The post बड़े ताऊजी appeared first on Sarita Magazine.
from कहानी – Sarita Magazine https://ift.tt/389EOyP
The post बड़े ताऊजी appeared first on Sarita Magazine.
February 29, 2020 at 10:00AMThe post बड़े ताऊजी appeared first on Sarita Magazine.
The post बड़े ताऊजी appeared first on Sarita Magazine.
February 29, 2020 at 10:00AMसुमन के मम्मीपापा को इस में आपत्ति नहीं थी मगर उन्होंने इस के पूर्व सुधाकर से मिलने की इच्छा जताई.
सुधाकर मथुरा जा कर सुमन के मम्मीपापा से मिल आया. सुमन के पापा तब तक नहीं जान पाए थे कि सुधाकर उन्हीं के मित्र विमल शर्मा का पुत्र है, जिन को लोग उन के शत्रु के रूप में जानते हैं. उन्हें अपनी बेटी के लिए एक सुयोग्य वर की तलाश थी, जो घरबैठे पूर्ण हो रही थी.
यह राज तो तब खुला जब सुधाकर के मम्मीपापा अपने बेटे के विवाह के लिए औपचारिक रस्म निभाने मथुरा आए.
थोड़ी देर के लिए तो वे दोनों अवाक् रह गए कि वे क्या देखसुन रहे हैं. और उन्हें क्या और कैसे बात करनी है.
‘मुझे माफ कर दो, विमल,’ आखिरकार सुमन के पापा रुंधे कंठ से बोले, ‘15 साल पहले की गई गलती का एहसास मुझे समय रहते हो गया था. मगर समय को वापस लौटाना कहां संभव है. अगर वह हादसा हो जाता जिसे करने की मैं ने कोशिश की थी, तो दोनों ही परिवार बरबाद हो जाते.’
‘अब उस बात को जाने भी दो.’
‘मैं सुमन का विवाह सुधाकर से करूं, यही मेरा प्रायश्चित्त होगा.’
‘अरे, यह प्रायश्चित्त की नहीं, प्रसन्नता की बात है. मैं अपने बेटे के लिए तुम्हारी बेटी का हाथ मांगने आया हूं,’ विमल शर्मा उन्हें गले लगाते हुए बोले, ‘उस दुस्वप्न को तो मैं कब का भूल चुका हूं.’
विवाह की रस्म पूर्ण होने के कुछ दिन बाद वह सुधाकर के घर चली आई थी.
‘‘अरे सुमन, कहां खो गईं,’’ सुधाकर बोला तो उस की तंद्रा टूटी, ‘‘जरा बाहर का नजारा तो देखो, कितना खूबसूरत है.’’
वह शीघ्रतापूर्वक संभल कर चैतन्य हुई. गाड़ी के शीशे से वह बाहर प्रकृति का नजारा देखने लगी. रास्ते की ढलान पर गाड़ी मंथर गति से आगे बढ़ रही थी. जरा सी फिसलन हुई नहीं, जरा सा चूके नहीं कि सैकड़ों फुट गहरी खाई में गिरने का खतरा था.
जैसा कि भय था, वही हुआ. बारिश अब बर्फबारी में बदल चुकी थी. रूई के फाहे के समान बर्फ के झोंके गिर रहे थे. देखते ही देखते पहाड़ों और घाटियों की हरियाली बर्फ की सफेद चादर से ढक गई थी. चारों तरफ दूरदूर तक निशब्द सन्नाटा था. वातावरण पर जैसे एक ही सफेद रंग पुत सा गया था. बर्फ की परत जमी कंक्रीट की सड़क पर गाडि़यों का काफिला बैलगाड़ी की गति से आगे बढ़ रहा था. जैसे किसी आसन्न खतरे का आभास हो, वैसी चुप्पी सब के चेहरे पर चस्पां थी. चूंकि गाडि़यों के ड्राइवर स्थानीय थे और एक्सपर्ट थे, यही एक बात आश्वस्त करने वाली थी कि दिक्कत नहीं आएगी.
रास्ते में कहींकहीं कुछ अर्द्धवृत्ताकार टिन के घर दिखे, जिन के बाहर सन्नाटा पसरा था. वहीं कहीं कुछ धर्मचक्र घुमाते बौद्ध भिक्षु दिखे. मंत्र लिखित सफेद पताकाओं की शृंखलाएं भी पहाड़ों और घाटियों के बीच दिख जाती थीं, जो हवाओं से लहराते हुए रहस्यमय वातावरण का सृजन करती प्रतीत होती थीं.
रास्ते में छोटेनाटे, मगर हृष्टपुष्ट कदकाठी के स्थानीय स्त्रीपुरुष दिखे, जो सड़क के निर्माण कार्य में व्यस्त थे. रबर के गमबूट और दस्ताने पहने, पत्थर तोड़ते और बिछाते हुए स्थानीय लोग. कभी खाली हाथ तो कभी बेलचोंकांटों की मदद से काम करते. भीमकाय डोजरक्रशर आदि कहीं पत्थरों में छेद करते तो कहीं काटतेतोड़ते, कहीं हटाते और डंपरों में भरते अथवा खाली करते थे.
जीवन में रोमांच क्या होता है और हजारों फुट ऊपर बर्फ से ढके पहाड़ों का जीवन कितना कठिन होता होगा, यह उसे अब समझ में आने लगा था. रास्ते के किनारे पैरों में गमबूट और हाथों में रबर के दस्ताने पहने रास्ते को ठीक करने वाले स्थानीय मजदूर इस जोखिम भरे मौसम में भी काम कर रहे थे.
सड़क के कार्यरत स्थल पर पहाड़ी कुत्ते रास्ते की बर्फ में ही कुलेल कर रहे थे. एक स्थान पर भैंसे समान याक पर सामान लादे कुछ स्थानीय लोग उधर से गुजर गए.
ओ, तो यही याक है. इसे देखना भी एक सुखद संयोग था.
बादलों के बीच सूर्य पता नहीं कहां छिप गया था. बर्फबारी रुकने का नाम नहीं ले रही थी. रास्ते की फिसलन बढ़ती जा रही थी. एक स्थान पर गाडि़यों का काफिला रुका तो सभी गाडि़यों के ड्राइवर गाड़ी के पिछले पहियों में लोहे की जंजीर पहनाने लगे ताकि फिसलन का दबाव कम हो. यह भी एक अलग रोमांचक अनुभव था.
लगभग 9 बजे रात में गाड़ी ने जब गंगटोक शहर की सीमा में प्रवेश किया तो सभी की जान में जान आई. इधर हिमपात के बजाय वर्षा हो रही थी. गाडि़यों की गति में अब तीव्रता आ गई थी. एक खतरनाक अनुभव से गुजर कर अब सभी जैसे चैन की सांस ले रहे थे.
होटल पहुंच कर उन्होंने कपड़े बदले. होटल का नौकर खाना लगाने लगा.
‘‘बहुत दिक्कत हुआ न साहेब,’’ वह बोला, ‘‘अचानक ही मौसम खराब
हो गया. यहां अकसर ही ऐसा हो
जाता है.’’
‘‘हां भई, बड़ी मुश्किल से जान बची,’’ सुधाकर बोला, ‘‘बर्फ भरे रास्ते पर गाड़ी का चलना बहुत मुश्किल था. मुझे लगा कि अब हमें वहीं सड़क के किनारे रात काटनी होगी. अगर ऐसा होता तो हमारी तो कुल्फी ही जम जाती.’’
वह चुपचाप बाहर का दृश्य देख रही थी. बारिश बंद हो चुकी थी और सितारों से सजे आकाश के नीचे गंगटोक शहर कृत्रिम रोशनी में झिलमिला रहा था. वैसे भी पहाड़ी शहर होते ही ऐसे हैं कि हमेशा वहां दीवाली सी रोशनी का आभास होता है. मगर वहां का नजारा ही कुछ अलग था. वहां के ऊंचेऊंचे दरख्त हरियाली से भरे पड़े थे.
‘‘अरे, तुम कुछ बोलो भी,’’ सुधाकर बोला, ‘‘लगता है तुम काफी डर गई हो.’’
‘‘डर तो गई ही थी, सुधाकर,’’ वह बोली, ‘‘फिलहाल मैं नाथुला की सीमाओं के बारे में सोच रही हूं, जहां भारतीय और चीनी सैनिक आमनेसामने खड़े थे. हम तो वहां से सुरक्षित निकल कर यहां आ गए. मगर उस बर्फबारी में भी वे अपनी सीमाओं पर डटे होंगे. मैं यह सोच रही हूं कि इस परिस्थिति में भी क्या उन्हें अपने परिवार की याद नहीं आती होगी, जैसे कि हमें आई थी?’’
‘‘क्यों नहीं याद आती होगी, सुमन,’’ सुधाकर गंभीर स्वर में बोला, ‘‘तमाम प्रशिक्षण के बावजूद आखिर वे भी मनुष्य हैं. उन के सीने में भी दिल धड़कते हैं. और उन के मन में भी मानवीय विचार अंगड़ाई लेते होंगे. उन के हृदय में भी भावनाएं हैं. मगर कर्तव्य सर्वोपरि होता है, इस का एहसास उन्हें है. इसी कारण हम यहां सुरक्षित हैं. देश और समाज इसी तरह आगे बढ़ता और सुरक्षित रहता है. तुम्हारे एक चाचाजी भी तो इसी प्रकार के सैनिक थे.’’
सुमन का मन एक गहरी टीस से
भर गया.
‘‘हमारे और तुम्हारे परिवार के बीच में भी एक खटास थी, जो हम ने खत्म कर दी. क्या इसी प्रकार राष्ट्रों के बीच की यह खटास खत्म नहीं हो सकती?’’
‘‘क्यों नहीं हो सकती,’’ वह बोला, ‘‘स्वार्थ और संघर्ष की व्यर्थता का एहसास होते ही दूरियां खत्म होने लगती हैं,’’ सुधाकर उस की बगल में आ कर खड़ा हो गया था, ‘‘काश ऐसा हो पाता, जैसा कि तुम सोच रही हो.’’
बाहर बारिश थम गई थी. बादल छंट गए थे और आकाश सितारों से सज गया था. धुला हुआ गंगटोक शहर अब कृत्रिम प्रकाश से और चमक उठा था.
The post काश ऐसा हो पाता भाग-4 appeared first on Sarita Magazine.
सुमन के मम्मीपापा को इस में आपत्ति नहीं थी मगर उन्होंने इस के पूर्व सुधाकर से मिलने की इच्छा जताई.
सुधाकर मथुरा जा कर सुमन के मम्मीपापा से मिल आया. सुमन के पापा तब तक नहीं जान पाए थे कि सुधाकर उन्हीं के मित्र विमल शर्मा का पुत्र है, जिन को लोग उन के शत्रु के रूप में जानते हैं. उन्हें अपनी बेटी के लिए एक सुयोग्य वर की तलाश थी, जो घरबैठे पूर्ण हो रही थी.
यह राज तो तब खुला जब सुधाकर के मम्मीपापा अपने बेटे के विवाह के लिए औपचारिक रस्म निभाने मथुरा आए.
थोड़ी देर के लिए तो वे दोनों अवाक् रह गए कि वे क्या देखसुन रहे हैं. और उन्हें क्या और कैसे बात करनी है.
‘मुझे माफ कर दो, विमल,’ आखिरकार सुमन के पापा रुंधे कंठ से बोले, ‘15 साल पहले की गई गलती का एहसास मुझे समय रहते हो गया था. मगर समय को वापस लौटाना कहां संभव है. अगर वह हादसा हो जाता जिसे करने की मैं ने कोशिश की थी, तो दोनों ही परिवार बरबाद हो जाते.’
‘अब उस बात को जाने भी दो.’
‘मैं सुमन का विवाह सुधाकर से करूं, यही मेरा प्रायश्चित्त होगा.’
‘अरे, यह प्रायश्चित्त की नहीं, प्रसन्नता की बात है. मैं अपने बेटे के लिए तुम्हारी बेटी का हाथ मांगने आया हूं,’ विमल शर्मा उन्हें गले लगाते हुए बोले, ‘उस दुस्वप्न को तो मैं कब का भूल चुका हूं.’
विवाह की रस्म पूर्ण होने के कुछ दिन बाद वह सुधाकर के घर चली आई थी.
‘‘अरे सुमन, कहां खो गईं,’’ सुधाकर बोला तो उस की तंद्रा टूटी, ‘‘जरा बाहर का नजारा तो देखो, कितना खूबसूरत है.’’
वह शीघ्रतापूर्वक संभल कर चैतन्य हुई. गाड़ी के शीशे से वह बाहर प्रकृति का नजारा देखने लगी. रास्ते की ढलान पर गाड़ी मंथर गति से आगे बढ़ रही थी. जरा सी फिसलन हुई नहीं, जरा सा चूके नहीं कि सैकड़ों फुट गहरी खाई में गिरने का खतरा था.
जैसा कि भय था, वही हुआ. बारिश अब बर्फबारी में बदल चुकी थी. रूई के फाहे के समान बर्फ के झोंके गिर रहे थे. देखते ही देखते पहाड़ों और घाटियों की हरियाली बर्फ की सफेद चादर से ढक गई थी. चारों तरफ दूरदूर तक निशब्द सन्नाटा था. वातावरण पर जैसे एक ही सफेद रंग पुत सा गया था. बर्फ की परत जमी कंक्रीट की सड़क पर गाडि़यों का काफिला बैलगाड़ी की गति से आगे बढ़ रहा था. जैसे किसी आसन्न खतरे का आभास हो, वैसी चुप्पी सब के चेहरे पर चस्पां थी. चूंकि गाडि़यों के ड्राइवर स्थानीय थे और एक्सपर्ट थे, यही एक बात आश्वस्त करने वाली थी कि दिक्कत नहीं आएगी.
रास्ते में कहींकहीं कुछ अर्द्धवृत्ताकार टिन के घर दिखे, जिन के बाहर सन्नाटा पसरा था. वहीं कहीं कुछ धर्मचक्र घुमाते बौद्ध भिक्षु दिखे. मंत्र लिखित सफेद पताकाओं की शृंखलाएं भी पहाड़ों और घाटियों के बीच दिख जाती थीं, जो हवाओं से लहराते हुए रहस्यमय वातावरण का सृजन करती प्रतीत होती थीं.
रास्ते में छोटेनाटे, मगर हृष्टपुष्ट कदकाठी के स्थानीय स्त्रीपुरुष दिखे, जो सड़क के निर्माण कार्य में व्यस्त थे. रबर के गमबूट और दस्ताने पहने, पत्थर तोड़ते और बिछाते हुए स्थानीय लोग. कभी खाली हाथ तो कभी बेलचोंकांटों की मदद से काम करते. भीमकाय डोजरक्रशर आदि कहीं पत्थरों में छेद करते तो कहीं काटतेतोड़ते, कहीं हटाते और डंपरों में भरते अथवा खाली करते थे.
जीवन में रोमांच क्या होता है और हजारों फुट ऊपर बर्फ से ढके पहाड़ों का जीवन कितना कठिन होता होगा, यह उसे अब समझ में आने लगा था. रास्ते के किनारे पैरों में गमबूट और हाथों में रबर के दस्ताने पहने रास्ते को ठीक करने वाले स्थानीय मजदूर इस जोखिम भरे मौसम में भी काम कर रहे थे.
सड़क के कार्यरत स्थल पर पहाड़ी कुत्ते रास्ते की बर्फ में ही कुलेल कर रहे थे. एक स्थान पर भैंसे समान याक पर सामान लादे कुछ स्थानीय लोग उधर से गुजर गए.
ओ, तो यही याक है. इसे देखना भी एक सुखद संयोग था.
बादलों के बीच सूर्य पता नहीं कहां छिप गया था. बर्फबारी रुकने का नाम नहीं ले रही थी. रास्ते की फिसलन बढ़ती जा रही थी. एक स्थान पर गाडि़यों का काफिला रुका तो सभी गाडि़यों के ड्राइवर गाड़ी के पिछले पहियों में लोहे की जंजीर पहनाने लगे ताकि फिसलन का दबाव कम हो. यह भी एक अलग रोमांचक अनुभव था.
लगभग 9 बजे रात में गाड़ी ने जब गंगटोक शहर की सीमा में प्रवेश किया तो सभी की जान में जान आई. इधर हिमपात के बजाय वर्षा हो रही थी. गाडि़यों की गति में अब तीव्रता आ गई थी. एक खतरनाक अनुभव से गुजर कर अब सभी जैसे चैन की सांस ले रहे थे.
होटल पहुंच कर उन्होंने कपड़े बदले. होटल का नौकर खाना लगाने लगा.
‘‘बहुत दिक्कत हुआ न साहेब,’’ वह बोला, ‘‘अचानक ही मौसम खराब
हो गया. यहां अकसर ही ऐसा हो
जाता है.’’
‘‘हां भई, बड़ी मुश्किल से जान बची,’’ सुधाकर बोला, ‘‘बर्फ भरे रास्ते पर गाड़ी का चलना बहुत मुश्किल था. मुझे लगा कि अब हमें वहीं सड़क के किनारे रात काटनी होगी. अगर ऐसा होता तो हमारी तो कुल्फी ही जम जाती.’’
वह चुपचाप बाहर का दृश्य देख रही थी. बारिश बंद हो चुकी थी और सितारों से सजे आकाश के नीचे गंगटोक शहर कृत्रिम रोशनी में झिलमिला रहा था. वैसे भी पहाड़ी शहर होते ही ऐसे हैं कि हमेशा वहां दीवाली सी रोशनी का आभास होता है. मगर वहां का नजारा ही कुछ अलग था. वहां के ऊंचेऊंचे दरख्त हरियाली से भरे पड़े थे.
‘‘अरे, तुम कुछ बोलो भी,’’ सुधाकर बोला, ‘‘लगता है तुम काफी डर गई हो.’’
‘‘डर तो गई ही थी, सुधाकर,’’ वह बोली, ‘‘फिलहाल मैं नाथुला की सीमाओं के बारे में सोच रही हूं, जहां भारतीय और चीनी सैनिक आमनेसामने खड़े थे. हम तो वहां से सुरक्षित निकल कर यहां आ गए. मगर उस बर्फबारी में भी वे अपनी सीमाओं पर डटे होंगे. मैं यह सोच रही हूं कि इस परिस्थिति में भी क्या उन्हें अपने परिवार की याद नहीं आती होगी, जैसे कि हमें आई थी?’’
‘‘क्यों नहीं याद आती होगी, सुमन,’’ सुधाकर गंभीर स्वर में बोला, ‘‘तमाम प्रशिक्षण के बावजूद आखिर वे भी मनुष्य हैं. उन के सीने में भी दिल धड़कते हैं. और उन के मन में भी मानवीय विचार अंगड़ाई लेते होंगे. उन के हृदय में भी भावनाएं हैं. मगर कर्तव्य सर्वोपरि होता है, इस का एहसास उन्हें है. इसी कारण हम यहां सुरक्षित हैं. देश और समाज इसी तरह आगे बढ़ता और सुरक्षित रहता है. तुम्हारे एक चाचाजी भी तो इसी प्रकार के सैनिक थे.’’
सुमन का मन एक गहरी टीस से
भर गया.
‘‘हमारे और तुम्हारे परिवार के बीच में भी एक खटास थी, जो हम ने खत्म कर दी. क्या इसी प्रकार राष्ट्रों के बीच की यह खटास खत्म नहीं हो सकती?’’
‘‘क्यों नहीं हो सकती,’’ वह बोला, ‘‘स्वार्थ और संघर्ष की व्यर्थता का एहसास होते ही दूरियां खत्म होने लगती हैं,’’ सुधाकर उस की बगल में आ कर खड़ा हो गया था, ‘‘काश ऐसा हो पाता, जैसा कि तुम सोच रही हो.’’
बाहर बारिश थम गई थी. बादल छंट गए थे और आकाश सितारों से सज गया था. धुला हुआ गंगटोक शहर अब कृत्रिम प्रकाश से और चमक उठा था.
The post काश ऐसा हो पाता भाग-4 appeared first on Sarita Magazine.
February 29, 2020 at 10:00AMThe post काश ऐसा हो पाता appeared first on Sarita Magazine.
The post काश ऐसा हो पाता appeared first on Sarita Magazine.
February 29, 2020 at 09:58AMवैसे तो रवि आएदिन मां को मारता रहता है लेकिन उस रात पता नहीं उसे क्या हो गया कि इतनी जोर का घूंसा मारा कि दांत तक टूट गया. बीच में आई पत्नी को भी खूब मारा. पड़ोसी लोग घबरा गए, उन्हें लगा कि कहीं विस्फोट हुआ और उस की किरचें जमीन को भेद रही हैं. खिड़कियां खोल कर वे बाहर झांकने लगे. लेकिन किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि रवि के घर का दरवाजा खटखटा कर शोर मचने का कारण पूछ ले. मार तो क्या एक थप्पड़ तक कुसुम के पति ने उस की रेशमी देह पर नहीं मारा था, बेटा तो एकदम कसाई हो गया है. हर वक्त सजीधजी रहने वाली, हीरोइन सी लगने वाली कुसुम अब तो अर्धविक्षिप्त सी हो गई है. फटेगंदे कपड़े, सूखामुरझाया चेहरा, गहरी, हजारों अनसुलझे प्रश्नों की भीड़ वाली आंखें, कुछ कहने को लालायित सूखे होंठ, सबकुछ उस की दयनीय जिंदगी को व्यक्त करने लगे.
उस रात कुसुम बरामदे में ही पड़ी एक कंबल में ठिठुरती रही. टांगों में इतनी शक्ति भी नहीं बची कि वह अपने छोटे से कमरे में, जो पहले स्टोर था, चली जाए. केवल एक ही वाक्य कहा था कुसुम ने अपनी बहू से : ‘पल्लवी, तुम ने यह साड़ी मुझ से बिना पूछे क्यों पहन ली, यह तो मेरी शादी की सिल्वर जुबली की थी.’
बस, बेटा मां को रुई की तरह धुनने लगा और बकने लगा, ‘‘तेरी यह हिम्मत कि मेरी बीवी से साड़ी के लिए पूछती है.’’
कुसुम बेचारी चुप हो गई, जैसे उसे सांप सूंघ गया, फिर भी बेटे ने मारा. पहले थप्पड़ों से, फिर घूंसों से.
ठंडी हवा का तेज झोंका उस की घायल देह से छू रहा था. उस का अंगअंग दर्द करने लगा था. वह कराह उठी थी. आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. चलचित्र की तरह घटनाएं, बीते दिन सूनी आंखों के आगे घूमने लगे.
‘इस साड़ी में कुसुम तू बहुत सुंदर लगती है और आज तो गजब ही ढा रही है. आज रात को…’ पति पराग ने कहा था.
‘धत्’ कह कर कुसुम शरमा गई थी नई दुलहन सी, फिर रात को उस के साथ उस के पति एक स्वर एक ताल एक लय हुए थे. खिड़की से झांकता हुआ चांद भी उन दोनों को देख कर शरमा गया था. वह पल याद कर के उस का दिल पानी से बाहर निकली मछली सा तड़पने लगा. जब भी खाने की किसी चीज की कुसुम फरमाइश करती थी तुरंत उस के पति ला कर दे देते थे. बातबात पर कुसुम से कहते थे, ‘तू चिंता मत कर. मैं ने तो यह घर तेरे नाम ही लिया है और बैंक में 5 लाख रुपए फिक्स्ड डिपौजिट भी तेरे नाम से कर दिया है. अगर मुझे कुछ हो भी जाएगा तब भी तू ठाट से रहेगी.’
हंस देती थी कुसुम. बहुत खुश थी कि उसे इतना अच्छा पति और लायक बेटी, बेटा दिए हैं. अपने इसी बेटे को उस ने बेटी से सौ गुना ज्यादा प्यार दिया, लेकिन यह क्या हो गया…एकदम से उस की चलती नाव में कैसे छेद हो गया. पानी भरने लगा और नाव डूबने लगी. सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की जिंदगी कगार पर पड़ी चट्टान सी हो जाएगी कि पता नहीं कब उस चट्टान को समुद्र निगल ले.
वह बीते पलों को याद कर पिंजड़े में कैद पंछी सी फड़फड़ाने लगी. उस रात वह सो नहीं पाई.
सुबह उठते ही धीरेधीरे मरियल चूहे सी चल कर दैनिक कार्यों से निवृत्त हो कर, अपने लिए एक कप चाय बना कर, अपनी कोठरी में ले आई और पड़ोसिन के दिए हुए बिस्कुट के पैकेट में से बिस्कुट ले कर खाने लगी. बिस्कुट खाते हुए दिमाग में विचार आकाश में उड़ती पतंग से उड़ने लगे.
‘इस कू्रर, निर्दयी बेटेबहू से तो पड़ोसिनें ही अच्छी हैं जो गाहेबगाहे खानेपीने की चीजें चोरी से दे जाती हैं. तो क्यों न उन की सहायता ले कर अपनी इस मुसीबत से छुटकारा पा लूं.’ एक बार एक और विचार बिजली सा कौंधा.
‘क्यों न अपनी बेटी को सबकुछ बता दूं और वह मेरी मदद करे, लेकिन वह लालची दामाद कभी भी बेटी को मेरी मदद नहीं करने देगा. बेटी को तो फोन भी नहीं कर सकती, हमेशा लौक रहता है. घर से भाग भी नहीं सकती, दोनों पतिपत्नी ताला लगा कर नौकरी पर जाते हैं.’
बस, इन्हीं सब विचारों की पगडंडी पर चलते हुए ही कुसुम ने कराहते हुए स्नान कर लिया और दर्द से तड़पते हुए हाथों से ही उलटीसीधी चोटी गूंथ ली. बेटेबहू की हंसीमजाक, ठिठोली की आवाजें गरम पिघलते शीशे सी कानों में पड़ रही थीं. कहां वह सजेसजाए, साफसुथरे, कालीन बिछे बैडरूम में सोती थी और कहां अब बदबूदार स्टोर में फोल्ंिडग चारपाई पर? छि:छि: इतना सफेद हो जाएगा रवि का खून, उस ने कभी सोचा न था. महंगे से महंगा कपड़ा पहनाया उसे, बढि़या से बढि़या खाने की चीजें खिलाईं. हर जिद, हर चाहत रवि की कुसुम और पराग ने पूरी की. शहर के महंगे इंगलिश कौन्वेंट स्कूल से, फिर विश्वविद्यालय से रवि ने शिक्षा ग्रहण की.
कितनी मेहनत से, कितनी लगन से पराग ने इसे बैंक की नौकरी की परीक्षाएं दिलवाईं. जब यह पास हो गया तो दोनों खुशी के मारे फूले नहीं समाए, खोजबीन कर के जानपहचान निकाली तब जा कर इस की नौकरी लगी.
और पराग के मरने के बाद यह सबकुछ भूल गया. काश, यह जन्म ही न लेता. मैं निपूती ही सुखी थी. इस के जन्म लेने के बाद मेरे मना करने पर भी 150 लोगों की पार्टी पराग ने खूब धूमधाम से की थी. बड़ा शरीफ, सीधासादा और संस्कारों वाला लड़का था यह. लेकिन पता नहीं इस ने क्या खा लिया, इस की बुद्धि भ्रष्ट हो गई, जो राक्षसों जैसा बरताव करता है. अब तो इस के पंख निकल आए हैं. प्यार, त्याग, दया, मान, सम्मान की भावनाएं तो इस के दिल से गायब ही हो गई हैं, जैसे अंधेरे में से परछाईं.
रसोई से आ रही मीठीमीठी सुगंध से कुसुम बच्ची सी मनचली हो गई. हिम्मत की सीढ़ी चढ़ कर धीरेधीरे बहू के पास आई, ‘‘बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है, बेटी क्या बनाया है?’’ पता नहीं कैसे दुनिया का नया आश्चर्य लगा कुसुम को बहू के उत्तर देने के ढंग से, ‘‘मांजी, गाजर का हलवा बनाया है. खाएंगी? आइए, बैठिए.’’
आगे पढ़ें- हक्कीबक्की बावली सी कुसुम डायनिंग चेयर पर बैठ गई…
The post विद्रोह भाग-1 appeared first on Sarita Magazine.
वैसे तो रवि आएदिन मां को मारता रहता है लेकिन उस रात पता नहीं उसे क्या हो गया कि इतनी जोर का घूंसा मारा कि दांत तक टूट गया. बीच में आई पत्नी को भी खूब मारा. पड़ोसी लोग घबरा गए, उन्हें लगा कि कहीं विस्फोट हुआ और उस की किरचें जमीन को भेद रही हैं. खिड़कियां खोल कर वे बाहर झांकने लगे. लेकिन किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि रवि के घर का दरवाजा खटखटा कर शोर मचने का कारण पूछ ले. मार तो क्या एक थप्पड़ तक कुसुम के पति ने उस की रेशमी देह पर नहीं मारा था, बेटा तो एकदम कसाई हो गया है. हर वक्त सजीधजी रहने वाली, हीरोइन सी लगने वाली कुसुम अब तो अर्धविक्षिप्त सी हो गई है. फटेगंदे कपड़े, सूखामुरझाया चेहरा, गहरी, हजारों अनसुलझे प्रश्नों की भीड़ वाली आंखें, कुछ कहने को लालायित सूखे होंठ, सबकुछ उस की दयनीय जिंदगी को व्यक्त करने लगे.
उस रात कुसुम बरामदे में ही पड़ी एक कंबल में ठिठुरती रही. टांगों में इतनी शक्ति भी नहीं बची कि वह अपने छोटे से कमरे में, जो पहले स्टोर था, चली जाए. केवल एक ही वाक्य कहा था कुसुम ने अपनी बहू से : ‘पल्लवी, तुम ने यह साड़ी मुझ से बिना पूछे क्यों पहन ली, यह तो मेरी शादी की सिल्वर जुबली की थी.’
बस, बेटा मां को रुई की तरह धुनने लगा और बकने लगा, ‘‘तेरी यह हिम्मत कि मेरी बीवी से साड़ी के लिए पूछती है.’’
कुसुम बेचारी चुप हो गई, जैसे उसे सांप सूंघ गया, फिर भी बेटे ने मारा. पहले थप्पड़ों से, फिर घूंसों से.
ठंडी हवा का तेज झोंका उस की घायल देह से छू रहा था. उस का अंगअंग दर्द करने लगा था. वह कराह उठी थी. आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. चलचित्र की तरह घटनाएं, बीते दिन सूनी आंखों के आगे घूमने लगे.
‘इस साड़ी में कुसुम तू बहुत सुंदर लगती है और आज तो गजब ही ढा रही है. आज रात को…’ पति पराग ने कहा था.
‘धत्’ कह कर कुसुम शरमा गई थी नई दुलहन सी, फिर रात को उस के साथ उस के पति एक स्वर एक ताल एक लय हुए थे. खिड़की से झांकता हुआ चांद भी उन दोनों को देख कर शरमा गया था. वह पल याद कर के उस का दिल पानी से बाहर निकली मछली सा तड़पने लगा. जब भी खाने की किसी चीज की कुसुम फरमाइश करती थी तुरंत उस के पति ला कर दे देते थे. बातबात पर कुसुम से कहते थे, ‘तू चिंता मत कर. मैं ने तो यह घर तेरे नाम ही लिया है और बैंक में 5 लाख रुपए फिक्स्ड डिपौजिट भी तेरे नाम से कर दिया है. अगर मुझे कुछ हो भी जाएगा तब भी तू ठाट से रहेगी.’
हंस देती थी कुसुम. बहुत खुश थी कि उसे इतना अच्छा पति और लायक बेटी, बेटा दिए हैं. अपने इसी बेटे को उस ने बेटी से सौ गुना ज्यादा प्यार दिया, लेकिन यह क्या हो गया…एकदम से उस की चलती नाव में कैसे छेद हो गया. पानी भरने लगा और नाव डूबने लगी. सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की जिंदगी कगार पर पड़ी चट्टान सी हो जाएगी कि पता नहीं कब उस चट्टान को समुद्र निगल ले.
वह बीते पलों को याद कर पिंजड़े में कैद पंछी सी फड़फड़ाने लगी. उस रात वह सो नहीं पाई.
सुबह उठते ही धीरेधीरे मरियल चूहे सी चल कर दैनिक कार्यों से निवृत्त हो कर, अपने लिए एक कप चाय बना कर, अपनी कोठरी में ले आई और पड़ोसिन के दिए हुए बिस्कुट के पैकेट में से बिस्कुट ले कर खाने लगी. बिस्कुट खाते हुए दिमाग में विचार आकाश में उड़ती पतंग से उड़ने लगे.
‘इस कू्रर, निर्दयी बेटेबहू से तो पड़ोसिनें ही अच्छी हैं जो गाहेबगाहे खानेपीने की चीजें चोरी से दे जाती हैं. तो क्यों न उन की सहायता ले कर अपनी इस मुसीबत से छुटकारा पा लूं.’ एक बार एक और विचार बिजली सा कौंधा.
‘क्यों न अपनी बेटी को सबकुछ बता दूं और वह मेरी मदद करे, लेकिन वह लालची दामाद कभी भी बेटी को मेरी मदद नहीं करने देगा. बेटी को तो फोन भी नहीं कर सकती, हमेशा लौक रहता है. घर से भाग भी नहीं सकती, दोनों पतिपत्नी ताला लगा कर नौकरी पर जाते हैं.’
बस, इन्हीं सब विचारों की पगडंडी पर चलते हुए ही कुसुम ने कराहते हुए स्नान कर लिया और दर्द से तड़पते हुए हाथों से ही उलटीसीधी चोटी गूंथ ली. बेटेबहू की हंसीमजाक, ठिठोली की आवाजें गरम पिघलते शीशे सी कानों में पड़ रही थीं. कहां वह सजेसजाए, साफसुथरे, कालीन बिछे बैडरूम में सोती थी और कहां अब बदबूदार स्टोर में फोल्ंिडग चारपाई पर? छि:छि: इतना सफेद हो जाएगा रवि का खून, उस ने कभी सोचा न था. महंगे से महंगा कपड़ा पहनाया उसे, बढि़या से बढि़या खाने की चीजें खिलाईं. हर जिद, हर चाहत रवि की कुसुम और पराग ने पूरी की. शहर के महंगे इंगलिश कौन्वेंट स्कूल से, फिर विश्वविद्यालय से रवि ने शिक्षा ग्रहण की.
कितनी मेहनत से, कितनी लगन से पराग ने इसे बैंक की नौकरी की परीक्षाएं दिलवाईं. जब यह पास हो गया तो दोनों खुशी के मारे फूले नहीं समाए, खोजबीन कर के जानपहचान निकाली तब जा कर इस की नौकरी लगी.
और पराग के मरने के बाद यह सबकुछ भूल गया. काश, यह जन्म ही न लेता. मैं निपूती ही सुखी थी. इस के जन्म लेने के बाद मेरे मना करने पर भी 150 लोगों की पार्टी पराग ने खूब धूमधाम से की थी. बड़ा शरीफ, सीधासादा और संस्कारों वाला लड़का था यह. लेकिन पता नहीं इस ने क्या खा लिया, इस की बुद्धि भ्रष्ट हो गई, जो राक्षसों जैसा बरताव करता है. अब तो इस के पंख निकल आए हैं. प्यार, त्याग, दया, मान, सम्मान की भावनाएं तो इस के दिल से गायब ही हो गई हैं, जैसे अंधेरे में से परछाईं.
रसोई से आ रही मीठीमीठी सुगंध से कुसुम बच्ची सी मनचली हो गई. हिम्मत की सीढ़ी चढ़ कर धीरेधीरे बहू के पास आई, ‘‘बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है, बेटी क्या बनाया है?’’ पता नहीं कैसे दुनिया का नया आश्चर्य लगा कुसुम को बहू के उत्तर देने के ढंग से, ‘‘मांजी, गाजर का हलवा बनाया है. खाएंगी? आइए, बैठिए.’’
आगे पढ़ें- हक्कीबक्की बावली सी कुसुम डायनिंग चेयर पर बैठ गई…
The post विद्रोह भाग-1 appeared first on Sarita Magazine.
February 28, 2020 at 09:50AMThe post विद्रोह appeared first on Sarita Magazine.
The post विद्रोह appeared first on Sarita Magazine.
February 28, 2020 at 09:45AMअपने हिस्से से ज्यादा लेने और ज्यादा से ज्यादा पैसे बनाने के अशोक के स्वभाव ने अपने ही भाई मनोज के लिए अचानक एक मुसीबत खड़ी कर दी. ऐसे में मनोज ने क्या तरकीब अपनाई जिस से न केवल सचाई की जीत हुई बल्कि अशोक को शर्मिंदा भी होना पड़ा?
दरवाजे की घंटी बजी. मीना ने दरवाजे पर जा कर मैजिक आई से बाहर झांका. जमाने का माहौल अच्छा नहीं था, इसलिए सावधानी से काम लेना पड़ता था. बाहर खड़ा उस इलाके का डाकिया शिवलाल था. मीना ने दरवाजा खोला.
‘‘साहब के लिए रजिस्ट्री है, मैडम,’’ शिवलाल ने कहा और मीना को सरकारी किस्म का 1 लिफाफा पकड़ा दिया.
ये भी पढ़ें-अफसरी के चंद नुसखे
मीना ने रसीद पर हस्ताक्षर किए, उस के नीचे अपना टैलीफोन नंबर लिखा और शिवलाल को रसीद वापस दे दी. अंदर आ कर मीना ने लिफाफा टेबल पर रख दिया ताकि उस का पति मनोज जब शाम को दफ्तर से आएगा तब देख लेगा.
शाम को मनोज आया और उस ने लिफाफा खोला. अंदर जो कागजात थे, उन को पढ़ा. उस के माथे पर शिकन पड़ गई. उस ने कागजात दोबारा पढ़े.
‘‘मूर्ख कहीं का, गधा, बिलकुल पागल हो गया है,’’ मनोज ने नाराजगी भरे स्वर में जोर से कहा.
मीना चौंक उठी, ‘‘तुम किस के बारे में बोल रहे हो? मामला क्या है?’’
‘‘वह उल्लू, अशोक,’’ मनोज ने अपने छोटे भाई का नाम लेते हुए कहा, ‘‘उस ने मेरे खिलाफ अदालत में केस दर्ज किया है.’’
‘‘अदालत में केस?’’ मीना ने आश्चर्यजनक आवाज में पूछा, ‘‘कैसा केस? तुम ने क्या जुर्म किया है?’’
ये भी पढ़ें-दुर्घटना पर्यटन: भाग-2
‘‘अशोक ने शिकायत में लिखा है कि हमारे पिता ने, उसे और मुझे, वसीयत में यह दोमंजिला मकान सौंपा था. दोनों को आधाआधा मकान. उस ने लिखा है कि दोनों हिस्सों का एरिया बराबर है, पर निचले हिस्से में जहां हम रह रहे हैं, उस का मूल्य अधिक है, क्योंकि ग्राउंड फ्लोर का मूल्य हमेशा अधिक होता है. वह यह भी मानता है कि हम, पिताजी की मौत के पहले से उन के साथ ग्राउंड फ्लोर में रह रहे थे, पर उन के मरने के बाद भी ग्राउंड पर रह कर मैं ने अपने घर के 50 प्रतिशत से ज्यादा एरिया पर हक जमाया है. इसलिए मुझे उस की पूर्ति उसे देनी पड़ेगी. यह रकम, जिस का हिसाब उस ने 2 लाख रुपए सालाना बताया है, मुझे उसे पिछले 3 साल, यानी पिताजी की मौत के दिन से देनी होगी, ब्याज के साथ. और भविष्य में हर साल इसी हिसाब से 2 लाख रुपए देने होंगे.’’
‘‘पर वह ऐसा कैसे कर सकता है?’’ मीना ने पूछा, ‘‘आप के पिताजी की मौत के बाद से ऊपरी मंजिल का किराया अशोक लेता रहा है, तो उस को तो काफी पैसे मिले हैं. हम ने अपना हिस्सा तो किराए पर कभी नहीं दिया, हमें तो किसी तरह का फायदा मिला नहीं. ऊपर से अशोक ने तो कभी नहीं कहा कि वह नीचे रहना चाहता है. वह आप पर अचानक केस कैसे कर सकता है? अदालत को यह केस मंजूर ही नहीं होना चाहिए.’’
‘‘अफसोस तो इसी बात का है,’’ मनोज ने ठंडी सांस भरते हुए कहा, ‘‘अदालत ने उस का केस स्वीकार कर लिया है और मुझे कोर्ट में 3 हफ्ते बाद हाजिर होने का आदेश भेजा है.’’
‘‘पर मुझे एक बात समझ में नहीं आई,’’ मीना ने कहा, ‘‘मैं मानती हूं कि आप में और अशोक में कभी कोई खास बनती नहीं थी, पर वह आप से पैसे ऐंठने की कोशिश क्यों कर रहा है?’’
‘‘मैं जानता हूं कि वह यह क्यों कर रहा है,’’ मनोज ने जवाब दिया, ‘‘अशोक बचपन से लालची और स्वार्थी किस्म का इंसान है. जब भी हम दोनों को खिलौने या चौकलेट मिलते थे तो वह अपने हिस्से से ज्यादा लेने की कोशिश करता था. वह बड़ा हुआ, तो उस के जीवन का एक ही मकसद था कि वह ज्यादा से ज्यादा पैसे बनाए, चाहे किसी भी तरीके से. इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए वह कुछ भी करने के लिए तैयार है, चाहे झूठ बोलना हो या धोखाधड़ी का सहारा लेना पड़े. पर इस केस के बारे में मैं चिंतित हूं. मैं एक अच्छा वकील ढूंढ़ता हूं जो मेरी तरफ से केस लड़ेगा. मुझे पक्का यकीन है कि हम केस जीत जाएंगे. क्योंकि इस केस में खास दम नहीं है.
‘‘पर, मैं सोच रहा हूं कि हमारे परिवार की काफी बदनामी होगी जब हमारे रिश्तेदारों, दोस्तों और पड़ोसियों को
ये भी पढ़ें-दुर्घटना पर्यटन: भाग-1
पता चलेगा कि हम 2 भाई एकदूसरे के खिलाफ मुकदमा लड़ रहे हैं. पिताजी कितने बड़ेबड़े लोगों से मेलजोल रखते थे, और उन को लोग खूब सम्मान देते थे. अब उन का नाम मिट्टी में मिल जाएगा.’’
‘‘पर अशोक ने आप पर इस समय क्यों मुकदमा चलाया है?’’ मीना ने पूछा.
‘‘इसलिए, क्योंकि उस ने शायद सुन लिया होगा कि तुम्हें हाल ही में, तुम्हारी मां के देहांत के बाद, उन की वसीयत के मुताबिक, 5 लाख रुपए मिले हैं,’’ मनोज ने जवाब दिया, ‘‘अशोक हमेशा मुझ से जलता था क्योंकि मेरी आमदनी उस की आमदनी से हमेशा दोगुनी रही है, जिस की वजह से हम कई चीजें कर सके, जो वह नहीं कर सकता था, जैसे हमारी हाल ही में की गई सिंगापुर की सैर. मुझे तो लगता है कि तुम्हारी मां की तरफ से तुम्हें पैसे मिलने की बात सुन कर उस ने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है. अब उस का लक्ष्य हम से पैसा ऐंठना हो गया है.’’
‘‘उस ने कितनी नीच किस्म की हरकत की है,’’ मीना बोली, ‘‘उसे शर्म भी नहीं आती है, अपने ही बड़े भाई पर मुकदमा कर डाला, वह भी बेवजह.’’
‘‘एक बात का खयाल रखना,’’ मनोज ने मीना को सावधान किया, ‘‘सुनील को इस मामले के बारे में कुछ नहीं बताना. वह मुकदमे का नाम सुन कर कहीं घबरा न जाए, और इस वजह से उस के बोर्ड के इम्तिहान की तैयारी में कुछ विघ्न न पड़ जाए.’’
सुनील उन का 17 साल का बेटा था.
अशोक के मनोज के खिलाफ मुकदमे का हाल वही हुआ जो हमारे देश के ज्यादातर संपत्ति से जुड़े मुकदमों का होता है. दोनों तरफ के वकील उसे खींचते रहे, कभी स्थगन ले लेते, कभी बेमतलबी बहस में लगे रहते. कोर्ट में इसी तरह के सैकड़ों मुकदमे साथसाथ चल रहे थे. 3-4 महीने के बाद सुनवाई की बारी आती थी, पर नतीजा कुछ नहीं निकलता था. इसी तरह 7 साल बीत गए, पर मुकदमे का अंत नजर नहीं आ रहा था.
सुनील ने इस दौरान आईआईटी से डिगरी हासिल की, जिस के बाद उसे उसी शहर में एक अच्छी नौकरी मिल गई. मनोज और मीना उस की शादी के बारे में सोचने लगे.
समय के साथसाथ अशोक और भी उत्तेजित होता गया. उस की विफलता उसे अंदर ही अंदर खाने लगी. उस की अपने बडे़ भाई से लाखों रुपए ऐंठने की योजना पूरी तरह नाकाम हुई जा रही थी. एक तरफ वकील का खर्चा, दूसरी तरफ बढ़ती हुई महंगाई. उस की हालत काफी नाजुक हो गई थी. दिनरात एक ही बात सोचता कि वह मुकदमा कैसे जीते.
तकदीर ने उसे एक मौका दिया पर कुछ अजीब ही तरह का.
अशोक की एक लड़की थी, जिस का नाम सुमन था. सुमन मौडर्न किस्म की लड़की थी. कालेज में पढ़ती थी. उसे देर रात तक पार्टी में जाने, शराब पीने और लड़कों के साथ घूमने की आदत थी. मांबाप का उस पर कोई कंट्रोल नहीं था. एक शाम, जब वह एक कौकटेल पार्टी में नाच रही थी, कुछ लड़कों ने उस के साथ छेड़खानी करने की कोशिश की. सुमन के साथ उस के कालेज के जो लड़के थे, उन लड़कों से भिड़ गए. काफी हाथापाई हुई. सुमन को भी चोट लगी और उस की नाक व माथे से खून निकला. माथे का घाव काफी गहरा था. लड़ाई तब बंद हुई जब किसी ने पुलिस को बुलाने की धमकी दी.
सुमन जब घर पहुंची तो उस की हालत देख कर अशोक और उस की पत्नी काफी घबरा गए. अशोक ने उसी समय उस को अस्पताल ले जाने के लिए कार निकाली. पर फिर वह सोच में पड़ गया. वह जानता था कि अस्पताल का डाक्टर जरूर पूछेगा कि चोट कैसे लगी? अगर सुमन ने सच बता दिया कि मारपीट की वजह से चोट लगी, तो शायद डाक्टर उसे पुलिस केस बना दे.
फिर अचानक अशोक को एक तरकीब सूझी. एक ऐसी तरकीब जिस से वह मनोज से कई लाख रुपए उगलवा सकता था. उस ने सुमन से कहा, ‘‘बेटा, जब डाक्टर साहब तुम्हें पूछेंगे कि तुम्हें चोट कैसे लगी, तुम बता देना कि हमारे घर के सामने तुम सड़क पार कर रही थी कि एक तेज रफ्तार वाली मोटरसाइकिल ने तुम्हें टक्कर मारी. मोटरसाइकिल चालक रुका नहीं, वहां से भाग गया. डाक्टर जरूर पुलिस को बुलाएगा, एफआईआर लिखवाने. जब पुलिस आएगी, तुम उन को बताना कि तुम ने मोटरसाइकिल का नंबर देखा था, पर क्योंकि हादसे के कारण तुम्हें काफी झटका लगा है, इस कारण तुम उसे भूल गई हो. याद आते ही तुम पुलिस को सूचित कर दोगी. यह बयान देते समय तुम बिलकुल झिझकना मत. वैसे, मैं तो तुम्हारे साथ ही रहूंगा, तो तुम्हें डरने की कोई जरूरत नहीं.’’
सुमन ने पुलिस को वैसा ही बयान दिया जैसा उस के पिता अशोक ने बताया था. ‘हिट ऐंड रन’ केस का मामला दर्ज हुआ और एफआईआर की एक कौपी अशोक को भी दी गई. उस में साफ लिखा था कि सुमन ने उस टक्कर मारने वाली मोटरसाइकिल का नंबर देख तो लिया था, पर सदमे की वजह से वह उसे याद नहीं.
अगले दिन सुबह, एफआईआर की कौपी ले कर अशोक, मनोज के घर गया. उस ने मनोज को एफआईआर दिखाई और धमकी दी कि अगर 7 दिन के अंदर मनोज ने उसे 5 लाख रुपए नहीं दिए तो सुमन पुलिस को बता देगी कि दोषी मोटरसाइकिल का नंबर उसे याद आ गया. और वह पुलिस को सुनील की मोटरसाइकिल का नंबर दे देगी. यह कह कर, मनोज को दुविधा में डाल कर, अशोक वहां से मन ही मन मुसकराता हुआ चला गया. मनोज जानता था कि अगर सुनील पर मुकदमा चला तो शायद उसे अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़े. और अगर वह अपनी बेकसूरी साबित न कर सके तो उस के जेल जाने की नौबत भी आ सकती है.
मनोज ने सुनील को बुला कर उस से पूछा कि पिछली रात तकरीबन 10 बजे, जोकि एफआईआर के मुताबिक हादसे का समय था, वह कहां था? सुनील ने बताया कि पिछली रात वह कुछ दोस्तों के साथ एक मौल में रात का शो देखने गया था. यानी रात के साढ़े 8 से ले कर पौने 12 बजे तक वह मौल में ही था.
मनोज जानता था कि सुनील सच बोल रहा है, और अगर उस पर मुकदमा चला तो उस के दोस्त उस की तरफदारी में गवाही जरूर देंगे. पर फिर भी बदनामी तो होगी. मनोज मुकदमा दर्ज होने से पहले ही मामले को समाप्त करवाना चाहता था, पर अशोक को पैसे दे कर नहीं.
जब मनोज के दिमाग में कुछ सूझ नहीं आई तो वह अपनी समस्या ले कर अपने वकील के पास गया. उस के वकील ने मामले पर थोड़ी देर विचार किया और फिर हल सोच लिया. वह कोर्ट गया और वहां से एक आदेशपत्र हासिल किया. आदेशपत्र ले कर वह पुलिस अफसर, सुनील और मनोज के साथ उस मौल में गया जहां सुनील ने हादसे की रात को फिल्म देखी थी. उन्होंने आदेशपत्र दिखा कर, मौल के सारे सीसीटीवी कैमरों की उस रात की रिकौर्डिंग की छानबीन की. रिकौर्डिंग से साफ पता चलता है कि सुनील, रात के 8 बज कर 22 मिनट पर मौल की पार्किंग में घुसा था अपनी मोटरसाइकिल के साथ. 5 मिनट बाद उस ने मौल में प्रवेश किया. फिर पौने 12 बजे तक न सुनील, न उस की मोटरसाइकिल मौल से निकले. सुनील
12 बज कर 10 मिनट पर मौल से निकला और 4 मिनट के बाद मोटरसाइकिल पर मौल की पार्किंग से बाहर गया. इस से साफ जाहिर होता था कि सुमन के साथ हादसे के कथित समय पर सुनील मौल के अंदर था. मनोज के वकील ने इस बात की एफिडेविट अगले दिन कोर्ट में दर्ज करा दी.
2 दिन बाद मनोज, एफिडेविट की कौपी ले कर अशोक के घर गया. वहां उस ने अशोक और उस की पत्नी व उन की बेटी के सामने एफिडेविट की कौपी दिखाई और चेतावनी दी कि अगर सुमन ने पुलिस को झूठी गवाही दी, तो वह जेल जा सकती है. सुमन और उस की मां हक्कीबक्की रह गईं. उन को अशोक की इस घटिया योजना के बारे में बिलकुल खबर नहीं थी.
10 दिन बाद अशोक के मुकदमे की अगली सुनवाई हुई. जज ने दोनों भाइयों को अपने चैंबर में बुलाया. वहां उन्होंने दोनों को सलाह दी कि वे अपना समय व पैसा और कोर्ट का समय बरबाद करना छोड़ दें, आपस में समझौता कर लें. जज ने यह भी कहा कि झगडे़ को सुलझाने का सब से आसान तरीका था घर को बेच देना और मिली हुई कीमत को आधाआधा बांट लेना. अशोक, जिसे अपनी बीवी और बेटी के सामने काफी शर्मिंदा होना पड़ा था, जिस के अपने भाई से पैसे ऐंठने के सपने चूरचूर हो चुके थे, ने सचाई के आगे घुटने टेक दिए.
The post सचाई की जीत appeared first on Sarita Magazine.
अपने हिस्से से ज्यादा लेने और ज्यादा से ज्यादा पैसे बनाने के अशोक के स्वभाव ने अपने ही भाई मनोज के लिए अचानक एक मुसीबत खड़ी कर दी. ऐसे में मनोज ने क्या तरकीब अपनाई जिस से न केवल सचाई की जीत हुई बल्कि अशोक को शर्मिंदा भी होना पड़ा?
दरवाजे की घंटी बजी. मीना ने दरवाजे पर जा कर मैजिक आई से बाहर झांका. जमाने का माहौल अच्छा नहीं था, इसलिए सावधानी से काम लेना पड़ता था. बाहर खड़ा उस इलाके का डाकिया शिवलाल था. मीना ने दरवाजा खोला.
‘‘साहब के लिए रजिस्ट्री है, मैडम,’’ शिवलाल ने कहा और मीना को सरकारी किस्म का 1 लिफाफा पकड़ा दिया.
ये भी पढ़ें-अफसरी के चंद नुसखे
मीना ने रसीद पर हस्ताक्षर किए, उस के नीचे अपना टैलीफोन नंबर लिखा और शिवलाल को रसीद वापस दे दी. अंदर आ कर मीना ने लिफाफा टेबल पर रख दिया ताकि उस का पति मनोज जब शाम को दफ्तर से आएगा तब देख लेगा.
शाम को मनोज आया और उस ने लिफाफा खोला. अंदर जो कागजात थे, उन को पढ़ा. उस के माथे पर शिकन पड़ गई. उस ने कागजात दोबारा पढ़े.
‘‘मूर्ख कहीं का, गधा, बिलकुल पागल हो गया है,’’ मनोज ने नाराजगी भरे स्वर में जोर से कहा.
मीना चौंक उठी, ‘‘तुम किस के बारे में बोल रहे हो? मामला क्या है?’’
‘‘वह उल्लू, अशोक,’’ मनोज ने अपने छोटे भाई का नाम लेते हुए कहा, ‘‘उस ने मेरे खिलाफ अदालत में केस दर्ज किया है.’’
‘‘अदालत में केस?’’ मीना ने आश्चर्यजनक आवाज में पूछा, ‘‘कैसा केस? तुम ने क्या जुर्म किया है?’’
ये भी पढ़ें-दुर्घटना पर्यटन: भाग-2
‘‘अशोक ने शिकायत में लिखा है कि हमारे पिता ने, उसे और मुझे, वसीयत में यह दोमंजिला मकान सौंपा था. दोनों को आधाआधा मकान. उस ने लिखा है कि दोनों हिस्सों का एरिया बराबर है, पर निचले हिस्से में जहां हम रह रहे हैं, उस का मूल्य अधिक है, क्योंकि ग्राउंड फ्लोर का मूल्य हमेशा अधिक होता है. वह यह भी मानता है कि हम, पिताजी की मौत के पहले से उन के साथ ग्राउंड फ्लोर में रह रहे थे, पर उन के मरने के बाद भी ग्राउंड पर रह कर मैं ने अपने घर के 50 प्रतिशत से ज्यादा एरिया पर हक जमाया है. इसलिए मुझे उस की पूर्ति उसे देनी पड़ेगी. यह रकम, जिस का हिसाब उस ने 2 लाख रुपए सालाना बताया है, मुझे उसे पिछले 3 साल, यानी पिताजी की मौत के दिन से देनी होगी, ब्याज के साथ. और भविष्य में हर साल इसी हिसाब से 2 लाख रुपए देने होंगे.’’
‘‘पर वह ऐसा कैसे कर सकता है?’’ मीना ने पूछा, ‘‘आप के पिताजी की मौत के बाद से ऊपरी मंजिल का किराया अशोक लेता रहा है, तो उस को तो काफी पैसे मिले हैं. हम ने अपना हिस्सा तो किराए पर कभी नहीं दिया, हमें तो किसी तरह का फायदा मिला नहीं. ऊपर से अशोक ने तो कभी नहीं कहा कि वह नीचे रहना चाहता है. वह आप पर अचानक केस कैसे कर सकता है? अदालत को यह केस मंजूर ही नहीं होना चाहिए.’’
‘‘अफसोस तो इसी बात का है,’’ मनोज ने ठंडी सांस भरते हुए कहा, ‘‘अदालत ने उस का केस स्वीकार कर लिया है और मुझे कोर्ट में 3 हफ्ते बाद हाजिर होने का आदेश भेजा है.’’
‘‘पर मुझे एक बात समझ में नहीं आई,’’ मीना ने कहा, ‘‘मैं मानती हूं कि आप में और अशोक में कभी कोई खास बनती नहीं थी, पर वह आप से पैसे ऐंठने की कोशिश क्यों कर रहा है?’’
‘‘मैं जानता हूं कि वह यह क्यों कर रहा है,’’ मनोज ने जवाब दिया, ‘‘अशोक बचपन से लालची और स्वार्थी किस्म का इंसान है. जब भी हम दोनों को खिलौने या चौकलेट मिलते थे तो वह अपने हिस्से से ज्यादा लेने की कोशिश करता था. वह बड़ा हुआ, तो उस के जीवन का एक ही मकसद था कि वह ज्यादा से ज्यादा पैसे बनाए, चाहे किसी भी तरीके से. इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए वह कुछ भी करने के लिए तैयार है, चाहे झूठ बोलना हो या धोखाधड़ी का सहारा लेना पड़े. पर इस केस के बारे में मैं चिंतित हूं. मैं एक अच्छा वकील ढूंढ़ता हूं जो मेरी तरफ से केस लड़ेगा. मुझे पक्का यकीन है कि हम केस जीत जाएंगे. क्योंकि इस केस में खास दम नहीं है.
‘‘पर, मैं सोच रहा हूं कि हमारे परिवार की काफी बदनामी होगी जब हमारे रिश्तेदारों, दोस्तों और पड़ोसियों को
ये भी पढ़ें-दुर्घटना पर्यटन: भाग-1
पता चलेगा कि हम 2 भाई एकदूसरे के खिलाफ मुकदमा लड़ रहे हैं. पिताजी कितने बड़ेबड़े लोगों से मेलजोल रखते थे, और उन को लोग खूब सम्मान देते थे. अब उन का नाम मिट्टी में मिल जाएगा.’’
‘‘पर अशोक ने आप पर इस समय क्यों मुकदमा चलाया है?’’ मीना ने पूछा.
‘‘इसलिए, क्योंकि उस ने शायद सुन लिया होगा कि तुम्हें हाल ही में, तुम्हारी मां के देहांत के बाद, उन की वसीयत के मुताबिक, 5 लाख रुपए मिले हैं,’’ मनोज ने जवाब दिया, ‘‘अशोक हमेशा मुझ से जलता था क्योंकि मेरी आमदनी उस की आमदनी से हमेशा दोगुनी रही है, जिस की वजह से हम कई चीजें कर सके, जो वह नहीं कर सकता था, जैसे हमारी हाल ही में की गई सिंगापुर की सैर. मुझे तो लगता है कि तुम्हारी मां की तरफ से तुम्हें पैसे मिलने की बात सुन कर उस ने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है. अब उस का लक्ष्य हम से पैसा ऐंठना हो गया है.’’
‘‘उस ने कितनी नीच किस्म की हरकत की है,’’ मीना बोली, ‘‘उसे शर्म भी नहीं आती है, अपने ही बड़े भाई पर मुकदमा कर डाला, वह भी बेवजह.’’
‘‘एक बात का खयाल रखना,’’ मनोज ने मीना को सावधान किया, ‘‘सुनील को इस मामले के बारे में कुछ नहीं बताना. वह मुकदमे का नाम सुन कर कहीं घबरा न जाए, और इस वजह से उस के बोर्ड के इम्तिहान की तैयारी में कुछ विघ्न न पड़ जाए.’’
सुनील उन का 17 साल का बेटा था.
अशोक के मनोज के खिलाफ मुकदमे का हाल वही हुआ जो हमारे देश के ज्यादातर संपत्ति से जुड़े मुकदमों का होता है. दोनों तरफ के वकील उसे खींचते रहे, कभी स्थगन ले लेते, कभी बेमतलबी बहस में लगे रहते. कोर्ट में इसी तरह के सैकड़ों मुकदमे साथसाथ चल रहे थे. 3-4 महीने के बाद सुनवाई की बारी आती थी, पर नतीजा कुछ नहीं निकलता था. इसी तरह 7 साल बीत गए, पर मुकदमे का अंत नजर नहीं आ रहा था.
सुनील ने इस दौरान आईआईटी से डिगरी हासिल की, जिस के बाद उसे उसी शहर में एक अच्छी नौकरी मिल गई. मनोज और मीना उस की शादी के बारे में सोचने लगे.
समय के साथसाथ अशोक और भी उत्तेजित होता गया. उस की विफलता उसे अंदर ही अंदर खाने लगी. उस की अपने बडे़ भाई से लाखों रुपए ऐंठने की योजना पूरी तरह नाकाम हुई जा रही थी. एक तरफ वकील का खर्चा, दूसरी तरफ बढ़ती हुई महंगाई. उस की हालत काफी नाजुक हो गई थी. दिनरात एक ही बात सोचता कि वह मुकदमा कैसे जीते.
तकदीर ने उसे एक मौका दिया पर कुछ अजीब ही तरह का.
अशोक की एक लड़की थी, जिस का नाम सुमन था. सुमन मौडर्न किस्म की लड़की थी. कालेज में पढ़ती थी. उसे देर रात तक पार्टी में जाने, शराब पीने और लड़कों के साथ घूमने की आदत थी. मांबाप का उस पर कोई कंट्रोल नहीं था. एक शाम, जब वह एक कौकटेल पार्टी में नाच रही थी, कुछ लड़कों ने उस के साथ छेड़खानी करने की कोशिश की. सुमन के साथ उस के कालेज के जो लड़के थे, उन लड़कों से भिड़ गए. काफी हाथापाई हुई. सुमन को भी चोट लगी और उस की नाक व माथे से खून निकला. माथे का घाव काफी गहरा था. लड़ाई तब बंद हुई जब किसी ने पुलिस को बुलाने की धमकी दी.
सुमन जब घर पहुंची तो उस की हालत देख कर अशोक और उस की पत्नी काफी घबरा गए. अशोक ने उसी समय उस को अस्पताल ले जाने के लिए कार निकाली. पर फिर वह सोच में पड़ गया. वह जानता था कि अस्पताल का डाक्टर जरूर पूछेगा कि चोट कैसे लगी? अगर सुमन ने सच बता दिया कि मारपीट की वजह से चोट लगी, तो शायद डाक्टर उसे पुलिस केस बना दे.
फिर अचानक अशोक को एक तरकीब सूझी. एक ऐसी तरकीब जिस से वह मनोज से कई लाख रुपए उगलवा सकता था. उस ने सुमन से कहा, ‘‘बेटा, जब डाक्टर साहब तुम्हें पूछेंगे कि तुम्हें चोट कैसे लगी, तुम बता देना कि हमारे घर के सामने तुम सड़क पार कर रही थी कि एक तेज रफ्तार वाली मोटरसाइकिल ने तुम्हें टक्कर मारी. मोटरसाइकिल चालक रुका नहीं, वहां से भाग गया. डाक्टर जरूर पुलिस को बुलाएगा, एफआईआर लिखवाने. जब पुलिस आएगी, तुम उन को बताना कि तुम ने मोटरसाइकिल का नंबर देखा था, पर क्योंकि हादसे के कारण तुम्हें काफी झटका लगा है, इस कारण तुम उसे भूल गई हो. याद आते ही तुम पुलिस को सूचित कर दोगी. यह बयान देते समय तुम बिलकुल झिझकना मत. वैसे, मैं तो तुम्हारे साथ ही रहूंगा, तो तुम्हें डरने की कोई जरूरत नहीं.’’
सुमन ने पुलिस को वैसा ही बयान दिया जैसा उस के पिता अशोक ने बताया था. ‘हिट ऐंड रन’ केस का मामला दर्ज हुआ और एफआईआर की एक कौपी अशोक को भी दी गई. उस में साफ लिखा था कि सुमन ने उस टक्कर मारने वाली मोटरसाइकिल का नंबर देख तो लिया था, पर सदमे की वजह से वह उसे याद नहीं.
अगले दिन सुबह, एफआईआर की कौपी ले कर अशोक, मनोज के घर गया. उस ने मनोज को एफआईआर दिखाई और धमकी दी कि अगर 7 दिन के अंदर मनोज ने उसे 5 लाख रुपए नहीं दिए तो सुमन पुलिस को बता देगी कि दोषी मोटरसाइकिल का नंबर उसे याद आ गया. और वह पुलिस को सुनील की मोटरसाइकिल का नंबर दे देगी. यह कह कर, मनोज को दुविधा में डाल कर, अशोक वहां से मन ही मन मुसकराता हुआ चला गया. मनोज जानता था कि अगर सुनील पर मुकदमा चला तो शायद उसे अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़े. और अगर वह अपनी बेकसूरी साबित न कर सके तो उस के जेल जाने की नौबत भी आ सकती है.
मनोज ने सुनील को बुला कर उस से पूछा कि पिछली रात तकरीबन 10 बजे, जोकि एफआईआर के मुताबिक हादसे का समय था, वह कहां था? सुनील ने बताया कि पिछली रात वह कुछ दोस्तों के साथ एक मौल में रात का शो देखने गया था. यानी रात के साढ़े 8 से ले कर पौने 12 बजे तक वह मौल में ही था.
मनोज जानता था कि सुनील सच बोल रहा है, और अगर उस पर मुकदमा चला तो उस के दोस्त उस की तरफदारी में गवाही जरूर देंगे. पर फिर भी बदनामी तो होगी. मनोज मुकदमा दर्ज होने से पहले ही मामले को समाप्त करवाना चाहता था, पर अशोक को पैसे दे कर नहीं.
जब मनोज के दिमाग में कुछ सूझ नहीं आई तो वह अपनी समस्या ले कर अपने वकील के पास गया. उस के वकील ने मामले पर थोड़ी देर विचार किया और फिर हल सोच लिया. वह कोर्ट गया और वहां से एक आदेशपत्र हासिल किया. आदेशपत्र ले कर वह पुलिस अफसर, सुनील और मनोज के साथ उस मौल में गया जहां सुनील ने हादसे की रात को फिल्म देखी थी. उन्होंने आदेशपत्र दिखा कर, मौल के सारे सीसीटीवी कैमरों की उस रात की रिकौर्डिंग की छानबीन की. रिकौर्डिंग से साफ पता चलता है कि सुनील, रात के 8 बज कर 22 मिनट पर मौल की पार्किंग में घुसा था अपनी मोटरसाइकिल के साथ. 5 मिनट बाद उस ने मौल में प्रवेश किया. फिर पौने 12 बजे तक न सुनील, न उस की मोटरसाइकिल मौल से निकले. सुनील
12 बज कर 10 मिनट पर मौल से निकला और 4 मिनट के बाद मोटरसाइकिल पर मौल की पार्किंग से बाहर गया. इस से साफ जाहिर होता था कि सुमन के साथ हादसे के कथित समय पर सुनील मौल के अंदर था. मनोज के वकील ने इस बात की एफिडेविट अगले दिन कोर्ट में दर्ज करा दी.
2 दिन बाद मनोज, एफिडेविट की कौपी ले कर अशोक के घर गया. वहां उस ने अशोक और उस की पत्नी व उन की बेटी के सामने एफिडेविट की कौपी दिखाई और चेतावनी दी कि अगर सुमन ने पुलिस को झूठी गवाही दी, तो वह जेल जा सकती है. सुमन और उस की मां हक्कीबक्की रह गईं. उन को अशोक की इस घटिया योजना के बारे में बिलकुल खबर नहीं थी.
10 दिन बाद अशोक के मुकदमे की अगली सुनवाई हुई. जज ने दोनों भाइयों को अपने चैंबर में बुलाया. वहां उन्होंने दोनों को सलाह दी कि वे अपना समय व पैसा और कोर्ट का समय बरबाद करना छोड़ दें, आपस में समझौता कर लें. जज ने यह भी कहा कि झगडे़ को सुलझाने का सब से आसान तरीका था घर को बेच देना और मिली हुई कीमत को आधाआधा बांट लेना. अशोक, जिसे अपनी बीवी और बेटी के सामने काफी शर्मिंदा होना पड़ा था, जिस के अपने भाई से पैसे ऐंठने के सपने चूरचूर हो चुके थे, ने सचाई के आगे घुटने टेक दिए.
The post सचाई की जीत appeared first on Sarita Magazine.
February 28, 2020 at 09:00AMकम्बख्त कार के कारनामे भी अजीबोगरीब हैं. कभी किसी बेकार के साथ चमत्कार करती है तो कभी मक्कार को दुत्कार देती है. दरअसल ‘कार’ से जुड़े इस नए शब्दकोष ने लोगों की जिंदगी में कैसे हाहाकार मचा रखा है, आप भी बूझिए.
अब से 2 दशक पहले तक कार शानोशौकत, दिखावे और विलास की वस्तु समझी जाती थी. पैसे वाले ही इसे खरीद पाते थे. आम जन इसे अपनी पहुंच से दूर समझते थे और अनावश्यक भी. लोग दालरोटी के जुगाड़ को ही अपना लक्ष्य समझते थे. संजय गांधी ने पहली बार देश के लोगों को छोटी कार का सपना दिखाया और मारुति कार जब देश में बनने लगी तो इस ने स्कूटर वालों के कार के सपनों को हकीकत में बदल दिया और बदल दीं इस के साथ कई परिभाषाएं और अर्थ. अब तो कहावत बन गई है कि ‘पति चाहे अनाड़ी हो पर पास में एक गाड़ी हो तो जिंदगी सब से अगाड़ी रहती है.’
ये भी पढ़ें-अफसरी के चंद नुसखे
तो भाइयो, गाड़ी आजकल लगभग सब के पास है और जिन के पास नहीं है वे भी अपना शौक टैक्सी से पूरा कर लेते हैं. हां, गाड़ी यानी कार के इस्तेमाल के आधार पर समाज 3 वर्गों में बंट गया है. पहला वर्ग तो वह है जो रोजरोज के आनेजाने में अपनी कार का ही इस्तेमाल करता है, दूसरा कोई साधन इस्तेमाल नहीं करता. दूसरा वर्ग वह है जो अपनी कार में सप्ताह में एक दिन, अकसर रविवार को अपने परिवार सहित सैर को निकलता है और शाम की चायनाश्ता किसी रेस्तरां, रिश्तेदार या मित्र के पास करता है. तीसरे वर्ग में वे लोग आते हैं जो अपनी कार की सफाई तो पूजा की तरह रोज करते हैं, पर उस का इस्तेमाल कभीकभार ही करते हैं, जैसे किसी शादीब्याह में या परिवार के किसी गंभीर बीमार को अस्पताल में ले जाने में.
खैर, कहने का तात्पर्य यह कि कार अब के जमाने में परिवार का अंग बन चुकी है. इस के सर्वव्यापक अस्तित्व के कारण कई शब्दों के अर्थ और परिभाषाएं बदल चुकी हैं. यहां छोटी कार के आगमन से जो ‘कार वाले’ बन गए हैं उन की ओर से कुछ शब्दों की नई परिभाषाएं व अर्थ प्रस्तुत किए जा रहे हैं. भाषाशास्त्रियों से विनम्र निवेदन है कि निम्नलिखित परिभाषाओं को शब्दकोष में विधिवत सम्मिलित करें :
बेकार : जिस व्यक्ति के पास आज के समय में कार नहीं है, उसे लोग (खासकर महिलाएं) ‘बेकार’ कहते हैं, चाहे वह कोई भी चंगी नौकरी या व्यवसाय क्यों न करता हो. यानी कार नहीं है तो अच्छाखासा बंदा बेकार है.
साकार : जिस व्यक्ति के पास ‘कार’ हो उसे ‘साकार’ कहते हैं यानी दुनिया को वही नजर आता है जिस के पास कार होती है. पैदल, यहां तक कि दुपहिया वाहन वालों का भी अस्तित्व खतरे में है.
ये भी पढ़ें-दुर्घटना पर्यटन: भाग-2
निराकार : साधन संपन्न होते हुए भी जो व्यक्ति जानबूझ कर कार नहीं खरीदता उसे ‘निराकार’ कहा जाता है. कार कंपनियां ऐसे ही ‘निराकार’ सज्जनों को साकार बनाने का भरसक प्रयत्न करती रहती हैं.
चमत्कार : जिस व्यक्ति की आय का साधन भले ही लोगों को नजर न आए, फिर भी उस ने कार रखी है, तो उसे लोग ‘चमत्कार’ कहते हैं. हमारे महल्ले के मंदिर के पुजारी ने कार रखी है. उसे भी लोग ‘चमत्कार’ कहते हैं. यह दीगर है कि ऐसे चमत्कारों पर आयकर विभाग की नजर भी रहती है.
बदकार : कई कार मालिक बड़े रसिक होते हैं. अपने दोस्तों को अपनी कार में बिठा कर वे किसी एकांत स्थान पर रुक कर कार में शराब पीने का आनंद लेते हैं और कई तो अवैध कर्म भी करते हैं. ऐसे कार मालिकों को ‘बदकार’ कहा जाए तो क्या नुकसान है?
स्वीकार : जिस व्यक्ति ने अपने ससुर से दहेज में कार स्वीकार की हो उसे ‘स्वीकार’ की संज्ञा देना उचित होगा.
मक्कार : बैंक से ऋण ले कर कार तो खरीद ली पर ऋण की किस्त चुकाने में जो आनाकानी करता है, ऐसे कार मालिक को ‘मक्कार’ कहना बिलकुल सही होगा. बैंकों से अनुरोध है कि वे इस शब्द को अपनी शब्दावली में शामिल कर लें.
स्वर्णकार : जिस व्यक्ति ने अपनी पत्नी के सोने के गहने बेच कर कार खरीदने का दुस्साहस किया हो उसे ‘स्वर्णकार’ कहलाने का हकदार होना चाहिए.
पैरोकार : कार का ऐसा मालिक जो पैदल चलने में अपना अपमान समझता हो यानी कार के बाहर अपने पैर भी न रखता हो, उसे ‘पैरोकार’ कहना उचित होगा.
सरोकार : जो कार मालिक सिर्फ कार वालों से ही मिलनाजुलना पसंद करते हैं, उन्हीं में ब्याहशादी का संबंध स्थापित करने में विश्वास रखते हैं और बाकी दुनिया से कोई सरोकार रखना नहीं चाहते उन्हें ‘सरोकार’ कह कर बुलाया जाए.
चीत्कार : कारें भी कई तरह की होती हैं और चलाने वाले भी. जो व्यक्ति अपनी कार को भीड़भाड़ वाले इलाके में भी चीते की गति से चलाता हुआ ले जाता है उसे ‘चीत्कार’ कहना उपयुक्त होगा. पर अगर उस से किसी को टक्कर लग जाए तो लोग अपनेआप ही उसे ‘फटकार’ कहने लगेंगे.
ललकार : जो व्यक्ति अपने पड़ोसी से ज्यादा महंगी कार खरीद कर ले आए और रोज अपने घर से निकलते वक्त उक्त पड़ोसी के घर के सामने अपनी महंगी कार का हौर्न बारबार बजाए, ऐसे को हम ‘ललकार’ कहना पसंद करेंगे.
हाहाकार : जिस व्यक्ति की आर्थिक स्थिति को देखते हुए पड़ोसियों को कोई उम्मीद न हो कि वह भी कभी कार खरीद सकता है और वह अचानक नई कार खरीद कर अपने दरवाजे के सामने खड़ी कर दे तो पड़ोसियों के घरों में तो हाहाकार मचना स्वाभाविक है. ऐसा कारनामा करने वाले को ‘हाहाकार’ कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी.
फनकार : कई ऐसे धुरंधर हैं जो महीनों तक बिना ड्राइविंग लाइसैंस और गाड़ी के रजिस्टे्रशन के अपनी कार चलाते रहते हैं. पर क्या मजाल कि कोई पुलिस वाला उन का चालान कर दे. जिस महानुभाव को ऐसा फन हासिल हो, उसे ‘फनकार’ कहा जाए तो क्या हर्ज है?
चित्रकार : इस परिभाषा को लिखने से पहले मैं दुनिया छोड़ चुके महान आर्टिस्ट एम एफ हुसैन और उन की जमात के लोगों से क्षमा मांगता हूं. कई व्यक्तियों को अपनी कार के शीशों और बौडी पर अजीबोगरीब स्टिकर सजाने का जनून होता है. इसी प्रकार के व्यक्ति को, जिस ने अपनी कार को कैनवास की तरह इस्तेमाल किया हो, उसे ‘चित्रकार’ के नाम से सम्मानित किया जाए.
कलाकार : वैसे तो किसी कवि या लेखक के लिए कार खरीदना असंभव जैसा है फिर भी कई हिम्मत वाले लेखक घर के खर्चों में कटौती कर के कार खरीदने का सपना पूरा कर लेते हैं. ऐसे ही किसी कवि या लेखक को जिस ने कार रखी हो, ‘कलाकार’ कहना उचित होगा.
फुफकार : कई कार चालक बड़े गुस्सैल होते हैं. पैट्रोल की महंगाई ने ज्यादातर को ऐसा बना दिया है. वे अपना गुस्सा अपने विरोधी पर अपनी कार के साइलैंसर से धुआं फेंक कर निकालते हैं. ऐक्सिलरेटर को बारबार दबा कर ऐसा धुआं फेंकेंगे मानो कोई सांप फुफकार रहा हो. ऐसे गुस्सैल कारचालक को ‘फुफकार’ ही कहना चाहिए.
ये भी पढ़ें-दुर्घटना पर्यटन: भाग-1
दुत्कार : अमीर लोगों को अब इस बात की ईर्ष्या होती है कि ऐरेगैरे आदमियों ने भी कार रख ली है, चाहे छोटी कार ही क्यों न हो. तो अब कई अमीर लोगों ने अपनी बड़ी कारों में प्रैशर हौर्न फिट करवा लिए हैं. जब वे कोई छोटी कार देखते हैं तो उस से आगे निकलते हुए बारबार अपने प्रैशर हौर्न से बड़ी भयावह आवाज पैदा करते हैं, मानो छोटी कार वालों को दुत्कार रहे हों. ऐसे ईर्ष्यालु, अमीर कार मालिक को ‘दुत्कार’ के नाम से नवाजा जाए.
नकारा : जिस व्यक्ति ने बहुत ही पुराने मौडल की कार खरीदी हो और जैसेतैसे हांक कर कार वालों की श्रेणी में रहने का प्रयास करता हो, उसे ‘नकारा’ कहना बिलकुल सही होगा.
कार सेवा : अपनी कार की हर रोज, साप्ताहिक या मासिक धुलाई और साफसफाई को आजकल ‘कार सेवा’ कहते हैं.
नाटककार : कार के ऐक्सिडैंटल डैमेज के झूठे बिल बना कर जो कार मालिक बीमा कंपनियों से पैसा ऐंठता है, उन जैसा नाटककार और कहां मिलेगा, इसलिए उसे ‘नाटककार’ कहा जाए.
हमारे पास अभी शब्द तो और भी बहुत हैं जिन की परिभाषाएं और अर्थ बदल चुके हैं पर स्थानाभाव से अभी इतना ही लिख कर समाप्त करता हूं. ऐसा न हो कि ‘सरकार’ ही मुझ से नाराज हो जाए. जब ये परिभाषाएं शब्दकोश में शामिल हो जाएंगी तो यह ‘कथाकार’ और बहुत से अर्थ व परिभाषाएं ले कर आप के सामने उपस्थित हो जाएगा. आप स्वयं भी जानकार हैं इसलिए अपनी प्रतिक्रिया अवश्य बताइए, धन्यवाद.
The post हा हा…कार appeared first on Sarita Magazine.
कम्बख्त कार के कारनामे भी अजीबोगरीब हैं. कभी किसी बेकार के साथ चमत्कार करती है तो कभी मक्कार को दुत्कार देती है. दरअसल ‘कार’ से जुड़े इस नए शब्दकोष ने लोगों की जिंदगी में कैसे हाहाकार मचा रखा है, आप भी बूझिए.
अब से 2 दशक पहले तक कार शानोशौकत, दिखावे और विलास की वस्तु समझी जाती थी. पैसे वाले ही इसे खरीद पाते थे. आम जन इसे अपनी पहुंच से दूर समझते थे और अनावश्यक भी. लोग दालरोटी के जुगाड़ को ही अपना लक्ष्य समझते थे. संजय गांधी ने पहली बार देश के लोगों को छोटी कार का सपना दिखाया और मारुति कार जब देश में बनने लगी तो इस ने स्कूटर वालों के कार के सपनों को हकीकत में बदल दिया और बदल दीं इस के साथ कई परिभाषाएं और अर्थ. अब तो कहावत बन गई है कि ‘पति चाहे अनाड़ी हो पर पास में एक गाड़ी हो तो जिंदगी सब से अगाड़ी रहती है.’
ये भी पढ़ें-अफसरी के चंद नुसखे
तो भाइयो, गाड़ी आजकल लगभग सब के पास है और जिन के पास नहीं है वे भी अपना शौक टैक्सी से पूरा कर लेते हैं. हां, गाड़ी यानी कार के इस्तेमाल के आधार पर समाज 3 वर्गों में बंट गया है. पहला वर्ग तो वह है जो रोजरोज के आनेजाने में अपनी कार का ही इस्तेमाल करता है, दूसरा कोई साधन इस्तेमाल नहीं करता. दूसरा वर्ग वह है जो अपनी कार में सप्ताह में एक दिन, अकसर रविवार को अपने परिवार सहित सैर को निकलता है और शाम की चायनाश्ता किसी रेस्तरां, रिश्तेदार या मित्र के पास करता है. तीसरे वर्ग में वे लोग आते हैं जो अपनी कार की सफाई तो पूजा की तरह रोज करते हैं, पर उस का इस्तेमाल कभीकभार ही करते हैं, जैसे किसी शादीब्याह में या परिवार के किसी गंभीर बीमार को अस्पताल में ले जाने में.
खैर, कहने का तात्पर्य यह कि कार अब के जमाने में परिवार का अंग बन चुकी है. इस के सर्वव्यापक अस्तित्व के कारण कई शब्दों के अर्थ और परिभाषाएं बदल चुकी हैं. यहां छोटी कार के आगमन से जो ‘कार वाले’ बन गए हैं उन की ओर से कुछ शब्दों की नई परिभाषाएं व अर्थ प्रस्तुत किए जा रहे हैं. भाषाशास्त्रियों से विनम्र निवेदन है कि निम्नलिखित परिभाषाओं को शब्दकोष में विधिवत सम्मिलित करें :
बेकार : जिस व्यक्ति के पास आज के समय में कार नहीं है, उसे लोग (खासकर महिलाएं) ‘बेकार’ कहते हैं, चाहे वह कोई भी चंगी नौकरी या व्यवसाय क्यों न करता हो. यानी कार नहीं है तो अच्छाखासा बंदा बेकार है.
साकार : जिस व्यक्ति के पास ‘कार’ हो उसे ‘साकार’ कहते हैं यानी दुनिया को वही नजर आता है जिस के पास कार होती है. पैदल, यहां तक कि दुपहिया वाहन वालों का भी अस्तित्व खतरे में है.
ये भी पढ़ें-दुर्घटना पर्यटन: भाग-2
निराकार : साधन संपन्न होते हुए भी जो व्यक्ति जानबूझ कर कार नहीं खरीदता उसे ‘निराकार’ कहा जाता है. कार कंपनियां ऐसे ही ‘निराकार’ सज्जनों को साकार बनाने का भरसक प्रयत्न करती रहती हैं.
चमत्कार : जिस व्यक्ति की आय का साधन भले ही लोगों को नजर न आए, फिर भी उस ने कार रखी है, तो उसे लोग ‘चमत्कार’ कहते हैं. हमारे महल्ले के मंदिर के पुजारी ने कार रखी है. उसे भी लोग ‘चमत्कार’ कहते हैं. यह दीगर है कि ऐसे चमत्कारों पर आयकर विभाग की नजर भी रहती है.
बदकार : कई कार मालिक बड़े रसिक होते हैं. अपने दोस्तों को अपनी कार में बिठा कर वे किसी एकांत स्थान पर रुक कर कार में शराब पीने का आनंद लेते हैं और कई तो अवैध कर्म भी करते हैं. ऐसे कार मालिकों को ‘बदकार’ कहा जाए तो क्या नुकसान है?
स्वीकार : जिस व्यक्ति ने अपने ससुर से दहेज में कार स्वीकार की हो उसे ‘स्वीकार’ की संज्ञा देना उचित होगा.
मक्कार : बैंक से ऋण ले कर कार तो खरीद ली पर ऋण की किस्त चुकाने में जो आनाकानी करता है, ऐसे कार मालिक को ‘मक्कार’ कहना बिलकुल सही होगा. बैंकों से अनुरोध है कि वे इस शब्द को अपनी शब्दावली में शामिल कर लें.
स्वर्णकार : जिस व्यक्ति ने अपनी पत्नी के सोने के गहने बेच कर कार खरीदने का दुस्साहस किया हो उसे ‘स्वर्णकार’ कहलाने का हकदार होना चाहिए.
पैरोकार : कार का ऐसा मालिक जो पैदल चलने में अपना अपमान समझता हो यानी कार के बाहर अपने पैर भी न रखता हो, उसे ‘पैरोकार’ कहना उचित होगा.
सरोकार : जो कार मालिक सिर्फ कार वालों से ही मिलनाजुलना पसंद करते हैं, उन्हीं में ब्याहशादी का संबंध स्थापित करने में विश्वास रखते हैं और बाकी दुनिया से कोई सरोकार रखना नहीं चाहते उन्हें ‘सरोकार’ कह कर बुलाया जाए.
चीत्कार : कारें भी कई तरह की होती हैं और चलाने वाले भी. जो व्यक्ति अपनी कार को भीड़भाड़ वाले इलाके में भी चीते की गति से चलाता हुआ ले जाता है उसे ‘चीत्कार’ कहना उपयुक्त होगा. पर अगर उस से किसी को टक्कर लग जाए तो लोग अपनेआप ही उसे ‘फटकार’ कहने लगेंगे.
ललकार : जो व्यक्ति अपने पड़ोसी से ज्यादा महंगी कार खरीद कर ले आए और रोज अपने घर से निकलते वक्त उक्त पड़ोसी के घर के सामने अपनी महंगी कार का हौर्न बारबार बजाए, ऐसे को हम ‘ललकार’ कहना पसंद करेंगे.
हाहाकार : जिस व्यक्ति की आर्थिक स्थिति को देखते हुए पड़ोसियों को कोई उम्मीद न हो कि वह भी कभी कार खरीद सकता है और वह अचानक नई कार खरीद कर अपने दरवाजे के सामने खड़ी कर दे तो पड़ोसियों के घरों में तो हाहाकार मचना स्वाभाविक है. ऐसा कारनामा करने वाले को ‘हाहाकार’ कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी.
फनकार : कई ऐसे धुरंधर हैं जो महीनों तक बिना ड्राइविंग लाइसैंस और गाड़ी के रजिस्टे्रशन के अपनी कार चलाते रहते हैं. पर क्या मजाल कि कोई पुलिस वाला उन का चालान कर दे. जिस महानुभाव को ऐसा फन हासिल हो, उसे ‘फनकार’ कहा जाए तो क्या हर्ज है?
चित्रकार : इस परिभाषा को लिखने से पहले मैं दुनिया छोड़ चुके महान आर्टिस्ट एम एफ हुसैन और उन की जमात के लोगों से क्षमा मांगता हूं. कई व्यक्तियों को अपनी कार के शीशों और बौडी पर अजीबोगरीब स्टिकर सजाने का जनून होता है. इसी प्रकार के व्यक्ति को, जिस ने अपनी कार को कैनवास की तरह इस्तेमाल किया हो, उसे ‘चित्रकार’ के नाम से सम्मानित किया जाए.
कलाकार : वैसे तो किसी कवि या लेखक के लिए कार खरीदना असंभव जैसा है फिर भी कई हिम्मत वाले लेखक घर के खर्चों में कटौती कर के कार खरीदने का सपना पूरा कर लेते हैं. ऐसे ही किसी कवि या लेखक को जिस ने कार रखी हो, ‘कलाकार’ कहना उचित होगा.
फुफकार : कई कार चालक बड़े गुस्सैल होते हैं. पैट्रोल की महंगाई ने ज्यादातर को ऐसा बना दिया है. वे अपना गुस्सा अपने विरोधी पर अपनी कार के साइलैंसर से धुआं फेंक कर निकालते हैं. ऐक्सिलरेटर को बारबार दबा कर ऐसा धुआं फेंकेंगे मानो कोई सांप फुफकार रहा हो. ऐसे गुस्सैल कारचालक को ‘फुफकार’ ही कहना चाहिए.
ये भी पढ़ें-दुर्घटना पर्यटन: भाग-1
दुत्कार : अमीर लोगों को अब इस बात की ईर्ष्या होती है कि ऐरेगैरे आदमियों ने भी कार रख ली है, चाहे छोटी कार ही क्यों न हो. तो अब कई अमीर लोगों ने अपनी बड़ी कारों में प्रैशर हौर्न फिट करवा लिए हैं. जब वे कोई छोटी कार देखते हैं तो उस से आगे निकलते हुए बारबार अपने प्रैशर हौर्न से बड़ी भयावह आवाज पैदा करते हैं, मानो छोटी कार वालों को दुत्कार रहे हों. ऐसे ईर्ष्यालु, अमीर कार मालिक को ‘दुत्कार’ के नाम से नवाजा जाए.
नकारा : जिस व्यक्ति ने बहुत ही पुराने मौडल की कार खरीदी हो और जैसेतैसे हांक कर कार वालों की श्रेणी में रहने का प्रयास करता हो, उसे ‘नकारा’ कहना बिलकुल सही होगा.
कार सेवा : अपनी कार की हर रोज, साप्ताहिक या मासिक धुलाई और साफसफाई को आजकल ‘कार सेवा’ कहते हैं.
नाटककार : कार के ऐक्सिडैंटल डैमेज के झूठे बिल बना कर जो कार मालिक बीमा कंपनियों से पैसा ऐंठता है, उन जैसा नाटककार और कहां मिलेगा, इसलिए उसे ‘नाटककार’ कहा जाए.
हमारे पास अभी शब्द तो और भी बहुत हैं जिन की परिभाषाएं और अर्थ बदल चुके हैं पर स्थानाभाव से अभी इतना ही लिख कर समाप्त करता हूं. ऐसा न हो कि ‘सरकार’ ही मुझ से नाराज हो जाए. जब ये परिभाषाएं शब्दकोश में शामिल हो जाएंगी तो यह ‘कथाकार’ और बहुत से अर्थ व परिभाषाएं ले कर आप के सामने उपस्थित हो जाएगा. आप स्वयं भी जानकार हैं इसलिए अपनी प्रतिक्रिया अवश्य बताइए, धन्यवाद.
The post हा हा…कार appeared first on Sarita Magazine.
February 27, 2020 at 10:00AM‘‘खत आया है…खत आया है,’’ पिंजरे में बैठी सारिका शोर मचाए जा रही थी. दोपहर के भोजन के बाद तनिक लेटी ही थी कि सारिका ने चीखना शुरू कर दिया तो जेठ की दोपहरी में कमरे की ठंडक छोड़ मुख्यद्वार तक जाना पड़ा.
देखा, छोटी भाभी का पत्र था और सब बातें छोड़ एक ही पंक्ति आंखों से दिल में खंजर सी उतर गई, ‘दीदी आप की सखी जगवीरी का इंतकाल हो गया. सुना है, बड़ा कष्ट पाया बेचारी ने.’ पढ़ते ही आंखें बरसने लगीं. पत्र के अक्षर आंसुओं से धुल गए. पत्र एक ओर रख कर मन के सैलाब को आंखों से बाहर निकलने की छूट दे कर 25 वर्ष पहले के वक्त के गलियारे में खो गई मैं.
जगवीरी मेरी सखी ही नहीं बल्कि सच्ची शुभचिंतक, बहन और संरक्षिका भी थी. जब से मिली थी संरक्षण ही तो किया था मेरा. जयपुर मेडिकल कालेज का वह पहला दिन था. सीनियर लड़केलड़कियों का दल रैगिंग के लिए सामने खड़ा था. मैं नए छात्रछात्राओं के पीछे दुबकी खड़ी थी. औरों की दुर्गति देख कर पसीने से तरबतर सोच रही थी कि अभी घर भाग जाऊं.
वैसे भी मैं देहातनुमा कसबे की लड़की, सब से अलग दिखाई दे रही थी. मेरा नंबर भी आना ही था. मुझे देखते ही एक बोला, ‘अरे, यह तो बहनजी हैं.’ ‘नहीं, यार, माताजी हैं.’ ऐसी ही तरहतरह की आवाजें सुन कर मेरे पैर कांपे और मैं धड़ाम से गिरी. एक लड़का मेरी ओर लपका, तभी एक कड़कती आवाज आई, ‘इसे छोड़ो. कोई इस की रैगिंग नहीं करेगा.’
‘क्यों, तेरी कुछ लगती है यह?’ एक फैशनेबल तितली ने मुंह बना कर पूछा तो तड़ाक से एक चांटा उस के गाल पर पड़ा. ‘चलो भाई, इस के कौन मुंह लगे,’ कहते हुए सब वहां से चले गए. मैं ने अपनी त्राणकर्ता को देखा. लड़कों जैसा डीलडौल, पर लंबी वेणी बता रही थी कि वह लड़की है. उस ने प्यार से मुझे उठाया, परिचय पूछा, फिर बोली, ‘मेरा नाम जगवीरी है. सब लोग मुझे जंगवीर कहते हैं. तुम चिंता मत करो. अब तुम्हें कोई कुछ भी नहीं कहेगा और कोई काम या परेशानी हो तो मुझे बताना.’
सचमुच उस के बाद मुझे किसी ने परेशान नहीं किया. होस्टल में जगवीरी ने सीनियर विंग में अपने कमरे के पास ही मुझे कमरा दिलवा दिया. मुझे दूसरे जूनियर्स की तरह अपना कमरा किसी से शेयर भी नहीं करना पड़ा. मेस में भी अच्छाखासा ध्यान रखा जाता. लड़कियां मुझ से खिंचीखिंची रहतीं. कभीकभी फुसफुसाहट भी सुनाई पड़ती, ‘जगवीरी की नई ‘वो’ आ रही है.’ लड़के मुझे देख कर कन्नी काटते. इन सब बातों को दरकिनार कर मैं ने स्वयं को पढ़ाई में डुबो दिया. थोड़े दिनों में ही मेरी गिनती कुशाग्र छात्रछात्राओं में होने लगी और सभी प्रोफेसर मुझे पहचानने तथा महत्त्व भी देने लगे.
जगवीरी कालेज में कभीकभी ही दिखाई पड़ती. 4-5 लड़कियां हमेशा उस के आगेपीछे होतीं.
ये भी पढ़ें- हसरतें भी खूब निकली मेरी, मुराद भी कोई कहा रही अधूरी
एक बार जगवीरी मुझे कैंटीन खींच ले गई. वहां बैठे सभी लड़केलड़कियों ने उस के सामने अपनी फरमाइशें ऐसे रखनी शुरू कर दीं जैसे वह सब की अम्मां हो. उस ने भी उदारता से कैंटीन वाले को फरमान सुना दिया, ‘भाई, जो कुछ भी ये बच्चे मांगें, खिलापिला दे.’
मैं समझ गई कि जगवीरी किसी धनी परिवार की लाड़ली है. वह कई बार मेरे कमरे में आ बैठती. सिर पर हाथ फेरती. हाथों को सहलाती, मेरा चेहरा हथेलियों में ले मुझे एकटक निहारती, किसी रोमांटिक सिनेमा के दृश्य की सी उस की ये हरकतें मुझे विचित्र लगतीं. उस से इन हरकतों को अच्छी अथवा बुरी की परिसीमा में न बांध पाने पर भी मैं सिहर जाती. मैं कहती, ‘प्लीज हमें पढ़ने दीजिए.’ तो वह कहती, ‘मुनिया, जयपुर आई है तो शहर भी तो देख, मौजमस्ती भी कर. हर समय पढ़ेगी तो दिमाग चल जाएगा.’
वह कई बार मुझे गुलाबी शहर के सुंदर बाजार घुमाने ले गई. छोटीबड़ी चौपड़, जौहरी बाजार, एम.आई. रोड ले जाती और मेरे मना करतेकरते भी वह कुछ कपड़े खरीद ही देती मेरे लिए. यह सब अच्छा भी लगता और डर भी लगा रहता.
एक बार 3 दिन की छुट्टियां पड़ीं तो आसपास की सभी लड़कियां घर चली गईं. जगवीरी मुझे राजमंदिर में पिक्चर दिखाने ले गई. उमराव जान लगी हुई थी. मैं उस के दृश्यों में खोई हुई थी कि मुझे अपने चेहरे पर गरम सांसों का एहसास हुआ. जगवीरी के हाथ मेरी गरदन से नीचे की ओर फिसल रहे थे. मुझे लगने लगा जैसे कोई सांप मेरे सीने पर रेंग रहा है. जिस बात की आशंका उस की हरकतों से होती थी, वह सामने थी. मैं उस का हाथ झटक अंधेरे में ही गिरतीपड़ती बाहर भागी. आज फिर मन हो रहा था कि घर लौट जाऊं.
मैं रो कर मन का गुबार निकाल भी न पाई थी कि जगवीरी आ धमकी. मुझे एक गुडि़या की तरह जबरदस्ती गोद में बिठा कर बोली, ‘क्यों रो रही हो मुनिया? पिक्चर छोड़ कर भाग आईं.’
‘हमें यह सब अच्छा नहीं लगता, दीदी. हमारे मम्मीपापा बहुत गरीब हैं. यदि हम डाक्टर नहीं बन पाए या हमारे विषय में उन्होंने कुछ ऐसावैसा सुना तो…’ मैं ने सुबकते हुए कह ही दिया.
‘अच्छा, चल चुप हो जा. अब कभी ऐसा नहीं होगा. तुम हमें बहुत प्यारी लगती हो, गुडि़या सी. आज से तुम हमारी छोटी बहन, असल में हमारे 5 भाई हैं. पांचों हम से बड़े, हमें प्यार बहुत मिलता है पर हम किसे लाड़लड़ाएं,’ कह कर उस ने मेरा माथा चूम लिया. सचमुच उस चुंबन में मां की महक थी.
जगवीरी से हर प्रकार का संरक्षण और लाड़प्यार पाते कब 5 साल बीत गए पता ही न चला. प्रशिक्षण पूरा होने को था तभी बूआ की लड़की के विवाह में मुझे दिल्ली जाना पड़ा. वहां कुणाल ने, जो दिल्ली में डाक्टर थे, मुझे पसंद कर उसी मंडप में ब्याह रचा लिया. मेरी शादी में शामिल न हो पाने के कारण जगवीरी पहले तो रूठी फिर कुणाल और मुझ को महंगेमहंगे उपहारों से लाद दिया.
मैं दिल्ली आ गई. जगवीरी 7 साल में भी डाक्टर न बन पाई, तब उस के भाई उसे हठ कर के घर ले गए और उस का विवाह तय कर दिया. उस के विवाह के निमंत्रणपत्र के साथ जगवीरी का स्नेह, अनुरोध भरा लंबा सा पत्र भी था. मैं ने कुणाल को बता रखा था कि यदि जगवीरी न होती तो पहले दिन ही मैं कालेज से भाग आई होती. मुझे डाक्टर बनाने का श्रेय मातापिता के साथसाथ जगवीरी को भी है.
जयपुर से लगभग 58 किलोमीटर दूर के एक गांव में थी जगवीरी के पिता की शानदार हवेली. पूरे गांव में सफाई और सजावट हो रही थी. मुझे और पति को बेटीदामाद सा सम्मानसत्कार मिला. जगवीरी का पति बहुत ही सुंदर, सजीला युवक था. बातचीत में बहुत विनम्र और कुशल. पता चला सूरत और अहमदाबाद में उस की कपड़े की मिलें हैं.
सोचा था जगवीरी सुंदर और संपन्न ससुराल में रचबस जाएगी, पर कहां? हर हफ्ते उस का लंबाचौड़ा पत्र आ जाता, जिस में ससुराल की उबाऊ व्यस्तताओं और मारवाड़ी रिवाजों के बंधनों का रोना होता. सुहाग, सुख या उत्साह का कोई रंग उस में ढूंढ़े न मिलता. गृहस्थसुख विधाता शायद जगवीरी की कुंडली में लिखना ही भूल गया था. तभी तो साल भी न बीता कि उस का पति उसे छोड़ गया. पता चला कि शरीर से तंदुरुस्त दिखाई देने वाला उस का पति गजराज ब्लडकैंसर से पीडि़त था. हर साल छह महीने बाद चिकित्सा के लिए वह अमेरिका जाता था. अब भी वह विशेष वायुयान से पत्नी और डाक्टर के साथ अमेरिका जा रहा था. रास्ते में ही उसे काल ने घेर लिया. सारा व्यापार जेठ संभालता था, मिलों और संपत्ति में हिस्सा देने के लिए वह जगवीरी से जो चाहता था वह तो शायद जगवीरी ने गजराज को भी नहीं दिया था. वह उस के लिए बनी ही कहां थी.
ये भी पढ़ें- उसको अपना भी कह नहीं सकते कितने मजबूर ये हालात मेरे
एक दिन जगवीरी दिल्ली आ पहुंची. वही पुराना मर्दाना लिबास. अब बाल भी लड़कों की तरह रख लिए थे. उस के व्यवहार में वैधव्य की कोई वेदना, उदासी या चिंता नहीं दिखी. मेरी बेटी मान्या साल भर की भी न थी. उस के लिए हम ने आया रखी हुई थी.
जगवीरी जब आती तो 10-15 दिन से पहले न जाती. मेरे या कुणाल के ड्यूटी से लौटने तक वह आया को अपने पास उलझाए रखती. मान्या की इस उपेक्षा से कुणाल को बहुत क्रोध आता. बुरा तो मुझे भी बहुत लगता था पर जगवीरी के उपकार याद कर चुप रह जाती. धीरेधीरे जगवीरी का दिल्ली आगमन और प्रवास बढ़ता जा रहा था और कुणाल का गुस्सा भी. सब से अधिक तनाव तो इस कारण होता था कि जगवीरी आते ही हमारे डबल बैड पर जम जाती और कहती, ‘यार, कुणाल, तुम तो सदा ही कनक के पास रहते हो, इस पर हमारा भी हक है. दोचार दिन ड्राइंगरूम में ही सो जाओ.’
कुणाल उस के पागलपन से चिढ़ते ही थे, उस का नाम भी उन्होंने डाक्टर पगलानंद रख रखा था. परंतु उस की ऐसी हरकतों से तो कुणाल को संदेह हो गया. मैं ने लाख समझाया कि वह मुझे छोटी बहन मानती है पर शक का जहर कुणाल के दिलोदिमाग में बढ़ता ही चला गया और एक दिन उन्होंने कह ही दिया, ‘कनक, तुम्हें मुझ में और जगवीरी में से एक को चुनना होगा. यदि तुम मुझे चाहती हो तो उस से स्पष्ट कह दो कि तुम से कोई संबंध न रखे और यहां कभी न आए, अन्यथा मैं यहां से चला जाऊंगा.’
यह तो अच्छा हुआ कि जगवीरी से कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी. उस के भाइयों के प्रयास से उसे ससुराल की संपत्ति में से अच्छीखासी रकम मिल गई. वह नेपाल चली गई. वहां उस ने एक बहुत बड़ा नर्सिंगहोम बना लिया. 10-15 दिन में वहां से उस के 3-4 पत्र आ गए, जिन में हम दोनों को यहां से दोगुने वेतन पर नेपाल आ जाने का आग्रह था.
मुझे पता था कि जगवीरी एक स्थान पर टिक कर रहने वाली नहीं है. वह भारत आते ही मेरे पास आ धमकेगी. फिर वही क्लेश और तनाव होगा और दांव पर लग जाएगी मेरी गृहस्थी. हम ने मकान बदला, संयोग से एक नए अस्पताल में मुझे और कुणाल को नियुक्ति भी मिल गई. मेरा अनुमान ठीक था. रमता जोगी जैसी जगवीरी नेपाल में 4 साल भी न टिकी. दिल्ली में हमें ढूंढ़ने में असफल रही तो मेरे मायके जा पहुंची. मैं ने भाईभाभियों को कुणाल की नापसंदगी और नाराजगी बता कर जगवीरी को हमारा पता एवं फोन नंबर देने के लिए कतई मना किया हुआ था.
जगवीरी ने मेरे मायके के बहुत चक्कर लगाए, चीखी, चिल्लाई, पागलों जैसी चेष्टाएं कीं परंतु हमारा पता न पा सकी. तब हार कर उस ने वहीं नर्सिंगहोम खोल लिया. शायद इस आशा से कि कभी तो वह मुझ से वहां मिल सकेगी. मैं इतनी भयभीत हो गई, उस पागल के प्रेम से कि वारत्योहार पर भी मायके जाना छूट सा गया. हां, भाभियों के फोन तथा यदाकदा आने वाले पत्रों से अपनी अनोखी सखी के समाचार अवश्य मिल जाते थे जो मन को विषाद से भर जाते.
उस के नर्सिंगहोम में मुफ्तखोर ही अधिक आते थे. जगवीरी की दयालुता का लाभ उठा कर इलाज कराते और पीठ पीछे उस का उपहास करते. कुछ आदतें तो जगवीरी की ऐसी थीं ही कि कोई लेडी डाक्टर, सुंदर नर्स वहां टिक न पाती. सुना था किसी शांति नाम की नर्स को पूरा नर्सिंगहोम, रुपएपैसे उस ने सौंप दिए. वे दोनों पतिपत्नी की तरह खुल्लमखुल्ला रहते हैं. बहुत बदनामी हो रही है जगवीरी की. भाभी कहतीं कि हमें तो यह सोच कर ही शर्म आती है कि वह तुम्हारी सखी है. सुनसुन कर बहुत दुख होता, परंतु अभी तो बहुत कुछ सुनना शेष था. एक दिन पता चला कि शांति ने जगवीरी का नर्सिंगहोम, कोठी, कुल संपत्ति अपने नाम करा कर उसे पागल करार दे दिया. पागलखाने में यातनाएं झेलते हुए उस ने मुझे बहुत याद किया. उस के भाइयों को जब इस स्थिति का पता किसी प्रकार चला तो वे अपनी नाजों पली बहन को लेने पहुंचे. पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी, अनंत यात्रा पर निकल चुकी थी जगवीरी.
ये भी पढ़ें- क्या क्या ख्वाब दिखाए
मैं सोच रही थी कि एक ममत्व भरे हृदय की नारी सामान्य स्त्री का, गृहिणी का, मां का जीवन किस कारण नहीं जी सकी. उस के अंतस में छिपे जंगवीर ने उसे कहीं का न छोड़ा. तभी मेरी आंख लग गई और मैं ने देखा जगवीरी कई पैकेटों से लदीफंदी मेरे सिरहाने आ बैठी, ‘जाओ, मैं नहीं बोलती, इतने दिन बाद आई हो,’ मैं ने कहा. वह बोली, ‘तुम ने ही तो मना किया था. अब आ गई हूं, न जाऊंगी कहीं.’
तभी मुझे मान्या की आवाज सुनाई दी, ‘‘मम्मा, किस से बात कर रही हो?’’ आंखें खोल कर देखा शाम हो गई थी.
The post जीत गया जंगवीर appeared first on Sarita Magazine.
‘‘खत आया है…खत आया है,’’ पिंजरे में बैठी सारिका शोर मचाए जा रही थी. दोपहर के भोजन के बाद तनिक लेटी ही थी कि सारिका ने चीखना शुरू कर दिया तो जेठ की दोपहरी में कमरे की ठंडक छोड़ मुख्यद्वार तक जाना पड़ा.
देखा, छोटी भाभी का पत्र था और सब बातें छोड़ एक ही पंक्ति आंखों से दिल में खंजर सी उतर गई, ‘दीदी आप की सखी जगवीरी का इंतकाल हो गया. सुना है, बड़ा कष्ट पाया बेचारी ने.’ पढ़ते ही आंखें बरसने लगीं. पत्र के अक्षर आंसुओं से धुल गए. पत्र एक ओर रख कर मन के सैलाब को आंखों से बाहर निकलने की छूट दे कर 25 वर्ष पहले के वक्त के गलियारे में खो गई मैं.
जगवीरी मेरी सखी ही नहीं बल्कि सच्ची शुभचिंतक, बहन और संरक्षिका भी थी. जब से मिली थी संरक्षण ही तो किया था मेरा. जयपुर मेडिकल कालेज का वह पहला दिन था. सीनियर लड़केलड़कियों का दल रैगिंग के लिए सामने खड़ा था. मैं नए छात्रछात्राओं के पीछे दुबकी खड़ी थी. औरों की दुर्गति देख कर पसीने से तरबतर सोच रही थी कि अभी घर भाग जाऊं.
वैसे भी मैं देहातनुमा कसबे की लड़की, सब से अलग दिखाई दे रही थी. मेरा नंबर भी आना ही था. मुझे देखते ही एक बोला, ‘अरे, यह तो बहनजी हैं.’ ‘नहीं, यार, माताजी हैं.’ ऐसी ही तरहतरह की आवाजें सुन कर मेरे पैर कांपे और मैं धड़ाम से गिरी. एक लड़का मेरी ओर लपका, तभी एक कड़कती आवाज आई, ‘इसे छोड़ो. कोई इस की रैगिंग नहीं करेगा.’
‘क्यों, तेरी कुछ लगती है यह?’ एक फैशनेबल तितली ने मुंह बना कर पूछा तो तड़ाक से एक चांटा उस के गाल पर पड़ा. ‘चलो भाई, इस के कौन मुंह लगे,’ कहते हुए सब वहां से चले गए. मैं ने अपनी त्राणकर्ता को देखा. लड़कों जैसा डीलडौल, पर लंबी वेणी बता रही थी कि वह लड़की है. उस ने प्यार से मुझे उठाया, परिचय पूछा, फिर बोली, ‘मेरा नाम जगवीरी है. सब लोग मुझे जंगवीर कहते हैं. तुम चिंता मत करो. अब तुम्हें कोई कुछ भी नहीं कहेगा और कोई काम या परेशानी हो तो मुझे बताना.’
सचमुच उस के बाद मुझे किसी ने परेशान नहीं किया. होस्टल में जगवीरी ने सीनियर विंग में अपने कमरे के पास ही मुझे कमरा दिलवा दिया. मुझे दूसरे जूनियर्स की तरह अपना कमरा किसी से शेयर भी नहीं करना पड़ा. मेस में भी अच्छाखासा ध्यान रखा जाता. लड़कियां मुझ से खिंचीखिंची रहतीं. कभीकभी फुसफुसाहट भी सुनाई पड़ती, ‘जगवीरी की नई ‘वो’ आ रही है.’ लड़के मुझे देख कर कन्नी काटते. इन सब बातों को दरकिनार कर मैं ने स्वयं को पढ़ाई में डुबो दिया. थोड़े दिनों में ही मेरी गिनती कुशाग्र छात्रछात्राओं में होने लगी और सभी प्रोफेसर मुझे पहचानने तथा महत्त्व भी देने लगे.
जगवीरी कालेज में कभीकभी ही दिखाई पड़ती. 4-5 लड़कियां हमेशा उस के आगेपीछे होतीं.
ये भी पढ़ें- हसरतें भी खूब निकली मेरी, मुराद भी कोई कहा रही अधूरी
एक बार जगवीरी मुझे कैंटीन खींच ले गई. वहां बैठे सभी लड़केलड़कियों ने उस के सामने अपनी फरमाइशें ऐसे रखनी शुरू कर दीं जैसे वह सब की अम्मां हो. उस ने भी उदारता से कैंटीन वाले को फरमान सुना दिया, ‘भाई, जो कुछ भी ये बच्चे मांगें, खिलापिला दे.’
मैं समझ गई कि जगवीरी किसी धनी परिवार की लाड़ली है. वह कई बार मेरे कमरे में आ बैठती. सिर पर हाथ फेरती. हाथों को सहलाती, मेरा चेहरा हथेलियों में ले मुझे एकटक निहारती, किसी रोमांटिक सिनेमा के दृश्य की सी उस की ये हरकतें मुझे विचित्र लगतीं. उस से इन हरकतों को अच्छी अथवा बुरी की परिसीमा में न बांध पाने पर भी मैं सिहर जाती. मैं कहती, ‘प्लीज हमें पढ़ने दीजिए.’ तो वह कहती, ‘मुनिया, जयपुर आई है तो शहर भी तो देख, मौजमस्ती भी कर. हर समय पढ़ेगी तो दिमाग चल जाएगा.’
वह कई बार मुझे गुलाबी शहर के सुंदर बाजार घुमाने ले गई. छोटीबड़ी चौपड़, जौहरी बाजार, एम.आई. रोड ले जाती और मेरे मना करतेकरते भी वह कुछ कपड़े खरीद ही देती मेरे लिए. यह सब अच्छा भी लगता और डर भी लगा रहता.
एक बार 3 दिन की छुट्टियां पड़ीं तो आसपास की सभी लड़कियां घर चली गईं. जगवीरी मुझे राजमंदिर में पिक्चर दिखाने ले गई. उमराव जान लगी हुई थी. मैं उस के दृश्यों में खोई हुई थी कि मुझे अपने चेहरे पर गरम सांसों का एहसास हुआ. जगवीरी के हाथ मेरी गरदन से नीचे की ओर फिसल रहे थे. मुझे लगने लगा जैसे कोई सांप मेरे सीने पर रेंग रहा है. जिस बात की आशंका उस की हरकतों से होती थी, वह सामने थी. मैं उस का हाथ झटक अंधेरे में ही गिरतीपड़ती बाहर भागी. आज फिर मन हो रहा था कि घर लौट जाऊं.
मैं रो कर मन का गुबार निकाल भी न पाई थी कि जगवीरी आ धमकी. मुझे एक गुडि़या की तरह जबरदस्ती गोद में बिठा कर बोली, ‘क्यों रो रही हो मुनिया? पिक्चर छोड़ कर भाग आईं.’
‘हमें यह सब अच्छा नहीं लगता, दीदी. हमारे मम्मीपापा बहुत गरीब हैं. यदि हम डाक्टर नहीं बन पाए या हमारे विषय में उन्होंने कुछ ऐसावैसा सुना तो…’ मैं ने सुबकते हुए कह ही दिया.
‘अच्छा, चल चुप हो जा. अब कभी ऐसा नहीं होगा. तुम हमें बहुत प्यारी लगती हो, गुडि़या सी. आज से तुम हमारी छोटी बहन, असल में हमारे 5 भाई हैं. पांचों हम से बड़े, हमें प्यार बहुत मिलता है पर हम किसे लाड़लड़ाएं,’ कह कर उस ने मेरा माथा चूम लिया. सचमुच उस चुंबन में मां की महक थी.
जगवीरी से हर प्रकार का संरक्षण और लाड़प्यार पाते कब 5 साल बीत गए पता ही न चला. प्रशिक्षण पूरा होने को था तभी बूआ की लड़की के विवाह में मुझे दिल्ली जाना पड़ा. वहां कुणाल ने, जो दिल्ली में डाक्टर थे, मुझे पसंद कर उसी मंडप में ब्याह रचा लिया. मेरी शादी में शामिल न हो पाने के कारण जगवीरी पहले तो रूठी फिर कुणाल और मुझ को महंगेमहंगे उपहारों से लाद दिया.
मैं दिल्ली आ गई. जगवीरी 7 साल में भी डाक्टर न बन पाई, तब उस के भाई उसे हठ कर के घर ले गए और उस का विवाह तय कर दिया. उस के विवाह के निमंत्रणपत्र के साथ जगवीरी का स्नेह, अनुरोध भरा लंबा सा पत्र भी था. मैं ने कुणाल को बता रखा था कि यदि जगवीरी न होती तो पहले दिन ही मैं कालेज से भाग आई होती. मुझे डाक्टर बनाने का श्रेय मातापिता के साथसाथ जगवीरी को भी है.
जयपुर से लगभग 58 किलोमीटर दूर के एक गांव में थी जगवीरी के पिता की शानदार हवेली. पूरे गांव में सफाई और सजावट हो रही थी. मुझे और पति को बेटीदामाद सा सम्मानसत्कार मिला. जगवीरी का पति बहुत ही सुंदर, सजीला युवक था. बातचीत में बहुत विनम्र और कुशल. पता चला सूरत और अहमदाबाद में उस की कपड़े की मिलें हैं.
सोचा था जगवीरी सुंदर और संपन्न ससुराल में रचबस जाएगी, पर कहां? हर हफ्ते उस का लंबाचौड़ा पत्र आ जाता, जिस में ससुराल की उबाऊ व्यस्तताओं और मारवाड़ी रिवाजों के बंधनों का रोना होता. सुहाग, सुख या उत्साह का कोई रंग उस में ढूंढ़े न मिलता. गृहस्थसुख विधाता शायद जगवीरी की कुंडली में लिखना ही भूल गया था. तभी तो साल भी न बीता कि उस का पति उसे छोड़ गया. पता चला कि शरीर से तंदुरुस्त दिखाई देने वाला उस का पति गजराज ब्लडकैंसर से पीडि़त था. हर साल छह महीने बाद चिकित्सा के लिए वह अमेरिका जाता था. अब भी वह विशेष वायुयान से पत्नी और डाक्टर के साथ अमेरिका जा रहा था. रास्ते में ही उसे काल ने घेर लिया. सारा व्यापार जेठ संभालता था, मिलों और संपत्ति में हिस्सा देने के लिए वह जगवीरी से जो चाहता था वह तो शायद जगवीरी ने गजराज को भी नहीं दिया था. वह उस के लिए बनी ही कहां थी.
ये भी पढ़ें- उसको अपना भी कह नहीं सकते कितने मजबूर ये हालात मेरे
एक दिन जगवीरी दिल्ली आ पहुंची. वही पुराना मर्दाना लिबास. अब बाल भी लड़कों की तरह रख लिए थे. उस के व्यवहार में वैधव्य की कोई वेदना, उदासी या चिंता नहीं दिखी. मेरी बेटी मान्या साल भर की भी न थी. उस के लिए हम ने आया रखी हुई थी.
जगवीरी जब आती तो 10-15 दिन से पहले न जाती. मेरे या कुणाल के ड्यूटी से लौटने तक वह आया को अपने पास उलझाए रखती. मान्या की इस उपेक्षा से कुणाल को बहुत क्रोध आता. बुरा तो मुझे भी बहुत लगता था पर जगवीरी के उपकार याद कर चुप रह जाती. धीरेधीरे जगवीरी का दिल्ली आगमन और प्रवास बढ़ता जा रहा था और कुणाल का गुस्सा भी. सब से अधिक तनाव तो इस कारण होता था कि जगवीरी आते ही हमारे डबल बैड पर जम जाती और कहती, ‘यार, कुणाल, तुम तो सदा ही कनक के पास रहते हो, इस पर हमारा भी हक है. दोचार दिन ड्राइंगरूम में ही सो जाओ.’
कुणाल उस के पागलपन से चिढ़ते ही थे, उस का नाम भी उन्होंने डाक्टर पगलानंद रख रखा था. परंतु उस की ऐसी हरकतों से तो कुणाल को संदेह हो गया. मैं ने लाख समझाया कि वह मुझे छोटी बहन मानती है पर शक का जहर कुणाल के दिलोदिमाग में बढ़ता ही चला गया और एक दिन उन्होंने कह ही दिया, ‘कनक, तुम्हें मुझ में और जगवीरी में से एक को चुनना होगा. यदि तुम मुझे चाहती हो तो उस से स्पष्ट कह दो कि तुम से कोई संबंध न रखे और यहां कभी न आए, अन्यथा मैं यहां से चला जाऊंगा.’
यह तो अच्छा हुआ कि जगवीरी से कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी. उस के भाइयों के प्रयास से उसे ससुराल की संपत्ति में से अच्छीखासी रकम मिल गई. वह नेपाल चली गई. वहां उस ने एक बहुत बड़ा नर्सिंगहोम बना लिया. 10-15 दिन में वहां से उस के 3-4 पत्र आ गए, जिन में हम दोनों को यहां से दोगुने वेतन पर नेपाल आ जाने का आग्रह था.
मुझे पता था कि जगवीरी एक स्थान पर टिक कर रहने वाली नहीं है. वह भारत आते ही मेरे पास आ धमकेगी. फिर वही क्लेश और तनाव होगा और दांव पर लग जाएगी मेरी गृहस्थी. हम ने मकान बदला, संयोग से एक नए अस्पताल में मुझे और कुणाल को नियुक्ति भी मिल गई. मेरा अनुमान ठीक था. रमता जोगी जैसी जगवीरी नेपाल में 4 साल भी न टिकी. दिल्ली में हमें ढूंढ़ने में असफल रही तो मेरे मायके जा पहुंची. मैं ने भाईभाभियों को कुणाल की नापसंदगी और नाराजगी बता कर जगवीरी को हमारा पता एवं फोन नंबर देने के लिए कतई मना किया हुआ था.
जगवीरी ने मेरे मायके के बहुत चक्कर लगाए, चीखी, चिल्लाई, पागलों जैसी चेष्टाएं कीं परंतु हमारा पता न पा सकी. तब हार कर उस ने वहीं नर्सिंगहोम खोल लिया. शायद इस आशा से कि कभी तो वह मुझ से वहां मिल सकेगी. मैं इतनी भयभीत हो गई, उस पागल के प्रेम से कि वारत्योहार पर भी मायके जाना छूट सा गया. हां, भाभियों के फोन तथा यदाकदा आने वाले पत्रों से अपनी अनोखी सखी के समाचार अवश्य मिल जाते थे जो मन को विषाद से भर जाते.
उस के नर्सिंगहोम में मुफ्तखोर ही अधिक आते थे. जगवीरी की दयालुता का लाभ उठा कर इलाज कराते और पीठ पीछे उस का उपहास करते. कुछ आदतें तो जगवीरी की ऐसी थीं ही कि कोई लेडी डाक्टर, सुंदर नर्स वहां टिक न पाती. सुना था किसी शांति नाम की नर्स को पूरा नर्सिंगहोम, रुपएपैसे उस ने सौंप दिए. वे दोनों पतिपत्नी की तरह खुल्लमखुल्ला रहते हैं. बहुत बदनामी हो रही है जगवीरी की. भाभी कहतीं कि हमें तो यह सोच कर ही शर्म आती है कि वह तुम्हारी सखी है. सुनसुन कर बहुत दुख होता, परंतु अभी तो बहुत कुछ सुनना शेष था. एक दिन पता चला कि शांति ने जगवीरी का नर्सिंगहोम, कोठी, कुल संपत्ति अपने नाम करा कर उसे पागल करार दे दिया. पागलखाने में यातनाएं झेलते हुए उस ने मुझे बहुत याद किया. उस के भाइयों को जब इस स्थिति का पता किसी प्रकार चला तो वे अपनी नाजों पली बहन को लेने पहुंचे. पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी, अनंत यात्रा पर निकल चुकी थी जगवीरी.
ये भी पढ़ें- क्या क्या ख्वाब दिखाए
मैं सोच रही थी कि एक ममत्व भरे हृदय की नारी सामान्य स्त्री का, गृहिणी का, मां का जीवन किस कारण नहीं जी सकी. उस के अंतस में छिपे जंगवीर ने उसे कहीं का न छोड़ा. तभी मेरी आंख लग गई और मैं ने देखा जगवीरी कई पैकेटों से लदीफंदी मेरे सिरहाने आ बैठी, ‘जाओ, मैं नहीं बोलती, इतने दिन बाद आई हो,’ मैं ने कहा. वह बोली, ‘तुम ने ही तो मना किया था. अब आ गई हूं, न जाऊंगी कहीं.’
तभी मुझे मान्या की आवाज सुनाई दी, ‘‘मम्मा, किस से बात कर रही हो?’’ आंखें खोल कर देखा शाम हो गई थी.
The post जीत गया जंगवीर appeared first on Sarita Magazine.
February 27, 2020 at 10:00AM