Sunday 30 June 2019

सुधा का सत्य

‘‘यह किस का प्रेमपत्र है?’’ सुधा ने धीरेंद्र के सामने गुलाबी रंग का लिफाफा रखते हुए कहा.

‘‘यह प्रेमपत्र है, तो जाहिर है कि किसी प्रेमिका का ही होगा,’’ सुधा ने जितना चिढ़ कर प्रश्न किया था धीरेंद्र ने उतनी ही लापरवाही से उत्तर दिया तो वह बुरी तरह बिफर गई.

‘‘कितने बेशर्म इनसान हो तुम. तुम ने अपने चेहरे पर इतने मुखौटे लगाए हुए हैं कि मैं आज तक तुम्हारे असली रूप को समझ नहीं सकी हूं. क्या मैं जान सकती हूं कि तुम्हारे जीवन में आने वाली प्रेमिकाओं में इस का क्रमांक क्या है?’’

सुधा ने आज जैसे लड़ने के लिए कमर कस ली थी, लेकिन धीरेंद्र ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया. दफ्तर से लौट कर वह फिर से बाहर निकल जाने को तैयार हो रहा था.

कमीज पहनता हुआ बोला, ‘‘सुधा, तुम्हें मेरी ओर देखने की फुरसत ही कहां रहती है? तुम्हारे बच्चे, तुम्हारी पढ़ाई, तुम्हारी सहेलियां, रिश्तेदार इन सब की देखभाल और आवभगत के बाद अपने इस पति नाम के प्राणी के लिए तुम्हारे पास न तो समय बचता है और न ही शक्ति.

‘‘आखिर मैं भी इनसान हूं्. मेरी भी इच्छाएं हैं. मुझे भी लगता है कि कोई ऐसा हो जो मेरी, केवल मेरी बात सुने और माने, मेरी आवश्यकताएं समझे. अगर मुझे यह सब करने वाली कोई मिल गई है तो तुम्हें चिढ़ क्यों हो रही है? बल्कि तुम्हें तो खुशी होनी चाहिए कि अब तुम्हें मेरे लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है.’’

धीरेंद्र की बात पर सुधा का खून खौलने लगा, ‘‘क्या कहने आप के, अच्छा, यह बताओ जब बच्चे नहीं थे, मेरी पढ़ाई नहीं चल रही थी, सहेलियां, रिश्तेदार कोई भी नहीं था, मेरा सारा समय जब केवल तुम्हारे लिए ही था, तब इन देखभाल करने वालियों की तुम्हें क्यों जरूरत पड़ गई थी?’’ सुधा का इशारा ललिता वाली घटना की ओर था.

ये भी पढ़ें- आदर्श जन्मस्थली

तब उन के विवाह को साल भर ही हुआ था. एक दिन भोलू की मां धुले कपड़े छत पर सुखा कर नीचे आई तो चौके में काम करती सुधा को देख कर चौंक गई, ‘अरे, बहूरानी, तुम यहां चौके में बैठी हो. ऊपर तुम्हारे कमरे में धीरेंद्र बाबू किसी लड़की से बतिया रहे हैं.’

भोलू की मां की बात को समझने में अम्मांजी को जरा भी देर नहीं लगी. वह झट अपने हाथ का काम छोड़ कर उठ खड़ी हुई थीं, ‘देखूं, धीरेंद्र किस से बात कर रहा है?’ कह कर वह छत की ओर जाने वाली सीढि़यों की ओर चल पड़ी थीं.

सुधा कुछ देर तक तो अनिश्चय की हालत में रुकी रही, पर जल्दी ही गैस बंद कर के वह भी उन के पीछे चल पड़ी थी.

ऊपर के दृश्य की शुरुआत तो सुधा नहीं देख सकी लेकिन जो कुछ भी उस ने देखा, उस से स्थिति का अंदाजा लगाने में उसे तनिक भी नहीं सोचना पड़ा. खुले दरवाजे पर अम्मांजी चंडी का रूप धरे खड़ी थीं. अंदर कमरे में सकपकाए से धीरेंद्र के पास ही सफेद फक चेहरे और कांपती काया में पड़ोस की ललिता खड़ी थी.

इस घटना का पता तो गिनेचुने लोगों के बीच ही सीमित रहा, लेकिन इस के परिणाम सभी की समझ में आए थे. पड़ोसिन सुमित्रा भाभी ने अपनी छोटी बहन ललिता को एक ही हफ्ते में पढ़ाई छुड़वा कर वापस भिजवा दिया था. उस के बाद दोनों घरों के बीच जो गहरे स्नेहिल संबंध थे, वे भी बिखर गए थे.

अभी सुधा ने उसी घटना को ले कर व्यंग्य किया था. धीरेंद्र इस पर खीज गया. बोला, ‘‘पुरानी बातें क्यों उखाड़ती हो? उस बात का इस से क्या संबंध है?’’

‘‘है क्यों नहीं? खूब संबंध है. वह भी तुम्हारी प्रेमिका थी और यह भी जैसा तुम कह रहे हो, तुम्हारी प्रेमिका है. बस, फर्क यही है कि वह तीसरी या चौथी प्रेमिका रही होगी और यह 5वीं या छठी प्रेमिका है,’’ सुधा चिल्लाई.

‘‘चुप करो, सुधा, तुम एक बार बोलना शुरू करती हो तो बोलती चली जाती हो. पल्लवी को तुम इस श्रेणी में नहीं रख सकतीं. तुम क्या जानो, वह मेरा कितना ध्यान रखती है.’’

‘‘सब जानती हूं. और यह भी जानती हूं कि अगर ये ध्यान रखने वालियां तुम्हारे जीवन में न आतीं तो भी तुम अच्छी तरह जिंदा रहते. तब कम से कम दुनिया के सामने दोहरी जिंदगी जीने की मजबूरी तो न होती.’’

सुधा को लगा कि वह अगर कुछ क्षण और वहां रुकी तो रो पड़ेगी. धीरेंद्र के सामने वह अब कमजोर नहीं पड़ना चाहती थी. पहले भी जब कभी धीरेंद्र के प्रेमप्रसंग के भेद खुले थे, वह खूब रोईधोई थी, लेकिन धीरेंद्र पर इस का कोई विशेष असर कभी नहीं पड़ा था.

धीरेंद्र तो अपनी टाई ठीक कर के, जूतों को एक बार फिर ब्रश से चमका कर घर से निकल गया, लेकिन सुधा के मन में तूफान पैदा कर गया. अंदर कमरे में जा कर सुधा ने सारे ऊनी कपड़े और स्वेटर आदि फिर से अलमारी में भर दिए.

सर्दियां बीत चुकी थीं. अब गरमियों के दिनों की हलकीहलकी खुनक दोपहर की धूप में चढ़नी शुरू हो गई थी. आज सुधा ने सोचा था कि वह घर भर के सारे ऊनी कपड़े निकाल कर बाहर धूप में डाल देगी. 2 दिन अच्छी धूप दिखा कर ऊनी कपड़ों में नेप्थलीन की गोलियां डाल कर उन्हें बक्सों में वह हर साल बंद कर दिया करती थी.

आज भी धूप में डालने से पहले वह हर कपड़े की जेब टटोल कर खाली करती जा रही थी. तभी धीरेंद्र के स्लेटी रंग के सूट के कोट की अंदर की जेब में उसे यह गुलाबी लिफाफा मिला था.

बहुत साल पहले स्कूल के दिनों में सुधा ने एक प्रेमपत्र पढ़ा था, जो उस के बगल की सीट पर बैठने वाली लड़की ने उसे दिखाया था. यह पत्र उस लड़की को रोज स्कूल के फाटक पर मिलने वाले एक लड़के ने दिया था. उस पत्र की पहली पंक्ति सुधा को आज भी अच्छी तरह याद थी, ‘सेवा में निवेदन है कि आप मेरे दिल में बैठ चुकी हैं…’

धीरेंद्र के कोट की जेब से मिला पत्र भी कुछ इसी प्रकार से अंगरेजी में लिखा गया प्रेमपत्र था. बेहद बचकानी भावुकता में किसी लड़की ने धीरेंद्र को यह पत्र लिखा था. पत्र पढ़ कर सुधा के तनमन में आग सी लग गई थी.

पता नहीं ऐसा क्यों होता था. सुधा जब भी परेशान होती थी, उस के सिर में दर्द शुरू हो जाता था. इस समय भी वह हलकाहलका सिरदर्द महसूस कर रही थी. अभी वह अलमारी में कपड़े जैसेतैसे भर कर कमरे से बाहर ही आई थी कि पीछे से विनीत आ गया.

‘‘मां, मैं सारंग के घर खेलने जाऊं?’’ उस ने पूछा.

‘‘नहीं, तुम कहीं नहीं जाओगे. बैठ कर पढ़ो,’’ सुधा ने रूखेपन से कहा.

‘‘लेकिन मां, मैं अभी तो स्कूल से आया हूं. इस समय तो मैं रोज ही खेलने जाता हूं,’’ उस ने अपने पक्ष में दलील दी.

‘‘तो ठीक है, बाहर जा कर खेलो,’’ सुधा ने उसे टालना चाहा. वह इस समय कुछ देर अकेली रहना चाहती थी.

‘‘पर मां, मैं उसे कह चुका हूं कि आज मैं उस के घर आऊंगा,’’ विनीत अपनी बात पर अड़ गया.

‘‘मैं ने कहा न कि कहीं भी नहीं जाना है. अब मेरा सिर मत खाओ. जाओ यहां से,’’ सुधा झल्ला गई.

‘‘मां, बस एक बार, आज उस के घर चले जाने दो. उस के चाचाजी अमेरिका से बहुत अच्छे खिलौने लाए हैं. मैं ने उस से कहा है कि मैं आज देखने आऊंगा. मां, आज मुझे जाने दो न,’’ विनीत अनुनय पर उतर आया.

पर सुधा आज दूसरे ही मूड में थी. उस का गुस्सा एकदम भड़क उठा, ‘‘बेवकूफ, मैं इतनी देर से मना कर रही हूं, बात समझना ही नहीं चाहता. पीछे ही पड़ गया है. ठीक है, कहने से बात समझ में नहीं आ रही है न तो ले, तुझे दूसरे तरीके से समझाती हूं…’’

सुधा ने अपनी बात खत्म करने से पहले ही विनीत के गाल पर चटचट कई चांटे जड़ दिए. मां के इस रूप से अचंभित विनीत न तो कुछ बोला और न ही रोया, बस चुपचाप आंखें फाड़े मां को ताकता रहा.

चांटों से लाल पड़े गाल और विस्मय से फैली आंखों वाले विनीत को देख कर सुधा अपने होश में लौट आई. विनीत यदाकदा ही उस से पूछ कर सारंग के घर चला जाता था. आज सुधा को क्या हो गया था, जो उस ने अकारण ही अपने मासूम बेटे को पीट डाला था. सारा क्रोध धीरेंद्र के कारण था, पर उस पर तो बस चला नहीं, गुस्सा उतरा निर्दोष विनीत पर.

ये भी पढ़ें- बंटवारा

उस का सारा रोष निरीहता में बदल गया. वह दरवाजे की चौखट से माथा टिका कर रो दी.सुधा की यह व्यथा कोई आज की नई व्यथा नहीं थी. धीरेंद्र के शादी से पहले के प्रेमप्रसंगों को भी उस के साथियों ने मजाकमजाक में सुना डाला था. पर वे सब उस समय तक बीती बातें हो गई थीं, लेकिन ललिता वाली घटना ने तो सुधा को झकझोर कर रख दिया था. बाद में भी जब कभी धीरेंद्र के किसी प्रेमप्रसंग की चर्चा उस तक पहुंचती तो वह बिखर जाती थी. लेकिन ललिता वाली घटना से तो वह बहुत समय तक उबर नहीं पाई थी.

तब धीरेंद्र ने भी सुधा को मनाने के लिए क्या कुछ नहीं किया था, ‘बीती ताहि बिसार दे’ कह कर उस ने कान पकड़ कर कसमें तक खा डाली थीं, पर सुधा को अब धीरेंद्र की हर बात जहर सी लगती थी.

तभी एक दिन सुबहसुबह मनीष ने नाचनाच कर सारा घर सिर पर उठा लिया था, ‘‘भैया पास हो गए हैं. देखो, इस अखबार में उन का नाम छपा है.’’

धीरेंद्र ने एक प्रतियोगी परीक्षा दी थी. उस का परिणाम आ गया था. धीरेंद्र की इस सफलता ने सारे बिखराव को पल भर में समेट दिया था. अब तो धीरेंद्र का भविष्य ही बदल जाने वाला था. सारे घर के साथ सुधा भी धीरेंद्र की इस सफलता से उस के प्रति अपनी सारी कड़वाहट को भूल गई. उसे लगा कि यह उस के नए सुखी जीवन की शुरुआत की सूचना है, जो धीरेंद्र के परीक्षा परिणाम के रूप में आई है.

इस के बाद काफी समय व्यस्तता में ही निकल गया था. धीरेंद्र ने अपनी नई नौकरी का कार्यभार संभाल लिया था. नई जगह और नए सम्मान ने सुधा के जीवन में भी उमंग भर दी थी. उस के मन में धीरेंद्र के प्रति एक नए विश्वास और प्रेम ने जन्म ले लिया था. तभी उस ने निर्णय लिया था. वह धीरेंद्र के इस नए पद के अनुरूप ही अपनेआप को बना लेगी. वह अपनी पढ़ाई फिर से शुरू करेगी.

सुधा के इस निर्णय पर धीरेंद्र ने अपनी सहमति ही जताई थी. अब घर के कामों के लिए उन्हें नौकर रखने की सुविधा हो गई थी. इसलिए सुधा की पढ़ाई शुरू करने की सुविधा जुटते देर नहीं लगी. वह बेफिक्र हो कर प्राइवेट बी.ए. करने की तैयारी में जुट गई.

कभी ऐसा भी होता है कि मन का सोचा आसानी से पूरा नहीं होता. सुधा के साथ यही हुआ. उस की सारी मेहनत, सुविधा एक ओर रखी रह गई. सुधा परीक्षा ही नहीं दे सकी. पर इस बाधा का बुरा मानने का न तो उस के पास समय था और न इच्छा ही थी. एक खूबसूरत स्वस्थ बेटे की मां बन कर एक तो क्या, वह कई बी.ए. की डिगरियों का मोह छोड़ने को तैयार थी.

विनीत 2 साल का ही हुआ था कि उस की बहन निधि आ गई और इन दोनों के बीच सुधा धीरेंद्र तक को भूल गई. उन के साथ वह ऐसी बंधी कि बाहर की दुनिया के उस के सारे संपर्क ही खत्म से हो गए.

घर और बच्चों के बीच उलझी सुधा तक धीरेंद्र की गतिविधियों की उड़ती खबर कभीकभी पहुंच जाती थी कि वह अपने दफ्तर की कुछ महिला कर्मचारियों पर अधिक ही मेहरबान रहता है. पिछले कुछ सालों के धीरेंद्र के व्यवहार से सुधा समझ बैठी थी कि अब उस में उम्र की गंभीरता आ गई है और वह पुराने वाला दिलफेंक धीरेंद्र नहीं रहा है. इसलिए उस ने इन अफवाहों को अधिक महत्त्व नहीं दिया.

एक दिन सुहास आया, तब धीरेंद्र घर पर नहीं था. उस ने सुधा को घंटे भर में ही सारी सूचनाएं दे डालीं और जातेजाते बोल गया, ‘‘दोस्त के साथ गद्दारी तो कर रहा हूं, लेकिन उस की भलाई के लिए कर रहा हूं. इसलिए मन में कोई मलाल तो नहीं है. बस, थोड़ा सा डर है कि यह बात पता लगने पर धीरेंद्र मुझे छोड़ेगा तो नहीं. शायद लड़ाई ही कर बैठे. लेकिन वह तो मैं भुगत लूंगा. अब भाभीजी, आगे आप उसे ठीक करने का उपाय करें.’’

उस दिन सुधा मन ही मन योजनाएं बनाती रही कि किस तरह वह धीरेंद्र को लाजवाब कर के माफी मंगवा कर रहेगी. लेकिन जब उस का धीरेंद्र से सामना हुआ तो शुरुआत ही गलत हो गई. धीरेंद्र ने उस के सभी आक्रमणों को काट कर बेकार करना शुरू कर दिया. अंत में जब कुछ नहीं सूझा तो सुधा का रोनाधोना शुरू हो गया. बात वहीं खत्म हो गई, लेकिन सुधा के मन में उन लड़कियों के नाम कांटे की तरह चुभते रहे थे. तब उन नामोें में पल्लवी का नाम नहीं था.

समय बीत रहा था, विनीत के साथ निधि ने भी स्कूल जाना शुरू कर दिया तो एक बार फिर सुधा को अपनी छूटी  हुई पढ़ाई का ध्यान आया. इस बार वह सबकुछ भूल कर अपनी पढ़ाई में जुट गई. धीरेंद्र के साथ उस के संबंध फिर से सामान्य हो चले थे. अब की बार सुधा ने पूरी तैयारी के साथ परीक्षा दी और पास हो गई. सुधा को धीरेंद्र ने भी खुले दिल से बधाई दी.

सुधा और धीरेंद्र के सामान्य गति से चलते जीवन में पल्लवी के पत्र से एक नया तूफान उठ खड़ा हुआ. एक दिन दुखी हो कर उस ने धीरेंद्र से पूछ ही लिया, ‘‘तुम कितनी बार मेरे धीरज की परीक्षा लोगे? क्यों बारबार मुझे इस तरह सलीब पर चढ़ाते हो? आखिर यह किस दोष के लिए सजा देते हो, मुझे पता तो चले…’’

‘‘क्या बेकार की बकवास करती हो. तुम्हें कौन फांसी पर चढ़ाए दे रहा है? मैं क्या करता हूं, क्या नहीं करता, इस से तुम्हारे घर में तो कोई कमी नहीं आ रही है. फिर क्यों हर समय अपना दुखड़ा रोती रहती हो? मैं तो तुम से कोई शिकायत नहीं करता, न तुम से कुछ चाहता ही हूं.’’

धीरेंद्र की यह बात सुधा समझ नहीं पाती थी. बोली, ‘‘मेरा रोनाधोना कुछ नहीं है. मैं तो बस, यही जानना चाहती हूं कि आखिर ऐसा क्या है जो तुम्हें घर में नहीं मिलता और उस के लिए तुम्हें बाहर भागना पड़ता है. आखिर मुझ में क्या कमी है? क्या मैं बदसूरत हूं, अनपढ़ हूं. बेशऊर हूं, जो तुम्हारे लायक नहीं हूं और इसलिए तुम्हें बाहर भागना पड़ता है. बताओ, आखिर कब तक यह बरदाश्त करती रहूंगी कि बाहर तुम से पहली बार मिलने वाला किसी सोना को, या रीना को, या पल्लवी को तुम्हारी पत्नी समझता रहे.’’

धीरेंद्र ने सुधा की इस बात का उत्तर नहीं दिया. इन दिनों धीरेंद्र के पास घर के लिए  कम ही समय होता था. उतने कम समय में भी उन के और सुधा के बीच बहुत ही सीमित बातों का आदानप्रदान होता था.

एक दिन धीरेंद्र जल्दी ही दफ्तर से घर आ गया. लेकिन जब वह अपनी अटैची में कुछ कपड़े भर कर बाहर जाने लगा तो सूचना देने भर को सुधा को बोलता गया था, ‘‘बाहर जा रहा हूं. एक हफ्ते में लौट आऊंगा.’’

लेकिन वह तीसरे दिन ही लौट आया. 2 दिन से वह गुमसुम बना घर में ही रह रहा था. सुधा ने धीरेंद्र को ऐसा तो कभी नहीं देखा था. उसे कारण जानने की उत्सुकता तो जरूर थी, लेकिन खुद बोल कर वह धीरेंद्र से कुछ पूछने में हिचकिचा रही थी.

उस दिन रात को खाना खा कर बच्चे सोने के लिए अपने कमरे में चले गए थे. धीरेंद्र सोफे पर बैठा कोई किताब पढ़ रहा था और सुधा क्रोशिया धागे में उलझी उंगलियां चलाती पता नहीं किस सोच में डूबी थी.

टनटन कर के घड़ी ने 10 बजाए तो धीरेंद्र ने अपने हाथ की किताब बंद कर के एक ओर रख दी. सुधा भी अपने हाथ के क्रोशिए और धागे को लपेट कर उठ खड़ी हुई. धीरेंद्र काफी समय से अपनी बात करने के लिए उपयुक्त अवसर का इंतजार कर रहा था. अभी जैसे उसे वह समय मिल गया. अपनी जगह से उठ कर जाने को तैयार सुधा को संबोधित कर के वह बोला, ‘‘तुम्हें जान कर खुशी होगी कि पल्लवी ने शादी कर ली है.’’

‘‘क्या…’’ आश्चर्य से सुधा जहां खड़ी थी वहीं रुक गई.

‘‘पल्लवी को अपना समझ कर मैं ने उस के लिए क्या कुछ नहीं किया था. उस की तरक्की के लिए कितनी कोशिश मैं ने की है, यह मैं ही जानता हूं. जैसे ही तरक्की पर तबादला हो कर वह यहां से गई, उस ने मुझ से संबंध ही तोड़ लिए. अब उस ने शादी भी कर ली है.

‘‘उसी से मिलने गया था. मुझे देख कर वह ऐसा नाटक करने लगी जैसे वह मुझे ठीक से जानती तक नहीं है. नाशुकरेपन की कहीं तो कोई हद होती है. लेकिन तुम्हें इन बातों से क्या मतलब? तुम तो सुन कर खुश ही होगी,’’ धीरेंद्र स्वगत भाषण सा कर रहा था.

जब वह अपना बोलना खत्म कर चुका तब सुधा बोली, ‘‘यह पल्लवी की कहानी बंद होना मेरे लिए कोई नई बात नहीं रह गई है. पहले भी कितनी ही ऐसी कहानियां बंद हो चुकी हैं और आगे भी न जाने कितनी ऐसी कहानियां शुरू होंगी और बंद होंगी. अब तो इन बातों से खुश या दुखी होने की स्थितियों से मैं काफी आगे आ चुकी हूं.

‘‘इस समय तो मैं एक ही बात सोच रही हूं, तुम्हारी ललिता, सोना, रीना, पल्लवी की तरह मैं भी स्त्री हूं. देखने- भालने में मैं उन से कम सुंदर नहीं रही हूं. पढ़ाई में भी अब मुझे शर्मिंदा हो कर मुंह छिपाने की जरूरत नहीं है. फिर क्या कारण है कि ये सब तो तुम्हारे प्यार के योग्य साबित हुईं और खूब सुखी रहीं, जबकि अपनी सारी एकनिष्ठता और अपने इस घर को बनाए रखने के सारे प्रयत्नों के बाद भी मुझे सिवा कुढ़न और जलन के कुछ नहीं मिला.

‘‘मैं तुम्हारी पत्नी हूं, लेकिन तुम्हारा कुछ भी मेरे लिए कभी नहीं रहा. वे तुम्हारी कुछ भी नहीं थीं, फिर भी तुम्हारा सबकुछ उन का था. सारी जिंदगी मैं तुम्हारी ओर इस आशा में ताकती रही कि कभी कुछ समय को ही सही तुम केवल मेरे ही बन कर रहोगे. लेकिन यह मेरी मृगतृष्णा है. जानती हूं, यह इच्छा इस जीवन में तो शायद कभी पूरी नहीं होगी.

‘‘पल्लवी ने शादी कर ली, तुम कहते हो कि मुझे खुशी होगी. लेकिन तुम्हारी इस पल्लवी की शादी ने मेरे सामने एक और ही सत्य उजागर किया है. मैं अभी यह सोच रही थी कि अपने जीवन के उन सालों में जब छोटेछोटे दुखसुख भी बहुत महसूस होते हैं तब मैं, बस तुम्हारी ही ओर आशा भरी निगाहों से क्यों ताकती रही? तुम्हारी तरह मैं ने भी अपने विवाह और अपने सुख को अलगअलग कर के क्यों नहीं देखा?

‘‘अगर पति जीवन में सुख और संतोष नहीं भर पा रहा तो खाली जीवन जीना कोई मजबूरी तो नहीं थी. जैसे तुम ललिता, सोना, रीना या पल्लवी में सुखसंतोष पाते रहे, वैसे मैं भी किसी अन्य व्यक्ति का सहारा ले कर क्यों नहीं सुखी बन गई? क्यों आदर्शों की वेदी पर अपनी बलि चढ़ाती रही?’’

ये भी पढ़ें- चुनाव मेरा है

सुधा की बातों को सुन कर धीरेंद्र का चेहरा सफेद पड़ गया. अचानक वह आगे बढ़ आया. सुधा को कंधों से पकड़ कर बोला, ‘‘क्या बकवास कर रही हो? तुम होश में तो हो कि तुम क्या कह रही हो?’’

‘‘मुझे मालूम है कि मैं क्या कह रही हूं. मैं पूरे होश में तो अब आई हूं. जीवन भर तुम मेरे सामने जो कुछ करते रहे, उस से सीख लेने की अक्ल मुझे पहले कभी क्यों नहीं आई. अब मैं यही सोच कर तो परेशान हो रही हूं.

‘‘पहले मेरी व्यथा का कारण तुम्हारे प्रेम प्रसंग ही थे. जब भी तुम्हारे साथ किसी का नाम सुनती थी, मेरे अंतर में कहीं कुछ टूटता सा चला जाता था. हर नए प्रसंग के साथ यह टूटना बढ़ता जाता था और उस टूटन को मेरे साथ मेरे बच्चे भी भुगतते थे.

‘‘अब तो मेरी व्यथा दोगुनी हो गई है. तुम्हीं बताओ, अगर मैं ने तुम्हारे जैसे रास्ते को पकड़ लिया होता तो क्या मैं भी पल्लवी की तरह सुखी न रहती? जब वह तुम्हारे साथ थी, तब तुम्हारा सबकुछ पल्लवी का था अब शादी कर के वह अपने घर में पहुंच गई है तो वहां भी सबकुछ उस का है. पल्लवी को प्रेमी भी मिला था और फिर अब पति भी मिल गया है, और मुझे क्या मिला? मुझे कुछ भी नहीं मिला…’’

सुधा इतनी बिलख कर पहले कभी नहीं रोई थी जितनी अपनी बात खत्म करने से पहले ही वह इस समय रो दी थी.

रमा प्रभाकर   

The post सुधा का सत्य appeared first on Sarita Magazine.



from कहानी – Sarita Magazine https://ift.tt/2xpg9pK

‘‘यह किस का प्रेमपत्र है?’’ सुधा ने धीरेंद्र के सामने गुलाबी रंग का लिफाफा रखते हुए कहा.

‘‘यह प्रेमपत्र है, तो जाहिर है कि किसी प्रेमिका का ही होगा,’’ सुधा ने जितना चिढ़ कर प्रश्न किया था धीरेंद्र ने उतनी ही लापरवाही से उत्तर दिया तो वह बुरी तरह बिफर गई.

‘‘कितने बेशर्म इनसान हो तुम. तुम ने अपने चेहरे पर इतने मुखौटे लगाए हुए हैं कि मैं आज तक तुम्हारे असली रूप को समझ नहीं सकी हूं. क्या मैं जान सकती हूं कि तुम्हारे जीवन में आने वाली प्रेमिकाओं में इस का क्रमांक क्या है?’’

सुधा ने आज जैसे लड़ने के लिए कमर कस ली थी, लेकिन धीरेंद्र ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया. दफ्तर से लौट कर वह फिर से बाहर निकल जाने को तैयार हो रहा था.

कमीज पहनता हुआ बोला, ‘‘सुधा, तुम्हें मेरी ओर देखने की फुरसत ही कहां रहती है? तुम्हारे बच्चे, तुम्हारी पढ़ाई, तुम्हारी सहेलियां, रिश्तेदार इन सब की देखभाल और आवभगत के बाद अपने इस पति नाम के प्राणी के लिए तुम्हारे पास न तो समय बचता है और न ही शक्ति.

‘‘आखिर मैं भी इनसान हूं्. मेरी भी इच्छाएं हैं. मुझे भी लगता है कि कोई ऐसा हो जो मेरी, केवल मेरी बात सुने और माने, मेरी आवश्यकताएं समझे. अगर मुझे यह सब करने वाली कोई मिल गई है तो तुम्हें चिढ़ क्यों हो रही है? बल्कि तुम्हें तो खुशी होनी चाहिए कि अब तुम्हें मेरे लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है.’’

धीरेंद्र की बात पर सुधा का खून खौलने लगा, ‘‘क्या कहने आप के, अच्छा, यह बताओ जब बच्चे नहीं थे, मेरी पढ़ाई नहीं चल रही थी, सहेलियां, रिश्तेदार कोई भी नहीं था, मेरा सारा समय जब केवल तुम्हारे लिए ही था, तब इन देखभाल करने वालियों की तुम्हें क्यों जरूरत पड़ गई थी?’’ सुधा का इशारा ललिता वाली घटना की ओर था.

ये भी पढ़ें- आदर्श जन्मस्थली

तब उन के विवाह को साल भर ही हुआ था. एक दिन भोलू की मां धुले कपड़े छत पर सुखा कर नीचे आई तो चौके में काम करती सुधा को देख कर चौंक गई, ‘अरे, बहूरानी, तुम यहां चौके में बैठी हो. ऊपर तुम्हारे कमरे में धीरेंद्र बाबू किसी लड़की से बतिया रहे हैं.’

भोलू की मां की बात को समझने में अम्मांजी को जरा भी देर नहीं लगी. वह झट अपने हाथ का काम छोड़ कर उठ खड़ी हुई थीं, ‘देखूं, धीरेंद्र किस से बात कर रहा है?’ कह कर वह छत की ओर जाने वाली सीढि़यों की ओर चल पड़ी थीं.

सुधा कुछ देर तक तो अनिश्चय की हालत में रुकी रही, पर जल्दी ही गैस बंद कर के वह भी उन के पीछे चल पड़ी थी.

ऊपर के दृश्य की शुरुआत तो सुधा नहीं देख सकी लेकिन जो कुछ भी उस ने देखा, उस से स्थिति का अंदाजा लगाने में उसे तनिक भी नहीं सोचना पड़ा. खुले दरवाजे पर अम्मांजी चंडी का रूप धरे खड़ी थीं. अंदर कमरे में सकपकाए से धीरेंद्र के पास ही सफेद फक चेहरे और कांपती काया में पड़ोस की ललिता खड़ी थी.

इस घटना का पता तो गिनेचुने लोगों के बीच ही सीमित रहा, लेकिन इस के परिणाम सभी की समझ में आए थे. पड़ोसिन सुमित्रा भाभी ने अपनी छोटी बहन ललिता को एक ही हफ्ते में पढ़ाई छुड़वा कर वापस भिजवा दिया था. उस के बाद दोनों घरों के बीच जो गहरे स्नेहिल संबंध थे, वे भी बिखर गए थे.

अभी सुधा ने उसी घटना को ले कर व्यंग्य किया था. धीरेंद्र इस पर खीज गया. बोला, ‘‘पुरानी बातें क्यों उखाड़ती हो? उस बात का इस से क्या संबंध है?’’

‘‘है क्यों नहीं? खूब संबंध है. वह भी तुम्हारी प्रेमिका थी और यह भी जैसा तुम कह रहे हो, तुम्हारी प्रेमिका है. बस, फर्क यही है कि वह तीसरी या चौथी प्रेमिका रही होगी और यह 5वीं या छठी प्रेमिका है,’’ सुधा चिल्लाई.

‘‘चुप करो, सुधा, तुम एक बार बोलना शुरू करती हो तो बोलती चली जाती हो. पल्लवी को तुम इस श्रेणी में नहीं रख सकतीं. तुम क्या जानो, वह मेरा कितना ध्यान रखती है.’’

‘‘सब जानती हूं. और यह भी जानती हूं कि अगर ये ध्यान रखने वालियां तुम्हारे जीवन में न आतीं तो भी तुम अच्छी तरह जिंदा रहते. तब कम से कम दुनिया के सामने दोहरी जिंदगी जीने की मजबूरी तो न होती.’’

सुधा को लगा कि वह अगर कुछ क्षण और वहां रुकी तो रो पड़ेगी. धीरेंद्र के सामने वह अब कमजोर नहीं पड़ना चाहती थी. पहले भी जब कभी धीरेंद्र के प्रेमप्रसंग के भेद खुले थे, वह खूब रोईधोई थी, लेकिन धीरेंद्र पर इस का कोई विशेष असर कभी नहीं पड़ा था.

धीरेंद्र तो अपनी टाई ठीक कर के, जूतों को एक बार फिर ब्रश से चमका कर घर से निकल गया, लेकिन सुधा के मन में तूफान पैदा कर गया. अंदर कमरे में जा कर सुधा ने सारे ऊनी कपड़े और स्वेटर आदि फिर से अलमारी में भर दिए.

सर्दियां बीत चुकी थीं. अब गरमियों के दिनों की हलकीहलकी खुनक दोपहर की धूप में चढ़नी शुरू हो गई थी. आज सुधा ने सोचा था कि वह घर भर के सारे ऊनी कपड़े निकाल कर बाहर धूप में डाल देगी. 2 दिन अच्छी धूप दिखा कर ऊनी कपड़ों में नेप्थलीन की गोलियां डाल कर उन्हें बक्सों में वह हर साल बंद कर दिया करती थी.

आज भी धूप में डालने से पहले वह हर कपड़े की जेब टटोल कर खाली करती जा रही थी. तभी धीरेंद्र के स्लेटी रंग के सूट के कोट की अंदर की जेब में उसे यह गुलाबी लिफाफा मिला था.

बहुत साल पहले स्कूल के दिनों में सुधा ने एक प्रेमपत्र पढ़ा था, जो उस के बगल की सीट पर बैठने वाली लड़की ने उसे दिखाया था. यह पत्र उस लड़की को रोज स्कूल के फाटक पर मिलने वाले एक लड़के ने दिया था. उस पत्र की पहली पंक्ति सुधा को आज भी अच्छी तरह याद थी, ‘सेवा में निवेदन है कि आप मेरे दिल में बैठ चुकी हैं…’

धीरेंद्र के कोट की जेब से मिला पत्र भी कुछ इसी प्रकार से अंगरेजी में लिखा गया प्रेमपत्र था. बेहद बचकानी भावुकता में किसी लड़की ने धीरेंद्र को यह पत्र लिखा था. पत्र पढ़ कर सुधा के तनमन में आग सी लग गई थी.

पता नहीं ऐसा क्यों होता था. सुधा जब भी परेशान होती थी, उस के सिर में दर्द शुरू हो जाता था. इस समय भी वह हलकाहलका सिरदर्द महसूस कर रही थी. अभी वह अलमारी में कपड़े जैसेतैसे भर कर कमरे से बाहर ही आई थी कि पीछे से विनीत आ गया.

‘‘मां, मैं सारंग के घर खेलने जाऊं?’’ उस ने पूछा.

‘‘नहीं, तुम कहीं नहीं जाओगे. बैठ कर पढ़ो,’’ सुधा ने रूखेपन से कहा.

‘‘लेकिन मां, मैं अभी तो स्कूल से आया हूं. इस समय तो मैं रोज ही खेलने जाता हूं,’’ उस ने अपने पक्ष में दलील दी.

‘‘तो ठीक है, बाहर जा कर खेलो,’’ सुधा ने उसे टालना चाहा. वह इस समय कुछ देर अकेली रहना चाहती थी.

‘‘पर मां, मैं उसे कह चुका हूं कि आज मैं उस के घर आऊंगा,’’ विनीत अपनी बात पर अड़ गया.

‘‘मैं ने कहा न कि कहीं भी नहीं जाना है. अब मेरा सिर मत खाओ. जाओ यहां से,’’ सुधा झल्ला गई.

‘‘मां, बस एक बार, आज उस के घर चले जाने दो. उस के चाचाजी अमेरिका से बहुत अच्छे खिलौने लाए हैं. मैं ने उस से कहा है कि मैं आज देखने आऊंगा. मां, आज मुझे जाने दो न,’’ विनीत अनुनय पर उतर आया.

पर सुधा आज दूसरे ही मूड में थी. उस का गुस्सा एकदम भड़क उठा, ‘‘बेवकूफ, मैं इतनी देर से मना कर रही हूं, बात समझना ही नहीं चाहता. पीछे ही पड़ गया है. ठीक है, कहने से बात समझ में नहीं आ रही है न तो ले, तुझे दूसरे तरीके से समझाती हूं…’’

सुधा ने अपनी बात खत्म करने से पहले ही विनीत के गाल पर चटचट कई चांटे जड़ दिए. मां के इस रूप से अचंभित विनीत न तो कुछ बोला और न ही रोया, बस चुपचाप आंखें फाड़े मां को ताकता रहा.

चांटों से लाल पड़े गाल और विस्मय से फैली आंखों वाले विनीत को देख कर सुधा अपने होश में लौट आई. विनीत यदाकदा ही उस से पूछ कर सारंग के घर चला जाता था. आज सुधा को क्या हो गया था, जो उस ने अकारण ही अपने मासूम बेटे को पीट डाला था. सारा क्रोध धीरेंद्र के कारण था, पर उस पर तो बस चला नहीं, गुस्सा उतरा निर्दोष विनीत पर.

ये भी पढ़ें- बंटवारा

उस का सारा रोष निरीहता में बदल गया. वह दरवाजे की चौखट से माथा टिका कर रो दी.सुधा की यह व्यथा कोई आज की नई व्यथा नहीं थी. धीरेंद्र के शादी से पहले के प्रेमप्रसंगों को भी उस के साथियों ने मजाकमजाक में सुना डाला था. पर वे सब उस समय तक बीती बातें हो गई थीं, लेकिन ललिता वाली घटना ने तो सुधा को झकझोर कर रख दिया था. बाद में भी जब कभी धीरेंद्र के किसी प्रेमप्रसंग की चर्चा उस तक पहुंचती तो वह बिखर जाती थी. लेकिन ललिता वाली घटना से तो वह बहुत समय तक उबर नहीं पाई थी.

तब धीरेंद्र ने भी सुधा को मनाने के लिए क्या कुछ नहीं किया था, ‘बीती ताहि बिसार दे’ कह कर उस ने कान पकड़ कर कसमें तक खा डाली थीं, पर सुधा को अब धीरेंद्र की हर बात जहर सी लगती थी.

तभी एक दिन सुबहसुबह मनीष ने नाचनाच कर सारा घर सिर पर उठा लिया था, ‘‘भैया पास हो गए हैं. देखो, इस अखबार में उन का नाम छपा है.’’

धीरेंद्र ने एक प्रतियोगी परीक्षा दी थी. उस का परिणाम आ गया था. धीरेंद्र की इस सफलता ने सारे बिखराव को पल भर में समेट दिया था. अब तो धीरेंद्र का भविष्य ही बदल जाने वाला था. सारे घर के साथ सुधा भी धीरेंद्र की इस सफलता से उस के प्रति अपनी सारी कड़वाहट को भूल गई. उसे लगा कि यह उस के नए सुखी जीवन की शुरुआत की सूचना है, जो धीरेंद्र के परीक्षा परिणाम के रूप में आई है.

इस के बाद काफी समय व्यस्तता में ही निकल गया था. धीरेंद्र ने अपनी नई नौकरी का कार्यभार संभाल लिया था. नई जगह और नए सम्मान ने सुधा के जीवन में भी उमंग भर दी थी. उस के मन में धीरेंद्र के प्रति एक नए विश्वास और प्रेम ने जन्म ले लिया था. तभी उस ने निर्णय लिया था. वह धीरेंद्र के इस नए पद के अनुरूप ही अपनेआप को बना लेगी. वह अपनी पढ़ाई फिर से शुरू करेगी.

सुधा के इस निर्णय पर धीरेंद्र ने अपनी सहमति ही जताई थी. अब घर के कामों के लिए उन्हें नौकर रखने की सुविधा हो गई थी. इसलिए सुधा की पढ़ाई शुरू करने की सुविधा जुटते देर नहीं लगी. वह बेफिक्र हो कर प्राइवेट बी.ए. करने की तैयारी में जुट गई.

कभी ऐसा भी होता है कि मन का सोचा आसानी से पूरा नहीं होता. सुधा के साथ यही हुआ. उस की सारी मेहनत, सुविधा एक ओर रखी रह गई. सुधा परीक्षा ही नहीं दे सकी. पर इस बाधा का बुरा मानने का न तो उस के पास समय था और न इच्छा ही थी. एक खूबसूरत स्वस्थ बेटे की मां बन कर एक तो क्या, वह कई बी.ए. की डिगरियों का मोह छोड़ने को तैयार थी.

विनीत 2 साल का ही हुआ था कि उस की बहन निधि आ गई और इन दोनों के बीच सुधा धीरेंद्र तक को भूल गई. उन के साथ वह ऐसी बंधी कि बाहर की दुनिया के उस के सारे संपर्क ही खत्म से हो गए.

घर और बच्चों के बीच उलझी सुधा तक धीरेंद्र की गतिविधियों की उड़ती खबर कभीकभी पहुंच जाती थी कि वह अपने दफ्तर की कुछ महिला कर्मचारियों पर अधिक ही मेहरबान रहता है. पिछले कुछ सालों के धीरेंद्र के व्यवहार से सुधा समझ बैठी थी कि अब उस में उम्र की गंभीरता आ गई है और वह पुराने वाला दिलफेंक धीरेंद्र नहीं रहा है. इसलिए उस ने इन अफवाहों को अधिक महत्त्व नहीं दिया.

एक दिन सुहास आया, तब धीरेंद्र घर पर नहीं था. उस ने सुधा को घंटे भर में ही सारी सूचनाएं दे डालीं और जातेजाते बोल गया, ‘‘दोस्त के साथ गद्दारी तो कर रहा हूं, लेकिन उस की भलाई के लिए कर रहा हूं. इसलिए मन में कोई मलाल तो नहीं है. बस, थोड़ा सा डर है कि यह बात पता लगने पर धीरेंद्र मुझे छोड़ेगा तो नहीं. शायद लड़ाई ही कर बैठे. लेकिन वह तो मैं भुगत लूंगा. अब भाभीजी, आगे आप उसे ठीक करने का उपाय करें.’’

उस दिन सुधा मन ही मन योजनाएं बनाती रही कि किस तरह वह धीरेंद्र को लाजवाब कर के माफी मंगवा कर रहेगी. लेकिन जब उस का धीरेंद्र से सामना हुआ तो शुरुआत ही गलत हो गई. धीरेंद्र ने उस के सभी आक्रमणों को काट कर बेकार करना शुरू कर दिया. अंत में जब कुछ नहीं सूझा तो सुधा का रोनाधोना शुरू हो गया. बात वहीं खत्म हो गई, लेकिन सुधा के मन में उन लड़कियों के नाम कांटे की तरह चुभते रहे थे. तब उन नामोें में पल्लवी का नाम नहीं था.

समय बीत रहा था, विनीत के साथ निधि ने भी स्कूल जाना शुरू कर दिया तो एक बार फिर सुधा को अपनी छूटी  हुई पढ़ाई का ध्यान आया. इस बार वह सबकुछ भूल कर अपनी पढ़ाई में जुट गई. धीरेंद्र के साथ उस के संबंध फिर से सामान्य हो चले थे. अब की बार सुधा ने पूरी तैयारी के साथ परीक्षा दी और पास हो गई. सुधा को धीरेंद्र ने भी खुले दिल से बधाई दी.

सुधा और धीरेंद्र के सामान्य गति से चलते जीवन में पल्लवी के पत्र से एक नया तूफान उठ खड़ा हुआ. एक दिन दुखी हो कर उस ने धीरेंद्र से पूछ ही लिया, ‘‘तुम कितनी बार मेरे धीरज की परीक्षा लोगे? क्यों बारबार मुझे इस तरह सलीब पर चढ़ाते हो? आखिर यह किस दोष के लिए सजा देते हो, मुझे पता तो चले…’’

‘‘क्या बेकार की बकवास करती हो. तुम्हें कौन फांसी पर चढ़ाए दे रहा है? मैं क्या करता हूं, क्या नहीं करता, इस से तुम्हारे घर में तो कोई कमी नहीं आ रही है. फिर क्यों हर समय अपना दुखड़ा रोती रहती हो? मैं तो तुम से कोई शिकायत नहीं करता, न तुम से कुछ चाहता ही हूं.’’

धीरेंद्र की यह बात सुधा समझ नहीं पाती थी. बोली, ‘‘मेरा रोनाधोना कुछ नहीं है. मैं तो बस, यही जानना चाहती हूं कि आखिर ऐसा क्या है जो तुम्हें घर में नहीं मिलता और उस के लिए तुम्हें बाहर भागना पड़ता है. आखिर मुझ में क्या कमी है? क्या मैं बदसूरत हूं, अनपढ़ हूं. बेशऊर हूं, जो तुम्हारे लायक नहीं हूं और इसलिए तुम्हें बाहर भागना पड़ता है. बताओ, आखिर कब तक यह बरदाश्त करती रहूंगी कि बाहर तुम से पहली बार मिलने वाला किसी सोना को, या रीना को, या पल्लवी को तुम्हारी पत्नी समझता रहे.’’

धीरेंद्र ने सुधा की इस बात का उत्तर नहीं दिया. इन दिनों धीरेंद्र के पास घर के लिए  कम ही समय होता था. उतने कम समय में भी उन के और सुधा के बीच बहुत ही सीमित बातों का आदानप्रदान होता था.

एक दिन धीरेंद्र जल्दी ही दफ्तर से घर आ गया. लेकिन जब वह अपनी अटैची में कुछ कपड़े भर कर बाहर जाने लगा तो सूचना देने भर को सुधा को बोलता गया था, ‘‘बाहर जा रहा हूं. एक हफ्ते में लौट आऊंगा.’’

लेकिन वह तीसरे दिन ही लौट आया. 2 दिन से वह गुमसुम बना घर में ही रह रहा था. सुधा ने धीरेंद्र को ऐसा तो कभी नहीं देखा था. उसे कारण जानने की उत्सुकता तो जरूर थी, लेकिन खुद बोल कर वह धीरेंद्र से कुछ पूछने में हिचकिचा रही थी.

उस दिन रात को खाना खा कर बच्चे सोने के लिए अपने कमरे में चले गए थे. धीरेंद्र सोफे पर बैठा कोई किताब पढ़ रहा था और सुधा क्रोशिया धागे में उलझी उंगलियां चलाती पता नहीं किस सोच में डूबी थी.

टनटन कर के घड़ी ने 10 बजाए तो धीरेंद्र ने अपने हाथ की किताब बंद कर के एक ओर रख दी. सुधा भी अपने हाथ के क्रोशिए और धागे को लपेट कर उठ खड़ी हुई. धीरेंद्र काफी समय से अपनी बात करने के लिए उपयुक्त अवसर का इंतजार कर रहा था. अभी जैसे उसे वह समय मिल गया. अपनी जगह से उठ कर जाने को तैयार सुधा को संबोधित कर के वह बोला, ‘‘तुम्हें जान कर खुशी होगी कि पल्लवी ने शादी कर ली है.’’

‘‘क्या…’’ आश्चर्य से सुधा जहां खड़ी थी वहीं रुक गई.

‘‘पल्लवी को अपना समझ कर मैं ने उस के लिए क्या कुछ नहीं किया था. उस की तरक्की के लिए कितनी कोशिश मैं ने की है, यह मैं ही जानता हूं. जैसे ही तरक्की पर तबादला हो कर वह यहां से गई, उस ने मुझ से संबंध ही तोड़ लिए. अब उस ने शादी भी कर ली है.

‘‘उसी से मिलने गया था. मुझे देख कर वह ऐसा नाटक करने लगी जैसे वह मुझे ठीक से जानती तक नहीं है. नाशुकरेपन की कहीं तो कोई हद होती है. लेकिन तुम्हें इन बातों से क्या मतलब? तुम तो सुन कर खुश ही होगी,’’ धीरेंद्र स्वगत भाषण सा कर रहा था.

जब वह अपना बोलना खत्म कर चुका तब सुधा बोली, ‘‘यह पल्लवी की कहानी बंद होना मेरे लिए कोई नई बात नहीं रह गई है. पहले भी कितनी ही ऐसी कहानियां बंद हो चुकी हैं और आगे भी न जाने कितनी ऐसी कहानियां शुरू होंगी और बंद होंगी. अब तो इन बातों से खुश या दुखी होने की स्थितियों से मैं काफी आगे आ चुकी हूं.

‘‘इस समय तो मैं एक ही बात सोच रही हूं, तुम्हारी ललिता, सोना, रीना, पल्लवी की तरह मैं भी स्त्री हूं. देखने- भालने में मैं उन से कम सुंदर नहीं रही हूं. पढ़ाई में भी अब मुझे शर्मिंदा हो कर मुंह छिपाने की जरूरत नहीं है. फिर क्या कारण है कि ये सब तो तुम्हारे प्यार के योग्य साबित हुईं और खूब सुखी रहीं, जबकि अपनी सारी एकनिष्ठता और अपने इस घर को बनाए रखने के सारे प्रयत्नों के बाद भी मुझे सिवा कुढ़न और जलन के कुछ नहीं मिला.

‘‘मैं तुम्हारी पत्नी हूं, लेकिन तुम्हारा कुछ भी मेरे लिए कभी नहीं रहा. वे तुम्हारी कुछ भी नहीं थीं, फिर भी तुम्हारा सबकुछ उन का था. सारी जिंदगी मैं तुम्हारी ओर इस आशा में ताकती रही कि कभी कुछ समय को ही सही तुम केवल मेरे ही बन कर रहोगे. लेकिन यह मेरी मृगतृष्णा है. जानती हूं, यह इच्छा इस जीवन में तो शायद कभी पूरी नहीं होगी.

‘‘पल्लवी ने शादी कर ली, तुम कहते हो कि मुझे खुशी होगी. लेकिन तुम्हारी इस पल्लवी की शादी ने मेरे सामने एक और ही सत्य उजागर किया है. मैं अभी यह सोच रही थी कि अपने जीवन के उन सालों में जब छोटेछोटे दुखसुख भी बहुत महसूस होते हैं तब मैं, बस तुम्हारी ही ओर आशा भरी निगाहों से क्यों ताकती रही? तुम्हारी तरह मैं ने भी अपने विवाह और अपने सुख को अलगअलग कर के क्यों नहीं देखा?

‘‘अगर पति जीवन में सुख और संतोष नहीं भर पा रहा तो खाली जीवन जीना कोई मजबूरी तो नहीं थी. जैसे तुम ललिता, सोना, रीना या पल्लवी में सुखसंतोष पाते रहे, वैसे मैं भी किसी अन्य व्यक्ति का सहारा ले कर क्यों नहीं सुखी बन गई? क्यों आदर्शों की वेदी पर अपनी बलि चढ़ाती रही?’’

ये भी पढ़ें- चुनाव मेरा है

सुधा की बातों को सुन कर धीरेंद्र का चेहरा सफेद पड़ गया. अचानक वह आगे बढ़ आया. सुधा को कंधों से पकड़ कर बोला, ‘‘क्या बकवास कर रही हो? तुम होश में तो हो कि तुम क्या कह रही हो?’’

‘‘मुझे मालूम है कि मैं क्या कह रही हूं. मैं पूरे होश में तो अब आई हूं. जीवन भर तुम मेरे सामने जो कुछ करते रहे, उस से सीख लेने की अक्ल मुझे पहले कभी क्यों नहीं आई. अब मैं यही सोच कर तो परेशान हो रही हूं.

‘‘पहले मेरी व्यथा का कारण तुम्हारे प्रेम प्रसंग ही थे. जब भी तुम्हारे साथ किसी का नाम सुनती थी, मेरे अंतर में कहीं कुछ टूटता सा चला जाता था. हर नए प्रसंग के साथ यह टूटना बढ़ता जाता था और उस टूटन को मेरे साथ मेरे बच्चे भी भुगतते थे.

‘‘अब तो मेरी व्यथा दोगुनी हो गई है. तुम्हीं बताओ, अगर मैं ने तुम्हारे जैसे रास्ते को पकड़ लिया होता तो क्या मैं भी पल्लवी की तरह सुखी न रहती? जब वह तुम्हारे साथ थी, तब तुम्हारा सबकुछ पल्लवी का था अब शादी कर के वह अपने घर में पहुंच गई है तो वहां भी सबकुछ उस का है. पल्लवी को प्रेमी भी मिला था और फिर अब पति भी मिल गया है, और मुझे क्या मिला? मुझे कुछ भी नहीं मिला…’’

सुधा इतनी बिलख कर पहले कभी नहीं रोई थी जितनी अपनी बात खत्म करने से पहले ही वह इस समय रो दी थी.

रमा प्रभाकर   

The post सुधा का सत्य appeared first on Sarita Magazine.

July 01, 2019 at 10:17AM

पराया लहू

वर्षा के हाथों में थमा मायके से आया भाभी का पत्र हवा से फड़फड़ा रहा था. वह सोच रही थी न जाने कैसा होगा लव, भाभी उस की सही देखभाल भी कर पा रही होंगी या नहीं.

भाभी ने लिखा था कि लव जब छत पर बच्चों के साथ पतंग उड़ा रहा था, नीचे गिर गया. उस के पैर की हड्डी टूट गई, पर उस की हालत गंभीर नहीं है, जल्दी ठीक हो जाएगा. शरीर के अन्य हिस्सों पर भी मामूली चोटें आई थीं. हम उस का उचित इलाज करा रहे हैं.

‘‘मां, तुम रो रही हो?’’ भरत ने पुकारा तो वर्षा की तंद्रा भंग हुई. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. उस ने झटपट आंखें पोंछीं और भरत को गोद में बैठा कर मुसकराने का यत्न कर पूछने लगी, ‘‘स्कूल से कब आया, भरत?’’

‘‘कब का खड़ा हूं, पर तुम ने देखा ही नहीं. बहुत जोरों से भूख लगी है,’’ भरत ने कंधे पर टंगा किताबों का बोझा उतारते हुए कहा.

‘‘अभी खाना परोसती हूं,’’ कहती हुई वर्षा रसोईघर में गई. फौरन दालचावल गरम कर लाई और भरत को खाना परोस दिया.

‘‘मां, तुम भी खाओ न,’’ भरत ने आग्रह किया.

उस का आग्रह उचित भी था क्योंकि प्रतिदिन वर्षा उस के साथ ही भोजन करती थी, लेकिन आज वर्षा के मुंह में निवाला चल नहीं पा रहा था. बारबार आंखों में आंसू आ रहे थे. मन लव के आसपास ही दौड़ रहा था.

भरत शायद उस के मन के भाव समझ गया था सो खाना खातेखाते रुक कर बोला, ‘‘किस की चिट्ठी आई है?’’

‘‘किसी की नहीं, देखो, मैं खा रही हूं,’’ वर्षा बोली. वह घर में बखेड़ा खड़ा करना नहीं चाहती थी, सो होंठों पर नकली मुसकान ला कर बेमन से खाने लगी.

भरत संतुष्ट हो कर चुप हो गया, फिर वह खाना खा कर अपने कमरे में बिस्तर पर लेट गया.

वर्षा उस के सिरहाने बैठ कर थोड़ी देर उस का सिर सहलाती रही. फिर जब भरत ऊंघने लगा तो वह अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर पड़ गई, पर मन फिर से मायके की दहलीज पर जा पहुंचा. कैसा होगा लव? इस दुर्घटना के क्षणों में उस ने मां को अवश्य याद किया होगा, वह उसे याद कर के रोया भी बहुत होगा, इतने छोटे बच्चे मां से दूर रह भी कैसे सकते हैं? हो सकता है लव ने आदित्य को भी याद किया हो, आदित्य का कितना दुलारा था लव. वह दफ्तर से आते ही लव को गोद में ले कर बैठ जाते, उस के लिए भांतिभांति के बिस्कुट, टाफियां व खिलौने ले कर आते.

उस वक्त लव था भी कितना प्यारा, गोराचिट्टा, गोलमटोल. जो देखता प्यार किए बिना नहीं रह पाता. जब लव डेढ़ वर्ष का हुआ तो उस ने नन्हेनन्हे बच्चों की फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीता था. नन्हा सा दूल्हा बन कर कितना जंच रहा था लव.

यही सब सोच कर वर्षा की आंखों से फिर आंसू बहने लगे. रक्त कैंसर से आदित्य की मृत्यु न हुई होती तो उस का भरापूरा परिवार क्यों बिखरता. आदित्य जीवित होता तो उस का प्यारा लव इस तरह क्यों भटकता.

आदित्य को खो कर वर्षा 3 वर्ष के लव को सीने से चिपकाए मायके लौटी तो वहां उन दोनों मांबेटों को दिन बिताने कठिन हो गए. आदित्य के जीवित रहते जो भैयाभाभी उसे बारबार मायके आने को पत्र लिखते, वे ही एकाएक बेगाने बन गए. उन्हें उन दोनों का खर्च संभालना भारी लगा था.

तब दुखी हो कर पिता ने उस के पुनर्विवाह की कोशिशें शुरू कर दीं और एक अखबार में वैवाहिक विज्ञापन पढ़ कर सुधीर के घर वालों से पत्र व्यवहार शुरू किया तो सुधीर से उस का रिश्ता पक्का हो गया, पर सुधीर व उस के घर वालों की एक ही शर्त थी कि वे बच्चे को स्वीकार नहीं करेंगे. उन्हें सिर्फ बिना बच्चे की विधवा ही स्वीकार्य थी, जबकि सुधीर भी एक बेटे का बाप था. विधुर था और अपने बेटे की खातिर ही पुनर्विवाह कर रहा था, पर वह उस के बेटे का दर्द नहीं समझ पाया और उसे अस्वीकार कर दिया.

अपने जिगर के टुकड़े को मांबाप की गोद में छोड़ कर वर्षा, सुधीर से ब्याह कर ससुराल आ पहुंची थी, तब से सिर्फ पत्र ही लव की जानकारी पाने का साधन मात्र रह गए थे. पर उन पत्रों में यह भी लिखा होता कि वह अब हमेशा को लव को भूल कर अपने भविष्य को संवारे व सुधीर और भरत को किसी अभाव का आभास न होने दे. भरत को पूरी ममता दे.

मेरठ से आए हुए उसे पूरा वर्ष बीत गया, तब से एक बार भी वह मायके नहीं गई. सुधीर ने ही नहीं जाने दिया. हमेशा यही कहा कि अब मायके से कैसा मोह. घर में किसी वस्तु का अभाव है क्या. लेकिन अभाव तो वर्षा के मन में बसा था, वह एक दिन के लिए भी अपने लव को नहीं भूल पाती थी और अब भाभी के पत्र ने उस के मन की बेचैनी कई गुना बढ़ा दी थी. मन लव को बांहों में लेने और हृदय से लगाने को बेचैन हो उठा था.

सुधीर घर लौटा तो वर्षा खुद को रोक न पाई और कह उठी, ‘‘मैं 2 दिन के वास्ते मेरठ जाना चाहती हूं.’’

सुधीर ने वही रटारटाया उत्तर दे डाला, ‘‘क्या करोगी जा कर, वैसे भी आजकल तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं रहती, तीसरा महीना चल रहा है, वहां आराम कहां मिल पाएगा…’’

‘‘क्यों नहीं मिलेगा? भैयाभाभी क्या मुझे हल में जोतेंगे? मैं वहां पूरे दिन बिस्तर तोड़ने के अलावा और करूंगी भी क्या?’’ वर्षा जैसे विद्रोह पर उतर आई थी.

उस ने सास से भी जिद की, ‘‘बहुत दिन हो गए मुझे मायके वालों को देखे. दिल्ली से मेरठ का रास्ता ही कितना है. सिर्फ 2 घंटे का, फिर भी मैं साल भर से मायके नहीं जा पाई हूं और न कभी उन लोगों ने ही आने का साहस किया. फिर आनाजाना दोनों तरफ से होता है, एक तरफ से नहीं.’’

ये भी पढ़ें- खैरू की बलि

इस पर सास ने जाने की इजाजत  यह कहते हुए दे दी कि इस का मायके आनाजाना भी जरूरी है.

वर्षा अटैची में कपड़े रखने लगी तो भरत भी जिद कर उठा, ‘‘मैं भी तुम्हारे साथ जाऊंगा, मां. तुम्हारे बिना कैसे मन लगेगा?’’

साल भर में ही भरत उस से काफी हिलमिल चुका था और उसे ही अपनी सगी मां समझने लगा था.

भरत को रोतेबिसूरते देख सास ने उसे भी साथ ले जाने को कह दिया, ‘‘क्या हुआ, यह भी कुछ दिन को घूम आएगा. बेचारे को असली ननिहाल तो कभी मिला ही नहीं, सौतेला ही सही.’’

वर्षा ने भरत के कपड़े भी रख लिए. भरत के कपड़ों की अटैची अलग से तैयार हो गई. भले ही 2 दिनों को जाना हो, भरत को कई जोड़ी कपड़ों की आवश्यकता पड़ती थी. वह बारबार कपड़े मैले कर लेता था.

दोनों कार में बैठ कर मेरठ चल पड़े. रास्ते भर भरत उस की गोद में बैठ कर भांतिभांति के प्रश्न पूछता रहा.

वर्षा मायके पहुंच देर तक मां, भाभी के गले से लिपटी रोती रही. भाभी बारबार पूछती रहीं, ‘‘ठीक तो हो, दीदी? सुधीर ने आदित्य का गम भुला दिया या नहीं? सुधीर का व्यवहार तो ठीक है न?’’

वर्षा के मन में अपने लव का गम समाया हुआ था. वह क्या उत्तर देती, जैसेतैसे चाय के घूंट गले से नीचे उतारती रही.

फिर भाभी खुद ही उसे लव के कमरे में ले गईं. नीचे जगह कम होने के कारण लव छत पर बने कमरे में रहता था.

मूंज की ढीली चारपाई पर सिकुड़ी हुई मैली दरी पर अपाहिज बना पड़ा था लव. पहली नजर में वर्षा उसे पहचान नहीं पाई, फिर लिपट कर रोने लगी, ‘‘यह क्या दशा हो गई लव की?’’

लव काला, सूखा, कंकाल जैसा लग रहा था, वह भी मां को कठिनाई से पहचान पाया. फिर आश्चर्य से वर्षा की कीमती साड़ी व आभूषणों को देखता रह गया.

‘‘तू ठीक तो है न, लव?’’ वर्षा ने स्नेह से उस के सिर पर हाथ फिराया, पर लव को उस से बात करते संकोच हो रहा था. वह नए वस्त्र व जूतेमोजे पहने, गोलमटोल भरत को भी घूर रहा था.

‘‘मां, यह कौन है?’’ भरत ने लव को देख कर नाकभौं सिकोड़ते हुए पूछा.

वर्षा कहना चाहती थी कि लव तुम्हारा भाई है, पर यह सोच कर शब्द उस के होंठों तक आतेआते रह गए, क्या भरत लव को भाई के रूप में स्वीकार कर पाएगा? नहीं, फिर लव को भाई बता कर उस के बालमन पर ठेस पहुंचाने से क्या लाभ?

तभी भरत अगला प्रश्न कर बैठा, ‘‘मां, यह कितना गंदा है, जैसे कई दिनों से नहाया ही न हो, चलो यहां से, नीचे चलते हैं.’’

भाभी भरत को बहलाने लगीं, ‘‘दीदी, तुम लव से बातें करो न?’’

वर्षा की निगाहें पूरे कमरे का अवलोकन कर रही थीं. कमरा काफी गंदा था. छतों तथा दीवारों पर मकडि़यों के बड़ेबड़े जाले और धूल की परतें जमी हुई थीं. उसे याद आया कि इस कमरे में तो घर का कबाड़ रखा जाता था.

भाभी जैसे उस के मन के भाव ताड़ गईं सो मजबूरी जताते हुई बोलीं, ‘‘दीदी, क्या करें, घर में कोई नौकर तो है नहीं, मांजी ने ही इस कमरे का सामान निकाल कर इस की सफाई की थी. वही लव की देखभाल करती हैं. मुझे तो रसोई से ही फुरसत नहीं मिल पाती, फिर छोटे बच्चे भी ठहरे…’’

‘‘ठीक कहती हो, भाभी,’’ कहती हुई वर्षा लव के सिरहाने बैठ गई, क्योंकि कमरे में कोई कुरसी नहीं थी और स्टूल पर दवाइयां व पीने का पानी रखा हुआ था.

‘‘लव, मुझे मां कहो न,’’ कहती हुई वर्षा उस के बालों में हाथ फेरने लगी.

‘‘मां,’’ बड़ी कठिनाई से लव कह सका, जैसे कोई अपराध कर रहा हो. तुम कहां चली गई थीं?’’

‘‘मैं…’’ वर्षा का स्वर गले में ही अटक गया. कैसे कहे कि उस ने पुनर्विवाह कर लिया. आदित्य की यादें मिटाने की खातिर वह सुधीर का दामन थाम चुकी है. फिर लव को वह सब पता भी तो नहीं है. जिस वक्त सुधीर से उस की शादी मंदिर में हुई थी, लव को घर में छिपा कर रखा गया था.

‘‘मां, मेरे लिए नए कपड़े नहीं लातीं?’’ एकाएक लव की आंखों में आकांक्षाओं की चमक तैर उठी.

वर्षा को याद आया, वह लव से यही कह कर घर से निकली थी कि वह उस के लिए नए कपड़े खरीदने बाजार जा रही है, फिर 1 वर्ष पश्चात आज ही लौट कर आई है. वर्षा की पलकें भीग उठीं कि कितनी पुरानी बात याद रखी है लव ने. वह उस के पुराने, घिसेफटे, कपड़े देखती रही, भाभी कहां नए कपड़े दिलवा पाती होंगीं?

‘‘मां, मेरे नए कपड़े दे दो न?’’ लव जिद करने लगा.

वर्षा के मन में आया कि वह भरत के नए कपड़े ला कर लव को पहना दे. नाप ठीक आएगा क्योंकि दोनों हैं भी एक आयु के पर वह ऐसा नहीं कर सकी. मन में डर की लहर सी उठी कि अगर भरत ने कपड़ों की बाबत सुधीर व मांजी को बता दिया तो?

तभी भाभी ने टोका, ‘‘चलो दीदी, पहले भोजन कर लो, बाद में ऊपर आ जाना.’’

वर्षा सीढि़यों की तरफ बढ़ गई. बीच में ही भाभी ने पूछना शुरूकर दिया, ‘‘दीदी, तुम लव के लिए कपड़े, खिलौने वगैरह कुछ ले कर नहीं आईं?’’

वर्षा उत्तर नहीं दे पाई तो भाभी के चेहरे पर रूखापन छा गया. वह कुछ कड़वेपन से कहने लगीं, ‘‘लव है तो तुम्हारी कोख जाया ही, तुम्हें उस का ध्यान रखना चाहिए. सुधीर की आमदनी भी तो कम नहीं है, घर में सभी कुछ मौजूद है. रुपए तुम्हारे हाथ में भी तो रहते होंगे?’’

वर्षा को लगा कि भाभी ने जानबूझ कर उसे इस तरह का पत्र लिखा था, जिस से वह मेरठ आ कर उन्हें कुछ दे जाए. भाभी शुरू की लालची जो ठहरीं, दूसरों पर खर्च करना इन्होंने कहां सीखा है.

मां ने खाना परोस दिया पर वर्षा के मुंह में यह सोच कर निवाला नहीं चल पाया कि बेचारा लव, पेट भर कहां खाता होगा.

ये भी पढ़ें- ‘स’ से सावधान रहें महिलाएं

मां समझाती रहीं, ‘‘तुम्हें ऐसी स्थिति में खूब खानापीना चाहिए. बच्चा अच्छा पैदा होगा तो सुधीर भी तुम्हें अधिक पसंद करेगा.’’

पिता और भैया भरत को लाड़प्यार करते रहे, भैया उसे स्कूटर पर बिठा कर दुकान पर ले गए. वहां से उसे टाफियां व फल दिलवा कर लाए.

मां और भाभी उस से सुधीर, भरत व ससुराल की ही बातें करती रहीं तो ऊब कर उस ने खुद ही लव की चर्चा छेड़ी, ‘‘लव कैसा पढ़ रहा है? कैसे नंबर आए?’’

‘‘ठीक है, अधिक पढ़ कर भी उसे क्या करना है. थोड़ा बड़ा होगा तो मामा के साथ, उस की दुकान पर काम करने लगेगा,’’ मां बोलीं.

वर्षा सोचने लगी, फिर तो लव पूरे घर के लिए मुफ्त का नौकर बन कर रह जाएगा. सभी लोग उस पर भांतिभांति के हुक्म चलाते रहेंगे.

सब ने भोजन कर लिया तो भाभी बरतन समेटने लगीं, पर लव के भूखे रहने का किसी को आभास तक नहीं रहा. तब वर्षा अपने साथ लाए फल व मिठाई तस्तरी में रख कर लव को देने चली गई.

लव अकेला पड़ा था. वर्षा का मन फिर से भीगने लगा. वह उस के नजदीक बैठ कर प्यार से उसे खिलाने लगी. फिर उठ कर चली तो लव ने उस की साड़ी का पल्लू थाम लिया और बोला, ‘‘कुछ देर और बैठो, मां.’’

वर्षा रुक कर उस के सिर पर हाथ फेरती रही. लव ने सुख का आभास कर के आंखें बंद कर लीं, पर भरत की पुकार पर वर्षा को नीचे आना पड़ा.

अगले दिन सुबह नाश्ते से निबट कर उस ने लव की चारपाई छत पर डाल दी और जाले साफ कर के कमरा रगड़रगड़ कर धोया, अगरबत्तियां जला कर बदबू दूर की फिर उस के मैले वस्त्रों को धो कर चमकाया. तत्पश्चात वह लव की मालिश करने बैठ गई.

मां कहती रहीं, ‘‘मैं कर दूंगी, तू फालतू की मेहनत क्यों कर रही है. इस कमरे में अकेला लव थोड़े ही सोता है, मैं भी तो सोती हूं.’’

मगर वर्षा के हाथ नहीं रुके, वह लव के सारे काम खुद ही निबटाती रही.

दोपहर ढलते ही अचानक ड्राइवर वर्षा व भरत को लेने आ पहुंचा तो सब को आश्चर्य हुआ. मां ने टोक दिया, ‘‘अभी 2 दिन कहां पूरे हुए हैं?’’

ड्राइवर बोला, ‘‘मुझे साहब ने दोनों को तुरंत लाने को कहा है. साहब भरत को बहुत प्यार करते हैं. भरत के बिना एक दिन भी नहीं रह सकते. इस के अलावा सब लोगों को एक शादी पर भी जाना है.’’

बेटी पराए घर की अमानत ठहरी सो मां भी कहां रोक सकती थीं. वह वर्षा की विदाई की तैयारी करने लगीं, पर सुधीर का न आना सब को खल रहा था.

पिताजी आर्द्र स्वर में कह उठे, ‘‘हम चाहे कितने भी गरीब सही पर दामाद का स्वागत करने में तो समर्थ हैं ही. विवाह के बाद दामाद एक बार भी हमारे घर नहीं आए.’’

‘‘मां, तुम लोग भी तो दिल्ली आया करो, आनाजाना तो दोनों तरफ से होता है.’’

‘‘ठीक है, हम भी आएंगे,’’ मां आंचल से आंखें पोंछती हुई बोलीं.

वर्षा ने भरत की नजर बचा कर 500 रुपए का एक नोट भाभी को थमा दिया और बोली, ‘‘भाभी, लव का इलाज अच्छी तरह से कराती रहना.’’

भाभी ने लपक कर नोट को अपने ब्लाउज में खोंस लिया और मुसकरा कर बोलीं, ‘‘लव की चिंता मत करो, दीदी, वह हमारा भी तो बेटा है.’’

आखिर में वर्षा ऊपर जा कर लव से मिल कर भारी मन से ससुराल के लिए विदा हुई. कार आंखों से ओझल होने तक घर के सभी लोग सड़क पर खड़े रहे.

वर्षा रास्ते भर सोचती रही कि उस ने साल भर तक मेरठ न आ कर लव के साथ सचमुच बहुत अन्याय किया है. अपनी जिम्मेदारियां दूसरों के गले मढ़ने से क्या लाभ, लव की देखभाल उसे खुद ही करनी चाहिए.

वह इस बारे में सुधीर से बात करने के लिए अपना मन तैयार करने लगी. सुधीर को न तो दौलत का अभाव है न वह कंजूस है. वह थोड़ी नानुकुर के बाद उस की बात अवश्य मान लेगा व लव को अपना लेगा. फिर तो कोई समस्या ही नहीं रहेगी.

सुधीर घर में बैठा उन दोनों की प्रतीक्षा कर रहा था. भरत कार से उतर कर पिता की तरफ दौड़ पड़ा. सुधीर ने उसे गोद में उठा लिया, ‘‘मेरा राजा बेटा आ गया.’’

‘‘हां, देखो पिताजी, मैं क्या लाया हूं?’’ भरत, ननिहाल में मिले खिलौने दिखाने लगा. मांजी ने चाय बना कर सब को प्याले थमा दिए. सब पीने बैठ गए.

मांजी व सुधीर भरत से मेरठ की बातें पूछने लगे, ‘‘तुम्हारे नानानानी, मामामामी सब कुशल तो हैं न?’’

भरत उत्साहित हो कर छोटीछोटी बातें भी बताने लगा, फिर एकाएक कह उठा, ‘‘वहां बहुत गंदा एक लड़का भी देखा. उस के दांत भी बहुत गंदे थे. उस ने ब्रश भी नहीं किया था.’’

‘‘बहू, यह किस के बारे में कह रहा है?’’ मांजी पूछ बैठीं तो वर्षा को लव के बारे में सबकुछ बताना पड़ा.

सुधीर सबकुछ सुनता रहा, पर उस ने एक शब्द भी लव के बारे में नहीं कहा. वर्षा को उस की यह चुप्पी नागवार गुजरी. वह उस से कुछ कहना ही चाहती थी कि मांजी ने टोक दिया, ‘‘बहू, बातें फिर कभी हो जाएंगी, इस वक्त शादी में चलने की तैयारी करो, नहीं तो देरी हो जाएगी.’’

मांजी के मायके में किसी रिश्तेदार की शादी थी. वर्षा ने भरत को तैयार किया, फिर खुद भी तैयार होने लगी. रास्ते भर खामोश रही पर वर्षा भी इतनी जल्दी हार मानने वाली नहीं थी, वह सुधीर से बात करने के पक्के मनसूबे बना चुकी थी.

आखिर एक दिन वर्षा को मौका मिल ही गया. मांजी भरत को ले कर पड़ोस में गई हुई थीं. वर्षा ने बात शुरू कर दी, ‘‘लव को भैयाभाभी के आश्रित बना कर अधिक दिनों तक वहां नहीं रखा जा सकता.’’

‘‘फिर वह कहां जाएगा?’’

‘‘उसे हम अपने साथ ही रख लें, तभी उचित रहेगा.’’

‘‘यह कैसे हो सकता है?’’ कहते हुए सुधीर के चेहरे पर कठोरता छा गई, ‘‘मैं ने तुम से शादी ही इस शर्त पर की थी कि…’’

‘‘मेरी बात समझने की कोशिश करो. जिस प्रकार भरत मेरा बेटा है उसी प्रकार लव भी तुम्हारा बेटा है. फिर उसे साथ रखने में कैसी आपत्ति,’’ वर्षा ने उस की बात काटते हुए कहा.

‘‘मैं तुम्हारे लव को अपना बेटा कैसे मान सकता हूं? सपोज करो, मैं ने उसे बेटा मान भी लिया तो भी क्या मैं उसे घर में रखने की इजाजत दे दूंगा? क्या मेरा भरत, लव को अपना सकेगा? मां अपना सकेंगी?’’

यह सुन कर वर्षा चुप बैठी सोचती रही.

सुधीर उसे समझाने के अंदाज में फिर बोला, ‘‘अपनी भावुकता पर नियंत्रण रखो वर्षा, लव को भूल जाने में ही तुम्हारी भलाई है. उसे उस के हाल पर ही छोड़ दो.’’

‘‘मैं मां हूं, सुधीर,’’ वर्षा सिसक पड़ी, ‘‘अपनी संतान को तिलतिल कर मरते हुए कैसे देख सकती हूं? लव अब पहले से आधा भी नहीं रह गया. वह न ढंग से खा पाता है न पढ़ पाता है. भैयाभाभी के साथ और अधिक रह लिया तो उस का भविष्य खराब हो जाएगा.’’

‘‘मैं इस मामले में कुछ नहीं कर सकता, वर्षा. किसी अन्य को घर में आश्रय दे कर मैं अपने भरत के रास्ते में कांटे नहीं बो सकता,’’ सुधीर ने दोटूक जवाब दे दिया.

वर्षा को चुप्पी लगानी पड़ गई, साथ ही उस के हृदय में बनी सुधीर की छवि भी बिगड़ती चली गई कि कितना महान समझा था उस ने सुधीर को, लेकिन वह तो मात्र पत्थर निकला.

अब दोनों के बीच में अदृश्य दीवार खड़ी हो गई. वर्षा मन ही मन कुढ़ती रहती. उस का मन अब सुधीर से बोलने को भी नहीं होता था. वह उस के प्रश्नों का उत्तर हां या न में दे कर सामने से हट जाती व अपनी तरफ से कोई बात नहीं करती.

भरत भी उस की आंखों में चुभने लगा था. उस का मन विद्रोह कर बैठता, ‘जब सुधीर उस के लव को नहीं स्वीकारता तो वही क्यों भरत को छाती से लगाती रहे? पराए जाए अपने तो नहीं बन सकते, भरत से कौन सा उस का लहू का रिश्ता है? बड़ा हो कर भरत भी उसे आंखें दिखाने लगेगा. फिर वह उसे अपना क्यों समझे?’

दोनों के मध्य पनपता अवरोध मांजी की पैनी निगाहों से नहीं छिप सका. वह बारबार पूछने लगीं, ‘‘बहू, जब से तुम मायके से लौटी हो तुम ने हंसना बंद कर दिया है. यह उदासी तुम्हारे होने वाले बच्चे के लिए अच्छी नहीं.’’

वर्षा खुद को सामान्य दिखाने का प्रयास करती रहती पर मांजी संतुष्ट नहीं हो पाती थीं.

कभी वह कुरेदतीं, ‘‘सुधीर ने कुछ कहा है क्या? वह भी आजकल खामोश रहता है. तुम दोनों में कोई अनबन तो नहीं हो गई?’’

वर्षा ने उन्हें इस डर से सबकुछ नहीं बताया कि मांजी ही कौन सी उस की सगी हैं. जब सुधीर ही उस का दर्द नहीं समझा तो मांजी कैसे समझेंगी.

वह मांजी से भी दूर रह कर अंतर्मुखी बनने लगी. एक सुबह उठ कर मांजी ने घर में ऐलान किया कि वे हरिद्वार गंगा स्नान को जाएंगी. प्रौढ़ावस्था में उन्हें मोहमाया के बंधन तोड़ कर आत्मिक शांति पाने के प्रयास शुरू करने हैं. मांजी का यह कथन सभी को अटपटा लगा क्योंकि वे अब तक धर्म, कर्म तथा पंडेपुजारियों को पाखंड की संज्ञा देती आई थीं पर हरिद्वार जाने पर आपत्ति किसी ने नहीं दिखाई. सुधीर ने भी कह दिया, ‘‘इसी बहाने प्राकृतिक दृश्यों को देख कर तुम्हारा स्वास्थ्य उत्तम हो जाएगा.’’

मांजी कार में बैठ कर अकेली ही हरिद्वार रवाना हो गईं. इस के बाद तो हरिद्वार जाना उन का नियम सा बन गया. वह महीने में 2-4 चक्कर हरिद्वार के लगाने लगीं.

वर्षा यह सोच कर अब और अधिक क्षुब्ध रहने लगी कि कैसे मांबेटे हैं जिन्हें सिर्फ अपने शौैकसिंगार व स्वास्थ्य का ही खयाल है, किसी और की जरा सी भी चिंता नहीं है. कम से कम मांजी को तो लव के बारे में कुछ पूछना चाहिए था, पर मांजी भी स्वार्थी ठहरीं. एक दिन उस ने फिर से मेरठ जाने का निश्चय किया. सुधीर से छिपा कर कुछ रुपए भी पर्स में रख लिए, सोचा कि लव की दवाइयां खरीदने में काम आ जाएंगे.

थोड़ी नानुकुर के बाद सुधीर ने उसे मेरठ जाने की इजाजत दे दी पर ड्राइवर को खूब समझा दिया कि उसे आज ही वर्षा को साथ ले कर लौटना है.

भरत को इस बार सुधीर ने नहीं जाने दिया. बहला दिया कि मां रात तक तो वापस लौट ही आएगी. सुधीर के कठोर व्यवहार से आहत वर्षा, रास्ते भर आंसू पोंछती रही.

मां और भाभी उसे देखते ही स्वागत के लिए लपकीं, लेकिन वर्षा तो अपने लव को हृदय से लगाने को व्याकुल थी, इसलिए घर में घुसते ही उतावलेपन से सीढि़यों की तरफ दौड़ पड़ी. परंतु छत पर पहुंचते ही जैसे उसे काठ मार गया, क्योंकि लव का कमरा खाली था. उस का बिस्तर व कोई सामान भी दिखाई नहीं दे रहा था. वह चकित सी खड़ी सोचती रही, कहां गया लव?

उस के मन में सैकड़ों आशंकाएं तैर उठीं, कहीं लव को कुछ हो तो नहीं गया?

मां व भाभी दोनों, उस के पीछेपीछे सीढि़यां चढ़ कर ऊपर आ पहुंचीं. वर्षा उन की तरफ मुड़ी व बदहवासी में चिल्लाने लगी, ‘‘मां, बताओ मेरे लव को क्या हुआ? वह कहां चला गया? तुम ने मुझे उस के बारे में कभी पत्र में भी कुछ नहीं लिखा. क्या हुआ मेरे बेटे को…’’ वह रो पड़ी.

‘‘दीदी, हमारी भी तो सुनो,’’ भाभी उस के आंसू पोंछने लगीं.

‘‘क्या तुम्हारी सास ने कभी कुछ नहीं बताया?’’

‘‘नहीं, वह क्यों बताएंगी? उन्हें लव से क्या लेनादेना? कहां है लव…’’

‘‘तुम्हारी सास ने उसे उचित देखभाल के लिए अस्पताल में भर्ती करा दिया है. वह कई बार यहां आ चुकी हैं व लव के इलाज पर पानी की तरह पैसा बहा रही हैं.’’

वर्षा घोर आश्चर्य से जकड़ गई कि क्या ऐसा होना संभव है? पर मांजी को लव की बीमारी के बारे में कैसे पता लगा? कहीं उन्होंने छिप कर तो नहीं सुन लिया था?

ये भी पढ़ें- मत जाओ मां

वह उसी वक्त अस्पताल जाने के लिए उतावली हो उठी, पर मां ने जबरदस्ती उसे एक प्याला चाय पिला दी. फिर उस के साथ सभी लोग अस्पताल पहुंच गए.

लव साफसुथरे वस्त्र पहने स्वच्छ सफेद शैया पर लेटा हुआ था, मां को देखते ही उठने का प्रयास करने लगा. वर्षा ने उसे सहारा दे कर बिठाया व स्नेह से उस का मुंह चूमने लगी, ‘‘मेरा राजा बेटा, ठीक तो है न?’’

वह लव को पहले की अपेक्षा स्वस्थ देख कर संतुष्टि का आभास कर रही थी.

‘‘दादीमां नहीं आईं?’’ लव इधरउधर देख कर पूछ बैठा.

‘‘वह आएंगी, बेटे,’’ वर्षा उसे प्रसन्न देख कर खुशी से गद्गद हुई जा रही थी.

‘‘देखो, दादी मां ने मुझे कितने पैसे दिए हैं, खिलौने व मिठाइयां भी दिलवाई हैं,’’ लव सारा सामान दिखाने लगा.

कुछ वक्त लव के साथ बिता कर वर्षा अस्पताल से मायके लौट आई. फिर दिल्ली लौटी तो आते ही सास के पैर पकड़ कर कृतज्ञता के बोझ से दब कर रो पड़ी, ‘‘मांजी, आप महान हैं, हरिद्वार जाने के बहाने मेरे लव पर प्यार लुटाती रहीं…पराए लहू पर…’’

‘‘लव पराया कहां है, मेरा पोता है. जब तुम हमारी हो गईं तो लव भी तो अपना हुआ,’’ मांजी ने उसे उठा कर छाती से लगा लिया.

‘‘लेकिन सुधीर उस से नफरत करते हैं,’’ कह कर वर्षा चिंतित हो उठी, ‘‘वह सुनेंगे तो नाराज हो उठेंगे.’’

‘‘सुधीर ने लव को घर में रखने से ही तो इनकार किया है, उस का खर्च उठाने से तो नहीं? मैं लव को छात्रावास में रख कर पढ़ाऊंगी, उसे अच्छा इनसान बनाने में कोई कमी नहीं छोडूंगी.’’

वर्षा जानती थी कि सुधीर में मांजी का कोई भी आदेश टालने की हिम्मत नहीं है. उस का मन सुखसंतोष से भर उठा था कि अब उस का लव अनाथ नहीं रहा. उस के सिर पर मांजी की सबल छत्रछाया मौजूद है.

ये भी पढ़ें- वसंत आ गया

The post पराया लहू appeared first on Sarita Magazine.



from कहानी – Sarita Magazine https://ift.tt/2LujHzA

वर्षा के हाथों में थमा मायके से आया भाभी का पत्र हवा से फड़फड़ा रहा था. वह सोच रही थी न जाने कैसा होगा लव, भाभी उस की सही देखभाल भी कर पा रही होंगी या नहीं.

भाभी ने लिखा था कि लव जब छत पर बच्चों के साथ पतंग उड़ा रहा था, नीचे गिर गया. उस के पैर की हड्डी टूट गई, पर उस की हालत गंभीर नहीं है, जल्दी ठीक हो जाएगा. शरीर के अन्य हिस्सों पर भी मामूली चोटें आई थीं. हम उस का उचित इलाज करा रहे हैं.

‘‘मां, तुम रो रही हो?’’ भरत ने पुकारा तो वर्षा की तंद्रा भंग हुई. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. उस ने झटपट आंखें पोंछीं और भरत को गोद में बैठा कर मुसकराने का यत्न कर पूछने लगी, ‘‘स्कूल से कब आया, भरत?’’

‘‘कब का खड़ा हूं, पर तुम ने देखा ही नहीं. बहुत जोरों से भूख लगी है,’’ भरत ने कंधे पर टंगा किताबों का बोझा उतारते हुए कहा.

‘‘अभी खाना परोसती हूं,’’ कहती हुई वर्षा रसोईघर में गई. फौरन दालचावल गरम कर लाई और भरत को खाना परोस दिया.

‘‘मां, तुम भी खाओ न,’’ भरत ने आग्रह किया.

उस का आग्रह उचित भी था क्योंकि प्रतिदिन वर्षा उस के साथ ही भोजन करती थी, लेकिन आज वर्षा के मुंह में निवाला चल नहीं पा रहा था. बारबार आंखों में आंसू आ रहे थे. मन लव के आसपास ही दौड़ रहा था.

भरत शायद उस के मन के भाव समझ गया था सो खाना खातेखाते रुक कर बोला, ‘‘किस की चिट्ठी आई है?’’

‘‘किसी की नहीं, देखो, मैं खा रही हूं,’’ वर्षा बोली. वह घर में बखेड़ा खड़ा करना नहीं चाहती थी, सो होंठों पर नकली मुसकान ला कर बेमन से खाने लगी.

भरत संतुष्ट हो कर चुप हो गया, फिर वह खाना खा कर अपने कमरे में बिस्तर पर लेट गया.

वर्षा उस के सिरहाने बैठ कर थोड़ी देर उस का सिर सहलाती रही. फिर जब भरत ऊंघने लगा तो वह अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर पड़ गई, पर मन फिर से मायके की दहलीज पर जा पहुंचा. कैसा होगा लव? इस दुर्घटना के क्षणों में उस ने मां को अवश्य याद किया होगा, वह उसे याद कर के रोया भी बहुत होगा, इतने छोटे बच्चे मां से दूर रह भी कैसे सकते हैं? हो सकता है लव ने आदित्य को भी याद किया हो, आदित्य का कितना दुलारा था लव. वह दफ्तर से आते ही लव को गोद में ले कर बैठ जाते, उस के लिए भांतिभांति के बिस्कुट, टाफियां व खिलौने ले कर आते.

उस वक्त लव था भी कितना प्यारा, गोराचिट्टा, गोलमटोल. जो देखता प्यार किए बिना नहीं रह पाता. जब लव डेढ़ वर्ष का हुआ तो उस ने नन्हेनन्हे बच्चों की फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीता था. नन्हा सा दूल्हा बन कर कितना जंच रहा था लव.

यही सब सोच कर वर्षा की आंखों से फिर आंसू बहने लगे. रक्त कैंसर से आदित्य की मृत्यु न हुई होती तो उस का भरापूरा परिवार क्यों बिखरता. आदित्य जीवित होता तो उस का प्यारा लव इस तरह क्यों भटकता.

आदित्य को खो कर वर्षा 3 वर्ष के लव को सीने से चिपकाए मायके लौटी तो वहां उन दोनों मांबेटों को दिन बिताने कठिन हो गए. आदित्य के जीवित रहते जो भैयाभाभी उसे बारबार मायके आने को पत्र लिखते, वे ही एकाएक बेगाने बन गए. उन्हें उन दोनों का खर्च संभालना भारी लगा था.

तब दुखी हो कर पिता ने उस के पुनर्विवाह की कोशिशें शुरू कर दीं और एक अखबार में वैवाहिक विज्ञापन पढ़ कर सुधीर के घर वालों से पत्र व्यवहार शुरू किया तो सुधीर से उस का रिश्ता पक्का हो गया, पर सुधीर व उस के घर वालों की एक ही शर्त थी कि वे बच्चे को स्वीकार नहीं करेंगे. उन्हें सिर्फ बिना बच्चे की विधवा ही स्वीकार्य थी, जबकि सुधीर भी एक बेटे का बाप था. विधुर था और अपने बेटे की खातिर ही पुनर्विवाह कर रहा था, पर वह उस के बेटे का दर्द नहीं समझ पाया और उसे अस्वीकार कर दिया.

अपने जिगर के टुकड़े को मांबाप की गोद में छोड़ कर वर्षा, सुधीर से ब्याह कर ससुराल आ पहुंची थी, तब से सिर्फ पत्र ही लव की जानकारी पाने का साधन मात्र रह गए थे. पर उन पत्रों में यह भी लिखा होता कि वह अब हमेशा को लव को भूल कर अपने भविष्य को संवारे व सुधीर और भरत को किसी अभाव का आभास न होने दे. भरत को पूरी ममता दे.

मेरठ से आए हुए उसे पूरा वर्ष बीत गया, तब से एक बार भी वह मायके नहीं गई. सुधीर ने ही नहीं जाने दिया. हमेशा यही कहा कि अब मायके से कैसा मोह. घर में किसी वस्तु का अभाव है क्या. लेकिन अभाव तो वर्षा के मन में बसा था, वह एक दिन के लिए भी अपने लव को नहीं भूल पाती थी और अब भाभी के पत्र ने उस के मन की बेचैनी कई गुना बढ़ा दी थी. मन लव को बांहों में लेने और हृदय से लगाने को बेचैन हो उठा था.

सुधीर घर लौटा तो वर्षा खुद को रोक न पाई और कह उठी, ‘‘मैं 2 दिन के वास्ते मेरठ जाना चाहती हूं.’’

सुधीर ने वही रटारटाया उत्तर दे डाला, ‘‘क्या करोगी जा कर, वैसे भी आजकल तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं रहती, तीसरा महीना चल रहा है, वहां आराम कहां मिल पाएगा…’’

‘‘क्यों नहीं मिलेगा? भैयाभाभी क्या मुझे हल में जोतेंगे? मैं वहां पूरे दिन बिस्तर तोड़ने के अलावा और करूंगी भी क्या?’’ वर्षा जैसे विद्रोह पर उतर आई थी.

उस ने सास से भी जिद की, ‘‘बहुत दिन हो गए मुझे मायके वालों को देखे. दिल्ली से मेरठ का रास्ता ही कितना है. सिर्फ 2 घंटे का, फिर भी मैं साल भर से मायके नहीं जा पाई हूं और न कभी उन लोगों ने ही आने का साहस किया. फिर आनाजाना दोनों तरफ से होता है, एक तरफ से नहीं.’’

ये भी पढ़ें- खैरू की बलि

इस पर सास ने जाने की इजाजत  यह कहते हुए दे दी कि इस का मायके आनाजाना भी जरूरी है.

वर्षा अटैची में कपड़े रखने लगी तो भरत भी जिद कर उठा, ‘‘मैं भी तुम्हारे साथ जाऊंगा, मां. तुम्हारे बिना कैसे मन लगेगा?’’

साल भर में ही भरत उस से काफी हिलमिल चुका था और उसे ही अपनी सगी मां समझने लगा था.

भरत को रोतेबिसूरते देख सास ने उसे भी साथ ले जाने को कह दिया, ‘‘क्या हुआ, यह भी कुछ दिन को घूम आएगा. बेचारे को असली ननिहाल तो कभी मिला ही नहीं, सौतेला ही सही.’’

वर्षा ने भरत के कपड़े भी रख लिए. भरत के कपड़ों की अटैची अलग से तैयार हो गई. भले ही 2 दिनों को जाना हो, भरत को कई जोड़ी कपड़ों की आवश्यकता पड़ती थी. वह बारबार कपड़े मैले कर लेता था.

दोनों कार में बैठ कर मेरठ चल पड़े. रास्ते भर भरत उस की गोद में बैठ कर भांतिभांति के प्रश्न पूछता रहा.

वर्षा मायके पहुंच देर तक मां, भाभी के गले से लिपटी रोती रही. भाभी बारबार पूछती रहीं, ‘‘ठीक तो हो, दीदी? सुधीर ने आदित्य का गम भुला दिया या नहीं? सुधीर का व्यवहार तो ठीक है न?’’

वर्षा के मन में अपने लव का गम समाया हुआ था. वह क्या उत्तर देती, जैसेतैसे चाय के घूंट गले से नीचे उतारती रही.

फिर भाभी खुद ही उसे लव के कमरे में ले गईं. नीचे जगह कम होने के कारण लव छत पर बने कमरे में रहता था.

मूंज की ढीली चारपाई पर सिकुड़ी हुई मैली दरी पर अपाहिज बना पड़ा था लव. पहली नजर में वर्षा उसे पहचान नहीं पाई, फिर लिपट कर रोने लगी, ‘‘यह क्या दशा हो गई लव की?’’

लव काला, सूखा, कंकाल जैसा लग रहा था, वह भी मां को कठिनाई से पहचान पाया. फिर आश्चर्य से वर्षा की कीमती साड़ी व आभूषणों को देखता रह गया.

‘‘तू ठीक तो है न, लव?’’ वर्षा ने स्नेह से उस के सिर पर हाथ फिराया, पर लव को उस से बात करते संकोच हो रहा था. वह नए वस्त्र व जूतेमोजे पहने, गोलमटोल भरत को भी घूर रहा था.

‘‘मां, यह कौन है?’’ भरत ने लव को देख कर नाकभौं सिकोड़ते हुए पूछा.

वर्षा कहना चाहती थी कि लव तुम्हारा भाई है, पर यह सोच कर शब्द उस के होंठों तक आतेआते रह गए, क्या भरत लव को भाई के रूप में स्वीकार कर पाएगा? नहीं, फिर लव को भाई बता कर उस के बालमन पर ठेस पहुंचाने से क्या लाभ?

तभी भरत अगला प्रश्न कर बैठा, ‘‘मां, यह कितना गंदा है, जैसे कई दिनों से नहाया ही न हो, चलो यहां से, नीचे चलते हैं.’’

भाभी भरत को बहलाने लगीं, ‘‘दीदी, तुम लव से बातें करो न?’’

वर्षा की निगाहें पूरे कमरे का अवलोकन कर रही थीं. कमरा काफी गंदा था. छतों तथा दीवारों पर मकडि़यों के बड़ेबड़े जाले और धूल की परतें जमी हुई थीं. उसे याद आया कि इस कमरे में तो घर का कबाड़ रखा जाता था.

भाभी जैसे उस के मन के भाव ताड़ गईं सो मजबूरी जताते हुई बोलीं, ‘‘दीदी, क्या करें, घर में कोई नौकर तो है नहीं, मांजी ने ही इस कमरे का सामान निकाल कर इस की सफाई की थी. वही लव की देखभाल करती हैं. मुझे तो रसोई से ही फुरसत नहीं मिल पाती, फिर छोटे बच्चे भी ठहरे…’’

‘‘ठीक कहती हो, भाभी,’’ कहती हुई वर्षा लव के सिरहाने बैठ गई, क्योंकि कमरे में कोई कुरसी नहीं थी और स्टूल पर दवाइयां व पीने का पानी रखा हुआ था.

‘‘लव, मुझे मां कहो न,’’ कहती हुई वर्षा उस के बालों में हाथ फेरने लगी.

‘‘मां,’’ बड़ी कठिनाई से लव कह सका, जैसे कोई अपराध कर रहा हो. तुम कहां चली गई थीं?’’

‘‘मैं…’’ वर्षा का स्वर गले में ही अटक गया. कैसे कहे कि उस ने पुनर्विवाह कर लिया. आदित्य की यादें मिटाने की खातिर वह सुधीर का दामन थाम चुकी है. फिर लव को वह सब पता भी तो नहीं है. जिस वक्त सुधीर से उस की शादी मंदिर में हुई थी, लव को घर में छिपा कर रखा गया था.

‘‘मां, मेरे लिए नए कपड़े नहीं लातीं?’’ एकाएक लव की आंखों में आकांक्षाओं की चमक तैर उठी.

वर्षा को याद आया, वह लव से यही कह कर घर से निकली थी कि वह उस के लिए नए कपड़े खरीदने बाजार जा रही है, फिर 1 वर्ष पश्चात आज ही लौट कर आई है. वर्षा की पलकें भीग उठीं कि कितनी पुरानी बात याद रखी है लव ने. वह उस के पुराने, घिसेफटे, कपड़े देखती रही, भाभी कहां नए कपड़े दिलवा पाती होंगीं?

‘‘मां, मेरे नए कपड़े दे दो न?’’ लव जिद करने लगा.

वर्षा के मन में आया कि वह भरत के नए कपड़े ला कर लव को पहना दे. नाप ठीक आएगा क्योंकि दोनों हैं भी एक आयु के पर वह ऐसा नहीं कर सकी. मन में डर की लहर सी उठी कि अगर भरत ने कपड़ों की बाबत सुधीर व मांजी को बता दिया तो?

तभी भाभी ने टोका, ‘‘चलो दीदी, पहले भोजन कर लो, बाद में ऊपर आ जाना.’’

वर्षा सीढि़यों की तरफ बढ़ गई. बीच में ही भाभी ने पूछना शुरूकर दिया, ‘‘दीदी, तुम लव के लिए कपड़े, खिलौने वगैरह कुछ ले कर नहीं आईं?’’

वर्षा उत्तर नहीं दे पाई तो भाभी के चेहरे पर रूखापन छा गया. वह कुछ कड़वेपन से कहने लगीं, ‘‘लव है तो तुम्हारी कोख जाया ही, तुम्हें उस का ध्यान रखना चाहिए. सुधीर की आमदनी भी तो कम नहीं है, घर में सभी कुछ मौजूद है. रुपए तुम्हारे हाथ में भी तो रहते होंगे?’’

वर्षा को लगा कि भाभी ने जानबूझ कर उसे इस तरह का पत्र लिखा था, जिस से वह मेरठ आ कर उन्हें कुछ दे जाए. भाभी शुरू की लालची जो ठहरीं, दूसरों पर खर्च करना इन्होंने कहां सीखा है.

मां ने खाना परोस दिया पर वर्षा के मुंह में यह सोच कर निवाला नहीं चल पाया कि बेचारा लव, पेट भर कहां खाता होगा.

ये भी पढ़ें- ‘स’ से सावधान रहें महिलाएं

मां समझाती रहीं, ‘‘तुम्हें ऐसी स्थिति में खूब खानापीना चाहिए. बच्चा अच्छा पैदा होगा तो सुधीर भी तुम्हें अधिक पसंद करेगा.’’

पिता और भैया भरत को लाड़प्यार करते रहे, भैया उसे स्कूटर पर बिठा कर दुकान पर ले गए. वहां से उसे टाफियां व फल दिलवा कर लाए.

मां और भाभी उस से सुधीर, भरत व ससुराल की ही बातें करती रहीं तो ऊब कर उस ने खुद ही लव की चर्चा छेड़ी, ‘‘लव कैसा पढ़ रहा है? कैसे नंबर आए?’’

‘‘ठीक है, अधिक पढ़ कर भी उसे क्या करना है. थोड़ा बड़ा होगा तो मामा के साथ, उस की दुकान पर काम करने लगेगा,’’ मां बोलीं.

वर्षा सोचने लगी, फिर तो लव पूरे घर के लिए मुफ्त का नौकर बन कर रह जाएगा. सभी लोग उस पर भांतिभांति के हुक्म चलाते रहेंगे.

सब ने भोजन कर लिया तो भाभी बरतन समेटने लगीं, पर लव के भूखे रहने का किसी को आभास तक नहीं रहा. तब वर्षा अपने साथ लाए फल व मिठाई तस्तरी में रख कर लव को देने चली गई.

लव अकेला पड़ा था. वर्षा का मन फिर से भीगने लगा. वह उस के नजदीक बैठ कर प्यार से उसे खिलाने लगी. फिर उठ कर चली तो लव ने उस की साड़ी का पल्लू थाम लिया और बोला, ‘‘कुछ देर और बैठो, मां.’’

वर्षा रुक कर उस के सिर पर हाथ फेरती रही. लव ने सुख का आभास कर के आंखें बंद कर लीं, पर भरत की पुकार पर वर्षा को नीचे आना पड़ा.

अगले दिन सुबह नाश्ते से निबट कर उस ने लव की चारपाई छत पर डाल दी और जाले साफ कर के कमरा रगड़रगड़ कर धोया, अगरबत्तियां जला कर बदबू दूर की फिर उस के मैले वस्त्रों को धो कर चमकाया. तत्पश्चात वह लव की मालिश करने बैठ गई.

मां कहती रहीं, ‘‘मैं कर दूंगी, तू फालतू की मेहनत क्यों कर रही है. इस कमरे में अकेला लव थोड़े ही सोता है, मैं भी तो सोती हूं.’’

मगर वर्षा के हाथ नहीं रुके, वह लव के सारे काम खुद ही निबटाती रही.

दोपहर ढलते ही अचानक ड्राइवर वर्षा व भरत को लेने आ पहुंचा तो सब को आश्चर्य हुआ. मां ने टोक दिया, ‘‘अभी 2 दिन कहां पूरे हुए हैं?’’

ड्राइवर बोला, ‘‘मुझे साहब ने दोनों को तुरंत लाने को कहा है. साहब भरत को बहुत प्यार करते हैं. भरत के बिना एक दिन भी नहीं रह सकते. इस के अलावा सब लोगों को एक शादी पर भी जाना है.’’

बेटी पराए घर की अमानत ठहरी सो मां भी कहां रोक सकती थीं. वह वर्षा की विदाई की तैयारी करने लगीं, पर सुधीर का न आना सब को खल रहा था.

पिताजी आर्द्र स्वर में कह उठे, ‘‘हम चाहे कितने भी गरीब सही पर दामाद का स्वागत करने में तो समर्थ हैं ही. विवाह के बाद दामाद एक बार भी हमारे घर नहीं आए.’’

‘‘मां, तुम लोग भी तो दिल्ली आया करो, आनाजाना तो दोनों तरफ से होता है.’’

‘‘ठीक है, हम भी आएंगे,’’ मां आंचल से आंखें पोंछती हुई बोलीं.

वर्षा ने भरत की नजर बचा कर 500 रुपए का एक नोट भाभी को थमा दिया और बोली, ‘‘भाभी, लव का इलाज अच्छी तरह से कराती रहना.’’

भाभी ने लपक कर नोट को अपने ब्लाउज में खोंस लिया और मुसकरा कर बोलीं, ‘‘लव की चिंता मत करो, दीदी, वह हमारा भी तो बेटा है.’’

आखिर में वर्षा ऊपर जा कर लव से मिल कर भारी मन से ससुराल के लिए विदा हुई. कार आंखों से ओझल होने तक घर के सभी लोग सड़क पर खड़े रहे.

वर्षा रास्ते भर सोचती रही कि उस ने साल भर तक मेरठ न आ कर लव के साथ सचमुच बहुत अन्याय किया है. अपनी जिम्मेदारियां दूसरों के गले मढ़ने से क्या लाभ, लव की देखभाल उसे खुद ही करनी चाहिए.

वह इस बारे में सुधीर से बात करने के लिए अपना मन तैयार करने लगी. सुधीर को न तो दौलत का अभाव है न वह कंजूस है. वह थोड़ी नानुकुर के बाद उस की बात अवश्य मान लेगा व लव को अपना लेगा. फिर तो कोई समस्या ही नहीं रहेगी.

सुधीर घर में बैठा उन दोनों की प्रतीक्षा कर रहा था. भरत कार से उतर कर पिता की तरफ दौड़ पड़ा. सुधीर ने उसे गोद में उठा लिया, ‘‘मेरा राजा बेटा आ गया.’’

‘‘हां, देखो पिताजी, मैं क्या लाया हूं?’’ भरत, ननिहाल में मिले खिलौने दिखाने लगा. मांजी ने चाय बना कर सब को प्याले थमा दिए. सब पीने बैठ गए.

मांजी व सुधीर भरत से मेरठ की बातें पूछने लगे, ‘‘तुम्हारे नानानानी, मामामामी सब कुशल तो हैं न?’’

भरत उत्साहित हो कर छोटीछोटी बातें भी बताने लगा, फिर एकाएक कह उठा, ‘‘वहां बहुत गंदा एक लड़का भी देखा. उस के दांत भी बहुत गंदे थे. उस ने ब्रश भी नहीं किया था.’’

‘‘बहू, यह किस के बारे में कह रहा है?’’ मांजी पूछ बैठीं तो वर्षा को लव के बारे में सबकुछ बताना पड़ा.

सुधीर सबकुछ सुनता रहा, पर उस ने एक शब्द भी लव के बारे में नहीं कहा. वर्षा को उस की यह चुप्पी नागवार गुजरी. वह उस से कुछ कहना ही चाहती थी कि मांजी ने टोक दिया, ‘‘बहू, बातें फिर कभी हो जाएंगी, इस वक्त शादी में चलने की तैयारी करो, नहीं तो देरी हो जाएगी.’’

मांजी के मायके में किसी रिश्तेदार की शादी थी. वर्षा ने भरत को तैयार किया, फिर खुद भी तैयार होने लगी. रास्ते भर खामोश रही पर वर्षा भी इतनी जल्दी हार मानने वाली नहीं थी, वह सुधीर से बात करने के पक्के मनसूबे बना चुकी थी.

आखिर एक दिन वर्षा को मौका मिल ही गया. मांजी भरत को ले कर पड़ोस में गई हुई थीं. वर्षा ने बात शुरू कर दी, ‘‘लव को भैयाभाभी के आश्रित बना कर अधिक दिनों तक वहां नहीं रखा जा सकता.’’

‘‘फिर वह कहां जाएगा?’’

‘‘उसे हम अपने साथ ही रख लें, तभी उचित रहेगा.’’

‘‘यह कैसे हो सकता है?’’ कहते हुए सुधीर के चेहरे पर कठोरता छा गई, ‘‘मैं ने तुम से शादी ही इस शर्त पर की थी कि…’’

‘‘मेरी बात समझने की कोशिश करो. जिस प्रकार भरत मेरा बेटा है उसी प्रकार लव भी तुम्हारा बेटा है. फिर उसे साथ रखने में कैसी आपत्ति,’’ वर्षा ने उस की बात काटते हुए कहा.

‘‘मैं तुम्हारे लव को अपना बेटा कैसे मान सकता हूं? सपोज करो, मैं ने उसे बेटा मान भी लिया तो भी क्या मैं उसे घर में रखने की इजाजत दे दूंगा? क्या मेरा भरत, लव को अपना सकेगा? मां अपना सकेंगी?’’

यह सुन कर वर्षा चुप बैठी सोचती रही.

सुधीर उसे समझाने के अंदाज में फिर बोला, ‘‘अपनी भावुकता पर नियंत्रण रखो वर्षा, लव को भूल जाने में ही तुम्हारी भलाई है. उसे उस के हाल पर ही छोड़ दो.’’

‘‘मैं मां हूं, सुधीर,’’ वर्षा सिसक पड़ी, ‘‘अपनी संतान को तिलतिल कर मरते हुए कैसे देख सकती हूं? लव अब पहले से आधा भी नहीं रह गया. वह न ढंग से खा पाता है न पढ़ पाता है. भैयाभाभी के साथ और अधिक रह लिया तो उस का भविष्य खराब हो जाएगा.’’

‘‘मैं इस मामले में कुछ नहीं कर सकता, वर्षा. किसी अन्य को घर में आश्रय दे कर मैं अपने भरत के रास्ते में कांटे नहीं बो सकता,’’ सुधीर ने दोटूक जवाब दे दिया.

वर्षा को चुप्पी लगानी पड़ गई, साथ ही उस के हृदय में बनी सुधीर की छवि भी बिगड़ती चली गई कि कितना महान समझा था उस ने सुधीर को, लेकिन वह तो मात्र पत्थर निकला.

अब दोनों के बीच में अदृश्य दीवार खड़ी हो गई. वर्षा मन ही मन कुढ़ती रहती. उस का मन अब सुधीर से बोलने को भी नहीं होता था. वह उस के प्रश्नों का उत्तर हां या न में दे कर सामने से हट जाती व अपनी तरफ से कोई बात नहीं करती.

भरत भी उस की आंखों में चुभने लगा था. उस का मन विद्रोह कर बैठता, ‘जब सुधीर उस के लव को नहीं स्वीकारता तो वही क्यों भरत को छाती से लगाती रहे? पराए जाए अपने तो नहीं बन सकते, भरत से कौन सा उस का लहू का रिश्ता है? बड़ा हो कर भरत भी उसे आंखें दिखाने लगेगा. फिर वह उसे अपना क्यों समझे?’

दोनों के मध्य पनपता अवरोध मांजी की पैनी निगाहों से नहीं छिप सका. वह बारबार पूछने लगीं, ‘‘बहू, जब से तुम मायके से लौटी हो तुम ने हंसना बंद कर दिया है. यह उदासी तुम्हारे होने वाले बच्चे के लिए अच्छी नहीं.’’

वर्षा खुद को सामान्य दिखाने का प्रयास करती रहती पर मांजी संतुष्ट नहीं हो पाती थीं.

कभी वह कुरेदतीं, ‘‘सुधीर ने कुछ कहा है क्या? वह भी आजकल खामोश रहता है. तुम दोनों में कोई अनबन तो नहीं हो गई?’’

वर्षा ने उन्हें इस डर से सबकुछ नहीं बताया कि मांजी ही कौन सी उस की सगी हैं. जब सुधीर ही उस का दर्द नहीं समझा तो मांजी कैसे समझेंगी.

वह मांजी से भी दूर रह कर अंतर्मुखी बनने लगी. एक सुबह उठ कर मांजी ने घर में ऐलान किया कि वे हरिद्वार गंगा स्नान को जाएंगी. प्रौढ़ावस्था में उन्हें मोहमाया के बंधन तोड़ कर आत्मिक शांति पाने के प्रयास शुरू करने हैं. मांजी का यह कथन सभी को अटपटा लगा क्योंकि वे अब तक धर्म, कर्म तथा पंडेपुजारियों को पाखंड की संज्ञा देती आई थीं पर हरिद्वार जाने पर आपत्ति किसी ने नहीं दिखाई. सुधीर ने भी कह दिया, ‘‘इसी बहाने प्राकृतिक दृश्यों को देख कर तुम्हारा स्वास्थ्य उत्तम हो जाएगा.’’

मांजी कार में बैठ कर अकेली ही हरिद्वार रवाना हो गईं. इस के बाद तो हरिद्वार जाना उन का नियम सा बन गया. वह महीने में 2-4 चक्कर हरिद्वार के लगाने लगीं.

वर्षा यह सोच कर अब और अधिक क्षुब्ध रहने लगी कि कैसे मांबेटे हैं जिन्हें सिर्फ अपने शौैकसिंगार व स्वास्थ्य का ही खयाल है, किसी और की जरा सी भी चिंता नहीं है. कम से कम मांजी को तो लव के बारे में कुछ पूछना चाहिए था, पर मांजी भी स्वार्थी ठहरीं. एक दिन उस ने फिर से मेरठ जाने का निश्चय किया. सुधीर से छिपा कर कुछ रुपए भी पर्स में रख लिए, सोचा कि लव की दवाइयां खरीदने में काम आ जाएंगे.

थोड़ी नानुकुर के बाद सुधीर ने उसे मेरठ जाने की इजाजत दे दी पर ड्राइवर को खूब समझा दिया कि उसे आज ही वर्षा को साथ ले कर लौटना है.

भरत को इस बार सुधीर ने नहीं जाने दिया. बहला दिया कि मां रात तक तो वापस लौट ही आएगी. सुधीर के कठोर व्यवहार से आहत वर्षा, रास्ते भर आंसू पोंछती रही.

मां और भाभी उसे देखते ही स्वागत के लिए लपकीं, लेकिन वर्षा तो अपने लव को हृदय से लगाने को व्याकुल थी, इसलिए घर में घुसते ही उतावलेपन से सीढि़यों की तरफ दौड़ पड़ी. परंतु छत पर पहुंचते ही जैसे उसे काठ मार गया, क्योंकि लव का कमरा खाली था. उस का बिस्तर व कोई सामान भी दिखाई नहीं दे रहा था. वह चकित सी खड़ी सोचती रही, कहां गया लव?

उस के मन में सैकड़ों आशंकाएं तैर उठीं, कहीं लव को कुछ हो तो नहीं गया?

मां व भाभी दोनों, उस के पीछेपीछे सीढि़यां चढ़ कर ऊपर आ पहुंचीं. वर्षा उन की तरफ मुड़ी व बदहवासी में चिल्लाने लगी, ‘‘मां, बताओ मेरे लव को क्या हुआ? वह कहां चला गया? तुम ने मुझे उस के बारे में कभी पत्र में भी कुछ नहीं लिखा. क्या हुआ मेरे बेटे को…’’ वह रो पड़ी.

‘‘दीदी, हमारी भी तो सुनो,’’ भाभी उस के आंसू पोंछने लगीं.

‘‘क्या तुम्हारी सास ने कभी कुछ नहीं बताया?’’

‘‘नहीं, वह क्यों बताएंगी? उन्हें लव से क्या लेनादेना? कहां है लव…’’

‘‘तुम्हारी सास ने उसे उचित देखभाल के लिए अस्पताल में भर्ती करा दिया है. वह कई बार यहां आ चुकी हैं व लव के इलाज पर पानी की तरह पैसा बहा रही हैं.’’

वर्षा घोर आश्चर्य से जकड़ गई कि क्या ऐसा होना संभव है? पर मांजी को लव की बीमारी के बारे में कैसे पता लगा? कहीं उन्होंने छिप कर तो नहीं सुन लिया था?

ये भी पढ़ें- मत जाओ मां

वह उसी वक्त अस्पताल जाने के लिए उतावली हो उठी, पर मां ने जबरदस्ती उसे एक प्याला चाय पिला दी. फिर उस के साथ सभी लोग अस्पताल पहुंच गए.

लव साफसुथरे वस्त्र पहने स्वच्छ सफेद शैया पर लेटा हुआ था, मां को देखते ही उठने का प्रयास करने लगा. वर्षा ने उसे सहारा दे कर बिठाया व स्नेह से उस का मुंह चूमने लगी, ‘‘मेरा राजा बेटा, ठीक तो है न?’’

वह लव को पहले की अपेक्षा स्वस्थ देख कर संतुष्टि का आभास कर रही थी.

‘‘दादीमां नहीं आईं?’’ लव इधरउधर देख कर पूछ बैठा.

‘‘वह आएंगी, बेटे,’’ वर्षा उसे प्रसन्न देख कर खुशी से गद्गद हुई जा रही थी.

‘‘देखो, दादी मां ने मुझे कितने पैसे दिए हैं, खिलौने व मिठाइयां भी दिलवाई हैं,’’ लव सारा सामान दिखाने लगा.

कुछ वक्त लव के साथ बिता कर वर्षा अस्पताल से मायके लौट आई. फिर दिल्ली लौटी तो आते ही सास के पैर पकड़ कर कृतज्ञता के बोझ से दब कर रो पड़ी, ‘‘मांजी, आप महान हैं, हरिद्वार जाने के बहाने मेरे लव पर प्यार लुटाती रहीं…पराए लहू पर…’’

‘‘लव पराया कहां है, मेरा पोता है. जब तुम हमारी हो गईं तो लव भी तो अपना हुआ,’’ मांजी ने उसे उठा कर छाती से लगा लिया.

‘‘लेकिन सुधीर उस से नफरत करते हैं,’’ कह कर वर्षा चिंतित हो उठी, ‘‘वह सुनेंगे तो नाराज हो उठेंगे.’’

‘‘सुधीर ने लव को घर में रखने से ही तो इनकार किया है, उस का खर्च उठाने से तो नहीं? मैं लव को छात्रावास में रख कर पढ़ाऊंगी, उसे अच्छा इनसान बनाने में कोई कमी नहीं छोडूंगी.’’

वर्षा जानती थी कि सुधीर में मांजी का कोई भी आदेश टालने की हिम्मत नहीं है. उस का मन सुखसंतोष से भर उठा था कि अब उस का लव अनाथ नहीं रहा. उस के सिर पर मांजी की सबल छत्रछाया मौजूद है.

ये भी पढ़ें- वसंत आ गया

The post पराया लहू appeared first on Sarita Magazine.

July 01, 2019 at 10:17AM

रिश्तों की डोर

भाग-1

खाना खातेखाते जतिन के हाथ रुक गए. बराबर वाले कमरे से मम्मी की आवाज आ रही थी, ‘‘क्या इसी दिन के लिए मैं ने इसे पालपोस कर बड़ा किया था कि एक दिन यह मुझे खून के आंसू रुलाएगा.’’

‘‘साहबजादे बड़े हो गए हैं न, इसलिए अपनी जिंदगी के फैसले स्वयं करेंगे. मांबाप की अब भला क्या जरूरत है?’’ यह पापा की आवाज थी.

जतिन ने हाथ में पकड़ा रोटी का कौर वापस प्लेट में रख दिया और पानी पी कर उठ गया.

‘‘क्या बात है, जतिन, खाना क्यों छोड़ दिया? और मम्मीपापा सुबहसुबह नाराज क्यों हो रहे हैं?’’ मैं ने चाय का कप टेबल पर रखा और जतिन के समीप चेयर पर बैठ गई. जतिन ने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया. चुपचाप अपना ब्रीफकेस उठाया और बैंक चल दिया. मैं हैरानी से उसे जाता देखती रही.

2 दिन पहले ही मैं अपनी ससुराल से मायके बी.एड. करने के लिए आई थी. जिस क्षण मैं ने घर की देहरी पर पांव रखा था उसी क्षण घर में पसरे तनाव को महसूस कर लिया था. यद्यपि हमेशा की भांति मम्मीपापा ने गले लगा कर मेरे माथे को चूमा था किंतु उन के माथे पर परेशानी की लकीरें मैं ने साफ महसूस की थीं.

उस समय तो घर पहुंचने के उत्साह में मैं ने इस बात को अनदेखा कर दिया था किंतु शाम होतेहोते जब जतिन घर आया तो उस का चेहरा देख कर मुझे लगा, मेरा अंदेशा गलत नहीं था. अवश्य ही घर में किसी बात को ले कर तनाव था. फिर आज सुबह की घटना, जतिन का भूखे आफिस जाना और मम्मीपापा का उसे कोसते रहना, ये सब बातें मेरे संदेह की पुष्टि कर रही थीं.

जतिन के जाते ही मैं मम्मी के पास गई और पूछा, ‘‘क्या बात है, मम्मी, उधर जतिन बिना खाना खाए बैंक चला गया और इधर आप को और पापा को गुस्सा आ रहा है. आखिर बात क्या है? कोई मुझे कुछ बताता क्यों नहीं?’’

‘‘अब तुम्हें क्या बताऊं? इस लड़के ने तो हमें कहीं का नहीं छोड़ा. तुम्हारे पापा ने इस के रिश्ते के लिए एक जगह बात चलाई है. लड़की और उस का परिवार दोनों अच्छे हैं. कल मैं ने इसे लड़की की फोटो दिखानी चाही तो बोला, ‘मैं ने अपने लिए लड़की ढूंढ़ रखी है.’ फोटो तक देखने से इनकार कर दिया. अब तुम्हीं बताओ, मुझे और तुम्हारे पापा को गुस्सा आएगा या नहीं?’’

मम्मी की बात पर मैं सहजता से मुसकरा दी, ‘‘इस में गुस्से वाली कौन सी बात है, मम्मी. अब जमाना बदल चुका है. अकसर लड़केलड़कियां अपने जीवनसाथी स्वयं चुन लेते हैं. जतिन ने भी ऐसा कर लिया तो कौन सी बड़ी बात हो गई.’’

‘‘बेकार की बातें मत कर, नीलू. समझा दे उसे. उस का विवाह वहीं होगा जहां हम चाहेंगे.’’

मैं ने एक गहरी सांस ली और अपने कमरे में आ गई.

शाम को जतिन के बैंक से वापस लौटने पर मैं ने उसे आड़े हाथों लिया, ‘‘क्या मैं अब इतनी पराई हो गई हूं कि तुम अब अपने मन की बात भी मुझ से नहीं कह सकते हो?’’

‘‘सच कहूं, दीदी, अभी रास्ते में यही सोचता आ रहा था कि आज तुम से सारी बात कहूंगा,’’ जतिन बोला.

‘‘अच्छा, अब बता कौन है वह लड़की जिसे तू पसंद करता है,’’ मैं ने उस के लिए चाय का कप टेबल पर रखा और उस के समीप बैठ गई.

‘‘दीदी, उस का नाम स्वाति है. मेरे साथ बैंक में काम करती है. बहुत अच्छी लड़की है पर मम्मीपापा ने उसे बिना देखे अस्वीकृत कर दिया.’’

‘‘जतिन, मम्मीपापा की बात का बुरा मत मानो. वे दोनों पुराने खयालों के हैं. हम दोनों मिल कर उन्हें मनाने का प्रयत्न करेंगे. अच्छा, पहले यह बताओ, मुझे स्वाति से कब मिलवा रहे हो?’’

‘‘दीदी, कल रविवार है. शाम 5 बजे स्वाति को मैं क्वालिटी रेस्तरां में बुला लेता हूं. वहीं पर मिल लेना.’’

अगले दिन 5 बजे मैं और जतिन क्वालिटी रेस्तरां पहुंचे. जब तक जतिन कौफी का आर्डर करता, एक गोरी- चिट्टी सुंदर सी लड़की हमारे करीब आ कर खड़ी हो गई. जतिन ने हमारा परस्पर परिचय कराया. स्वाति ने तुरंत झुक कर मेरे पांव छू लिए. कौफी पीते हुए मैं उस के परिवार से संबंधित हलकेफुलके प्रश्न पूछती रही जिन का वह सहज उत्तर देती रही.

मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम जानती ही होगी, मम्मीपापा तुम्हारे और जतिन के विवाह के लिए राजी नहीं हैं. ऐसे में जतिन, तुम्हें छोड़ कर उन की पसंद की लड़की से विवाह कर ले तो तुम क्या करोगी?’’

‘‘दीदी, यह तुम क्या…’’ जतिन ने मुझे टोकना चाहा किंतु मैं ने उसे खामोश रहने का संकेत किया और अपना प्रश्न दोहरा दिया.

स्वाति के चेहरे पर मुझे पीड़ा के भाव दिखाई दिए. वह धीमे स्वर में बोली, ‘‘मैं भला क्या कर सकती हूं?’’

‘‘कहीं आत्महत्या जैसा मूर्खतापूर्ण कदम तो नहीं उठाओगी?’’

‘‘नहीं दीदी, मैं इतनी कमजोर नहीं हूं. जिंदगी में संघर्ष करना अच्छी तरह जानती हूं. आत्महत्या कायरों का काम है. ऐसा कर के अपने मांबाप और भाई को जीतेजी नहीं मार सकती.’’

स्वाति का जवाब सुन कर मुझे अच्छा लगा. प्यार से उस के सिर पर हाथ फेर कर मैं बोली, ‘‘मुझे अपने भाई की पसंद पर गर्व है. मैं तुम दोनों को मिलाने का पूरा प्रयास करूंगी.’’

कौफी पी कर हम लोग उठ खड़े हुए. रास्ते में जतिन बोला, ‘‘दीदी, स्वाति आप को कैसी लगी?’’

‘‘बहुत सुंदर, बहुत समझदार. तुम्हारी शादी उसी से होनी चाहिए.’’

मेरा जवाब सुन कर जतिन के मन को कुछ राहत अवश्य मिली.

एक दिन मैं कालिज से वापस लौटी, तो स्वाति मेरे साथ थी. मम्मी से उसे मिलवाते हुए मैं ने कहा, ‘‘मम्मी, यह स्वाति है. राहुल की बूआ की लड़की. पिछले माह इस की हमारे शहर में नौकरी लगी है.’’

‘‘बेटी, तुम्हारे मातापिता कहां पर हैं?’’

‘‘मम्मीपापा तो दिल्ली में हैं. मैं यहां होस्टल में रहती हूं,’’ मेरे सिखाए हुए जवाब स्वाति ने मम्मी के आगे दोहरा दिए.

‘‘इसे अपना ही घर समझना. जब भी मन करे, आ जाना,’’ मम्मी ने चलते हुए स्वाति से कहा. उस के बाद स्वाति का हमारे घर आनाजाना शुरू हो गया. मम्मी से उस की खूब पटने लगी थी. 2-4 दिन भी वह नहीं आती तो मम्मी उस के बारे में पूछपूछ कर मुझे परेशान कर देती थीं.

ये भी पढ़ें- मुक्ति का बंधन

एक दिन लंच टाइम में स्वाति घर पर आई. मैं उस समय कालिज गई हुई थी. ज्यों ही वह गेट खोल कर अंदर घुसी उसे सीढि़यों पर से मम्मी के चीखने की आवाज सुनाई दी. वह तेजी से उस ओर लपकीं. देखा, मम्मी सीढि़यां उतरते हुए फिसल गई थीं. स्वाति ने उन्हें सहारा दे कर उठाया. मम्मी के बाएं हाथ में चोट आई थी. हाथ हिलाने में भी तकलीफ हो रही थी. स्वाति ने तुरंत टैक्सी की और उन्हें डाक्टर के पास ले गई. एक्सरे लेने के बाद डाक्टर ने हाथ पर कच्चा प्लास्टर चढ़ा दिया. शाम को हम सब मम्मी का हाथ देख घबरा गए.

ये भी पढ़ें- आदर्श जन्मस्थली

सारी बात बता कर मम्मी बोलीं, ‘‘स्वाति बहुत अच्छी लड़की है. उस ने जिस जिम्मेदारी के साथ मेरी देखभाल की, मुझे विश्वास है, वह घर बहुत भाग्यशाली होगा जहां वह बहू बन कर जाएगी.’’

मैं ने जतिन की तरफ मुसकरा कर देखा, बोली, ‘‘मम्मी, क्यों न हम अपने ही घर को भाग्यशाली बना डालें.’’

‘‘अरे, मेरे बस में होता तो कब का बना चुकी होती, परंतु इसे भी तो अक्ल आए न. पता नहीं कौन सी लड़की पसंद किए बैठा है,’’ मम्मी ने जतिन की तरफ गुस्से से देखा.

मैं ने मम्मी के गले में बांहें डाल कर कहा, ‘‘ओह, मम्मी, इतनी निराश क्यों होती हो? तुम्हारा लड़का बहुत अक्लमंद है. इस ने स्वाति को ही पसंद कर रखा है.’’

‘‘क्या मतलब?’’ मम्मी चौंक उठीं.

‘‘मतलब यह मम्मी कि स्वाति, राहुल की बूआ की लड़की नहीं है. यह वही लड़की है जिसे जतिन ने पसंद कर रखा है,’’ मैं ने मम्मी को शुरू से अंत तक सारी बातें बताईं और कहा, ‘‘आप ने और पापा ने तो बिना देखे ही लड़की रिजेक्ट कर दी थी. मेरे पास उसे

आप से मिलवाने का कोई और रास्ता न था.’’

अभी मैं ने अपनी बात पूरी की ही थी कि तभी पापा कमरे में आ गए.

‘‘सुना आप ने, नीलू कह रही है?’’ मम्मी अभी भी मेरी बात से अचंभित थीं.

‘‘मैं ने सब सुन लिया है. इस बारे में हम अब कल बात करेंगे.’’

पापा को शायद सोचने के लिए समय चाहिए था.

अगले दिन तक मैं और जतिन पसोपेश की स्थिति में रहे, पापा के जवाब पर ही हमारी सारी उम्मीदें टिकी थीं. रात को डाइनिंग टेबल पर पापा बोले, ‘‘जतिन, तुम्हें स्वाति पसंद है तो हमें कोई एतराज नहीं है. उसे अपने घर की बहू बना कर हमें भी खुशी होगी, परंतु लड़की वालों से बात करने हम नहीं जाएंगे. उन्हें हमारे घर आना होगा.’’

‘‘यह कोई बड़ी बात नहीं है, पापा. वही लोग आप से बात करने आ जाएंगे.’’

जतिन फोन की तरफ लपका. अवश्य ही वह स्वाति को यह खबर सुनाना चाहता होगा.

रविवार शाम को स्वाति के मम्मीपापा हमारे घर आए. चाय पीते हुए पापा बोले, ‘‘भई, हमें आप की बेटी बहुत पसंद है. हम इस रिश्ते के लिए तैयार हैं. आप सगाई की तारीख निकलवा लें.’’

‘‘देखिए भाई साहब, खुल कर बात करना अच्छा होता है. आप की कोई डिमांड तो नहीं है?’’ स्वाति की मम्मी ने पूछा.

‘‘डिमांड तो कोई नहीं है. हां, शादी बढि़या होनी चाहिए. यों भी आप लोगों में लड़की के विवाह में नकद रुपया तो चलता ही है.’’ स्वाति के पापा के चेहरे पर उलझन के भाव आए, ‘‘मैं आप का मतलब नहीं समझा.’’

‘‘मैं समझाता हूं. अगर जतिन और स्वाति एकदूसरे को प्रेम न करते तो आप लोग स्वाति के लिए अपनी ही बिरादरी में लड़का ढूंढ़ते. तब क्या आप को उस के विवाह में नकद रुपया नहीं देना पड़ता? जो रुपए आप तब देते, वही रुपए आप हमें अब दे दीजिए.’’

‘‘पापा, यह आप क्या कह रहे हैं?’’ जतिन हैरान सा हो उठा था. उसे पापा से यह उम्मीद नहीं थी. मम्मी ने उस की ओर आंखें तरेर कर देखा, ‘‘जतिन, बड़ों के बीच में तुम मत बोलो.’’

‘‘भाई साहब, आप स्पष्ट बता दें तो अच्छा रहेगा, कितना नकद रुपया आप चाहते हैं,’’ स्वाति के पापा ने पूछा.

‘‘अधिक नहीं, कम से कम 2 लाख तो आप को देना ही चाहिए,’’ पापा और मम्मी एकदूसरे की ओर देख कर मुसकराए.

जतिन का चेहरा क्रोध से लाल हो उठा था. वह उठ कर अंदर चला गया.

ये भी पढ़ें- खरीदी हुई दुलहन

-क्रमश

The post रिश्तों की डोर appeared first on Sarita Magazine.



from कहानी – Sarita Magazine https://ift.tt/2xpEGuM

भाग-1

खाना खातेखाते जतिन के हाथ रुक गए. बराबर वाले कमरे से मम्मी की आवाज आ रही थी, ‘‘क्या इसी दिन के लिए मैं ने इसे पालपोस कर बड़ा किया था कि एक दिन यह मुझे खून के आंसू रुलाएगा.’’

‘‘साहबजादे बड़े हो गए हैं न, इसलिए अपनी जिंदगी के फैसले स्वयं करेंगे. मांबाप की अब भला क्या जरूरत है?’’ यह पापा की आवाज थी.

जतिन ने हाथ में पकड़ा रोटी का कौर वापस प्लेट में रख दिया और पानी पी कर उठ गया.

‘‘क्या बात है, जतिन, खाना क्यों छोड़ दिया? और मम्मीपापा सुबहसुबह नाराज क्यों हो रहे हैं?’’ मैं ने चाय का कप टेबल पर रखा और जतिन के समीप चेयर पर बैठ गई. जतिन ने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया. चुपचाप अपना ब्रीफकेस उठाया और बैंक चल दिया. मैं हैरानी से उसे जाता देखती रही.

2 दिन पहले ही मैं अपनी ससुराल से मायके बी.एड. करने के लिए आई थी. जिस क्षण मैं ने घर की देहरी पर पांव रखा था उसी क्षण घर में पसरे तनाव को महसूस कर लिया था. यद्यपि हमेशा की भांति मम्मीपापा ने गले लगा कर मेरे माथे को चूमा था किंतु उन के माथे पर परेशानी की लकीरें मैं ने साफ महसूस की थीं.

उस समय तो घर पहुंचने के उत्साह में मैं ने इस बात को अनदेखा कर दिया था किंतु शाम होतेहोते जब जतिन घर आया तो उस का चेहरा देख कर मुझे लगा, मेरा अंदेशा गलत नहीं था. अवश्य ही घर में किसी बात को ले कर तनाव था. फिर आज सुबह की घटना, जतिन का भूखे आफिस जाना और मम्मीपापा का उसे कोसते रहना, ये सब बातें मेरे संदेह की पुष्टि कर रही थीं.

जतिन के जाते ही मैं मम्मी के पास गई और पूछा, ‘‘क्या बात है, मम्मी, उधर जतिन बिना खाना खाए बैंक चला गया और इधर आप को और पापा को गुस्सा आ रहा है. आखिर बात क्या है? कोई मुझे कुछ बताता क्यों नहीं?’’

‘‘अब तुम्हें क्या बताऊं? इस लड़के ने तो हमें कहीं का नहीं छोड़ा. तुम्हारे पापा ने इस के रिश्ते के लिए एक जगह बात चलाई है. लड़की और उस का परिवार दोनों अच्छे हैं. कल मैं ने इसे लड़की की फोटो दिखानी चाही तो बोला, ‘मैं ने अपने लिए लड़की ढूंढ़ रखी है.’ फोटो तक देखने से इनकार कर दिया. अब तुम्हीं बताओ, मुझे और तुम्हारे पापा को गुस्सा आएगा या नहीं?’’

मम्मी की बात पर मैं सहजता से मुसकरा दी, ‘‘इस में गुस्से वाली कौन सी बात है, मम्मी. अब जमाना बदल चुका है. अकसर लड़केलड़कियां अपने जीवनसाथी स्वयं चुन लेते हैं. जतिन ने भी ऐसा कर लिया तो कौन सी बड़ी बात हो गई.’’

‘‘बेकार की बातें मत कर, नीलू. समझा दे उसे. उस का विवाह वहीं होगा जहां हम चाहेंगे.’’

मैं ने एक गहरी सांस ली और अपने कमरे में आ गई.

शाम को जतिन के बैंक से वापस लौटने पर मैं ने उसे आड़े हाथों लिया, ‘‘क्या मैं अब इतनी पराई हो गई हूं कि तुम अब अपने मन की बात भी मुझ से नहीं कह सकते हो?’’

‘‘सच कहूं, दीदी, अभी रास्ते में यही सोचता आ रहा था कि आज तुम से सारी बात कहूंगा,’’ जतिन बोला.

‘‘अच्छा, अब बता कौन है वह लड़की जिसे तू पसंद करता है,’’ मैं ने उस के लिए चाय का कप टेबल पर रखा और उस के समीप बैठ गई.

‘‘दीदी, उस का नाम स्वाति है. मेरे साथ बैंक में काम करती है. बहुत अच्छी लड़की है पर मम्मीपापा ने उसे बिना देखे अस्वीकृत कर दिया.’’

‘‘जतिन, मम्मीपापा की बात का बुरा मत मानो. वे दोनों पुराने खयालों के हैं. हम दोनों मिल कर उन्हें मनाने का प्रयत्न करेंगे. अच्छा, पहले यह बताओ, मुझे स्वाति से कब मिलवा रहे हो?’’

‘‘दीदी, कल रविवार है. शाम 5 बजे स्वाति को मैं क्वालिटी रेस्तरां में बुला लेता हूं. वहीं पर मिल लेना.’’

अगले दिन 5 बजे मैं और जतिन क्वालिटी रेस्तरां पहुंचे. जब तक जतिन कौफी का आर्डर करता, एक गोरी- चिट्टी सुंदर सी लड़की हमारे करीब आ कर खड़ी हो गई. जतिन ने हमारा परस्पर परिचय कराया. स्वाति ने तुरंत झुक कर मेरे पांव छू लिए. कौफी पीते हुए मैं उस के परिवार से संबंधित हलकेफुलके प्रश्न पूछती रही जिन का वह सहज उत्तर देती रही.

मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम जानती ही होगी, मम्मीपापा तुम्हारे और जतिन के विवाह के लिए राजी नहीं हैं. ऐसे में जतिन, तुम्हें छोड़ कर उन की पसंद की लड़की से विवाह कर ले तो तुम क्या करोगी?’’

‘‘दीदी, यह तुम क्या…’’ जतिन ने मुझे टोकना चाहा किंतु मैं ने उसे खामोश रहने का संकेत किया और अपना प्रश्न दोहरा दिया.

स्वाति के चेहरे पर मुझे पीड़ा के भाव दिखाई दिए. वह धीमे स्वर में बोली, ‘‘मैं भला क्या कर सकती हूं?’’

‘‘कहीं आत्महत्या जैसा मूर्खतापूर्ण कदम तो नहीं उठाओगी?’’

‘‘नहीं दीदी, मैं इतनी कमजोर नहीं हूं. जिंदगी में संघर्ष करना अच्छी तरह जानती हूं. आत्महत्या कायरों का काम है. ऐसा कर के अपने मांबाप और भाई को जीतेजी नहीं मार सकती.’’

स्वाति का जवाब सुन कर मुझे अच्छा लगा. प्यार से उस के सिर पर हाथ फेर कर मैं बोली, ‘‘मुझे अपने भाई की पसंद पर गर्व है. मैं तुम दोनों को मिलाने का पूरा प्रयास करूंगी.’’

कौफी पी कर हम लोग उठ खड़े हुए. रास्ते में जतिन बोला, ‘‘दीदी, स्वाति आप को कैसी लगी?’’

‘‘बहुत सुंदर, बहुत समझदार. तुम्हारी शादी उसी से होनी चाहिए.’’

मेरा जवाब सुन कर जतिन के मन को कुछ राहत अवश्य मिली.

एक दिन मैं कालिज से वापस लौटी, तो स्वाति मेरे साथ थी. मम्मी से उसे मिलवाते हुए मैं ने कहा, ‘‘मम्मी, यह स्वाति है. राहुल की बूआ की लड़की. पिछले माह इस की हमारे शहर में नौकरी लगी है.’’

‘‘बेटी, तुम्हारे मातापिता कहां पर हैं?’’

‘‘मम्मीपापा तो दिल्ली में हैं. मैं यहां होस्टल में रहती हूं,’’ मेरे सिखाए हुए जवाब स्वाति ने मम्मी के आगे दोहरा दिए.

‘‘इसे अपना ही घर समझना. जब भी मन करे, आ जाना,’’ मम्मी ने चलते हुए स्वाति से कहा. उस के बाद स्वाति का हमारे घर आनाजाना शुरू हो गया. मम्मी से उस की खूब पटने लगी थी. 2-4 दिन भी वह नहीं आती तो मम्मी उस के बारे में पूछपूछ कर मुझे परेशान कर देती थीं.

ये भी पढ़ें- मुक्ति का बंधन

एक दिन लंच टाइम में स्वाति घर पर आई. मैं उस समय कालिज गई हुई थी. ज्यों ही वह गेट खोल कर अंदर घुसी उसे सीढि़यों पर से मम्मी के चीखने की आवाज सुनाई दी. वह तेजी से उस ओर लपकीं. देखा, मम्मी सीढि़यां उतरते हुए फिसल गई थीं. स्वाति ने उन्हें सहारा दे कर उठाया. मम्मी के बाएं हाथ में चोट आई थी. हाथ हिलाने में भी तकलीफ हो रही थी. स्वाति ने तुरंत टैक्सी की और उन्हें डाक्टर के पास ले गई. एक्सरे लेने के बाद डाक्टर ने हाथ पर कच्चा प्लास्टर चढ़ा दिया. शाम को हम सब मम्मी का हाथ देख घबरा गए.

ये भी पढ़ें- आदर्श जन्मस्थली

सारी बात बता कर मम्मी बोलीं, ‘‘स्वाति बहुत अच्छी लड़की है. उस ने जिस जिम्मेदारी के साथ मेरी देखभाल की, मुझे विश्वास है, वह घर बहुत भाग्यशाली होगा जहां वह बहू बन कर जाएगी.’’

मैं ने जतिन की तरफ मुसकरा कर देखा, बोली, ‘‘मम्मी, क्यों न हम अपने ही घर को भाग्यशाली बना डालें.’’

‘‘अरे, मेरे बस में होता तो कब का बना चुकी होती, परंतु इसे भी तो अक्ल आए न. पता नहीं कौन सी लड़की पसंद किए बैठा है,’’ मम्मी ने जतिन की तरफ गुस्से से देखा.

मैं ने मम्मी के गले में बांहें डाल कर कहा, ‘‘ओह, मम्मी, इतनी निराश क्यों होती हो? तुम्हारा लड़का बहुत अक्लमंद है. इस ने स्वाति को ही पसंद कर रखा है.’’

‘‘क्या मतलब?’’ मम्मी चौंक उठीं.

‘‘मतलब यह मम्मी कि स्वाति, राहुल की बूआ की लड़की नहीं है. यह वही लड़की है जिसे जतिन ने पसंद कर रखा है,’’ मैं ने मम्मी को शुरू से अंत तक सारी बातें बताईं और कहा, ‘‘आप ने और पापा ने तो बिना देखे ही लड़की रिजेक्ट कर दी थी. मेरे पास उसे

आप से मिलवाने का कोई और रास्ता न था.’’

अभी मैं ने अपनी बात पूरी की ही थी कि तभी पापा कमरे में आ गए.

‘‘सुना आप ने, नीलू कह रही है?’’ मम्मी अभी भी मेरी बात से अचंभित थीं.

‘‘मैं ने सब सुन लिया है. इस बारे में हम अब कल बात करेंगे.’’

पापा को शायद सोचने के लिए समय चाहिए था.

अगले दिन तक मैं और जतिन पसोपेश की स्थिति में रहे, पापा के जवाब पर ही हमारी सारी उम्मीदें टिकी थीं. रात को डाइनिंग टेबल पर पापा बोले, ‘‘जतिन, तुम्हें स्वाति पसंद है तो हमें कोई एतराज नहीं है. उसे अपने घर की बहू बना कर हमें भी खुशी होगी, परंतु लड़की वालों से बात करने हम नहीं जाएंगे. उन्हें हमारे घर आना होगा.’’

‘‘यह कोई बड़ी बात नहीं है, पापा. वही लोग आप से बात करने आ जाएंगे.’’

जतिन फोन की तरफ लपका. अवश्य ही वह स्वाति को यह खबर सुनाना चाहता होगा.

रविवार शाम को स्वाति के मम्मीपापा हमारे घर आए. चाय पीते हुए पापा बोले, ‘‘भई, हमें आप की बेटी बहुत पसंद है. हम इस रिश्ते के लिए तैयार हैं. आप सगाई की तारीख निकलवा लें.’’

‘‘देखिए भाई साहब, खुल कर बात करना अच्छा होता है. आप की कोई डिमांड तो नहीं है?’’ स्वाति की मम्मी ने पूछा.

‘‘डिमांड तो कोई नहीं है. हां, शादी बढि़या होनी चाहिए. यों भी आप लोगों में लड़की के विवाह में नकद रुपया तो चलता ही है.’’ स्वाति के पापा के चेहरे पर उलझन के भाव आए, ‘‘मैं आप का मतलब नहीं समझा.’’

‘‘मैं समझाता हूं. अगर जतिन और स्वाति एकदूसरे को प्रेम न करते तो आप लोग स्वाति के लिए अपनी ही बिरादरी में लड़का ढूंढ़ते. तब क्या आप को उस के विवाह में नकद रुपया नहीं देना पड़ता? जो रुपए आप तब देते, वही रुपए आप हमें अब दे दीजिए.’’

‘‘पापा, यह आप क्या कह रहे हैं?’’ जतिन हैरान सा हो उठा था. उसे पापा से यह उम्मीद नहीं थी. मम्मी ने उस की ओर आंखें तरेर कर देखा, ‘‘जतिन, बड़ों के बीच में तुम मत बोलो.’’

‘‘भाई साहब, आप स्पष्ट बता दें तो अच्छा रहेगा, कितना नकद रुपया आप चाहते हैं,’’ स्वाति के पापा ने पूछा.

‘‘अधिक नहीं, कम से कम 2 लाख तो आप को देना ही चाहिए,’’ पापा और मम्मी एकदूसरे की ओर देख कर मुसकराए.

जतिन का चेहरा क्रोध से लाल हो उठा था. वह उठ कर अंदर चला गया.

ये भी पढ़ें- खरीदी हुई दुलहन

-क्रमश

The post रिश्तों की डोर appeared first on Sarita Magazine.

July 01, 2019 at 10:16AM

मान मर्दन

अपर्णा को मानसी ने अपने भाई अविनाश के लिए पसंद किया था. शादी के बाद उस के ब्रेन ट्यूमर की खबर ने सब को चौंका दिया. परंतु सकुशल आपरेशन के पश्चात उस के स्वस्थ होने पर भी मानसी के मन में उस के प्रति नफरत का बीज पनपने लगा लेकिन अपर्णा ने कुछ ऐसा किया कि पत्थर दिल मानसी सहित पूरे परिवार का दिल जीत लिया…

कुत्ता जोरजोर से भौंक रहा था. बाहर गली में चौकीदार के जूतों की चपरचपर और लाठी की ठकठक की आवाज से स्पष्ट था कि अभी सुबह नहीं हुई थी.

एक नजर स्वप्निल पर डाली. गहरी नींद में भी उन के चेहरे पर पसीने की 2-4 बूंदें उभर आई थीं. पूरा दिन दौड़भाग करने के बाद रात 12 बजे तो लौटे थे. मुझ से तो किसी प्रकार की सहानुभूति या अपनत्व की अपेक्षा नहीं करते ये लोग. किंतु आज मेरे मन को एक पल के लिए भी चैन नहीं था. मां और अपर्णा का रुग्ण चेहरा बारबार मेरी आंखों के आगे घूम जाता था. क्या मनोस्थिति होगी पापा और भैया की? डाक्टरों ने बताया था कि यदि आज की रात निकल गई तो दोनों खतरे से बाहर होंगी, वरना…

मां परिवार की केंद्र हैं तो अपर्णा परिधि. यदि दोनों में से किसी को भी कुछ हो गया तो पूरा परिवार बिखर जाएगा. किस तरह जोड़ लिया था मां ने बहू को अपने साथ. बहू नहीं बेटी थी वह उस घर की. घर का कोई भी काम, कोई भी सलाह उस के बिना अधूरी थी.

लेकिन इतना सब देने के बाद मां को बदले में क्या मिला? तीमारदारी? मैं ने कई बार अपर्णा को तिरस्कृत करने के लिए मां से कहा भी था, ‘बहुएं दानदहेज के साथ डिगरियां लाती हैं लेकिन तुम्हारी बहू तो अपने साथ मेडिकल रिपोर्ट, एमआरआई और एक्सरे रिपोर्ट से भरी फाइलें लाई है.’

यह सुनते ही मां हंस देतीं, ‘संस्कारों की अनमोल धरोहर भी तो लाई है अपने साथ.’

मां कमरा छोड़ कर चली जातीं. जाहिर था, उन्हें अपर्णा के प्रति मेरे द्वारा कहे गए कठोर शब्दों से दुख पहुंचता था पर मैं भी क्या करती? मन था कि लाख प्रयासों के बाद भी नियंत्रित नहीं होता था.

सुबह के 5 बजे थे. कुछ देर पहले ही स्वप्निल अस्पताल के लिए निकल चुके थे. फोन की घंटी बज रही थी. कहीं कोई अप्रिय समाचार न हो? कांपते मन से फोन का चोंगा उठाया. पापा थे, बोले, ‘रुक्मिणी की तबीयत ठीक है लेकिन बहू की हालत चिंताजनक है.’

मन आत्मग्लानि से भर उठा. क्यों पापा और भैया के कहने पर मैं लौट आई? इस समय तो भैया और उन दोनों को सहानुभूति की आवश्यकता होगी. स्वप्निल भी तो बिना कुछ कहे चले गए. एक बार कहते तो मैं भी चली जाती उन के साथ. कुछ पल ठहर कर मैं कम से कम उन का मनोबल तो बढ़ा सकती थी. लेकिन उन्हें क्या पता, अपर्णा के प्रति मेरे मन में अब किसी प्रकार का मलाल नहीं.

ये भी पढ़ें- आलू वड़ा

अपर्णा से मेरा परिचय बोट्सवाना में हुआ था. उन दिनों मैं स्वप्निल के साथ एक ‘असाइनमेंट’ पर बोट्सवाना आई थी. चारों तरफ हरियाली, पेड़पौधे और वादियां और उन के बीच बसी वह छोटी सी कालोनी. कुल मिला कर वहां 10-12 ही घर थे और एक घर से दूसरे घर का फासला इतना कम था कि मौकेबेमौके आसानी से लोग एकदूसरे के यहां आतेजाते थे. यों तो अन्य परिवार भी थे वहां पर अपर्णा के परिवार से कुछ ही दिनों में हमारी अच्छी दोस्ती हो गई थी. उस के पिता स्वप्निल की कंपनी में ही वरिष्ठ पद पर थे. दूसरे, वह हमारी ही तरह ब्राह्मण थे और लखनऊ के मूल निवासी भी. रीतिरिवाज और बोलचाल में समानता होने की वजह से कुछ ही दिनों में हमारी दोस्ती घनिष्ठता में बदल गई और हम हर दिन मिलने लगे.

कभी घर पर, कभी क्लब में. बातचीत का सिलसिला इधर- उधर की बातों  से घूमता फिरता लखनऊ की नफासत नजा- कत, खानपान या फिर चौड़ीसंकरी गलियों से होता हुआ एकदूसरे के रीतिरिवाजों और तीजत्योहारों के मनाने के ढंग पर अटक जाता.

मुझे गोरी, लंबी, छरहरी, काली आंखों और घने बालों वाली अपर्णा का व्यक्तित्व हर समय आकर्षित करता था. वह जितनी सुंदर थी उतनी ही मेधावी भी. लगभग हर विषय पर अपने विचार खुल कर व्यक्त कर सकती थी. कालिज के बाद वह अकसर मेरे घर आ जाती और किसी न किसी विषय पर  बहस छेड़ देती.

अपर्णा की मां भी एक शिष्ट, व्यावहारिक और सुलझी हुई महिला थीं. 2 बहुओं की सास और 4 पोतेपोतियों की दादी होने के बाद भी उन के व्यवहार में बचपना ही झलकता था. उम्र में वह मुझ से काफी बड़ी थीं, फिर भी उन का सान्निध्य मुझे भला लगता था.

एक शाम मैं उन के घर गई तो मुझे ऐसा लगा जैसे वह मेरी ही बाट जोह रही हों. मुझे पास बिठा कर बोलीं, ‘मानसी, अपर्णा तेरी हर बात मानती है. तू ही इसे समझा. ब्याह की बात करो तो रोनाधोना शुरू हो जाता है इस का.’

‘मुझे ब्याह नहीं करना है,’ उस की आंखें सूजी हुई थीं. ऐसा लगा जैसे रो कर आई हो.

‘क्यों? ब्याह तो सभी लड़कियां करती हैं,’ जवानी की दहलीज पर खड़ी सुनहरे, रुपहले सपनों को देखने की उम्र में अपर्णा का वह वाक्य मुझे अचरज में डाल गया था.

‘कब तक बिठा कर रखूंगी तुझे? जब तक मांबाप हैं तब तक ठीक, उस के बाद भाईभौजाई नहीं पूछेंगे.’

‘मुझे किसी का सहारा नहीं चाहिए, पढ़ीलिखी हूं, नौकरी कर के अपनी देखभाल स्वयं कर लूंगी.’

‘औरत को जीने के लिए किसी का तो अवलंबन चाहिए. ब्याह, परिवार और बच्चे इन्हीं सब में उलझ कर तो स्त्री का जीवन सार्थक बनता है.’

‘और अगर ब्याह के बाद भी यही एकाकीपन हाथ आया तो?’ अपर्णा के शब्दों में छिपी निराशा देख मन विचलित हो उठा था. शायद हर दिन तलाक, टूटन और बिखराव की खबरें पढ़तेपढ़ते उस ने सफल, सुखद, वैवाहिक जीवन की उम्मीद ही छोड़ दी थी.

‘ऐसा कुछ नहीं होगा,’ मैं ने दृढ़ता से कहा तो वह मेरा चेहरा देखने लगी.

‘अपर्णा के लिए मेरी नजर में एक रिश्ता है. अगर आप चाहें तो…’

‘हांहां क्यों नहीं,’ अपर्णा की मां ने अति उत्साह से मेरी बात बीच में ही काट दी.

‘मैं अपने भाई अविनाश के लिए, अपर्णा का हाथ आप से मांग रही हूं. वहां आप की अपर्णा को बहू नहीं बेटी का प्यार मिलेगा.’

किसी विशेष परिचय के मुहताज नहीं थे अविनाश भैया. दिल्ली आईआईटी से इंजीनियरिंग करने के बाद उन्होंने लंदन से एम.बी.ए. किया था. भारत लौट कर जब से उन्होंने पापा की फैक्टरी संभाली, मेरे मन में भाभी की इच्छा प्रबल हो उठी थी. जब भी मां से भैया के ब्याह की बात करती तो वह हंस कर टाल जातीं.

‘पहले तुझे ब्याहेंगे, फिर बहू आएगी इस घर में.’

‘कुछ दिन मैं भी तो भाभी के  साथ हंसबोल लूं.’

‘दूर थोड़े ही भेजेंगे तुझे. इसी शहर में ब्याहेंगे. जब मरजी हो चली आना और भाभी के साथ रह कर हंसबोल लेना,’ मां ने कहा था.

धूमधाम से ब्याह दी गई थी मैं लखनऊ में ही. स्वप्निल साफ्टवेयर कंपनी में इंजीनियर थे. सासससुर, देवरानीजेठानी का परिवार था मेरा. मां से अकसर फोन पर बात होती रहती थी. मेरा जब जी चाहता, स्वप्निल मुझे मम्मीपापा से मिलवाने ले जाते. मां, मेरी पसंद के  पकवान पकातीं लाड़ जतातीं. भैया और पापा मेरे इर्दगिर्द ही घूमते रहते. मन खुशियों से भरा रहता था. लेकिन ज्यादा दिन नहीं चल पाया यह सब. 2 माह बाद ही स्वप्निल को बोट्सवाना का प्रोजेक्ट मिला और हम दोनों यहां चले आए.

ये भी पढ़ें- हैलमैट

अपर्णा की मां से स्वीकृति पाते ही मैं ने लखनऊ फोन मिला कर मां से बात की. अपर्णा के विषय में सारी जानकारी दे कर मैं ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा, ‘मां, लड़की स्वभाव से सुशील और सुंदर है और सब से बड़ी बात, एम.बी.ए. भी है. भैया और पापा को बिजनेस में भी मदद करेगी.’

‘विदेश में पलीबढ़ी लड़की हमारे यहां तारतम्य बिठा पाएगी? हमारे और वहां के रहनसहन और तौरतरीकों में बहुत अंतर है,’ मां को चिंता ने घेर लिया था.

‘आप नहीं जानतीं अपर्णा

का स्वभाव. वह बेहद सरल और सादगीपसंद है. हमारे परिवार के लिए सुशील बहू और भैया के लिए आदर्श पत्नी साबित होगी वह. उन के और हमारे परिवार के वातावरण में कोई अंतर थोड़े ही है.’

‘विवाह संबंधों में पूरे परिवार का लेखाजोखा लिया जाता है,’ मां ने कहा था.

‘भारद्वाज साहब हमारी कंपनी में मैनेजिंग डायरेक्टर हैं. पिछले 20 वर्षों से बोट्सवाना में हैं. अगले वर्ष रिटायर होने वाले हैं. 2 बेटे, 2 बहुएं, बच्चे सब लखनऊ में ही हैं. हजरतगंज के पास 500 गज की कोठी है.’

मां इस जानकारी से संतुष्ट हो गई थीं. कंप्यूटर के इस युग में फोटो का आदानप्रदान कुछ ही घंटों में हो गया था. शीघ्र ही संबंध को स्वीकृति दे दी गई. प्रोजेक्ट समाप्त होते ही मैं स्वप्निल के साथ लखनऊ पहुंच गई थी. मम्मीपापा का विश्वास देखते ही बनता था. बारबार कहते, हमारे घर लक्ष्मी आ रही है. एकएक दिन यहां पर सब के लिए एक युग के समान प्रतीत हो रहा था. आकांक्षाएं, उम्मीदें आसमान छू रही थीं. कब वह दिन आए और मम्मीपापा बहू का मुंह देखें.

भैया की जिज्ञासा उन की बातों से स्पष्ट थी. प्रत्यक्षत: कुछ नहीं पूछते थे पर जब भी अपर्णा का प्रसंग छिड़ता, उन की आंखों में चमक उभर आती. बारबार कहते, ‘जाओ, बाजार से खरीदारी कर के आओ.’

अपर्णा के गोरे रंग पर क्या फबेगा, यह सोच कर साडि़यां ली जातीं. हीरेमोती के सेट लेते हुए मुझे भी कीमती साड़ी व जड़ाऊ सेट पापा ने दिलवाया था.

ब्याह से ठीक एक माह पूर्व भारद्वाज परिवार ने लखनऊ पहुंचने की सूचना दी थी. हवाई अड्डे पहुंचने से पहले मां का फोन आया. बोलीं, ‘मैं, अपनी बहू को पहचानूंगी कैसे?’

‘हवाई जहाज से जो सब से सुंदर लड़की उतरेगी, समझ लेना वही तुम्हारी बहू है.’

अपर्णा और उस के परिवारजनों से मिल कर मां धन्य हो उठी थीं. ब्याह की काफी तैयारियां तो पहले ही हो चुकी थीं. रहीसही कसर अपर्णा के परिजनों से मिल कर पूरी हो गई.

घर लौट कर मैं ने भैया को टटोला था, ‘कैसी लगी हमारी अपर्णा?’

चेहरे पर गंभीरता का मुखौटा ओढ़ कर उन्होंने शांत भाव से सहमति प्रदान की तो हम सब संतुष्ट हो गए थे.

ब्याह धूमधाम से हुआ. भारद्वाज दंपती ने बरात का स्वागत और दानदहेज देने में कोई कसर नहीं रखी. हीरेमोती कुंदन के सैट, कलर टीवी, वाशिंग मशीन और इंपोर्टेड फर्नीचर दे कर उन्होंने पूरा घर भर दिया था. मम्मीपापा की साध पूरी हुई, मुझे प्यारी भाभी मिली और भैया को स्नेहमयी पत्नी.

ब्याह से अगले दिन नए जोड़े ने हनीमून के लिए गोवा प्रस्थान किया तो मां बिखरा घर समेटने में जुट गई थीं. मैं भी मां की सहायता के लिए कुछ दिन वहीं ठहर गई थी.

पूरा घर व्यवस्थित कर के मां निश्ंिचत हुईं तो दरवाजे की घंटी बजी. पापा घर पर ही थे. दरवाजा स्वप्निल ने ही खोला था. भैया दरवाजे पर थे. पीछे अपर्णा खड़ी थी.

नवब्याहता जोड़े को यों अचानक वापस आया देख कर सभी हैरान रह गए थे.

कहीं झगड़ा तो नहीं हो गया, यह सोच मां चिंतित हो उठी थीं.

अपर्णा कमरे में अपना बैग खोलने में व्यस्त हो गई और भैया हमारे पास ही टेबल पर बैठ गए. मां ने जिज्ञासा व्यक्त की, ‘यों अचानक कैसे लौट आए? तुम लोग तो 15 दिन बाद आने वाले थे.’

‘मां, अपर्णा की तबीयत अचानक खराब हो गई थी. सिरदर्द और उलटियां शुरू हो गईं, इसीलिए लौटना पड़ा.’

पहाड़ी क्षेत्रों में चढ़ाई उतरनेचढ़ने से अकसर उलटियां हो जाती हैं. यही सोच कर मां ने कहा, ‘तो किसी डाक्टर से मशविरा कर के दवा दिलवा देते.’

‘कहा था मैं ने, पर अपर्णा नहीं मानी. बोली घर चलना है,’ भैया अब भी चिंतित थे.

हमेशा हंसनेखिलखिलाने वाली अपर्णा का चेहरा बेहद फीका और बेजान सा दिखा था उस पल.

‘चलो, कोई बात नहीं. अगली बार किसी और जगह हो आना,’ कह कर मां ने मीटिंग बर्खास्त कर दी थी.

यों घर में काम करने के लिए नौकरचाकर थे पर चौके का काम मां ही संभालती थीं. अपर्णा ने अगले दिन से ही उन्हें इस कार्यभार से मुक्त कर दिया. सब की पसंद का भोजन पकाने और खिलाने में उसे विशिष्ट आनंद की अनुभूति होती थी. कोई भी काम, अपने हाथ में ले कर, जब तक दौड़भाग कर पूरी तन्मयता से संपूर्ण नहीं करती, उसे चैन नहीं मिलता था.

एक दिन मां अपर्णा को अपने पास बुला कर बोलीं, ‘तुम ने एम.बी.ए. किया है. यों घरगृहस्थी के कामों में उलझ कर तो तुम्हारी सारी शिक्षा व्यर्थ चली जाएगी. तुम्हें घर से बाहर निकल कर कुछ करना चाहिए.’

‘पर घर का कामकाज…’ अपर्णा मां के इस अचानक आए प्रस्ताव से घबरा गई थी.

‘वह तो पहले भी होता था और आगे भी होता रहेगा. अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल करो, बेटी,’ मां की मुसकराहट और विश्वास उसे धीरे से सहला गया था.

अगले ही दिन पापा और भैया के साथ जा कर फैक्टरी का वित्तीय कार्यभार उस ने अपने जिम्मे ले लिया था.

पूरी तन्मयता के साथ काम करने लगी थी अपर्णा. परिणाम अच्छे घोषित हुए. मुनाफे में वृद्धि हुई. हर किसी की प्रशंसा की पात्र बनी अपर्णा कभीकभी खुशी के उन लम्हों में भी बेहद उदास हो जाती. उस की यों असमय चुप्पी का कारण कई बार हम ने जानने का प्रयास भी किया पर वह कभी किसी से कुछ कहती नहीं थी.

कुछ ही दिन बीते थे. उसे फिर से भयानक दर्द हुआ. इस बार दर्द की तीव्रता पहले से भी ज्यादा थी. चेहरा काला पड़ गया था. होंठ टेढ़े हो गए थे.

पापा और मां सोच रहे थे उस की यह दशा तनाव की वजह से है, पर मैं उस के स्वास्थ्य को ले कर बेहद चिंतित थी. कहीं ऐसा तो नहीं कि अपर्णा इस घर में खुश नहीं? अपर्णा का ब्याह मैं ने ही करवाया था. ‘अगर उसे किसी बात से परेशानी है तो उस का समाधान भी मैं ही करूंगी,’ मैं ने सोचा.

इसी निश्चय के साथ मैं उस के कमरे में चली गई. अपर्णा आरामकुरसी पर बैठी कुछ सोच रही थी. मैं ने पूछा, ‘अपर्णा, कहां खोई हो? कुछ कहोगी नहीं?’ मेरे अंदर समुद्रमंथन जैसी हलचल मची हुई थी.

वह आंखें नीचे किए फर्श को निहार रही थी.

‘तुम्हें सिरदर्द क्यों हो रहा है? किसी चीज की कमी है या तुम किसी बात से असंतुष्ट हो? मुझे बताओ, शायद मैं तुम्हारी मदद कर सकूं.’

अजगर की तरह पसरा सन्नाटा जैसे अंधियारे को लील रहा था. निराशा के पल में प्यार का स्नेहिल स्पर्श और आश्वासन पाते ही उस की आंखों में आंसू छलक उठे.

‘यह सिरदर्द नया नहीं पुराना है. मुझे बे्रन ट्यूमर है.’

‘क्या… ब्रेन ट्यूमर?’ मेरे पैरों के नीचे की जमीन ही खिसक गई थी.

‘चाची ये सब जानती थीं?’ मेरे अंतर्मन की पीड़ा पके फोडे़ सी लहकने लगी थी.

‘हां, उन दिनों मैं एम.बी.ए. फाइनल में थी, जब मुझे पहली बार सिरदर्द उठा. मां ने मुझे दर्द निवारक गोली दी और नियमित रूप से बादाम का दूध देने लगीं. सभी सोच रहे थे कि यह सिरदर्द कमजोरी और तनाव की वजह से है. आंखों का भी टेस्ट हुआ. सबकुछ सामान्य निकला. उस के बाद जब दर्द फिर हुआ तो पापा मुझे विशेषज्ञ के पास ले गए. वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मुझे ब्रेन ट्यूमर है, जिस का एकमात्र इलाज आपरेशन ही है. एक दिन पापा ने एक मशहूर डाक्टर से मेरे आपरेशन की बात की. अपाइंटमेंट भी ले लिया, पर मां नहीं मानी थीं. बोलीं, ‘ब्याह योग्य बेटी के दिमाग की चीड़फाड़ करवाएंगे? अपर्णा को कुछ हो गया तो रिश्ता करना मुश्किल हो जाएगा.’ इस पर पापाजी बोले थे, ‘तुम्हें इस के रिश्ते की चिंता है. मैं तो उस के स्वास्थ्य को ले कर परेशान हूं. इसे कुछ हो गया तो मैं जीतेजी मर जाऊंगा.’

अपर्णा की बीमारी के बारे में धीरेधीरे सब को पता चल गया.

पापा संज्ञाशून्य से हो गए थे. भैया गंभीरता का मुखौटा ओढ़े कभी पत्नी को निहारते और कभी हम सब को. अपनी जीवनसंगिनी को इस रूप में देख कर उन की आकांक्षाओं पर तुषारापात हुआ था. मां गश खा कर गिर पड़ी थीं.

भैया दौड़ कर डाक्टर को बुला लाए थे. पूरी जांच के बाद पता चला, उन्हें हलका हार्टअटैक हुआ है. अचानक रक्तचाप इतना बढ़ गया कि उन्हें तुरंत अस्पताल में भरती कराना पड़ा था.

जिस दिन उन्हें थोड़ा स्वास्थ्य लाभ हुआ मैं घर लौट आई थी. इतना रोई कि  शायद दीवारें भी पसीज गई होंगी.

मैं सोच रही थी कि कितने प्रसन्न और सुखी थे मेरे पीहर के लोग. मगर अब मेरे भाई का जीवन अंधकारमय हो गया है. अब तो पूरे परिवार का जीवन ही दुख से भर गया है. मूकदर्शिका सी बनी, परिवार की खुशियों को लुटते देख रही थी मैं. अपने भाई की खुशियों को आग में जलता देख कर कौन सी बहन का दिल रो नहीं पड़ेगा. अपर्णा के रोग का एक ही इलाज था आपरेशन. सफल हुआ तो ठीक, नहीं तो अपर्णा अपंग भी हो सकती है. फिर मेरे भैया उस अपंग पत्नी के साथ कैसे जीएंगे? उम्र भर अपर्णा की सेवा में ही जुटे रहेंगे. अब क्या मां के दिन हैं सेवा करने के? पर जो कुछ भी था उस सब के लिए मैं खुद को दोषी मान रही थी.

पहली बार मेरे मन के एक चोर कोने में विचार आया. यदि इस पूरे परिदृश्य से अपर्णा को ही हटा दिया जाए तो सब सही हो जाएगा. आजकल तो लोग बातबेबात तलाक ले लेते हैं और दूसरा ब्याह भी कर लेते हैं, अगर भैया भी ऐसा ही करें तो?

उस दिन मैं मां के कमरे में न जा कर सीधे भैया के कमरे में चली गई थी. भैया अकेले कमरे में बैठे गजलें सुन रहे थे. अपर्णा मां को जूस पिला रही थी. दोनों को अनदेखा कर के मैं भैया के पास जा कर तीखे स्वर में बोली, ‘क्या आप गलत गाड़ी में सिर्र्फ इसलिए सवार रहेंगे कि पहले आप गलती से उस पर चढ़ गए थे और अब सामान समेटने और नया टिकट कटवाने के झंझट से डर रहे हैं?’

भैया शायद मेरा आशय समझ नहीं पाए थे. मैं ने दोबारा कहा, ‘अब भी वक्त है. अपर्णा से तलाक ले लीजिए और दोबारा शादी कर लीजिए.’

कुछ देर तक चुप्पी छाई रही.

‘भैया, विश्वास कीजिए. अपर्णा की मां के छल को मैं समझ नहीं पाई, वरना वह कभी मेरी भाभी नहीं बनती.’

‘कारण जाने बिना तुम भी परिणाम तक पहुंच गईं,’ वह फीकी हंसी हंस दिए,  ‘अपर्णा बहुत अच्छी है. सच बात तो यह है कि वह ब्याह करना ही नहीं चाहती थी पर मां के आगे उस की चली नहीं.’

‘झूठ की बुनियाद पर क्या इमारत खड़ी हो सकती है?’ मेरा मन अब भी अशांत था.

‘झूठ उस ने नहीं, उस की मां ने बोला था, वैसे उन का निर्णय भी गलत  कहां था? हर मां की तरह उस की मां के मन में भी अपनी बेटी को सुखी गृहस्थ जीवन देने की कामना रही होगी. तुम्हारे ब्याह के समय भी मां कितनी चिंतित थीं.’

भैया पुन: बोले, ‘अपर्णा की मां की दशा भी कुछ वैसी ही रही होगी. मानसी, कितना अजीब है हमारे समाज का चलन. बेटी की इच्छाअनिच्छा जाने बिना ब्याह की चिंता शुरू हो जाती है. अधिकांश विवाह लड़की की अनुमति के बिना होते हैं. अपर्णा ने भी विरोध किया था पर उस की एक नहीं चली और अब अपर्णा मेरी पत्नी है. उस का हर सुखदुख मेरा है.’

मैं विस्मित सी अपने भाई का चेहरा निहारती रह गई.

उस दिन के बाद मैं ने उस चौखट पर कदम नहीं रखा. स्वप्निल ने कई बार समझाया, ‘रिश्ते, संयोगवश बनते हैं. तुम्हारे भैया का ब्याह अपर्णा के साथ ही होना लिखा था. इस संबंध में व्यर्थ की चिंता करने से क्या लाभ? जरा सोचो, यही बीमारी उसे ब्याह के बाद होती तब क्या करतीं? और फिर यह रोग, असाध्य नहीं है.’

मैं चिढ़ कर जवाब देती, ‘तब की बात और थी. देखभाल कर कोई मक्खी निगलता है क्या?’

मां अकसर फोन पर अपर्णा की तबीयत के विषय में बताती रहती थीं. एक दिन बोलीं, ‘कल अपर्णा फिर बेहोश हो गई थी. उस की तबीयत देख कर घबराहट होती है. डाक्टरों ने जल्द आपरेशन करवाने की सलाह दी है.’

‘भेज दो उसे मायके. जिस तरह उन लोगों ने हमारे साथ खेल खेला है तुम भी चालाकी से काम लो,’ क्रोध से मेरी कनपटियां बजने लगीं.

‘उन्होंने तो हवाई जहाज की टिकटें भेजी हैं पर अपर्णा खुद ही नहीं जाना चाहती. सच पूछो तो मेरा भी मोह पड़ गया है इस बच्ची में,’ मां ने कहा था.

‘तो, करती रहो सेवा.’

मां निरुत्तर हो जातीं. उन्हें कुछ कहने का मौका ही मैं कब देती थी.

मुझे बारबार मम्मीपापा और भैया पर क्रोध आ रहा था. इस नए युग में एक बीमार बहू के प्रति इतनी आत्मीयता और सहृदयता दिखाने की क्या जरूरत थी.

मेरे मनोभावों से बेखबर स्वप्निल ने मुझे आगाह किया, ‘मानसी, कल अपर्णा को अस्पताल में भरती किया जा रहा है. वैलूर से एक विशेषज्ञ सीमाराम अस्पताल आ रहे हैं. वह आपरेशन करेंगे.’

मैं ने एक बार भी पलट कर उस का हाल नहीं पूछा, बल्कि पीहर फोन ही नहीं किया. अपर्णा के प्रति मेरे मन में छिपा तिरस्कार स्वप्निल बखूबी पहचान रहे थे. एक दिन बुरी तरह झल्लाए मुझ पर, ‘हद होती है रूखे व्यवहार की. एक व्यक्ति जीवनमरण के बीच झूल रहा है और तुम्हारे विचार इतने ओछे हैं कि तुम उस का चेहरा भी देखना नहीं चाहतीं.’

स्वप्निल का मन रखने के लिए मैं एक बार अस्पताल हो आई थी. नाक में आक्सीजन, मुंह में नली, एक बांह में ग्लूकोज, दूसरी बांह में दवाओं की नलिकाएं लगी थीं. मां का सेवाभाव, पापा का दुलार और भैया की आत्मीयता देखते ही बनती थी. एक पल के लिए मुझे तरस भी आया पर अगले ही पल वह भाव घृणा में बदल गया, ‘कितना अच्छा हो अगर अपर्णा की आपरेशन टेबल पर ही मृत्यु हो जाए. कम से कम भैया को तो छुटकारा मिलेगा इस रोगिणी पत्नी से.’

पर कुदरत को कुछ और ही मंजूर था. कुछ ही दिनों में वह बिलकुल ठीक हो गई. अब वह भैया के साथ गाड़ी में बैठ कर दफ्तर भी जाने लगी थी. पापा अब वृद्ध हो गए थे. वह फैक्टरी कम ही जाते थे. भैया बाहर आर्डर लेने जाते तो अपर्णा घर और फैक्टरी अच्छी तरह संभाल लेती थी. मां को अब भी अस्वस्थता घेरे रहती. बहू से कई बार उन्होंने कहा भी कि एक बार बोट्सवाना घूम आओ पर वह हर बार यही कहती, ‘एक बार आप अच्छी तरह से ठीक हो जाएं, तभी जाऊंगी.’

एक सुबह वह मेरे घर आई. मेरी बिटिया को तेज बुखार था. डाक्टर ने टायफायड बताया था. मैं पूरी रात जाग कर उस के माथे पर बर्फ की पट्टियां रखती रही थी. एक ओर बिटिया की तबीयत को ले कर मैं बुरी तरह तनावग्रस्त थी, दूसरी ओर थकावट की वजह से बुरा हाल था मेरा. उस ने चौके में जा कर पूरा नाश्ता तैयार किया. फिर दोपहर की दालसब्जी तैयार कर के हमारे पास आ कर बैठी तो स्वप्निल दफ्तर की कुछ उलझनें ले कर बैठ गए. अपर्णा चुपचाप सुनती रही. फिर भैया के साथ मिल कर उस ने बहुत मशविरे दिए. उस के सुझावों से स्वप्निल को काफी लाभ हुआ था.

मां का स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता जा रहा था. बैठेबैठे सांस फूलने लगती, थकावट महसूस होती, छाती में दर्द उठता. मुझे ये खबरें स्वप्निल से मिलती रहती थीं. वह अकसर मम्मीपापा से मिलने मेरे घर जाया करते थे.

ये भी पढ़ें- चिराग नहीं बुझा

उस दिन रविवार था. स्वप्निल समय से पहले ही तैयार हो गए थे.

‘कहीं बाहर जा रहे हो?’ नाश्ते की प्लेट डाइनिंग टेबल पर रखते हुए मैं ने पूछा.

‘नहीं,’ उन्होंने रूखे स्वर में उत्तर दिया. फिर चौके में जा कर उन्होंने दूध गरम कर के थरमस में उडे़ला और 4 डबलरोटी के स्लाइस पर मक्खन लगा कर पैक करने लगे. मैं ने अपना प्रश्न फिर दोहराया, ‘कहीं जा रहे हो?’

‘हां, अस्पताल.’

‘क्यों, अब कौन बीमार है? कहीं अपर्णा, फिर तो अस्पताल नहीं चली गई?’ मेरे स्वर की कड़वाहट छिपी नहीं थी.

‘तुम, इतनी कठोर और अहंकारी हो, मैं नहीं जानता था.’

मैं अवाक् उन का चेहरा निहारने लगी.

‘कम से कम, इनसानियत के नाते ही मां का हाल पूछ लेतीं?’

‘क्या हुआ मां को?’ मैं बुरी तरह चौंक उठी थी.

‘2 दिन से अस्पताल में हैं.’

‘क्या तुम जानते थे?’

‘हां.’

‘तो फिर बताया क्यों नहीं?’

‘इसलिए क्योंकि तुम्हारे जैसी पत्थरदिल औरत कभी पसीज ही नहीं सकती. एक इनसान अगर बुरा है तो बुरा है, अच्छा तो वह हो ही नहीं सकता. एक ग्रंथि पाल ली तुम ने अपर्णा के विरुद्ध और इतनी दुश्मनी पाल ली कि मायके से नाता ही तोड़ लिया. कम से कम बूढ़े मातापिता की तो खबर ली होती. जानती हो, तुम्हारी मां का आपरेशन हुआ है और उन्हें खून की जरूरत थी. वह खून अपर्णा ने दिया है. अपर्णा की दशा चिंताजनक बता रहे हैं डाक्टर,’ इतना कह कर स्वप्निल बाहर निकल गए.

कितना गिरा हुआ समझ रही थी मैं खुद को उस पल? बीमार, कमजोर, पराए घर की बेटी, मां की सेवा करती रही, स्नेह बरसाती रही और मैं उन की अपनी बेटी बेखबर बैठी रही.

आज अपने खून का एक कतरा दे कर भी मां की जान बचा सकूं तो खुद को धन्य समझूं, यह सोचती हुई मैं अस्पताल पहुंची. बाहर कोरिडोर में भैया और पापा खड़े थे. स्वप्निल डाक्टरों से परामर्श कर रहे थे. मुझे देखते ही भैया फूटफूट कर रो पड़े.

‘मां कैसी हैं?’ मैं ने उन्हें धीरज बंधा कर आत्मीयता से पूछा.

‘खतरे से बाहर हैं.’

‘और अपर्णा?’ पहली बार मुझे अपर्णा के प्रति चिंतित देख कर सभी के चेहरों पर ताज्जुब मगर संतुष्टि के भाव मुखर हो उठे थे.

‘रक्तचाप गिर गया है बेहोश है,’ पापा अब भी चिंतित थे.

‘उसे क्यों खून देने दिया? ब्लड बैंक से ले लेते.’

‘कहा तो था पर अपर्णा नहीं मानी. बोली, जब उस का खून मैच कर रहा है तो ब्लड बैंक से खून ले कर बीमारियों का खतरा क्यों मोल लिया जाए?’ सभी सन्नाटे में थे. भैया निढाल से बैंच पर बैठे थे. मैं देख रही थी इन लोगों का अपर्णा के साथ बंधन अटूट है. वह वास्तव में इस घर की बहू नहीं बेटी है. मेरा मन उस के प्रति सहानुभूति से भर गया था….

बाहर किसी शोर से अचानक मेरे विचारों का सिलसिला टूटा. जल्दीजल्दी तैयार हो कर मैं अकेली ही अस्पताल पहुंची.

उसी समय डाक्टर ने बाहर आ कर  बताया, ‘‘अपर्णा स्वस्थ है. आप लोग उस से मिल सकते हैं.’’

सब के चेहरे पर संतुष्टि के भाव तिर आए थे. अगर अपर्णा को कुछ हो जाता तो कोई भी खुद को माफ नहीं कर पाता. सब से ज्यादा मैं खुद को दोषी समझती.

भाग कर मैं अपर्णा के बिस्तर पर पहुंच गई और उस के माथे पर चुंबनों की बौछार लगा दी. सभी अचरज से मुझे देख रहे थे. शायद किसी को भी विश्वास नहीं हो रहा था कि मेरे हृदय के इर्दगिर्द उगा खरपतवार यों एकाएक कैसे छंट गया. आंसुओं से विगलित तीव्र वेदना की धार मुख से निकली, ‘‘अपर्णा, तुम ने मां को जीवनदान दिया है.’’

‘‘नहीं दीदी, जीवनदान तो आप सब ने मुझे दिया है. मैं ने तो केवल अपना कर्तव्य निभाया है.’’

मेरी आंखों की कोर से ढुलके आंसू कब अपर्णा के आंसुओं से मिल गए, मैं नहीं जानती.

The post मान मर्दन appeared first on Sarita Magazine.



from कहानी – Sarita Magazine https://ift.tt/2Nyt4kq

अपर्णा को मानसी ने अपने भाई अविनाश के लिए पसंद किया था. शादी के बाद उस के ब्रेन ट्यूमर की खबर ने सब को चौंका दिया. परंतु सकुशल आपरेशन के पश्चात उस के स्वस्थ होने पर भी मानसी के मन में उस के प्रति नफरत का बीज पनपने लगा लेकिन अपर्णा ने कुछ ऐसा किया कि पत्थर दिल मानसी सहित पूरे परिवार का दिल जीत लिया…

कुत्ता जोरजोर से भौंक रहा था. बाहर गली में चौकीदार के जूतों की चपरचपर और लाठी की ठकठक की आवाज से स्पष्ट था कि अभी सुबह नहीं हुई थी.

एक नजर स्वप्निल पर डाली. गहरी नींद में भी उन के चेहरे पर पसीने की 2-4 बूंदें उभर आई थीं. पूरा दिन दौड़भाग करने के बाद रात 12 बजे तो लौटे थे. मुझ से तो किसी प्रकार की सहानुभूति या अपनत्व की अपेक्षा नहीं करते ये लोग. किंतु आज मेरे मन को एक पल के लिए भी चैन नहीं था. मां और अपर्णा का रुग्ण चेहरा बारबार मेरी आंखों के आगे घूम जाता था. क्या मनोस्थिति होगी पापा और भैया की? डाक्टरों ने बताया था कि यदि आज की रात निकल गई तो दोनों खतरे से बाहर होंगी, वरना…

मां परिवार की केंद्र हैं तो अपर्णा परिधि. यदि दोनों में से किसी को भी कुछ हो गया तो पूरा परिवार बिखर जाएगा. किस तरह जोड़ लिया था मां ने बहू को अपने साथ. बहू नहीं बेटी थी वह उस घर की. घर का कोई भी काम, कोई भी सलाह उस के बिना अधूरी थी.

लेकिन इतना सब देने के बाद मां को बदले में क्या मिला? तीमारदारी? मैं ने कई बार अपर्णा को तिरस्कृत करने के लिए मां से कहा भी था, ‘बहुएं दानदहेज के साथ डिगरियां लाती हैं लेकिन तुम्हारी बहू तो अपने साथ मेडिकल रिपोर्ट, एमआरआई और एक्सरे रिपोर्ट से भरी फाइलें लाई है.’

यह सुनते ही मां हंस देतीं, ‘संस्कारों की अनमोल धरोहर भी तो लाई है अपने साथ.’

मां कमरा छोड़ कर चली जातीं. जाहिर था, उन्हें अपर्णा के प्रति मेरे द्वारा कहे गए कठोर शब्दों से दुख पहुंचता था पर मैं भी क्या करती? मन था कि लाख प्रयासों के बाद भी नियंत्रित नहीं होता था.

सुबह के 5 बजे थे. कुछ देर पहले ही स्वप्निल अस्पताल के लिए निकल चुके थे. फोन की घंटी बज रही थी. कहीं कोई अप्रिय समाचार न हो? कांपते मन से फोन का चोंगा उठाया. पापा थे, बोले, ‘रुक्मिणी की तबीयत ठीक है लेकिन बहू की हालत चिंताजनक है.’

मन आत्मग्लानि से भर उठा. क्यों पापा और भैया के कहने पर मैं लौट आई? इस समय तो भैया और उन दोनों को सहानुभूति की आवश्यकता होगी. स्वप्निल भी तो बिना कुछ कहे चले गए. एक बार कहते तो मैं भी चली जाती उन के साथ. कुछ पल ठहर कर मैं कम से कम उन का मनोबल तो बढ़ा सकती थी. लेकिन उन्हें क्या पता, अपर्णा के प्रति मेरे मन में अब किसी प्रकार का मलाल नहीं.

ये भी पढ़ें- आलू वड़ा

अपर्णा से मेरा परिचय बोट्सवाना में हुआ था. उन दिनों मैं स्वप्निल के साथ एक ‘असाइनमेंट’ पर बोट्सवाना आई थी. चारों तरफ हरियाली, पेड़पौधे और वादियां और उन के बीच बसी वह छोटी सी कालोनी. कुल मिला कर वहां 10-12 ही घर थे और एक घर से दूसरे घर का फासला इतना कम था कि मौकेबेमौके आसानी से लोग एकदूसरे के यहां आतेजाते थे. यों तो अन्य परिवार भी थे वहां पर अपर्णा के परिवार से कुछ ही दिनों में हमारी अच्छी दोस्ती हो गई थी. उस के पिता स्वप्निल की कंपनी में ही वरिष्ठ पद पर थे. दूसरे, वह हमारी ही तरह ब्राह्मण थे और लखनऊ के मूल निवासी भी. रीतिरिवाज और बोलचाल में समानता होने की वजह से कुछ ही दिनों में हमारी दोस्ती घनिष्ठता में बदल गई और हम हर दिन मिलने लगे.

कभी घर पर, कभी क्लब में. बातचीत का सिलसिला इधर- उधर की बातों  से घूमता फिरता लखनऊ की नफासत नजा- कत, खानपान या फिर चौड़ीसंकरी गलियों से होता हुआ एकदूसरे के रीतिरिवाजों और तीजत्योहारों के मनाने के ढंग पर अटक जाता.

मुझे गोरी, लंबी, छरहरी, काली आंखों और घने बालों वाली अपर्णा का व्यक्तित्व हर समय आकर्षित करता था. वह जितनी सुंदर थी उतनी ही मेधावी भी. लगभग हर विषय पर अपने विचार खुल कर व्यक्त कर सकती थी. कालिज के बाद वह अकसर मेरे घर आ जाती और किसी न किसी विषय पर  बहस छेड़ देती.

अपर्णा की मां भी एक शिष्ट, व्यावहारिक और सुलझी हुई महिला थीं. 2 बहुओं की सास और 4 पोतेपोतियों की दादी होने के बाद भी उन के व्यवहार में बचपना ही झलकता था. उम्र में वह मुझ से काफी बड़ी थीं, फिर भी उन का सान्निध्य मुझे भला लगता था.

एक शाम मैं उन के घर गई तो मुझे ऐसा लगा जैसे वह मेरी ही बाट जोह रही हों. मुझे पास बिठा कर बोलीं, ‘मानसी, अपर्णा तेरी हर बात मानती है. तू ही इसे समझा. ब्याह की बात करो तो रोनाधोना शुरू हो जाता है इस का.’

‘मुझे ब्याह नहीं करना है,’ उस की आंखें सूजी हुई थीं. ऐसा लगा जैसे रो कर आई हो.

‘क्यों? ब्याह तो सभी लड़कियां करती हैं,’ जवानी की दहलीज पर खड़ी सुनहरे, रुपहले सपनों को देखने की उम्र में अपर्णा का वह वाक्य मुझे अचरज में डाल गया था.

‘कब तक बिठा कर रखूंगी तुझे? जब तक मांबाप हैं तब तक ठीक, उस के बाद भाईभौजाई नहीं पूछेंगे.’

‘मुझे किसी का सहारा नहीं चाहिए, पढ़ीलिखी हूं, नौकरी कर के अपनी देखभाल स्वयं कर लूंगी.’

‘औरत को जीने के लिए किसी का तो अवलंबन चाहिए. ब्याह, परिवार और बच्चे इन्हीं सब में उलझ कर तो स्त्री का जीवन सार्थक बनता है.’

‘और अगर ब्याह के बाद भी यही एकाकीपन हाथ आया तो?’ अपर्णा के शब्दों में छिपी निराशा देख मन विचलित हो उठा था. शायद हर दिन तलाक, टूटन और बिखराव की खबरें पढ़तेपढ़ते उस ने सफल, सुखद, वैवाहिक जीवन की उम्मीद ही छोड़ दी थी.

‘ऐसा कुछ नहीं होगा,’ मैं ने दृढ़ता से कहा तो वह मेरा चेहरा देखने लगी.

‘अपर्णा के लिए मेरी नजर में एक रिश्ता है. अगर आप चाहें तो…’

‘हांहां क्यों नहीं,’ अपर्णा की मां ने अति उत्साह से मेरी बात बीच में ही काट दी.

‘मैं अपने भाई अविनाश के लिए, अपर्णा का हाथ आप से मांग रही हूं. वहां आप की अपर्णा को बहू नहीं बेटी का प्यार मिलेगा.’

किसी विशेष परिचय के मुहताज नहीं थे अविनाश भैया. दिल्ली आईआईटी से इंजीनियरिंग करने के बाद उन्होंने लंदन से एम.बी.ए. किया था. भारत लौट कर जब से उन्होंने पापा की फैक्टरी संभाली, मेरे मन में भाभी की इच्छा प्रबल हो उठी थी. जब भी मां से भैया के ब्याह की बात करती तो वह हंस कर टाल जातीं.

‘पहले तुझे ब्याहेंगे, फिर बहू आएगी इस घर में.’

‘कुछ दिन मैं भी तो भाभी के  साथ हंसबोल लूं.’

‘दूर थोड़े ही भेजेंगे तुझे. इसी शहर में ब्याहेंगे. जब मरजी हो चली आना और भाभी के साथ रह कर हंसबोल लेना,’ मां ने कहा था.

धूमधाम से ब्याह दी गई थी मैं लखनऊ में ही. स्वप्निल साफ्टवेयर कंपनी में इंजीनियर थे. सासससुर, देवरानीजेठानी का परिवार था मेरा. मां से अकसर फोन पर बात होती रहती थी. मेरा जब जी चाहता, स्वप्निल मुझे मम्मीपापा से मिलवाने ले जाते. मां, मेरी पसंद के  पकवान पकातीं लाड़ जतातीं. भैया और पापा मेरे इर्दगिर्द ही घूमते रहते. मन खुशियों से भरा रहता था. लेकिन ज्यादा दिन नहीं चल पाया यह सब. 2 माह बाद ही स्वप्निल को बोट्सवाना का प्रोजेक्ट मिला और हम दोनों यहां चले आए.

ये भी पढ़ें- हैलमैट

अपर्णा की मां से स्वीकृति पाते ही मैं ने लखनऊ फोन मिला कर मां से बात की. अपर्णा के विषय में सारी जानकारी दे कर मैं ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा, ‘मां, लड़की स्वभाव से सुशील और सुंदर है और सब से बड़ी बात, एम.बी.ए. भी है. भैया और पापा को बिजनेस में भी मदद करेगी.’

‘विदेश में पलीबढ़ी लड़की हमारे यहां तारतम्य बिठा पाएगी? हमारे और वहां के रहनसहन और तौरतरीकों में बहुत अंतर है,’ मां को चिंता ने घेर लिया था.

‘आप नहीं जानतीं अपर्णा

का स्वभाव. वह बेहद सरल और सादगीपसंद है. हमारे परिवार के लिए सुशील बहू और भैया के लिए आदर्श पत्नी साबित होगी वह. उन के और हमारे परिवार के वातावरण में कोई अंतर थोड़े ही है.’

‘विवाह संबंधों में पूरे परिवार का लेखाजोखा लिया जाता है,’ मां ने कहा था.

‘भारद्वाज साहब हमारी कंपनी में मैनेजिंग डायरेक्टर हैं. पिछले 20 वर्षों से बोट्सवाना में हैं. अगले वर्ष रिटायर होने वाले हैं. 2 बेटे, 2 बहुएं, बच्चे सब लखनऊ में ही हैं. हजरतगंज के पास 500 गज की कोठी है.’

मां इस जानकारी से संतुष्ट हो गई थीं. कंप्यूटर के इस युग में फोटो का आदानप्रदान कुछ ही घंटों में हो गया था. शीघ्र ही संबंध को स्वीकृति दे दी गई. प्रोजेक्ट समाप्त होते ही मैं स्वप्निल के साथ लखनऊ पहुंच गई थी. मम्मीपापा का विश्वास देखते ही बनता था. बारबार कहते, हमारे घर लक्ष्मी आ रही है. एकएक दिन यहां पर सब के लिए एक युग के समान प्रतीत हो रहा था. आकांक्षाएं, उम्मीदें आसमान छू रही थीं. कब वह दिन आए और मम्मीपापा बहू का मुंह देखें.

भैया की जिज्ञासा उन की बातों से स्पष्ट थी. प्रत्यक्षत: कुछ नहीं पूछते थे पर जब भी अपर्णा का प्रसंग छिड़ता, उन की आंखों में चमक उभर आती. बारबार कहते, ‘जाओ, बाजार से खरीदारी कर के आओ.’

अपर्णा के गोरे रंग पर क्या फबेगा, यह सोच कर साडि़यां ली जातीं. हीरेमोती के सेट लेते हुए मुझे भी कीमती साड़ी व जड़ाऊ सेट पापा ने दिलवाया था.

ब्याह से ठीक एक माह पूर्व भारद्वाज परिवार ने लखनऊ पहुंचने की सूचना दी थी. हवाई अड्डे पहुंचने से पहले मां का फोन आया. बोलीं, ‘मैं, अपनी बहू को पहचानूंगी कैसे?’

‘हवाई जहाज से जो सब से सुंदर लड़की उतरेगी, समझ लेना वही तुम्हारी बहू है.’

अपर्णा और उस के परिवारजनों से मिल कर मां धन्य हो उठी थीं. ब्याह की काफी तैयारियां तो पहले ही हो चुकी थीं. रहीसही कसर अपर्णा के परिजनों से मिल कर पूरी हो गई.

घर लौट कर मैं ने भैया को टटोला था, ‘कैसी लगी हमारी अपर्णा?’

चेहरे पर गंभीरता का मुखौटा ओढ़ कर उन्होंने शांत भाव से सहमति प्रदान की तो हम सब संतुष्ट हो गए थे.

ब्याह धूमधाम से हुआ. भारद्वाज दंपती ने बरात का स्वागत और दानदहेज देने में कोई कसर नहीं रखी. हीरेमोती कुंदन के सैट, कलर टीवी, वाशिंग मशीन और इंपोर्टेड फर्नीचर दे कर उन्होंने पूरा घर भर दिया था. मम्मीपापा की साध पूरी हुई, मुझे प्यारी भाभी मिली और भैया को स्नेहमयी पत्नी.

ब्याह से अगले दिन नए जोड़े ने हनीमून के लिए गोवा प्रस्थान किया तो मां बिखरा घर समेटने में जुट गई थीं. मैं भी मां की सहायता के लिए कुछ दिन वहीं ठहर गई थी.

पूरा घर व्यवस्थित कर के मां निश्ंिचत हुईं तो दरवाजे की घंटी बजी. पापा घर पर ही थे. दरवाजा स्वप्निल ने ही खोला था. भैया दरवाजे पर थे. पीछे अपर्णा खड़ी थी.

नवब्याहता जोड़े को यों अचानक वापस आया देख कर सभी हैरान रह गए थे.

कहीं झगड़ा तो नहीं हो गया, यह सोच मां चिंतित हो उठी थीं.

अपर्णा कमरे में अपना बैग खोलने में व्यस्त हो गई और भैया हमारे पास ही टेबल पर बैठ गए. मां ने जिज्ञासा व्यक्त की, ‘यों अचानक कैसे लौट आए? तुम लोग तो 15 दिन बाद आने वाले थे.’

‘मां, अपर्णा की तबीयत अचानक खराब हो गई थी. सिरदर्द और उलटियां शुरू हो गईं, इसीलिए लौटना पड़ा.’

पहाड़ी क्षेत्रों में चढ़ाई उतरनेचढ़ने से अकसर उलटियां हो जाती हैं. यही सोच कर मां ने कहा, ‘तो किसी डाक्टर से मशविरा कर के दवा दिलवा देते.’

‘कहा था मैं ने, पर अपर्णा नहीं मानी. बोली घर चलना है,’ भैया अब भी चिंतित थे.

हमेशा हंसनेखिलखिलाने वाली अपर्णा का चेहरा बेहद फीका और बेजान सा दिखा था उस पल.

‘चलो, कोई बात नहीं. अगली बार किसी और जगह हो आना,’ कह कर मां ने मीटिंग बर्खास्त कर दी थी.

यों घर में काम करने के लिए नौकरचाकर थे पर चौके का काम मां ही संभालती थीं. अपर्णा ने अगले दिन से ही उन्हें इस कार्यभार से मुक्त कर दिया. सब की पसंद का भोजन पकाने और खिलाने में उसे विशिष्ट आनंद की अनुभूति होती थी. कोई भी काम, अपने हाथ में ले कर, जब तक दौड़भाग कर पूरी तन्मयता से संपूर्ण नहीं करती, उसे चैन नहीं मिलता था.

एक दिन मां अपर्णा को अपने पास बुला कर बोलीं, ‘तुम ने एम.बी.ए. किया है. यों घरगृहस्थी के कामों में उलझ कर तो तुम्हारी सारी शिक्षा व्यर्थ चली जाएगी. तुम्हें घर से बाहर निकल कर कुछ करना चाहिए.’

‘पर घर का कामकाज…’ अपर्णा मां के इस अचानक आए प्रस्ताव से घबरा गई थी.

‘वह तो पहले भी होता था और आगे भी होता रहेगा. अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल करो, बेटी,’ मां की मुसकराहट और विश्वास उसे धीरे से सहला गया था.

अगले ही दिन पापा और भैया के साथ जा कर फैक्टरी का वित्तीय कार्यभार उस ने अपने जिम्मे ले लिया था.

पूरी तन्मयता के साथ काम करने लगी थी अपर्णा. परिणाम अच्छे घोषित हुए. मुनाफे में वृद्धि हुई. हर किसी की प्रशंसा की पात्र बनी अपर्णा कभीकभी खुशी के उन लम्हों में भी बेहद उदास हो जाती. उस की यों असमय चुप्पी का कारण कई बार हम ने जानने का प्रयास भी किया पर वह कभी किसी से कुछ कहती नहीं थी.

कुछ ही दिन बीते थे. उसे फिर से भयानक दर्द हुआ. इस बार दर्द की तीव्रता पहले से भी ज्यादा थी. चेहरा काला पड़ गया था. होंठ टेढ़े हो गए थे.

पापा और मां सोच रहे थे उस की यह दशा तनाव की वजह से है, पर मैं उस के स्वास्थ्य को ले कर बेहद चिंतित थी. कहीं ऐसा तो नहीं कि अपर्णा इस घर में खुश नहीं? अपर्णा का ब्याह मैं ने ही करवाया था. ‘अगर उसे किसी बात से परेशानी है तो उस का समाधान भी मैं ही करूंगी,’ मैं ने सोचा.

इसी निश्चय के साथ मैं उस के कमरे में चली गई. अपर्णा आरामकुरसी पर बैठी कुछ सोच रही थी. मैं ने पूछा, ‘अपर्णा, कहां खोई हो? कुछ कहोगी नहीं?’ मेरे अंदर समुद्रमंथन जैसी हलचल मची हुई थी.

वह आंखें नीचे किए फर्श को निहार रही थी.

‘तुम्हें सिरदर्द क्यों हो रहा है? किसी चीज की कमी है या तुम किसी बात से असंतुष्ट हो? मुझे बताओ, शायद मैं तुम्हारी मदद कर सकूं.’

अजगर की तरह पसरा सन्नाटा जैसे अंधियारे को लील रहा था. निराशा के पल में प्यार का स्नेहिल स्पर्श और आश्वासन पाते ही उस की आंखों में आंसू छलक उठे.

‘यह सिरदर्द नया नहीं पुराना है. मुझे बे्रन ट्यूमर है.’

‘क्या… ब्रेन ट्यूमर?’ मेरे पैरों के नीचे की जमीन ही खिसक गई थी.

‘चाची ये सब जानती थीं?’ मेरे अंतर्मन की पीड़ा पके फोडे़ सी लहकने लगी थी.

‘हां, उन दिनों मैं एम.बी.ए. फाइनल में थी, जब मुझे पहली बार सिरदर्द उठा. मां ने मुझे दर्द निवारक गोली दी और नियमित रूप से बादाम का दूध देने लगीं. सभी सोच रहे थे कि यह सिरदर्द कमजोरी और तनाव की वजह से है. आंखों का भी टेस्ट हुआ. सबकुछ सामान्य निकला. उस के बाद जब दर्द फिर हुआ तो पापा मुझे विशेषज्ञ के पास ले गए. वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मुझे ब्रेन ट्यूमर है, जिस का एकमात्र इलाज आपरेशन ही है. एक दिन पापा ने एक मशहूर डाक्टर से मेरे आपरेशन की बात की. अपाइंटमेंट भी ले लिया, पर मां नहीं मानी थीं. बोलीं, ‘ब्याह योग्य बेटी के दिमाग की चीड़फाड़ करवाएंगे? अपर्णा को कुछ हो गया तो रिश्ता करना मुश्किल हो जाएगा.’ इस पर पापाजी बोले थे, ‘तुम्हें इस के रिश्ते की चिंता है. मैं तो उस के स्वास्थ्य को ले कर परेशान हूं. इसे कुछ हो गया तो मैं जीतेजी मर जाऊंगा.’

अपर्णा की बीमारी के बारे में धीरेधीरे सब को पता चल गया.

पापा संज्ञाशून्य से हो गए थे. भैया गंभीरता का मुखौटा ओढ़े कभी पत्नी को निहारते और कभी हम सब को. अपनी जीवनसंगिनी को इस रूप में देख कर उन की आकांक्षाओं पर तुषारापात हुआ था. मां गश खा कर गिर पड़ी थीं.

भैया दौड़ कर डाक्टर को बुला लाए थे. पूरी जांच के बाद पता चला, उन्हें हलका हार्टअटैक हुआ है. अचानक रक्तचाप इतना बढ़ गया कि उन्हें तुरंत अस्पताल में भरती कराना पड़ा था.

जिस दिन उन्हें थोड़ा स्वास्थ्य लाभ हुआ मैं घर लौट आई थी. इतना रोई कि  शायद दीवारें भी पसीज गई होंगी.

मैं सोच रही थी कि कितने प्रसन्न और सुखी थे मेरे पीहर के लोग. मगर अब मेरे भाई का जीवन अंधकारमय हो गया है. अब तो पूरे परिवार का जीवन ही दुख से भर गया है. मूकदर्शिका सी बनी, परिवार की खुशियों को लुटते देख रही थी मैं. अपने भाई की खुशियों को आग में जलता देख कर कौन सी बहन का दिल रो नहीं पड़ेगा. अपर्णा के रोग का एक ही इलाज था आपरेशन. सफल हुआ तो ठीक, नहीं तो अपर्णा अपंग भी हो सकती है. फिर मेरे भैया उस अपंग पत्नी के साथ कैसे जीएंगे? उम्र भर अपर्णा की सेवा में ही जुटे रहेंगे. अब क्या मां के दिन हैं सेवा करने के? पर जो कुछ भी था उस सब के लिए मैं खुद को दोषी मान रही थी.

पहली बार मेरे मन के एक चोर कोने में विचार आया. यदि इस पूरे परिदृश्य से अपर्णा को ही हटा दिया जाए तो सब सही हो जाएगा. आजकल तो लोग बातबेबात तलाक ले लेते हैं और दूसरा ब्याह भी कर लेते हैं, अगर भैया भी ऐसा ही करें तो?

उस दिन मैं मां के कमरे में न जा कर सीधे भैया के कमरे में चली गई थी. भैया अकेले कमरे में बैठे गजलें सुन रहे थे. अपर्णा मां को जूस पिला रही थी. दोनों को अनदेखा कर के मैं भैया के पास जा कर तीखे स्वर में बोली, ‘क्या आप गलत गाड़ी में सिर्र्फ इसलिए सवार रहेंगे कि पहले आप गलती से उस पर चढ़ गए थे और अब सामान समेटने और नया टिकट कटवाने के झंझट से डर रहे हैं?’

भैया शायद मेरा आशय समझ नहीं पाए थे. मैं ने दोबारा कहा, ‘अब भी वक्त है. अपर्णा से तलाक ले लीजिए और दोबारा शादी कर लीजिए.’

कुछ देर तक चुप्पी छाई रही.

‘भैया, विश्वास कीजिए. अपर्णा की मां के छल को मैं समझ नहीं पाई, वरना वह कभी मेरी भाभी नहीं बनती.’

‘कारण जाने बिना तुम भी परिणाम तक पहुंच गईं,’ वह फीकी हंसी हंस दिए,  ‘अपर्णा बहुत अच्छी है. सच बात तो यह है कि वह ब्याह करना ही नहीं चाहती थी पर मां के आगे उस की चली नहीं.’

‘झूठ की बुनियाद पर क्या इमारत खड़ी हो सकती है?’ मेरा मन अब भी अशांत था.

‘झूठ उस ने नहीं, उस की मां ने बोला था, वैसे उन का निर्णय भी गलत  कहां था? हर मां की तरह उस की मां के मन में भी अपनी बेटी को सुखी गृहस्थ जीवन देने की कामना रही होगी. तुम्हारे ब्याह के समय भी मां कितनी चिंतित थीं.’

भैया पुन: बोले, ‘अपर्णा की मां की दशा भी कुछ वैसी ही रही होगी. मानसी, कितना अजीब है हमारे समाज का चलन. बेटी की इच्छाअनिच्छा जाने बिना ब्याह की चिंता शुरू हो जाती है. अधिकांश विवाह लड़की की अनुमति के बिना होते हैं. अपर्णा ने भी विरोध किया था पर उस की एक नहीं चली और अब अपर्णा मेरी पत्नी है. उस का हर सुखदुख मेरा है.’

मैं विस्मित सी अपने भाई का चेहरा निहारती रह गई.

उस दिन के बाद मैं ने उस चौखट पर कदम नहीं रखा. स्वप्निल ने कई बार समझाया, ‘रिश्ते, संयोगवश बनते हैं. तुम्हारे भैया का ब्याह अपर्णा के साथ ही होना लिखा था. इस संबंध में व्यर्थ की चिंता करने से क्या लाभ? जरा सोचो, यही बीमारी उसे ब्याह के बाद होती तब क्या करतीं? और फिर यह रोग, असाध्य नहीं है.’

मैं चिढ़ कर जवाब देती, ‘तब की बात और थी. देखभाल कर कोई मक्खी निगलता है क्या?’

मां अकसर फोन पर अपर्णा की तबीयत के विषय में बताती रहती थीं. एक दिन बोलीं, ‘कल अपर्णा फिर बेहोश हो गई थी. उस की तबीयत देख कर घबराहट होती है. डाक्टरों ने जल्द आपरेशन करवाने की सलाह दी है.’

‘भेज दो उसे मायके. जिस तरह उन लोगों ने हमारे साथ खेल खेला है तुम भी चालाकी से काम लो,’ क्रोध से मेरी कनपटियां बजने लगीं.

‘उन्होंने तो हवाई जहाज की टिकटें भेजी हैं पर अपर्णा खुद ही नहीं जाना चाहती. सच पूछो तो मेरा भी मोह पड़ गया है इस बच्ची में,’ मां ने कहा था.

‘तो, करती रहो सेवा.’

मां निरुत्तर हो जातीं. उन्हें कुछ कहने का मौका ही मैं कब देती थी.

मुझे बारबार मम्मीपापा और भैया पर क्रोध आ रहा था. इस नए युग में एक बीमार बहू के प्रति इतनी आत्मीयता और सहृदयता दिखाने की क्या जरूरत थी.

मेरे मनोभावों से बेखबर स्वप्निल ने मुझे आगाह किया, ‘मानसी, कल अपर्णा को अस्पताल में भरती किया जा रहा है. वैलूर से एक विशेषज्ञ सीमाराम अस्पताल आ रहे हैं. वह आपरेशन करेंगे.’

मैं ने एक बार भी पलट कर उस का हाल नहीं पूछा, बल्कि पीहर फोन ही नहीं किया. अपर्णा के प्रति मेरे मन में छिपा तिरस्कार स्वप्निल बखूबी पहचान रहे थे. एक दिन बुरी तरह झल्लाए मुझ पर, ‘हद होती है रूखे व्यवहार की. एक व्यक्ति जीवनमरण के बीच झूल रहा है और तुम्हारे विचार इतने ओछे हैं कि तुम उस का चेहरा भी देखना नहीं चाहतीं.’

स्वप्निल का मन रखने के लिए मैं एक बार अस्पताल हो आई थी. नाक में आक्सीजन, मुंह में नली, एक बांह में ग्लूकोज, दूसरी बांह में दवाओं की नलिकाएं लगी थीं. मां का सेवाभाव, पापा का दुलार और भैया की आत्मीयता देखते ही बनती थी. एक पल के लिए मुझे तरस भी आया पर अगले ही पल वह भाव घृणा में बदल गया, ‘कितना अच्छा हो अगर अपर्णा की आपरेशन टेबल पर ही मृत्यु हो जाए. कम से कम भैया को तो छुटकारा मिलेगा इस रोगिणी पत्नी से.’

पर कुदरत को कुछ और ही मंजूर था. कुछ ही दिनों में वह बिलकुल ठीक हो गई. अब वह भैया के साथ गाड़ी में बैठ कर दफ्तर भी जाने लगी थी. पापा अब वृद्ध हो गए थे. वह फैक्टरी कम ही जाते थे. भैया बाहर आर्डर लेने जाते तो अपर्णा घर और फैक्टरी अच्छी तरह संभाल लेती थी. मां को अब भी अस्वस्थता घेरे रहती. बहू से कई बार उन्होंने कहा भी कि एक बार बोट्सवाना घूम आओ पर वह हर बार यही कहती, ‘एक बार आप अच्छी तरह से ठीक हो जाएं, तभी जाऊंगी.’

एक सुबह वह मेरे घर आई. मेरी बिटिया को तेज बुखार था. डाक्टर ने टायफायड बताया था. मैं पूरी रात जाग कर उस के माथे पर बर्फ की पट्टियां रखती रही थी. एक ओर बिटिया की तबीयत को ले कर मैं बुरी तरह तनावग्रस्त थी, दूसरी ओर थकावट की वजह से बुरा हाल था मेरा. उस ने चौके में जा कर पूरा नाश्ता तैयार किया. फिर दोपहर की दालसब्जी तैयार कर के हमारे पास आ कर बैठी तो स्वप्निल दफ्तर की कुछ उलझनें ले कर बैठ गए. अपर्णा चुपचाप सुनती रही. फिर भैया के साथ मिल कर उस ने बहुत मशविरे दिए. उस के सुझावों से स्वप्निल को काफी लाभ हुआ था.

मां का स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता जा रहा था. बैठेबैठे सांस फूलने लगती, थकावट महसूस होती, छाती में दर्द उठता. मुझे ये खबरें स्वप्निल से मिलती रहती थीं. वह अकसर मम्मीपापा से मिलने मेरे घर जाया करते थे.

ये भी पढ़ें- चिराग नहीं बुझा

उस दिन रविवार था. स्वप्निल समय से पहले ही तैयार हो गए थे.

‘कहीं बाहर जा रहे हो?’ नाश्ते की प्लेट डाइनिंग टेबल पर रखते हुए मैं ने पूछा.

‘नहीं,’ उन्होंने रूखे स्वर में उत्तर दिया. फिर चौके में जा कर उन्होंने दूध गरम कर के थरमस में उडे़ला और 4 डबलरोटी के स्लाइस पर मक्खन लगा कर पैक करने लगे. मैं ने अपना प्रश्न फिर दोहराया, ‘कहीं जा रहे हो?’

‘हां, अस्पताल.’

‘क्यों, अब कौन बीमार है? कहीं अपर्णा, फिर तो अस्पताल नहीं चली गई?’ मेरे स्वर की कड़वाहट छिपी नहीं थी.

‘तुम, इतनी कठोर और अहंकारी हो, मैं नहीं जानता था.’

मैं अवाक् उन का चेहरा निहारने लगी.

‘कम से कम, इनसानियत के नाते ही मां का हाल पूछ लेतीं?’

‘क्या हुआ मां को?’ मैं बुरी तरह चौंक उठी थी.

‘2 दिन से अस्पताल में हैं.’

‘क्या तुम जानते थे?’

‘हां.’

‘तो फिर बताया क्यों नहीं?’

‘इसलिए क्योंकि तुम्हारे जैसी पत्थरदिल औरत कभी पसीज ही नहीं सकती. एक इनसान अगर बुरा है तो बुरा है, अच्छा तो वह हो ही नहीं सकता. एक ग्रंथि पाल ली तुम ने अपर्णा के विरुद्ध और इतनी दुश्मनी पाल ली कि मायके से नाता ही तोड़ लिया. कम से कम बूढ़े मातापिता की तो खबर ली होती. जानती हो, तुम्हारी मां का आपरेशन हुआ है और उन्हें खून की जरूरत थी. वह खून अपर्णा ने दिया है. अपर्णा की दशा चिंताजनक बता रहे हैं डाक्टर,’ इतना कह कर स्वप्निल बाहर निकल गए.

कितना गिरा हुआ समझ रही थी मैं खुद को उस पल? बीमार, कमजोर, पराए घर की बेटी, मां की सेवा करती रही, स्नेह बरसाती रही और मैं उन की अपनी बेटी बेखबर बैठी रही.

आज अपने खून का एक कतरा दे कर भी मां की जान बचा सकूं तो खुद को धन्य समझूं, यह सोचती हुई मैं अस्पताल पहुंची. बाहर कोरिडोर में भैया और पापा खड़े थे. स्वप्निल डाक्टरों से परामर्श कर रहे थे. मुझे देखते ही भैया फूटफूट कर रो पड़े.

‘मां कैसी हैं?’ मैं ने उन्हें धीरज बंधा कर आत्मीयता से पूछा.

‘खतरे से बाहर हैं.’

‘और अपर्णा?’ पहली बार मुझे अपर्णा के प्रति चिंतित देख कर सभी के चेहरों पर ताज्जुब मगर संतुष्टि के भाव मुखर हो उठे थे.

‘रक्तचाप गिर गया है बेहोश है,’ पापा अब भी चिंतित थे.

‘उसे क्यों खून देने दिया? ब्लड बैंक से ले लेते.’

‘कहा तो था पर अपर्णा नहीं मानी. बोली, जब उस का खून मैच कर रहा है तो ब्लड बैंक से खून ले कर बीमारियों का खतरा क्यों मोल लिया जाए?’ सभी सन्नाटे में थे. भैया निढाल से बैंच पर बैठे थे. मैं देख रही थी इन लोगों का अपर्णा के साथ बंधन अटूट है. वह वास्तव में इस घर की बहू नहीं बेटी है. मेरा मन उस के प्रति सहानुभूति से भर गया था….

बाहर किसी शोर से अचानक मेरे विचारों का सिलसिला टूटा. जल्दीजल्दी तैयार हो कर मैं अकेली ही अस्पताल पहुंची.

उसी समय डाक्टर ने बाहर आ कर  बताया, ‘‘अपर्णा स्वस्थ है. आप लोग उस से मिल सकते हैं.’’

सब के चेहरे पर संतुष्टि के भाव तिर आए थे. अगर अपर्णा को कुछ हो जाता तो कोई भी खुद को माफ नहीं कर पाता. सब से ज्यादा मैं खुद को दोषी समझती.

भाग कर मैं अपर्णा के बिस्तर पर पहुंच गई और उस के माथे पर चुंबनों की बौछार लगा दी. सभी अचरज से मुझे देख रहे थे. शायद किसी को भी विश्वास नहीं हो रहा था कि मेरे हृदय के इर्दगिर्द उगा खरपतवार यों एकाएक कैसे छंट गया. आंसुओं से विगलित तीव्र वेदना की धार मुख से निकली, ‘‘अपर्णा, तुम ने मां को जीवनदान दिया है.’’

‘‘नहीं दीदी, जीवनदान तो आप सब ने मुझे दिया है. मैं ने तो केवल अपना कर्तव्य निभाया है.’’

मेरी आंखों की कोर से ढुलके आंसू कब अपर्णा के आंसुओं से मिल गए, मैं नहीं जानती.

The post मान मर्दन appeared first on Sarita Magazine.

July 01, 2019 at 10:16AM