Monday 31 May 2021

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महाराष्ट्र में मराठा छात्रों का बल्ले-बल्ले, मिलेगा नौकरी और शिक्षा में 10% EWS ...

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UIDAI Recruitment 2021: इन 25 पदों पर निकली वैकेंसी, जानें क्या ...

... या पे मैट्रिक्स लेवल 7 में किसी पद पर पिछले तीन साल से नियमित नौकरी करनी चाहिए.

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ABP Positive Story: प्राइवेट नौकरी छोड़कर सोनू सूद को माना ...

पिता की मौत के बाद छोड़ दी नौकरी, पटना आकर अब लॉकडाउन में कर रहे हैं मदद. Abp positive story ...

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महामारी में जान गवाने वाले कर्मियों के स्वजन को ...

... के परिवार को नौकरी, पारिवारिक पेंशन दिया जाना न्योचित है। वाईके दूबे ने कहा कि ...

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... के परिवार को नौकरी, पारिवारिक पेंशन दिया जाना न्योचित है। वाईके दूबे ने कहा कि ...

भूख : लाजो अपने बच्चों के लिए खाने का इंतजाम कैसे करती थी

लाजो आज घर से भूखे पेट ही काम पर निकली थी. कल शाम बंगलों से मिले बचे-खुचे भोजन को उसने सुबह बच्चों की थाली में डाल दिया था. बच्चे कुछ ज्यादा ही भूखे थे. जरा देर में थाली सफाचट हो गयी थी. लाजो के लिए दो निवाले भी न बचे. लाजो ने लोटा भर पानी हलक में उंडेला और काम पर निकल गयी. सोचा किसी बंगले की मालकिन से कुछ मांग कर पेट भर लेगी.

लाजो एक रिहायशी कॉलोनी के करीब बसी झुग्गी-बस्ती में रहती है. पास की पांच-छह कोठियों में उसने झाड़ू-पोंछे और बर्तन मांजने का काम पकड़ रखा है. पांच बरस पहले जब उसका पति ज्यादा शराब पीने के कारण मरा था तब उसका सोनू पेट में ही था. उसके ऊपर दो बिटियां थीं. तीन बच्चों का पेट पालना इस मंहगाई में अकेली लाजो के लिए कितना मुश्किल था, यह सिर्फ वो ही जानती है. किराए की झुग्गी है. बच्चों को पास के प्राइमरी स्कूल में डाल रखा है. घर के किराए, बच्चों के कपड़े, फीस, किताबों में उसकी सारी कमाई छूमंतर हो जाती है. महीने बीत जाते हैं बच्चों को दूध-दही का स्वाद चखे. घर में खाना कभी-कभी ही बनता है. सच पूछो तो बंगलों से मिलने वाली जूठन पर ही उसका परिवार पल रहा है.

ये भी पढ़ें- मदर्स डे स्पेशल: मां, तुम गंदी हो

लाजो, पहली कोठी में काम के लिए घुसी तो मेमसाहब ने कहा, ‘लाजो, आज बर्तन नहीं है, साफ-सफाई के बाद ये लिस्ट लेकर सामने किराने की दुकान पर चली जाना. यह सारा सामान ले आना. साहब बात कर आये हैं. आज से नवरात्रे हैं. साराउपवास का सामान है. हाथ अच्छी तरह धो कर जाना.’

लाजो थैला लेकर किराने की दुकान पर पहुंची तो लिस्ट में लिखा सामान लाला ने निकाल कर उसके सामने रख दिय. प्लास्टिक की थैलियों में भरे मखाने, छुहारे, राजगिरी, सूखे मेवे, आलू और अरारोट के चिप्स, पापड़, देसी घी के डिब्बे और न जाने क्या-क्या, जिनके बारे में लाजो ने न कभी सुना था और न ही देखा था. उपवास में ऐसा भोजन? इसका मतलब आज उसको इस घर से बचा-खुचा रोटी-दाल नहीं मिलने वाला. उसका मन भारी हो गया. बच्चों के भूखे चेहरे आंखों के सामने नाचने लगे. उसके बाद के दो घरों में भी व्रत-पूजा के कारण लाजो को रोटी नहीं मिली. बस एक घर में चाय ही मिल पायी, जो उसके पेट की आग का दमन करने में असमर्थ रही. लाजों को अब ज्यादा चिन्ता इस बात की होने लगी कि अगर किसी घर से बचा हुआ खाना न मिला तो दोपहर को घर लौट कर वह बच्चों की थाली में क्या रखेगी?

उसका ध्यान धोती के छोर में बंधे पैसों की ओर गया. उसने खोल कर देखा. एक दस का नोट और पांच के तीन नोट के साथ चंद सिक्के ही थे. पूरा महीना सिर पर था, यह पैसे भी खर्च नहीं कर सकती थी. वह तेजी से चौथे बंगले की ओर चल दी. मल्होत्रा साहब की कोठी थी. ये लोग आर्यसमाजी थे. लाजो ने उनके वहां धार्मिक कर्मकांड कभी नहीं देखे थे. उनकी औरत तो व्रत-उपवास भी नहीं करती थी. उसको उम्मीद थी कि वहां तो जरूर रोटी मिल जाएगी.

ये भी पढ़ें- कोठे से वापसी

तीसरी गली के बंगला नं. 5 के आगे भीड़ लगी थी. लोग कई कई गुटों में खड़े बातचीत कर रहे थे. लाजो का दिल किसी अनहोनी से धड़कने लगा. बाहर खड़ी एक महिला से पूछा तो पता चला मल्होत्रा साहब नहीं रहे. आज ग्यारह बजे उनका देहावसान हो गया. अंदर फर्श पर अर्थी पड़ी थी. घर की औरतें अर्थी को घेरे विलाप कर रही थीं. लाजो एक कोने में जाकर बैठ गयी. दो घंटे बीत गये. लोगों का तांता लगा हुआ था, अर्थी उठने का नाम ही नहीं ले रही थी. लाजो को खीज लगने लगी. उसकी आंतें भूख से कुलबुला रही थीं. उसे रह-रह कर अपने बच्चे भी याद आ रहे थे. कोठरी के दरवाजे पर मां का इंतजार करते भूखे बैठे होंगे.

दोपहर 2 बजे जाकर कहीं अर्थी उठी. मल्होत्रा मेमसाहब के दारुण क्रंदन से लाजो की आंखें भी भर आयीं. स्वयं के साथ घटित घटनाक्रम चलचित्र की तरह आंखों के सामने घूम गया, जब उसके पति की मृत्यु हुई थी. स्वयं का विलाप और दोनों बेटियों का हिचकियां लेकर रोना याद कर उसका गला रुंध गया.

अर्थी जा चुकी थी. घर में मरघर सा सन्नाटा पसरा था. रिश्तेदार अपने-अपने घर लौट गये थे. मेमसाहब बच्चों सहित अपने कमरे में बंद हो गयी थीं. जवानी में सुहाग उजड़ गया. छोटे-छोटे बच्चे थे. बेचारी. लाजो ने ड्राइंगरूम ठीक करना शुरू किया. सारा फर्नीचर जो अर्थी रखने के लिए इधर-उधर खिसका दिया गया था, लाजो ने अकेले खींच-खींच कर जगह पर लगाया. फिर पूरे घर में झाड़ू पोछा किया. सारा काम निपटाते-निपटाते साढ़े तीन बज गये. उसकी भूख भी खत्म हो चुकी थी, मगर बच्चों की भूख याद करके उसकी चिन्ता बढ़ती जा रही थी. काम खत्म करके वह मल्होत्रा साहब की बूढ़ी मां के पास आकर बैठ गयी. थोड़ी देर बाद बड़ी मुश्किल से बोली, ‘अम्माजी, मैं जाऊं क्या? कोई काम हो तो छह बजे तक फिर से आ जाऊंगी. बच्चे घर में अकेले मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे. भूखे होंगे.’

ये भी पढ़ें- विश्वास का मोल : आशीष को अपने पैदा होने पर क्यों पछतावा हो रहा था – भाग 2

अम्माजी ने हामी भरी तो वह उठी. घर जाकर पहले नहाना होगा. फिर कुछ न कुछ तो पकाना ही पड़ेगा. चाहे पन्द्रह रुपये के चावल ही जाते वक्त खरीद लेगी. वह चलने को हुई तो पीछे से अम्माजी की आवाज आयी, ‘लाजो, जरा रुकना.

लाजो पलट कर उनके पास पहुंची तो बूढ़ी औरत ने धीमे स्वर में कहा, ‘लाजो, घर से मिट्टी उठी है, सूतक लगा है. आज दोपहर का भोजन तो पक चुका था. मगर खाएगा तो कोई नहीं. रसोई में पड़ा है. सारा तू ले जा.’

लाजो की आंखें एकबारगी चमक उठीं. भागते कदमों से रसोई में पहुंची. रसोई में कढ़ाई भर कर पत्तागोभी की सब्जी, दाल, पनीर का तरी वाली सब्जी, गर्म डिब्बे में रखी रोटियां, भात, पापड़, अचार और न जाने क्या-क्या रखा था. अम्माजी ने कुछ साफ पोलिथीन की थैलियां लाजो को पकड़ा दीं. लाजो ने फटाफट सारा खाना भर लिया. वह तेजी से दरवाजे की ओर बढ़ी कि जल्दी-जल्दी पहुंच कर बच्चों का पेट भर दे कि अचानक उसके कदम ठिठक गये. यह खाना उस घर का था, जहां से अभी-अभी एक अर्थी उठी थी. सूतक लगे घर का खाना. क्या यह खाना वह अपने बच्चों को खिलाएगी? कोई अपशगुन तो न हो जाएगा? वह सन्न खड़ी हो गयी कि सूतक लगे घर का खाना लेकर जाए या न जाए? बंगलों से बचा-खुचा ले जाना अभी तक उसकी नियति थी. उसकी परिस्थितियां ही ऐसी थीं. ऐसे में सूतक लगे घर का खाना ले जाना भी तो परिस्थितियों के साथ समझौता ही था. पेट के आगे क्या शगुन, क्या अपशगुन?

ये भी पढ़ें- जवाबी हमला

दीवार घड़ी ने चार बजने के घंटे बजाए तो उसकी तंद्रा भंग हुई. कशमकश की दलीलों और तर्कों पर स्वयं उसकी और बच्चों की भूख हावी हो चुकी थी. हाथ में खाने का बड़ा सा पैकेट संभाले वह लंबे-लंबे डग भरते हुए घर की ओर भागी जा रही थी. आज मुद्दतों बाद उसको और उसके बच्चों को कम से कम दो वक्त भरपेट और अच्छा खाना नसीब होने वाला था. उसको याद नहीं पड़ता इससे पहले उसने रोटी, सब्जी, दाल, चावल इकट्ठे कब खाये थे?

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लाजो आज घर से भूखे पेट ही काम पर निकली थी. कल शाम बंगलों से मिले बचे-खुचे भोजन को उसने सुबह बच्चों की थाली में डाल दिया था. बच्चे कुछ ज्यादा ही भूखे थे. जरा देर में थाली सफाचट हो गयी थी. लाजो के लिए दो निवाले भी न बचे. लाजो ने लोटा भर पानी हलक में उंडेला और काम पर निकल गयी. सोचा किसी बंगले की मालकिन से कुछ मांग कर पेट भर लेगी.

लाजो एक रिहायशी कॉलोनी के करीब बसी झुग्गी-बस्ती में रहती है. पास की पांच-छह कोठियों में उसने झाड़ू-पोंछे और बर्तन मांजने का काम पकड़ रखा है. पांच बरस पहले जब उसका पति ज्यादा शराब पीने के कारण मरा था तब उसका सोनू पेट में ही था. उसके ऊपर दो बिटियां थीं. तीन बच्चों का पेट पालना इस मंहगाई में अकेली लाजो के लिए कितना मुश्किल था, यह सिर्फ वो ही जानती है. किराए की झुग्गी है. बच्चों को पास के प्राइमरी स्कूल में डाल रखा है. घर के किराए, बच्चों के कपड़े, फीस, किताबों में उसकी सारी कमाई छूमंतर हो जाती है. महीने बीत जाते हैं बच्चों को दूध-दही का स्वाद चखे. घर में खाना कभी-कभी ही बनता है. सच पूछो तो बंगलों से मिलने वाली जूठन पर ही उसका परिवार पल रहा है.

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लाजो, पहली कोठी में काम के लिए घुसी तो मेमसाहब ने कहा, ‘लाजो, आज बर्तन नहीं है, साफ-सफाई के बाद ये लिस्ट लेकर सामने किराने की दुकान पर चली जाना. यह सारा सामान ले आना. साहब बात कर आये हैं. आज से नवरात्रे हैं. साराउपवास का सामान है. हाथ अच्छी तरह धो कर जाना.’

लाजो थैला लेकर किराने की दुकान पर पहुंची तो लिस्ट में लिखा सामान लाला ने निकाल कर उसके सामने रख दिय. प्लास्टिक की थैलियों में भरे मखाने, छुहारे, राजगिरी, सूखे मेवे, आलू और अरारोट के चिप्स, पापड़, देसी घी के डिब्बे और न जाने क्या-क्या, जिनके बारे में लाजो ने न कभी सुना था और न ही देखा था. उपवास में ऐसा भोजन? इसका मतलब आज उसको इस घर से बचा-खुचा रोटी-दाल नहीं मिलने वाला. उसका मन भारी हो गया. बच्चों के भूखे चेहरे आंखों के सामने नाचने लगे. उसके बाद के दो घरों में भी व्रत-पूजा के कारण लाजो को रोटी नहीं मिली. बस एक घर में चाय ही मिल पायी, जो उसके पेट की आग का दमन करने में असमर्थ रही. लाजों को अब ज्यादा चिन्ता इस बात की होने लगी कि अगर किसी घर से बचा हुआ खाना न मिला तो दोपहर को घर लौट कर वह बच्चों की थाली में क्या रखेगी?

उसका ध्यान धोती के छोर में बंधे पैसों की ओर गया. उसने खोल कर देखा. एक दस का नोट और पांच के तीन नोट के साथ चंद सिक्के ही थे. पूरा महीना सिर पर था, यह पैसे भी खर्च नहीं कर सकती थी. वह तेजी से चौथे बंगले की ओर चल दी. मल्होत्रा साहब की कोठी थी. ये लोग आर्यसमाजी थे. लाजो ने उनके वहां धार्मिक कर्मकांड कभी नहीं देखे थे. उनकी औरत तो व्रत-उपवास भी नहीं करती थी. उसको उम्मीद थी कि वहां तो जरूर रोटी मिल जाएगी.

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तीसरी गली के बंगला नं. 5 के आगे भीड़ लगी थी. लोग कई कई गुटों में खड़े बातचीत कर रहे थे. लाजो का दिल किसी अनहोनी से धड़कने लगा. बाहर खड़ी एक महिला से पूछा तो पता चला मल्होत्रा साहब नहीं रहे. आज ग्यारह बजे उनका देहावसान हो गया. अंदर फर्श पर अर्थी पड़ी थी. घर की औरतें अर्थी को घेरे विलाप कर रही थीं. लाजो एक कोने में जाकर बैठ गयी. दो घंटे बीत गये. लोगों का तांता लगा हुआ था, अर्थी उठने का नाम ही नहीं ले रही थी. लाजो को खीज लगने लगी. उसकी आंतें भूख से कुलबुला रही थीं. उसे रह-रह कर अपने बच्चे भी याद आ रहे थे. कोठरी के दरवाजे पर मां का इंतजार करते भूखे बैठे होंगे.

दोपहर 2 बजे जाकर कहीं अर्थी उठी. मल्होत्रा मेमसाहब के दारुण क्रंदन से लाजो की आंखें भी भर आयीं. स्वयं के साथ घटित घटनाक्रम चलचित्र की तरह आंखों के सामने घूम गया, जब उसके पति की मृत्यु हुई थी. स्वयं का विलाप और दोनों बेटियों का हिचकियां लेकर रोना याद कर उसका गला रुंध गया.

अर्थी जा चुकी थी. घर में मरघर सा सन्नाटा पसरा था. रिश्तेदार अपने-अपने घर लौट गये थे. मेमसाहब बच्चों सहित अपने कमरे में बंद हो गयी थीं. जवानी में सुहाग उजड़ गया. छोटे-छोटे बच्चे थे. बेचारी. लाजो ने ड्राइंगरूम ठीक करना शुरू किया. सारा फर्नीचर जो अर्थी रखने के लिए इधर-उधर खिसका दिया गया था, लाजो ने अकेले खींच-खींच कर जगह पर लगाया. फिर पूरे घर में झाड़ू पोछा किया. सारा काम निपटाते-निपटाते साढ़े तीन बज गये. उसकी भूख भी खत्म हो चुकी थी, मगर बच्चों की भूख याद करके उसकी चिन्ता बढ़ती जा रही थी. काम खत्म करके वह मल्होत्रा साहब की बूढ़ी मां के पास आकर बैठ गयी. थोड़ी देर बाद बड़ी मुश्किल से बोली, ‘अम्माजी, मैं जाऊं क्या? कोई काम हो तो छह बजे तक फिर से आ जाऊंगी. बच्चे घर में अकेले मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे. भूखे होंगे.’

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अम्माजी ने हामी भरी तो वह उठी. घर जाकर पहले नहाना होगा. फिर कुछ न कुछ तो पकाना ही पड़ेगा. चाहे पन्द्रह रुपये के चावल ही जाते वक्त खरीद लेगी. वह चलने को हुई तो पीछे से अम्माजी की आवाज आयी, ‘लाजो, जरा रुकना.

लाजो पलट कर उनके पास पहुंची तो बूढ़ी औरत ने धीमे स्वर में कहा, ‘लाजो, घर से मिट्टी उठी है, सूतक लगा है. आज दोपहर का भोजन तो पक चुका था. मगर खाएगा तो कोई नहीं. रसोई में पड़ा है. सारा तू ले जा.’

लाजो की आंखें एकबारगी चमक उठीं. भागते कदमों से रसोई में पहुंची. रसोई में कढ़ाई भर कर पत्तागोभी की सब्जी, दाल, पनीर का तरी वाली सब्जी, गर्म डिब्बे में रखी रोटियां, भात, पापड़, अचार और न जाने क्या-क्या रखा था. अम्माजी ने कुछ साफ पोलिथीन की थैलियां लाजो को पकड़ा दीं. लाजो ने फटाफट सारा खाना भर लिया. वह तेजी से दरवाजे की ओर बढ़ी कि जल्दी-जल्दी पहुंच कर बच्चों का पेट भर दे कि अचानक उसके कदम ठिठक गये. यह खाना उस घर का था, जहां से अभी-अभी एक अर्थी उठी थी. सूतक लगे घर का खाना. क्या यह खाना वह अपने बच्चों को खिलाएगी? कोई अपशगुन तो न हो जाएगा? वह सन्न खड़ी हो गयी कि सूतक लगे घर का खाना लेकर जाए या न जाए? बंगलों से बचा-खुचा ले जाना अभी तक उसकी नियति थी. उसकी परिस्थितियां ही ऐसी थीं. ऐसे में सूतक लगे घर का खाना ले जाना भी तो परिस्थितियों के साथ समझौता ही था. पेट के आगे क्या शगुन, क्या अपशगुन?

ये भी पढ़ें- जवाबी हमला

दीवार घड़ी ने चार बजने के घंटे बजाए तो उसकी तंद्रा भंग हुई. कशमकश की दलीलों और तर्कों पर स्वयं उसकी और बच्चों की भूख हावी हो चुकी थी. हाथ में खाने का बड़ा सा पैकेट संभाले वह लंबे-लंबे डग भरते हुए घर की ओर भागी जा रही थी. आज मुद्दतों बाद उसको और उसके बच्चों को कम से कम दो वक्त भरपेट और अच्छा खाना नसीब होने वाला था. उसको याद नहीं पड़ता इससे पहले उसने रोटी, सब्जी, दाल, चावल इकट्ठे कब खाये थे?

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June 01, 2021 at 10:00AM

रक्षक-भक्षक : वंदना चाहकर भी उन लड़कियों की मदद क्यों नहीं कर पाई

जीबी रोड दिल्ली की बदनाम जगहों में से एक है. रेड लाइट एरिया. तमाम कोठे, कोठा मालकिनें और देहव्यापार में लगी सैक ड़ों युवतियां यहां इस एरिया में रहती हैं. मैं सेन्ट्रल इंडस्ट्रियल सिक्योरिटी फोर्स (सीआईएसएफ) में सब इंस्पेक्टर के तौर पर तैनात थी. ट्रेनिंग पूरी हुए अभी छह महीना ही हुआ था. नई ज्वाइनिंग थी. एक रोज दिल्ली मेट्रो में सफर के दौरान एक लड़की लेडीज कोच में बेहोश हो गई थी. रात नौ बजे का वक्त था. उस लड़की को संभालने के लिए जो दो लोग आगे बढ़े उनमें एक मैं थी और दूसरी वंदना. तब मैं वंदना को जानती नहीं थी. वह तो उस रोज उस मेट्रो मे मेरी सहयात्रि भर थी. उस बेहोश लड़की को लेकर हम कोच से बाहर आए. तब तक मेट्रो कर्मचारी भी पहुंच गए थे.

काफी देर बाद उस लड़की को होश आया. मैं और वंदना तब तक उसके साथ ही रहे. उसका पता पूछ कर हम रात के ग्यारह बजे ऑटो से उसके घर तक छोड़ने गए. वापसी में मैंने पहली बार वंदना से उसका नाम पूछा था और उसने मेरा. फिर पता चला कि वह एक पत्रकार है, आगरा से दिल्ली आयी है, किसी पत्रिका में काम करती है. वंदना मुझे बहुत कुछ अपनी तरह ही लगी. मेरी ही उम्र की थी. हिम्मती, बेखौफ, तेज, मददगार और मिलनसार. हमारी दोस्ती हो गई. फोन पर लम्बी-लम्बी बातें होतीं. छुट्टी मिलती तो दोनों साथ ही शॉपिंग भी करते और फिल्में भी देखते थे.

ये भी पढ़ें- मदर्स डे स्पेशल: मां, तुम गंदी हो

उस रोज हम रेस्त्रां में बैठे इडली-सांभर खा रहे थे कि अचानक वंदना ने मुझे जीबी रोड चलने का न्योता दे दिया. पुलिस में होते हुए भी मुझे एकबारगी झिझक लगी, मगर फिर मैंने हामी भर दी. पूछा, ‘किस लिए जाना है? क्या स्टोरी करनी है?’

उसने कहा, ‘वहां मेरा एक जासूस है, जब भी वहां कोई नई लड़की या लड़कियों का झुंड आता है, वह मुझे खबर दे देता है. पता चला है कल रात नेपाल से काफी लड़कियां आई हैं, जिनमें से बहुत सी नाबालिग हैं.’
‘अच्छा…’ मुझे आश्चर्य हुआ, ‘लोकल पुलिस को पता है?’ मैंने पूछा.

‘पता तो होगा, सब उनकी नाक के नीचे ही होता है.’ वंदना ने जवाब दिया. मुझे उसकी बात पर यकीन नहीं हुआ, उससे कोफ्त भी हुई कि क्या समझती है ये पुलिस को? मैंने गुस्से में कहा, ‘अगर वहां ऐसा कुछ हुआ है तो पुलिस अब तक कार्रवाई कर चुकी होगी.’

ये भी पढ़ें- दोस्ती: क्यों अनिकेत ने पिता के दबाव में शादी की?

वंदना ने इडली खाते हुए इत्मिनान से जवाब दिया, ‘पुलिस कुछ नहीं करती है, कल चल कर देख लेना. मुझे भी बस स्टोरी करनी है, बौस ने कहा है इसलिए… मैं भी उन पर लिख कर क्या उखाड़ लूंगी, जब सिस्टम ही काम नहीं करता.’

वंदना की बातों ने मुझे खीज से भर दिया था. ये तो सरासर आरोप लग रहा है वर्दी पर. कैसे सहन होता. ट्रेनिंग के दौरान सत्य, न्याय, देशभक्ति, कानून, साहस, वीरता के ढेरों पाठ पढ़े थे, ये लड़की तो उनके पन्ने फाड़ने पर तुली है. बड़ी पत्रकार बनी फिर रही है, कल तो इसके साथ जाना ही होगा.

हम दूसरे दिन दोपहर में वहां पहुंच गए. वंदना के कहने पर मैंने सलवार-सूट और दुपट्टा ओढ़ा हुआ था, जबकि आमतौर पर मैं जींस टीशर्ट ही पहनती हूं, या वर्दी में रहती हूं. वंदना ने एक कोठे के नीचे पहुंच कर किसी को फोन किया. थोड़ी देर में एक दुबला-पतला आदमी आया और वंदना से बोला, ‘मुंह ढंक लीजिए, यहां आप मेरी रिश्तेदार हैं.’

वंदना ने तुरंत अपने दुपट्टे को मुंह पर लपेट लिया, बस आंखें खुली रखीं. मुझे इशारा किया तो मैंने भी वैसा ही किया. वह आदमी हमें लेकर ऊपर कोठे पर चढ़ गया. हम वहां काफी देर एक कमरे में जमीन पर बिछी दरी पर बैठे रहे. वहां तमाम लड़कियां थीं. हर तरफ पर्दे जैसे पड़े थे. ग्राहक आते और लड़कियां उनके साथ पर्दे के पीछे चली जातीं. काफी देर हो गई. मैं बैठे-बैठे उक्ता रही थी. शाम हो चुकी थी. वंदना धीरे-धीरे उस आदमी से बातें कर रही थी. वह इसी कोठे में रहता था. नाम था इदरीस. तभी मैंने छह लड़कियों को अंदर आते देखा. लड़कियां छोटी थीं. यही कोई बारह से पंद्रह वर्ष के बीच की. उनके साथ चार आदमी भी थे. वे सभी अंदर आते ही एक-एक लड़की के साथ पर्दे के पीछे लोप हो गए. दो लड़कियां बच गईं, जो मेरे सामने ही आकर बैठ गईं. मैं हैरानी से देख रही थी.

ये भी पढ़ें- चल रही है मिसाइल

वंदना की बात बिल्कुल सच थी. लड़कियां वाकई नाबालिग थीं. नेपाली थीं. यहां इस कोठे के नीचे ही सटी हुई पुलिस चौकी है, क्या उन्हें अपने एरिया में आने वालों के बारे में पता नहीं लगा होगा? आखिर कैसे ये नाजायज काम यहां आराम से चल रहा है? यह सवाल मेरे मन में उथल-पुथल मचा ही रहा था कि दरवाजे से दो वर्दीधारी भीतर घुसे. कंधे पर चमचमाते बैच बता रहे थे कि दोनों सब इंस्पेक्टर रैंक के थे. मेरे शरीर में अचानक करेंट दौड़ गया. विजयी मुस्कान चेहरे पर आ गई. लो आ गए कानून के रखवाले छापा मारने…
वंदना ने मेरे हाथ पर हाथ रख कर दबाया. खामोश रहने का इशारा दिया. मेरे अंदर जैसे कुछ टूट गया. तड़ाक… तड़ाक… धम्म…. चेहरा निस्तेज हो गया… सामने बैठी दोनों नाबालिग बच्चियां उन दोनों वर्दी वालों के साथ पर्दे के पीछे लोप हो गईं.

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जीबी रोड दिल्ली की बदनाम जगहों में से एक है. रेड लाइट एरिया. तमाम कोठे, कोठा मालकिनें और देहव्यापार में लगी सैक ड़ों युवतियां यहां इस एरिया में रहती हैं. मैं सेन्ट्रल इंडस्ट्रियल सिक्योरिटी फोर्स (सीआईएसएफ) में सब इंस्पेक्टर के तौर पर तैनात थी. ट्रेनिंग पूरी हुए अभी छह महीना ही हुआ था. नई ज्वाइनिंग थी. एक रोज दिल्ली मेट्रो में सफर के दौरान एक लड़की लेडीज कोच में बेहोश हो गई थी. रात नौ बजे का वक्त था. उस लड़की को संभालने के लिए जो दो लोग आगे बढ़े उनमें एक मैं थी और दूसरी वंदना. तब मैं वंदना को जानती नहीं थी. वह तो उस रोज उस मेट्रो मे मेरी सहयात्रि भर थी. उस बेहोश लड़की को लेकर हम कोच से बाहर आए. तब तक मेट्रो कर्मचारी भी पहुंच गए थे.

काफी देर बाद उस लड़की को होश आया. मैं और वंदना तब तक उसके साथ ही रहे. उसका पता पूछ कर हम रात के ग्यारह बजे ऑटो से उसके घर तक छोड़ने गए. वापसी में मैंने पहली बार वंदना से उसका नाम पूछा था और उसने मेरा. फिर पता चला कि वह एक पत्रकार है, आगरा से दिल्ली आयी है, किसी पत्रिका में काम करती है. वंदना मुझे बहुत कुछ अपनी तरह ही लगी. मेरी ही उम्र की थी. हिम्मती, बेखौफ, तेज, मददगार और मिलनसार. हमारी दोस्ती हो गई. फोन पर लम्बी-लम्बी बातें होतीं. छुट्टी मिलती तो दोनों साथ ही शॉपिंग भी करते और फिल्में भी देखते थे.

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उस रोज हम रेस्त्रां में बैठे इडली-सांभर खा रहे थे कि अचानक वंदना ने मुझे जीबी रोड चलने का न्योता दे दिया. पुलिस में होते हुए भी मुझे एकबारगी झिझक लगी, मगर फिर मैंने हामी भर दी. पूछा, ‘किस लिए जाना है? क्या स्टोरी करनी है?’

उसने कहा, ‘वहां मेरा एक जासूस है, जब भी वहां कोई नई लड़की या लड़कियों का झुंड आता है, वह मुझे खबर दे देता है. पता चला है कल रात नेपाल से काफी लड़कियां आई हैं, जिनमें से बहुत सी नाबालिग हैं.’
‘अच्छा…’ मुझे आश्चर्य हुआ, ‘लोकल पुलिस को पता है?’ मैंने पूछा.

‘पता तो होगा, सब उनकी नाक के नीचे ही होता है.’ वंदना ने जवाब दिया. मुझे उसकी बात पर यकीन नहीं हुआ, उससे कोफ्त भी हुई कि क्या समझती है ये पुलिस को? मैंने गुस्से में कहा, ‘अगर वहां ऐसा कुछ हुआ है तो पुलिस अब तक कार्रवाई कर चुकी होगी.’

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वंदना ने इडली खाते हुए इत्मिनान से जवाब दिया, ‘पुलिस कुछ नहीं करती है, कल चल कर देख लेना. मुझे भी बस स्टोरी करनी है, बौस ने कहा है इसलिए… मैं भी उन पर लिख कर क्या उखाड़ लूंगी, जब सिस्टम ही काम नहीं करता.’

वंदना की बातों ने मुझे खीज से भर दिया था. ये तो सरासर आरोप लग रहा है वर्दी पर. कैसे सहन होता. ट्रेनिंग के दौरान सत्य, न्याय, देशभक्ति, कानून, साहस, वीरता के ढेरों पाठ पढ़े थे, ये लड़की तो उनके पन्ने फाड़ने पर तुली है. बड़ी पत्रकार बनी फिर रही है, कल तो इसके साथ जाना ही होगा.

हम दूसरे दिन दोपहर में वहां पहुंच गए. वंदना के कहने पर मैंने सलवार-सूट और दुपट्टा ओढ़ा हुआ था, जबकि आमतौर पर मैं जींस टीशर्ट ही पहनती हूं, या वर्दी में रहती हूं. वंदना ने एक कोठे के नीचे पहुंच कर किसी को फोन किया. थोड़ी देर में एक दुबला-पतला आदमी आया और वंदना से बोला, ‘मुंह ढंक लीजिए, यहां आप मेरी रिश्तेदार हैं.’

वंदना ने तुरंत अपने दुपट्टे को मुंह पर लपेट लिया, बस आंखें खुली रखीं. मुझे इशारा किया तो मैंने भी वैसा ही किया. वह आदमी हमें लेकर ऊपर कोठे पर चढ़ गया. हम वहां काफी देर एक कमरे में जमीन पर बिछी दरी पर बैठे रहे. वहां तमाम लड़कियां थीं. हर तरफ पर्दे जैसे पड़े थे. ग्राहक आते और लड़कियां उनके साथ पर्दे के पीछे चली जातीं. काफी देर हो गई. मैं बैठे-बैठे उक्ता रही थी. शाम हो चुकी थी. वंदना धीरे-धीरे उस आदमी से बातें कर रही थी. वह इसी कोठे में रहता था. नाम था इदरीस. तभी मैंने छह लड़कियों को अंदर आते देखा. लड़कियां छोटी थीं. यही कोई बारह से पंद्रह वर्ष के बीच की. उनके साथ चार आदमी भी थे. वे सभी अंदर आते ही एक-एक लड़की के साथ पर्दे के पीछे लोप हो गए. दो लड़कियां बच गईं, जो मेरे सामने ही आकर बैठ गईं. मैं हैरानी से देख रही थी.

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वंदना की बात बिल्कुल सच थी. लड़कियां वाकई नाबालिग थीं. नेपाली थीं. यहां इस कोठे के नीचे ही सटी हुई पुलिस चौकी है, क्या उन्हें अपने एरिया में आने वालों के बारे में पता नहीं लगा होगा? आखिर कैसे ये नाजायज काम यहां आराम से चल रहा है? यह सवाल मेरे मन में उथल-पुथल मचा ही रहा था कि दरवाजे से दो वर्दीधारी भीतर घुसे. कंधे पर चमचमाते बैच बता रहे थे कि दोनों सब इंस्पेक्टर रैंक के थे. मेरे शरीर में अचानक करेंट दौड़ गया. विजयी मुस्कान चेहरे पर आ गई. लो आ गए कानून के रखवाले छापा मारने…
वंदना ने मेरे हाथ पर हाथ रख कर दबाया. खामोश रहने का इशारा दिया. मेरे अंदर जैसे कुछ टूट गया. तड़ाक… तड़ाक… धम्म…. चेहरा निस्तेज हो गया… सामने बैठी दोनों नाबालिग बच्चियां उन दोनों वर्दी वालों के साथ पर्दे के पीछे लोप हो गईं.

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June 01, 2021 at 10:00AM

उस का हौसला : हर कोई सुधा की परवरिश पर दोष क्यों दे रहा था- भाग 1

लेखिका -डा. के रानी

सुधा बहुत ध्यान से टीवी धारावाहिक देख रही थी. सामने सोफे पर बैठे परेश अखबार पढ़ रहे थे. टीवी की ऊंची आवाज उन के कानों में भी पड़ रही थी. बीचबीच में  अखबार से नजर हटा कर वे सुधा पर डाल लेते। सुधा के चेहरे पर चढ़तेउतरते भाव से साफ पता चल रहा था कि टीवी धारावाहिक का असर उस के दिमाग के साथ सीमित नहीं था वरन उस के अंदर भी हलचल मचा रहा था.

धारावाहिक की युवा नायिका अपनी मम्मी से सवालजवाब कर रही थी. सुधा को उस के डायलौग जरा भी पसंद नहीं आ रहे थे.

वह बोली,”देखो तो इस की जबान कितनी तेज चल रही है…”

“तुम किस की बात कर रही हो?”

“टीवी पर चल रहे धारावाहिक की.”

“तो इस में इतना परेशान होने की क्या जरूरत है? सीरियल ही तो है.”

“देखा नहीं, इस की हरकतें अपनी डिंपी से कितनी मिलती हैं.”

“पता नहीं क्यों हर समय तुम्हारे दिल और दिमाग पर डिंपी सवार रहती है. तुम्हें तो हर जगह आवाज उठाने वाली लड़की डिंपी दिखाई देती है. लगता है, जैसे तुम हर नायिका में उसी का किरदार ढूंढ़ती रहती हो.”

“वह काम ही ऐसा कर रही है. खानदान की इज्जत उतार कर रखना चाहती है. भले ही तुम्हें उस की हरकतों पर एतराज न हो लेकिन मैं उसे ले कर बहुत परेशान हूं।”

“सुधा, डिंपी जो करने जा रही है आज वह समाज में आम बात हो गई है।”

“तुम्हारे लिए हो गई होगी. मेरे लिए नहीं. एक उच्च कुल की ब्राह्मण लड़की हो कर वह जनजाति समाज के लड़के से शादी करना चाहती है और तुम्हें इस में कोई बुराई नजर नहीं आ रही?”

“राहुल बहुत समझदार है। उस का पूरा परिवार पढ़ालिखा है. मानता हूं कि कभी वे जनजाति समाज में रहते थे लेकिन आज उन की स्थिति हम से किसी भी हालत में कम नहीं है। अगर डिंपी उस के साथ खुश रह सकती है तो हमें भी उस की खुशियों में शामिल हो जाना चाहिए.”

“जब पापा ही लड़की का इतना पक्ष ले तो बेटी को क्या चाहिए? वह तो कुछ भी कर सकती है.”

“तुम इस बात में मुझे क्यों दोष दे रही हो? डिंपी ने अपने लिए लड़का खुद चुना है लेकिन वह शादी भाग कर नहीं कर रही है.”

“इसी बात का तो मुझे दुख है. भाग कर चली जाती तो कोई परेशानी न होती. आज बाबूजी जिंदा होते तब देखती तुम इस रिश्ते के लिए कैसे राजी होते?”

“जो है नहीं उस के बारे में क्या सोचना? मैं तो वही करना चाहता हूं जो मेरे बच्चों के लिए ठीक हो. तुम केवल अपने तक ही सोच रही हो.”

“इस से पहले हमारे खानदान में किसी लड़की ने ऐसा काम नहीं किया। यह लड़की तो हमारी इज्जत मिट्टी में मिला कर रहेगी.”

“शायद पहले भी किसी में इतना हौसला होता तो वह भी कर लेता। इस के लिए भी सब्र और साहस दोनों ही चाहिए। हर किसी के बस का भी यह सब नहीं होता,” कह कर परेश वहां से उठ गए.

सुधा समझ गई थी कि परेश से इस बारे में कुछ कहना बेकार है. वह जब भी बेटी को ले कर कुछ कहना चाहती है, परेश उसे इसी तरह चुप करा देते.

सुधा आगे कुछ न कह कर इस समय अतीत में उतरने लगी. उसे अपनी बेटी डिंपी का बचपन याद आने लगा था. वह जानती थी कि डिंपी की हरकतें बचपन से हमेशा बहुत उच्छृंखल थी. पढ़ाईलिखाई में उस का जरा भी मन ना लगता था. घर में हरकोई उस की इस कमजोरी को जानता था. खासकर उस की बुआ रमा को तो उस की हरकतें जरा भी पसंद न थीं.

उस के मायके आते ही सुधा डिंपी को ढूंढ कर उसे पढ़ने बैठा देती,”चुपचाप बैठ कर पाठ याद करो.”

“मैं ने अपना सारा काम कर लिया है मम्मी.”

“तभी तो कह रही हूं बैठ कर पाठ याद करो.”

इस के आगे डिंपी की कुछ कहने की हिम्मत न पड़ती. उस की हरकतें देख कर रमा भी भाभी को सुना देती,”भाभी, तुम इस पर जरा भी ध्यान नहीं देती हो.”

“तू ही बता रमा मैं क्या करूं? मैं अपनी ओर से पूरी कोशिश करती हूं। मानती हूं कि वह पढ़नेलिखने में बहुत होशियार नहीं है. वह एक औसत लड़की है और हर इंसान की क्षमता अलगअलग होती है.”

“यह बात डिंपी को अभी से समझ लेनी चाहिए.”

“तुम कुछ समय के लिए मायके आई हो. यहां रह कर आराम करो. छोड़ो इन सब बातों को.”

सुधा बात को टालने की कोशिश करती। वह जानती थी कि डिंपी का पढ़ाईलिखाई में मन नहीं लगता पर खेलकूद में और अन्य गतिविधियों में वह बहुत अच्छा प्रदर्शन करती है. खेलने के लिए भी जब वह दूसरे शहर जाना चाहती तो सुधा को यह बात बहुत अखरती थी.

“चुपचाप जो कुछ करना है घर में रह कर करो. इधरउधर जाने की कोई जरूरत नहीं है।”

“कैसी बातें करती हो मम्मी? मेरे साथ की सारी लड़कियां खेलने जा रही हैं. एक आप ही हो जो हर काम के लिए मना कर देती हो.”

“कौन सा तुझे खेल कर गोल्ड मैडल मिलने वाले हैं…”

“जब खेलने का मौका दोगी तो मैडल भी मिल जाएंगे. आप तो शुरुआत में ही साफ मना कर देती हो,” डिंपी अपना तर्क रखती.

हार कर सुधा परेश को समझाती, “परेश, डिंपी बड़ी हो रही है. इस तरह उस का घर से बाहर रहना मुझे ठीक नहीं लगता।”

“वह स्कूल की ओर से खेलने जाती है सुधा. उस के साथ मैडम और स्कूल की और भी लड़कियां हैं. वह अकेले थोड़ी ही है।”

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लेखिका -डा. के रानी

सुधा बहुत ध्यान से टीवी धारावाहिक देख रही थी. सामने सोफे पर बैठे परेश अखबार पढ़ रहे थे. टीवी की ऊंची आवाज उन के कानों में भी पड़ रही थी. बीचबीच में  अखबार से नजर हटा कर वे सुधा पर डाल लेते। सुधा के चेहरे पर चढ़तेउतरते भाव से साफ पता चल रहा था कि टीवी धारावाहिक का असर उस के दिमाग के साथ सीमित नहीं था वरन उस के अंदर भी हलचल मचा रहा था.

धारावाहिक की युवा नायिका अपनी मम्मी से सवालजवाब कर रही थी. सुधा को उस के डायलौग जरा भी पसंद नहीं आ रहे थे.

वह बोली,”देखो तो इस की जबान कितनी तेज चल रही है…”

“तुम किस की बात कर रही हो?”

“टीवी पर चल रहे धारावाहिक की.”

“तो इस में इतना परेशान होने की क्या जरूरत है? सीरियल ही तो है.”

“देखा नहीं, इस की हरकतें अपनी डिंपी से कितनी मिलती हैं.”

“पता नहीं क्यों हर समय तुम्हारे दिल और दिमाग पर डिंपी सवार रहती है. तुम्हें तो हर जगह आवाज उठाने वाली लड़की डिंपी दिखाई देती है. लगता है, जैसे तुम हर नायिका में उसी का किरदार ढूंढ़ती रहती हो.”

“वह काम ही ऐसा कर रही है. खानदान की इज्जत उतार कर रखना चाहती है. भले ही तुम्हें उस की हरकतों पर एतराज न हो लेकिन मैं उसे ले कर बहुत परेशान हूं।”

“सुधा, डिंपी जो करने जा रही है आज वह समाज में आम बात हो गई है।”

“तुम्हारे लिए हो गई होगी. मेरे लिए नहीं. एक उच्च कुल की ब्राह्मण लड़की हो कर वह जनजाति समाज के लड़के से शादी करना चाहती है और तुम्हें इस में कोई बुराई नजर नहीं आ रही?”

“राहुल बहुत समझदार है। उस का पूरा परिवार पढ़ालिखा है. मानता हूं कि कभी वे जनजाति समाज में रहते थे लेकिन आज उन की स्थिति हम से किसी भी हालत में कम नहीं है। अगर डिंपी उस के साथ खुश रह सकती है तो हमें भी उस की खुशियों में शामिल हो जाना चाहिए.”

“जब पापा ही लड़की का इतना पक्ष ले तो बेटी को क्या चाहिए? वह तो कुछ भी कर सकती है.”

“तुम इस बात में मुझे क्यों दोष दे रही हो? डिंपी ने अपने लिए लड़का खुद चुना है लेकिन वह शादी भाग कर नहीं कर रही है.”

“इसी बात का तो मुझे दुख है. भाग कर चली जाती तो कोई परेशानी न होती. आज बाबूजी जिंदा होते तब देखती तुम इस रिश्ते के लिए कैसे राजी होते?”

“जो है नहीं उस के बारे में क्या सोचना? मैं तो वही करना चाहता हूं जो मेरे बच्चों के लिए ठीक हो. तुम केवल अपने तक ही सोच रही हो.”

“इस से पहले हमारे खानदान में किसी लड़की ने ऐसा काम नहीं किया। यह लड़की तो हमारी इज्जत मिट्टी में मिला कर रहेगी.”

“शायद पहले भी किसी में इतना हौसला होता तो वह भी कर लेता। इस के लिए भी सब्र और साहस दोनों ही चाहिए। हर किसी के बस का भी यह सब नहीं होता,” कह कर परेश वहां से उठ गए.

सुधा समझ गई थी कि परेश से इस बारे में कुछ कहना बेकार है. वह जब भी बेटी को ले कर कुछ कहना चाहती है, परेश उसे इसी तरह चुप करा देते.

सुधा आगे कुछ न कह कर इस समय अतीत में उतरने लगी. उसे अपनी बेटी डिंपी का बचपन याद आने लगा था. वह जानती थी कि डिंपी की हरकतें बचपन से हमेशा बहुत उच्छृंखल थी. पढ़ाईलिखाई में उस का जरा भी मन ना लगता था. घर में हरकोई उस की इस कमजोरी को जानता था. खासकर उस की बुआ रमा को तो उस की हरकतें जरा भी पसंद न थीं.

उस के मायके आते ही सुधा डिंपी को ढूंढ कर उसे पढ़ने बैठा देती,”चुपचाप बैठ कर पाठ याद करो.”

“मैं ने अपना सारा काम कर लिया है मम्मी.”

“तभी तो कह रही हूं बैठ कर पाठ याद करो.”

इस के आगे डिंपी की कुछ कहने की हिम्मत न पड़ती. उस की हरकतें देख कर रमा भी भाभी को सुना देती,”भाभी, तुम इस पर जरा भी ध्यान नहीं देती हो.”

“तू ही बता रमा मैं क्या करूं? मैं अपनी ओर से पूरी कोशिश करती हूं। मानती हूं कि वह पढ़नेलिखने में बहुत होशियार नहीं है. वह एक औसत लड़की है और हर इंसान की क्षमता अलगअलग होती है.”

“यह बात डिंपी को अभी से समझ लेनी चाहिए.”

“तुम कुछ समय के लिए मायके आई हो. यहां रह कर आराम करो. छोड़ो इन सब बातों को.”

सुधा बात को टालने की कोशिश करती। वह जानती थी कि डिंपी का पढ़ाईलिखाई में मन नहीं लगता पर खेलकूद में और अन्य गतिविधियों में वह बहुत अच्छा प्रदर्शन करती है. खेलने के लिए भी जब वह दूसरे शहर जाना चाहती तो सुधा को यह बात बहुत अखरती थी.

“चुपचाप जो कुछ करना है घर में रह कर करो. इधरउधर जाने की कोई जरूरत नहीं है।”

“कैसी बातें करती हो मम्मी? मेरे साथ की सारी लड़कियां खेलने जा रही हैं. एक आप ही हो जो हर काम के लिए मना कर देती हो.”

“कौन सा तुझे खेल कर गोल्ड मैडल मिलने वाले हैं…”

“जब खेलने का मौका दोगी तो मैडल भी मिल जाएंगे. आप तो शुरुआत में ही साफ मना कर देती हो,” डिंपी अपना तर्क रखती.

हार कर सुधा परेश को समझाती, “परेश, डिंपी बड़ी हो रही है. इस तरह उस का घर से बाहर रहना मुझे ठीक नहीं लगता।”

“वह स्कूल की ओर से खेलने जाती है सुधा. उस के साथ मैडम और स्कूल की और भी लड़कियां हैं. वह अकेले थोड़ी ही है।”

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June 01, 2021 at 10:00AM

उस का हौसला : हर कोई सुधा की परवरिश पर दोष क्यों दे रहा था- भाग 2

लेखिका -डा. के रानी

“पता नहीं आप की समझ में मेरी बात क्यों नहीं आती?”

“सुधा, आज पढ़ाई के साथ खेल भी जरूरी है. डिंपी एक अच्छी खिलाड़ी है. उसे प्रदर्शन का मौका तो मिलना चाहिए।”

“तुम्हारी छूट के कारण ही तो डिंपी मेरी एक बात नहीं सुनती। तुम से तो कुछ कहना ही बेकार है.”

“तुम टैंशन मत लिया करो सुधा. हर बच्चे का अपना शौक होता है. लड़की अपना शौक मायके में ही तो पूरा करती है,”परेश बोले तो सुधा चुप हो गई.

समय के साथ डिंपी जवान हो रही थी और उस के व्यवहार में भी बहुत खुलापन आ गया था. वह कहीं जाती तो किसी को कुछ बताने की जरूरत तक नहीं महसूस करती.

सुधा ने उसे कई बार टोका,”डिंपी, अब तुम छोटी बच्ची नहीं रही हो.”

“तभी तो कहती हूं मम्मी, अब हर बात पर टोकना छोड़ दें।”

“कम से कम बता तो दिया करो तुम क्या कर रही हो?”

“अपने दोस्तों से मिलने जा रही हूं,” कह कर डिंपी चली गई.

उस के ऐसे व्यवहार के कारण सुधा कभीकभी बहुत परेशान हो जाती.

परेश उसे समझाते,”तुम डिंपी पर विश्वास रखो। वह ऐसा कोई काम नहीं करेगी.”

“मुझ से तो वह सीधी मुंह बात तक नहीं करती.”

“तुम उस के साथ प्यार से पेश आया करो तो वह भी तुम से अच्छे ढंग से बात करेगी। मुझ से तो कभी ऊंची आवाज में नहीं बोलती.”

“मैं मां हूं. मुझे हर वक्त उस की चिंता लगी रहती है.”

“मैं भी उस की फिक्र करता हूं। वह मेरी भी तो बेटी है.”

“वह आप की छूट का बहुत नाजायज फायदा उठा रही है.”

“मैं तो ऐसा नहीं समझता…”

जब कभी डिंपी को ले कर परेश और सुधा में बहस होती, परेश हमेशा बेटी का पक्ष ले कर पत्नी को चुप करा देते. यह बात डिंपी भी बखूबी जानती थी. इसी वजह से वह कोई भी बात मम्मी को बताने की जरूरत तक ना महसूस करती. हां, पापा को अपने प्रोग्राम के बारे में जरूर बता देती.

इंटर पास करते ही बीए में आ कर डिंपी कि नजदीकियां अपनी सहेली जया के भाई राहुल के साथ बढ़ने लगी थीं। जया उस की सहपाठी थी. कभीकभार उस के साथ डिंपी उन के घर चली जाती। वहीं पर उस की मुलाकात राहुल से हुई। मुलाकातें घर तक सीमित न रह कर घर से बाहर भी बढ़ने लगी. जानपहचान पहले दोस्ती में बदली और फिर दोस्ती कब प्यार में बदल गई डिंपी को पता ही नहीं चला.

राहुल ने अपने प्यार का इजहार डिंपी के सामने कर दिया था। पापा की बात को ध्यान में रखते हुए डिंपी ने अभी उसे अपने दिल की बात नहीं बताई थी। वह पहले इस के लिए माहौल बनाना चाहती थी और तब घर वालों से इस बारे में बात करना चाहती थी.  वह सही वक्त का इंतजार कर रही थी.

राहुल एक मल्टीनैशनल कंपनी में इंजीनियर था। कभीकभी वह डिंपी को छोड़ने घर भी आ जाता। उस की दोस्ती पर परेश और सुधा को कोई एतराज न था।

यह बात डिंपी पापा को पहले ही कह चुकी थी कि राहुल उस का बहुत अच्छा दोस्त है। तब परेश ने उसे समाज की ऊंच नीच समझा दी थी,”डिंपी तुम एक ब्राह्मण परिवार से हो और राहुल जनजाति समाज से है। बेटी, तुम्हें अपनी सीमाएं पता होनी चाहिए।”

“पापा, मैं छोटी बच्ची थोड़ी हूं. आप के कहने का मतलब मुझे समझ में आ रहा है.”

“मैं तुम से यही उम्मीद करता हूं। कल को ऐसा न हो कि तुम मेरी दी हुई छूट का नाजायज फायदा उठा कर कोई गलत कदम उठा लो.”

“मुझे पता है पापा,” कह कर डिपी ने बात टाल दी थी।

विस्फोट तो उस वक्त हुआ जब एक दिन राहुल डिंपी को घर छोड़ने आया। उस समय रमा भी घर आई हुई थी. डिंपी को राहुल के साथ बेफिक्र हो कर मोटरसाइकिल पर बैठी देख कर सुधा भड़क गई।

रमा को भी अच्छा नहीं लगा। उस के कुछ कहने से पहले ही सुधा बोली,”डिंपी, तुम्हें कुछ खयाल भी है, तुम क्या कर रही हो? सारा मोहल्ला तुम्हें इस हालत में देख कर क्या सोचता होगा?”

राहुल के सामने मम्मी ने जब यह बात कही तो डिंपी उसे सह न सकी और बोली,” आप जानती हैं राहुल मेरा दोस्त है.”

“तो क्या दोस्तों के लक्षण इस तरह के होते हैं?”

“जमाना बहुत बदल गया है मम्मी. अब पहले वाली बात नहीं है. आज लड़के और लड़की की दोस्ती को बुरी नजर से नहीं देखा जाता. वे आपस में बहुत अच्छे दोस्त होते हैं.”

The post उस का हौसला : हर कोई सुधा की परवरिश पर दोष क्यों दे रहा था- भाग 2 appeared first on Sarita Magazine.



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लेखिका -डा. के रानी

“पता नहीं आप की समझ में मेरी बात क्यों नहीं आती?”

“सुधा, आज पढ़ाई के साथ खेल भी जरूरी है. डिंपी एक अच्छी खिलाड़ी है. उसे प्रदर्शन का मौका तो मिलना चाहिए।”

“तुम्हारी छूट के कारण ही तो डिंपी मेरी एक बात नहीं सुनती। तुम से तो कुछ कहना ही बेकार है.”

“तुम टैंशन मत लिया करो सुधा. हर बच्चे का अपना शौक होता है. लड़की अपना शौक मायके में ही तो पूरा करती है,”परेश बोले तो सुधा चुप हो गई.

समय के साथ डिंपी जवान हो रही थी और उस के व्यवहार में भी बहुत खुलापन आ गया था. वह कहीं जाती तो किसी को कुछ बताने की जरूरत तक नहीं महसूस करती.

सुधा ने उसे कई बार टोका,”डिंपी, अब तुम छोटी बच्ची नहीं रही हो.”

“तभी तो कहती हूं मम्मी, अब हर बात पर टोकना छोड़ दें।”

“कम से कम बता तो दिया करो तुम क्या कर रही हो?”

“अपने दोस्तों से मिलने जा रही हूं,” कह कर डिंपी चली गई.

उस के ऐसे व्यवहार के कारण सुधा कभीकभी बहुत परेशान हो जाती.

परेश उसे समझाते,”तुम डिंपी पर विश्वास रखो। वह ऐसा कोई काम नहीं करेगी.”

“मुझ से तो वह सीधी मुंह बात तक नहीं करती.”

“तुम उस के साथ प्यार से पेश आया करो तो वह भी तुम से अच्छे ढंग से बात करेगी। मुझ से तो कभी ऊंची आवाज में नहीं बोलती.”

“मैं मां हूं. मुझे हर वक्त उस की चिंता लगी रहती है.”

“मैं भी उस की फिक्र करता हूं। वह मेरी भी तो बेटी है.”

“वह आप की छूट का बहुत नाजायज फायदा उठा रही है.”

“मैं तो ऐसा नहीं समझता…”

जब कभी डिंपी को ले कर परेश और सुधा में बहस होती, परेश हमेशा बेटी का पक्ष ले कर पत्नी को चुप करा देते. यह बात डिंपी भी बखूबी जानती थी. इसी वजह से वह कोई भी बात मम्मी को बताने की जरूरत तक ना महसूस करती. हां, पापा को अपने प्रोग्राम के बारे में जरूर बता देती.

इंटर पास करते ही बीए में आ कर डिंपी कि नजदीकियां अपनी सहेली जया के भाई राहुल के साथ बढ़ने लगी थीं। जया उस की सहपाठी थी. कभीकभार उस के साथ डिंपी उन के घर चली जाती। वहीं पर उस की मुलाकात राहुल से हुई। मुलाकातें घर तक सीमित न रह कर घर से बाहर भी बढ़ने लगी. जानपहचान पहले दोस्ती में बदली और फिर दोस्ती कब प्यार में बदल गई डिंपी को पता ही नहीं चला.

राहुल ने अपने प्यार का इजहार डिंपी के सामने कर दिया था। पापा की बात को ध्यान में रखते हुए डिंपी ने अभी उसे अपने दिल की बात नहीं बताई थी। वह पहले इस के लिए माहौल बनाना चाहती थी और तब घर वालों से इस बारे में बात करना चाहती थी.  वह सही वक्त का इंतजार कर रही थी.

राहुल एक मल्टीनैशनल कंपनी में इंजीनियर था। कभीकभी वह डिंपी को छोड़ने घर भी आ जाता। उस की दोस्ती पर परेश और सुधा को कोई एतराज न था।

यह बात डिंपी पापा को पहले ही कह चुकी थी कि राहुल उस का बहुत अच्छा दोस्त है। तब परेश ने उसे समाज की ऊंच नीच समझा दी थी,”डिंपी तुम एक ब्राह्मण परिवार से हो और राहुल जनजाति समाज से है। बेटी, तुम्हें अपनी सीमाएं पता होनी चाहिए।”

“पापा, मैं छोटी बच्ची थोड़ी हूं. आप के कहने का मतलब मुझे समझ में आ रहा है.”

“मैं तुम से यही उम्मीद करता हूं। कल को ऐसा न हो कि तुम मेरी दी हुई छूट का नाजायज फायदा उठा कर कोई गलत कदम उठा लो.”

“मुझे पता है पापा,” कह कर डिपी ने बात टाल दी थी।

विस्फोट तो उस वक्त हुआ जब एक दिन राहुल डिंपी को घर छोड़ने आया। उस समय रमा भी घर आई हुई थी. डिंपी को राहुल के साथ बेफिक्र हो कर मोटरसाइकिल पर बैठी देख कर सुधा भड़क गई।

रमा को भी अच्छा नहीं लगा। उस के कुछ कहने से पहले ही सुधा बोली,”डिंपी, तुम्हें कुछ खयाल भी है, तुम क्या कर रही हो? सारा मोहल्ला तुम्हें इस हालत में देख कर क्या सोचता होगा?”

राहुल के सामने मम्मी ने जब यह बात कही तो डिंपी उसे सह न सकी और बोली,” आप जानती हैं राहुल मेरा दोस्त है.”

“तो क्या दोस्तों के लक्षण इस तरह के होते हैं?”

“जमाना बहुत बदल गया है मम्मी. अब पहले वाली बात नहीं है. आज लड़के और लड़की की दोस्ती को बुरी नजर से नहीं देखा जाता. वे आपस में बहुत अच्छे दोस्त होते हैं.”

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June 01, 2021 at 10:00AM

क्या मिला? घर परिवार के बोझ को उठाते- उठाते वह खुद को भूल गई

अब मैं 70 साल की हो गई. एकदम अकेली हूं. अकेलापन ही मेरी सब से बड़ी त्रासदी मुझे लगती है. अपनी जिंदगी को मुड़ कर देखती हूं तो हर एक पन्ना ही बड़ा विचित्र है. मेरे मम्मीपापा के हम 2 ही बच्चे थे. एक मैं और मेरा एक छोटा भाई. हमारा बड़ा सुखी परिवार. पापा साधारण सी पोस्ट पर थे, पर उन की सरकारी नौकरी थी.

मैं पढ़ने में होशियार थी. मुझे पापा डाक्टर बनाना चाहते थे और मैं भी यही चाहती थी. मैं ने मेहनत भी की और उस जमाने में इतना कंपीटिशन भी नहीं था. अतः मेरा सलेक्शन इसी शहर में मेडिकल में हो गया. पापा भी बड़े प्रसन्न. मैं भी खुश.

मेडिकल पास करते ही पापा को मेरी शादी की चिंता हो गई. किसी ने एक डाक्टर लड़का बताया. पापा को पसंद आ गया. दहेज वगैरह भी तय हो गया.

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लड़का भी डाक्टर था तो क्या मैं भी तो डाक्टर थी. परंतु पारंपरिक परिवार होने के कारण मैं भी कुछ कह नहीं पाई. शादी हो गई. ससुराल में पहले ही उन लोगों को पता था कि यह लड़का दुबई जाएगा. यह बात उन्होंने हम से छुपाई थी. पर लड़की वाले की मजबूरी… क्या कर सकते थे.

मैं पीहर आई और नौकरी करने लगी. लड़का 6 महीने बाद आएगा और मुझे ले जाएगा, यह तय हो चुका था. उन दिनों मोबाइल वगैरह तो होता नहीं था. घरों में लैंडलाइन भी नहीं होता था. चिट्ठीपत्री ही आती थी.

पति महोदय ने पत्र में लिखा, मैं सालभर बाद आऊंगा. पीहर वालों ने सब्र किया. हिंदू गरीब परिवार का बाप और क्या कर सकता था? मैं तीजत्योहार पर ससुराल जाती. मुझे बहुत अजीब सा लगने लगा. मेरे पतिदेव का एक महीने में एक पत्र  आता. वो भी धीरेधीरे बंद होने लगा. ससुराल वालों ने कहा कि वह बहुत बिजी है. उस को आने में 2 साल लग सकते हैं.

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मेरे पिताजी का माथा ठनका. एक कमजोर अशक्त लड़की का पिता क्या कर सकता है. हमारे कोई दूर के रिश्तेदार के एक जानकार दुबई में थे. उन से पता लगाया तो पता चला कि उस महाशय ने तो वहां की एक नर्स से शादी कर ली है और अपना घर बसा लिया है. यह सुन कर तो हमारे परिवार पर बिजली ही गिर गई. हम सब ने किसी तरह इस बात को सहन कर लिया.

पापा को बहुत जबरदस्त सदमा लगा. इस सदमे की सहन न कर पाने के कारण उन्हें हार्ट अटैक हो गया. गरीबी में और आटा गीला. घर में मैं ही बड़ी थी और मैं ने ही परिवार को संभाला. किसी तरह पति से डाइवोर्स लिया. भाई को पढ़ाया और उस की नौकरी भी लग गई. हमें लगा कि हमारे अच्छे दिन आ गए. हम ने एक अच्छी लड़की देख कर भैया की शादी कर दी.

मुझे लगा कि अब भैया मम्मी को संभाल लेगा. भैया और भाभी जोधपुर में सैटल हो गए थे. मैं ने सोचा कि जो हुआ उस को टाल नहीं सकते. पर, अब मैं आगे की पढ़ाई करूं, ऐसा सोच ही रही थी. मेरी पोस्टिंग जयपुर में थी. इसलिए मैं यहां आई, तो अम्मां को साथ ले कर आई. भैया की नईनई शादी हुई है, उन्हें आराम से रहने दो.

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मैं भी अपने एमडी प्रवेश परीक्षा की तैयारी में लगी. राजीखुशी का पत्र भैयाभाभी भेजते थे. अम्मां भी खुश थीं. उन का मन जरूर नहीं लगता था. मैं ने कहा, ‘‘अभी थोड़े दिन यहीं रहो, फिर आप चली जाना.‘‘ ‘‘ठीक है. मुझे लगता है कि थोड़े दिन मैं बहू के पास भी रहूं.‘‘

‘‘अम्मां थोड़े दिन उन को अकेले भी एंजौय करने दो. नईनई शादी हुई है. फिर तो तुम्हें जाना ही है.‘‘
इस तरह 6 महीने बीत गए. एक खुशखबरी आई. भैया ने लिखा कि तुम्हारी भाभी पेट से है. तुम जल्दी बूआ बनने वाली हो. अम्मां दादी.

इस खबर से अम्मां और मैं बहुत प्रसन्न हुए. चलो, घर में एक बच्चा आ जाएगा और अम्मां का मन पंख लगा कर उड़ने लगा. ‘‘मैं तो बहू के पास जाऊंगी,‘‘ अम्मां जिद करने लगी. मैं ने अम्मां को समझाया, ‘‘अम्मां, अभी मुझे छुट्टी नहीं मिलेगी? जैसे ही छुट्टी मिलेगी, मैं आप को छोड़ आऊंगी. भैया को हम बुलाएंगे तो भाभी अकेली रहेंगी. इस समय यह ठीक नहीं है.‘‘

वे भी मान गईं. हमें क्या पता था कि हमारी जिंदगी में एक बहुत बड़ा भूचाल आने वाला है. मैं ने तो अपने स्टाफ के सदस्यों और अड़ोसीपड़ोसी को मिठाई मंगा कर खिलाई. अम्मां ने पास के मंदिर में जा कर प्रसाद भी चढ़ाया. परंतु एक बड़ा वज्रपात एक महीने के अंदर ही हुआ.

हमारे पड़ोस में एक इंजीनियर रहते थे. उन के घर रात 10 बजे एक ट्रंक काल आया. मुझे बुलाया. जाते ही खबर को सुन कर रोतेरोते मेरा बुरा हाल था. मेरे भाई का एक्सीडेंट हो गया. वह बहुत सीरियस था और अस्पताल में भरती था.

अम्मां बारबार पूछ रही थीं कि क्या बात है, पर मैं उन्हें बता नहीं पाई. यदि बता देती तो जोधपुर तक उन्हें ले जाना ही मुश्किल था. पड़ोसियों ने मना भी किया कि आप अम्मां को मत बताइए.

अम्मां को मैं ने कहा कि भाभी को देखने चलते हैं. अम्मां ने पूछा, ‘‘अचानक ही क्यों सोचा तुम ने? क्या बात हुई है? हम तो बाद में जाने वाले थे?‘‘

किसी तरह जोधपुर पहुंचे. वहां हमारे लिए और बड़ा वज्रपात इंतजार कर रहा था. भैया का देहांत हो गया. शादी हुए सिर्फ 9 महीने हुए थे.

भाभी की तो दुनिया ही उजड़ गई. अम्मां का तो सबकुछ लुट गया. मैं क्या करूं, क्या ना करूं, कुछ समझ नहीं आया. अम्मां को संभालूं या भाभी को या अपनेआप को?

मुझे तो अपने कर्तव्य को संभालना है. क्रियाकर्म पूरा करने के बाद मैं भाभी और अम्मां को साथ ले कर जयपुर आ गई. मुझे तो नौकरी करनी थी. इन सब को संभालना था. भाभी की डिलीवरी करानी थी.

भाभी और अम्मां को मैं बारबार समझाती.

मैं तो अपना दुख भूल चुकी. अब यही दुख बहुत बड़ा लग रहा था. मुझ पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. उन दिनों वेतन भी ज्यादा नहीं होता था.

मकान का किराया चुकाते हुए 3 प्राणी तो हम थे और चौथा आने वाला था. नौकरी करते हुए पूरे घर को संभालना था.

अम्मां भी एक के बाद एक सदमा लगने से बीमार रहने लगीं. उन की दवाई का खर्चा भी मुझे ही उठाना था.

मैं एमडी की पढ़ाईलिखाई वगैरह सब भूल कर इन समस्याओं में फंस गई. भाभी के पीहर वालों ने भी ध्यान नहीं दिया. उन की मम्मी पहले ही मर चुकी थी. उन की भाभी थीं और पापा बीमार थे. ऐसे में किसी ने उन्हें नहीं बुलाया. मैं ही उन्हें आश्वासन देती रही. उन्हें अपने पीहर की याद आती और उन्हें बुरा लगता कि पापा ने भी मुझे याद नहीं किया. अब उस के पापा ना आर्थिक रूप से संपन्न थे और ना ही शारीरिक रूप से. वे भला क्या करते? यह बात तो मेरी समझ में आ गई थी.

अम्मां को भी लगता कि सारा भार मेरी बेटी पर ही आ गया. बेटी पहले से दुखी है. मैं अम्मां को भी समझाती. इस छोटी उम्र में ही मैं बहुत बड़ी हो गई थी. मैं बुजुर्ग बन गई थी.

भाभी की ड्यू डेट पास में आने पर अम्मां और भाभी मुझ से कहते, ‘‘आप छुट्टी ले लो. हमें डर लगता है?‘‘

‘‘अभी से छुट्टी ले लूं. डिलीवरी के बाद भी तो लेनी है?‘‘

बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाया. रात को परेशानी हुई तो मैं भाभी को ले कर अस्पताल गई और उन्हें भरती कराया. अस्पताल वालों को पता ही था कि मैं डाक्टर हूं. उन्होंने कहा कि आप ही बच्चे को लो. सब से पहले मैं ने ही उठाया. प्यारी सी लड़की हुई थी.

सुन कर भाभी को अच्छा नहीं लगा. वह कहने लगी, ‘‘लड़का होता तो मेरा सहारा ही बनता.‘‘

‘‘भाभी, आप तो पढ़ीलिखी हो कर कैसी बातें कर रही हैं? आप बेटी की चिंता मत करो. उसे मैं पालूंगी.‘‘

उस का ज्यादा ध्यान मैं ने ही रखा. भाभी को अस्पताल से घर लाते ही मैं ने कहा, ‘‘भाभी, आप भी बीएड कर लो, ताकि नौकरी लग जाए.‘‘

विधवा कोटे से उन्हें तुरंत बीएड में जगह मिल गई. बच्चे को छोड़ वह कालेज जाने लगी. दिन में बच्ची को अम्मां देखतीं. अस्पताल से आने के बाद उस की जिम्मेदारी मेरी थी. पर, मैं ने खुशीखुशी इस जिम्मेदारी को निभाया ही नहीं, बल्कि मुझे उस बच्ची से विशेष स्नेह हो गया. बच्ची भी मुझे मम्मी कहने लगी.

नौकरानी रखने लायक हमारी स्थिति नहीं थी. सारा बोझ मुझ पर ही था. किसी तरह भाभी का बीएड पूरा हुआ और उन्हें नौकरी मिल गई. मुझे थोड़ी संतुष्टि हुई. पर पहली पोस्टिंग अपने गांव में मिली. भाभी बच्ची को छोड़ कर चली गई. हफ्ते में या छुट्टी के दिन ही भाभी आती. बच्ची का रुझान अपनी मम्मी की ओर से हट कर पूरी तरह से मेरी ओर और अम्मां की तरफ ही था. हम भी खुश ही थे.

पर, मुझे लगा कि भाभी अभी छोटी है. वह पूरी जिंदगी कैसे अकेली रहेगी?

मैं ने भाभी से बात की. भाभी रितु बोली, ‘‘मुझे बच्चे के साथ कौन स्वीकार करेगा?‘‘

मैं ने कहा, ‘‘तुम गुड़िया की चिंता मत करो. उसे हम पाल लेंगे.‘‘

उस के बाद मैं ने भाभी रितु के लिए वर ढूंढ़ना शुरू किया. माधव नाम के एक आदमी ने भाभी से शादी करने की इच्छा प्रकट की. हम लोग खुश हुए. पर उस ने भी शर्त रख दी कि रितु भाभी अपनी बेटी को ले कर नहीं आएगी, क्योंकि उन के पहले ही एक लड़की थी.

मैं ने तो साफ कह दिया, ‘‘आप इस बात की चिंता ना करें. मैं बिटिया को संभाल लूंगी. मैं उसे पालपोस कर बड़ा करूंगी.‘‘

उस पर माधव राजी हो गया और यह भी कहा कि आप को भी आप के भाई की कमी महसूस नहीं होने दूंगा.

सुन कर मुझे भी बहुत अच्छा लगा. शुरू में माधव और रितु अकसर आतेजाते रहे. अम्मां को भी अच्छा लगता था, मुझे भी अच्छा लगता था. मैं भी माधव को भैया मान राखी बांधने लगी. सब ठीकठाक ही चल रहा था.

उन्होंने कोई जिम्मेदारी नहीं उठाई, परंतु अपने शहर से हमारे घर पिकनिक मनाने जैसे आ जाते थे. इस पर भी अम्मां और मैं खुश थे.

जब भी वे आते भाभी रितु को अपनी बेटी मान अम्मां उन्हें तिलक कर के दोनों को साड़ी, मिठाई, कपड़े आदि देतीं.

अब गुड़िया बड़ी हो गई. वह पढ़ने लगी. पढ़ने में वह होशियार निकली. उस ने पीएचडी की. उस के लिए मैं ने लड़का ढूंढा. अच्छा लड़का राज भी मिल गया. लड़कालड़की दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर लिया. अब लड़के वाले चाहते थे कि उन के शहर में ही आ कर शादी करें.

मैं उस बात के लिए राजी हो गई. मैं ने सब का टिकट कराया. कम से कम 50 लोग थे. सब का टिकट एसी सेकंड क्लास में कराया. भाभी रितु और माधव मेहमान जैसे हाथ हिलाते हुए आए.

यहां तक भी कोई बात नहीं. उस के बाद उन्होंने ससुराल वालों से मेरी बुराई शुरू कर दी. यह क्यों किया, मेरी समझ के बाहर की बात है. अम्मां को यह बात बिलकुल सहन नहीं हुई. मैं ने तो जिंदगी में सिवाय दुख के कुछ देखा ही नहीं. किसी ने मुझ से प्रेम के दो शब्द नहीं बोले और ना ही किसी ने मुझे कोई आर्थिक सहायता दी.

मुझे लगा, मुझे सब को देने के लिए ही ऊपर वाले ने पैदा किया है, लेने के लिए नहीं. पेड़ सब को फल देता है, वह स्वयं नहीं खाता. मुझे भी पेड़ बनाने के बदले ऊपर वाले ने मनुष्यरूपी पेड़ का रूप दे दिया लगता है.

मुझे भी लगने लगा कि देने में ही सुख है, खुशी है, संतुष्टि है, लेने में क्या रखा है?

मैं ने भी अपना ध्यान भक्ति की ओर मोड़ लिया. अस्पताल जाना, मंदिर जाना, बाजार से सौदा लाना वगैरह.

गुड़िया की ससुराल तो उत्तर प्रदेश में थी, परंतु दामाद राज की पोस्टिंग चेन्नई में थी. शादी के बाद 3 महीने तक गुड़िया नहीं आई. चिट्ठीपत्री बराबर आती रही. अब तो घर में फोन भी लग गया था. फोन पर भी बात हो जाती. मैं ने कहा कि गुड़िया खुश है. उस को जब अपनी मम्मी के बारे में पता चला, तो उसे भी बहुत बुरा लगा. फिर हमारा संबंध उन से बिलकुल कट गया.

3 महीने बाद गुड़िया चेन्नई से आई. मैं भी खुश थी कि बच्ची देश के अंदर ही है, कभी भी कोई बात हो, तुरंत आ जाएगी. इस बात को सोच कर मैं बड़ी आश्वस्त थी. पर गुड़िया ने आते ही कहा, ‘‘राज का सलेक्शन विदेश में हो गया है.‘‘

इस सदमे को कैसे बरदाश्त करूं? पुरानी बातें याद आने लगीं. क्या इस बच्ची के साथ भी मेरे जैसे ही होगा? मेरे मन में एक अनोखा सा डर बैठ गया. मैं गुड़िया से कह न पाई, पर अंदर ही अंदर घुटती ही रही.

शुरू में राज अकेले ही गए और मेरा डर मैं किस से कहूं? पर गुड़िया और राज में अंडरस्टैंडिंग बहुत अच्छी थी. बराबर फोन आते. मेल आता था. गुड़िया प्रसन्न थी. मैं अपने डर को अंदर ही अंदर महसूस कर रही थी.

फिर 6 महीने बाद राज आए और गुड़िया को ले गए. मुझे बहुत तसल्ली हुई. पर अम्मां गुड़िया के वियोग को सहन न कर पाईं. उस के बाद अम्मां निरंतर बीमार रहने लगीं.

अम्मां का जो थोड़ाबहुत सहारा था, वह भी खत्म हो गया. उन की देखभाल का भार और बढ़ गया.

एक साल बाद फिर गुड़िया आई. तब वह 2 महीने की प्रेग्नेंट थी. राज ने फिर अपनी नौकरी बदल ली. अब कनाडा से अरब कंट्री में चला गया. वहां राज सिर्फ सालभर के लिए कौंट्रैक्ट में गया था. अब तो गुड़िया को ले जाने का ही प्रश्न नहीं था. गुड़िया प्रेग्नेंट थी.

क्या आप मेरी स्थिति को समझ सकेंगे? मैं कितने मानसिक तनावों से गुजर रही थी, इस की कल्पना भी कोई नहीं कर सकता. मैं किस से कहती? अम्मां समझने लायक स्थिति में नहीं थीं. गुड़िया को कह कर उसे परेशान नहीं करना चाहती थी. इस समय वैसे ही वह प्रेग्नेंट थी. उसे परेशान करना तो पाप है. गुड़िया इन सब बातों से अनजान थी.

डाक्टर ने गुड़िया को बेड रेस्ट के लिए कह दिया था. अतः वह ससुराल भी जा नहीं सकती थी. उस की सासननद आ कर कभी उस को देख कर जाते. उन के आने से मेरी परेशानी ही बढ़ती, पर मैं क्या करूं? अपनी समस्या को कैसे बताऊं? गुड़िया की मम्मी ने तो पहले ही अपना पल्ला झाड़ लिया था.

मैं जिम्मेदारी से भागना नहीं चाहती थी, परंतु विभिन्न प्रकार की आशंकाओं से मैं घिरी हुई थी. मैं ने कभी कोई खुशी की बात तो देखी नहीं, हमेशा ही मेरे साथ धोखा ही होता रहा. मुझे लगने लगा कि मेरी काली छाया मेरी गुड़िया पर ना पड़े. पर, मैं इसे किसी को कह भी नहीं सकती. अंदर ही अंदर मैं परेशान हो रही थी. उसी समय मेरे मेनोपोज का भी था.

इस बीच अम्मां का देहांत हो गया.

गुड़िया का ड्यू डेट भी आ गया और उस ने एक सुंदर से बेटे को जन्म दिया. मैं खुश तो थी, पर जब तक उस के पति ने आ कर बच्चे को नहीं देखा, मेरे अंदर अजीब सी परेशानी होती रही थी.

जब गुड़िया का पति आ कर बच्चे को देख कर खुश हुआ, तब मुझे तसल्ली आई.

अब तो गुड़िया अपने पति के साथ विदेश में बस गई और मैं अकेली रह गई. यदि गुड़िया अपने देश में होती तो मुझ से मिलने आती रहती, पर विदेश में रहने के कारण साल में एक बार ही आ पाती. फिर भी मुझे तसल्ली थी. अब कोरोना की वजह से सालभर से ज्यादा हो गया, वह नहीं आई. और अभी आने की संभावना भी इस कोरोना के कारण दिखाई नहीं दे रही, पर मैं ने एक लड़की को पढ़ालिखा कर उस की शादी कर दी. भाभी की भी शादी कर दी. यह तसल्ली मुझे है. पर बुढ़ापे में रिटायर होने के बाद अकेलापन मुझे खाने को दौड़ता है. इस को एक भुक्तभोगी ही जान सकता है.

अब आप ही बताइए कि मेरी क्या गलती थी, जो पूरी जिंदगी मैं ने इतनी तकलीफ पाई? क्या लड़की होना मेरा गुनाह था? लड़का होना और मेरी जिंदगी से खेलना मेरे पति के लड़का होने का घमंड? उस को सभी छूट…? यह बात मेरी समझ में नहीं आई? आप की समझ में आई तो मुझे बता दें.

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अब मैं 70 साल की हो गई. एकदम अकेली हूं. अकेलापन ही मेरी सब से बड़ी त्रासदी मुझे लगती है. अपनी जिंदगी को मुड़ कर देखती हूं तो हर एक पन्ना ही बड़ा विचित्र है. मेरे मम्मीपापा के हम 2 ही बच्चे थे. एक मैं और मेरा एक छोटा भाई. हमारा बड़ा सुखी परिवार. पापा साधारण सी पोस्ट पर थे, पर उन की सरकारी नौकरी थी.

मैं पढ़ने में होशियार थी. मुझे पापा डाक्टर बनाना चाहते थे और मैं भी यही चाहती थी. मैं ने मेहनत भी की और उस जमाने में इतना कंपीटिशन भी नहीं था. अतः मेरा सलेक्शन इसी शहर में मेडिकल में हो गया. पापा भी बड़े प्रसन्न. मैं भी खुश.

मेडिकल पास करते ही पापा को मेरी शादी की चिंता हो गई. किसी ने एक डाक्टर लड़का बताया. पापा को पसंद आ गया. दहेज वगैरह भी तय हो गया.

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लड़का भी डाक्टर था तो क्या मैं भी तो डाक्टर थी. परंतु पारंपरिक परिवार होने के कारण मैं भी कुछ कह नहीं पाई. शादी हो गई. ससुराल में पहले ही उन लोगों को पता था कि यह लड़का दुबई जाएगा. यह बात उन्होंने हम से छुपाई थी. पर लड़की वाले की मजबूरी… क्या कर सकते थे.

मैं पीहर आई और नौकरी करने लगी. लड़का 6 महीने बाद आएगा और मुझे ले जाएगा, यह तय हो चुका था. उन दिनों मोबाइल वगैरह तो होता नहीं था. घरों में लैंडलाइन भी नहीं होता था. चिट्ठीपत्री ही आती थी.

पति महोदय ने पत्र में लिखा, मैं सालभर बाद आऊंगा. पीहर वालों ने सब्र किया. हिंदू गरीब परिवार का बाप और क्या कर सकता था? मैं तीजत्योहार पर ससुराल जाती. मुझे बहुत अजीब सा लगने लगा. मेरे पतिदेव का एक महीने में एक पत्र  आता. वो भी धीरेधीरे बंद होने लगा. ससुराल वालों ने कहा कि वह बहुत बिजी है. उस को आने में 2 साल लग सकते हैं.

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मेरे पिताजी का माथा ठनका. एक कमजोर अशक्त लड़की का पिता क्या कर सकता है. हमारे कोई दूर के रिश्तेदार के एक जानकार दुबई में थे. उन से पता लगाया तो पता चला कि उस महाशय ने तो वहां की एक नर्स से शादी कर ली है और अपना घर बसा लिया है. यह सुन कर तो हमारे परिवार पर बिजली ही गिर गई. हम सब ने किसी तरह इस बात को सहन कर लिया.

पापा को बहुत जबरदस्त सदमा लगा. इस सदमे की सहन न कर पाने के कारण उन्हें हार्ट अटैक हो गया. गरीबी में और आटा गीला. घर में मैं ही बड़ी थी और मैं ने ही परिवार को संभाला. किसी तरह पति से डाइवोर्स लिया. भाई को पढ़ाया और उस की नौकरी भी लग गई. हमें लगा कि हमारे अच्छे दिन आ गए. हम ने एक अच्छी लड़की देख कर भैया की शादी कर दी.

मुझे लगा कि अब भैया मम्मी को संभाल लेगा. भैया और भाभी जोधपुर में सैटल हो गए थे. मैं ने सोचा कि जो हुआ उस को टाल नहीं सकते. पर, अब मैं आगे की पढ़ाई करूं, ऐसा सोच ही रही थी. मेरी पोस्टिंग जयपुर में थी. इसलिए मैं यहां आई, तो अम्मां को साथ ले कर आई. भैया की नईनई शादी हुई है, उन्हें आराम से रहने दो.

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मैं भी अपने एमडी प्रवेश परीक्षा की तैयारी में लगी. राजीखुशी का पत्र भैयाभाभी भेजते थे. अम्मां भी खुश थीं. उन का मन जरूर नहीं लगता था. मैं ने कहा, ‘‘अभी थोड़े दिन यहीं रहो, फिर आप चली जाना.‘‘ ‘‘ठीक है. मुझे लगता है कि थोड़े दिन मैं बहू के पास भी रहूं.‘‘

‘‘अम्मां थोड़े दिन उन को अकेले भी एंजौय करने दो. नईनई शादी हुई है. फिर तो तुम्हें जाना ही है.‘‘
इस तरह 6 महीने बीत गए. एक खुशखबरी आई. भैया ने लिखा कि तुम्हारी भाभी पेट से है. तुम जल्दी बूआ बनने वाली हो. अम्मां दादी.

इस खबर से अम्मां और मैं बहुत प्रसन्न हुए. चलो, घर में एक बच्चा आ जाएगा और अम्मां का मन पंख लगा कर उड़ने लगा. ‘‘मैं तो बहू के पास जाऊंगी,‘‘ अम्मां जिद करने लगी. मैं ने अम्मां को समझाया, ‘‘अम्मां, अभी मुझे छुट्टी नहीं मिलेगी? जैसे ही छुट्टी मिलेगी, मैं आप को छोड़ आऊंगी. भैया को हम बुलाएंगे तो भाभी अकेली रहेंगी. इस समय यह ठीक नहीं है.‘‘

वे भी मान गईं. हमें क्या पता था कि हमारी जिंदगी में एक बहुत बड़ा भूचाल आने वाला है. मैं ने तो अपने स्टाफ के सदस्यों और अड़ोसीपड़ोसी को मिठाई मंगा कर खिलाई. अम्मां ने पास के मंदिर में जा कर प्रसाद भी चढ़ाया. परंतु एक बड़ा वज्रपात एक महीने के अंदर ही हुआ.

हमारे पड़ोस में एक इंजीनियर रहते थे. उन के घर रात 10 बजे एक ट्रंक काल आया. मुझे बुलाया. जाते ही खबर को सुन कर रोतेरोते मेरा बुरा हाल था. मेरे भाई का एक्सीडेंट हो गया. वह बहुत सीरियस था और अस्पताल में भरती था.

अम्मां बारबार पूछ रही थीं कि क्या बात है, पर मैं उन्हें बता नहीं पाई. यदि बता देती तो जोधपुर तक उन्हें ले जाना ही मुश्किल था. पड़ोसियों ने मना भी किया कि आप अम्मां को मत बताइए.

अम्मां को मैं ने कहा कि भाभी को देखने चलते हैं. अम्मां ने पूछा, ‘‘अचानक ही क्यों सोचा तुम ने? क्या बात हुई है? हम तो बाद में जाने वाले थे?‘‘

किसी तरह जोधपुर पहुंचे. वहां हमारे लिए और बड़ा वज्रपात इंतजार कर रहा था. भैया का देहांत हो गया. शादी हुए सिर्फ 9 महीने हुए थे.

भाभी की तो दुनिया ही उजड़ गई. अम्मां का तो सबकुछ लुट गया. मैं क्या करूं, क्या ना करूं, कुछ समझ नहीं आया. अम्मां को संभालूं या भाभी को या अपनेआप को?

मुझे तो अपने कर्तव्य को संभालना है. क्रियाकर्म पूरा करने के बाद मैं भाभी और अम्मां को साथ ले कर जयपुर आ गई. मुझे तो नौकरी करनी थी. इन सब को संभालना था. भाभी की डिलीवरी करानी थी.

भाभी और अम्मां को मैं बारबार समझाती.

मैं तो अपना दुख भूल चुकी. अब यही दुख बहुत बड़ा लग रहा था. मुझ पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. उन दिनों वेतन भी ज्यादा नहीं होता था.

मकान का किराया चुकाते हुए 3 प्राणी तो हम थे और चौथा आने वाला था. नौकरी करते हुए पूरे घर को संभालना था.

अम्मां भी एक के बाद एक सदमा लगने से बीमार रहने लगीं. उन की दवाई का खर्चा भी मुझे ही उठाना था.

मैं एमडी की पढ़ाईलिखाई वगैरह सब भूल कर इन समस्याओं में फंस गई. भाभी के पीहर वालों ने भी ध्यान नहीं दिया. उन की मम्मी पहले ही मर चुकी थी. उन की भाभी थीं और पापा बीमार थे. ऐसे में किसी ने उन्हें नहीं बुलाया. मैं ही उन्हें आश्वासन देती रही. उन्हें अपने पीहर की याद आती और उन्हें बुरा लगता कि पापा ने भी मुझे याद नहीं किया. अब उस के पापा ना आर्थिक रूप से संपन्न थे और ना ही शारीरिक रूप से. वे भला क्या करते? यह बात तो मेरी समझ में आ गई थी.

अम्मां को भी लगता कि सारा भार मेरी बेटी पर ही आ गया. बेटी पहले से दुखी है. मैं अम्मां को भी समझाती. इस छोटी उम्र में ही मैं बहुत बड़ी हो गई थी. मैं बुजुर्ग बन गई थी.

भाभी की ड्यू डेट पास में आने पर अम्मां और भाभी मुझ से कहते, ‘‘आप छुट्टी ले लो. हमें डर लगता है?‘‘

‘‘अभी से छुट्टी ले लूं. डिलीवरी के बाद भी तो लेनी है?‘‘

बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाया. रात को परेशानी हुई तो मैं भाभी को ले कर अस्पताल गई और उन्हें भरती कराया. अस्पताल वालों को पता ही था कि मैं डाक्टर हूं. उन्होंने कहा कि आप ही बच्चे को लो. सब से पहले मैं ने ही उठाया. प्यारी सी लड़की हुई थी.

सुन कर भाभी को अच्छा नहीं लगा. वह कहने लगी, ‘‘लड़का होता तो मेरा सहारा ही बनता.‘‘

‘‘भाभी, आप तो पढ़ीलिखी हो कर कैसी बातें कर रही हैं? आप बेटी की चिंता मत करो. उसे मैं पालूंगी.‘‘

उस का ज्यादा ध्यान मैं ने ही रखा. भाभी को अस्पताल से घर लाते ही मैं ने कहा, ‘‘भाभी, आप भी बीएड कर लो, ताकि नौकरी लग जाए.‘‘

विधवा कोटे से उन्हें तुरंत बीएड में जगह मिल गई. बच्चे को छोड़ वह कालेज जाने लगी. दिन में बच्ची को अम्मां देखतीं. अस्पताल से आने के बाद उस की जिम्मेदारी मेरी थी. पर, मैं ने खुशीखुशी इस जिम्मेदारी को निभाया ही नहीं, बल्कि मुझे उस बच्ची से विशेष स्नेह हो गया. बच्ची भी मुझे मम्मी कहने लगी.

नौकरानी रखने लायक हमारी स्थिति नहीं थी. सारा बोझ मुझ पर ही था. किसी तरह भाभी का बीएड पूरा हुआ और उन्हें नौकरी मिल गई. मुझे थोड़ी संतुष्टि हुई. पर पहली पोस्टिंग अपने गांव में मिली. भाभी बच्ची को छोड़ कर चली गई. हफ्ते में या छुट्टी के दिन ही भाभी आती. बच्ची का रुझान अपनी मम्मी की ओर से हट कर पूरी तरह से मेरी ओर और अम्मां की तरफ ही था. हम भी खुश ही थे.

पर, मुझे लगा कि भाभी अभी छोटी है. वह पूरी जिंदगी कैसे अकेली रहेगी?

मैं ने भाभी से बात की. भाभी रितु बोली, ‘‘मुझे बच्चे के साथ कौन स्वीकार करेगा?‘‘

मैं ने कहा, ‘‘तुम गुड़िया की चिंता मत करो. उसे हम पाल लेंगे.‘‘

उस के बाद मैं ने भाभी रितु के लिए वर ढूंढ़ना शुरू किया. माधव नाम के एक आदमी ने भाभी से शादी करने की इच्छा प्रकट की. हम लोग खुश हुए. पर उस ने भी शर्त रख दी कि रितु भाभी अपनी बेटी को ले कर नहीं आएगी, क्योंकि उन के पहले ही एक लड़की थी.

मैं ने तो साफ कह दिया, ‘‘आप इस बात की चिंता ना करें. मैं बिटिया को संभाल लूंगी. मैं उसे पालपोस कर बड़ा करूंगी.‘‘

उस पर माधव राजी हो गया और यह भी कहा कि आप को भी आप के भाई की कमी महसूस नहीं होने दूंगा.

सुन कर मुझे भी बहुत अच्छा लगा. शुरू में माधव और रितु अकसर आतेजाते रहे. अम्मां को भी अच्छा लगता था, मुझे भी अच्छा लगता था. मैं भी माधव को भैया मान राखी बांधने लगी. सब ठीकठाक ही चल रहा था.

उन्होंने कोई जिम्मेदारी नहीं उठाई, परंतु अपने शहर से हमारे घर पिकनिक मनाने जैसे आ जाते थे. इस पर भी अम्मां और मैं खुश थे.

जब भी वे आते भाभी रितु को अपनी बेटी मान अम्मां उन्हें तिलक कर के दोनों को साड़ी, मिठाई, कपड़े आदि देतीं.

अब गुड़िया बड़ी हो गई. वह पढ़ने लगी. पढ़ने में वह होशियार निकली. उस ने पीएचडी की. उस के लिए मैं ने लड़का ढूंढा. अच्छा लड़का राज भी मिल गया. लड़कालड़की दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर लिया. अब लड़के वाले चाहते थे कि उन के शहर में ही आ कर शादी करें.

मैं उस बात के लिए राजी हो गई. मैं ने सब का टिकट कराया. कम से कम 50 लोग थे. सब का टिकट एसी सेकंड क्लास में कराया. भाभी रितु और माधव मेहमान जैसे हाथ हिलाते हुए आए.

यहां तक भी कोई बात नहीं. उस के बाद उन्होंने ससुराल वालों से मेरी बुराई शुरू कर दी. यह क्यों किया, मेरी समझ के बाहर की बात है. अम्मां को यह बात बिलकुल सहन नहीं हुई. मैं ने तो जिंदगी में सिवाय दुख के कुछ देखा ही नहीं. किसी ने मुझ से प्रेम के दो शब्द नहीं बोले और ना ही किसी ने मुझे कोई आर्थिक सहायता दी.

मुझे लगा, मुझे सब को देने के लिए ही ऊपर वाले ने पैदा किया है, लेने के लिए नहीं. पेड़ सब को फल देता है, वह स्वयं नहीं खाता. मुझे भी पेड़ बनाने के बदले ऊपर वाले ने मनुष्यरूपी पेड़ का रूप दे दिया लगता है.

मुझे भी लगने लगा कि देने में ही सुख है, खुशी है, संतुष्टि है, लेने में क्या रखा है?

मैं ने भी अपना ध्यान भक्ति की ओर मोड़ लिया. अस्पताल जाना, मंदिर जाना, बाजार से सौदा लाना वगैरह.

गुड़िया की ससुराल तो उत्तर प्रदेश में थी, परंतु दामाद राज की पोस्टिंग चेन्नई में थी. शादी के बाद 3 महीने तक गुड़िया नहीं आई. चिट्ठीपत्री बराबर आती रही. अब तो घर में फोन भी लग गया था. फोन पर भी बात हो जाती. मैं ने कहा कि गुड़िया खुश है. उस को जब अपनी मम्मी के बारे में पता चला, तो उसे भी बहुत बुरा लगा. फिर हमारा संबंध उन से बिलकुल कट गया.

3 महीने बाद गुड़िया चेन्नई से आई. मैं भी खुश थी कि बच्ची देश के अंदर ही है, कभी भी कोई बात हो, तुरंत आ जाएगी. इस बात को सोच कर मैं बड़ी आश्वस्त थी. पर गुड़िया ने आते ही कहा, ‘‘राज का सलेक्शन विदेश में हो गया है.‘‘

इस सदमे को कैसे बरदाश्त करूं? पुरानी बातें याद आने लगीं. क्या इस बच्ची के साथ भी मेरे जैसे ही होगा? मेरे मन में एक अनोखा सा डर बैठ गया. मैं गुड़िया से कह न पाई, पर अंदर ही अंदर घुटती ही रही.

शुरू में राज अकेले ही गए और मेरा डर मैं किस से कहूं? पर गुड़िया और राज में अंडरस्टैंडिंग बहुत अच्छी थी. बराबर फोन आते. मेल आता था. गुड़िया प्रसन्न थी. मैं अपने डर को अंदर ही अंदर महसूस कर रही थी.

फिर 6 महीने बाद राज आए और गुड़िया को ले गए. मुझे बहुत तसल्ली हुई. पर अम्मां गुड़िया के वियोग को सहन न कर पाईं. उस के बाद अम्मां निरंतर बीमार रहने लगीं.

अम्मां का जो थोड़ाबहुत सहारा था, वह भी खत्म हो गया. उन की देखभाल का भार और बढ़ गया.

एक साल बाद फिर गुड़िया आई. तब वह 2 महीने की प्रेग्नेंट थी. राज ने फिर अपनी नौकरी बदल ली. अब कनाडा से अरब कंट्री में चला गया. वहां राज सिर्फ सालभर के लिए कौंट्रैक्ट में गया था. अब तो गुड़िया को ले जाने का ही प्रश्न नहीं था. गुड़िया प्रेग्नेंट थी.

क्या आप मेरी स्थिति को समझ सकेंगे? मैं कितने मानसिक तनावों से गुजर रही थी, इस की कल्पना भी कोई नहीं कर सकता. मैं किस से कहती? अम्मां समझने लायक स्थिति में नहीं थीं. गुड़िया को कह कर उसे परेशान नहीं करना चाहती थी. इस समय वैसे ही वह प्रेग्नेंट थी. उसे परेशान करना तो पाप है. गुड़िया इन सब बातों से अनजान थी.

डाक्टर ने गुड़िया को बेड रेस्ट के लिए कह दिया था. अतः वह ससुराल भी जा नहीं सकती थी. उस की सासननद आ कर कभी उस को देख कर जाते. उन के आने से मेरी परेशानी ही बढ़ती, पर मैं क्या करूं? अपनी समस्या को कैसे बताऊं? गुड़िया की मम्मी ने तो पहले ही अपना पल्ला झाड़ लिया था.

मैं जिम्मेदारी से भागना नहीं चाहती थी, परंतु विभिन्न प्रकार की आशंकाओं से मैं घिरी हुई थी. मैं ने कभी कोई खुशी की बात तो देखी नहीं, हमेशा ही मेरे साथ धोखा ही होता रहा. मुझे लगने लगा कि मेरी काली छाया मेरी गुड़िया पर ना पड़े. पर, मैं इसे किसी को कह भी नहीं सकती. अंदर ही अंदर मैं परेशान हो रही थी. उसी समय मेरे मेनोपोज का भी था.

इस बीच अम्मां का देहांत हो गया.

गुड़िया का ड्यू डेट भी आ गया और उस ने एक सुंदर से बेटे को जन्म दिया. मैं खुश तो थी, पर जब तक उस के पति ने आ कर बच्चे को नहीं देखा, मेरे अंदर अजीब सी परेशानी होती रही थी.

जब गुड़िया का पति आ कर बच्चे को देख कर खुश हुआ, तब मुझे तसल्ली आई.

अब तो गुड़िया अपने पति के साथ विदेश में बस गई और मैं अकेली रह गई. यदि गुड़िया अपने देश में होती तो मुझ से मिलने आती रहती, पर विदेश में रहने के कारण साल में एक बार ही आ पाती. फिर भी मुझे तसल्ली थी. अब कोरोना की वजह से सालभर से ज्यादा हो गया, वह नहीं आई. और अभी आने की संभावना भी इस कोरोना के कारण दिखाई नहीं दे रही, पर मैं ने एक लड़की को पढ़ालिखा कर उस की शादी कर दी. भाभी की भी शादी कर दी. यह तसल्ली मुझे है. पर बुढ़ापे में रिटायर होने के बाद अकेलापन मुझे खाने को दौड़ता है. इस को एक भुक्तभोगी ही जान सकता है.

अब आप ही बताइए कि मेरी क्या गलती थी, जो पूरी जिंदगी मैं ने इतनी तकलीफ पाई? क्या लड़की होना मेरा गुनाह था? लड़का होना और मेरी जिंदगी से खेलना मेरे पति के लड़का होने का घमंड? उस को सभी छूट…? यह बात मेरी समझ में नहीं आई? आप की समझ में आई तो मुझे बता दें.

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June 01, 2021 at 10:00AM

उस का हौसला : हर कोई सुधा की परवरिश पर दोष क्यों दे रहा था- भाग 4

लेखिका -डा. के रानी

डिंपी राहुल के साथ बहुत खुश थी।अब सुधा भी अपनी नाराजगी भूल कर उन की खुशियों में शामिल हो गई लेकिन रमा को यह बात बहुत अखर गई थी कि डिंपी ने अपनी बिरादरी से बाहर जा कर जनजाति समाज से ताल्लुक रखने वाले राहुल से शादी की थी. उसे अपने खानदान पर बहुत गुरूर था।

डिंपी ने राहुल को अपना कर उस के खानदान के मान को ठेस पहुंचाई थी जब कभी रमा इस बारे में सोचती तो उसे मन ही मन बहुत परेशानी होती.

डिंपी की शादी को पूरे 3 बरस हो गए थे। आज भी घर पर रमा से मिलने जो भी रिश्तेदार आता वह किसी न किसी बहाने उस का जिक्र जरूर छेड़ देता.

दोपहर में रमा के मामा आए थे। उन्होंने भी परेश और डिंपी को ले कर रमा को काफी कुछ कहा. वह चुपचाप रही. कुछ बोल कर वह अपनी खीज मामा के सामने नहीं उतारना चाहती थी लेकिन जब भी वह मायके जाती इस बात का जिक्र परेश भैया और सुधा भाभी से जरूर कर देती। रमा की जलीकटी बातें वे एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल देते.

मामाजी के जाने के बाद रमा के दिमाग में बहुत देर तक मायके की घटनाएं चलचित्र की तरह घूमती रहीं और काफी समय तक वहां भटकने के बाद वह वर्तमान में लौट आई थी।

अमन उसे आवाज दे रहे थे,”कहां हो रमा? याद है, आज एक शादी के रिसेप्शन पर जाना है.”

“मुझे याद है लेकिन अभी तो उस में बहुत समय है,” कह कर रमा उठी और शादी में जाने की तैयारी करने लगी।

सारी पुरानी बातों को झटक कर वह तैयार होने में व्यस्त हो गई। रात के 8:00 बजे दोनों घर से निकले। संयोग से वैडिंग पौइंट में उन की मुलाकात सब से पहले परेश भैया और सुधा भाभी से हो गई।

रमा ने पूछा,”आप कब आईं भाभी?”

“बस अभी आई हूं। चलो, पहले दूल्हादुलहन को आशीर्वाद दे दें फिर आराम से बैठ कर बातें करेंगे,” कह कर सुधा और रमा स्टैज की ओर बढ गए.

ग्रुप फोटो के बाद वे नीचे आए और एक किनारे बैठ गए। तभी वहां पर डिंपी और राहुल भी आ गए. उन्हें देख कर रमा बुरी तरह चौंकी. दोनों ने बढ़ कर बुआ का अभिवादन किया। बदले में रमा ने सिर पर हाथ रख कर उन्हें शुभकामनाएं दीं.

“तुम कब आईं?”

“कल रात आई थी और कल सुबह वापस जाना है। मम्मीपापा के कहने पर हम यहां आ गए,” बुआ के तेवर देख कर डिंपी ने अपनी सफाई दी.

रमा के चेहरे को देख कर साफ झलक कहा था कि उसे डिंपी और राहुल का इस तरह आना अच्छा नहीं लगा था.

“भाभी आप ने बताया नहीं?”

“हम अभी तो मिले हैं रमा बात करने की फुरसत कहां लगी जो तुम्हें घर के बारे में कुछ बताती, ” सुधा ने कहा.

राहुल के आगे बढ़ते ही रमा बोली,”सच में भाभी आप का दिल बहुत बड़ा है.”

“बच्चों के लिए दिल बड़ा रखना पड़ता है रमा। उन की खुशी से बढ़ कर हमारे लिए और कोई खुशी नहीं है,” बातों का रूख अपनी ओर होता देख डिंपी ने वहां रुकना ठीक नहीं समझा और वह बुआ और मम्मी के बीच से हट कर दूसरी ओर बढ़ गई.

डिंपी को जाते देख कर परेश ने अंदाजा लगा लिया कि रमा जरूर उसे आज फिर कुछ न कुछ सुनाने से बाज नहीं आएगी। वे झट से रमा के पास पहुंच गए और बोले,”मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था रमा.”

“क्यों भैया?”

“मेरे साथ आओ. आज मैं तुम्हें एक बहुत खास व्यक्ति से मिलाना चाहता हूं.”

“किस से भैया?”

“तुम खुद ही देख लेना.”

परेश के आग्रह पर रमा उन के साथ चली गई। सुधा भी डिंपी के साथ आ गई। परेश ने रमा को दीपक के सामने खड़ा कर दिया।

“कैसी हो रमा?” दीपक ने पूछा.

बरसों बाद उसे अचानक यों अपने सामने देख कर रमा को अपनी आंखों में विश्वास नहीं हुआ.

“तुम अचानक यहां?”

“अपने औफिस के सहयोगी की बेटी की शादी में आया हूं। भाई साहब को देख कर मैं ने तुम्हारे बारे में पूछा। उन्होंने तुम से ही मिला दिया.”

“तुम भाई साहब को कैसे जानते हो? मैं ने तो तुम्हें कभी उन से नहीं मिलाया…”

“जरूरत इंसान से सब कुछ करा लेती है रमा। बस यही समझ लो, “कह कर दीपक ने इस बात को यहीं पर खत्म कर दिया।

वे दोनों बातें करने लगे. पुरानी यादों को ताजा कर के दोनों ही भावुक हो गए थे.

दीपक और रमा दोनों ग्रैजुएशन में एकसाथ पढ़ते थे। रमा ब्राह्मण परिवार से और दीपक राजपूत खानदान से ताल्लुक रखते थे। दोनों एकदूसरे को बहुत पसंद करते थे।

दीपक ने उसे जताया भी था,’रमा, मुझे तुम बहुत पसंद हो.’

लेकिन रमा अपनी जबान से कभी उसे कह नहीं पाई कि वह भी उसे बहुत चाहती है। दीपक की दिली इच्छा थी कि वे दोनों अपनी जिंदगी एकसाथ बिताएं। उस ने रमा से बहुत आग्रह किया कि वह इस सचाई को स्वीकार कर ले लेकिन समाज के डर से रमा अपनी भावनाओं को कभी इजहार ही नहीं कर पाई।

दीपक ने उसे समझाया,’हम कुछ गलत नहीं कर रहे हैं रमा तुम चाहो तो हम एक नई जिंदगी का आगाज कर सकते हैं.’

‘तुम तो मेरी पारिवारिक परिस्थितियों को जानते हो। बाबूजी शादी के लिए कभी राजी नहीं होंगे,’रमा हर बार एक ही बात दोहरा देती।

वह जानती थी कि बाबूजी के सामने उस की पसंद का कोई मोल नहीं होगा।

दीपक भी इतनी आसानी से हार मानने वाला ना था। रमा को पाने के लिए वह कुछ भी कर सकता था। बहुत सोचसमझ कर उस ने अपनी इच्छा परेश भाई साहब से साझा की थी।

परेश ने भी अपनी मजबूरी बता दी थी,’दीपक, मैं जानता हूं तुम बहुत अच्छे लड़के हो पर इस बारे में मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता.’

‘कोई तो रास्ता तो होगा।’

‘एक ही रास्ता है। यदि रमा बाबूजी के सामने अपनी पसंद का इजहार करे और अपने निर्णय पर अड़ी रहे तो हो सकता है बाबूजी मान जाएं।’

‘आप को लगता है कि रमा ऐसा करेगी?’

‘तुम उस से बात करके तो देखो। हो सकता है कि उस पर कुछ असर हो जाए,’परेश ने समझाया।

परेश दीपक की भावनाओं की बड़ी कद्र करते थे। उस ने समझदारी दिखाते हुए रमा से पहले उन्हें विश्वास में लिया था।

परेश के कहने पर दीपक ने अपनी भावनाओं का इजजहार रमा के सामने कर दिया था,’रमा, मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं और पूरी जिंदगी तुम्हारे साथ बिताना चाहता हूं।’

‘ऐसा नहीं हो सकता दीपक। बाबूजी कभी नहीं मानेंगे.’

‘तुम एक बार कोशिश कर के तो देखो.’

‘मैं अपने बाबूजी को अच्छी तरह जानती हूं. वह बिरादरी से बाहर मेरी शादी के लिए कभी तैयार नहीं होंगे.’

‘रमा, मेरी खातिर एक बार फिर से सोच लो। यह हम दोनों की जिंदगी का सवाल है.’

‘दीपक, बाबूजी को बेटी से ज्यादा अपनी इज्जत प्यारी है। वह बेटी का दुख तो बरदाश्त कर सकते हैं पर इज्जत खोने का भय उन्हें जीने नहीं देगा.’

दीपक ने उसे बहुत समझाया लेकिन रमा परिवार के खिलाफ जा कर शादी के लिए तैयार नहीं हुई। दीपक ने यह बात परेश भाई को बता दी थी।

‘दीपक, मैं रमा का साथ जरूर देता यदि वह खुद अपना साथ देने के लिए तैयार हो जाती। मैं मजबूर हूं,’कह कर परेश ने दीपक को समझाया.

उस के बाद से वह शहर छोड़ कर ही चला गया। रमा के दिल में दीपक से बिछड़ने की बड़ी कसक थी पर वह किसी भी कीमत पर बगावत करने के लिए तैयार न थी।

बाबूजी ने अपनी बिरादरी में अच्छा लड़का देख कर अमन से उस की शादी करा दी थी। धीरेधीरे रमा के दिल से दीपक की यादें धूमिल सी हो गई थीं. आज वह सब फिर से ताजा हो गई। परेश भाई के आ जाने से वे दोनों अतीत से बाहर आ गए।

“दीपक, तुम ने अपनी घरगृहस्थी बसाई या नहीं?” परेश ने पूछा।

“गृहस्थी तो तब बसती जब आप मेरा साथ देते,” दीपक हंस कर बोला।

तभी किसी ने दीपक को आवाज लगाई और वह उन से विदा ले कर चला गया। दीपक की बात सुन कर रमा आसमान से जमीन पर गिर पड़ी। उस के चेहरे का रंग उड़ गया,’तो क्या, भाई साहब उस के बारे में सबकुछ जानते थे…’

रमा की हालत से परेश भी अनभिज्ञ ना थे। उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोले,”जो कुछ तुम ने नहीं बताया मुझे वह सब दीपक ने बता दिया था। डिंपी में मुझे हमेशा तुम्हीं नजर आती रहीं रमा। बस, अंतर इतना था कि डिंपी में साहस के साथ बात मनवाने का हौसला था। उस ने बड़ी हिम्मत से सारी परिस्थिति का मुकाबला किया। आज हम सब खुश हैं। मुझे उस के निर्णय पर गर्व है। काश, तुम भी इतनी हिम्मत दिखा पाती…”

“भाई साहब, जो हो गया अब उस पर क्या पछताना… शायद वक्त को यही मंजूर था,”रमा सिर झुका कर बोली.

इस समय उस में इतना साहस ना था कि वह भाई साहब से गरदन उठा कर बात कर पाती। आज वह अपनेआप को डिंपी के सामने बहुत छोटा महसूस कर रही थी। किसी तरह रमा ने भाई के साथ खाना खाया और भाभी और डिंपी से मिले बगैर घर वापस लौट गई।

अमन महसूस कर रहे थे कि रमा आज बहुत चुपचुप सी है।

“क्या हुआ रमा?”

“कुछ नहीं.”

“लगता है, डिंपी के कारण तुम्हारा मूड खराब हो गया है,”अमन ने झिझकते हुए कहा।

उसे डर था कि कहीं डिंपी का नाम सुन कर रमा भड़क न जाए।

“नहीं ऐसी बात नहीं। उसे देख कर मुझे भी अच्छा लगा। अब सोचती हूं कि मेरी सोच कितनी संकुचित थी।”

“ऐसी बात सोच कर मन छोटा न करो।”

“इरादा पक्का हो तो इंसान एक दिन सब को मना ही लेता है। डिंपी ने यही सब तो किया. कितने लोग ऐसा कर पाते हैं,” कह कर रमा ने गहरी सांस ली।

परेश भैया के कहे हुए शब्द अभी तक उस के दिमाग में घूम रहे थे।
‘सच में भैया कितने महान हैं,’ वह बुदबुदाई।

आंसू की 2 बूंदें उस की आंखों के कोरों पर अटक गई, जिसे वह बड़ी सफाई से अमन से छिपाने की कोशिश करने लगी।

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लेखिका -डा. के रानी

डिंपी राहुल के साथ बहुत खुश थी।अब सुधा भी अपनी नाराजगी भूल कर उन की खुशियों में शामिल हो गई लेकिन रमा को यह बात बहुत अखर गई थी कि डिंपी ने अपनी बिरादरी से बाहर जा कर जनजाति समाज से ताल्लुक रखने वाले राहुल से शादी की थी. उसे अपने खानदान पर बहुत गुरूर था।

डिंपी ने राहुल को अपना कर उस के खानदान के मान को ठेस पहुंचाई थी जब कभी रमा इस बारे में सोचती तो उसे मन ही मन बहुत परेशानी होती.

डिंपी की शादी को पूरे 3 बरस हो गए थे। आज भी घर पर रमा से मिलने जो भी रिश्तेदार आता वह किसी न किसी बहाने उस का जिक्र जरूर छेड़ देता.

दोपहर में रमा के मामा आए थे। उन्होंने भी परेश और डिंपी को ले कर रमा को काफी कुछ कहा. वह चुपचाप रही. कुछ बोल कर वह अपनी खीज मामा के सामने नहीं उतारना चाहती थी लेकिन जब भी वह मायके जाती इस बात का जिक्र परेश भैया और सुधा भाभी से जरूर कर देती। रमा की जलीकटी बातें वे एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल देते.

मामाजी के जाने के बाद रमा के दिमाग में बहुत देर तक मायके की घटनाएं चलचित्र की तरह घूमती रहीं और काफी समय तक वहां भटकने के बाद वह वर्तमान में लौट आई थी।

अमन उसे आवाज दे रहे थे,”कहां हो रमा? याद है, आज एक शादी के रिसेप्शन पर जाना है.”

“मुझे याद है लेकिन अभी तो उस में बहुत समय है,” कह कर रमा उठी और शादी में जाने की तैयारी करने लगी।

सारी पुरानी बातों को झटक कर वह तैयार होने में व्यस्त हो गई। रात के 8:00 बजे दोनों घर से निकले। संयोग से वैडिंग पौइंट में उन की मुलाकात सब से पहले परेश भैया और सुधा भाभी से हो गई।

रमा ने पूछा,”आप कब आईं भाभी?”

“बस अभी आई हूं। चलो, पहले दूल्हादुलहन को आशीर्वाद दे दें फिर आराम से बैठ कर बातें करेंगे,” कह कर सुधा और रमा स्टैज की ओर बढ गए.

ग्रुप फोटो के बाद वे नीचे आए और एक किनारे बैठ गए। तभी वहां पर डिंपी और राहुल भी आ गए. उन्हें देख कर रमा बुरी तरह चौंकी. दोनों ने बढ़ कर बुआ का अभिवादन किया। बदले में रमा ने सिर पर हाथ रख कर उन्हें शुभकामनाएं दीं.

“तुम कब आईं?”

“कल रात आई थी और कल सुबह वापस जाना है। मम्मीपापा के कहने पर हम यहां आ गए,” बुआ के तेवर देख कर डिंपी ने अपनी सफाई दी.

रमा के चेहरे को देख कर साफ झलक कहा था कि उसे डिंपी और राहुल का इस तरह आना अच्छा नहीं लगा था.

“भाभी आप ने बताया नहीं?”

“हम अभी तो मिले हैं रमा बात करने की फुरसत कहां लगी जो तुम्हें घर के बारे में कुछ बताती, ” सुधा ने कहा.

राहुल के आगे बढ़ते ही रमा बोली,”सच में भाभी आप का दिल बहुत बड़ा है.”

“बच्चों के लिए दिल बड़ा रखना पड़ता है रमा। उन की खुशी से बढ़ कर हमारे लिए और कोई खुशी नहीं है,” बातों का रूख अपनी ओर होता देख डिंपी ने वहां रुकना ठीक नहीं समझा और वह बुआ और मम्मी के बीच से हट कर दूसरी ओर बढ़ गई.

डिंपी को जाते देख कर परेश ने अंदाजा लगा लिया कि रमा जरूर उसे आज फिर कुछ न कुछ सुनाने से बाज नहीं आएगी। वे झट से रमा के पास पहुंच गए और बोले,”मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था रमा.”

“क्यों भैया?”

“मेरे साथ आओ. आज मैं तुम्हें एक बहुत खास व्यक्ति से मिलाना चाहता हूं.”

“किस से भैया?”

“तुम खुद ही देख लेना.”

परेश के आग्रह पर रमा उन के साथ चली गई। सुधा भी डिंपी के साथ आ गई। परेश ने रमा को दीपक के सामने खड़ा कर दिया।

“कैसी हो रमा?” दीपक ने पूछा.

बरसों बाद उसे अचानक यों अपने सामने देख कर रमा को अपनी आंखों में विश्वास नहीं हुआ.

“तुम अचानक यहां?”

“अपने औफिस के सहयोगी की बेटी की शादी में आया हूं। भाई साहब को देख कर मैं ने तुम्हारे बारे में पूछा। उन्होंने तुम से ही मिला दिया.”

“तुम भाई साहब को कैसे जानते हो? मैं ने तो तुम्हें कभी उन से नहीं मिलाया…”

“जरूरत इंसान से सब कुछ करा लेती है रमा। बस यही समझ लो, “कह कर दीपक ने इस बात को यहीं पर खत्म कर दिया।

वे दोनों बातें करने लगे. पुरानी यादों को ताजा कर के दोनों ही भावुक हो गए थे.

दीपक और रमा दोनों ग्रैजुएशन में एकसाथ पढ़ते थे। रमा ब्राह्मण परिवार से और दीपक राजपूत खानदान से ताल्लुक रखते थे। दोनों एकदूसरे को बहुत पसंद करते थे।

दीपक ने उसे जताया भी था,’रमा, मुझे तुम बहुत पसंद हो.’

लेकिन रमा अपनी जबान से कभी उसे कह नहीं पाई कि वह भी उसे बहुत चाहती है। दीपक की दिली इच्छा थी कि वे दोनों अपनी जिंदगी एकसाथ बिताएं। उस ने रमा से बहुत आग्रह किया कि वह इस सचाई को स्वीकार कर ले लेकिन समाज के डर से रमा अपनी भावनाओं को कभी इजहार ही नहीं कर पाई।

दीपक ने उसे समझाया,’हम कुछ गलत नहीं कर रहे हैं रमा तुम चाहो तो हम एक नई जिंदगी का आगाज कर सकते हैं.’

‘तुम तो मेरी पारिवारिक परिस्थितियों को जानते हो। बाबूजी शादी के लिए कभी राजी नहीं होंगे,’रमा हर बार एक ही बात दोहरा देती।

वह जानती थी कि बाबूजी के सामने उस की पसंद का कोई मोल नहीं होगा।

दीपक भी इतनी आसानी से हार मानने वाला ना था। रमा को पाने के लिए वह कुछ भी कर सकता था। बहुत सोचसमझ कर उस ने अपनी इच्छा परेश भाई साहब से साझा की थी।

परेश ने भी अपनी मजबूरी बता दी थी,’दीपक, मैं जानता हूं तुम बहुत अच्छे लड़के हो पर इस बारे में मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता.’

‘कोई तो रास्ता तो होगा।’

‘एक ही रास्ता है। यदि रमा बाबूजी के सामने अपनी पसंद का इजहार करे और अपने निर्णय पर अड़ी रहे तो हो सकता है बाबूजी मान जाएं।’

‘आप को लगता है कि रमा ऐसा करेगी?’

‘तुम उस से बात करके तो देखो। हो सकता है कि उस पर कुछ असर हो जाए,’परेश ने समझाया।

परेश दीपक की भावनाओं की बड़ी कद्र करते थे। उस ने समझदारी दिखाते हुए रमा से पहले उन्हें विश्वास में लिया था।

परेश के कहने पर दीपक ने अपनी भावनाओं का इजजहार रमा के सामने कर दिया था,’रमा, मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं और पूरी जिंदगी तुम्हारे साथ बिताना चाहता हूं।’

‘ऐसा नहीं हो सकता दीपक। बाबूजी कभी नहीं मानेंगे.’

‘तुम एक बार कोशिश कर के तो देखो.’

‘मैं अपने बाबूजी को अच्छी तरह जानती हूं. वह बिरादरी से बाहर मेरी शादी के लिए कभी तैयार नहीं होंगे.’

‘रमा, मेरी खातिर एक बार फिर से सोच लो। यह हम दोनों की जिंदगी का सवाल है.’

‘दीपक, बाबूजी को बेटी से ज्यादा अपनी इज्जत प्यारी है। वह बेटी का दुख तो बरदाश्त कर सकते हैं पर इज्जत खोने का भय उन्हें जीने नहीं देगा.’

दीपक ने उसे बहुत समझाया लेकिन रमा परिवार के खिलाफ जा कर शादी के लिए तैयार नहीं हुई। दीपक ने यह बात परेश भाई को बता दी थी।

‘दीपक, मैं रमा का साथ जरूर देता यदि वह खुद अपना साथ देने के लिए तैयार हो जाती। मैं मजबूर हूं,’कह कर परेश ने दीपक को समझाया.

उस के बाद से वह शहर छोड़ कर ही चला गया। रमा के दिल में दीपक से बिछड़ने की बड़ी कसक थी पर वह किसी भी कीमत पर बगावत करने के लिए तैयार न थी।

बाबूजी ने अपनी बिरादरी में अच्छा लड़का देख कर अमन से उस की शादी करा दी थी। धीरेधीरे रमा के दिल से दीपक की यादें धूमिल सी हो गई थीं. आज वह सब फिर से ताजा हो गई। परेश भाई के आ जाने से वे दोनों अतीत से बाहर आ गए।

“दीपक, तुम ने अपनी घरगृहस्थी बसाई या नहीं?” परेश ने पूछा।

“गृहस्थी तो तब बसती जब आप मेरा साथ देते,” दीपक हंस कर बोला।

तभी किसी ने दीपक को आवाज लगाई और वह उन से विदा ले कर चला गया। दीपक की बात सुन कर रमा आसमान से जमीन पर गिर पड़ी। उस के चेहरे का रंग उड़ गया,’तो क्या, भाई साहब उस के बारे में सबकुछ जानते थे…’

रमा की हालत से परेश भी अनभिज्ञ ना थे। उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोले,”जो कुछ तुम ने नहीं बताया मुझे वह सब दीपक ने बता दिया था। डिंपी में मुझे हमेशा तुम्हीं नजर आती रहीं रमा। बस, अंतर इतना था कि डिंपी में साहस के साथ बात मनवाने का हौसला था। उस ने बड़ी हिम्मत से सारी परिस्थिति का मुकाबला किया। आज हम सब खुश हैं। मुझे उस के निर्णय पर गर्व है। काश, तुम भी इतनी हिम्मत दिखा पाती…”

“भाई साहब, जो हो गया अब उस पर क्या पछताना… शायद वक्त को यही मंजूर था,”रमा सिर झुका कर बोली.

इस समय उस में इतना साहस ना था कि वह भाई साहब से गरदन उठा कर बात कर पाती। आज वह अपनेआप को डिंपी के सामने बहुत छोटा महसूस कर रही थी। किसी तरह रमा ने भाई के साथ खाना खाया और भाभी और डिंपी से मिले बगैर घर वापस लौट गई।

अमन महसूस कर रहे थे कि रमा आज बहुत चुपचुप सी है।

“क्या हुआ रमा?”

“कुछ नहीं.”

“लगता है, डिंपी के कारण तुम्हारा मूड खराब हो गया है,”अमन ने झिझकते हुए कहा।

उसे डर था कि कहीं डिंपी का नाम सुन कर रमा भड़क न जाए।

“नहीं ऐसी बात नहीं। उसे देख कर मुझे भी अच्छा लगा। अब सोचती हूं कि मेरी सोच कितनी संकुचित थी।”

“ऐसी बात सोच कर मन छोटा न करो।”

“इरादा पक्का हो तो इंसान एक दिन सब को मना ही लेता है। डिंपी ने यही सब तो किया. कितने लोग ऐसा कर पाते हैं,” कह कर रमा ने गहरी सांस ली।

परेश भैया के कहे हुए शब्द अभी तक उस के दिमाग में घूम रहे थे।
‘सच में भैया कितने महान हैं,’ वह बुदबुदाई।

आंसू की 2 बूंदें उस की आंखों के कोरों पर अटक गई, जिसे वह बड़ी सफाई से अमन से छिपाने की कोशिश करने लगी।

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May 31, 2021 at 10:00AM

उस का हौसला : हर कोई सुधा की परवरिश पर दोष क्यों दे रहा था- भाग 3

लेखिका -डा. के रानी

“ऐसा नया जमाना तुम्हें ही मुबारक हो डिंपी जो तुम सब को इतनी बेशर्मी की छूट देता है.”
“आप को हमारी दोस्ती पर एतराज है ना मम्मी, तो ठीक है हम शादी कर लेंगे। तब तो किसी को कोई एतराज नहीं रहेगा। राहुल तुम मुझ से शादी करने के लिए तैयार हो?” डिंपी ने पूछा.

रमा के सामने मम्मीबेटी की बहस में राहुल चुप रहा। इस समय कुछ कह कर उन का गुस्सा बढ़ाना नहीं चाहता था। वह कभी सुधा आंटी का मुंह देख रहा था तो कभी रमा बुआ का.

“चुप कर। जो मुंह में आ रहा है वह बके जा रही है,”रमा जोर से बोली. “आंटी ठीक कह रही हैं. हमें बड़ों की इज्जत करनी चाहिए और उन का मान भी रहना रखना चाहिए,” कह कर राहुल दरवाजे से ही लौट गया.

डिंपी भी गुस्से से पैर पटकती हुई अपने कमरे में आ गई. रमा ने वहां रुकना ठीक नहीं समझा और घर लौट गई. अगर वह कुछ देर और वहां रुकती तो शायद बात बहुत बढ़ जाती. डिंपी की हरकतें देख कर सुधा आज बहुत परेशान थी.

डिंपी के कहे शब्द सुधा के कानों में हथौड़े की तरह बज रहे थे। वह बड़ी बेसब्री से परेश के औफिस से वापस आने का इंतजार कर रही थी. शाम को 6 बजे परेश घर आए। आते ही उन्होंने सुधा से पूछा,”तुम्हारा मुंह क्यों उतरा हुआ है?”

“यह तो तुम अपनी बेटी से पूछो.” “हुआ क्या है?” परेश बोले तो सुधा ने पूरी बात बता दी.
“डिंपी ने गुस्से में कह दिया होगा  मैं जानता हूं वह ऐसा नहीं कर सकती” “तुम उस से खुद ही पूछ लो,” कह कर पैर पटकते हुए सुधा वहां से हट गई.

सुधा के जाते ही डिंपी खुद ही पापा के पास आ गई। परेश ने पूछा,”यह मैं क्या सुन रहा हूं डिंपी?”
“आप ने ठीक सुना पापा.” “क्या कह रही हो तुम?” “पापा, मुझे राहुल पसंद है।”

“सबकुछ जान कर भी तुम ऐसी बात कर रही हो?”

“आप को समाज की परवाह है? मुझे नहीं.”

“तुम्हारे इस फैसले मे मैं तुम्हारा साथ नहीं दे सकता.”

“साथ तो आप को देना ही होगा पापा। मैं शादी करूंगी तो सिर्फ राहुल से और वह भी आप की सहमति से,” कह कर डिंपी वहां से चली गई।

परेश को उस से ऐसी उम्मीद ना थी। इतना सब होने पर भी परेश ने धैर्य नहीं खोया।

सुधा बोली,”सुन ली अपनी लाड़ली की बातें.”

परेश ने समझाया,”हमें डिंपी को कुछ समय देना चाहिए। हो सकता है उस ने जज्बात मे बह कर ऐसा कह दिया हो।”

“मैं तो आप को शुरू से ही कह रही थी कि मुझे डिंपी का राहुल से मेलजोल कतई पसंद नहीं है.”

“मैं ने उससे इस बारे में बात की थी. उस ने राहुल को केवल अपना दोस्त बताया था.”

“पता नहीं आप उस की हर बात को आंख मूंद कर कैसे सच मान लेते हैं.”

“तुम थोड़ा सब्र रखो सुधा। देख लेना एक दिन सब ठीक हो जाएगा.”

“अब ठीक होने के लिए बचा ही क्या है?”

“डिंपी हमारी बेटी है दुश्मन नहीं।”

“लेकिन काम तो वह दुश्मनों से भी बुरा कर रही है,” कह कर सुधा किचन में आ गई।

उस दिन के बाद से राहुल कभी डिंपी को छोड़ने घर नहीं आया। अकसर डिंपी ही उस से मिलने चली जाती। परेश ने डिंपी को सोचने के लिए पूरा 1 साल इंतजार किया लेकिन डिंपी ने अपना फैसला नहीं बदला।

“पापा, मैं राहुल से ही शादी करूंगी.”

“मैं इस की इजाजत नहीं दे सकता डिंपी। तुम चाहो तो कोर्ट मैरिज कर सकती हो.”

“पापा, मुझे यह सब करना होता तो बहुत पहले कर लेती। मैं चाहती हूं कि आप सब मेरी खुशी में शामिल हों।”

“मुझ से नहीं होगा, बेटा।”

“अपने बच्चों की खुशी से बढ़ कर दुनिया में कोई और खुशी नहीं होती पापा।

“तुम्हारे इस फैसले से पूरा परिवार नाखुश है।”

“मुझे उन की नहीं आप की परवाह है पापा?” कह कर डिंपी वहां से चली गई।

इस बारे में सुधा से उस की पहले ही बहुत बहस हो गई थी। डिंपी जानती थी यदि पापा मान गए तो मम्मी को उन की बात माननी ही पड़ेगी। राहुल के घर वालों को इस रिश्ते पर एतराज ना था। उन सभी को डिंपी बहुत पसंद थी।

डिंपी के घर में सामाजिक मर्यादाओं को ले कर ही अड़चन थी परेश जानते थे कि अपनी बिरादरी में भी उन्हें राहुल जैसा नेक और सुलझा हुआ दामाद नहीं मिल सकता। डिंपी  ने भी हार नहीं मानी।

परेश ने जब भी उसे समझाना चाहा उस का एक ही जवाब होता,”मैं राहुल के अलावा किसी और से शादी नहीं करूंगी.”

बेटी की जिद के आगे आखिर परेश  और सुधा को झुकना पड़ा। रिश्तेदारी में बड़ी थूथू हुई। बेटी की खुशी की खातिर परेश ने सादे समारोह में डिंपी और राहुल की शादी करा दी।

हरकोई सुधा की परवरिश को ही दोष दे रहा था जिस में बेटी को इतनी छूट दे रखी थी. अच्छे प्रतिष्ठित ब्राह्मण खानदान की बेटी इस तरीके से जनजाति परिवार में चली जाएगी, यह बात उन के गले से नीचे ही नहीं उतर रही थी. पीठ पीछे सब चटकारे ले कर बातें बना रहे थे। रमा के लिए भी यह सब सहन करना बहुत मुश्किल हो रहा था।

रिश्तेदार परेश से तो कुछ ना कहते लेकिन रमा को खूब सुना कर चले जाते। रमा का मन इस शादी में शामिल होने का जरा भी नहीं था, मगर अमन की जिद के कारण रमा को भी इस शादी में शामिल होना पड़ा था।

परेश ने कुछ गिनेचुने लोगों को भी समारोह में बुलाया था. बिरादरी में बड़े दिनों तक इस की चर्चा होती रही और धीरेधीरे सब चुप हो गए थे।

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लेखिका -डा. के रानी

“ऐसा नया जमाना तुम्हें ही मुबारक हो डिंपी जो तुम सब को इतनी बेशर्मी की छूट देता है.”
“आप को हमारी दोस्ती पर एतराज है ना मम्मी, तो ठीक है हम शादी कर लेंगे। तब तो किसी को कोई एतराज नहीं रहेगा। राहुल तुम मुझ से शादी करने के लिए तैयार हो?” डिंपी ने पूछा.

रमा के सामने मम्मीबेटी की बहस में राहुल चुप रहा। इस समय कुछ कह कर उन का गुस्सा बढ़ाना नहीं चाहता था। वह कभी सुधा आंटी का मुंह देख रहा था तो कभी रमा बुआ का.

“चुप कर। जो मुंह में आ रहा है वह बके जा रही है,”रमा जोर से बोली. “आंटी ठीक कह रही हैं. हमें बड़ों की इज्जत करनी चाहिए और उन का मान भी रहना रखना चाहिए,” कह कर राहुल दरवाजे से ही लौट गया.

डिंपी भी गुस्से से पैर पटकती हुई अपने कमरे में आ गई. रमा ने वहां रुकना ठीक नहीं समझा और घर लौट गई. अगर वह कुछ देर और वहां रुकती तो शायद बात बहुत बढ़ जाती. डिंपी की हरकतें देख कर सुधा आज बहुत परेशान थी.

डिंपी के कहे शब्द सुधा के कानों में हथौड़े की तरह बज रहे थे। वह बड़ी बेसब्री से परेश के औफिस से वापस आने का इंतजार कर रही थी. शाम को 6 बजे परेश घर आए। आते ही उन्होंने सुधा से पूछा,”तुम्हारा मुंह क्यों उतरा हुआ है?”

“यह तो तुम अपनी बेटी से पूछो.” “हुआ क्या है?” परेश बोले तो सुधा ने पूरी बात बता दी.
“डिंपी ने गुस्से में कह दिया होगा  मैं जानता हूं वह ऐसा नहीं कर सकती” “तुम उस से खुद ही पूछ लो,” कह कर पैर पटकते हुए सुधा वहां से हट गई.

सुधा के जाते ही डिंपी खुद ही पापा के पास आ गई। परेश ने पूछा,”यह मैं क्या सुन रहा हूं डिंपी?”
“आप ने ठीक सुना पापा.” “क्या कह रही हो तुम?” “पापा, मुझे राहुल पसंद है।”

“सबकुछ जान कर भी तुम ऐसी बात कर रही हो?”

“आप को समाज की परवाह है? मुझे नहीं.”

“तुम्हारे इस फैसले मे मैं तुम्हारा साथ नहीं दे सकता.”

“साथ तो आप को देना ही होगा पापा। मैं शादी करूंगी तो सिर्फ राहुल से और वह भी आप की सहमति से,” कह कर डिंपी वहां से चली गई।

परेश को उस से ऐसी उम्मीद ना थी। इतना सब होने पर भी परेश ने धैर्य नहीं खोया।

सुधा बोली,”सुन ली अपनी लाड़ली की बातें.”

परेश ने समझाया,”हमें डिंपी को कुछ समय देना चाहिए। हो सकता है उस ने जज्बात मे बह कर ऐसा कह दिया हो।”

“मैं तो आप को शुरू से ही कह रही थी कि मुझे डिंपी का राहुल से मेलजोल कतई पसंद नहीं है.”

“मैं ने उससे इस बारे में बात की थी. उस ने राहुल को केवल अपना दोस्त बताया था.”

“पता नहीं आप उस की हर बात को आंख मूंद कर कैसे सच मान लेते हैं.”

“तुम थोड़ा सब्र रखो सुधा। देख लेना एक दिन सब ठीक हो जाएगा.”

“अब ठीक होने के लिए बचा ही क्या है?”

“डिंपी हमारी बेटी है दुश्मन नहीं।”

“लेकिन काम तो वह दुश्मनों से भी बुरा कर रही है,” कह कर सुधा किचन में आ गई।

उस दिन के बाद से राहुल कभी डिंपी को छोड़ने घर नहीं आया। अकसर डिंपी ही उस से मिलने चली जाती। परेश ने डिंपी को सोचने के लिए पूरा 1 साल इंतजार किया लेकिन डिंपी ने अपना फैसला नहीं बदला।

“पापा, मैं राहुल से ही शादी करूंगी.”

“मैं इस की इजाजत नहीं दे सकता डिंपी। तुम चाहो तो कोर्ट मैरिज कर सकती हो.”

“पापा, मुझे यह सब करना होता तो बहुत पहले कर लेती। मैं चाहती हूं कि आप सब मेरी खुशी में शामिल हों।”

“मुझ से नहीं होगा, बेटा।”

“अपने बच्चों की खुशी से बढ़ कर दुनिया में कोई और खुशी नहीं होती पापा।

“तुम्हारे इस फैसले से पूरा परिवार नाखुश है।”

“मुझे उन की नहीं आप की परवाह है पापा?” कह कर डिंपी वहां से चली गई।

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May 29, 2021 at 10:00AM

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