Monday 28 February 2022

मन आंगन की चंपा: सुभद्रा स्वयं को असहाय क्यों मानती रही

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March 01, 2022 at 09:00AM

मन आंगन की चंपा- भाग 2: सुभद्रा स्वयं को असहाय क्यों मानती रही

Writer- यदु जोशी गढ़देशी

उस ने उम्मीद से ही मेरे पास भेजा है. न दूं तो अपनी ही नजर में गिर जाऊंगी. सुभद्रा थोड़ी पढ़ीलिखी थी. उस ने 2 लाख रुपए के चेक पर हस्ताक्षर कर के निर्मल को पकड़ा दिया. शाम तक वह खुशीखुशी लौट गया.

सबकुछ ठीक चल ही रहा था कि एक वह दिन गुसलखाने से बाहर निकलते समय फिसल गई. जांघ की हड्डी फ्रैक्चर हो गई. गनीमत थी कि गिरने की आवाज निचली मंजिल में किराएदार को सुनाई दे गई. इतवार था, किराएदार की छुट्टी थी. वह तेजी से ऊपरी मंज़िल में गया. दरवाजे खुले थे. उस ने आसपास के लोगों की मदद से सुभद्रा को अस्पताल पहुंचाया. कई दिन अस्पताल में गुजारने के बाद वह लौटी. घर में कैद हो गई थी वह. दर्द इस कदर कि उस का बाहर निकलना तो दूर, वौकर के सहारे घर के भीतर ही चल पाना कठिन होता. अनीता को भी अपना हाल बताया लेकिन कोई नहीं आया. एकदो दिन फोन पर हालचाल पूछे थे, बस.

एक दिन लीला आई दोपहर का खाना लिए. सुभद्रा बिस्तर से उठना चाहती थी लेकिन उस से उठा नहीं गया.

“लेटी रहो, ज्यादा हिलोडुलो मत. खाना ले कर आई हूं” लीला बोली.

“क्यों कष्ट किया. पड़ोसी दे जाते हैं, बहुत ध्यान रखते हैं मेरा.”

“याद है, आज तेरा जन्मदिन है. मीठा भी है, तुझे गुलाबजामुन पसंद हैं न?”

“तुझे कैसे पता?” वह आश्चर्यचकित हो कर बोली.

“तूने ही तो बताया था कि मैं वसंतपंचमी के दिन हुई थी.”

सुभद्रा हंसने लगी, “जन्मदिन किसे याद है और क्या करना है याद कर के.”

“क्यों? अपने लिए कुछ नहीं? लेकिन उस दिन मांबाप के लिए कितना बड़ा दिन रहा होगा!”

“हम्म…” और वह खयालों की दुनिया में चली गई.

लीला कुछ सोचते हुए बोल पड़ी, “सुभद्रा, तेरी ननद नहीं आई तुझे देखने?”

उस ने निराशा से गरदन हिलाई, “फोन किया था उसे. कम से कम अपने पति को ही भेज देती तो थोड़ी मदद मिलती. खैर, जो बीत गया सो बीत गया. इसी बहाने अपनेपराए का भेद मिल गया,” सुभद्रा ने दुखी हो कर लंबी सांस छोड़ी और चुप हो गई.

“छोड़ इन सब बातों को, चल, पहले तुझे खिला देती हूं.”

सुभद्रा तो भीतर ही भीतर विषाद से भर चुकी थी. लीला ने जो कहा, उस के कानों के पास से निकल गया.

“क्यों नहीं किसी जरूरतमंद लड़की को रख लेती अपने पास. उस का भी भला होता और तुझे भी दो रोटियां मिल जातीं. कौन जाने कब किसी तरह की जरूरत आन पड़े.”

ये भी पढ़ें- चार आंखों का खेल: क्या संध्या उस खेल से बच पाई?

“हां, बहुत बार सोचा इस बारे में,” वह भोजन शुरू करते हुए वह बोली, “एक लड़की है मेरे गांव में.”

“तो बुला क्यों नहीं लेती उसे?”

“ठीक ही कह रही है तू.”

“सोच मत, बुला ले जल्दी. कितनी उम्र की होगी?”

“होगी कोई 30-32 की, शादीशुदा. लड़की बहुत भोली व संस्कारी है. एक बेटा भी है 8 साल का. बेचारी का समय देखो, इतने पर भी उस का पति उसे छोड़ कर किसी दूसरी के साथ भाग गया.”

“ओह, बहुत बुरा हुआ उस के साथ. तू कहे तो मैं किसी को गांव भेज दूं?”

“ना रे, वही आ जाती है घर पर. जब से मेरा यह हाल हुआ है, कई बार आ चुकी है. कभी दूध तो कभी सब्जी दे जाती है. खाना भी पका कर खिला जाती है. गरीब है, लेकिन दिल की बहुत अमीर है.”

“तभी तो कहा है कि जिस की नाक है, उस के पास नथ नहीं है और जिस के पास नहीं है उस के पास नथ है.”

तभी एक सांवली सी युवती बच्चे के साथ दरवाजे के पास आ कर खड़ी हो गई.

“देख, जिसे सच्चे दिल से याद करो, वह मिल जाता है. यही है वह जिस की मैं बात कर रही थी. चंपा नाम है इस का,” फिर उस की तरफ देख कर सुभद्रा बोली, “आ बेटी, भीतर आ, बाहर क्यों खड़ी है?”

“बूआ, आज गाय ने दूध तो नहीं दिया लेकिन बथुआ का साग बना कर लाई हूं.”

“कोई बात नहीं. अभी मैं खा कर ही बैठी हूं.”

“शाम के लिए रोटी बना कर रख देती हूं,” अंदर आ कर चंपा ने कहा और फिर बेटे के सिर पर हाथ रख कर बोली, “चंदू, तू बाहर जा कर खेल.”

“अरे रहने दे उसे. इधर आ, तुझ से काम की बात करनी है.”

सुभद्रा ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया और अपनी इच्छा उसे कह दी. फिर आशा से उस की ओर देख कर बोली, “अब बता, क्या कहती है?”

“आप मेरी बूआ जैसी है और मां जैसी भी. गांव में मेरा कौन है. चंदू के सहारे दिन काट रही हूं.”

“स्कूल में भरती करवा देंगे यहां, खुश रहेगा वह. उस की चिंता मत कर.”

“आप हैं तो मुझे किस बात की चिंता, बूआ.”

थोड़ी देर बाद लीला उठी, “अब मैं चलती हूं, फिर आऊंगी. तू इस से बातें कर. बहुत समझदार और प्यारी लड़की है.”

चंपा की गांव में इकलौती गाय थी, दूध कम ही देती थी. खेती के नाम पर एक छोटा टुकड़ा सब्जी उगाने के लिए, बस. और कुछ नहीं. रोजीरोटी के लिए दूसरों के खेतों में काम मिल जाता था उसे, यही आय का मुख्य साधन भी था. पेट भरने में उसे स्वर्गनर्क याद आ जाते. जवान थी, इसलिए थक कर भी चेहरे पर शिकन नहीं आती. आज उस की खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी. कसबे में रहेगी तो चंदू की पढ़ाई भी हो जाएगी और पेट भी भरेगा. उस ने हां करने में देरी न की.

एक दिन वह जरूरत का सामान लिए बेटे सहित सुभद्रा के पास आ गई. एक बड़ा सा कमरा उसे मिल गया. गांव के मकान में ताला लटका सो लटका, उधर गाय भी विदा कर आई.

ये भी पढ़ें- अपने पैर कुल्हाड़ी- भाग 1: मोहिनी अपने पति से क्यों नाराज थी

कसबा में आ कर उस ने अपनी दिनचर्या बदल दी. सुभद्रा के कपड़े धोना. नहाने की व्यवस्था, बिस्तर लगाना, खानापीना, समय पर दवाई देना और रोज शरीर में तेलमालिश करना. यह काम गांव के जीवन से कहीं आसान था उस के लिए.

यहां असुरक्षा का भाव भी नहीं सालता था उसे. सुभद्रा उस के हाथ में जरूरत पड़ने पर पैसे धर देती. चंपा हिचकती तो कहती, “बेटी, जितना तू कर रही है उतना शायद सगी बेटी भी न करे. किस के लिए रखूं यह सब. बाजार जा कपड़े खरीद ले अपने और चंदू के लिए.”

उस का बेटा कसबे के स्कूल में जाने लगा था. वह यहां आ कर बहुत खुश था. हमउम्र बच्चों के साथ उस का मन रम गया. अब चंपा को उस की फीस व किताबों की चिंता नहीं थी. सुभद्रा छोटीबड़ी सभी बातों का ध्यान रखती. चंपा भी गांव से बेहत्तर जिंदगी जी रही थी यहां.

यही स्थिति सुभद्रा की भी थी. घर में रौनक आ गई. घीरेधीरे चंपा की सेवासुश्रुषा ने उसे उठनेबैठने लायक बना दिया. फिर तो सुभद्रा ने छोटेमोटे काम अपने हाथों  में ले लिए.

कुछ साल हंसीखुशी बीत गए. सुभद्रा को अब जीवन जीने का आधार मिल गया. सुभद्रा लाठी के सहारे फिर से दुकान में जाने लगी. कभी ग्राहक कम होते तो जल्दी ही घर आ जाती. खानेपीने की उसे फिक्र नहीं थी, चंपा चुटकियों में खाना बना कर परोस देती.

सुभद्रा को घर भरापूरा लगने लगा और चंपा को लगता कि वह अपने मायके में आ गई है. बेटे की शिक्षा और जीवनयापन दोनों भलीभांति चल निकले.

समय एक समान कभी नहीं रहता. उस में भी समुद्र की तरह उतारचढ़ाव आते रहते हैं. सुखदुख दोनों अलगअलग हैं.

कभी एक अपने पैर जमा देता है तो कभी दूसरा.

सुभद्रा 70 साल पार कर गई. पहले से भी अशक्त होती जा रही थी, सो, दुकान की तरफ जाना बंद हो गया. इस बीच कुछ हमउम्र सहेलियां भी दुनिया छोड़ गईं. इस से वह बहुत आहत हुई.

सुभद्रा बिस्तर पर बैठेबैठे किताबों के पन्ने पलटती, चंदू के साथ मन लगाती और कभी अपनी सहेलियों से फोन पर बातें कर समय बिताती. कभी मन किया तो स्वभाववश अनीता को भी फोन लगा कर उस की कुशलता पूछ लेती.

उस साल सर्दी का प्रकोप बढ़ गया था. रहरह कर बादल छा जाते थे. कभी बादल मूसलाधार बरस भी जाते. दिसंबर आतेआते सामने की पहाड़ियों पर बर्फ की सफेद चादर चढ़ने लगी थी. इस साल तकरीबन 7-8 वर्षों बाद ऐसी बर्फ़ देखने को मिली. रजाई से बाहर हाथपैर निकालते ही पैर सुन्न पड़ जाते. ऐसी कड़ाकेदार सर्दी में जरा सी लापरवाही बुजुर्गों के लिए बेहद कष्टकारी होटी है. सांस की तकलीफ बढ़ जाती, कफ़ से छातियां जकड़ जाती हैं.

सुभद्रा को भी कफ की शिकायत होने लगी थी. खांसी भी उठती. छाती में दर्द भी महसूस होता. महल्ले में कल ही स्वास के रोगी एक वृद्ध चल बसे थे. सुभद्रा को पता चला तो वह भी अंदर से डर गई.

चंपा भांप गई. वह दैनिक कार्यों से निबट कर सुभद्रा को अधिक समय देने लगी. “बूआ, इतना क्यों सोच रही हो. खानेपीने और दवाई में लापरवाही से ही खतरा बढ़ता है, आप तो ऐसा नहीं करतीं.”

“वह तो ठीक है पर मेरी 3 सहेलियां भी तो चली गईं इस साल,” सुभद्रा चिंतित स्वर में बोली.

“अरे बूआ, तुम भी न, सब का अपनाअपना समय होता है. आप के साथ मैं हूं न, कुछ नहीं होने दूंगी,” सुभद्रा की हथेलियों को सहलाते हुए चंपा ने कहा, “आप पीठ से तकिया लगा लो, मैं खाना परोसती हूं.”

“पहले  बच्चे को जिमा. अपने साथ उस पर भी ध्यान दिया कर.”

“चिंता न करो बूआ, साथसाथ परोसती हूं.”

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Writer- यदु जोशी गढ़देशी

उस ने उम्मीद से ही मेरे पास भेजा है. न दूं तो अपनी ही नजर में गिर जाऊंगी. सुभद्रा थोड़ी पढ़ीलिखी थी. उस ने 2 लाख रुपए के चेक पर हस्ताक्षर कर के निर्मल को पकड़ा दिया. शाम तक वह खुशीखुशी लौट गया.

सबकुछ ठीक चल ही रहा था कि एक वह दिन गुसलखाने से बाहर निकलते समय फिसल गई. जांघ की हड्डी फ्रैक्चर हो गई. गनीमत थी कि गिरने की आवाज निचली मंजिल में किराएदार को सुनाई दे गई. इतवार था, किराएदार की छुट्टी थी. वह तेजी से ऊपरी मंज़िल में गया. दरवाजे खुले थे. उस ने आसपास के लोगों की मदद से सुभद्रा को अस्पताल पहुंचाया. कई दिन अस्पताल में गुजारने के बाद वह लौटी. घर में कैद हो गई थी वह. दर्द इस कदर कि उस का बाहर निकलना तो दूर, वौकर के सहारे घर के भीतर ही चल पाना कठिन होता. अनीता को भी अपना हाल बताया लेकिन कोई नहीं आया. एकदो दिन फोन पर हालचाल पूछे थे, बस.

एक दिन लीला आई दोपहर का खाना लिए. सुभद्रा बिस्तर से उठना चाहती थी लेकिन उस से उठा नहीं गया.

“लेटी रहो, ज्यादा हिलोडुलो मत. खाना ले कर आई हूं” लीला बोली.

“क्यों कष्ट किया. पड़ोसी दे जाते हैं, बहुत ध्यान रखते हैं मेरा.”

“याद है, आज तेरा जन्मदिन है. मीठा भी है, तुझे गुलाबजामुन पसंद हैं न?”

“तुझे कैसे पता?” वह आश्चर्यचकित हो कर बोली.

“तूने ही तो बताया था कि मैं वसंतपंचमी के दिन हुई थी.”

सुभद्रा हंसने लगी, “जन्मदिन किसे याद है और क्या करना है याद कर के.”

“क्यों? अपने लिए कुछ नहीं? लेकिन उस दिन मांबाप के लिए कितना बड़ा दिन रहा होगा!”

“हम्म…” और वह खयालों की दुनिया में चली गई.

लीला कुछ सोचते हुए बोल पड़ी, “सुभद्रा, तेरी ननद नहीं आई तुझे देखने?”

उस ने निराशा से गरदन हिलाई, “फोन किया था उसे. कम से कम अपने पति को ही भेज देती तो थोड़ी मदद मिलती. खैर, जो बीत गया सो बीत गया. इसी बहाने अपनेपराए का भेद मिल गया,” सुभद्रा ने दुखी हो कर लंबी सांस छोड़ी और चुप हो गई.

“छोड़ इन सब बातों को, चल, पहले तुझे खिला देती हूं.”

सुभद्रा तो भीतर ही भीतर विषाद से भर चुकी थी. लीला ने जो कहा, उस के कानों के पास से निकल गया.

“क्यों नहीं किसी जरूरतमंद लड़की को रख लेती अपने पास. उस का भी भला होता और तुझे भी दो रोटियां मिल जातीं. कौन जाने कब किसी तरह की जरूरत आन पड़े.”

ये भी पढ़ें- चार आंखों का खेल: क्या संध्या उस खेल से बच पाई?

“हां, बहुत बार सोचा इस बारे में,” वह भोजन शुरू करते हुए वह बोली, “एक लड़की है मेरे गांव में.”

“तो बुला क्यों नहीं लेती उसे?”

“ठीक ही कह रही है तू.”

“सोच मत, बुला ले जल्दी. कितनी उम्र की होगी?”

“होगी कोई 30-32 की, शादीशुदा. लड़की बहुत भोली व संस्कारी है. एक बेटा भी है 8 साल का. बेचारी का समय देखो, इतने पर भी उस का पति उसे छोड़ कर किसी दूसरी के साथ भाग गया.”

“ओह, बहुत बुरा हुआ उस के साथ. तू कहे तो मैं किसी को गांव भेज दूं?”

“ना रे, वही आ जाती है घर पर. जब से मेरा यह हाल हुआ है, कई बार आ चुकी है. कभी दूध तो कभी सब्जी दे जाती है. खाना भी पका कर खिला जाती है. गरीब है, लेकिन दिल की बहुत अमीर है.”

“तभी तो कहा है कि जिस की नाक है, उस के पास नथ नहीं है और जिस के पास नहीं है उस के पास नथ है.”

तभी एक सांवली सी युवती बच्चे के साथ दरवाजे के पास आ कर खड़ी हो गई.

“देख, जिसे सच्चे दिल से याद करो, वह मिल जाता है. यही है वह जिस की मैं बात कर रही थी. चंपा नाम है इस का,” फिर उस की तरफ देख कर सुभद्रा बोली, “आ बेटी, भीतर आ, बाहर क्यों खड़ी है?”

“बूआ, आज गाय ने दूध तो नहीं दिया लेकिन बथुआ का साग बना कर लाई हूं.”

“कोई बात नहीं. अभी मैं खा कर ही बैठी हूं.”

“शाम के लिए रोटी बना कर रख देती हूं,” अंदर आ कर चंपा ने कहा और फिर बेटे के सिर पर हाथ रख कर बोली, “चंदू, तू बाहर जा कर खेल.”

“अरे रहने दे उसे. इधर आ, तुझ से काम की बात करनी है.”

सुभद्रा ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया और अपनी इच्छा उसे कह दी. फिर आशा से उस की ओर देख कर बोली, “अब बता, क्या कहती है?”

“आप मेरी बूआ जैसी है और मां जैसी भी. गांव में मेरा कौन है. चंदू के सहारे दिन काट रही हूं.”

“स्कूल में भरती करवा देंगे यहां, खुश रहेगा वह. उस की चिंता मत कर.”

“आप हैं तो मुझे किस बात की चिंता, बूआ.”

थोड़ी देर बाद लीला उठी, “अब मैं चलती हूं, फिर आऊंगी. तू इस से बातें कर. बहुत समझदार और प्यारी लड़की है.”

चंपा की गांव में इकलौती गाय थी, दूध कम ही देती थी. खेती के नाम पर एक छोटा टुकड़ा सब्जी उगाने के लिए, बस. और कुछ नहीं. रोजीरोटी के लिए दूसरों के खेतों में काम मिल जाता था उसे, यही आय का मुख्य साधन भी था. पेट भरने में उसे स्वर्गनर्क याद आ जाते. जवान थी, इसलिए थक कर भी चेहरे पर शिकन नहीं आती. आज उस की खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी. कसबे में रहेगी तो चंदू की पढ़ाई भी हो जाएगी और पेट भी भरेगा. उस ने हां करने में देरी न की.

एक दिन वह जरूरत का सामान लिए बेटे सहित सुभद्रा के पास आ गई. एक बड़ा सा कमरा उसे मिल गया. गांव के मकान में ताला लटका सो लटका, उधर गाय भी विदा कर आई.

ये भी पढ़ें- अपने पैर कुल्हाड़ी- भाग 1: मोहिनी अपने पति से क्यों नाराज थी

कसबा में आ कर उस ने अपनी दिनचर्या बदल दी. सुभद्रा के कपड़े धोना. नहाने की व्यवस्था, बिस्तर लगाना, खानापीना, समय पर दवाई देना और रोज शरीर में तेलमालिश करना. यह काम गांव के जीवन से कहीं आसान था उस के लिए.

यहां असुरक्षा का भाव भी नहीं सालता था उसे. सुभद्रा उस के हाथ में जरूरत पड़ने पर पैसे धर देती. चंपा हिचकती तो कहती, “बेटी, जितना तू कर रही है उतना शायद सगी बेटी भी न करे. किस के लिए रखूं यह सब. बाजार जा कपड़े खरीद ले अपने और चंदू के लिए.”

उस का बेटा कसबे के स्कूल में जाने लगा था. वह यहां आ कर बहुत खुश था. हमउम्र बच्चों के साथ उस का मन रम गया. अब चंपा को उस की फीस व किताबों की चिंता नहीं थी. सुभद्रा छोटीबड़ी सभी बातों का ध्यान रखती. चंपा भी गांव से बेहत्तर जिंदगी जी रही थी यहां.

यही स्थिति सुभद्रा की भी थी. घर में रौनक आ गई. घीरेधीरे चंपा की सेवासुश्रुषा ने उसे उठनेबैठने लायक बना दिया. फिर तो सुभद्रा ने छोटेमोटे काम अपने हाथों  में ले लिए.

कुछ साल हंसीखुशी बीत गए. सुभद्रा को अब जीवन जीने का आधार मिल गया. सुभद्रा लाठी के सहारे फिर से दुकान में जाने लगी. कभी ग्राहक कम होते तो जल्दी ही घर आ जाती. खानेपीने की उसे फिक्र नहीं थी, चंपा चुटकियों में खाना बना कर परोस देती.

सुभद्रा को घर भरापूरा लगने लगा और चंपा को लगता कि वह अपने मायके में आ गई है. बेटे की शिक्षा और जीवनयापन दोनों भलीभांति चल निकले.

समय एक समान कभी नहीं रहता. उस में भी समुद्र की तरह उतारचढ़ाव आते रहते हैं. सुखदुख दोनों अलगअलग हैं.

कभी एक अपने पैर जमा देता है तो कभी दूसरा.

सुभद्रा 70 साल पार कर गई. पहले से भी अशक्त होती जा रही थी, सो, दुकान की तरफ जाना बंद हो गया. इस बीच कुछ हमउम्र सहेलियां भी दुनिया छोड़ गईं. इस से वह बहुत आहत हुई.

सुभद्रा बिस्तर पर बैठेबैठे किताबों के पन्ने पलटती, चंदू के साथ मन लगाती और कभी अपनी सहेलियों से फोन पर बातें कर समय बिताती. कभी मन किया तो स्वभाववश अनीता को भी फोन लगा कर उस की कुशलता पूछ लेती.

उस साल सर्दी का प्रकोप बढ़ गया था. रहरह कर बादल छा जाते थे. कभी बादल मूसलाधार बरस भी जाते. दिसंबर आतेआते सामने की पहाड़ियों पर बर्फ की सफेद चादर चढ़ने लगी थी. इस साल तकरीबन 7-8 वर्षों बाद ऐसी बर्फ़ देखने को मिली. रजाई से बाहर हाथपैर निकालते ही पैर सुन्न पड़ जाते. ऐसी कड़ाकेदार सर्दी में जरा सी लापरवाही बुजुर्गों के लिए बेहद कष्टकारी होटी है. सांस की तकलीफ बढ़ जाती, कफ़ से छातियां जकड़ जाती हैं.

सुभद्रा को भी कफ की शिकायत होने लगी थी. खांसी भी उठती. छाती में दर्द भी महसूस होता. महल्ले में कल ही स्वास के रोगी एक वृद्ध चल बसे थे. सुभद्रा को पता चला तो वह भी अंदर से डर गई.

चंपा भांप गई. वह दैनिक कार्यों से निबट कर सुभद्रा को अधिक समय देने लगी. “बूआ, इतना क्यों सोच रही हो. खानेपीने और दवाई में लापरवाही से ही खतरा बढ़ता है, आप तो ऐसा नहीं करतीं.”

“वह तो ठीक है पर मेरी 3 सहेलियां भी तो चली गईं इस साल,” सुभद्रा चिंतित स्वर में बोली.

“अरे बूआ, तुम भी न, सब का अपनाअपना समय होता है. आप के साथ मैं हूं न, कुछ नहीं होने दूंगी,” सुभद्रा की हथेलियों को सहलाते हुए चंपा ने कहा, “आप पीठ से तकिया लगा लो, मैं खाना परोसती हूं.”

“पहले  बच्चे को जिमा. अपने साथ उस पर भी ध्यान दिया कर.”

“चिंता न करो बूआ, साथसाथ परोसती हूं.”

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March 01, 2022 at 09:00AM

व्यंग्य: सांभर वड़ा की यू-ट्यूब विधि

‘अच्छे दिन’ तो बस एक मुहावरा ही है, जो सुनने में तो अच्छा लगता पर अच्छे दिन कभी आते नहीं. श्रीमतीजी का सांभरवड़ा बना कर खिलाने का अच्छे दिन का वादा प्रधानमंत्री के जैसा ही रहा.

मिस्टर पति ने उस दिन जब अपनी श्रीमती फलानीजी को यूट्यूब में सांभरवड़ा बनाने की विधि को गंभीरता के साथ देखते हुए पाया तो गदगद हो गए. सोचने लगे, आज शाम को दक्षिण भारत का यह स्वादिष्ठ व्यंजन खाने को मिलेगा. लेकिन शाम हुई और फिर रात भी गहरा गई, सांभरवड़ा का पता न चला तो पति महोदय ने पूछ लिया, ‘‘क्यों भागवान, तुम सुबह सांभरवड़ा बनाने की विधि देख रही थीं न, उस का क्या हुआ?’’

पत्नीजी ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘एकदो बार और देख लूं, उस के बाद जरूर बनाऊंगी, आप की कसम.’’

पति महोदय, मजबूरी में ही सही, परम संतोषी किस्म के जीव थे. पहले भी पत्नी उन से अलगअलग पकवानों के बारे में यही कहती रहीं कि बनाने की विधि अच्छे से सम?ा लूं, फिर जल्द बना कर खिलाऊंगी. लेकिन कभी कुछ खिलाया नहीं, सिवा चावल, दाल और सब्जी के.

बहुत दिनों बाद पत्नी को एक बार फिर सांभरवड़ा बनाने की विधि देखते हुए उन्हें बड़ा अच्छा लगा. उन्हें इस बार पूरा विश्वास था कि अब पकवान खाने के मामले में अच्छे दिन आ ही जाएंगे, लेकिन उन्हें क्या पता था कि अच्छे दिन, बस एक मुहावरा बन कर रह गया है. यह सुनने में अच्छा लगता है मगर अच्छे दिन आते नहीं. सो, उन की पत्नी भी सांभरवड़ा बनाने की विधि देख तो रही थीं, पर उसे बनाने का मुहूर्त अभी नहीं आया था. खैर, कभी न कभी तो जरूर बनाएगी. आखिर, पहलवान रामभरोसे की बीवी है, हिम्मत न हारेगी.

दोचार दिन बीते ही थे कि एक दिन मिस्टर पति ने देखा, पत्नीजी इस बार फिर बड़े ध्यान से यूट्यूब में उत्तपम बनाने की विधि देख रही हैं. वे गदगद हो गए कि आज शाम को या फिर एकदो दिन बाद उत्तपम का आनंद मिलेगा. लेकिन कुछ दिन ऐसे ही निकल गए, उत्तपम नहीं बनाया तो उन्होंने पत्नीजी से पूछ लिया, ‘‘क्यों डियर उस दिन तो तुम उत्तपम बनाने की विधि सीख रही थीं, अब बनाओगी कब?’’

पत्नीजी मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘बना दूंगी, जल्दी क्या है. एकदो बार और देखना पड़ेगा. दिमाग में उसे बिठाना पड़ेगा, तब तो बना पाऊंगी. वरना वैसा ही होगा, जैसा एक बार हुआ था. गुलाबजामुन बनाने बैठी थी लेकिन वह तो कुछ का कुछ बन गया था.’’

पति महोदय को याद आया, ‘‘हां, तुम ने मु?ो जबरन खिलाया था और पहली बार हुआ था कि गुलाबजामुन को खाने के बजाय पीना पड़ा था.’’

पति की बात सुन कर पत्नीजी मुसकराईं, फिर बोलीं, ‘‘तुम ने वह गीत सुना है न, होंगे कामयाब एक दिन… तो हम भी यूट्यूब के सहारे व्यंजन बनाने की विधियां देखते रहते हैं और सोचते हैं कभी न कभी हम कोई न कोई पकवान ठीकठाक बनाने में सफल हो ही जाएंगे. लेकिन पता नहीं क्यों, मैं सफल नहीं हो पाती.’’

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पति ने हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘‘हिम्मते जनाना, मदद ए खुदा.’’

पति सम?ादार था. उस ने कहावत में हिम्मत ए मर्दां की जगह हिम्मत ए जनाना कर दिया. कुछ दिन बीते ही थे कि एक दिन पत्नी ने ऐलान किया, ‘आज शाम जब आप घर लौटोगे तो मैं आप को पेड़े खिलाऊंगी. यह वादा रहा.’

पति को अच्छा लगा. खोये के पेड़े खाने को मिलेंगे. वे अतिउत्साह के साथ शाम को घर पहुंचे तो देखा, पत्नीजी किचन में बड़े मनोयोग के साथ कुछ बना रही हैं. वे सम?ा गए कि पेड़ा ही बन रहा होगा. कुछ देर बाद पत्नी एक थाल में सजा कर कुछ पेड़े ले आईं

और कहा, ‘लो, मेरे हाथ का बना

पेड़ा खाओ.’

फलानेजी खुश हो गए. उन्होंने एक पेड़ा उठाया. वह कुछकुछ गीला था. उन्होंने उसे मुंह में डाला और कुछ अजीब सा मुंह बनाते हुए बोले, ‘‘यह तो पेड़ा नहीं, केवल खोया है. पेड़ा कहां है?’’

पत्नीजी बोली, ‘‘अरे, यह पेड़ा ही तो है. खोये में शक्कर मिला कर ही तो पेड़ा बनता है.’’

पति ने सिर पीटते हुए कहा, ‘‘अरी भागवान, पेड़ा बनाने की पूरी एक प्रक्रिया है. तुम ने यूट्यूब में ठीक से देखा नहीं, शायद.’’

पत्नी मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘देखा तो था लेकिन समय कम था, इसलिए शुरू का ही एक किलो खोया लाई, उस में उसी अनुपात में डट कर शक्कर मिलाई. तब तक सहेली आ गई, उस के साथ गप मारने लगी. मु?ो लगा कि खोए में शक्कर मिला कर गोलगोल बनाने से पेड़ा बन जाता है.’’

पति महोदय मन ही मन भुनभुना रहे थे लेकिन किसी भी तरह का खतरा मोल नहीं लेना चाहते थे, इसलिए उन्होंने मुसकराते हुए कहा, ‘धन्य हो तुम. पहली बार ऐसा अद्भुत पेड़ा खाया है.’’

पत्नीजी ?ाठ की चाशनी में सजी अपनी तारीफ सुन कर गदगद हो रही थी. उस ने भी पेड़ा खाया तो उस ने महसूस किया, यह तो पेड़े की तरह बिल्कुल ही नहीं लग रहा है. लेकिन वह मौन रही. मन ही मन सोचने लगी, अच्छा हुआ, इन को कुछ पता ही नहीं चला. मेरी मेहनत बरबाद नहीं हुई.

उधर पति महोदय सोच रहे थे कि भविष्य में अब इस महान कलाकार से किसी भी तरीके का पकवान बनाने का आग्रह बिलकुल नहीं करूंगा. लेकिन सब दिन होत न एक समान. कुछ दिनों के बाद पति महोदय ने फिर देखा कि पत्नी यूट्यूब में भुजिया सेव बनाने की विधि देख रही है. लेकिन इस बार वे किसी भी उम्मीद में बिलकुल नहीं रहे. उलटे, वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जैसे मनोरंजन के लिए हम लोग यूट्यूब में गाने, फिल्म, प्रवचन या कुछ और चीजें देख लेते हैं, उसी तरह कुछ महिलाएं भी अपना मन बहलाने के लिए तरहतरह के व्यंजन बनाने की विधियां देखती रहती हैं. बनाएं चाहे न बनाएं, लेकिन किसी भी चीज का ज्ञान अर्जित करने में कौनो बुराई नहीं है, बंधु.

लेकिन उस दिन तो चमत्कार हो गया. पत्नी ने सुबहसुबह फरमाया, ‘‘आज शाम को मैं आप को सांभरवड़ा खिलाऊंगी.’’

पति ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘जोक मत करो. जानू.’’

पत्नी बोली, ‘‘तुम्हारी कसम, आज मैं तुम्हें सांभरवड़ा जरूर खिलाऊंगी.’’

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पति घबराया, पत्नी मेरी कसम खा रही है, लेकिन उसे यकीन था कि जब कसम खा रही है तो जरूर खिलाएगी. शाम को पति महोदय जल्दी घर आ गए. थोड़ी देर बाद पत्नी ने प्लेट में सजा कर सांभरवड़ा परोस दिया. पति महोदय तो गदगद, बोल पड़े, ‘‘आखिर, तुम्हारी यूट्यूब पर व्यंजन बनाने की विधि देखने वाली मेहनत सफल हो ही गई, बधाई.’’

पत्नी बोली, ‘‘जो वादा किया था, उसे निभाया. मैं ने कहा था न, शाम को सांभरवड़ा खिलाऊंगी तो खिला रही हूं. कौफीहाउस वाले को फोन किया था, वह अभी थोड़ी देर पहले ही पहुंचा कर गया है.’’ पति महोदय की शक्ल देखने लायक थी…

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‘अच्छे दिन’ तो बस एक मुहावरा ही है, जो सुनने में तो अच्छा लगता पर अच्छे दिन कभी आते नहीं. श्रीमतीजी का सांभरवड़ा बना कर खिलाने का अच्छे दिन का वादा प्रधानमंत्री के जैसा ही रहा.

मिस्टर पति ने उस दिन जब अपनी श्रीमती फलानीजी को यूट्यूब में सांभरवड़ा बनाने की विधि को गंभीरता के साथ देखते हुए पाया तो गदगद हो गए. सोचने लगे, आज शाम को दक्षिण भारत का यह स्वादिष्ठ व्यंजन खाने को मिलेगा. लेकिन शाम हुई और फिर रात भी गहरा गई, सांभरवड़ा का पता न चला तो पति महोदय ने पूछ लिया, ‘‘क्यों भागवान, तुम सुबह सांभरवड़ा बनाने की विधि देख रही थीं न, उस का क्या हुआ?’’

पत्नीजी ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘एकदो बार और देख लूं, उस के बाद जरूर बनाऊंगी, आप की कसम.’’

पति महोदय, मजबूरी में ही सही, परम संतोषी किस्म के जीव थे. पहले भी पत्नी उन से अलगअलग पकवानों के बारे में यही कहती रहीं कि बनाने की विधि अच्छे से सम?ा लूं, फिर जल्द बना कर खिलाऊंगी. लेकिन कभी कुछ खिलाया नहीं, सिवा चावल, दाल और सब्जी के.

बहुत दिनों बाद पत्नी को एक बार फिर सांभरवड़ा बनाने की विधि देखते हुए उन्हें बड़ा अच्छा लगा. उन्हें इस बार पूरा विश्वास था कि अब पकवान खाने के मामले में अच्छे दिन आ ही जाएंगे, लेकिन उन्हें क्या पता था कि अच्छे दिन, बस एक मुहावरा बन कर रह गया है. यह सुनने में अच्छा लगता है मगर अच्छे दिन आते नहीं. सो, उन की पत्नी भी सांभरवड़ा बनाने की विधि देख तो रही थीं, पर उसे बनाने का मुहूर्त अभी नहीं आया था. खैर, कभी न कभी तो जरूर बनाएगी. आखिर, पहलवान रामभरोसे की बीवी है, हिम्मत न हारेगी.

दोचार दिन बीते ही थे कि एक दिन मिस्टर पति ने देखा, पत्नीजी इस बार फिर बड़े ध्यान से यूट्यूब में उत्तपम बनाने की विधि देख रही हैं. वे गदगद हो गए कि आज शाम को या फिर एकदो दिन बाद उत्तपम का आनंद मिलेगा. लेकिन कुछ दिन ऐसे ही निकल गए, उत्तपम नहीं बनाया तो उन्होंने पत्नीजी से पूछ लिया, ‘‘क्यों डियर उस दिन तो तुम उत्तपम बनाने की विधि सीख रही थीं, अब बनाओगी कब?’’

पत्नीजी मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘बना दूंगी, जल्दी क्या है. एकदो बार और देखना पड़ेगा. दिमाग में उसे बिठाना पड़ेगा, तब तो बना पाऊंगी. वरना वैसा ही होगा, जैसा एक बार हुआ था. गुलाबजामुन बनाने बैठी थी लेकिन वह तो कुछ का कुछ बन गया था.’’

पति महोदय को याद आया, ‘‘हां, तुम ने मु?ो जबरन खिलाया था और पहली बार हुआ था कि गुलाबजामुन को खाने के बजाय पीना पड़ा था.’’

पति की बात सुन कर पत्नीजी मुसकराईं, फिर बोलीं, ‘‘तुम ने वह गीत सुना है न, होंगे कामयाब एक दिन… तो हम भी यूट्यूब के सहारे व्यंजन बनाने की विधियां देखते रहते हैं और सोचते हैं कभी न कभी हम कोई न कोई पकवान ठीकठाक बनाने में सफल हो ही जाएंगे. लेकिन पता नहीं क्यों, मैं सफल नहीं हो पाती.’’

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पति ने हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘‘हिम्मते जनाना, मदद ए खुदा.’’

पति सम?ादार था. उस ने कहावत में हिम्मत ए मर्दां की जगह हिम्मत ए जनाना कर दिया. कुछ दिन बीते ही थे कि एक दिन पत्नी ने ऐलान किया, ‘आज शाम जब आप घर लौटोगे तो मैं आप को पेड़े खिलाऊंगी. यह वादा रहा.’

पति को अच्छा लगा. खोये के पेड़े खाने को मिलेंगे. वे अतिउत्साह के साथ शाम को घर पहुंचे तो देखा, पत्नीजी किचन में बड़े मनोयोग के साथ कुछ बना रही हैं. वे सम?ा गए कि पेड़ा ही बन रहा होगा. कुछ देर बाद पत्नी एक थाल में सजा कर कुछ पेड़े ले आईं

और कहा, ‘लो, मेरे हाथ का बना

पेड़ा खाओ.’

फलानेजी खुश हो गए. उन्होंने एक पेड़ा उठाया. वह कुछकुछ गीला था. उन्होंने उसे मुंह में डाला और कुछ अजीब सा मुंह बनाते हुए बोले, ‘‘यह तो पेड़ा नहीं, केवल खोया है. पेड़ा कहां है?’’

पत्नीजी बोली, ‘‘अरे, यह पेड़ा ही तो है. खोये में शक्कर मिला कर ही तो पेड़ा बनता है.’’

पति ने सिर पीटते हुए कहा, ‘‘अरी भागवान, पेड़ा बनाने की पूरी एक प्रक्रिया है. तुम ने यूट्यूब में ठीक से देखा नहीं, शायद.’’

पत्नी मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘देखा तो था लेकिन समय कम था, इसलिए शुरू का ही एक किलो खोया लाई, उस में उसी अनुपात में डट कर शक्कर मिलाई. तब तक सहेली आ गई, उस के साथ गप मारने लगी. मु?ो लगा कि खोए में शक्कर मिला कर गोलगोल बनाने से पेड़ा बन जाता है.’’

पति महोदय मन ही मन भुनभुना रहे थे लेकिन किसी भी तरह का खतरा मोल नहीं लेना चाहते थे, इसलिए उन्होंने मुसकराते हुए कहा, ‘धन्य हो तुम. पहली बार ऐसा अद्भुत पेड़ा खाया है.’’

पत्नीजी ?ाठ की चाशनी में सजी अपनी तारीफ सुन कर गदगद हो रही थी. उस ने भी पेड़ा खाया तो उस ने महसूस किया, यह तो पेड़े की तरह बिल्कुल ही नहीं लग रहा है. लेकिन वह मौन रही. मन ही मन सोचने लगी, अच्छा हुआ, इन को कुछ पता ही नहीं चला. मेरी मेहनत बरबाद नहीं हुई.

उधर पति महोदय सोच रहे थे कि भविष्य में अब इस महान कलाकार से किसी भी तरीके का पकवान बनाने का आग्रह बिलकुल नहीं करूंगा. लेकिन सब दिन होत न एक समान. कुछ दिनों के बाद पति महोदय ने फिर देखा कि पत्नी यूट्यूब में भुजिया सेव बनाने की विधि देख रही है. लेकिन इस बार वे किसी भी उम्मीद में बिलकुल नहीं रहे. उलटे, वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जैसे मनोरंजन के लिए हम लोग यूट्यूब में गाने, फिल्म, प्रवचन या कुछ और चीजें देख लेते हैं, उसी तरह कुछ महिलाएं भी अपना मन बहलाने के लिए तरहतरह के व्यंजन बनाने की विधियां देखती रहती हैं. बनाएं चाहे न बनाएं, लेकिन किसी भी चीज का ज्ञान अर्जित करने में कौनो बुराई नहीं है, बंधु.

लेकिन उस दिन तो चमत्कार हो गया. पत्नी ने सुबहसुबह फरमाया, ‘‘आज शाम को मैं आप को सांभरवड़ा खिलाऊंगी.’’

पति ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘जोक मत करो. जानू.’’

पत्नी बोली, ‘‘तुम्हारी कसम, आज मैं तुम्हें सांभरवड़ा जरूर खिलाऊंगी.’’

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पति घबराया, पत्नी मेरी कसम खा रही है, लेकिन उसे यकीन था कि जब कसम खा रही है तो जरूर खिलाएगी. शाम को पति महोदय जल्दी घर आ गए. थोड़ी देर बाद पत्नी ने प्लेट में सजा कर सांभरवड़ा परोस दिया. पति महोदय तो गदगद, बोल पड़े, ‘‘आखिर, तुम्हारी यूट्यूब पर व्यंजन बनाने की विधि देखने वाली मेहनत सफल हो ही गई, बधाई.’’

पत्नी बोली, ‘‘जो वादा किया था, उसे निभाया. मैं ने कहा था न, शाम को सांभरवड़ा खिलाऊंगी तो खिला रही हूं. कौफीहाउस वाले को फोन किया था, वह अभी थोड़ी देर पहले ही पहुंचा कर गया है.’’ पति महोदय की शक्ल देखने लायक थी…

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March 01, 2022 at 09:00AM

तुम देना साथ मेरा: अजय के साथ कौन-सा हादसा हुआ?

Writer- मोनिका राज

शादी, विदाई और उस की रस्मों में कैसे एक हफ्ता गुजर गया, पता ही न चला. मम्मीपापा का लगातार भागदौड़ कर सबकुछ करना, रिश्तेदारों का जमघट, सहेलियों की मीठी छेड़छाड़ और हर आनेजाने वाले की जबान पर बस, उस का ही नाम. भविष्य के स्वप्निल सपनों में खोई नेहा अजय के संग विदा हो कर अब अपने ससुराल पहुंच चुकी थी.

उसे यह सब किसी सपने सा प्रतीत हो रहा था. खयालों में खोया उस का मन कब अतीत की गलियों में विचरने लगा, उसे पता ही नहीं चला. तकरीबन 2 साल पहले औफिस में अजय से उस की मुलाकात हुई थी. उस की सादगी अजय को पहली ही नजर में भा गई थी. अजय ने मन ही मन उसे अपना हमसफर बनाने का निश्चय कर लिया था. एक दिन मौका देख कर उस ने अपने दिल की बात नेहा को बताई. नेहा भी अजय को बहुत पसंद करती थी. सो, उस ने सहर्ष स्वीकृति दे दी.

अजय की इंटर्नशिप कंप्लीट होने के बाद उस के घर में शादी की बात जोर पकड़ने लगी. शादी के लिए कई रिश्ते आए, पर अजय को तो सांवलीसलोनी सी नेहा पसंद थी.

मां ने नाक सिकोड़ते हुए कहा, ‘वे लोग हमारी हैसियत के बराबर नहीं हैं. तु?ो पसंद भी आई तो इतने साधारण नाकनक्शे वाली लड़की.’

पर उस ने तो जैसे जिद पकड़ ली कि वह नेहा से ही शादी करेगा. घर का इकलौता वारिस होने की वजह से आखिरकार घर वालों को उस की जिद के आगे ?ाकना पड़ा. आननफानन ही एक महीने के अंदर शादी की तारीख पक्की हो गई और फिर नेहा दुलहन बन कर अजय के घर आ गई.

‘‘कहां खो गईं मैडम? पैकिंग भी करनी है. कल ही देहरादून के लिए हमारी फ्लाइट है. हनीमून पर साथ जाना है या खयालों में ही गुम रहना है,’’ अजय के ?ाक?ारने पर वह अतीत की यादों से बाहर आई.

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दूसरे दिन दोनों हनीमून के लिए देहरादून निकल गए. पहले दिन तो दोनों देहरादून की वादियों में पैदल ही सैर करते निकले. कुदरत के समीप हो कर उन दोनों के बीच नजदीकियां भी बढ़ रही थीं. दोनों ने साथ में काफी अच्छा वक्त बिताया.

दूसरे दिन उन्होंने नैनीताल घूमने का प्लान बनाया. वे लोग कुछ ही दूर निकले थे कि अचानक गाड़ी में ?ाटके लगने लगे. जब तक वे कुछ सम?ा पाते, गाड़ी पर से नियंत्रण छूट गया और लैंड स्लाइडिंग की वजह से गाड़ी गहरी खाई में जा गिरी. जब होश आया तो नेहा ने खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया. उस के हाथपैरों में पट्टियां बंधी थीं और सिर में भी काफी चोट आई थी. उस ने आसपास नजर दौड़ाई. अजय कहीं नजर नहीं आए. अनजाने भय की आशंका से उस का हृदय कांप उठा. वह लड़खड़ाते हुए बिस्तर से उतरी. कुछ ही कदम चल पाई थी कि असहनीय पीड़ा की वजह से वह जमीन पर जा गिरी. नर्स ने आ कर उसे संभाला.

‘‘मेरे पति भी मेरे साथ थे. वे कहां हैं अब?’’ नेहा ने सवाल किया.

‘‘वे अभी ओटी में हैं. जब तक डाक्टर बाहर नहीं आते, सही से कुछ बताना मुश्किल है,’’ नर्स ने उत्तर दिया.

पूरे 2 दिनों के बाद अजय को होश आया. जब उस ने उठने की कोशिश की तो उस के पैर काम नहीं कर रहे थे. इशारे से नेहा को अपने पास बुला कर पूछा तो वह रो पड़ी.

‘‘ऐक्सिडैंट की वजह से आप ने अपना पैर हमेशा के लिए गंवा दिया है,’’ सुन कर अजय स्तब्ध रह गया.

नियति पर हमारा वश कहां चलता है. अजय के पैर के साथसाथ उन दोनों की शादीशुदा जिंदगी पर भी जैसे ग्रहण लग गया था.

नेहा के मातापिता हालखबर लेने उस की ससुराल आए. काफी देर तक इधरउधर की बात करने के बाद उस की मां बहाने से उठ कर पूरे घर में नेहा को ढूंढ़ने लगी. नेहा को अकेला पा कर मां उसे खींचते हुए एक ओर ले गई. ‘‘जाने किस की नजर लग गई हमारी बच्ची को,’’ वह नेहा से लिपट कर रो पड़ी.

नेहा के तो जैसे आंसू ही सूख चुके थे. वह निर्विकार भाव से बोली, ‘‘नियति के आगे किस का जोर चलता है मां. शायद मेरे नसीब में यही सब होना लिखा था. तुम अपनेआप को संभालो.’’

मां ने अपने आंसू पोंछ डाले और उसे सम?ाने के अंदाज में बोली, ‘‘देख बिट्टो, अभी तो तेरी जिंदगी सही से शुरू भी नहीं हुई और इतना बड़ा हादसा हो गया. तेरे सामने पहाड़ सी जिंदगी पड़ी है. तू एक अपाहिज के साथ इतना लंबा सफर कैसे तय कर पाएगी?

‘‘देख, तू एक बार अच्छे से सोचसम?ा ले. अभी तो सबकुछ ठीक लग रहा है, पर एक वक्त के बाद वह तु?ो बो?ा सा लगने लगेगा. तू उस के साथ ताउम्र खुश नहीं रह पाएगी.’’

जब बहुत देर तक नेहा कमरे में नहीं आई तो अपनी व्हीलचेयर चलाते हुए अजय उसे घर में चारों ओर ढूंढ़ने लगा.

जैसे ही वह बालकनी के पास पहुंचा, कानों में नेहा की बात पड़ी, ‘‘यह कैसी बात कर रही हो, मां? एक बात बताओ, क्या अजय की जगह यह हादसा मेरे साथ हुआ होता तब भी क्या आप यह सलाह दे पातीं? मैं अजय से बहुत प्यार करती हूं मां. बस, कहने भर को मैं ने सात जन्म साथ निभाने की कसमें नहीं खाई थीं. मैं ने सच्चे दिल से उन्हें अपना हमसफर माना था. चाहे कुछ भी हो जाए, मैं उन का साथ कभी नहीं छोड़ूंगी. मैं आप के हाथ जोड़ती हूं.

‘‘आप ने यह बात आज तो कह दी, पर भविष्य में गलती से भी यह बात अपनी जबान पर मत लाइएगा. बहुत मुश्किल से अजय उस हादसे से उबरने की कोशिश कर रहे हैं. वे सुनेंगे यह सब तो पूरी तरह टूट जाएंगे मां.’’

वैसे तो अजय नेहा से बेइंतहा मोहब्बत करता था, पर आज उस की बातें सुन नेहा के लिए उस के दिल में प्यार और इज्जत और भी ज्यादा बढ़ गई. लेकिन साथ ही उस की ?ाठी मुसकान के पीछे का दर्द महसूस कर उस की आंखों में आंसुओं का सैलाब उमड़ आया. किसी तरह खुद को जब्त करते हुए उस ने नेहा को आवाज लगाई.

‘‘अरे आप…? आप को कुछ चाहिए था क्या? सौरी, मैं थोड़ा मां से बात करने लग गई थी,’’ उस ने पूछा.

‘‘नहीं, कुछ भी नहीं चाहिए था. बस, तुम बहुत देर से नहीं दिखीं तो ढूंढ़ते हुए इधर आ गया,’’ अजय ने उत्तर दिया.

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धीरेधीरे दिन बीतने लगे. नेहा पूरी तत्परता से अपना फर्ज निभा रही थी. वह दिनरात चकरी की तरह घूमघूम कर सब का खयाल रखती, पर इस पर भी किसी को वह फूटी आंख नहीं सुहा रही थी. बातबात पर सास हमेशा उलाहने देती रहती, ‘‘इस के तो कदम ही बहुत अशुभ पड़े हमारे घर में. यहां आते ही हमारे बेटे की जिंदगी को नरक से भी बदतर बना दिया.’’

यह सब सुन कर तो उस का दिल छलनी हो जाता, पर जब वह अजय का बु?ा चेहरा देखती तो खुद को समेट कर होंठों पर ?ाठी मुसकान सजाए वह उस में आत्मविश्वास भरने की कोशिश करती.

नेहा के अनवरत कोशिश करते रहने से अजय धीरेधीरे उस हादसे से बाहर आने लगा, पर उस की नौकरी छूट जाने से घर में थोड़ी आर्थिक तंगी होने लग गई थी.

इधर कुछ दिनों से अजय का दोस्त विनय सब की बहुत मदद कर रहा था. दिन में कम से कम दो बार फोन कर वह अजय की हालखबर लेता और जो भी जरूरत का सामान होता, उसे लाने में भी मदद करता. इस मुश्किल की घड़ी में उस का साथ खड़े होना नेहा को बहुत मजबूती दे रहा था. आने वाले खतरे से बेखबर वह विनय के प्रति कृतज्ञ हो रही थी.

एक दिन बातों ही बातों में उस ने आर्थिक तंगी के बारे में विनय को बताया और नौकरी करने की इच्छा जताई.

‘‘मेरे औफिस में स्टेनो का पद खाली है. मैं जानता हूं कि यह पद आप के लायक नहीं, पर फिलहाल अगर आप इस से काम चला सकें तो सही होगा. मैं बहुत जल्द आप के लिए कोई अच्छी जगह काम देख दूंगा,’’ विनय ने हिचकते हुए कहा.

विनय का एहसान मानते हुए नेहा काम पर जाने लगी. इस से पूरी तरह न सही, पर एक हद तक परिवार की गाड़ी पटरी पर आने लगी थी.

एक दिन काम ज्यादा रहने से उसे थोड़ा ज्यादा देर तक औफिस में रुकना पड़ा. बाकी का स्टाफ जा चुका था. वह जल्दीजल्दी अपना काम निबटा रही थी, तभी बाहर तेज बारिश होने लगी. बरसात की वजह से बिजली चली गई तो वह काम बंद कर बारिश थमने का इंतजार करने लगी.

‘‘आज तो घर जाने में बहुत देर हो जाएगी. जाने अजय ने कुछ खाया होगा भी या नहीं,’’ वह बारबार बेचैनी से घड़ी देखती हुई चहलकदमी कर रही थी.

जब बहुत देर तक बारिश नहीं रुकी तो वह वापस कुरसी पर आ कर बैठ गई. तभी पीछे से आ कर विनय ने नेहा के कंधे को छुआ, ‘‘आप कितनी सुंदर हैं भाभी. इस गुलाबी साड़ी में तो आप और भी गजब ढा रही हैं. आप इतनी खूबसूरत हैं. इस का सही इस्तेमाल कीजिए और जिंदगी का मजा लीजिए,’’ उस ने कुटिल मुसकान बिखेरते हुए कहा.

‘‘कहना क्या चाहते हो तुम? होश में तो हो? अगर अजय को मैं ने तुम्हारी यह करतूत बताई तो वे तुम्हारा क्या हश्र करेंगे, इस का अंदाजा भी है तुम्हें,’’ क्रोध से कांपते हुए उस ने कहा.

‘‘वह अपाहिज मेरा क्या बिगाड़ लेगा. सही से खड़ा तक नहीं हो पाता वह. तुम क्यों अपनी जवानी उस के पीछे बरबाद कर रही हो. मेरा साथ दो. किसी को इस बात की कानोंकान खबर नहीं लगने दूंगा,’’ विनय ने बेशर्मी से हंसते हुए कहा.

वह नेहा के साथ जोरजबरदस्ती पर उतर आया, तभी औफिस का मेन गेट खुला और सफाई करने वाली बाई अंदर की तरफ आती दिखी. नेहा ने पूरा जोर लगा कर विनय को परे धकेला और लगभग दौड़ते हुए बाहर की ओर भागी. किसी तरह उस ने अपने कपड़ों को ठीक किया और औटो में बैठी. पूरे रास्ते उस की नजर के सामने विनय का वीभत्स रूप आ रहा था. उस के पूरे बदन में जैसे कंपकंपी दौड़ गई. किसी तरह खुद को संभालते हुए वह घर पहुंची.

घर का काम निबटा कर अजय को सुलाया और खुद भी बगल में लेट गई, पर आज नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. सारी रात उस ने आंखों ही आंखों में काट दी. सुबह अजय ने उस के औफिस न जाने का कारण पूछा. इस से पहले कि वह कुछ कहती, विनय उस की सास के साथ कमरे में दाखिल हुआ. सास ने जलती हुई आंखों से उसे घूरते हुए पूछा, ‘‘बताती क्यों नहीं कि औफिस क्यों नहीं जा रही?’’

नेहा के कोई उत्तर न देने पर उन्होंने खुद ही बोलना शुरू किया, ‘‘अरे, अपना न सही, पर कम से कम हमारे घर की इज्जत का ही खयाल किया होता. अगर कुकर्म ही करने थे तो यह सतीसावित्री होने का ढोंग क्यों?’’

नेहा बुत बन कर खुद पर लगाए चरित्रहीनता के इलजाम को चुपचाप सुनती रही. उस ने उम्मीदभरी आंखों से अजय की तरफ देखा, पर उस की आंखों में भी सवाल देख कर वह अंदर ही अंदर टूट गई.

‘‘आप दोनों बाहर जाइए, मु?ो नेहा से अकेले में कुछ बात करनी है,’’ अजय ने कहा.

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दोनों कमरे से बाहर चले गए. कमरे में बहुत देर तक सन्नाटा फैला रहा. आखिरकार खामोशी तोड़ते हुए अजय ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारे साथ इस रिश्ते में नहीं रह सकता. मु?ो तलाक चाहिए.’’

पूरी दुनिया उस पर लांछन लगाए, नेहा को परवा नहीं थी, पर जिस से उस ने दिलोजान से प्यार किया, वही आज लोगों की बातों में आ कर उस के चरित्र पर उंगली उठा रहा है. यह देख नेहा सन्न रह गई.

सारी रात बिस्तर पर करवट बदलते नेहा सिसकती रही. अजय सब जानतेबू?ाते भी खामोश था. सुबह उठते ही नेहा ने अपने कपड़े सूटकेस में डाले और कमरे से निकलते वक्त अजय की तरफ उम्मीदभरी निगाहों से देखा, पर अजय किसी किताब में इस कदर रमा था कि उस ने नजरें उठा कर उस की ओर देखना भी उचित न सम?ा. बु?ो दिल से नेहा घर से बाहर निकल गई.

आज घर में अजीब सा सन्नाटा छाया था. मांबाऊजी पार्क की तरफ गए थे. नेहा के चले जाने से पूरे घर में जैसे वीरानी छा गई थी. वह बारबार फोन हाथ में लेता और फिर उसे परे रख देता. जब बेचैनी बहुत ज्यादा बढ़ गई तो व्हीलचेयर खिसका कर वह मेज की तरफ बढ़ा और वहां रखे मोबाइल में एफएम औन किया. गीत बज रहा था, ‘हमें तुम से प्यार कितना यह हम नहीं जानते, मगर जी नहीं सकते तुम्हारे बिना…’

गीत सुन कर उसे नेहा की बहुत ज्यादा याद आने लगी. खुद को बहुत संयत किया, पर आज जैसे आंसू रुकना ही नहीं चाह रहे थे. वह अपनी शादी की तसवीर सीने से लगा कर फूटफूट कर रोने लगा, ‘हम ने साथ मिल कर कितने सपने देखे थे, पर क्षणभर में सारे सपने टूट गए. मैं तो तुम्हें खुशियां भी न दे पाया, उलटे तुम्हारी जिंदगी में एक बो?ा की तरह बन कर रह गया. मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं. तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह सकता, पर मेरा यह अंधकारमय साथ तुम्हारी जिंदगी में एक ग्रहण की तरह है. तुम्हारी बेहतरी मु?ा से दूर होने में ही थी. मु?ो मेरी कड़वी बातों के लिए माफ कर देना.

‘काश, तुम्हें यह बता पाता कि मैं तुम से कितना प्यार करता हूं. तुम बिन मैं कुछ भी नहीं हूं. मेरी जिंदगी में वापस आ जाओ. लौट आओ नेहा, प्लीज लौट आओ,’ वह अपना सिर घुटने में छिपाए जारबेजार रोए जा रहा था, तभी कंधे पर किसी का स्पर्श महसूस हुआ. तब वह खुद को संयमित करने की कोशिश करने लगा.

‘‘तो अब बता दो कि मु?ा से कितना प्यार करते हो. मैं वापस आ गई हूं अजय और अब मैं तुम से दूर कभी नहीं जाऊंगी. सिर्फ तुम ही नहीं, मैं भी तुम्हारे बिना अधूरी हूं. आज के बाद मु?ो खुद से दूर करने की कोशिश भी मत करना,’’ उस ने अजय की गोद में अपना सिर रखते हुए कहा.

अजय ने सहमति में सिर हिलाया और मजबूती से नेहा का हाथ थाम लिया. तभी एफएम में गाना बज उठा, ‘जब कोई बात बिगड़ जाए, जब कोई मुश्किल पड़ जाए, तुम देना साथ मेरा, ओ हमनवाज…’

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Writer- मोनिका राज

शादी, विदाई और उस की रस्मों में कैसे एक हफ्ता गुजर गया, पता ही न चला. मम्मीपापा का लगातार भागदौड़ कर सबकुछ करना, रिश्तेदारों का जमघट, सहेलियों की मीठी छेड़छाड़ और हर आनेजाने वाले की जबान पर बस, उस का ही नाम. भविष्य के स्वप्निल सपनों में खोई नेहा अजय के संग विदा हो कर अब अपने ससुराल पहुंच चुकी थी.

उसे यह सब किसी सपने सा प्रतीत हो रहा था. खयालों में खोया उस का मन कब अतीत की गलियों में विचरने लगा, उसे पता ही नहीं चला. तकरीबन 2 साल पहले औफिस में अजय से उस की मुलाकात हुई थी. उस की सादगी अजय को पहली ही नजर में भा गई थी. अजय ने मन ही मन उसे अपना हमसफर बनाने का निश्चय कर लिया था. एक दिन मौका देख कर उस ने अपने दिल की बात नेहा को बताई. नेहा भी अजय को बहुत पसंद करती थी. सो, उस ने सहर्ष स्वीकृति दे दी.

अजय की इंटर्नशिप कंप्लीट होने के बाद उस के घर में शादी की बात जोर पकड़ने लगी. शादी के लिए कई रिश्ते आए, पर अजय को तो सांवलीसलोनी सी नेहा पसंद थी.

मां ने नाक सिकोड़ते हुए कहा, ‘वे लोग हमारी हैसियत के बराबर नहीं हैं. तु?ो पसंद भी आई तो इतने साधारण नाकनक्शे वाली लड़की.’

पर उस ने तो जैसे जिद पकड़ ली कि वह नेहा से ही शादी करेगा. घर का इकलौता वारिस होने की वजह से आखिरकार घर वालों को उस की जिद के आगे ?ाकना पड़ा. आननफानन ही एक महीने के अंदर शादी की तारीख पक्की हो गई और फिर नेहा दुलहन बन कर अजय के घर आ गई.

‘‘कहां खो गईं मैडम? पैकिंग भी करनी है. कल ही देहरादून के लिए हमारी फ्लाइट है. हनीमून पर साथ जाना है या खयालों में ही गुम रहना है,’’ अजय के ?ाक?ारने पर वह अतीत की यादों से बाहर आई.

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दूसरे दिन दोनों हनीमून के लिए देहरादून निकल गए. पहले दिन तो दोनों देहरादून की वादियों में पैदल ही सैर करते निकले. कुदरत के समीप हो कर उन दोनों के बीच नजदीकियां भी बढ़ रही थीं. दोनों ने साथ में काफी अच्छा वक्त बिताया.

दूसरे दिन उन्होंने नैनीताल घूमने का प्लान बनाया. वे लोग कुछ ही दूर निकले थे कि अचानक गाड़ी में ?ाटके लगने लगे. जब तक वे कुछ सम?ा पाते, गाड़ी पर से नियंत्रण छूट गया और लैंड स्लाइडिंग की वजह से गाड़ी गहरी खाई में जा गिरी. जब होश आया तो नेहा ने खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया. उस के हाथपैरों में पट्टियां बंधी थीं और सिर में भी काफी चोट आई थी. उस ने आसपास नजर दौड़ाई. अजय कहीं नजर नहीं आए. अनजाने भय की आशंका से उस का हृदय कांप उठा. वह लड़खड़ाते हुए बिस्तर से उतरी. कुछ ही कदम चल पाई थी कि असहनीय पीड़ा की वजह से वह जमीन पर जा गिरी. नर्स ने आ कर उसे संभाला.

‘‘मेरे पति भी मेरे साथ थे. वे कहां हैं अब?’’ नेहा ने सवाल किया.

‘‘वे अभी ओटी में हैं. जब तक डाक्टर बाहर नहीं आते, सही से कुछ बताना मुश्किल है,’’ नर्स ने उत्तर दिया.

पूरे 2 दिनों के बाद अजय को होश आया. जब उस ने उठने की कोशिश की तो उस के पैर काम नहीं कर रहे थे. इशारे से नेहा को अपने पास बुला कर पूछा तो वह रो पड़ी.

‘‘ऐक्सिडैंट की वजह से आप ने अपना पैर हमेशा के लिए गंवा दिया है,’’ सुन कर अजय स्तब्ध रह गया.

नियति पर हमारा वश कहां चलता है. अजय के पैर के साथसाथ उन दोनों की शादीशुदा जिंदगी पर भी जैसे ग्रहण लग गया था.

नेहा के मातापिता हालखबर लेने उस की ससुराल आए. काफी देर तक इधरउधर की बात करने के बाद उस की मां बहाने से उठ कर पूरे घर में नेहा को ढूंढ़ने लगी. नेहा को अकेला पा कर मां उसे खींचते हुए एक ओर ले गई. ‘‘जाने किस की नजर लग गई हमारी बच्ची को,’’ वह नेहा से लिपट कर रो पड़ी.

नेहा के तो जैसे आंसू ही सूख चुके थे. वह निर्विकार भाव से बोली, ‘‘नियति के आगे किस का जोर चलता है मां. शायद मेरे नसीब में यही सब होना लिखा था. तुम अपनेआप को संभालो.’’

मां ने अपने आंसू पोंछ डाले और उसे सम?ाने के अंदाज में बोली, ‘‘देख बिट्टो, अभी तो तेरी जिंदगी सही से शुरू भी नहीं हुई और इतना बड़ा हादसा हो गया. तेरे सामने पहाड़ सी जिंदगी पड़ी है. तू एक अपाहिज के साथ इतना लंबा सफर कैसे तय कर पाएगी?

‘‘देख, तू एक बार अच्छे से सोचसम?ा ले. अभी तो सबकुछ ठीक लग रहा है, पर एक वक्त के बाद वह तु?ो बो?ा सा लगने लगेगा. तू उस के साथ ताउम्र खुश नहीं रह पाएगी.’’

जब बहुत देर तक नेहा कमरे में नहीं आई तो अपनी व्हीलचेयर चलाते हुए अजय उसे घर में चारों ओर ढूंढ़ने लगा.

जैसे ही वह बालकनी के पास पहुंचा, कानों में नेहा की बात पड़ी, ‘‘यह कैसी बात कर रही हो, मां? एक बात बताओ, क्या अजय की जगह यह हादसा मेरे साथ हुआ होता तब भी क्या आप यह सलाह दे पातीं? मैं अजय से बहुत प्यार करती हूं मां. बस, कहने भर को मैं ने सात जन्म साथ निभाने की कसमें नहीं खाई थीं. मैं ने सच्चे दिल से उन्हें अपना हमसफर माना था. चाहे कुछ भी हो जाए, मैं उन का साथ कभी नहीं छोड़ूंगी. मैं आप के हाथ जोड़ती हूं.

‘‘आप ने यह बात आज तो कह दी, पर भविष्य में गलती से भी यह बात अपनी जबान पर मत लाइएगा. बहुत मुश्किल से अजय उस हादसे से उबरने की कोशिश कर रहे हैं. वे सुनेंगे यह सब तो पूरी तरह टूट जाएंगे मां.’’

वैसे तो अजय नेहा से बेइंतहा मोहब्बत करता था, पर आज उस की बातें सुन नेहा के लिए उस के दिल में प्यार और इज्जत और भी ज्यादा बढ़ गई. लेकिन साथ ही उस की ?ाठी मुसकान के पीछे का दर्द महसूस कर उस की आंखों में आंसुओं का सैलाब उमड़ आया. किसी तरह खुद को जब्त करते हुए उस ने नेहा को आवाज लगाई.

‘‘अरे आप…? आप को कुछ चाहिए था क्या? सौरी, मैं थोड़ा मां से बात करने लग गई थी,’’ उस ने पूछा.

‘‘नहीं, कुछ भी नहीं चाहिए था. बस, तुम बहुत देर से नहीं दिखीं तो ढूंढ़ते हुए इधर आ गया,’’ अजय ने उत्तर दिया.

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धीरेधीरे दिन बीतने लगे. नेहा पूरी तत्परता से अपना फर्ज निभा रही थी. वह दिनरात चकरी की तरह घूमघूम कर सब का खयाल रखती, पर इस पर भी किसी को वह फूटी आंख नहीं सुहा रही थी. बातबात पर सास हमेशा उलाहने देती रहती, ‘‘इस के तो कदम ही बहुत अशुभ पड़े हमारे घर में. यहां आते ही हमारे बेटे की जिंदगी को नरक से भी बदतर बना दिया.’’

यह सब सुन कर तो उस का दिल छलनी हो जाता, पर जब वह अजय का बु?ा चेहरा देखती तो खुद को समेट कर होंठों पर ?ाठी मुसकान सजाए वह उस में आत्मविश्वास भरने की कोशिश करती.

नेहा के अनवरत कोशिश करते रहने से अजय धीरेधीरे उस हादसे से बाहर आने लगा, पर उस की नौकरी छूट जाने से घर में थोड़ी आर्थिक तंगी होने लग गई थी.

इधर कुछ दिनों से अजय का दोस्त विनय सब की बहुत मदद कर रहा था. दिन में कम से कम दो बार फोन कर वह अजय की हालखबर लेता और जो भी जरूरत का सामान होता, उसे लाने में भी मदद करता. इस मुश्किल की घड़ी में उस का साथ खड़े होना नेहा को बहुत मजबूती दे रहा था. आने वाले खतरे से बेखबर वह विनय के प्रति कृतज्ञ हो रही थी.

एक दिन बातों ही बातों में उस ने आर्थिक तंगी के बारे में विनय को बताया और नौकरी करने की इच्छा जताई.

‘‘मेरे औफिस में स्टेनो का पद खाली है. मैं जानता हूं कि यह पद आप के लायक नहीं, पर फिलहाल अगर आप इस से काम चला सकें तो सही होगा. मैं बहुत जल्द आप के लिए कोई अच्छी जगह काम देख दूंगा,’’ विनय ने हिचकते हुए कहा.

विनय का एहसान मानते हुए नेहा काम पर जाने लगी. इस से पूरी तरह न सही, पर एक हद तक परिवार की गाड़ी पटरी पर आने लगी थी.

एक दिन काम ज्यादा रहने से उसे थोड़ा ज्यादा देर तक औफिस में रुकना पड़ा. बाकी का स्टाफ जा चुका था. वह जल्दीजल्दी अपना काम निबटा रही थी, तभी बाहर तेज बारिश होने लगी. बरसात की वजह से बिजली चली गई तो वह काम बंद कर बारिश थमने का इंतजार करने लगी.

‘‘आज तो घर जाने में बहुत देर हो जाएगी. जाने अजय ने कुछ खाया होगा भी या नहीं,’’ वह बारबार बेचैनी से घड़ी देखती हुई चहलकदमी कर रही थी.

जब बहुत देर तक बारिश नहीं रुकी तो वह वापस कुरसी पर आ कर बैठ गई. तभी पीछे से आ कर विनय ने नेहा के कंधे को छुआ, ‘‘आप कितनी सुंदर हैं भाभी. इस गुलाबी साड़ी में तो आप और भी गजब ढा रही हैं. आप इतनी खूबसूरत हैं. इस का सही इस्तेमाल कीजिए और जिंदगी का मजा लीजिए,’’ उस ने कुटिल मुसकान बिखेरते हुए कहा.

‘‘कहना क्या चाहते हो तुम? होश में तो हो? अगर अजय को मैं ने तुम्हारी यह करतूत बताई तो वे तुम्हारा क्या हश्र करेंगे, इस का अंदाजा भी है तुम्हें,’’ क्रोध से कांपते हुए उस ने कहा.

‘‘वह अपाहिज मेरा क्या बिगाड़ लेगा. सही से खड़ा तक नहीं हो पाता वह. तुम क्यों अपनी जवानी उस के पीछे बरबाद कर रही हो. मेरा साथ दो. किसी को इस बात की कानोंकान खबर नहीं लगने दूंगा,’’ विनय ने बेशर्मी से हंसते हुए कहा.

वह नेहा के साथ जोरजबरदस्ती पर उतर आया, तभी औफिस का मेन गेट खुला और सफाई करने वाली बाई अंदर की तरफ आती दिखी. नेहा ने पूरा जोर लगा कर विनय को परे धकेला और लगभग दौड़ते हुए बाहर की ओर भागी. किसी तरह उस ने अपने कपड़ों को ठीक किया और औटो में बैठी. पूरे रास्ते उस की नजर के सामने विनय का वीभत्स रूप आ रहा था. उस के पूरे बदन में जैसे कंपकंपी दौड़ गई. किसी तरह खुद को संभालते हुए वह घर पहुंची.

घर का काम निबटा कर अजय को सुलाया और खुद भी बगल में लेट गई, पर आज नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. सारी रात उस ने आंखों ही आंखों में काट दी. सुबह अजय ने उस के औफिस न जाने का कारण पूछा. इस से पहले कि वह कुछ कहती, विनय उस की सास के साथ कमरे में दाखिल हुआ. सास ने जलती हुई आंखों से उसे घूरते हुए पूछा, ‘‘बताती क्यों नहीं कि औफिस क्यों नहीं जा रही?’’

नेहा के कोई उत्तर न देने पर उन्होंने खुद ही बोलना शुरू किया, ‘‘अरे, अपना न सही, पर कम से कम हमारे घर की इज्जत का ही खयाल किया होता. अगर कुकर्म ही करने थे तो यह सतीसावित्री होने का ढोंग क्यों?’’

नेहा बुत बन कर खुद पर लगाए चरित्रहीनता के इलजाम को चुपचाप सुनती रही. उस ने उम्मीदभरी आंखों से अजय की तरफ देखा, पर उस की आंखों में भी सवाल देख कर वह अंदर ही अंदर टूट गई.

‘‘आप दोनों बाहर जाइए, मु?ो नेहा से अकेले में कुछ बात करनी है,’’ अजय ने कहा.

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दोनों कमरे से बाहर चले गए. कमरे में बहुत देर तक सन्नाटा फैला रहा. आखिरकार खामोशी तोड़ते हुए अजय ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारे साथ इस रिश्ते में नहीं रह सकता. मु?ो तलाक चाहिए.’’

पूरी दुनिया उस पर लांछन लगाए, नेहा को परवा नहीं थी, पर जिस से उस ने दिलोजान से प्यार किया, वही आज लोगों की बातों में आ कर उस के चरित्र पर उंगली उठा रहा है. यह देख नेहा सन्न रह गई.

सारी रात बिस्तर पर करवट बदलते नेहा सिसकती रही. अजय सब जानतेबू?ाते भी खामोश था. सुबह उठते ही नेहा ने अपने कपड़े सूटकेस में डाले और कमरे से निकलते वक्त अजय की तरफ उम्मीदभरी निगाहों से देखा, पर अजय किसी किताब में इस कदर रमा था कि उस ने नजरें उठा कर उस की ओर देखना भी उचित न सम?ा. बु?ो दिल से नेहा घर से बाहर निकल गई.

आज घर में अजीब सा सन्नाटा छाया था. मांबाऊजी पार्क की तरफ गए थे. नेहा के चले जाने से पूरे घर में जैसे वीरानी छा गई थी. वह बारबार फोन हाथ में लेता और फिर उसे परे रख देता. जब बेचैनी बहुत ज्यादा बढ़ गई तो व्हीलचेयर खिसका कर वह मेज की तरफ बढ़ा और वहां रखे मोबाइल में एफएम औन किया. गीत बज रहा था, ‘हमें तुम से प्यार कितना यह हम नहीं जानते, मगर जी नहीं सकते तुम्हारे बिना…’

गीत सुन कर उसे नेहा की बहुत ज्यादा याद आने लगी. खुद को बहुत संयत किया, पर आज जैसे आंसू रुकना ही नहीं चाह रहे थे. वह अपनी शादी की तसवीर सीने से लगा कर फूटफूट कर रोने लगा, ‘हम ने साथ मिल कर कितने सपने देखे थे, पर क्षणभर में सारे सपने टूट गए. मैं तो तुम्हें खुशियां भी न दे पाया, उलटे तुम्हारी जिंदगी में एक बो?ा की तरह बन कर रह गया. मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं. तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह सकता, पर मेरा यह अंधकारमय साथ तुम्हारी जिंदगी में एक ग्रहण की तरह है. तुम्हारी बेहतरी मु?ा से दूर होने में ही थी. मु?ो मेरी कड़वी बातों के लिए माफ कर देना.

‘काश, तुम्हें यह बता पाता कि मैं तुम से कितना प्यार करता हूं. तुम बिन मैं कुछ भी नहीं हूं. मेरी जिंदगी में वापस आ जाओ. लौट आओ नेहा, प्लीज लौट आओ,’ वह अपना सिर घुटने में छिपाए जारबेजार रोए जा रहा था, तभी कंधे पर किसी का स्पर्श महसूस हुआ. तब वह खुद को संयमित करने की कोशिश करने लगा.

‘‘तो अब बता दो कि मु?ा से कितना प्यार करते हो. मैं वापस आ गई हूं अजय और अब मैं तुम से दूर कभी नहीं जाऊंगी. सिर्फ तुम ही नहीं, मैं भी तुम्हारे बिना अधूरी हूं. आज के बाद मु?ो खुद से दूर करने की कोशिश भी मत करना,’’ उस ने अजय की गोद में अपना सिर रखते हुए कहा.

अजय ने सहमति में सिर हिलाया और मजबूती से नेहा का हाथ थाम लिया. तभी एफएम में गाना बज उठा, ‘जब कोई बात बिगड़ जाए, जब कोई मुश्किल पड़ जाए, तुम देना साथ मेरा, ओ हमनवाज…’

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March 01, 2022 at 09:00AM

मन आंगन की चंपा- भाग 1: सुभद्रा स्वयं को असहाय क्यों मानती रही

Writer- यदु जोशी गढ़देशी

सुभद्रा वैधव्य के दिन झेल रही थी. पति ने उस के लिए सिवा अपने, किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी. यही था उस के सामने एक बड़ा शून्य. यही था उस की आंखों का पानी जो चारों प्रहर उमड़ताघुमड़ता रहता.

वह जिस घर में रहती है, वह दुमंजिला है. उस के निचले हिस्से सुभद्रा ने किराए पर दे दिए हैं. बाजार में 2 दुकानें भी हैं. उन में एक किराए  पर है, दूसरी बंद पड़ी है. गुजारे से अधिक मिल जाता है, बाकी वह बैंक में जमा कर आती है.

जमा पूंजी की न जाने कब जरूरत आन पड़े, किसे पता? वह पति की कमी और खालीपन से घिरी हो कर भी जिंदगी से हारना नहीं चाहती. कहनेभर को रिश्तेदारी थी. न अपनत्व था और न ही संपर्क. मांबाप  दुनिया से जा चुके थे.

पति के बड़े भाई कनाडा में बस गए. न कभी वे आए और न कभी उन की खबर ही मिली. एक ननद थी अनीता, सालों तक गरमी के दिनों में आती बच्चों के झुंड के साथ. छुट्टियां बिताती, फिर पूरे साल अपने में ही मस्त रहती. कभी कुशलक्षेम पूछने की ज़हमत न उठाती.

जिन दिनों उस का परिवार आता, सुभद्रा को लगता जैसे उस की बगिया में असमय वसंत आ गया हो. सुभद्रा अपनी पीड़ा भूल जाती. उसे लगता, धीरेधीरे ही सही उस की छोटी सी दुनिया में अभी भी आशाओं की कोंपले खिल रही हैं. अनीता, उस का पति निर्मल और तीनों बच्चे घर में होते तो सुभद्रा के शरीर में अनोखी ताकत आ जाती. सुबह से रात तक वह जीजान से सब की खिदमत में जुटी रहती. बच्चों की धमाचौकड़ी में वह भूल जाती कि अब वह बूढ़ी हो रही है. कब सुबह हुई और कब शाम, पता ही न चलता. इस सब के पार्श्व में प्रेम ही तो था जिस के कोने में कहीं आशाओं के दीप टिमटिमाया करते हैं.

जब बच्चों के स्कूल खुलने को होते, तब सुभद्रा के चेहरे पर उदासी की रेखाएं उभरने लगतीं. छुट्टियां ख़त्म होतीं और सब के प्रस्थान करते ही, फिर वही घटाटोप सन्नाटा, वही पीड़ा और एकाकीपन उसे घेर कर बैठ जाते. मानो कहते हों, सुभद्रा तुम्हारे लिए हम हैं और तुम हमारे लिए.

ये भी पढ़ें- बाजारीकरण: जब बेटी के लिए नीला ने किराए पर रखी कोख

उम्र  बेल की तरह बढ़ती रही और सुभद्रा 65 वर्ष पार कर गई. अनीता का आनाजाना अब बंद हो गया. कभीकभी उसे अपने इस समर्पित भाव पर क्षोभ होता, कभी हंसी आती. फिर सोचती, ननद के प्रति उस का कर्तव्य है. उसे रिश्ते निभाने हैं, लेकिन सीमा निर्धारित उसे ही करनी है. एक हाथ से ही कहां ताली बजती है.

प्रेम जीवन का आधार है. यदि प्रेम ही एकाकी रह जाए या उस की अवहेलना होती रहे, तब अवसाद जन्म लेता है, बिखराव आता है और उद्विग्नता भी. यही हो रहा था उस के साथ.

कभीकभी कसबे की हमउम्र महिलाएं घर पर मिलने आ जातीं. जी हलका हो जाता. मिलबैठ कर अपनेअपने दुखदर्द बांटने का इस से अच्छा उपाय उसे कोई दूसरा नहीं लगा.

सुभद्रा बहुत मिलनसार थी. कसबे में उसे भरपूर सम्मान मिलता. सभी से प्रेम से मिलता. असहाय मिल जाते तो उन की मदद करने से वह न चूकती. हिसाबकिताब में भी सुलझी हुई थी वह.

उस की सब से अधिक पटती थी लीला से. वह कसबे के संपन्न व्यवसायी की पत्नी थी. लीला थी बहुत ही व्यवहारकुशल, सुभाषणी और सुभद्रा की शुभचिंतक. बरसों की मित्रता थी और एकदूजे के सुखदुख की सहचर. उस ने सुभद्रा को कई बार बंद पड़ी दुकान खोलने का सुझाव दिया.

सुभद्रा टालती रही. क्या करेगी वह इस बुढ़ापे में. पैसा है, इज्जत है, हितैषी हैं और कितना चाहिए उसे?

कई दिनों के बाद एक दिन लीला अचानक घर पर आ गई.

सुभद्रा का चेहरा घने बादलों के बीच से निकलते सूरज की तरह चमचमाने लगा. वह खुशी से बोल पड़ी, ”गनीमत है आज तुझे मेरी याद आ ही गई. देख, सुभद्रा अभी जिंदा है, मरी नहीं.”

“बहुत व्यस्त रही इस दौरान पोतापोती के साथ. बाहर निकलना मुश्किल हो गया था.”

“अरे, मैं तो मजाक में कह गई. बैठ, पानी लाती हूं, थक गई होगी.” सुभद्रा बोली तो लीला मुसकरा दी, “मेरा कहा बुरा तो नहीं लगा, अपना मानती हूं, इसीलिए कह गई.”

“नहीं रे, तू मेरी सहेली ही नहीं, बहन भी है. तू डांटेगी भी, तो सुन लूंगी,” यह कह कर लीला हंस दी.

“तभी तो तू मेरे दिल में कुंडली डाले बैठी है,” सुभद्रा उठने का उपक्रम करती हुई बोली.

लीला जोरों से खिलखिलाने लगी, फिर थोड़ी देर में गंभीर हो गई, “कुछ फैसला किया तूने दुकान खोलने का?”

“समझ में नहीं आ रहा, एक औरत जात के लिए इस उम्र में इतनी जिम्मेदारी वाला काम. फिर, चले न चले.”

“आजकल औरतें मर्दों से कम हैं क्या? देख, दुख पीछे देखता है लेकिन आशा हमेशा आगे देखती है. समय निकाल कर दुकान में बैठना शुरू कर.”

“वह तो सब ठीक है लेकिन भागदौड़ नहीं हो पाएगी. पहले जैसी ताकत कहां है अब.”

“कोशिश करेगी, तो सब हो जाएगा. दुकान के लिए रैडीमेड गारमैंट्स मैं मंगवा दिया करूंगी.”

“अच्छा, जैसी तेरी इच्छा,” सुभद्रा ने सहमति में सिर हिलाया.

“सच कह रही है न? चलनाफिरना करोगी तो फायदा ही होगा,” लीला ने समझाया.

बातें करतेकरते सुभद्रा चाय भी बना लाई. लीला कुछ घंटे उस के पास बैठ कर अपने घर चली गई.

लीला का मन रखने के लिए उस ने दुकान की साफसफाई करवा दी. कुछ ही दिनों में लीला ने अपने पति से कह कर लुधियाना से होजरी का सामान मंगवा लिया. अब पुराने रैक, काउंटर इत्यादि रंगरोगन के बाद खिल उठे थे, रैडीमेड कपड़ों व रंगबिरंगे ऊनी स्वेटरों से दुकान सज गई. धीरेधीरे खरीददार भी आने लगे. उसे यह सब देख कर अच्छा लगने लगा.

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इस बहाने उस का आसपास के लोगों से मेलमिलाप भी बढ़ गया और मन को आनंद की अनुभूति मिली सो अलग.

दिन ढलने लगता, तो वह हिसाबकिताब निबटा कर घर आ जाती.

लोग उम्र के बढ़ते ही हौसला छोड़ने लगते हैं और वह हौसला जोड़ने में लग गई. लीला का संबल ही उस की सब से बड़ी ताकत थी.

कुछ वर्ष फिर शांति से कट गए. कसबे के लोगों की नजर में सुभद्रा का कद और बढ़ गया. कसबे के लोग उस के अपने ही तो थे, सुखदुख के सहचर. कसबे के लोगों में उसे अपना परिवार सा दिखाई देता. किसी की दादी, किसी की बूआ, तो किसी की चाची, कितने सारे रिश्ते बन गए थे उस के.

हां, एक ननद ही थी जो रिश्ता निभाने में कंजूस निकली.

एक दिन अचानक निर्मल सीधे दुकान पर आ धमका. उन दिनों तबीयत ठीक नहीं थी सुभद्रा की. ननदोई की सेवा करने की क्षमता भी नहीं थी. सुभद्रा ने विवश स्वर में कहा, “अनीता को साथ लाते, तो वह तुम्हारे खानेपीने का खयाल रखती. दुकान खुली रखना भी मेरी मजबूरी है.”

“आना तो चाहती थी लेकिन बच्चों के एग्जाम हैं. वैसे, मैं शाम तक लौट जाऊंगा.”

“ऐसा भी क्या काम आ गया अचानक,” सुभद्रा ने उसे कुरेदा.

एकबारगी वह झिझका, फिर धीरे से बोला, “मदद चाहिए थी, इसलिए आप के पास आया हूं.”

“कैसी मदद, मैं कुछ समझी नहीं?” सुभद्रा ने निर्मल की ओर देखा. उस की आंखों की झिझक ने उस के अंदर का भेद कुछ हद तक उजागर कर दिया.

“2 लाख रुपयों की जरूरत आ पड़ी है. अनीता ने जिद्द की कि आप से मिल जाएंगे कुछ समय के लिए.”

सुभद्रा के होंठों पर फीकी मुसकराहट आ कर टिक गई. दुनिया में लोग स्वार्थ  के लिए अपना सम्मान और प्रेम तक को ताक पर रख देते हैं. सच्चा प्रेम होता तो उस के दुख को समझते, उस की तकलीफ़ पूछते.”

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सुभद्रा का मन खट्टा हो गया लेकिन प्रेम अपनी जगह कायम था, ननदोई है आखिर. अनिता जैसी भी है, अपनी है.

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Writer- यदु जोशी गढ़देशी

सुभद्रा वैधव्य के दिन झेल रही थी. पति ने उस के लिए सिवा अपने, किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी. यही था उस के सामने एक बड़ा शून्य. यही था उस की आंखों का पानी जो चारों प्रहर उमड़ताघुमड़ता रहता.

वह जिस घर में रहती है, वह दुमंजिला है. उस के निचले हिस्से सुभद्रा ने किराए पर दे दिए हैं. बाजार में 2 दुकानें भी हैं. उन में एक किराए  पर है, दूसरी बंद पड़ी है. गुजारे से अधिक मिल जाता है, बाकी वह बैंक में जमा कर आती है.

जमा पूंजी की न जाने कब जरूरत आन पड़े, किसे पता? वह पति की कमी और खालीपन से घिरी हो कर भी जिंदगी से हारना नहीं चाहती. कहनेभर को रिश्तेदारी थी. न अपनत्व था और न ही संपर्क. मांबाप  दुनिया से जा चुके थे.

पति के बड़े भाई कनाडा में बस गए. न कभी वे आए और न कभी उन की खबर ही मिली. एक ननद थी अनीता, सालों तक गरमी के दिनों में आती बच्चों के झुंड के साथ. छुट्टियां बिताती, फिर पूरे साल अपने में ही मस्त रहती. कभी कुशलक्षेम पूछने की ज़हमत न उठाती.

जिन दिनों उस का परिवार आता, सुभद्रा को लगता जैसे उस की बगिया में असमय वसंत आ गया हो. सुभद्रा अपनी पीड़ा भूल जाती. उसे लगता, धीरेधीरे ही सही उस की छोटी सी दुनिया में अभी भी आशाओं की कोंपले खिल रही हैं. अनीता, उस का पति निर्मल और तीनों बच्चे घर में होते तो सुभद्रा के शरीर में अनोखी ताकत आ जाती. सुबह से रात तक वह जीजान से सब की खिदमत में जुटी रहती. बच्चों की धमाचौकड़ी में वह भूल जाती कि अब वह बूढ़ी हो रही है. कब सुबह हुई और कब शाम, पता ही न चलता. इस सब के पार्श्व में प्रेम ही तो था जिस के कोने में कहीं आशाओं के दीप टिमटिमाया करते हैं.

जब बच्चों के स्कूल खुलने को होते, तब सुभद्रा के चेहरे पर उदासी की रेखाएं उभरने लगतीं. छुट्टियां ख़त्म होतीं और सब के प्रस्थान करते ही, फिर वही घटाटोप सन्नाटा, वही पीड़ा और एकाकीपन उसे घेर कर बैठ जाते. मानो कहते हों, सुभद्रा तुम्हारे लिए हम हैं और तुम हमारे लिए.

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उम्र  बेल की तरह बढ़ती रही और सुभद्रा 65 वर्ष पार कर गई. अनीता का आनाजाना अब बंद हो गया. कभीकभी उसे अपने इस समर्पित भाव पर क्षोभ होता, कभी हंसी आती. फिर सोचती, ननद के प्रति उस का कर्तव्य है. उसे रिश्ते निभाने हैं, लेकिन सीमा निर्धारित उसे ही करनी है. एक हाथ से ही कहां ताली बजती है.

प्रेम जीवन का आधार है. यदि प्रेम ही एकाकी रह जाए या उस की अवहेलना होती रहे, तब अवसाद जन्म लेता है, बिखराव आता है और उद्विग्नता भी. यही हो रहा था उस के साथ.

कभीकभी कसबे की हमउम्र महिलाएं घर पर मिलने आ जातीं. जी हलका हो जाता. मिलबैठ कर अपनेअपने दुखदर्द बांटने का इस से अच्छा उपाय उसे कोई दूसरा नहीं लगा.

सुभद्रा बहुत मिलनसार थी. कसबे में उसे भरपूर सम्मान मिलता. सभी से प्रेम से मिलता. असहाय मिल जाते तो उन की मदद करने से वह न चूकती. हिसाबकिताब में भी सुलझी हुई थी वह.

उस की सब से अधिक पटती थी लीला से. वह कसबे के संपन्न व्यवसायी की पत्नी थी. लीला थी बहुत ही व्यवहारकुशल, सुभाषणी और सुभद्रा की शुभचिंतक. बरसों की मित्रता थी और एकदूजे के सुखदुख की सहचर. उस ने सुभद्रा को कई बार बंद पड़ी दुकान खोलने का सुझाव दिया.

सुभद्रा टालती रही. क्या करेगी वह इस बुढ़ापे में. पैसा है, इज्जत है, हितैषी हैं और कितना चाहिए उसे?

कई दिनों के बाद एक दिन लीला अचानक घर पर आ गई.

सुभद्रा का चेहरा घने बादलों के बीच से निकलते सूरज की तरह चमचमाने लगा. वह खुशी से बोल पड़ी, ”गनीमत है आज तुझे मेरी याद आ ही गई. देख, सुभद्रा अभी जिंदा है, मरी नहीं.”

“बहुत व्यस्त रही इस दौरान पोतापोती के साथ. बाहर निकलना मुश्किल हो गया था.”

“अरे, मैं तो मजाक में कह गई. बैठ, पानी लाती हूं, थक गई होगी.” सुभद्रा बोली तो लीला मुसकरा दी, “मेरा कहा बुरा तो नहीं लगा, अपना मानती हूं, इसीलिए कह गई.”

“नहीं रे, तू मेरी सहेली ही नहीं, बहन भी है. तू डांटेगी भी, तो सुन लूंगी,” यह कह कर लीला हंस दी.

“तभी तो तू मेरे दिल में कुंडली डाले बैठी है,” सुभद्रा उठने का उपक्रम करती हुई बोली.

लीला जोरों से खिलखिलाने लगी, फिर थोड़ी देर में गंभीर हो गई, “कुछ फैसला किया तूने दुकान खोलने का?”

“समझ में नहीं आ रहा, एक औरत जात के लिए इस उम्र में इतनी जिम्मेदारी वाला काम. फिर, चले न चले.”

“आजकल औरतें मर्दों से कम हैं क्या? देख, दुख पीछे देखता है लेकिन आशा हमेशा आगे देखती है. समय निकाल कर दुकान में बैठना शुरू कर.”

“वह तो सब ठीक है लेकिन भागदौड़ नहीं हो पाएगी. पहले जैसी ताकत कहां है अब.”

“कोशिश करेगी, तो सब हो जाएगा. दुकान के लिए रैडीमेड गारमैंट्स मैं मंगवा दिया करूंगी.”

“अच्छा, जैसी तेरी इच्छा,” सुभद्रा ने सहमति में सिर हिलाया.

“सच कह रही है न? चलनाफिरना करोगी तो फायदा ही होगा,” लीला ने समझाया.

बातें करतेकरते सुभद्रा चाय भी बना लाई. लीला कुछ घंटे उस के पास बैठ कर अपने घर चली गई.

लीला का मन रखने के लिए उस ने दुकान की साफसफाई करवा दी. कुछ ही दिनों में लीला ने अपने पति से कह कर लुधियाना से होजरी का सामान मंगवा लिया. अब पुराने रैक, काउंटर इत्यादि रंगरोगन के बाद खिल उठे थे, रैडीमेड कपड़ों व रंगबिरंगे ऊनी स्वेटरों से दुकान सज गई. धीरेधीरे खरीददार भी आने लगे. उसे यह सब देख कर अच्छा लगने लगा.

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इस बहाने उस का आसपास के लोगों से मेलमिलाप भी बढ़ गया और मन को आनंद की अनुभूति मिली सो अलग.

दिन ढलने लगता, तो वह हिसाबकिताब निबटा कर घर आ जाती.

लोग उम्र के बढ़ते ही हौसला छोड़ने लगते हैं और वह हौसला जोड़ने में लग गई. लीला का संबल ही उस की सब से बड़ी ताकत थी.

कुछ वर्ष फिर शांति से कट गए. कसबे के लोगों की नजर में सुभद्रा का कद और बढ़ गया. कसबे के लोग उस के अपने ही तो थे, सुखदुख के सहचर. कसबे के लोगों में उसे अपना परिवार सा दिखाई देता. किसी की दादी, किसी की बूआ, तो किसी की चाची, कितने सारे रिश्ते बन गए थे उस के.

हां, एक ननद ही थी जो रिश्ता निभाने में कंजूस निकली.

एक दिन अचानक निर्मल सीधे दुकान पर आ धमका. उन दिनों तबीयत ठीक नहीं थी सुभद्रा की. ननदोई की सेवा करने की क्षमता भी नहीं थी. सुभद्रा ने विवश स्वर में कहा, “अनीता को साथ लाते, तो वह तुम्हारे खानेपीने का खयाल रखती. दुकान खुली रखना भी मेरी मजबूरी है.”

“आना तो चाहती थी लेकिन बच्चों के एग्जाम हैं. वैसे, मैं शाम तक लौट जाऊंगा.”

“ऐसा भी क्या काम आ गया अचानक,” सुभद्रा ने उसे कुरेदा.

एकबारगी वह झिझका, फिर धीरे से बोला, “मदद चाहिए थी, इसलिए आप के पास आया हूं.”

“कैसी मदद, मैं कुछ समझी नहीं?” सुभद्रा ने निर्मल की ओर देखा. उस की आंखों की झिझक ने उस के अंदर का भेद कुछ हद तक उजागर कर दिया.

“2 लाख रुपयों की जरूरत आ पड़ी है. अनीता ने जिद्द की कि आप से मिल जाएंगे कुछ समय के लिए.”

सुभद्रा के होंठों पर फीकी मुसकराहट आ कर टिक गई. दुनिया में लोग स्वार्थ  के लिए अपना सम्मान और प्रेम तक को ताक पर रख देते हैं. सच्चा प्रेम होता तो उस के दुख को समझते, उस की तकलीफ़ पूछते.”

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सुभद्रा का मन खट्टा हो गया लेकिन प्रेम अपनी जगह कायम था, ननदोई है आखिर. अनिता जैसी भी है, अपनी है.

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March 01, 2022 at 09:00AM

बाजारीकरण: जब बेटी के लिए नीला ने किराए पर रखी कोख

आजनीला का सिर बहुत तेज भन्ना रहा था, काम में भी मन नहीं लग रहा था, रात भर सो न सकी थी. इसी उधेड़बुन में लगी रही कि क्या करे और क्या न करे? एक तरफ बेटी की पढ़ाई तो दूसरी तरफ फीस की फिक्र. अपनी इकलौती बच्ची का दिल नहीं तोड़ना चाहती थी. पर एक बच्चे को पढ़ाना इतना महंगा हो जाएगा, उस ने सोचा न था. पति की साधारण सी नौकरी उस पर शिक्षा का इतना खर्च. आजकल एक आदमी की कमाई से तो घर खर्च ही चल पाता है. तभी बेचारी छोटी सी नौकरी कर रही थी. इतनी पढ़ीलिखी भी तो नहीं थी कि कोई बड़ा काम कर पाती. बड़ी दुविधा में थी.

‘यदि वह सैरोगेट मदर बने तो क्या उस के पति उस के इस निर्णय से सहमत होंगे? लोग क्या कहेंगे? कहीं ऐसा तो नहीं कि सारे रिश्तेनातेदार उसे कलंकिनी कहने लगें?’ नीला सोच रही थी.

तभी अचानक अनिता की आवाज से उस की तंद्रा टूटी, ‘‘माथे पर सिलवटें लिए क्या सोच रही हो नीला?’’

‘‘वही निशा की आगे की पढ़ाई के बारे में. अनिता फीस भरने का समय नजदीक आ रहा है और पैसों का इंतजाम है नहीं. इतना पैसा तो कोई सगा भी नहीं देगा और दे भी दे तो लौटाऊंगी कैसे? घर जाती हूं तो निशा की उदास सूरत देखी नहीं जाती और यहां काम में मन नहीं लग रहा,’’ नीला बोली.

‘‘मैं समझ सकती हूं तुम्हारी परेशानी. इसीलिए मैं ने तुम्हें सैरोगेट मदर के बारे में बताया था. फिर उस में कोई बुराई भी नहीं है नीला. जिन दंपतियों के किसी कारण बच्चा नहीं होता या फिर महिला में कोई बीमारी हो जिस से वह बच्चा पैदा करने में असक्षम हो तो ऐसे दंपती स्वस्थ महिला की कोख किराए पर लेते हैं. जब बच्चा पैदा हो जाता है, तो उसे उस दंपती को सुपुर्द करना होता है. कोख किराए पर देने वाली महिला की उस बच्चे के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं होती और न ही उस बच्चे पर कोई हक. इस में उस दंपती महिला के अंडाणुओं को पुरुष के शुक्राणुओं से निषेचित कर कोख किराए पर देने वाली महिला के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है. यह कानूनन कोई गलत काम नहीं है. इस से तुम्हें पैसे मिल जाएंगे जो तुम्हारी बेटी की पढ़ाई के काम आएंगे.’’

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‘‘अनिता तुम तो मेरे भले की बात कह रही हो, किंतु पता नहीं मेरे पति इस के लिए मानेंगे या नहीं?’’ नीला ने मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘और फिर पड़ोसी? रिश्तेदार क्या कहेंगे?’’

नीला को अनिता की बात जंच गई

अनिता ने कहा, ‘‘बस तुम्हारे पति मान जाएं. रिश्तेदारों की फिक्र न करो. वैसे भी तुम्हारी बेटी का दाखिला कोटा में आईआईटी प्रवेश परीक्षा की तैयारी कराने वाले इंस्टिट्यूट में हुआ है. वह तो वहां जाएगी ही और यदि तुम कोख किराए पर दोगी तो तुम्हें भी तो ‘लिटल ऐंजल्स’ सैंटर में रहना पड़ेगा जहां अन्य सैरोगेट मदर्स भी रहती हैं. तब तुम कह सकती हो कि अपनी बेटी के पास जा रही हो.’’

नीला को अनिता की बात जंच गई. रात को खाना खा सोने से पहले जब नीला ने अपने पति को यह सैरोगेट मदर्स वाली बात बताई तो एक बार तो उन्होंने साफ मना कर दिया, लेकिन नीला तो जैसे ठान चुकी थी. सो अपनी बेटी का वास्ता देते हुए बोली, ‘‘देखोजी, आजकल पढ़ाई कितनी महंगी हो गई है. हमारा जमाना अलग था. जब सरकारी स्कूलों में पढ़ कर बच्चे अच्छे अंक ले आते थे और आगे फिर सरकारी कालेज में दाखिला ले कर डाक्टर, इंजीनियर आदि बन जाते थे, पर आजकल बहुत प्रतिद्वंद्विता है. बच्चे अच्छे कोचिंग सैंटरों में दाखिला ले कर डाक्टरी या फिर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए प्रवेश परीक्षा की तैयारी करते हैं. हमारी तो एक ही बेटी है. वह कुछ बन जाए तो हमारी भी चिंता खत्म हो जाए. उसे कोटा में दाखिला मिल भी गया है. अब बस बात फीस पर ही तो अटकी है. यदि हम उस की फीस न भर पाए तो बेचारी आईआईटी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी न कर पाएगी. दूसरे बच्चे उस से आगे निकल जाएंगे. आजकल बहुत प्रतियोगिता है. यदि उस ने वह परीक्षा पास कर भी ली, तो हम आगे की फीस न भर पाएंगे. फिर खाली इंस्टिट्यूट की ही नहीं वहां कमरा किराए पर ले कर रहने व खानेपीने का खर्चा भी तो बढ़ जाएगा. हम इतना पैसा कहां से लाएंगे?’’

नीला के  बारबार कहने पर उस के पति मान गए

‘‘अनिता बता रही थी कि कोख किराए पर देने से क्व7-8 लाख तक मिल जाएंगे. फिर सिर्फ 9 माह की ही तो बात है. उस के बाद तो कोई चिंता नहीं. हमें अपनी बेटी के भविष्य के बारे में सोचना चाहिए. पढ़ जाएगी तो कोई अच्छा लड़का भी मिल जाएगा. जमाना बदल रहा है हमें भी अपनी सोच बदलनी चाहिए.’’

नीला के  बारबार कहने पर उस के पति मान गए. अगले दिन नीला ने यह बात खुश हो कर अनिता को बताई. अब नीला बेटी को कोटा भेजने की व स्वयं के लिटल ऐंजल्स जाने की तैयारी में जुट गई. उसे कुछ पैसे कोख किराए पर देने के लिए ऐडवांस में मिल गए. उस ने निशा को फीस के पैसे दे कर कोटा रवाना किया और स्वयं भी लिट्ल ऐंजल्स रवाना हो गई.

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वहां जा कर नीला 1-1 दिन गिन रही थी कि कब 9 माह पूरे हों और वह उस दंपती को बच्चा सौंप अपने घर लौटे. 5वां महीना पूरा हुआ. बच्चा उस के पेट में हलचल करने लगा था. वह मन ही मन सोचने लगी थी कि लड़का होगा या लड़की. क्या थोड़ी शक्ल उस से भी मिलती होगी? आखिर खून तो बच्चे की रगों में नीला का ही दौड़ रहा है. क्या उस की शक्ल उस की बेटी निशा से भी कुछ मिलतीजुलती होगी? वह बारबार अपने बढ़ते पेट पर हाथ फिरा कर बच्चे को महसूस करने की कोशिश करती और सोचती की काश उस के पति भी यहां होते. उस के शरीर में हारमोन भी बदलने लगे थे. नौ माह पूरे होते ही नीला ने एक स्वस्थ लड़की को जन्म दिया. वे दंपती अपने बच्चे को लेने के इंतजार में थे. नीला उसे जी भर कर देखना चाहती थी, उसे चूमना चाहती थी, उसे अपना दूध पिलाना चाहती थी, किंतु अस्पताल वालों ने झट से बच्चा उस दंपती को दे दिया. नीला कहती रह गई कि उसे कुछ समय तो बिताने दो बच्चे के साथ. आखिर उस ने 9 माह उसे पेट में पाला है. लेकिन अस्पताल वाले नहीं चाहते थे कि नीला का उस बच्चे से कोई भावनात्मक लगाव हो. इसलिए उन्होंने उसे कागजी कार्यवाही की शर्तें याद दिला दीं. उन के मुताबिक नीला का उस बच्चे पर कोई हक नहीं होगा.

नीला की ममता चीत्कार कर रही थी कि अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए उस ने अपनी कोख 9 माह किराए पर क्यों दी. ऐसा महसूस कर रही थी जैसे ममता बिक गई हो. वह मन ही मन सोच रही थी कि वाह रे शिक्षा के बाजारीकरण, तूने तो एक मां से उस की ममता भी खरीद ली.

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आजनीला का सिर बहुत तेज भन्ना रहा था, काम में भी मन नहीं लग रहा था, रात भर सो न सकी थी. इसी उधेड़बुन में लगी रही कि क्या करे और क्या न करे? एक तरफ बेटी की पढ़ाई तो दूसरी तरफ फीस की फिक्र. अपनी इकलौती बच्ची का दिल नहीं तोड़ना चाहती थी. पर एक बच्चे को पढ़ाना इतना महंगा हो जाएगा, उस ने सोचा न था. पति की साधारण सी नौकरी उस पर शिक्षा का इतना खर्च. आजकल एक आदमी की कमाई से तो घर खर्च ही चल पाता है. तभी बेचारी छोटी सी नौकरी कर रही थी. इतनी पढ़ीलिखी भी तो नहीं थी कि कोई बड़ा काम कर पाती. बड़ी दुविधा में थी.

‘यदि वह सैरोगेट मदर बने तो क्या उस के पति उस के इस निर्णय से सहमत होंगे? लोग क्या कहेंगे? कहीं ऐसा तो नहीं कि सारे रिश्तेनातेदार उसे कलंकिनी कहने लगें?’ नीला सोच रही थी.

तभी अचानक अनिता की आवाज से उस की तंद्रा टूटी, ‘‘माथे पर सिलवटें लिए क्या सोच रही हो नीला?’’

‘‘वही निशा की आगे की पढ़ाई के बारे में. अनिता फीस भरने का समय नजदीक आ रहा है और पैसों का इंतजाम है नहीं. इतना पैसा तो कोई सगा भी नहीं देगा और दे भी दे तो लौटाऊंगी कैसे? घर जाती हूं तो निशा की उदास सूरत देखी नहीं जाती और यहां काम में मन नहीं लग रहा,’’ नीला बोली.

‘‘मैं समझ सकती हूं तुम्हारी परेशानी. इसीलिए मैं ने तुम्हें सैरोगेट मदर के बारे में बताया था. फिर उस में कोई बुराई भी नहीं है नीला. जिन दंपतियों के किसी कारण बच्चा नहीं होता या फिर महिला में कोई बीमारी हो जिस से वह बच्चा पैदा करने में असक्षम हो तो ऐसे दंपती स्वस्थ महिला की कोख किराए पर लेते हैं. जब बच्चा पैदा हो जाता है, तो उसे उस दंपती को सुपुर्द करना होता है. कोख किराए पर देने वाली महिला की उस बच्चे के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं होती और न ही उस बच्चे पर कोई हक. इस में उस दंपती महिला के अंडाणुओं को पुरुष के शुक्राणुओं से निषेचित कर कोख किराए पर देने वाली महिला के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है. यह कानूनन कोई गलत काम नहीं है. इस से तुम्हें पैसे मिल जाएंगे जो तुम्हारी बेटी की पढ़ाई के काम आएंगे.’’

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‘‘अनिता तुम तो मेरे भले की बात कह रही हो, किंतु पता नहीं मेरे पति इस के लिए मानेंगे या नहीं?’’ नीला ने मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘और फिर पड़ोसी? रिश्तेदार क्या कहेंगे?’’

नीला को अनिता की बात जंच गई

अनिता ने कहा, ‘‘बस तुम्हारे पति मान जाएं. रिश्तेदारों की फिक्र न करो. वैसे भी तुम्हारी बेटी का दाखिला कोटा में आईआईटी प्रवेश परीक्षा की तैयारी कराने वाले इंस्टिट्यूट में हुआ है. वह तो वहां जाएगी ही और यदि तुम कोख किराए पर दोगी तो तुम्हें भी तो ‘लिटल ऐंजल्स’ सैंटर में रहना पड़ेगा जहां अन्य सैरोगेट मदर्स भी रहती हैं. तब तुम कह सकती हो कि अपनी बेटी के पास जा रही हो.’’

नीला को अनिता की बात जंच गई. रात को खाना खा सोने से पहले जब नीला ने अपने पति को यह सैरोगेट मदर्स वाली बात बताई तो एक बार तो उन्होंने साफ मना कर दिया, लेकिन नीला तो जैसे ठान चुकी थी. सो अपनी बेटी का वास्ता देते हुए बोली, ‘‘देखोजी, आजकल पढ़ाई कितनी महंगी हो गई है. हमारा जमाना अलग था. जब सरकारी स्कूलों में पढ़ कर बच्चे अच्छे अंक ले आते थे और आगे फिर सरकारी कालेज में दाखिला ले कर डाक्टर, इंजीनियर आदि बन जाते थे, पर आजकल बहुत प्रतिद्वंद्विता है. बच्चे अच्छे कोचिंग सैंटरों में दाखिला ले कर डाक्टरी या फिर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए प्रवेश परीक्षा की तैयारी करते हैं. हमारी तो एक ही बेटी है. वह कुछ बन जाए तो हमारी भी चिंता खत्म हो जाए. उसे कोटा में दाखिला मिल भी गया है. अब बस बात फीस पर ही तो अटकी है. यदि हम उस की फीस न भर पाए तो बेचारी आईआईटी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी न कर पाएगी. दूसरे बच्चे उस से आगे निकल जाएंगे. आजकल बहुत प्रतियोगिता है. यदि उस ने वह परीक्षा पास कर भी ली, तो हम आगे की फीस न भर पाएंगे. फिर खाली इंस्टिट्यूट की ही नहीं वहां कमरा किराए पर ले कर रहने व खानेपीने का खर्चा भी तो बढ़ जाएगा. हम इतना पैसा कहां से लाएंगे?’’

नीला के  बारबार कहने पर उस के पति मान गए

‘‘अनिता बता रही थी कि कोख किराए पर देने से क्व7-8 लाख तक मिल जाएंगे. फिर सिर्फ 9 माह की ही तो बात है. उस के बाद तो कोई चिंता नहीं. हमें अपनी बेटी के भविष्य के बारे में सोचना चाहिए. पढ़ जाएगी तो कोई अच्छा लड़का भी मिल जाएगा. जमाना बदल रहा है हमें भी अपनी सोच बदलनी चाहिए.’’

नीला के  बारबार कहने पर उस के पति मान गए. अगले दिन नीला ने यह बात खुश हो कर अनिता को बताई. अब नीला बेटी को कोटा भेजने की व स्वयं के लिटल ऐंजल्स जाने की तैयारी में जुट गई. उसे कुछ पैसे कोख किराए पर देने के लिए ऐडवांस में मिल गए. उस ने निशा को फीस के पैसे दे कर कोटा रवाना किया और स्वयं भी लिट्ल ऐंजल्स रवाना हो गई.

ये भी पढ़ें- आत्मग्लानि: कोमल ने चैन की सांस कब ली

वहां जा कर नीला 1-1 दिन गिन रही थी कि कब 9 माह पूरे हों और वह उस दंपती को बच्चा सौंप अपने घर लौटे. 5वां महीना पूरा हुआ. बच्चा उस के पेट में हलचल करने लगा था. वह मन ही मन सोचने लगी थी कि लड़का होगा या लड़की. क्या थोड़ी शक्ल उस से भी मिलती होगी? आखिर खून तो बच्चे की रगों में नीला का ही दौड़ रहा है. क्या उस की शक्ल उस की बेटी निशा से भी कुछ मिलतीजुलती होगी? वह बारबार अपने बढ़ते पेट पर हाथ फिरा कर बच्चे को महसूस करने की कोशिश करती और सोचती की काश उस के पति भी यहां होते. उस के शरीर में हारमोन भी बदलने लगे थे. नौ माह पूरे होते ही नीला ने एक स्वस्थ लड़की को जन्म दिया. वे दंपती अपने बच्चे को लेने के इंतजार में थे. नीला उसे जी भर कर देखना चाहती थी, उसे चूमना चाहती थी, उसे अपना दूध पिलाना चाहती थी, किंतु अस्पताल वालों ने झट से बच्चा उस दंपती को दे दिया. नीला कहती रह गई कि उसे कुछ समय तो बिताने दो बच्चे के साथ. आखिर उस ने 9 माह उसे पेट में पाला है. लेकिन अस्पताल वाले नहीं चाहते थे कि नीला का उस बच्चे से कोई भावनात्मक लगाव हो. इसलिए उन्होंने उसे कागजी कार्यवाही की शर्तें याद दिला दीं. उन के मुताबिक नीला का उस बच्चे पर कोई हक नहीं होगा.

नीला की ममता चीत्कार कर रही थी कि अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए उस ने अपनी कोख 9 माह किराए पर क्यों दी. ऐसा महसूस कर रही थी जैसे ममता बिक गई हो. वह मन ही मन सोच रही थी कि वाह रे शिक्षा के बाजारीकरण, तूने तो एक मां से उस की ममता भी खरीद ली.

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February 28, 2022 at 12:54PM

पुनर्विवाह: क्या पत्नी की मौत के बाद आकाश ने दूसरी शादी की?

जब से पूजा दिल्ली की इस नई कालोनी में रहने आई थी उस का ध्यान बरबस ही सामने वाले घर की ओर चला जाता था, जो उस की रसोई की खिड़की से साफ नजर आता था. एक अजीब सा आकर्षण था इस घर में. चहलपहल के साथसाथ वीरानगी और मुसकराहट के साथसाथ उदासी का एहसास भी होता था उसे देख कर. एक 30-35 वर्ष का पुरुष अकसर अंदरबाहर आताजाता नजर आता था. कभीकभी एक बुजुर्ग दंपती भी दिखाई देते थे और एक 5-6 वर्ष का बालक भी.

उस घर में पूजा की उत्सुकता तब और भी बढ़ गई जब उस ने एक दिन वहां एक युवती को भी देखा. उसे देख कर उसे ऐसा लगा कि वह यदाकदा ही बाहर निकलती है. उस का सुंदर मासूम चेहरा और गरमी के मौसम में भी सिर पर स्कार्फ उस की जिज्ञासा को और बढ़ा गया.

जब पूजा की उत्सुकता हद से ज्यादा बढ़ गई तो एक दिन उस ने अपने दूध वाले से पूछ ही लिया, ‘‘भैया, तुम सामने वाले घर में भी दूध देते हो न. बताओ कौनकौन हैं उस घर में.’’

यह सुनते ही दूध वाले की आंखों में आंसू और आवाज में करुणा भर गई. भर्राए स्वर में बोला, ‘‘दीदी, मैं 20 सालों से इस घर में दूध दे रहा हूं पर ऐसा कभी नहीं देखा. यह साल तो जैसे इन पर कयामत बन कर ही टूट पड़ा है. कभी दुश्मन के साथ भी ऐसा अन्याय न हो,’’ और फिर फूटफूट कर रोने लगा.

‘‘भैया अपनेआप को संभालो,’’ अब पूजा को पड़ोसियों से ज्यादा अपने दूध वाले की चिंता होने लगी थी. पर मन अभी भी यह जानने के लिए उत्सुक था कि आखिर क्या हुआ है उस घर में.

शायद दूध वाला भी अपने मन का बोझ हलका करने के लिए बेचैन था.

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अत: कहने लगा, ‘‘क्या बताऊं दीदी, छोटी सी गुडि़या थी सलोनी बेबी जब मैं ने इस घर में दूध देना शुरू किया था. देखते ही देखते वह सयानी हो गई और उस के लिए लड़के की तलाश शुरू हो गई. सलोनी बेबी ऐसी थी कि सब को देखते ही पसंद आ जाए पर वर भी उस के जोड़ का होना चाहिए था न.

‘‘एक दिन आकाश बाबू उन के घर आए. उन्होंने सलोनी के मातापिता से कहा कि शायद सलोनी ने अभी आप को बताया नहीं है… मैं और सलोनी एकदूसरे को चाहते हैं और अब विवाह करना चाहते हैं,’’ और फिर अपना पूरा परिचय दिया.

‘‘आकाश बाबू इंजीनियर थे व मांबाप की इकलौती औलाद. सलोनी के मातापिता को एक नजर में ही भा गए. फिर उन्होंने पूछा कि क्या तुम्हारे मातापिता को यह रिश्ता मंजूर है?

‘‘यह सुन कर आकाश बाबू कुछ उदास हो गए फिर बोले कि मेरे मातापिता अब इस दुनिया में नहीं हैं. 2 वर्ष पूर्व एक कार ऐक्सिडैंट में उन की मौत हो गई थी.

‘‘यह सुन कर सलोनी के मातापिता बोले कि हमें यह रिश्ता मंजूर है पर इस शर्त पर कि विवाहोपरांत भी तुम सलोनी को ले कर यहां आतेजाते रहोगे. सलोनी हमारी इकलौती संतान है. तुम्हारे यहां आनेजाने से हमें अकेलापन महसूस नहीं होगा और हमारे जीवन में बेटे की कमी भी पूरी हो जाएगी.

‘‘आकाश बाबू राजी हो गए. फिर क्या था धूमधाम से दोनों का विवाह हो गया और फिर साल भर में गोद भी भर गई.’’

‘‘यह सब तो अच्छा ही है. इस में रोने की क्या बात है?’’ पूजा ने कहा.

दूध वाले ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘एक दिन जब मैं दूध देने गया तो घर में सलोनी बिटिया, आकाश बाबू और शौर्य यानी सलोनी बिटिया का बेटा भी था. तब मैं ने कहा कि बिटिया कैसी हो? बहुत दिनों बाद दिखाई दीं. मेरी तो आंखें ही तरस जाती हैं तुम्हें देखने के लिए. पर मैं बड़ा हैरान हुआ कि जो सलोनी मुझे काकाकाका कहते नहीं थकती थी वह मेरी बात सुन कर मुंह फेर कर अंदर चली गई. मैं ने सोचा बेटियां ससुराल जा कर पराई हो जाती हैं और कभीकभी उन के तेवर भी बदल जाते हैं. अब वह कहां एक दूध वाले से बात करेगी और फिर मैं वहां से चला आया. पर अगले ही दिन मुझे मालूम पड़ा कि मुझ से न मिलने की वजह कुछ और ही थी. सलोनी बिटिया नहीं चाहती थी कि सदा उस का खिलखिलाता चेहरा देखने वाला काका उस का उदास व मायूस चेहरा देखे.

‘‘दरअसल, सलोनी बिटिया इस बार वहां मिलने नहीं, बल्कि अपना इलाज करवाने आई थी. कुछ दिन पहले ही पता चला था कि उसे तीसरी और अंतिम स्टेज का ब्लड कैंसर है. इसलिए डाक्टर ने जल्दी से जल्दी दिल्ली ले जाने को कहा था. यहां इस बीमारी का इलाज नहीं था.

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‘‘सलोनी को अच्छे से अच्छे डाक्टरों को दिखाया गया, पर कोई फायदा नहीं हुआ. ब्लड कैंसर की वजह से सलोनी बिटिया की हालत दिनोंदिन बिगड़ती चली गई. बारबार कीमोथेरैपी करवाने से उस के लंबे, काले, रेशमी बाल भी उड़ गए. इसी वजह से वह हर वक्त स्कार्फ बांधे रखती. कितनी बार खून बदलवाया गया. पर सब व्यर्थ. आकाश बाबू बहुत चाहते हैं सलोनी बिटिया को. हमेशा उसी के सिरहाने बैठे रहते हैं… तनमनधन सब कुछ वार दिया आकाश बाबू ने सलोनी बिटिया के लिए.’’

शाम को जब विवेक औफिस से आए तो पूजा ने उन्हें सारी बात बताई, ‘‘इस

दुखद कहानी में एक सुखद बात यह है कि आकाश बाबू बहुत अच्छे पति हैं. ऐसी हालत में सलोनी की पूरीपूरी सेवा कर रहे हैं. शायद इसीलिए विवाह संस्कार जैसी परंपराओं का इतना महत्त्व दिया जाता है और यह आधुनिक पीढ़ी है कि विवाह करना ही नहीं चाहती. लिव इन रिलेशनशिप की नई विचारधारा ने विवाह जैसे पवित्र बंधन की धज्जियां उड़ा दी हैं.’’

फिर, ‘मैं भी किन बातों में उलझ गई. विवेक को भूख लगी होगी. वे थकेहारे औफिस से आए हैं. उन की देखभाल करना मेरा भी तो कर्तव्य है,’ यह सोच कर पूजा रसोई की ओर चल दी. रसोई से फिर सामने वाला मकान नजर आया.

आज वहां काफी हलचल थी. लगता था घर की हर चीज अपनी जगह से मिलना चाहती है. घर में कई लोग इधरउधर चक्कर लगा रहे थे. बाहर ऐंबुलैंस खड़ी थी. पूजा सहम गई कि कहीं सलोनी को कुछ…

पूजा का शक ठीक था. उस दिन सलोनी की तबीयत अचानक खराब हो गई और उसे अस्पताल में भरती कराना पड़ा. हालांकि उन से अधिक परिचय नहीं था, फिर भी पूजा और विवेक अगले दिन उस से मिलने अस्पताल गए. वहां आकाश की हालत ठीक उस परिंदे जैसी थी, जिसे पता था कि उस के पंख अभी कटने वाले ही हैं, क्योंकि डाक्टरों ने यह घोषित कर दिया था कि सलोनी अपने जीवन की अंतिम घडि़यां गिन रही है. फिर वही हुआ. अगले दिन सलोनी इस संसार से विदा हो गई.

इस घटना को घटे करीब 2 महीने हो गए थे पर जब भी उस घर पर नजर पड़ती पूजा की आंखों के आगे सलोनी का मासूम चेहरा घूम जाता और साथ ही आकाश का बेबस चेहरा. मानवजीवन पर असाध्य रोगों की निर्ममता का जीताजागता उदाहरण और पति फर्ज की साक्षात मूर्ति आकाश.

दोपहर के 2 बजे थे. घर का सारा काम निबटा कर मैं लेटने ही जा रही थी कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई. दरवाजे पर एक महिला थी. शायद सामने वाले घर में आई थी, क्योंकि पूजा ने इन दिनों कई बार उसे वहां देखा था. उस का अनुमान सही था.

‘‘मैं आप को न्योता देने आई हूं.’’

‘‘कुछ खास है क्या?’’

‘‘हां, कल शादी है न. आप जरूर आइएगा.’’

इस से पहले कि पूजा कुछ और पूछती, वह महिला चली गई. शायद वह बहुत जल्दी में थी.

वह तो चली गई पर जातेजाते पूजा की नींद उड़ा गई. सारी दोपहरी वह यही सोचती रही कि आखिर किस की शादी हो रही है वहां, क्योंकि उस की नजर में तो उस घर में अभी कोई शादी लायक नहीं था.

शाम को जब विवेक आए तो उन के घर में पैर रखते ही पूजा ने उन्हें यह सूचना दी जिस ने दोपहर से उस के मन में खलबली मचा रखी थी. उसे लगा कि यह समाचार सुन कर विवेक भी हैरान हो जाएंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. वे वैसे ही शांत रहे जैसे पहले थे.

बोले, ‘‘ठीक है, चली जाना… हम पड़ोसी हैं.’’

‘‘पर शादी किस की है, आप को यह जानने की उत्सुकता नहीं है क्या?’’ पूजा ने तनिक भौंहें सिकोड़ कर पूछा, क्योंकि उसे लगा कि विवेक उस की बातों में रुचि नहीं ले रहे हैं.

‘‘और किस की? आकाश की. अब शौर्य की तो करने से रहे इतनी छोटी उम्र में. आकाश के घर वाले चाहते हैं कि यह शीघ्र ही हो जाए, क्योंकि आकाश को इसी माह विदेश जाना है. दुलहन सलोनी की चचेरी बहन है.’’

यह सुन कर पूजा के पैरों तले की जमीन खिसक गई. जिस आकाश को उस ने आदर्श पति का ताज दे कर सिरआंखों पर बैठा रखा था. वह अब उस से छिनता नजर आ रहा था. उस ने सोचा कि पत्नी को मरे अभी 2 महीने भी नहीं हुए और दूसरा विवाह? तो क्या वह प्यार, सेवाभाव, मायूसी सब दिखावा था? क्या एक स्त्री का पुरुषजीवन में महत्त्व जितने दिन वह साथ रहे उतना ही है? क्या मरने के बाद उस का कोई वजूद नहीं? मुझे कुछ हो जाए तो क्या विवेक भी ऐसा ही करेंगे? इन विचारों ने पूजा को अंदर तक हिला दिया और वह सिर पकड़ कर सोफे पर बैठ गई. उसे सारा कमरा घूमता नजर आ रहा था.

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जब विवेक वहां आए तो पूजा को इस हालत में देख घबरा गए और फिर उस का सिर गोद में रख कर बोले, ‘‘क्या हो गया है तुम्हें? क्या ऊटपटांग सोचसोच कर अपना दिमाग खराब किए रखती हो? तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा?’’

विवेक की इस बात पर सदा गौरवान्वित महसूस करने वाली पूजा आज बिफर पड़ी, ‘‘ले आना तुम भी आकाश की तरह दूसरी पत्नी. पुरुष जाति होती ही ऐसी है. पुरुषों की एक मृगमरीचिका है.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. आकाश यह शादी अपने सासससुर के कहने पर ही कर रहा है. उन्होंने ही उसे पुनर्विवाह के लिए विवश किया है, क्योंकि वे आकाश को अपने बेटे की तरह चाहने लगे हैं. वे नहीं चाहते कि आकाश जिंदगी भर यों ही मायूस रहे. वे चाहते हैं कि आकाश का घर दोबारा बस जाए और आकाश की पत्नी के रूप में उन्हें अपनी सलोनी वापस मिल जाए. इस तरह शौर्य को भी मां का प्यार मिल जाएगा.

‘‘पूजा, जीवन सिर्फ भावनाओं और यादों का खेल नहीं है. यह हकीकत है और इस के लिए हमें कई बार अपनी भावनाओं का दमन करना पड़ता है. सिर्फ ख्वाबों और यादों के सहारे जिंदगी नहीं काटी जा सकती. जिंदगी बहुत लंबी होती है.

‘‘आकाश दूसरी शादी कर रहा है इस का अर्थ यह नहीं कि वह सलोनी से प्यार नहीं करता था. सलोनी उस का पहला प्यार था और रहेगी, परंतु यह भी तो सत्य है कि सलोनी अब दोबारा नहीं आ सकती. दूसरी शादी कर के भी वह उस की यादों को जिंदा रख सकता है. शायद यह सलोनी के लिए सब से बड़ी श्रद्धांजलि होगी.

‘‘यह दूसरी शादी इस बात का सुबूत है कि स्त्री और पुरुष एक गाड़ी के 2 पहिए हैं और यह गाड़ी खींचने के लिए एकदूसरे की जरूरत पड़ती है और यह काम अभी हो जाए तो इस में हरज ही क्या है?’’

विवेक की बातों ने पूजा के दिमाग से भावनाओं का परदा हटा कर वास्तविकता की तसवीर दिखा दी थी. अब उसे आकाश के पुनर्विवाह में कोई बुराई नजर नहीं आ रही थी और न ही विवेक के प्यार पर अब कोई शक की गुंजाइश थी.

विवेक के लिए खाना लगा कर पूजा अलमारी खोल कर बैठ गई और फिर स्वभावानुसार विवेक का सिर खाने लगी, ‘‘कल कौन सी साड़ी पहनूं? पहली बार उन के घर जाऊंगी. अच्छा इंप्रैशन पड़ना चाहिए.’’

विवेक ने भी सदा की तरह मुसकराते हुए कहा, ‘‘कोई भी पहन लो. तुम पर तो हर साड़ी खिलती है. तुम हो ही इतनी सुंदर.’’

पूजा विवेक की प्यार भरी बातें सुन कर गर्वित हो उठी.

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जब से पूजा दिल्ली की इस नई कालोनी में रहने आई थी उस का ध्यान बरबस ही सामने वाले घर की ओर चला जाता था, जो उस की रसोई की खिड़की से साफ नजर आता था. एक अजीब सा आकर्षण था इस घर में. चहलपहल के साथसाथ वीरानगी और मुसकराहट के साथसाथ उदासी का एहसास भी होता था उसे देख कर. एक 30-35 वर्ष का पुरुष अकसर अंदरबाहर आताजाता नजर आता था. कभीकभी एक बुजुर्ग दंपती भी दिखाई देते थे और एक 5-6 वर्ष का बालक भी.

उस घर में पूजा की उत्सुकता तब और भी बढ़ गई जब उस ने एक दिन वहां एक युवती को भी देखा. उसे देख कर उसे ऐसा लगा कि वह यदाकदा ही बाहर निकलती है. उस का सुंदर मासूम चेहरा और गरमी के मौसम में भी सिर पर स्कार्फ उस की जिज्ञासा को और बढ़ा गया.

जब पूजा की उत्सुकता हद से ज्यादा बढ़ गई तो एक दिन उस ने अपने दूध वाले से पूछ ही लिया, ‘‘भैया, तुम सामने वाले घर में भी दूध देते हो न. बताओ कौनकौन हैं उस घर में.’’

यह सुनते ही दूध वाले की आंखों में आंसू और आवाज में करुणा भर गई. भर्राए स्वर में बोला, ‘‘दीदी, मैं 20 सालों से इस घर में दूध दे रहा हूं पर ऐसा कभी नहीं देखा. यह साल तो जैसे इन पर कयामत बन कर ही टूट पड़ा है. कभी दुश्मन के साथ भी ऐसा अन्याय न हो,’’ और फिर फूटफूट कर रोने लगा.

‘‘भैया अपनेआप को संभालो,’’ अब पूजा को पड़ोसियों से ज्यादा अपने दूध वाले की चिंता होने लगी थी. पर मन अभी भी यह जानने के लिए उत्सुक था कि आखिर क्या हुआ है उस घर में.

शायद दूध वाला भी अपने मन का बोझ हलका करने के लिए बेचैन था.

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अत: कहने लगा, ‘‘क्या बताऊं दीदी, छोटी सी गुडि़या थी सलोनी बेबी जब मैं ने इस घर में दूध देना शुरू किया था. देखते ही देखते वह सयानी हो गई और उस के लिए लड़के की तलाश शुरू हो गई. सलोनी बेबी ऐसी थी कि सब को देखते ही पसंद आ जाए पर वर भी उस के जोड़ का होना चाहिए था न.

‘‘एक दिन आकाश बाबू उन के घर आए. उन्होंने सलोनी के मातापिता से कहा कि शायद सलोनी ने अभी आप को बताया नहीं है… मैं और सलोनी एकदूसरे को चाहते हैं और अब विवाह करना चाहते हैं,’’ और फिर अपना पूरा परिचय दिया.

‘‘आकाश बाबू इंजीनियर थे व मांबाप की इकलौती औलाद. सलोनी के मातापिता को एक नजर में ही भा गए. फिर उन्होंने पूछा कि क्या तुम्हारे मातापिता को यह रिश्ता मंजूर है?

‘‘यह सुन कर आकाश बाबू कुछ उदास हो गए फिर बोले कि मेरे मातापिता अब इस दुनिया में नहीं हैं. 2 वर्ष पूर्व एक कार ऐक्सिडैंट में उन की मौत हो गई थी.

‘‘यह सुन कर सलोनी के मातापिता बोले कि हमें यह रिश्ता मंजूर है पर इस शर्त पर कि विवाहोपरांत भी तुम सलोनी को ले कर यहां आतेजाते रहोगे. सलोनी हमारी इकलौती संतान है. तुम्हारे यहां आनेजाने से हमें अकेलापन महसूस नहीं होगा और हमारे जीवन में बेटे की कमी भी पूरी हो जाएगी.

‘‘आकाश बाबू राजी हो गए. फिर क्या था धूमधाम से दोनों का विवाह हो गया और फिर साल भर में गोद भी भर गई.’’

‘‘यह सब तो अच्छा ही है. इस में रोने की क्या बात है?’’ पूजा ने कहा.

दूध वाले ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘एक दिन जब मैं दूध देने गया तो घर में सलोनी बिटिया, आकाश बाबू और शौर्य यानी सलोनी बिटिया का बेटा भी था. तब मैं ने कहा कि बिटिया कैसी हो? बहुत दिनों बाद दिखाई दीं. मेरी तो आंखें ही तरस जाती हैं तुम्हें देखने के लिए. पर मैं बड़ा हैरान हुआ कि जो सलोनी मुझे काकाकाका कहते नहीं थकती थी वह मेरी बात सुन कर मुंह फेर कर अंदर चली गई. मैं ने सोचा बेटियां ससुराल जा कर पराई हो जाती हैं और कभीकभी उन के तेवर भी बदल जाते हैं. अब वह कहां एक दूध वाले से बात करेगी और फिर मैं वहां से चला आया. पर अगले ही दिन मुझे मालूम पड़ा कि मुझ से न मिलने की वजह कुछ और ही थी. सलोनी बिटिया नहीं चाहती थी कि सदा उस का खिलखिलाता चेहरा देखने वाला काका उस का उदास व मायूस चेहरा देखे.

‘‘दरअसल, सलोनी बिटिया इस बार वहां मिलने नहीं, बल्कि अपना इलाज करवाने आई थी. कुछ दिन पहले ही पता चला था कि उसे तीसरी और अंतिम स्टेज का ब्लड कैंसर है. इसलिए डाक्टर ने जल्दी से जल्दी दिल्ली ले जाने को कहा था. यहां इस बीमारी का इलाज नहीं था.

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‘‘सलोनी को अच्छे से अच्छे डाक्टरों को दिखाया गया, पर कोई फायदा नहीं हुआ. ब्लड कैंसर की वजह से सलोनी बिटिया की हालत दिनोंदिन बिगड़ती चली गई. बारबार कीमोथेरैपी करवाने से उस के लंबे, काले, रेशमी बाल भी उड़ गए. इसी वजह से वह हर वक्त स्कार्फ बांधे रखती. कितनी बार खून बदलवाया गया. पर सब व्यर्थ. आकाश बाबू बहुत चाहते हैं सलोनी बिटिया को. हमेशा उसी के सिरहाने बैठे रहते हैं… तनमनधन सब कुछ वार दिया आकाश बाबू ने सलोनी बिटिया के लिए.’’

शाम को जब विवेक औफिस से आए तो पूजा ने उन्हें सारी बात बताई, ‘‘इस

दुखद कहानी में एक सुखद बात यह है कि आकाश बाबू बहुत अच्छे पति हैं. ऐसी हालत में सलोनी की पूरीपूरी सेवा कर रहे हैं. शायद इसीलिए विवाह संस्कार जैसी परंपराओं का इतना महत्त्व दिया जाता है और यह आधुनिक पीढ़ी है कि विवाह करना ही नहीं चाहती. लिव इन रिलेशनशिप की नई विचारधारा ने विवाह जैसे पवित्र बंधन की धज्जियां उड़ा दी हैं.’’

फिर, ‘मैं भी किन बातों में उलझ गई. विवेक को भूख लगी होगी. वे थकेहारे औफिस से आए हैं. उन की देखभाल करना मेरा भी तो कर्तव्य है,’ यह सोच कर पूजा रसोई की ओर चल दी. रसोई से फिर सामने वाला मकान नजर आया.

आज वहां काफी हलचल थी. लगता था घर की हर चीज अपनी जगह से मिलना चाहती है. घर में कई लोग इधरउधर चक्कर लगा रहे थे. बाहर ऐंबुलैंस खड़ी थी. पूजा सहम गई कि कहीं सलोनी को कुछ…

पूजा का शक ठीक था. उस दिन सलोनी की तबीयत अचानक खराब हो गई और उसे अस्पताल में भरती कराना पड़ा. हालांकि उन से अधिक परिचय नहीं था, फिर भी पूजा और विवेक अगले दिन उस से मिलने अस्पताल गए. वहां आकाश की हालत ठीक उस परिंदे जैसी थी, जिसे पता था कि उस के पंख अभी कटने वाले ही हैं, क्योंकि डाक्टरों ने यह घोषित कर दिया था कि सलोनी अपने जीवन की अंतिम घडि़यां गिन रही है. फिर वही हुआ. अगले दिन सलोनी इस संसार से विदा हो गई.

इस घटना को घटे करीब 2 महीने हो गए थे पर जब भी उस घर पर नजर पड़ती पूजा की आंखों के आगे सलोनी का मासूम चेहरा घूम जाता और साथ ही आकाश का बेबस चेहरा. मानवजीवन पर असाध्य रोगों की निर्ममता का जीताजागता उदाहरण और पति फर्ज की साक्षात मूर्ति आकाश.

दोपहर के 2 बजे थे. घर का सारा काम निबटा कर मैं लेटने ही जा रही थी कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई. दरवाजे पर एक महिला थी. शायद सामने वाले घर में आई थी, क्योंकि पूजा ने इन दिनों कई बार उसे वहां देखा था. उस का अनुमान सही था.

‘‘मैं आप को न्योता देने आई हूं.’’

‘‘कुछ खास है क्या?’’

‘‘हां, कल शादी है न. आप जरूर आइएगा.’’

इस से पहले कि पूजा कुछ और पूछती, वह महिला चली गई. शायद वह बहुत जल्दी में थी.

वह तो चली गई पर जातेजाते पूजा की नींद उड़ा गई. सारी दोपहरी वह यही सोचती रही कि आखिर किस की शादी हो रही है वहां, क्योंकि उस की नजर में तो उस घर में अभी कोई शादी लायक नहीं था.

शाम को जब विवेक आए तो उन के घर में पैर रखते ही पूजा ने उन्हें यह सूचना दी जिस ने दोपहर से उस के मन में खलबली मचा रखी थी. उसे लगा कि यह समाचार सुन कर विवेक भी हैरान हो जाएंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. वे वैसे ही शांत रहे जैसे पहले थे.

बोले, ‘‘ठीक है, चली जाना… हम पड़ोसी हैं.’’

‘‘पर शादी किस की है, आप को यह जानने की उत्सुकता नहीं है क्या?’’ पूजा ने तनिक भौंहें सिकोड़ कर पूछा, क्योंकि उसे लगा कि विवेक उस की बातों में रुचि नहीं ले रहे हैं.

‘‘और किस की? आकाश की. अब शौर्य की तो करने से रहे इतनी छोटी उम्र में. आकाश के घर वाले चाहते हैं कि यह शीघ्र ही हो जाए, क्योंकि आकाश को इसी माह विदेश जाना है. दुलहन सलोनी की चचेरी बहन है.’’

यह सुन कर पूजा के पैरों तले की जमीन खिसक गई. जिस आकाश को उस ने आदर्श पति का ताज दे कर सिरआंखों पर बैठा रखा था. वह अब उस से छिनता नजर आ रहा था. उस ने सोचा कि पत्नी को मरे अभी 2 महीने भी नहीं हुए और दूसरा विवाह? तो क्या वह प्यार, सेवाभाव, मायूसी सब दिखावा था? क्या एक स्त्री का पुरुषजीवन में महत्त्व जितने दिन वह साथ रहे उतना ही है? क्या मरने के बाद उस का कोई वजूद नहीं? मुझे कुछ हो जाए तो क्या विवेक भी ऐसा ही करेंगे? इन विचारों ने पूजा को अंदर तक हिला दिया और वह सिर पकड़ कर सोफे पर बैठ गई. उसे सारा कमरा घूमता नजर आ रहा था.

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जब विवेक वहां आए तो पूजा को इस हालत में देख घबरा गए और फिर उस का सिर गोद में रख कर बोले, ‘‘क्या हो गया है तुम्हें? क्या ऊटपटांग सोचसोच कर अपना दिमाग खराब किए रखती हो? तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा?’’

विवेक की इस बात पर सदा गौरवान्वित महसूस करने वाली पूजा आज बिफर पड़ी, ‘‘ले आना तुम भी आकाश की तरह दूसरी पत्नी. पुरुष जाति होती ही ऐसी है. पुरुषों की एक मृगमरीचिका है.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. आकाश यह शादी अपने सासससुर के कहने पर ही कर रहा है. उन्होंने ही उसे पुनर्विवाह के लिए विवश किया है, क्योंकि वे आकाश को अपने बेटे की तरह चाहने लगे हैं. वे नहीं चाहते कि आकाश जिंदगी भर यों ही मायूस रहे. वे चाहते हैं कि आकाश का घर दोबारा बस जाए और आकाश की पत्नी के रूप में उन्हें अपनी सलोनी वापस मिल जाए. इस तरह शौर्य को भी मां का प्यार मिल जाएगा.

‘‘पूजा, जीवन सिर्फ भावनाओं और यादों का खेल नहीं है. यह हकीकत है और इस के लिए हमें कई बार अपनी भावनाओं का दमन करना पड़ता है. सिर्फ ख्वाबों और यादों के सहारे जिंदगी नहीं काटी जा सकती. जिंदगी बहुत लंबी होती है.

‘‘आकाश दूसरी शादी कर रहा है इस का अर्थ यह नहीं कि वह सलोनी से प्यार नहीं करता था. सलोनी उस का पहला प्यार था और रहेगी, परंतु यह भी तो सत्य है कि सलोनी अब दोबारा नहीं आ सकती. दूसरी शादी कर के भी वह उस की यादों को जिंदा रख सकता है. शायद यह सलोनी के लिए सब से बड़ी श्रद्धांजलि होगी.

‘‘यह दूसरी शादी इस बात का सुबूत है कि स्त्री और पुरुष एक गाड़ी के 2 पहिए हैं और यह गाड़ी खींचने के लिए एकदूसरे की जरूरत पड़ती है और यह काम अभी हो जाए तो इस में हरज ही क्या है?’’

विवेक की बातों ने पूजा के दिमाग से भावनाओं का परदा हटा कर वास्तविकता की तसवीर दिखा दी थी. अब उसे आकाश के पुनर्विवाह में कोई बुराई नजर नहीं आ रही थी और न ही विवेक के प्यार पर अब कोई शक की गुंजाइश थी.

विवेक के लिए खाना लगा कर पूजा अलमारी खोल कर बैठ गई और फिर स्वभावानुसार विवेक का सिर खाने लगी, ‘‘कल कौन सी साड़ी पहनूं? पहली बार उन के घर जाऊंगी. अच्छा इंप्रैशन पड़ना चाहिए.’’

विवेक ने भी सदा की तरह मुसकराते हुए कहा, ‘‘कोई भी पहन लो. तुम पर तो हर साड़ी खिलती है. तुम हो ही इतनी सुंदर.’’

पूजा विवेक की प्यार भरी बातें सुन कर गर्वित हो उठी.

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February 28, 2022 at 12:53PM