Monday 31 August 2020

पीले पत्ते-भाग 3: डॉ प्रवीण के साथ क्या हादसा हुआ था?

अनुभा को यह बात गहरे तक चुभ गई, छटपटा कर बोली, ‘‘उपकार कर के जो व्यक्ति उस के बदले में कुछ मांगने लगे, उस का उपकार उपकार नहीं रह जाता, बल्कि बोझ बन जाता है. और मैं आप का यह बोझ जल्द ही उतार दूंगी,’’ भरे गले से किंतु दृढ़ निश्चय के साथ अनुभा ने कहा और वेदांत को ले कर आगे बढ़ गई. डा. विनीत मन मसोस कर रह गए.

इतनी समतल सी दिखने वाली जिंदगी ऐसे ऊबड़खाबड़ रास्तों पर ले जाएगी, अनुभा ने कभी सोचा भी न था. जिस जीवनयात्रा में प्रवीण और उसे साथसाथ चलना था, उस में प्रवीण बीच में ही थक कर उस से आज्ञा मांग रहे थे, नहीं, नहीं, वह इतनी सहजता से प्रवीण को जाने नहीं देगी. वह कुछ करेगी. मुंबई के तो सारे डाक्टरों ने जवाब दे दिया, क्या दुनिया के किसी कोने में कोई डाक्टर होगा जो उस के प्रवीण का इलाज कर देगा. वह अस्पताल में मैडिकल साइंस पर आधारित वैबसाइट पर सर्च करती हुई कंप्यूटर पर घंटों बैठी रहती, कहीं कोई तो सुराग मिले.

वह इन विषयों पर मैडिकल और रिसर्च से जुड़ी विभिन्न पत्रिकाएं मंगाने लगी. वह किसी भी हाल में डा. प्रवीण का इलाज कराना चाहती थी. एक दिन उस ने एक पत्रिका में अमेरिका के उच्च कोटि के न्यूरोसर्जन डा. पीटर एडबर्ग के बारे में पढ़ा. अच्छा यह रहा कि वे अगले महीने कुछ दिनों के लिए भारत आने वाले थे. अनुभा यह अवसर किसी हाल में हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी. वह प्रवीण को उन के पास ले कर गई. डाक्टर पीटर ने प्रवीण की अच्छी तरह जांच की, कुछ टैस्ट करवाए और आखिर में इस निर्णय पर पहुंचे कि यदि दिमाग की एक नस, जो पूरी तरह बंद हो गई है, औपरेशन के द्वारा खोल दी जाए तो रक्त का संचालन ठीक तरह से फिर प्रारंभ होगा और शायद मस्तिष्क अपने कार्य करने फिर प्रारंभ कर दे. पर अभी निश्चितरूप से कुछ कहा नहीं जा सकता.

औपरेशन यदि सफल नहीं हुआ तो डाक्टर प्रवीण की जान भी जा सकती थी. डाक्टर पीटर की एक शर्त और थी कि यह औपरेशन सिर्फ अमेरिका में हो सकता है, इसलिए पेशेंट को वहीं लाना पड़ेगा. अनुभा एक बार फिर पसोपेश में पड़ गई थी कि डा. प्रवीण का औपरेशन करवाए कि नहीं. यदि औपरेशन असफल हुआ तो वह उन की देह भी खो देगी. लेकिन निर्णय भी उस ने स्वयं लिया. वह डा. प्रवीण का विवश और पराश्रित रूप और नहीं देख सकती थी, धड़कते हृदय से उस ने औपरेशन के लिए हां कर दी. समय बहुत कम था और उसे ज्यादा से ज्यादा पैसे इकट्ठे करने थे. अपनी सारी जमापूंजी इकट्ठा करने के बाद भी इतना पैसा जमा नहीं हो पाया था कि अमेरिका में औपरेशन हो सके. अचानक अनुभा के ससुर को ये बातें किसी रिश्तेदार के द्वारा पता चलीं और अब तक उस का विरोध करने वाले ससुर उस की मदद करने को तत्पर हो गए. रुपयों का प्रबंध भी उन्होंने ही किया. अनुभा की प्रवीण को बचाने की इच्छा में वे भी सहयोग देना चाहते थे. वे अनुभा के साथ अमेरिका आ गए. वेदांत को अनुभा की मां के पास छोड़ दिया था.

अमेरिका पहुंचते ही डा. प्रवीण को अस्पताल में भरती करवा दिया जहां उस के कई प्रकार के टैस्ट हो रहे थे. डा. पीटर खासतौर से उन का खयाल रख रहे  थे. उन की टीम के अन्य डाक्टरों से भी अनुभा की पहचान हो गई थी. सभी पूरी मदद कर रहे थे. अस्पताल की व्यवस्थाओं में पेशेंट से घर के लोगों का मिलना मुश्किल था, सिर्फ औपरेशन थिएटर ले जाने के पहले 2 मिनट के लिए डा. प्रवीण से मुलाकात करवाई. उस समय अनुभा टकटकी लगाए उन्हें देख रही थी. यह चेहरा फिर मुसकराएगा या हमेशा के लिए खो जाएगा, सबकुछ अनिश्चित था.

करीब 7 घंटे तक औपरेशन चलने वाला था. अनुभा सुन्न सी बैठी अस्पताल की सफेद दीवारों को देख रही थी. इन दीवारों पर उस के जीवन से जुड़ी हुई न जाने कितनी मीठीकड़वी यादें चित्र बन कर सामने आ रही थीं, तभी अनुभा के ससुर ने उस की पीठ पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘धीरज रखो, बेटी, सब ठीक होगा.’’ निश्चित समय के बाद डा. पीटर ने बाहर आ कर कहा, ‘‘औपरेशन हो चुका है. अब हमें पेशेंट के होश में आने का इंतजार करना पड़ेगा.’’

अनुभा जानती थी कि यदि प्रवीण को होश नहीं आया तो वह उसे हमेशा के लिए खो देगी. वह मन ही मन सब को याद कर रही थी. उस की झोली दुखों के कांटों से तारतार है, फिर भी उस ने इतनी जगह सुरक्षित बचाई है जिस में वह प्रवीण के जीवनरूपी फूल को सहेज सके. लगभग 2 दिनों तक डा. प्रवीण की हालत नाजुक थी. उन्हें सांस देने के लिए औक्सीजन का इस्तेमाल करना पड़ रहा था. 2 दिनों के बाद जब उन की हालत कुछ स्थिर हुई तो अनुभा और उस के ससुर को उन से मिलने की अनुमति दी गई.

प्रवीण का सिर पट्टियों से बंधा हुआ था, होंठ और आंखें वैसे ही स्पंदनहीन थीं. अनुभा हिचकियों को रोक कर उसे देख रही थी. तभी नर्स ने उन्हें बाहर जाने का इशारा किया. ससुर बाहर निकल गए, अनुभा के पांव तो मानो जम गए थे, बाहर निकलना ही नहीं चाहते थे. नर्स ने फिर उसे आवाज दी. अनुभा मुड़ने को हुई, तभी उस का ध्यान गया कंबल में से बाहर निकले प्रवीण के दाहिने हाथ पर गया जिस में हरकत हुई थी. अनुभा आंसू पोंछ कर देखने लगी कि प्रवीण के हाथ का हिलना उस का भ्रम है या सच? पर यह सच था. सचमुच प्रवीण का हाथ हिला था. अचानक अस्पताल के सारे नियम भूल कर उस ने प्रवीण के हाथ पर अपना हाथ रख दिया और यह क्या, प्रवीण ने उस का हाथ कस कर पकड़ लिया और जैसे अंधेरी गुफा से आवाज आती है, वैसे ही प्रवीण के मुख से आवाज आई, अनुभा.

हां, यह प्रवीण की ही आवाज थी. कहीं कुछ अस्पष्ट नहीं था. सबकुछ स्वच्छ हो गया था. मार्ग पर छाई धुंध को हटा कर मानो सूरज की किरणें झिलमिला कर अनुभा की बरसती आंखों पर पड़ रही थीं. वह इस प्रकाश की अभ्यस्त न थी. सारे पीले पत्ते झर गए थे, नई कोंपले जीवन की उम्मीद ले कर जो आई थीं.

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अनुभा को यह बात गहरे तक चुभ गई, छटपटा कर बोली, ‘‘उपकार कर के जो व्यक्ति उस के बदले में कुछ मांगने लगे, उस का उपकार उपकार नहीं रह जाता, बल्कि बोझ बन जाता है. और मैं आप का यह बोझ जल्द ही उतार दूंगी,’’ भरे गले से किंतु दृढ़ निश्चय के साथ अनुभा ने कहा और वेदांत को ले कर आगे बढ़ गई. डा. विनीत मन मसोस कर रह गए.

इतनी समतल सी दिखने वाली जिंदगी ऐसे ऊबड़खाबड़ रास्तों पर ले जाएगी, अनुभा ने कभी सोचा भी न था. जिस जीवनयात्रा में प्रवीण और उसे साथसाथ चलना था, उस में प्रवीण बीच में ही थक कर उस से आज्ञा मांग रहे थे, नहीं, नहीं, वह इतनी सहजता से प्रवीण को जाने नहीं देगी. वह कुछ करेगी. मुंबई के तो सारे डाक्टरों ने जवाब दे दिया, क्या दुनिया के किसी कोने में कोई डाक्टर होगा जो उस के प्रवीण का इलाज कर देगा. वह अस्पताल में मैडिकल साइंस पर आधारित वैबसाइट पर सर्च करती हुई कंप्यूटर पर घंटों बैठी रहती, कहीं कोई तो सुराग मिले.

वह इन विषयों पर मैडिकल और रिसर्च से जुड़ी विभिन्न पत्रिकाएं मंगाने लगी. वह किसी भी हाल में डा. प्रवीण का इलाज कराना चाहती थी. एक दिन उस ने एक पत्रिका में अमेरिका के उच्च कोटि के न्यूरोसर्जन डा. पीटर एडबर्ग के बारे में पढ़ा. अच्छा यह रहा कि वे अगले महीने कुछ दिनों के लिए भारत आने वाले थे. अनुभा यह अवसर किसी हाल में हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी. वह प्रवीण को उन के पास ले कर गई. डाक्टर पीटर ने प्रवीण की अच्छी तरह जांच की, कुछ टैस्ट करवाए और आखिर में इस निर्णय पर पहुंचे कि यदि दिमाग की एक नस, जो पूरी तरह बंद हो गई है, औपरेशन के द्वारा खोल दी जाए तो रक्त का संचालन ठीक तरह से फिर प्रारंभ होगा और शायद मस्तिष्क अपने कार्य करने फिर प्रारंभ कर दे. पर अभी निश्चितरूप से कुछ कहा नहीं जा सकता.

औपरेशन यदि सफल नहीं हुआ तो डाक्टर प्रवीण की जान भी जा सकती थी. डाक्टर पीटर की एक शर्त और थी कि यह औपरेशन सिर्फ अमेरिका में हो सकता है, इसलिए पेशेंट को वहीं लाना पड़ेगा. अनुभा एक बार फिर पसोपेश में पड़ गई थी कि डा. प्रवीण का औपरेशन करवाए कि नहीं. यदि औपरेशन असफल हुआ तो वह उन की देह भी खो देगी. लेकिन निर्णय भी उस ने स्वयं लिया. वह डा. प्रवीण का विवश और पराश्रित रूप और नहीं देख सकती थी, धड़कते हृदय से उस ने औपरेशन के लिए हां कर दी. समय बहुत कम था और उसे ज्यादा से ज्यादा पैसे इकट्ठे करने थे. अपनी सारी जमापूंजी इकट्ठा करने के बाद भी इतना पैसा जमा नहीं हो पाया था कि अमेरिका में औपरेशन हो सके. अचानक अनुभा के ससुर को ये बातें किसी रिश्तेदार के द्वारा पता चलीं और अब तक उस का विरोध करने वाले ससुर उस की मदद करने को तत्पर हो गए. रुपयों का प्रबंध भी उन्होंने ही किया. अनुभा की प्रवीण को बचाने की इच्छा में वे भी सहयोग देना चाहते थे. वे अनुभा के साथ अमेरिका आ गए. वेदांत को अनुभा की मां के पास छोड़ दिया था.

अमेरिका पहुंचते ही डा. प्रवीण को अस्पताल में भरती करवा दिया जहां उस के कई प्रकार के टैस्ट हो रहे थे. डा. पीटर खासतौर से उन का खयाल रख रहे  थे. उन की टीम के अन्य डाक्टरों से भी अनुभा की पहचान हो गई थी. सभी पूरी मदद कर रहे थे. अस्पताल की व्यवस्थाओं में पेशेंट से घर के लोगों का मिलना मुश्किल था, सिर्फ औपरेशन थिएटर ले जाने के पहले 2 मिनट के लिए डा. प्रवीण से मुलाकात करवाई. उस समय अनुभा टकटकी लगाए उन्हें देख रही थी. यह चेहरा फिर मुसकराएगा या हमेशा के लिए खो जाएगा, सबकुछ अनिश्चित था.

करीब 7 घंटे तक औपरेशन चलने वाला था. अनुभा सुन्न सी बैठी अस्पताल की सफेद दीवारों को देख रही थी. इन दीवारों पर उस के जीवन से जुड़ी हुई न जाने कितनी मीठीकड़वी यादें चित्र बन कर सामने आ रही थीं, तभी अनुभा के ससुर ने उस की पीठ पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘धीरज रखो, बेटी, सब ठीक होगा.’’ निश्चित समय के बाद डा. पीटर ने बाहर आ कर कहा, ‘‘औपरेशन हो चुका है. अब हमें पेशेंट के होश में आने का इंतजार करना पड़ेगा.’’

अनुभा जानती थी कि यदि प्रवीण को होश नहीं आया तो वह उसे हमेशा के लिए खो देगी. वह मन ही मन सब को याद कर रही थी. उस की झोली दुखों के कांटों से तारतार है, फिर भी उस ने इतनी जगह सुरक्षित बचाई है जिस में वह प्रवीण के जीवनरूपी फूल को सहेज सके. लगभग 2 दिनों तक डा. प्रवीण की हालत नाजुक थी. उन्हें सांस देने के लिए औक्सीजन का इस्तेमाल करना पड़ रहा था. 2 दिनों के बाद जब उन की हालत कुछ स्थिर हुई तो अनुभा और उस के ससुर को उन से मिलने की अनुमति दी गई.

प्रवीण का सिर पट्टियों से बंधा हुआ था, होंठ और आंखें वैसे ही स्पंदनहीन थीं. अनुभा हिचकियों को रोक कर उसे देख रही थी. तभी नर्स ने उन्हें बाहर जाने का इशारा किया. ससुर बाहर निकल गए, अनुभा के पांव तो मानो जम गए थे, बाहर निकलना ही नहीं चाहते थे. नर्स ने फिर उसे आवाज दी. अनुभा मुड़ने को हुई, तभी उस का ध्यान गया कंबल में से बाहर निकले प्रवीण के दाहिने हाथ पर गया जिस में हरकत हुई थी. अनुभा आंसू पोंछ कर देखने लगी कि प्रवीण के हाथ का हिलना उस का भ्रम है या सच? पर यह सच था. सचमुच प्रवीण का हाथ हिला था. अचानक अस्पताल के सारे नियम भूल कर उस ने प्रवीण के हाथ पर अपना हाथ रख दिया और यह क्या, प्रवीण ने उस का हाथ कस कर पकड़ लिया और जैसे अंधेरी गुफा से आवाज आती है, वैसे ही प्रवीण के मुख से आवाज आई, अनुभा.

हां, यह प्रवीण की ही आवाज थी. कहीं कुछ अस्पष्ट नहीं था. सबकुछ स्वच्छ हो गया था. मार्ग पर छाई धुंध को हटा कर मानो सूरज की किरणें झिलमिला कर अनुभा की बरसती आंखों पर पड़ रही थीं. वह इस प्रकाश की अभ्यस्त न थी. सारे पीले पत्ते झर गए थे, नई कोंपले जीवन की उम्मीद ले कर जो आई थीं.

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September 01, 2020 at 10:00AM

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