Saturday 31 August 2019
नौकरी पेशा हैं तो ये 4 निवेश विकल्प आपके लिए है, होगी खूब कमाई
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नई दिल्ली, बिजनेस डेस्क। अगर आप नौकरी-पेशा हैं और आपकी सैलरी इतनी है कि सारे खर्च के बाद भी उसमें से पैसा बच ...
गोरखपुर में फर्जी प्रमाणपत्रो के आधार पर नौकरी पाने वाले दो फर्जी ...
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गोरखपुर में फर्जी प्रमाणपत्रो के आधार पर नौकरी पाने वाले दो फर्जी शिक्षकों को BSA ने किया बर्खास्त , तीन ...
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नौकरी आईडी 14S86-2211170871 | सेलरी: (₹) 20000 - 30000 (Monthly) | रिक्ति पदों की संख्या: 1 | प्रकाशित किया गया: 31-08- ...
दो लाख लेकर नौकरी नहीं दी तो कर लिया अपहरण Hindi Latest News
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नौकरी के लिए दो-दो लाख रुपए देने वाले तीन युवकों ने प्लेसमेंट एजेंसी के संचालक हीरापुर माडा कॉलोनी निवासी ...
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IIIT BHOPAL में नौकरी: Any Post Graduate, MBA/PGDM के लिए
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आवेदन करने के लिए इच्छुक उमीदवार सभी पात्रता मानदंड, वेतन, कुल रिक्तियां, चयन प्रक्रिया, नौकरी विवरण, अंतिम ...
शिक्षा विभाग की लापरवाही की वजह से बच्चों की पढ़ाई प्रभावित
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इन स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षक दूसरे प्रांत या विभागों में नौकरी कर रहे हैं लेकिन लंबी अनुपस्थिति के बाद ...
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राज्य सरकार का फैसला, प्रधानमंत्री आवास मित्रों को नौकरी से दी छुटी
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रायपुर। प्रदेश सरकार ने प्रदेश में कार्य कर रहे आवास मित्रों को अब छुट्टी दे दी है। पंचायत विभाग ने यह आदेश सभी ...
नौकरी नहीं मिलने से परेशान युवक ने खाया जहर, इलाज के दौरान मौत
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रेलवे में ग्रुप डी में नौकरी दिलाने के नाम पर ठगी करने का एक और आरोपी पुलिस ने किया गिरफ्तार , क्लिक करे और ...
आपके लिए इन विभागों में नौकरी, जानें डीटेल में
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मियाँ क्या शायरी भी नौकरी है नहीं होती है तो मत कीजिएगा।। ~विशाल अहालावत कल "रावण" के "वो सात दिन" जो ...
Sarkari Naukri-Result 2019 Today LIVE Updates: आपको अपने घर के पास ही मिल सकती है ...
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नौकरी से निकाले गए ईकोग्रीन कर्मचारियों ने किया प्रदर्शन
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आईआईटी से पढ़े श्रवण को इसलिए करनी पड़ी ग्रुप डी की नौकरी
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का एजुकेशन लोन लिया। 2015 में पास आउट हुआ। नौकरी नहीं थी तो मेरा लोन भी मां की पेंशन से ही चुकाना पड़ा।
यहां निकली ढेरों सरकारी नौकरी, आज से कर सकते हैं आवेदन
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News: सरकारी नौकरी का सपना देख रहे हैं तो हम आपके लिए खुशखबरी लेकर आएं हैं. दरअसल हरियाणा कर्मचारी चयन आयोग ...
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नौकरी के नाम सैकडों से ठगी करने वालों को पुलिस को सौंपा
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शनिवार को तहसील परिसर में एक संस्था ने आपदा प्रबंधन विभाग में नौकरी दिलाने के नाम पर युवाओं से रुपये लिया और ...
Friday 30 August 2019
पुलिस में नौकरी दिलवाने के नाम पर 5.15 लाख ठगे Danik Bhaskar Punjab ...
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यूपी के कौशाम्बी में 10 टीचर बर्खास्त, फर्जी डिग्री पर नौकरी करने का आरोप
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युवा स्वाभिमान योजना: ट्रेनिंग लेने के बाद भी नहीं दिया रोजगार ...
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नौकरी से ज्यादा रिटायरमेंट में फायदा
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यही कारण है कि हर साल 20 से 30 कर्मचारी कंपनी को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का आवेदन देकर नौकरी छोड़ रहे हैं।
महाराष्ट्र लोक सेवा आयोग में निकली बंपर Vacancy, सरकारी नौकरी चाहिए तो ...
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नई दिल्ली: अच्छी नौकरी की इच्छा रखने वालों के लिए सुनहरा मौका है। दिल्ली नर्सिंग परिषद, दिल्ली ...
एएमयू में नौकरी के नाम पर 11 लोगों से 44 लाख ठगे, ऐसे बिछाया जाल Aligarh News
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अलीगढ़ (जेएनएन)। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में नौकरी लगवाने के नाम पर 11 लोगों से 44 लाख रुपये ठगने का ...
सहायक प्रबंधक
चींटी की गति से रेंगती यात्री रेलगाड़ी हर 10 कदम पर रुक जाती थी. वैसे तो राजधानी से खुशालनगर मुश्किल से 2 घंटे का रास्ता होगा, पर खटारा रेलगाड़ी में बैठे हुए उन्हें 6 घंटे से अधिक का समय हो चुका था.
राजशेखरजी ने एक नजर अपने डब्बे में बैठे सहयात्रियों पर डाली. अधिकतर पुरुष यात्रियों के शरीर पर मात्र घुटनों तक पहुंचती धोती थी. कुछ एक ने कमीजनुमा वस्त्र भी पहन रखा था पर उस बेढंगी पोशाक को देख कर एक क्षण को तो राजशेखर बाबू उस भयानक गरमी और असह्य सहयात्रियों के बीच भी मुसकरा दिए थे.
अधिकतर औरतों ने एक सूती साड़ी से अपने को ढांप रखा था. उसी के पल्ले को करीने से लपेट कर उन्होंने आगे खोंस रखा था. शहर में ऐसी वेशभूषा को देख कर संभ्रांत नागरिक शायद नाकभौं सिकोड़ लेते, महिलाएं, खासकर युवतियां अपने विशेष अंदाज में फिक्क से हंस कर नजरें घुमा लेतीं. पर राजशेखरजी उन के प्राकृतिक सौंदर्य को देख कर ठगे से रह गए थे. उन के परिश्रमी गठे हुए शरीर केवल एक सूती धोती में लिपटे होने पर भी कहीं से अश्लील नहीं लग रहे थे. कोई फैशन वाली पोशाक लाख प्रयत्न करने पर भी शायद वह प्रभाव पैदा नहीं कर सकती थी. अधिकतर महिलाओं ने बड़े सहज ढंग से बालों को जूड़े में बांध कर स्थानीय फूलों से सजा रखा था.
तभी उन के साथ चल रहे चपरासी नेकचंद ने करवट बदली तो उन की तंद्रा भंग हुई.
‘यह क्या सोचने लगे वे?’ उन्होंने खुद को ही लताड़ा था. कितना गरीब इलाका है यह? लोगों के पास तन ढकने के लिए वस्त्र तक नहीं है. उन्होंने अपनी पैंट और कमीज पर नजर दौड़ाई थी…यहां तो यह साधारण वेशभूषा भी खास लग रही थी.
‘‘अरे, ओ नेकचंद. कब तक सोता रहेगा? बैंक में अपने स्टूल पर बैठा ऊंघता रहता है, यहां रेल के डब्बे में घुसते ही लंबा लेट गया और तब से गहरी नींद में सो रहा है,’’ उन के पुकारने पर भी चपरासी नेकचंद की नींद नहीं खुली थी.
तभी रेलगाड़ी जोर की सीटी के साथ रुक गई थी.
‘‘नेकचंद…अरे, ओ कुंभकर्ण. उठ स्टेशन आ गया है,’’ इस बार झुंझला कर उन्होंने नेकचंद को पूरी तरह हिला दिया.
वह हड़बड़ा कर उठा और खिड़की से बाहर झांकने लगा.
‘‘यह रहबरपुर नहीं है साहब, यहां तो गाड़ी यों ही रुक गई है,’’ कह कर वह पुन: लेट गया.
‘‘हमें रहबरपुर नहीं खुशालनगर जाना है,’’ राजशेखरजी ने मानो उसे याद दिलाया था.
‘‘रहबरपुर के स्टेशन पर उतर कर बैलगाड़ी या किसी अन्य सवारी से खुशालनगर जाना पड़ेगा. वहां तक यह टे्रन नहीं जाएगी,’’ नेकचंद ने चैन से आंखें मूंद ली थीं.
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बारबार रुकती और रुक कर फिर बढ़ती वह रेलगाड़ी जब अपने गंतव्य तक पहुंची, दिन के 2 बज रहे थे.
‘‘चलो नेकचंद, शीघ्रता से खुशालनगर जाने वाली किसी सवारी का प्रबंध करो…नहीं तो यहीं संध्या हो जाएगी,’’ राजशेखरजी अपना बैग उठा कर आगे बढ़ते हुए बोले थे.
‘‘हुजूर, माईबाप, ऐसा जुल्म मत करो. सुबह से मुंह में एक दाना भी नहीं गया है. स्टेशन पर सामने वह दुकान है… वह गरम पूरियां उतार रहा है. यहां से पेटपूजा कर के ही आगे बढ़ेंगे हम,’’ नेकचंद ने अनुनय की थी.
‘‘क्या हुआ है तुम्हें नेकचंद? यह भी कोई खाने की जगह है? कहीं ढंग के रेस्तरां में बैठ कर खाएंगे.’’
‘‘रेस्तरां और यहां,’’ नेकचंद हंसा था, ‘‘सर, यहां और खुशालनगर तो क्या आसपास के 20 गांवों में भी कुछ खाने को नहीं मिलेगा. मैं तो बिना खाए यहां से टस से मस नहीं होने वाला,’’ इतना कह कर नेकचंद दुकान के बाहर पड़ी बेंच पर बैठ गया.
‘‘ठीक है, खाओ, तुम्हें तो मैं साथ ला कर पछता रहा हूं,’’ राजशेखरजी ने हथियार डाल दिए थे.
‘‘हुजूर, आप के लिए भी ले आऊं?’’ नेकचंद को पूरीसब्जी की प्लेट पकड़ा कर दुकानदार ने बड़े मीठे स्वर में पूछा था.
राजशेखरजी को जोर की भूख लगी थी पर उस छोटी सी दुकान में खाने में उन का अभिजात्य आड़े आ रहा था.
‘‘मेरी दुकान जैसी पूरीसब्जी पूरे चौबीसे में नहीं मिलती साहब, और मेरी मसालेदार चाय पीने के लिए तो लोग मीलों दूर से चल कर यहां आते हैं,’’ दुकानदार गर्वपूर्ण स्वर में बोला था.
‘‘ठीक है, तुम इतना जोर दे रहे हो तो ले आओ एक प्लेट पूरीभाजी. और हां, तुम्हारी मसालेदार चाय तो हम अवश्य पिएंगे,’’ राजशेखरजी भी वहीं बैंच पर जम गए थे.
नेकचंद भेदभरे ढंग से मुसकराया था पर राजशेखरजी ने उसे अनदेखा कर दिया था.
कुबेर बैंक में सहायक प्रबंधक के पद पर राजशेखरजी की नियुक्ति हुई थी तो प्रसन्नता से वह फूले नहीं समाए थे. किसी वातानुकूलित भवन में सजेधजे केबिन में बैठ कर दूसरों पर हुक्म चलाने की उन्होंने कल्पना की थी. पर मुख्यालय ने उन्हें ऋण उगाहने के काम पर लगा दिया था. इसी चक्कर में उन्हें लगभग हर रोज दूरदराज के नगरों और गांवों की खाक छाननी पड़ती थी.
पूरीसब्जी समाप्त होते ही दुकानदार गरम मसालेदार चाय दे गया था. चाय सचमुच स्वादिष्ठ थी पर राजशेखरजी को खुशालनगर पहुंचने की चिंता सता रही थी.
बैलगाड़ी से 4 मील का मार्ग तय करने में ही राजशेखर बाबू की कमर जवाब दे गई थी. पर नेकचंद इन हिचकोलों के बीच भी राह भर ऊंघता रहा था. फिर भी राजशेखर बाबू ने नेकचंद को धन्यवाद दिया था. वह तो मोटरसाइकिल पर आने की सोच रहे थे पर नेकचंद ने ही इस क्षेत्र की सड़कों की दशा का ऐसा हृदय विदारक वर्णन किया था कि उन्होंने वह विचार त्याग दिया था.
कुबेर बैंक की कर्जदार लक्ष्मी का घर ढूंढ़ने में राजशेखरजी को काफी समय लगा था. नेकचंद साथ न होता तो शायद वहां तक कभी न पहुंच पाते. 2-3-8/ए खुशालनगर जैसा लंबाचौड़ा पता ढूंढ़ते हुए जिस घर के आगे वह रुका, उस की जर्जर हालत देख कर राजशेखरजी चकित रह गए थे. ईंट की बदरंग दीवारों पर टिन की छत थी और एक कमरे के उस घर के मुख्यद्वार पर टाट का परदा लहरा रहा था.
‘‘तुम ने पता ठीक से देख लिया है न,’’ राजशेखरजी ने हिचकिचाते हुए पूछा था.
‘‘अभी पता चल जाएगा हुजूर,’’ नेकचंद ने आश्वासन दिया था.
‘‘लक्ष्मीलताजी हाजिर हों…’’ नेकचंद गला फाड़ कर चीखा था मानो किसी मुवक्किल को जज के समक्ष उपस्थित होने को पुकार रहा हो. उस का स्वर सुन कर आसपास के पेड़ों पर बैठी चिडि़यां घबरा कर उड़ गई थीं पर उस घर में कोई हलचल नहीं हुई. नेकचंद ने जोर से द्वार पीटा तो द्वार खुला था और एक वृद्ध ने अपना चश्मा ठीक करते हुए आगंतुकों को पहचानने का यत्न किया था.
‘‘कौन है भाई?’’ अपने प्रयत्न में असफल रहने पर वृद्ध ने प्रश्न किया था.
‘‘हम कुबेर बैंक से आए हैं. लक्ष्मीलताजी क्या यहीं रहती हैं?’’
‘‘कौन लता, भैया?’’
‘‘लक्ष्मीलता.’’
‘‘अरे, अपनी लक्ष्मी को पूछ रहे हैं. हां, बेटा यहीं रहती है…हमारी बहू है,’’ तभी एक वृद्धा जो संभवत: वृद्ध की पत्नी थीं, वहां आ कर बोली थीं.
‘‘अरे, तो बुलाइए न उसे. हम कुबेर बैंक से आए हैं,’’ राजशेखरजी ने स्पष्ट किया था.
‘‘क्या भैया, सरकारी आदमी हो क्या? कुछ मुआवजा आदि ले कर आए हो क्या?’’ वृद्ध घबरा कर बोले थे.
‘‘मुआवजा? किस बात का मुआवजा?’’ राजशेखरजी ने हैरान हो कर प्रश्न के उत्तर में प्रश्न ही कर दिया था.
‘‘हमारी फसलें खराब होने का मुआवजा. सुना है, सरकार हर गरीब को इतना दे रही है कि वह पेट भर के खा सके.’’
धारावाहिक कहानी: फरिश्ता भाग-5
‘‘हुजूर, लगता है बूढ़े का दिमाग फिर गया है,’’ नेकचंद हंसने लगा था.
‘‘यह क्या हंसने की बात है?’’ राजशेखरजी ने नेकचंद को घुड़क दिया था.
‘‘देखिए, हम सरकारी आदमी नहीं हैं. हम बैंक से आए हैं. लक्ष्मीलताजी ने हमारे बैंक से कर्ज लिया था. हम उसे उगाहने आए हैं.’’
‘‘क्या कह रहे हैं आप? जरा बुलाओ तो लक्ष्मी को,’’ वृद्ध अविश्वासपूर्ण स्वर में बोला था.
दूसरे ही क्षण लक्ष्मीलता आ खड़ी हुई थी.
‘‘लक्ष्मीलता आप ही हैं?’’ राजशेखरजी ने प्रश्न किया था.
‘‘जी हां.’’
‘‘मैं राजधानी से आया हूं, कुबेर बैंक से आप के नाम 82 हजार रुपए बकाया है. आप ने एक सप्ताह के अंदर कर्ज नहीं लौटाया तो कुर्की का आदेश दे दिया जाएगा.’’
‘‘क्या कह रहे हो साहब, 82 हजार तो बहुत बड़ी रकम है. हम ने तो एकसाथ 82 रुपए भी नहीं देखे. हम ने तो न कभी राजधानी की शक्ल देखी है न आप के कुबेर बैंक की.’’
‘‘हमें इन सब बातों से कोई मतलब नहीं है. हमारे पास सब कागजपत्र हैं. तुम्हारे दस्तखत वाला प्रमाण है,’’ नेकचंद बोला था.
‘‘लो और सुनो, मेरे दस्तखत, भैया किसी और लक्ष्मीलता को ढूंढ़ो. मेरे लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर है. अंगूठाछाप हूं मैं. रही बात कुर्की की तो वह भी करवा ही लो. घर में कुछ बर्तन हैं. कुछ रोजाना पहनने के कपड़े और डोलबालटी. यह एक कमरे का टूटाफूटा झोपड़ा है. जो कोई इन सब का 82 हजार रुपए दे तो आप ले लो,’’ लक्ष्मीलता तैश में आ गई थी.
अब तक वहां भारी भीड़ एकत्रित हो गई थी.
‘‘साहब, कहीं कुछ गड़बड़ अवश्य है. लक्ष्मीलता तो केवल नाम की लक्ष्मी है. इसे बैंक तो छोडि़ए गांव का साहूकार 10 रुपए भी उधार न दे,’’ एक पड़ोसी यदुनाथ ने बीचबचाव करना चाहा था.
‘‘देखिए, मैं इतनी दूर से रेलगाड़ी, बैलगाड़ी से यात्रा कर के क्या केवल झूठ, आरोप लगाने आऊंगा? यह देखिए प्रोनोट, नाम और पता इन का है या नहीं. नीचे अंगूठा भी लगा है. 5 वर्ष पहले 10 हजार रुपए का कर्ज लिया था जो ब्याज के साथ अब 82 हजार रुपया हो गया है,’’ राजशेखरजी ने एक ही सांस में सारा विवरण दे दिया था.
वहां खड़े लोगों में सरसराहट सी फैल गई थी. आजकल ऐसे कर्ज उगाहने वाले अकसर गांव में आने लगे थे. अनापशनाप रकम बता कर कागजपत्र दिखा कर लोगों को परेशान करते थे.
‘‘देखिए, मैनेजर साहब. लक्ष्मीलता ने तो कभी किसी बैंक का मुंह तक नहीं देखा. वैसे भी 82 हजार तो क्या वह तो आप को 82 रुपए देने की स्थिति में नहीं है,’’ यदुनाथ तथा कुछ और व्यक्तियों ने बीचबचाव करना चाहा था.
‘‘अरे, लेते समय तो सोचा नहीं, देने का समय आया तो गरीबी का रोना रोने लगे? और यह रतन कुमार कौन है? उन्होंने गारंटी दी थी इस कर्ज की. लक्ष्मीलता नहीं दे सकतीं तो रतन कुमार का गला दबा कर वसूल करेंगे. 100 एकड़ जमीन है उन के पास. अमीर आदमी हैं.’’
‘‘रतन कुमार? इस नाम को तो कभी अपने गांव में हम ने सुना नहीं है. किसी और गांव के होंगे.’’
‘‘नाम तो खुशालनगर का ही लिखा है पते में. अभी हम सरपंचजी के घर जा कर आते हैं. वहां से सब पता कर लेंगे. पर कहे देते हैं कि ब्याज सहित कर्ज वसूल करेंगे हम,’’ राजशेखरजी और नेकचंद चल पड़े थे. सरपंचजी घर पर नहीं मिले थे.
‘‘अब कहां चलें हुजूर?’’ नेकचंद ने प्रश्न किया था.
‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा. क्या करें, क्या न करें. मुझे तो स्वयं विश्वास नहीं हो रहा कि उस गरीब लक्ष्मीलता ने यह कर्ज लिया होगा,’’ राजशेखरजी बोले थे.
‘‘साहब, आप नए आए हैं अभी. ऐसे सैकड़ों कर्जदार हैं अपने बैंक के. सब मिलीभगत है. सरपंचजी, हमारे बैंक के कुछ लोग, कुछ दादा लोग. किसकिस के नाम गिनेंगे. यह रतन कुमार नाम का प्राणी शायद ही मिले आप को. जमीन के कागज भी फर्जी ही होंगे,’’ नेकचंद ने समझाया था. निराश राजशेखर लौट चले थे.
बैंक पहुंचते ही मुख्य प्रबंधक महोदय की झाड़ पड़ी थी.
‘‘आप तो किसी काम के नहीं हैं राजेशखर बाबू, आप जहां भी उगाहने जाते हैं खाली हाथ ही लौटते हैं. सीधी उंगली से घी नहीं निकलता, उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है. पर आप कहीं तो गुंडों की धमकी से डर कर भाग खड़े होते हैं तो कभी गरीबी का रोना सुन कर लौट आते हैं. जाइए, विपिन बाबू से और कर्जदारों की सूची ले लीजिए. कुछ तो उगाही कर के दिखाइए, नहीं तो आप का रिकार्ड खराब हो जाएगा.’’
उन्हें धमकी मिल गई थी. अगले कुछ माह में ही राजशेखर बाबू समझ गए थे कि उगाही करना उन के बस का काम नहीं था. वह न तो बैंक के लिए नए जमाकर्ता जुटा पा रहे थे और न ही उगाही कर पा रहे थे.
एक दिन इसी उधेड़बुन में डूबे अपने घर से निकले थे कि उन के मित्र निगम बाबू मिल गए थे.
‘‘कहिए, कैसी कट रही है कुबेर बैंक में?’’ निगम बाबू ने पूछा था.
‘‘ठीक है, आप बताइए, कालिज के क्या हालचाल हैं?’’
‘‘यहां भी सब ठीकठाक है… आप को आप के छात्र बहुत याद करते हैं पर आप युवा लोग कहां टिकते हैं कालिज में,’’ निगम बाबू बोले थे.
राजशेखर बाबू को झटका सा लगा था. कर क्या रहे थे वे बैंक में? उन ऋणों की उगाही जिन्हें देने में उन का कोई हाथ नहीं था. जिस स्वप्निल भविष्य की आशा में वह व्याख्याता की नौकरी छोड़ कर कुबेर बैंक गए थे वह कहीं नजर नहीं आ रही थी.
वह दूसरे ही दिन अपने पुराने कालिज जा पहुंचे थे और पुन: कालिज में लौटने की इच्छा प्रकट की थी.
प्रधानाचार्य महोदय ने खुली बांहों से उन का स्वागत किया था. राजशेखरजी को लगा मानो पिंजरे से निकल कर खुली हवा में उड़ने का सुअवसर मिल गया हो.
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चींटी की गति से रेंगती यात्री रेलगाड़ी हर 10 कदम पर रुक जाती थी. वैसे तो राजधानी से खुशालनगर मुश्किल से 2 घंटे का रास्ता होगा, पर खटारा रेलगाड़ी में बैठे हुए उन्हें 6 घंटे से अधिक का समय हो चुका था.
राजशेखरजी ने एक नजर अपने डब्बे में बैठे सहयात्रियों पर डाली. अधिकतर पुरुष यात्रियों के शरीर पर मात्र घुटनों तक पहुंचती धोती थी. कुछ एक ने कमीजनुमा वस्त्र भी पहन रखा था पर उस बेढंगी पोशाक को देख कर एक क्षण को तो राजशेखर बाबू उस भयानक गरमी और असह्य सहयात्रियों के बीच भी मुसकरा दिए थे.
अधिकतर औरतों ने एक सूती साड़ी से अपने को ढांप रखा था. उसी के पल्ले को करीने से लपेट कर उन्होंने आगे खोंस रखा था. शहर में ऐसी वेशभूषा को देख कर संभ्रांत नागरिक शायद नाकभौं सिकोड़ लेते, महिलाएं, खासकर युवतियां अपने विशेष अंदाज में फिक्क से हंस कर नजरें घुमा लेतीं. पर राजशेखरजी उन के प्राकृतिक सौंदर्य को देख कर ठगे से रह गए थे. उन के परिश्रमी गठे हुए शरीर केवल एक सूती धोती में लिपटे होने पर भी कहीं से अश्लील नहीं लग रहे थे. कोई फैशन वाली पोशाक लाख प्रयत्न करने पर भी शायद वह प्रभाव पैदा नहीं कर सकती थी. अधिकतर महिलाओं ने बड़े सहज ढंग से बालों को जूड़े में बांध कर स्थानीय फूलों से सजा रखा था.
तभी उन के साथ चल रहे चपरासी नेकचंद ने करवट बदली तो उन की तंद्रा भंग हुई.
‘यह क्या सोचने लगे वे?’ उन्होंने खुद को ही लताड़ा था. कितना गरीब इलाका है यह? लोगों के पास तन ढकने के लिए वस्त्र तक नहीं है. उन्होंने अपनी पैंट और कमीज पर नजर दौड़ाई थी…यहां तो यह साधारण वेशभूषा भी खास लग रही थी.
‘‘अरे, ओ नेकचंद. कब तक सोता रहेगा? बैंक में अपने स्टूल पर बैठा ऊंघता रहता है, यहां रेल के डब्बे में घुसते ही लंबा लेट गया और तब से गहरी नींद में सो रहा है,’’ उन के पुकारने पर भी चपरासी नेकचंद की नींद नहीं खुली थी.
तभी रेलगाड़ी जोर की सीटी के साथ रुक गई थी.
‘‘नेकचंद…अरे, ओ कुंभकर्ण. उठ स्टेशन आ गया है,’’ इस बार झुंझला कर उन्होंने नेकचंद को पूरी तरह हिला दिया.
वह हड़बड़ा कर उठा और खिड़की से बाहर झांकने लगा.
‘‘यह रहबरपुर नहीं है साहब, यहां तो गाड़ी यों ही रुक गई है,’’ कह कर वह पुन: लेट गया.
‘‘हमें रहबरपुर नहीं खुशालनगर जाना है,’’ राजशेखरजी ने मानो उसे याद दिलाया था.
‘‘रहबरपुर के स्टेशन पर उतर कर बैलगाड़ी या किसी अन्य सवारी से खुशालनगर जाना पड़ेगा. वहां तक यह टे्रन नहीं जाएगी,’’ नेकचंद ने चैन से आंखें मूंद ली थीं.
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बारबार रुकती और रुक कर फिर बढ़ती वह रेलगाड़ी जब अपने गंतव्य तक पहुंची, दिन के 2 बज रहे थे.
‘‘चलो नेकचंद, शीघ्रता से खुशालनगर जाने वाली किसी सवारी का प्रबंध करो…नहीं तो यहीं संध्या हो जाएगी,’’ राजशेखरजी अपना बैग उठा कर आगे बढ़ते हुए बोले थे.
‘‘हुजूर, माईबाप, ऐसा जुल्म मत करो. सुबह से मुंह में एक दाना भी नहीं गया है. स्टेशन पर सामने वह दुकान है… वह गरम पूरियां उतार रहा है. यहां से पेटपूजा कर के ही आगे बढ़ेंगे हम,’’ नेकचंद ने अनुनय की थी.
‘‘क्या हुआ है तुम्हें नेकचंद? यह भी कोई खाने की जगह है? कहीं ढंग के रेस्तरां में बैठ कर खाएंगे.’’
‘‘रेस्तरां और यहां,’’ नेकचंद हंसा था, ‘‘सर, यहां और खुशालनगर तो क्या आसपास के 20 गांवों में भी कुछ खाने को नहीं मिलेगा. मैं तो बिना खाए यहां से टस से मस नहीं होने वाला,’’ इतना कह कर नेकचंद दुकान के बाहर पड़ी बेंच पर बैठ गया.
‘‘ठीक है, खाओ, तुम्हें तो मैं साथ ला कर पछता रहा हूं,’’ राजशेखरजी ने हथियार डाल दिए थे.
‘‘हुजूर, आप के लिए भी ले आऊं?’’ नेकचंद को पूरीसब्जी की प्लेट पकड़ा कर दुकानदार ने बड़े मीठे स्वर में पूछा था.
राजशेखरजी को जोर की भूख लगी थी पर उस छोटी सी दुकान में खाने में उन का अभिजात्य आड़े आ रहा था.
‘‘मेरी दुकान जैसी पूरीसब्जी पूरे चौबीसे में नहीं मिलती साहब, और मेरी मसालेदार चाय पीने के लिए तो लोग मीलों दूर से चल कर यहां आते हैं,’’ दुकानदार गर्वपूर्ण स्वर में बोला था.
‘‘ठीक है, तुम इतना जोर दे रहे हो तो ले आओ एक प्लेट पूरीभाजी. और हां, तुम्हारी मसालेदार चाय तो हम अवश्य पिएंगे,’’ राजशेखरजी भी वहीं बैंच पर जम गए थे.
नेकचंद भेदभरे ढंग से मुसकराया था पर राजशेखरजी ने उसे अनदेखा कर दिया था.
कुबेर बैंक में सहायक प्रबंधक के पद पर राजशेखरजी की नियुक्ति हुई थी तो प्रसन्नता से वह फूले नहीं समाए थे. किसी वातानुकूलित भवन में सजेधजे केबिन में बैठ कर दूसरों पर हुक्म चलाने की उन्होंने कल्पना की थी. पर मुख्यालय ने उन्हें ऋण उगाहने के काम पर लगा दिया था. इसी चक्कर में उन्हें लगभग हर रोज दूरदराज के नगरों और गांवों की खाक छाननी पड़ती थी.
पूरीसब्जी समाप्त होते ही दुकानदार गरम मसालेदार चाय दे गया था. चाय सचमुच स्वादिष्ठ थी पर राजशेखरजी को खुशालनगर पहुंचने की चिंता सता रही थी.
बैलगाड़ी से 4 मील का मार्ग तय करने में ही राजशेखर बाबू की कमर जवाब दे गई थी. पर नेकचंद इन हिचकोलों के बीच भी राह भर ऊंघता रहा था. फिर भी राजशेखर बाबू ने नेकचंद को धन्यवाद दिया था. वह तो मोटरसाइकिल पर आने की सोच रहे थे पर नेकचंद ने ही इस क्षेत्र की सड़कों की दशा का ऐसा हृदय विदारक वर्णन किया था कि उन्होंने वह विचार त्याग दिया था.
कुबेर बैंक की कर्जदार लक्ष्मी का घर ढूंढ़ने में राजशेखरजी को काफी समय लगा था. नेकचंद साथ न होता तो शायद वहां तक कभी न पहुंच पाते. 2-3-8/ए खुशालनगर जैसा लंबाचौड़ा पता ढूंढ़ते हुए जिस घर के आगे वह रुका, उस की जर्जर हालत देख कर राजशेखरजी चकित रह गए थे. ईंट की बदरंग दीवारों पर टिन की छत थी और एक कमरे के उस घर के मुख्यद्वार पर टाट का परदा लहरा रहा था.
‘‘तुम ने पता ठीक से देख लिया है न,’’ राजशेखरजी ने हिचकिचाते हुए पूछा था.
‘‘अभी पता चल जाएगा हुजूर,’’ नेकचंद ने आश्वासन दिया था.
‘‘लक्ष्मीलताजी हाजिर हों…’’ नेकचंद गला फाड़ कर चीखा था मानो किसी मुवक्किल को जज के समक्ष उपस्थित होने को पुकार रहा हो. उस का स्वर सुन कर आसपास के पेड़ों पर बैठी चिडि़यां घबरा कर उड़ गई थीं पर उस घर में कोई हलचल नहीं हुई. नेकचंद ने जोर से द्वार पीटा तो द्वार खुला था और एक वृद्ध ने अपना चश्मा ठीक करते हुए आगंतुकों को पहचानने का यत्न किया था.
‘‘कौन है भाई?’’ अपने प्रयत्न में असफल रहने पर वृद्ध ने प्रश्न किया था.
‘‘हम कुबेर बैंक से आए हैं. लक्ष्मीलताजी क्या यहीं रहती हैं?’’
‘‘कौन लता, भैया?’’
‘‘लक्ष्मीलता.’’
‘‘अरे, अपनी लक्ष्मी को पूछ रहे हैं. हां, बेटा यहीं रहती है…हमारी बहू है,’’ तभी एक वृद्धा जो संभवत: वृद्ध की पत्नी थीं, वहां आ कर बोली थीं.
‘‘अरे, तो बुलाइए न उसे. हम कुबेर बैंक से आए हैं,’’ राजशेखरजी ने स्पष्ट किया था.
‘‘क्या भैया, सरकारी आदमी हो क्या? कुछ मुआवजा आदि ले कर आए हो क्या?’’ वृद्ध घबरा कर बोले थे.
‘‘मुआवजा? किस बात का मुआवजा?’’ राजशेखरजी ने हैरान हो कर प्रश्न के उत्तर में प्रश्न ही कर दिया था.
‘‘हमारी फसलें खराब होने का मुआवजा. सुना है, सरकार हर गरीब को इतना दे रही है कि वह पेट भर के खा सके.’’
धारावाहिक कहानी: फरिश्ता भाग-5
‘‘हुजूर, लगता है बूढ़े का दिमाग फिर गया है,’’ नेकचंद हंसने लगा था.
‘‘यह क्या हंसने की बात है?’’ राजशेखरजी ने नेकचंद को घुड़क दिया था.
‘‘देखिए, हम सरकारी आदमी नहीं हैं. हम बैंक से आए हैं. लक्ष्मीलताजी ने हमारे बैंक से कर्ज लिया था. हम उसे उगाहने आए हैं.’’
‘‘क्या कह रहे हैं आप? जरा बुलाओ तो लक्ष्मी को,’’ वृद्ध अविश्वासपूर्ण स्वर में बोला था.
दूसरे ही क्षण लक्ष्मीलता आ खड़ी हुई थी.
‘‘लक्ष्मीलता आप ही हैं?’’ राजशेखरजी ने प्रश्न किया था.
‘‘जी हां.’’
‘‘मैं राजधानी से आया हूं, कुबेर बैंक से आप के नाम 82 हजार रुपए बकाया है. आप ने एक सप्ताह के अंदर कर्ज नहीं लौटाया तो कुर्की का आदेश दे दिया जाएगा.’’
‘‘क्या कह रहे हो साहब, 82 हजार तो बहुत बड़ी रकम है. हम ने तो एकसाथ 82 रुपए भी नहीं देखे. हम ने तो न कभी राजधानी की शक्ल देखी है न आप के कुबेर बैंक की.’’
‘‘हमें इन सब बातों से कोई मतलब नहीं है. हमारे पास सब कागजपत्र हैं. तुम्हारे दस्तखत वाला प्रमाण है,’’ नेकचंद बोला था.
‘‘लो और सुनो, मेरे दस्तखत, भैया किसी और लक्ष्मीलता को ढूंढ़ो. मेरे लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर है. अंगूठाछाप हूं मैं. रही बात कुर्की की तो वह भी करवा ही लो. घर में कुछ बर्तन हैं. कुछ रोजाना पहनने के कपड़े और डोलबालटी. यह एक कमरे का टूटाफूटा झोपड़ा है. जो कोई इन सब का 82 हजार रुपए दे तो आप ले लो,’’ लक्ष्मीलता तैश में आ गई थी.
अब तक वहां भारी भीड़ एकत्रित हो गई थी.
‘‘साहब, कहीं कुछ गड़बड़ अवश्य है. लक्ष्मीलता तो केवल नाम की लक्ष्मी है. इसे बैंक तो छोडि़ए गांव का साहूकार 10 रुपए भी उधार न दे,’’ एक पड़ोसी यदुनाथ ने बीचबचाव करना चाहा था.
‘‘देखिए, मैं इतनी दूर से रेलगाड़ी, बैलगाड़ी से यात्रा कर के क्या केवल झूठ, आरोप लगाने आऊंगा? यह देखिए प्रोनोट, नाम और पता इन का है या नहीं. नीचे अंगूठा भी लगा है. 5 वर्ष पहले 10 हजार रुपए का कर्ज लिया था जो ब्याज के साथ अब 82 हजार रुपया हो गया है,’’ राजशेखरजी ने एक ही सांस में सारा विवरण दे दिया था.
वहां खड़े लोगों में सरसराहट सी फैल गई थी. आजकल ऐसे कर्ज उगाहने वाले अकसर गांव में आने लगे थे. अनापशनाप रकम बता कर कागजपत्र दिखा कर लोगों को परेशान करते थे.
‘‘देखिए, मैनेजर साहब. लक्ष्मीलता ने तो कभी किसी बैंक का मुंह तक नहीं देखा. वैसे भी 82 हजार तो क्या वह तो आप को 82 रुपए देने की स्थिति में नहीं है,’’ यदुनाथ तथा कुछ और व्यक्तियों ने बीचबचाव करना चाहा था.
‘‘अरे, लेते समय तो सोचा नहीं, देने का समय आया तो गरीबी का रोना रोने लगे? और यह रतन कुमार कौन है? उन्होंने गारंटी दी थी इस कर्ज की. लक्ष्मीलता नहीं दे सकतीं तो रतन कुमार का गला दबा कर वसूल करेंगे. 100 एकड़ जमीन है उन के पास. अमीर आदमी हैं.’’
‘‘रतन कुमार? इस नाम को तो कभी अपने गांव में हम ने सुना नहीं है. किसी और गांव के होंगे.’’
‘‘नाम तो खुशालनगर का ही लिखा है पते में. अभी हम सरपंचजी के घर जा कर आते हैं. वहां से सब पता कर लेंगे. पर कहे देते हैं कि ब्याज सहित कर्ज वसूल करेंगे हम,’’ राजशेखरजी और नेकचंद चल पड़े थे. सरपंचजी घर पर नहीं मिले थे.
‘‘अब कहां चलें हुजूर?’’ नेकचंद ने प्रश्न किया था.
‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा. क्या करें, क्या न करें. मुझे तो स्वयं विश्वास नहीं हो रहा कि उस गरीब लक्ष्मीलता ने यह कर्ज लिया होगा,’’ राजशेखरजी बोले थे.
‘‘साहब, आप नए आए हैं अभी. ऐसे सैकड़ों कर्जदार हैं अपने बैंक के. सब मिलीभगत है. सरपंचजी, हमारे बैंक के कुछ लोग, कुछ दादा लोग. किसकिस के नाम गिनेंगे. यह रतन कुमार नाम का प्राणी शायद ही मिले आप को. जमीन के कागज भी फर्जी ही होंगे,’’ नेकचंद ने समझाया था. निराश राजशेखर लौट चले थे.
बैंक पहुंचते ही मुख्य प्रबंधक महोदय की झाड़ पड़ी थी.
‘‘आप तो किसी काम के नहीं हैं राजेशखर बाबू, आप जहां भी उगाहने जाते हैं खाली हाथ ही लौटते हैं. सीधी उंगली से घी नहीं निकलता, उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है. पर आप कहीं तो गुंडों की धमकी से डर कर भाग खड़े होते हैं तो कभी गरीबी का रोना सुन कर लौट आते हैं. जाइए, विपिन बाबू से और कर्जदारों की सूची ले लीजिए. कुछ तो उगाही कर के दिखाइए, नहीं तो आप का रिकार्ड खराब हो जाएगा.’’
उन्हें धमकी मिल गई थी. अगले कुछ माह में ही राजशेखर बाबू समझ गए थे कि उगाही करना उन के बस का काम नहीं था. वह न तो बैंक के लिए नए जमाकर्ता जुटा पा रहे थे और न ही उगाही कर पा रहे थे.
एक दिन इसी उधेड़बुन में डूबे अपने घर से निकले थे कि उन के मित्र निगम बाबू मिल गए थे.
‘‘कहिए, कैसी कट रही है कुबेर बैंक में?’’ निगम बाबू ने पूछा था.
‘‘ठीक है, आप बताइए, कालिज के क्या हालचाल हैं?’’
‘‘यहां भी सब ठीकठाक है… आप को आप के छात्र बहुत याद करते हैं पर आप युवा लोग कहां टिकते हैं कालिज में,’’ निगम बाबू बोले थे.
राजशेखर बाबू को झटका सा लगा था. कर क्या रहे थे वे बैंक में? उन ऋणों की उगाही जिन्हें देने में उन का कोई हाथ नहीं था. जिस स्वप्निल भविष्य की आशा में वह व्याख्याता की नौकरी छोड़ कर कुबेर बैंक गए थे वह कहीं नजर नहीं आ रही थी.
वह दूसरे ही दिन अपने पुराने कालिज जा पहुंचे थे और पुन: कालिज में लौटने की इच्छा प्रकट की थी.
प्रधानाचार्य महोदय ने खुली बांहों से उन का स्वागत किया था. राजशेखरजी को लगा मानो पिंजरे से निकल कर खुली हवा में उड़ने का सुअवसर मिल गया हो.
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August 31, 2019 at 10:23AMबेबसी एक मकान की
लेखक: दीपक बुदकी
एक ट्रंक, एक अटैची और एक बिस्तर, बस, यही संपत्ति समेट कर वे अंधेरी रात में घर छोड़ कर चले गए थे. 6 लोग. वह, उस की पत्नी, 2 अबोध बच्चे और 2 असहाय वृद्ध जिन का बोझ उसे जीवन में पहली बार महसूस हो रहा था.
‘‘अम्मी, हम इस अंधेरे में कहां जा रहे हैं?’’ जाते समय 7 साल की बच्ची ने मां से पूछा था.
‘‘नरक में…बिंदिया, तुम चुपचाप नहीं बैठ सकतीं,’’ मां ने खीझते हुए उत्तर दिया था.
बच्ची का मुंह बंद करने के लिए ये शब्द पर्याप्त थे. वे कहां जा रहे थे उन्हें स्वयं मालूम न था. कांपते हाथों से पत्नी ने मुख्यद्वार पर सांकल चढ़ा दी और फिर कुंडी में ताला लगा कर उस को 2-3 बार झटका दे कर अपनी ओर खींचा. जब ताला खुला नहीं तो उस ने संतुष्ट हो कर गहरी सांस ली कि चलो, अब मकान सुरक्षित है.
धीरेधीरे सारा परिवार न जाने रात के अंधेरे में कहां खो गया. ताला कोई भी तोड़ सकता था. अब वहां कौन किस को रोकने वाला था. ताला स्वयं में सुरक्षा की गारंटी नहीं होता. सुरक्षा करते हैं आसपास के लोग, जो स्वेच्छा से पड़ोसियों के जानमाल की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझते हैं. लेकिन यहां पर परिस्थितियों ने ऐसी करवट बदली थी कि पड़ोसियों पर भरोसा करना भी निरर्थक था. उन्हें अपनी जान के लाले पड़े हुए थे, दूसरों की रखवाली क्या करते. अगर वे किसी को ताला तोड़ते देख भी लेते तो उन की भलाई इसी में थी कि वे अपनी खिड़कियां बंद कर के चुपचाप अंदर बैठे रहते जैसे कुछ देखा ही न हो. फिर ऐसा खतरा उठाने से लाभ भी क्या था. तालाब में रह कर मगरमच्छ से बैर.
कई महीने ताला अपने स्थान पर यों ही लटकता रहा. समय बीतने के साथसाथ उस निर्वासित परिवार के वापस आने की आशा धूमिल पड़ती गई. मकान के पास से गुजरने वाला हर व्यक्ति लालची नजरों से ताले को देखता रहता और फिर अपने मन में सोचता कि काश, यह ताला स्वयं ही टूट कर गिर जाता और दोनों कपाट स्वयं ही खुल जाते.
फिर एक दिन धायं की आवाज के साथ लोहा लोहे से टकराया, महीनों से लटके ताले की अंतडि़यां बाहर आ गईं. किसी अज्ञात व्यक्ति ने अमावस के अंधेरे की आड़ ले कर ताला तोड़ दिया. सभी ने राहत की सांस ली. वे आश्वस्त थे कि कम से कम उन में से कोई इस अपराध में शामिल नहीं है.
ताला जिस आदमी ने तोड़ा था वह एक खूंखार आतंकवादी था, जो सुरक्षाकर्मियों से छिपताछिपाता इस घर में घुस गया था. खाली मकान ने रात भर उस को अपने आंचल में पनाह दी थी. अंदर आते ही अपने कंधे से एके-47 राइफल उतार कर कुरसी पर ऐसे फेंक दी जैसे वर्षों की बोझिल और घृणित जिंदगी का बोझ हलका कर रहा हो. उस के बाद उस ने अपने भारीभरकम शरीर को भी उसी घृणा से नरम बिस्तर पर गिरा दिया और कुछ ही मिनटों में अपनी सुधबुध खो बैठा.
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आधी रात को वह भूख और प्यास से तड़प कर उठ बैठा. सामने कुरसी पर रखी एके-47 न तो उस की भूख मिटा सकती थी और न ही प्यास. साहस बटोर कर उस ने सिगरेट सुलगाई और उसी धीमी रोशनी के सहारे किचन में जा कर पानी ढूंढ़ने लगा. जैसेतैसे उस ने मटके में से कई माह पहले भरा हुआ पानी निकाल कर गटागट पी लिया. फिर एक के बाद एक कई माचिस की तीलियां जला कर खाने का सामान ढूंढ़ने लगा. किचन पूरी तरह से खाली था. कहीं पर कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था.
‘‘कुछ भी नहीं छोड़ा है घर में. सब ले कर भाग गए हैं,’’ उस के मुंह से सहसा निकल पड़ा.
तभी उस की नजर एक छोटी सी अलमारी पर पड़ी जिस में कई चेहरों की बहुत सारी तसवीरें सजी हुई थीं. उन पर चढ़ी हुई फूलमालाएं सूख चुकी थीं. तसवीरों के सामने एक थाली थी जिस में 5 मोटे और मीठे रोट पड़े थे जो भूखे, खतरनाक आतंकवादी की भूख मिटाने के काम आए. पेट की भूख शांत कर वह निश्ंिचत हो कर सो गया.
सुबह होने से पहले उस ने मकान में रखे हुए ट्रंकों, संदूकों और अलमारियों की तलाशी ली. भारीभरकम सामान उठाना खतरे से खाली न था. वह तो केवल रुपए और गहनों की तलाश में था मगर उस के हाथ कुछ भी न लगा. निराश हो कर उस ने फिर घर वालों को एक मोटी सी गाली दी और अपने मिशन पर चल पड़ा.
दूसरे दिन सुरक्षाबलों को सूचना मिली कि एक खूंखार आतंकवादी ने इस मकान में पनाह ली है. उन का संदेह विश्वास में उस समय बदला जब उन्होंने कुंडे में टूटा हुआ ताला देखा. उन्होंने मकान को घेर लिया, गोलियां चलाईं, गोले बरसाए, आतंकवादियों को बारबार ललकारा और जब कोई जवाबी काररवाई नहीं हुई तो 4 सिपाही अपनी जान पर खेलते हुए अंदर घुस गए. बेबस मकान गोलीबारी से छलनी हो गया मगर बेजबानी के कारण कुछ भी बोल न पाया.
खैर, वहां तो कोई भी न था. सिपाहियों को आश्चर्य भी हुआ और बहुत क्रोध भी आया.
‘‘सर, यहां तो कोई भी नहीं,’’ एक जवान ने सूबेदार को रिपोर्ट दी.
‘‘कहीं छिप गया होगा. पूरा चेक करो. भागने न पाए,’’ सूबेदार कड़क कर बोला.
उन्होंने सारे मकान की तलाशी ली. सभी टं्रकों, संदूकों को उलटापलटा. उन में से साडि़यां ऐसे निकल रही थीं जैसे कटे हुए बकरे के पेट से अंतडि़यां निकल कर बाहर आ रही हों. कमरे में चारों ओर गरम कपड़े, स्वेटर, बच्चों की यूनिफार्म, बरतन और अन्य वस्तुएं जगहजगह बिखर गईं. जब कहीं कुछ न मिला तो क्रोध में आ कर उन्होंने फर्नीचर और टीन के टं्रकों पर ताबड़तोड़ डंडे बरसा कर अपने गुस्से को ठंडा किया और फिर निराश हो कर चले गए.
उस दिन के बाद मकान में घुसने के सारे रास्ते खुल गए. लोग एकदूसरे से नजरें बचा कर एक के बाद एक अंदर घुस जाते और माल लूट कर चले आते. पहली किस्त में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी, फिलिप्स का ट्रांजिस्टर, स्टील के बरतन और कपड़े निकाले गए. फिर फर्नीचर की बारी आई. सोफा, मेज, बेड, अलमारी और कुरसियां. यह लूट का क्रम तब तक चलता रहा जब तक कि सारा घर खाली न हो गया.
उस समय मकान की हालत ऐसी अबला नारी की सी लग रही थी जिस का कई गुंडों ने मिल कर बलात्कार किया हो और फिर खून से लथपथ उस की अधमरी देह को बीच सड़क पर छोड़ कर भाग गए हों.
मकान में अब कुछ भी न बचा था. फिर भी एक पड़ोसी की नजर देवदार की लकड़ी से बनी हुई खिड़कियों और दरवाजों पर पड़ी. रात को बापबेटे इन खिड़कियों और दरवाजों को उखाड़ने में ऐसे लग गए कि किसी को कानोंकान खबर न हुई. सूरज की किरणें निकलने से पहले ही उन्होंने मकान को आग के हवाले कर दिया ताकि लोगों को यह शक भी न हो कि मकान के दरवाजे और खिड़कियां पहले से ही निकाली जा चुकी हैं और शक की सुई सुरक्षाबलों की तरफ इशारा करे क्योंकि मकान की तलाशी उन्होंने ली थी.
आसपास रहने वालों को ज्यों ही पता चला कि मकान जल रहा है और आग की लपटें अनियंत्रित होती जा रही हैं, उन्हें अपनेअपने घरों की चिंता सताने लगी. वे जल्दीजल्दी पानी से भरी बाल्टियां लेले कर अपने घरों से बाहर निकल आए और आग पर पानी छिड़कने लगे. किसी ने फायर ब्रिगेड को भी सूचना दे दी. उन की घबराहट यह सोच कर बढ़ने लगी कि कहीं आग की ये लपटें उन के घरों को राख न कर दें.
मकान जो पहले से ही असहाय और बेबस था, मूक खड़ा घंटों आग के शोलों के साथ जूझता रहा. …शोले, धुआं, कोयला.
दिल फिर भी मानने को तैयार न था कि इस मलबे में अब कुछ भी शेष नहीं बचा है. ‘कुछ न कुछ, कहीं न कहीं जरूर होगा. आखिर इतने बड़े मकान में कहीं कोई चीज तो होगी जो किसी के काम आएगी,’ दिल गवाही देता.
एक अधेड़ उम्र की औरत ने मलबे में धंसी हुई टिन की जली हुई चादरों को देख लिया. उस ने अपने 2 जवान बेटों को आवाज दी. देखते ही देखते उन से सारी चादरें उठवा लीं और स्वयं सजदे में लीन हो गई. टीन की चादरें, गोशाला की मरम्मत के काम आ गईं. एक और पड़ोसी ने बचीखुची ईंटें और पत्थर उठवा कर अपने आंगन में छोटा सा शौचालय बनवा लिया. जो दीवारें आग और पानी के थपेड़ों के बावजूद अब तक खड़ी थीं, हथौड़ों की चोट न सह सकीं और आंख झपकते ही ढेर हो गईं.
कुछ दिन बाद एक गरीब विधवा वहां से गुजरी. उस की निगाहें मलबे के उस ढेर पर पड़ीं. यहांवहां अधजली लकडि़यां और कोयले दिखाई दे रहे थे. उसे बीते हुए वर्ष की सर्दी याद आ गई. सोचते ही सारे बदन में कंपकंपी सी महसूस हुई. उस ने आने वाले जाड़े के लिए अधजली लकडि़यां और कोयले बोरे में भर लिए और वापस अपने रास्ते पर चली गई.
मकान की जगह अब केवल राख का ढेर ही रह गया था. पासपड़ोस के बच्चों ने उसे खेल का मैदान बना लिया. हर रोज स्कूल से वापस आ कर बैट और विकेटें उठाए बच्चे चले आते और फिर क्रिकेट का मैच शुरू हो जाता.
हमेशा की तरह उस दिन भी 4 लड़के आए. एक लड़का विकेटें गाड़ने लगा. विकेट जमीन में घुस नहीं रहे थे. अंदर कोई चीज अटक रही थी. उस ने छेद को और चौड़ा किया. फिर अपना सिर झुका कर अंदर झांका. सूर्य की रोशनी में कोई चमकीली चीज नजर आ रही थी. वह बहुत खुश हुआ. इस बीच शेष तीनों लड़के भी उस के इर्दगिर्द एकत्रित हो गए. उन्होंने भी बारीबारी से छेद के अंदर देखने की कोशिश की और उस चमकती वस्तु को देखते ही उन की आंखों में चमक आ गई और मन में लालच ने पहली अंगड़ाई ली.
‘हो न हो सोने का कोई जेवर होगा.’ हरेक के मन में यही विचार आया लेकिन कोई भी इस बात को जबान पर लाना नहीं चाहता था.
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पहले लड़के ने विकेट की नोक से वस्तु के इर्दगिर्द खोदना शुरू कर दिया. दूसरा लड़का दौड़ कर अपने घर से लोहे की कुदालनुमा एक वस्तु ले कर आ गया और उस को पहले लड़के को सौंप दिया.
पहला लड़का अब कुदाल से लगातार खोदने लगा जबकि बाकी तीनों लड़के उत्सुकता और बेचैनी से मन ही मन यह दुआ मांगते रहे कि काश, कोई जेवर निकल आए और उन को खूब सारा पैसा मिल जाए.
खुदाई पूरी हो गई. इस से पहले कि पहला लड़का अपना हाथ सुराख में डालता और गुप्त खजाने को बाहर निकालता, दूसरे लड़के ने कश्मीरी भाषा में आवाज दी :
‘‘अड़स…अड़स…’’ अर्थात मैं भी बराबर का हिस्सेदार हूं.
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लेखक: दीपक बुदकी
एक ट्रंक, एक अटैची और एक बिस्तर, बस, यही संपत्ति समेट कर वे अंधेरी रात में घर छोड़ कर चले गए थे. 6 लोग. वह, उस की पत्नी, 2 अबोध बच्चे और 2 असहाय वृद्ध जिन का बोझ उसे जीवन में पहली बार महसूस हो रहा था.
‘‘अम्मी, हम इस अंधेरे में कहां जा रहे हैं?’’ जाते समय 7 साल की बच्ची ने मां से पूछा था.
‘‘नरक में…बिंदिया, तुम चुपचाप नहीं बैठ सकतीं,’’ मां ने खीझते हुए उत्तर दिया था.
बच्ची का मुंह बंद करने के लिए ये शब्द पर्याप्त थे. वे कहां जा रहे थे उन्हें स्वयं मालूम न था. कांपते हाथों से पत्नी ने मुख्यद्वार पर सांकल चढ़ा दी और फिर कुंडी में ताला लगा कर उस को 2-3 बार झटका दे कर अपनी ओर खींचा. जब ताला खुला नहीं तो उस ने संतुष्ट हो कर गहरी सांस ली कि चलो, अब मकान सुरक्षित है.
धीरेधीरे सारा परिवार न जाने रात के अंधेरे में कहां खो गया. ताला कोई भी तोड़ सकता था. अब वहां कौन किस को रोकने वाला था. ताला स्वयं में सुरक्षा की गारंटी नहीं होता. सुरक्षा करते हैं आसपास के लोग, जो स्वेच्छा से पड़ोसियों के जानमाल की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझते हैं. लेकिन यहां पर परिस्थितियों ने ऐसी करवट बदली थी कि पड़ोसियों पर भरोसा करना भी निरर्थक था. उन्हें अपनी जान के लाले पड़े हुए थे, दूसरों की रखवाली क्या करते. अगर वे किसी को ताला तोड़ते देख भी लेते तो उन की भलाई इसी में थी कि वे अपनी खिड़कियां बंद कर के चुपचाप अंदर बैठे रहते जैसे कुछ देखा ही न हो. फिर ऐसा खतरा उठाने से लाभ भी क्या था. तालाब में रह कर मगरमच्छ से बैर.
कई महीने ताला अपने स्थान पर यों ही लटकता रहा. समय बीतने के साथसाथ उस निर्वासित परिवार के वापस आने की आशा धूमिल पड़ती गई. मकान के पास से गुजरने वाला हर व्यक्ति लालची नजरों से ताले को देखता रहता और फिर अपने मन में सोचता कि काश, यह ताला स्वयं ही टूट कर गिर जाता और दोनों कपाट स्वयं ही खुल जाते.
फिर एक दिन धायं की आवाज के साथ लोहा लोहे से टकराया, महीनों से लटके ताले की अंतडि़यां बाहर आ गईं. किसी अज्ञात व्यक्ति ने अमावस के अंधेरे की आड़ ले कर ताला तोड़ दिया. सभी ने राहत की सांस ली. वे आश्वस्त थे कि कम से कम उन में से कोई इस अपराध में शामिल नहीं है.
ताला जिस आदमी ने तोड़ा था वह एक खूंखार आतंकवादी था, जो सुरक्षाकर्मियों से छिपताछिपाता इस घर में घुस गया था. खाली मकान ने रात भर उस को अपने आंचल में पनाह दी थी. अंदर आते ही अपने कंधे से एके-47 राइफल उतार कर कुरसी पर ऐसे फेंक दी जैसे वर्षों की बोझिल और घृणित जिंदगी का बोझ हलका कर रहा हो. उस के बाद उस ने अपने भारीभरकम शरीर को भी उसी घृणा से नरम बिस्तर पर गिरा दिया और कुछ ही मिनटों में अपनी सुधबुध खो बैठा.
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आधी रात को वह भूख और प्यास से तड़प कर उठ बैठा. सामने कुरसी पर रखी एके-47 न तो उस की भूख मिटा सकती थी और न ही प्यास. साहस बटोर कर उस ने सिगरेट सुलगाई और उसी धीमी रोशनी के सहारे किचन में जा कर पानी ढूंढ़ने लगा. जैसेतैसे उस ने मटके में से कई माह पहले भरा हुआ पानी निकाल कर गटागट पी लिया. फिर एक के बाद एक कई माचिस की तीलियां जला कर खाने का सामान ढूंढ़ने लगा. किचन पूरी तरह से खाली था. कहीं पर कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था.
‘‘कुछ भी नहीं छोड़ा है घर में. सब ले कर भाग गए हैं,’’ उस के मुंह से सहसा निकल पड़ा.
तभी उस की नजर एक छोटी सी अलमारी पर पड़ी जिस में कई चेहरों की बहुत सारी तसवीरें सजी हुई थीं. उन पर चढ़ी हुई फूलमालाएं सूख चुकी थीं. तसवीरों के सामने एक थाली थी जिस में 5 मोटे और मीठे रोट पड़े थे जो भूखे, खतरनाक आतंकवादी की भूख मिटाने के काम आए. पेट की भूख शांत कर वह निश्ंिचत हो कर सो गया.
सुबह होने से पहले उस ने मकान में रखे हुए ट्रंकों, संदूकों और अलमारियों की तलाशी ली. भारीभरकम सामान उठाना खतरे से खाली न था. वह तो केवल रुपए और गहनों की तलाश में था मगर उस के हाथ कुछ भी न लगा. निराश हो कर उस ने फिर घर वालों को एक मोटी सी गाली दी और अपने मिशन पर चल पड़ा.
दूसरे दिन सुरक्षाबलों को सूचना मिली कि एक खूंखार आतंकवादी ने इस मकान में पनाह ली है. उन का संदेह विश्वास में उस समय बदला जब उन्होंने कुंडे में टूटा हुआ ताला देखा. उन्होंने मकान को घेर लिया, गोलियां चलाईं, गोले बरसाए, आतंकवादियों को बारबार ललकारा और जब कोई जवाबी काररवाई नहीं हुई तो 4 सिपाही अपनी जान पर खेलते हुए अंदर घुस गए. बेबस मकान गोलीबारी से छलनी हो गया मगर बेजबानी के कारण कुछ भी बोल न पाया.
खैर, वहां तो कोई भी न था. सिपाहियों को आश्चर्य भी हुआ और बहुत क्रोध भी आया.
‘‘सर, यहां तो कोई भी नहीं,’’ एक जवान ने सूबेदार को रिपोर्ट दी.
‘‘कहीं छिप गया होगा. पूरा चेक करो. भागने न पाए,’’ सूबेदार कड़क कर बोला.
उन्होंने सारे मकान की तलाशी ली. सभी टं्रकों, संदूकों को उलटापलटा. उन में से साडि़यां ऐसे निकल रही थीं जैसे कटे हुए बकरे के पेट से अंतडि़यां निकल कर बाहर आ रही हों. कमरे में चारों ओर गरम कपड़े, स्वेटर, बच्चों की यूनिफार्म, बरतन और अन्य वस्तुएं जगहजगह बिखर गईं. जब कहीं कुछ न मिला तो क्रोध में आ कर उन्होंने फर्नीचर और टीन के टं्रकों पर ताबड़तोड़ डंडे बरसा कर अपने गुस्से को ठंडा किया और फिर निराश हो कर चले गए.
उस दिन के बाद मकान में घुसने के सारे रास्ते खुल गए. लोग एकदूसरे से नजरें बचा कर एक के बाद एक अंदर घुस जाते और माल लूट कर चले आते. पहली किस्त में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी, फिलिप्स का ट्रांजिस्टर, स्टील के बरतन और कपड़े निकाले गए. फिर फर्नीचर की बारी आई. सोफा, मेज, बेड, अलमारी और कुरसियां. यह लूट का क्रम तब तक चलता रहा जब तक कि सारा घर खाली न हो गया.
उस समय मकान की हालत ऐसी अबला नारी की सी लग रही थी जिस का कई गुंडों ने मिल कर बलात्कार किया हो और फिर खून से लथपथ उस की अधमरी देह को बीच सड़क पर छोड़ कर भाग गए हों.
मकान में अब कुछ भी न बचा था. फिर भी एक पड़ोसी की नजर देवदार की लकड़ी से बनी हुई खिड़कियों और दरवाजों पर पड़ी. रात को बापबेटे इन खिड़कियों और दरवाजों को उखाड़ने में ऐसे लग गए कि किसी को कानोंकान खबर न हुई. सूरज की किरणें निकलने से पहले ही उन्होंने मकान को आग के हवाले कर दिया ताकि लोगों को यह शक भी न हो कि मकान के दरवाजे और खिड़कियां पहले से ही निकाली जा चुकी हैं और शक की सुई सुरक्षाबलों की तरफ इशारा करे क्योंकि मकान की तलाशी उन्होंने ली थी.
आसपास रहने वालों को ज्यों ही पता चला कि मकान जल रहा है और आग की लपटें अनियंत्रित होती जा रही हैं, उन्हें अपनेअपने घरों की चिंता सताने लगी. वे जल्दीजल्दी पानी से भरी बाल्टियां लेले कर अपने घरों से बाहर निकल आए और आग पर पानी छिड़कने लगे. किसी ने फायर ब्रिगेड को भी सूचना दे दी. उन की घबराहट यह सोच कर बढ़ने लगी कि कहीं आग की ये लपटें उन के घरों को राख न कर दें.
मकान जो पहले से ही असहाय और बेबस था, मूक खड़ा घंटों आग के शोलों के साथ जूझता रहा. …शोले, धुआं, कोयला.
दिल फिर भी मानने को तैयार न था कि इस मलबे में अब कुछ भी शेष नहीं बचा है. ‘कुछ न कुछ, कहीं न कहीं जरूर होगा. आखिर इतने बड़े मकान में कहीं कोई चीज तो होगी जो किसी के काम आएगी,’ दिल गवाही देता.
एक अधेड़ उम्र की औरत ने मलबे में धंसी हुई टिन की जली हुई चादरों को देख लिया. उस ने अपने 2 जवान बेटों को आवाज दी. देखते ही देखते उन से सारी चादरें उठवा लीं और स्वयं सजदे में लीन हो गई. टीन की चादरें, गोशाला की मरम्मत के काम आ गईं. एक और पड़ोसी ने बचीखुची ईंटें और पत्थर उठवा कर अपने आंगन में छोटा सा शौचालय बनवा लिया. जो दीवारें आग और पानी के थपेड़ों के बावजूद अब तक खड़ी थीं, हथौड़ों की चोट न सह सकीं और आंख झपकते ही ढेर हो गईं.
कुछ दिन बाद एक गरीब विधवा वहां से गुजरी. उस की निगाहें मलबे के उस ढेर पर पड़ीं. यहांवहां अधजली लकडि़यां और कोयले दिखाई दे रहे थे. उसे बीते हुए वर्ष की सर्दी याद आ गई. सोचते ही सारे बदन में कंपकंपी सी महसूस हुई. उस ने आने वाले जाड़े के लिए अधजली लकडि़यां और कोयले बोरे में भर लिए और वापस अपने रास्ते पर चली गई.
मकान की जगह अब केवल राख का ढेर ही रह गया था. पासपड़ोस के बच्चों ने उसे खेल का मैदान बना लिया. हर रोज स्कूल से वापस आ कर बैट और विकेटें उठाए बच्चे चले आते और फिर क्रिकेट का मैच शुरू हो जाता.
हमेशा की तरह उस दिन भी 4 लड़के आए. एक लड़का विकेटें गाड़ने लगा. विकेट जमीन में घुस नहीं रहे थे. अंदर कोई चीज अटक रही थी. उस ने छेद को और चौड़ा किया. फिर अपना सिर झुका कर अंदर झांका. सूर्य की रोशनी में कोई चमकीली चीज नजर आ रही थी. वह बहुत खुश हुआ. इस बीच शेष तीनों लड़के भी उस के इर्दगिर्द एकत्रित हो गए. उन्होंने भी बारीबारी से छेद के अंदर देखने की कोशिश की और उस चमकती वस्तु को देखते ही उन की आंखों में चमक आ गई और मन में लालच ने पहली अंगड़ाई ली.
‘हो न हो सोने का कोई जेवर होगा.’ हरेक के मन में यही विचार आया लेकिन कोई भी इस बात को जबान पर लाना नहीं चाहता था.
ये भी पढ़ें- औरत एक पहेली: भाग-2
पहले लड़के ने विकेट की नोक से वस्तु के इर्दगिर्द खोदना शुरू कर दिया. दूसरा लड़का दौड़ कर अपने घर से लोहे की कुदालनुमा एक वस्तु ले कर आ गया और उस को पहले लड़के को सौंप दिया.
पहला लड़का अब कुदाल से लगातार खोदने लगा जबकि बाकी तीनों लड़के उत्सुकता और बेचैनी से मन ही मन यह दुआ मांगते रहे कि काश, कोई जेवर निकल आए और उन को खूब सारा पैसा मिल जाए.
खुदाई पूरी हो गई. इस से पहले कि पहला लड़का अपना हाथ सुराख में डालता और गुप्त खजाने को बाहर निकालता, दूसरे लड़के ने कश्मीरी भाषा में आवाज दी :
‘‘अड़स…अड़स…’’ अर्थात मैं भी बराबर का हिस्सेदार हूं.
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August 31, 2019 at 10:22AMधारावाहिक कहानी: इन्तकाम भाग-3
धारावाहिक कहानी: इन्तकाम भाग-1
धारावाहिक कहानी: इन्तकाम भाग-2
अब आगे पढ़ें-
संजीव के घर के दरवाजे पर पहुंच कर निकहत ने धड़कते दिल से कौलबेल पर उंगली रखी. थोड़ी देर में एक नौकर ने दरवाजा खोला.
‘जी… मेमसाहब…?’ उसने निकहत को प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा.
‘मुझे संजीव से मिलना है….’ निकहत ने जवाब दिया.
‘जी, वो तो अपनी नयी वाली कोठी में हैं…’ नौकर ने कहा.
‘नयी वाली कोठी में…?’ निकहत ने आश्चर्य से पूछा, ‘क्या तुम वहां का पता बता सकते हो…?’
‘जी हां… तिलक रोड पर तीसरे नम्बर की सफेद रंग की कोठी है…’ वह बोला.
‘ठीक है…’ संक्षिप्त सा उत्तर देकर वह पलट पड़ी.
टैक्सीवाले को उसने तिलक रोड चलने के लिए कहा. तिलक रोड पर स्थित तीसरे नम्बर की कोठी बहुत शानदार थी. गेट पर खड़े गार्ड ने जब निकहत को गेट की तरफ आते देखा तो सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया.
‘किससे मिलना है मेमसाहब…?’ उसने पूछा.
‘क्या संजीव यहीं रहते हैं…?’ निकहत ने हिचकिचाते हुए पूछा.
‘जी हां… संजीव साहब का ही बंगला है…’ उसने गर्दन अकड़ाकर जवाब दिया.
‘मुझे उनसे मिलना है…’ निकहत ने कहा.
‘आप अपना विजिटिंग कार्ड दे दीजिए… मैं अन्दर पहुंचाये देता हूं….’
‘नहीं, कार्ड तो नहीं है… तुम उनको बता दो कि निकहत मिलना चाहती है… वह समझ जाएंगे….’ निकहत ने गार्ड से कहा.
‘जी, आप यहीं ठहरें, मैं अन्दर पूछता हूं…’ कह कर गार्ड अन्दर की तरफ चला गया.
निकहत बेचैनी से गेट के पास ही इधर-उधर टहलने लगी. उसके ऊपर हर लम्हा जैसे भारी होता जा रहा था. आंखों में बार-बार आंसू उमड़ रहे थे. जो कुछ हो चुका था उस पर विश्वास कर पाना उसके लिए असम्भव हो रहा था.
‘काश कि यह मेरा संजीव न हो…’ वह अपने मन को फरेब देने लगी. चंद मिनटों बाद उसने दूर से गार्ड को अपनी तरफ आते देखा.
‘आइये, साहब ने ड्राइंगरूम में बैठने को बोला है…’ वह गेट खोलकर निकहत को साथ लिए अन्दर की ओर चल दिया.
निकहत बोझिल कदमों से अन्दर की ओर बढ़ रही थी. विशाल ड्रॉइंगरूम में प्रवेश करते हुए उसका दिल बुरी तरह धड़क रहा था. ड्रॉइंगरूम खाली था. कमरे का जायजा लेते हुए उसकी नजरें दीवार पर टंग गयीं, जहां संजीव और उसकी पत्नी की शादी की बड़ी सी तस्वीर एक सुन्दर से फ्रेम में जड़ी टंगी हुई थी. उसकी नजरें उस तस्वीर पर चिपक कर रह गयीं.
‘यस…?’ अचानक एक जानी-पहचानी आवाज ने उसे चौंका दिया. वह झटके से पलटी. सामने संजीव एक कीमती रेशमी गाउन पहने खड़ा था. संजीव… उसका अपना संजीव…
निकहत उसे एकटक देखती रह गयी. मुंह से कोई बोल नहीं फूटा. और दिल… उसने तो जैसे धड़कना ही बन्द कर दिया.
‘कहिए… मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं…?’ खामोशी तोड़ते हुए संजीव ने पूछा.
‘संजीव… मैं निकहत हूं…’ वह उसके अजनबीपन से घबरा उठी.
‘जानता हूं… कैसे आना हुआ…?’ संजीव ने मेज पर झुक कर हाथ में पकड़ी सिगरेट ऐश-ट्रे में बुझाते हुए पूछा. बेरुखी की स्पष्ट झलक उसके चेहरे पर प्रकट हो रही थी.
निकहत सकते की हालत में थी. उसको संजीव से ऐसे व्यवहार की कतई कोई उम्मीद नहीं थी.
‘संजीव… क्या तुमने… शादी…?’ उसने हकलाते हुए संजीव से पूछना चाहा.
‘देखो निकहत… अब तुम यहां तक आ पहुंची हो तो तुम्हें यह बात भी अच्छी तरह पता होगी…’ वह बड़ी ढिठाई से बोला.
‘तो क्या… जो कुछ तुमने मेरे साथ किया वह सिर्फ… सिर्फ एक खेल था…?’ निकहत की सांसें लौटने लगीं.
‘देखो निकहत… प्यार और शादी में बड़ा फर्क होता है… शादी के मामले में परिवार, बिरादरी और स्टेटस हर बात का ख्याल करना पड़ता है.’ वह समझाने के अंदाज में बोला.
‘तुमने प्यार करते वक्त इन बातों को क्यों नहीं सोचा था संजीव…? तुम मुझसे झूठ बोल कर गये… तुमने मुझे धोखे में रखा…?’ निकहत उखड़ने लगी.
‘देखो… अब जो हुआ उसे खत्म करो. हमारी तुम्हारी शादी किसी कीमत पर नहीं हो सकती थी निकहत. मैं अपने परिवार वालों की मर्जी के बाहर नहीं जा सकता था. शादी-ब्याह हमेशा बराबर वालों में ही होता है… रही बात प्यार की… तो मैं उसकी कीमत चुकाने को तैयार हूं… तुम्हें जितनी भी आर्थिक मदद की जरूरत हो, मुझसे कह सकती हो…’ संजीव सौदा करने लगा.
‘संजीव….?’ निकहत की चीख कमरे में गूंज गयी.
‘निकहत, चिल्लाने की जरूरत नहीं है. यदि मैंने कुछ समय के लिए तुम्हारे प्यार से अपना दिल बहलाया था, तो मैं उसकी पूरी कीमत चुकाने को तैयार हूं…’ संजीव सोफे पर फैल गया.
‘मुझे नहीं मालूम था संजीव कि दौलत का नशा आदमी को इतना नीचे गिरा सकता है…’ उसकी आंखें भर आयीं, ‘अगर प्यार तुम्हारे लिए सिर्फ दिल बहलाने की चीज है तो आज के बाद इस बात को मैं हमेशा याद रखूंगी…’ आंखों में भरे हुए मोती उसके गालों पर लुढक आये थे. ज्यादा कुछ कहने के लिए उसके पास शब्द न बचे. उसने तेजी से आंसू पोछे और दरवाजे की ओर बढ़ गयी. उसकी चाल में तेजी आ गयी थी. लगभग भागते हुए उसने संजीव की कोठी का गेज पार किया.
‘चलो बला टली…’ संजीव ने राहत की ठंडी सांस ली. उसे उम्मीद नहीं भी कि मामला इतनी आसानी से निपट जाएगा. निकहत की जगह कोई और लड़की होती तो शायद चीख-चीख कर आसमान सिर पर उठा लेती, पुलिस में जाने की धमकी देती, मगर ये तो… बस थोड़े से आंसू बहा कर ही चली गयी… ये तो अच्छा हुआ कि इस वक्त मोनिका घर पर नहीं थी, क्लब गयी हुई थी… वरना स्थिति संभालनी मुश्किल हो जाती… खैर, चलो खामोशी से मामला खत्म हो गया. संजीव को इस बात का जरा भी आभास नहीं था कि यह सन्नाटा उसकी जिन्दगी में आने वाले बड़े तूफान से पहले का सन्नाटा था. उसने जेब से नयी सिगरेट निकाल कर सुलगायी और आराम से सोफे पर पैर फैला लिये.
शाम घिरने लगी थी. मोनिका अभी तक घर नहीं लौटी थी. वैसे भी वह अक्सर रात देर से ही घर लौटती थी. कभी क्लब, कभी पार्टी, तो कभी किसी दोस्त के घर पर डिनर, उसके लिए रोजमर्रा की बात थी. अक्सर संजीव उसके साथ होता था, मगर पार्टी इत्यादि में जब वह संजीव को छोड़कर बेतकल्लुफी से अपने दोस्तों की बाहों में लिपटी डांस फ्लोर पर थिरक रही होती, तो संजीव को बड़ा बुरा लगता था. शुरू-शुरू में उसने दबी जुबान में उसे टोका भी, मगर मोनिका ने सबके सामने उस पर बैकवर्ड और स्टूपिड जैसे शब्द न्योछावर कर दिये, तो वह चुप लगा गया. इतनी कीमती बीवी को वह किसी कीमत पर नाराज नहीं कर सकता था. धीरे-धीरे वह क्लब और देर रात पार्टियों से कटने लगा था. कभी सिर दर्द, कभी थकान का बहाना करके वह घर पर ही रुक जाता था. आया तो वह भी एक मध्यमवर्गीय परिवार से था. ऊंची सोसायटी में रचने-बसने और उनके तौर-तरीके सीखने में वक्त तो लगेगा ही. ऐसा सोचकर मोनिका भी उस पर क्लब या पार्टी में चलने के लिए ज्यादा जोर नहीं देती थी. संजीव के बगैर वह भी पार्टी में खुल कर इन्जौय करती थी, वरना संजीव के साथ होने पर तो वह उसकी नजरों में खुद को बंधा-बंधा सा महसूस करती थी और संजीव भी पूरे वक्त बेचैन रहता था.
(धारावाहिक के अगले अंक में पढ़िये कि संजीव के धोखे और उसकी बातों से चोट खाकर कोठी से निकली निकहत ने अपने जीवन के लिए क्या फैसला लिया.)
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धारावाहिक कहानी: इन्तकाम भाग-1
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संजीव के घर के दरवाजे पर पहुंच कर निकहत ने धड़कते दिल से कौलबेल पर उंगली रखी. थोड़ी देर में एक नौकर ने दरवाजा खोला.
‘जी… मेमसाहब…?’ उसने निकहत को प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा.
‘मुझे संजीव से मिलना है….’ निकहत ने जवाब दिया.
‘जी, वो तो अपनी नयी वाली कोठी में हैं…’ नौकर ने कहा.
‘नयी वाली कोठी में…?’ निकहत ने आश्चर्य से पूछा, ‘क्या तुम वहां का पता बता सकते हो…?’
‘जी हां… तिलक रोड पर तीसरे नम्बर की सफेद रंग की कोठी है…’ वह बोला.
‘ठीक है…’ संक्षिप्त सा उत्तर देकर वह पलट पड़ी.
टैक्सीवाले को उसने तिलक रोड चलने के लिए कहा. तिलक रोड पर स्थित तीसरे नम्बर की कोठी बहुत शानदार थी. गेट पर खड़े गार्ड ने जब निकहत को गेट की तरफ आते देखा तो सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया.
‘किससे मिलना है मेमसाहब…?’ उसने पूछा.
‘क्या संजीव यहीं रहते हैं…?’ निकहत ने हिचकिचाते हुए पूछा.
‘जी हां… संजीव साहब का ही बंगला है…’ उसने गर्दन अकड़ाकर जवाब दिया.
‘मुझे उनसे मिलना है…’ निकहत ने कहा.
‘आप अपना विजिटिंग कार्ड दे दीजिए… मैं अन्दर पहुंचाये देता हूं….’
‘नहीं, कार्ड तो नहीं है… तुम उनको बता दो कि निकहत मिलना चाहती है… वह समझ जाएंगे….’ निकहत ने गार्ड से कहा.
‘जी, आप यहीं ठहरें, मैं अन्दर पूछता हूं…’ कह कर गार्ड अन्दर की तरफ चला गया.
निकहत बेचैनी से गेट के पास ही इधर-उधर टहलने लगी. उसके ऊपर हर लम्हा जैसे भारी होता जा रहा था. आंखों में बार-बार आंसू उमड़ रहे थे. जो कुछ हो चुका था उस पर विश्वास कर पाना उसके लिए असम्भव हो रहा था.
‘काश कि यह मेरा संजीव न हो…’ वह अपने मन को फरेब देने लगी. चंद मिनटों बाद उसने दूर से गार्ड को अपनी तरफ आते देखा.
‘आइये, साहब ने ड्राइंगरूम में बैठने को बोला है…’ वह गेट खोलकर निकहत को साथ लिए अन्दर की ओर चल दिया.
निकहत बोझिल कदमों से अन्दर की ओर बढ़ रही थी. विशाल ड्रॉइंगरूम में प्रवेश करते हुए उसका दिल बुरी तरह धड़क रहा था. ड्रॉइंगरूम खाली था. कमरे का जायजा लेते हुए उसकी नजरें दीवार पर टंग गयीं, जहां संजीव और उसकी पत्नी की शादी की बड़ी सी तस्वीर एक सुन्दर से फ्रेम में जड़ी टंगी हुई थी. उसकी नजरें उस तस्वीर पर चिपक कर रह गयीं.
‘यस…?’ अचानक एक जानी-पहचानी आवाज ने उसे चौंका दिया. वह झटके से पलटी. सामने संजीव एक कीमती रेशमी गाउन पहने खड़ा था. संजीव… उसका अपना संजीव…
निकहत उसे एकटक देखती रह गयी. मुंह से कोई बोल नहीं फूटा. और दिल… उसने तो जैसे धड़कना ही बन्द कर दिया.
‘कहिए… मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं…?’ खामोशी तोड़ते हुए संजीव ने पूछा.
‘संजीव… मैं निकहत हूं…’ वह उसके अजनबीपन से घबरा उठी.
‘जानता हूं… कैसे आना हुआ…?’ संजीव ने मेज पर झुक कर हाथ में पकड़ी सिगरेट ऐश-ट्रे में बुझाते हुए पूछा. बेरुखी की स्पष्ट झलक उसके चेहरे पर प्रकट हो रही थी.
निकहत सकते की हालत में थी. उसको संजीव से ऐसे व्यवहार की कतई कोई उम्मीद नहीं थी.
‘संजीव… क्या तुमने… शादी…?’ उसने हकलाते हुए संजीव से पूछना चाहा.
‘देखो निकहत… अब तुम यहां तक आ पहुंची हो तो तुम्हें यह बात भी अच्छी तरह पता होगी…’ वह बड़ी ढिठाई से बोला.
‘तो क्या… जो कुछ तुमने मेरे साथ किया वह सिर्फ… सिर्फ एक खेल था…?’ निकहत की सांसें लौटने लगीं.
‘देखो निकहत… प्यार और शादी में बड़ा फर्क होता है… शादी के मामले में परिवार, बिरादरी और स्टेटस हर बात का ख्याल करना पड़ता है.’ वह समझाने के अंदाज में बोला.
‘तुमने प्यार करते वक्त इन बातों को क्यों नहीं सोचा था संजीव…? तुम मुझसे झूठ बोल कर गये… तुमने मुझे धोखे में रखा…?’ निकहत उखड़ने लगी.
‘देखो… अब जो हुआ उसे खत्म करो. हमारी तुम्हारी शादी किसी कीमत पर नहीं हो सकती थी निकहत. मैं अपने परिवार वालों की मर्जी के बाहर नहीं जा सकता था. शादी-ब्याह हमेशा बराबर वालों में ही होता है… रही बात प्यार की… तो मैं उसकी कीमत चुकाने को तैयार हूं… तुम्हें जितनी भी आर्थिक मदद की जरूरत हो, मुझसे कह सकती हो…’ संजीव सौदा करने लगा.
‘संजीव….?’ निकहत की चीख कमरे में गूंज गयी.
‘निकहत, चिल्लाने की जरूरत नहीं है. यदि मैंने कुछ समय के लिए तुम्हारे प्यार से अपना दिल बहलाया था, तो मैं उसकी पूरी कीमत चुकाने को तैयार हूं…’ संजीव सोफे पर फैल गया.
‘मुझे नहीं मालूम था संजीव कि दौलत का नशा आदमी को इतना नीचे गिरा सकता है…’ उसकी आंखें भर आयीं, ‘अगर प्यार तुम्हारे लिए सिर्फ दिल बहलाने की चीज है तो आज के बाद इस बात को मैं हमेशा याद रखूंगी…’ आंखों में भरे हुए मोती उसके गालों पर लुढक आये थे. ज्यादा कुछ कहने के लिए उसके पास शब्द न बचे. उसने तेजी से आंसू पोछे और दरवाजे की ओर बढ़ गयी. उसकी चाल में तेजी आ गयी थी. लगभग भागते हुए उसने संजीव की कोठी का गेज पार किया.
‘चलो बला टली…’ संजीव ने राहत की ठंडी सांस ली. उसे उम्मीद नहीं भी कि मामला इतनी आसानी से निपट जाएगा. निकहत की जगह कोई और लड़की होती तो शायद चीख-चीख कर आसमान सिर पर उठा लेती, पुलिस में जाने की धमकी देती, मगर ये तो… बस थोड़े से आंसू बहा कर ही चली गयी… ये तो अच्छा हुआ कि इस वक्त मोनिका घर पर नहीं थी, क्लब गयी हुई थी… वरना स्थिति संभालनी मुश्किल हो जाती… खैर, चलो खामोशी से मामला खत्म हो गया. संजीव को इस बात का जरा भी आभास नहीं था कि यह सन्नाटा उसकी जिन्दगी में आने वाले बड़े तूफान से पहले का सन्नाटा था. उसने जेब से नयी सिगरेट निकाल कर सुलगायी और आराम से सोफे पर पैर फैला लिये.
शाम घिरने लगी थी. मोनिका अभी तक घर नहीं लौटी थी. वैसे भी वह अक्सर रात देर से ही घर लौटती थी. कभी क्लब, कभी पार्टी, तो कभी किसी दोस्त के घर पर डिनर, उसके लिए रोजमर्रा की बात थी. अक्सर संजीव उसके साथ होता था, मगर पार्टी इत्यादि में जब वह संजीव को छोड़कर बेतकल्लुफी से अपने दोस्तों की बाहों में लिपटी डांस फ्लोर पर थिरक रही होती, तो संजीव को बड़ा बुरा लगता था. शुरू-शुरू में उसने दबी जुबान में उसे टोका भी, मगर मोनिका ने सबके सामने उस पर बैकवर्ड और स्टूपिड जैसे शब्द न्योछावर कर दिये, तो वह चुप लगा गया. इतनी कीमती बीवी को वह किसी कीमत पर नाराज नहीं कर सकता था. धीरे-धीरे वह क्लब और देर रात पार्टियों से कटने लगा था. कभी सिर दर्द, कभी थकान का बहाना करके वह घर पर ही रुक जाता था. आया तो वह भी एक मध्यमवर्गीय परिवार से था. ऊंची सोसायटी में रचने-बसने और उनके तौर-तरीके सीखने में वक्त तो लगेगा ही. ऐसा सोचकर मोनिका भी उस पर क्लब या पार्टी में चलने के लिए ज्यादा जोर नहीं देती थी. संजीव के बगैर वह भी पार्टी में खुल कर इन्जौय करती थी, वरना संजीव के साथ होने पर तो वह उसकी नजरों में खुद को बंधा-बंधा सा महसूस करती थी और संजीव भी पूरे वक्त बेचैन रहता था.
(धारावाहिक के अगले अंक में पढ़िये कि संजीव के धोखे और उसकी बातों से चोट खाकर कोठी से निकली निकहत ने अपने जीवन के लिए क्या फैसला लिया.)
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August 31, 2019 at 10:19AMपृष्ठ - ViewJobDetails - NCS
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इस मेले में सरकारी के अलावा निजी क्षेत्रों में बेरोजगार उम्मीदवारों को नौकरी के अवसर प्रदान किए जाएंगे.
Bhoot wali kahani | एक परछाई नज़र आती है भूत कहानी
Bhoot wali kahani
Bhoot wali kahani : एक परछाई नज़र आती है भूत कहानी, जब से उसने मुझे भूत वाली कहानी सुनाई है तब से मुझे बहुत डर लग रहा है मेरा तो मन बाहर निकलने का बिल्कुल भी नहीं कर रहा है और रात भी बहुत हो चुकी है हमें अभी home से बाहर नहीं जाना चाहिए तुम उसकी bhoot wali kahani सुनकर बहुत ज्यादा डर गए हो इसलिए ऐसा कह रहे हो लेकिन हमें बाहर तो जाना ही होगा
Bhoot wali kahani : एक परछाई नज़र आती है भूत कहानी
क्योंकि अगर हम बाहर नहीं जाते हैं तो हमारा बहुत नुकसान हो सकता है यह बात तुम समझ सकते हो खेत में भी पानी देना है अगर हमने ऐसा नहीं किया तो फसल बहुत ज्यादा ही खराब हो जाएगी और हमें बहुत ज्यादा loss उठाना पड़ सकता है तुम्हें उसकी बात पर notice नहीं करना चाहिए वह तो bhoot wali kahani सुनाता ही रहता है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है अगर तुम bhoot की बातों पर विश्वास करते हो तो शायद ऐसा हो सकता है
लेकिन मुझे नहीं लगता है कि ऐसा कुछ भी होने वाला है मुझे तो उसकी bhoot wali kahani पर कोई believe नहीं होता है ऐसा लगता है कि वह तो ऐसे ही बातें कर रहा है और शायद यह इसलिए कह रहा है जिससे कि हम bhoot पर believe करना शुरू कर दें लेकिन मुझे नहीं लगता है हमें किसी भी बात पर believe नहीं करना चाहिए रात हो चुकी है वह डरने वाली बात नहीं है कोई भी bhoot हमारे पीछे नहीं आएगा हमें जल्दी ही farm पर पहुंच जाना चाहिए और अपना काम शुरू कर देना चाहिए वह दोनों ही अपने अपने farm की care करने के लिए home से निकल जाते हैं
लेकिन जब से उसने kahani सुनाई है तब से bhoot की बातों पर उसे धीरे-धीरे believe हो गया था इसलिए उसे आज बहुत ज्यादा डर लग रहा था जबकि इससे पहले वह इन बातों पर believe नहीं करता था वह दोनों अपने अपने farm पर पहुंच गए थे और खेत पर पानी देना शुरू कर दिया था क्योंकि अगर ऐसा नहीं करते हैं तो फसल खराब हो सकती है यह बात वह अच्छी तरह जानते थे उनमें से एक आदमी bhoot पर believe नहीं कर रहा था क्योंकि उसे लगता है कि कोई bhoot नहीं है यह तो सिर्फ एक kahani है जो उसने हमें सुनाई थी
इसलिए हमें इस भूत वाली kahani पर believe नहीं करना चाहिए लेकिन दूसरा व्यक्ति बहुत ज्यादा डरा हुआ था शायद वह इन बातों पर believe कर चुका था दूसरा आदमी अपने खेत पर काम कर रहा था तभी उसे एक shadow नजर आती है वह रात के अंधेरे में उसे देख नहीं पाता लेकिन सोचता है कि शायद वह कोई आदमी है जो वहां पर खड़ा हुआ लेकिन वह यहां पर खड़ा हुआ क्या कर रहा है इसको देखने के लिए वह आगे की ओर जाता है
जब उस पेड़ के पास खड़ी हुई shadow को देखता है तो उससे पूछता कि तुम कौन हो और यहां पर क्या कर रहे हो मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है क्या तुम मुझे जानते हो दूसरे आदमी की बात कही हुई पर कोई भी प्रतिक्रिया नहीं हो रही थी इसलिए वह उस पेड़ के पास जाता है लेकिन देखता है कि यहां तो कोई भी नहीं है कहीं यह कोई bhoot तो नहीं है उस आदमी ने जो मुझे एक bhoot wali kahani सुनाई थी क्या वह सच है उसे बहुत ज्यादा डर लग रहा था
क्योंकि शायद वह समझ रहा था कि वह bhoot है और जो suddenly यहां से गायब हो गया वह अपने दोस्त को आवाज लगाता है उसका दोस्त उसके पास आता है और कहता है कि तुम बहुत डरे हुए लग रहे हो ऐसा क्या हुआ जिसकी वजह से तुम बहुत ज्यादा डर गए हो दूसरा आदमी कहता है कि तुम मेरी बात पर believe नहीं करोगे मैंने जब से वह bhoot wali kahani सुनी है तब से मुझे ऐसा लगता है कि इस दुनिया में bhoot होते हैं क्योंकि कुछ देर पहले ही मैंने इस पेड़ के पास किसी shadow को देखा था
जब मैं उसके पास गया तो वह shadow यहां से गायब हो गई थी और मुझे कोई भी नजर नहीं आ रहा था उसका दोस्त कहता है कि ऐसा कुछ भी नहीं है जब से bhoot wali kahani सुनी है तब से तो बहुत ज्यादा डर गया है इसलिए तुम्हें हर जगह bhoot ही नजर आता है मुझे नहीं लगता है कि यहां पर कोई bhoot होगा वह अपने दोस्त की बात मान जाता है और अपने काम पर ध्यान देने लगता है कुछ देर बाद फिर से shadow उस पेड़ के पास आकर खड़ी हो जाती है और इस बार वह बहुत ज्यादा डर जाता है
वह अपने दोस्त को आवाज लगाता है और कहता है कि यहां पर फिर से वही shadow आ गई है मेरा दोस्त आता है और देखता है कि पेड़ के पास ही shadow खड़ी अब तो उसे भी यकीन हो जाता है कि यहां पर जरूर कोई भूत है और वह bhoot wali kahani भी सच्ची है वह दोनों ही उस shadow के पास जाते हैं लेकिन जैसे ही वह वहां पर पहुंचते हैं shadow फिर से गायब हो जाती है और किसी को कुछ भी नजर नहीं आता
Bhoot wali kahani
यह देखकर अपने घर की ओर भागते हुए जाते हैं जब दोनों घर पहुंच जाते हैं तो इस तरह की बातें करते हैं कि पहले तो मुझे भी यकीन नहीं हो रहा था कि bhoot wali kahani सुनकर हमें बहुत ज्यादा डर लगेगा लेकिन जब से वह kahani सुनी है मुझे तो ऐसा लग रहा है कि यहां पर bhoot आ गए हैं मैं अब से रात में वहां पर नहीं जाऊंगा मुझे तो इन bhuto की बातों पर believe हो गया है कुछ बातें life में ऐसी होते हैं जिन पर believe करना बहुत ही मुश्किल होता है लेकिन जब वह उस बात को सच्ची होते हुए देखते हैं तो उन्हें यकीन हो जाता है, Bhoot wali kahani, एक परछाई नज़र आती है भूत कहानी, आपको पसंद आयी है तो शेयर जरूर करे और अपनी राय भी हमे दे.
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Motivational thoughts for students in hindi and student thought in hindi
Motivational thoughts for students in hindi and student thought in hindi
स्टूडेंट्स (motivational thoughts for students in hindi) के जीवन में अगर कुछ है तो वह उसका समय है अगर वह अपना समय बहुत अच्छे प्रयोग कर सकता है तो उससे अच्छी बात नहीं हो सकती है मगर कभी कभी ऐसा भी होता है की students उसका सही use नहीं कर पाता है क्योकि वह इसका महत्व नहीं समझता है जब तक हम किसी चीज का सही Importance नहीं समझते है तब तक उसकी value हमे समझ नहीं आती है जब हम उसकी value समझते है तब तक समय निकल जाता है
Motivational thoughts for students in hindi
students की life ऐसी होनी चाहिए की वह उसका use सही तरीके से कर सके क्योकि students की लाइफ जब तक उसे समझाती है तब तक उसे समझना जरुरी होता है हम बहुत सी बाते समझ नहीं सकते है मगर उन बातो को समझना बहुत जरुरी होता है अगर आप नहीं समझते है तो आने वाले life में आपको कुछ नज़र नहीं आएगा students को यह समझना चाहिए जब तक वह students है तब तक उसे कुछ न कुछ सीखना होगा मगर सच यह भी है की students जीवन भर students ही रहता है
क्योकि हम life भर कुछ न कुछ सीखते रहते है यही कारन है की हम सभी students ही होते है अगर हम अपने आपको students ही माने तो बहुत अच्छा होगा क्योकि हम सभी students ही है हमे life कुछ न कुछ हर रोज सिखाती है और जो सीखता है वही students होता है students को अपने समय का प्रयोग बहुत ध्यान से करना होता है उसे समय का use अच्छे से आना चाहिए यह बात सभी जानते है की जो time का प्रयोग करता है वह आगे life में बहुत कुछ करता है समय का हमारे life में बहुत Importance है
जब students पहली बार अपनी study पर ध्याना देता है तो उसे यही लगता है की सब कुछ आसान है वह आसानी से सब कुछ कर सकता है मगर ऐसा नहीं है जब वह सभी को देखना शुरू करता है तो उसे पता चलता है की सब कुछ आसान नहीं है जब तक हम कोई work नहीं करते है तब तक उसका पता हमे नहीं चलता है मगर जब हम work को करते रहते है तो वह हमे आसान लगता है तब हम यह कह सकते है की आप उस काम को कर सकते है हमे चीजों को सीखना आना चाहिए यह बहुत जरुरी होता है
जब तक आपके मन में चीजों का सीखना नहीं आता है तब तक आप कुछ नहीं कर सकते है यह mind हमारे लिए बहुत जरुरी होता है जब हमारा mind किसी काम में नहीं चलता है तब तक हमारे लिए वह work जरुरी नहीं लगता है मगर ऐसा नहीं है हमे काम की जरूरत है इसलिए काम को करने के लिए उसके प्रति आपका mind होना चाहिए तभी आप उस work को कर सकते है students का life आसान नहीं होता है उसे बहुत सी problem का सामना करना होता है तभी वह life में आगे बढ़ता है
students को life में यही बात सोचनी चाहिए की जो वह आज कर रहा है उससे उसका आने वाला future बनेगा अगर वह यह बता सोच कर अपनी study पर ध्याना देता है तो वह जीवन में आगे तक जा सकता है हमारे जीवन में बहुत कुछ चलता रहता है यह life जितना हमे देखने में आसान लगता है वह उतना आसान नहीं है, students की life जैसा की हम जानते है आसान नहीं है क्योकि यह time वही होता है जिसमे उसे बहुत कुछ करना है
अगर वह समय का सही use करके अपनी लाइफ को अच्छा कर सकता है तो उसकी आने वाली life बहुत होगी, students की यह life बहुत पसंद आती है क्योकि उसे लगता है की अभी बहुत समय है वह बहुत कुछ कर सकता है मगर ऐसा नहीं है उसे अपनी इस लाइफ में बहुत कुछ एक साथ सीखना होता है उसे बहुत से काम इसी time पर करने होते है यह उसका life आगे उसे हमेशा Succeed की और ले जाता है अगर वह इस बात को समझता है तो वह life में आगे बढ़ जाता है
students को पता होना चाहिए की उसे अपना कीमती time किस चीज पर लगाना है क्योकि अगर वह अपना समय use करके देखना चाहता है तो उसे ऐसा नहीं करना चाहिए ऐसा करना उसे कुछ तो नया सीखा सकता है मगर उसका बीता समय वापिस नहीं आ सकता है यह बात सभी जानते है की जीवन में एक बार जो समय चला गया वह वापिस नहीं होता है अगर यह बात students अपने life में समझ गया तो उसे कुछ भी सीखने की जरूरत नहीं है
क्योकि हम अपनी life में एक छोटी सी बात नहीं समझ सकते है की बीता हुआ time वापिस नहीं आता है बहुत से लोगो के life में यही चलता रहता है की आज नहीं तो कल कर लेंगे और कल नहीं तो परसो हो जाएगा मगर वह इस बात को नहीं समझ रहा है की time निकल रहा है वह किसी के लिए नहीं रुक रहा है वह तो लगातार बढ़ रहा है उसे कोई नहीं रोक सकता है वह रुक भी नहीं सकता है कभी कभी आपने देखा होगा की पूरा साल बीत जाता है और आपको लगता है की मुझे तो पता ही नहीं चला की समय निकल गया है
Motivational thoughts for students in hindi
अगर आप अपनी students life को अच्छा करना चाहते है आप भी यही चाहते है की में अपनी life में अच्छे काम कर सकू तो आपको अपनी habit बदलनी होगी जब तक आप नहीं बदलते है तो कुछ भी नहीं बदलेगा आप को खुद बदलना होगा तभी तो आप बदल सकते है जब आप बदलते है तो सब कुछ change जाता है आप अपनी life को भी अच्छा कर पाते है, यह students का life बहुत अच्छा होता है क्योकि इसमें हम बहुत कुछ सीखते है और आपका जीवन इसी बात पर dependent करता है की आप यहां पर अपनी पहली नीव रखते है जिसके बाद आप उस पर अपने सपनो का महल बनाते है
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बच्चों की भावना: भाग-2
बच्चों की भावना: भाग-1
अब आगे पढ़ें-
आखिरी किस्त
अभी अकी को एक सप्ताह और स्कूल जाना था, ठंड इस साल कुछ अधिक थी. सुबह जबरदस्त कोहरा होने लगा. रोज सुबह अकी को इतनी जल्दी स्कूल के लिए तैयार होते देख कर नानी ने स्नेह से कहा, ‘‘बेटी, किसी पास के स्कूल में अकी को दाखिल करवा दे. इतना अधिक परिश्रम छोटे बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए घातक है.’’
‘‘मां, मैं स्कूल चेंज नहीं कराऊंगी. बहुत नामी और बढि़या स्कूल है.’’
इस का जवाब अनुभव ने दिया, ‘‘स्नेह, नानी ठीक कह रही हैं, मैं ने सोच लिया है कि इस साल रिजल्ट निकलने पर अकी का दाखिला किसी पास के स्कूल में करवा दूंगा,’’ और फिर उस ने पूरी बात स्नेह को विस्तारपूर्वक बताई कि कैसे फटकार लगा कर प्रिंसिपल ने उसे अपमानित किया. ऐसी बात सुन कर स्नेह उदास हो गई कि उस का अकी को एक नामी स्कूल में पढ़ाने का अरमान साकार नहीं हो पाएगा. लेकिन अनुभव के दृढ़ निश्चय और नानी के सहयोग के आगे स्नेह को झुकना पड़ा.
आकृति यह सुन कर बहुत खुश हुई कि अब उसे नए सत्र से पास के किसी स्कूल में जाना होगा. इतनी जल्दी भी नहीं उठना पड़ेगा. स्कूल बस में वह बहुत अधिक परेशान होती थी. बड़े बच्चे बस की सीटों पर छोटे बच्चों को बैठने नहीं देते थे. स्कूल टीचर भी उन्हें कुछ नहीं कहती थीं. उलटे सब से आगे की सीटों पर बैठ जाती थीं.
गरमियों में तो इतना ज्यादा पसीना आता, घबराहट होती कि तबीयत खराब हो जाती थी, लेकिन पापामम्मी तो इस बारे में सोचते ही नहीं. सर्दियों में कितनी ज्यादा ठंड होती है. स्कर्ट पहन कर जाना पड़ता है. ऊपर से कोट पहना देते हैं, लेकिन स्कर्ट पहनने से टांगों में बहुत ज्यादा ठंड लगती है. छोटे बच्चों की परेशानी कोई नहीं समझता.
ठंड बढ़ती जा रही थी. बच्चों की परेशानी को महसूस कर प्रशासन ने सरकारी स्कूलों की छुट्टी समय से पहले घोषित कर दी. अभिभावकों के दबाव में आ कर निजी स्कूलों में भी निर्धारित समय से पहले सर्दियों की छुट्टियां घोषित कर दीं. जिस दिन छुट्टियों की घोषणा की, आकृति अत्याधिक खुशी के साथ झूमती हुई, नाचती हुई स्कूल से वापस आई. जैसे नानी ने फ्लैट का दरवाजा खोला, आकृति नानी से लिपट गई.
‘‘नानी, मेरी प्यारी नानी, आज मैं आजाद पंछी हूं. हमारी कल से पूरे 20 दिन की छुट्टी. अब मैं रोज छोटे काका के संग खेलूंगी,’’ और अपना स्कूल बैग एक तरफ पटक दिया और आईने के सामने कमर मटकाते हुए गीत गाने लगी.
तभी स्नेह ने आवाज लगाई, ‘‘अकी, काका सो रहा है, शोर मत मचाओ.’’
‘‘गाना भी नहीं गाने देते,’’ कह कर अकी बाथरूम में मुंह धोने के लिए चली गई और गीत गाने लगी, ‘‘मैं ने जिसे अभी देखा है, उसे कह दूं, प्रीटी वूमन, देखो, देखो न प्रीटी वूमन, तुम भी कहो न प्रीटी वूमन.’’
अकी का गाना सुन कर स्नेह ने उस की नानी से कहा, ‘‘मम्मी, जा कर अकी को बाथरूम से निकालो, वरना वह 2 घंटे से पहले बाहर नहीं आएगी.’’
नानी ने अकी को बाथरूम में जा कर कहा, ‘‘प्रीटी वूमन, बहुत बनसंवर लिए. अब बाहर आ जाइए. छोटा काका आप को बुला रहा है.’’
‘‘सच्ची,’’ कह कर अकी ने फर्राटे की दौड़ लगाई, ‘‘यह क्या नानी, छोटा काका तो सो रहा है, आप ने मेरा मजाक उड़ा कर सारा मूड खराब कर दिया,’’ अकी ने मुंह बनाते हुए कहा.
‘‘मूड कैसे बनेगा, मेरी लाड़ो का,’’ नानी ने अकी को अपनी गोद में बिठाते हुए पूछा.
‘‘जब पापा गाना गाएंगे तब मैं पापा के साथ मिल कर गाऊंगी.’’
‘‘वह क्यों?’’
‘‘नानी, आप को नहीं पता, पापा को यह गाना बहुत अच्छा लगता है. मम्मी को देख कर गाते हैं.’’
‘‘अच्छा अकी, पापा का गाना तो बता दिया, मम्मी कौन सा गाना गाती हैं, पापा को देख कर?’’ इस से पहले अकी कुछ कहती, स्नेह तुनक कर बोली, ‘‘मां, तुम यह क्या बातें ले कर बैठ गईं.’’
यह सुनते ही अकी नानी के कान में धीरे से बोली, ‘‘नानी, मम्मी को थोड़ा समझाओ. हमेशा डांटती रहती हैं.’’
छुट्टियों में अकी को बेफिक्र देख कर नानी ने स्नेह से कहा कि बच्चों के कुदरती विकास के लिए जरूरी है कि उन्हें पूरा समय मिले, पढ़ने के साथ खेलने का मौका मिले. क्या तू भूल गई, किस तरह बचपन में तू पड़ोस की लड़कियों के साथ खेलती थी और पूरा महल्ला शोर से सिर पर उठाती थी. हम अपना बचपन भूल जाते हैं कि हम ने भी शैतानियां की थीं. बच्चों पर आदर्श थोपते हैं, जो एकदम अनुचित है.
‘‘मां, तुम भाषण पर आ गई हो,’’ स्नेह ने तुनक कर कहा.
‘‘तुम खुद देखो कि अकी आजकल कितनी खुश है, जितने दिन स्कूल गई, एकदम थकी सी रहती थी, अब एकदम चुस्त रहती है. इसलिए कहती हूं कि अनुभव की बात मान ले.’’
‘‘मम्मी, तुम और अनु एक जैसे हो, एकदूसरे की हां में हां मिलाते रहते हो. मेरी भावनाओं की तरफ सोचते भी नहीं हो. आखिर आप ने मुझे इतना क्यों पढ़ाया. एमबीए के बाद शादी कर दी. मेरा कैरियर भी नहीं बनने दिया. मुश्किल से 1 साल भी नौकरी नहीं की, शादी हो गई. शादी के बाद शहर बदल गया, फिर अकी के जन्म के कारण नौकरी नहीं की. अकी स्कूल जाने लगी, तब बड़ी मुश्किल से अनु को राजी किया. 3-4 साल ही नौकरी की, अब फिर छोटे काका के जन्म पर नौकरी छोड़नी पड़ रही है.’’
‘‘स्नेह, एक बात तुम समझ लो, परिवार के लालनपालन और बच्चों में अच्छी आदतों की नींव डालने के लिए मांबाप को अपनी कई इच्छाओं को मारना पड़ता है. परिवार को सही तरीके से पालना नौकरी करने से अधिक कठिन है. गृहस्थी की कठिन राह से परेशान लोग संन्यास लेते हैं, लेकिन दरदर भटकने पर भी न तो शांति मिलती है और न ही सुख. कठिन गृहस्थी में ही सच्चा सुख है.’’
स्नेह मां के आगे निरुत्तर हो गई और आकृति को घर के पास वाले स्कूल में दाखिल करने को राजी हो गई. सर्दियों की छुट्टियों में वर्माजी की लड़की भी अपने परिवार के साथ रहने आ गई. वर्माजी की नातिन वृंदा आकृति की हमउम्र थी. दोनों सारा दिन एकसाथ धमाचौकड़ी करती रहतीं और नानी, स्नेह, छोटा काका वर्मा परिवार के साथ सोसाइटी के लौन में धूप सेंकते. एक दिन धूप सेंकते वर्माजी ने अपनी लड़की को सलाह दी कि वह भी वृंदा को पास के स्कूल में दाखिल करवा दे. वे आकृति की नानी के गुण गाने लगे कि उन्होंने स्नेह को आकृति के स्कूल बदलने के लिए राजी कर लिया है.
स्नेह मुंह बना कर बोली, ‘‘क्या अंकल आप भी स्कूल पुराण ले कर बैठ गए. बड़ी मुश्किल से तो नानी की कथा बंद की है.’’
‘‘बेटे, इस का जिक्र बहुत जरूरी है. देखो, जब हम स्कूल में पढ़ते थे तब गरमियों और सर्दियों में स्कूल का अलग समय होता था. गरमी में सुबह 7 बजे और सर्दियों में 10 बजे स्कूल लगता था. गरमी में 12 बजे घर वापस आ जाते थे और सर्दी में धूप में बैठ कर पढ़ते थे.’’
‘‘अच्छा,’’ वृंदा ने हैरान हो कर पूछा, ‘‘आप कुरसीमेज क्लास से रोज बाहर लाते थे और फिर अंदर करते थे. अपने सर पर उठाते थे, क्या नानाजी?’’
‘‘नहीं बेटे, हमारे समय में तो मेजकुरसी नहीं होते थे. जमीन पर दरी बिछा कर बैठते थे. धूप निकलते ही मास्टरजी हुक्म देते थे और सारे बच्चे फटाफट दरियां उठा कर क्लासरूम के बाहर धूप में बैठ जाते थे. मजे की बात तो बरसात में होती थी. स्कूल की छत टपकती थी. जिस दिन बारिश होती थी, उस दिन छुट्टी हो जाती थी, मास्टरजी कहते थे, रेनी डे, बच्चो, आज की छुट्टी.’’
यह सुन कर वृंदा और आकृति जोरजोर से हंसने लगीं…रेनी डे, होलीडे, कहतेकहते और हंसतेहंसते दोनों लोटपोट हो गईं.
अब अनुभव कहने लगा, ‘‘वर्मा अंकल के बाद मेरी भी सुनो, मेरा स्कूल 2 शिफ्टों में लगता था. छठी क्लास तक दूसरी शिफ्ट में स्कूल लगता था. खाना खा कर 1 बजे स्कूल जाते थे. 6 बजे वापस आते थे, मजे से सुबह 7-8 बजे सो कर उठते थे, सुबह स्कूल जाने की कोई जल्दी नहीं होती थी.’’
आकृति और वृंदा को स्कूल की बातों में बहुत अधिक रस आ रहा था और वे हंसतेहंसते लोटपोट होती जा रही थीं.
अकी को छुट्टियों में इतना अधिक खुश देख कर स्नेह ने पास के स्कूल का महत्त्व समझा और फाइनल परीक्षा के बाद नए सत्र में घर के पास स्कूल में अकी का दाखिला करा दिया. घर से स्कूल का पैदल रास्ता सिर्फ 5 मिनट का था. 2 दिन में ही अकी इतनी अधिक खुश हुई और स्नेह से कहा, ‘‘मम्मी, यह स्कूल बहुत अच्छा है, मेरी 2 फ्रेंड्स साथ वाली सोसाइटी में रहती हैं. मम्मी, आप को मालूम है, वे साइकिल पर स्कूल आती हैं, मुझे भी साइकिल दिला दो, 2 मिनट में स्कूल पहुंच जाऊंगी.’’
अनुभव ने आकृति को साइकिल दिला दी. अब अकी को न तो टेंशन था सुबह जल्दी उठ कर स्कूल जाने की और न स्कूल बस मिस हो जाने का. सारा दिन वह खुश रहती था. होमवर्क करने के बाद काफी समय छोटे काका के साथ खेलती और बेफिक्र चहकती रहती.
6 महीने में एकदम लंबा कद पा गई आकृति को देख कर स्नेह खुशी से फूली नहीं समाती थी. जो अकी कल तक सारा दिन थकीथकी रहती थी, आज वह कहने लगी, ‘‘मम्मी, मुझे चाय बनाना सिखाओ, मैं आप को सुबह बेड टी पिलाया करूंगी.’’
सुन कर स्नेह को अपनी मां की कही बातें बारबार याद आतीं कि बच्चों के बहुमुखी विकास के लिए उन का बेफिक्र होना बहुत जरूरी है. उन पर उन की क्षमता से अधिक बोझ नहीं डालना चाहिए. बच्चों की खुशी में ही हमारी खुशी होती है.
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बच्चों की भावना: भाग-1
अब आगे पढ़ें-
आखिरी किस्त
अभी अकी को एक सप्ताह और स्कूल जाना था, ठंड इस साल कुछ अधिक थी. सुबह जबरदस्त कोहरा होने लगा. रोज सुबह अकी को इतनी जल्दी स्कूल के लिए तैयार होते देख कर नानी ने स्नेह से कहा, ‘‘बेटी, किसी पास के स्कूल में अकी को दाखिल करवा दे. इतना अधिक परिश्रम छोटे बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए घातक है.’’
‘‘मां, मैं स्कूल चेंज नहीं कराऊंगी. बहुत नामी और बढि़या स्कूल है.’’
इस का जवाब अनुभव ने दिया, ‘‘स्नेह, नानी ठीक कह रही हैं, मैं ने सोच लिया है कि इस साल रिजल्ट निकलने पर अकी का दाखिला किसी पास के स्कूल में करवा दूंगा,’’ और फिर उस ने पूरी बात स्नेह को विस्तारपूर्वक बताई कि कैसे फटकार लगा कर प्रिंसिपल ने उसे अपमानित किया. ऐसी बात सुन कर स्नेह उदास हो गई कि उस का अकी को एक नामी स्कूल में पढ़ाने का अरमान साकार नहीं हो पाएगा. लेकिन अनुभव के दृढ़ निश्चय और नानी के सहयोग के आगे स्नेह को झुकना पड़ा.
आकृति यह सुन कर बहुत खुश हुई कि अब उसे नए सत्र से पास के किसी स्कूल में जाना होगा. इतनी जल्दी भी नहीं उठना पड़ेगा. स्कूल बस में वह बहुत अधिक परेशान होती थी. बड़े बच्चे बस की सीटों पर छोटे बच्चों को बैठने नहीं देते थे. स्कूल टीचर भी उन्हें कुछ नहीं कहती थीं. उलटे सब से आगे की सीटों पर बैठ जाती थीं.
गरमियों में तो इतना ज्यादा पसीना आता, घबराहट होती कि तबीयत खराब हो जाती थी, लेकिन पापामम्मी तो इस बारे में सोचते ही नहीं. सर्दियों में कितनी ज्यादा ठंड होती है. स्कर्ट पहन कर जाना पड़ता है. ऊपर से कोट पहना देते हैं, लेकिन स्कर्ट पहनने से टांगों में बहुत ज्यादा ठंड लगती है. छोटे बच्चों की परेशानी कोई नहीं समझता.
ठंड बढ़ती जा रही थी. बच्चों की परेशानी को महसूस कर प्रशासन ने सरकारी स्कूलों की छुट्टी समय से पहले घोषित कर दी. अभिभावकों के दबाव में आ कर निजी स्कूलों में भी निर्धारित समय से पहले सर्दियों की छुट्टियां घोषित कर दीं. जिस दिन छुट्टियों की घोषणा की, आकृति अत्याधिक खुशी के साथ झूमती हुई, नाचती हुई स्कूल से वापस आई. जैसे नानी ने फ्लैट का दरवाजा खोला, आकृति नानी से लिपट गई.
‘‘नानी, मेरी प्यारी नानी, आज मैं आजाद पंछी हूं. हमारी कल से पूरे 20 दिन की छुट्टी. अब मैं रोज छोटे काका के संग खेलूंगी,’’ और अपना स्कूल बैग एक तरफ पटक दिया और आईने के सामने कमर मटकाते हुए गीत गाने लगी.
तभी स्नेह ने आवाज लगाई, ‘‘अकी, काका सो रहा है, शोर मत मचाओ.’’
‘‘गाना भी नहीं गाने देते,’’ कह कर अकी बाथरूम में मुंह धोने के लिए चली गई और गीत गाने लगी, ‘‘मैं ने जिसे अभी देखा है, उसे कह दूं, प्रीटी वूमन, देखो, देखो न प्रीटी वूमन, तुम भी कहो न प्रीटी वूमन.’’
अकी का गाना सुन कर स्नेह ने उस की नानी से कहा, ‘‘मम्मी, जा कर अकी को बाथरूम से निकालो, वरना वह 2 घंटे से पहले बाहर नहीं आएगी.’’
नानी ने अकी को बाथरूम में जा कर कहा, ‘‘प्रीटी वूमन, बहुत बनसंवर लिए. अब बाहर आ जाइए. छोटा काका आप को बुला रहा है.’’
‘‘सच्ची,’’ कह कर अकी ने फर्राटे की दौड़ लगाई, ‘‘यह क्या नानी, छोटा काका तो सो रहा है, आप ने मेरा मजाक उड़ा कर सारा मूड खराब कर दिया,’’ अकी ने मुंह बनाते हुए कहा.
‘‘मूड कैसे बनेगा, मेरी लाड़ो का,’’ नानी ने अकी को अपनी गोद में बिठाते हुए पूछा.
‘‘जब पापा गाना गाएंगे तब मैं पापा के साथ मिल कर गाऊंगी.’’
‘‘वह क्यों?’’
‘‘नानी, आप को नहीं पता, पापा को यह गाना बहुत अच्छा लगता है. मम्मी को देख कर गाते हैं.’’
‘‘अच्छा अकी, पापा का गाना तो बता दिया, मम्मी कौन सा गाना गाती हैं, पापा को देख कर?’’ इस से पहले अकी कुछ कहती, स्नेह तुनक कर बोली, ‘‘मां, तुम यह क्या बातें ले कर बैठ गईं.’’
यह सुनते ही अकी नानी के कान में धीरे से बोली, ‘‘नानी, मम्मी को थोड़ा समझाओ. हमेशा डांटती रहती हैं.’’
छुट्टियों में अकी को बेफिक्र देख कर नानी ने स्नेह से कहा कि बच्चों के कुदरती विकास के लिए जरूरी है कि उन्हें पूरा समय मिले, पढ़ने के साथ खेलने का मौका मिले. क्या तू भूल गई, किस तरह बचपन में तू पड़ोस की लड़कियों के साथ खेलती थी और पूरा महल्ला शोर से सिर पर उठाती थी. हम अपना बचपन भूल जाते हैं कि हम ने भी शैतानियां की थीं. बच्चों पर आदर्श थोपते हैं, जो एकदम अनुचित है.
‘‘मां, तुम भाषण पर आ गई हो,’’ स्नेह ने तुनक कर कहा.
‘‘तुम खुद देखो कि अकी आजकल कितनी खुश है, जितने दिन स्कूल गई, एकदम थकी सी रहती थी, अब एकदम चुस्त रहती है. इसलिए कहती हूं कि अनुभव की बात मान ले.’’
‘‘मम्मी, तुम और अनु एक जैसे हो, एकदूसरे की हां में हां मिलाते रहते हो. मेरी भावनाओं की तरफ सोचते भी नहीं हो. आखिर आप ने मुझे इतना क्यों पढ़ाया. एमबीए के बाद शादी कर दी. मेरा कैरियर भी नहीं बनने दिया. मुश्किल से 1 साल भी नौकरी नहीं की, शादी हो गई. शादी के बाद शहर बदल गया, फिर अकी के जन्म के कारण नौकरी नहीं की. अकी स्कूल जाने लगी, तब बड़ी मुश्किल से अनु को राजी किया. 3-4 साल ही नौकरी की, अब फिर छोटे काका के जन्म पर नौकरी छोड़नी पड़ रही है.’’
‘‘स्नेह, एक बात तुम समझ लो, परिवार के लालनपालन और बच्चों में अच्छी आदतों की नींव डालने के लिए मांबाप को अपनी कई इच्छाओं को मारना पड़ता है. परिवार को सही तरीके से पालना नौकरी करने से अधिक कठिन है. गृहस्थी की कठिन राह से परेशान लोग संन्यास लेते हैं, लेकिन दरदर भटकने पर भी न तो शांति मिलती है और न ही सुख. कठिन गृहस्थी में ही सच्चा सुख है.’’
स्नेह मां के आगे निरुत्तर हो गई और आकृति को घर के पास वाले स्कूल में दाखिल करने को राजी हो गई. सर्दियों की छुट्टियों में वर्माजी की लड़की भी अपने परिवार के साथ रहने आ गई. वर्माजी की नातिन वृंदा आकृति की हमउम्र थी. दोनों सारा दिन एकसाथ धमाचौकड़ी करती रहतीं और नानी, स्नेह, छोटा काका वर्मा परिवार के साथ सोसाइटी के लौन में धूप सेंकते. एक दिन धूप सेंकते वर्माजी ने अपनी लड़की को सलाह दी कि वह भी वृंदा को पास के स्कूल में दाखिल करवा दे. वे आकृति की नानी के गुण गाने लगे कि उन्होंने स्नेह को आकृति के स्कूल बदलने के लिए राजी कर लिया है.
स्नेह मुंह बना कर बोली, ‘‘क्या अंकल आप भी स्कूल पुराण ले कर बैठ गए. बड़ी मुश्किल से तो नानी की कथा बंद की है.’’
‘‘बेटे, इस का जिक्र बहुत जरूरी है. देखो, जब हम स्कूल में पढ़ते थे तब गरमियों और सर्दियों में स्कूल का अलग समय होता था. गरमी में सुबह 7 बजे और सर्दियों में 10 बजे स्कूल लगता था. गरमी में 12 बजे घर वापस आ जाते थे और सर्दी में धूप में बैठ कर पढ़ते थे.’’
‘‘अच्छा,’’ वृंदा ने हैरान हो कर पूछा, ‘‘आप कुरसीमेज क्लास से रोज बाहर लाते थे और फिर अंदर करते थे. अपने सर पर उठाते थे, क्या नानाजी?’’
‘‘नहीं बेटे, हमारे समय में तो मेजकुरसी नहीं होते थे. जमीन पर दरी बिछा कर बैठते थे. धूप निकलते ही मास्टरजी हुक्म देते थे और सारे बच्चे फटाफट दरियां उठा कर क्लासरूम के बाहर धूप में बैठ जाते थे. मजे की बात तो बरसात में होती थी. स्कूल की छत टपकती थी. जिस दिन बारिश होती थी, उस दिन छुट्टी हो जाती थी, मास्टरजी कहते थे, रेनी डे, बच्चो, आज की छुट्टी.’’
यह सुन कर वृंदा और आकृति जोरजोर से हंसने लगीं…रेनी डे, होलीडे, कहतेकहते और हंसतेहंसते दोनों लोटपोट हो गईं.
अब अनुभव कहने लगा, ‘‘वर्मा अंकल के बाद मेरी भी सुनो, मेरा स्कूल 2 शिफ्टों में लगता था. छठी क्लास तक दूसरी शिफ्ट में स्कूल लगता था. खाना खा कर 1 बजे स्कूल जाते थे. 6 बजे वापस आते थे, मजे से सुबह 7-8 बजे सो कर उठते थे, सुबह स्कूल जाने की कोई जल्दी नहीं होती थी.’’
आकृति और वृंदा को स्कूल की बातों में बहुत अधिक रस आ रहा था और वे हंसतेहंसते लोटपोट होती जा रही थीं.
अकी को छुट्टियों में इतना अधिक खुश देख कर स्नेह ने पास के स्कूल का महत्त्व समझा और फाइनल परीक्षा के बाद नए सत्र में घर के पास स्कूल में अकी का दाखिला करा दिया. घर से स्कूल का पैदल रास्ता सिर्फ 5 मिनट का था. 2 दिन में ही अकी इतनी अधिक खुश हुई और स्नेह से कहा, ‘‘मम्मी, यह स्कूल बहुत अच्छा है, मेरी 2 फ्रेंड्स साथ वाली सोसाइटी में रहती हैं. मम्मी, आप को मालूम है, वे साइकिल पर स्कूल आती हैं, मुझे भी साइकिल दिला दो, 2 मिनट में स्कूल पहुंच जाऊंगी.’’
अनुभव ने आकृति को साइकिल दिला दी. अब अकी को न तो टेंशन था सुबह जल्दी उठ कर स्कूल जाने की और न स्कूल बस मिस हो जाने का. सारा दिन वह खुश रहती था. होमवर्क करने के बाद काफी समय छोटे काका के साथ खेलती और बेफिक्र चहकती रहती.
6 महीने में एकदम लंबा कद पा गई आकृति को देख कर स्नेह खुशी से फूली नहीं समाती थी. जो अकी कल तक सारा दिन थकीथकी रहती थी, आज वह कहने लगी, ‘‘मम्मी, मुझे चाय बनाना सिखाओ, मैं आप को सुबह बेड टी पिलाया करूंगी.’’
सुन कर स्नेह को अपनी मां की कही बातें बारबार याद आतीं कि बच्चों के बहुमुखी विकास के लिए उन का बेफिक्र होना बहुत जरूरी है. उन पर उन की क्षमता से अधिक बोझ नहीं डालना चाहिए. बच्चों की खुशी में ही हमारी खुशी होती है.
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August 30, 2019 at 08:47AM