Monday 31 August 2020

Aaj Ka Rashifal 1 September 2020 : कुछ दिक्कतों के साथ खुशी मिलने ...

नौकरी में आज आपका दिन अच्छा रहेगा। प्रेमी—प्रेमिका से आज संबंध मधुर बनाकर रखना ...

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ठगी:जर्मनी में नौकरी दिलवाने के नाम पर ठगे 12.50 लाख ...

... जर्मनी भेजकर नौकरी दिलवाने का झांसा दिया। बार-बार कहने पर वह उनके झांसे में आ ...

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पीले पत्ते-भाग 3: डॉ प्रवीण के साथ क्या हादसा हुआ था?

अनुभा को यह बात गहरे तक चुभ गई, छटपटा कर बोली, ‘‘उपकार कर के जो व्यक्ति उस के बदले में कुछ मांगने लगे, उस का उपकार उपकार नहीं रह जाता, बल्कि बोझ बन जाता है. और मैं आप का यह बोझ जल्द ही उतार दूंगी,’’ भरे गले से किंतु दृढ़ निश्चय के साथ अनुभा ने कहा और वेदांत को ले कर आगे बढ़ गई. डा. विनीत मन मसोस कर रह गए.

इतनी समतल सी दिखने वाली जिंदगी ऐसे ऊबड़खाबड़ रास्तों पर ले जाएगी, अनुभा ने कभी सोचा भी न था. जिस जीवनयात्रा में प्रवीण और उसे साथसाथ चलना था, उस में प्रवीण बीच में ही थक कर उस से आज्ञा मांग रहे थे, नहीं, नहीं, वह इतनी सहजता से प्रवीण को जाने नहीं देगी. वह कुछ करेगी. मुंबई के तो सारे डाक्टरों ने जवाब दे दिया, क्या दुनिया के किसी कोने में कोई डाक्टर होगा जो उस के प्रवीण का इलाज कर देगा. वह अस्पताल में मैडिकल साइंस पर आधारित वैबसाइट पर सर्च करती हुई कंप्यूटर पर घंटों बैठी रहती, कहीं कोई तो सुराग मिले.

वह इन विषयों पर मैडिकल और रिसर्च से जुड़ी विभिन्न पत्रिकाएं मंगाने लगी. वह किसी भी हाल में डा. प्रवीण का इलाज कराना चाहती थी. एक दिन उस ने एक पत्रिका में अमेरिका के उच्च कोटि के न्यूरोसर्जन डा. पीटर एडबर्ग के बारे में पढ़ा. अच्छा यह रहा कि वे अगले महीने कुछ दिनों के लिए भारत आने वाले थे. अनुभा यह अवसर किसी हाल में हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी. वह प्रवीण को उन के पास ले कर गई. डाक्टर पीटर ने प्रवीण की अच्छी तरह जांच की, कुछ टैस्ट करवाए और आखिर में इस निर्णय पर पहुंचे कि यदि दिमाग की एक नस, जो पूरी तरह बंद हो गई है, औपरेशन के द्वारा खोल दी जाए तो रक्त का संचालन ठीक तरह से फिर प्रारंभ होगा और शायद मस्तिष्क अपने कार्य करने फिर प्रारंभ कर दे. पर अभी निश्चितरूप से कुछ कहा नहीं जा सकता.

औपरेशन यदि सफल नहीं हुआ तो डाक्टर प्रवीण की जान भी जा सकती थी. डाक्टर पीटर की एक शर्त और थी कि यह औपरेशन सिर्फ अमेरिका में हो सकता है, इसलिए पेशेंट को वहीं लाना पड़ेगा. अनुभा एक बार फिर पसोपेश में पड़ गई थी कि डा. प्रवीण का औपरेशन करवाए कि नहीं. यदि औपरेशन असफल हुआ तो वह उन की देह भी खो देगी. लेकिन निर्णय भी उस ने स्वयं लिया. वह डा. प्रवीण का विवश और पराश्रित रूप और नहीं देख सकती थी, धड़कते हृदय से उस ने औपरेशन के लिए हां कर दी. समय बहुत कम था और उसे ज्यादा से ज्यादा पैसे इकट्ठे करने थे. अपनी सारी जमापूंजी इकट्ठा करने के बाद भी इतना पैसा जमा नहीं हो पाया था कि अमेरिका में औपरेशन हो सके. अचानक अनुभा के ससुर को ये बातें किसी रिश्तेदार के द्वारा पता चलीं और अब तक उस का विरोध करने वाले ससुर उस की मदद करने को तत्पर हो गए. रुपयों का प्रबंध भी उन्होंने ही किया. अनुभा की प्रवीण को बचाने की इच्छा में वे भी सहयोग देना चाहते थे. वे अनुभा के साथ अमेरिका आ गए. वेदांत को अनुभा की मां के पास छोड़ दिया था.

अमेरिका पहुंचते ही डा. प्रवीण को अस्पताल में भरती करवा दिया जहां उस के कई प्रकार के टैस्ट हो रहे थे. डा. पीटर खासतौर से उन का खयाल रख रहे  थे. उन की टीम के अन्य डाक्टरों से भी अनुभा की पहचान हो गई थी. सभी पूरी मदद कर रहे थे. अस्पताल की व्यवस्थाओं में पेशेंट से घर के लोगों का मिलना मुश्किल था, सिर्फ औपरेशन थिएटर ले जाने के पहले 2 मिनट के लिए डा. प्रवीण से मुलाकात करवाई. उस समय अनुभा टकटकी लगाए उन्हें देख रही थी. यह चेहरा फिर मुसकराएगा या हमेशा के लिए खो जाएगा, सबकुछ अनिश्चित था.

करीब 7 घंटे तक औपरेशन चलने वाला था. अनुभा सुन्न सी बैठी अस्पताल की सफेद दीवारों को देख रही थी. इन दीवारों पर उस के जीवन से जुड़ी हुई न जाने कितनी मीठीकड़वी यादें चित्र बन कर सामने आ रही थीं, तभी अनुभा के ससुर ने उस की पीठ पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘धीरज रखो, बेटी, सब ठीक होगा.’’ निश्चित समय के बाद डा. पीटर ने बाहर आ कर कहा, ‘‘औपरेशन हो चुका है. अब हमें पेशेंट के होश में आने का इंतजार करना पड़ेगा.’’

अनुभा जानती थी कि यदि प्रवीण को होश नहीं आया तो वह उसे हमेशा के लिए खो देगी. वह मन ही मन सब को याद कर रही थी. उस की झोली दुखों के कांटों से तारतार है, फिर भी उस ने इतनी जगह सुरक्षित बचाई है जिस में वह प्रवीण के जीवनरूपी फूल को सहेज सके. लगभग 2 दिनों तक डा. प्रवीण की हालत नाजुक थी. उन्हें सांस देने के लिए औक्सीजन का इस्तेमाल करना पड़ रहा था. 2 दिनों के बाद जब उन की हालत कुछ स्थिर हुई तो अनुभा और उस के ससुर को उन से मिलने की अनुमति दी गई.

प्रवीण का सिर पट्टियों से बंधा हुआ था, होंठ और आंखें वैसे ही स्पंदनहीन थीं. अनुभा हिचकियों को रोक कर उसे देख रही थी. तभी नर्स ने उन्हें बाहर जाने का इशारा किया. ससुर बाहर निकल गए, अनुभा के पांव तो मानो जम गए थे, बाहर निकलना ही नहीं चाहते थे. नर्स ने फिर उसे आवाज दी. अनुभा मुड़ने को हुई, तभी उस का ध्यान गया कंबल में से बाहर निकले प्रवीण के दाहिने हाथ पर गया जिस में हरकत हुई थी. अनुभा आंसू पोंछ कर देखने लगी कि प्रवीण के हाथ का हिलना उस का भ्रम है या सच? पर यह सच था. सचमुच प्रवीण का हाथ हिला था. अचानक अस्पताल के सारे नियम भूल कर उस ने प्रवीण के हाथ पर अपना हाथ रख दिया और यह क्या, प्रवीण ने उस का हाथ कस कर पकड़ लिया और जैसे अंधेरी गुफा से आवाज आती है, वैसे ही प्रवीण के मुख से आवाज आई, अनुभा.

हां, यह प्रवीण की ही आवाज थी. कहीं कुछ अस्पष्ट नहीं था. सबकुछ स्वच्छ हो गया था. मार्ग पर छाई धुंध को हटा कर मानो सूरज की किरणें झिलमिला कर अनुभा की बरसती आंखों पर पड़ रही थीं. वह इस प्रकाश की अभ्यस्त न थी. सारे पीले पत्ते झर गए थे, नई कोंपले जीवन की उम्मीद ले कर जो आई थीं.

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अनुभा को यह बात गहरे तक चुभ गई, छटपटा कर बोली, ‘‘उपकार कर के जो व्यक्ति उस के बदले में कुछ मांगने लगे, उस का उपकार उपकार नहीं रह जाता, बल्कि बोझ बन जाता है. और मैं आप का यह बोझ जल्द ही उतार दूंगी,’’ भरे गले से किंतु दृढ़ निश्चय के साथ अनुभा ने कहा और वेदांत को ले कर आगे बढ़ गई. डा. विनीत मन मसोस कर रह गए.

इतनी समतल सी दिखने वाली जिंदगी ऐसे ऊबड़खाबड़ रास्तों पर ले जाएगी, अनुभा ने कभी सोचा भी न था. जिस जीवनयात्रा में प्रवीण और उसे साथसाथ चलना था, उस में प्रवीण बीच में ही थक कर उस से आज्ञा मांग रहे थे, नहीं, नहीं, वह इतनी सहजता से प्रवीण को जाने नहीं देगी. वह कुछ करेगी. मुंबई के तो सारे डाक्टरों ने जवाब दे दिया, क्या दुनिया के किसी कोने में कोई डाक्टर होगा जो उस के प्रवीण का इलाज कर देगा. वह अस्पताल में मैडिकल साइंस पर आधारित वैबसाइट पर सर्च करती हुई कंप्यूटर पर घंटों बैठी रहती, कहीं कोई तो सुराग मिले.

वह इन विषयों पर मैडिकल और रिसर्च से जुड़ी विभिन्न पत्रिकाएं मंगाने लगी. वह किसी भी हाल में डा. प्रवीण का इलाज कराना चाहती थी. एक दिन उस ने एक पत्रिका में अमेरिका के उच्च कोटि के न्यूरोसर्जन डा. पीटर एडबर्ग के बारे में पढ़ा. अच्छा यह रहा कि वे अगले महीने कुछ दिनों के लिए भारत आने वाले थे. अनुभा यह अवसर किसी हाल में हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी. वह प्रवीण को उन के पास ले कर गई. डाक्टर पीटर ने प्रवीण की अच्छी तरह जांच की, कुछ टैस्ट करवाए और आखिर में इस निर्णय पर पहुंचे कि यदि दिमाग की एक नस, जो पूरी तरह बंद हो गई है, औपरेशन के द्वारा खोल दी जाए तो रक्त का संचालन ठीक तरह से फिर प्रारंभ होगा और शायद मस्तिष्क अपने कार्य करने फिर प्रारंभ कर दे. पर अभी निश्चितरूप से कुछ कहा नहीं जा सकता.

औपरेशन यदि सफल नहीं हुआ तो डाक्टर प्रवीण की जान भी जा सकती थी. डाक्टर पीटर की एक शर्त और थी कि यह औपरेशन सिर्फ अमेरिका में हो सकता है, इसलिए पेशेंट को वहीं लाना पड़ेगा. अनुभा एक बार फिर पसोपेश में पड़ गई थी कि डा. प्रवीण का औपरेशन करवाए कि नहीं. यदि औपरेशन असफल हुआ तो वह उन की देह भी खो देगी. लेकिन निर्णय भी उस ने स्वयं लिया. वह डा. प्रवीण का विवश और पराश्रित रूप और नहीं देख सकती थी, धड़कते हृदय से उस ने औपरेशन के लिए हां कर दी. समय बहुत कम था और उसे ज्यादा से ज्यादा पैसे इकट्ठे करने थे. अपनी सारी जमापूंजी इकट्ठा करने के बाद भी इतना पैसा जमा नहीं हो पाया था कि अमेरिका में औपरेशन हो सके. अचानक अनुभा के ससुर को ये बातें किसी रिश्तेदार के द्वारा पता चलीं और अब तक उस का विरोध करने वाले ससुर उस की मदद करने को तत्पर हो गए. रुपयों का प्रबंध भी उन्होंने ही किया. अनुभा की प्रवीण को बचाने की इच्छा में वे भी सहयोग देना चाहते थे. वे अनुभा के साथ अमेरिका आ गए. वेदांत को अनुभा की मां के पास छोड़ दिया था.

अमेरिका पहुंचते ही डा. प्रवीण को अस्पताल में भरती करवा दिया जहां उस के कई प्रकार के टैस्ट हो रहे थे. डा. पीटर खासतौर से उन का खयाल रख रहे  थे. उन की टीम के अन्य डाक्टरों से भी अनुभा की पहचान हो गई थी. सभी पूरी मदद कर रहे थे. अस्पताल की व्यवस्थाओं में पेशेंट से घर के लोगों का मिलना मुश्किल था, सिर्फ औपरेशन थिएटर ले जाने के पहले 2 मिनट के लिए डा. प्रवीण से मुलाकात करवाई. उस समय अनुभा टकटकी लगाए उन्हें देख रही थी. यह चेहरा फिर मुसकराएगा या हमेशा के लिए खो जाएगा, सबकुछ अनिश्चित था.

करीब 7 घंटे तक औपरेशन चलने वाला था. अनुभा सुन्न सी बैठी अस्पताल की सफेद दीवारों को देख रही थी. इन दीवारों पर उस के जीवन से जुड़ी हुई न जाने कितनी मीठीकड़वी यादें चित्र बन कर सामने आ रही थीं, तभी अनुभा के ससुर ने उस की पीठ पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘धीरज रखो, बेटी, सब ठीक होगा.’’ निश्चित समय के बाद डा. पीटर ने बाहर आ कर कहा, ‘‘औपरेशन हो चुका है. अब हमें पेशेंट के होश में आने का इंतजार करना पड़ेगा.’’

अनुभा जानती थी कि यदि प्रवीण को होश नहीं आया तो वह उसे हमेशा के लिए खो देगी. वह मन ही मन सब को याद कर रही थी. उस की झोली दुखों के कांटों से तारतार है, फिर भी उस ने इतनी जगह सुरक्षित बचाई है जिस में वह प्रवीण के जीवनरूपी फूल को सहेज सके. लगभग 2 दिनों तक डा. प्रवीण की हालत नाजुक थी. उन्हें सांस देने के लिए औक्सीजन का इस्तेमाल करना पड़ रहा था. 2 दिनों के बाद जब उन की हालत कुछ स्थिर हुई तो अनुभा और उस के ससुर को उन से मिलने की अनुमति दी गई.

प्रवीण का सिर पट्टियों से बंधा हुआ था, होंठ और आंखें वैसे ही स्पंदनहीन थीं. अनुभा हिचकियों को रोक कर उसे देख रही थी. तभी नर्स ने उन्हें बाहर जाने का इशारा किया. ससुर बाहर निकल गए, अनुभा के पांव तो मानो जम गए थे, बाहर निकलना ही नहीं चाहते थे. नर्स ने फिर उसे आवाज दी. अनुभा मुड़ने को हुई, तभी उस का ध्यान गया कंबल में से बाहर निकले प्रवीण के दाहिने हाथ पर गया जिस में हरकत हुई थी. अनुभा आंसू पोंछ कर देखने लगी कि प्रवीण के हाथ का हिलना उस का भ्रम है या सच? पर यह सच था. सचमुच प्रवीण का हाथ हिला था. अचानक अस्पताल के सारे नियम भूल कर उस ने प्रवीण के हाथ पर अपना हाथ रख दिया और यह क्या, प्रवीण ने उस का हाथ कस कर पकड़ लिया और जैसे अंधेरी गुफा से आवाज आती है, वैसे ही प्रवीण के मुख से आवाज आई, अनुभा.

हां, यह प्रवीण की ही आवाज थी. कहीं कुछ अस्पष्ट नहीं था. सबकुछ स्वच्छ हो गया था. मार्ग पर छाई धुंध को हटा कर मानो सूरज की किरणें झिलमिला कर अनुभा की बरसती आंखों पर पड़ रही थीं. वह इस प्रकाश की अभ्यस्त न थी. सारे पीले पत्ते झर गए थे, नई कोंपले जीवन की उम्मीद ले कर जो आई थीं.

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September 01, 2020 at 10:00AM

तब और अब : रमेश की नियुक्ति क्यों गलत समय पर हुई थी?

पिछले कई दिनों से मैं सुन रहा था कि हमारे नए निदेशक शीघ्र ही आने वाले हैं. उन की नियुक्ति के आदेश जारी हो गए थे. जब उन आदेशों की एक प्रतिलिपि मेरे पास आई और मैं ने नए निदेशक महोदय का नाम पढ़ा तो अनायास मेरे पांव के नीचे की जमीन मुझे धंसती सी लगी थी.

‘श्री रमेश कुमार.’

इस नाम के साथ बड़ी अप्रिय स्मृतियां जुड़ी हुई थीं. पर क्या ये वही सज्जन हैं? मैं सोचता रहा था और यह कामना करता रहा था कि ये वह न हों. पर यदि वही हुए तो…मैं सोचता और सिहर जाता. पर आज सुबह रमेश साहब ने अपने नए पद का भार ग्रहण कर लिया था. वे पूरे कार्यालय का चक्कर लगा कर अंत में मेरे कमरे में आए. मुझे देखा, पलभर को ठिठके और फिर उन की आंखों में परिचय के दीप जगमगा उठे.

‘‘कहिए सुधीर बाबू, कैसे हैं?’’ उन्होंने मुसकरा कर कहा.

‘‘नमस्कार साहब, आइए,’’ मैं ने चकित हो कर कहा. 10 वर्षों के अंतराल में कितना परिवर्तन आ गया था उन में. व्यक्तित्व कैसा निखर गया था. सांवले रंग में सलोनापन आ गया था. बाल रूखे और गरदन तक कलमें. कत्थई चारखाने का नया कोट. आंखों पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा लग गया था. सकपकाहट के कारण मैं बैठा ही रह गया.

‘‘तुम अभी तक सैक्शन औफिसर ही हो?’’ कुछ क्षण मौन रहने के बाद उन्होंने प्रश्न किया. क्या सचमुच उन के इस प्रश्न में सहानुभूति थी अथवा बदला लेने की अव्यक्त, अपरोक्ष चेतावनी, ‘तो तुम अभी तक सैक्शन औफिसर हो, बच्चू, अब मैं आ गया हूं और देखता हूं, तुम कैसे तरक्की करते हो?’

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‘‘सुधीर बाबू, तुम अधिकारी के सामने बैठे हो,’’ निदेशक महोदय के साथ आए प्रशासन अधिकारी के चेतावनीभरे स्वर को सुन कर मैं हड़बड़ा कर खड़ा हो गया. मन भी कैसा विचित्र होता है. चाहे परिस्थितियां बदल जाएं पर अवचेतन मन की सारी व्यवस्था यों ही बनी रहती है. एक समय था जब मैं कुरसी पर बैठा रहता था और रमेश साहब याचक की तरह मेरे सामने खड़े रहते थे.

‘‘कोई बात नहीं, सुधीर बाबू, बैठ जाइए,’’ कह कर वे चले गए. जातेजाते वे एक ऐसी दृष्टि मुझ पर डाल गए थे जिस के सौसौ अर्थ निकल सकते थे.

मैं चिंतित, उद्विग्न और उदास सा बैठा रहा. मेरे सामने मेज पर फाइलों का ढेर लगा था. फोन बजता और बंद हो जाता. पर मैं तो जैसे चेतनाशून्य सा बैठा सोच रहा था. मेरी अस्तित्वरक्षा अब असंभव है. रमेश यों छोड़ने वाला नहीं. इंसान सबकुछ भूल सकता है, पर अपमान के घाव पुर कर भी सदैव टीसते रहते हैं.

पर रमेश मेरे साथ क्या करेगा? शायद मेरा तबादला कर दे. मैं इस के लिए तैयार हूं. यहां तक तो ठीक ही है. इस के अलावा वह प्रत्यक्षरूप से मुझे और कोई हानि नहीं पहुंचा सकता था.

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रमेश की नियुक्ति बड़े ही गलत समय पर हुई थी, इस वर्ष मेरी तरक्की होने वाली थी. निदेशक महोदय की विशेष गोपनीय रिपोर्ट पर ही मेरी पदोन्नति निर्भर करती थी. क्या उन अप्रिय घटनाओं के बाद भी रमेश मेरे बारे में अच्छी रिपोर्ट देगा? नहीं, यह असंभव है. मेरा मन बुझ गया. दफ्तर का काम करना मेरे लिए असंभव था. सो, मैं ने तबीयत खराब होने का कारण लिख कर, 2 दिनों की छुट्टी के लिए प्रार्थनापत्र निदेशक महोदय के पास पहुंचवा दिया. 2 दिन घर पर आराम कर के मैं अपनी अगली योजना को अंतिम रूप देना चाहता था. यह तो लगभग निश्चित ही था कि रमेश के अधीन इस कार्यालय में काम करना अपने भविष्य और अपनी सेवा को चौपट करना था. उस जैसा सिद्घांतहीन, झूठा और बेईमान व्यक्ति किसी की खुशहाली और पदोन्नति का माध्यम नहीं बन सकता. और फिर मैं? मुझ से तो उसे बदले चुकाने थे.

मुझे अच्छी तरह याद है. जब आईएएस का रिजल्ट आया था और रमेश का नाम उस में देखा तो मुझे खुशी हुई थी, पर साथ ही, मैं थोड़ा भयभीत हो गया था. रमेश ने पार्टी दी थी पर उस ने मुझे निमंत्रित नहीं किया था. मसूरी अकादमी में प्रशिक्षण के लिए जाते वक्त रमेश मेरे पास आया था. और वितृष्णाभरे स्वर में बोला था, ‘सुधीर, मेरी बस एक ही इच्छा है. किसी तरह मैं तुम्हारा अधिकारी बन कर आ जाऊं. फिर देखना, तुम्हारी कैसी रगड़ाई करता हूं. तुम जिंदगीभर याद रखोगे.’

कैसा था वह क्षण. 10 वर्षों बाद आखिर उस की कामना पूरी हो गई. यों, इस में कोई असंभव बात भी नहीं थी. रमेश मेरा अधिकारी बन कर आ गया था. जीवन में परिश्रम, लगन तथा एकजुट हो कर कुछ करना चाहो तो असंभव भी संभव हो सकता है, रमेश इस की जीतीजागती मिसाल था. वर्ष 1960 में रमेश इस संस्थान में क्लर्क बन कर आया था. मैं उस का अधिकारी था तथा वह मेरा अधीनस्थ कर्मचारी. रोजगार कार्यालय के माध्यम से उस की भरती हुई थी. मैं ने एक ही निगाह में भांप लिया कि यह नवयुवक योग्य है, किंतु कामचोर है. वह महत्त्वाकांओं की पूर्ति के लिए कुछ भी कर सकता है. वह स्नातक था और टाइपिंग में दक्ष. फिर भी वह दफ्तर के काम करने से कतराता था. मैं समझ गया कि यह व्यक्ति केवल क्लर्क नहीं बना रहेगा. सो, शुरू से ही मेरे और उस के बीच एक खाई उत्पन्न हो गई.

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मैं अनुशासनपसंद कर्मचारी था, जिस ने क्लर्क से सेवा प्रारंभ कर के विभागीय पदोन्नतियों की विभिन्न सीढि़यां पार की थीं. कोई प्रतियोगी परीक्षा नहीं दी थी.पर रमेश अपने भविष्य की सफलताओं के प्रति इतना आश्वस्त था कि उस ने एक दिन भी मेरी अफसरियत को नहीं स्वीकारा था. वह अकसर दफ्तर देर से आता. मैं उसे टोकता तो वह स्पष्टरूप से तो कुछ नहीं कहता, किंतु अपना क्रोध अपरोक्षरूप  से व्यक्त कर देता. काम नहीं करता या फिर गलत टाइप करता, सीट पर बैठा मोटीमोटी किताबें पढ़ता रहता. खाने की छुट्टी आधे घंटे की होती तो वह 2 घंटे के लिए गायब हो जाता. मैं उस से बहुत नाराज था. पर शायद उसे मेरी चिंता नहीं थी. सो, वह मनमानी किए जाता. उस ने मुझे कभी भी गंभीरता से नहीं लिया.

एक दिन मैं ने दफ्तर के बाद रमेश को रोक लिया. सब लोग चले गए. केवल हम दोनों रह गए. मैं ने सोचा था कि मैं उसे एकांत में समझाऊंगा. शायद उस की समझ में आ जाए कि काम कितना अहम होता है. ‘रमेश, आखिर तुम यह सब क्यों करते हो?’ मैं ने स्नेहसिक्त, संयत स्वर में कहा था. ‘क्या करता हूं?’ उस ने उखड़ कर कहा था.

‘तुम दफ्तर देर से आते हो.’

‘आप को पता है, दिल्ली की बस व्यवस्था कितनी गंदी है.’

‘और लोग भी तो हैं जो वक्त से पहुंच जाते हैं.’

‘उस से क्या होता है. अगर मैं देर से आता हूं तो

2 घंटे का काम आधे घंटे में निबटा भी तो देता हूं.’

‘रमेश दफ्तर का अनुशासन भी कुछ होता है. यह कोई तर्क नहीं है. फिर, मैं तुम से सहमत नहीं कि तुम 2 घंटे का काम…’

‘मुझे बहस करने की आदत नहीं,’ कह कर वह अचानक उठा और कमरे से बाहर चला गया. मैं अपमानित सा, तिलमिला कर रह गया. रमेश के व्यवहार में कोई विशेष अंतर नहीं आया. अब वह खुलेआम दफ्तर में मोटीमोटी किताबें पढ़ता रहता था. काम की उसे कोई चिंता नहीं थी.एक दिन मैं ने उसे फिर समझाया, ‘रमेश, तुम दफ्तर के समय में किताबें मत पढ़ा करो.’

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‘क्यों?’

‘इसलिए, कि यह गलत है. तुम्हारा काम अधूरा रहता है और अन्य कर्मचारियों पर बुरा असर पड़ता है.’

‘सुधीर बाबू, मैं आप को एक सूचना देना चाहता हूं.’

‘वह क्या?’

‘मैं इस वर्ष आईएएस की परीक्षा दे रहा हूं.’

‘तो क्या तुम्हारी उम्र 24 वर्ष से कम है?’

‘हां, और विभागीय नियमों के अनुसार मैं इस परीक्षा में बैठ सकता हूं.’

‘फिर तुम ने यह नौकरी क्यों की? घर बैठ कर…’

‘आप की दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में टांग अड़ाने की बुरी आदत है,’ उस ने कह तो दिया फिर पलभर सोचने के बाद वह बोला, ‘सुधीर बाबू, यों आप ठीक कह रहे हैं. मजा तो तभी है जब एकाग्रचित्त हो यह परीक्षा दी जाए. पर क्या करूं, घर की आर्थिक परिस्थितियों ने मजबूर कर दिया.’

‘पर रमेश, यह बौद्धिक तथा नैतिक बेईमानी है. तुम इस कार्यालय में नौकरी करते हो. तुम्हें वेतन मिलता है. किंतु उस के प्रतिरूप उतना काम नहीं करते. तुम अपने स्वार्थ की सिद्धि में लगे हुए हो.’

‘जितने भी डिपार्टमैंटल खूसट मिलते हैं, सब को भाषण देने की बीमारी होती है.’

मैं ने तिलमिला कर कहा था, ‘रमेश, तुम में बिलकुल तमीज नहीं है.’

‘आप सिखा दीजिए न,’ उस ने मुसकरा कर कहा था.

मेरी क्रोधाग्नि में जैसे घी पड़ गया. ‘मैं तुम्हें निकाल दूंगा.’

‘यही तो आप नहीं कर सकते.’

‘तुम मुझे उकसा रहे हो.’

‘सुधीर बाबू, सरकारी सेवा में यही तो सुरक्षा है. एक बार बस घुस जाओ…’

मैं ने आगे बहस करना उचित नहीं समझा. मैं अपने को संयत और शांत करने का प्रयास कर रहा था कि रमेश ने एक और अप्रत्याशित स्थिति में मुझे डाल दिया.

‘सुधीर बाबू, मैं एक प्रश्न पूछना चाहता हूं.’

‘पूछो.’

‘आखिर तुम अपने काम को इतनी ईमानदारी से क्यों करते हो?’

‘क्या मतलब?’

‘सरकार एक अमूर्त्त चीज है. उस के लिए क्यों जानमारी करते हो, जिस का कोई अस्तित्व नहीं, उस की खातिर मुझ जैसे हाड़मांस के व्यक्ति से टक्कर लेते रहते हो. आखिर क्यों?’

‘रमेश, तुम नमकहराम और नमकहलाल का अंतर समझते हो?’

‘बड़े अडि़यल किस्म के आदमी हैं, आप,’ रमेश ने मुसकरा कर कहा था.

‘तुम जरूरत से ज्यादा मुंहफट हो गए हो, मैं…’ मैं ने अपने वाक्य को अधूरा छोड़ कर उसे पर्याप्त धमकीभरा बना दिया था.

‘मैं…मैं…क्या करते हो? मैं जानता हूं, आप मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते.’

बस, गाड़ी यों ही चलती रही. रमेश के कार्यकलापों में कोई अंतर नहीं आया. पर मैं ने एक बात नोट की थी कि धीरेधीरे उस का मेरे प्रति व्यवहार पहले की अपेक्षा कहीं अधिक शालीन, संयत और अनुशासित हो चुका था. क्यों? इस का पता मुझे बाद में लगा.

रमेश की परक्षाएं समीप आ गईं. एक दिन वह सुबह ढाई महीने की छुट्टी लेने की अरजी ले कर आया. अरजी को मेरे सामने रख कर, वह मेरी मेज से सट कर खड़ा रहा.

अरजी पर उचटी नजर डाल कर मैं ने कहा, ‘तुम्हें नौकरी करते हुए केवल 8 महीने हुए हैं, 8-10 दिन की छुट्टी बाकी होगी तुम्हारी. यह ढाई महीने की छुट्टी कैसे मिलेगी?’

‘लीव नौट ड्यू दे दीजिए.’

‘यह कैसे मिल सकती है? मैं कैसे प्रमाणपत्र दे सकता हूं कि तुम इसी दफ्तर में काम करते रहोगे और इतनी छुट्टी अर्जित कर लोगे.’

‘सुधीर बाबू, मेरे ऊपर आप की बड़ी कृपा होगी.’

‘आप बिना वेतन के छुट्टी ले सकते हैं.’

‘उस के लिए मुझे आप की अनुमति की जरूरत नहीं. क्या आप अनौपचारिक रूप से यह छुट्टी नहीं दे सकते?’

‘क्या मतलब?’

‘मेरा मतलब साफ है.’

‘रमेश, तुम इस सीमा तक जा कर बेईमानी और सिद्धांतहीनता की बात करोगे, इस की मैं ने कल्पना भी नहीं की थी. यह तो सरासर चोरी है. बिना काम किए, बिना दफ्तर आए तुम वेतन चाहते हो.’

‘सब चलता है, सुधीर बाबू.’

‘तुम आईएएस बन गए तो क्या विनाशलीला करोगे, इस की कल्पना मैं अभी से कर सकता हूं.’

‘मैं आप को देख लूंगा.’

‘‘सुधीर बाबू, आप को साहब याद कर रहे हैं,’’ निदेशक महोदय के चपरासी की आवाज सुन कर मेरी चेतना लौट आई भयावह स्मृतियों का क्रम भंग हो गया.

मैं उठा. मरी हुई चाल से, करीब घिसटता हुआ सा, मैं निदेशक के कमरे की ओर चल पड़ा. आगेआगे चपरासी, पीछेपीछे मैं, एकदम बलि को ले जाने वाले निरीह पशु जैसा. परिस्थितियों का कैसा विचित्र और असंगत षड्यंत्र था.

रमेश की मनोकामना पूरी हो गई थी. वर्ष पूर्व उस ने प्रतिशोध की भावना से प्रेरित हो कर जो कुछ कहा था, उसे पूरा करने का अवसर उसे मिल चुका था. उस जैसा स्वार्थी, महत्त्वाकांक्षी, सिद्धांतहीन और निर्लज्ज व्यक्ति कुछ भी कर सकता है.

चपरासी ने कमरे का दरवाजा खोला. मैं अंदर चला गया. गरदन झुकाए और निर्जीव चाल से मैं उस की चमचमाती, बड़ी मेज के समीप पहुंच गया.

‘‘आइए, सुधीर बाबू.’’

मैं ने गरदन उठाई, देखा, रमेश अपनी कुरसी से उठ खड़ा हुआ है और उस ने अपना दायां हाथ आगे बढ़ा दिया है, मुझ से हाथ मिलाने के लिए.

मैं ने हाथ मिलाया तो मुझे लगा कि यह सब नाटक है. बलि से पूर्व पशु का शृंगार किया जा रहा है.

‘‘सुधीर बाबू, बैठिए न.’’

मैं बैठ गया. सिकुड़ा और सिहरा हुआ सा.

‘‘क्या बात है? आप की तबीयत खराब है?’’

‘‘हां…नहीं…यों,’’ मैं सकपका गया.

‘‘इस अरजी में तो…’’

‘‘यों ही, कुछ अस्वस्थता सी महसूस हो रही थी.’’

‘‘आप कुछ परेशान और घबराए हुए से लग रहे हैं.’’

‘‘हां, नहीं तो…’’

अचानक, कमरे में एक जोर का अट्टहास गूंज गया.

मैं ने अचकचा कर दृष्टि उठाई. रमेश अपनी गुदगुदी घूमने वाली कुरसी में धंसा हुआ हंस रहा था.

‘‘क्या लेंगे, सुधीर बाबू, कौफी या चाय?’’

‘‘कुछ नहीं, धन्यवाद.’’

‘‘यह कैसे हो सकता है?’’ कह कर रमेश ने सहायिका को 2 कौफी अंदर भेजने का आदेश दे दिया.

कुछ देर तक कमरे में आशंकाभरा मौन छाया रहा. फिर अनायास, बिना किसी संदर्भ के, रमेश ने हा, ‘‘10 वर्ष काफी होते हैं.’’

‘‘किसलिए?’

‘‘किसी को भी परिपक्व होने के लिए.’’

‘‘मैं समझा नहीं, आप क्या कहना चाहते हैं.’’

‘‘10-12 वर्षों के बाद इस दफ्तर में आया हू. देखता हूं, आप के अलावा सब नए लोग हैं.’’

‘‘जी.’

‘‘आखिर इतने लंबे अरसे से आप उसी पद पर बने हुए हैं. तरक्की का कोई मौका नहीं मिला.’’

‘‘इस साल तरक्की होने वाली है. आप की रिपोर्ट पर ही सबकुछ निर्भर करेगा, सर,’’ न जाने किस शक्ति से प्रेरित हो, मैं यंत्रवत कह गया.

रमेश सीधा मेरी आंखों में झांक रहा था, मानो कुछ तोल रहा हो. मैं पछता रहा था. मुझे यह सब नहीं कहना चाहिए था. अब तो इस व्यक्ति को यह अवसर मिल गया है कि वह…

तभी चपरासी कौफी के 2 प्याले ले आया.

‘‘लीजिए, कौफी पीजिए.’

मैं ने कौफी का प्याला उठा कर होंठों से लगाया तो महसूस हुआ जैसे मैं मीरा हूं, रमेश राणा और प्याले में काफी नहीं, विष है.

‘‘सुधीर बाबू, आप की तरक्की होगी. दुनिया की कोईर् ताकत एक ईमानदार, परिश्रमी, नमकहलाल, अनुशासनप्रिय कर्मचारी की पदोन्नति को नहीं रोक सकती.’’ मैं अविश्वासपूर्वक रमेश की ओर देख रहा था. विष का प्याला मीठी कौफी में बदलने लगा था.

‘‘मैं आप की ऐसी असाधारण और विलक्षण रिपोर्ट दूंगा कि…’’

‘‘आप सच कह रहे हैं?’’

‘‘सुधीर बाबू, शायद आप बीते दिनों को याद कर के परेशान हो रहे हैं. छोडि़ए, उन बातों को. 10-12 वर्षों में इंसान काफी परिपक्व हो जाता है. तब मैं एक विवेकहीन, त्तरदायित्वहीन, उच्छृंखल नवयुवक, अधीनस्थ कर्मचारी था और अब मैं विवेकशील, उत्तरदायित्वपूर्ण अधिकारी हूं और समझ सकता हूं कि… तब और अब का अंतर?’’ हां, एक सुपरवाइजर के रूप में आप कितने ठीक थे, इस सत्य का उद्घाटन तो उसी दिन हो गया था, जब मैं पहली बार सुपरवाइजर बना था.’’ रमेश ने मेरी छुट्टी की अरजी मेरी ओर सरका दी और बोला, ‘‘अब इस की जरूरत तो नहीं है.’’

मैं ने अरजी फाड़ दी. फिर खड़े हो कर मैं विनम्र स्वर में बोला, ‘‘धन्यवाद, सर, मैं आप का बहुत आभारी हूं. आप महान हैं.’’

और रमेश के होंठों पर विजयी व गर्वभरी मुसकान बिछ गई.

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पिछले कई दिनों से मैं सुन रहा था कि हमारे नए निदेशक शीघ्र ही आने वाले हैं. उन की नियुक्ति के आदेश जारी हो गए थे. जब उन आदेशों की एक प्रतिलिपि मेरे पास आई और मैं ने नए निदेशक महोदय का नाम पढ़ा तो अनायास मेरे पांव के नीचे की जमीन मुझे धंसती सी लगी थी.

‘श्री रमेश कुमार.’

इस नाम के साथ बड़ी अप्रिय स्मृतियां जुड़ी हुई थीं. पर क्या ये वही सज्जन हैं? मैं सोचता रहा था और यह कामना करता रहा था कि ये वह न हों. पर यदि वही हुए तो…मैं सोचता और सिहर जाता. पर आज सुबह रमेश साहब ने अपने नए पद का भार ग्रहण कर लिया था. वे पूरे कार्यालय का चक्कर लगा कर अंत में मेरे कमरे में आए. मुझे देखा, पलभर को ठिठके और फिर उन की आंखों में परिचय के दीप जगमगा उठे.

‘‘कहिए सुधीर बाबू, कैसे हैं?’’ उन्होंने मुसकरा कर कहा.

‘‘नमस्कार साहब, आइए,’’ मैं ने चकित हो कर कहा. 10 वर्षों के अंतराल में कितना परिवर्तन आ गया था उन में. व्यक्तित्व कैसा निखर गया था. सांवले रंग में सलोनापन आ गया था. बाल रूखे और गरदन तक कलमें. कत्थई चारखाने का नया कोट. आंखों पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा लग गया था. सकपकाहट के कारण मैं बैठा ही रह गया.

‘‘तुम अभी तक सैक्शन औफिसर ही हो?’’ कुछ क्षण मौन रहने के बाद उन्होंने प्रश्न किया. क्या सचमुच उन के इस प्रश्न में सहानुभूति थी अथवा बदला लेने की अव्यक्त, अपरोक्ष चेतावनी, ‘तो तुम अभी तक सैक्शन औफिसर हो, बच्चू, अब मैं आ गया हूं और देखता हूं, तुम कैसे तरक्की करते हो?’

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‘‘सुधीर बाबू, तुम अधिकारी के सामने बैठे हो,’’ निदेशक महोदय के साथ आए प्रशासन अधिकारी के चेतावनीभरे स्वर को सुन कर मैं हड़बड़ा कर खड़ा हो गया. मन भी कैसा विचित्र होता है. चाहे परिस्थितियां बदल जाएं पर अवचेतन मन की सारी व्यवस्था यों ही बनी रहती है. एक समय था जब मैं कुरसी पर बैठा रहता था और रमेश साहब याचक की तरह मेरे सामने खड़े रहते थे.

‘‘कोई बात नहीं, सुधीर बाबू, बैठ जाइए,’’ कह कर वे चले गए. जातेजाते वे एक ऐसी दृष्टि मुझ पर डाल गए थे जिस के सौसौ अर्थ निकल सकते थे.

मैं चिंतित, उद्विग्न और उदास सा बैठा रहा. मेरे सामने मेज पर फाइलों का ढेर लगा था. फोन बजता और बंद हो जाता. पर मैं तो जैसे चेतनाशून्य सा बैठा सोच रहा था. मेरी अस्तित्वरक्षा अब असंभव है. रमेश यों छोड़ने वाला नहीं. इंसान सबकुछ भूल सकता है, पर अपमान के घाव पुर कर भी सदैव टीसते रहते हैं.

पर रमेश मेरे साथ क्या करेगा? शायद मेरा तबादला कर दे. मैं इस के लिए तैयार हूं. यहां तक तो ठीक ही है. इस के अलावा वह प्रत्यक्षरूप से मुझे और कोई हानि नहीं पहुंचा सकता था.

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रमेश की नियुक्ति बड़े ही गलत समय पर हुई थी, इस वर्ष मेरी तरक्की होने वाली थी. निदेशक महोदय की विशेष गोपनीय रिपोर्ट पर ही मेरी पदोन्नति निर्भर करती थी. क्या उन अप्रिय घटनाओं के बाद भी रमेश मेरे बारे में अच्छी रिपोर्ट देगा? नहीं, यह असंभव है. मेरा मन बुझ गया. दफ्तर का काम करना मेरे लिए असंभव था. सो, मैं ने तबीयत खराब होने का कारण लिख कर, 2 दिनों की छुट्टी के लिए प्रार्थनापत्र निदेशक महोदय के पास पहुंचवा दिया. 2 दिन घर पर आराम कर के मैं अपनी अगली योजना को अंतिम रूप देना चाहता था. यह तो लगभग निश्चित ही था कि रमेश के अधीन इस कार्यालय में काम करना अपने भविष्य और अपनी सेवा को चौपट करना था. उस जैसा सिद्घांतहीन, झूठा और बेईमान व्यक्ति किसी की खुशहाली और पदोन्नति का माध्यम नहीं बन सकता. और फिर मैं? मुझ से तो उसे बदले चुकाने थे.

मुझे अच्छी तरह याद है. जब आईएएस का रिजल्ट आया था और रमेश का नाम उस में देखा तो मुझे खुशी हुई थी, पर साथ ही, मैं थोड़ा भयभीत हो गया था. रमेश ने पार्टी दी थी पर उस ने मुझे निमंत्रित नहीं किया था. मसूरी अकादमी में प्रशिक्षण के लिए जाते वक्त रमेश मेरे पास आया था. और वितृष्णाभरे स्वर में बोला था, ‘सुधीर, मेरी बस एक ही इच्छा है. किसी तरह मैं तुम्हारा अधिकारी बन कर आ जाऊं. फिर देखना, तुम्हारी कैसी रगड़ाई करता हूं. तुम जिंदगीभर याद रखोगे.’

कैसा था वह क्षण. 10 वर्षों बाद आखिर उस की कामना पूरी हो गई. यों, इस में कोई असंभव बात भी नहीं थी. रमेश मेरा अधिकारी बन कर आ गया था. जीवन में परिश्रम, लगन तथा एकजुट हो कर कुछ करना चाहो तो असंभव भी संभव हो सकता है, रमेश इस की जीतीजागती मिसाल था. वर्ष 1960 में रमेश इस संस्थान में क्लर्क बन कर आया था. मैं उस का अधिकारी था तथा वह मेरा अधीनस्थ कर्मचारी. रोजगार कार्यालय के माध्यम से उस की भरती हुई थी. मैं ने एक ही निगाह में भांप लिया कि यह नवयुवक योग्य है, किंतु कामचोर है. वह महत्त्वाकांओं की पूर्ति के लिए कुछ भी कर सकता है. वह स्नातक था और टाइपिंग में दक्ष. फिर भी वह दफ्तर के काम करने से कतराता था. मैं समझ गया कि यह व्यक्ति केवल क्लर्क नहीं बना रहेगा. सो, शुरू से ही मेरे और उस के बीच एक खाई उत्पन्न हो गई.

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मैं अनुशासनपसंद कर्मचारी था, जिस ने क्लर्क से सेवा प्रारंभ कर के विभागीय पदोन्नतियों की विभिन्न सीढि़यां पार की थीं. कोई प्रतियोगी परीक्षा नहीं दी थी.पर रमेश अपने भविष्य की सफलताओं के प्रति इतना आश्वस्त था कि उस ने एक दिन भी मेरी अफसरियत को नहीं स्वीकारा था. वह अकसर दफ्तर देर से आता. मैं उसे टोकता तो वह स्पष्टरूप से तो कुछ नहीं कहता, किंतु अपना क्रोध अपरोक्षरूप  से व्यक्त कर देता. काम नहीं करता या फिर गलत टाइप करता, सीट पर बैठा मोटीमोटी किताबें पढ़ता रहता. खाने की छुट्टी आधे घंटे की होती तो वह 2 घंटे के लिए गायब हो जाता. मैं उस से बहुत नाराज था. पर शायद उसे मेरी चिंता नहीं थी. सो, वह मनमानी किए जाता. उस ने मुझे कभी भी गंभीरता से नहीं लिया.

एक दिन मैं ने दफ्तर के बाद रमेश को रोक लिया. सब लोग चले गए. केवल हम दोनों रह गए. मैं ने सोचा था कि मैं उसे एकांत में समझाऊंगा. शायद उस की समझ में आ जाए कि काम कितना अहम होता है. ‘रमेश, आखिर तुम यह सब क्यों करते हो?’ मैं ने स्नेहसिक्त, संयत स्वर में कहा था. ‘क्या करता हूं?’ उस ने उखड़ कर कहा था.

‘तुम दफ्तर देर से आते हो.’

‘आप को पता है, दिल्ली की बस व्यवस्था कितनी गंदी है.’

‘और लोग भी तो हैं जो वक्त से पहुंच जाते हैं.’

‘उस से क्या होता है. अगर मैं देर से आता हूं तो

2 घंटे का काम आधे घंटे में निबटा भी तो देता हूं.’

‘रमेश दफ्तर का अनुशासन भी कुछ होता है. यह कोई तर्क नहीं है. फिर, मैं तुम से सहमत नहीं कि तुम 2 घंटे का काम…’

‘मुझे बहस करने की आदत नहीं,’ कह कर वह अचानक उठा और कमरे से बाहर चला गया. मैं अपमानित सा, तिलमिला कर रह गया. रमेश के व्यवहार में कोई विशेष अंतर नहीं आया. अब वह खुलेआम दफ्तर में मोटीमोटी किताबें पढ़ता रहता था. काम की उसे कोई चिंता नहीं थी.एक दिन मैं ने उसे फिर समझाया, ‘रमेश, तुम दफ्तर के समय में किताबें मत पढ़ा करो.’

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‘क्यों?’

‘इसलिए, कि यह गलत है. तुम्हारा काम अधूरा रहता है और अन्य कर्मचारियों पर बुरा असर पड़ता है.’

‘सुधीर बाबू, मैं आप को एक सूचना देना चाहता हूं.’

‘वह क्या?’

‘मैं इस वर्ष आईएएस की परीक्षा दे रहा हूं.’

‘तो क्या तुम्हारी उम्र 24 वर्ष से कम है?’

‘हां, और विभागीय नियमों के अनुसार मैं इस परीक्षा में बैठ सकता हूं.’

‘फिर तुम ने यह नौकरी क्यों की? घर बैठ कर…’

‘आप की दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में टांग अड़ाने की बुरी आदत है,’ उस ने कह तो दिया फिर पलभर सोचने के बाद वह बोला, ‘सुधीर बाबू, यों आप ठीक कह रहे हैं. मजा तो तभी है जब एकाग्रचित्त हो यह परीक्षा दी जाए. पर क्या करूं, घर की आर्थिक परिस्थितियों ने मजबूर कर दिया.’

‘पर रमेश, यह बौद्धिक तथा नैतिक बेईमानी है. तुम इस कार्यालय में नौकरी करते हो. तुम्हें वेतन मिलता है. किंतु उस के प्रतिरूप उतना काम नहीं करते. तुम अपने स्वार्थ की सिद्धि में लगे हुए हो.’

‘जितने भी डिपार्टमैंटल खूसट मिलते हैं, सब को भाषण देने की बीमारी होती है.’

मैं ने तिलमिला कर कहा था, ‘रमेश, तुम में बिलकुल तमीज नहीं है.’

‘आप सिखा दीजिए न,’ उस ने मुसकरा कर कहा था.

मेरी क्रोधाग्नि में जैसे घी पड़ गया. ‘मैं तुम्हें निकाल दूंगा.’

‘यही तो आप नहीं कर सकते.’

‘तुम मुझे उकसा रहे हो.’

‘सुधीर बाबू, सरकारी सेवा में यही तो सुरक्षा है. एक बार बस घुस जाओ…’

मैं ने आगे बहस करना उचित नहीं समझा. मैं अपने को संयत और शांत करने का प्रयास कर रहा था कि रमेश ने एक और अप्रत्याशित स्थिति में मुझे डाल दिया.

‘सुधीर बाबू, मैं एक प्रश्न पूछना चाहता हूं.’

‘पूछो.’

‘आखिर तुम अपने काम को इतनी ईमानदारी से क्यों करते हो?’

‘क्या मतलब?’

‘सरकार एक अमूर्त्त चीज है. उस के लिए क्यों जानमारी करते हो, जिस का कोई अस्तित्व नहीं, उस की खातिर मुझ जैसे हाड़मांस के व्यक्ति से टक्कर लेते रहते हो. आखिर क्यों?’

‘रमेश, तुम नमकहराम और नमकहलाल का अंतर समझते हो?’

‘बड़े अडि़यल किस्म के आदमी हैं, आप,’ रमेश ने मुसकरा कर कहा था.

‘तुम जरूरत से ज्यादा मुंहफट हो गए हो, मैं…’ मैं ने अपने वाक्य को अधूरा छोड़ कर उसे पर्याप्त धमकीभरा बना दिया था.

‘मैं…मैं…क्या करते हो? मैं जानता हूं, आप मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते.’

बस, गाड़ी यों ही चलती रही. रमेश के कार्यकलापों में कोई अंतर नहीं आया. पर मैं ने एक बात नोट की थी कि धीरेधीरे उस का मेरे प्रति व्यवहार पहले की अपेक्षा कहीं अधिक शालीन, संयत और अनुशासित हो चुका था. क्यों? इस का पता मुझे बाद में लगा.

रमेश की परक्षाएं समीप आ गईं. एक दिन वह सुबह ढाई महीने की छुट्टी लेने की अरजी ले कर आया. अरजी को मेरे सामने रख कर, वह मेरी मेज से सट कर खड़ा रहा.

अरजी पर उचटी नजर डाल कर मैं ने कहा, ‘तुम्हें नौकरी करते हुए केवल 8 महीने हुए हैं, 8-10 दिन की छुट्टी बाकी होगी तुम्हारी. यह ढाई महीने की छुट्टी कैसे मिलेगी?’

‘लीव नौट ड्यू दे दीजिए.’

‘यह कैसे मिल सकती है? मैं कैसे प्रमाणपत्र दे सकता हूं कि तुम इसी दफ्तर में काम करते रहोगे और इतनी छुट्टी अर्जित कर लोगे.’

‘सुधीर बाबू, मेरे ऊपर आप की बड़ी कृपा होगी.’

‘आप बिना वेतन के छुट्टी ले सकते हैं.’

‘उस के लिए मुझे आप की अनुमति की जरूरत नहीं. क्या आप अनौपचारिक रूप से यह छुट्टी नहीं दे सकते?’

‘क्या मतलब?’

‘मेरा मतलब साफ है.’

‘रमेश, तुम इस सीमा तक जा कर बेईमानी और सिद्धांतहीनता की बात करोगे, इस की मैं ने कल्पना भी नहीं की थी. यह तो सरासर चोरी है. बिना काम किए, बिना दफ्तर आए तुम वेतन चाहते हो.’

‘सब चलता है, सुधीर बाबू.’

‘तुम आईएएस बन गए तो क्या विनाशलीला करोगे, इस की कल्पना मैं अभी से कर सकता हूं.’

‘मैं आप को देख लूंगा.’

‘‘सुधीर बाबू, आप को साहब याद कर रहे हैं,’’ निदेशक महोदय के चपरासी की आवाज सुन कर मेरी चेतना लौट आई भयावह स्मृतियों का क्रम भंग हो गया.

मैं उठा. मरी हुई चाल से, करीब घिसटता हुआ सा, मैं निदेशक के कमरे की ओर चल पड़ा. आगेआगे चपरासी, पीछेपीछे मैं, एकदम बलि को ले जाने वाले निरीह पशु जैसा. परिस्थितियों का कैसा विचित्र और असंगत षड्यंत्र था.

रमेश की मनोकामना पूरी हो गई थी. वर्ष पूर्व उस ने प्रतिशोध की भावना से प्रेरित हो कर जो कुछ कहा था, उसे पूरा करने का अवसर उसे मिल चुका था. उस जैसा स्वार्थी, महत्त्वाकांक्षी, सिद्धांतहीन और निर्लज्ज व्यक्ति कुछ भी कर सकता है.

चपरासी ने कमरे का दरवाजा खोला. मैं अंदर चला गया. गरदन झुकाए और निर्जीव चाल से मैं उस की चमचमाती, बड़ी मेज के समीप पहुंच गया.

‘‘आइए, सुधीर बाबू.’’

मैं ने गरदन उठाई, देखा, रमेश अपनी कुरसी से उठ खड़ा हुआ है और उस ने अपना दायां हाथ आगे बढ़ा दिया है, मुझ से हाथ मिलाने के लिए.

मैं ने हाथ मिलाया तो मुझे लगा कि यह सब नाटक है. बलि से पूर्व पशु का शृंगार किया जा रहा है.

‘‘सुधीर बाबू, बैठिए न.’’

मैं बैठ गया. सिकुड़ा और सिहरा हुआ सा.

‘‘क्या बात है? आप की तबीयत खराब है?’’

‘‘हां…नहीं…यों,’’ मैं सकपका गया.

‘‘इस अरजी में तो…’’

‘‘यों ही, कुछ अस्वस्थता सी महसूस हो रही थी.’’

‘‘आप कुछ परेशान और घबराए हुए से लग रहे हैं.’’

‘‘हां, नहीं तो…’’

अचानक, कमरे में एक जोर का अट्टहास गूंज गया.

मैं ने अचकचा कर दृष्टि उठाई. रमेश अपनी गुदगुदी घूमने वाली कुरसी में धंसा हुआ हंस रहा था.

‘‘क्या लेंगे, सुधीर बाबू, कौफी या चाय?’’

‘‘कुछ नहीं, धन्यवाद.’’

‘‘यह कैसे हो सकता है?’’ कह कर रमेश ने सहायिका को 2 कौफी अंदर भेजने का आदेश दे दिया.

कुछ देर तक कमरे में आशंकाभरा मौन छाया रहा. फिर अनायास, बिना किसी संदर्भ के, रमेश ने हा, ‘‘10 वर्ष काफी होते हैं.’’

‘‘किसलिए?’

‘‘किसी को भी परिपक्व होने के लिए.’’

‘‘मैं समझा नहीं, आप क्या कहना चाहते हैं.’’

‘‘10-12 वर्षों के बाद इस दफ्तर में आया हू. देखता हूं, आप के अलावा सब नए लोग हैं.’’

‘‘जी.’

‘‘आखिर इतने लंबे अरसे से आप उसी पद पर बने हुए हैं. तरक्की का कोई मौका नहीं मिला.’’

‘‘इस साल तरक्की होने वाली है. आप की रिपोर्ट पर ही सबकुछ निर्भर करेगा, सर,’’ न जाने किस शक्ति से प्रेरित हो, मैं यंत्रवत कह गया.

रमेश सीधा मेरी आंखों में झांक रहा था, मानो कुछ तोल रहा हो. मैं पछता रहा था. मुझे यह सब नहीं कहना चाहिए था. अब तो इस व्यक्ति को यह अवसर मिल गया है कि वह…

तभी चपरासी कौफी के 2 प्याले ले आया.

‘‘लीजिए, कौफी पीजिए.’

मैं ने कौफी का प्याला उठा कर होंठों से लगाया तो महसूस हुआ जैसे मैं मीरा हूं, रमेश राणा और प्याले में काफी नहीं, विष है.

‘‘सुधीर बाबू, आप की तरक्की होगी. दुनिया की कोईर् ताकत एक ईमानदार, परिश्रमी, नमकहलाल, अनुशासनप्रिय कर्मचारी की पदोन्नति को नहीं रोक सकती.’’ मैं अविश्वासपूर्वक रमेश की ओर देख रहा था. विष का प्याला मीठी कौफी में बदलने लगा था.

‘‘मैं आप की ऐसी असाधारण और विलक्षण रिपोर्ट दूंगा कि…’’

‘‘आप सच कह रहे हैं?’’

‘‘सुधीर बाबू, शायद आप बीते दिनों को याद कर के परेशान हो रहे हैं. छोडि़ए, उन बातों को. 10-12 वर्षों में इंसान काफी परिपक्व हो जाता है. तब मैं एक विवेकहीन, त्तरदायित्वहीन, उच्छृंखल नवयुवक, अधीनस्थ कर्मचारी था और अब मैं विवेकशील, उत्तरदायित्वपूर्ण अधिकारी हूं और समझ सकता हूं कि… तब और अब का अंतर?’’ हां, एक सुपरवाइजर के रूप में आप कितने ठीक थे, इस सत्य का उद्घाटन तो उसी दिन हो गया था, जब मैं पहली बार सुपरवाइजर बना था.’’ रमेश ने मेरी छुट्टी की अरजी मेरी ओर सरका दी और बोला, ‘‘अब इस की जरूरत तो नहीं है.’’

मैं ने अरजी फाड़ दी. फिर खड़े हो कर मैं विनम्र स्वर में बोला, ‘‘धन्यवाद, सर, मैं आप का बहुत आभारी हूं. आप महान हैं.’’

और रमेश के होंठों पर विजयी व गर्वभरी मुसकान बिछ गई.

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September 01, 2020 at 10:00AM

बचपना: सुधा चिट्ठी पाकर खुश क्यों न थी?

आज फिर वही चिट्ठी मनीआर्डर के साथ देखी, तो सुधा मन ही मन कसमसा कर रह गई. अपने पिया की चिट्ठी देख उसे जरा भी खुशी नहीं हुई. सुधा ने दुखी मन से फार्म पर दस्तखत कर के डाकिए से रुपए ले लिए और अपनी सास के पास चली आई और बोली ‘‘यह लीजिए अम्मां पैसा.’’

‘‘मुझे क्या करना है. अंदर रख दे जा कर,’’ कहते हुए सासू मां दरवाजे की चौखट से टिक कर खड़ी हो गईं. देखते ही देखते उन के चेहरे की उदासी गहरी होती चली गई.

सुधा उन के दिल का हाल अच्छी तरह समझ रही थी. वह जानती थी कि उस से कहीं ज्यादा दुख अम्मां को है. उस का तो सिर्फ पति ही उस से दूर है, पर अम्मां का तो बेटा दूर होने के साथसाथ उन की प्यारी बहू का पति भी उस से दूर है. यह पहला मौका है, जब सुधा का पति सालभर से घर नहीं आया. इस से पहले 4 नहीं, तो 6 महीने में एक बार तो वह जरूर चला आता था. इस बार आखिर क्या बात हो गई, जो उस ने इतने दिनों तक खबर नहीं ली?

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अम्मां के मन में तरहतरह के खयाल आ रहे थे. कभी वे सोचतीं कि किसी लड़की के चक्कर में तो नहीं फंस गया वह? पर उन्हें भरोसा नहीं होता था.

हो न हो, पिछली बार की बहू की हरकत पर वह नाराज हो गया होगा. है भी तो नासमझ. अपने सिवा किसी और का लाड़ उस से देखा ही नहीं जाता. नालायक यह नहीं समझता, बहू भी तो उस के ही सहारे इस घर में आई है. उस बेचारी का कौन है यहां? सोचतेसोचते उन्हें वह सीन याद आ गया, जब बहू उन के प्यार पर अपना हक जता कर सूरज को चिढ़ा रही थी और वह मुंह फुलाए बैठा था  अगली बार डाकिए की आवाज सुन कर सुधा कमरे में से ही कहने लगी, ‘‘अम्मां, डाकिया आया है. पैसे और फार्म ले कर अंदर आ जाइए, दस्तखत कर दूंगी.’’ सुधा की बात सुन कर अम्मां चौंक पड़ीं. पहली बार ऐसा हुआ था कि डाकिए की आवाज सुन कर सुधा दौड़ीदौड़ी दरवाजे तक नहीं गई… तो क्या इतनी दुखी हो गई उन की बहू?

अम्मां डाकिए के पास गईं. इस बार उस ने चिट्ठी भी नहीं लिखी थी. पैसा बहू की तरफ बढ़ा कर अम्मां रोंआसी आवाज में कहने लगीं, ‘‘ले बहू, पैसा अंदर रख दे जा कर.’’

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अम्मां की आवाज कानों में पड़ते ही सुधा बेचैन निगाहों से उन के हाथों को देखने लगी. वह अम्मां से चिट्ठी मांगने को हुई कि अम्मां कहने लगीं, ‘‘क्या देख रही है? अब की बार चिट्ठी भी नहीं डाली है उस ने.’’ सुधा मन ही मन तिलमिला कर रह गई. अगले ही पल उस ने मर जाने के लिए हिम्मत जुटा ली, पर पिया से मिलने की एक ख्वाहिश ने आज फिर उस के अरमानों पर पानी फेर दिया. अगले महीने भी सिर्फ मनीआर्डर आया, तो सुधा की रहीसही उम्मीद भी टूट गई. उसे अब न तो चिट्ठी आने का भरोसा रहा और न ही इंतजार. एक दिन अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई. पहली बार तो सुधा को लगा, जैसे वह सपना देख रही हो, पर जब दोबारा किसी ने दरवाजा खटखटाया, तो वह दरवाजा खोलने चल दी.

दरवाजा खुलते ही जो खुशी मिली, उस ने सुधा को दीवाना बना दिया. वह चुपचाप खड़ी हो कर अपने साजन को ऐसे ताकती रह गई, मानो सपना समझ कर हमेशा के लिए उसे अपनी निगाहों में कैद कर लेना चाहती हो. सूरज घर के अंदर चला आया और सुधा आने वाले दिनों के लिए ढेर सारी खुशियां सहेजने को संभल भी न पाई थी कि अम्मां की चीखों ने उस के दिलोदिमाग में हलचल मचा दी. अम्मां गुस्सा होते हुए अपने बेटे पर चिल्लाए जा रही थीं, ‘‘क्यों आया है? तेरे बिना हम मर नहीं जाते.’’ ‘‘क्या बात है अम्मां?’’ सुधा को अपने पिया की आवाज सुनाई दी.

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‘‘पैसा भेज कर एहसान कर रहा था हम पर? क्या हम पैसों के भूखे हैं?’’ अम्मां की आवाज में गुस्सा लगातार बढ़ता जा रहा था.

‘‘क्या बात हो गई?’’ आखिर सूरज गंभीर हो कर पूछ ही बैठा.

‘‘बहू, तेरा पति पूछ रहा है कि बात क्या हो गई. 2 महीने से बराबर खाली पैसा भेजता रहता है, अपनी खैरखबर की छोटी सी एक चिट्ठी भी लिखना इस के लिए सिर का बोझ बन गया और पूछता है कि क्या बात हो गई?’’

सूरज बिगड़ कर कहने लगा, ‘‘नहीं भेजी चिट्ठी तो कौन सी आफत आ गई? तुम्हारी लाड़ली तो तुम्हारे पास है, फिर मेरी फिक्र करने की क्या जरूरत पड़ी?’’ सुधा अपने पति के ये शब्द सुन कर चौंक गई. शब्द नए नहीं थे, नई थी उन के सहारे उस पर बरस पड़ी नफरत. वह नफरत, जिस के बारे में उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. सुधा अच्छी तरह समझ गई कि यह सब उन अठखेलियों का ही नतीजा है, जिन में वह इन्हें अम्मां के प्यार पर अपना ज्यादा हक जता कर चिढ़ाती रही है, अपने पिया को सताती रही है.

इस में कुसूर सिर्फ सुधा का ही नहीं है, अम्मां का भी तो है, जिन्होंने उसे इतना प्यार किया. जब वे जानती थीं अपने बेटे को, तो क्यों किया उस से इतना प्यार? क्यों उसे इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि वह इस घर की बेटी नहीं बहू है? अम्मां सुधा का पक्ष ले रही हैं, यह भी गनीमत ही है, वरना वे भी उस का साथ न दें, तो वह क्या कर लेगी. इस समय तो अम्मां का साथ देना ही बहुत जरूरी है. अम्मां अभी भी अपने बेटे से लड़े जा रही थीं, ‘‘तेरा दिमाग बहुत ज्यादा खराब हो गया है.’’ अम्मां की बात का जवाब सूरज की जबान पर आया ही था कि सुधा बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘यह सब अच्छा लगता है क्या आप को? अम्मां के मुंह लगे चले जा रहे हैं. बड़े अच्छे लग रहे हैं न?’’

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‘‘चुप, यह सब तेरा ही कियाधरा है. तुझे तो चैन मिल गया होगा, यह सब देख कर. न जाने कितने कान भर दिए कि अम्मां आते ही मुझ पर बरस पड़ीं,’’ थोड़ी देर रुक कर सूरज ने खुद पर काबू करना चाहा, फिर कहने लगा, ‘‘यह किसी ने पूछा कि मैं ने चिट्ठी क्यों नहीं भेजी? इस की फिक्र किसे है? अम्मां पर तो बस तेरा ही जादू चढ़ा है.’’ ‘‘हां, मेरा जादू चढ़ा तो है, पर मैं क्या करूं? मुझे मार डालो, तब ठीक रहेगा. मुझ से तुम्हें छुटकारा मिल जाएगा और मुझे तुम्हारे बिना जीने से.’’

अब जा कर अम्मां का माथा ठनका. आज उन के बच्चों की लड़ाई बच्चों का खेल नहीं थी. आज तो उन के बच्चों के बीच नफरत की बुनियाद पड़ती नजर आ रही थी. बहू का इस तरह बीच में बोल पड़ना उन्हें अच्छा नहीं लगा. वे अपनी बहू की सोच पर चौंकी थीं. वे तो सोच रही थीं कि उन के बेटे की सूरत देख कर बहू सारे गिलेशिकवे भूल गई होगी.

अम्मां की आवाज से गुस्सा अचानक काफूर गया. वे सूरज को बच्चे की तरह समझाने लगीं, ‘‘इस को पागल कुत्ते ने काटा है, जो तेरी खुशियां छीनेगी? तेरी हर खुशी पर तो तुझ से पहले खुश होने का हक इस का है. फिर क्यों करेगी वह ऐसा, बता? रही बात मेरी, तो बता कौन सा ऐसा दिन गुजरा, जब मैं ने तुझे लाड़ नहीं किया?’’ ‘‘आज ही देखो न, यह तो किसी ने पूछा नहीं कि हालचाल कैसा है? इतना कमजोर कैसे हो गया तू? तुम को इस की फिक्र ही कहां है. फिक्र तो इस बात की है कि मैं ने चिट्ठी क्यों नहीं डाली?’’ सूरज बोला.

अम्मां पर मानो आसमान फट पड़ा. आज उन की सारी ममता अपराधी बन कर उन के सामने खड़ी हो गई. आज यह हुआ क्या? उन की समझ में कुछ न आया. अम्मां चुपचाप सूरज का चेहरा निहारने लगीं, कुछ कह ही न सकीं, पर सुधा चुप न रही. उस ने दौड़ कर अपने सूरज का हाथ पकड़ लिया और पूछने लगी, ‘‘बोलो न, क्या हुआ? तुम बताते क्यों नहीं हो?’’ ‘‘मैं 2 महीने से बीमार था. लोगों से कह कर जैसेतैसे मनीआर्डर तो करा दिया, पर चिट्ठी नहीं भेज सका. बस, यही एक गुनाह हो गया.’’ सुधा की आंखों से निकले आंसू होंठों तक आ गए और मन में पागलपन का फुतूर भर उठा, ‘‘देखो अम्मां, सुना कैसे रहे हैं? इन से तो अच्छा दुश्मन भी होगा, मैं बच्ची नहीं हूं, अच्छी तरह जानती हूं कि भेजना चाहते, तो एक नहीं 10 चिट्ठियां भेज सकते थे. ‘‘नहीं भेजते तो किसी से बीमारी की खबर ही करा देते, पर क्यों करते ऐसा? तुम कितना ही पीछा छुड़ाओ, मैं तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ने वाली.’’

अम्मां चौंक कर अपनी बहू की बौखलाहट देखती रह गईं, फिर बोलीं, ‘‘क्या पागल हो गई है बहू?’’ ‘‘पागल ही हो जाऊं अम्मां, तब भी तो ठीक है,’’ कहते हुए बिलख कर रो पड़ी सुधा और फिर कहने लगी, ‘‘पागल हो कर तो इन्हें अपने प्यार का एहसास कराना आसान होगा. किसी तरह से रो कर, गा कर और नाचनाच कर इन्हें अपने जाल में फंसा ही लूंगी. कम से कम मेरा समझदार होना तो आड़े नहीं आएगा,’’ कहतेकहते सुधा का गला भर आया. सूरज आज अपनी बीवी का नया रूप देख रहा था. अब गिलेशिकवे मिटाने की फुरसत किसे थी? सुधा पति के आने की खुशियां मनाने में जुट गई. अम्मां भी अपना सारा दर्द समेट कर फिर अपने बच्चों से प्यार करने के सपने संजोने लगी थीं.

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आज फिर वही चिट्ठी मनीआर्डर के साथ देखी, तो सुधा मन ही मन कसमसा कर रह गई. अपने पिया की चिट्ठी देख उसे जरा भी खुशी नहीं हुई. सुधा ने दुखी मन से फार्म पर दस्तखत कर के डाकिए से रुपए ले लिए और अपनी सास के पास चली आई और बोली ‘‘यह लीजिए अम्मां पैसा.’’

‘‘मुझे क्या करना है. अंदर रख दे जा कर,’’ कहते हुए सासू मां दरवाजे की चौखट से टिक कर खड़ी हो गईं. देखते ही देखते उन के चेहरे की उदासी गहरी होती चली गई.

सुधा उन के दिल का हाल अच्छी तरह समझ रही थी. वह जानती थी कि उस से कहीं ज्यादा दुख अम्मां को है. उस का तो सिर्फ पति ही उस से दूर है, पर अम्मां का तो बेटा दूर होने के साथसाथ उन की प्यारी बहू का पति भी उस से दूर है. यह पहला मौका है, जब सुधा का पति सालभर से घर नहीं आया. इस से पहले 4 नहीं, तो 6 महीने में एक बार तो वह जरूर चला आता था. इस बार आखिर क्या बात हो गई, जो उस ने इतने दिनों तक खबर नहीं ली?

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अम्मां के मन में तरहतरह के खयाल आ रहे थे. कभी वे सोचतीं कि किसी लड़की के चक्कर में तो नहीं फंस गया वह? पर उन्हें भरोसा नहीं होता था.

हो न हो, पिछली बार की बहू की हरकत पर वह नाराज हो गया होगा. है भी तो नासमझ. अपने सिवा किसी और का लाड़ उस से देखा ही नहीं जाता. नालायक यह नहीं समझता, बहू भी तो उस के ही सहारे इस घर में आई है. उस बेचारी का कौन है यहां? सोचतेसोचते उन्हें वह सीन याद आ गया, जब बहू उन के प्यार पर अपना हक जता कर सूरज को चिढ़ा रही थी और वह मुंह फुलाए बैठा था  अगली बार डाकिए की आवाज सुन कर सुधा कमरे में से ही कहने लगी, ‘‘अम्मां, डाकिया आया है. पैसे और फार्म ले कर अंदर आ जाइए, दस्तखत कर दूंगी.’’ सुधा की बात सुन कर अम्मां चौंक पड़ीं. पहली बार ऐसा हुआ था कि डाकिए की आवाज सुन कर सुधा दौड़ीदौड़ी दरवाजे तक नहीं गई… तो क्या इतनी दुखी हो गई उन की बहू?

अम्मां डाकिए के पास गईं. इस बार उस ने चिट्ठी भी नहीं लिखी थी. पैसा बहू की तरफ बढ़ा कर अम्मां रोंआसी आवाज में कहने लगीं, ‘‘ले बहू, पैसा अंदर रख दे जा कर.’’

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अम्मां की आवाज कानों में पड़ते ही सुधा बेचैन निगाहों से उन के हाथों को देखने लगी. वह अम्मां से चिट्ठी मांगने को हुई कि अम्मां कहने लगीं, ‘‘क्या देख रही है? अब की बार चिट्ठी भी नहीं डाली है उस ने.’’ सुधा मन ही मन तिलमिला कर रह गई. अगले ही पल उस ने मर जाने के लिए हिम्मत जुटा ली, पर पिया से मिलने की एक ख्वाहिश ने आज फिर उस के अरमानों पर पानी फेर दिया. अगले महीने भी सिर्फ मनीआर्डर आया, तो सुधा की रहीसही उम्मीद भी टूट गई. उसे अब न तो चिट्ठी आने का भरोसा रहा और न ही इंतजार. एक दिन अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई. पहली बार तो सुधा को लगा, जैसे वह सपना देख रही हो, पर जब दोबारा किसी ने दरवाजा खटखटाया, तो वह दरवाजा खोलने चल दी.

दरवाजा खुलते ही जो खुशी मिली, उस ने सुधा को दीवाना बना दिया. वह चुपचाप खड़ी हो कर अपने साजन को ऐसे ताकती रह गई, मानो सपना समझ कर हमेशा के लिए उसे अपनी निगाहों में कैद कर लेना चाहती हो. सूरज घर के अंदर चला आया और सुधा आने वाले दिनों के लिए ढेर सारी खुशियां सहेजने को संभल भी न पाई थी कि अम्मां की चीखों ने उस के दिलोदिमाग में हलचल मचा दी. अम्मां गुस्सा होते हुए अपने बेटे पर चिल्लाए जा रही थीं, ‘‘क्यों आया है? तेरे बिना हम मर नहीं जाते.’’ ‘‘क्या बात है अम्मां?’’ सुधा को अपने पिया की आवाज सुनाई दी.

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‘‘पैसा भेज कर एहसान कर रहा था हम पर? क्या हम पैसों के भूखे हैं?’’ अम्मां की आवाज में गुस्सा लगातार बढ़ता जा रहा था.

‘‘क्या बात हो गई?’’ आखिर सूरज गंभीर हो कर पूछ ही बैठा.

‘‘बहू, तेरा पति पूछ रहा है कि बात क्या हो गई. 2 महीने से बराबर खाली पैसा भेजता रहता है, अपनी खैरखबर की छोटी सी एक चिट्ठी भी लिखना इस के लिए सिर का बोझ बन गया और पूछता है कि क्या बात हो गई?’’

सूरज बिगड़ कर कहने लगा, ‘‘नहीं भेजी चिट्ठी तो कौन सी आफत आ गई? तुम्हारी लाड़ली तो तुम्हारे पास है, फिर मेरी फिक्र करने की क्या जरूरत पड़ी?’’ सुधा अपने पति के ये शब्द सुन कर चौंक गई. शब्द नए नहीं थे, नई थी उन के सहारे उस पर बरस पड़ी नफरत. वह नफरत, जिस के बारे में उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. सुधा अच्छी तरह समझ गई कि यह सब उन अठखेलियों का ही नतीजा है, जिन में वह इन्हें अम्मां के प्यार पर अपना ज्यादा हक जता कर चिढ़ाती रही है, अपने पिया को सताती रही है.

इस में कुसूर सिर्फ सुधा का ही नहीं है, अम्मां का भी तो है, जिन्होंने उसे इतना प्यार किया. जब वे जानती थीं अपने बेटे को, तो क्यों किया उस से इतना प्यार? क्यों उसे इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि वह इस घर की बेटी नहीं बहू है? अम्मां सुधा का पक्ष ले रही हैं, यह भी गनीमत ही है, वरना वे भी उस का साथ न दें, तो वह क्या कर लेगी. इस समय तो अम्मां का साथ देना ही बहुत जरूरी है. अम्मां अभी भी अपने बेटे से लड़े जा रही थीं, ‘‘तेरा दिमाग बहुत ज्यादा खराब हो गया है.’’ अम्मां की बात का जवाब सूरज की जबान पर आया ही था कि सुधा बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘यह सब अच्छा लगता है क्या आप को? अम्मां के मुंह लगे चले जा रहे हैं. बड़े अच्छे लग रहे हैं न?’’

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‘‘चुप, यह सब तेरा ही कियाधरा है. तुझे तो चैन मिल गया होगा, यह सब देख कर. न जाने कितने कान भर दिए कि अम्मां आते ही मुझ पर बरस पड़ीं,’’ थोड़ी देर रुक कर सूरज ने खुद पर काबू करना चाहा, फिर कहने लगा, ‘‘यह किसी ने पूछा कि मैं ने चिट्ठी क्यों नहीं भेजी? इस की फिक्र किसे है? अम्मां पर तो बस तेरा ही जादू चढ़ा है.’’ ‘‘हां, मेरा जादू चढ़ा तो है, पर मैं क्या करूं? मुझे मार डालो, तब ठीक रहेगा. मुझ से तुम्हें छुटकारा मिल जाएगा और मुझे तुम्हारे बिना जीने से.’’

अब जा कर अम्मां का माथा ठनका. आज उन के बच्चों की लड़ाई बच्चों का खेल नहीं थी. आज तो उन के बच्चों के बीच नफरत की बुनियाद पड़ती नजर आ रही थी. बहू का इस तरह बीच में बोल पड़ना उन्हें अच्छा नहीं लगा. वे अपनी बहू की सोच पर चौंकी थीं. वे तो सोच रही थीं कि उन के बेटे की सूरत देख कर बहू सारे गिलेशिकवे भूल गई होगी.

अम्मां की आवाज से गुस्सा अचानक काफूर गया. वे सूरज को बच्चे की तरह समझाने लगीं, ‘‘इस को पागल कुत्ते ने काटा है, जो तेरी खुशियां छीनेगी? तेरी हर खुशी पर तो तुझ से पहले खुश होने का हक इस का है. फिर क्यों करेगी वह ऐसा, बता? रही बात मेरी, तो बता कौन सा ऐसा दिन गुजरा, जब मैं ने तुझे लाड़ नहीं किया?’’ ‘‘आज ही देखो न, यह तो किसी ने पूछा नहीं कि हालचाल कैसा है? इतना कमजोर कैसे हो गया तू? तुम को इस की फिक्र ही कहां है. फिक्र तो इस बात की है कि मैं ने चिट्ठी क्यों नहीं डाली?’’ सूरज बोला.

अम्मां पर मानो आसमान फट पड़ा. आज उन की सारी ममता अपराधी बन कर उन के सामने खड़ी हो गई. आज यह हुआ क्या? उन की समझ में कुछ न आया. अम्मां चुपचाप सूरज का चेहरा निहारने लगीं, कुछ कह ही न सकीं, पर सुधा चुप न रही. उस ने दौड़ कर अपने सूरज का हाथ पकड़ लिया और पूछने लगी, ‘‘बोलो न, क्या हुआ? तुम बताते क्यों नहीं हो?’’ ‘‘मैं 2 महीने से बीमार था. लोगों से कह कर जैसेतैसे मनीआर्डर तो करा दिया, पर चिट्ठी नहीं भेज सका. बस, यही एक गुनाह हो गया.’’ सुधा की आंखों से निकले आंसू होंठों तक आ गए और मन में पागलपन का फुतूर भर उठा, ‘‘देखो अम्मां, सुना कैसे रहे हैं? इन से तो अच्छा दुश्मन भी होगा, मैं बच्ची नहीं हूं, अच्छी तरह जानती हूं कि भेजना चाहते, तो एक नहीं 10 चिट्ठियां भेज सकते थे. ‘‘नहीं भेजते तो किसी से बीमारी की खबर ही करा देते, पर क्यों करते ऐसा? तुम कितना ही पीछा छुड़ाओ, मैं तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ने वाली.’’

अम्मां चौंक कर अपनी बहू की बौखलाहट देखती रह गईं, फिर बोलीं, ‘‘क्या पागल हो गई है बहू?’’ ‘‘पागल ही हो जाऊं अम्मां, तब भी तो ठीक है,’’ कहते हुए बिलख कर रो पड़ी सुधा और फिर कहने लगी, ‘‘पागल हो कर तो इन्हें अपने प्यार का एहसास कराना आसान होगा. किसी तरह से रो कर, गा कर और नाचनाच कर इन्हें अपने जाल में फंसा ही लूंगी. कम से कम मेरा समझदार होना तो आड़े नहीं आएगा,’’ कहतेकहते सुधा का गला भर आया. सूरज आज अपनी बीवी का नया रूप देख रहा था. अब गिलेशिकवे मिटाने की फुरसत किसे थी? सुधा पति के आने की खुशियां मनाने में जुट गई. अम्मां भी अपना सारा दर्द समेट कर फिर अपने बच्चों से प्यार करने के सपने संजोने लगी थीं.

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September 01, 2020 at 10:00AM

पीले पत्ते-भाग 1: डॉ प्रवीण के साथ क्या हादसा हुआ था?

अनुभा ने डा. प्रवीण की ओर देखा. वे शांत और अनिर्विकार भाव से व्हीलचेयर पर पड़े हुए थे. किसी वृक्ष का पीला पत्ता कब उस से अलग हो जाएगा, कहा नहीं जा सकता, वैसे ही प्रवीण का जीवन भी पीला होता जा रहा था. वह अपने प्यार से बड़ी मुश्किल से थोड़ी सी हरीतिमा ला पाती थी. इन निष्क्रिय हाथपैरों में कब हलचल होगी? कब इन पथराई आंखों में चेतना जागेगी… ये विचार अनुभा के मन से एक पल को भी नहीं जा पाते थे.

‘‘मम्मी, मैं गिर पला,’’ तभी वेदांत रोते हुए वहां आया और अपनी छिली कुहनी दिखाने लगा.

‘‘अरे बेटा, तुझे तो सचमुच चोट लग गई है. ला, मैं दवाई लगा देती हूं,’’ अनुभा ने उसे पुचकारते हुए कहा.

अनुभा फर्स्टएड किट उठा लाई और डेटौल से नन्हें वेदांत की कुहनी का घाव साफ करने लगी.

‘‘मम्मी, आप डाक्तर हैं?’’ वेदांत अपनी तोतली जबान में पूछ रहा था.

वेदांत का सवाल अनुभा के हृदय को छू गया, बोली, ‘‘मैं नहीं बेटा, तेरे पापा डाक्टर हैं, बहुत बड़े डाक्टर.’’

‘‘डाक्तर हैं तो फिल बात क्यों नहीं कलते, मेला इलाज क्यों नहीं कलते.’’

‘‘बेटा, पापा की तबीयत अभी ठीक नहीं है. जैसे ही ठीक होगी, वे हम से बहुत सारी बातें करेंगे और तुम्हारी चोट का इलाज भी कर देंगे.’’

अस्पताल के लिए देर हो रही थी. वेदांत को नाश्ता करवा कर उसे आया को सौंपा और खुद डा. प्रवीण को फ्रैश कराने के लिए बाथरूम में ले गई. आज वह उन के पसंद के कपड़े स्काईब्लू शर्ट और ग्रे पैंट पहना रही थी. कभी जब वह ये कपड़े प्रवीण के हाथ में देती थी तो वे मुसकरा कर कहते थे,  ‘अनु, आज कौन सा खास दिन है, मेरे मनपसंद कपड़े निकाले हैं.’ पर अब तो होंठों पर स्पंदन भी नहीं आ रहे थे. डा. प्रवीण को तैयार करने के बाद उसे खुद भी तैयार होना था. वह विचारों पर रोक लगाते हुए हाथ शीघ्रता से चलाने लगी. यदि अस्पताल जाने में देर हो गईर् तो बड़ी अव्यवस्था हो जाएगी. डा. प्रवीण को तो उस ने कभी भी अस्पताल देरी से जाते नहीं देखा था, यहां तक कि वे कई बार जल्दी में टेबल पर रखा नाश्ता छोड़ कर भी चले जाते.

आज अस्पताल में ठीक 11 बजे हार्ट सर्जरी थी. डा. मोदी, सिंघानिया अस्पताल से इस विशेष सर्जरी को करने आने वाले थे. अनुभा डा. प्रवीण को ले कर अस्पताल रवाना हो गई. आज भी पहले मरीज को डा. प्रवीण ही हाथ लगाते हैं. यह अनुभा के मन की अंधश्रद्धा है या प्रवीण के प्रति मन में छिपा अथाह प्रेम, किसी भी कार्य का प्रारंभ करते हुए प्रवीण का हाथ जरूर लगवाती है. इस से उस के मन को समाधान मिलता है. आज भी डा. प्रवीण ने पेशेंट को छुआ और फिर वह औपरेशन थिएटर में दाखिल हुआ. अनुभा ने प्रबंधन से अस्पताल की अन्य व्यवस्थाओं के बारे में पूछा. सारा काम सही रीति से चल रहा था. अस्पताल के व्यवस्थापन में अनुभा ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी.

डा. प्रवीण के केबिन में बैठीबैठी अनुभा खयालों के गहरे अंधकार में डूबउतरा रही थी. गले में स्टेथोस्कोप डाले हुए डा. प्रवीण रहरह कर अनुभा की आंखों के सामने आ रहे थे. एक ऐक्सिडैंट मनुष्य के जीवन में क्याक्या परिवर्तन ला देता है, उस के जीवन की चौखट ही बदल कर रख देता है. आज भी अनुभा के समक्ष से वह दृश्य नहीं हटता जब उन की कार का ऐक्सिडैंट ट्रक से हुआ था. एक मैडिकल सैमिनार में भाग लेने के लिए डा. प्रवीण पुणे जा रहे थे. वह भी अपनी मौसी से मिल लेगी, यह सोच साथ हो ली थी. पर किसे पता था कि वह यात्रा उन पर बिजली बन कर टूट कर गिरने वाली थी. तेजी से आते हुए ट्रक ने उन की कार को जोरदार टक्कर मारी थी. नन्हा वेदांत छिटक कर दूर गिर गया था. अनुभा के हाथ और पैर दोनों में फ्रैक्चर हुए थे. डा. प्रवीण के सिर पर गहरी चोट लगी थी. करीब एक घंटे तक उन्हें कोई मदद नहीं मिल पाई थी. डा. प्रवीण बेहोश हो गए थे. कराहती पड़ी हुई अनुभा में इतनी हिम्मत न थी कि वह रोते हुए वेदांत को उठा सके. बस, पड़ेपड़े ही वह मदद के लिए पुकार रही थी.

2-3 वाहन तो उस की पुकार बिना सुने निकल गए. वह तो भला हो कालेज के उन विद्यार्थियों का जो बस से पिकनिक के लिए जा रहे थे, उन्होंने अनुभा और प्रवीण को उठाया और अपनी बस में ले जा कर अस्पताल में भरती करवाया. आज भी यह घटना अनुभा के मस्तिष्क में गुंजित हो, उसे शून्य कर देती है. अस्पताल में अनुभा स्वयं की चोटों की परवा न करते हुए बारबार प्रवीण का नाम ले रही थी. पर डा. प्रवीण तो संवेदनाशून्य हो गए थे. अनुभा की चीखें सुन कर भी वे सिर उठा कर भी नहीं देख रहे थे. डाक्टरों ने कहा था कि मस्तिष्क से शरीर को सूचना मिलनी ही बंद हो गई है, इसलिए पूरे शरीर में कोई हरकत हो ही नहीं सकती.

अनुभा प्रवीण को बड़े से बड़े डाक्टर के पास ले गई पर कोई फायदा नहीं हुआ. आज इस घटना को पूरे 2 वर्ष बीत गए हैं. डा. प्रवीण जिंदा लाश की तरह हैं. पर अनुभा के लिए तो उन का जीवित रहना ही सबकुछ है. डा. प्रवीण के मातापिता डाक्टर बेटे के लिए डाक्टर बहू ही चाहते थे. किंतु अनुभा के पिता का इलाज करतेकरते दोनों के मध्य प्रेमांकुर फूट गए थे और यही बाद में गहन प्रेम में परिवर्तित हो गया. कितने ही डाक्टर लड़कियों के रिश्ते उन्होंने ठुकरा दिए और एक दिन डा. प्रवीण अनुभा को पत्नी बना कर सीधे घर ले आए थे. शुरुआत में मांबाप का विरोध हुआ, किंतु धीरेधीरे सब ठीक हो ही रहा था कि यह ऐक्सिडैंट हो गया. डा. प्रवीण के मातापिता को एक बार फिर कहने का मौका मिल गया कि यदि डाक्टर लड़की से विवाह हुआ होता तो आज वह अस्पताल संभाल लेती.

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अनुभा ने डा. प्रवीण की ओर देखा. वे शांत और अनिर्विकार भाव से व्हीलचेयर पर पड़े हुए थे. किसी वृक्ष का पीला पत्ता कब उस से अलग हो जाएगा, कहा नहीं जा सकता, वैसे ही प्रवीण का जीवन भी पीला होता जा रहा था. वह अपने प्यार से बड़ी मुश्किल से थोड़ी सी हरीतिमा ला पाती थी. इन निष्क्रिय हाथपैरों में कब हलचल होगी? कब इन पथराई आंखों में चेतना जागेगी… ये विचार अनुभा के मन से एक पल को भी नहीं जा पाते थे.

‘‘मम्मी, मैं गिर पला,’’ तभी वेदांत रोते हुए वहां आया और अपनी छिली कुहनी दिखाने लगा.

‘‘अरे बेटा, तुझे तो सचमुच चोट लग गई है. ला, मैं दवाई लगा देती हूं,’’ अनुभा ने उसे पुचकारते हुए कहा.

अनुभा फर्स्टएड किट उठा लाई और डेटौल से नन्हें वेदांत की कुहनी का घाव साफ करने लगी.

‘‘मम्मी, आप डाक्तर हैं?’’ वेदांत अपनी तोतली जबान में पूछ रहा था.

वेदांत का सवाल अनुभा के हृदय को छू गया, बोली, ‘‘मैं नहीं बेटा, तेरे पापा डाक्टर हैं, बहुत बड़े डाक्टर.’’

‘‘डाक्तर हैं तो फिल बात क्यों नहीं कलते, मेला इलाज क्यों नहीं कलते.’’

‘‘बेटा, पापा की तबीयत अभी ठीक नहीं है. जैसे ही ठीक होगी, वे हम से बहुत सारी बातें करेंगे और तुम्हारी चोट का इलाज भी कर देंगे.’’

अस्पताल के लिए देर हो रही थी. वेदांत को नाश्ता करवा कर उसे आया को सौंपा और खुद डा. प्रवीण को फ्रैश कराने के लिए बाथरूम में ले गई. आज वह उन के पसंद के कपड़े स्काईब्लू शर्ट और ग्रे पैंट पहना रही थी. कभी जब वह ये कपड़े प्रवीण के हाथ में देती थी तो वे मुसकरा कर कहते थे,  ‘अनु, आज कौन सा खास दिन है, मेरे मनपसंद कपड़े निकाले हैं.’ पर अब तो होंठों पर स्पंदन भी नहीं आ रहे थे. डा. प्रवीण को तैयार करने के बाद उसे खुद भी तैयार होना था. वह विचारों पर रोक लगाते हुए हाथ शीघ्रता से चलाने लगी. यदि अस्पताल जाने में देर हो गईर् तो बड़ी अव्यवस्था हो जाएगी. डा. प्रवीण को तो उस ने कभी भी अस्पताल देरी से जाते नहीं देखा था, यहां तक कि वे कई बार जल्दी में टेबल पर रखा नाश्ता छोड़ कर भी चले जाते.

आज अस्पताल में ठीक 11 बजे हार्ट सर्जरी थी. डा. मोदी, सिंघानिया अस्पताल से इस विशेष सर्जरी को करने आने वाले थे. अनुभा डा. प्रवीण को ले कर अस्पताल रवाना हो गई. आज भी पहले मरीज को डा. प्रवीण ही हाथ लगाते हैं. यह अनुभा के मन की अंधश्रद्धा है या प्रवीण के प्रति मन में छिपा अथाह प्रेम, किसी भी कार्य का प्रारंभ करते हुए प्रवीण का हाथ जरूर लगवाती है. इस से उस के मन को समाधान मिलता है. आज भी डा. प्रवीण ने पेशेंट को छुआ और फिर वह औपरेशन थिएटर में दाखिल हुआ. अनुभा ने प्रबंधन से अस्पताल की अन्य व्यवस्थाओं के बारे में पूछा. सारा काम सही रीति से चल रहा था. अस्पताल के व्यवस्थापन में अनुभा ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी.

डा. प्रवीण के केबिन में बैठीबैठी अनुभा खयालों के गहरे अंधकार में डूबउतरा रही थी. गले में स्टेथोस्कोप डाले हुए डा. प्रवीण रहरह कर अनुभा की आंखों के सामने आ रहे थे. एक ऐक्सिडैंट मनुष्य के जीवन में क्याक्या परिवर्तन ला देता है, उस के जीवन की चौखट ही बदल कर रख देता है. आज भी अनुभा के समक्ष से वह दृश्य नहीं हटता जब उन की कार का ऐक्सिडैंट ट्रक से हुआ था. एक मैडिकल सैमिनार में भाग लेने के लिए डा. प्रवीण पुणे जा रहे थे. वह भी अपनी मौसी से मिल लेगी, यह सोच साथ हो ली थी. पर किसे पता था कि वह यात्रा उन पर बिजली बन कर टूट कर गिरने वाली थी. तेजी से आते हुए ट्रक ने उन की कार को जोरदार टक्कर मारी थी. नन्हा वेदांत छिटक कर दूर गिर गया था. अनुभा के हाथ और पैर दोनों में फ्रैक्चर हुए थे. डा. प्रवीण के सिर पर गहरी चोट लगी थी. करीब एक घंटे तक उन्हें कोई मदद नहीं मिल पाई थी. डा. प्रवीण बेहोश हो गए थे. कराहती पड़ी हुई अनुभा में इतनी हिम्मत न थी कि वह रोते हुए वेदांत को उठा सके. बस, पड़ेपड़े ही वह मदद के लिए पुकार रही थी.

2-3 वाहन तो उस की पुकार बिना सुने निकल गए. वह तो भला हो कालेज के उन विद्यार्थियों का जो बस से पिकनिक के लिए जा रहे थे, उन्होंने अनुभा और प्रवीण को उठाया और अपनी बस में ले जा कर अस्पताल में भरती करवाया. आज भी यह घटना अनुभा के मस्तिष्क में गुंजित हो, उसे शून्य कर देती है. अस्पताल में अनुभा स्वयं की चोटों की परवा न करते हुए बारबार प्रवीण का नाम ले रही थी. पर डा. प्रवीण तो संवेदनाशून्य हो गए थे. अनुभा की चीखें सुन कर भी वे सिर उठा कर भी नहीं देख रहे थे. डाक्टरों ने कहा था कि मस्तिष्क से शरीर को सूचना मिलनी ही बंद हो गई है, इसलिए पूरे शरीर में कोई हरकत हो ही नहीं सकती.

अनुभा प्रवीण को बड़े से बड़े डाक्टर के पास ले गई पर कोई फायदा नहीं हुआ. आज इस घटना को पूरे 2 वर्ष बीत गए हैं. डा. प्रवीण जिंदा लाश की तरह हैं. पर अनुभा के लिए तो उन का जीवित रहना ही सबकुछ है. डा. प्रवीण के मातापिता डाक्टर बेटे के लिए डाक्टर बहू ही चाहते थे. किंतु अनुभा के पिता का इलाज करतेकरते दोनों के मध्य प्रेमांकुर फूट गए थे और यही बाद में गहन प्रेम में परिवर्तित हो गया. कितने ही डाक्टर लड़कियों के रिश्ते उन्होंने ठुकरा दिए और एक दिन डा. प्रवीण अनुभा को पत्नी बना कर सीधे घर ले आए थे. शुरुआत में मांबाप का विरोध हुआ, किंतु धीरेधीरे सब ठीक हो ही रहा था कि यह ऐक्सिडैंट हो गया. डा. प्रवीण के मातापिता को एक बार फिर कहने का मौका मिल गया कि यदि डाक्टर लड़की से विवाह हुआ होता तो आज वह अस्पताल संभाल लेती.

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September 01, 2020 at 10:00AM

सही रास्ता: मुन्ना अपने पापा से पिकनिक जानें के लिए क्या मांग रहा था?

जैसे ही जेब में रुपयों को निकालने के लिए हाथ डाला तो उसे अनुभव हुआ, जेब में कुछ भी नहीं है. उसे बहुत आश्चर्य हुआ. आज तक कभी ऐसा हुआ नहीं था. अभी महीना पूरा होने में 15 दिनों का समय शेष था.उस ने पत्नी को आवाज लगाते हुए कहा, ‘‘मुन्ना की अम्मा, जरा इधर आओ.’’

मुन्ना की मम्मी सुबह काम में व्यस्त थी, लेकिन हाथ का काम छोड़ कर आ कर बोली, ‘‘क्या बात हो गई?’’

‘‘मेरी जेब से 2 हजार रुपए गायब हैं,’’ उस ने क्रोध से कहा.

‘‘कहीं रख कर भूल गए होंगे, देखो, मिल जाएंगे,’’ मुन्ना की मम्मी ने उत्तर दिया.

‘‘मेरा मतलब है तुम ने तो नहीं लिए?’’

‘‘मैं क्यों लेने लगी? अगर मुझे चाहिए होते तो क्या मैं तुम्हें बताती नहीं?’’ मुन्ना की मम्मी ने कहा, फिर आगे कह उठी, ‘‘तुम्हीं ने खर्च कर दिए होंगे और यहां खोज रहे हो.’’

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‘‘तुम समझने की कोशिश करो, मैं ने ऐसा कोई खर्च नहीं किया, और करता भी तो क्या मुझे याद नहीं होता?’’ उस ने प्रतिवाद किया.

‘‘मैं ने तुम्हारे रुपए नहीं निकाले,’’ कहते हुए मुन्ना की मम्मी नाश्ता बनाने के लिए अंदर चली गई.

वह परेशान हो गया. आखिर रुपए, वह भी हजारों में थे, कैसे और कहां चले गए? परिवार में केवल एक बेटा मुन्ना ही है और वह जानता है कि मुन्ना को किसी भी प्रकार की कोई गंदी या नशे की आदत नहीं है कि वह चोरी करे या जेब से रुपए निकाले. पचासों बार उसे जब भी आवश्यकता रही, मुन्ना ने कहा था, ‘पापा, मुझे 50 रुपए चाहिए, पिकनिक पर जाना है.’

उस ने उस से कहा था, ‘जा कर पैंट की जेब में से निकाल लो.’ मुन्ना ने 50 ही रुपए लिए थे. कभी भी एक रुपए के लेनदेन में गड़बड़ी नहीं की थी. कभी बाजार से सौदा लाने को भेजते तो लौटने के बाद 2 रुपए भी बचते तो वह लौटा देता था. आज तक मुन्ना ने कभी बिना पूछे रुपए नहीं लिए. अब क्यों लेगा? यदि मुन्ना को रुपए लेने ही थे तो वह इतने रुपयों को क्यों लेता? इतने रुपयों का वह करेगा भी क्या?

पिछले दिनों उस ने मोबाइल खरीदने की मांग जरूर की थी, लेकिन उस ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘मुन्ना, तुम्हारी बर्थडे पर हम गिफ्ट कर देंगे. इन दिनों तंगी है.’

ये भी पढ़ें- मरीचिका-भाग 1: मोहनजी को कब आभास हुआ कि उनका एक बेटा होना

‘जी पापा,’ मुन्ना ने कहा था.

वह बहुत परेशान हो गया था. अभी महीना भी पूरा नहीं हो पाया था, इस पर आजकल कितनी महंगाई है और आमदनी कितनी कम है. दिनभर आटोरिक्शा चलाने के बाद 2-3 सौ रुपयों की बचत हो पाती है. पत्नी से तो उस ने पूछ लिया, यदि मुन्ना से पूछ लें तो क्या हर्ज है? लेकिन बेटा क्या सोचेगा? उस को पूरे महीने की चिंता थी. उस ने मुन्ना को आवाज दी, जो अभी सो कर उठा था और बाथरूम में जाने की तैयारी में था. मुन्ना आ कर खड़ा हो गया.

‘‘मुन्ना, तुम ने कुछ रुपए निकाले?’’

‘‘कहां से?’’

‘‘मेरी जेब से.’’

‘‘नहीं, नहीं तो,’’ घबराए स्वर में मुन्ना ने कहा.

‘‘मेरी जेब से 2 हजार रुपए निकल गए बेटा, पता नहीं चल पा रहा कहां गए,’’ परेशानी भरे स्वर में उस ने कहा.

‘‘मैं जाऊं पापा?’’ मुन्ना का स्वर अभी तक घबराया सा था, मानो उसी ने चोरी की हो. लेकिन वह क्यों और किस काम के लिए रुपए निकालेगा? बारबार उस का शक मुन्ना पर जा कर पत्नी तक जाता और फिर वह पैंट की दूसरी जेबों में देखने लगता. अकसर इधरउधर वह जहां भी रुपयों को रख देता था, सब जगह उस ने रुपयों को देखा, लेकिन रुपयों को नहीं मिलना था, सो नहीं मिले.

हाथ से खर्च किए या किसी को दिए जाने पर रुपए कम पड़ जाने का दुख नहीं होता है, क्योंकि उस की जानकारी हमें होती है लेकिन अनायास जेब कट जाए या चोरी हो जाए या रुपए गिर जाएं तो सच में बहुत पीड़ा होती है.

आटोरिक्शा में न जाने कितनी बार किसी का मोबाइल या पर्स या थैला रह जाता तो वह यात्री को खोज कर उसे दे देता था या थाने में जा कर उस का सामान जमा करा देता था. लेकिन उस के साथ यह पहली बार ऐसी घटना घटी थी जिस की उसे कोईर् उम्मीद न थी. वह किस पर अविश्वास करे? फिर घर में कोई आयागया भी नहीं जो चोरी होती. हो सकता है कोई आया हो और उसे न पता हो. फिर उस ने पत्नी को आवाज दी. वह फिर आई.

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‘‘क्या कल शाम को कोई मिलने वाली सहेली या मुन्ना के दोस्त आए थे?’’

‘‘कोई नहीं आया, तुम ही किसी को दे कर भूल गए होगे,’’ उस ने फिर पति को ही उलाहना दिया.

आखिर रुपए गए तो कहां? वह बारबार सोच रहा था. जितना सोचता उतना ही दुखी हो रहा था. बड़ी मेहनत से कमाए गए रुपए थे. उसे दुखी देख कर मुन्ना की मम्मी ने फिर कहा, ‘‘तुम चिंता मत करो, मिल जाएंगे. मैं चाय लाती हूं,’’ कह कर वह चली गई. मुन्ना भी बाथरूम से निकल कर टैलीविजन के सामने बैठ कर फिल्म देखने लगा था. वह चायनाश्ता टैलीविजन के सामने बैठ कर ही करता रहा था.

यह सच था कि बहुत अधिक भौतिक वस्तुएं वह नहीं खरीद पाता था, अधिक खर्च भी नहीं कर पाता था. मुन्ना कभी आइसक्रीम या चौकलेट लेने की जिद करता तो वह खिला जरूर देता, लेकिन खिलाने के बाद उसे बता भी देता था, ‘बेटा, हम अभी इतने अमीर नहीं हुए हैं कि फालतू खानेपीने पर 100-200 रुपए खर्च कर सकें.’ मुन्ना कभी नाराज नहीं होता था. वह भी जानता था कि वह एक गरीब परिवार का बेटा है. एकदो बार उस ने अपनी मां से कहा भी था, ‘मम्मी, स्कूल से छूटने के बाद

मैं किसी दुकान पर काम करने चले जाया करूं?’

‘क्यों?’

‘हम गरीब हैं न, पापा को कुछ मदद मिल जाएगी. उस की मां ने उसे सीने से लगा लिया और बालों में हाथ फेरते हुए कह उठी, ‘अभी इस की जरूरत नहीं है, पहले पढ़लिख ले, फिर ये

सब बातें बाद में करना.’ रात में उस ने अपने पति से भी यह बात बताई थी कि मुन्ना काम करने के लिए कह रहा था.

‘मैं जिंदा हूं अभी, खबरदार जो काम करने भेजा तो.’

‘मैं ने कब कहा भेजने को?’

‘उस से कहो, पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाए.’ बात आईगई, हो गई, लेकिन आखिर रुपए कहां गए होंगे? वह जितना सोचता उतना ही उलझता जाता था. आखिर उस ने तय कर लिया कि एकएक घंटे अतिरिक्त आटोरिक्शा चला कर कर वह इस घाटे को पूरा कर लेगा.

2-3 सप्ताह में वह रुपयों की चोरी की बात को लगभग भूल ही गया था. जीवन शांति के साथ बीत रहा था. एक शाम वह घर लौट रहा था तो रास्ते में उन के महल्ले का पोस्टमैन मिल गया. अभिवादन के बाद उस ने पूछ ही लिया, ‘‘आज दिल्ली से पार्सल आया था, क्या था उस में?’’

‘‘दिल्ली से पार्सल, मतलब?’’ वह कुछ समझा नहीं, उस के कोई रिश्तेदार भी दिल्ली में नहीं थे, फिर किस ने पार्सल भेजा होगा और कैसा पार्सल? पोस्टमैन ने फिर कहा, ‘‘एक वीपीआर से पार्सल आया था तुम्हारे बेटे के नाम.’’

‘‘कितने का था?’’

‘‘2 हजार रुपयों का.’’

‘‘किस ने छुड़वाया?’’

‘‘तुम्हारे बेटे ने, लेकिन तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो?’’

मुन्ना के पापा ने सब सूत्रों को जोड़ा तो बात समझ में आई कि मुन्ना ने कोई पार्सल मंगवाया था, रुपए भी निश्चित रूप से उस ने ही निकाले थे. उन्होंने पोस्टमैन से कहा, ‘‘वैसे ही पूछ लिया, मुन्ना बता तो रहा था पार्सल आने वाला है, लेकिन आज आया, यह मालूम नहीं था.’’

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‘‘अच्छा, चलता हूं,’’ कह कर पोस्टमैन अपने घर की ओर मुड़ गया.

मुन्ना के पापा को अत्यधिक क्रोध हो आया, उन्हें उम्मीद नहीं थी कि मुन्ना इस तरह चोरी करेगा. आखिर, उस ने ऐसा क्यों किया? क्रोध और दुख के मिलेजुले भाव से घर पर पहुंच कर उस ने मुन्ना को जोर से आवाज दी, ‘‘मुन्ना.’’

मुन्ना की मम्मी बाहर निकल आई, ‘‘क्या बात हो गई? इतने नाराज हो?’’

‘‘कहां है मुन्ना? 2 हजार रुपए उसी ने मेरी जेब से निकाले थे,’’ क्रोध में मुन्ना के पापा ने कहा. तब तक मुन्ना भी सामने आ गया था.

‘‘क्यों, तूने ही जेब से रुपए निकाले थे न?’’ मुन्ना ने नजरें नीची कर लीं.

‘‘क्यों चोरी किए थे तूने?’’ पापा ने क्रोध में मुन्ना से पूछा.

‘‘पार्सल में क्या आया? हम से कहता, हम तुझे बाजार से दिलवा देते,’’ पापा अभी भी चिल्ला रहे थे. मुन्ना की मम्मी बहुत आश्चर्य से सबकुछ देख रही थी.

‘‘पापा, वह यहां बाजार में नहीं मिलता,’’ मुन्ना ने घबराए स्वर में कहा.

‘‘क्या मंगवाया था, बता मुझे,’’ पापा ने क्रोध में प्रश्न किया.

मुन्ना अंदर गया, एक छोटी सी पैकिंग ले आया और पापा की ओर बढ़ा दी.

‘‘क्या है इस में?’’

‘‘पापा, इस में अमीर होने का तावीज है जिस पर लक्ष्मीजी का मंत्र है, इसे धारण करने से घर में खूब रुपया आएगा. पापा, यह मैं ने आप के लिए लिया था ताकि हमारी गरीबी दूर हो सके,’’ मुन्ना ने भोलेपन से पापा के हाथों में वह तावीज देते हुए कहा.

वह एक पेंडुलम था जिस की कुल कीमत 100 रुपए होगी लेकिन तुरंत वह अपने बेटे की भावनाओं को समझ गया और पलभर बाद ही उसे गले से लगा लिया और कहा, ‘‘बेटा, ऐसा हार पहनने से या पूजापाठ करने से कोई अमीर नहीं बनता, ईमानदारी से परिश्रम किए बिना हम कभी भी धनवान नहीं बन सकते. बेटा, यह सब तो व्यापार और पाखंड है.’’

मुन्ना सिर पकड़ कर बैठ गया. उसे समझ आ गया कि पाखंड का प्रचार कितना प्रभावशाली होता है कि पढ़ेलिखे, तर्क की भाषा जानने वाली, कौम भी ‘एक बार अपना कर देख लो’ की सोच का शिकार हो जाती है. मुन्ना तो कुछ अबोध था पर उस के पापा ने क्यों नहीं पाठ पढ़ाया कि यह पाखंड है. शायद इसलिए कि भक्ति का भय उस पर भी मन के कोने में छिपा था.

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जैसे ही जेब में रुपयों को निकालने के लिए हाथ डाला तो उसे अनुभव हुआ, जेब में कुछ भी नहीं है. उसे बहुत आश्चर्य हुआ. आज तक कभी ऐसा हुआ नहीं था. अभी महीना पूरा होने में 15 दिनों का समय शेष था.उस ने पत्नी को आवाज लगाते हुए कहा, ‘‘मुन्ना की अम्मा, जरा इधर आओ.’’

मुन्ना की मम्मी सुबह काम में व्यस्त थी, लेकिन हाथ का काम छोड़ कर आ कर बोली, ‘‘क्या बात हो गई?’’

‘‘मेरी जेब से 2 हजार रुपए गायब हैं,’’ उस ने क्रोध से कहा.

‘‘कहीं रख कर भूल गए होंगे, देखो, मिल जाएंगे,’’ मुन्ना की मम्मी ने उत्तर दिया.

‘‘मेरा मतलब है तुम ने तो नहीं लिए?’’

‘‘मैं क्यों लेने लगी? अगर मुझे चाहिए होते तो क्या मैं तुम्हें बताती नहीं?’’ मुन्ना की मम्मी ने कहा, फिर आगे कह उठी, ‘‘तुम्हीं ने खर्च कर दिए होंगे और यहां खोज रहे हो.’’

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‘‘तुम समझने की कोशिश करो, मैं ने ऐसा कोई खर्च नहीं किया, और करता भी तो क्या मुझे याद नहीं होता?’’ उस ने प्रतिवाद किया.

‘‘मैं ने तुम्हारे रुपए नहीं निकाले,’’ कहते हुए मुन्ना की मम्मी नाश्ता बनाने के लिए अंदर चली गई.

वह परेशान हो गया. आखिर रुपए, वह भी हजारों में थे, कैसे और कहां चले गए? परिवार में केवल एक बेटा मुन्ना ही है और वह जानता है कि मुन्ना को किसी भी प्रकार की कोई गंदी या नशे की आदत नहीं है कि वह चोरी करे या जेब से रुपए निकाले. पचासों बार उसे जब भी आवश्यकता रही, मुन्ना ने कहा था, ‘पापा, मुझे 50 रुपए चाहिए, पिकनिक पर जाना है.’

उस ने उस से कहा था, ‘जा कर पैंट की जेब में से निकाल लो.’ मुन्ना ने 50 ही रुपए लिए थे. कभी भी एक रुपए के लेनदेन में गड़बड़ी नहीं की थी. कभी बाजार से सौदा लाने को भेजते तो लौटने के बाद 2 रुपए भी बचते तो वह लौटा देता था. आज तक मुन्ना ने कभी बिना पूछे रुपए नहीं लिए. अब क्यों लेगा? यदि मुन्ना को रुपए लेने ही थे तो वह इतने रुपयों को क्यों लेता? इतने रुपयों का वह करेगा भी क्या?

पिछले दिनों उस ने मोबाइल खरीदने की मांग जरूर की थी, लेकिन उस ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘मुन्ना, तुम्हारी बर्थडे पर हम गिफ्ट कर देंगे. इन दिनों तंगी है.’

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‘जी पापा,’ मुन्ना ने कहा था.

वह बहुत परेशान हो गया था. अभी महीना भी पूरा नहीं हो पाया था, इस पर आजकल कितनी महंगाई है और आमदनी कितनी कम है. दिनभर आटोरिक्शा चलाने के बाद 2-3 सौ रुपयों की बचत हो पाती है. पत्नी से तो उस ने पूछ लिया, यदि मुन्ना से पूछ लें तो क्या हर्ज है? लेकिन बेटा क्या सोचेगा? उस को पूरे महीने की चिंता थी. उस ने मुन्ना को आवाज दी, जो अभी सो कर उठा था और बाथरूम में जाने की तैयारी में था. मुन्ना आ कर खड़ा हो गया.

‘‘मुन्ना, तुम ने कुछ रुपए निकाले?’’

‘‘कहां से?’’

‘‘मेरी जेब से.’’

‘‘नहीं, नहीं तो,’’ घबराए स्वर में मुन्ना ने कहा.

‘‘मेरी जेब से 2 हजार रुपए निकल गए बेटा, पता नहीं चल पा रहा कहां गए,’’ परेशानी भरे स्वर में उस ने कहा.

‘‘मैं जाऊं पापा?’’ मुन्ना का स्वर अभी तक घबराया सा था, मानो उसी ने चोरी की हो. लेकिन वह क्यों और किस काम के लिए रुपए निकालेगा? बारबार उस का शक मुन्ना पर जा कर पत्नी तक जाता और फिर वह पैंट की दूसरी जेबों में देखने लगता. अकसर इधरउधर वह जहां भी रुपयों को रख देता था, सब जगह उस ने रुपयों को देखा, लेकिन रुपयों को नहीं मिलना था, सो नहीं मिले.

हाथ से खर्च किए या किसी को दिए जाने पर रुपए कम पड़ जाने का दुख नहीं होता है, क्योंकि उस की जानकारी हमें होती है लेकिन अनायास जेब कट जाए या चोरी हो जाए या रुपए गिर जाएं तो सच में बहुत पीड़ा होती है.

आटोरिक्शा में न जाने कितनी बार किसी का मोबाइल या पर्स या थैला रह जाता तो वह यात्री को खोज कर उसे दे देता था या थाने में जा कर उस का सामान जमा करा देता था. लेकिन उस के साथ यह पहली बार ऐसी घटना घटी थी जिस की उसे कोईर् उम्मीद न थी. वह किस पर अविश्वास करे? फिर घर में कोई आयागया भी नहीं जो चोरी होती. हो सकता है कोई आया हो और उसे न पता हो. फिर उस ने पत्नी को आवाज दी. वह फिर आई.

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‘‘क्या कल शाम को कोई मिलने वाली सहेली या मुन्ना के दोस्त आए थे?’’

‘‘कोई नहीं आया, तुम ही किसी को दे कर भूल गए होगे,’’ उस ने फिर पति को ही उलाहना दिया.

आखिर रुपए गए तो कहां? वह बारबार सोच रहा था. जितना सोचता उतना ही दुखी हो रहा था. बड़ी मेहनत से कमाए गए रुपए थे. उसे दुखी देख कर मुन्ना की मम्मी ने फिर कहा, ‘‘तुम चिंता मत करो, मिल जाएंगे. मैं चाय लाती हूं,’’ कह कर वह चली गई. मुन्ना भी बाथरूम से निकल कर टैलीविजन के सामने बैठ कर फिल्म देखने लगा था. वह चायनाश्ता टैलीविजन के सामने बैठ कर ही करता रहा था.

यह सच था कि बहुत अधिक भौतिक वस्तुएं वह नहीं खरीद पाता था, अधिक खर्च भी नहीं कर पाता था. मुन्ना कभी आइसक्रीम या चौकलेट लेने की जिद करता तो वह खिला जरूर देता, लेकिन खिलाने के बाद उसे बता भी देता था, ‘बेटा, हम अभी इतने अमीर नहीं हुए हैं कि फालतू खानेपीने पर 100-200 रुपए खर्च कर सकें.’ मुन्ना कभी नाराज नहीं होता था. वह भी जानता था कि वह एक गरीब परिवार का बेटा है. एकदो बार उस ने अपनी मां से कहा भी था, ‘मम्मी, स्कूल से छूटने के बाद

मैं किसी दुकान पर काम करने चले जाया करूं?’

‘क्यों?’

‘हम गरीब हैं न, पापा को कुछ मदद मिल जाएगी. उस की मां ने उसे सीने से लगा लिया और बालों में हाथ फेरते हुए कह उठी, ‘अभी इस की जरूरत नहीं है, पहले पढ़लिख ले, फिर ये

सब बातें बाद में करना.’ रात में उस ने अपने पति से भी यह बात बताई थी कि मुन्ना काम करने के लिए कह रहा था.

‘मैं जिंदा हूं अभी, खबरदार जो काम करने भेजा तो.’

‘मैं ने कब कहा भेजने को?’

‘उस से कहो, पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाए.’ बात आईगई, हो गई, लेकिन आखिर रुपए कहां गए होंगे? वह जितना सोचता उतना ही उलझता जाता था. आखिर उस ने तय कर लिया कि एकएक घंटे अतिरिक्त आटोरिक्शा चला कर कर वह इस घाटे को पूरा कर लेगा.

2-3 सप्ताह में वह रुपयों की चोरी की बात को लगभग भूल ही गया था. जीवन शांति के साथ बीत रहा था. एक शाम वह घर लौट रहा था तो रास्ते में उन के महल्ले का पोस्टमैन मिल गया. अभिवादन के बाद उस ने पूछ ही लिया, ‘‘आज दिल्ली से पार्सल आया था, क्या था उस में?’’

‘‘दिल्ली से पार्सल, मतलब?’’ वह कुछ समझा नहीं, उस के कोई रिश्तेदार भी दिल्ली में नहीं थे, फिर किस ने पार्सल भेजा होगा और कैसा पार्सल? पोस्टमैन ने फिर कहा, ‘‘एक वीपीआर से पार्सल आया था तुम्हारे बेटे के नाम.’’

‘‘कितने का था?’’

‘‘2 हजार रुपयों का.’’

‘‘किस ने छुड़वाया?’’

‘‘तुम्हारे बेटे ने, लेकिन तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो?’’

मुन्ना के पापा ने सब सूत्रों को जोड़ा तो बात समझ में आई कि मुन्ना ने कोई पार्सल मंगवाया था, रुपए भी निश्चित रूप से उस ने ही निकाले थे. उन्होंने पोस्टमैन से कहा, ‘‘वैसे ही पूछ लिया, मुन्ना बता तो रहा था पार्सल आने वाला है, लेकिन आज आया, यह मालूम नहीं था.’’

ये भी पढ़ें- कन्यादान-भाग 1 :मंजुला श्रेयसी की शादी से इतनी दुखी क्यों थी?

‘‘अच्छा, चलता हूं,’’ कह कर पोस्टमैन अपने घर की ओर मुड़ गया.

मुन्ना के पापा को अत्यधिक क्रोध हो आया, उन्हें उम्मीद नहीं थी कि मुन्ना इस तरह चोरी करेगा. आखिर, उस ने ऐसा क्यों किया? क्रोध और दुख के मिलेजुले भाव से घर पर पहुंच कर उस ने मुन्ना को जोर से आवाज दी, ‘‘मुन्ना.’’

मुन्ना की मम्मी बाहर निकल आई, ‘‘क्या बात हो गई? इतने नाराज हो?’’

‘‘कहां है मुन्ना? 2 हजार रुपए उसी ने मेरी जेब से निकाले थे,’’ क्रोध में मुन्ना के पापा ने कहा. तब तक मुन्ना भी सामने आ गया था.

‘‘क्यों, तूने ही जेब से रुपए निकाले थे न?’’ मुन्ना ने नजरें नीची कर लीं.

‘‘क्यों चोरी किए थे तूने?’’ पापा ने क्रोध में मुन्ना से पूछा.

‘‘पार्सल में क्या आया? हम से कहता, हम तुझे बाजार से दिलवा देते,’’ पापा अभी भी चिल्ला रहे थे. मुन्ना की मम्मी बहुत आश्चर्य से सबकुछ देख रही थी.

‘‘पापा, वह यहां बाजार में नहीं मिलता,’’ मुन्ना ने घबराए स्वर में कहा.

‘‘क्या मंगवाया था, बता मुझे,’’ पापा ने क्रोध में प्रश्न किया.

मुन्ना अंदर गया, एक छोटी सी पैकिंग ले आया और पापा की ओर बढ़ा दी.

‘‘क्या है इस में?’’

‘‘पापा, इस में अमीर होने का तावीज है जिस पर लक्ष्मीजी का मंत्र है, इसे धारण करने से घर में खूब रुपया आएगा. पापा, यह मैं ने आप के लिए लिया था ताकि हमारी गरीबी दूर हो सके,’’ मुन्ना ने भोलेपन से पापा के हाथों में वह तावीज देते हुए कहा.

वह एक पेंडुलम था जिस की कुल कीमत 100 रुपए होगी लेकिन तुरंत वह अपने बेटे की भावनाओं को समझ गया और पलभर बाद ही उसे गले से लगा लिया और कहा, ‘‘बेटा, ऐसा हार पहनने से या पूजापाठ करने से कोई अमीर नहीं बनता, ईमानदारी से परिश्रम किए बिना हम कभी भी धनवान नहीं बन सकते. बेटा, यह सब तो व्यापार और पाखंड है.’’

मुन्ना सिर पकड़ कर बैठ गया. उसे समझ आ गया कि पाखंड का प्रचार कितना प्रभावशाली होता है कि पढ़ेलिखे, तर्क की भाषा जानने वाली, कौम भी ‘एक बार अपना कर देख लो’ की सोच का शिकार हो जाती है. मुन्ना तो कुछ अबोध था पर उस के पापा ने क्यों नहीं पाठ पढ़ाया कि यह पाखंड है. शायद इसलिए कि भक्ति का भय उस पर भी मन के कोने में छिपा था.

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September 01, 2020 at 10:00AM

पीले पत्ते-भाग 2: डॉ प्रवीण के साथ क्या हादसा हुआ था?

इस घटना के करीब 6 महीने बाद तक वह इस तरह खोईखोई रहने लगी थी मानो डाक्टर प्रवीण के साथ वह भी संवेदनाशून्य हो गई हो. इस संसार में रह कर भी वह सब से दूर किसी अलग ही दुनिया में रहने लगी थी.  डा. प्रवीण का जीवनधारा प्राइवेट अस्पताल बंद हो चुका था. अनुभा के मातापिता ने उसे संभालने की बहुत कोशिश की पर सब व्यर्थ. इसी समय डा. प्रवीण के खास दोस्त डा. विनीत ने अनुभा का मार्गदर्शन किया. दर्द से खोखले पड़ गए उस के मनमस्तिष्क में आत्मविश्वासभरा, उसे समझाया कि वह अस्पताल अच्छे से चला सकती है.

अनुभा ने निराश स्वर में उत्तर दिया था, ‘पर मैं डाक्टर नहीं हूं.’ डा. विनीत ने उसे समझाया था कि वह डाक्टर नहीं है तो क्या हुआ, अच्छी व्यवस्थापक तो है. कुछ डाक्टरों को वेतन दे कर काम पर रखा जा सकता है और कुछ विशेषज्ञ डाक्टरों को समयसमय पर बुलाया जा सकता है. शुरूशुरू में उसे यह सब बड़ा कठिन लग रहा था, पर बाद में उसे लगा कि वह यह आसानी से कर सकती हैं. डा. प्रवीण के द्वारा की गई बचत इस समय काम आई. डा. विनीत ने जीजान से सहयोग दिया और बंद पड़े हुए जीवनधारा अस्पताल में नया जीवन आ गया.

अब तो अस्पताल में 4 डाक्टर, 8 नर्स और 8 वार्डबौय का अच्छाखासा समूह है और रोज ही अलगअलग क्षेत्रों के विशेषज्ञ डाक्टर आ कर अपनी सेवा देते हैं. वहां मरीजों की पीड़ा देख कर अनुभा अपने दुख भूलने लगी. जब व्यक्ति अपने से बढ़ कर दुख देख लेता है तो उसे अपना खुद का दुख कम लगने लगता है. डा. प्रवीण को भी इसी अस्पताल में नली के द्वारा तरल भोजन दिया जाने लगा. अनुभा ने प्रवीण की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. यहां तक कि हर दिन उन की  शेविंग भी की जाती, व्हीलचेयर पर बैठे डाक्टर प्रवीण इतने तरोताजा लगते कि अजनबी व्यक्ति आ कर उन से बात करने लगते थे. डा. प्रवीण आज भी अपने केबिन में अपनी कुरसी पर बैठते थे. अनुभा डा. प्रवीण के सम्मान में कहीं कोई कमी नहीं चाहती थी.

अनुभा की मेहनत और लगन देख कर उस के सासससुर भी उस क लोहा मान गए थे और अनुभा तो इसे अपना पुनर्जन्म मानती है. कहां पहले की सहमीसकुचाई सीधीसादी अनुभा और अब कहां आत्मविश्वास से भरी सुलझे विचारों वाली अनुभा. जिंदगी के कड़वे अनुभव इंसान को प्रौढ़ बना देते हैं, दुख इंसान को मांझ कर रख देता है और वक्त द्वारा ली गई परीक्षाओं में जो खरा उतरता है वह इंसान दूसरों के लिए आदर्श बन जाता है. आज अनुभा इसी दौर से गुजर रही थी. अब वह सबकुछ ठीक तरह से संभालने लगी थी. डा. प्रवीण जो सब की नजरों में संवेदनाशून्य हो गए थे, उस की नजरों में सुखदुख के साथी थे. कोई भी बात वह उन्हें ऐसे बताती जैसे वे सभीकुछ सुन रहे हों और अभी जवाब देंगे. निर्णय तो वह स्वयं लेती पर इस बात की तसल्ली होती कि उस ने डा. प्रवीण की राय ली.

सबकुछ ठीक चल रहा था पर आजकल अनुभा को कुछ परेशान कर रहा था, वह था डा. विनीत की आंखों का बदलता हुआ भाव. औरत को पुरुष की आंखों में बदलते भाव को पहचानने में देर नहीं लगती. जितनी आसानी से वह प्रेम की भावना पहचान लेती है, उतनी ही आसानी से आसक्ति और वासना की भी. पुरुषगंध से ही वह उस के भीतर छिपी भावना को पहचानने में समर्थ होती है. यह प्रकृति की दी हुई शक्ति है उस के पास और इसी शक्ति के जोर पर अनुभा ने डा. विनीत के मन की भावना पहचान ली. आतेजाते हुए डा. विनीत का मुसकरा कर उसे देखना, देर तक डा. प्रवीण के केबिन में आ कर  बैठना, उस से कुछ अधिक ही आत्मीयता जताना, वह सबकुछ समझ रही थी.

डा. विनीत के इस व्यवहार से वह अस्वस्थ हो रही थी. वह तो डा. विनीत को प्रवीण का सब से अच्छा दोस्त मानती थी, क्या मित्रता भी कीमत मांगती है? क्या व्यक्ति अपने एहसानों का मूल्य चाहता है? क्या मार्गदर्शक ही राह पर धुंध फैला देता है? वह इन सवालों में उलझ कर रह जाती थी. एक दिन अनुभा जब वेदांत को छोड़ने प्ले स्कूल जा रही थी, डा. विनीत ने उसे रोक लिया और कहा, ‘‘कब तक अपनी जिम्मेदारियों का बोझ अकेले उठाती रहोगी. अनुभा, अपना हाथ बंटाने को किसी को साथ क्यों नहीं ले लेती?’’ ‘‘ये सारी जिम्मेदारियां मेरी अपनी हैं और मुझे अकेले ही इन्हें उठाना है. फिर भी मैं अकेली नहीं हूं, मेरे साथ प्रवीण और वेदांत हैं,’’ अनुभा ने कुछ सख्ती से जवाब दिया.

किंचित उपहासनात्मक स्वर में डा. विनीत बोले, ‘‘प्रवीण और वेदांत, एक छोटा बच्चा जिस के बड़े होने तक तुम न जाने अपने कितने अरमान कुचल दोगी और दूसरी ओर एक ऐसी निष्चेतन देह से मोह जिस में प्राण नाममात्र के लिए अटके पड़े हैं.’’‘‘डा. विनीत, आप प्रवीण के लिए ऐसा कुछ भी नहीं कह सकते. वे जैसे भी हैं, मैं उन के अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती. जब तक उन का सहारा है, मैं हर मुश्किल पार कर लूंगी.’’

‘‘तुम निष्प्राण देह से सहारे की बात कर रही हो. अनुभा, तुम्हें अच्छी तरह मालूम है कि किस के सहारे तुम यहां तक आई हो,’’ डा. विनीत तल्खी से बोले.

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इस घटना के करीब 6 महीने बाद तक वह इस तरह खोईखोई रहने लगी थी मानो डाक्टर प्रवीण के साथ वह भी संवेदनाशून्य हो गई हो. इस संसार में रह कर भी वह सब से दूर किसी अलग ही दुनिया में रहने लगी थी.  डा. प्रवीण का जीवनधारा प्राइवेट अस्पताल बंद हो चुका था. अनुभा के मातापिता ने उसे संभालने की बहुत कोशिश की पर सब व्यर्थ. इसी समय डा. प्रवीण के खास दोस्त डा. विनीत ने अनुभा का मार्गदर्शन किया. दर्द से खोखले पड़ गए उस के मनमस्तिष्क में आत्मविश्वासभरा, उसे समझाया कि वह अस्पताल अच्छे से चला सकती है.

अनुभा ने निराश स्वर में उत्तर दिया था, ‘पर मैं डाक्टर नहीं हूं.’ डा. विनीत ने उसे समझाया था कि वह डाक्टर नहीं है तो क्या हुआ, अच्छी व्यवस्थापक तो है. कुछ डाक्टरों को वेतन दे कर काम पर रखा जा सकता है और कुछ विशेषज्ञ डाक्टरों को समयसमय पर बुलाया जा सकता है. शुरूशुरू में उसे यह सब बड़ा कठिन लग रहा था, पर बाद में उसे लगा कि वह यह आसानी से कर सकती हैं. डा. प्रवीण के द्वारा की गई बचत इस समय काम आई. डा. विनीत ने जीजान से सहयोग दिया और बंद पड़े हुए जीवनधारा अस्पताल में नया जीवन आ गया.

अब तो अस्पताल में 4 डाक्टर, 8 नर्स और 8 वार्डबौय का अच्छाखासा समूह है और रोज ही अलगअलग क्षेत्रों के विशेषज्ञ डाक्टर आ कर अपनी सेवा देते हैं. वहां मरीजों की पीड़ा देख कर अनुभा अपने दुख भूलने लगी. जब व्यक्ति अपने से बढ़ कर दुख देख लेता है तो उसे अपना खुद का दुख कम लगने लगता है. डा. प्रवीण को भी इसी अस्पताल में नली के द्वारा तरल भोजन दिया जाने लगा. अनुभा ने प्रवीण की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. यहां तक कि हर दिन उन की  शेविंग भी की जाती, व्हीलचेयर पर बैठे डाक्टर प्रवीण इतने तरोताजा लगते कि अजनबी व्यक्ति आ कर उन से बात करने लगते थे. डा. प्रवीण आज भी अपने केबिन में अपनी कुरसी पर बैठते थे. अनुभा डा. प्रवीण के सम्मान में कहीं कोई कमी नहीं चाहती थी.

अनुभा की मेहनत और लगन देख कर उस के सासससुर भी उस क लोहा मान गए थे और अनुभा तो इसे अपना पुनर्जन्म मानती है. कहां पहले की सहमीसकुचाई सीधीसादी अनुभा और अब कहां आत्मविश्वास से भरी सुलझे विचारों वाली अनुभा. जिंदगी के कड़वे अनुभव इंसान को प्रौढ़ बना देते हैं, दुख इंसान को मांझ कर रख देता है और वक्त द्वारा ली गई परीक्षाओं में जो खरा उतरता है वह इंसान दूसरों के लिए आदर्श बन जाता है. आज अनुभा इसी दौर से गुजर रही थी. अब वह सबकुछ ठीक तरह से संभालने लगी थी. डा. प्रवीण जो सब की नजरों में संवेदनाशून्य हो गए थे, उस की नजरों में सुखदुख के साथी थे. कोई भी बात वह उन्हें ऐसे बताती जैसे वे सभीकुछ सुन रहे हों और अभी जवाब देंगे. निर्णय तो वह स्वयं लेती पर इस बात की तसल्ली होती कि उस ने डा. प्रवीण की राय ली.

सबकुछ ठीक चल रहा था पर आजकल अनुभा को कुछ परेशान कर रहा था, वह था डा. विनीत की आंखों का बदलता हुआ भाव. औरत को पुरुष की आंखों में बदलते भाव को पहचानने में देर नहीं लगती. जितनी आसानी से वह प्रेम की भावना पहचान लेती है, उतनी ही आसानी से आसक्ति और वासना की भी. पुरुषगंध से ही वह उस के भीतर छिपी भावना को पहचानने में समर्थ होती है. यह प्रकृति की दी हुई शक्ति है उस के पास और इसी शक्ति के जोर पर अनुभा ने डा. विनीत के मन की भावना पहचान ली. आतेजाते हुए डा. विनीत का मुसकरा कर उसे देखना, देर तक डा. प्रवीण के केबिन में आ कर  बैठना, उस से कुछ अधिक ही आत्मीयता जताना, वह सबकुछ समझ रही थी.

डा. विनीत के इस व्यवहार से वह अस्वस्थ हो रही थी. वह तो डा. विनीत को प्रवीण का सब से अच्छा दोस्त मानती थी, क्या मित्रता भी कीमत मांगती है? क्या व्यक्ति अपने एहसानों का मूल्य चाहता है? क्या मार्गदर्शक ही राह पर धुंध फैला देता है? वह इन सवालों में उलझ कर रह जाती थी. एक दिन अनुभा जब वेदांत को छोड़ने प्ले स्कूल जा रही थी, डा. विनीत ने उसे रोक लिया और कहा, ‘‘कब तक अपनी जिम्मेदारियों का बोझ अकेले उठाती रहोगी. अनुभा, अपना हाथ बंटाने को किसी को साथ क्यों नहीं ले लेती?’’ ‘‘ये सारी जिम्मेदारियां मेरी अपनी हैं और मुझे अकेले ही इन्हें उठाना है. फिर भी मैं अकेली नहीं हूं, मेरे साथ प्रवीण और वेदांत हैं,’’ अनुभा ने कुछ सख्ती से जवाब दिया.

किंचित उपहासनात्मक स्वर में डा. विनीत बोले, ‘‘प्रवीण और वेदांत, एक छोटा बच्चा जिस के बड़े होने तक तुम न जाने अपने कितने अरमान कुचल दोगी और दूसरी ओर एक ऐसी निष्चेतन देह से मोह जिस में प्राण नाममात्र के लिए अटके पड़े हैं.’’‘‘डा. विनीत, आप प्रवीण के लिए ऐसा कुछ भी नहीं कह सकते. वे जैसे भी हैं, मैं उन के अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती. जब तक उन का सहारा है, मैं हर मुश्किल पार कर लूंगी.’’

‘‘तुम निष्प्राण देह से सहारे की बात कर रही हो. अनुभा, तुम्हें अच्छी तरह मालूम है कि किस के सहारे तुम यहां तक आई हो,’’ डा. विनीत तल्खी से बोले.

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September 01, 2020 at 10:00AM

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Examstonic247,सरकारी नौकरी

hello doston Aaj yah video ka second part Hai Isko dekhna na bhulen lekin is se pahle aap se request hai ki yah video dekhne se pahle aap first wala ...

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बीएसएनएल में एसडीओ बनकर नौकरी के नाम पर 25 युवकों से ...

उसने बताया था कि वह डीसी रेट पर नौकरी लगवाता है और उसे भी नौकरी लगवा देगा। इसके ...

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बिहार वालों के लिए खुशखबरी, पटना में निकली बंपर ...

अब इसी कड़ी में बिहार में नौकरी करने की चाहत रखने वाले लोगों के लिए अच्छी खबर हैं ...

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धोखाधडी:सरकारी नौकरी लगाने के नाम पर ठगी, दंपती के ...

नौकरी लगाने का झांसा देने वाले पति-पत्नी युवती के गांव कोनार उसके माता-पिता के ...

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4 राशियों में नौकरी-धन लाभ के योग, जानें आज कैसा रहेगा ...

नौकरी में तनाव कम होगा. धन लाभ के योग हैं. विवाह के मामलों में तेजी आएगी. वृषभ. 2/12.

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RPSC: नौकरी की चाहत, जुटे दस्तावेजों की जांच कराने में

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नेशनल हाउसिंग बैंक नौकरी

हेल्थ · एजुकेशन · ईपेपर · लोकसत्य टीवी. New Delhi, India 27 . Home/नेशनल हाउसिंग बैंक नौकरी ...

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समस्याओं को लेकर भड़के सफाई कर्मचारी

इस मौके पर कर्मचारियों ने ईपीएफ कटौती और मृतकाश्रितों को नौकरी न मिलने पर ...

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खाद्य सुरक्षा मित्र योजना

इसके बदले में उन्हें पैसे भी मिलेंगे यानि कि यह एक सरकारी नौकरी की तरह होगा. इस ...

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कुंभ राशि मासिक राशिफल सितंबर 2020: नई नौकरी का ...

नई नौकरी का प्रस्ताव मिलने की प्रबल संभावनाएं हैं जो लाभकारी सिद्ध होंगी।

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नौकरी हथियाने के लिए एससी-एसटी बने गुप्ता जी ...

इन शिक्षकों में से दो ने नौकरी हथियाने के लिए अपनी जाति ही बदल ली। दद्दन यादव ...

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इन शिक्षकों में से दो ने नौकरी हथियाने के लिए अपनी जाति ही बदल ली। दद्दन यादव ...

DNA: कोरोना काल में जीडीपी में 1996 के बाद सबसे बड़ी ...

DNA के इस भाग में हम जानेंगे कि भारत की गिरती GDP का आपकी नौकरी पर क्या असर होगा?

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DNA के इस भाग में हम जानेंगे कि भारत की गिरती GDP का आपकी नौकरी पर क्या असर होगा?

Sunday 30 August 2020

मुखौटे-भाग 3 : निखिल किसकी आवाज से मदहोश हो जाता था?

‘‘कैसी बातें करते हो बेटा. मेरे लिए तो जैसे सरला और सूरज हैं वैसे तुम तीनों हो. जब भी मेरी जरूरत पडे़, बुला लेना, मैं अवश्य आ जाऊंगी.’’

उसी शीला ने अकेले में अपनी बेटी को समझाया, ‘‘बेटी, यही समय है. संभाल अपने घर को अक्लमंदी से. कम से कम अब तो तुझे इस जंजाल से मुक्ति मिली. जब तक जिंदा थी, महारानी ने सब को जिंदा जलाया. कोई खुशी नहीं, कोई जलसा नहीं. यहां उस की दादागीरी में सड़ती रही. इतने सालों के बाद तू आजादी की सांस तो ले सकेगी.’’

अपने गांव जाने से पहले शीला बेटी को सीख देना नहीं भूलीं कि बहुत हो गया संयुक्त परिवार का तमाशा. मौका देख कर कुछ समय के बाद देवरदेवरानी का अलग इंतजाम करा दे. मगर उस से पहले दोनों भाई मिल कर ननद की शादी करा दो, तब तक उन से संबंध अच्छे रखने ही पड़ेंगे. तेरी ननद के लिए मैं ऐसा लड़का ढूंढूंगी कि अधिक खर्चा न आए. वैसे तेरी देवरानी भी कुछ कम नहीं है. वह बहुत खर्चा नहीं करने देगी. ससुर का क्या है, कभी यहां तो कभी वहां पडे़ रहेंगे. आदमी का कोई ज्यादा जंजाल नहीं होता.

दिखावटी व्यवहार, दिखावटी बातें, दिखावटी हंसी, सबकुछ नकली. यही तो है आज की जिंदगी. जरा इन के दिलोदिमाग में झांक कर देखेंगे तो वहां एक दूसरी ही दुनिया नजर आएगी. इस वैज्ञानिक युग में अगर कोई वैज्ञानिक ऐसी कोई मशीन खोजनिकालता जिस से दिल की बातें जानी जा सकें, एक्सरे की तरह मन के भावों को स्पष्ट रूप से हमारे सामने ला सके तो…? तब दुनिया कैसी होती? पतिपत्नी, भाईभाई या दोस्त, कोई भी रिश्ता क्या तब निभ पाता? अच्छा ही है कि कुछ लोग बातों को जानते हुए भी अनजान होने का अभिनय करते हैं या कई बातें संदेह के कोहरे में छिप जाती हैं. जरा सोचिए ऐसी कोई मशीन बन जाती तो इस पतिपत्नी का क्या हाल होता?

‘‘विनी, कल मुझे दफ्तर के काम से कोलकाता जाना है. जरा मेरा सामान तैयार कर देना,’’ इंदर ने कहा.

‘‘कोलकाता? मगर कितने दिनों के लिए?’’

‘‘आनेजाने का ले कर एक सप्ताह तो लग जाएगा. कल मंगलवार है न? अगले मंगल की शाम को मैं यहां लौट आऊंगा, मैडमजी,’’ उस ने बड़े अदब से कहा.

‘‘बाप रे, एक सप्ताह? मैं अकेली न रह पाऊंगी. उकता जाऊंगी. मुझे भी ले चलिए न,’’ उस ने लाड़ से कहा.

‘‘मैं तुम्हें जरूर साथ ले जाता मगर इस बार काम कुछ ज्यादा है. वैसे तो

10-12 दिन लग जाते मगर मैं ने एक हफ्ते में किसी तरह निबटाने का निश्चय कर लिया है. भले मुझे रातदिन काम करना पडे़. क्या लगता है तुम्हें, मैं क्या तुम्हारे बिना वहां अकेले बोर नहीं होऊंगा? अच्छा, बताओ तो, कोलकाता से तुम्हारे लिए क्या ले कर आऊं?’’

‘‘कुछ नहीं, बस, आप जल्दी वापस आ जाइए,’’ उस ने पति के कंधे पर सिर टिकाते हुए कहा.

इंदर ने पत्नी के गाल थपथपाते हुए उसे सांत्वना दी.अगले दिन धैर्यवचन, हिदायतें, बिदाई होने के बाद  आटोरिकशा स्टेशन की ओर दौड़ने लगा. उसी क्षण इंदर का मन उस के तन को छोड़ कर पंख फैला कर आकाश में विचरण करने लगा. उस पर आजादी का नशा छाया हुआ था

जैसे ही इंदर का आटोरिकशा निकला, विनी ने दरवाजा बंद कर लिया और गुनगुनाते हुए टीवी का रिमोट ले कर सोफे में धंस गई. जैसे ही रिमोट दबाया, मस्ती चैनल पर नरगिस आजाद पंछी की तरह लहराते हुए ‘पंछी बनूं उड़ती फिरूं मस्त गगन में, आज मैं आजाद हूं दुनिया के चमन में’ गा रही थी. वाह, क्या इत्तेफाक है. वह भी तो यही गाना गुनगुना रही थी.

‘‘आहा, एक सप्ताह तक पूरी छुट्टी. खाने का क्या है, कुछ भी चल जाएगा. कोई टैंशन नहीं, कोई नखरे नहीं, कोई जीहुजूरी नहीं. खूब सारी किताबें पढ़ना, गाने सुनना और जी भर के टीवी देखना. यानी कि अपनी मरजी के अनुसार केवल अपने लिए जीना,’’ वह सीटी बजाने लगी, ‘ऐ मेरे दिल, तू गाए जा…’ ‘‘अरे, मैं सीटी बजाना नहीं भूली. वाह…वाह.’’

इंदर का कार्यक्रम सुनते ही उस ने अपनी पड़ोसन मंजू से कुछ किताबें ले ली थीं. मंजू के पास किताबों की भरमार थी. पतिपत्नी दोनों पढ़ने के शौकीन थे. उन में से एक बढि़या रोमांटिक किताब ले कर वह बिस्तर पर लेट गई. उस को लेट कर पढ़ने की आदत थी.

गाड़ी में चढ़ते ही इंदर ने अपने सामान को अपनी सीट के नीचे जमा लिया और आराम से बैठ गया. दफ्तर के काम के लिए जाने के कारण वह प्रथम श्रेणी में सफर कर रहा था, इसलिए वहां कोई गहमागहमी नहीं थी. सब आराम से बैठे अपनेआप मेंतल्लीन थे. सामने की खिड़की के पास बैठे सज्जन मुंह फेर कर खिड़की में से बाहर देख रहे थे मानो डब्बे में बैठे अन्य लोगों से उन का कोई सरोकार नहीं था. ऐसे लोगों को अपने अलावा अन्य सभी लोग बहुत निम्न स्तर के लगते हैं.

वह फिर से चारों ओर देखने लगा, जैसे कुछ ढूंढ़ रहा हो. गाड़ी अभीअभी किसी स्टेशन पर रुक गई थी. उस की तलाश मानो सफल हुई. लड़कियां चहचहाती हुई डब्बे में चढ़ गईं और इंदर के सामने वाली सीट पर बैठ गईं. इंदर ने सोचा, ‘चलो, आंखें सेंकने का कुछ सामान तो मिला. सफर अच्छा कट जाएगा.’ वह खयालों की दुनिया में खो गया.

‘वाह भई वाह, हफ्ते भर की आजादी,’ वह मन ही मन अपनी पीठ थपथपाते हुए सोचने लगा, ‘भई इंदर, तेरा तो जवाब नहीं. जो काम 3-4 दिन में निबटाया जा सकता है उस के लिए बौस को पटा कर हफ्ते भर की इजाजत ले ली. जब आजादी मिल ही रही है तो क्यों न उस का पूरापूरा लुफ्त उठाए. अब मौका मिला ही है तो बच्चू, दोनों हाथों से मजा लूट. सड़कों पर आवारागर्दी कर ले, सिनेमा देख ले, दोस्तों के साथ शामें रंगीन कर ले. इन 7 दिनों में जितना हो सके उतना आनंद उठा ले. फिर तो उसी जेल में वापस जाना है. शाम को दफ्तर से भागभाग कर घर जाना और बीवी के पीछे जीहुजूरी करना.’

आप अपनी आंखें और दिमाग को खुला छोड़ दें तो पाएंगे कि एक नहीं, दो नहीं, ऐसी हजारों घटनाएं आप के चारों ओर देखने को मिलेंगी. इंसान जैसा दिखता है वैसा बिलकुल नहीं होता. उस के अंदर एक और दुनिया बसी हुई है जो बाहर की दुनिया से हजारों गुना बड़ी है और रंगीन है. समय पा कर वह अपनी इस दुनिया में विचरण कर आता है, जिस की एक झलक भी वह दुनिया वालों के सामने रखना पसंद नहीं करता.

आज की  दुनिया विज्ञान की दुनिया है. विज्ञान के बल पर क्याक्या करामातें नहीं हुईं? क्या वैज्ञानिक चाहें तो ऐसी कोई मशीन ईजाद नहीं कर सकते जिसे कलाई की घड़ी, गले का लौकेट या हाथ की अंगूठी के रूप में धारण कर के सामने खड़े इंसान के दिलोदिमाग में चल रहे विचारों को खुली किताब की तरह पढ़ा जा सके? फिर चाहे वह जबान से कुछ भी क्यों न बोला करे.

मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसा महान वैज्ञानिक अवश्य कहीं न कहीं पैदा हुआ होगा. उस ने ऐसी चीज बनाने की कोशिश भी की होगी. मगर यह सोच कर अपने प्रयत्नों को बीच में ही रोक दिया होगा कि कौन इस बला का आविष्कार करने का सेहरा अपने सिर बांधे? दुनिया वाले तो जूते मारेंगे ही, भला स्वयं के लिए भी इस से बढ़ कर घोर संकट और क्या होगा

 

 

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‘‘कैसी बातें करते हो बेटा. मेरे लिए तो जैसे सरला और सूरज हैं वैसे तुम तीनों हो. जब भी मेरी जरूरत पडे़, बुला लेना, मैं अवश्य आ जाऊंगी.’’

उसी शीला ने अकेले में अपनी बेटी को समझाया, ‘‘बेटी, यही समय है. संभाल अपने घर को अक्लमंदी से. कम से कम अब तो तुझे इस जंजाल से मुक्ति मिली. जब तक जिंदा थी, महारानी ने सब को जिंदा जलाया. कोई खुशी नहीं, कोई जलसा नहीं. यहां उस की दादागीरी में सड़ती रही. इतने सालों के बाद तू आजादी की सांस तो ले सकेगी.’’

अपने गांव जाने से पहले शीला बेटी को सीख देना नहीं भूलीं कि बहुत हो गया संयुक्त परिवार का तमाशा. मौका देख कर कुछ समय के बाद देवरदेवरानी का अलग इंतजाम करा दे. मगर उस से पहले दोनों भाई मिल कर ननद की शादी करा दो, तब तक उन से संबंध अच्छे रखने ही पड़ेंगे. तेरी ननद के लिए मैं ऐसा लड़का ढूंढूंगी कि अधिक खर्चा न आए. वैसे तेरी देवरानी भी कुछ कम नहीं है. वह बहुत खर्चा नहीं करने देगी. ससुर का क्या है, कभी यहां तो कभी वहां पडे़ रहेंगे. आदमी का कोई ज्यादा जंजाल नहीं होता.

दिखावटी व्यवहार, दिखावटी बातें, दिखावटी हंसी, सबकुछ नकली. यही तो है आज की जिंदगी. जरा इन के दिलोदिमाग में झांक कर देखेंगे तो वहां एक दूसरी ही दुनिया नजर आएगी. इस वैज्ञानिक युग में अगर कोई वैज्ञानिक ऐसी कोई मशीन खोजनिकालता जिस से दिल की बातें जानी जा सकें, एक्सरे की तरह मन के भावों को स्पष्ट रूप से हमारे सामने ला सके तो…? तब दुनिया कैसी होती? पतिपत्नी, भाईभाई या दोस्त, कोई भी रिश्ता क्या तब निभ पाता? अच्छा ही है कि कुछ लोग बातों को जानते हुए भी अनजान होने का अभिनय करते हैं या कई बातें संदेह के कोहरे में छिप जाती हैं. जरा सोचिए ऐसी कोई मशीन बन जाती तो इस पतिपत्नी का क्या हाल होता?

‘‘विनी, कल मुझे दफ्तर के काम से कोलकाता जाना है. जरा मेरा सामान तैयार कर देना,’’ इंदर ने कहा.

‘‘कोलकाता? मगर कितने दिनों के लिए?’’

‘‘आनेजाने का ले कर एक सप्ताह तो लग जाएगा. कल मंगलवार है न? अगले मंगल की शाम को मैं यहां लौट आऊंगा, मैडमजी,’’ उस ने बड़े अदब से कहा.

‘‘बाप रे, एक सप्ताह? मैं अकेली न रह पाऊंगी. उकता जाऊंगी. मुझे भी ले चलिए न,’’ उस ने लाड़ से कहा.

‘‘मैं तुम्हें जरूर साथ ले जाता मगर इस बार काम कुछ ज्यादा है. वैसे तो

10-12 दिन लग जाते मगर मैं ने एक हफ्ते में किसी तरह निबटाने का निश्चय कर लिया है. भले मुझे रातदिन काम करना पडे़. क्या लगता है तुम्हें, मैं क्या तुम्हारे बिना वहां अकेले बोर नहीं होऊंगा? अच्छा, बताओ तो, कोलकाता से तुम्हारे लिए क्या ले कर आऊं?’’

‘‘कुछ नहीं, बस, आप जल्दी वापस आ जाइए,’’ उस ने पति के कंधे पर सिर टिकाते हुए कहा.

इंदर ने पत्नी के गाल थपथपाते हुए उसे सांत्वना दी.अगले दिन धैर्यवचन, हिदायतें, बिदाई होने के बाद  आटोरिकशा स्टेशन की ओर दौड़ने लगा. उसी क्षण इंदर का मन उस के तन को छोड़ कर पंख फैला कर आकाश में विचरण करने लगा. उस पर आजादी का नशा छाया हुआ था

जैसे ही इंदर का आटोरिकशा निकला, विनी ने दरवाजा बंद कर लिया और गुनगुनाते हुए टीवी का रिमोट ले कर सोफे में धंस गई. जैसे ही रिमोट दबाया, मस्ती चैनल पर नरगिस आजाद पंछी की तरह लहराते हुए ‘पंछी बनूं उड़ती फिरूं मस्त गगन में, आज मैं आजाद हूं दुनिया के चमन में’ गा रही थी. वाह, क्या इत्तेफाक है. वह भी तो यही गाना गुनगुना रही थी.

‘‘आहा, एक सप्ताह तक पूरी छुट्टी. खाने का क्या है, कुछ भी चल जाएगा. कोई टैंशन नहीं, कोई नखरे नहीं, कोई जीहुजूरी नहीं. खूब सारी किताबें पढ़ना, गाने सुनना और जी भर के टीवी देखना. यानी कि अपनी मरजी के अनुसार केवल अपने लिए जीना,’’ वह सीटी बजाने लगी, ‘ऐ मेरे दिल, तू गाए जा…’ ‘‘अरे, मैं सीटी बजाना नहीं भूली. वाह…वाह.’’

इंदर का कार्यक्रम सुनते ही उस ने अपनी पड़ोसन मंजू से कुछ किताबें ले ली थीं. मंजू के पास किताबों की भरमार थी. पतिपत्नी दोनों पढ़ने के शौकीन थे. उन में से एक बढि़या रोमांटिक किताब ले कर वह बिस्तर पर लेट गई. उस को लेट कर पढ़ने की आदत थी.

गाड़ी में चढ़ते ही इंदर ने अपने सामान को अपनी सीट के नीचे जमा लिया और आराम से बैठ गया. दफ्तर के काम के लिए जाने के कारण वह प्रथम श्रेणी में सफर कर रहा था, इसलिए वहां कोई गहमागहमी नहीं थी. सब आराम से बैठे अपनेआप मेंतल्लीन थे. सामने की खिड़की के पास बैठे सज्जन मुंह फेर कर खिड़की में से बाहर देख रहे थे मानो डब्बे में बैठे अन्य लोगों से उन का कोई सरोकार नहीं था. ऐसे लोगों को अपने अलावा अन्य सभी लोग बहुत निम्न स्तर के लगते हैं.

वह फिर से चारों ओर देखने लगा, जैसे कुछ ढूंढ़ रहा हो. गाड़ी अभीअभी किसी स्टेशन पर रुक गई थी. उस की तलाश मानो सफल हुई. लड़कियां चहचहाती हुई डब्बे में चढ़ गईं और इंदर के सामने वाली सीट पर बैठ गईं. इंदर ने सोचा, ‘चलो, आंखें सेंकने का कुछ सामान तो मिला. सफर अच्छा कट जाएगा.’ वह खयालों की दुनिया में खो गया.

‘वाह भई वाह, हफ्ते भर की आजादी,’ वह मन ही मन अपनी पीठ थपथपाते हुए सोचने लगा, ‘भई इंदर, तेरा तो जवाब नहीं. जो काम 3-4 दिन में निबटाया जा सकता है उस के लिए बौस को पटा कर हफ्ते भर की इजाजत ले ली. जब आजादी मिल ही रही है तो क्यों न उस का पूरापूरा लुफ्त उठाए. अब मौका मिला ही है तो बच्चू, दोनों हाथों से मजा लूट. सड़कों पर आवारागर्दी कर ले, सिनेमा देख ले, दोस्तों के साथ शामें रंगीन कर ले. इन 7 दिनों में जितना हो सके उतना आनंद उठा ले. फिर तो उसी जेल में वापस जाना है. शाम को दफ्तर से भागभाग कर घर जाना और बीवी के पीछे जीहुजूरी करना.’

आप अपनी आंखें और दिमाग को खुला छोड़ दें तो पाएंगे कि एक नहीं, दो नहीं, ऐसी हजारों घटनाएं आप के चारों ओर देखने को मिलेंगी. इंसान जैसा दिखता है वैसा बिलकुल नहीं होता. उस के अंदर एक और दुनिया बसी हुई है जो बाहर की दुनिया से हजारों गुना बड़ी है और रंगीन है. समय पा कर वह अपनी इस दुनिया में विचरण कर आता है, जिस की एक झलक भी वह दुनिया वालों के सामने रखना पसंद नहीं करता.

आज की  दुनिया विज्ञान की दुनिया है. विज्ञान के बल पर क्याक्या करामातें नहीं हुईं? क्या वैज्ञानिक चाहें तो ऐसी कोई मशीन ईजाद नहीं कर सकते जिसे कलाई की घड़ी, गले का लौकेट या हाथ की अंगूठी के रूप में धारण कर के सामने खड़े इंसान के दिलोदिमाग में चल रहे विचारों को खुली किताब की तरह पढ़ा जा सके? फिर चाहे वह जबान से कुछ भी क्यों न बोला करे.

मुझे पूरा विश्वास है कि ऐसा महान वैज्ञानिक अवश्य कहीं न कहीं पैदा हुआ होगा. उस ने ऐसी चीज बनाने की कोशिश भी की होगी. मगर यह सोच कर अपने प्रयत्नों को बीच में ही रोक दिया होगा कि कौन इस बला का आविष्कार करने का सेहरा अपने सिर बांधे? दुनिया वाले तो जूते मारेंगे ही, भला स्वयं के लिए भी इस से बढ़ कर घोर संकट और क्या होगा

 

 

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August 31, 2020 at 10:00AM