्रबिंदु थी. उस का विवाह आशुतोष से इतनी दूर करते हुए बहुत सी आशंकाएं उन के मन में जगी थीं पर अपने मित्र रमाकांत के समझाने व अंकिता की आशुतोष में रुचि देख कर बेमन से विवाह तो कर दिया था पर जानेअनजाने दूरी के कारण उस से न मिल पाने की बेबसी उन्हें कष्ट पहुंचा ही देती थी. लेकिन अब बेटी का सुखी घरसंसार देख कर उन की आंखें भर आईं.

आकांक्षा भी थोड़ी बड़ी हो चली थी अत: आशुतोष और अंकिता सप्ताहांत में उन्हें कहीं न कहीं घुमाने का कार्यक्रम बना लेते. स्टैच्यू औफ लिबर्टी के सौंदर्य ने उन का मन मोह लिया था, एंपायर स्टेट बिल्ंिडग को देख कर वे चकित थे, उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि 102 मंजिली इमारत, वह भी आज से 67-68 वर्ष पूर्व कोई बना सकता है और इतनी ऊंची इमारत भी कहीं कोई हो सकती है.

टाइम स्क्वायर की चहलपहल देख कर लगा सचमुच ही किसी ने कहा है कि न्यूयार्क कभी सोता नहीं है, वहीं मैडम तुसाद म्यूजियम में मोम की प्रतिमाएं इतनी सजीव लग रही थीं कि विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वे मोम की बनी हैं. वहां की साफसफाई, गगनचुंबी इमारतों, चौड़ी सड़कों व ऐलीवेटरों पर तेजी से उतरतेचढ़ते लोगों को देख कर वे अभिभूत थे, वहां जीवन चल नहीं रहा था बल्कि दौड़ रहा था.

आशुतोष और अंकिता ने मम्मीपापा के लिए वाश्ंिगटन और नियाग्रा फौल देखने के लिए टिकट बुक करने के साथ होटल की बुकिंग भी करवा दी थी. उन के साथ वे दोनों भी जाना चाहते थे पर आकांक्षा के छोटी होने के कारण नहीं जा पाए. वाश्ंिगटन में जहां केनेडी स्पेस म्यूजियम देखा वहीं वाइटहाउस तथा सीनेट की भव्य इमारत ने आकर्षित किया. वार मैमोरियल, लिंकन और रूजवैल्ट मैमोरियल ने यह सोचने को मजबूर किया कि यहां के लोग इतने आत्मकेंद्रित नहीं हैं जितना कि उन्हें प्रचारित किया जाता रहा है. अगर ऐसा होता तो ये मेमोरियल नहीं होते.

नियाग्रा फौल की खूबसूरती तो देखते ही बनती थी. हमारे होटल का कमरा भी फैल व्यू पर था. यहां आ कर अनु तो इतनी अभिभूत हो गई कि उस के मुंह से बस एक ही बात निकलती थी, ‘मेरी सारी शिकायतें दूर हो गईं. जिंदगी का मजा जो हम पहले नहीं ले पाए, अब ले रहे हैं. मन करता है इस दृश्य को आंखों में भर लूं और खोलूं ही नहीं.’ उस का उतावलापन देख कर ऐसा लगता था मानो वह 20-25 वर्ष की युवती बन गई है, वैसी ही जिद, प्यार और मनुहार, लगता था समय ठहर जाए. पर ऐसा कब हो पाया है? समय की अबाध धारा को भला कोई रोक पाया है?

देखतेदेखते उन के लौटने के दिन नजदीक आते जा रहे थे. उन्होंने अपने रिश्तेदारों के लिए उपहार खरीदने प्रारंभ कर दिए. एक डिपार्टमैंटल स्टोर से दूसरे डिपार्टमैंटल स्टोर, एक मौल से दूसरे मौल के चक्कर काटने में ही सुबह से शाम हो जाती थी. सब के लिए उपहार खरीदना वास्तव में कष्टप्रद था लेकिन इतनी दूर आ कर सब के लिए कुछ न कुछ ले जाना भी आवश्यक था. वैसे भी विदेशी वस्तुओं के आकर्षण से भारतीय अभी मुक्त नहीं हो पाए हैं. यह बात अनु के बेतहाशा शौपिंग करने से स्पष्ट परिलक्षित भी हो रही थी.

एकदो बार तो दीपेश ने उसे टोका तो वह बोली, ‘‘जीवन में पहली बार तो घर से निकली हूं, कम से कम अब तो अपने अरमान पूरे कर लेने दो, वैसे भी इतनी अच्छी चीजें भारत में कहां मिलेंगी?’’

अब उसे कौन समझाता कि विकेंद्रीकरण के इस युग में भारत भी किसी से पीछे नहीं है. यहां का बाजार भी इस तरह की विभिन्न वस्तुओं से भरा पड़ा है. लेकिन इन्हीं वस्तुओं को हम भारत में महंगी या अनुपयोगी समझ कर नहीं खरीदते हैं.

अंकिता और आशुतोष के सहयोग से खरीदारी का काम भी पूरा हो गया. अंत में रमाकांत और उन की पत्नी विभा के लिए उपहार खरीदने की उन की पेशकश पर अंकिता को आश्चर्यचकित देख कर वे बोले, ‘‘बेटी, वे पराए अवश्य हैं लेकिन तुम यह क्यों भूल रही हो कि इस समय तुम्हारी दादी की देखभाल की जिम्मेदारी निभा कर उन्होंने अपनों से अधिक हमारा साथ दिया है वरना हमारा तुम्हारे पास आना भी संभव न हो पाता. परिवार के सदस्यों के लिए उपहार ले जाना मेरी नजर में रस्मअदायगी है लेकिन उन के लिए उपहार ले जाना मेरा कर्तव्य है.’’

लौटने पर अभी व्यवस्थित भी नहीं हो पाए थे कि भाई दिनेश और बहन दीपा सपरिवार आ गए, क्रोध भी आया कि यह भी नहीं सोचा कि 6 महीने के पश्चात घर लौटने पर फिर से व्यवस्थित होने में समय लगता है. दीपेश के चेहरे पर गुस्सा देख अनु ने उन्हें किनारे ले जा कर धीरे से कहा, ‘‘गुस्सा थूक दीजिए. यह सोच कर खुश होने का प्रयत्न कीजिए कि कम से कम इस समय तो सब ने आ कर हमारा मान बढ़ाया है. आप बड़े हैं भूलचूक माफ कर बड़प्पन दिखाइए.’’

अनु की बात सुन कर दीपेश ने मन के क्रोध को दबाया सकारात्मक सोच से उन का स्वागत किया. खुशी तो उन्हें इस बात पर हो रही थी कि सदा झुंझलाने वाली अनु सब को देख कर अत्यंत खुश थी. शायद, उसे अपने विदेश प्रवास का आंखों देखा हाल सुनाने के लिए कोई तो चाहिए था या इतने दिनों तक घरपरिवार के झंझटों से मुक्त रहने तथा मनमाफिक भ्रमण करने के कारण उस का तनमन खुशियों से ओतप्रोत था और अपनी इसी खुशी में सभी को सम्मिलित कर वह अपनी खुशी दोगुनी करना चाहती थी.

‘‘मैं ने और अनु ने काफी सोचविचार के पश्चात तुम सभी के लिए उपहार खरीदे हैं, आशा है पसंद आएंगे,’’ शाम को फुरसत के क्षणों में दीपेश ने सूटकेस खोल कर प्रत्येक को उपहार पकड़ाते हुए कहा.

अटैची खाली हो चुकी थी. उस में एक पैकेट पड़ा देख कर सब की निगाहें उसी पर टिकी थीं. उसे उठा कर अनु को देखते हुए दीपेश ने कहा, ‘‘यह उपहार रमाकांत और विभा भाभी के लिए है, जा कर उन्हें दे आओ.’’

‘‘लेकिन उन के लिए उपहार लाने की क्या आवश्यकता थी?’’ अम्मा ने प्रश्नवाचक नजरों से पूछा.

‘‘अम्मा, शायद तुम भूल गईं कि तुम्हारे अपने जो तुम्हें कुछ माह भी अपने पास रखने को तैयार नहीं हुए थे, उस समय रमाकांत और उन की पत्नी विभा ने न केवल हमारी समस्या को समझा बल्कि तुम्हारी देखभाल की जिम्मेदारी उठाने को भी सहर्ष तैयार हो गए. अम्मा, तुम्हारी निगाहों में उन की भलमनसाहत की भले ही कोई कीमत न हो या तुम्हारे लिए वे आज भी पराए हों पर मेरे लिए आज रमाकांत पराए हो कर भी मेरे अपनों से बढ़ कर हैं,’’ कहते हुए दीपेश के स्वर में न चाहते हुए भी कड़वाहट आ गई.

अनु उपहार ले कर रमाकांत और विभा भाभी को देने चली गई थी. सच बात सुन कर सब के चेहरे उतर गए थे. दीपेश जानते थे कि उन के अपने उन से उपहार प्राप्त कर के भी खुश नहीं हैं क्योंकि वे उन के प्रेम से लाए उपहारों को पैसे के तराजू पर तौल रहे हैं जबकि रमाकांत और विभा उन से प्राप्त उपहारों को देख कर फूले नहीं समा रहे होंगे क्योंकि उन्हें उन से कोई अपेक्षा नहीं थी. उन्होंने एक मां की सेवा कर मानवीय धर्म निभाया है.

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December 17, 2021 at 01:01PM

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