Monday 30 September 2019
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कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा कि एक पिता अपनी उस बेटी को भरण पोषण की राशि का भुगतान करने के लिए बाध्य नहीं है, जो ...
सरकारी नौकरी की तैयारी करने वालों के लिए बड़ी खबर, इन पदों पर निकली बंपर ...
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10वीं पास ऐसे करें मैकेनिकल इंजीनियरिंग, खुलेंगे सरकारी नौकरी के दरवाजे
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यूपी ट्रांसफर करने से नाराज होकर छोड़ी नौकरी, बन गया वाहन चोर, ऐसे करता ...
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इसके बाद उसने नौकरी छोड़ दी और फ्रीलांस सेल्स एग्जीक्यूटिव बन गया। वह अपने इस्तेमाल के लिए वाहन चोरी करता था ...
निशान: भाग 2
भाग 2
अब आगे पढ़ें
मां ने हड़बड़ाते हुए रसोई से आ कर राकेश की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो उस ने मन की भड़ास निकाल दी. 16 साल का राकेश मां से अपने पिता के व्यवहार की शिकायत कर रहा था और मां मौके की नजाकत भांप कर बेटे को समझा रही थीं.
‘‘बेटा, मैं तुम्हारे पापा से बात करूंगी कि इस बात का ध्यान रखें. वैसे बेटा, तुम यह तो समझते ही हो कि वे तुम से कितना प्यार करते हैं. तुम्हारी हर फरमाइश भी पूरी करते हैं. अब गुस्सा आता है तो वे खुद को रोक नहीं पाते. यही कमी है उन में कि जराजरा सी बात पर गुस्सा करना उन की आदत बन गई है. तुम उसे दिल पर मत लिया करो.’’
‘‘रहने दो मां, पापा को हमारी फिक्र कहां, कभी भी, कहीं भी हमारी बेइज्जती कर देते हैं. दोस्तों के सामने ही कुछ भी कह देते हैं. तब यह कौन देख रहा है कि वे हमें कितना प्यार करते हैं. लोग तो हमारा मजाक बनाते ही हैं.’’
राकेश अभी भी गुस्से से भनभना रहा था और उस की मां सरला माथा पकड़ कर बैठ गई थीं, ‘‘मैं क्या करूं, तुम लोग तो मुझे सुना कर चले जाते हो पर मैं किस से कहूं? तुम क्या जानो, अगर तुम्हारे पिता के पास कड़वे बोल न होते तो दुख किस बात का था. उन की जबान ने मेरे दिल पर जो घाव लगा रखे हैं वे अभी तक भरे नहीं और आज तुम लोग भी उस का निशाना बनने लगे हो. मैं तो पराई बेटी थी, उन का साथ निभाना था, सो सब झेल गई पर तुम तो हमारे बुढ़ापे की लाठी हो, तुम्हारा साथ छूट गया तो बुढ़ापा काटना मुश्किल हो जाएगा. काश, मैं उन्हें समझा सकती.’’
तभी परदे के पीछे सहमी खड़ी मासूमी धड़कते दिल से मां से पूछने लगी, ‘‘मां, क्या हुआ, भैया को गुस्सा क्यों आ रहा था?’’
‘‘नहीं बेटा, कोई बात नहीं, तुम्हारे पापा ने उसे डांट दिया था न, इसीलिए कुछ नाराज था.’’
‘‘मां, आप पापा से कुछ मत कहना. बेकार में झगड़ा शुरू हो जाएगा,’’ डर से पीली पड़ी मासूमी ने धीरे से कहा.
‘‘तू बैठ एक तरफ,’’ पहले से ही भरी बैठी सरला ने कहा, ‘‘उन से बात नहीं करूंगी तो जवान बेटों को भी गंवा बैठूंगी. क्या कर लेंगे? चीखेंगे, चिल्लाएंगे, ज्यादा से ज्यादा मार डालेंगे न, देखूंगी मैं भी, आज तो फैसला होने ही दे. उन्हें सुधरना ही पड़ेगा.’’
सरला जब से ब्याह कर आई थीं उन्होंने सुख महसूस नहीं किया था. वैसे तो घर में पैसे की कमी नहीं थी, न ही सुरेशजी का चरित्र खराब था. बस, कमी थी तो यही कि उन की जबान पर उन का नियंत्रण नहीं था. जराजरा सी बात पर टोकना और गुस्सा करना उन की सब से बड़ी कमी थी और इसी कमी ने सरला को मानसिक रूप से बीमार कर दिया था.
वे तो यह सब सहतेसहते थक चुकी थीं, अब बच्चे पिता की तानाशाही के शिकार होने लगे हैं. बच्चों को बाहर खेलने में देर हो जाती तो वहीं से गालियां देते और पीटते घर लाते, उन के पढ़ने के समय कोई मेहमान आ जाता तो सब को एक कमरे में बंद कर यह कहते हुए बाहर से ताला लगा देते, ‘‘हरामजादो, इधर ताकझांक कर के समय बरबाद किया तो टांगें तोड़ दूंगा. 1 घंटे बाद सब से सुनूंगा कि तुम लोगों ने क्या पढ़ा है? चुपचाप पढ़ाई में मन लगाओ.’’
उधर सरला उस डांट का असर कम करने के लिए बच्चों से नरम व्यवहार करतीं और कई बार उन की गलत मांगों को भी चुपचाप पूरा कर देती थीं. पर आज तो उन्होंने सोच रखा था कि वे सुरेशजी को समझा कर ही रहेंगी कि जब बाप का जूता बेटे के पैर में आने लगे तो उस से दोस्त जैसा व्यवहार करना चाहिए. वरना कल औलाद ने पलट कर जवाब दे दिया तो क्या इज्जत रह जाएगी. औलाद भी हाथ से जाएगी और पछतावे के सिवा कुछ नहीं मिलेगा.
अपने विचारों में सरला ऐसी डूबीं कि पता ही नहीं चला कि कब सुरेशजी घर आ गए. घर अंधेरे में डूबा था. उन्होंने खुद बत्ती जलाई और उन की जबान चलने लगी :
‘‘किस के बाप के मरने का मातम मनाया जा रहा है, जो रात तक बत्ती भी नहीं जलाई गई. मासूमी, कहां है, तू ही यह काम कर दिया कर, इन गधों को तो कुछ होश ही नहीं रहता.’’
फिर उन्होंने तिरछी नजरों से सरला को देखा, ‘‘और तुम, तुम्हें किसी काम का होश है या नहीं? चायपानी भी पिलाओगी या नहीं? मासूमी, तू ही पानी ले आ.’’
उधर मासूमी मां की आड़ में छिपी थी. उस का दिल आज होने वाले झगड़े के डर से कांप रहा था. फिर भी उस ने किसी तरह पिता को पानी ला कर दिया. पानी पीते उन्होंने मासूमी से पूछा, ‘‘इन रानी साहिबा को क्या हुआ?’’
मासूमी के मुंह से बोल नहीं फूटे तो हाथ के इशारे से मना किया, ‘‘पता नहीं.’’
‘‘वे दोनों नवाबजादे कहां हैं?’’
‘‘पापा, बड़े भैया का आज मैच था. वे अभी नहीं आए हैं और छोटे किसी दोस्त के यहां नोट्स लेने गए हैं,’’ किसी अनिष्ट की आशंका मन में पाले मासूमी डरतेडरते कह रही थी.
‘‘हूं, ये सूअर की औलाद सोचते हैं कि बल्ला घुमाघुमा कर सचिन तेंदुलकर बन जाएंगे और दूसरा नोट्स का बहाना कर कहीं आवारागर्दी कर रहा है, सब जानता हूं,’’ सुरेशजी की आंखें शोले बरसाने को तैयार थीं.
बस, इसी अंदाज पर सरला कुढ़ कर रह जाती थीं. उन की आत्मा तब और छलनी हो जाती जब बच्चे पिता की इस ज्यादती का दोष भी उन के सिर मढ़ देते कि मां, अगर आप ने शुरू से पिताजी को टोका होता या उन का विरोध किया होता तो आज यह नौबत ही नहीं आती. मगर वे बच्चों को कैसे समझातीं, यहां तो पति के विरोध में बोलने का मतलब होता है कुलटा, कुलक्षिणी कहलाना.
वे तब उस इनसान की पत्नी बन कर आई थीं जब पुरुष अपनी पत्नियों को किसी काबिल नहीं समझते थे घर में उन की कोई अहमियत नहीं होती थी, न ही बच्चों के सामने उन की इज्जत की जाती थी. वरना सरला यह कहां चाहती थीं कि पितापुत्र का सामना लड़ाईझगड़े के सिलसिले में हो और इसीलिए सरला ने खुद बहुत संयम से काम ले कर पितापुत्र के बीच सेतु बनने की कोशिश की थी.
उन्होंने तो जैसेतैसे अपना समय निकाल दिया था पर अब नया खून बगावत का रास्ता अपनाने को मचल रहा था और इसी के चलते घर के हालात कब बिगड़ जाएं, कुछ भरोसा नहीं था और इन सब बातों का सब से बुरा असर मासूमी पर पड़ रहा था.
मासूमी मां की हमदर्द थी तो पिता से भी उसे बहुत स्नेह था, लेकिन जबतब घर में होने वाली चखचख उस को मानसिक रूप से बीमार करने लगी थी. स्कूल जाती तो हर समय यह डर हावी रहता कि कहीं पिताजी अचानक घर न आ गए हों क्योंकि राकेश भाई अकसर स्कूल से गायब रहते थे…और घर में रहते तो तेज आवाज में गाने सुनते थे…इन दोनों बातों से पिता बुरी तरह चिढ़ते थे.
मां राकेश को समझातीं तो वह अनसुनी कर देता. उसे पता था कि पिता ही मां की बातों पर ध्यान नहीं देते हैं इसलिए उन का क्या है बड़बड़ करती ही रहेंगी. ऐसे में किसी अनहोनी की आशंका मासूमी के मन को सहमाए रखती और स्कूल से घर आते ही उस का पहला प्रश्न होता, ‘मां, पापा तो नहीं आ गए? भैया स्कूल गए थे या नहीं? पापा ने प्रकाश भाई को क्रिकेट खेलते तो नहीं पकड़ा? दोनों भाइयों में झगड़ा तो नहीं हुआ?’
ये भी पढ़ें- सातवें आसमान की जमीन: भाग 2
मां उसे परेशानी में देखतीं तो कह देती थीं, ‘क्यों तू हर समय इन्हीं चिंताओं में जीती है. अरे, घर है तो लड़ाई झगड़े होंगे ही. तुझे तो बहुत शांत होना चाहिए, पता नहीं तुझे आगे कैसा घरवर मिले.’
मगर मासूमी खुद को इन बातों से दूर नहीं रख पाती और हर समय तनावग्रस्त रहतेरहते ही वह स्कूल से कालेज में आ गई थी और आज फिर वह दिन आ गया था जो किसी आने वाले तूफान का संकेत दे रहा था.
क्रमश:
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भाग 2
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मां ने हड़बड़ाते हुए रसोई से आ कर राकेश की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो उस ने मन की भड़ास निकाल दी. 16 साल का राकेश मां से अपने पिता के व्यवहार की शिकायत कर रहा था और मां मौके की नजाकत भांप कर बेटे को समझा रही थीं.
‘‘बेटा, मैं तुम्हारे पापा से बात करूंगी कि इस बात का ध्यान रखें. वैसे बेटा, तुम यह तो समझते ही हो कि वे तुम से कितना प्यार करते हैं. तुम्हारी हर फरमाइश भी पूरी करते हैं. अब गुस्सा आता है तो वे खुद को रोक नहीं पाते. यही कमी है उन में कि जराजरा सी बात पर गुस्सा करना उन की आदत बन गई है. तुम उसे दिल पर मत लिया करो.’’
‘‘रहने दो मां, पापा को हमारी फिक्र कहां, कभी भी, कहीं भी हमारी बेइज्जती कर देते हैं. दोस्तों के सामने ही कुछ भी कह देते हैं. तब यह कौन देख रहा है कि वे हमें कितना प्यार करते हैं. लोग तो हमारा मजाक बनाते ही हैं.’’
राकेश अभी भी गुस्से से भनभना रहा था और उस की मां सरला माथा पकड़ कर बैठ गई थीं, ‘‘मैं क्या करूं, तुम लोग तो मुझे सुना कर चले जाते हो पर मैं किस से कहूं? तुम क्या जानो, अगर तुम्हारे पिता के पास कड़वे बोल न होते तो दुख किस बात का था. उन की जबान ने मेरे दिल पर जो घाव लगा रखे हैं वे अभी तक भरे नहीं और आज तुम लोग भी उस का निशाना बनने लगे हो. मैं तो पराई बेटी थी, उन का साथ निभाना था, सो सब झेल गई पर तुम तो हमारे बुढ़ापे की लाठी हो, तुम्हारा साथ छूट गया तो बुढ़ापा काटना मुश्किल हो जाएगा. काश, मैं उन्हें समझा सकती.’’
तभी परदे के पीछे सहमी खड़ी मासूमी धड़कते दिल से मां से पूछने लगी, ‘‘मां, क्या हुआ, भैया को गुस्सा क्यों आ रहा था?’’
‘‘नहीं बेटा, कोई बात नहीं, तुम्हारे पापा ने उसे डांट दिया था न, इसीलिए कुछ नाराज था.’’
‘‘मां, आप पापा से कुछ मत कहना. बेकार में झगड़ा शुरू हो जाएगा,’’ डर से पीली पड़ी मासूमी ने धीरे से कहा.
‘‘तू बैठ एक तरफ,’’ पहले से ही भरी बैठी सरला ने कहा, ‘‘उन से बात नहीं करूंगी तो जवान बेटों को भी गंवा बैठूंगी. क्या कर लेंगे? चीखेंगे, चिल्लाएंगे, ज्यादा से ज्यादा मार डालेंगे न, देखूंगी मैं भी, आज तो फैसला होने ही दे. उन्हें सुधरना ही पड़ेगा.’’
सरला जब से ब्याह कर आई थीं उन्होंने सुख महसूस नहीं किया था. वैसे तो घर में पैसे की कमी नहीं थी, न ही सुरेशजी का चरित्र खराब था. बस, कमी थी तो यही कि उन की जबान पर उन का नियंत्रण नहीं था. जराजरा सी बात पर टोकना और गुस्सा करना उन की सब से बड़ी कमी थी और इसी कमी ने सरला को मानसिक रूप से बीमार कर दिया था.
वे तो यह सब सहतेसहते थक चुकी थीं, अब बच्चे पिता की तानाशाही के शिकार होने लगे हैं. बच्चों को बाहर खेलने में देर हो जाती तो वहीं से गालियां देते और पीटते घर लाते, उन के पढ़ने के समय कोई मेहमान आ जाता तो सब को एक कमरे में बंद कर यह कहते हुए बाहर से ताला लगा देते, ‘‘हरामजादो, इधर ताकझांक कर के समय बरबाद किया तो टांगें तोड़ दूंगा. 1 घंटे बाद सब से सुनूंगा कि तुम लोगों ने क्या पढ़ा है? चुपचाप पढ़ाई में मन लगाओ.’’
उधर सरला उस डांट का असर कम करने के लिए बच्चों से नरम व्यवहार करतीं और कई बार उन की गलत मांगों को भी चुपचाप पूरा कर देती थीं. पर आज तो उन्होंने सोच रखा था कि वे सुरेशजी को समझा कर ही रहेंगी कि जब बाप का जूता बेटे के पैर में आने लगे तो उस से दोस्त जैसा व्यवहार करना चाहिए. वरना कल औलाद ने पलट कर जवाब दे दिया तो क्या इज्जत रह जाएगी. औलाद भी हाथ से जाएगी और पछतावे के सिवा कुछ नहीं मिलेगा.
अपने विचारों में सरला ऐसी डूबीं कि पता ही नहीं चला कि कब सुरेशजी घर आ गए. घर अंधेरे में डूबा था. उन्होंने खुद बत्ती जलाई और उन की जबान चलने लगी :
‘‘किस के बाप के मरने का मातम मनाया जा रहा है, जो रात तक बत्ती भी नहीं जलाई गई. मासूमी, कहां है, तू ही यह काम कर दिया कर, इन गधों को तो कुछ होश ही नहीं रहता.’’
फिर उन्होंने तिरछी नजरों से सरला को देखा, ‘‘और तुम, तुम्हें किसी काम का होश है या नहीं? चायपानी भी पिलाओगी या नहीं? मासूमी, तू ही पानी ले आ.’’
उधर मासूमी मां की आड़ में छिपी थी. उस का दिल आज होने वाले झगड़े के डर से कांप रहा था. फिर भी उस ने किसी तरह पिता को पानी ला कर दिया. पानी पीते उन्होंने मासूमी से पूछा, ‘‘इन रानी साहिबा को क्या हुआ?’’
मासूमी के मुंह से बोल नहीं फूटे तो हाथ के इशारे से मना किया, ‘‘पता नहीं.’’
‘‘वे दोनों नवाबजादे कहां हैं?’’
‘‘पापा, बड़े भैया का आज मैच था. वे अभी नहीं आए हैं और छोटे किसी दोस्त के यहां नोट्स लेने गए हैं,’’ किसी अनिष्ट की आशंका मन में पाले मासूमी डरतेडरते कह रही थी.
‘‘हूं, ये सूअर की औलाद सोचते हैं कि बल्ला घुमाघुमा कर सचिन तेंदुलकर बन जाएंगे और दूसरा नोट्स का बहाना कर कहीं आवारागर्दी कर रहा है, सब जानता हूं,’’ सुरेशजी की आंखें शोले बरसाने को तैयार थीं.
बस, इसी अंदाज पर सरला कुढ़ कर रह जाती थीं. उन की आत्मा तब और छलनी हो जाती जब बच्चे पिता की इस ज्यादती का दोष भी उन के सिर मढ़ देते कि मां, अगर आप ने शुरू से पिताजी को टोका होता या उन का विरोध किया होता तो आज यह नौबत ही नहीं आती. मगर वे बच्चों को कैसे समझातीं, यहां तो पति के विरोध में बोलने का मतलब होता है कुलटा, कुलक्षिणी कहलाना.
वे तब उस इनसान की पत्नी बन कर आई थीं जब पुरुष अपनी पत्नियों को किसी काबिल नहीं समझते थे घर में उन की कोई अहमियत नहीं होती थी, न ही बच्चों के सामने उन की इज्जत की जाती थी. वरना सरला यह कहां चाहती थीं कि पितापुत्र का सामना लड़ाईझगड़े के सिलसिले में हो और इसीलिए सरला ने खुद बहुत संयम से काम ले कर पितापुत्र के बीच सेतु बनने की कोशिश की थी.
उन्होंने तो जैसेतैसे अपना समय निकाल दिया था पर अब नया खून बगावत का रास्ता अपनाने को मचल रहा था और इसी के चलते घर के हालात कब बिगड़ जाएं, कुछ भरोसा नहीं था और इन सब बातों का सब से बुरा असर मासूमी पर पड़ रहा था.
मासूमी मां की हमदर्द थी तो पिता से भी उसे बहुत स्नेह था, लेकिन जबतब घर में होने वाली चखचख उस को मानसिक रूप से बीमार करने लगी थी. स्कूल जाती तो हर समय यह डर हावी रहता कि कहीं पिताजी अचानक घर न आ गए हों क्योंकि राकेश भाई अकसर स्कूल से गायब रहते थे…और घर में रहते तो तेज आवाज में गाने सुनते थे…इन दोनों बातों से पिता बुरी तरह चिढ़ते थे.
मां राकेश को समझातीं तो वह अनसुनी कर देता. उसे पता था कि पिता ही मां की बातों पर ध्यान नहीं देते हैं इसलिए उन का क्या है बड़बड़ करती ही रहेंगी. ऐसे में किसी अनहोनी की आशंका मासूमी के मन को सहमाए रखती और स्कूल से घर आते ही उस का पहला प्रश्न होता, ‘मां, पापा तो नहीं आ गए? भैया स्कूल गए थे या नहीं? पापा ने प्रकाश भाई को क्रिकेट खेलते तो नहीं पकड़ा? दोनों भाइयों में झगड़ा तो नहीं हुआ?’
ये भी पढ़ें- सातवें आसमान की जमीन: भाग 2
मां उसे परेशानी में देखतीं तो कह देती थीं, ‘क्यों तू हर समय इन्हीं चिंताओं में जीती है. अरे, घर है तो लड़ाई झगड़े होंगे ही. तुझे तो बहुत शांत होना चाहिए, पता नहीं तुझे आगे कैसा घरवर मिले.’
मगर मासूमी खुद को इन बातों से दूर नहीं रख पाती और हर समय तनावग्रस्त रहतेरहते ही वह स्कूल से कालेज में आ गई थी और आज फिर वह दिन आ गया था जो किसी आने वाले तूफान का संकेत दे रहा था.
क्रमश:
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October 01, 2019 at 10:42AMसर्वे नमंति सुखिन
चाहे इंसान हो, शहर हो, सड़क हो, या फिर कोई स्थान हो, नाम बदलने का फैशन चल पड़ा है. भई, नाम बदलने वालों को लगता है कि वहां की या उस की तस्वीर या फिर दशा बदल जाएगी. पर ऐसा होता है क्या?
आखिर और क्या तरीका हो सकता था इन के जीवन को आसान बनाने का. यदि इन के लिए सार्वजनिक स्थानों, कार्यालयों आदि मैं रैंप बनवाया जाए, व्हीलचेयर की व्यवस्था की जाए, चलिष्णु सीढि़यां लगाई जाएं, बैटरीचालित गाड़ी का प्रबंध किया जाए, तो उस में कितना खर्च होगा. कितना परिश्रम लगेगा.
यदि अंगदान को प्रोत्साहन कर उन्हें वांछित अंग उपलब्ध करवाया जाए या फिर शोध व अनुसंधान के जरिए उन के लिए आवश्यक यंत्र बना कर या विकास कर उपलब्ध करवाया जाए तो यह काफी कष्टकर व खर्चीला होगा. फिर उन्हें वह संतुष्टि नहीं मिलेगी जो दिव्यांग जैसे दिव्य नाम प्राप्त होने से मिली. सो, और कुछ करने की अपेक्षा प्यारा सा, न्यारा सा नाम दे देना ही उचित होगा.
तो कुछ और करने से बेहतर है कि इस तरह के वंचित लोगों को खूबसूरत सा प्रभावी नाम दे दें. और हम ऐसा करते भी आए हैं. विकलांगों को पहले डिफरैंटली एबल्ड या स्पैशली एबल्ड का नाम दिया गया और अब दिव्यांग. हो सकता है आगे चल कर इस से भी तड़कभड़क वाला, इस से भी गरिमामय कोईर् नाम दे दिया जाए.
ये भी पढ़ें- मेरा फुटबौल और बाबा की कुटिया
किसानों को अन्नदाता का नाम और दर्जा दिया जाता रहा है. भले ही वे खुद अन्न के लिए तरसते रहें. भले ही वे अपने ही उपजाए अन्न को फलों को, सब्जियों को कौडि़यों के दाम बेच कर उसे पाने के लिए, खाने के लिए तरसें. अन्नदाता नाम का ही प्रभाव है कि हमारे अधिकांश किसान आत्महत्या नहीं कर रहे हैं. और यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं है. हो सकता है आने वाले दिनों में यह समाचार छपा करे कि आज इतने किसानों ने आत्महत्या नहीं की.
हरिजन नामकरण मात्र मिल जाने से भी विशेष वर्गों को राहत मिली है. भले ही आज भी इन में से कुछ सिर पर मैला ढोने को बाध्य हों पर नाम तो ऐसा मिला है कि ये प्रकृति के साक्षात करीबी माने जा सकते हैं, फिर आम आदमी की बात ही क्या है.
किसी मशहूर लेखक ने दरिद्रनारायण नाम दे कर दरिद्रों को नारायण का दर्जा दे दिया था. दरिद्रतारूपी घाव पर नारायण नाम रूपी मरहम अपनेआप में कितना सुखद एहसास रहा होगा, यह सोचने की बात है.
इसी प्रकार हम सोचविचार कर दबेकुचले, वंचित लोगों को खूबसूरत सा चमत्कारिक नाम दे सकते हैं. बेरोजगारों को अमरबेल कहें तो कैसा रहेगा? जिस प्रकार अमरबेल बगैर जड़ के, बगैर जमीन के भी फैलती रहती है उसी प्रकार बेरोजगार युवकयुवती भी बगैर किसी रोजगार के जीवन के मैदान में डटे रहते हैं और कल की उम्मीद से सटे रहते हैं.
बेघर लोगों को भी इसी प्रकार का नाम दिया जा सकता है. विस्थापित हो कर अपने ही देश में शरणार्थी का जीवन जीने वालों को, बगैर अपराध सिद्ध हुए कारावास में रहने वालों को, दंगापीडि़तों को कोई प्यारा सा नाम दे दिया जाए. बलात्कार पीडि़त लड़की को तो निर्भया नाम दे भी दिया गया है. कोई और भी नाम दिया गया था उसे. शायद दामिनी, पर निर्भया नाम ज्यादा मशहूर हुआ. इतना मात्र उस के और उस के परिवार को राहत देने के लिए काफी नहीं होगा क्या? इसी प्रकार इस तरह की पीडि़त अन्य महिलाओं को भी यही या ऐसा ही कुछ नाम दे दिया जाए.
साइबर अपराधियों द्वारा लूटी गई जनता को कोई अच्छा सा नाम दिया जाए ताकि उसे बेहतरीन एहसास का आनंद मिले. आखिर मोबाइल सेवाप्रदाताओं पर रेवड़ी की भांति सिम वितरण पर रोक क्यों लगाई जाए? क्यों उन्हें केवाईसी नियमों के सही अनुपालन के लिए, केवाईसी के नवीकरण के लिए और उन के सिम का दुरुपयोग होने पर दंडित करने की कल्पना भी मन में लाई जाए?
आखिर ये बड़े स्वामियों के स्वामित्व में होते हैं. वैसे, कानून की नजर में सब बराबर होते हैं. फिर जौर्ज औरवैल ने कहा भी है, ‘औल आर इक्वल बट सम आर मोर इक्वल दैन अदर्स.’ तो ये भी मोर इक्वल हैं.
बात सिर्फ मनुष्यों की नहीं है, स्थानों, सड़कों आदि के नाम भी इसी प्रकार से बदले जा रहे हैं. कहीं मेन रोड को महात्मा गांधी रोड कहा जा रहा है तो कहीं किसी चौक का नाम किसी शहीद के नाम पर रखा जा रहा है. सड़क को दुरुस्त करने के स्थान पर उसे प्यारा सा देशभक्ति से ओतप्रोत नाम देना ज्यादा श्रेयस्कर होगा. यह बात अलग है कि अधिकांश लोग उस सड़क को पुराने नाम से ही जानते हैं. नया देशभक्ति से ओतप्रोत नाम, बस, फाइलों में ही दबा रहता है.
कहींकहीं तो पूरे शहर का नाम ही बदल दिया जा रहा है. अब शहर को सुव्यवस्थित बनाने में, प्रदूषणमुक्त करने में काफी झमेला है. नया नाम, भले ही वह शहर का पूर्व में रह चुका हो, दे देना ज्यादा आसान है. इस से वर्तमान, गौरवमय अतीत की तरह लगने लगता है.
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इतना ही नहीं, नाम रखने का एक नया फैशन चल पड़ा है. इस फैशन में नाम हिंदी शब्द का होते हुए भी हिंदी नहीं होता. उदाहरण के लिए नीति आयोग को ले लें. नीति वैसे तो हिंदी शब्द है, पर वास्तव में यह इंग्लिश शब्दों का संक्षिप्त रूप है-नैशनल इंस्टिट्यूट फौर ट्रांस्फौर्मिंग इंडिया. इसी प्रकार उदय को ले लें. यह भी इंग्लिश शब्दों का संक्षिप्त रूप है, उज्ज्वल डिस्कौम एश्युरैंस योजना. और फिर इस में डिस्कौम भी अपनेआप में डिस्ट्रिब्यूशन कंपनी का संक्षिप्त रूप है. आखिर इतने नवोन्मेषी नाम हम खोज रहे हैं तो इस का लाभ तो होगा ही.
सो, दे दो प्यारा सा नाम, बस हो गया अपना काम, और बात खत्म.
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चाहे इंसान हो, शहर हो, सड़क हो, या फिर कोई स्थान हो, नाम बदलने का फैशन चल पड़ा है. भई, नाम बदलने वालों को लगता है कि वहां की या उस की तस्वीर या फिर दशा बदल जाएगी. पर ऐसा होता है क्या?
आखिर और क्या तरीका हो सकता था इन के जीवन को आसान बनाने का. यदि इन के लिए सार्वजनिक स्थानों, कार्यालयों आदि मैं रैंप बनवाया जाए, व्हीलचेयर की व्यवस्था की जाए, चलिष्णु सीढि़यां लगाई जाएं, बैटरीचालित गाड़ी का प्रबंध किया जाए, तो उस में कितना खर्च होगा. कितना परिश्रम लगेगा.
यदि अंगदान को प्रोत्साहन कर उन्हें वांछित अंग उपलब्ध करवाया जाए या फिर शोध व अनुसंधान के जरिए उन के लिए आवश्यक यंत्र बना कर या विकास कर उपलब्ध करवाया जाए तो यह काफी कष्टकर व खर्चीला होगा. फिर उन्हें वह संतुष्टि नहीं मिलेगी जो दिव्यांग जैसे दिव्य नाम प्राप्त होने से मिली. सो, और कुछ करने की अपेक्षा प्यारा सा, न्यारा सा नाम दे देना ही उचित होगा.
तो कुछ और करने से बेहतर है कि इस तरह के वंचित लोगों को खूबसूरत सा प्रभावी नाम दे दें. और हम ऐसा करते भी आए हैं. विकलांगों को पहले डिफरैंटली एबल्ड या स्पैशली एबल्ड का नाम दिया गया और अब दिव्यांग. हो सकता है आगे चल कर इस से भी तड़कभड़क वाला, इस से भी गरिमामय कोईर् नाम दे दिया जाए.
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किसानों को अन्नदाता का नाम और दर्जा दिया जाता रहा है. भले ही वे खुद अन्न के लिए तरसते रहें. भले ही वे अपने ही उपजाए अन्न को फलों को, सब्जियों को कौडि़यों के दाम बेच कर उसे पाने के लिए, खाने के लिए तरसें. अन्नदाता नाम का ही प्रभाव है कि हमारे अधिकांश किसान आत्महत्या नहीं कर रहे हैं. और यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं है. हो सकता है आने वाले दिनों में यह समाचार छपा करे कि आज इतने किसानों ने आत्महत्या नहीं की.
हरिजन नामकरण मात्र मिल जाने से भी विशेष वर्गों को राहत मिली है. भले ही आज भी इन में से कुछ सिर पर मैला ढोने को बाध्य हों पर नाम तो ऐसा मिला है कि ये प्रकृति के साक्षात करीबी माने जा सकते हैं, फिर आम आदमी की बात ही क्या है.
किसी मशहूर लेखक ने दरिद्रनारायण नाम दे कर दरिद्रों को नारायण का दर्जा दे दिया था. दरिद्रतारूपी घाव पर नारायण नाम रूपी मरहम अपनेआप में कितना सुखद एहसास रहा होगा, यह सोचने की बात है.
इसी प्रकार हम सोचविचार कर दबेकुचले, वंचित लोगों को खूबसूरत सा चमत्कारिक नाम दे सकते हैं. बेरोजगारों को अमरबेल कहें तो कैसा रहेगा? जिस प्रकार अमरबेल बगैर जड़ के, बगैर जमीन के भी फैलती रहती है उसी प्रकार बेरोजगार युवकयुवती भी बगैर किसी रोजगार के जीवन के मैदान में डटे रहते हैं और कल की उम्मीद से सटे रहते हैं.
बेघर लोगों को भी इसी प्रकार का नाम दिया जा सकता है. विस्थापित हो कर अपने ही देश में शरणार्थी का जीवन जीने वालों को, बगैर अपराध सिद्ध हुए कारावास में रहने वालों को, दंगापीडि़तों को कोई प्यारा सा नाम दे दिया जाए. बलात्कार पीडि़त लड़की को तो निर्भया नाम दे भी दिया गया है. कोई और भी नाम दिया गया था उसे. शायद दामिनी, पर निर्भया नाम ज्यादा मशहूर हुआ. इतना मात्र उस के और उस के परिवार को राहत देने के लिए काफी नहीं होगा क्या? इसी प्रकार इस तरह की पीडि़त अन्य महिलाओं को भी यही या ऐसा ही कुछ नाम दे दिया जाए.
साइबर अपराधियों द्वारा लूटी गई जनता को कोई अच्छा सा नाम दिया जाए ताकि उसे बेहतरीन एहसास का आनंद मिले. आखिर मोबाइल सेवाप्रदाताओं पर रेवड़ी की भांति सिम वितरण पर रोक क्यों लगाई जाए? क्यों उन्हें केवाईसी नियमों के सही अनुपालन के लिए, केवाईसी के नवीकरण के लिए और उन के सिम का दुरुपयोग होने पर दंडित करने की कल्पना भी मन में लाई जाए?
आखिर ये बड़े स्वामियों के स्वामित्व में होते हैं. वैसे, कानून की नजर में सब बराबर होते हैं. फिर जौर्ज औरवैल ने कहा भी है, ‘औल आर इक्वल बट सम आर मोर इक्वल दैन अदर्स.’ तो ये भी मोर इक्वल हैं.
बात सिर्फ मनुष्यों की नहीं है, स्थानों, सड़कों आदि के नाम भी इसी प्रकार से बदले जा रहे हैं. कहीं मेन रोड को महात्मा गांधी रोड कहा जा रहा है तो कहीं किसी चौक का नाम किसी शहीद के नाम पर रखा जा रहा है. सड़क को दुरुस्त करने के स्थान पर उसे प्यारा सा देशभक्ति से ओतप्रोत नाम देना ज्यादा श्रेयस्कर होगा. यह बात अलग है कि अधिकांश लोग उस सड़क को पुराने नाम से ही जानते हैं. नया देशभक्ति से ओतप्रोत नाम, बस, फाइलों में ही दबा रहता है.
कहींकहीं तो पूरे शहर का नाम ही बदल दिया जा रहा है. अब शहर को सुव्यवस्थित बनाने में, प्रदूषणमुक्त करने में काफी झमेला है. नया नाम, भले ही वह शहर का पूर्व में रह चुका हो, दे देना ज्यादा आसान है. इस से वर्तमान, गौरवमय अतीत की तरह लगने लगता है.
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इतना ही नहीं, नाम रखने का एक नया फैशन चल पड़ा है. इस फैशन में नाम हिंदी शब्द का होते हुए भी हिंदी नहीं होता. उदाहरण के लिए नीति आयोग को ले लें. नीति वैसे तो हिंदी शब्द है, पर वास्तव में यह इंग्लिश शब्दों का संक्षिप्त रूप है-नैशनल इंस्टिट्यूट फौर ट्रांस्फौर्मिंग इंडिया. इसी प्रकार उदय को ले लें. यह भी इंग्लिश शब्दों का संक्षिप्त रूप है, उज्ज्वल डिस्कौम एश्युरैंस योजना. और फिर इस में डिस्कौम भी अपनेआप में डिस्ट्रिब्यूशन कंपनी का संक्षिप्त रूप है. आखिर इतने नवोन्मेषी नाम हम खोज रहे हैं तो इस का लाभ तो होगा ही.
सो, दे दो प्यारा सा नाम, बस हो गया अपना काम, और बात खत्म.
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October 01, 2019 at 10:41AMएक सवाल: भाग 1
भाग 1
शीना की जिंदगी में समीर आया तो उसे मानो जिंदगी में फिर से बहार मिल गई थी. औलाद, पैसा, शोहरत सबकुछ तो पा गई थी वह. लेकिन, कभीकभी ज्यादा खुशी दामन में समा नहीं पाती.
शीना और समीर दोनों ही किसी कौमन दोस्त के विवाह में आए थे. जब उस दोस्त ने उन्हें मिलवाया तो वे एकदूसरे से बहुत प्रभावित हुए. वैसे तो यह उन की पहली मुलाकात थी, लेकिन दोनों ही जानीमानी हस्तियां थीं. रोज अखबारों में फोटो और इंटरव्यू आते रहते थे दोनों के. सो, ऐसा भी नहीं था कि कुछ जानना बाकी हो.
समीर सिर्फ व्यवसायी ही नहीं, बल्कि देश की राजनीतिक पार्टी का सदस्य भी था. उधर, शीना बड़ी बिजनैस वूमन थी. अच्छे दिमाग की ही नहीं, खूबसूरती की भी धनी. सो, दोनों का आंखोंआंखों में प्यार होना स्वाभाविक था. दोस्त की शादी में ही दोनों ने खूब मजे किए और दिल में मीठी यादें लिए अपनेअपने घरों को चल दिए.
शीना सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी अपने बिजनैस का विस्तार कर रही थी. नाम, पैसा और ऊपर से हुस्न. भला ऐसे में कौन उस का दीवाना न हो जाए. सो, समीर ने उस से अपनी मुलाकातें बढ़ाईं. शीना को भी उस से एतराज नहीं था. अपने पति की मृत्यु के बाद वह भी तो कितनी अकेली सी हो गईर् थी. ऐसे में मन किसी न किसी के प्यार की चाहत तो रखता ही है. और सिर्फ मन ही नहीं, तन की प्यास भी तो सताती है.
शीना भी समीर को मन ही मन चाहने लगी थी. बातों बातों में मालूम हुआ समीर भी शादीशुदा है लेकिन उस का पहली पत्नी से तलाक हो चुका था. दोनों अभी अर्ली थर्टीज में थे.
कई दिनों बाद समीर अपने व्यवसाय के सिलसिले में आस्ट्रेलिया गया और शीना भी उस वक्त वहीं किसी जरूरी मीटिंग के लिए गईर् थी.
दोनों को मिलने का जैसे फिर एक बहाना मिल गया. समीर अपना काम खत्म कर जब शीना से उस के होटल में डिनर पर मिला तो उस ने अपने मन की बात शीना से कह ही डाली, ‘‘शीना, आज जिंदगी के जिस पड़ाव पर तुम और मैं हूं, क्या ऐसा नहीं लगता कि कुदरत ने हमें एकदूसरे के लिए बनाया है? क्यों न हम दोनों विवाह के बंधन में बंध जाएं?’’
शीना को लगा समीर ठीक ही तो कह रहा है. उसे भी तो पुरुष के सहारे की जरूरत है. सो, उस ने समीर को इस रिश्ते की रजामंदी दे दी.
ये भी पढ़ें- यह कैसी विडंबना: भाग 3
बस, फिर क्या था, दोनों ने भारत लौट कर दोस्तों को बुला कर अपने प्यार को दुनिया के साथ साझा किया और साथ ही विवाह की घोषणा भी. रातोंरात सारे जहां में उन का प्यार दुनिया की सब से बड़ी खबर बन गया था. सारे विश्व में फैले उन के सहयोगी उन्हें बधाइयां दे रहे थे. दोनों ने ट्विटर पर अपने दोस्तों व फौलोअर्स की बधाइयां स्वीकारते हुए धन्यवाद किया.
बस, अगले ही महीने दोनों ने शादी की रस्म भी पूरी कर ली. हनीमून के लिए मौरिशस का प्लान तो पहले ही बना रखा था, सो, विवाह के अगले दिन ही हनीमून को रवाना हो गए.
शीना कहने लगी, ‘‘समीर, जीवन में सबकुछ तो था, शायद एक तुम्हारी ही कमी थी. और वह कमी अब पूरी हो गई है. ऐसा महसूस हो रहा है जैसे मैं दुनिया की सब से खुशहाल औरत हूं.’’
समीर ने भी अपना मन शीना के सामने खोल कर रख दिया था, बोला, ‘‘सेम हियर शीना, तुम बिन जिंदगी अधूरीअधूरी सी थी.’’
दोनों ने अपने हनीमून के फोटो इंस्टाग्राम पर शेयर किए. इतनी सुंदर तसवीरें थीं कि शायद कोई भी न माने कि यह उन दोनों का दूसरा विवाह था. शायद ईर्ष्या भी होने लगे उन तसवीरों को देख कर.
खैर, हनीमून खत्म हुआ और दोनों भारत लौट आए. और फिर से अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए. दोनों खूब पैसा कमा रहे थे. पैसे के साथ नाम और शोहरत भी. 2 वर्ष बीते, शीना ने एक बेटे को जन्म दिया. अब ऐसा लग रहा था जैसे उन का परिवार पूरा हो गया हो.
शीना अपनी जिंदगी में भरपूर खुशियां समेट रही थी और अपने व्यवसाय को आगे बढ़ाती जा रही थी. समीर और उस के विवाह के 10 वर्ष कैसे बीत गए, उन्हें कुछ मालूम ही न हुआ. बेटा भी होस्टल में पढ़ने के लिए चला गया था.
समीर अब व्यवसाय से ज्यादा राजनीति में सक्रिय हो गया था. एकदो बार किसी घोटाले में फंस भी गया. लेकिन, उस ने सारा पैसा शीना के अकाउंट में जमा किया था, जिस से बारबार बच जाता. वैसे तो शीना इन घोटालों को खूब सम?ाती थी लेकिन अकसर व्यवसाय में थोड़ाबहुत तो इधरउधर होता ही है. इसलिए उसे भी कुछ फर्क नहीं पड़ता था.
शौकीनमिजाज समीर जनता के पैसों से अपने सारे शौक पूरे कर रहा था. साथ में शीना भी. अब वे स्पोर्ट्स टीम के मालिक भी बन चुके थे. कभी दोनों साथ में रेसकोर्स में, तो कभी स्पोर्ट्स टीम को चीयर्स करते नजर आते थे. दोनों को साथ मौजमस्ती करते देख भला किस की नीयत खराब न हो जाए.
अंधेरे आसमान में चांदनी फैलाने वाले चांद में भी कभी तो ग्रहण लगता ही है. शीना को अपने पति के रंगढंग कुछ बदलेबदले लगने लगे थे. उसे लगने लगा कि आजकल समीर पहले की तरह उसे दिल से नहीं चाहता है. जैसे, वह उस के साथ हो तो भी उस का मन कहीं और होता है. वैसे तो वह 50 वर्ष की उम्र पार कर रहा था, लेकिन दौलतमंद लोग अपने जीवन को जीभर कर जी लेना चाहते हैं. उन के शौक तो हर दिन बढ़ते जाते हैं और साथ ही साथ, वे उन्हें पूरा भी कर ही लेते हैं.
शीना को महसूस होने लगा था कि अब समीर उस से दूरियां बनाने लगा है. न तो वह पहले की तरह उसे वक्त देता है और न ही उस की तारीफ करता है. जहां शीना को देख समीर के चेहरे पर मुसकराहट खिल जाती थी वहीं अब वह काम का बहाना कर उस से नजरें तक नहीं मिलाना चाहता था. वह समझने लगी थी कि जरूर समीर के जीवन में कोई और औरत आई है.
ये भी पढ़ें- सातवें आसमान की जमीन: भाग 2
अब वह उस की ज्यादा से ज्यादा खबर रखने लगी थी. जैसे, बैंक अकाउंट में कितने पैसे हैं, वह कहां और कितने पैसे खर्च कर रहा है आदि. इस बार जब शीना के बिजनैस अकाउंट से समीर ने कुछ पैसे निकालने चाहे तो उस ने समीर को साफ न कह दिया. वह बोली, ‘‘समीर, तुम्हारी मौजमस्ती के लिए नहीं कमाती मैं. तुम्हारे पास मेरे लिए फुरसत के दो क्षण नहीं, अकेले मौजमस्ती के लिए वक्त है? अगर ऐसा ही है तो वह मौजमस्ती तुम अपने पैसों से करो.’’
अगली कड़ी में पढ़ें: शीना और समीर के बीच क्यों दूरी बढ़ती जा रही थी?
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भाग 1
शीना की जिंदगी में समीर आया तो उसे मानो जिंदगी में फिर से बहार मिल गई थी. औलाद, पैसा, शोहरत सबकुछ तो पा गई थी वह. लेकिन, कभीकभी ज्यादा खुशी दामन में समा नहीं पाती.
शीना और समीर दोनों ही किसी कौमन दोस्त के विवाह में आए थे. जब उस दोस्त ने उन्हें मिलवाया तो वे एकदूसरे से बहुत प्रभावित हुए. वैसे तो यह उन की पहली मुलाकात थी, लेकिन दोनों ही जानीमानी हस्तियां थीं. रोज अखबारों में फोटो और इंटरव्यू आते रहते थे दोनों के. सो, ऐसा भी नहीं था कि कुछ जानना बाकी हो.
समीर सिर्फ व्यवसायी ही नहीं, बल्कि देश की राजनीतिक पार्टी का सदस्य भी था. उधर, शीना बड़ी बिजनैस वूमन थी. अच्छे दिमाग की ही नहीं, खूबसूरती की भी धनी. सो, दोनों का आंखोंआंखों में प्यार होना स्वाभाविक था. दोस्त की शादी में ही दोनों ने खूब मजे किए और दिल में मीठी यादें लिए अपनेअपने घरों को चल दिए.
शीना सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी अपने बिजनैस का विस्तार कर रही थी. नाम, पैसा और ऊपर से हुस्न. भला ऐसे में कौन उस का दीवाना न हो जाए. सो, समीर ने उस से अपनी मुलाकातें बढ़ाईं. शीना को भी उस से एतराज नहीं था. अपने पति की मृत्यु के बाद वह भी तो कितनी अकेली सी हो गईर् थी. ऐसे में मन किसी न किसी के प्यार की चाहत तो रखता ही है. और सिर्फ मन ही नहीं, तन की प्यास भी तो सताती है.
शीना भी समीर को मन ही मन चाहने लगी थी. बातों बातों में मालूम हुआ समीर भी शादीशुदा है लेकिन उस का पहली पत्नी से तलाक हो चुका था. दोनों अभी अर्ली थर्टीज में थे.
कई दिनों बाद समीर अपने व्यवसाय के सिलसिले में आस्ट्रेलिया गया और शीना भी उस वक्त वहीं किसी जरूरी मीटिंग के लिए गईर् थी.
दोनों को मिलने का जैसे फिर एक बहाना मिल गया. समीर अपना काम खत्म कर जब शीना से उस के होटल में डिनर पर मिला तो उस ने अपने मन की बात शीना से कह ही डाली, ‘‘शीना, आज जिंदगी के जिस पड़ाव पर तुम और मैं हूं, क्या ऐसा नहीं लगता कि कुदरत ने हमें एकदूसरे के लिए बनाया है? क्यों न हम दोनों विवाह के बंधन में बंध जाएं?’’
शीना को लगा समीर ठीक ही तो कह रहा है. उसे भी तो पुरुष के सहारे की जरूरत है. सो, उस ने समीर को इस रिश्ते की रजामंदी दे दी.
ये भी पढ़ें- यह कैसी विडंबना: भाग 3
बस, फिर क्या था, दोनों ने भारत लौट कर दोस्तों को बुला कर अपने प्यार को दुनिया के साथ साझा किया और साथ ही विवाह की घोषणा भी. रातोंरात सारे जहां में उन का प्यार दुनिया की सब से बड़ी खबर बन गया था. सारे विश्व में फैले उन के सहयोगी उन्हें बधाइयां दे रहे थे. दोनों ने ट्विटर पर अपने दोस्तों व फौलोअर्स की बधाइयां स्वीकारते हुए धन्यवाद किया.
बस, अगले ही महीने दोनों ने शादी की रस्म भी पूरी कर ली. हनीमून के लिए मौरिशस का प्लान तो पहले ही बना रखा था, सो, विवाह के अगले दिन ही हनीमून को रवाना हो गए.
शीना कहने लगी, ‘‘समीर, जीवन में सबकुछ तो था, शायद एक तुम्हारी ही कमी थी. और वह कमी अब पूरी हो गई है. ऐसा महसूस हो रहा है जैसे मैं दुनिया की सब से खुशहाल औरत हूं.’’
समीर ने भी अपना मन शीना के सामने खोल कर रख दिया था, बोला, ‘‘सेम हियर शीना, तुम बिन जिंदगी अधूरीअधूरी सी थी.’’
दोनों ने अपने हनीमून के फोटो इंस्टाग्राम पर शेयर किए. इतनी सुंदर तसवीरें थीं कि शायद कोई भी न माने कि यह उन दोनों का दूसरा विवाह था. शायद ईर्ष्या भी होने लगे उन तसवीरों को देख कर.
खैर, हनीमून खत्म हुआ और दोनों भारत लौट आए. और फिर से अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए. दोनों खूब पैसा कमा रहे थे. पैसे के साथ नाम और शोहरत भी. 2 वर्ष बीते, शीना ने एक बेटे को जन्म दिया. अब ऐसा लग रहा था जैसे उन का परिवार पूरा हो गया हो.
शीना अपनी जिंदगी में भरपूर खुशियां समेट रही थी और अपने व्यवसाय को आगे बढ़ाती जा रही थी. समीर और उस के विवाह के 10 वर्ष कैसे बीत गए, उन्हें कुछ मालूम ही न हुआ. बेटा भी होस्टल में पढ़ने के लिए चला गया था.
समीर अब व्यवसाय से ज्यादा राजनीति में सक्रिय हो गया था. एकदो बार किसी घोटाले में फंस भी गया. लेकिन, उस ने सारा पैसा शीना के अकाउंट में जमा किया था, जिस से बारबार बच जाता. वैसे तो शीना इन घोटालों को खूब सम?ाती थी लेकिन अकसर व्यवसाय में थोड़ाबहुत तो इधरउधर होता ही है. इसलिए उसे भी कुछ फर्क नहीं पड़ता था.
शौकीनमिजाज समीर जनता के पैसों से अपने सारे शौक पूरे कर रहा था. साथ में शीना भी. अब वे स्पोर्ट्स टीम के मालिक भी बन चुके थे. कभी दोनों साथ में रेसकोर्स में, तो कभी स्पोर्ट्स टीम को चीयर्स करते नजर आते थे. दोनों को साथ मौजमस्ती करते देख भला किस की नीयत खराब न हो जाए.
अंधेरे आसमान में चांदनी फैलाने वाले चांद में भी कभी तो ग्रहण लगता ही है. शीना को अपने पति के रंगढंग कुछ बदलेबदले लगने लगे थे. उसे लगने लगा कि आजकल समीर पहले की तरह उसे दिल से नहीं चाहता है. जैसे, वह उस के साथ हो तो भी उस का मन कहीं और होता है. वैसे तो वह 50 वर्ष की उम्र पार कर रहा था, लेकिन दौलतमंद लोग अपने जीवन को जीभर कर जी लेना चाहते हैं. उन के शौक तो हर दिन बढ़ते जाते हैं और साथ ही साथ, वे उन्हें पूरा भी कर ही लेते हैं.
शीना को महसूस होने लगा था कि अब समीर उस से दूरियां बनाने लगा है. न तो वह पहले की तरह उसे वक्त देता है और न ही उस की तारीफ करता है. जहां शीना को देख समीर के चेहरे पर मुसकराहट खिल जाती थी वहीं अब वह काम का बहाना कर उस से नजरें तक नहीं मिलाना चाहता था. वह समझने लगी थी कि जरूर समीर के जीवन में कोई और औरत आई है.
ये भी पढ़ें- सातवें आसमान की जमीन: भाग 2
अब वह उस की ज्यादा से ज्यादा खबर रखने लगी थी. जैसे, बैंक अकाउंट में कितने पैसे हैं, वह कहां और कितने पैसे खर्च कर रहा है आदि. इस बार जब शीना के बिजनैस अकाउंट से समीर ने कुछ पैसे निकालने चाहे तो उस ने समीर को साफ न कह दिया. वह बोली, ‘‘समीर, तुम्हारी मौजमस्ती के लिए नहीं कमाती मैं. तुम्हारे पास मेरे लिए फुरसत के दो क्षण नहीं, अकेले मौजमस्ती के लिए वक्त है? अगर ऐसा ही है तो वह मौजमस्ती तुम अपने पैसों से करो.’’
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October 01, 2019 at 10:40AMDiploma Jobs in Srinagar Apply Diploma Openings in Srinagar 01.10.2019
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Kabaddi Game: इस शानदार खेल के बूते इस गांव के 170 खिलाड़ी पा चुके हैं ...
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पापा (हीरेन शाह) तब केपीएमजी में नौकरी करते थे। मेरी देखभाल के लिए उन्हें यह नौकरी छोड़नी पड़ी थी। इलाज पर करीब ...
यह कैसी विडंबना: भाग 3
पूर्व कथा
15 साल बाद परिवार समेत ममता एक बार फिर दिल्ली में बसीं. वे उसी महल्ले व उसी घर में रहने लगीं जहां पहले रह कर गई थीं. घर के सामने अभी भी शर्मा दंपती रहते हैं. दादीनानी बनने के बाद भी श्रीमती शर्मा का साजशृंगार उन की तीनों बहुओं से बढ़ कर होता है. पुरानी पड़ोसिन सरला ने ममता को बताया कि श्रीमती शर्मा के नाजनखरे तो आज भी वही हैं मगर पतिपत्नी के रोजरोज के झगड़े बहुत बुरे हैं, दिनरात कुत्तेबिल्ली की तरह लड़ते हैं. तुम्हें भी इन के झगड़ने की आवाजें विचलित करेंगी. 75 वर्षीय श्रीमती शर्मा कहती हैं कि उन के 80 वर्षीय पति शर्माजी का एक औरत से चक्कर है. एक लड़की भी है उस से…ममता यह सुन कर अवाक् रह जाती है. हालांकि उसे यहां दोबारा आए 2 दिन ही हुए और वह शर्मा आंटी से बहुत प्रभावित हुई थी, उन की साफसफाई, उन के जीने के तरीके से. 5-6 दिन बीतने के बाद भी किसी तरह के लड़नेझगड़ने की आवाज नहीं आई तो ममता सोचती है कि उसे जो बताया गया है, वह गलत होगा. इस बीच, शर्मा दंपती ममता के घर पधारे. दोनों ने हंसीखुशी ममता के साथ खूब गपशप की, दोपहर को वहीं खाना खाया. शाम को पति आए तो ममता उन के साथ शर्मा दंपती से मिलने उन के घर गई. इस तरह वे अच्छे पड़ोसी बन गए. सरला यह जान कर हैरान हो जाती है. वह ममता को समझाने लगती है कि अपना ध्यान रखना, शर्मा आंटी कहानियां गढ़ लेती हैं. इन्होंने अपनी तो उतार रखी है. कहीं ऐसा न हो, तुम्हारी भी उतार कर रख दें. इधर, दीवाली आने को होती है और ममता घर का बल्ब जला कर परिवार समेत जम्मू चली जाती है. अब आगे…
श्रीमती शर्मा से प्रभावित ममता अपनी पड़ोसिन सरला के मशविरे की अनदेखी करती रही लेकिन एक दिन वही ममता अपने घर से श्रीमती शर्मा को बाहर करती नजर आई. वहीं जब शर्माजी का देहांत हुआ तो वह इस असमंजस में दिखी कि अफसोस करे या सुकून की सांस ले.
गतांक से आगे…
अंतिम भाग
सरला ने जम्मू से चावल मंगवाए थे. वापस आने पर सामान आदि खोला. सोचा, सरला को फोन करती हूं, आ कर अपना सामान ले जाए. तभी 2 लोगों की चीखपुकार शुरू हो गई. गंदीगंदी गालियां और जोरजोर से रोना- पीटना.
मैं घबरा कर बाहर आई. शर्मा आंटी रोतीपीटती मेरे गेट के पास खड़ी थीं. लपक कर बाहर चली आई मैं.
‘‘क्या हो गया आंटी, आप ठीक तो हैं न?’’
‘‘अभीअभी यह आदमी 205 नंबर से हो कर आया है. अरे, अपनी उम्र का तो खयाल करता.’’
अंकल चुपचाप अपने दरवाजे पर खड़े थे. क्याक्या शब्द आंटी कह गईं, मैं यहां लिख नहीं सकती. अपने पति को तो वे नंगा कर रही थीं और नजरें मेरी झुकी जा रही थीं. पता नहीं कहां से इतनी हिम्मत चली आई मुझ में जो दोनों को उन के घर के अंदर धकेल कर मैं ने उन का गेट बंद कर दिया. मन इतना भारी हो गया कि रोना आ गया. क्या कर रहे हैं ये दोनों. शरम भी नहीं आती इन्हें. जब जवानी में पति को मर्यादा का पाठ नहीं पढ़ा पाईं तो इस उम्र में उसी शौक पर चीखपुकार क्यों?
सच तो यही है कि अनैतिकता सदा ही अनैतिक है. मर्यादा भंग होने को कभी भी स्वीकार नहीं किया जा सकता. पतिपत्नी के रिश्ते में पवित्रता, शालीनता और ईमानदारी का होना अति आवश्यक है. शर्मा आंटी की खूबसूरती यदि जवानी में सब को लुभाती थी तब क्या शर्मा अंकल को अच्छा लगता होगा. हो सकता है पत्नी को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल भी किया हो.
जवानी में जोजो रंग पतिपत्नी घोलते रहे उन की चर्चा तो आंटी मुझ से कर ही चुकी थीं और बुढ़ापे में उसी टूटी पवित्रता की किरचें पलपल मनप्राण लहूलुहान न करती रहें ऐसा तो मुमकिन है ही नहीं. अनैतिकता का बीज जब बोया जाता तब कोई नहीं देखता, लेकिन जब उस का फल खाना पड़ता है तब बेहद पीड़ा होती है, क्योंकि बुढ़ापे में शरीर इतना बलवान नहीं होता जो पूरा का पूरा फल एकसाथ डकार सके.
सरला से बात हुई तो वह बोली, ‘‘मैं ने कहा था न कि इन से दूर रह. अब अपना मन भी दुखी कर लिया न.’’
उस घटना के बाद हफ्ता बीत गया. सुबह 5 बजे ही दोनों शुरू हो जाते. शालीनता और तमीज ताक पर रख कर हर रोज एक ही जहर उगलते. परेशान हो जाती मैं. आखिर कब यह घड़ा खाली होगा.
संयोग से वहीं पास ही में हमें एक अच्छा घर मिल गया. चूंकि पति का रिटायरमैंट पास था, इसलिए उसे खरीद लिया हम ने और उसी को सजानेसंवारने में व्यस्त हो गए. नया साल शुरू होने वाला था. मन में तीव्र इच्छा थी कि नए साल की पहली सुबह हम अपने ही घर में हों. महीना भर था हमारे पास, थोड़ीबहुत मरम्मत, रंगाईपुताई, कुछ लकड़ी का काम बस, इसी में व्यस्त हो गए हम दोनों. कुछ दिन को बच्चे भी आ कर मदद कर गए.
एक शाम जरा सी थकावट थी इसलिए मैं जा नहीं पाई थी. घर पर ही थी. सरला चली आई थी मेरा हालचाल पूछने. हम दोनों चाय पी रही थीं तभी द्वार पर दस्तक हुई. शर्मा अंकल थे सामने. कमीज की एक बांह लटकी हुई थी. चेहरे पर जगहजगह सूजन थी.
‘‘यह क्या हुआ आप को, अंकल?’’
‘‘एक्सीडेंट हो गया था बेटा.’’
‘‘कब और कैसे हो गया?’’
पता चला 2 दिन पहले स्कूटर बस से टकरा गया था. हर पल का क्लेश कुछ तो करता है न. तरस आ गया था हमें.
‘‘बाजू टूट गई है क्या?’’
‘‘टूटी नहीं है…कंधा उतर गया है. 3 हफ्ते तक छाती से बांध कर रखना पड़ेगा. बेटा, मुझे तुम से कुछ काम है. जरा मदद करोगी?’’
‘‘हांहां, अंकल, बताइए न.’’
‘‘बेटा, मैं बड़ा परेशान हूं. तनिक अपनी आंटी को समझाओ न. मैं कहां जाऊं…मेरा तो जीना हराम कर रखा है इस ने. तुम जरा मेरी उम्र देखो और इस का शक देखो. तुम दोनों मेरी बेटी जैसी हो. जरा सोचो, जो सब यह कहती है क्या मैं कर सकता हूं. कहती है मैं मकान नंबर 205 में जाता हूं. जरा इसे साथ ले जाओ और ढूंढ़ो वह घर जहां मैं जाता हूं.’’
80 साल के शर्मा अंकल रोने लगे थे.
‘‘वहम की बीमारी है इसे. किसी से भी बात करूं मैं तो मेरा नाम उसी के साथ जोड़ देती है. हर रिश्ता ताक पर रख छोड़ा है इस ने.’’
‘‘आप ने आंटी का इलाज नहीं कराया?’’
‘‘अरे, हजार बार कराया. डाक्टर को ही पागल बता कर भेज दिया इस ने. मेरी जान भी इतनी सख्त है कि निकलती ही नहीं. एक्सीडैंट में मेरे स्कूटर के परखच्चे उड़ गए और मुझे देखो, मैं बच गया…मैं मरता भी तो नहीं. हर सुबह उठ कर मौत की दुआएं मांगता हूं…कब वह दिन आएगा जब मैं मरूंगा.’’
सरला और मैं चुपचाप उन्हें रोते देखती रहीं. सच क्या होगा या क्या हो सकता है हम कैसे अंदाजा लगातीं. जीवन का कटु सत्य हमारे सामने था. अगर शर्माजी जवानी में चरित्रहीन थे तो उस का प्रतिकार क्या इस तरह नहीं होना चाहिए? और सब से बड़ी बात हम भी कौन हैं निर्णय लेने वाले. हजार कमी हैं हमारे अंदर. हम तो केवल मानव बन कर ही किसी दूसरे मानव की पीड़ा सुन सकती थीं. अपनी लगाई आग में सिर्फ खुदी को जलना पड़ता है, यही एक शाश्वत सचाई है.
रोधो कर चले गए अंकल. यह सच है, दुखी इनसान सदा दुख ही फैलाता है. शर्माजी की तकलीफ हमारी तकलीफ नहीं थी फिर भी हम तकलीफ में आ गई थीं. मूड खराब हो गया था सरला का.
‘‘इसीलिए मैं चाहती हूं इन दोनों से दूर रहूं,’’ सरला बोली, ‘‘अपनी मनहूसियत ये आसपास हर जगह फैलाते हैं. बच्चे हैं क्या ये दोनों? इन के बच्चे भी इसीलिए दूर रहते हैं. पिछले साल अंकल अमेरिका गए थे तो आंटी कहती थीं कि 205 नंबर वाली भी साथ चली गई है. ये खुद जैसे दूध की धुली हैं न. इन की तकलीफ भी यही है अब.
‘‘खो गई जवानी और फीकी पड़ गई खूबसूरती का दर्द इन से अब सहा नहीं जा रहा, जवानी की खूबसूरती ही इन्हें जीने नहीं देती. वह नशा आज भी आंटी को तड़पाता रहता है. बूढ़ी हो गई हैं पर अभी भी ये दिनरात अपनी खूबसूरती की तारीफ सुनना चाहती हैं. अंकल वह सब नहीं करते इसलिए नाराज हो उन की बदनामी करती हैं.
‘‘यह भी तो एक बीमारी है न कि कोई औरत दिनरात अपने ही गुणों का बखान सुनना चाहे और गुण भी वह जिस में अपना कोई भी योगदान न हो. रूप क्या खुद पैदा किया जा सकता है…जिस गुण को घटानेबढ़ाने में अपनी कोई जोर- जबरदस्ती ही न चलती हो उस पर कैसा अभिमान और कैसी अकड़…’’
बड़बड़ाती रही सरला देर तक. 2 दिन ही बीते होंगे कि सुबहसुबह आंटी चली आईं. शिष्टाचार कैसे भूल जाती मैं. सम्मान सहित बैठाया. पति आफिस जा चुके थे. उस दिन मजदूर भी छुट्टी पर थे.
‘‘कहो, कैसी हो. घर का कितना काम शेष रह गया है?’’
‘‘आंटी, बस थोड़ा ही बचा है.’’
‘‘आज भी कोई पार्टी दे रहे हो क्या? दीवाली की रात तो तुम्हारे घर पूरी रात ताशबाजी चलती रही थी. अच्छी मौजमस्ती कर लेते हो तुम लोग भी. मैं ने पूछा तो तुम ने कह दिया था, तुम्हें तो ताश ही खेलना नहीं आता जबकि पूरी रात गाडि़यां खड़ी रही थीं. सुनो, कल तुम्हारे घर 2 आदमी कौन आए थे?’’
‘‘कल, कल तो पूरा दिन मैं नए घर में व्यस्त थी.’’
‘‘नहींनहीं, मैं ने खुद तुम्हें उन से बातें करते देखा था.’’
‘‘कैसी बातें कर रही हैं आप, मिसेज शर्मा?…और दीवाली पर भी हम यहां नहीं थे.’’
‘‘तुम्हारे घर में रोशनी तो थी.’’
‘‘हम घर में जीरो वाट का बल्ब जला कर गए थे कि त्योहार पर घर में अंधेरा न हो और ऐसा भी लगे कि घर पर कोई है.’’
‘‘नहीं, झूठ क्यों बोल रही हो?’’
‘‘मैं झूठ बोल रही हूं. क्यों बोल रही हूं मैं झूठ? मुझे क्या जरूरत है जो मैं झूठ बोल रही हूं,’’ स्तब्ध रह गई मैं.
‘‘तुम्हारे घर के मजे हैं. एक गेट मेरे घर के सामने दूसरा पिछवाड़े. इधर ताला लगा कर सब से कहो कि हम घर पर नहीं थे. उधर पिछले गेट से चाहे जिसे अंदर बुला लो. क्या पता चलता है किसी को.’’
हैरान रह गई मैं. सच में आंटी पागल हैं क्या? समझ में आ गया मुझे और पागल से मैं क्या सर फोड़ती. शर्माजी कुछ नहीं कर पाए तो मैं क्या कर लेती, सच कहा था सरला ने, कहानियां बना लेती हैं आंटी और कहानियां भी वे जिन में उन की अपनी नीयत झलकती है, अपना सारा शक झलकता है. अपना ही अवचेतन मन और अपने ही चरित्र की छाया उन्हें सभी में नजर आती है, शायद वे स्वयं ही चरित्रहीन होंगी जिस की झलक अपने पति में भी देखती होंगी. कौन जाने सच क्या है.
उसी पल निर्णय ले लिया मैं ने कि अब इन से कोई शिष्टाचार नहीं निभाऊंगी. अत: बोली, ‘‘मिसेज शर्मा, आज मुझे घर के लिए कुछ सामान लेने बाजार जाना है. किसी और दिन साथसाथ बैठेंगे हम?’’
मेरा टालना शायद वे समझ गईं इसलिए हंसने लगीं, ‘‘आजकल शर्माजी से दोस्ती कर ली है न तुम ने और सरला ने. बता रहे थे मुझे…कह रहे थे, तुम दोनों भी मुझे ही पागल कहती हो. बुलाऊं उन्हें अंदर ही बैठे हैं. आमनासामना करा दूं.’’
कहीं यह पागल औरत अब हम दोनों का नाम ही अंकल के साथ न जोड़ दे. यह सोच कर चुप रही मैं और फिर हाथ पकड़ कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था. अच्छा नहीं लगा था मुझे अपना यह व्यवहार पर मैं क्या करती. मुझे भी तो सांस लेनी थी. एक पागल का मान मैं कब तक करती.
वह दिन और आज का दिन, जब तक हम उस घर में रहे और उस के बाद जब अपने घर में चले आए, हम ने उस परिवार से नाता ही तोड़ दिया. अकसर आंटी गेट खटखटाती रही थीं जब तक हम उन के पड़ोस में रहे.
आज पता चला कि अंकल चल बसे. पता नहीं क्यों बड़ी खुशी हुई मुझे. गलत कौन था कौन सही उस का मैं क्या कहूं. एक वयोवृद्ध दंपती अपनी जवानी में क्याक्या गुल खिलाता रहा उस की चिंता भी मैं क्यों करूं. बस, शर्मा अंकल इस कष्ट भरे जीवन से छुटकारा पा गए यही आज का सब से बड़ा सच है. आंखें भर आई हैं मेरी. मौत जीवन की सब से बड़ी और कड़वी सचाई है. समझ नहीं पा रही हूं कि शर्मा अंकल की मौत पर अफसोस मनाऊं या चैन की सांस लूं.
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यह कैसी विडंबना : भाग 1
यह कैसी विडंबना: भाग 2
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पूर्व कथा
15 साल बाद परिवार समेत ममता एक बार फिर दिल्ली में बसीं. वे उसी महल्ले व उसी घर में रहने लगीं जहां पहले रह कर गई थीं. घर के सामने अभी भी शर्मा दंपती रहते हैं. दादीनानी बनने के बाद भी श्रीमती शर्मा का साजशृंगार उन की तीनों बहुओं से बढ़ कर होता है. पुरानी पड़ोसिन सरला ने ममता को बताया कि श्रीमती शर्मा के नाजनखरे तो आज भी वही हैं मगर पतिपत्नी के रोजरोज के झगड़े बहुत बुरे हैं, दिनरात कुत्तेबिल्ली की तरह लड़ते हैं. तुम्हें भी इन के झगड़ने की आवाजें विचलित करेंगी. 75 वर्षीय श्रीमती शर्मा कहती हैं कि उन के 80 वर्षीय पति शर्माजी का एक औरत से चक्कर है. एक लड़की भी है उस से…ममता यह सुन कर अवाक् रह जाती है. हालांकि उसे यहां दोबारा आए 2 दिन ही हुए और वह शर्मा आंटी से बहुत प्रभावित हुई थी, उन की साफसफाई, उन के जीने के तरीके से. 5-6 दिन बीतने के बाद भी किसी तरह के लड़नेझगड़ने की आवाज नहीं आई तो ममता सोचती है कि उसे जो बताया गया है, वह गलत होगा. इस बीच, शर्मा दंपती ममता के घर पधारे. दोनों ने हंसीखुशी ममता के साथ खूब गपशप की, दोपहर को वहीं खाना खाया. शाम को पति आए तो ममता उन के साथ शर्मा दंपती से मिलने उन के घर गई. इस तरह वे अच्छे पड़ोसी बन गए. सरला यह जान कर हैरान हो जाती है. वह ममता को समझाने लगती है कि अपना ध्यान रखना, शर्मा आंटी कहानियां गढ़ लेती हैं. इन्होंने अपनी तो उतार रखी है. कहीं ऐसा न हो, तुम्हारी भी उतार कर रख दें. इधर, दीवाली आने को होती है और ममता घर का बल्ब जला कर परिवार समेत जम्मू चली जाती है. अब आगे…
श्रीमती शर्मा से प्रभावित ममता अपनी पड़ोसिन सरला के मशविरे की अनदेखी करती रही लेकिन एक दिन वही ममता अपने घर से श्रीमती शर्मा को बाहर करती नजर आई. वहीं जब शर्माजी का देहांत हुआ तो वह इस असमंजस में दिखी कि अफसोस करे या सुकून की सांस ले.
गतांक से आगे…
अंतिम भाग
सरला ने जम्मू से चावल मंगवाए थे. वापस आने पर सामान आदि खोला. सोचा, सरला को फोन करती हूं, आ कर अपना सामान ले जाए. तभी 2 लोगों की चीखपुकार शुरू हो गई. गंदीगंदी गालियां और जोरजोर से रोना- पीटना.
मैं घबरा कर बाहर आई. शर्मा आंटी रोतीपीटती मेरे गेट के पास खड़ी थीं. लपक कर बाहर चली आई मैं.
‘‘क्या हो गया आंटी, आप ठीक तो हैं न?’’
‘‘अभीअभी यह आदमी 205 नंबर से हो कर आया है. अरे, अपनी उम्र का तो खयाल करता.’’
अंकल चुपचाप अपने दरवाजे पर खड़े थे. क्याक्या शब्द आंटी कह गईं, मैं यहां लिख नहीं सकती. अपने पति को तो वे नंगा कर रही थीं और नजरें मेरी झुकी जा रही थीं. पता नहीं कहां से इतनी हिम्मत चली आई मुझ में जो दोनों को उन के घर के अंदर धकेल कर मैं ने उन का गेट बंद कर दिया. मन इतना भारी हो गया कि रोना आ गया. क्या कर रहे हैं ये दोनों. शरम भी नहीं आती इन्हें. जब जवानी में पति को मर्यादा का पाठ नहीं पढ़ा पाईं तो इस उम्र में उसी शौक पर चीखपुकार क्यों?
सच तो यही है कि अनैतिकता सदा ही अनैतिक है. मर्यादा भंग होने को कभी भी स्वीकार नहीं किया जा सकता. पतिपत्नी के रिश्ते में पवित्रता, शालीनता और ईमानदारी का होना अति आवश्यक है. शर्मा आंटी की खूबसूरती यदि जवानी में सब को लुभाती थी तब क्या शर्मा अंकल को अच्छा लगता होगा. हो सकता है पत्नी को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल भी किया हो.
जवानी में जोजो रंग पतिपत्नी घोलते रहे उन की चर्चा तो आंटी मुझ से कर ही चुकी थीं और बुढ़ापे में उसी टूटी पवित्रता की किरचें पलपल मनप्राण लहूलुहान न करती रहें ऐसा तो मुमकिन है ही नहीं. अनैतिकता का बीज जब बोया जाता तब कोई नहीं देखता, लेकिन जब उस का फल खाना पड़ता है तब बेहद पीड़ा होती है, क्योंकि बुढ़ापे में शरीर इतना बलवान नहीं होता जो पूरा का पूरा फल एकसाथ डकार सके.
सरला से बात हुई तो वह बोली, ‘‘मैं ने कहा था न कि इन से दूर रह. अब अपना मन भी दुखी कर लिया न.’’
उस घटना के बाद हफ्ता बीत गया. सुबह 5 बजे ही दोनों शुरू हो जाते. शालीनता और तमीज ताक पर रख कर हर रोज एक ही जहर उगलते. परेशान हो जाती मैं. आखिर कब यह घड़ा खाली होगा.
संयोग से वहीं पास ही में हमें एक अच्छा घर मिल गया. चूंकि पति का रिटायरमैंट पास था, इसलिए उसे खरीद लिया हम ने और उसी को सजानेसंवारने में व्यस्त हो गए. नया साल शुरू होने वाला था. मन में तीव्र इच्छा थी कि नए साल की पहली सुबह हम अपने ही घर में हों. महीना भर था हमारे पास, थोड़ीबहुत मरम्मत, रंगाईपुताई, कुछ लकड़ी का काम बस, इसी में व्यस्त हो गए हम दोनों. कुछ दिन को बच्चे भी आ कर मदद कर गए.
एक शाम जरा सी थकावट थी इसलिए मैं जा नहीं पाई थी. घर पर ही थी. सरला चली आई थी मेरा हालचाल पूछने. हम दोनों चाय पी रही थीं तभी द्वार पर दस्तक हुई. शर्मा अंकल थे सामने. कमीज की एक बांह लटकी हुई थी. चेहरे पर जगहजगह सूजन थी.
‘‘यह क्या हुआ आप को, अंकल?’’
‘‘एक्सीडेंट हो गया था बेटा.’’
‘‘कब और कैसे हो गया?’’
पता चला 2 दिन पहले स्कूटर बस से टकरा गया था. हर पल का क्लेश कुछ तो करता है न. तरस आ गया था हमें.
‘‘बाजू टूट गई है क्या?’’
‘‘टूटी नहीं है…कंधा उतर गया है. 3 हफ्ते तक छाती से बांध कर रखना पड़ेगा. बेटा, मुझे तुम से कुछ काम है. जरा मदद करोगी?’’
‘‘हांहां, अंकल, बताइए न.’’
‘‘बेटा, मैं बड़ा परेशान हूं. तनिक अपनी आंटी को समझाओ न. मैं कहां जाऊं…मेरा तो जीना हराम कर रखा है इस ने. तुम जरा मेरी उम्र देखो और इस का शक देखो. तुम दोनों मेरी बेटी जैसी हो. जरा सोचो, जो सब यह कहती है क्या मैं कर सकता हूं. कहती है मैं मकान नंबर 205 में जाता हूं. जरा इसे साथ ले जाओ और ढूंढ़ो वह घर जहां मैं जाता हूं.’’
80 साल के शर्मा अंकल रोने लगे थे.
‘‘वहम की बीमारी है इसे. किसी से भी बात करूं मैं तो मेरा नाम उसी के साथ जोड़ देती है. हर रिश्ता ताक पर रख छोड़ा है इस ने.’’
‘‘आप ने आंटी का इलाज नहीं कराया?’’
‘‘अरे, हजार बार कराया. डाक्टर को ही पागल बता कर भेज दिया इस ने. मेरी जान भी इतनी सख्त है कि निकलती ही नहीं. एक्सीडैंट में मेरे स्कूटर के परखच्चे उड़ गए और मुझे देखो, मैं बच गया…मैं मरता भी तो नहीं. हर सुबह उठ कर मौत की दुआएं मांगता हूं…कब वह दिन आएगा जब मैं मरूंगा.’’
सरला और मैं चुपचाप उन्हें रोते देखती रहीं. सच क्या होगा या क्या हो सकता है हम कैसे अंदाजा लगातीं. जीवन का कटु सत्य हमारे सामने था. अगर शर्माजी जवानी में चरित्रहीन थे तो उस का प्रतिकार क्या इस तरह नहीं होना चाहिए? और सब से बड़ी बात हम भी कौन हैं निर्णय लेने वाले. हजार कमी हैं हमारे अंदर. हम तो केवल मानव बन कर ही किसी दूसरे मानव की पीड़ा सुन सकती थीं. अपनी लगाई आग में सिर्फ खुदी को जलना पड़ता है, यही एक शाश्वत सचाई है.
रोधो कर चले गए अंकल. यह सच है, दुखी इनसान सदा दुख ही फैलाता है. शर्माजी की तकलीफ हमारी तकलीफ नहीं थी फिर भी हम तकलीफ में आ गई थीं. मूड खराब हो गया था सरला का.
‘‘इसीलिए मैं चाहती हूं इन दोनों से दूर रहूं,’’ सरला बोली, ‘‘अपनी मनहूसियत ये आसपास हर जगह फैलाते हैं. बच्चे हैं क्या ये दोनों? इन के बच्चे भी इसीलिए दूर रहते हैं. पिछले साल अंकल अमेरिका गए थे तो आंटी कहती थीं कि 205 नंबर वाली भी साथ चली गई है. ये खुद जैसे दूध की धुली हैं न. इन की तकलीफ भी यही है अब.
‘‘खो गई जवानी और फीकी पड़ गई खूबसूरती का दर्द इन से अब सहा नहीं जा रहा, जवानी की खूबसूरती ही इन्हें जीने नहीं देती. वह नशा आज भी आंटी को तड़पाता रहता है. बूढ़ी हो गई हैं पर अभी भी ये दिनरात अपनी खूबसूरती की तारीफ सुनना चाहती हैं. अंकल वह सब नहीं करते इसलिए नाराज हो उन की बदनामी करती हैं.
‘‘यह भी तो एक बीमारी है न कि कोई औरत दिनरात अपने ही गुणों का बखान सुनना चाहे और गुण भी वह जिस में अपना कोई भी योगदान न हो. रूप क्या खुद पैदा किया जा सकता है…जिस गुण को घटानेबढ़ाने में अपनी कोई जोर- जबरदस्ती ही न चलती हो उस पर कैसा अभिमान और कैसी अकड़…’’
बड़बड़ाती रही सरला देर तक. 2 दिन ही बीते होंगे कि सुबहसुबह आंटी चली आईं. शिष्टाचार कैसे भूल जाती मैं. सम्मान सहित बैठाया. पति आफिस जा चुके थे. उस दिन मजदूर भी छुट्टी पर थे.
‘‘कहो, कैसी हो. घर का कितना काम शेष रह गया है?’’
‘‘आंटी, बस थोड़ा ही बचा है.’’
‘‘आज भी कोई पार्टी दे रहे हो क्या? दीवाली की रात तो तुम्हारे घर पूरी रात ताशबाजी चलती रही थी. अच्छी मौजमस्ती कर लेते हो तुम लोग भी. मैं ने पूछा तो तुम ने कह दिया था, तुम्हें तो ताश ही खेलना नहीं आता जबकि पूरी रात गाडि़यां खड़ी रही थीं. सुनो, कल तुम्हारे घर 2 आदमी कौन आए थे?’’
‘‘कल, कल तो पूरा दिन मैं नए घर में व्यस्त थी.’’
‘‘नहींनहीं, मैं ने खुद तुम्हें उन से बातें करते देखा था.’’
‘‘कैसी बातें कर रही हैं आप, मिसेज शर्मा?…और दीवाली पर भी हम यहां नहीं थे.’’
‘‘तुम्हारे घर में रोशनी तो थी.’’
‘‘हम घर में जीरो वाट का बल्ब जला कर गए थे कि त्योहार पर घर में अंधेरा न हो और ऐसा भी लगे कि घर पर कोई है.’’
‘‘नहीं, झूठ क्यों बोल रही हो?’’
‘‘मैं झूठ बोल रही हूं. क्यों बोल रही हूं मैं झूठ? मुझे क्या जरूरत है जो मैं झूठ बोल रही हूं,’’ स्तब्ध रह गई मैं.
‘‘तुम्हारे घर के मजे हैं. एक गेट मेरे घर के सामने दूसरा पिछवाड़े. इधर ताला लगा कर सब से कहो कि हम घर पर नहीं थे. उधर पिछले गेट से चाहे जिसे अंदर बुला लो. क्या पता चलता है किसी को.’’
हैरान रह गई मैं. सच में आंटी पागल हैं क्या? समझ में आ गया मुझे और पागल से मैं क्या सर फोड़ती. शर्माजी कुछ नहीं कर पाए तो मैं क्या कर लेती, सच कहा था सरला ने, कहानियां बना लेती हैं आंटी और कहानियां भी वे जिन में उन की अपनी नीयत झलकती है, अपना सारा शक झलकता है. अपना ही अवचेतन मन और अपने ही चरित्र की छाया उन्हें सभी में नजर आती है, शायद वे स्वयं ही चरित्रहीन होंगी जिस की झलक अपने पति में भी देखती होंगी. कौन जाने सच क्या है.
उसी पल निर्णय ले लिया मैं ने कि अब इन से कोई शिष्टाचार नहीं निभाऊंगी. अत: बोली, ‘‘मिसेज शर्मा, आज मुझे घर के लिए कुछ सामान लेने बाजार जाना है. किसी और दिन साथसाथ बैठेंगे हम?’’
मेरा टालना शायद वे समझ गईं इसलिए हंसने लगीं, ‘‘आजकल शर्माजी से दोस्ती कर ली है न तुम ने और सरला ने. बता रहे थे मुझे…कह रहे थे, तुम दोनों भी मुझे ही पागल कहती हो. बुलाऊं उन्हें अंदर ही बैठे हैं. आमनासामना करा दूं.’’
कहीं यह पागल औरत अब हम दोनों का नाम ही अंकल के साथ न जोड़ दे. यह सोच कर चुप रही मैं और फिर हाथ पकड़ कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था. अच्छा नहीं लगा था मुझे अपना यह व्यवहार पर मैं क्या करती. मुझे भी तो सांस लेनी थी. एक पागल का मान मैं कब तक करती.
वह दिन और आज का दिन, जब तक हम उस घर में रहे और उस के बाद जब अपने घर में चले आए, हम ने उस परिवार से नाता ही तोड़ दिया. अकसर आंटी गेट खटखटाती रही थीं जब तक हम उन के पड़ोस में रहे.
आज पता चला कि अंकल चल बसे. पता नहीं क्यों बड़ी खुशी हुई मुझे. गलत कौन था कौन सही उस का मैं क्या कहूं. एक वयोवृद्ध दंपती अपनी जवानी में क्याक्या गुल खिलाता रहा उस की चिंता भी मैं क्यों करूं. बस, शर्मा अंकल इस कष्ट भरे जीवन से छुटकारा पा गए यही आज का सब से बड़ा सच है. आंखें भर आई हैं मेरी. मौत जीवन की सब से बड़ी और कड़वी सचाई है. समझ नहीं पा रही हूं कि शर्मा अंकल की मौत पर अफसोस मनाऊं या चैन की सांस लूं.
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यह कैसी विडंबना : भाग 1
यह कैसी विडंबना: भाग 2
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September 30, 2019 at 10:29AMनिशान: भाग 1
भाग 1
उस दिन शन्नो ताई के आने के बाद सब के चेहरों पर फिर से उम्मीद की किरण चमकने लगी थी. ऐसा होता भी क्यों नहीं, आखिर ताई 2 साल बाद घर की बेटी मासूमी के लिए इतना अच्छा रिश्ता जो लाई थीं. लड़के ने इंजीनियरिंग और एम.बी.ए. की डिगरी ली हुई थी. 2 साल विदेश में रह कर पैसा भी खूब कमाया हुआ था. उस की 32 साल की उम्र मासूमी की 28 साल की उम्र के हिसाब से अधिक भी नहीं थी. खानदान भी उस का अच्छा था. रिश्ता लड़के वालों की तरफ से आया था, सो मना करने की गुंजाइश ही नहीं थी. सब से बड़ी बात तो यह थी कि जिस कारण से मासूमी का विवाह नहीं हो पा रहा था वह समस्या अब 2 साल से सामने नहीं आई थी.
हर मातापिता की तरह मासूमी के मातापिता भी चाहते थे कि बेटी को वे खूब धूमधाम से विदा कर ससुराल भेज सकें. फिर भी उस का विवाह नहीं हो पा रहा था. 2 भाइयों की इकलौती बहन, खातापीता घर और कम बोलने व सरल स्वभाव वाली मासूमी घर के कामों में निपुण थी. खूबसूरत लड़की के लिए रिश्तों की भी कमी नहीं थी पर समस्या तब आती थी जब कहीं उस के रिश्ते की बात चलती थी.
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पहले दोचार दिन तो मासूमी ठीक रहती थी पर जैसे ही रिश्ता पक्का होने की बात होती उसे दौरा सा पड़ जाता था. उस की हालत अजीब सी हो जाती, हाथपैर ठंडे पड़ जाते, शरीर कांपने लगता और होंठ नीले पड़ जाते थे. वह फटी सी आंखों से बस, देखती रह जाती और जबान पथरा जाती थी. सब पूछने की कोशिश कर के हार जाते थे कि मासूमी, कुछ तो बोल, तेरी ऐसी हालत क्यों हो जाती है. तू कुछ बता तो सही. पर मासूमी की जबान पर जैसे ताला सा पड़ा रहता. बस, कभीकभी चीख उठती थी, ‘नहीं, नहीं, मुझे बचा लो. मैं मर जाऊंगी. नहीं करनी मुझे शादी.’ और फिर रिश्ते वालों को मना कर दिया जाता.
शुरूशुरू में तो उस की हालत को परिवार वालों ने छिपाए रखा. सो रिश्ते आते रहे और वही समस्या सामने आती रही पर धीरेधीरे यह बात रिश्तेदारों और फिर बाहर वालों को भी पता चल गई. तरहतरह की बातें होने लगीं. कोई हमदर्दी दिखाने के साथ उसे तांत्रिकों के पास ले जाने की सलाह देता तो कोई साधुसंतों का आशीर्वाद दिलाने को कहता और कोई डाक्टरों को दिखाने की बात करता, पर कोई बीमारी होती तो उस का इलाज होता न.
एक दिन मौसी से बूआजी ने कह भी दिया, ‘‘मुझे तो दाल में काला लगता है. चाहे कोई माने न माने, मुझे तो लग रहा है कि लड़की कहीं दिल लगा बैठी है और शर्म के मारे मांबाप के सामने मुंह नहीं खोल पा रही है वरना ऐसा क्या हो गया कि इतने अच्छेअच्छे घरों के रिश्ते ठुकरा रही है. अरे, यह जहां कहेगी हम इस का रिश्ता कर देंगे. कम से कम यह आएदिन की परेशानी तो हटे.’’
‘‘हां, दीदी, लगता तो मुझे भी कुछ ऐसा ही है, लेकिन उस समय उस की हालत देखी नहीं जाती. रिश्ते का क्या, कहीं न कहीं हो ही जाएगा. इकलौती भांजी है मेरी, कुछ तो रास्ता खोजना ही पड़ेगा,’’ मौसी दुख से कहतीं.
और फिर जब मौसी ने एक दिन बातों ही बातों में बड़े लाड़ के साथ मासूमी के मन की बात जाननी चाही तो उस की आंखें फटी की फटी रह गईं, जैसे दुनिया का सब से बड़ा दोष उस के सिर मढ़ दिया गया हो. काफी देर बाद संभल कर बोली, ‘‘मौसी, आप ने ऐसा सोचा भी कैसे? क्या आप को मैं ऐसी लगती हूं कि इतना बड़ा कदम उठा सकूं?’’
ये भी यह कैसी विडंबना: भाग 2
‘‘नहीं बेटा, यह कोई गुनाह या अपराध नहीं है. हम तो बस, तेरे मन की बात जान कर तेरी मदद करना चाहते हैं, तेरा घर बसाना चाहते हैं.’’
‘‘क्या कहूं मौसी, मैं तो खुद हैरान हूं कि रिश्ते की बात चलते ही जाने मुझे क्या हो जाता है. बस, यह समझ लीजिए कि मुझे शादी के नाम से नफरत है. मैं सारी जिंदगी शादी नहीं करूंगी,’’ मासूमी सिर झुकाए कहती रही और फिर सच में वह 18 से 28 साल की हो गई पर उस ने शादी के लिए हां नहीं की.
हालांकि कई बार मासूमी को विवाह की अहमियत का एहसास होता था कि मातापिता नहीं रहेंगे, भाई शादी के बाद अपने घरपरिवार में व्यस्त हो जाएंगे तो उसे कौन सहारा देगा. उसे भी शादी कर के घर बसा लेना चाहिए. उस की सखीसहेलियों के विवाह हो चुके थे और कितनों के तो बच्चे भी हो गए हैं.
अब इतने लंबे समय के बाद इस उम्र में उस के लिए इतना अच्छा रिश्ता आया था. सब को यही उम्मीद थी कि अब इतना समय गुजरने के बाद वह समझदार हो गई होगी और सोचसमझ कर फैसला लेगी पर मासूमी ने फिर मना कर दिया था. पूरे हफ्ते तो इसी उधेड़बुन में लगी रही और आखिर में उसे यही लगा कि विवाह का रिश्ता संभालने में वह असफल रहेगी.
उस रात वह जी भर कर रोई. इन सब बातों में उस का दोष सिर्फ इतना ही था कि उसे लगता था कि वह किसी की जिंदगी में शामिल हो कर उसे कोई खुशी देने के लायक नहीं है. रात भर अनेक विचार उस के दिमाग में आतेजाते रहे और सुबह उसे फिर दौरा पड़ गया था.
मां ने मासूमी के सिर में नारियल के तेल की मालिश की थी. उसे बादाम का दूध पिलाया था. दोनों भाई बारबार उसे आ कर देख जाते थे. पिता उस के बराबर में सिर झुकाए बैठे सोच रहे थे कि आखिर क्या दुख है मेरी बेटी को? कोई कमी नहीं है. सब लोग इसे इतना प्यार करते हैं, फिर कौन सा दुख है जो इसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है? पर मासूमी के होंठों पर फैली उस फीकी मुसकान का राज कोई नहीं समझ सका जिस ने उस के अस्तित्व को ही टुकडे़टुकड़े कर दिया था.
मासूमी ने बहुत कोशिश की थी खुद को बहलाने की, अकेली जिंदगी के कड़वे सच का आईना खुद को दिखाने की, लेकिन हर बार मायूसी ही उस के हाथ लगी थी. बिस्तर पर लेटी आंखें छत पर जमाए वह अतीत की गलियों से गुजर रही थी कि भाई राकेश की आवाज पर ध्यान गया, जिस ने गुस्से में पहले गमले को ठोकर मारी फिर अंदर आ कर मां से बोला, ‘‘मां, आप पापा को समझा दीजिए. उन्हें कुछ तो सोचना चाहिए कि वे कहां बोल रहे हैं. हमें कहीं भी डांटना, गाली देना शुरू कर देते हैं. हमारी इज्जत का उन्हें तनिक भी खयाल नहीं है. अब हम बच्चे तो नहीं रहे न.’’
क्रमश:
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भाग 1
उस दिन शन्नो ताई के आने के बाद सब के चेहरों पर फिर से उम्मीद की किरण चमकने लगी थी. ऐसा होता भी क्यों नहीं, आखिर ताई 2 साल बाद घर की बेटी मासूमी के लिए इतना अच्छा रिश्ता जो लाई थीं. लड़के ने इंजीनियरिंग और एम.बी.ए. की डिगरी ली हुई थी. 2 साल विदेश में रह कर पैसा भी खूब कमाया हुआ था. उस की 32 साल की उम्र मासूमी की 28 साल की उम्र के हिसाब से अधिक भी नहीं थी. खानदान भी उस का अच्छा था. रिश्ता लड़के वालों की तरफ से आया था, सो मना करने की गुंजाइश ही नहीं थी. सब से बड़ी बात तो यह थी कि जिस कारण से मासूमी का विवाह नहीं हो पा रहा था वह समस्या अब 2 साल से सामने नहीं आई थी.
हर मातापिता की तरह मासूमी के मातापिता भी चाहते थे कि बेटी को वे खूब धूमधाम से विदा कर ससुराल भेज सकें. फिर भी उस का विवाह नहीं हो पा रहा था. 2 भाइयों की इकलौती बहन, खातापीता घर और कम बोलने व सरल स्वभाव वाली मासूमी घर के कामों में निपुण थी. खूबसूरत लड़की के लिए रिश्तों की भी कमी नहीं थी पर समस्या तब आती थी जब कहीं उस के रिश्ते की बात चलती थी.
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पहले दोचार दिन तो मासूमी ठीक रहती थी पर जैसे ही रिश्ता पक्का होने की बात होती उसे दौरा सा पड़ जाता था. उस की हालत अजीब सी हो जाती, हाथपैर ठंडे पड़ जाते, शरीर कांपने लगता और होंठ नीले पड़ जाते थे. वह फटी सी आंखों से बस, देखती रह जाती और जबान पथरा जाती थी. सब पूछने की कोशिश कर के हार जाते थे कि मासूमी, कुछ तो बोल, तेरी ऐसी हालत क्यों हो जाती है. तू कुछ बता तो सही. पर मासूमी की जबान पर जैसे ताला सा पड़ा रहता. बस, कभीकभी चीख उठती थी, ‘नहीं, नहीं, मुझे बचा लो. मैं मर जाऊंगी. नहीं करनी मुझे शादी.’ और फिर रिश्ते वालों को मना कर दिया जाता.
शुरूशुरू में तो उस की हालत को परिवार वालों ने छिपाए रखा. सो रिश्ते आते रहे और वही समस्या सामने आती रही पर धीरेधीरे यह बात रिश्तेदारों और फिर बाहर वालों को भी पता चल गई. तरहतरह की बातें होने लगीं. कोई हमदर्दी दिखाने के साथ उसे तांत्रिकों के पास ले जाने की सलाह देता तो कोई साधुसंतों का आशीर्वाद दिलाने को कहता और कोई डाक्टरों को दिखाने की बात करता, पर कोई बीमारी होती तो उस का इलाज होता न.
एक दिन मौसी से बूआजी ने कह भी दिया, ‘‘मुझे तो दाल में काला लगता है. चाहे कोई माने न माने, मुझे तो लग रहा है कि लड़की कहीं दिल लगा बैठी है और शर्म के मारे मांबाप के सामने मुंह नहीं खोल पा रही है वरना ऐसा क्या हो गया कि इतने अच्छेअच्छे घरों के रिश्ते ठुकरा रही है. अरे, यह जहां कहेगी हम इस का रिश्ता कर देंगे. कम से कम यह आएदिन की परेशानी तो हटे.’’
‘‘हां, दीदी, लगता तो मुझे भी कुछ ऐसा ही है, लेकिन उस समय उस की हालत देखी नहीं जाती. रिश्ते का क्या, कहीं न कहीं हो ही जाएगा. इकलौती भांजी है मेरी, कुछ तो रास्ता खोजना ही पड़ेगा,’’ मौसी दुख से कहतीं.
और फिर जब मौसी ने एक दिन बातों ही बातों में बड़े लाड़ के साथ मासूमी के मन की बात जाननी चाही तो उस की आंखें फटी की फटी रह गईं, जैसे दुनिया का सब से बड़ा दोष उस के सिर मढ़ दिया गया हो. काफी देर बाद संभल कर बोली, ‘‘मौसी, आप ने ऐसा सोचा भी कैसे? क्या आप को मैं ऐसी लगती हूं कि इतना बड़ा कदम उठा सकूं?’’
ये भी यह कैसी विडंबना: भाग 2
‘‘नहीं बेटा, यह कोई गुनाह या अपराध नहीं है. हम तो बस, तेरे मन की बात जान कर तेरी मदद करना चाहते हैं, तेरा घर बसाना चाहते हैं.’’
‘‘क्या कहूं मौसी, मैं तो खुद हैरान हूं कि रिश्ते की बात चलते ही जाने मुझे क्या हो जाता है. बस, यह समझ लीजिए कि मुझे शादी के नाम से नफरत है. मैं सारी जिंदगी शादी नहीं करूंगी,’’ मासूमी सिर झुकाए कहती रही और फिर सच में वह 18 से 28 साल की हो गई पर उस ने शादी के लिए हां नहीं की.
हालांकि कई बार मासूमी को विवाह की अहमियत का एहसास होता था कि मातापिता नहीं रहेंगे, भाई शादी के बाद अपने घरपरिवार में व्यस्त हो जाएंगे तो उसे कौन सहारा देगा. उसे भी शादी कर के घर बसा लेना चाहिए. उस की सखीसहेलियों के विवाह हो चुके थे और कितनों के तो बच्चे भी हो गए हैं.
अब इतने लंबे समय के बाद इस उम्र में उस के लिए इतना अच्छा रिश्ता आया था. सब को यही उम्मीद थी कि अब इतना समय गुजरने के बाद वह समझदार हो गई होगी और सोचसमझ कर फैसला लेगी पर मासूमी ने फिर मना कर दिया था. पूरे हफ्ते तो इसी उधेड़बुन में लगी रही और आखिर में उसे यही लगा कि विवाह का रिश्ता संभालने में वह असफल रहेगी.
उस रात वह जी भर कर रोई. इन सब बातों में उस का दोष सिर्फ इतना ही था कि उसे लगता था कि वह किसी की जिंदगी में शामिल हो कर उसे कोई खुशी देने के लायक नहीं है. रात भर अनेक विचार उस के दिमाग में आतेजाते रहे और सुबह उसे फिर दौरा पड़ गया था.
मां ने मासूमी के सिर में नारियल के तेल की मालिश की थी. उसे बादाम का दूध पिलाया था. दोनों भाई बारबार उसे आ कर देख जाते थे. पिता उस के बराबर में सिर झुकाए बैठे सोच रहे थे कि आखिर क्या दुख है मेरी बेटी को? कोई कमी नहीं है. सब लोग इसे इतना प्यार करते हैं, फिर कौन सा दुख है जो इसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है? पर मासूमी के होंठों पर फैली उस फीकी मुसकान का राज कोई नहीं समझ सका जिस ने उस के अस्तित्व को ही टुकडे़टुकड़े कर दिया था.
मासूमी ने बहुत कोशिश की थी खुद को बहलाने की, अकेली जिंदगी के कड़वे सच का आईना खुद को दिखाने की, लेकिन हर बार मायूसी ही उस के हाथ लगी थी. बिस्तर पर लेटी आंखें छत पर जमाए वह अतीत की गलियों से गुजर रही थी कि भाई राकेश की आवाज पर ध्यान गया, जिस ने गुस्से में पहले गमले को ठोकर मारी फिर अंदर आ कर मां से बोला, ‘‘मां, आप पापा को समझा दीजिए. उन्हें कुछ तो सोचना चाहिए कि वे कहां बोल रहे हैं. हमें कहीं भी डांटना, गाली देना शुरू कर देते हैं. हमारी इज्जत का उन्हें तनिक भी खयाल नहीं है. अब हम बच्चे तो नहीं रहे न.’’
क्रमश:
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September 30, 2019 at 10:28AMकाले नाग की जोड़ी
पत्रकारिता के पेशे में हर दिन कुछ न कुछ नया देखने को मिलता है. यह एक ऐसा पेशा है, जिसमें आप कभी भी बोर नहीं हो सकते हैं. नये-नये लोगों से मिलना, नयी-नयी कहानियों से दो-चार होना, हर सुबह यह सोच कर घर से निकलना कि देखें आज कौन टकराता है. सरकारी नौकरी या किसी भी अन्य काम में इतना एक्साइटमेंट नहीं हो सकता, जितना पत्रकारिता में है. इसी वजह से मुझे अपना पेशा बहुत पसंद है और इसको छोड़ कर कुछ अन्य काम शुरू करने की बात कभी मेरे जहन में नहीं आयी.
मैंने कई शहरों में काम किया है. गांव, कस्बों, दलित बस्तियों के लोगों से मेरा जुड़ाव शुरू से बना रहा है. दिल्ली आने के बाद भी मैं अक्सर रिपोर्टिंग के दौरान गरीब बस्तियों में जाती थी और वहां की समस्याओं और कहानियों से रूबरू होती रहती थी. एक बार की बात है सपेरा जाति के विषय में मैं एक लेख तैयार कर रही थी. दिल्ली में पहले जंगल काफी थे, मगर अब काफी कम हो गये हैं. जंगल होने की वजह से यहां सपेरा जाति के काफी लोग रहते हैं. हालांकि अब ये लोग दिल्ली की सीमाओं पर छोटे-छोटे समूहों में बस्तियां बना कर रहते हैं. दिल्ली के सीमावर्ती जगहों जैसे रंगपुरी पहाड़ी, मांडी भाटी और शांति कैम्प में तम्बुओं और कच्ची झुग्गियों में गुजारा कर रहे इन लोगों के पास जीविका के साधन नाममात्र के हैं. जबसे देश में सांप पकड़ने, बंदर, भालू वगैरह पकड़ने और नचाने पर प्रतिबंध लगा है, तब से यह लोग भुखमरी का सामना कर रहे हैं. इनकी औरतें वेश्यावृत्ति के पेशे को अपनाने के लिए मजबूर हैं और आदमी मजदूरी वगैरह करके बच्चों का पेट पालते हैं.
ये भी पढ़ें- मेरा फुटबौल और बाबा की कुटिया
सपेरा जाति की औरतों के बीच उठते-बैठते मुझे उनकी कई कहानियां पता चलीं. कुछ महिलाओं से मेरी अच्छी दोस्ती भी हो गयी. उसके बाद मैं अक्सर उनके बीच जाकर उनकी समस्याओं के बारे में पत्रिका में लिखने लगी.
एक दिन मुझे वहां एक परिवार से न्योता मिला. उनके बेटे की शादी दूसरे परिवार की बेटी से तय हुई थी. मुझे भी दावत में बुलाया गया था. दिन की शादी थी. मैं नियत समय पर पहुंच गयी. वहां शादी की रस्में बड़ी रोचक थीं. वहां तमाम औरतें ढोलक पर अपनी भाषा में गा-बजा रही थीं. दो घंटे में पूरी शादी निपट गयी और एक टैंट से दुल्हन विदा होकर अपने दूल्हे के साथ दूसरे टैंट की ओर पैदल ही चलने को हुई. तभी मैंने देखा कि दुल्हन के पिता ने दूल्हे के हाथों में एक बड़ा सा पिटारा लाकर रखा. मैं चौंक पड़ी. मुझे लगा कि शायद इसमें दूल्हे के लिए कपड़े और पैसा वगैरह होगा. पिटारा देखकर वर पक्ष खुशी से चीखने-चिल्लाने लगा. खूब शोर उठने लगा. मैं भी बड़ी उत्साहित हुई और यह देखने के लिए कि ससुर जी ने दामाद को क्या गिफ्ट दिया है, मैं सबसे आगे जाकर खड़ी हो गयी. दूल्हे ने अपने परिजनों के सामने वह पिटारा खोला. अन्दर से फुंफकारते हुए दो काले नाग अपना फन उठा कर खड़े हो गये. मैं बिदक कर दो कदम पीछे हो गयी. इतने खतरनाक और जहरीले नाग! मैंने साथ खड़े आदमी से पूछा, ‘ये सांप कहां से आये? सरकार ने तो सांप पकड़ने पर प्रतिबंध लगा रखा है?’
वह बोला, ‘सरकार सांप पकड़ने और नचाने पर रोक लगा सकती है, हमारे रिवाजों पर तो नहीं लगा सकती. सपेरा जाति में शादी तब तक पूरी नहीं होती, जब तक दुल्हन का पिता दूल्हे को जहरीले सांप की जोड़ी की पिटारी न दे. इन दोनों की शादी भी पिछले पांच साल से अटकी हुई थी कि काले नाग की जोड़ी न मिल रही थी. देखिए कितने सुंदर नाग मिले हैं दूल्हे को.’
ये भी पढ़ें- हम हैं राही प्यार के: भाग 2
दूल्हा खुशी-खुशी पिटारे को सिर पर रख कर आगे चल दिया और उसकी दुल्हन उसके पीछे-पीछे. सब खुश थे. नाग की जोड़ी देखकर वर की तरफ के लोग काफी प्रफुल्लित थे, तो वधु के माता पिता के चेहरे पर भी बेटी को ब्याह कर और दामाद को उसकी सौगात देकर भरपूर खुशी झलक रही थी. मगर मैं इस सोच में डूबी थी कि जब सांप नचाने पर प्रतिबंध है तो फिर नागों की इस जोड़ी का यह दूल्हा करेगा क्या?
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पत्रकारिता के पेशे में हर दिन कुछ न कुछ नया देखने को मिलता है. यह एक ऐसा पेशा है, जिसमें आप कभी भी बोर नहीं हो सकते हैं. नये-नये लोगों से मिलना, नयी-नयी कहानियों से दो-चार होना, हर सुबह यह सोच कर घर से निकलना कि देखें आज कौन टकराता है. सरकारी नौकरी या किसी भी अन्य काम में इतना एक्साइटमेंट नहीं हो सकता, जितना पत्रकारिता में है. इसी वजह से मुझे अपना पेशा बहुत पसंद है और इसको छोड़ कर कुछ अन्य काम शुरू करने की बात कभी मेरे जहन में नहीं आयी.
मैंने कई शहरों में काम किया है. गांव, कस्बों, दलित बस्तियों के लोगों से मेरा जुड़ाव शुरू से बना रहा है. दिल्ली आने के बाद भी मैं अक्सर रिपोर्टिंग के दौरान गरीब बस्तियों में जाती थी और वहां की समस्याओं और कहानियों से रूबरू होती रहती थी. एक बार की बात है सपेरा जाति के विषय में मैं एक लेख तैयार कर रही थी. दिल्ली में पहले जंगल काफी थे, मगर अब काफी कम हो गये हैं. जंगल होने की वजह से यहां सपेरा जाति के काफी लोग रहते हैं. हालांकि अब ये लोग दिल्ली की सीमाओं पर छोटे-छोटे समूहों में बस्तियां बना कर रहते हैं. दिल्ली के सीमावर्ती जगहों जैसे रंगपुरी पहाड़ी, मांडी भाटी और शांति कैम्प में तम्बुओं और कच्ची झुग्गियों में गुजारा कर रहे इन लोगों के पास जीविका के साधन नाममात्र के हैं. जबसे देश में सांप पकड़ने, बंदर, भालू वगैरह पकड़ने और नचाने पर प्रतिबंध लगा है, तब से यह लोग भुखमरी का सामना कर रहे हैं. इनकी औरतें वेश्यावृत्ति के पेशे को अपनाने के लिए मजबूर हैं और आदमी मजदूरी वगैरह करके बच्चों का पेट पालते हैं.
ये भी पढ़ें- मेरा फुटबौल और बाबा की कुटिया
सपेरा जाति की औरतों के बीच उठते-बैठते मुझे उनकी कई कहानियां पता चलीं. कुछ महिलाओं से मेरी अच्छी दोस्ती भी हो गयी. उसके बाद मैं अक्सर उनके बीच जाकर उनकी समस्याओं के बारे में पत्रिका में लिखने लगी.
एक दिन मुझे वहां एक परिवार से न्योता मिला. उनके बेटे की शादी दूसरे परिवार की बेटी से तय हुई थी. मुझे भी दावत में बुलाया गया था. दिन की शादी थी. मैं नियत समय पर पहुंच गयी. वहां शादी की रस्में बड़ी रोचक थीं. वहां तमाम औरतें ढोलक पर अपनी भाषा में गा-बजा रही थीं. दो घंटे में पूरी शादी निपट गयी और एक टैंट से दुल्हन विदा होकर अपने दूल्हे के साथ दूसरे टैंट की ओर पैदल ही चलने को हुई. तभी मैंने देखा कि दुल्हन के पिता ने दूल्हे के हाथों में एक बड़ा सा पिटारा लाकर रखा. मैं चौंक पड़ी. मुझे लगा कि शायद इसमें दूल्हे के लिए कपड़े और पैसा वगैरह होगा. पिटारा देखकर वर पक्ष खुशी से चीखने-चिल्लाने लगा. खूब शोर उठने लगा. मैं भी बड़ी उत्साहित हुई और यह देखने के लिए कि ससुर जी ने दामाद को क्या गिफ्ट दिया है, मैं सबसे आगे जाकर खड़ी हो गयी. दूल्हे ने अपने परिजनों के सामने वह पिटारा खोला. अन्दर से फुंफकारते हुए दो काले नाग अपना फन उठा कर खड़े हो गये. मैं बिदक कर दो कदम पीछे हो गयी. इतने खतरनाक और जहरीले नाग! मैंने साथ खड़े आदमी से पूछा, ‘ये सांप कहां से आये? सरकार ने तो सांप पकड़ने पर प्रतिबंध लगा रखा है?’
वह बोला, ‘सरकार सांप पकड़ने और नचाने पर रोक लगा सकती है, हमारे रिवाजों पर तो नहीं लगा सकती. सपेरा जाति में शादी तब तक पूरी नहीं होती, जब तक दुल्हन का पिता दूल्हे को जहरीले सांप की जोड़ी की पिटारी न दे. इन दोनों की शादी भी पिछले पांच साल से अटकी हुई थी कि काले नाग की जोड़ी न मिल रही थी. देखिए कितने सुंदर नाग मिले हैं दूल्हे को.’
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दूल्हा खुशी-खुशी पिटारे को सिर पर रख कर आगे चल दिया और उसकी दुल्हन उसके पीछे-पीछे. सब खुश थे. नाग की जोड़ी देखकर वर की तरफ के लोग काफी प्रफुल्लित थे, तो वधु के माता पिता के चेहरे पर भी बेटी को ब्याह कर और दामाद को उसकी सौगात देकर भरपूर खुशी झलक रही थी. मगर मैं इस सोच में डूबी थी कि जब सांप नचाने पर प्रतिबंध है तो फिर नागों की इस जोड़ी का यह दूल्हा करेगा क्या?
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September 30, 2019 at 10:27AMनौकरी में सीमित, उद्योग में असीमित संभावनाएं
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उन्होंने कहा कि नौकरी में सीमित जबकि उद्योग में असीमित संभावनाएं हैं। इसलिए अपने कौशल और कला को बढ़ाएं।
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इस मामले में जानकारी मिली है कि अभिषेक की नौकरी चली गई थी। अभिषेक 18 लाख रुपये सालाना पैकेज की नौकरी पर थे।
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Good stories for kids in hindi and good story in hindi | बुढ़िया और बच्चो की कहानी
Good stories for kids in hindi and good story in hindi
Good stories for kids in hindi and good story in hindi, यह गुड स्टोरी कुछ बच्चो की है, जब वह किड्स यही बात सोच रहे थे की हमे जंगल में उस बुढ़िया के पास जाना चाहिए, वह जंगल में क्या करती है हमे इस बारे में पता करना चाहिए, वह दोनों बहुत अच्छे दोस्त है मगर वह इस बारे में पता करना चाहते थे, कुछ दिन पहले की बात है जब कुछ kids जंगल की और गए थे, उन्हें एक बुढ़िया नज़र आती है, वह जंगल में ही रहती है, वह सभी kids उसे दूर से देख रहे थे, उन्हें यही लग रहा था, की शायद वह कोई जादू करती है
Good stories for kids in hindi and good story in hindi
हमे चलकर देखना चाहिए वह सभी kids जब वह पर गए थे, तो उन्हें यही लगता था, but सच क्या है इस बारे में कुछ भी पता नही था, वह दोनों सभी kids से कहते है की हमे उस जंगल दुबारा जाना है और पता करना है की वह बुढ़िया जंगल में क्या करती है हमे यह काम कल ही करना होगा सभी किड्स तैयार हो जाते है उन्हें भी शायद पता करना था, कल का दिन आ गया था सभी किड्स अब जंगल में जाने को तैयार थे, वह सभी साथ में जाते है
वह बुढ़िया जंगल में अपनी झोपड़ी में नहीं थी सभी kids उसकी झोपडी देख रहे थे वह जानना चाहते थे की यह बुढ़िया यहां पर क्या करती है, वह झोपडी में देखते है तो वहा पर कुछ भी नज़र नहीं आता है, वह सभी kids वही पर रहते है तभी बुढ़िया भी आ जाती है, वह देखती है की सभी किड्स वही पर है. यह मेरे यहां पर क्या कर रहे है, वह सभी किड्स डर जाते है, Because बुढ़िया आ गयी थी,
बीरबल ने बचाया अकबर को नयी कहानी
वह बुढ़िया कहती है की तुम यहां पर क्या कर हो, सभी kids कहते है की हम यहां पर भटक गए है, यह सुनकर बुढ़िया कहती है की तुम्हे चिंता करने की जरूरत नहीं है में तुम्हे village का रास्ता बता सकती हु but तुम्हे भूख भी लगी होगी, पहले तुम्हे कुछ खाना देती हु वह सभी डर जाते है उन्हें लगता है की यह जादू करती है हो सकता है की इस खाने में भी कोई जादू कर सकती है वह सभी मना कर देते है, बुढ़िया को लगता है की सभी किड्स डर रहे है वह पूछती है की तुम डर क्यों रहे हो, मगर kids कहते है की ऐसी कोई बात नहीं है
राजकुमारी और जादूगर बुढ़िया की कहानी
तभी बुढ़िया कहती है की फिर तुम खाने को मना यो कर रहे हो, वह सभी kids अब कुछ नहीं कर सकते है वह सभी भागने की कोशिश करते है मगर बुढ़िया दरवाजा बंद कर देती है Because वह समझ नहीं पा रही थी की यह सभी क्यों डरे हुए है, वह सभी kids को कहती है की अब तुम यहां ऐसे नहीं जा सकते हो, जब तक तुम मुझे यह बात नहीं बता देते हो की तुम डर क्यों रहे हो, उसके बाद सभी कहते है की हमे ऐसा लगता है की आप जादू करती हो,
इसलिए हमे डर लग रहा है यह सुनकर बुढ़िया हसना शुरू कर देती है उसकी हंसी को देखकर सभी किध बहुत ज्यादा ही डर जाते है अब यह कोई जादू करने वाली है बुढ़िया कहती है की पता नहि तुम्हे यह किसने कहा है की में जादू करती हु वह बुढ़िया कहती है की में जादू नहीं करती हु तुम्हे कुछ भी पता नहीं है, सभी kids को लगता है क बुढ़िया झूट बोल रही है मगर यह सच है की बुढ़िया जादू नहीं जानती है, कुछ समय बाद सभी kids को समझ आता है की बुढ़िया सच कह रही है
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उसके बाद सभी खाना भी खाते है और पूछते की आप यहां पर रहती हो मुझे ऐसा लगता है की आप यहां पर अकेली हो, बुढ़िया कहती है की मुझे village से दूर हुए काफी साल हो गए है, उसके बाद वह बुढ़िया उन्हें village के रस्ते पर छोड़ देती है जब भी समय मिलता है सभी kids बुढ़िया के पास खेलने जरूर आते है क्योकि अब वह समय गए थे की वह बहुत अच्छी है और सभी का ख्याल रखती है, अगर आपको यह Good stories for kids in hindi and good story in hindi, कहानी पसंद आयी है तो शेयर जरूर करे
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