Wednesday 31 July 2019

Sarkari Naukri-Result 2019 LIVE Updates: इन सरकारी विभागों में जारी हैं नौकरी के ...

Sarkari Naukri-Result 2019 LIVE Updates: सरकारी नौकरी की तलाश में भटक रहे युवाओं के लिए यहां है देश में निकली हर नौकरी ...

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Sarkari Naukri-Result 2019 LIVE Updates: सरकारी नौकरी की तलाश में भटक रहे युवाओं के लिए यहां है देश में निकली हर नौकरी ...

SARKARI NAUKARI: सरकारी नौकरी पाने का शानदार मौका, बस यहां करना होगा ...

SARKARI NAUKARI: : सरकारी नौकरी के लिए तैयारी कर रहे युवाओं के पास सुनहरा अवसर हैं। नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन ...

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हाईकोर्ट में नौकरी लगवाने का झांसा दे कर डेढ़ लाख की धोखाधड़ी

पटियाला(बलजिन्द्र): थाना अर्बन एस्टेट की पुलिस ने हाईकोर्ट में नौकरी लगवाने का झांसा देकर डेढ़ लाख रुपए की ...

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12वीं पास युवाओं के लिए डाटा एंट्री ऑपरेटर पदों पर नौकरी का मौका, सैलरी ...

नौकरी का स्थान- नई दिल्ली. वेतन- इस भर्ती में इन पदों के लिए चयनित उम्मीदवारो को 18000 रु. प्रतिमाह वेतन प्राप्त ...

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बचपन मेरा कहां है

मनीषा और आतुर के लिए उन का बेटा गौतम पैसा उगाहने की मशीन बन गया था. उन्होंने अपने लालच और चाहतों के आगे गौतम का बचपन उस से छीन लिया था. काश, उन्हें वक्त रहते एहसास हो जाता कि गौतम की मासूमियत छीन कर वे उसे गर्त में धकेल रहे हैं…

सुबह अलार्म बजते ही अमीषा  हड़बड़ा कर उठी. वह गौतम के कमरे की ओर भागी, जो गहरी नींद में बेफिक्री से सो रहा था.‘‘उठो बेटा, मास्टरजी आते ही होंगे,’’ अमीषा लाड़ जताती हुई बोली, ‘‘राजा बेटा, जल्दी से नहा कर तैयार होगा, फिर मास्टरजी से संगीत सीखेगा, और फिर स्कूल जाएगा.’’

‘‘सोने दो न, मम्मी, मुझे नींद आ रही है,’’ गौतम अलसाई आवाज से बोला.

‘‘नहीं मेरे बच्चे, मास्टरजी आते ही होंगे, कितनी मुश्किल से वे राजी हुए हैं तुम्हें सिखाने को. कितनी बड़ी सिफारिश लगवाई है तुम्हारे पापा ने.’’ अमीषा गौतम को बाथरूम की तरफ लगभग धकेलते हुए ले गई थी.

थोड़ी ही देर में गौतम मास्टरजी के सामने था. उस की आंखों में नींद भरी थी और चेहरे  पर थकान साफ दिख रही थी. मास्टरजी हारमोनियम ले कर बैठ गए और आवाज साफ करते हुए बोले, ‘‘आज मैं तुम्हें रागदरबारी के बारे में बताऊंगा. इस राग पर आधारित कई फिल्मी गाने हैं, जैसे स्वर सम्राट मोहम्मद रफी का गाया फिल्म ‘बैजू बावरा’ का भजन.’’

मास्टरजी तन्मयता से पढ़ा रहे थे, तभी उन का ध्यान गौतम पर पड़ा जो बैठेबैठे ऊंघने लगा था. ‘‘कहां है तुम्हारा ध्यान? ऐसे संगीत नहीं सीखा जाता. संगीत एक साधना है. तुम इसे गंभीरता से नहीं ले रहे हो.’’

ऊंची आवाज सुन कर अमीषा और आतुर दोनों भागे आए. दोनों को एकसाथ आते देख गौतम सहम गया. मास्टरजी का संताप जारी था, ‘‘क्या हो गया है बच्चों को और इन के मांबापों को. संगीत सीखना है, मगर त्याग नहीं करना है. शिखर तक पहुंचना है मगर बिना सीढि़यां चढ़े.’’

अमीषा गौतम को वाशबेसिन तक ले गई और उस के चेहरे पर ठंडे पानी के छींटे डाले. थोड़ी देर में गौतम फिर से मास्टरजी के पास था. मास्टरजी ने सुर लगाए और गौतम को साथसाथ आलाप करने को कहा.

इंटर स्कूल कंपीटिशन में गौतम अपने स्कूल का प्रतिनिधित्व कर रहा था. बच्चों के साथसाथ उन के मातापिता व गुरुओं की पिछले एक महीने की मेहनत आज मंच पर सामने दिखने वाली थी. नतीजा आतेआते सब को एहसास हो गया था कि प्रथम पुरुस्कार गौतम को ही मिलना है.

तालियों की गड़गड़ाहट के बीच जब गौतम ने पुरस्कार लिया तो अमीषा के चेहरे पर चमक, मास्टरजी के चेहरे पर संतुष्टि और स्कूल के प्रिंसिपल के चेहरे पर गर्व के भाव थे. लगातार की गई मेहनत ने गौतम के भोले और मासूम चेहरे को मुरझा दिया था. इस जीत ने स्कूल में गौतम का, कालोनी में अमीषा का और दफ्तर में आतुर का कद बढ़ा दिया था. इस जीत के चर्चे स्थानीय अखबार में भी हुए और गौतम के साथसाथ पूरे परिवार का नाम छोटीमोटी सुर्खियों में आ गया.

किट्टी पार्टी में गौतम के साथसाथ अमीषा की भी भूरिभूरि प्रशंसा की गई. इतना छोटा बच्चा तभी आगे आ सकता है जब उस की परवरिश ठीक से की जाए. मांबाप के परिश्रम और त्याग के बिना ऐसी सफलता के बारे में सोचना भी असंभव है. अमीषा मुसकरा कर सारे अभिवादन स्वीकार कर रही थी कि किसी ने अखबार में छपा एक इश्तिहार सामने रख दिया और कहा, ‘‘टैलीविजन की दुनिया का सब से बड़ा कंपीटिशन ‘शिव सरगम’ मुंबई में होने जा रहा है. इस में फिल्मी दुनिया के नामीगिरामी संगीतकार जज होंगे, क्यों न तुम भी गौतम का फौर्म भरो.’’

अमीषा मुसकरा दी, ‘‘कहां बीकानेर, कहां मुंबई. यहां से वहां तक का सफर, नियति इतनी भी मेहरबान नहीं है हम पर, चमत्कार यों सड़कों पर पड़े नहीं मिलते.’’

‘‘बात मेहनत और प्रतिभा की है, अमीषा. मेहनत तुम्हारी और प्रतिभा गौतम की. अभी 5 महीने हैं. यह समय कम नहीं है किसी की प्रतिभा को निखारने का, उसे संवारने का.’’

अमीषा ने घर आ कर बात की तो आतुर मन ही मन खुश हुआ मगर अपनी मां के सामने हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था, जो अड़ी हुई थीं कि गौतम पढ़ाई पर ध्यान दे और बच्चे पर इतना बोझ न डाला जाए.

‘‘हम नहीं जाएंगे तो इस का यह मतलब तो नहीं कि वहां दूसरे बच्चे आएंगे ही नहीं और जो बच्चे आएंगे वे गौतम जैसे ही होंगे, इसी की उम्र के होंगे, शायद इस से भी छोटे ही हों,’’ अमीषा के चेहरे पर क्रोध साफ छलक रहा था.

‘‘होंगे बहू, लेकिन तुम जानती हो गौतम के दिल के बारे में, मुझे दोहराने की जरूरत नहीं है कि गौतम के दिल में सुराख है, उसे आराम की सख्त जरूरत रहती है. वह अन्य बच्चों की तुलना में जल्दी थक जाता है.’’

‘‘हां, लेकिन माताजी, सचाईर् यह भी है कि गौतम बहुत जल्दी सीख जाता है. बाकी बच्चे जो 2 दिनों में सीखते हैं वह गौतम चंद घंटों में ही सीख जाता है और फिर उस की आवाज इतनी मधुर है कि इसे हर संगीतप्रेमी तक पहुंचना ही चाहिए. मैं इस पर मेहनत करूंगा. गौतम अभी महज 11-12 वर्ष का है, देखिएगा मैं इसे कहां से कहां तक पहुंचाता हूं. बड़ा होने पर देश का नामी पार्श्वगायक नहीं बना तो मेरा नाम बदल दीजिएगा,’’ मास्टरजी ने जब यह कहा तो अमीषा की खुशियों का ठिकाना ही न रहा. वह सोचने लगी, कल तक जो मास्टरजी सिखाने में आनाकानी कर रहे थे वे आज स्वयं गौतम को सिखाने को लालायित थे.

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‘‘मास्टरजी ठीक कह रहे हैं, मां, अगर गौतम यह स्पर्धा जीत जाता है तो कुछ पैसा भी आएगा हमारे पास, फिर हम इस का इलाज दिल्ली, मुंबई यहां तक कि विदेश में भी करवा सकते हैं,’’ आतुर ने अंतिम दाव फेंका.

‘‘मेरा मन नहीं मान रहा, बेटा,’’ मां का मन भर आया था, ‘‘हमारे पास जमीनजायदाद है, हम उसे बेच कर भी गौतम का इलाज करवा सकते हैं.’’

‘‘गौतम मुंबई जा रहा है, यह फैसला लिया जा चुका है,’’ अमीषा ने गुस्से से भर कर कहा.

मुंबई पहुंच कर अमीषा चैनल के दफ्तर में गई. फौर्म भरा और गौतम के गानों की एक सीडी दफ्तर को सौंपी. एक हफ्ते के इंतजार के बाद गौतम को बुलवाया गया. यह उस की संगीत यात्रा के दूसरे पड़ाव के प्रथम चरण की ओर पहला कदम था. गौतम को 3 गाने दिए गए. तीनों ही उस ने बिना किसी परेशानी या असहजता से गा दिए. उस के मन पर स्पर्धा में आगे आने का कोई दबाव नहीं था और न ही उस का ध्येय था कि वह चुना जाए. सचाई तो यह थी कि वह वापस अपने शहर लौट जाने की इच्छा लिए गा रहा था.

2 महीने के बड़े गैप के बाद आयोजकों का पत्र आया और गौतम के चुने जाने की खबर चारों ओर फैल गई. अगले ही दिन लगभग 3 महीने के लंबे समय के लिए गौतम और अमीषा मुंबई की ओर चल पड़े. अमीषा और आतुर अश्वस्त थे कि गौतम पहली पंक्ति के 10 गायकों तक तो पहुंच ही जाएगा. शिव सरगम का अंतिम पड़ाव आ चुका था और एक कांटे की स्पर्धा के बाद जो हुआ वह अमीषा और आतुर के मन में कमल के फूल की तरह खिल गया. गौतम स्पर्धा में विजयी हुआ था और शिव सरगम के ताज से नवाजा गया था.

समूचे भारत और विश्व के कई देशों के समाचारपत्रों में उस की तसवीर और उस पर लेख छापे गए. उस की तसवीर के साथ अमीषा और आतुर की तसवीरें भी समाचारपत्रों के मुख्यपृष्ठों पर छपीं. रातोंरात गौतम प्रसिद्धि के क्षितिज का धु्रव तारा बन गया और उस के साथ अमीषा और आतुर भी चमकते हुए तारे बन कर आकाश पर छा गए. चैनल से हुए करार के मुताबिक पूरे एक साल के लिए गौतम को जगहजगह चैनल के लिए कार्यक्रम प्रस्तुत करने थे. जीती गई पुरस्कार राशि हर माह एक किस्त के रूप में उन्हें मिलनी थी.

गौतम भाग कर अपने शहर वापस जाना चाहता था ताकि वहां वह अपनी दादी मां से मिल सके, अपने दोस्तों को अपने नए उपहार दिखा सके, ढेर सारी बातें कर सके. चैनल वालों से काफी अनुनयविनय के बाद उसे सिर्फ 2 दिनों की छुट्टी मिली. अपने शहर में उस का भव्य स्वागत हुआ. स्कूल में उस का कार्यक्रम हुआ. हर गलीनुक्कड़ में बड़ेबड़े पोस्टर लगाए गए. उसे मालाओं से लाद दिया गया. उस पर फूलों की बरसात हुई.

गौतम पूरी तरह से उस सम्मान के महत्त्व को समझ ही नहीं पाया जबकि आतुर और अमीषा गौतम को मिली इस सफलता का पूरा आनंद ले रहे थे. उन की आंखों में एक अजीब सी चमक  थी और मन में ढेर सारा उल्लास. बड़ी मुश्किल से समय निकाल कर गौतम घर पहुंच पाया, जहां उस की दादी बड़ी बेसब्री से उस की राह देख रही थीं. पहुंचते ही वह दादी के गले से लिपट गया, ‘‘मैं आज यहीं सोऊंगा, दादी के पास,’’ गौतम इठलाता हुआ बोला. 2 दिन कब गुजर गए, पता ही नहीं चला. मगर सामने था एक साल का वह लंबा समय जो अनुबंध के मुताबिक चैनल का था. आतुर और अमीषा दिल थाम कर उस दिन का इंतजार कर रहे थे जिस दिन चैनल की गुलामी से आजाद हो कर वे चैन की सांस ले सकें.

‘‘यूरोप के 7 देशों में हमारा ट्रिप जाएगा और हर जगह हम गौतम का कार्यक्रम रखेंगे. कौंट्रैक्ट में पैसों के बारे में पूरा खुलासा है,’’ ट्रिप के मालिक मंजीत ने कागजों का एक पुलिंदा अमीषा को सौंपते हुए कहा, ‘‘वह तो ठीक है मंजीतजी, मगर गौतम अभी बहुत छोटा है, अकेले इतनी दूर…’’

‘‘अकेले कहां अमीषाजी, आप दोनों भी पूरे यूरोप ट्रिप में गौतम के साथ रहेंगे और यात्रा, खानापीना, घूमनाफिरना, तमाम खर्चा हमारी कंपनी उठाएगी.’’

अमीषा और आतुर को मानो मनमांगी मुराद मिल गई थी. जल्द ही सारे यूरोप की ओर निकल पड़े. ट्रिप कामयाब रहा और इस कामयाबी ने अगले कार्यक्रमों के लिए रास्ता खोल दिया. गौतम की डायरी और अमीषा की तिजोरी दोनों धीरेधीरे भरने लगीं.

दादीमां की बीमारी की खबर तो अमीषा और आतुर ने गौतम से छिपा ली, मगर उन की मौत की खबर वे चाह कर भी न छिपा पाए. शायद, इंसानियत का थोड़ा सा अंश शेष रह गया था. ‘‘मैं घर जाऊंगा, आज प्रोग्राम नहीं करूंगा मम्मी, प्लीज, मुझे दादी को देखना है, एक बार.’’

‘‘देखो बेटा, हम ने आज के कार्यक्रम का एडवांस पैसा लिया हुआ है. इतना बड़ा आयोजन हो चुका है. विदेशी मेहमान आ चुके हैं. ऐसे में कार्यक्रम कैंसिल करना ठीक नहीं लगता. साख खराब हो जाती है और फिर सोचो, दादी मां तो अब रही नहीं. तुम चले भी जाओगे तो उन्हें वापस नहीं ला सकते.’’

उस रात गौतम ने जो गाया अपनी दादी के लिए दिल से गाया, आंखों में आंसू दादी मां के लिए थे और कार्यक्रम से मिले पैसे आतुर और अमीषा के लिए थे. गौतम धीरेधीरे एक टकसाल, पैसा कमाने की मशीन में तबदील हो गया था. अमीषा और आतुर ने मुंबई के एक नामीगिरामी इलाके में बड़ा सा फ्लैट बुक करवा लिया था और जल्द ही उस में रहने का ख्वाब संजोए बैठे थे. पैसा जुटाने के लिए वे दिनरात संयोजकों से मिलते और देशविदेश में कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार करते. साथ ही, गौतम को चुस्तदुरुस्त रखना भी उन का एक अहम काम था. घूमनेफिरने से ले कर खानेपीने तक की हजार पाबंदियों के बीच गौतम का बचपन कहीं खो सा गया था. जब भी किसी बच्चे को वह आइसक्रीम या गोलगप्पे खाते या समंदर की लहरों से खेलते हुए देखता तो मायूसी उस के चेहरे से ले कर अंतर्मन तक को भेद जाती.

उस रात मेकअप रूम में गौतम खुद को संभाल नहीं पा रहा था. उस का सिर भन्ना रहा था. उसे लग रहा था मानो वह स्टेज पर नहीं जा पाएगा. ‘‘क्या हुआ गौतम, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है…?’’ एक साथी गायक आरिफ ने उस की हालत देख कर कहा. गौतम कुछ जवाब नहीं दे पाया. ‘‘मैं दवाई दूं, देते ही ठीक हो जाएगा,’’ आरिफ ने गौतम को एक पुडि़या थमाते हुए कहा.

गौतम ने दवा की पुडि़या गले के नीचे उतार ली. असर तत्काल हुआ और गौतम स्टेज तक न सिर्फ पहुंचा बल्कि घंटों तक लगातार प्रदर्शन किया. मासूम समझ नहीं पाया कि वह पुडि़या दवा की नहीं, मौत की है. धीरेधीरे दवा की पुडि़या उस की जरूरत बन गई और हर कार्यक्रम से पहले उसे गले से उतारना उस के लिए आवश्यक हो गया.

आतुर और अमीषा गौतम की इस ऊर्जा और जोश से भरी गायकी को ले कर मन ही मन फूले नहीं समा रहे थे. उन्हें लग रहा था कि फ्लैट से बंगले तक का सफर बहुत लंबा नहीं है. कई साल तक गौतम का हर कार्यक्रम जबरदस्त कामयाब रहा और हर सफलता के बाद आने वाले पैसे के ब्रीफकेस का आकार बढ़ता गया. पैसा जितना ज्यादा बढ़ता, चाहत उस से कई गुना ज्यादा बढ़ जाती. शायद, इसी का नाम इंसानी फितरत है.

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सफलता के शिखर तक पहुंचने के बाद अमीषा और आतुर को बढ़त की अपनी कोशिशों में एक अवरोध सा महसूस हो रहा था. उन्हें लगने लगा कि गौतम को न्योता देने वाले लोगों से खचाखच भरा ड्राइंगरूम कुछ खालीखाली सा लग रहा है. कार्यक्रमों में तालियों की गूंज कुछ कम है और चैक पर भरी जा रही रकम में शून्य कम हो रहे हैं. दोनों परेशान थे कि यह उतार क्यों और कैसे आ रहा है और ऐसा क्या किया जाए कि गौतम ने जो मुकाम हासिल किया है वहां से वह कभी भी न फिसले, अपने पहले पायदान पर सदा के लिए मजबूती से टिका रहे.

मंजीत के दफ्तर में पहुंच कर आतुर और अमीषा ने अपने मन की बात साफतौर पर बिना किसी लागलपेट के रखी. ‘‘देखो मैडमजी, गौतम का ग्राफ नीचे जा रहा है. उस का कारण मैं आप को बता सकता हूं. गौतम उम्र के जिस पड़ाव पर है वहां न तो उस की आवाज बच्चों जैसी है और न ही बड़ों जैसी. ऐसे में कुछ साल गुमनामी में रहना जरूरी है. आवाज में परिपक्वता आ जाए तो आप वापस यहां का रुख करें…’’

‘‘नहीं मंजीतजी, यह मायानगरी है, यहां सुबह को शाम नहीं पहचानती. अगर यहां से एक बार दूर चले गए तो वापसी के लिए उतनी ही मशक्कत करनी पड़ेगी जितनी शुरू में करनी पड़ती है. फिर, कोई दूसरा शिव सरगम का ताज हमारी राहों में पलकें बिछाए नहीं बैठा होगा. हमें इस बारे में कुछ और ही सोचना पड़ेगा.’’

डाक्टर फिरोज मुंबई के जानेमाने डाक्टर थे. अमीषा ने कोशिश कर के जल्दी ही उन से मिलने का समय ले लिया. डाक्टर फिरोज ने पूरी बात समझी और फिर कहा, ‘‘तो आप अपने बेटे की आवाज को भारी और गहरी करवाना चाहते हैं ताकि उस की आवाज थोड़ी मैच्योर लगे और वह जरूरत पड़ने पर बड़े कलाकारों का पार्श्वगायन कर सके…’’ अमीषा ने औचित्य करना चाहा मगर डाक्टर फिरोज ने अमीषा की बात पर कुछ ध्यान नहीं दिया और अपनी नजर फाइल पर गड़ाए रखी. ‘‘इस के लिए उसे हार्मोंस के इंजैक्शन व दवाइयां देनी होंगी जो उस के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी हो सकती हैं. क्या आप इतना बड़ा खतरा उठाने को तैयार हैं?’’

‘‘जब आप जैसे डाक्टर की देखरेख में सबकुछ हो रहा है तो फिर डर किस बात का,’’ आतुर ने कुशल खिलाड़ी की तरह जवाब दिया. डाक्टर फिरोज तन्मय हो कर फाइल के पन्ने पलट रहे थे कि उन की नजर एक जगह जा कर अविश्वास से अटक गई, ‘‘गौतम दिल का मरीज है. उस के दिल में…’’

‘‘हां डाक्टर, हमें बड़ी चिंता है इस बात की,’’ अमीषा ने बात बीच में काटते हुए कहा.

‘‘अगर ऐसा है तो आप उस का इलाज क्यों नहीं करवा रहे हैं. मेरे बजाय किसी हृदय चिकित्सक के पास होना चाहिए था आप को?’’

‘‘एक बार गौतम पूरी तरह से वह मुकाम हासिल कर ले, जिस के लिए वह जद्दोजेहद कर रहा है तो…’’

डाक्टर फिरोज ने हिकारत से अमीषा को देखा और कहा, ‘‘ठीक है, मगर मैं केस हाथ में तभी लूंगा जब मुझे तसल्ली होगी. फिलहाल मेरा आदमी आ कर आप के बेटे के खून का सैंपल ले आएगा. कुछ टैस्ट करने जरूरी हैं, उस के बाद ही मैं आप को कोई राय दूंगा.’’

‘‘15 अगस्त की शाम ताज होटल में एक बहुत बड़ा संगीत का आयोजन है और उस में गायकों की लिस्ट में सब से अव्वल नंबर पर तुम्हारा नाम है,’’ अमीषा ने चहकते हुए कहा और एक कार्ड गौतम के सामने रख दिया. गौतम ने एक सरसरी नजर कार्ड पर डाली और कहा, ‘‘मैं इस कार्यक्रम में नहीं जा पाऊंगा, मम्मी, मैं ने वह सारा दिन कारगिल में गुजारने का फैसला किया है, कारगिल हीरो मेजर आर्य का आग्रह था, मैं ना नहीं कर सका.’’

‘‘क्या कह रहा है गौतम तू. इतना बड़ा आयोजन छोड़ कर तू वहां जाएगा. कोई तुलना है दोनों जगहों की? कहां पांचसितारा होटल और कहां वह जंगल. यहां बड़ेबड़े फिल्म निर्माता, निर्देशक, संगीतकार होंगे. एक की भी नजर में चढ़ गया तो जिंदगी बन जाएगी और वहां मुफ्त का गानाबजाना.’’

‘‘मम्मी…’’ गौतम जोर से चीखा, ‘‘मैं ने उन को हां कह दिया है. अब मैं मना नहीं कर सकता. किसी भी कीमत पर नहीं. किसी हाल में भी नहीं.’’

‘‘तुम ने किस से पूछ कर वहां जाने की हामी भरी?’’ अमीषा गुस्से में आपा खो रही थी.

‘‘और आप ने किस से पूछ कर ताज होटल में हो रहे आयोजन की हामी भरी?’’ गौतम ने सवाल का जवाब सवाल में दिया तो अमीषा स्तब्ध रह गई. उसे गौतम से ऐसे जवाब की अपेक्षा न थी. उस के आत्मसम्मान को ठेस पहुंची मगर स्थिति की नाजुकता को समझते हुए उस ने खामोश रहने में ही बेहतरी समझी.

डाक्टर फिरोज ने अमीषा को फोन मिलाया. उन की आवाज में अधीरता थी, ‘‘क्या गौतम कारगिल से वापस आ गया?’’

‘‘हां डाक्टर साहब, अभी आराम कर रहा है. रात को ताज में उस का संगीत कार्यक्रम है, उस के न होने की वजह से पूरे कार्यक्रम की तारीख ही बदल दी गई.’’

‘‘मैं अपना तकनीशियन भेज रहा हूं, हमें एक बार और उस का ब्लड सैंपल चाहिए होगा.’’

थोड़ी देर में डाक्टर फिरोज का भेजा तकनीशियन घर पर हाजिर था. गौतम ने अधखुली आंखों से अपना हाथ आगे कर दिया. तकनीशियन ने कलाई या बाजू के बजाय हथेली की एक नस में सूई गड़ाई और सैंपल ले कर चला गया. रात को लाख कोशिशों के बावजूद गौतम समय पर बिस्तर छोड़ नहीं पाया. कार्यक्रम समापन से कुछ समय पहले ही वह पहुंचा, कुछ गाने गाए और फिर आ कर गाड़ी में सो गया. जितने भी समय वह वहां रहा, उस ने समां बांध दिया था.

अमीषा और आतुर डाक्टर फिरोज के सामने बैठे थे. ‘‘आप को बुलाने की एक खास वजह है. गौतम की तबीयत अत्यंत नाजुक है. आप लोग उस के दिल की स्थिति से तो परिचित हैं ही, मगर उस से भी ज्यादा चिंताजनक है उस के खून की रिपोर्ट. आप को ताज्जुब होगा, शायद झटका भी लगे, उस के खून में कोकीन और दूसरी दवाइयों के अंश पाए गए हैं. गौतम ड्रग एडिक्ट है और थोड़े समय से नहीं, एक अरसे से वह इस आदत का शिकार है. उस जैसा होनहार बच्चा कब ऐसी संगत में पड़ गया कि ड्रग एडिक्ट हो गया, इस का जवाब आप को ही तलाशना है. आप को ही ढूंढ़ना पड़ेगा कि कब और कैसे आप ने गौतम को ड्रग्स की तरफ धकेला. कब आप ने उसे इस बात के लिए मजबूर कर दिया कि वह ड्रग्स पर आश्रित हो जाए.’’

‘‘हम ने?’’ कांपते होंठों से अमीषा ने कहा ‘‘हम उस के मातापिता हैं. हम तो उसे तरक्की और सफलता के सातवें आसमान पर देखना चाहते हैं. हम तो चाहते हैं कि उस जैसा सफल और प्रतिभावान दूसरा कोई न हो. और आप कह रहे हैं कि हम ने उसे ड्रग एडिक्ट बना दिया?’’

‘‘यह सच है कि आप उसे देश का सब से बड़ा गायक बनाना चाहते हैं, पर एक कड़वी सचाई यह भी है कि दौलत और ग्लैमर की चमक आप पर हावी हो गई. आप लालची और स्वार्थी हो गए. नन्हे बच्चे गौतम के जरिए आप अपने ऐशोआराम से जिंदगी गुजारने का सामान जुटाते रहे. आप न सिर्फ उस की कमाई पर पलते रहे, बल्कि उस की जिंदगी से खिलवाड़ भी करते रहे. उस की आवाज की बुलंदी में आप ने उस के बचपन को दफन कर दिया. छीन लिए आप ने उस के खेलनेकूदने के दिन. उस की चंचलता, नटखटपन सब आप की खुदगर्जी की भेंट चढ़ गए.’’

अमीषा और आतुर बुत बने डाक्टर फिरोज की बात सुन रहे थे. ‘‘आप जैसे कई मांबाप अपने बच्चे को रातोंरात स्टार बनाने के लिए टीवी चैनलों पर इनाम जीतने के लिए बच्चों से उन के बचपन का बलिदान मांग लेते हैं. आप भूल जाते हैं कि बच्चों से काम करवाना कानूनी अपराध है. शौक, साधना और तपस्या को आप ने व्यवसाय बना दिया. आप दोनों गुनाहगार हैं. शर्म से डूब मरने वाली बात है कि उस के दिल का इलाज करवाने के बजाय आप की यह कोशिश है कि किस तरह से उस की आवाज बाजार में बिकाऊ बनी रहे. जाइए, किसी और डाक्टर का दरवाजा खटखटाइए. अगर आप की गैरत जग गई है तो किसी अच्छे पुनर्वास केंद्र का रुख कीजिए. गौतम को उस में भरती करवा कर उसे तंदुरुस्त करवाइए. नियति ने आप के लिए जो सजा तय की है उसे काटिए.’’

अमीषा जब गौतम के कमरे में पहुंची तो पीले पड़े उस के चेहरे को देख कर उसे खुद से घृणा होने लगी. शायद बरसों बाद उस ने गौतम का चेहरा ध्यान से देखा था. पास में मेज पर गौतम के बचपन की एक तसवीर रखी थी. नन्हा सा, प्यारा सा, नटखट सा गौतम आज एक मशहूर गायक था जिस के सारे अरमान पहले उस के अपनों ने छीन लिए थे और जो कुछ भी बचे थे वे ड्रग्स की भेंट चढ़ चुके थे. अमीषा एकटक उसे निहारती रही. फिर अपना हाथ उस के चेहरे पर रखा तो गौतम ने उस का हाथ पकड़ लिया. अमीषा की आंखों से आंसू बह निकले. आंसुओं की 2 बूंदों ने जब गौतम के कपोलों को स्पर्श किया तो गौतम की आंख खुल गई, ‘‘आप रो रही हो, मम्मी. मैं आज शाम को गा नहीं पाऊंगा इसलिए?’’

‘‘नहीं बेटा, ये आंसू तुम्हारी जिंदगी बरबाद करने की सजा हैं. अब से तू कहीं नहीं गाएगा, सिर्फ अपने लिए गाएगा, हमारे लिए गाएगा, दोस्तों के लिए गाएगा.’’

‘‘सच मम्मी,’’ गौतम ने कहा और फिर नजर दौड़ाते हुए बोला, ‘‘आरिफ नजर नहीं आ रहा, मेरी दवाई है उस के पास.’’ ‘‘तेरी दवाई आरिफ के पास नहीं, डाक्टर के पास है. तुझे मैं अस्पताल में भरती करवाऊंगी. तेरा इलाज होगा, ताकि तू आरिफ जैसे दरिंदों की दवाइयों पर आश्रित न हो. तू तो जानता है न, मैं कितनी जिद्दी हूं. तुझे चोटी का गायक बनातेबनाते स्वार्थ की हर सीमा लांघ दी मैं ने. वैसे ही तुझे वापस पहले जैसा गौतम बनाने के लिए मैं कुछ भी कर सकती हूं. तेरे ठीक होने के बाद हम यह मायानगरी छोड़ कर वापस अपने शहर चले जाएंगे, जहां हमारा एक छोटा सा घर है, तेरा स्कूल है, दोस्त हैं, तेरे टीचर्स हैं.’’

‘‘मगर वहां दादी नहीं हैं, मम्मी,’’ गौतम ने अमीषा का हाथ कस कर थाम लिया था.

‘‘दादी की यादें तो हैं न,’’ यह आतुर था, ‘‘मैं जानता हूं कि तू एक बहादुर बच्चा है, जितनी तन्मयता से तू अपना रियाज करता था, जितनी शिद्दत से तूने संगीत की साधना की थी उतनी ही मेहनत, उतनी ही लगन से तुझे यह जंग भी लड़नी है. और मेरा दावा है तू जीत कर ही आएगा, गौतम ने हारना नहीं सीखा है.’’

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प्रत्युतर में गौतम मुसकरा दिया. थोड़ी देर में सभी अस्पताल के रिसैप्शन में बैठे अपनी बारी का इंताजर कर रहे थे. कई तरह की औपचारिकताओं के बाद गौतम को दाखिल किया गया. एक लंबे संघर्ष के लिए, एक लंबे समय के लिए वह अमीषा और आतुर की आंखों से दूर होने वाला था. अमीषा ने गौतम के बालों में हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘कभी हिम्मत न हारना और ठीक हो कर वापस आना बेटा. हम यहां रोज आएंगे और दूर से तुम्हें ठीक होते हुए देखेंगे. और एक बात हम तुम से कहना चाहते हैं,’’ अमीषा एक पल के लिए ठहरी, फिर कहना जारी रखा, ‘‘हम तुम्हारा खोया हुआ बचपन तो तुम्हें लौटा नहीं सकते, लेकिन इस बात को भी नहीं भूलेंगे कि हम तुम्हारे गुनाहगार हैं, अगर हो सके तो हमें माफ कर देना.’’ अमीषा की आंखों से आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे. गौतम की आंखों की कोर से भी आंसू की 2 बूंदें बह निकलीं जिसे बहने से पहले ही अमीषा ने पोंछ दिया.

थोड़ी ही देर में 2 कर्मचारी और एक नर्स गौतम को ले कर अंदर चले गए. अमीषा और आतुर गौतम को तक तक देखते रहे जब तक वह उन की नजरों से ओझल नहीं हो गया.

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मनीषा और आतुर के लिए उन का बेटा गौतम पैसा उगाहने की मशीन बन गया था. उन्होंने अपने लालच और चाहतों के आगे गौतम का बचपन उस से छीन लिया था. काश, उन्हें वक्त रहते एहसास हो जाता कि गौतम की मासूमियत छीन कर वे उसे गर्त में धकेल रहे हैं…

सुबह अलार्म बजते ही अमीषा  हड़बड़ा कर उठी. वह गौतम के कमरे की ओर भागी, जो गहरी नींद में बेफिक्री से सो रहा था.‘‘उठो बेटा, मास्टरजी आते ही होंगे,’’ अमीषा लाड़ जताती हुई बोली, ‘‘राजा बेटा, जल्दी से नहा कर तैयार होगा, फिर मास्टरजी से संगीत सीखेगा, और फिर स्कूल जाएगा.’’

‘‘सोने दो न, मम्मी, मुझे नींद आ रही है,’’ गौतम अलसाई आवाज से बोला.

‘‘नहीं मेरे बच्चे, मास्टरजी आते ही होंगे, कितनी मुश्किल से वे राजी हुए हैं तुम्हें सिखाने को. कितनी बड़ी सिफारिश लगवाई है तुम्हारे पापा ने.’’ अमीषा गौतम को बाथरूम की तरफ लगभग धकेलते हुए ले गई थी.

थोड़ी ही देर में गौतम मास्टरजी के सामने था. उस की आंखों में नींद भरी थी और चेहरे  पर थकान साफ दिख रही थी. मास्टरजी हारमोनियम ले कर बैठ गए और आवाज साफ करते हुए बोले, ‘‘आज मैं तुम्हें रागदरबारी के बारे में बताऊंगा. इस राग पर आधारित कई फिल्मी गाने हैं, जैसे स्वर सम्राट मोहम्मद रफी का गाया फिल्म ‘बैजू बावरा’ का भजन.’’

मास्टरजी तन्मयता से पढ़ा रहे थे, तभी उन का ध्यान गौतम पर पड़ा जो बैठेबैठे ऊंघने लगा था. ‘‘कहां है तुम्हारा ध्यान? ऐसे संगीत नहीं सीखा जाता. संगीत एक साधना है. तुम इसे गंभीरता से नहीं ले रहे हो.’’

ऊंची आवाज सुन कर अमीषा और आतुर दोनों भागे आए. दोनों को एकसाथ आते देख गौतम सहम गया. मास्टरजी का संताप जारी था, ‘‘क्या हो गया है बच्चों को और इन के मांबापों को. संगीत सीखना है, मगर त्याग नहीं करना है. शिखर तक पहुंचना है मगर बिना सीढि़यां चढ़े.’’

अमीषा गौतम को वाशबेसिन तक ले गई और उस के चेहरे पर ठंडे पानी के छींटे डाले. थोड़ी देर में गौतम फिर से मास्टरजी के पास था. मास्टरजी ने सुर लगाए और गौतम को साथसाथ आलाप करने को कहा.

इंटर स्कूल कंपीटिशन में गौतम अपने स्कूल का प्रतिनिधित्व कर रहा था. बच्चों के साथसाथ उन के मातापिता व गुरुओं की पिछले एक महीने की मेहनत आज मंच पर सामने दिखने वाली थी. नतीजा आतेआते सब को एहसास हो गया था कि प्रथम पुरुस्कार गौतम को ही मिलना है.

तालियों की गड़गड़ाहट के बीच जब गौतम ने पुरस्कार लिया तो अमीषा के चेहरे पर चमक, मास्टरजी के चेहरे पर संतुष्टि और स्कूल के प्रिंसिपल के चेहरे पर गर्व के भाव थे. लगातार की गई मेहनत ने गौतम के भोले और मासूम चेहरे को मुरझा दिया था. इस जीत ने स्कूल में गौतम का, कालोनी में अमीषा का और दफ्तर में आतुर का कद बढ़ा दिया था. इस जीत के चर्चे स्थानीय अखबार में भी हुए और गौतम के साथसाथ पूरे परिवार का नाम छोटीमोटी सुर्खियों में आ गया.

किट्टी पार्टी में गौतम के साथसाथ अमीषा की भी भूरिभूरि प्रशंसा की गई. इतना छोटा बच्चा तभी आगे आ सकता है जब उस की परवरिश ठीक से की जाए. मांबाप के परिश्रम और त्याग के बिना ऐसी सफलता के बारे में सोचना भी असंभव है. अमीषा मुसकरा कर सारे अभिवादन स्वीकार कर रही थी कि किसी ने अखबार में छपा एक इश्तिहार सामने रख दिया और कहा, ‘‘टैलीविजन की दुनिया का सब से बड़ा कंपीटिशन ‘शिव सरगम’ मुंबई में होने जा रहा है. इस में फिल्मी दुनिया के नामीगिरामी संगीतकार जज होंगे, क्यों न तुम भी गौतम का फौर्म भरो.’’

अमीषा मुसकरा दी, ‘‘कहां बीकानेर, कहां मुंबई. यहां से वहां तक का सफर, नियति इतनी भी मेहरबान नहीं है हम पर, चमत्कार यों सड़कों पर पड़े नहीं मिलते.’’

‘‘बात मेहनत और प्रतिभा की है, अमीषा. मेहनत तुम्हारी और प्रतिभा गौतम की. अभी 5 महीने हैं. यह समय कम नहीं है किसी की प्रतिभा को निखारने का, उसे संवारने का.’’

अमीषा ने घर आ कर बात की तो आतुर मन ही मन खुश हुआ मगर अपनी मां के सामने हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था, जो अड़ी हुई थीं कि गौतम पढ़ाई पर ध्यान दे और बच्चे पर इतना बोझ न डाला जाए.

‘‘हम नहीं जाएंगे तो इस का यह मतलब तो नहीं कि वहां दूसरे बच्चे आएंगे ही नहीं और जो बच्चे आएंगे वे गौतम जैसे ही होंगे, इसी की उम्र के होंगे, शायद इस से भी छोटे ही हों,’’ अमीषा के चेहरे पर क्रोध साफ छलक रहा था.

‘‘होंगे बहू, लेकिन तुम जानती हो गौतम के दिल के बारे में, मुझे दोहराने की जरूरत नहीं है कि गौतम के दिल में सुराख है, उसे आराम की सख्त जरूरत रहती है. वह अन्य बच्चों की तुलना में जल्दी थक जाता है.’’

‘‘हां, लेकिन माताजी, सचाईर् यह भी है कि गौतम बहुत जल्दी सीख जाता है. बाकी बच्चे जो 2 दिनों में सीखते हैं वह गौतम चंद घंटों में ही सीख जाता है और फिर उस की आवाज इतनी मधुर है कि इसे हर संगीतप्रेमी तक पहुंचना ही चाहिए. मैं इस पर मेहनत करूंगा. गौतम अभी महज 11-12 वर्ष का है, देखिएगा मैं इसे कहां से कहां तक पहुंचाता हूं. बड़ा होने पर देश का नामी पार्श्वगायक नहीं बना तो मेरा नाम बदल दीजिएगा,’’ मास्टरजी ने जब यह कहा तो अमीषा की खुशियों का ठिकाना ही न रहा. वह सोचने लगी, कल तक जो मास्टरजी सिखाने में आनाकानी कर रहे थे वे आज स्वयं गौतम को सिखाने को लालायित थे.

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‘‘मास्टरजी ठीक कह रहे हैं, मां, अगर गौतम यह स्पर्धा जीत जाता है तो कुछ पैसा भी आएगा हमारे पास, फिर हम इस का इलाज दिल्ली, मुंबई यहां तक कि विदेश में भी करवा सकते हैं,’’ आतुर ने अंतिम दाव फेंका.

‘‘मेरा मन नहीं मान रहा, बेटा,’’ मां का मन भर आया था, ‘‘हमारे पास जमीनजायदाद है, हम उसे बेच कर भी गौतम का इलाज करवा सकते हैं.’’

‘‘गौतम मुंबई जा रहा है, यह फैसला लिया जा चुका है,’’ अमीषा ने गुस्से से भर कर कहा.

मुंबई पहुंच कर अमीषा चैनल के दफ्तर में गई. फौर्म भरा और गौतम के गानों की एक सीडी दफ्तर को सौंपी. एक हफ्ते के इंतजार के बाद गौतम को बुलवाया गया. यह उस की संगीत यात्रा के दूसरे पड़ाव के प्रथम चरण की ओर पहला कदम था. गौतम को 3 गाने दिए गए. तीनों ही उस ने बिना किसी परेशानी या असहजता से गा दिए. उस के मन पर स्पर्धा में आगे आने का कोई दबाव नहीं था और न ही उस का ध्येय था कि वह चुना जाए. सचाई तो यह थी कि वह वापस अपने शहर लौट जाने की इच्छा लिए गा रहा था.

2 महीने के बड़े गैप के बाद आयोजकों का पत्र आया और गौतम के चुने जाने की खबर चारों ओर फैल गई. अगले ही दिन लगभग 3 महीने के लंबे समय के लिए गौतम और अमीषा मुंबई की ओर चल पड़े. अमीषा और आतुर अश्वस्त थे कि गौतम पहली पंक्ति के 10 गायकों तक तो पहुंच ही जाएगा. शिव सरगम का अंतिम पड़ाव आ चुका था और एक कांटे की स्पर्धा के बाद जो हुआ वह अमीषा और आतुर के मन में कमल के फूल की तरह खिल गया. गौतम स्पर्धा में विजयी हुआ था और शिव सरगम के ताज से नवाजा गया था.

समूचे भारत और विश्व के कई देशों के समाचारपत्रों में उस की तसवीर और उस पर लेख छापे गए. उस की तसवीर के साथ अमीषा और आतुर की तसवीरें भी समाचारपत्रों के मुख्यपृष्ठों पर छपीं. रातोंरात गौतम प्रसिद्धि के क्षितिज का धु्रव तारा बन गया और उस के साथ अमीषा और आतुर भी चमकते हुए तारे बन कर आकाश पर छा गए. चैनल से हुए करार के मुताबिक पूरे एक साल के लिए गौतम को जगहजगह चैनल के लिए कार्यक्रम प्रस्तुत करने थे. जीती गई पुरस्कार राशि हर माह एक किस्त के रूप में उन्हें मिलनी थी.

गौतम भाग कर अपने शहर वापस जाना चाहता था ताकि वहां वह अपनी दादी मां से मिल सके, अपने दोस्तों को अपने नए उपहार दिखा सके, ढेर सारी बातें कर सके. चैनल वालों से काफी अनुनयविनय के बाद उसे सिर्फ 2 दिनों की छुट्टी मिली. अपने शहर में उस का भव्य स्वागत हुआ. स्कूल में उस का कार्यक्रम हुआ. हर गलीनुक्कड़ में बड़ेबड़े पोस्टर लगाए गए. उसे मालाओं से लाद दिया गया. उस पर फूलों की बरसात हुई.

गौतम पूरी तरह से उस सम्मान के महत्त्व को समझ ही नहीं पाया जबकि आतुर और अमीषा गौतम को मिली इस सफलता का पूरा आनंद ले रहे थे. उन की आंखों में एक अजीब सी चमक  थी और मन में ढेर सारा उल्लास. बड़ी मुश्किल से समय निकाल कर गौतम घर पहुंच पाया, जहां उस की दादी बड़ी बेसब्री से उस की राह देख रही थीं. पहुंचते ही वह दादी के गले से लिपट गया, ‘‘मैं आज यहीं सोऊंगा, दादी के पास,’’ गौतम इठलाता हुआ बोला. 2 दिन कब गुजर गए, पता ही नहीं चला. मगर सामने था एक साल का वह लंबा समय जो अनुबंध के मुताबिक चैनल का था. आतुर और अमीषा दिल थाम कर उस दिन का इंतजार कर रहे थे जिस दिन चैनल की गुलामी से आजाद हो कर वे चैन की सांस ले सकें.

‘‘यूरोप के 7 देशों में हमारा ट्रिप जाएगा और हर जगह हम गौतम का कार्यक्रम रखेंगे. कौंट्रैक्ट में पैसों के बारे में पूरा खुलासा है,’’ ट्रिप के मालिक मंजीत ने कागजों का एक पुलिंदा अमीषा को सौंपते हुए कहा, ‘‘वह तो ठीक है मंजीतजी, मगर गौतम अभी बहुत छोटा है, अकेले इतनी दूर…’’

‘‘अकेले कहां अमीषाजी, आप दोनों भी पूरे यूरोप ट्रिप में गौतम के साथ रहेंगे और यात्रा, खानापीना, घूमनाफिरना, तमाम खर्चा हमारी कंपनी उठाएगी.’’

अमीषा और आतुर को मानो मनमांगी मुराद मिल गई थी. जल्द ही सारे यूरोप की ओर निकल पड़े. ट्रिप कामयाब रहा और इस कामयाबी ने अगले कार्यक्रमों के लिए रास्ता खोल दिया. गौतम की डायरी और अमीषा की तिजोरी दोनों धीरेधीरे भरने लगीं.

दादीमां की बीमारी की खबर तो अमीषा और आतुर ने गौतम से छिपा ली, मगर उन की मौत की खबर वे चाह कर भी न छिपा पाए. शायद, इंसानियत का थोड़ा सा अंश शेष रह गया था. ‘‘मैं घर जाऊंगा, आज प्रोग्राम नहीं करूंगा मम्मी, प्लीज, मुझे दादी को देखना है, एक बार.’’

‘‘देखो बेटा, हम ने आज के कार्यक्रम का एडवांस पैसा लिया हुआ है. इतना बड़ा आयोजन हो चुका है. विदेशी मेहमान आ चुके हैं. ऐसे में कार्यक्रम कैंसिल करना ठीक नहीं लगता. साख खराब हो जाती है और फिर सोचो, दादी मां तो अब रही नहीं. तुम चले भी जाओगे तो उन्हें वापस नहीं ला सकते.’’

उस रात गौतम ने जो गाया अपनी दादी के लिए दिल से गाया, आंखों में आंसू दादी मां के लिए थे और कार्यक्रम से मिले पैसे आतुर और अमीषा के लिए थे. गौतम धीरेधीरे एक टकसाल, पैसा कमाने की मशीन में तबदील हो गया था. अमीषा और आतुर ने मुंबई के एक नामीगिरामी इलाके में बड़ा सा फ्लैट बुक करवा लिया था और जल्द ही उस में रहने का ख्वाब संजोए बैठे थे. पैसा जुटाने के लिए वे दिनरात संयोजकों से मिलते और देशविदेश में कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार करते. साथ ही, गौतम को चुस्तदुरुस्त रखना भी उन का एक अहम काम था. घूमनेफिरने से ले कर खानेपीने तक की हजार पाबंदियों के बीच गौतम का बचपन कहीं खो सा गया था. जब भी किसी बच्चे को वह आइसक्रीम या गोलगप्पे खाते या समंदर की लहरों से खेलते हुए देखता तो मायूसी उस के चेहरे से ले कर अंतर्मन तक को भेद जाती.

उस रात मेकअप रूम में गौतम खुद को संभाल नहीं पा रहा था. उस का सिर भन्ना रहा था. उसे लग रहा था मानो वह स्टेज पर नहीं जा पाएगा. ‘‘क्या हुआ गौतम, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है…?’’ एक साथी गायक आरिफ ने उस की हालत देख कर कहा. गौतम कुछ जवाब नहीं दे पाया. ‘‘मैं दवाई दूं, देते ही ठीक हो जाएगा,’’ आरिफ ने गौतम को एक पुडि़या थमाते हुए कहा.

गौतम ने दवा की पुडि़या गले के नीचे उतार ली. असर तत्काल हुआ और गौतम स्टेज तक न सिर्फ पहुंचा बल्कि घंटों तक लगातार प्रदर्शन किया. मासूम समझ नहीं पाया कि वह पुडि़या दवा की नहीं, मौत की है. धीरेधीरे दवा की पुडि़या उस की जरूरत बन गई और हर कार्यक्रम से पहले उसे गले से उतारना उस के लिए आवश्यक हो गया.

आतुर और अमीषा गौतम की इस ऊर्जा और जोश से भरी गायकी को ले कर मन ही मन फूले नहीं समा रहे थे. उन्हें लग रहा था कि फ्लैट से बंगले तक का सफर बहुत लंबा नहीं है. कई साल तक गौतम का हर कार्यक्रम जबरदस्त कामयाब रहा और हर सफलता के बाद आने वाले पैसे के ब्रीफकेस का आकार बढ़ता गया. पैसा जितना ज्यादा बढ़ता, चाहत उस से कई गुना ज्यादा बढ़ जाती. शायद, इसी का नाम इंसानी फितरत है.

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सफलता के शिखर तक पहुंचने के बाद अमीषा और आतुर को बढ़त की अपनी कोशिशों में एक अवरोध सा महसूस हो रहा था. उन्हें लगने लगा कि गौतम को न्योता देने वाले लोगों से खचाखच भरा ड्राइंगरूम कुछ खालीखाली सा लग रहा है. कार्यक्रमों में तालियों की गूंज कुछ कम है और चैक पर भरी जा रही रकम में शून्य कम हो रहे हैं. दोनों परेशान थे कि यह उतार क्यों और कैसे आ रहा है और ऐसा क्या किया जाए कि गौतम ने जो मुकाम हासिल किया है वहां से वह कभी भी न फिसले, अपने पहले पायदान पर सदा के लिए मजबूती से टिका रहे.

मंजीत के दफ्तर में पहुंच कर आतुर और अमीषा ने अपने मन की बात साफतौर पर बिना किसी लागलपेट के रखी. ‘‘देखो मैडमजी, गौतम का ग्राफ नीचे जा रहा है. उस का कारण मैं आप को बता सकता हूं. गौतम उम्र के जिस पड़ाव पर है वहां न तो उस की आवाज बच्चों जैसी है और न ही बड़ों जैसी. ऐसे में कुछ साल गुमनामी में रहना जरूरी है. आवाज में परिपक्वता आ जाए तो आप वापस यहां का रुख करें…’’

‘‘नहीं मंजीतजी, यह मायानगरी है, यहां सुबह को शाम नहीं पहचानती. अगर यहां से एक बार दूर चले गए तो वापसी के लिए उतनी ही मशक्कत करनी पड़ेगी जितनी शुरू में करनी पड़ती है. फिर, कोई दूसरा शिव सरगम का ताज हमारी राहों में पलकें बिछाए नहीं बैठा होगा. हमें इस बारे में कुछ और ही सोचना पड़ेगा.’’

डाक्टर फिरोज मुंबई के जानेमाने डाक्टर थे. अमीषा ने कोशिश कर के जल्दी ही उन से मिलने का समय ले लिया. डाक्टर फिरोज ने पूरी बात समझी और फिर कहा, ‘‘तो आप अपने बेटे की आवाज को भारी और गहरी करवाना चाहते हैं ताकि उस की आवाज थोड़ी मैच्योर लगे और वह जरूरत पड़ने पर बड़े कलाकारों का पार्श्वगायन कर सके…’’ अमीषा ने औचित्य करना चाहा मगर डाक्टर फिरोज ने अमीषा की बात पर कुछ ध्यान नहीं दिया और अपनी नजर फाइल पर गड़ाए रखी. ‘‘इस के लिए उसे हार्मोंस के इंजैक्शन व दवाइयां देनी होंगी जो उस के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी हो सकती हैं. क्या आप इतना बड़ा खतरा उठाने को तैयार हैं?’’

‘‘जब आप जैसे डाक्टर की देखरेख में सबकुछ हो रहा है तो फिर डर किस बात का,’’ आतुर ने कुशल खिलाड़ी की तरह जवाब दिया. डाक्टर फिरोज तन्मय हो कर फाइल के पन्ने पलट रहे थे कि उन की नजर एक जगह जा कर अविश्वास से अटक गई, ‘‘गौतम दिल का मरीज है. उस के दिल में…’’

‘‘हां डाक्टर, हमें बड़ी चिंता है इस बात की,’’ अमीषा ने बात बीच में काटते हुए कहा.

‘‘अगर ऐसा है तो आप उस का इलाज क्यों नहीं करवा रहे हैं. मेरे बजाय किसी हृदय चिकित्सक के पास होना चाहिए था आप को?’’

‘‘एक बार गौतम पूरी तरह से वह मुकाम हासिल कर ले, जिस के लिए वह जद्दोजेहद कर रहा है तो…’’

डाक्टर फिरोज ने हिकारत से अमीषा को देखा और कहा, ‘‘ठीक है, मगर मैं केस हाथ में तभी लूंगा जब मुझे तसल्ली होगी. फिलहाल मेरा आदमी आ कर आप के बेटे के खून का सैंपल ले आएगा. कुछ टैस्ट करने जरूरी हैं, उस के बाद ही मैं आप को कोई राय दूंगा.’’

‘‘15 अगस्त की शाम ताज होटल में एक बहुत बड़ा संगीत का आयोजन है और उस में गायकों की लिस्ट में सब से अव्वल नंबर पर तुम्हारा नाम है,’’ अमीषा ने चहकते हुए कहा और एक कार्ड गौतम के सामने रख दिया. गौतम ने एक सरसरी नजर कार्ड पर डाली और कहा, ‘‘मैं इस कार्यक्रम में नहीं जा पाऊंगा, मम्मी, मैं ने वह सारा दिन कारगिल में गुजारने का फैसला किया है, कारगिल हीरो मेजर आर्य का आग्रह था, मैं ना नहीं कर सका.’’

‘‘क्या कह रहा है गौतम तू. इतना बड़ा आयोजन छोड़ कर तू वहां जाएगा. कोई तुलना है दोनों जगहों की? कहां पांचसितारा होटल और कहां वह जंगल. यहां बड़ेबड़े फिल्म निर्माता, निर्देशक, संगीतकार होंगे. एक की भी नजर में चढ़ गया तो जिंदगी बन जाएगी और वहां मुफ्त का गानाबजाना.’’

‘‘मम्मी…’’ गौतम जोर से चीखा, ‘‘मैं ने उन को हां कह दिया है. अब मैं मना नहीं कर सकता. किसी भी कीमत पर नहीं. किसी हाल में भी नहीं.’’

‘‘तुम ने किस से पूछ कर वहां जाने की हामी भरी?’’ अमीषा गुस्से में आपा खो रही थी.

‘‘और आप ने किस से पूछ कर ताज होटल में हो रहे आयोजन की हामी भरी?’’ गौतम ने सवाल का जवाब सवाल में दिया तो अमीषा स्तब्ध रह गई. उसे गौतम से ऐसे जवाब की अपेक्षा न थी. उस के आत्मसम्मान को ठेस पहुंची मगर स्थिति की नाजुकता को समझते हुए उस ने खामोश रहने में ही बेहतरी समझी.

डाक्टर फिरोज ने अमीषा को फोन मिलाया. उन की आवाज में अधीरता थी, ‘‘क्या गौतम कारगिल से वापस आ गया?’’

‘‘हां डाक्टर साहब, अभी आराम कर रहा है. रात को ताज में उस का संगीत कार्यक्रम है, उस के न होने की वजह से पूरे कार्यक्रम की तारीख ही बदल दी गई.’’

‘‘मैं अपना तकनीशियन भेज रहा हूं, हमें एक बार और उस का ब्लड सैंपल चाहिए होगा.’’

थोड़ी देर में डाक्टर फिरोज का भेजा तकनीशियन घर पर हाजिर था. गौतम ने अधखुली आंखों से अपना हाथ आगे कर दिया. तकनीशियन ने कलाई या बाजू के बजाय हथेली की एक नस में सूई गड़ाई और सैंपल ले कर चला गया. रात को लाख कोशिशों के बावजूद गौतम समय पर बिस्तर छोड़ नहीं पाया. कार्यक्रम समापन से कुछ समय पहले ही वह पहुंचा, कुछ गाने गाए और फिर आ कर गाड़ी में सो गया. जितने भी समय वह वहां रहा, उस ने समां बांध दिया था.

अमीषा और आतुर डाक्टर फिरोज के सामने बैठे थे. ‘‘आप को बुलाने की एक खास वजह है. गौतम की तबीयत अत्यंत नाजुक है. आप लोग उस के दिल की स्थिति से तो परिचित हैं ही, मगर उस से भी ज्यादा चिंताजनक है उस के खून की रिपोर्ट. आप को ताज्जुब होगा, शायद झटका भी लगे, उस के खून में कोकीन और दूसरी दवाइयों के अंश पाए गए हैं. गौतम ड्रग एडिक्ट है और थोड़े समय से नहीं, एक अरसे से वह इस आदत का शिकार है. उस जैसा होनहार बच्चा कब ऐसी संगत में पड़ गया कि ड्रग एडिक्ट हो गया, इस का जवाब आप को ही तलाशना है. आप को ही ढूंढ़ना पड़ेगा कि कब और कैसे आप ने गौतम को ड्रग्स की तरफ धकेला. कब आप ने उसे इस बात के लिए मजबूर कर दिया कि वह ड्रग्स पर आश्रित हो जाए.’’

‘‘हम ने?’’ कांपते होंठों से अमीषा ने कहा ‘‘हम उस के मातापिता हैं. हम तो उसे तरक्की और सफलता के सातवें आसमान पर देखना चाहते हैं. हम तो चाहते हैं कि उस जैसा सफल और प्रतिभावान दूसरा कोई न हो. और आप कह रहे हैं कि हम ने उसे ड्रग एडिक्ट बना दिया?’’

‘‘यह सच है कि आप उसे देश का सब से बड़ा गायक बनाना चाहते हैं, पर एक कड़वी सचाई यह भी है कि दौलत और ग्लैमर की चमक आप पर हावी हो गई. आप लालची और स्वार्थी हो गए. नन्हे बच्चे गौतम के जरिए आप अपने ऐशोआराम से जिंदगी गुजारने का सामान जुटाते रहे. आप न सिर्फ उस की कमाई पर पलते रहे, बल्कि उस की जिंदगी से खिलवाड़ भी करते रहे. उस की आवाज की बुलंदी में आप ने उस के बचपन को दफन कर दिया. छीन लिए आप ने उस के खेलनेकूदने के दिन. उस की चंचलता, नटखटपन सब आप की खुदगर्जी की भेंट चढ़ गए.’’

अमीषा और आतुर बुत बने डाक्टर फिरोज की बात सुन रहे थे. ‘‘आप जैसे कई मांबाप अपने बच्चे को रातोंरात स्टार बनाने के लिए टीवी चैनलों पर इनाम जीतने के लिए बच्चों से उन के बचपन का बलिदान मांग लेते हैं. आप भूल जाते हैं कि बच्चों से काम करवाना कानूनी अपराध है. शौक, साधना और तपस्या को आप ने व्यवसाय बना दिया. आप दोनों गुनाहगार हैं. शर्म से डूब मरने वाली बात है कि उस के दिल का इलाज करवाने के बजाय आप की यह कोशिश है कि किस तरह से उस की आवाज बाजार में बिकाऊ बनी रहे. जाइए, किसी और डाक्टर का दरवाजा खटखटाइए. अगर आप की गैरत जग गई है तो किसी अच्छे पुनर्वास केंद्र का रुख कीजिए. गौतम को उस में भरती करवा कर उसे तंदुरुस्त करवाइए. नियति ने आप के लिए जो सजा तय की है उसे काटिए.’’

अमीषा जब गौतम के कमरे में पहुंची तो पीले पड़े उस के चेहरे को देख कर उसे खुद से घृणा होने लगी. शायद बरसों बाद उस ने गौतम का चेहरा ध्यान से देखा था. पास में मेज पर गौतम के बचपन की एक तसवीर रखी थी. नन्हा सा, प्यारा सा, नटखट सा गौतम आज एक मशहूर गायक था जिस के सारे अरमान पहले उस के अपनों ने छीन लिए थे और जो कुछ भी बचे थे वे ड्रग्स की भेंट चढ़ चुके थे. अमीषा एकटक उसे निहारती रही. फिर अपना हाथ उस के चेहरे पर रखा तो गौतम ने उस का हाथ पकड़ लिया. अमीषा की आंखों से आंसू बह निकले. आंसुओं की 2 बूंदों ने जब गौतम के कपोलों को स्पर्श किया तो गौतम की आंख खुल गई, ‘‘आप रो रही हो, मम्मी. मैं आज शाम को गा नहीं पाऊंगा इसलिए?’’

‘‘नहीं बेटा, ये आंसू तुम्हारी जिंदगी बरबाद करने की सजा हैं. अब से तू कहीं नहीं गाएगा, सिर्फ अपने लिए गाएगा, हमारे लिए गाएगा, दोस्तों के लिए गाएगा.’’

‘‘सच मम्मी,’’ गौतम ने कहा और फिर नजर दौड़ाते हुए बोला, ‘‘आरिफ नजर नहीं आ रहा, मेरी दवाई है उस के पास.’’ ‘‘तेरी दवाई आरिफ के पास नहीं, डाक्टर के पास है. तुझे मैं अस्पताल में भरती करवाऊंगी. तेरा इलाज होगा, ताकि तू आरिफ जैसे दरिंदों की दवाइयों पर आश्रित न हो. तू तो जानता है न, मैं कितनी जिद्दी हूं. तुझे चोटी का गायक बनातेबनाते स्वार्थ की हर सीमा लांघ दी मैं ने. वैसे ही तुझे वापस पहले जैसा गौतम बनाने के लिए मैं कुछ भी कर सकती हूं. तेरे ठीक होने के बाद हम यह मायानगरी छोड़ कर वापस अपने शहर चले जाएंगे, जहां हमारा एक छोटा सा घर है, तेरा स्कूल है, दोस्त हैं, तेरे टीचर्स हैं.’’

‘‘मगर वहां दादी नहीं हैं, मम्मी,’’ गौतम ने अमीषा का हाथ कस कर थाम लिया था.

‘‘दादी की यादें तो हैं न,’’ यह आतुर था, ‘‘मैं जानता हूं कि तू एक बहादुर बच्चा है, जितनी तन्मयता से तू अपना रियाज करता था, जितनी शिद्दत से तूने संगीत की साधना की थी उतनी ही मेहनत, उतनी ही लगन से तुझे यह जंग भी लड़नी है. और मेरा दावा है तू जीत कर ही आएगा, गौतम ने हारना नहीं सीखा है.’’

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प्रत्युतर में गौतम मुसकरा दिया. थोड़ी देर में सभी अस्पताल के रिसैप्शन में बैठे अपनी बारी का इंताजर कर रहे थे. कई तरह की औपचारिकताओं के बाद गौतम को दाखिल किया गया. एक लंबे संघर्ष के लिए, एक लंबे समय के लिए वह अमीषा और आतुर की आंखों से दूर होने वाला था. अमीषा ने गौतम के बालों में हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘कभी हिम्मत न हारना और ठीक हो कर वापस आना बेटा. हम यहां रोज आएंगे और दूर से तुम्हें ठीक होते हुए देखेंगे. और एक बात हम तुम से कहना चाहते हैं,’’ अमीषा एक पल के लिए ठहरी, फिर कहना जारी रखा, ‘‘हम तुम्हारा खोया हुआ बचपन तो तुम्हें लौटा नहीं सकते, लेकिन इस बात को भी नहीं भूलेंगे कि हम तुम्हारे गुनाहगार हैं, अगर हो सके तो हमें माफ कर देना.’’ अमीषा की आंखों से आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे. गौतम की आंखों की कोर से भी आंसू की 2 बूंदें बह निकलीं जिसे बहने से पहले ही अमीषा ने पोंछ दिया.

थोड़ी ही देर में 2 कर्मचारी और एक नर्स गौतम को ले कर अंदर चले गए. अमीषा और आतुर गौतम को तक तक देखते रहे जब तक वह उन की नजरों से ओझल नहीं हो गया.

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August 01, 2019 at 10:29AM

धुंध

स्वाति और अनिल के विवाह को 2 वर्ष ही हुए थे और वे दोनों अभी से एक दूसरे से बेजार नजर आने लगे थे. शायद ही कोईर् ऐसा दिन गुजरता हो जब उन के बीच झगड़ा न होता हो. आखिर ऐसा क्या हो गया कि दोनों के प्यार के इंद्रधनुषी रंग इतनी जल्दी बदरंग हो गए?

स्वाति के घर मेरा अचानक चले आना महज एक इत्तफाक था, क्योंकि उन दिनों सौरभ कुछ अधिक व्यस्तता से घिरे हुए थे और मैं नन्हे धु्रव के साथ सारा दिन एक ढर्रे से बंधी रहती थी. तब सौरभ ने ही स्वाति के घर जाने का सुझाव मुझे दिया था.

उन का कहना था, वह शीघ्र अपने कामकाज निबटा लेंगे और जब मैं चाहूंगी, मुझे लिवा ले जाएंगे. सौरभ के इस अप्रत्याशित सुझाव पर मैं प्रसन्न हो उठी. वैसे भी स्वाति की छोटी सी गृहस्थी, उस का सुखी संसार देखने की लालसा मैं बहुत दिनों से मन में संजोए बैठी थी.

विवाह के पश्चात हनीमून से लौटते हुए स्वाति और अनिल 3-4 दिन के लिए मेरे पास रुके थे, किंतु वे दिन नवदंपती के सैरसपाटे और घूमनेफिरने में किस तरह हवा हो गए, पता नहीं चला. 2 वर्ष बाद धु्रव पैदा हो गया और मैं उस की देखभाल में लग गई.

उधर स्वाति भी अपने घर, अस्पताल और मरीजों में व्यस्त हो गई. अकसर हम दोनों बहनें फोन पर एकदूसरे का हाल मालूम करती रहती थीं. तब स्वाति का एक ही आग्रह होता, ‘दीदी, किसी भी तरह कुछ दिनों के लिए कानपुर चली आओ.’ और, अब यहां आने पर मेरा सारा उत्साह, सारी खुशी किसी रेत के घरौंदे के समान ढह गई जब मैं ने देखा कि नदी के एक किनारे पर स्वाति और दूसरे पर अनिल खड़े थे और बीच में थी उफनती नदी.

अनिल अपनी तरफ से यह दूरी पाटने का प्रयास भी करते तो स्वाति छिटक कर दूर चली जाती. मुझे याद आता, डाक्टर होते हुए भी अति संवेदनशील स्वाति की आंखों में कैसा इंद्रधनुषी आकाश उतर आया था इस रिश्ते के पक्का होने पर. फिर ऐसा क्या हो गया जो इस आकाश पर बदरंग बादल छा गए. शायद ही कोई ऐसा दिन होता हो, जब दोनों के बीच झगड़ा न होता हो. ऐसे में मेरी स्थिति अत्यंत विकट होती.

मेरे लिए चुप रहना असहनीय होता और बीचबचाव करना अशोभनीय.

सुबह दोनों के अस्पताल जाने के पश्चात मैं बहुत अकेलापन महसूस करती. घर के सभी कार्यों के लिए रमिया और उस का पति थे, इसलिए मुझे करने लायक खास कुछ भी काम न था. वैसे कहने को 2 वर्षीय धु्रव मेरे साथ था, जो अपनी तोतली बातों और शरारतों से मुझे उलझाए रखता था, फिर भी स्वाति के उखड़े स्वभाव और घर में व्याप्त तनाव के कारण मन बहुत उदास रहता. ऐसे में सौरभ बहुत याद आते.

दोपहर में बहुत बेमन से मैं ने धु्रव को खाना खिलाया और उस के सोने के पश्चात उपन्यास ले कर पढ़ने बैठ गई. तभी रमिया ने आ कर कहा, ‘‘बहनजी, साहब व मेमसाहब आ गए हैं. आप का भी खाना लगाऊं क्या?’’

‘‘हांहां, लगाओ. मैं भी आ रही हूं,’’ उपन्यास छोड़ कर मैं फुरती से उठी. डाइनिंग टेबल पर खाना लग चुका था और स्वाति व अनिल मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे.

‘‘आज शाम 7 बजे डा. देशपांडे के घर जाना है, आप दोनों तैयार रहिएगा,’’ स्वाति ने सूप की प्लेट में चम्मच घुमाते हुए कहा.

‘‘आज वहां क्या है?’’ मैं ने उत्सुकता जाहिर की.

‘‘आज उन के विवाह की पहली वर्षगांठ है. भूल गईं दीदी, उस दिन शाम को पतिपत्नी हमें आमंत्रित कर गए थे.’’

‘‘स्वाति, तुम और दीदी उन के घर चले जाओ, मैं नहीं जा सकूंगा,’’ अनिल ने अपनी असमर्थता व्यक्त की.

‘‘क्यों?’’ मेरी और स्वाति की निगाहें अनिल की ओर उठ गईं.

‘‘आज रात को 6 नंबर की पेशेंट का औपरेशन है और यह चांस मुझे मिल रहा है,’’ अनिल ने उल्लासभरे स्वर में कहा.

‘‘औपरेशन डा. कपूर कर लेंगे. मैं ने डा. देशपांडे से वादा किया है कि तीनों अवश्य आएंगे,’’ स्वाति ने गंभीर स्वर में कहा.

‘‘नहीं स्वाति, तुम भलीभांति जानती हो डा. कपूर अपने मातहतों को औपरेशन का मौका नहीं देते हैं. पता नहीं कैसे आज उन्होंने यह मौका मुझे दिया है, और मैं इस सुनहरे अवसर को खोना नहीं चाहता.’’

‘‘हां अनिल, तुम्हें यह सुनहरा अवसर बिलकुल नहीं खोना चाहिए, क्योंकि 6 नंबर की रोगी महिला बहुत खूबसूरत है,’’ स्वाति ने गुस्से व व्यंग्य के स्वर में कहा.

अनिल ने आहतभाव से मेरी ओर देखा और आधा खाना छोड़ कर उठ गए. स्वाति की इस बात पर मैं भी अचंभित रह गई. अनिल के लिए कितने घटिया विचार यह लड़की मन में पाले बैठी है. सोचा, किसी दिन बैठा कर इसे अच्छी तरह समझाऊंगी कि इस तरह तो यह लड़की अपनी गृहस्थी ही चौपट कर डालेगी.

मैं ने जल्दी से दूसरी थाली लगाई और अनिल के कमरे की तरफ चल दी. अनिल पलंग पर सिर पर बांह रख कर लेटे थे. एक क्षण को मन में कुछ संकोच आया. फिर हिम्मत कर के मैं ने उन्हें आवाज दी, ‘‘अनिल, खाना खा लो.’’

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‘‘नहीं दीदी, मुझे भूख नहीं है,’’ अनिल उठ कर बैठ गए.

‘‘स्वाति का गुस्सा खाने पर क्यों उतारते हो? दुनिया में कितने लोग हैं, जिन्हें भरपेट भोजन नसीब नहीं होता है. खाना बीच में छोड़ कर उठना अन्न का निरादर करना है,’’ मेरी बड़ेबूढ़ों जैसी बातें सुन कर अनिल खाना खाने बैठ गए.

कुछ क्षण मैं यों ही कुरसी की पीठ पकड़ कर खड़ी रही, फिर बोली, ‘‘अनिल, तुम्हें छोटा भाई समझ कर कह रही हूं. तुम्हारे और स्वाति के बीच जो भी गलतफहमी पैदा हो गई है, उसे ज्यादा दिन पाले रखना ठीक नहीं.’’

‘‘हम दोनों के बीच कोई गलतफहमी नहीं, दीदी,’’ अनिल ने गंभीर स्वर में कहा. फिर कुछ रुक कर बोले, ‘‘बात यह है दीदी, जिन लोगों के जीवन में कोई समस्या नहीं होती, उन्हें समस्याएं पैदा करने का शौक होता है. आप की बहन भी ऐसे ही लोगों की श्रेणी में आती है.’’

अनिल की इस बात का मेरे पास कोई उत्तर न था, इसलिए मैं चुपचाप वहां से हट गई.

उस दिन मैं और स्वाति डा. देशपांडे के घर से रात को 10 बजे वापस आए. जैसे ही हम ने घर में कदम रखा, सौरभ का दिल्ली से फोन आ गया और मैं उन की स्नेहाकुल वाणी के माधुर्य में नहा उठी.

सौरभ का बारबार यह कहना कि मेरे बिना वहां उन का दिल नहीं लग रहा, मेरे सारे अकेलेपन और उदासी को दूर कर गया. फोन रखने के बाद जब मैं स्वाति की ओर मुड़ी, देखा, उस का चेहरा इतना सा निकल आया था. ठीक भी था, मेरे विवाह को 5 वर्ष व्यतीत हो गए थे, किंतु हमारे संबंधों में वही पहले जैसी ताजगी और मधुरता कायम थी, जबकि स्वाति के विवाह को सिर्फ 2 वर्र्ष हुए थे और अभी से ये दोनों एकदूसरे से बेजार लगते थे.

अगले दिन स्वाति और अनिल दोनों की अस्पताल की छुट्टी थी. इसलिए हम तीनों दोपहर खाने के बाद ताश खेलने बैठ गए. खेलतेखेलते जब थक गए तो मैं ने झटपट खरीदारी के लिए बाजार जाने का कार्यक्रम बना डाला, जिसे अनिल ने हंसीखुशी स्वीकार कर लिया. थोड़ी सी नानुकुर के बाद स्वाति भी चलने को राजी हो गई.

थोड़ी देर बाद नीले रंग की कार सड़क पर दौड़ रही थी. हम लोगों ने जीभर कर खरीदारी की, कंपनी बाग में धु्रव को झूला झुलाया और आइसक्रीम खिलाई. फिर थकहार कर कौफी हाउस में जा बैठे. अब तक धु्रव स्वाति की गोद में सो गया था. अनिल ने पैटीज और कौफी मंगा ली. पैटीज खाते हुए हम इधरउधर की बातें कर रहे थे कि तभी जींस और टीशर्ट पहने एक युवती अनिल के करीब आई और बोली, ‘‘हाय अनिल.’’

अनिल ने चौंक कर उस की ओर देखा. एक क्षण को वे असमंजस की स्थिति में बने रहे, फिर खड़े होते हुए बोले, ‘‘अरे, कीर्ति तुम.’’ फिर तुरंत हम से परिचय कराया, ‘‘स्वाति, यह कीर्ति है. हम दोनों मैडिकल कालेज में साथ ही पढ़ते थे. बेचारी का दूसरे साल के बाद पढ़ने में दिल नहीं लगा तो शादी कर के अमेरिका चली गई,’’ अनिल ने हंसते हुए कहा.

‘‘अमेरिका न जाती तो क्या करती, तुम ने तो मौका ही नहीं दिया,’’ कीर्ति ने बेझिझक कहा. फिर बोली, ‘‘अच्छा, स्वाति तुम्हारी पत्नी है और इन का परिचय?’’ उस का संकेत मेरी ओर था.

‘‘ये स्वाति की बड़ी बहन हैं. दिल्ली से आजकल आई हुई हैं.’’

कीर्ति कुछ देर और बात कर के चली गई. इस दौरान स्वाति गंभीर बनी बैठी रही और कुछ भी न बोली. कीर्ति के जाने के बाद अनिल ने कहा, ‘‘स्वाति, तुम्हें कीर्ति से एक बार तो घर आने को कहना ही चाहिए था.’’

स्वाति तुरंत कड़वे लहजे में बोली, ‘‘ऐसी न जाने कितनी चाहने वालियां रोजरोज मिलेंगी. आखिर मैं किसकिस को घर आने का निमंत्रण देती फिरूंगी.’’

‘‘क्या बकती हो?’’ गुस्से और अपमान से जलती निगाहों से अनिल कुछ क्षण स्वाति को घूरते रहे, फिर मेज पर से कार की चाबियां उठाते हुए बोले, ‘‘दीदी, मैं घर जा रहा हूं. आप चलिएगा?’’ तुरंत मैं और स्वाति उठ खड़े हुए. स्वाति ने सोते हुए धु्रव को गोद में उठा रखा था. अनिल ने पैसे का भुगतान किया और हम लोग बाहर आ गए.

रास्तेभर कार में कोई कुछ न बोला. कुछ देर पहले कौफी हाउस में बैठी मैं मन ही मन खुश हो रही थी कि आज का पूरा दिन हंसीखुशी बीत रहा है. किंतु अंत में स्वाति की जरा सी नासमझी ने फिर सब को तनाव में ला कर खड़ा कर दिया था.

घर आ कर अनिल बिना किसी से बात किए अपने कमरे में चले गए. रमिया ने खाने को पूछा तो उन्होंने मना कर दिया. मैं ने धु्रव को पलंग पर सुलाया और कपड़े बदल कर छत पर जा बैठी. मन बहुत उदास हो उठा था. उम्र में मैं स्वाति से 2 वर्ष बड़ी थी. जिस वर्ष मैं इंटरमीडिएट में आई, मांपिताजी दोनों  की एक कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई. स्वाति उस समय 15 वर्ष की थी. उस कच्ची उम्र में हम बिन मांबाप की बच्चियों को भाभी ने अपनी ममता के आंचल में छिपा लिया था. भैयाभाभी का हाथ सिर पर होेने के बावजूद मैं स्वाति की ओर से कभी भी लापरवाह नहीं रही थी. इसलिए आज उस की बिखरी गृहस्थी को देख कर मैं तड़प उठी थी, और उन दोनों को नजदीक लाने का उपाय ढूंढ़ रही थी.

छत पर किसी के कदमों की आहट सुन कर मैं ने मुड़ कर देखा. स्वाति भी मेरी बगल में आ कर बैठ गईर् थी. उसे देख कर मुझे कुछ देर पूर्व की घटना याद हो आई. प्रयत्न करने के बावजूद मैं अपने क्रोध को न दबा पाई, ‘‘क्या बात है स्वाति, क्या अपनी गृहस्थी पूरी तरह चौपट करने का इरादा है? ऐसे  व्यवहार से क्या तुम पति को वश में रख पाओगी? इतनी अवहेलना से तो भले से भला व्यक्ति भी हाथ से निकल जाएगा.’’

‘‘मैं क्या करूं, दीदी? मेरी कुछ समझ में नहीं आता,’’ स्वाति दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ कर बैठ  गई.

मैं ने स्नेहपूर्वक उस की पीठ पर हाथ रखा और कहा, ‘‘स्वाति, मेरी बहन, पहले तुम अपनी दीदी से कभी कुछ नहीं छिपाती थीं, फिर आज मैं क्या इतनी पराई हो गई जो तुम अपने मन की व्यथा मुझ से नहीं कह सकतीं?’’

‘‘कैसे कहूं, दीदी? तुम भी दुखी हो जाओगी जब तुम्हें पता चलेगा कि अनिल के जीवन में पहले भी कोई लड़की आ चुकी है.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’ मैं ने धैर्यपूर्वक पूछा.

‘‘अनिल ने स्वयं मुझे बताया है. वे अपने कालेज की एक लड़की से प्रेम करते थे. दोनों ने जीवनभर साथ निभाने की कसमें खाई थीं, किंतु वह लड़की धोखेबाज निकली. उस ने किसी अमीर युवक से विवाह कर लिया. अनिल ने तो विवाह न करने का फैसला कर लिया था, परंतु घरवालों के विवश करने पर इन्हें मुझ से विवाह करना पड़ा. अब तुम ही बताओ दीदी, इतना बड़ा धोखा खाने के बाद कोई कैसे खुश रह सकता है.’’

‘‘अनिल ने तुम्हें कोई धोखा नहीं दिया,’’ मैं ने स्वाति की बात का विरोध किया, ‘‘उस ने यह सबकुछ विवाह से पूर्व सौरभ को बता दिया था. तब सौरभ ने उसे समझाया था कि उस के जीवन का वह एक दुखद अध्याय था जो अब समाप्त हो चुका था. अब उसे एक नए जीवन की शुरुआत करनी चाहिए. साथ ही, सौरभ ने अनिल को यह आश्वासन भी दिया था कि स्वाति के रूप में उसे मात्र एक पत्नी ही नहीं, बल्कि एक प्रेयसी, एक अच्छी मित्र भी मिलेगी. परंतु मुझे अफसोस है स्वाति कि अनिल को एक प्रेयसी, एक अच्छी मित्र तो क्या, एक अच्छी पत्नी भी न मिली.’’

‘‘दीदी, तुम भी मुझे ही दोषी ठहरा रही हो?’’

स्वाति ने आगे कहना चाहा, किंतु मैं ने उसे बीच में ही रोक दिया, ‘‘अनिल चाहते तो सबकुछ आसानी से छिपा सकते थे. आखिर उन्हें किसी को कुछ भी बताने की आवश्यकता ही क्या थी. यह तो उन की महानता है, जो उन्होंने हमें और तुम्हें सबकुछ बता दिया. किंतु बदले में क्या मिला, इतनी प्रताड़ना और तिरस्कार,’’ बोलतेबोलते मेरा स्वर कुछ तेज हो चला था. स्वाति सिर झुकाए खामोश बैठी थी. शायद उसे कुछकुछ अपनी गलती का एहसास हो रहा था. मैं भी उस के जीवन के इस कड़वे प्रसंग को आज ही समाप्त कर देना चाहती थी. इसलिए फिर बोली, ‘‘स्वाति, मुझे क्षमा करना. आज मैं तुम्हें तुम्हारे जीवन की एक घटना याद दिलाना चाहती हूं. भैया के एक मित्र डा. अवस्थी हमारे घर आते थे. यह जानते हुए भी कि वे विवाहित हैं, तुम उन के मोहजाल में फंस गई थीं. उस समय भाभी के ही वश की बात थी, जो वे तुम्हें उस मोहजाल से मुक्त करा पाई थीं. वरना भैया की तो रातों की नींद हराम हो गई थी.’’

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‘‘उस समय मैं नामसझ थी, दीदी,’’ स्वाति अब बिलकुल रोंआसी हो

उठी थी.

‘‘मानती हूं, तुम नासमझ थीं, फिर भी एक गलत राह की ओर तुम्हारे कदम बढ़े थे. यह बात अनिल को पता चल जाए और वह तुम्हें लांछित करें तब? अनिल का प्रेम कोई भूल न थी, जबकि तुम ने अवश्य भूल की थी. स्वाति, विवाह मात्र प्रणय बंधन ही नहीं, उस के आगे भी बहुत कुछ है. आपसी विश्वास और एकदूसरे को सहारा देने का पक्का भरोसा भी है.’’

‘‘सच कहती हो, दीदी, अनिल ने जब अपनी पिछली जिंदगी के पन्ने मेरे सम्मुख पलटे, मैं विवेकशून्य हो उठी और अपनी जिंदगी के सुनहरे पलों को व्यर्थ गंवा दिया,’’ स्वाति की आंखों में पश्चात्ताप के आंसू थे.

‘‘रो मत स्वाति,’’ मैं उसे धीरज बंधाते हुए बोली, ‘‘समय रहते अपनी भूल सुधार लो. अनिल और तुम कहीं बाहर घूमने चले जाओ और नए जीवन की शुरुआत करो.’’

‘‘अनिल मान जाएंगे?’’

‘‘उन्हें मनाना मेरा काम है.’’

अगली सुबह स्वाति ने चाय के साथ अनिल को जगाया तो वे हतप्रभ हो उठे. पिछले 2 वर्षों से यह कार्य रमिया के जिम्मे था. ‘‘कहीं मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा,’’ अनिल ने अपनी आंखें मलते हुए कहा.

‘‘मुझे क्षमा कर दो, अनिल. मैं ने तुम्हें बहुत दुख पहुंचाया,’’ स्वाति नजरें नीची किए हुए बोली.

‘‘किस बात की क्षमा?’’ अनिल ने स्वाति के हाथ से चाय का कप ले लिया और उसे प्यार से अपने पास बैठा लिया. तभी मैं ने कमरे में प्रवेश किया. मुझे आता देख स्वाति बाहर चली गई.

मैं ने कहा, ‘‘अनिल, शीघ्र चाय पी लो. आज तुम्हें बहुत से काम करने हैं.’’

‘‘कौन से काम, दीदी?’’

‘‘सब से पहले अपनी और स्वाति की लंबी छुट्टी मंजूर कराओ.’’

‘‘छुट्टी? वह किसलिए?’’ अनिल हैरानी से बोले.

‘‘तुम और स्वाति नैनीताल या कहीं भी घूमने जा रहे हो, अपने एक नए जीवन की शुरुआत करने के लिए.’’

‘‘स्वाति मान जाएगी?’’ अनिल शंकित हो कर बोले.

‘‘उस ने तो जाने की तैयारियां भी शुरू कर दी हैं.’’

अनिल ने एक क्षण मेरी ओर देखा. फिर अचानक उस ने मेरे दोनों हाथ पकड़े और श्रद्धापूर्वक उन्हें माथे से लगा लिया, और कहा, ‘‘दीदी, यह नया जीवन आप की ही देन है.’’

अनिल की बात सुन कर मैं भावुक हो उठी. मैं ने उन्हें दूसरे कमरे में लगभग धक्का देते हुए कहा, ‘‘अब तुम यह बड़ीबड़ी बातें छोड़ो. वहां तुम्हारी कोई प्रतीक्षा कर रहा है,’’ अनिल दूसरे कमरे में चले गए. मैं ने परदे की ओट से देखा, वे स्वाति के कान में कुछ कह रहे थे और स्वाति हंसते हुए उन्हें अंगूठा दिखा रही थी. मैं ने सोचा, प्यार का सूरज धुंध के कारण कुछ समय के लिए आंखों में ओझल भले ही हो जाए पर एकदम से खो नहीं सकता. धुंध के छंटते ही सूरज अपनी पूरी आब के साथ फिर चमकने लगता है. मैं मन ही मन खुश थी. मेरे कदम सौरभ को बुलाने के लिए फोन की ओर बढ़ गए.

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स्वाति और अनिल के विवाह को 2 वर्ष ही हुए थे और वे दोनों अभी से एक दूसरे से बेजार नजर आने लगे थे. शायद ही कोईर् ऐसा दिन गुजरता हो जब उन के बीच झगड़ा न होता हो. आखिर ऐसा क्या हो गया कि दोनों के प्यार के इंद्रधनुषी रंग इतनी जल्दी बदरंग हो गए?

स्वाति के घर मेरा अचानक चले आना महज एक इत्तफाक था, क्योंकि उन दिनों सौरभ कुछ अधिक व्यस्तता से घिरे हुए थे और मैं नन्हे धु्रव के साथ सारा दिन एक ढर्रे से बंधी रहती थी. तब सौरभ ने ही स्वाति के घर जाने का सुझाव मुझे दिया था.

उन का कहना था, वह शीघ्र अपने कामकाज निबटा लेंगे और जब मैं चाहूंगी, मुझे लिवा ले जाएंगे. सौरभ के इस अप्रत्याशित सुझाव पर मैं प्रसन्न हो उठी. वैसे भी स्वाति की छोटी सी गृहस्थी, उस का सुखी संसार देखने की लालसा मैं बहुत दिनों से मन में संजोए बैठी थी.

विवाह के पश्चात हनीमून से लौटते हुए स्वाति और अनिल 3-4 दिन के लिए मेरे पास रुके थे, किंतु वे दिन नवदंपती के सैरसपाटे और घूमनेफिरने में किस तरह हवा हो गए, पता नहीं चला. 2 वर्ष बाद धु्रव पैदा हो गया और मैं उस की देखभाल में लग गई.

उधर स्वाति भी अपने घर, अस्पताल और मरीजों में व्यस्त हो गई. अकसर हम दोनों बहनें फोन पर एकदूसरे का हाल मालूम करती रहती थीं. तब स्वाति का एक ही आग्रह होता, ‘दीदी, किसी भी तरह कुछ दिनों के लिए कानपुर चली आओ.’ और, अब यहां आने पर मेरा सारा उत्साह, सारी खुशी किसी रेत के घरौंदे के समान ढह गई जब मैं ने देखा कि नदी के एक किनारे पर स्वाति और दूसरे पर अनिल खड़े थे और बीच में थी उफनती नदी.

अनिल अपनी तरफ से यह दूरी पाटने का प्रयास भी करते तो स्वाति छिटक कर दूर चली जाती. मुझे याद आता, डाक्टर होते हुए भी अति संवेदनशील स्वाति की आंखों में कैसा इंद्रधनुषी आकाश उतर आया था इस रिश्ते के पक्का होने पर. फिर ऐसा क्या हो गया जो इस आकाश पर बदरंग बादल छा गए. शायद ही कोई ऐसा दिन होता हो, जब दोनों के बीच झगड़ा न होता हो. ऐसे में मेरी स्थिति अत्यंत विकट होती.

मेरे लिए चुप रहना असहनीय होता और बीचबचाव करना अशोभनीय.

सुबह दोनों के अस्पताल जाने के पश्चात मैं बहुत अकेलापन महसूस करती. घर के सभी कार्यों के लिए रमिया और उस का पति थे, इसलिए मुझे करने लायक खास कुछ भी काम न था. वैसे कहने को 2 वर्षीय धु्रव मेरे साथ था, जो अपनी तोतली बातों और शरारतों से मुझे उलझाए रखता था, फिर भी स्वाति के उखड़े स्वभाव और घर में व्याप्त तनाव के कारण मन बहुत उदास रहता. ऐसे में सौरभ बहुत याद आते.

दोपहर में बहुत बेमन से मैं ने धु्रव को खाना खिलाया और उस के सोने के पश्चात उपन्यास ले कर पढ़ने बैठ गई. तभी रमिया ने आ कर कहा, ‘‘बहनजी, साहब व मेमसाहब आ गए हैं. आप का भी खाना लगाऊं क्या?’’

‘‘हांहां, लगाओ. मैं भी आ रही हूं,’’ उपन्यास छोड़ कर मैं फुरती से उठी. डाइनिंग टेबल पर खाना लग चुका था और स्वाति व अनिल मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे.

‘‘आज शाम 7 बजे डा. देशपांडे के घर जाना है, आप दोनों तैयार रहिएगा,’’ स्वाति ने सूप की प्लेट में चम्मच घुमाते हुए कहा.

‘‘आज वहां क्या है?’’ मैं ने उत्सुकता जाहिर की.

‘‘आज उन के विवाह की पहली वर्षगांठ है. भूल गईं दीदी, उस दिन शाम को पतिपत्नी हमें आमंत्रित कर गए थे.’’

‘‘स्वाति, तुम और दीदी उन के घर चले जाओ, मैं नहीं जा सकूंगा,’’ अनिल ने अपनी असमर्थता व्यक्त की.

‘‘क्यों?’’ मेरी और स्वाति की निगाहें अनिल की ओर उठ गईं.

‘‘आज रात को 6 नंबर की पेशेंट का औपरेशन है और यह चांस मुझे मिल रहा है,’’ अनिल ने उल्लासभरे स्वर में कहा.

‘‘औपरेशन डा. कपूर कर लेंगे. मैं ने डा. देशपांडे से वादा किया है कि तीनों अवश्य आएंगे,’’ स्वाति ने गंभीर स्वर में कहा.

‘‘नहीं स्वाति, तुम भलीभांति जानती हो डा. कपूर अपने मातहतों को औपरेशन का मौका नहीं देते हैं. पता नहीं कैसे आज उन्होंने यह मौका मुझे दिया है, और मैं इस सुनहरे अवसर को खोना नहीं चाहता.’’

‘‘हां अनिल, तुम्हें यह सुनहरा अवसर बिलकुल नहीं खोना चाहिए, क्योंकि 6 नंबर की रोगी महिला बहुत खूबसूरत है,’’ स्वाति ने गुस्से व व्यंग्य के स्वर में कहा.

अनिल ने आहतभाव से मेरी ओर देखा और आधा खाना छोड़ कर उठ गए. स्वाति की इस बात पर मैं भी अचंभित रह गई. अनिल के लिए कितने घटिया विचार यह लड़की मन में पाले बैठी है. सोचा, किसी दिन बैठा कर इसे अच्छी तरह समझाऊंगी कि इस तरह तो यह लड़की अपनी गृहस्थी ही चौपट कर डालेगी.

मैं ने जल्दी से दूसरी थाली लगाई और अनिल के कमरे की तरफ चल दी. अनिल पलंग पर सिर पर बांह रख कर लेटे थे. एक क्षण को मन में कुछ संकोच आया. फिर हिम्मत कर के मैं ने उन्हें आवाज दी, ‘‘अनिल, खाना खा लो.’’

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‘‘नहीं दीदी, मुझे भूख नहीं है,’’ अनिल उठ कर बैठ गए.

‘‘स्वाति का गुस्सा खाने पर क्यों उतारते हो? दुनिया में कितने लोग हैं, जिन्हें भरपेट भोजन नसीब नहीं होता है. खाना बीच में छोड़ कर उठना अन्न का निरादर करना है,’’ मेरी बड़ेबूढ़ों जैसी बातें सुन कर अनिल खाना खाने बैठ गए.

कुछ क्षण मैं यों ही कुरसी की पीठ पकड़ कर खड़ी रही, फिर बोली, ‘‘अनिल, तुम्हें छोटा भाई समझ कर कह रही हूं. तुम्हारे और स्वाति के बीच जो भी गलतफहमी पैदा हो गई है, उसे ज्यादा दिन पाले रखना ठीक नहीं.’’

‘‘हम दोनों के बीच कोई गलतफहमी नहीं, दीदी,’’ अनिल ने गंभीर स्वर में कहा. फिर कुछ रुक कर बोले, ‘‘बात यह है दीदी, जिन लोगों के जीवन में कोई समस्या नहीं होती, उन्हें समस्याएं पैदा करने का शौक होता है. आप की बहन भी ऐसे ही लोगों की श्रेणी में आती है.’’

अनिल की इस बात का मेरे पास कोई उत्तर न था, इसलिए मैं चुपचाप वहां से हट गई.

उस दिन मैं और स्वाति डा. देशपांडे के घर से रात को 10 बजे वापस आए. जैसे ही हम ने घर में कदम रखा, सौरभ का दिल्ली से फोन आ गया और मैं उन की स्नेहाकुल वाणी के माधुर्य में नहा उठी.

सौरभ का बारबार यह कहना कि मेरे बिना वहां उन का दिल नहीं लग रहा, मेरे सारे अकेलेपन और उदासी को दूर कर गया. फोन रखने के बाद जब मैं स्वाति की ओर मुड़ी, देखा, उस का चेहरा इतना सा निकल आया था. ठीक भी था, मेरे विवाह को 5 वर्ष व्यतीत हो गए थे, किंतु हमारे संबंधों में वही पहले जैसी ताजगी और मधुरता कायम थी, जबकि स्वाति के विवाह को सिर्फ 2 वर्र्ष हुए थे और अभी से ये दोनों एकदूसरे से बेजार लगते थे.

अगले दिन स्वाति और अनिल दोनों की अस्पताल की छुट्टी थी. इसलिए हम तीनों दोपहर खाने के बाद ताश खेलने बैठ गए. खेलतेखेलते जब थक गए तो मैं ने झटपट खरीदारी के लिए बाजार जाने का कार्यक्रम बना डाला, जिसे अनिल ने हंसीखुशी स्वीकार कर लिया. थोड़ी सी नानुकुर के बाद स्वाति भी चलने को राजी हो गई.

थोड़ी देर बाद नीले रंग की कार सड़क पर दौड़ रही थी. हम लोगों ने जीभर कर खरीदारी की, कंपनी बाग में धु्रव को झूला झुलाया और आइसक्रीम खिलाई. फिर थकहार कर कौफी हाउस में जा बैठे. अब तक धु्रव स्वाति की गोद में सो गया था. अनिल ने पैटीज और कौफी मंगा ली. पैटीज खाते हुए हम इधरउधर की बातें कर रहे थे कि तभी जींस और टीशर्ट पहने एक युवती अनिल के करीब आई और बोली, ‘‘हाय अनिल.’’

अनिल ने चौंक कर उस की ओर देखा. एक क्षण को वे असमंजस की स्थिति में बने रहे, फिर खड़े होते हुए बोले, ‘‘अरे, कीर्ति तुम.’’ फिर तुरंत हम से परिचय कराया, ‘‘स्वाति, यह कीर्ति है. हम दोनों मैडिकल कालेज में साथ ही पढ़ते थे. बेचारी का दूसरे साल के बाद पढ़ने में दिल नहीं लगा तो शादी कर के अमेरिका चली गई,’’ अनिल ने हंसते हुए कहा.

‘‘अमेरिका न जाती तो क्या करती, तुम ने तो मौका ही नहीं दिया,’’ कीर्ति ने बेझिझक कहा. फिर बोली, ‘‘अच्छा, स्वाति तुम्हारी पत्नी है और इन का परिचय?’’ उस का संकेत मेरी ओर था.

‘‘ये स्वाति की बड़ी बहन हैं. दिल्ली से आजकल आई हुई हैं.’’

कीर्ति कुछ देर और बात कर के चली गई. इस दौरान स्वाति गंभीर बनी बैठी रही और कुछ भी न बोली. कीर्ति के जाने के बाद अनिल ने कहा, ‘‘स्वाति, तुम्हें कीर्ति से एक बार तो घर आने को कहना ही चाहिए था.’’

स्वाति तुरंत कड़वे लहजे में बोली, ‘‘ऐसी न जाने कितनी चाहने वालियां रोजरोज मिलेंगी. आखिर मैं किसकिस को घर आने का निमंत्रण देती फिरूंगी.’’

‘‘क्या बकती हो?’’ गुस्से और अपमान से जलती निगाहों से अनिल कुछ क्षण स्वाति को घूरते रहे, फिर मेज पर से कार की चाबियां उठाते हुए बोले, ‘‘दीदी, मैं घर जा रहा हूं. आप चलिएगा?’’ तुरंत मैं और स्वाति उठ खड़े हुए. स्वाति ने सोते हुए धु्रव को गोद में उठा रखा था. अनिल ने पैसे का भुगतान किया और हम लोग बाहर आ गए.

रास्तेभर कार में कोई कुछ न बोला. कुछ देर पहले कौफी हाउस में बैठी मैं मन ही मन खुश हो रही थी कि आज का पूरा दिन हंसीखुशी बीत रहा है. किंतु अंत में स्वाति की जरा सी नासमझी ने फिर सब को तनाव में ला कर खड़ा कर दिया था.

घर आ कर अनिल बिना किसी से बात किए अपने कमरे में चले गए. रमिया ने खाने को पूछा तो उन्होंने मना कर दिया. मैं ने धु्रव को पलंग पर सुलाया और कपड़े बदल कर छत पर जा बैठी. मन बहुत उदास हो उठा था. उम्र में मैं स्वाति से 2 वर्ष बड़ी थी. जिस वर्ष मैं इंटरमीडिएट में आई, मांपिताजी दोनों  की एक कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई. स्वाति उस समय 15 वर्ष की थी. उस कच्ची उम्र में हम बिन मांबाप की बच्चियों को भाभी ने अपनी ममता के आंचल में छिपा लिया था. भैयाभाभी का हाथ सिर पर होेने के बावजूद मैं स्वाति की ओर से कभी भी लापरवाह नहीं रही थी. इसलिए आज उस की बिखरी गृहस्थी को देख कर मैं तड़प उठी थी, और उन दोनों को नजदीक लाने का उपाय ढूंढ़ रही थी.

छत पर किसी के कदमों की आहट सुन कर मैं ने मुड़ कर देखा. स्वाति भी मेरी बगल में आ कर बैठ गईर् थी. उसे देख कर मुझे कुछ देर पूर्व की घटना याद हो आई. प्रयत्न करने के बावजूद मैं अपने क्रोध को न दबा पाई, ‘‘क्या बात है स्वाति, क्या अपनी गृहस्थी पूरी तरह चौपट करने का इरादा है? ऐसे  व्यवहार से क्या तुम पति को वश में रख पाओगी? इतनी अवहेलना से तो भले से भला व्यक्ति भी हाथ से निकल जाएगा.’’

‘‘मैं क्या करूं, दीदी? मेरी कुछ समझ में नहीं आता,’’ स्वाति दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ कर बैठ  गई.

मैं ने स्नेहपूर्वक उस की पीठ पर हाथ रखा और कहा, ‘‘स्वाति, मेरी बहन, पहले तुम अपनी दीदी से कभी कुछ नहीं छिपाती थीं, फिर आज मैं क्या इतनी पराई हो गई जो तुम अपने मन की व्यथा मुझ से नहीं कह सकतीं?’’

‘‘कैसे कहूं, दीदी? तुम भी दुखी हो जाओगी जब तुम्हें पता चलेगा कि अनिल के जीवन में पहले भी कोई लड़की आ चुकी है.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’ मैं ने धैर्यपूर्वक पूछा.

‘‘अनिल ने स्वयं मुझे बताया है. वे अपने कालेज की एक लड़की से प्रेम करते थे. दोनों ने जीवनभर साथ निभाने की कसमें खाई थीं, किंतु वह लड़की धोखेबाज निकली. उस ने किसी अमीर युवक से विवाह कर लिया. अनिल ने तो विवाह न करने का फैसला कर लिया था, परंतु घरवालों के विवश करने पर इन्हें मुझ से विवाह करना पड़ा. अब तुम ही बताओ दीदी, इतना बड़ा धोखा खाने के बाद कोई कैसे खुश रह सकता है.’’

‘‘अनिल ने तुम्हें कोई धोखा नहीं दिया,’’ मैं ने स्वाति की बात का विरोध किया, ‘‘उस ने यह सबकुछ विवाह से पूर्व सौरभ को बता दिया था. तब सौरभ ने उसे समझाया था कि उस के जीवन का वह एक दुखद अध्याय था जो अब समाप्त हो चुका था. अब उसे एक नए जीवन की शुरुआत करनी चाहिए. साथ ही, सौरभ ने अनिल को यह आश्वासन भी दिया था कि स्वाति के रूप में उसे मात्र एक पत्नी ही नहीं, बल्कि एक प्रेयसी, एक अच्छी मित्र भी मिलेगी. परंतु मुझे अफसोस है स्वाति कि अनिल को एक प्रेयसी, एक अच्छी मित्र तो क्या, एक अच्छी पत्नी भी न मिली.’’

‘‘दीदी, तुम भी मुझे ही दोषी ठहरा रही हो?’’

स्वाति ने आगे कहना चाहा, किंतु मैं ने उसे बीच में ही रोक दिया, ‘‘अनिल चाहते तो सबकुछ आसानी से छिपा सकते थे. आखिर उन्हें किसी को कुछ भी बताने की आवश्यकता ही क्या थी. यह तो उन की महानता है, जो उन्होंने हमें और तुम्हें सबकुछ बता दिया. किंतु बदले में क्या मिला, इतनी प्रताड़ना और तिरस्कार,’’ बोलतेबोलते मेरा स्वर कुछ तेज हो चला था. स्वाति सिर झुकाए खामोश बैठी थी. शायद उसे कुछकुछ अपनी गलती का एहसास हो रहा था. मैं भी उस के जीवन के इस कड़वे प्रसंग को आज ही समाप्त कर देना चाहती थी. इसलिए फिर बोली, ‘‘स्वाति, मुझे क्षमा करना. आज मैं तुम्हें तुम्हारे जीवन की एक घटना याद दिलाना चाहती हूं. भैया के एक मित्र डा. अवस्थी हमारे घर आते थे. यह जानते हुए भी कि वे विवाहित हैं, तुम उन के मोहजाल में फंस गई थीं. उस समय भाभी के ही वश की बात थी, जो वे तुम्हें उस मोहजाल से मुक्त करा पाई थीं. वरना भैया की तो रातों की नींद हराम हो गई थी.’’

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‘‘उस समय मैं नामसझ थी, दीदी,’’ स्वाति अब बिलकुल रोंआसी हो

उठी थी.

‘‘मानती हूं, तुम नासमझ थीं, फिर भी एक गलत राह की ओर तुम्हारे कदम बढ़े थे. यह बात अनिल को पता चल जाए और वह तुम्हें लांछित करें तब? अनिल का प्रेम कोई भूल न थी, जबकि तुम ने अवश्य भूल की थी. स्वाति, विवाह मात्र प्रणय बंधन ही नहीं, उस के आगे भी बहुत कुछ है. आपसी विश्वास और एकदूसरे को सहारा देने का पक्का भरोसा भी है.’’

‘‘सच कहती हो, दीदी, अनिल ने जब अपनी पिछली जिंदगी के पन्ने मेरे सम्मुख पलटे, मैं विवेकशून्य हो उठी और अपनी जिंदगी के सुनहरे पलों को व्यर्थ गंवा दिया,’’ स्वाति की आंखों में पश्चात्ताप के आंसू थे.

‘‘रो मत स्वाति,’’ मैं उसे धीरज बंधाते हुए बोली, ‘‘समय रहते अपनी भूल सुधार लो. अनिल और तुम कहीं बाहर घूमने चले जाओ और नए जीवन की शुरुआत करो.’’

‘‘अनिल मान जाएंगे?’’

‘‘उन्हें मनाना मेरा काम है.’’

अगली सुबह स्वाति ने चाय के साथ अनिल को जगाया तो वे हतप्रभ हो उठे. पिछले 2 वर्षों से यह कार्य रमिया के जिम्मे था. ‘‘कहीं मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा,’’ अनिल ने अपनी आंखें मलते हुए कहा.

‘‘मुझे क्षमा कर दो, अनिल. मैं ने तुम्हें बहुत दुख पहुंचाया,’’ स्वाति नजरें नीची किए हुए बोली.

‘‘किस बात की क्षमा?’’ अनिल ने स्वाति के हाथ से चाय का कप ले लिया और उसे प्यार से अपने पास बैठा लिया. तभी मैं ने कमरे में प्रवेश किया. मुझे आता देख स्वाति बाहर चली गई.

मैं ने कहा, ‘‘अनिल, शीघ्र चाय पी लो. आज तुम्हें बहुत से काम करने हैं.’’

‘‘कौन से काम, दीदी?’’

‘‘सब से पहले अपनी और स्वाति की लंबी छुट्टी मंजूर कराओ.’’

‘‘छुट्टी? वह किसलिए?’’ अनिल हैरानी से बोले.

‘‘तुम और स्वाति नैनीताल या कहीं भी घूमने जा रहे हो, अपने एक नए जीवन की शुरुआत करने के लिए.’’

‘‘स्वाति मान जाएगी?’’ अनिल शंकित हो कर बोले.

‘‘उस ने तो जाने की तैयारियां भी शुरू कर दी हैं.’’

अनिल ने एक क्षण मेरी ओर देखा. फिर अचानक उस ने मेरे दोनों हाथ पकड़े और श्रद्धापूर्वक उन्हें माथे से लगा लिया, और कहा, ‘‘दीदी, यह नया जीवन आप की ही देन है.’’

अनिल की बात सुन कर मैं भावुक हो उठी. मैं ने उन्हें दूसरे कमरे में लगभग धक्का देते हुए कहा, ‘‘अब तुम यह बड़ीबड़ी बातें छोड़ो. वहां तुम्हारी कोई प्रतीक्षा कर रहा है,’’ अनिल दूसरे कमरे में चले गए. मैं ने परदे की ओट से देखा, वे स्वाति के कान में कुछ कह रहे थे और स्वाति हंसते हुए उन्हें अंगूठा दिखा रही थी. मैं ने सोचा, प्यार का सूरज धुंध के कारण कुछ समय के लिए आंखों में ओझल भले ही हो जाए पर एकदम से खो नहीं सकता. धुंध के छंटते ही सूरज अपनी पूरी आब के साथ फिर चमकने लगता है. मैं मन ही मन खुश थी. मेरे कदम सौरभ को बुलाने के लिए फोन की ओर बढ़ गए.

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August 01, 2019 at 10:28AM

काश

कभीकभी व्यक्ति समय के हाथों इतना मजबूर हो जाता है कि चाहते हुए भी वह कुछ नहीं कर पाता. वह हजारों लड़ाइयां लड़ सकता है परंतु अपनेआप से लड़ना सब से ज्यादा कठिन होता है. सच तो यह है कि हम अपने ही दिल के हाथों मजबूर हो जाते हैं. कदम स्वयं ही ऐसी राह पर चलने लगते हैं जिन्हें हम ने नहीं चुना. लेकिन राहें हमें वहां तक पहुंचा देती हैं जहां नियति पहुंचाना चाहती है.

मैं सोफे पर बैठी विचार कर रही थी कि मैं ने क्या खोया क्या पाया. खोने के नाम पर अपना सारा बचपन, सभी रिश्तेनाते, सखीसहेलियां अपना यौवन और पाने के नाम पर एक 9 साल का बेटा और दूसरे पति. पति तो सदा अपनेआप में ही खोए रहते. कहने को वे एक मल्टीनैशनल कंपनी में उच्चाधिकारी थे पर एक सूखी सी नीरस जिंदगी के आदी हो चुके थे. जिन की अपनी जिंदगी ही रंगहीन हो वे भला मुझे क्या सुख देते. लगता है प्रकृति मेरे हाथ में सुख की रेखा बनाना ही भूल गई थी. उस से जरूर कोई भूल हुई है और अब खुद को भुलाना ही मेरी नियति बन चुकी है.

शाम को खाने की टेबल साफ कर मैं ने उन को और बेटे को बुलाया. यंत्रचालित से हम सब खाना खाने लगे. आज तक न कभी किसी खाने की तारीफ, न शिकवा, न शिकायत, भले ही मीठा कम हो या नमक तेज. चुप्पी तोड़ते हुए बेटा बोला, ‘‘पापा, कल बुकफेयर का आखिरी दिन है और आप की छुट्टी भी है. मुझे बुकफेयर जाना है.’’ पति ने खामोशी से स्वीकृति दे दी.

सारा दिन फेयर में घूमतेघूमते मैं अब थक चुकी थी. पति और बेटा तो हर स्टौल पर ऐसे खो जाते जैसे मेरा कोई वजूद ही न हो. मैं ने इधरउधर निगाहें घुमा कर देखा. इस समय मुझे कौफी पीने की तीव्र इच्छा हो रही थी. थोड़ी देर बाद गेट के पास मैं ने कौफी का स्टौल देखा. मैं एक कौफी ले कर पास रखे सोफे पर बैठ गई.

मेरी निगाहें आसपास घूम रहे लोगों पर लगी रहीं. तभी एक चिरपरिचित सा चेहरा देख कर मैं सोच में पड़ गई. उस का मेरे पास से गुजरना और मेरा सोफे से उठना लगभग एकसाथ हुआ. उस ने उड़ती नजर से एक पल के लिए मुझे देखा. मैं एकदम चौंक गई.

‘‘राहुल,’’ मैं ने बहुत धीरे से कहा.

‘‘प्राची,’’ कह कर वह भी एकदम चौंक गया, ‘‘आज तुम यहां कैसे? कैसी हो? लगता है किताबों का शौक अभी तक नहीं गया,’’ एक मधुर सी चिरपरिचित आवाज मेरे कानों में पड़ने लगी.

मैं एकदम खामोश थी. मेरा मन अभी भी मानने को तैयार नहीं था कि उस से दोबारा मुलाकात भी हो  पाएगी.

‘‘अच्छा, मैं भी कौफी ले कर आता हूं,’’ कह कर वह वहां से चलने लगा तो मैं ने कहा, ‘‘रुको, मेरे पति सामने स्टौल पर हैं. मैं ज्यादा देर तक बैठ नहीं पाऊंगी. अपनी सुनाओ, कैसे हो तुम, कहां हो?’’

‘‘मैं कहां जाऊंगा दिल्ली छोड़ कर. तुम को तो शायद पता होगा शुरू से ही मेरा रुझान जर्नलिज्म में था. पहले कई साल अखबारों में काम करता रहा. अब टीवी सीरियल बनाता हूं. ठीकठाक जिंदगी चल रही है, पर ऐसी नहीं जैसी मैं चाहता था.’’

उस का आखिरी वाक्य भेदभरा था. तिरछी नजरों से उस ने मेरी तरफ देखा. कभीकभी आंखों की भाषा भी अपनी जबान कह देती है. हमारे बीच एक लंबा मौन पसर गया. मेरे चेहरे पर कई रंग आनेजाने लगे. उन में से एक रंग मजबूरी का भी था.

‘‘तुम कैसी हो?’’ उस ने चुप्पी तोड़ते हुए गमगीन होते माहौल को सामान्य करते हुए पूछा, ‘‘क्या कर रही हो?’’

‘‘हम औरतों का क्या है. किसी खूंटे पर तो बंधना ही है. खूंटा काठ का हो या सोने का, क्या फर्क पड़ता है.’’ मैं यह सब अचानक कैसे कह गई, मुझे खुद को भी पता नहीं. मैं रोंआसी हो गई. वह देर तक मेरी आंखों में देखता रहा जैसे कुछ पढ़ लेना चाहता हो.

‘‘सुना था औरतें कुछ घटनाएं अपने भीतर कई तहों में छिपा लेती हैं. किसी को इस की हवा तक लगने नहीं देतीं और मरने के बाद ये सब बातें भी दफन हो जाती हैं. पर…’’

‘‘पर ऐसा होता कहां है,’’ मैं ने उस का वाक्य पूरा होने से पहले ही कहा, ‘‘जिंदगी कैसी भी हो, उसे जीना पड़ता ही है.’’

‘‘ऐसा क्या हो गया कि तुम अचानक ही टूट सी गई हो. कालेज में मैं ने तुम जैसी मजबूत लड़की और नहीं देखी थी. दृढ़विश्वास और इरादे तुम्हारी पहचान थे. और फिर मैं ने तो सुना था तुम्हारे पति एक बड़ी कंपनी में डायरैक्टर हैं. समाज में मानसम्मान, सब सुविधाओं से युक्त घर…’’

‘‘सुना था तो आ कर देख भी लेते. क्या मैं बहुत दूर चली गई थी,’’ मैं भावुक हो गई. राहुल, तुम क्यों चले गए मुझे छोड़ कर. एक बार कह कर देख तो लेते, मैं कहना चाहती थी पर रिश्तों की मर्यादा और माथे का सिंदूर सामने आ गया.

मेरी आवाज में अनकही करुणा और कमजोरी के भावों को पढ़ते हुए उस ने बड़ी शालीनता से अपना कार्ड दिया और वहां से नजरें चुरा कर चला गया. आखिर, जिंदगी के कुछ हसीन पल हम ने साथसाथ जिए थे. मेरा मन कसैला सा हो उठा. पति और बेटे के आते ही मैं अनमने मन से उन के साथ वापस लौट आई. उस रात दुनिया मुझे बहुत छोटी लगने लगी.

सुबह दोनों को विदा कर के मैं देर तक पुरानी यादों में खोई रही. मैं जितना उन यादों को पीछे धकेलती, यादें उतनी ही प्रबल हो जातीं.

बीए में हमारा अंतिम वर्ष था. उसी वर्ष राहुल ने हमारी क्लास में ऐडमिशन लिया था. नया सा चेहरा क्लास में पा कर कोई हैरानी नहीं हुई. परंतु न चाहते हुए भी नजर उस की ओर चली जाती. मैं चोरी से उस को देखती और जब भी उस से नजरें मिलतीं, मैं शर्म से आंखें नीचे कर लेती, जैसे मेरी चोरी पकड़ी गई हो. खड़े हो कर जब भी वह किसी प्रश्न का उत्तर धीरे से देता, तो उसे देखने का कोई मौका नहीं छोड़ती. एक नशा सा छा गया था उसे देखने का और यह नशा मैं किसी से बांटना नहीं चाहती थी.

एकसाथ पढ़ते हुए हमारी औपचारिक मुलाकातें होती रहतीं. वह मुझे देख कर मुसकरा देता. उस की यह मीठी मुसकराहट दिल के तारों को भीतर तक झंकृत कर देती. एक दिन मेरे सब्र का बांध टूट गया. मैं सारी लाज, संकोच छोड़ कर उस के पास आ कर बोली, ‘‘राहुल, कोई अच्छा ट्यूटर हो तो बताना. मैं इकोनौमिक्स में बहुत कमजोर हूं. आखिरी वर्ष है. कुछ ऊंचानीचा हो गया तो सारी उम्र रोती रहूंगी.’’

‘‘मैं तो कभी ट्यूशन नहीं पढ़ता. परंतु कोई प्रौब्लम हो तो बताओ,’’ उस का स्वर सहज था. मेरी आशाओं और उमंगों की कपोलें खिलने लगीं. बस, मुझे तो उस से मिलने का बहाना मिल गया. मैं अपनेआप में बेहद मजबूत थी पर उस के सामने आते ही एकदम सुधबुध खो बैठती. शुरू से मैं चंचल प्रकृति की थी. मुझे अपनी सुंदरता व ऊपर से बौबकट बालों पर बेहद नाज था, जो लड़कों को दीवानगी की हदों को पार करने में सक्षम थे. कैंटीन हो या प्लेग्राउंड, कोई फ्री पीरियड हो या कोई असेंबली, मेरे पास आने के लिए लड़केलड़कियां मचलते थे. परंतु राहुल की छवि तो न जाने कैसे मन में बस गई. वह आंखों के रास्ते कब दिल में उतर गया, पता ही नहीं चला.

फिर तो यह क्रम ही बन गया. इधर 3 बजते, उधर मैं लाइब्रेरी में उस के पास पहुंच जाती. किंतु आंखों की भाषा कभी जबान पर न आ सकी. घंटे दिनों में बदल गए, दिन हफ्तों में और हफ्ते महीनों में. संकोच की एक दीवार हमेशा खड़ी रही. एक बार मैं दबेपांव उस से मिलने लाइब्रेरी में पहुंची और चुटकी लेते हुए बोली, ‘इस बार यूनिवर्सिटी टौप करने का इरादा है क्या?’

‘तुम करने दो तब न,’ कह कर उस ने मेरी ओर भरपूर निगाहों से देखा, जैसे कोई रहस्य पढ़ लिया हो.

मैं काठ की मूरत के समान एकदम जड़ हो गई. मैं ने सारी हिम्मत बटोर कर कहा, ‘मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं. क्या हम कहीं बाहर मिल सकते हैं?’

‘तुम कुछ मत कहो,’ कह कर उस ने मुझे देखा. उस का चेहरा और शब्द उम्र से कहीं ज्यादा गंभीर हो गए. उस ने मेरे मुंह पर ताला लगा दिया. वह बोला, ‘जो तुम कहना चाहती हो, मैं जानता हूं. मेरे ऊपर बहुत सारी जिम्मेदारियां हैं इसलिए…’

उस की बात सुने बिना मैं वहां से चली गई. काश, मैं उस दिन वहां से ऐसे न गईर् होती…

जैसेजैसे परीक्षाएं नजदीक आती गईं, मेरा मन भारी होने लगा. मैं चाहती थी कि वह मुझ से बात करे. मुझे कहीं मिलने के लिए बुलाए पर ऐसा कभी कुछ नहीं हुआ. मैं चाह कर भी अपने मन की बात उस से नहीं कह पाई. परीक्षाओं के बाद वही हुआ जो होना था. हमारे रास्ते अलगअलग हो गए. मैं पथरीली आंखों से घर के पास वाली मार्केट में उस का चेहरा ढूंढ़ती रही. शायद वह कहीं से आ जाए. उस का कोई ठिकाना होता तो ढूंढ़ती. पर वह तो कालेज के होस्टल में रहता था. हार कर मुझे ही अपनी कामनाओं के पंख समेटने पड़े. हमारा प्रेम परवान चढ़ने से पहले ही टूट गया. काश, उन दिनों मोबाइल और व्हाट्सऐप होते तो यह हालत न होती.

रिजल्ट आने के बाद मम्मीपापा ने घरवर देखना शुरू कर दिया. मैं ने बहुत जिद की कि मैं आगे पढ़ना चाहती हूं पर पापा चाहते थे कि रिटायरमैंट से पहले हम दोनों बहनों की शादी हो जाए.

मेरी नुमाइश शुरू हो गई. मैं शिकायत करती भी तो किस से. मेरी अंतर्वेदना सुनने वाला अब कोई नहीं था. न राहुल, न मेरे घरवाले. न सूई चली न नश्तर. न तीर चला न तलवार. माला बनने से पहले ही बिखर गई. पापा की कठोर आज्ञा और शास्त्रों के विधान के अनुसार मन के घावों को वक्त पर छोड़ कर मैं ससुराल चली आई.

शादी के बाद यथार्थ की भूमि पर पांव रखते ही मेरे सपनों का महल चरमरा कर गिर गया. मैं ने पाया की जिंदगी वैसी नहीं है जैसी मैं उस को समझती थी. पहले दिन से ही सास ने सारे गहने उतरवा लिए और कई नियमकानून कठोर शब्दों में समझा दिए. उन के दुर्व्यवहार से मुझे धीरेधीरे एहसास हो गया कि मेरा स्थान इस घर में दासी से अधिक कुछ नहीं.

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मेरी मम्मी ने भी मेरी शिकायतों पर कोईर् प्रतिक्रिया नहीं की. बस, समझाती रहीं- ‘धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’ और यह भी समझा दिया कि जब तक पति खाना न खा लें, औरतें कैसे खाना खा सकती हैं. नतीजतन, मुझे हर रात भूखा ही सोना पड़ता. प्रकृति ने हम औरतों के साथ पक्षपात किया है. बराबर का शारीरिक बल होता तो जानती. मैं हर रात पति के जुल्मों का शिकार होती. वह मुझे भूखे भेडि़ए की तरह कुचलता, मसलता और मैं उफ तक न कर पाती.

शादी के कुछ महीनों बाद अगर मेरा पांव भारी न होता तो मैं ने शायद कब की अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली होती. मुझे लगा अपने लिए न सही, आने वाली संतान के लिए जी लूंगी. लेकिन प्रकृति को तो कुछ और ही मंजूर था. 6 महीने का गर्भ लिए मैं सफेद कपड़ों में मायके पहुंचा दी गई. जहरीली शराब पीने से पति की मृत्यु हो गई. इस का सारा दोष मेरे माथे पर मढ़ते हुए मुझे ससुराल से निकाल दिया गया.

मैं औरत के बदले पत्थर पैदा होती तो प्रकृति का क्या जाता. मैं ने मृत बच्चे को जन्म दिया.

वक्त अपनी रफ्तार से गुजरता रहा. धीरेधीरे मैं भी यह जीवन जीने की आदी हो चुकी थी. जल्दी ही मुझे एक औफिस में नौकरी मिल गई. मैं ने घर की वह दहलीज हमेशा के लिए पार कर दी जहां कभी मेरा बचपन बीता था. तब मैं ने यह जाना कि यह मैन्स वर्ल्ड है यानी पुरुषों का संसार, जहां आज भी औरतों को भोगने और मनोरंजन की वस्तु समझा जाता है.

औफिस में आसपास की कुटिल निगाहों से बचने के लिए मैं ने एक विधुर से विवाह करना मंजूर कर लिया जिस का एक बेटा था. मेरा यह दर्द एक ऐसा दर्र्द था जो किसी से बांटा नहीं जा सकता था.

महरी की कई घंटियों से मेरी तंद्रा टूटी. मैं अतीत से वर्तमान में आ गई जहां अब भी बहुत अंधेरा था. मैं ने अनमने मन से दरवाजा खोला. आज मेरा कुछ भी करने को मन नहीं हो रहा था. प्रेम, फासलों और वक्त का मुहताज नहीं है, यह मैं ने आज जाना था.

मैं ने उस का कार्ड निकाला. कई बार पढ़ा. भूलीबिसरी यादें फिर से जीवंत हो उठीं. पता नहीं कैसे मन की परतों में छिपी चिनगारी फिर से भभक उठी. मैं उसे जितना भुलाने का प्रयास करती, पछाड़ खाता समय उतना ही समीप आ बैठता. मैं ने जितनी बार उसे फोन करने के लिए फोन उठाया, मन तेजी से धड़कने लगता और फिर मैं फोन रख देती. किंतु एक दिन मैं स्वयं को रोक नहीं पाई और फोन कर दिया.

‘‘कैसे हो राहुल?’’ मैं ने धीरे से पूछा.

‘‘यह तो अपने दिल से पूछो. तुम ने तो अपना फोन नंबर दिया नहीं था. फिर फोन करने की बारी तो तुम्हारी थी,’’ वह सीधीसरल बातें करने का आदी था.

‘‘कहां हो आजकल? कभी इस तरफ आओ, तो मिलना,’’ मैं ने कहा.

‘‘कभी क्यों, तुम कहो तो कल ही आ जाता हूं. अपना पता एसएमएस कर देना. तुम को बुरा तो नहीं लगेगा?’’

‘‘मैं इंतजार करूंगी,’’ कह कर मैं ने फोन काट दिया.

और वह सचमुच दोपहर को मेरे सामने खड़ा था. मैं बेहद खुशी से उसे भीतर ले आई. उस के चेहरे पर कईर् रंग प्रसन्नता और विस्मयता के थे.

‘‘तुम तो सचमुच आ गए,’’ मैं ने कहा. मेरा मन बहुरंगी फुहारों से भर उठा.

‘‘क्यों, तुम को विश्वास नहीं था कि मैं यहां आऊंगा?’’

‘‘नहीं, मुझे पूरा विश्वास था कि…’’ कहतेकहते मैं रुक गई, ‘‘अच्छा, मैं कुछ ठंडा ले कर आती हूं,’’ कह कर मैं वहां से चली गई.

बातोंबातों में उस ने बताया कि उस का सेलैक्शन बैंक में हो गया था. एक महीने की ट्रेनिंग के लिए हैदराबाद जाना पड़ा. ‘‘सोचा था कि आते ही तुम से मिलूंगा और जब तक तुम को ढूंढ़ता, तुम्हारी शादी हो चुकी थी. अब मिलता भी तो किस से? फिर पता चला कि किन्हीं कारणों से तुम वापस अपने पापा के पास आ गईर् हो. इसी दौरान मैं ने बैंक की नौकरी छोड़ दी और जेएनयू में जर्नलिजम में मास्टर्स में दाखिला ले लिया. वही मेरा पैशन था,’’ राहुल ने कहा.

‘‘और मेरे बारे में तुम्हें कौन बताता रहा?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा, ‘‘तुम मुझ से सीधा भी तो मिल सकते थे?’’

‘‘हां, मिल सकता था. मेरा मन ही जानता है मैं तुम से मिलने के लिए कितना विचलित था. और कहांकहां से तुम्हारे बारे में पूछता रहा. बस, एक संकोच सा था कि तुम कैसे रिऐक्ट करोगी. मैं ने कोई सीधेमुंह जवाब भी तो नहीं दिया था. मेरी सारी आरजुएं मजबूरी में तबदील हो गईं. मैं कहां जानता था कि वही हमारी आखिरी मुलाकात होगी,’’ कह कर उस ने नजरें फेर लीं.

‘‘और घरपरिवार?’’ मैं ने जैसे उस की किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो.

‘‘तुम्हारे बाद फिर कभी कोई मन को नहीं भाया. हो सके तो मुझे माफ कर देना. मैं ही तुम्हारी इस हालत का कारण हूं,’’ वह चुप हो गया.

आंसुओं को आंखों के रास्ते बाहर आने का रास्ता मिल गया. पलकें झपकाझपका कर उस ने बड़ी सफाई से आसुंओं को रोक लिया. हमारे बीच एक अभेद्य सी दीवार खड़ी हो गई. वातावरण एकदम मातमी सा हो गया था जैसे कोई मर गया हो. एक लंबा गहरा सन्नाटा सा पसर गया.

सहसा दीवार की घड़ी ने 2 का घंटा बजाया तो वह बोला, ‘‘अच्छा प्राची, अब मैं चलूंगा. यहां बैठा रहा तो सैलाब उमड़ पड़ेगा.’’

‘‘खाना खा कर जाना, राहुल, मैं झटपट कुछ बना लाती हूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘नहींनहीं, अब बहुत देर हो चुकी है, मुझे अब जाना ही होगा.’’

‘‘मेरे घर से इस तरह मत जाओ राहुल,’’ मैं रोंआसी सी हो गई.

‘‘मेरा खाना तुम पर उधार रहा. मैं वादा करता हूं,’’ कह कर वह उठ गया.

मैं देर तक उसे गली के कोने में देखती रही. मेरा मन फिर से बैठ गया. मन के भीतर के जिन उफनते विचारों के ज्वालामुखी को मैं शांत करना चाहती थी, वे तो और भी भड़क गए.

हमारी बातों का सिलसिला जारी रहा. दिन पखेरू की तरह उड़ने लगे. हमारी मुलाकातें बढ़ती गईं. मैं सपनों में तैरने लगी. मेरी खुशी सातवें आसमान पर थी. प्रकृति के मन में क्या था, यह तो वह जाने, किंतु मेरा वही चुलबुलापन फिर से लौट आया. वह अपने नए सीरियल के बारे में बातें करता, हम बहस करते और आगे बढ़ते जाते.

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उस दिन राहुल ने बड़े चहकते हुए फोन किया, ‘‘आज मैं बहुत खुश हूं. तुम को पार्र्टी देना चाहता हूं. चलो न कहीं चलते हैं.’’

‘‘ऐसा क्या हो गया,’’ मैं ने बाजार में शौपिंग करते हुए पूछा.

‘‘बस, मिलने पर ही बताऊंगा. मैं थोड़ी देर में आ रहा हूं,’’ कह कर उस ने फोन काट दिया. मैं न नहीं कर पाई. वही मेरी प्राथमिकता थी. मैं झट से घर गई. अपना लकी सूट पहना जिस में मैं उस को पहले दिन मिली थी. मैंचिंग चप्पल, होंठों पर हलकी डबल टोन लिपस्टिक, लाख की रंगबिरंगी चूडि़यां और कश्मीरी टुपट्टा, जो उस ने कुछ दिनों पहले ही दिया था.

उस ने कार थोड़ी दूर पर पार्क की और टैक्सी बुला ली. मैं ने पूछा, ‘‘ऐसा क्या हो गया राहुल, आज अचानक?’’

‘‘मेरा सीरियल दूरदर्शन ने पास कर लिया है. मैं बहुत खुश हूं आज. प्राची, जब से तुम मुझे मिली हो, मेरे सब काम बनते जा रहे हैं.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है,’’ मैं ने कहा. उस ने अपना हाथ मेरे हाथ के ऊपर रख दिया. उस के स्पर्श में कितना अपनापन था. मैं बोली, ‘‘तुम खुश हो, इसलिए सब कामों में मन लग रहा है. यही तुम्हारी कामयाबी का राज है.’’

‘‘मेरी खुशी भी तो तुम से ही है,’’ उस ने बड़ी संजीदगी से कहा. वह मेरे इतने करीब बैठा था कि उस की सांसों को मैं महसूस कर सकती थी. मैं यह भी भूल गईर् थी कि मैं एक सम्मानित व्यक्ति की पत्नी हूं.

उस दिन देर तक हम बेमकसद कनाट प्लेस के गलियारों में घूमते रहे. उस की निगाहें मुझ पर टिकी थीं, जिस का सामना करने का साहस शायद मुझ में नहीं था. मैं ने निगाहें फेर लीं.

‘‘पिज्जाहट चलोगी?’’ उस ने पूछा. मैं ने भीड़ का बहाना बना कर टाल दिया. सच तो यह था कि हमारी कालोनी की कई किट्टी पार्टीज यहां चला करती थीं.

‘‘कौफी होम कैसा रहेगा?’’ मैं ने कहा, ‘‘मुझे 4 बजे तक घर भी पहुंचना है. बेटा आता होगा.’’

‘‘ट्रीट के लिए बड़ा चीप लगता है,’’ उस ने कहा, ‘‘चलो, तुम कहती हो तो वहीं चलते हैं.’’ फिर मेरी तरफ देख कर बोला, ‘‘मैं तो भूल ही गया था तुम्हारा एक बेटा भी है.’’

‘‘राहुल, प्लीज मेरी दुखती रग पर हाथ न रखो. शादी की है तो निभाना तो पड़ेगा ही.’’

‘‘तुम वे रिश्ते निभा रही हो जो तुम्हारे अपने नहीं हैं. तो मेरे साथ तुम्हारा यों घूमना…मैं तो समझता था कि…’’ वह बहुत धीरे से बोला.

‘‘आगे कुछ मत कहो, राहुल,’’ मैं ने बात काट कर कहा. उस के इस अप्रत्याशित व्यवहार के लिए मैं बिलकुल तैयार नहीं थी.

‘‘प्लीज, मुझे घर छोड़ दो, कौफी फिर कभी सही,’’ मैं ने कहा, ‘‘जिंदगी में किसी अपने को न पाने की तड़प और टूटन कितनी तकलीफदेह होती है, यह तुम क्या जानो.’’

उस ने आगे कुछ नहीं कहा. चुपचाप उस ने मुझे मेरे गेट पर छोड़ दिया. मैं ने सोचा, शायद वह कुछ कहेगा. और फिर मैं भी उस से अपने कठोर शब्दों के लिए माफी मांग लूंगी. मगर विदाई के लिए न उस के होंठ हिले न हाथ उठे. लगा, जैसे कोई टीस उस के मन को भेद रही है. मैं बड़े भरे मन से अपने घर में आ गई. मैं फूटफूट कर रोने लगी.

थोड़ी देर में उस का एक मैसेज आया, ‘प्राची, सचमुच मुझ से बहुत बड़ा गुनाह हो गया. तुम्हें चाहने का गुनाह. जैसेजैसे हमारी मुलाकातें बढ़ती गईं, मेरा मन तुम से मिलने को बेचैन रहने लगा. मैं यह भी भूल गया था कि तुम एक विवाहिता हो.

‘तुम्हारा भी अपना एक सामाजिक दायरा होगा. मेरा अब तुम से न मिलना ही ठीक रहेगा. बस, इतना याद रखना कि किसी आदमी ने चुपकेचुपके तुम से प्यार किया था. मैं आज तुम्हें मांग भी लूं, तुम शायद मेरी हो भी जाओ, पर जो दूसरे की है वह मेरी कैसे हो सकती है.’

कोई औरत जिंदगी में जितना रो सकती है, मैं रोई. दांपत्य का विकल्प तो संभव है पर प्रेम का नहीं. नाव को पानी में खेने के लिए किनारा छोड़ना ही पड़ता है. न जाने कैसा समय अपने नाम लिखवा कर आई हूं. मैं अकेली रहने के लिए ही जन्मी हूं.

काश, वह दोबारा न मिलता, काश…

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कभीकभी व्यक्ति समय के हाथों इतना मजबूर हो जाता है कि चाहते हुए भी वह कुछ नहीं कर पाता. वह हजारों लड़ाइयां लड़ सकता है परंतु अपनेआप से लड़ना सब से ज्यादा कठिन होता है. सच तो यह है कि हम अपने ही दिल के हाथों मजबूर हो जाते हैं. कदम स्वयं ही ऐसी राह पर चलने लगते हैं जिन्हें हम ने नहीं चुना. लेकिन राहें हमें वहां तक पहुंचा देती हैं जहां नियति पहुंचाना चाहती है.

मैं सोफे पर बैठी विचार कर रही थी कि मैं ने क्या खोया क्या पाया. खोने के नाम पर अपना सारा बचपन, सभी रिश्तेनाते, सखीसहेलियां अपना यौवन और पाने के नाम पर एक 9 साल का बेटा और दूसरे पति. पति तो सदा अपनेआप में ही खोए रहते. कहने को वे एक मल्टीनैशनल कंपनी में उच्चाधिकारी थे पर एक सूखी सी नीरस जिंदगी के आदी हो चुके थे. जिन की अपनी जिंदगी ही रंगहीन हो वे भला मुझे क्या सुख देते. लगता है प्रकृति मेरे हाथ में सुख की रेखा बनाना ही भूल गई थी. उस से जरूर कोई भूल हुई है और अब खुद को भुलाना ही मेरी नियति बन चुकी है.

शाम को खाने की टेबल साफ कर मैं ने उन को और बेटे को बुलाया. यंत्रचालित से हम सब खाना खाने लगे. आज तक न कभी किसी खाने की तारीफ, न शिकवा, न शिकायत, भले ही मीठा कम हो या नमक तेज. चुप्पी तोड़ते हुए बेटा बोला, ‘‘पापा, कल बुकफेयर का आखिरी दिन है और आप की छुट्टी भी है. मुझे बुकफेयर जाना है.’’ पति ने खामोशी से स्वीकृति दे दी.

सारा दिन फेयर में घूमतेघूमते मैं अब थक चुकी थी. पति और बेटा तो हर स्टौल पर ऐसे खो जाते जैसे मेरा कोई वजूद ही न हो. मैं ने इधरउधर निगाहें घुमा कर देखा. इस समय मुझे कौफी पीने की तीव्र इच्छा हो रही थी. थोड़ी देर बाद गेट के पास मैं ने कौफी का स्टौल देखा. मैं एक कौफी ले कर पास रखे सोफे पर बैठ गई.

मेरी निगाहें आसपास घूम रहे लोगों पर लगी रहीं. तभी एक चिरपरिचित सा चेहरा देख कर मैं सोच में पड़ गई. उस का मेरे पास से गुजरना और मेरा सोफे से उठना लगभग एकसाथ हुआ. उस ने उड़ती नजर से एक पल के लिए मुझे देखा. मैं एकदम चौंक गई.

‘‘राहुल,’’ मैं ने बहुत धीरे से कहा.

‘‘प्राची,’’ कह कर वह भी एकदम चौंक गया, ‘‘आज तुम यहां कैसे? कैसी हो? लगता है किताबों का शौक अभी तक नहीं गया,’’ एक मधुर सी चिरपरिचित आवाज मेरे कानों में पड़ने लगी.

मैं एकदम खामोश थी. मेरा मन अभी भी मानने को तैयार नहीं था कि उस से दोबारा मुलाकात भी हो  पाएगी.

‘‘अच्छा, मैं भी कौफी ले कर आता हूं,’’ कह कर वह वहां से चलने लगा तो मैं ने कहा, ‘‘रुको, मेरे पति सामने स्टौल पर हैं. मैं ज्यादा देर तक बैठ नहीं पाऊंगी. अपनी सुनाओ, कैसे हो तुम, कहां हो?’’

‘‘मैं कहां जाऊंगा दिल्ली छोड़ कर. तुम को तो शायद पता होगा शुरू से ही मेरा रुझान जर्नलिज्म में था. पहले कई साल अखबारों में काम करता रहा. अब टीवी सीरियल बनाता हूं. ठीकठाक जिंदगी चल रही है, पर ऐसी नहीं जैसी मैं चाहता था.’’

उस का आखिरी वाक्य भेदभरा था. तिरछी नजरों से उस ने मेरी तरफ देखा. कभीकभी आंखों की भाषा भी अपनी जबान कह देती है. हमारे बीच एक लंबा मौन पसर गया. मेरे चेहरे पर कई रंग आनेजाने लगे. उन में से एक रंग मजबूरी का भी था.

‘‘तुम कैसी हो?’’ उस ने चुप्पी तोड़ते हुए गमगीन होते माहौल को सामान्य करते हुए पूछा, ‘‘क्या कर रही हो?’’

‘‘हम औरतों का क्या है. किसी खूंटे पर तो बंधना ही है. खूंटा काठ का हो या सोने का, क्या फर्क पड़ता है.’’ मैं यह सब अचानक कैसे कह गई, मुझे खुद को भी पता नहीं. मैं रोंआसी हो गई. वह देर तक मेरी आंखों में देखता रहा जैसे कुछ पढ़ लेना चाहता हो.

‘‘सुना था औरतें कुछ घटनाएं अपने भीतर कई तहों में छिपा लेती हैं. किसी को इस की हवा तक लगने नहीं देतीं और मरने के बाद ये सब बातें भी दफन हो जाती हैं. पर…’’

‘‘पर ऐसा होता कहां है,’’ मैं ने उस का वाक्य पूरा होने से पहले ही कहा, ‘‘जिंदगी कैसी भी हो, उसे जीना पड़ता ही है.’’

‘‘ऐसा क्या हो गया कि तुम अचानक ही टूट सी गई हो. कालेज में मैं ने तुम जैसी मजबूत लड़की और नहीं देखी थी. दृढ़विश्वास और इरादे तुम्हारी पहचान थे. और फिर मैं ने तो सुना था तुम्हारे पति एक बड़ी कंपनी में डायरैक्टर हैं. समाज में मानसम्मान, सब सुविधाओं से युक्त घर…’’

‘‘सुना था तो आ कर देख भी लेते. क्या मैं बहुत दूर चली गई थी,’’ मैं भावुक हो गई. राहुल, तुम क्यों चले गए मुझे छोड़ कर. एक बार कह कर देख तो लेते, मैं कहना चाहती थी पर रिश्तों की मर्यादा और माथे का सिंदूर सामने आ गया.

मेरी आवाज में अनकही करुणा और कमजोरी के भावों को पढ़ते हुए उस ने बड़ी शालीनता से अपना कार्ड दिया और वहां से नजरें चुरा कर चला गया. आखिर, जिंदगी के कुछ हसीन पल हम ने साथसाथ जिए थे. मेरा मन कसैला सा हो उठा. पति और बेटे के आते ही मैं अनमने मन से उन के साथ वापस लौट आई. उस रात दुनिया मुझे बहुत छोटी लगने लगी.

सुबह दोनों को विदा कर के मैं देर तक पुरानी यादों में खोई रही. मैं जितना उन यादों को पीछे धकेलती, यादें उतनी ही प्रबल हो जातीं.

बीए में हमारा अंतिम वर्ष था. उसी वर्ष राहुल ने हमारी क्लास में ऐडमिशन लिया था. नया सा चेहरा क्लास में पा कर कोई हैरानी नहीं हुई. परंतु न चाहते हुए भी नजर उस की ओर चली जाती. मैं चोरी से उस को देखती और जब भी उस से नजरें मिलतीं, मैं शर्म से आंखें नीचे कर लेती, जैसे मेरी चोरी पकड़ी गई हो. खड़े हो कर जब भी वह किसी प्रश्न का उत्तर धीरे से देता, तो उसे देखने का कोई मौका नहीं छोड़ती. एक नशा सा छा गया था उसे देखने का और यह नशा मैं किसी से बांटना नहीं चाहती थी.

एकसाथ पढ़ते हुए हमारी औपचारिक मुलाकातें होती रहतीं. वह मुझे देख कर मुसकरा देता. उस की यह मीठी मुसकराहट दिल के तारों को भीतर तक झंकृत कर देती. एक दिन मेरे सब्र का बांध टूट गया. मैं सारी लाज, संकोच छोड़ कर उस के पास आ कर बोली, ‘‘राहुल, कोई अच्छा ट्यूटर हो तो बताना. मैं इकोनौमिक्स में बहुत कमजोर हूं. आखिरी वर्ष है. कुछ ऊंचानीचा हो गया तो सारी उम्र रोती रहूंगी.’’

‘‘मैं तो कभी ट्यूशन नहीं पढ़ता. परंतु कोई प्रौब्लम हो तो बताओ,’’ उस का स्वर सहज था. मेरी आशाओं और उमंगों की कपोलें खिलने लगीं. बस, मुझे तो उस से मिलने का बहाना मिल गया. मैं अपनेआप में बेहद मजबूत थी पर उस के सामने आते ही एकदम सुधबुध खो बैठती. शुरू से मैं चंचल प्रकृति की थी. मुझे अपनी सुंदरता व ऊपर से बौबकट बालों पर बेहद नाज था, जो लड़कों को दीवानगी की हदों को पार करने में सक्षम थे. कैंटीन हो या प्लेग्राउंड, कोई फ्री पीरियड हो या कोई असेंबली, मेरे पास आने के लिए लड़केलड़कियां मचलते थे. परंतु राहुल की छवि तो न जाने कैसे मन में बस गई. वह आंखों के रास्ते कब दिल में उतर गया, पता ही नहीं चला.

फिर तो यह क्रम ही बन गया. इधर 3 बजते, उधर मैं लाइब्रेरी में उस के पास पहुंच जाती. किंतु आंखों की भाषा कभी जबान पर न आ सकी. घंटे दिनों में बदल गए, दिन हफ्तों में और हफ्ते महीनों में. संकोच की एक दीवार हमेशा खड़ी रही. एक बार मैं दबेपांव उस से मिलने लाइब्रेरी में पहुंची और चुटकी लेते हुए बोली, ‘इस बार यूनिवर्सिटी टौप करने का इरादा है क्या?’

‘तुम करने दो तब न,’ कह कर उस ने मेरी ओर भरपूर निगाहों से देखा, जैसे कोई रहस्य पढ़ लिया हो.

मैं काठ की मूरत के समान एकदम जड़ हो गई. मैं ने सारी हिम्मत बटोर कर कहा, ‘मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं. क्या हम कहीं बाहर मिल सकते हैं?’

‘तुम कुछ मत कहो,’ कह कर उस ने मुझे देखा. उस का चेहरा और शब्द उम्र से कहीं ज्यादा गंभीर हो गए. उस ने मेरे मुंह पर ताला लगा दिया. वह बोला, ‘जो तुम कहना चाहती हो, मैं जानता हूं. मेरे ऊपर बहुत सारी जिम्मेदारियां हैं इसलिए…’

उस की बात सुने बिना मैं वहां से चली गई. काश, मैं उस दिन वहां से ऐसे न गईर् होती…

जैसेजैसे परीक्षाएं नजदीक आती गईं, मेरा मन भारी होने लगा. मैं चाहती थी कि वह मुझ से बात करे. मुझे कहीं मिलने के लिए बुलाए पर ऐसा कभी कुछ नहीं हुआ. मैं चाह कर भी अपने मन की बात उस से नहीं कह पाई. परीक्षाओं के बाद वही हुआ जो होना था. हमारे रास्ते अलगअलग हो गए. मैं पथरीली आंखों से घर के पास वाली मार्केट में उस का चेहरा ढूंढ़ती रही. शायद वह कहीं से आ जाए. उस का कोई ठिकाना होता तो ढूंढ़ती. पर वह तो कालेज के होस्टल में रहता था. हार कर मुझे ही अपनी कामनाओं के पंख समेटने पड़े. हमारा प्रेम परवान चढ़ने से पहले ही टूट गया. काश, उन दिनों मोबाइल और व्हाट्सऐप होते तो यह हालत न होती.

रिजल्ट आने के बाद मम्मीपापा ने घरवर देखना शुरू कर दिया. मैं ने बहुत जिद की कि मैं आगे पढ़ना चाहती हूं पर पापा चाहते थे कि रिटायरमैंट से पहले हम दोनों बहनों की शादी हो जाए.

मेरी नुमाइश शुरू हो गई. मैं शिकायत करती भी तो किस से. मेरी अंतर्वेदना सुनने वाला अब कोई नहीं था. न राहुल, न मेरे घरवाले. न सूई चली न नश्तर. न तीर चला न तलवार. माला बनने से पहले ही बिखर गई. पापा की कठोर आज्ञा और शास्त्रों के विधान के अनुसार मन के घावों को वक्त पर छोड़ कर मैं ससुराल चली आई.

शादी के बाद यथार्थ की भूमि पर पांव रखते ही मेरे सपनों का महल चरमरा कर गिर गया. मैं ने पाया की जिंदगी वैसी नहीं है जैसी मैं उस को समझती थी. पहले दिन से ही सास ने सारे गहने उतरवा लिए और कई नियमकानून कठोर शब्दों में समझा दिए. उन के दुर्व्यवहार से मुझे धीरेधीरे एहसास हो गया कि मेरा स्थान इस घर में दासी से अधिक कुछ नहीं.

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मेरी मम्मी ने भी मेरी शिकायतों पर कोईर् प्रतिक्रिया नहीं की. बस, समझाती रहीं- ‘धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’ और यह भी समझा दिया कि जब तक पति खाना न खा लें, औरतें कैसे खाना खा सकती हैं. नतीजतन, मुझे हर रात भूखा ही सोना पड़ता. प्रकृति ने हम औरतों के साथ पक्षपात किया है. बराबर का शारीरिक बल होता तो जानती. मैं हर रात पति के जुल्मों का शिकार होती. वह मुझे भूखे भेडि़ए की तरह कुचलता, मसलता और मैं उफ तक न कर पाती.

शादी के कुछ महीनों बाद अगर मेरा पांव भारी न होता तो मैं ने शायद कब की अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली होती. मुझे लगा अपने लिए न सही, आने वाली संतान के लिए जी लूंगी. लेकिन प्रकृति को तो कुछ और ही मंजूर था. 6 महीने का गर्भ लिए मैं सफेद कपड़ों में मायके पहुंचा दी गई. जहरीली शराब पीने से पति की मृत्यु हो गई. इस का सारा दोष मेरे माथे पर मढ़ते हुए मुझे ससुराल से निकाल दिया गया.

मैं औरत के बदले पत्थर पैदा होती तो प्रकृति का क्या जाता. मैं ने मृत बच्चे को जन्म दिया.

वक्त अपनी रफ्तार से गुजरता रहा. धीरेधीरे मैं भी यह जीवन जीने की आदी हो चुकी थी. जल्दी ही मुझे एक औफिस में नौकरी मिल गई. मैं ने घर की वह दहलीज हमेशा के लिए पार कर दी जहां कभी मेरा बचपन बीता था. तब मैं ने यह जाना कि यह मैन्स वर्ल्ड है यानी पुरुषों का संसार, जहां आज भी औरतों को भोगने और मनोरंजन की वस्तु समझा जाता है.

औफिस में आसपास की कुटिल निगाहों से बचने के लिए मैं ने एक विधुर से विवाह करना मंजूर कर लिया जिस का एक बेटा था. मेरा यह दर्द एक ऐसा दर्र्द था जो किसी से बांटा नहीं जा सकता था.

महरी की कई घंटियों से मेरी तंद्रा टूटी. मैं अतीत से वर्तमान में आ गई जहां अब भी बहुत अंधेरा था. मैं ने अनमने मन से दरवाजा खोला. आज मेरा कुछ भी करने को मन नहीं हो रहा था. प्रेम, फासलों और वक्त का मुहताज नहीं है, यह मैं ने आज जाना था.

मैं ने उस का कार्ड निकाला. कई बार पढ़ा. भूलीबिसरी यादें फिर से जीवंत हो उठीं. पता नहीं कैसे मन की परतों में छिपी चिनगारी फिर से भभक उठी. मैं उसे जितना भुलाने का प्रयास करती, पछाड़ खाता समय उतना ही समीप आ बैठता. मैं ने जितनी बार उसे फोन करने के लिए फोन उठाया, मन तेजी से धड़कने लगता और फिर मैं फोन रख देती. किंतु एक दिन मैं स्वयं को रोक नहीं पाई और फोन कर दिया.

‘‘कैसे हो राहुल?’’ मैं ने धीरे से पूछा.

‘‘यह तो अपने दिल से पूछो. तुम ने तो अपना फोन नंबर दिया नहीं था. फिर फोन करने की बारी तो तुम्हारी थी,’’ वह सीधीसरल बातें करने का आदी था.

‘‘कहां हो आजकल? कभी इस तरफ आओ, तो मिलना,’’ मैं ने कहा.

‘‘कभी क्यों, तुम कहो तो कल ही आ जाता हूं. अपना पता एसएमएस कर देना. तुम को बुरा तो नहीं लगेगा?’’

‘‘मैं इंतजार करूंगी,’’ कह कर मैं ने फोन काट दिया.

और वह सचमुच दोपहर को मेरे सामने खड़ा था. मैं बेहद खुशी से उसे भीतर ले आई. उस के चेहरे पर कईर् रंग प्रसन्नता और विस्मयता के थे.

‘‘तुम तो सचमुच आ गए,’’ मैं ने कहा. मेरा मन बहुरंगी फुहारों से भर उठा.

‘‘क्यों, तुम को विश्वास नहीं था कि मैं यहां आऊंगा?’’

‘‘नहीं, मुझे पूरा विश्वास था कि…’’ कहतेकहते मैं रुक गई, ‘‘अच्छा, मैं कुछ ठंडा ले कर आती हूं,’’ कह कर मैं वहां से चली गई.

बातोंबातों में उस ने बताया कि उस का सेलैक्शन बैंक में हो गया था. एक महीने की ट्रेनिंग के लिए हैदराबाद जाना पड़ा. ‘‘सोचा था कि आते ही तुम से मिलूंगा और जब तक तुम को ढूंढ़ता, तुम्हारी शादी हो चुकी थी. अब मिलता भी तो किस से? फिर पता चला कि किन्हीं कारणों से तुम वापस अपने पापा के पास आ गईर् हो. इसी दौरान मैं ने बैंक की नौकरी छोड़ दी और जेएनयू में जर्नलिजम में मास्टर्स में दाखिला ले लिया. वही मेरा पैशन था,’’ राहुल ने कहा.

‘‘और मेरे बारे में तुम्हें कौन बताता रहा?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा, ‘‘तुम मुझ से सीधा भी तो मिल सकते थे?’’

‘‘हां, मिल सकता था. मेरा मन ही जानता है मैं तुम से मिलने के लिए कितना विचलित था. और कहांकहां से तुम्हारे बारे में पूछता रहा. बस, एक संकोच सा था कि तुम कैसे रिऐक्ट करोगी. मैं ने कोई सीधेमुंह जवाब भी तो नहीं दिया था. मेरी सारी आरजुएं मजबूरी में तबदील हो गईं. मैं कहां जानता था कि वही हमारी आखिरी मुलाकात होगी,’’ कह कर उस ने नजरें फेर लीं.

‘‘और घरपरिवार?’’ मैं ने जैसे उस की किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो.

‘‘तुम्हारे बाद फिर कभी कोई मन को नहीं भाया. हो सके तो मुझे माफ कर देना. मैं ही तुम्हारी इस हालत का कारण हूं,’’ वह चुप हो गया.

आंसुओं को आंखों के रास्ते बाहर आने का रास्ता मिल गया. पलकें झपकाझपका कर उस ने बड़ी सफाई से आसुंओं को रोक लिया. हमारे बीच एक अभेद्य सी दीवार खड़ी हो गई. वातावरण एकदम मातमी सा हो गया था जैसे कोई मर गया हो. एक लंबा गहरा सन्नाटा सा पसर गया.

सहसा दीवार की घड़ी ने 2 का घंटा बजाया तो वह बोला, ‘‘अच्छा प्राची, अब मैं चलूंगा. यहां बैठा रहा तो सैलाब उमड़ पड़ेगा.’’

‘‘खाना खा कर जाना, राहुल, मैं झटपट कुछ बना लाती हूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘नहींनहीं, अब बहुत देर हो चुकी है, मुझे अब जाना ही होगा.’’

‘‘मेरे घर से इस तरह मत जाओ राहुल,’’ मैं रोंआसी सी हो गई.

‘‘मेरा खाना तुम पर उधार रहा. मैं वादा करता हूं,’’ कह कर वह उठ गया.

मैं देर तक उसे गली के कोने में देखती रही. मेरा मन फिर से बैठ गया. मन के भीतर के जिन उफनते विचारों के ज्वालामुखी को मैं शांत करना चाहती थी, वे तो और भी भड़क गए.

हमारी बातों का सिलसिला जारी रहा. दिन पखेरू की तरह उड़ने लगे. हमारी मुलाकातें बढ़ती गईं. मैं सपनों में तैरने लगी. मेरी खुशी सातवें आसमान पर थी. प्रकृति के मन में क्या था, यह तो वह जाने, किंतु मेरा वही चुलबुलापन फिर से लौट आया. वह अपने नए सीरियल के बारे में बातें करता, हम बहस करते और आगे बढ़ते जाते.

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उस दिन राहुल ने बड़े चहकते हुए फोन किया, ‘‘आज मैं बहुत खुश हूं. तुम को पार्र्टी देना चाहता हूं. चलो न कहीं चलते हैं.’’

‘‘ऐसा क्या हो गया,’’ मैं ने बाजार में शौपिंग करते हुए पूछा.

‘‘बस, मिलने पर ही बताऊंगा. मैं थोड़ी देर में आ रहा हूं,’’ कह कर उस ने फोन काट दिया. मैं न नहीं कर पाई. वही मेरी प्राथमिकता थी. मैं झट से घर गई. अपना लकी सूट पहना जिस में मैं उस को पहले दिन मिली थी. मैंचिंग चप्पल, होंठों पर हलकी डबल टोन लिपस्टिक, लाख की रंगबिरंगी चूडि़यां और कश्मीरी टुपट्टा, जो उस ने कुछ दिनों पहले ही दिया था.

उस ने कार थोड़ी दूर पर पार्क की और टैक्सी बुला ली. मैं ने पूछा, ‘‘ऐसा क्या हो गया राहुल, आज अचानक?’’

‘‘मेरा सीरियल दूरदर्शन ने पास कर लिया है. मैं बहुत खुश हूं आज. प्राची, जब से तुम मुझे मिली हो, मेरे सब काम बनते जा रहे हैं.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है,’’ मैं ने कहा. उस ने अपना हाथ मेरे हाथ के ऊपर रख दिया. उस के स्पर्श में कितना अपनापन था. मैं बोली, ‘‘तुम खुश हो, इसलिए सब कामों में मन लग रहा है. यही तुम्हारी कामयाबी का राज है.’’

‘‘मेरी खुशी भी तो तुम से ही है,’’ उस ने बड़ी संजीदगी से कहा. वह मेरे इतने करीब बैठा था कि उस की सांसों को मैं महसूस कर सकती थी. मैं यह भी भूल गईर् थी कि मैं एक सम्मानित व्यक्ति की पत्नी हूं.

उस दिन देर तक हम बेमकसद कनाट प्लेस के गलियारों में घूमते रहे. उस की निगाहें मुझ पर टिकी थीं, जिस का सामना करने का साहस शायद मुझ में नहीं था. मैं ने निगाहें फेर लीं.

‘‘पिज्जाहट चलोगी?’’ उस ने पूछा. मैं ने भीड़ का बहाना बना कर टाल दिया. सच तो यह था कि हमारी कालोनी की कई किट्टी पार्टीज यहां चला करती थीं.

‘‘कौफी होम कैसा रहेगा?’’ मैं ने कहा, ‘‘मुझे 4 बजे तक घर भी पहुंचना है. बेटा आता होगा.’’

‘‘ट्रीट के लिए बड़ा चीप लगता है,’’ उस ने कहा, ‘‘चलो, तुम कहती हो तो वहीं चलते हैं.’’ फिर मेरी तरफ देख कर बोला, ‘‘मैं तो भूल ही गया था तुम्हारा एक बेटा भी है.’’

‘‘राहुल, प्लीज मेरी दुखती रग पर हाथ न रखो. शादी की है तो निभाना तो पड़ेगा ही.’’

‘‘तुम वे रिश्ते निभा रही हो जो तुम्हारे अपने नहीं हैं. तो मेरे साथ तुम्हारा यों घूमना…मैं तो समझता था कि…’’ वह बहुत धीरे से बोला.

‘‘आगे कुछ मत कहो, राहुल,’’ मैं ने बात काट कर कहा. उस के इस अप्रत्याशित व्यवहार के लिए मैं बिलकुल तैयार नहीं थी.

‘‘प्लीज, मुझे घर छोड़ दो, कौफी फिर कभी सही,’’ मैं ने कहा, ‘‘जिंदगी में किसी अपने को न पाने की तड़प और टूटन कितनी तकलीफदेह होती है, यह तुम क्या जानो.’’

उस ने आगे कुछ नहीं कहा. चुपचाप उस ने मुझे मेरे गेट पर छोड़ दिया. मैं ने सोचा, शायद वह कुछ कहेगा. और फिर मैं भी उस से अपने कठोर शब्दों के लिए माफी मांग लूंगी. मगर विदाई के लिए न उस के होंठ हिले न हाथ उठे. लगा, जैसे कोई टीस उस के मन को भेद रही है. मैं बड़े भरे मन से अपने घर में आ गई. मैं फूटफूट कर रोने लगी.

थोड़ी देर में उस का एक मैसेज आया, ‘प्राची, सचमुच मुझ से बहुत बड़ा गुनाह हो गया. तुम्हें चाहने का गुनाह. जैसेजैसे हमारी मुलाकातें बढ़ती गईं, मेरा मन तुम से मिलने को बेचैन रहने लगा. मैं यह भी भूल गया था कि तुम एक विवाहिता हो.

‘तुम्हारा भी अपना एक सामाजिक दायरा होगा. मेरा अब तुम से न मिलना ही ठीक रहेगा. बस, इतना याद रखना कि किसी आदमी ने चुपकेचुपके तुम से प्यार किया था. मैं आज तुम्हें मांग भी लूं, तुम शायद मेरी हो भी जाओ, पर जो दूसरे की है वह मेरी कैसे हो सकती है.’

कोई औरत जिंदगी में जितना रो सकती है, मैं रोई. दांपत्य का विकल्प तो संभव है पर प्रेम का नहीं. नाव को पानी में खेने के लिए किनारा छोड़ना ही पड़ता है. न जाने कैसा समय अपने नाम लिखवा कर आई हूं. मैं अकेली रहने के लिए ही जन्मी हूं.

काश, वह दोबारा न मिलता, काश…

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August 01, 2019 at 10:27AM