Wednesday 31 October 2018

दो लाख रसोइयों को नौकरी नहीं दे सकती झारखंड सरकार

Prabhatkhabar: विभाग ने सभी उपायुक्तों को भेजा पत्र. सुनिश्चित करें बाधित नहीं हो एमडीएम सुनील कुमार झा रांची ...

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मेरी मां के नाम : मां और बेटी के रिश्ते की अनूठी कहानी

इस बात को लगभग 1 साल हो गया लेकिन आज भी एक सपना सा ही लगता है. अमेरिका के एक बड़े विश्वविद्यालय, यूनिवर्सिटी औफ ह्यूस्टन के बोर्ड के सामने मैं इंटरव्यू के लिए जा रही थी. यह कोई साधारण पद नहीं था और न ही यह कोई साधारण इंटरव्यू था. लगभग 120 से ज्यादा व्यक्ति अपने अनुभव और योग्यताओं का लेखाजोखा प्रस्तुत कर चुके थे और अब केवल 4 अभ्यर्थी मैदान में चांसलर का यह पद प्राप्त करने के लिए रह गए थे.

मुझे इस बात का पूरा आभास था कि अब तक न तो किसी भी अमेरिकन रिसर्च यूनिवर्सिटी में किसी भारतीय का चयन चांसलर की तरह हुआ है और न ही टैक्सास जैसे विशाल प्रदेश ने किसी स्त्री को चांसलर की तरह कभी देखा है. इंटरव्यू में कई प्रश्न पूछे जाएंगे. हो सकता है वे पूछें कि आप में ऐसी कौन सी योग्यता है जिस के कारण यह पद आप को मिलना चाहिए या पूछें कि आप की सफलताएं आप को इस मोड़ तक कैसे लाईं?

इस तरह की चिंताओं से अपना ध्यान हटाने के लिए मैं ने जहाज की खिड़की से बाहर अपनी दृष्टि डाली तो सफेद बादल गुब्बारों की तरह नीचे दिख रहे थे. अचानक उन के बीच एक इंद्रधनुष उभर आया. विस्मय और विनोद से मेरा हृदय भर उठा…अपनी आंखें ऊपर उठा कर तो आकाश में बहुत इंद्रधनुष देखे थे लेकिन आंखें झुका कर नीचे इंद्रधनुष देखने का यह पहला अनुभव था. मैं ने अपने पर्स में कैमरे को टटोला और जब आंख उठाई तो एक नहीं 2 इंद्रधनुष अपने पूरे रंगों में विराजमान थे और मेरे प्लेन के साथ दौड़ते से लग रहे थे.

आकाश की इन ऊंचाइयों तक उठना कैसे हुआ? कैसे जीवन की यात्रा मुझे इस उड़ान तक ले आई जहां मैं चांसलर बनने का सपना भी देख सकी? किसकिस के कंधों ने मुझे सहारा दे कर ऊपर उठाया है? इन्हीं खयालों में मेरा दिल और दिमाग मुझे अपने बचपन की पगडंडी तक ले आया.

यह पगडंडी उत्तर प्रदेश के एक शहर फर्रुखाबाद में शुरू हुई जहां मैं ने अपने बचपन के 18 साल रस्सी कूदते, झूलाझूलते, गुडि़यों की शादी करते और गिट्टे खेलते बिता दिए. कभी अमेरिका जाने के बारे में सोचा भी नहीं था, वहां के आकाश में उड़ने की तो बात ही दूर थी. बचपन की आवाजें मेरे आसपास घूमने लगीं :

‘अच्छा बच्चो, अगर एक फल वाले के पास कुछ संतरे हैं. अब पहला ग्राहक 1 दर्जन संतरे खरीदता है, दूसरा ग्राहक 2 दर्जन खरीदता है और तीसरा ग्राहक सिर्फ 4 संतरे खरीदता है. इस समय फल वाले के पास जितने संतरे पहले थे उस के ठीक आधे बचे हैं. जरा बताओ तो कि फल वाले के पास बेचने से पहले कितने संतरे थे?’ यह मम्मी की आवाज थी.

‘मम्मी, हमारी टीचर ने जो होमवर्क दिया था, उसे हम कर चुके हैं. अब और नहीं सोचा जाता,’ यह मेरी आवाज थी.

‘अरे, इस में सोचने की क्या जरूरत है? यह सवाल तो तुम बिना सोचे ही बता सकती हो. जरा कोशिश तो करो.’

सितारों वाले नीले आसमान के नीचे खुले आंगन में चारपाइयों पर लेटे सोने से पहले यह लगभग रोज का किस्सा था.

‘जरा यह बताओ, बच्चो कि अमेरिका के राष्ट्रपति का क्या नाम है?’

‘कुछ भी हो, हमें क्या करना है?’

‘यह तो सामान्य ज्ञान की बात है और सामान्य ज्ञान से तो सब को काम है.’

फिर किसी दिन होम साइंस की बात आ जाती तो कभी राजनीति की तो कभी धार्मिक ग्रंथों की.

‘अच्छा, जरा बताओ तो बच्चो कि अंगरेजी में अनार को क्या कहते हैं?’

‘राज्यसभा में कितने सदस्य हैं?’

‘गीता में कितने अध्याय हैं?’

‘अगले साल फरवरी में 28 दिन होंगे या 29?’

हम कार में हों या आंगन में, गरमी की दोपहर से बच कर लेटे हों या सर्दी की रात में रजाई में दुबक कर पड़े हों, मम्मी के प्रश्न हमारे इर्दगिर्द घूमते ही रहते थे. न हमारी मम्मी टीचर हैं, न कालिज की डिगरी की हकदार, लेकिन ज्ञान की प्यास और जिज्ञासा का उतावलापन उन के पास भरपूर है और खुले हाथों से उन्होंने मुझे भी यही दिया है.

एक दिन की बात है. हमसब कमरे में बैठे अपनाअपना होमवर्क कर रहे थे. मम्मी हमारे पास बैठी हमेशा की तरह स्वेटर बुन रही थीं. दरवाजे की आहट हुई और इस से पहले कि हम में से कोई उठ पाए, पापा की गुस्से वाली आवाज खुले हुए दरवाजे से कमरे तक आ पहुंची.

‘कोई है कि नहीं घर में, बाहर का दरवाजा खुला छोड़ रखा है.’

‘तुझ से कहा था रेनु कि दरवाजा बंद कर के आना, फिर सुना नहीं,’ मम्मी ने धीरे से कहा लेकिन पापा ने आतेआते सुन लिया.

‘आप सब इधर आइए और यहां बैठिए, रेशमा और टिल्लू, तुम दोनों भी.’ पापा गुस्से में हैं यह ‘आप’ शब्द के इस्तेमाल से ही पता चल रहा था. सब शांत हो कर बैठ गए…नौकर और दादी भी.

‘रेनु, तुम्हारी परीक्षा कब से हैं?’

‘परसों से.’

‘तुम्हारी पढ़ाई सब से जरूरी है. घर का काम करने के लिए 4 नौकर लगा रखे हैं.’ उन्होंने मम्मी की तरफ देखा और बोले, ‘सुनो जी, दूध उफनता है तो उफनने दीजिए, घी बहता है तो बहने दीजिए, लेकिन रेनु की पढ़ाई में कोई डिस्टर्ब नहीं होना चाहिए,’ और पापा जैसे दनदनाते आए थे वैसे ही दनदनाते कमरे से निकल गए.

मैं घर की लाड़ली थी. इस में कोई शक नहीं था लेकिन लाड़ में न बिगड़ने देने का जिम्मा भी मम्मी का ही था. उन का कहना यही था कि पढ़ाई में प्रथम और जीवन के बाकी क्षेत्रों में आखिरी रहे तो कौन सा तीर मार लिया. इसीलिए मुझे हर तरह के कोर्स करने भेजा गया, कत्थक, ढोलक, हारमोनियम, सिलाई, कढ़ाई, पेंटिंग और कुकिंग. आज अपने जीवन में संतुलन रख पाने का श्रेय मैं मम्मी को ही देती हूं.

अमेरिका में रिसर्च व जिज्ञासा की बहुत प्रधानता है. कोई भी नया विचार हो, नया क्षेत्र हो या नई खोज हो, मेरी जिज्ञासा उतावली हो चलती है. इस का सूत्र भी मम्मी तक ही पहुंचता है. कोई भी नया प्रोजेक्ट हो या किसी भी प्रकार का नया क्राफ्ट किताब में निकला हो, मेरे मुंह से निकलने की देर होती थी कि नौकर को भेज कर मम्मी सारा सामान मंगवा देती थीं, खुद भी लग जाती थीं और अपने साथ सारे घर को लगा लेती थीं मानो इस प्रोजेक्ट की सफलता ही सब से महत्त्वपूर्ण कार्य हो.

मैं छठी कक्षा में थी और होम साइंस की परीक्षा पास करने के लिए एक डिश बनाना जरूरी था. मुझे बनाने को मिला सूजी का हलवा और वह भी बनाना स्कूल में ही था. समस्या यह थी कि मुझे तो स्टोव जलाना तक नहीं आता था, सूजी भूनना तो दूर की बात थी. 4 दिन लगातार प्रैक्टिस चली…सब को रोज हलवा ही नाश्ते में मिला. परीक्षा के दिन मम्मी ने नापतौल कर सामान पुडि़यों में बांध दिया.

‘अब सुन, यह है पीला रंग. सिर्फ 2 बूंद डालना पानी के साथ और यह है चांदी का बरक, ऊपर से लगा कर देना टीचर को. फिर देखना, तुम्हारा हलवा सब से अच्छा लगेगा.’

‘जरूरी है क्या रंग डालना? सिर्फ पास ही तो होना है.’

‘जरूरी है वह हर चीज जिस से तुम्हारी डिश साधारण से अच्छी लगे बल्कि अच्छी से अच्छी लगे.’

‘साधारण होने में क्या खराबी है?’

‘जो काम हाथ में लो, उस में अपना तनमन लगा देना चाहिए और जिस काम में इनसान का तनमन लग जाए वह साधारण हो ही नहीं सकता.’

आज लोग मुझ से पूछते हैं कि आप की सफलता के पीछे क्या रहस्य है? मेरी मां की अपेक्षाएं ही रहस्य हैं. जिस से बचपन से ही तनमन लगाने की अपेक्षा की गई हो वह किसी कामचलाऊ नतीजे से संतुष्ट कैसे हो सकता है? उस जमाने में एक लड़के और एक लड़की के पालनपोषण में बहुत अंतर होता था, लेकिन मेरी यादों में तो मम्मी का मेरे कोट की जेबों में मेवे भर देना और परीक्षा के लिए जाने से पहले मुंह में दहीपेड़ा भरना ही अंकित है.

मेरी सफलताओं पर मेरी मम्मी का गर्व भी प्रेरणादायी था. परीक्षा से लौट कर आते समय यह बात निश्चित थी कि मम्मी दरवाजे की दरार में से झांकती हुई चौखट पर खड़ी मिलेंगी. जिस ने बचपन से अपने कदमों के निशान पर किसी की आंखें बिछी देखी हों, उसे आज जीवन में कठिन से कठिन मार्ग भी इंद्रधनुष से सजे दिखते हों तो इस में आश्चर्य कैसा? इस का श्रेय भी मैं अपनी मम्मी को ही देती हूं.

मैं 18 वर्ष की थी कि जिंदगी में अचानक एक बड़ा मोड़ आ गया. अचानक मेरी शादी तय हो गई और वह भी अमेरिका में पढ़ रहे एक लड़के के साथ. जब मैं ने रोरो कर घर सिर पर उठा दिया तो मम्मी बोलीं, ‘बेटा, शादी तो होनी ही थी एक दिन…कल नहीं तो आज सही. तुम्हारे पापाजी जो कर रहे हैं, सोचसमझ कर ही कर रहे हैं.’

‘सब को अपनी सोचसमझ की लगती है. मेरी सोचसमझ कोई क्यों नहीं देखता. मुझे पढ़ना है और बहुत पढ़ना है. अब कहां गया उफनता हुआ दूध और बहता हुआ घी का टिन?’

‘तुम्हें पढ़ना है और वे लोग तुम्हें जरूर पढ़ाएंगे.’

‘आज तक पढ़ाया है किसी ने शादी के बाद जो वे पढ़ाएंगे? कौन जिम्मेदारी लेगा मेरी पढ़ाई की?’

‘मैं लेती हूं जिम्मेदारी. मेरा मन है… एक मां का मन है और यह मन कहता है कि वे तुझे पढ़ाएंगे और बहुत अच्छे से रखेंगे.’

मुझे पता था कि यह सब बहलाने की बातें थीं. मेरा रोना तभी रुका जब मेरा एडमिशन अमेरिका के एक विश्व- विद्यालय में हो गया. मम्मी के पत्र बराबर आते रहे और हर पत्र में एक पंक्ति अवश्य होती थी, ‘यह सुरेशजी की वजह से आज तुम इतना पढ़ पा रही हो…ऊंचा उठ पा रही हो.’ जिंदगी का यह पाठ कि ‘हर सफलता के पीछे दूसरों का योगदान है,’ मम्मी ने घुट्टी में घोल कर पिला दिया है मुझे. इसीलिए आज जब लोग पूछते हैं कि ‘आप की सफलता के पीछे क्या रहस्य है?’ तो मैं मुसकरा कर इंद्रधनुष के रंगों की तरह अपने जीवन में आए सभी भागीदारों के नाम गिना देती हूं.

‘‘वी आर स्टार्टिंग अवर डिसेंट…’’ जब एअर होस्टेस की आवाज प्लेन में गूंजी तो मैं अतीत से वर्तमान में लौट आई. खिड़की से बाहर झांका तो इंद्रधनुष पीछे छूट चुके थे और नीचे दिख रहा था अमेरिका का चौथा सब से बड़ा महानगर- ह्यूस्टन. मेरा मन सुबह की ओस के समान हलका था, मेरा मस्तिष्क सभी चिंताओं से मुक्त था.

ठीक 8 घंटे के बाद चांसलर और प्रेसीडेंट का वह दोहरा पद मुझे सौंप दिया गया था. मैं ने सब से पहले फोन मम्मी को लगाया और अपने उतावलेपन में सुबह 5 बजे ही उन्हें उठा दिया.

‘‘मम्मी, एक बहुत अच्छी खबर है… मैं यूनिवर्सिटी औफ ह्यूस्टन की प्रेसीडेंट बन गई हूं.’’

‘‘फोन जरा सुरेशजी को देना.’’

‘‘मम्मी, आप ने सुना नहीं क्या, मैं क्या कह रही हूं.’’

‘‘सब सुना, जरा सुरेशजी से तो बात कर लूं.’’

मैं ने एकदम अनमने मन से फोन अपने पति के हाथ में थमा दिया.

‘‘बहुतबहुत बधाई, सुरेशजी, रेनु प्रेसीडेंट बन गई. मैं तो यह सारा श्रेय आप ही को देती हूं.’’

हमेशा दूसरों को प्रोत्साहन देना और श्रेय भी खुले दिल से दूसरों में बांट देना – यही है मेरी मां की पहचान. आज उन की न सुन कर, अपनी हर सफलता और ऊंचाई मैं अपनी मम्मी के नाम करती हूं.

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इस बात को लगभग 1 साल हो गया लेकिन आज भी एक सपना सा ही लगता है. अमेरिका के एक बड़े विश्वविद्यालय, यूनिवर्सिटी औफ ह्यूस्टन के बोर्ड के सामने मैं इंटरव्यू के लिए जा रही थी. यह कोई साधारण पद नहीं था और न ही यह कोई साधारण इंटरव्यू था. लगभग 120 से ज्यादा व्यक्ति अपने अनुभव और योग्यताओं का लेखाजोखा प्रस्तुत कर चुके थे और अब केवल 4 अभ्यर्थी मैदान में चांसलर का यह पद प्राप्त करने के लिए रह गए थे.

मुझे इस बात का पूरा आभास था कि अब तक न तो किसी भी अमेरिकन रिसर्च यूनिवर्सिटी में किसी भारतीय का चयन चांसलर की तरह हुआ है और न ही टैक्सास जैसे विशाल प्रदेश ने किसी स्त्री को चांसलर की तरह कभी देखा है. इंटरव्यू में कई प्रश्न पूछे जाएंगे. हो सकता है वे पूछें कि आप में ऐसी कौन सी योग्यता है जिस के कारण यह पद आप को मिलना चाहिए या पूछें कि आप की सफलताएं आप को इस मोड़ तक कैसे लाईं?

इस तरह की चिंताओं से अपना ध्यान हटाने के लिए मैं ने जहाज की खिड़की से बाहर अपनी दृष्टि डाली तो सफेद बादल गुब्बारों की तरह नीचे दिख रहे थे. अचानक उन के बीच एक इंद्रधनुष उभर आया. विस्मय और विनोद से मेरा हृदय भर उठा…अपनी आंखें ऊपर उठा कर तो आकाश में बहुत इंद्रधनुष देखे थे लेकिन आंखें झुका कर नीचे इंद्रधनुष देखने का यह पहला अनुभव था. मैं ने अपने पर्स में कैमरे को टटोला और जब आंख उठाई तो एक नहीं 2 इंद्रधनुष अपने पूरे रंगों में विराजमान थे और मेरे प्लेन के साथ दौड़ते से लग रहे थे.

आकाश की इन ऊंचाइयों तक उठना कैसे हुआ? कैसे जीवन की यात्रा मुझे इस उड़ान तक ले आई जहां मैं चांसलर बनने का सपना भी देख सकी? किसकिस के कंधों ने मुझे सहारा दे कर ऊपर उठाया है? इन्हीं खयालों में मेरा दिल और दिमाग मुझे अपने बचपन की पगडंडी तक ले आया.

यह पगडंडी उत्तर प्रदेश के एक शहर फर्रुखाबाद में शुरू हुई जहां मैं ने अपने बचपन के 18 साल रस्सी कूदते, झूलाझूलते, गुडि़यों की शादी करते और गिट्टे खेलते बिता दिए. कभी अमेरिका जाने के बारे में सोचा भी नहीं था, वहां के आकाश में उड़ने की तो बात ही दूर थी. बचपन की आवाजें मेरे आसपास घूमने लगीं :

‘अच्छा बच्चो, अगर एक फल वाले के पास कुछ संतरे हैं. अब पहला ग्राहक 1 दर्जन संतरे खरीदता है, दूसरा ग्राहक 2 दर्जन खरीदता है और तीसरा ग्राहक सिर्फ 4 संतरे खरीदता है. इस समय फल वाले के पास जितने संतरे पहले थे उस के ठीक आधे बचे हैं. जरा बताओ तो कि फल वाले के पास बेचने से पहले कितने संतरे थे?’ यह मम्मी की आवाज थी.

‘मम्मी, हमारी टीचर ने जो होमवर्क दिया था, उसे हम कर चुके हैं. अब और नहीं सोचा जाता,’ यह मेरी आवाज थी.

‘अरे, इस में सोचने की क्या जरूरत है? यह सवाल तो तुम बिना सोचे ही बता सकती हो. जरा कोशिश तो करो.’

सितारों वाले नीले आसमान के नीचे खुले आंगन में चारपाइयों पर लेटे सोने से पहले यह लगभग रोज का किस्सा था.

‘जरा यह बताओ, बच्चो कि अमेरिका के राष्ट्रपति का क्या नाम है?’

‘कुछ भी हो, हमें क्या करना है?’

‘यह तो सामान्य ज्ञान की बात है और सामान्य ज्ञान से तो सब को काम है.’

फिर किसी दिन होम साइंस की बात आ जाती तो कभी राजनीति की तो कभी धार्मिक ग्रंथों की.

‘अच्छा, जरा बताओ तो बच्चो कि अंगरेजी में अनार को क्या कहते हैं?’

‘राज्यसभा में कितने सदस्य हैं?’

‘गीता में कितने अध्याय हैं?’

‘अगले साल फरवरी में 28 दिन होंगे या 29?’

हम कार में हों या आंगन में, गरमी की दोपहर से बच कर लेटे हों या सर्दी की रात में रजाई में दुबक कर पड़े हों, मम्मी के प्रश्न हमारे इर्दगिर्द घूमते ही रहते थे. न हमारी मम्मी टीचर हैं, न कालिज की डिगरी की हकदार, लेकिन ज्ञान की प्यास और जिज्ञासा का उतावलापन उन के पास भरपूर है और खुले हाथों से उन्होंने मुझे भी यही दिया है.

एक दिन की बात है. हमसब कमरे में बैठे अपनाअपना होमवर्क कर रहे थे. मम्मी हमारे पास बैठी हमेशा की तरह स्वेटर बुन रही थीं. दरवाजे की आहट हुई और इस से पहले कि हम में से कोई उठ पाए, पापा की गुस्से वाली आवाज खुले हुए दरवाजे से कमरे तक आ पहुंची.

‘कोई है कि नहीं घर में, बाहर का दरवाजा खुला छोड़ रखा है.’

‘तुझ से कहा था रेनु कि दरवाजा बंद कर के आना, फिर सुना नहीं,’ मम्मी ने धीरे से कहा लेकिन पापा ने आतेआते सुन लिया.

‘आप सब इधर आइए और यहां बैठिए, रेशमा और टिल्लू, तुम दोनों भी.’ पापा गुस्से में हैं यह ‘आप’ शब्द के इस्तेमाल से ही पता चल रहा था. सब शांत हो कर बैठ गए…नौकर और दादी भी.

‘रेनु, तुम्हारी परीक्षा कब से हैं?’

‘परसों से.’

‘तुम्हारी पढ़ाई सब से जरूरी है. घर का काम करने के लिए 4 नौकर लगा रखे हैं.’ उन्होंने मम्मी की तरफ देखा और बोले, ‘सुनो जी, दूध उफनता है तो उफनने दीजिए, घी बहता है तो बहने दीजिए, लेकिन रेनु की पढ़ाई में कोई डिस्टर्ब नहीं होना चाहिए,’ और पापा जैसे दनदनाते आए थे वैसे ही दनदनाते कमरे से निकल गए.

मैं घर की लाड़ली थी. इस में कोई शक नहीं था लेकिन लाड़ में न बिगड़ने देने का जिम्मा भी मम्मी का ही था. उन का कहना यही था कि पढ़ाई में प्रथम और जीवन के बाकी क्षेत्रों में आखिरी रहे तो कौन सा तीर मार लिया. इसीलिए मुझे हर तरह के कोर्स करने भेजा गया, कत्थक, ढोलक, हारमोनियम, सिलाई, कढ़ाई, पेंटिंग और कुकिंग. आज अपने जीवन में संतुलन रख पाने का श्रेय मैं मम्मी को ही देती हूं.

अमेरिका में रिसर्च व जिज्ञासा की बहुत प्रधानता है. कोई भी नया विचार हो, नया क्षेत्र हो या नई खोज हो, मेरी जिज्ञासा उतावली हो चलती है. इस का सूत्र भी मम्मी तक ही पहुंचता है. कोई भी नया प्रोजेक्ट हो या किसी भी प्रकार का नया क्राफ्ट किताब में निकला हो, मेरे मुंह से निकलने की देर होती थी कि नौकर को भेज कर मम्मी सारा सामान मंगवा देती थीं, खुद भी लग जाती थीं और अपने साथ सारे घर को लगा लेती थीं मानो इस प्रोजेक्ट की सफलता ही सब से महत्त्वपूर्ण कार्य हो.

मैं छठी कक्षा में थी और होम साइंस की परीक्षा पास करने के लिए एक डिश बनाना जरूरी था. मुझे बनाने को मिला सूजी का हलवा और वह भी बनाना स्कूल में ही था. समस्या यह थी कि मुझे तो स्टोव जलाना तक नहीं आता था, सूजी भूनना तो दूर की बात थी. 4 दिन लगातार प्रैक्टिस चली…सब को रोज हलवा ही नाश्ते में मिला. परीक्षा के दिन मम्मी ने नापतौल कर सामान पुडि़यों में बांध दिया.

‘अब सुन, यह है पीला रंग. सिर्फ 2 बूंद डालना पानी के साथ और यह है चांदी का बरक, ऊपर से लगा कर देना टीचर को. फिर देखना, तुम्हारा हलवा सब से अच्छा लगेगा.’

‘जरूरी है क्या रंग डालना? सिर्फ पास ही तो होना है.’

‘जरूरी है वह हर चीज जिस से तुम्हारी डिश साधारण से अच्छी लगे बल्कि अच्छी से अच्छी लगे.’

‘साधारण होने में क्या खराबी है?’

‘जो काम हाथ में लो, उस में अपना तनमन लगा देना चाहिए और जिस काम में इनसान का तनमन लग जाए वह साधारण हो ही नहीं सकता.’

आज लोग मुझ से पूछते हैं कि आप की सफलता के पीछे क्या रहस्य है? मेरी मां की अपेक्षाएं ही रहस्य हैं. जिस से बचपन से ही तनमन लगाने की अपेक्षा की गई हो वह किसी कामचलाऊ नतीजे से संतुष्ट कैसे हो सकता है? उस जमाने में एक लड़के और एक लड़की के पालनपोषण में बहुत अंतर होता था, लेकिन मेरी यादों में तो मम्मी का मेरे कोट की जेबों में मेवे भर देना और परीक्षा के लिए जाने से पहले मुंह में दहीपेड़ा भरना ही अंकित है.

मेरी सफलताओं पर मेरी मम्मी का गर्व भी प्रेरणादायी था. परीक्षा से लौट कर आते समय यह बात निश्चित थी कि मम्मी दरवाजे की दरार में से झांकती हुई चौखट पर खड़ी मिलेंगी. जिस ने बचपन से अपने कदमों के निशान पर किसी की आंखें बिछी देखी हों, उसे आज जीवन में कठिन से कठिन मार्ग भी इंद्रधनुष से सजे दिखते हों तो इस में आश्चर्य कैसा? इस का श्रेय भी मैं अपनी मम्मी को ही देती हूं.

मैं 18 वर्ष की थी कि जिंदगी में अचानक एक बड़ा मोड़ आ गया. अचानक मेरी शादी तय हो गई और वह भी अमेरिका में पढ़ रहे एक लड़के के साथ. जब मैं ने रोरो कर घर सिर पर उठा दिया तो मम्मी बोलीं, ‘बेटा, शादी तो होनी ही थी एक दिन…कल नहीं तो आज सही. तुम्हारे पापाजी जो कर रहे हैं, सोचसमझ कर ही कर रहे हैं.’

‘सब को अपनी सोचसमझ की लगती है. मेरी सोचसमझ कोई क्यों नहीं देखता. मुझे पढ़ना है और बहुत पढ़ना है. अब कहां गया उफनता हुआ दूध और बहता हुआ घी का टिन?’

‘तुम्हें पढ़ना है और वे लोग तुम्हें जरूर पढ़ाएंगे.’

‘आज तक पढ़ाया है किसी ने शादी के बाद जो वे पढ़ाएंगे? कौन जिम्मेदारी लेगा मेरी पढ़ाई की?’

‘मैं लेती हूं जिम्मेदारी. मेरा मन है… एक मां का मन है और यह मन कहता है कि वे तुझे पढ़ाएंगे और बहुत अच्छे से रखेंगे.’

मुझे पता था कि यह सब बहलाने की बातें थीं. मेरा रोना तभी रुका जब मेरा एडमिशन अमेरिका के एक विश्व- विद्यालय में हो गया. मम्मी के पत्र बराबर आते रहे और हर पत्र में एक पंक्ति अवश्य होती थी, ‘यह सुरेशजी की वजह से आज तुम इतना पढ़ पा रही हो…ऊंचा उठ पा रही हो.’ जिंदगी का यह पाठ कि ‘हर सफलता के पीछे दूसरों का योगदान है,’ मम्मी ने घुट्टी में घोल कर पिला दिया है मुझे. इसीलिए आज जब लोग पूछते हैं कि ‘आप की सफलता के पीछे क्या रहस्य है?’ तो मैं मुसकरा कर इंद्रधनुष के रंगों की तरह अपने जीवन में आए सभी भागीदारों के नाम गिना देती हूं.

‘‘वी आर स्टार्टिंग अवर डिसेंट…’’ जब एअर होस्टेस की आवाज प्लेन में गूंजी तो मैं अतीत से वर्तमान में लौट आई. खिड़की से बाहर झांका तो इंद्रधनुष पीछे छूट चुके थे और नीचे दिख रहा था अमेरिका का चौथा सब से बड़ा महानगर- ह्यूस्टन. मेरा मन सुबह की ओस के समान हलका था, मेरा मस्तिष्क सभी चिंताओं से मुक्त था.

ठीक 8 घंटे के बाद चांसलर और प्रेसीडेंट का वह दोहरा पद मुझे सौंप दिया गया था. मैं ने सब से पहले फोन मम्मी को लगाया और अपने उतावलेपन में सुबह 5 बजे ही उन्हें उठा दिया.

‘‘मम्मी, एक बहुत अच्छी खबर है… मैं यूनिवर्सिटी औफ ह्यूस्टन की प्रेसीडेंट बन गई हूं.’’

‘‘फोन जरा सुरेशजी को देना.’’

‘‘मम्मी, आप ने सुना नहीं क्या, मैं क्या कह रही हूं.’’

‘‘सब सुना, जरा सुरेशजी से तो बात कर लूं.’’

मैं ने एकदम अनमने मन से फोन अपने पति के हाथ में थमा दिया.

‘‘बहुतबहुत बधाई, सुरेशजी, रेनु प्रेसीडेंट बन गई. मैं तो यह सारा श्रेय आप ही को देती हूं.’’

हमेशा दूसरों को प्रोत्साहन देना और श्रेय भी खुले दिल से दूसरों में बांट देना – यही है मेरी मां की पहचान. आज उन की न सुन कर, अपनी हर सफलता और ऊंचाई मैं अपनी मम्मी के नाम करती हूं.

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November 01, 2018 at 11:26AM

धुंध : शराब ने छीन ली अर्चना के परिवार की खुशियां

घर के अंदर पैर रखते ही अर्चना समझ गई थी कि आज फिर कुछ हंगामा हुआ है. घर में कुछ न कुछ होता ही रहता था, इसलिए वह विचलित नहीं हुई. शांत भाव से उस ने दुपट्टे से मुंह पोंछा और कमरे में आई.

नित्य की भांति मां आंखें बंद कर के लेटी थीं. 15 वर्षीय आशा मुरझाए मुख को ले कर उस के सिरहाने खड़ी थी. छत पर पंखा घूम रहा था, फिर भी बरसात का मौसम होने के कारण उमसभरी गरमी थी. उस पर कमरे की एकमात्र खिड़की बंद होने से अर्चना को घुटन होने लगी. उस ने आशा से पूछा, ‘‘यह खिड़की बंद क्यों है? खोल दे.’’

आशा ने खिड़की खोल दी.

अर्चना मां के पलंग पर बैठ गई, ‘‘कैसी हो, मां?’’

मां की आंखों में आंसू डबडबा आए. वह भरे गले से बोलीं, ‘‘मौत क्या मेरे घर का रास्ता नहीं पहचानती?’’

‘‘मां, हमेशा ऐसी बातें क्यों करती रहती हो,’’ अर्चना ने मां के माथे पर हाथ रख दिया.

‘‘तुम्हारे लिए बोझ ही तो हूं,’’ मां के आंसू गालों पर ढुलक आए.

‘‘मां, ऐसा क्यों सोचती हो. तुम तो हम दोनों के लिए सुरक्षा हो.’’

‘‘पर बेटी, अब और नहीं सहन होता.’’

‘‘क्या आज भी कुछ हुआ है?’’

‘‘वही पुरानी बात. महीने का आखिर है…जब तक तनख्वाह न मिले, कुछ न कुछ तो होता ही रहता है.’’

‘‘आज क्या हुआ?’’ अर्चना ने भयमिश्रित उत्सुकता से पूछा.

‘‘आराम कर तू, थक कर आई है.’’

अर्चना का मन करता था कि यहां से भाग जाए, पर साहस नहीं होता था. उस के वेतन में परिवार का भरणपोषण संभव नहीं था. ऊपर से मां की दवा इत्यादि में काफी खर्चा हो जाता था.

आशा के हाथ से चाय का प्याला ले कर अर्चना ने पूछा, ‘‘मां की दवा ले आई है न?’’

आशा ने इनकार में सिर हिलाया.

अर्चना के माथे पर बल पड़ गए, ‘‘क्यों?’’

आशा ने अपना माथा दिखाया, जिस पर गूमड़ निकल आया था. फिर धीरे से बोली, ‘‘पिताजी ने पैसे छीन लिए.’’

‘‘तो आज यह बात हुई है?’’

‘‘अब तो सहन नहीं होता. इस सत्यानासी शराब ने मेरे हंसतेखेलते परिवार को आग की भट्ठी में झोंक दिया है.’’

‘‘तुम्हारे दवा के पैसे शराब पीने के लिए छीन ले गए.’’

‘‘आशा ने पैसे नहीं दिए तो वह चीखचीख कर गंदी गालियां देने लगे. फिर बेचारी का सिर दीवार में दे मारा.’’

क्रोध से अर्चना की आंखें जलने लगीं, ‘‘हालात सीमा से बाहर होते जा रहे हैं. अब तो कुछ करना ही पड़ेगा.’’

‘‘कुछ नहीं हो सकता, बेटी,’’ मां ने भरे गले से कहा, ‘‘थकी होगी, चाय पी ले.’’

अर्चना ने प्याला उठाया.

मां कुछ क्षण उस की ओर देखने के बाद बोलीं, ‘‘मैं एक बात सोच रही थी… अगर तू माने तो…’’

‘‘कैसी बात, मां?’’

‘‘देख, मैं तो ठीक होने वाली नहीं हूं. आज नहीं तो कल दम तोड़ना ही है. तू आशा को ले कर कामकाजी महिलावास में चली जा.’’

‘‘और तुम? मां, तुम तो पागल हो गई हो. तुम्हें इस अवस्था में यहां छोड़ कर हम कामकाजी महिलावास में चली जाएं. ऐसा सोचना भी नहीं.’’

रात को दोनों बहनें मां के कमरे में ही सोती थीं. कोने वाला कमरा पिता का था. पिता आधी रात को लौटते. कभी खाते, कभी नहीं खाते.

9 बजे सारा काम निबटा कर दोनों बहनें लेट गईं.

‘‘मां, आज बुखार नहीं आया. लगता है, दवा ने काम किया है.’’

‘‘अब और जीने की इच्छा नहीं है, बेटी. तुम दोनों के लिए मैं कुछ भी नहीं कर पाई.’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो, मां. तुम्हारे प्यार से कितनी शांति मिलती है हम दोनों को.’’

‘‘बेटी, विवाह करने से पहले बस, यही देखना कि लड़का शराब न पीता हो.’’

‘‘मां, पिताजी भी तो पहले नहीं पीते थे.’’

‘‘वे दिन याद करती हूं तो आंसू नहीं रोक पाती,’’ मां ने गहरी सांस ली, ‘‘कितनी शांति थी तब घर में. आशा तो तेरे 8 वर्ष बाद हुई है. उस को होश आतेआते तो सुख के दिन खो ही गए. पर तुझे तो सब याद होगा?’’

मां के साथसाथ अर्चना भी अतीत में डूब गई. हां, उसे तो सब याद है. 12 वर्ष की आयु तक घर में कितनी संपन्नता थी. सुखी, स्वस्थ मां का चेहरा हर समय ममता से सराबोर रहता था. पिताजी समय पर दफ्तर से लौटते हुए हर रोज फल, मिठाई वगैरह जरूर लाते थे. रात खाने की मेज पर उन के कहकहे गूंजते रहते थे…

अर्चना को याद है, उस दिन पिता अपने कई सहकर्मियों से घिरे घर लौटे थे.

‘भाभी, मुंह मीठा कराइए, नरेशजी अफसर बन गए हैं,’ एकसाथ कई स्वर गूंजे थे.

मानो सारा संसार नाच उठा था. मां का मुख गर्व और खुशी की लालिमा से दमकने लगा था.

मुंह मीठा क्या, मां ने सब को भरपेट नाश्ता कराया था. महल्लेभर में मिठाई बंटवाई और खास लोगों की दावत की. रात को होटल में पिताजी ने अपने सहकर्मियों को खाना खिलाया था. उस दिन ही पहली बार शराब उन के होंठों से लगी थी.

अर्चना ने गहरी सांस ली. कितनी अजीब बात है कि मानवता और नैतिकता को निगल जाने वाली यह सत्यानासी शराब अब समाज के हर वर्ग में एक रिवाज सा बन गई है. फलतेफूलते परिवार देखतेदेखते ही कंगाल हो जाते हैं.

एक दिन महल्ले में प्रवेश करते ही रामप्रसाद ने अर्चना से कहा, ‘‘बेटी, तुम से कुछ कहना है.’’

अर्चना रुक गई, ‘‘कहिए, ताऊजी.’’

‘‘दफ्तर से थकीहारी लौट रही हो, घर जा कर थोड़ा सुस्ता लो. मैं आता हूं.’’

अर्चना के दिलोदिमाग में आशंका के बादल मंडराने लगे. रामप्रसाद बुजुर्ग व्यक्ति थे. हर कोई उन का सम्मान करता था.

चिंता में डूबी वह घर आई. आशा पालक काट रही थी. मां चुपचाप लेटी थीं.

‘‘चाय के साथ परांठे खाओगी, दीदी?’’

‘‘नहीं, बस चाय,’’ अर्चना मां के पास आई, ‘‘कैसी हो, मां?’’

‘‘आज तू इतनी उदास क्यों लग रही है?’’ मां ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘गली के मोड़ पर ताऊजी मिले थे, कह रहे थे, कुछ बात करने घर आ रहे हैं.’’

मां एकाएक भय से कांप उठीं, ‘‘क्या कहना है?’’

‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा.’’

आशा चाय ले आई. तीनों ने चुपचाप चाय पी ली. फिर अर्चना लेट गई. झपकी आ गई.

आशा ने उसे जगाया, ‘‘दीदी, ताऊजी आए हैं.’’

मां कठिनाई से दीवार का सहारा लिए फर्श पर बैठी थीं. ताऊजी चारपाई पर बैठे हुए थे.

अर्चना को देखते ही बोले, ‘‘आओ बेटी, बैठो.’’

अर्चना उन के पास ही बैठ गई और बोली, ‘‘ताऊजी, क्या पिताजी के बारे में कुछ कहने आए हैं?’’

उस के बारे में क्या कहूं, बेटी. नरेश कभी हमारे महल्ले का हीरा था. आज वह क्या से क्या हो गया है. महल्ले वाले उस की चीखपुकार और गालियों से परेशान हो गए हैं. किसी दिन मारमार कर उस की हड्डीपसली तोड़ देंगे. किसी तरह मैं ने लोगों को रोक रखा है. बात यही नहीं है, बेटी, इस से भी गंभीर है. नरेश ने घर किशोरी महाजन के पास गिरवी रख दिया है, रामप्रसाद उदास स्वर में बोले.

‘‘क्या?’’ अर्चना एकाएक चीख उठी.

मां सूखे पत्ते के समान कांपने लगीं.

‘‘ताऊजी, फिर तो हम कहीं के न रह जाएंगे,’’ अर्चना ने उन की ओर देखा.

‘‘मैं भी बहुत चिंता में हूं. वैसे किशोरी महाजन आदमी बुरा नहीं है. आज मेरे घर आ कर उस ने सारी बात बताई है. कह रहा था कि वह सूद छोड़ देगा. मूल के 25 हजार उसे मिल जाएं तो मकान के कागज वह तुम्हें सौंप देगा.’’

अर्चना की आंखें हैरत से फैल गईं, ‘‘25 हजार?’’

‘‘बहू को तो तुम्हारे दादा ने दिल खोल कर जेवर चढ़ाया था. संकट के समय उन को बचा कर क्या करोगी?’’ ताऊजी ने धीरे से कहा. दुख में भी मनुष्य को कभीकभी हंसी आ जाती है. अर्चना भी हंस पड़ी, ‘‘आप क्या समझते हैं, जेवर अभी तक बचे हुए हैं. शराब की भेंट सब से पहले जेवर ही चढ़े थे, ताऊजी.’’

‘‘तब कुछ…और?’’

‘‘हमारे घर की सही दशा आप को नहीं मालूम. सबकुछ शराब की अग्नि में भस्म हो चुका है. घर में कुछ भी नहीं बचा है,’’ अर्चना दुखी स्वर में बोली, ‘‘लेकिन ताऊजी, एकसाथ इतनी रकम की जरूरत पिताजी को क्यों आ पड़ी?’’

‘‘शराब के साथसाथ नरेश जुआ भी खेलता है. और मैं क्या बताऊं. देखो, कोशिश करता हूं…शायद कुछ…’’ रामप्रसाद उठ खड़े हुए.

‘‘मुझे मौत क्यों नहीं आती?’’ मां हिचकियां लेले कर रोने लगीं.

‘‘उस से क्या समस्या सुलझ जाएगी?’’

‘‘अब क्या होगा? कहां जाएंगे हम?’’

‘‘कुछ न कुछ तो होगा ही, तुम चिंता न करो,’’ अर्चना ने मां को सांत्वना देते हुए कहा.

कार्यालय में अचानक सरला दीदी अर्चना के पास आ खड़ी हुईं.

‘‘क्या सोच रही हो?’’ वह अर्चना से बहुत स्नेह करती थीं. अकेली थीं और कामकाजी महिलावास में ही रहती थीं.

‘‘मैं बहुत परेशान हूं, दीदी. कैंटीन में चलोगी?’’

‘‘चलो.’’

‘‘आप के कामकाजी महिलावास में जगह मिल जाएगी?’’ अर्चना ने चाय का घूंट भरते हुए पूछा.

‘‘तुम रहोगी?’’

‘‘आशा भी रहेगी मेरे साथ.’’

‘‘फिर तुम्हारी मां का क्या होगा?’’

‘‘मां नानी के पास आश्रम में जा कर रहना चाहती हैं.’’

‘‘फिर…घर?’’

‘‘घर अब है कहां? पिताजी ने 25 हजार में गिरवी रख दिया है. जल्दी ही छोड़ना पड़ेगा.’’

‘‘शराब की बुराई को सब देख रहे हैं. फिर भी लोगों की इस के प्रति आसक्ति बढ़ती जा रही है,’’ सरला दीदी की आंखें भर आई थीं, ‘‘अर्चना, तुम को आज तक नहीं बताया, लेकिन आज बता रही हूं. मेरा भी एक घर था. एक फूल सी बच्ची थी…’’

‘‘फिर?’’

‘‘इसी शराब की लत लग गई थी मेरे पति को. नशे में धुत एक दिन उस ने बच्ची को पटक कर मार डाला. शराब ने उसे पशु से भी बदतर बना दिया था.’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘मैं सीधे पुलिस चौकी गई. पति को गिरफ्तार करवाया, सजा दिलवाई और नौकरी करने यहां चली आई.’’

‘‘हमारा भी घर टूट गया है, दीदी. अब कभी नहीं जुड़ेगा,’’ अर्चना की रुलाई फूट पड़ी.

‘‘समस्या का सामना तो करना ही पड़ेगा. अब यह बताओ कि प्रशांत से और कितने दिन प्रतीक्षा करवाओगी?’’

अर्चना ने सिर झुका लिया, ‘‘अब आप ही सोचिए, इस दशा में मैं…जब तक आशा की कहीं व्यवस्था न कर लूं…’’

‘‘तुम्हारा मतलब है, कोई अच्छी नौकरी या विवाह?’’

‘‘हां, मैं यही सोच रही हूं.’’

ऐसा होगा, यह अर्चना ने नहीं सोचा था. शीघ्र ही बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया था उस के घर में. मां की मृत्यु हो गई थी. वह आशा को ले कर सरला दीदी के कामकाजी महिलावास में चली गई थी. अब समस्या यह थी कि वह क्या करे? आशा का भार उस पर था. उधर प्रशांत को विवाह की जल्दी थी.

एक दिन सरला दीदी समझाने लगीं, ‘‘तुम विवाह कर लो, अर्चना. देखो, कहीं ऐसा न हो कि प्रशांत तुम्हें गलत समझ बैठे.’’

‘‘पर दीदी, आप ही बताइए कि मैं कैसे…’’

‘‘देखो, प्रशांत बड़े उदार विचारों वाला है. तुम खुल कर उस से अपनी समस्या पर बात करो. अगर आशा को वह बोझ समझे तो फिर मैं तो हूं ही. तुम अपना घर बसा लो, आशा की जिम्मेदारी मैं ले लूंगी. मेरा अपना घर उजड़ गया, अब किसी का घर बसते देखती हूं तो बड़ा अच्छा लगता है,’’ सरला दीदी ने ठंडी सांस भरी.

‘‘कितनी देर से खड़ा हूं,’’ हंसते हुए प्रशांत ने कहा.

‘‘आशा को कामकाजी महिलावास पहुंचा कर आई हूं,’’ अर्चना ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘चलो, चाय पीते हैं.’’

‘‘आशा तो सरला दीदी की देखरेख में ठीक से है. अब तुम मेरे बारे में भी कुछ सोचो.’’

अर्चना झिझकते हुए बोली, ‘‘प्रशांत, मैं कह रही थी कि…तुम थोड़ी प्रतीक्षा और…’’

लेकिन प्रशांत ने बीच में ही टोक दिया, ‘‘नहीं भई, अब और प्रतीक्षा मैं नहीं कर सकता. आओ, पार्क में बैठें.’’

‘‘बात यह है कि मेरे वेतन का आधा हिस्सा तो आशा को चला जाएगा.’’

‘‘यह तुम क्या कह रही हो, क्या मुझे इतना लोभी समझ रखा है,’’ प्रशांत ने रोष भरे स्वर में कहा.

‘‘नहींनहीं, मैं ऐसा नहीं सोचती. पर विवाह से पहले सबकुछ स्पष्ट कर लेना उचित है, जिस से आगे चल कर ये छोटीछोटी बातें दांपत्य जीवन में कटुता न घोल दें,’’ अर्चना ने प्रशांत की आंखों में झांका.

‘‘तुम्हारे अंदर छिपा यह बचपना मुझे बहुत अच्छा लगता है. देखो, आशा के लिए चिंता न करो, वह मेरी भी बहन है. चाहो तो उसे अपने साथ भी रख सकती हो.’’

सुनते ही अर्चना का मन हलका हो गया. वह कृतज्ञताभरी नजरों से प्रशांत को निहारने लगी.

प्रशांत के मातापिता दूर रहते थे, इसलिए कचहरी में विवाह होना तय हुआ. प्रशांत का विचार था कि दोनों बाद में मातापिता से आशीर्वाद ले आएंगे.

रविवार को खरीदारी करने के बाद दोनों एक होटल में जा बैठे.

‘‘तुम बैठो, मैं आर्डर दे कर अभी आया.’’

अर्चना यथास्थान बैठी होटल में आनेजाने वालों को निहारे जा रही थी.

‘‘मैं अपने मनपसंद खाने का आर्डर दे आया हूं. एकदम शाही खाना.’’

‘‘अब थोड़ा हाथ रोक कर खर्च करना सीखो,’’ अर्चना ने मुसकराते हुए डांटा.

‘‘अच्छाअच्छा, बड़ी बी.’’

बैरे ने ट्रे रखी तो देखते ही अर्चना एकाएक प्रस्तर प्रतिमा बन गई. उस की सांस जैसे गले में अटक गई थी, ‘‘तुम… शराब पीते हो?’’

प्रशांत खुल कर हंसा, ‘‘रोज नहीं भई, कभीकभी. आज बहुत थक गया हूं, इसलिए…’’

अर्चना झटके से उठ खड़ी हुई.

‘‘अर्चना, तुम्हें क्या हो गया है? बैठो तो सही,’’ प्रशांत ने उसे कंधे से पकड़ कर झिंझोड़ा.

परंतु अर्चना बैठती कैसे. एक भयानक काली परछाईं उस की ओर अपने पंजे बढ़ाए चली आ रही थी. उस की आंखों के समक्ष सबकुछ धुंधला सा होने लगा था. कुछ स्मृति चित्र तेजी से उस की नजरों के सामने से गुजर रहे थे- ‘मां पिट रही है. दोनों बहनें पिट रही हैं. घर के बरतन टूट रहे हैं. घर भर में शराब की उलटी की दुर्गंध फैली हुई है. गालियां और चीखपुकार सुन कर पड़ोसी झांक कर तमाशा देख रहे हैं. भय, आतंक और भूख से दोनों बहनें थरथर कांप रही हैं.’

अर्चना अपने जीवन में वह नाटक फिर नहीं देखना चाहती थी, कभी नहीं.

जिंदगी के शेष उजाले को आंचल में समेट कर अर्चना ने दौड़ना आरंभ किया. मेज पर रखा सामान बिखर गया. होटल के लोग अवाक् से उसे देखने लगे. परंतु वह उस भयानक छाया से बहुत दूर भाग जाना चाहती थी, जो उस के पीछेपीछे चीखते हुए दौड़ी आ रही थी.

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घर के अंदर पैर रखते ही अर्चना समझ गई थी कि आज फिर कुछ हंगामा हुआ है. घर में कुछ न कुछ होता ही रहता था, इसलिए वह विचलित नहीं हुई. शांत भाव से उस ने दुपट्टे से मुंह पोंछा और कमरे में आई.

नित्य की भांति मां आंखें बंद कर के लेटी थीं. 15 वर्षीय आशा मुरझाए मुख को ले कर उस के सिरहाने खड़ी थी. छत पर पंखा घूम रहा था, फिर भी बरसात का मौसम होने के कारण उमसभरी गरमी थी. उस पर कमरे की एकमात्र खिड़की बंद होने से अर्चना को घुटन होने लगी. उस ने आशा से पूछा, ‘‘यह खिड़की बंद क्यों है? खोल दे.’’

आशा ने खिड़की खोल दी.

अर्चना मां के पलंग पर बैठ गई, ‘‘कैसी हो, मां?’’

मां की आंखों में आंसू डबडबा आए. वह भरे गले से बोलीं, ‘‘मौत क्या मेरे घर का रास्ता नहीं पहचानती?’’

‘‘मां, हमेशा ऐसी बातें क्यों करती रहती हो,’’ अर्चना ने मां के माथे पर हाथ रख दिया.

‘‘तुम्हारे लिए बोझ ही तो हूं,’’ मां के आंसू गालों पर ढुलक आए.

‘‘मां, ऐसा क्यों सोचती हो. तुम तो हम दोनों के लिए सुरक्षा हो.’’

‘‘पर बेटी, अब और नहीं सहन होता.’’

‘‘क्या आज भी कुछ हुआ है?’’

‘‘वही पुरानी बात. महीने का आखिर है…जब तक तनख्वाह न मिले, कुछ न कुछ तो होता ही रहता है.’’

‘‘आज क्या हुआ?’’ अर्चना ने भयमिश्रित उत्सुकता से पूछा.

‘‘आराम कर तू, थक कर आई है.’’

अर्चना का मन करता था कि यहां से भाग जाए, पर साहस नहीं होता था. उस के वेतन में परिवार का भरणपोषण संभव नहीं था. ऊपर से मां की दवा इत्यादि में काफी खर्चा हो जाता था.

आशा के हाथ से चाय का प्याला ले कर अर्चना ने पूछा, ‘‘मां की दवा ले आई है न?’’

आशा ने इनकार में सिर हिलाया.

अर्चना के माथे पर बल पड़ गए, ‘‘क्यों?’’

आशा ने अपना माथा दिखाया, जिस पर गूमड़ निकल आया था. फिर धीरे से बोली, ‘‘पिताजी ने पैसे छीन लिए.’’

‘‘तो आज यह बात हुई है?’’

‘‘अब तो सहन नहीं होता. इस सत्यानासी शराब ने मेरे हंसतेखेलते परिवार को आग की भट्ठी में झोंक दिया है.’’

‘‘तुम्हारे दवा के पैसे शराब पीने के लिए छीन ले गए.’’

‘‘आशा ने पैसे नहीं दिए तो वह चीखचीख कर गंदी गालियां देने लगे. फिर बेचारी का सिर दीवार में दे मारा.’’

क्रोध से अर्चना की आंखें जलने लगीं, ‘‘हालात सीमा से बाहर होते जा रहे हैं. अब तो कुछ करना ही पड़ेगा.’’

‘‘कुछ नहीं हो सकता, बेटी,’’ मां ने भरे गले से कहा, ‘‘थकी होगी, चाय पी ले.’’

अर्चना ने प्याला उठाया.

मां कुछ क्षण उस की ओर देखने के बाद बोलीं, ‘‘मैं एक बात सोच रही थी… अगर तू माने तो…’’

‘‘कैसी बात, मां?’’

‘‘देख, मैं तो ठीक होने वाली नहीं हूं. आज नहीं तो कल दम तोड़ना ही है. तू आशा को ले कर कामकाजी महिलावास में चली जा.’’

‘‘और तुम? मां, तुम तो पागल हो गई हो. तुम्हें इस अवस्था में यहां छोड़ कर हम कामकाजी महिलावास में चली जाएं. ऐसा सोचना भी नहीं.’’

रात को दोनों बहनें मां के कमरे में ही सोती थीं. कोने वाला कमरा पिता का था. पिता आधी रात को लौटते. कभी खाते, कभी नहीं खाते.

9 बजे सारा काम निबटा कर दोनों बहनें लेट गईं.

‘‘मां, आज बुखार नहीं आया. लगता है, दवा ने काम किया है.’’

‘‘अब और जीने की इच्छा नहीं है, बेटी. तुम दोनों के लिए मैं कुछ भी नहीं कर पाई.’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो, मां. तुम्हारे प्यार से कितनी शांति मिलती है हम दोनों को.’’

‘‘बेटी, विवाह करने से पहले बस, यही देखना कि लड़का शराब न पीता हो.’’

‘‘मां, पिताजी भी तो पहले नहीं पीते थे.’’

‘‘वे दिन याद करती हूं तो आंसू नहीं रोक पाती,’’ मां ने गहरी सांस ली, ‘‘कितनी शांति थी तब घर में. आशा तो तेरे 8 वर्ष बाद हुई है. उस को होश आतेआते तो सुख के दिन खो ही गए. पर तुझे तो सब याद होगा?’’

मां के साथसाथ अर्चना भी अतीत में डूब गई. हां, उसे तो सब याद है. 12 वर्ष की आयु तक घर में कितनी संपन्नता थी. सुखी, स्वस्थ मां का चेहरा हर समय ममता से सराबोर रहता था. पिताजी समय पर दफ्तर से लौटते हुए हर रोज फल, मिठाई वगैरह जरूर लाते थे. रात खाने की मेज पर उन के कहकहे गूंजते रहते थे…

अर्चना को याद है, उस दिन पिता अपने कई सहकर्मियों से घिरे घर लौटे थे.

‘भाभी, मुंह मीठा कराइए, नरेशजी अफसर बन गए हैं,’ एकसाथ कई स्वर गूंजे थे.

मानो सारा संसार नाच उठा था. मां का मुख गर्व और खुशी की लालिमा से दमकने लगा था.

मुंह मीठा क्या, मां ने सब को भरपेट नाश्ता कराया था. महल्लेभर में मिठाई बंटवाई और खास लोगों की दावत की. रात को होटल में पिताजी ने अपने सहकर्मियों को खाना खिलाया था. उस दिन ही पहली बार शराब उन के होंठों से लगी थी.

अर्चना ने गहरी सांस ली. कितनी अजीब बात है कि मानवता और नैतिकता को निगल जाने वाली यह सत्यानासी शराब अब समाज के हर वर्ग में एक रिवाज सा बन गई है. फलतेफूलते परिवार देखतेदेखते ही कंगाल हो जाते हैं.

एक दिन महल्ले में प्रवेश करते ही रामप्रसाद ने अर्चना से कहा, ‘‘बेटी, तुम से कुछ कहना है.’’

अर्चना रुक गई, ‘‘कहिए, ताऊजी.’’

‘‘दफ्तर से थकीहारी लौट रही हो, घर जा कर थोड़ा सुस्ता लो. मैं आता हूं.’’

अर्चना के दिलोदिमाग में आशंका के बादल मंडराने लगे. रामप्रसाद बुजुर्ग व्यक्ति थे. हर कोई उन का सम्मान करता था.

चिंता में डूबी वह घर आई. आशा पालक काट रही थी. मां चुपचाप लेटी थीं.

‘‘चाय के साथ परांठे खाओगी, दीदी?’’

‘‘नहीं, बस चाय,’’ अर्चना मां के पास आई, ‘‘कैसी हो, मां?’’

‘‘आज तू इतनी उदास क्यों लग रही है?’’ मां ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘गली के मोड़ पर ताऊजी मिले थे, कह रहे थे, कुछ बात करने घर आ रहे हैं.’’

मां एकाएक भय से कांप उठीं, ‘‘क्या कहना है?’’

‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा.’’

आशा चाय ले आई. तीनों ने चुपचाप चाय पी ली. फिर अर्चना लेट गई. झपकी आ गई.

आशा ने उसे जगाया, ‘‘दीदी, ताऊजी आए हैं.’’

मां कठिनाई से दीवार का सहारा लिए फर्श पर बैठी थीं. ताऊजी चारपाई पर बैठे हुए थे.

अर्चना को देखते ही बोले, ‘‘आओ बेटी, बैठो.’’

अर्चना उन के पास ही बैठ गई और बोली, ‘‘ताऊजी, क्या पिताजी के बारे में कुछ कहने आए हैं?’’

उस के बारे में क्या कहूं, बेटी. नरेश कभी हमारे महल्ले का हीरा था. आज वह क्या से क्या हो गया है. महल्ले वाले उस की चीखपुकार और गालियों से परेशान हो गए हैं. किसी दिन मारमार कर उस की हड्डीपसली तोड़ देंगे. किसी तरह मैं ने लोगों को रोक रखा है. बात यही नहीं है, बेटी, इस से भी गंभीर है. नरेश ने घर किशोरी महाजन के पास गिरवी रख दिया है, रामप्रसाद उदास स्वर में बोले.

‘‘क्या?’’ अर्चना एकाएक चीख उठी.

मां सूखे पत्ते के समान कांपने लगीं.

‘‘ताऊजी, फिर तो हम कहीं के न रह जाएंगे,’’ अर्चना ने उन की ओर देखा.

‘‘मैं भी बहुत चिंता में हूं. वैसे किशोरी महाजन आदमी बुरा नहीं है. आज मेरे घर आ कर उस ने सारी बात बताई है. कह रहा था कि वह सूद छोड़ देगा. मूल के 25 हजार उसे मिल जाएं तो मकान के कागज वह तुम्हें सौंप देगा.’’

अर्चना की आंखें हैरत से फैल गईं, ‘‘25 हजार?’’

‘‘बहू को तो तुम्हारे दादा ने दिल खोल कर जेवर चढ़ाया था. संकट के समय उन को बचा कर क्या करोगी?’’ ताऊजी ने धीरे से कहा. दुख में भी मनुष्य को कभीकभी हंसी आ जाती है. अर्चना भी हंस पड़ी, ‘‘आप क्या समझते हैं, जेवर अभी तक बचे हुए हैं. शराब की भेंट सब से पहले जेवर ही चढ़े थे, ताऊजी.’’

‘‘तब कुछ…और?’’

‘‘हमारे घर की सही दशा आप को नहीं मालूम. सबकुछ शराब की अग्नि में भस्म हो चुका है. घर में कुछ भी नहीं बचा है,’’ अर्चना दुखी स्वर में बोली, ‘‘लेकिन ताऊजी, एकसाथ इतनी रकम की जरूरत पिताजी को क्यों आ पड़ी?’’

‘‘शराब के साथसाथ नरेश जुआ भी खेलता है. और मैं क्या बताऊं. देखो, कोशिश करता हूं…शायद कुछ…’’ रामप्रसाद उठ खड़े हुए.

‘‘मुझे मौत क्यों नहीं आती?’’ मां हिचकियां लेले कर रोने लगीं.

‘‘उस से क्या समस्या सुलझ जाएगी?’’

‘‘अब क्या होगा? कहां जाएंगे हम?’’

‘‘कुछ न कुछ तो होगा ही, तुम चिंता न करो,’’ अर्चना ने मां को सांत्वना देते हुए कहा.

कार्यालय में अचानक सरला दीदी अर्चना के पास आ खड़ी हुईं.

‘‘क्या सोच रही हो?’’ वह अर्चना से बहुत स्नेह करती थीं. अकेली थीं और कामकाजी महिलावास में ही रहती थीं.

‘‘मैं बहुत परेशान हूं, दीदी. कैंटीन में चलोगी?’’

‘‘चलो.’’

‘‘आप के कामकाजी महिलावास में जगह मिल जाएगी?’’ अर्चना ने चाय का घूंट भरते हुए पूछा.

‘‘तुम रहोगी?’’

‘‘आशा भी रहेगी मेरे साथ.’’

‘‘फिर तुम्हारी मां का क्या होगा?’’

‘‘मां नानी के पास आश्रम में जा कर रहना चाहती हैं.’’

‘‘फिर…घर?’’

‘‘घर अब है कहां? पिताजी ने 25 हजार में गिरवी रख दिया है. जल्दी ही छोड़ना पड़ेगा.’’

‘‘शराब की बुराई को सब देख रहे हैं. फिर भी लोगों की इस के प्रति आसक्ति बढ़ती जा रही है,’’ सरला दीदी की आंखें भर आई थीं, ‘‘अर्चना, तुम को आज तक नहीं बताया, लेकिन आज बता रही हूं. मेरा भी एक घर था. एक फूल सी बच्ची थी…’’

‘‘फिर?’’

‘‘इसी शराब की लत लग गई थी मेरे पति को. नशे में धुत एक दिन उस ने बच्ची को पटक कर मार डाला. शराब ने उसे पशु से भी बदतर बना दिया था.’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘मैं सीधे पुलिस चौकी गई. पति को गिरफ्तार करवाया, सजा दिलवाई और नौकरी करने यहां चली आई.’’

‘‘हमारा भी घर टूट गया है, दीदी. अब कभी नहीं जुड़ेगा,’’ अर्चना की रुलाई फूट पड़ी.

‘‘समस्या का सामना तो करना ही पड़ेगा. अब यह बताओ कि प्रशांत से और कितने दिन प्रतीक्षा करवाओगी?’’

अर्चना ने सिर झुका लिया, ‘‘अब आप ही सोचिए, इस दशा में मैं…जब तक आशा की कहीं व्यवस्था न कर लूं…’’

‘‘तुम्हारा मतलब है, कोई अच्छी नौकरी या विवाह?’’

‘‘हां, मैं यही सोच रही हूं.’’

ऐसा होगा, यह अर्चना ने नहीं सोचा था. शीघ्र ही बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया था उस के घर में. मां की मृत्यु हो गई थी. वह आशा को ले कर सरला दीदी के कामकाजी महिलावास में चली गई थी. अब समस्या यह थी कि वह क्या करे? आशा का भार उस पर था. उधर प्रशांत को विवाह की जल्दी थी.

एक दिन सरला दीदी समझाने लगीं, ‘‘तुम विवाह कर लो, अर्चना. देखो, कहीं ऐसा न हो कि प्रशांत तुम्हें गलत समझ बैठे.’’

‘‘पर दीदी, आप ही बताइए कि मैं कैसे…’’

‘‘देखो, प्रशांत बड़े उदार विचारों वाला है. तुम खुल कर उस से अपनी समस्या पर बात करो. अगर आशा को वह बोझ समझे तो फिर मैं तो हूं ही. तुम अपना घर बसा लो, आशा की जिम्मेदारी मैं ले लूंगी. मेरा अपना घर उजड़ गया, अब किसी का घर बसते देखती हूं तो बड़ा अच्छा लगता है,’’ सरला दीदी ने ठंडी सांस भरी.

‘‘कितनी देर से खड़ा हूं,’’ हंसते हुए प्रशांत ने कहा.

‘‘आशा को कामकाजी महिलावास पहुंचा कर आई हूं,’’ अर्चना ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘चलो, चाय पीते हैं.’’

‘‘आशा तो सरला दीदी की देखरेख में ठीक से है. अब तुम मेरे बारे में भी कुछ सोचो.’’

अर्चना झिझकते हुए बोली, ‘‘प्रशांत, मैं कह रही थी कि…तुम थोड़ी प्रतीक्षा और…’’

लेकिन प्रशांत ने बीच में ही टोक दिया, ‘‘नहीं भई, अब और प्रतीक्षा मैं नहीं कर सकता. आओ, पार्क में बैठें.’’

‘‘बात यह है कि मेरे वेतन का आधा हिस्सा तो आशा को चला जाएगा.’’

‘‘यह तुम क्या कह रही हो, क्या मुझे इतना लोभी समझ रखा है,’’ प्रशांत ने रोष भरे स्वर में कहा.

‘‘नहींनहीं, मैं ऐसा नहीं सोचती. पर विवाह से पहले सबकुछ स्पष्ट कर लेना उचित है, जिस से आगे चल कर ये छोटीछोटी बातें दांपत्य जीवन में कटुता न घोल दें,’’ अर्चना ने प्रशांत की आंखों में झांका.

‘‘तुम्हारे अंदर छिपा यह बचपना मुझे बहुत अच्छा लगता है. देखो, आशा के लिए चिंता न करो, वह मेरी भी बहन है. चाहो तो उसे अपने साथ भी रख सकती हो.’’

सुनते ही अर्चना का मन हलका हो गया. वह कृतज्ञताभरी नजरों से प्रशांत को निहारने लगी.

प्रशांत के मातापिता दूर रहते थे, इसलिए कचहरी में विवाह होना तय हुआ. प्रशांत का विचार था कि दोनों बाद में मातापिता से आशीर्वाद ले आएंगे.

रविवार को खरीदारी करने के बाद दोनों एक होटल में जा बैठे.

‘‘तुम बैठो, मैं आर्डर दे कर अभी आया.’’

अर्चना यथास्थान बैठी होटल में आनेजाने वालों को निहारे जा रही थी.

‘‘मैं अपने मनपसंद खाने का आर्डर दे आया हूं. एकदम शाही खाना.’’

‘‘अब थोड़ा हाथ रोक कर खर्च करना सीखो,’’ अर्चना ने मुसकराते हुए डांटा.

‘‘अच्छाअच्छा, बड़ी बी.’’

बैरे ने ट्रे रखी तो देखते ही अर्चना एकाएक प्रस्तर प्रतिमा बन गई. उस की सांस जैसे गले में अटक गई थी, ‘‘तुम… शराब पीते हो?’’

प्रशांत खुल कर हंसा, ‘‘रोज नहीं भई, कभीकभी. आज बहुत थक गया हूं, इसलिए…’’

अर्चना झटके से उठ खड़ी हुई.

‘‘अर्चना, तुम्हें क्या हो गया है? बैठो तो सही,’’ प्रशांत ने उसे कंधे से पकड़ कर झिंझोड़ा.

परंतु अर्चना बैठती कैसे. एक भयानक काली परछाईं उस की ओर अपने पंजे बढ़ाए चली आ रही थी. उस की आंखों के समक्ष सबकुछ धुंधला सा होने लगा था. कुछ स्मृति चित्र तेजी से उस की नजरों के सामने से गुजर रहे थे- ‘मां पिट रही है. दोनों बहनें पिट रही हैं. घर के बरतन टूट रहे हैं. घर भर में शराब की उलटी की दुर्गंध फैली हुई है. गालियां और चीखपुकार सुन कर पड़ोसी झांक कर तमाशा देख रहे हैं. भय, आतंक और भूख से दोनों बहनें थरथर कांप रही हैं.’

अर्चना अपने जीवन में वह नाटक फिर नहीं देखना चाहती थी, कभी नहीं.

जिंदगी के शेष उजाले को आंचल में समेट कर अर्चना ने दौड़ना आरंभ किया. मेज पर रखा सामान बिखर गया. होटल के लोग अवाक् से उसे देखने लगे. परंतु वह उस भयानक छाया से बहुत दूर भाग जाना चाहती थी, जो उस के पीछेपीछे चीखते हुए दौड़ी आ रही थी.

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November 01, 2018 at 11:26AM

नीड़ का निर्माण फिर से (अंतिम भाग)

पूर्व कथा

मानसी की जिंदगी में राज आया और चला गया तब उस को मनोहर से प्यार हो गया  और फिर विवाह. मनोहर की शराब पीने की आदत से बेजार मानसी आखिरकार उस से तलाक लेने का निर्णय ले लेती है. मनोहर को जब पता चलता है तब वह रो पड़ता है. वह मानसी को यकीन दिलाता है कि वह शराब छोड़ देगा. अब वह चोरीछिपे शराब पीने लगता है. तब सब के बहुत समझाने के बाद भी मानसी आखिकार तलाक ले लेती है और अपनी बच्ची चांदनी के साथ अलग रहने लगती है.

मनोहर अब और ज्यादा शराब पीने लगता है. उसे उम्मीद नहीं थी कि मानसी उसे इस तरह तलाक भी दे सकती है. वह अपनी मां को भी दोष देता है कि इस सब के पीछे वह भी जिम्मेदार है क्योंकि वह भी मानसी को हर समय कोसती रहती थी. उस के पिता उस की इस हालत से तंग आ कर अपने बड़े बेटे राकेश को बंगलौर से बुलाते हैं.

गतांक से आगे…….

‘अब तुम ही संभालो, राकेश. मैं हार चुका हूं,’ मनोहर के पिता के स्वर में गहरी हताशा थी.

‘मनोहर, तुम पीना छोड़ दो,’ राकेश बोला.

‘नहीं छोड़ूंगा.’

‘तुम्हारी हर जरूरत पूरी होगी बशर्ते तुम पीना छोड़ दो.’

राकेश के कथन पर मनोहर बोला, ‘मुझे कुछ नहीं चाहिए सिवा चांदनी और मानसी के.’

‘मानसी अब तुम्हारी जिंदगी में नहीं है. बेहतर होगा तुम अपनी आदत में सुधार ला कर फिर से नई जिंदगी शुरू करो. मैं तुम्हें अपनी कंपनी में काम दिलवा दूंगा.’ मुझे शादी नहीं करनी.’

‘मत करो शादी पर काम तो कर सकते हो.’

मनोहर पर राकेश के समझाने का असर पड़ा. वह शून्य में एकटक देखतेदेखते अचानक बच्चों की तरह फफक कर रो पड़ा, ‘भैया, मैं ने मानसी को बहुत कष्ट दिए. मैं उस का प्रायश्चित्त करना चाहता हूं. मैं अपनी फूल सी कोमल बेटी को मिस करता हूं.’

‘चांदनी अब भी तुम्हारी बेटी है. जब कहो तुम्हें उस से मिलवा दूं, पर…’

‘पर क्या?’

‘तुम्हें एक जिम्मेदार बाप बनना होगा. किस मुंह से चांदनी से मिलोगे. वह तुम्हें इस हालत में देखेगी तो क्या सोचेगी,’ राकेश कहता रहा, ‘पहले अपने पैरों पर खड़े हो ताकि चांदनी भी गर्व से कह सके कि तुम उस के पिता हो.’

उस रोज मनोहर को आत्मचिंतन का मौका मिला. राकेश उसे बंगलौर ले गया. उस का इलाज करवाया. जब वह सामान्य हो गया तो उस की नौकरी का भी बंदोबस्त कर दिया. धीरेधीरे मनोहर अतीत के हादसों से उबरने लगा.

इधर मानसी के आफिस के लोगों को पता चला कि उस का  तलाक हो गया है तो सभी उस पर डोरे डालने लगे. एक दिन तो हद हो गई जब स्टाफ के ही एक कर्मचारी नरेन ने उस के सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया. नरेन कहने लगा, ‘मैं तुम्हारी बेटी को अपने से भी ज्यादा प्यार दूंगा.’

मानसी चाहती तो नरेन को सबक सिखा सकती थी पर वह कोई तमाशा खड़ा नहीं करना चाहती थी. काफी सोचविचार कर उस ने अपना तबादला इलाहाबाद करवाने की सोची. वहां मां का भी घर था. यहां लोगों की संदेहास्पद दृष्टि हर वक्त उस में असुरक्षा की भावना भरती.

इलाहाबाद आ कर मानसी निश्ंिचत हो गई. शहर से मायका 10 किलोमीटर दूर गांव में था. मानसी का मन एक बार हुआ कि गांव से ही रोजाना आएजाए. पर भाईभाभी की बेरुखी के चलते कुछ कहते न बना. मां की सहानुभूति उस के साथ थी पर भैया किसी भी सूरत में मानसी को गांव में नहीं रखना चाहते थे क्योंकि उस के गांव में रहने पर अनेक तरह के सवाल उठते और फिर उन की भी लड़कियां बड़ी हो रही थीं. इस तरह 10 साल गुजर गए. चांदनी भी 15 की हो गई.

तभी किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी तो मानसी अतीत से जागी. वह चौंक कर उठी और जा कर दरवाजा खोला तो भतीजे के साथ चांदनी खड़ी थी.

‘‘क्या मां, मैं कितनी देर से दरवाजा खटखटा रही थी. आप सो रही थीं क्या?’’

‘‘हां, बेटी, कुछ ऐसा ही था. तू हाथमुंह धो ले, मैं कुछ खाने को लाती हूं,’’ यह कह कर मानसी अंदर चली गई.

एक दिन स्कूल से आने के बाद चांदनी बोली, ‘‘मम्मी, मेरे पापा कहां हैं?’’

मानसी क्षण भर के लिए अवाक् रह गई. तत्काल कुछ नहीं सूझा तो डपट दिया.

‘‘मम्मी, बताओ न, पापा कहां हैं?’’ वह भी मानसी की तरह जिद्दी थी.

‘‘क्या करोगी जान कर,’’ मानसी ने टालने की कोशिश की.

‘‘इतने साल गुजर गए. जब भी पेरेंट्स मीटिंग होती है सब के पापा आते हैं पर मेरे नहीं. क्यों?’’

अब मानसी के लिए सत्य पर परदा डालना आसान नहीं रहा. वह समय आने पर स्वयं कहने वाली थी पर अब जब उसे लगा कि चांदनी सयानी हो गई है तो क्या बहाने बनाना उचित होता?

‘‘तेरे पिता से मेरा तलाक हो चुका है.’’

‘‘तलाक क्या होता है, मम्मी?’’ उस ने बड़ी मासूमियत से पूछा.

‘‘बड़ी होने पर तुम खुद समझ जाओगी,’’ मानसी ने अपने तरीके से चांदनी को समझाने का प्रयत्न किया, ‘‘बेटी, तेरे पिता से अब मेरा कोई संबंध नहीं.’’

‘‘वह क्या मेरे पिता नहीं?’’

मानसी झल्लाई, ‘‘अभी पढ़ाई करो. आइंदा ऐसे बेहूदे सवाल मत करना,’’ कह कर मानसी ने चांदनी को चुप तो करा दिया पर वह अंदर ही अंदर आशंकित हो गई. अनेक सवाल उस के जेहन में उभरने लगे. चांदनी कल परिपक्व होगी. अपने पापा को जानने या मिलने के लिए अड़ गई तो? कहीं मनोहर से मिल कर उस के मन में उस के प्रति मोह जागा तो? कल को मनोहर ने, उस के मन में मेरे खिलाफ जहर भर दिया तो कैसे देगी अपनी बेगुनाही का सुबूत. कैसे जिएगी चांदनी के बगैर?

मानसी जितना सोचती उस का दिल उतना ही डूबता. उस की स्थिति परकटे परिंदे की तरह हो गई थी. न रोते बनता था न हंसते. अचला को फोन किया तो वह बोली, ‘‘तू व्यर्थ में परेशान होती है. वह जो जानना चाहती है, उसे बता दे. कुछ मत छिपा. वैसे भी तू चाह कर भी कुछ छिपा नहीं पाएगी. बेहतर होगा धीरेधीरे बेटी को सब बता दे,’

मानसी एक रोज आफिस से घर आई तो देखा कि चांदनी के पास अपने नएनए कपड़ों का अंबार लगा था. चांदनी खुशी से चहक रही थी.

‘‘ये सब क्या है?’’ मानसी ने तनिक रंज होते हुए पूछा.

‘‘पापा ने दिया है.’’

‘‘हर ऐरेगैरे को तुम पापा बना लोगी,’’ मानसी आपे से बाहर हो गई.

‘‘मम्मी, वह मेरे पापा ही थे.’’

तभी मानसी की मां कमरे में आ गईं तो वह बोली, ‘‘मां, सुन रही हो यह क्या कह रही है.’’

‘‘ठीक ही तो कह रही है. मनोहर आया था,’’ मानसी की मां निर्लिप्त भाव से बोलीं.

‘‘मां, आप ने ही उसे मेरे घर का पता दिया होगा,’’ मानसी बोली.

‘‘हर्ज ही क्या है. बेटी से बाप को मिला दिया.’’

‘‘मां, तुम ने यह क्या किया? मेरी वर्षों की तपस्या भंग कर दी. जिस मनोहर को मैं ने त्याग दिया था उसे फिर से मेरी जिंदगी में ला कर तुम ने मेरे साथ छल किया है,’’ मानसी रोंआसी हो गई.

‘‘मांबाप अपनी औलाद के साथ छल कर ही नहीं सकते. मनोहर ने फोन कर के सब से पहले मुझ से इजाजत ली. उस ने काफी मन्नतें कीं तब मैं ने उसे चांदनी से मिलवाने का वचन दिया. आखिरकार वह इस का पिता है. क्या उसे अपनी बेटी से मिलने का हक नहीं?’’ मानसी की मां ने स्पष्ट किया, ‘‘मनोहर अब पहले जैसा नहीं रहा.’’

‘‘अतीत लौट कर नहीं आता. मैं ने उस के बगैर खुद को तिलतिल कर जलाया. 10 साल कैसे काटे मैं ही जानती हूं. चांदनी और मेरी इज्जत बची रहे उस के लिए कितनी रातें मैं ने असुरक्षा के माहौल में काटीं.’’

‘‘आज भी तुम क्या सुरक्षित हो. खैर, छोड़ो इन बातों को…चांदनी से मिलने आया था, मिला और चला गया,’’ मानसी की मां बोलीं.

‘‘कल फिर आया तो?’’

‘‘तुम क्या उस को मना कर दोगी,’’ तनिक रंज हो कर मानसी की मां बोलीं, ‘‘अगर चांदनी ने जिद की तो? क्या तुम उसे बांध सकोगी?’’

मां के इस कथन पर मानसी गहरे सोच में पड़ गई. सयानी होती बेटी को क्या वह बांध सकेगी? सोचतेसोचते उस के हाथपांव ढीले पड़ गए. लगा जैसे जिस्म का सारा खून निचोड़ दिया गया हो. वह बेजान बिस्तर पर पड़ कर सुबकने लगी. मानसी की मां ने संभाला.

अगले दिन मानसी हरारत के चलते आफिस नहीं गई. चांदनी भी घर पर ही रही. मम्मीपापा के बीच चलने वाले द्वंद्व को ले कर वह पसोपेश में थी. आखिर सब के पापा अपने बच्चों के साथ रहते हैं फिर उस के पास रहने में मम्मी को क्या दिक्कत हो रही है? यह सवाल बारबार उस के जेहन में कौंधता रहा. मानसी ने सफाई में जो कुछ कहा उस से चांदनी संतुष्ट न थी.

एक रोज स्कूल से चांदनी घर आई तो रोने लगी. मानसी ने पूछा तो सिसकते हुए बोली, ‘‘कंचन कह रही थी कि उस की मां तलाकशुदा है. तलाकशुदा औरतें अच्छी नहीं होतीं.’’

मानसी का जी धक से रह गया. परिस्थितियों से हार न मानने वाली मानसी के लिए बच्चों के बीच होने वाली सामाजिक निंदा को बरदाश्त कर पाना असह्य था. इनसान यहीं हारता है. उत्तेजित होने की जगह मानसी ने प्यार से चांदनी के सिर पर हाथ फेरा और बोली, ‘‘तुझे क्या लगता है कि तेरी मां सचमुच गंदी है?’’

‘‘फिर पापा हमारे साथ रहते क्यों नहीं?’’

‘‘तुम्हारे पापा और मेरे बीच अब कोई संबंध नहीं है,’’ मानसी अब कुछ छिपाने की मुद्रा में न थी.

‘‘फिर वह क्यों आए थे?’’

‘‘तुझ से मिलने,’’ मानसी बोली.

‘‘वह क्यों नहीं हमारे साथ रहते हैं?’’ किंचित उस के चेहरे से तनाव झलक रहा था.

‘‘नहीं रहेंगे क्योंकि मैं उन से नफरत करती हूं,’’ मानसी का स्वर तेज हो गया.

‘‘मम्मी, क्यों करती हो नफरत? वह तो आप की बहुत तारीफ कर रहे थे.’’

‘‘यह सब तुम्हें भरमाने का तरीका है.’’

‘‘मम्मी, जो भी हो, मुझे पापा चाहिए.’’

‘‘अगर न मिले तो?’’

‘‘मैं ही उन के पास चली जाऊंगी. और अपने साथ तुम्हें भी ले कर जाऊंगी.’’

‘‘मैं न जाऊं तो…’’

‘‘तब मैं यही समझूंगी कि आप सचमुच में गंदी मम्मी हैं.’’

चांदनी के कथन पर मानसी एकाएक चिल्लाई. मां का रौद्र रूप देख कर वह बच्ची सहम गई. मानसी की आंखों से अंगारे बरसने लगे. उसे लगा जैसे किसी ने भरे बाजार में उसे नंगा कर दिया हो. गहरी हताशा के चलते उस के सामने अंधेरा छाने लगा. उसे सपने में भी उम्मीद न थी कि चांदनी से यह सुनने को मिलेगा. जिसे खून से सींचा, जिस के लिए न दिन देखा न रात, जो जीने का एकमात्र सहारा थी, उसी ने उसे अपनी नजरों से गिरा दिया. मनोहर उसे इतना प्रिय लगने लगा और आज मैं कुछ नहीं.

मानसी यह नहीं समझ पाई कि मनोहर से उस के संबंध खराब थे बेटी के नहीं. मनोहर उसे पसंद नहीं आया तो क्या चांदनी भी उसी नजरों से देखने लगे. बच्चे तो सिर्फ प्रेम के भूखे होते हैं. चांदनी को पिता का प्यार चाहिए था बस.

रात को मनोहर का फोन आया, ‘‘मानसी, मैं मनोहर बोल रहा हूं.’’

सुन कर मानसी का मन कसैला हो गया.

‘‘मिल गई तसल्ली,’’ वह चिढ़ कर बोली.

‘‘मुझे गलत मत समझो मानसी. मैं चाह कर भी तुम लोगों को भुला नहीं पाया. चांदनी मेरी भी बेटी है.’’

‘‘शराब पी कर हाथ छोड़ते हुए तुम्हें अपनी बेटी का खयाल नहीं आया,’’ मानसी बोली.

‘‘मैं भटक गया था,’’ मनोहर के स्वर में निराशा स्पष्ट थी.

‘‘नया घर बसा कर भी तुम्हें चैन नहीं मिला.’’

‘‘घर, कैसा घर…’’ मनोहर जज्बाती हो गया, ‘‘मानसी, सच कहूं तो दोबारा घर बसाना आसान नहीं होता. अगर होता तो क्या अब तक तुम नहीं बसा लेतीं. सिर्फ कहने की बात है कि पुरुष के लिए सबकुछ सहज होता है. उन्हें भी तकलीफ होती है जब उन का बसाबसाया घर उजड़ता है.’’

मनोहर के मुख से ऐसी बातें सुन कर मानसी का गुस्सा ठंडा पड़ गया. मनोहर काफी बदला लगा. उस ने अब तक शादी नहीं की. यह निश्चय ही चौंकाने वाली बात थी. मनोहर के साथ बिताए मधुर पल एकाएक उस के सामने चलचित्र की भांति तैरने लगे. कैसे उस ने अपनी पहली कमाई से उस के लिए कार खरीदी थी. तब उसे मनोहर का पीना बुरा नहीं लगता था. अचानक वक्त ने करवट ली और सब बदल गया. अतीत की बातें सोचतेसोचते मानसी की आंखें सजल हो उठीं.

‘‘मम्मी, आप को मेरे साथ पापा के पास चलना होगा वरना मैं उन्हें यहीं बुला लूंगी,’’ चांदनी ने बालसुलभ हठ की.

तभी मनोहर की बहन प्रतिमा आ गईं. 10 साल के बाद पहली बार वह आई थीं. उन्हें आया देख कर मानसी को अच्छा लगा. दरवाजे पर आते समय प्रतिमा ने चांदनी की कही बातें सुन ली थीं.

‘‘तलाक ले कर तुम ने कौन सा समझदारी का परिचय दिया था?’’

‘‘दीदी, आप तो जानती थीं कि तब मैं किन परिस्थितियों से गुजर रही थी,’’ मानसी ने सफाई दी.

‘‘और आज, क्या तुम उस से मुक्त हो पाई हो. औरत के लिए हर दिन एक जैसे होते हैं. सब उसी को सहना पड़ता है,’’ प्रतिमा ने दुनियादारी बताई.

‘‘दीदी, आप कहना क्या चाहती हैं?’’

‘‘बाप के साए से बेटी महरूम रहे, क्या यह उस के प्रति अन्याय नहीं,’’ प्रतिमा बोली.

‘‘मैं ने कब रोका था,’’ कदाचित मानसी का स्वर धीमा था.

‘‘रोका है, तभी तो कह रही हूं. 10 साल मनोहर ने अकेलेपन की पीड़ा कैसे झेली यह मुझ से ज्यादा तुम नहीं जान सकतीं. मैं ने सख्त हिदायत दे रखी थी कि वह तुम से न मिले, न ही फोन पर बात करे. जैसा किया है वैसा भुगते.’’

‘‘दूसरी शादी कर लेते. क्या जरूरत थी अकेलेपन से जूझने की,’’ मानसी बोली.

‘‘यही तो हम औरतें नहीं समझतीं. हम हमेशा मर्द में ही खोट देखते हैं. जरा सी कमी नजर आते ही हजार लांछनों से लाद देते हैं,’’ प्रतिमा किंचित नाराज स्वर में बोलीं. एक पल की चुप्पी के बाद उस ने फिर बोलना शुरू किया, ‘‘आज उस ने अपनी बेटी के लिए मेरी हिदायतों का उल्लंघन किया. जीवन एक बार मिलता है. हम उसे भी ठीक से नहीं जी पाते. अहं, नफरत और न जाने क्याक्या विकार पाले रहते हैं अपने दिलों में.’’

‘‘मुझ में कोई अहं नहीं था,’’ मानसी बोली.

‘‘था तभी तो कह रही हूं कि प्यार, मनुहार और इंतजार से सब ठीक किया जा सकता है. आखिर मनोहर रास्ते पर आ गया कि नहीं. अब वह शराब को हाथ तक नहीं लगाता. अपने काम के प्रति समर्पित है,’’ प्रतिमा बोलीं.

‘‘काम तो पहले भी वह अच्छा करते थे,’’ मानसी के मुख से अचानक निकला.

‘‘तब कहां रह गई कसर. क्या छूट गया तुम दोनों के बीच जिस की परिणति अलगाव के रूप में हुई. तुम ने एक बार भी नहीं सोचा कि बच्ची बड़ी होगी तो किसे गुनहगार मानेगी. तुम ने सोचा बाप को शराबी कह कर बेटी को मना लेंगे… पर क्या ऐसा हुआ? क्या खून के रिश्ते आसानी से मिटते हैं? मांबाप औलाद के लिए सुरक्षा कवच होते हैं. इस में से एक भी हटा नहीं कि असुरक्षा की भावना घर कर जाती है बच्चों में. ऐसे बच्चे कुंठा के शिकार होते हैं.’’

‘‘आप कहना चाहती हैं कि तलाक ले कर मैं ने गलती की. मनोहर मेरे खिलाफ हिंसा का सहारा ले और मैं चुप बैठी रहूं…यह सोच कर कि मैं एक औरत हूं,’’ मानसी तल्ख शब्दों में बोली.

‘‘मैं ऐसा क्यों कहूंगी बल्कि मैं तुम्हारी जगह होती तो शायद यही फैसलालेती पर ऐसा करते हुए हमारी सोच एकतरफा होती है. हम कहीं न कहीं अपनी औलाद के प्रति अन्याय करते हैं. दोष किसी का भी हो पर झेलना तो बच्चों को पड़ता है,’’ प्रतिमा लंबी सांस ले कर आगे बोलीं, ‘‘खैर, जो हुआ सो हुआ. वक्त हर घाव को भर देता है. मैं एक प्रस्ताव  ले कर आई हूं.’’

मानसी जिज्ञासावश उन्हें देखने लगी.

‘‘क्या तुम दोनों पुन: एक नहीं हो सकते?’’

एकबारगी प्रतिमा का प्रस्ताव मानसी को अटपटा लगा. वह असहज हो गई. दोबारा जब प्रतिमा ने कहा तो उस ने सिर्फ इतना कहा, ‘‘मुझे सोचने का मौका दीजिए,’’

प्रतिमा के जाने के बाद वह अजीब कशमकश में फंस गई. न मना करते बन रहा था न ही हां. बेशक 10 साल उस ने सुकून से नहीं काटे सिर्फ इसलिए कि हर वक्त उसे अपनी और चांदनी के भविष्य को ले कर चिंता लगी रहती. एक क्षण भी चांदनी को अपनी आंखों से ओझल होने नहीं देती. उसे हमेशा इस बात का भय बना रहता कि अगर कुछ ऊंचनीच हो गया तो किस से कहेगी? कौन सहारा बनेगा? कहने को तो तमाम हमदर्द पुरुष हैं पर उन की निगाहें हमेशा मानसी के जिस्म पर होती. थोड़ी सी सहानुभूति जता कर लोग उस का सूद सहित मूल निकालने पर आमादा रहते.

अंतत: गहन सोच के बाद मानसी को लगा कि अपने लिए न सही, चांदनी के लिए मनोहर का आना उस की जिंदगी में निहायत जरूरी है. हां, थोड़ा अजीब सा मानसी को अवश्य लगा कि जब मनोहर फिर उस की जिंदगी में आएगा तो कैसा लगेगा? लोग क्या सोचेंगे? कैसे मनोहर का सामना करूंगी. क्या वह सब भूल जाएगा? क्या भूलना उस के लिए आसान होगा? टूटे हुए धागे बगैर गांठ के नहीं बंधते. क्या यह गांठ हमेशा के लिए खत्म हो पाएगी?

एक तरफ मनोहर के आने से उस की जिंदगी में अनिश्चितता का माहौल खत्म होगा, वहीं भविष्य को ले कर उस के मन में बुरेबुरे खयाल आ रहे थे. कहीं मनोहर फिर से उसी राह पर चल निकला तो? तब तो वह कहीं की नहीं रहेगी. प्रतिमा से उस ने अपनी सारी दुश्ंिचताओं का खुलासा किया. प्रतिमा ने उस से सहमति जताई और बोलीं, ‘‘मैं तुम से जबरदस्ती नहीं करूंगी. मनोहर से मिल कर तुम खुद ही फैसला लो.’’

मनोहर आया. दोनों में इतना साहस न था कि एकदूसरे से नजरें मिला सकें. मानसी की मां और प्रतिमा दोनों थीं पर वे उन दोनों को भरपूर मौका देना चाहती थीं, दोनों दूसरे कमरे में चली गईं.

‘‘मानसी, मैं ने तुम्हारे साथ अतीत में जो कुछ भी सलूक किया है उस का मुझे आज भी बेहद अफसोस है. यकीन मानो मैं ने कोई पहल नहीं की. मैं आज भी तुम्हारे लायक खुद को नहीं समझता. अगर चांदनी का मोह न होता…’’

‘‘उस के लिए विवाह क्या जरूरी है,’’ मानसी ने उस का मन टटोला.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ वह उठ कर जाने लगा. कुछ ही कदम चला होगा कि मानसी ने रोका, ‘‘क्या हम अपनी बच्ची के लिए नए सिरे से जिंदगी नहीं शुरू कर सकते?’’

मानसी के अप्रत्याशित फैसले पर मनोहर को क्षणांश विश्वास नहीं हुआ. वह एक बार पुन: मानसी के मुख से सुनना चाहता था. मानसी ने जब अपनी इच्छा फिर दोहराई तो उस की भी आंखों से खुशी के आंसू बह निकले.

जिस दिन दोनों एक होने वाले थे अचला भी आई. उसे तो विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि ऐसा भी हो सकता है. सुबह का भूला शाम को लौटे तो उसे भूला नहीं कहते. दरअसल, सब याद कर के ही नहीं, कुछ भूल कर भी जिंदगी जी जा सकती है.

मनोहर और मानसी ने उस अतीत को भुला दिया, जिस ने उन दोनों को पीड़ा दी. चांदनी इस अवसर पर ऐसे चहक रही थी जैसे नवजात परिंदा अपनी मां के मुख में अनाज का दाना देख कर.

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पूर्व कथा

मानसी की जिंदगी में राज आया और चला गया तब उस को मनोहर से प्यार हो गया  और फिर विवाह. मनोहर की शराब पीने की आदत से बेजार मानसी आखिरकार उस से तलाक लेने का निर्णय ले लेती है. मनोहर को जब पता चलता है तब वह रो पड़ता है. वह मानसी को यकीन दिलाता है कि वह शराब छोड़ देगा. अब वह चोरीछिपे शराब पीने लगता है. तब सब के बहुत समझाने के बाद भी मानसी आखिकार तलाक ले लेती है और अपनी बच्ची चांदनी के साथ अलग रहने लगती है.

मनोहर अब और ज्यादा शराब पीने लगता है. उसे उम्मीद नहीं थी कि मानसी उसे इस तरह तलाक भी दे सकती है. वह अपनी मां को भी दोष देता है कि इस सब के पीछे वह भी जिम्मेदार है क्योंकि वह भी मानसी को हर समय कोसती रहती थी. उस के पिता उस की इस हालत से तंग आ कर अपने बड़े बेटे राकेश को बंगलौर से बुलाते हैं.

गतांक से आगे…….

‘अब तुम ही संभालो, राकेश. मैं हार चुका हूं,’ मनोहर के पिता के स्वर में गहरी हताशा थी.

‘मनोहर, तुम पीना छोड़ दो,’ राकेश बोला.

‘नहीं छोड़ूंगा.’

‘तुम्हारी हर जरूरत पूरी होगी बशर्ते तुम पीना छोड़ दो.’

राकेश के कथन पर मनोहर बोला, ‘मुझे कुछ नहीं चाहिए सिवा चांदनी और मानसी के.’

‘मानसी अब तुम्हारी जिंदगी में नहीं है. बेहतर होगा तुम अपनी आदत में सुधार ला कर फिर से नई जिंदगी शुरू करो. मैं तुम्हें अपनी कंपनी में काम दिलवा दूंगा.’ मुझे शादी नहीं करनी.’

‘मत करो शादी पर काम तो कर सकते हो.’

मनोहर पर राकेश के समझाने का असर पड़ा. वह शून्य में एकटक देखतेदेखते अचानक बच्चों की तरह फफक कर रो पड़ा, ‘भैया, मैं ने मानसी को बहुत कष्ट दिए. मैं उस का प्रायश्चित्त करना चाहता हूं. मैं अपनी फूल सी कोमल बेटी को मिस करता हूं.’

‘चांदनी अब भी तुम्हारी बेटी है. जब कहो तुम्हें उस से मिलवा दूं, पर…’

‘पर क्या?’

‘तुम्हें एक जिम्मेदार बाप बनना होगा. किस मुंह से चांदनी से मिलोगे. वह तुम्हें इस हालत में देखेगी तो क्या सोचेगी,’ राकेश कहता रहा, ‘पहले अपने पैरों पर खड़े हो ताकि चांदनी भी गर्व से कह सके कि तुम उस के पिता हो.’

उस रोज मनोहर को आत्मचिंतन का मौका मिला. राकेश उसे बंगलौर ले गया. उस का इलाज करवाया. जब वह सामान्य हो गया तो उस की नौकरी का भी बंदोबस्त कर दिया. धीरेधीरे मनोहर अतीत के हादसों से उबरने लगा.

इधर मानसी के आफिस के लोगों को पता चला कि उस का  तलाक हो गया है तो सभी उस पर डोरे डालने लगे. एक दिन तो हद हो गई जब स्टाफ के ही एक कर्मचारी नरेन ने उस के सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया. नरेन कहने लगा, ‘मैं तुम्हारी बेटी को अपने से भी ज्यादा प्यार दूंगा.’

मानसी चाहती तो नरेन को सबक सिखा सकती थी पर वह कोई तमाशा खड़ा नहीं करना चाहती थी. काफी सोचविचार कर उस ने अपना तबादला इलाहाबाद करवाने की सोची. वहां मां का भी घर था. यहां लोगों की संदेहास्पद दृष्टि हर वक्त उस में असुरक्षा की भावना भरती.

इलाहाबाद आ कर मानसी निश्ंिचत हो गई. शहर से मायका 10 किलोमीटर दूर गांव में था. मानसी का मन एक बार हुआ कि गांव से ही रोजाना आएजाए. पर भाईभाभी की बेरुखी के चलते कुछ कहते न बना. मां की सहानुभूति उस के साथ थी पर भैया किसी भी सूरत में मानसी को गांव में नहीं रखना चाहते थे क्योंकि उस के गांव में रहने पर अनेक तरह के सवाल उठते और फिर उन की भी लड़कियां बड़ी हो रही थीं. इस तरह 10 साल गुजर गए. चांदनी भी 15 की हो गई.

तभी किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी तो मानसी अतीत से जागी. वह चौंक कर उठी और जा कर दरवाजा खोला तो भतीजे के साथ चांदनी खड़ी थी.

‘‘क्या मां, मैं कितनी देर से दरवाजा खटखटा रही थी. आप सो रही थीं क्या?’’

‘‘हां, बेटी, कुछ ऐसा ही था. तू हाथमुंह धो ले, मैं कुछ खाने को लाती हूं,’’ यह कह कर मानसी अंदर चली गई.

एक दिन स्कूल से आने के बाद चांदनी बोली, ‘‘मम्मी, मेरे पापा कहां हैं?’’

मानसी क्षण भर के लिए अवाक् रह गई. तत्काल कुछ नहीं सूझा तो डपट दिया.

‘‘मम्मी, बताओ न, पापा कहां हैं?’’ वह भी मानसी की तरह जिद्दी थी.

‘‘क्या करोगी जान कर,’’ मानसी ने टालने की कोशिश की.

‘‘इतने साल गुजर गए. जब भी पेरेंट्स मीटिंग होती है सब के पापा आते हैं पर मेरे नहीं. क्यों?’’

अब मानसी के लिए सत्य पर परदा डालना आसान नहीं रहा. वह समय आने पर स्वयं कहने वाली थी पर अब जब उसे लगा कि चांदनी सयानी हो गई है तो क्या बहाने बनाना उचित होता?

‘‘तेरे पिता से मेरा तलाक हो चुका है.’’

‘‘तलाक क्या होता है, मम्मी?’’ उस ने बड़ी मासूमियत से पूछा.

‘‘बड़ी होने पर तुम खुद समझ जाओगी,’’ मानसी ने अपने तरीके से चांदनी को समझाने का प्रयत्न किया, ‘‘बेटी, तेरे पिता से अब मेरा कोई संबंध नहीं.’’

‘‘वह क्या मेरे पिता नहीं?’’

मानसी झल्लाई, ‘‘अभी पढ़ाई करो. आइंदा ऐसे बेहूदे सवाल मत करना,’’ कह कर मानसी ने चांदनी को चुप तो करा दिया पर वह अंदर ही अंदर आशंकित हो गई. अनेक सवाल उस के जेहन में उभरने लगे. चांदनी कल परिपक्व होगी. अपने पापा को जानने या मिलने के लिए अड़ गई तो? कहीं मनोहर से मिल कर उस के मन में उस के प्रति मोह जागा तो? कल को मनोहर ने, उस के मन में मेरे खिलाफ जहर भर दिया तो कैसे देगी अपनी बेगुनाही का सुबूत. कैसे जिएगी चांदनी के बगैर?

मानसी जितना सोचती उस का दिल उतना ही डूबता. उस की स्थिति परकटे परिंदे की तरह हो गई थी. न रोते बनता था न हंसते. अचला को फोन किया तो वह बोली, ‘‘तू व्यर्थ में परेशान होती है. वह जो जानना चाहती है, उसे बता दे. कुछ मत छिपा. वैसे भी तू चाह कर भी कुछ छिपा नहीं पाएगी. बेहतर होगा धीरेधीरे बेटी को सब बता दे,’

मानसी एक रोज आफिस से घर आई तो देखा कि चांदनी के पास अपने नएनए कपड़ों का अंबार लगा था. चांदनी खुशी से चहक रही थी.

‘‘ये सब क्या है?’’ मानसी ने तनिक रंज होते हुए पूछा.

‘‘पापा ने दिया है.’’

‘‘हर ऐरेगैरे को तुम पापा बना लोगी,’’ मानसी आपे से बाहर हो गई.

‘‘मम्मी, वह मेरे पापा ही थे.’’

तभी मानसी की मां कमरे में आ गईं तो वह बोली, ‘‘मां, सुन रही हो यह क्या कह रही है.’’

‘‘ठीक ही तो कह रही है. मनोहर आया था,’’ मानसी की मां निर्लिप्त भाव से बोलीं.

‘‘मां, आप ने ही उसे मेरे घर का पता दिया होगा,’’ मानसी बोली.

‘‘हर्ज ही क्या है. बेटी से बाप को मिला दिया.’’

‘‘मां, तुम ने यह क्या किया? मेरी वर्षों की तपस्या भंग कर दी. जिस मनोहर को मैं ने त्याग दिया था उसे फिर से मेरी जिंदगी में ला कर तुम ने मेरे साथ छल किया है,’’ मानसी रोंआसी हो गई.

‘‘मांबाप अपनी औलाद के साथ छल कर ही नहीं सकते. मनोहर ने फोन कर के सब से पहले मुझ से इजाजत ली. उस ने काफी मन्नतें कीं तब मैं ने उसे चांदनी से मिलवाने का वचन दिया. आखिरकार वह इस का पिता है. क्या उसे अपनी बेटी से मिलने का हक नहीं?’’ मानसी की मां ने स्पष्ट किया, ‘‘मनोहर अब पहले जैसा नहीं रहा.’’

‘‘अतीत लौट कर नहीं आता. मैं ने उस के बगैर खुद को तिलतिल कर जलाया. 10 साल कैसे काटे मैं ही जानती हूं. चांदनी और मेरी इज्जत बची रहे उस के लिए कितनी रातें मैं ने असुरक्षा के माहौल में काटीं.’’

‘‘आज भी तुम क्या सुरक्षित हो. खैर, छोड़ो इन बातों को…चांदनी से मिलने आया था, मिला और चला गया,’’ मानसी की मां बोलीं.

‘‘कल फिर आया तो?’’

‘‘तुम क्या उस को मना कर दोगी,’’ तनिक रंज हो कर मानसी की मां बोलीं, ‘‘अगर चांदनी ने जिद की तो? क्या तुम उसे बांध सकोगी?’’

मां के इस कथन पर मानसी गहरे सोच में पड़ गई. सयानी होती बेटी को क्या वह बांध सकेगी? सोचतेसोचते उस के हाथपांव ढीले पड़ गए. लगा जैसे जिस्म का सारा खून निचोड़ दिया गया हो. वह बेजान बिस्तर पर पड़ कर सुबकने लगी. मानसी की मां ने संभाला.

अगले दिन मानसी हरारत के चलते आफिस नहीं गई. चांदनी भी घर पर ही रही. मम्मीपापा के बीच चलने वाले द्वंद्व को ले कर वह पसोपेश में थी. आखिर सब के पापा अपने बच्चों के साथ रहते हैं फिर उस के पास रहने में मम्मी को क्या दिक्कत हो रही है? यह सवाल बारबार उस के जेहन में कौंधता रहा. मानसी ने सफाई में जो कुछ कहा उस से चांदनी संतुष्ट न थी.

एक रोज स्कूल से चांदनी घर आई तो रोने लगी. मानसी ने पूछा तो सिसकते हुए बोली, ‘‘कंचन कह रही थी कि उस की मां तलाकशुदा है. तलाकशुदा औरतें अच्छी नहीं होतीं.’’

मानसी का जी धक से रह गया. परिस्थितियों से हार न मानने वाली मानसी के लिए बच्चों के बीच होने वाली सामाजिक निंदा को बरदाश्त कर पाना असह्य था. इनसान यहीं हारता है. उत्तेजित होने की जगह मानसी ने प्यार से चांदनी के सिर पर हाथ फेरा और बोली, ‘‘तुझे क्या लगता है कि तेरी मां सचमुच गंदी है?’’

‘‘फिर पापा हमारे साथ रहते क्यों नहीं?’’

‘‘तुम्हारे पापा और मेरे बीच अब कोई संबंध नहीं है,’’ मानसी अब कुछ छिपाने की मुद्रा में न थी.

‘‘फिर वह क्यों आए थे?’’

‘‘तुझ से मिलने,’’ मानसी बोली.

‘‘वह क्यों नहीं हमारे साथ रहते हैं?’’ किंचित उस के चेहरे से तनाव झलक रहा था.

‘‘नहीं रहेंगे क्योंकि मैं उन से नफरत करती हूं,’’ मानसी का स्वर तेज हो गया.

‘‘मम्मी, क्यों करती हो नफरत? वह तो आप की बहुत तारीफ कर रहे थे.’’

‘‘यह सब तुम्हें भरमाने का तरीका है.’’

‘‘मम्मी, जो भी हो, मुझे पापा चाहिए.’’

‘‘अगर न मिले तो?’’

‘‘मैं ही उन के पास चली जाऊंगी. और अपने साथ तुम्हें भी ले कर जाऊंगी.’’

‘‘मैं न जाऊं तो…’’

‘‘तब मैं यही समझूंगी कि आप सचमुच में गंदी मम्मी हैं.’’

चांदनी के कथन पर मानसी एकाएक चिल्लाई. मां का रौद्र रूप देख कर वह बच्ची सहम गई. मानसी की आंखों से अंगारे बरसने लगे. उसे लगा जैसे किसी ने भरे बाजार में उसे नंगा कर दिया हो. गहरी हताशा के चलते उस के सामने अंधेरा छाने लगा. उसे सपने में भी उम्मीद न थी कि चांदनी से यह सुनने को मिलेगा. जिसे खून से सींचा, जिस के लिए न दिन देखा न रात, जो जीने का एकमात्र सहारा थी, उसी ने उसे अपनी नजरों से गिरा दिया. मनोहर उसे इतना प्रिय लगने लगा और आज मैं कुछ नहीं.

मानसी यह नहीं समझ पाई कि मनोहर से उस के संबंध खराब थे बेटी के नहीं. मनोहर उसे पसंद नहीं आया तो क्या चांदनी भी उसी नजरों से देखने लगे. बच्चे तो सिर्फ प्रेम के भूखे होते हैं. चांदनी को पिता का प्यार चाहिए था बस.

रात को मनोहर का फोन आया, ‘‘मानसी, मैं मनोहर बोल रहा हूं.’’

सुन कर मानसी का मन कसैला हो गया.

‘‘मिल गई तसल्ली,’’ वह चिढ़ कर बोली.

‘‘मुझे गलत मत समझो मानसी. मैं चाह कर भी तुम लोगों को भुला नहीं पाया. चांदनी मेरी भी बेटी है.’’

‘‘शराब पी कर हाथ छोड़ते हुए तुम्हें अपनी बेटी का खयाल नहीं आया,’’ मानसी बोली.

‘‘मैं भटक गया था,’’ मनोहर के स्वर में निराशा स्पष्ट थी.

‘‘नया घर बसा कर भी तुम्हें चैन नहीं मिला.’’

‘‘घर, कैसा घर…’’ मनोहर जज्बाती हो गया, ‘‘मानसी, सच कहूं तो दोबारा घर बसाना आसान नहीं होता. अगर होता तो क्या अब तक तुम नहीं बसा लेतीं. सिर्फ कहने की बात है कि पुरुष के लिए सबकुछ सहज होता है. उन्हें भी तकलीफ होती है जब उन का बसाबसाया घर उजड़ता है.’’

मनोहर के मुख से ऐसी बातें सुन कर मानसी का गुस्सा ठंडा पड़ गया. मनोहर काफी बदला लगा. उस ने अब तक शादी नहीं की. यह निश्चय ही चौंकाने वाली बात थी. मनोहर के साथ बिताए मधुर पल एकाएक उस के सामने चलचित्र की भांति तैरने लगे. कैसे उस ने अपनी पहली कमाई से उस के लिए कार खरीदी थी. तब उसे मनोहर का पीना बुरा नहीं लगता था. अचानक वक्त ने करवट ली और सब बदल गया. अतीत की बातें सोचतेसोचते मानसी की आंखें सजल हो उठीं.

‘‘मम्मी, आप को मेरे साथ पापा के पास चलना होगा वरना मैं उन्हें यहीं बुला लूंगी,’’ चांदनी ने बालसुलभ हठ की.

तभी मनोहर की बहन प्रतिमा आ गईं. 10 साल के बाद पहली बार वह आई थीं. उन्हें आया देख कर मानसी को अच्छा लगा. दरवाजे पर आते समय प्रतिमा ने चांदनी की कही बातें सुन ली थीं.

‘‘तलाक ले कर तुम ने कौन सा समझदारी का परिचय दिया था?’’

‘‘दीदी, आप तो जानती थीं कि तब मैं किन परिस्थितियों से गुजर रही थी,’’ मानसी ने सफाई दी.

‘‘और आज, क्या तुम उस से मुक्त हो पाई हो. औरत के लिए हर दिन एक जैसे होते हैं. सब उसी को सहना पड़ता है,’’ प्रतिमा ने दुनियादारी बताई.

‘‘दीदी, आप कहना क्या चाहती हैं?’’

‘‘बाप के साए से बेटी महरूम रहे, क्या यह उस के प्रति अन्याय नहीं,’’ प्रतिमा बोली.

‘‘मैं ने कब रोका था,’’ कदाचित मानसी का स्वर धीमा था.

‘‘रोका है, तभी तो कह रही हूं. 10 साल मनोहर ने अकेलेपन की पीड़ा कैसे झेली यह मुझ से ज्यादा तुम नहीं जान सकतीं. मैं ने सख्त हिदायत दे रखी थी कि वह तुम से न मिले, न ही फोन पर बात करे. जैसा किया है वैसा भुगते.’’

‘‘दूसरी शादी कर लेते. क्या जरूरत थी अकेलेपन से जूझने की,’’ मानसी बोली.

‘‘यही तो हम औरतें नहीं समझतीं. हम हमेशा मर्द में ही खोट देखते हैं. जरा सी कमी नजर आते ही हजार लांछनों से लाद देते हैं,’’ प्रतिमा किंचित नाराज स्वर में बोलीं. एक पल की चुप्पी के बाद उस ने फिर बोलना शुरू किया, ‘‘आज उस ने अपनी बेटी के लिए मेरी हिदायतों का उल्लंघन किया. जीवन एक बार मिलता है. हम उसे भी ठीक से नहीं जी पाते. अहं, नफरत और न जाने क्याक्या विकार पाले रहते हैं अपने दिलों में.’’

‘‘मुझ में कोई अहं नहीं था,’’ मानसी बोली.

‘‘था तभी तो कह रही हूं कि प्यार, मनुहार और इंतजार से सब ठीक किया जा सकता है. आखिर मनोहर रास्ते पर आ गया कि नहीं. अब वह शराब को हाथ तक नहीं लगाता. अपने काम के प्रति समर्पित है,’’ प्रतिमा बोलीं.

‘‘काम तो पहले भी वह अच्छा करते थे,’’ मानसी के मुख से अचानक निकला.

‘‘तब कहां रह गई कसर. क्या छूट गया तुम दोनों के बीच जिस की परिणति अलगाव के रूप में हुई. तुम ने एक बार भी नहीं सोचा कि बच्ची बड़ी होगी तो किसे गुनहगार मानेगी. तुम ने सोचा बाप को शराबी कह कर बेटी को मना लेंगे… पर क्या ऐसा हुआ? क्या खून के रिश्ते आसानी से मिटते हैं? मांबाप औलाद के लिए सुरक्षा कवच होते हैं. इस में से एक भी हटा नहीं कि असुरक्षा की भावना घर कर जाती है बच्चों में. ऐसे बच्चे कुंठा के शिकार होते हैं.’’

‘‘आप कहना चाहती हैं कि तलाक ले कर मैं ने गलती की. मनोहर मेरे खिलाफ हिंसा का सहारा ले और मैं चुप बैठी रहूं…यह सोच कर कि मैं एक औरत हूं,’’ मानसी तल्ख शब्दों में बोली.

‘‘मैं ऐसा क्यों कहूंगी बल्कि मैं तुम्हारी जगह होती तो शायद यही फैसलालेती पर ऐसा करते हुए हमारी सोच एकतरफा होती है. हम कहीं न कहीं अपनी औलाद के प्रति अन्याय करते हैं. दोष किसी का भी हो पर झेलना तो बच्चों को पड़ता है,’’ प्रतिमा लंबी सांस ले कर आगे बोलीं, ‘‘खैर, जो हुआ सो हुआ. वक्त हर घाव को भर देता है. मैं एक प्रस्ताव  ले कर आई हूं.’’

मानसी जिज्ञासावश उन्हें देखने लगी.

‘‘क्या तुम दोनों पुन: एक नहीं हो सकते?’’

एकबारगी प्रतिमा का प्रस्ताव मानसी को अटपटा लगा. वह असहज हो गई. दोबारा जब प्रतिमा ने कहा तो उस ने सिर्फ इतना कहा, ‘‘मुझे सोचने का मौका दीजिए,’’

प्रतिमा के जाने के बाद वह अजीब कशमकश में फंस गई. न मना करते बन रहा था न ही हां. बेशक 10 साल उस ने सुकून से नहीं काटे सिर्फ इसलिए कि हर वक्त उसे अपनी और चांदनी के भविष्य को ले कर चिंता लगी रहती. एक क्षण भी चांदनी को अपनी आंखों से ओझल होने नहीं देती. उसे हमेशा इस बात का भय बना रहता कि अगर कुछ ऊंचनीच हो गया तो किस से कहेगी? कौन सहारा बनेगा? कहने को तो तमाम हमदर्द पुरुष हैं पर उन की निगाहें हमेशा मानसी के जिस्म पर होती. थोड़ी सी सहानुभूति जता कर लोग उस का सूद सहित मूल निकालने पर आमादा रहते.

अंतत: गहन सोच के बाद मानसी को लगा कि अपने लिए न सही, चांदनी के लिए मनोहर का आना उस की जिंदगी में निहायत जरूरी है. हां, थोड़ा अजीब सा मानसी को अवश्य लगा कि जब मनोहर फिर उस की जिंदगी में आएगा तो कैसा लगेगा? लोग क्या सोचेंगे? कैसे मनोहर का सामना करूंगी. क्या वह सब भूल जाएगा? क्या भूलना उस के लिए आसान होगा? टूटे हुए धागे बगैर गांठ के नहीं बंधते. क्या यह गांठ हमेशा के लिए खत्म हो पाएगी?

एक तरफ मनोहर के आने से उस की जिंदगी में अनिश्चितता का माहौल खत्म होगा, वहीं भविष्य को ले कर उस के मन में बुरेबुरे खयाल आ रहे थे. कहीं मनोहर फिर से उसी राह पर चल निकला तो? तब तो वह कहीं की नहीं रहेगी. प्रतिमा से उस ने अपनी सारी दुश्ंिचताओं का खुलासा किया. प्रतिमा ने उस से सहमति जताई और बोलीं, ‘‘मैं तुम से जबरदस्ती नहीं करूंगी. मनोहर से मिल कर तुम खुद ही फैसला लो.’’

मनोहर आया. दोनों में इतना साहस न था कि एकदूसरे से नजरें मिला सकें. मानसी की मां और प्रतिमा दोनों थीं पर वे उन दोनों को भरपूर मौका देना चाहती थीं, दोनों दूसरे कमरे में चली गईं.

‘‘मानसी, मैं ने तुम्हारे साथ अतीत में जो कुछ भी सलूक किया है उस का मुझे आज भी बेहद अफसोस है. यकीन मानो मैं ने कोई पहल नहीं की. मैं आज भी तुम्हारे लायक खुद को नहीं समझता. अगर चांदनी का मोह न होता…’’

‘‘उस के लिए विवाह क्या जरूरी है,’’ मानसी ने उस का मन टटोला.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ वह उठ कर जाने लगा. कुछ ही कदम चला होगा कि मानसी ने रोका, ‘‘क्या हम अपनी बच्ची के लिए नए सिरे से जिंदगी नहीं शुरू कर सकते?’’

मानसी के अप्रत्याशित फैसले पर मनोहर को क्षणांश विश्वास नहीं हुआ. वह एक बार पुन: मानसी के मुख से सुनना चाहता था. मानसी ने जब अपनी इच्छा फिर दोहराई तो उस की भी आंखों से खुशी के आंसू बह निकले.

जिस दिन दोनों एक होने वाले थे अचला भी आई. उसे तो विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि ऐसा भी हो सकता है. सुबह का भूला शाम को लौटे तो उसे भूला नहीं कहते. दरअसल, सब याद कर के ही नहीं, कुछ भूल कर भी जिंदगी जी जा सकती है.

मनोहर और मानसी ने उस अतीत को भुला दिया, जिस ने उन दोनों को पीड़ा दी. चांदनी इस अवसर पर ऐसे चहक रही थी जैसे नवजात परिंदा अपनी मां के मुख में अनाज का दाना देख कर.

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November 01, 2018 at 11:25AM

उस के हिस्से की जूठन : आखिर क्यों कुमुद का प्यार घृणा में बदल गया

इस विषय पर अब उस ने सोचना बंद कर दिया है. सोचसोच कर बहुत दिमाग खराब कर लिया पर आज तक कोई हल नहीं निकाल पाई. उस ने लाख कोशिश की कि मुट्ठी से कुछ भी न फिसलने दे, पर कहां रोक पाई. जितना रोकने की कोशिश करती सबकुछ उतनी तेजी से फिसलता जाता. असहाय हो देखने के अलावा उस के पास कोई चारा नहीं है और इसीलिए उस ने सबकुछ नियति पर छोड़ दिया है.

दुख उसे अब उतना आहत नहीं करता, आंसू नहीं निकलते. आंखें सूख गई हैं. पिछले डेढ़ साल में जाने कितने वादे उस ने खुद से किए, निखिल से किए. खूब फड़फड़ाई. पैसा था हाथ में, खूब उड़ाती रही. एक डाक्टर से दूसरे डाक्टर तक, एक शहर से दूसरे शहर तक भागती रही. इस उम्मीद में कि निखिल को बूटी मिल जाएगी और वह पहले की तरह ठीक हो कर अपना काम संभाल लेगा.

सबकुछ निखिल ने अपनी मेहनत से ही तो अर्जित किया है. यदि वही कुछ आज निखिल पर खर्च हो रहा है तो उसे चिंता नहीं करनी चाहिए. उस ने बच्चों की तरफ देखना बंद कर दिया है. पढ़ रहे हैं. पढ़ते रहें, बस. वह सब संभाल लेगी. रिश्तेदार निखिल को देख कर और सहानुभूति के चंद कतरे उस के हाथ में थमा कर जा चुके हैं.

देखतेदेखते कुमुद टूट रही है. जिस बीमारी की कोई बूटी ही न बनी हो उसी को खोज रही है. घंटों लैपटाप पर, वेबसाइटों पर इलाज और डाक्टर ढूंढ़ती रहती. जैसे ही कुछ मिलता ई-मेल कर देती या फोन पर संपर्क करती. कुछ आश्वासनों के झुनझुने थमा देते, कुछ गोलमोल उत्तर देते. आश्वासनों के झुनझुनों को सच समझ वह उन तक दौड़ जाती. निखिल को आश्वस्त करने के बहाने शायद खुद को आश्वस्त करती. दवाइयां, इंजेक्शन, टैस्ट नए सिरे से शुरू हो जाते.

डाक्टर हैपिटाइटिस ‘ए’ और ‘बी’ में दी जाने वाली दवाइयां और इंजेक्शन ही ‘सी’ के लिए रिपीट करते. जब तक दवाइयां चलतीं वायरस का बढ़ना रुक जाता और जहां दवाइयां हटीं, वायरस तेजी से बढ़ने लगता. दवाइयों के साइड इफैक्ट होते. कभी शरीर पानी भरने से फूल जाता, कभी उलटियां लग जातीं, कभी खूब तेज बुखार चढ़ता, शरीर में खुजली हो जाती, दिल की धड़कनें बढ़ जातीं, सांस उखड़ने लगती और कुमुद डाक्टर तक दौड़ जाती.

पिछले डेढ़ साल से कुमुद जीना भूल गई, स्वयं को भूल गई. उसे याद है केवल निखिल और उस की बीमारी. लाख रुपए महीना दवाइयों और टैस्टों पर खर्च कर जब साल भर बाद उस ने खुद को टटोला तो बैंक बैलेंस आधे से अधिक खाली हो चुका था. कुमुद ने तो लिवर ट्रांसप्लांट का भी मन बनाया. डाक्टर से सलाह ली. खर्चे की सुन कर पांव तले जमीन निकल गई. इस के बाद भी मरीज के बचने के 20 प्रतिशत चांसेज. यदि बच गया तो बाद की दवाइयों का खर्चा. पहले लिवर की व्यवस्था करनी है.

सिर थाम कर बैठ गई कुमुद. पापा से धड़कते दिल से जिक्र किया तो सुन कर वह भी सोच में पड़ गए. फिर समझाने लगे, ‘‘बेटा, इतना खर्च करने के बाद भी कुछ हासिल नहीं हो पाया तो तू और बच्चे किस ठौर बैठेंगे. आज की ही नहीं कल की भी सोच.’’

‘‘पर पापा, निखिल ऐसे भी मौत और जिंदगी के बीच झूल रहे हैं. कितनी यातना सह रहे हैं. मैं क्या करूं?’’ रो दी कुमुद.

‘‘धैर्य रख बेटी. जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं और कोई रास्ता नहीं सूझता तब ईश्वर के भरोसे नहीं बैठ जाना चाहिए बल्कि तलाश जारी रखनी चाहिए. तू तानी के बारे में सोच. उस का एम.बी.ए. का प्रथम वर्ष है और मनु का इंटर. बेटी इन के जीवन के सपने मत तोड़. मैं ने यहां एक डाक्टर से बात की है. ऐसे मरीज 8-10 साल भी खींच जाते हैं. तब तक बच्चे किसी लायक हो जाएंगे.’’

सुनने और सोचने के अलावा कुमुद के पास कुछ भी नहीं बचा था. निखिल जहां जरा से संभलते कि शोरूम चले जाते हैं. नौकर और मैनेजर के सहारे कैसे काम चले? न तानी को फुर्सत है और न मनु को कि शोरूम की तरफ झांक आएं. स्वयं कुमुद एक पैर पर नाच रही है. आय कम होती जा रही है. इलाज शुरू करने से पहले ही डाक्टर ने सारी स्थिति स्पष्ट कर दी थी कि यदि आप 15-20 लाख खर्च करने की शक्ति रखते हैं तभी इलाज शुरू करें.

असहाय निखिल सब देख रहे हैं और कोशिश भी कर रहे हैं कि कुमुद की मुश्किलें आसान हो सकें. पर मुश्किलें आसान कहां हो पा रही हैं. वह स्वयं जानते हैं कि लिवर कैंसर एक दिन साथ ले कर ही जाएगा. बस, वह भी वक्त को धक्का दे रहे हैं. उन्हें भी चिंता है कि उन के बाद परिवार का क्या होगा? अकेले कुमुद क्याक्या संभालेगी?

इस बार निखिल ने मन बना लिया है कि मनु बोर्ड की परीक्षाएं दे ले, फिर शो- रूम संभाले. उन के इस निश्चय पर कुमुद अभी चुप है. वह निर्णय नहीं कर पा रही कि क्या करना चाहिए.

अभी पिछले दिनों निखिल को नर्सिंग होम में भरती करना पड़ा. खून की उल्टियां रुक ही नहीं रही थीं. डाक्टर ने एंडोस्कोपी की और लिवर के सिस्ट बांधे, तब कहीं ब्लीडिंग रुक पाई. 50 हजार पहले जमा कराने पड़े. कुमुद ने देखा, अब तो पास- बुक में महज इतने ही रुपए बचे हैं कि महीने भर का घर खर्च चल सके. अभी तो दवाइयों के लिए पैसे चाहिए. निखिल को बिना बताए सर्राफा बाजार जा कर अपने कुछ जेवर बेच आई. निखिल पूछते रहे कि तुम खर्च कैसे चला रही हो, पैसे कहां से आए, पर कुमुद ने कुछ नहीं बताया.

‘‘जब तक चला सकती हूं चलाने दो. मेरी हिम्मत मत तोड़ो, निखिल.’’

‘‘देख रहा हूं तुम्हें. अब सारे निर्णय आप लेने लगी हो.’’

‘‘तुम्हें टेंस कर के और बीमार नहीं करना चाहती.’’

‘‘लेकिन मेरे अलावा भी तो कुछ सोचो.’’

‘‘नहीं, इस समय पहली सोच तुम हो, निखिल.’’

‘‘तुम आत्महत्या कर रही हो, कुमुद.’’

‘‘ऐसा ही सही, निखिल. यदि मेरी आत्महत्या से तुम्हें जीवन मिलता है तो मुझे स्वीकार है,’’ कह कर कुमुद ने आंखें पोंछ लीं.

निखिल ने चाहा कुमुद को खींच कर छाती से लगा ले, लेकिन आगे बढ़ते हाथ रुक गए. पिछले एक साल से वह कुमुद को छूने को भी तरस गया है. डाक्टर ने उसे मना किया है. उस के शरीर पर पिछले एक सप्ताह से दवाई के रिएक्शन के कारण फुंसियां निकल आई हैं. वह चाह कर भी कुमुद को नहीं छू सकता.

एक नादानी की इतनी बड़ी सजा बिना कुमुद को बताए निखिल भोग रहा है. क्या बताए कुमुद को कि उस ने किन्हीं कमजोर पलों में प्रवीन के साथ होटल में एक रात किसी अन्य युवती के साथ गुजारी थी और वहीं से…कुमुद के साथ विश्वासघात किया, उस के प्यार के भरोसे को तोड़ दिया. किस मुंह से बीते पलों की दास्तां कुमुद से कहे. कुमुद मर जाएगी. मर तो अब भी रही है, फिर शायद उस की शक्ल भी न देखे.

डाक्टर ने कुमुद को भी सख्त हिदायत दी है कि बिना दस्ताने पहने निखिल का कोई काम न करे. उस के बलगम, थूक, पसीना या खून की बूंदें उसे या बच्चों को न छुएं. बिस्तर, कपड़े सब अलग रखें.

निखिल का टायलेट भी अलग है. कुमुद निखिल के कपड़े सब से अलग धोती है. बिस्तर भी अलग है, यानी अपना सबकुछ और इतना करीब निखिल आज अछूतों की तरह दूर है. जैसे कुमुद का मन तड़पता है वैसे ही निखिल भी कुमुद की ओर देख कर आंखें भर लाता है.

नियति ने उन्हें नदी के दो किनारों की तरह अलग कर दिया है. दोनों एकदूसरे को देख सकते हैं पर छू नहीं सकते. दोनों के बिस्तर अलगअलग हुए भी एक साल हो गया.

कुमुद क्या किसी ने भी नहीं सोचा था कि हंसतेखेलते घर में मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा. कुछ समय से निखिल के पैरों पर सूजन आ रही थी, आंखों में पीलापन नजर आ रहा था. तबीयत भी गिरीगिरी रहती थी. कुमुद की जिद पर ही निखिल डाक्टर के यहां गया था. पीलिया का अंदेशा था. डाक्टर ने टैस्ट क्या कराए भूचाल आ गया. अब खोज हुई कि हैपिटाइटिस ‘सी’ का वायरस आया कहां से? डाक्टर का कहना था कि संक्रमित खून से या यूज्ड सीरिंज से वायरस ब्लड में आ जाता है.

पता चला कि विवाह से पहले निखिल का एक्सीडेंट हुआ था और खून चढ़ाना पड़ा था. शायद यह वायरस वहीं से आया, लेकिन यह सुन कर निखिल के बड़े भैया भड़क उठे थे, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? खून रेडक्रास सोसाइटी से मैं खुद लाया था.’’

लेकिन उन की बात को एक सिरे से खारिज कर दिया गया और सब ने मान लिया कि खून से ही वायरस शरीर में आया.

सब ने मान लिया पर कुमुद का मन नहीं माना कि 20 साल तक वायरस ने अपना प्रभाव क्यों नहीं दिखाया.

‘‘वायरस आ तो गया पर निष्क्रिय पड़ा रहा,’’ डाक्टर का कहना था.

‘‘ठीक कहते हैं डाक्टर आप. तभी वायरस ने मुझे नहीं छुआ.’’

‘‘यह आप का सौभाग्य है कुमुदजी, वरना यह बीमारी पति से पत्नी और पत्नी से बच्चों में फैलती ही है.’’

कुमुद को लगा डाक्टर ठीक कह रहा है. सब इस जानलेवा बीमारी से बचे हैं, यही क्या कम है, लेकिन 10 साल पहले निखिल ने अपना खून बड़े भैया के बेटे हार्दिक को दिया था जो 3 साल पहले ही विदेश गया है और उस के विदेश जाने से पहले सारे टैस्ट हुए थे, वायरस वहां भी नहीं था.

न चाहते हुए भी कुमुद जब भी खाली होती, विचार आ कर घेर लेते हैं. नए सिरे से विश्लेषण करने लगती है. आज अचानक उस के चिंतन को नई दिशा मिली. यदि पति पत्नी को यौन संबंधों द्वारा वायरस दे सकता है तो वह भी किसी से यौन संबंध बना कर ला सकता है. क्या निखिल भी किसी अन्य से…

दिमाग घूम गया कुमुद का. एकएक बात उस के सामने नाच उठी. बड़े भैया का विश्वासपूर्वक यह कहना कि खून संक्रमित नहीं था, उन के बेटे व उन सब के टैस्ट नेगेटिव आने, यानी वायरस ब्लड से नहीं आया. यह अभी कुछ दिन पहले ही आया है. निखिल पर उसे अपने से भी ज्यादा विश्वास था और उस ने उसी से विश्वासघात किया.

कुमुद ने फौरन डाक्टर को फोन मिलाया, ‘‘डाक्टर, आप ने यह कह कर मेरा टैस्ट कराया था कि हैपिटाइटिस ‘सी’ मुझे भी हो सकता है और आप 80 प्रतिशत अपने विचार से सहमत थे. अब उसी 80 प्रतिशत का वास्ता दे कर आप से पूछती हूं कि यदि एक पति अपनी पत्नी को यह वायरस दे सकता है तो स्वयं भी अन्य महिला से यौन संबंध बना कर यह बीमारी ला सकता है.’’

‘‘हां, ऐसा संभव है कुमुदजी और इसीलिए 20 प्रतिशत मैं ने छोड़ दिए थे.’’

कुमुद ने फोन रख दिया. वह कटे पेड़ सी गिर पड़ी. निखिल, तुम ने इतना बड़ा छल क्यों किया? मैं किसी की जूठन को अपने भाल पर सजाए रही. एक पल में ही उस के विचार बदल गए. निखिल के प्रति सहानुभूति और प्यार घृणा और उपेक्षा में बदल गए.

मन हुआ निखिल को इसी हाल में छोड़ कर भाग जाए. अपने कर्मों की सजा आप पाए. जिए या मरे, वह क्यों तिलतिल कर जले? जीवन का सारा खेल भावनाओं का खेल है. भावनाएं ही खत्म हो जाएं तो जीवन मरुस्थल बन जाता है. अपना यह मरुस्थली जीवन किसे दिखाए कुमुद. एक चिंगारी सी जली और बुझ गई. निखिल उसे पुकार रहा था, पर कुमुद कहां सुन पा रही थी. वह तो दोनों हाथ खुल कर लुटी, निखिल ने भी और भावनाओं ने भी.

निखिल के इतने करीब हो कर भी कभी उस ने अपना मन नहीं खोला. एक बार भी अपनी करनी पर पश्चात्ताप नहीं हुआ. आखिर निखिल ने कैसे समझ लिया कि कुमुद हमेशा मूर्ख बनी रहेगी, केवल उसी के लिए लुटती रहेगी? आखिर कब तक? जवाब देना होगा निखिल को. क्यों किया उस ने ऐसा? क्या कमी देखी कुमुद में? क्या कुमुद अब निखिल का साथ छोड़ कर अपने लिए कोई और निखिल तलाश ले? निखिल तो अब उस के किसी काम का रहा नहीं.

घिन हो आई कुमुद को यह सोच कर कि एक झूठे आदमी को अपना समझ अपने हिस्से की जूठन समेटती आई. उस की तपस्या को ग्रहण लग गया. निखिल को आज उस के सवाल का जवाब देना ही होगा.

‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया, निखिल? मैं सब जान चुकी हूं.’’

और निखिल असहाय सा कुमुद को देखने लगा. उस के पास कहने को कुछ भी नहीं बचा था.

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इस विषय पर अब उस ने सोचना बंद कर दिया है. सोचसोच कर बहुत दिमाग खराब कर लिया पर आज तक कोई हल नहीं निकाल पाई. उस ने लाख कोशिश की कि मुट्ठी से कुछ भी न फिसलने दे, पर कहां रोक पाई. जितना रोकने की कोशिश करती सबकुछ उतनी तेजी से फिसलता जाता. असहाय हो देखने के अलावा उस के पास कोई चारा नहीं है और इसीलिए उस ने सबकुछ नियति पर छोड़ दिया है.

दुख उसे अब उतना आहत नहीं करता, आंसू नहीं निकलते. आंखें सूख गई हैं. पिछले डेढ़ साल में जाने कितने वादे उस ने खुद से किए, निखिल से किए. खूब फड़फड़ाई. पैसा था हाथ में, खूब उड़ाती रही. एक डाक्टर से दूसरे डाक्टर तक, एक शहर से दूसरे शहर तक भागती रही. इस उम्मीद में कि निखिल को बूटी मिल जाएगी और वह पहले की तरह ठीक हो कर अपना काम संभाल लेगा.

सबकुछ निखिल ने अपनी मेहनत से ही तो अर्जित किया है. यदि वही कुछ आज निखिल पर खर्च हो रहा है तो उसे चिंता नहीं करनी चाहिए. उस ने बच्चों की तरफ देखना बंद कर दिया है. पढ़ रहे हैं. पढ़ते रहें, बस. वह सब संभाल लेगी. रिश्तेदार निखिल को देख कर और सहानुभूति के चंद कतरे उस के हाथ में थमा कर जा चुके हैं.

देखतेदेखते कुमुद टूट रही है. जिस बीमारी की कोई बूटी ही न बनी हो उसी को खोज रही है. घंटों लैपटाप पर, वेबसाइटों पर इलाज और डाक्टर ढूंढ़ती रहती. जैसे ही कुछ मिलता ई-मेल कर देती या फोन पर संपर्क करती. कुछ आश्वासनों के झुनझुने थमा देते, कुछ गोलमोल उत्तर देते. आश्वासनों के झुनझुनों को सच समझ वह उन तक दौड़ जाती. निखिल को आश्वस्त करने के बहाने शायद खुद को आश्वस्त करती. दवाइयां, इंजेक्शन, टैस्ट नए सिरे से शुरू हो जाते.

डाक्टर हैपिटाइटिस ‘ए’ और ‘बी’ में दी जाने वाली दवाइयां और इंजेक्शन ही ‘सी’ के लिए रिपीट करते. जब तक दवाइयां चलतीं वायरस का बढ़ना रुक जाता और जहां दवाइयां हटीं, वायरस तेजी से बढ़ने लगता. दवाइयों के साइड इफैक्ट होते. कभी शरीर पानी भरने से फूल जाता, कभी उलटियां लग जातीं, कभी खूब तेज बुखार चढ़ता, शरीर में खुजली हो जाती, दिल की धड़कनें बढ़ जातीं, सांस उखड़ने लगती और कुमुद डाक्टर तक दौड़ जाती.

पिछले डेढ़ साल से कुमुद जीना भूल गई, स्वयं को भूल गई. उसे याद है केवल निखिल और उस की बीमारी. लाख रुपए महीना दवाइयों और टैस्टों पर खर्च कर जब साल भर बाद उस ने खुद को टटोला तो बैंक बैलेंस आधे से अधिक खाली हो चुका था. कुमुद ने तो लिवर ट्रांसप्लांट का भी मन बनाया. डाक्टर से सलाह ली. खर्चे की सुन कर पांव तले जमीन निकल गई. इस के बाद भी मरीज के बचने के 20 प्रतिशत चांसेज. यदि बच गया तो बाद की दवाइयों का खर्चा. पहले लिवर की व्यवस्था करनी है.

सिर थाम कर बैठ गई कुमुद. पापा से धड़कते दिल से जिक्र किया तो सुन कर वह भी सोच में पड़ गए. फिर समझाने लगे, ‘‘बेटा, इतना खर्च करने के बाद भी कुछ हासिल नहीं हो पाया तो तू और बच्चे किस ठौर बैठेंगे. आज की ही नहीं कल की भी सोच.’’

‘‘पर पापा, निखिल ऐसे भी मौत और जिंदगी के बीच झूल रहे हैं. कितनी यातना सह रहे हैं. मैं क्या करूं?’’ रो दी कुमुद.

‘‘धैर्य रख बेटी. जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं और कोई रास्ता नहीं सूझता तब ईश्वर के भरोसे नहीं बैठ जाना चाहिए बल्कि तलाश जारी रखनी चाहिए. तू तानी के बारे में सोच. उस का एम.बी.ए. का प्रथम वर्ष है और मनु का इंटर. बेटी इन के जीवन के सपने मत तोड़. मैं ने यहां एक डाक्टर से बात की है. ऐसे मरीज 8-10 साल भी खींच जाते हैं. तब तक बच्चे किसी लायक हो जाएंगे.’’

सुनने और सोचने के अलावा कुमुद के पास कुछ भी नहीं बचा था. निखिल जहां जरा से संभलते कि शोरूम चले जाते हैं. नौकर और मैनेजर के सहारे कैसे काम चले? न तानी को फुर्सत है और न मनु को कि शोरूम की तरफ झांक आएं. स्वयं कुमुद एक पैर पर नाच रही है. आय कम होती जा रही है. इलाज शुरू करने से पहले ही डाक्टर ने सारी स्थिति स्पष्ट कर दी थी कि यदि आप 15-20 लाख खर्च करने की शक्ति रखते हैं तभी इलाज शुरू करें.

असहाय निखिल सब देख रहे हैं और कोशिश भी कर रहे हैं कि कुमुद की मुश्किलें आसान हो सकें. पर मुश्किलें आसान कहां हो पा रही हैं. वह स्वयं जानते हैं कि लिवर कैंसर एक दिन साथ ले कर ही जाएगा. बस, वह भी वक्त को धक्का दे रहे हैं. उन्हें भी चिंता है कि उन के बाद परिवार का क्या होगा? अकेले कुमुद क्याक्या संभालेगी?

इस बार निखिल ने मन बना लिया है कि मनु बोर्ड की परीक्षाएं दे ले, फिर शो- रूम संभाले. उन के इस निश्चय पर कुमुद अभी चुप है. वह निर्णय नहीं कर पा रही कि क्या करना चाहिए.

अभी पिछले दिनों निखिल को नर्सिंग होम में भरती करना पड़ा. खून की उल्टियां रुक ही नहीं रही थीं. डाक्टर ने एंडोस्कोपी की और लिवर के सिस्ट बांधे, तब कहीं ब्लीडिंग रुक पाई. 50 हजार पहले जमा कराने पड़े. कुमुद ने देखा, अब तो पास- बुक में महज इतने ही रुपए बचे हैं कि महीने भर का घर खर्च चल सके. अभी तो दवाइयों के लिए पैसे चाहिए. निखिल को बिना बताए सर्राफा बाजार जा कर अपने कुछ जेवर बेच आई. निखिल पूछते रहे कि तुम खर्च कैसे चला रही हो, पैसे कहां से आए, पर कुमुद ने कुछ नहीं बताया.

‘‘जब तक चला सकती हूं चलाने दो. मेरी हिम्मत मत तोड़ो, निखिल.’’

‘‘देख रहा हूं तुम्हें. अब सारे निर्णय आप लेने लगी हो.’’

‘‘तुम्हें टेंस कर के और बीमार नहीं करना चाहती.’’

‘‘लेकिन मेरे अलावा भी तो कुछ सोचो.’’

‘‘नहीं, इस समय पहली सोच तुम हो, निखिल.’’

‘‘तुम आत्महत्या कर रही हो, कुमुद.’’

‘‘ऐसा ही सही, निखिल. यदि मेरी आत्महत्या से तुम्हें जीवन मिलता है तो मुझे स्वीकार है,’’ कह कर कुमुद ने आंखें पोंछ लीं.

निखिल ने चाहा कुमुद को खींच कर छाती से लगा ले, लेकिन आगे बढ़ते हाथ रुक गए. पिछले एक साल से वह कुमुद को छूने को भी तरस गया है. डाक्टर ने उसे मना किया है. उस के शरीर पर पिछले एक सप्ताह से दवाई के रिएक्शन के कारण फुंसियां निकल आई हैं. वह चाह कर भी कुमुद को नहीं छू सकता.

एक नादानी की इतनी बड़ी सजा बिना कुमुद को बताए निखिल भोग रहा है. क्या बताए कुमुद को कि उस ने किन्हीं कमजोर पलों में प्रवीन के साथ होटल में एक रात किसी अन्य युवती के साथ गुजारी थी और वहीं से…कुमुद के साथ विश्वासघात किया, उस के प्यार के भरोसे को तोड़ दिया. किस मुंह से बीते पलों की दास्तां कुमुद से कहे. कुमुद मर जाएगी. मर तो अब भी रही है, फिर शायद उस की शक्ल भी न देखे.

डाक्टर ने कुमुद को भी सख्त हिदायत दी है कि बिना दस्ताने पहने निखिल का कोई काम न करे. उस के बलगम, थूक, पसीना या खून की बूंदें उसे या बच्चों को न छुएं. बिस्तर, कपड़े सब अलग रखें.

निखिल का टायलेट भी अलग है. कुमुद निखिल के कपड़े सब से अलग धोती है. बिस्तर भी अलग है, यानी अपना सबकुछ और इतना करीब निखिल आज अछूतों की तरह दूर है. जैसे कुमुद का मन तड़पता है वैसे ही निखिल भी कुमुद की ओर देख कर आंखें भर लाता है.

नियति ने उन्हें नदी के दो किनारों की तरह अलग कर दिया है. दोनों एकदूसरे को देख सकते हैं पर छू नहीं सकते. दोनों के बिस्तर अलगअलग हुए भी एक साल हो गया.

कुमुद क्या किसी ने भी नहीं सोचा था कि हंसतेखेलते घर में मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा. कुछ समय से निखिल के पैरों पर सूजन आ रही थी, आंखों में पीलापन नजर आ रहा था. तबीयत भी गिरीगिरी रहती थी. कुमुद की जिद पर ही निखिल डाक्टर के यहां गया था. पीलिया का अंदेशा था. डाक्टर ने टैस्ट क्या कराए भूचाल आ गया. अब खोज हुई कि हैपिटाइटिस ‘सी’ का वायरस आया कहां से? डाक्टर का कहना था कि संक्रमित खून से या यूज्ड सीरिंज से वायरस ब्लड में आ जाता है.

पता चला कि विवाह से पहले निखिल का एक्सीडेंट हुआ था और खून चढ़ाना पड़ा था. शायद यह वायरस वहीं से आया, लेकिन यह सुन कर निखिल के बड़े भैया भड़क उठे थे, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? खून रेडक्रास सोसाइटी से मैं खुद लाया था.’’

लेकिन उन की बात को एक सिरे से खारिज कर दिया गया और सब ने मान लिया कि खून से ही वायरस शरीर में आया.

सब ने मान लिया पर कुमुद का मन नहीं माना कि 20 साल तक वायरस ने अपना प्रभाव क्यों नहीं दिखाया.

‘‘वायरस आ तो गया पर निष्क्रिय पड़ा रहा,’’ डाक्टर का कहना था.

‘‘ठीक कहते हैं डाक्टर आप. तभी वायरस ने मुझे नहीं छुआ.’’

‘‘यह आप का सौभाग्य है कुमुदजी, वरना यह बीमारी पति से पत्नी और पत्नी से बच्चों में फैलती ही है.’’

कुमुद को लगा डाक्टर ठीक कह रहा है. सब इस जानलेवा बीमारी से बचे हैं, यही क्या कम है, लेकिन 10 साल पहले निखिल ने अपना खून बड़े भैया के बेटे हार्दिक को दिया था जो 3 साल पहले ही विदेश गया है और उस के विदेश जाने से पहले सारे टैस्ट हुए थे, वायरस वहां भी नहीं था.

न चाहते हुए भी कुमुद जब भी खाली होती, विचार आ कर घेर लेते हैं. नए सिरे से विश्लेषण करने लगती है. आज अचानक उस के चिंतन को नई दिशा मिली. यदि पति पत्नी को यौन संबंधों द्वारा वायरस दे सकता है तो वह भी किसी से यौन संबंध बना कर ला सकता है. क्या निखिल भी किसी अन्य से…

दिमाग घूम गया कुमुद का. एकएक बात उस के सामने नाच उठी. बड़े भैया का विश्वासपूर्वक यह कहना कि खून संक्रमित नहीं था, उन के बेटे व उन सब के टैस्ट नेगेटिव आने, यानी वायरस ब्लड से नहीं आया. यह अभी कुछ दिन पहले ही आया है. निखिल पर उसे अपने से भी ज्यादा विश्वास था और उस ने उसी से विश्वासघात किया.

कुमुद ने फौरन डाक्टर को फोन मिलाया, ‘‘डाक्टर, आप ने यह कह कर मेरा टैस्ट कराया था कि हैपिटाइटिस ‘सी’ मुझे भी हो सकता है और आप 80 प्रतिशत अपने विचार से सहमत थे. अब उसी 80 प्रतिशत का वास्ता दे कर आप से पूछती हूं कि यदि एक पति अपनी पत्नी को यह वायरस दे सकता है तो स्वयं भी अन्य महिला से यौन संबंध बना कर यह बीमारी ला सकता है.’’

‘‘हां, ऐसा संभव है कुमुदजी और इसीलिए 20 प्रतिशत मैं ने छोड़ दिए थे.’’

कुमुद ने फोन रख दिया. वह कटे पेड़ सी गिर पड़ी. निखिल, तुम ने इतना बड़ा छल क्यों किया? मैं किसी की जूठन को अपने भाल पर सजाए रही. एक पल में ही उस के विचार बदल गए. निखिल के प्रति सहानुभूति और प्यार घृणा और उपेक्षा में बदल गए.

मन हुआ निखिल को इसी हाल में छोड़ कर भाग जाए. अपने कर्मों की सजा आप पाए. जिए या मरे, वह क्यों तिलतिल कर जले? जीवन का सारा खेल भावनाओं का खेल है. भावनाएं ही खत्म हो जाएं तो जीवन मरुस्थल बन जाता है. अपना यह मरुस्थली जीवन किसे दिखाए कुमुद. एक चिंगारी सी जली और बुझ गई. निखिल उसे पुकार रहा था, पर कुमुद कहां सुन पा रही थी. वह तो दोनों हाथ खुल कर लुटी, निखिल ने भी और भावनाओं ने भी.

निखिल के इतने करीब हो कर भी कभी उस ने अपना मन नहीं खोला. एक बार भी अपनी करनी पर पश्चात्ताप नहीं हुआ. आखिर निखिल ने कैसे समझ लिया कि कुमुद हमेशा मूर्ख बनी रहेगी, केवल उसी के लिए लुटती रहेगी? आखिर कब तक? जवाब देना होगा निखिल को. क्यों किया उस ने ऐसा? क्या कमी देखी कुमुद में? क्या कुमुद अब निखिल का साथ छोड़ कर अपने लिए कोई और निखिल तलाश ले? निखिल तो अब उस के किसी काम का रहा नहीं.

घिन हो आई कुमुद को यह सोच कर कि एक झूठे आदमी को अपना समझ अपने हिस्से की जूठन समेटती आई. उस की तपस्या को ग्रहण लग गया. निखिल को आज उस के सवाल का जवाब देना ही होगा.

‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया, निखिल? मैं सब जान चुकी हूं.’’

और निखिल असहाय सा कुमुद को देखने लगा. उस के पास कहने को कुछ भी नहीं बचा था.

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November 01, 2018 at 11:25AM

सार्जेंट मेजर पर प्राथमिकी, अश्लील बातें करने का आरोप

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वह उसे ही दिखाई देता है, scary stories in hindi

scary stories in hindi

वह उसे ही दिखाई देता है, (scary stories in hindi), इस कहानी में रामू किसान को वह आदमी नज़र आता है जिसे कोई देख नहीं पाता है, जब यह बात रामू किसान को पता चलती है तो वह बहुत ज्यादा डर जाता है 

वह उसे ही दिखाई देता है : scary stories in hindi

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scary stories in hindi

रात अभी होने वाली थी रामू किसान अपने खेत से घर वापिस आ रहा था, आज उसे काम करते हुए काफी देर हो गयी थी, इसलिए वह जल्दी-जल्दी घर जा रहा था यह सर्दियों का मौसम था आज वह घर जल्दी जाना चाहता था मगर उसे काम में ही देर हो चुकी थी, रामू किसान बहुत ही मेहनती था वह अपना काम बहुत अच्छे से करता था सभी लोग उसे बहुत अच्छा आदमी मानते थे लेकिन उस रात उसके साथ कुछ ऐसा हुआ था जिससे वह बहुत परेशान हो गया था, वह जब रात को घर आ रहा था तभी किसी ने उसे पीछे से आवाज लगाई थी,

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रामू किसान रुक गया और पीछे देखने लगा मगर कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था लेकिन उसने आवाज को सुना था वह यह बात नहीं भूल सकता था उसके बाद उसे लगा की शायद वह उसका वहम होगा, वह आगे की और बढ़ता रहा कुछ दुरी पर चला था की फिर से आवाज सुनाई दी, बोलने वाले ने पूछा की क्या समय हुआ होगा, रामू किसान ने पीछे देखा तो अपने पीछे किसो को खड़ा हुआ पाया था, रामू ने पूछा की तुम रात को यहां पर क्या कर रहे हो, उसने कहा की मुझे इस गांव में किसी के पास आना था मगर वह यहां पर है नहीं,

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इसलिए सोचा की मुझे वापिस चले जाना चाहिए रामू ने पूछा की रात को कहा जाओगे ऐसा करो की मेरे साथ चलो जब सुबह होगी तो वापिस चले जाना आज की रात तुम मेरे साथ रह सकते हो वह आदमी कहने लगा की ठीक है जैसा आप कहते है वैसा ही ठीक है में आपके साथ चलता हु, रामू किसान उसे अपने साथ ले गया था जब वह घर पहुंचा तो रामू किसान ने घर पर कहा की आज मेरे साथ कोई आया है इसलिए उसके लिए भी खाना बना लो वह बहार बैठा है 

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रामू की पत्नी ने कहा की तुम्हे चिंता करने की जरूरत नहीं है उसके लिए भी खाना बन जाएगा, रामू किसान कहने लगा की ठीक है में उसके पास जाता हु, और पूछता हु की उसे कुछ और तो नहीं चाहिए, रामू बहार गया तो देखा की वहा पर कोई नहीं था मगर वह कहा पर जा सकता है रामू ने सोचा की यही पर होगा कुछ देर में आ जाएगा, उसका इंतज़ार करना होगा, कुछ देर तक इंतज़ार करने पर भी वह नज़र नहीं आ रहा था, वह कहा जा सकता है कुछ समझ में नहीं आ रहा था,

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कुछ देर बाद रामू घ पर गया तो उसने कहा की जो आदमी मेरे साथ आया था वह पता नहीं कहा चला गया है, लगता है वह यहां पर रहना नहीं चाहता होगा, इसलिए चला गया होगा, रामू किसान उसके बारे में सोचता रहा कुछ देर बाद खाना खा कर वह सो गया था अभी आधी रात हुई थी उसे आवाज लगाई गयी, रामू किसान उठा और देखा की कौन है जो आवाज लगा रहा है उसके देखने पर भी कोई नज़र नहीं आया था रामू किसान ने फिर आवाज को सुना था मगर इस बार भी कोई नज़र नहीं आ रहा था

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मगर यह आवाज कौन लगा रहा है, रामू सोचते हुए सो गया था अगली सुबह ही वह उठा और अपने खेत में जाने लगा था पूरा दिन काम करते हुए बीत चूका था शाम होने वाली थी रामू ने सोचा की फिर रात न हो जाए इसलिए वह काम को जल्दी ही पूरा करना चाहता था उसके बाद वह काम को पूरा कर चूका था अपने घर पर जाने लगा था उसके पीछे कोई चल रहा था मगर वह कौन हो सकता है उसने पीछे देखा तो यही आदमी था रामू ने कहा की तुम कल कहा चले गए थे

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वह कहने लगा की में तो वही पर था लेकिन तुमने मुझे देखा नहीं था रामू कहने लगा की यह सब क्या कह रहे हो मेने तो आवाज लगायी थी, मगर कोई भी नहीं था वह आदमनी कहने लगा की मेने तुम्हे जब आवाज लगायी थी तुम उठे थे मगर फिर सो गए थे रामू को याद आया की इसने आवाज लगायी थी जब रात को में उठा था, मगर तुमने खाना क्यों नहीं खाया था, रात को जब मेने कहा था की खाना यही पर खाना मगर तुमने खाना नहीं खाया था.

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लेकिन तुम आज भी यही पर हो, जबकि तुम्हे तो आज चले जाना था मगर तुम गए नहीं हो क्या वो लोग आ चुके है जो यहां पर नहीं थे उस आदमी ने कहा की हां वह आ चुके रामू ने कहा की यह तो अच्छी बात है क्योकि अब तुम्हे यहां से खाली नहीं जाना पड़ेगा, रामू ने कहा की अब तुम मेरे साथ घर चलो में अपने एक मेहमान से तुम्हे मिलाता हु, वह आज ही मेरे यहां पर आये है, वह दोनों ही घर पहुंचने वाले थे, उसके बाद रामु और वह आदमी घर पहुंच चुके थे रामू ने कहा की यह मेरे मेहमान है,  

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रामू के मेहमान ने रामू को देखा और पूछा की तुम यह सब क्या कह रहे हो और किस्से कह रहे हो, रामू ने कहा की मेरे साथ एक आदमी आया है यह कल अचानक ही चला गया था इसलिए में आपसे इन्हे मिलवाने लाया हु, लेकिन रामू को देखकर रामू के मेहमान को कुछ अजीब लग रहा था क्योकि रामू जिसके बारे में बात कर रहा था वहां पर ऐसा कोई भी आदमी नहीं था वह सिर्फ रामू को दिखाई दे रहा था वह मेहमान उठे और रामू से कहा की यहां पर कोई नहीं है तुम किस बारे में बात कर रहे हो

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रामू ने कहा की इस आदमी के बारे, मेहमान ने कहा की यहां पर कोई नहीं है, रामू की पत्नी भी आ गयी थी उसने भी कहा की यहां तो कोई भी नहीं रामू को अब डर लग रहा था क्योकि वह उसके सामने बैठा कुछ देर बाद रामू बेहोश हो जाता है और जब होश आता है तो वह आदमी जा चूका था मगर रामू को अब बहुत ज्यादा डर लग रहा था वह उसे ही दिखाय दे रहा था अब वह कहा गया था कोई नहीं जानता था लेकिन इस घटना के बाद रामू कुछ दिन तक कही भी नहीं गया था.

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