Friday 31 January 2020

आजकल की लड़कियां : भाग 1

‘‘कुछ सुना आप ने, वो अपने मिश्रा जी हैं न… उन की बहू घर छोड़ कर चली गई,’’ औफिस से घर आते ही रमा ने चाय के साथ पति योगेश को यह सनसनीखेज खबर भी परोस दी.

‘‘कौन से मिश्रा जी? वो जो पिछली गली में रहते हैं, जिन के यहां हम भी गए थे शादी में… वो? लेकिन उस शादी के तो अभी 6 महीने भी नहीं हुए. आखिर ऐसा क्या हुआ होगा?’’ योगेश ने चाय के घूंट के साथ खबर को भी गटकने की कोशिश की, लेकिन खबर थी कि गले से नीचे ही नहीं उतर रही थी.

‘‘हांहां वही. बहू कहती है ससुराल में उसे घुटन होती है. ये आजकल की लड़कियां भी न… रिश्तों को तो कुछ समझती ही नहीं हैं. मानो रिश्ते न हुए नए फैशन के कपड़े हो गए. इधर जरा सा अनफिट हुए, उधर अलमारी से बाहर. एक हम थे जो कपड़ों को फटने तक रफू करकर के पहनते रहते थे, वैसे ही रिश्तों को भी लाख गिलेशिकवों के बावजूद निभाते रहते हैं,’’ रमा ने अपने जमाने को याद कर के ठंडी सांस ली.

‘‘लेकिन तुम्हीं ने तो एक बार बताया था कि मिश्राजी अपनी बहू को एकदम बेटी की तरह रखते हैं. न खानेपीने में पाबंदी, न घूमनेफिरने में रोकटोक. यहां तक कि अपनी बिटिया की तरह बहू को भी लेटैस्ट फैशन के कपड़े पहनने की छूट दे रखी है. फिर भला बहू को क्या परेशानी हो गई?’’

‘‘वही तो, मिश्रा जी ने पहले तो जरूरत से ज्यादा लाड़ कर के उसे सिर पर चढ़ा लिया, और देखो, अब वही लाड़ उस के सिर चढ़ कर बोलने लगा. इन बहुओं की लगाम तो कस कर ही रखनी चाहिए जैसी हमारे जमाने में रखी जाती थी. क्या मजाल कि मुंह से चूं भी निकल जाए,’’ रमा ने अपना समय याद किया.

‘‘तो तुम भी कहां खुश थीं मेरी मां से, हर वक्त रोना ही रहता था तुम्हारी जबान पर,’’ योगेश ने उस के खयालों के फूले हुए गुब्बारे को तंज की पिन चुभो कर फुस्स कर दिया.

ये भी पढ़ें- दुश्मन: सोम को अपना चेहरा ही क्यों बदसूरत लगने लगा ?

‘‘बसबस, रहने दो. तुम्हारी मां थीं ही हिटलर की कौर्बनकौपी. उन्हें तो हमेशा मुझ में कमियां ही नजर आती थीं,’’ कहते हुए रमा ने चाय के बरतन उठाए और बड़बड़ाते हुए रसोई की तरफ चल दी. योगेश ने भी टीवी चलाया और न्यूज देखने में व्यस्त हो गया. मिश्रापुराण पर एकबारगी विराम लग गया.

‘‘अरे रमा, सुना तुम ने, वह अपनी किटी ऐडमिन कांता है न, उस की बेटी अपने पति को छोड़ कर मायके वापस आ गई,’’ दूसरे दिन शाम को पार्क में पड़ोसिन शिल्पी ने उसे रोक कर अपने चटपटे अंदाज में यह ब्रेकिंग न्यूज दी तो रमा के दिमाग में एक बार फिर से मिश्राजी की बहू घूम गई.

‘‘क्या बात कर रही हो? उस ने तो लवमैरिज की थी न, फिर ऐसा क्या हुआ?’’ रमा ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘अरे, कुछ मत पूछो. ये आजकल की लड़कियां भी न. न जाने किस दुनिया में जीती हैं. कहती है मुझ से गलती हो गई. शादी के बाद मुझे पता चला कि यह मेरे लिए परफैक्ट मैच नहीं है. यह भी कोई तर्क हुआ भला?’’ शिल्पी ने हाथों के साथसाथ आंखें भी नचाईं.

‘‘अब क्या बताएं, यह तो आजकल घरघर की कहानी हो गई. बहुओं को ज्यादा छूट दो, तो उन के पर निकल आते हैं. कस कर रखो तो उन्हें घुटन होने लगती है. सहनशीलता का तो नाम ही नहीं है इन की डिक्शनरी में. शादी की पहली सालगिरह से पहले ही बेटियां मायके आ जाती हैं और बहुएं ससुराल छोड़ जाती हैं. पता नहीं कहां जाएगी यह 21वीं सदी,’’ कहते हुए रमा ने बात खत्म की और घर लौट आई.

कहने को तो रमा ने बात खत्म कर दी थी लेकिन क्या सचमुच सिर्फ बात को खत्म कर देनेभर से ही मुद्दा भी खत्म हो जाता है? नहीं न, और तब तो बिलकुल भी नहीं जब घर में खुद अपनी ही जवान औलाद हो. रमा रास्तेभर अपने बेटे प्रथम के बारे में सोचती जा रही थी.

ये भी पढ़ें- एक डाली के तीन फूल : भाग 2

उस की उम्र भी तो विवाह लायक हो गई है. सीधे, सरल स्वभाव का प्रथम अपनी पढ़ाईलिखाई पूरी कर के अब एक एमएनसी में आकर्षक पैकेज पर नौकरी कर रहा है, बेंगलुरू में अपना फ्लैट ले कर अकेला रहता है. घर का इकलौता बेटा है. देखने में भी किसी फिल्मी हीरो सा डार्क, टौल और हैंडसम है. क्या ये सब खूबियां किसी की पसंद बनने के लिए काफी नहीं हैं? लेकिन फिर भी क्या गारंटी है कि मेरी होने वाली बहू प्रथम के साथ निबाह कर लेगी. रमा के विचार थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे..

अगले भाग में पढ़ें-  हकीकत से सामना होना अभी बाकी था.

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‘‘कुछ सुना आप ने, वो अपने मिश्रा जी हैं न… उन की बहू घर छोड़ कर चली गई,’’ औफिस से घर आते ही रमा ने चाय के साथ पति योगेश को यह सनसनीखेज खबर भी परोस दी.

‘‘कौन से मिश्रा जी? वो जो पिछली गली में रहते हैं, जिन के यहां हम भी गए थे शादी में… वो? लेकिन उस शादी के तो अभी 6 महीने भी नहीं हुए. आखिर ऐसा क्या हुआ होगा?’’ योगेश ने चाय के घूंट के साथ खबर को भी गटकने की कोशिश की, लेकिन खबर थी कि गले से नीचे ही नहीं उतर रही थी.

‘‘हांहां वही. बहू कहती है ससुराल में उसे घुटन होती है. ये आजकल की लड़कियां भी न… रिश्तों को तो कुछ समझती ही नहीं हैं. मानो रिश्ते न हुए नए फैशन के कपड़े हो गए. इधर जरा सा अनफिट हुए, उधर अलमारी से बाहर. एक हम थे जो कपड़ों को फटने तक रफू करकर के पहनते रहते थे, वैसे ही रिश्तों को भी लाख गिलेशिकवों के बावजूद निभाते रहते हैं,’’ रमा ने अपने जमाने को याद कर के ठंडी सांस ली.

‘‘लेकिन तुम्हीं ने तो एक बार बताया था कि मिश्राजी अपनी बहू को एकदम बेटी की तरह रखते हैं. न खानेपीने में पाबंदी, न घूमनेफिरने में रोकटोक. यहां तक कि अपनी बिटिया की तरह बहू को भी लेटैस्ट फैशन के कपड़े पहनने की छूट दे रखी है. फिर भला बहू को क्या परेशानी हो गई?’’

‘‘वही तो, मिश्रा जी ने पहले तो जरूरत से ज्यादा लाड़ कर के उसे सिर पर चढ़ा लिया, और देखो, अब वही लाड़ उस के सिर चढ़ कर बोलने लगा. इन बहुओं की लगाम तो कस कर ही रखनी चाहिए जैसी हमारे जमाने में रखी जाती थी. क्या मजाल कि मुंह से चूं भी निकल जाए,’’ रमा ने अपना समय याद किया.

‘‘तो तुम भी कहां खुश थीं मेरी मां से, हर वक्त रोना ही रहता था तुम्हारी जबान पर,’’ योगेश ने उस के खयालों के फूले हुए गुब्बारे को तंज की पिन चुभो कर फुस्स कर दिया.

ये भी पढ़ें- दुश्मन: सोम को अपना चेहरा ही क्यों बदसूरत लगने लगा ?

‘‘बसबस, रहने दो. तुम्हारी मां थीं ही हिटलर की कौर्बनकौपी. उन्हें तो हमेशा मुझ में कमियां ही नजर आती थीं,’’ कहते हुए रमा ने चाय के बरतन उठाए और बड़बड़ाते हुए रसोई की तरफ चल दी. योगेश ने भी टीवी चलाया और न्यूज देखने में व्यस्त हो गया. मिश्रापुराण पर एकबारगी विराम लग गया.

‘‘अरे रमा, सुना तुम ने, वह अपनी किटी ऐडमिन कांता है न, उस की बेटी अपने पति को छोड़ कर मायके वापस आ गई,’’ दूसरे दिन शाम को पार्क में पड़ोसिन शिल्पी ने उसे रोक कर अपने चटपटे अंदाज में यह ब्रेकिंग न्यूज दी तो रमा के दिमाग में एक बार फिर से मिश्राजी की बहू घूम गई.

‘‘क्या बात कर रही हो? उस ने तो लवमैरिज की थी न, फिर ऐसा क्या हुआ?’’ रमा ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘अरे, कुछ मत पूछो. ये आजकल की लड़कियां भी न. न जाने किस दुनिया में जीती हैं. कहती है मुझ से गलती हो गई. शादी के बाद मुझे पता चला कि यह मेरे लिए परफैक्ट मैच नहीं है. यह भी कोई तर्क हुआ भला?’’ शिल्पी ने हाथों के साथसाथ आंखें भी नचाईं.

‘‘अब क्या बताएं, यह तो आजकल घरघर की कहानी हो गई. बहुओं को ज्यादा छूट दो, तो उन के पर निकल आते हैं. कस कर रखो तो उन्हें घुटन होने लगती है. सहनशीलता का तो नाम ही नहीं है इन की डिक्शनरी में. शादी की पहली सालगिरह से पहले ही बेटियां मायके आ जाती हैं और बहुएं ससुराल छोड़ जाती हैं. पता नहीं कहां जाएगी यह 21वीं सदी,’’ कहते हुए रमा ने बात खत्म की और घर लौट आई.

कहने को तो रमा ने बात खत्म कर दी थी लेकिन क्या सचमुच सिर्फ बात को खत्म कर देनेभर से ही मुद्दा भी खत्म हो जाता है? नहीं न, और तब तो बिलकुल भी नहीं जब घर में खुद अपनी ही जवान औलाद हो. रमा रास्तेभर अपने बेटे प्रथम के बारे में सोचती जा रही थी.

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उस की उम्र भी तो विवाह लायक हो गई है. सीधे, सरल स्वभाव का प्रथम अपनी पढ़ाईलिखाई पूरी कर के अब एक एमएनसी में आकर्षक पैकेज पर नौकरी कर रहा है, बेंगलुरू में अपना फ्लैट ले कर अकेला रहता है. घर का इकलौता बेटा है. देखने में भी किसी फिल्मी हीरो सा डार्क, टौल और हैंडसम है. क्या ये सब खूबियां किसी की पसंद बनने के लिए काफी नहीं हैं? लेकिन फिर भी क्या गारंटी है कि मेरी होने वाली बहू प्रथम के साथ निबाह कर लेगी. रमा के विचार थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे..

अगले भाग में पढ़ें-  हकीकत से सामना होना अभी बाकी था.

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February 01, 2020 at 10:56AM

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विरोघ मेरा धर्म !

मैं तो प्रतिकार करूंगा. मैं लड़ता रहूंगा. मैं खंदक की लड़ाई लड़ूगा. मैं हार नहीं मानूंगा. जी हां! कुछ लोग ऐसे होते हैं, उन्हीं में एक आपका यह दास दासानुदास  रोहरानंद भी शुमार किया जा सकता है. देश में कैसी भी हवाएं बहें, मुझे मंजूर नहीं, मैं सदैव खिलाफत करूंगा. क्योंकि मेरा जन्म ही विरोध के लिए, प्रतिकार के लिए हुआ है.

चाहे देश में कोई भी प्रधानमंत्री हो, चाहे देश में किसी की भी सरकार हो, मैं तो विरोध करूंगा. पड़ोसी  कहेगा- सुबह जल्दी उठना स्वास्थ के लिए हितकर है, हर एक को, सुबह कम से कम पांच बजे उठे. मै इस सलाह का विरोध करूंगा. मैं कहूंगा- नहीं ! सुबह जल्दी उठ जाने से ठंड लगती है, इसलिए हम तो  आराम से उठेंगे. पड़ोसन  कहेगी- स्वच्छता अभियान चलेगा, हर शख्स स्वच्छता में योगदान करें. मैं कहूंगा- नहीं ! यह तो गलत बात है पड़ोसन!  पहले तुम  , अपने बंगले की साफ-सफाई पर ध्यान क्यों नहीं देती. झाड़ू पकड़कर दिखावा करती हो, यह नहीं चलेगा, मैं प्रतिकार करता हूं.

दरअसल, मेरा स्वभाव ही कुछ ऐसा है. मैं हर शै में विरोध ढूंढता हूं. अब सबसे बड़ा मसला देशभक्ति का लीजिए.

सरकार का, संविधान का घोषित संदेश है, हर देशवासी को, देश के प्रति भक्ति भाव से पगा होना चाहिए. आस पड़ोसियों से मोहब्बत  होनी चाहिए, मैं कहता हूं भई! देश भक्ति है क्या ! हमे तो आजादी  चाहिए!!फिर हम तो अपने खास संबधियो से भी, मन ही मन नफ़रत  रखना चाहते हैं हम उनसे बेपनाह ईर्ष्या और द्वेष का भाव रखते हैं.

ये भी पढ़ें- चौथापन : भाग 2

अब आप रोहरानंद की मनो भावना को समझ गए होंगे. धीरे-धीरे मेरे सभी मित्र, आस पड़ोसी भी मेरे मनोविज्ञान को समझ चुके हैं और मुझे अब गंभीरता से नहीं लेते. क्योंकि वे जानते हैं, वे जो भी कहेंगे, मैं 99 प्रतिशत उसका विरोध करूंगा और अपना पक्ष आंखें बंद करके उनके समक्ष परोस दूंगा. अब चाहे वह माने, अथवा नहीं. यह मेरी बला से.

हो सकता है, आप सोचें, यह कैसा आदमी है. मगर हे मित्र ! यह एक ऊंचा बहुत ऊंचा मनोविज्ञान है जो बेहद दुर्घर्ष श्रम से ही साधा जा सकता है. इसके लिए सतत जागृत रहना पड़ता है. हर कोई आम -ओ – खास रोहरानंद  नहीं बन सकता. ऐसा बनने के लिए आपमे  हम सा माद्दा होना चाहिए. विरोध करना, विरोध में बोलना और हर बात में बिना विचार के विरोध करके दिखाना बेहद कठिन है, जिसे असाधारण आदमी ही साध सकता है .

रोहरानंद  जैसे प्रखर विरोध रखने वाले, बहुत कम होते हैं. मगर इसके लाभ भी तो असंख्य है.अपने घुर विरोध के कारण मै हमेशा लोगों की दृष्टि में रहता हूं, लोग जानते हैं यह आदमी लीक से हटकर चलने वाला है तो उनकी दृष्टि में मेरे प्रति कुछ विशिष्ट सम्मान, कुछ विशिष्ट दुराव रहता है. वे मुझे साध कर चलने की कोशिश करते हैं उन्हें प्रतीत होता है अगरचे मैंने उनकी बात में हां में हां मिला दी, तो उनकी पौ बारह है.

मगर ऐसा हो नहीं सकता. मेरी तो फितरत ही विरोध की है जिसे जमीनी भाषा में टांग खींचना कहते हैं.अब कोई मुख्यमंत्री, चाहे लाख अच्छा करें, जनता चाहे लाख गुणगान करें हम तो अपना धर्म निभाएंगे. हम तो उनका विरोध ही करेंगे.क्योंकि यही मेरा धर्म है विरोध करना मेरी पहचान है अस्मिता है.

क्या कोई अपना धर्म छोड़ सकता है ? लोग जान देने को तैयार हो जाते हैं, मगर अपना धर्म नहीं छोड़ते, फिर भला मैं अपनी लीक, रास्ता क्यों छोडूंगा.देश दुनिया में मेरे जैसे बहुत ज्यादा नहीं होते मगर होते हैं हर जगह होते हैं गांव गली से लेकर दुनिया के विशाल नाट्य  मंच पर अपना प्रदर्शन इमानदारी से करते रहते हैं.

वस्तुतः जैसे समर्थक अपरिहार्य हैं, वैसे ही विरोध करने वाले भी निरापद  हैं.भले ही इन दिनों उनका सम्मान कमतर हो चला है, मगर इतिहास में उन्हें भुलाया बिसारा नहीं जा सकेगा.

कवि रहीम खान खान ने कहा है न- “निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाए, बिन पानी बिन साबुना, निर्मल करे सुहाय” तो विरोध की प्रतिष्ठा तो आदि से रही है अब चाहे आप माने या नहीं, यह दीगर बात है.

ये भी पढ़ें- अपने पराए… पराए अपने…

जैसे एक होता है मच्छर, उसका काम भिन भिन करना होता है अब आप चाहें तो मच्छर की भिन-भिन से सबक लेकर अपने को बचा ले या फिर अनदेखी करके कटवा ले. यह आपकी मर्जी है. मच्छर का काम काटना है, वह मौका ढूंढता है. वैसे ही, मैं विरोध का मौका ढूंढता हूं मैं ईमानदारी से आपके, सरकार की एक-एक कदम पर तीव्र दृष्टि रखता हूं और फिर मौका मिलते ही विरोध शुरू अपना काम शुरू कर देता हूं. परसाई जी ने ‘निंदा रस’ निबंध लिखा है. निदां रस का कर्ता और रसिक मेरी भाव भूमि से जुड़ा चीज है. मैं तो अंतिम समय तक अपने विरोध की, खंदक की लड़ाई में लगा हुआ हूं.  निरपेक्ष भाव से अगर कहीं दिख जाऊं, आपके आसपास, तो  सहजता से  नहीं लेना यही गुजारिश है.

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मैं तो प्रतिकार करूंगा. मैं लड़ता रहूंगा. मैं खंदक की लड़ाई लड़ूगा. मैं हार नहीं मानूंगा. जी हां! कुछ लोग ऐसे होते हैं, उन्हीं में एक आपका यह दास दासानुदास  रोहरानंद भी शुमार किया जा सकता है. देश में कैसी भी हवाएं बहें, मुझे मंजूर नहीं, मैं सदैव खिलाफत करूंगा. क्योंकि मेरा जन्म ही विरोध के लिए, प्रतिकार के लिए हुआ है.

चाहे देश में कोई भी प्रधानमंत्री हो, चाहे देश में किसी की भी सरकार हो, मैं तो विरोध करूंगा. पड़ोसी  कहेगा- सुबह जल्दी उठना स्वास्थ के लिए हितकर है, हर एक को, सुबह कम से कम पांच बजे उठे. मै इस सलाह का विरोध करूंगा. मैं कहूंगा- नहीं ! सुबह जल्दी उठ जाने से ठंड लगती है, इसलिए हम तो  आराम से उठेंगे. पड़ोसन  कहेगी- स्वच्छता अभियान चलेगा, हर शख्स स्वच्छता में योगदान करें. मैं कहूंगा- नहीं ! यह तो गलत बात है पड़ोसन!  पहले तुम  , अपने बंगले की साफ-सफाई पर ध्यान क्यों नहीं देती. झाड़ू पकड़कर दिखावा करती हो, यह नहीं चलेगा, मैं प्रतिकार करता हूं.

दरअसल, मेरा स्वभाव ही कुछ ऐसा है. मैं हर शै में विरोध ढूंढता हूं. अब सबसे बड़ा मसला देशभक्ति का लीजिए.

सरकार का, संविधान का घोषित संदेश है, हर देशवासी को, देश के प्रति भक्ति भाव से पगा होना चाहिए. आस पड़ोसियों से मोहब्बत  होनी चाहिए, मैं कहता हूं भई! देश भक्ति है क्या ! हमे तो आजादी  चाहिए!!फिर हम तो अपने खास संबधियो से भी, मन ही मन नफ़रत  रखना चाहते हैं हम उनसे बेपनाह ईर्ष्या और द्वेष का भाव रखते हैं.

ये भी पढ़ें- चौथापन : भाग 2

अब आप रोहरानंद की मनो भावना को समझ गए होंगे. धीरे-धीरे मेरे सभी मित्र, आस पड़ोसी भी मेरे मनोविज्ञान को समझ चुके हैं और मुझे अब गंभीरता से नहीं लेते. क्योंकि वे जानते हैं, वे जो भी कहेंगे, मैं 99 प्रतिशत उसका विरोध करूंगा और अपना पक्ष आंखें बंद करके उनके समक्ष परोस दूंगा. अब चाहे वह माने, अथवा नहीं. यह मेरी बला से.

हो सकता है, आप सोचें, यह कैसा आदमी है. मगर हे मित्र ! यह एक ऊंचा बहुत ऊंचा मनोविज्ञान है जो बेहद दुर्घर्ष श्रम से ही साधा जा सकता है. इसके लिए सतत जागृत रहना पड़ता है. हर कोई आम -ओ – खास रोहरानंद  नहीं बन सकता. ऐसा बनने के लिए आपमे  हम सा माद्दा होना चाहिए. विरोध करना, विरोध में बोलना और हर बात में बिना विचार के विरोध करके दिखाना बेहद कठिन है, जिसे असाधारण आदमी ही साध सकता है .

रोहरानंद  जैसे प्रखर विरोध रखने वाले, बहुत कम होते हैं. मगर इसके लाभ भी तो असंख्य है.अपने घुर विरोध के कारण मै हमेशा लोगों की दृष्टि में रहता हूं, लोग जानते हैं यह आदमी लीक से हटकर चलने वाला है तो उनकी दृष्टि में मेरे प्रति कुछ विशिष्ट सम्मान, कुछ विशिष्ट दुराव रहता है. वे मुझे साध कर चलने की कोशिश करते हैं उन्हें प्रतीत होता है अगरचे मैंने उनकी बात में हां में हां मिला दी, तो उनकी पौ बारह है.

मगर ऐसा हो नहीं सकता. मेरी तो फितरत ही विरोध की है जिसे जमीनी भाषा में टांग खींचना कहते हैं.अब कोई मुख्यमंत्री, चाहे लाख अच्छा करें, जनता चाहे लाख गुणगान करें हम तो अपना धर्म निभाएंगे. हम तो उनका विरोध ही करेंगे.क्योंकि यही मेरा धर्म है विरोध करना मेरी पहचान है अस्मिता है.

क्या कोई अपना धर्म छोड़ सकता है ? लोग जान देने को तैयार हो जाते हैं, मगर अपना धर्म नहीं छोड़ते, फिर भला मैं अपनी लीक, रास्ता क्यों छोडूंगा.देश दुनिया में मेरे जैसे बहुत ज्यादा नहीं होते मगर होते हैं हर जगह होते हैं गांव गली से लेकर दुनिया के विशाल नाट्य  मंच पर अपना प्रदर्शन इमानदारी से करते रहते हैं.

वस्तुतः जैसे समर्थक अपरिहार्य हैं, वैसे ही विरोध करने वाले भी निरापद  हैं.भले ही इन दिनों उनका सम्मान कमतर हो चला है, मगर इतिहास में उन्हें भुलाया बिसारा नहीं जा सकेगा.

कवि रहीम खान खान ने कहा है न- “निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाए, बिन पानी बिन साबुना, निर्मल करे सुहाय” तो विरोध की प्रतिष्ठा तो आदि से रही है अब चाहे आप माने या नहीं, यह दीगर बात है.

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जैसे एक होता है मच्छर, उसका काम भिन भिन करना होता है अब आप चाहें तो मच्छर की भिन-भिन से सबक लेकर अपने को बचा ले या फिर अनदेखी करके कटवा ले. यह आपकी मर्जी है. मच्छर का काम काटना है, वह मौका ढूंढता है. वैसे ही, मैं विरोध का मौका ढूंढता हूं मैं ईमानदारी से आपके, सरकार की एक-एक कदम पर तीव्र दृष्टि रखता हूं और फिर मौका मिलते ही विरोध शुरू अपना काम शुरू कर देता हूं. परसाई जी ने ‘निंदा रस’ निबंध लिखा है. निदां रस का कर्ता और रसिक मेरी भाव भूमि से जुड़ा चीज है. मैं तो अंतिम समय तक अपने विरोध की, खंदक की लड़ाई में लगा हुआ हूं.  निरपेक्ष भाव से अगर कहीं दिख जाऊं, आपके आसपास, तो  सहजता से  नहीं लेना यही गुजारिश है.

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February 01, 2020 at 10:39AM

गृहस्थी की डोर

मनीष और शोभना ने बड़े जोश से अपनी गृहस्थी की शुरुआत की थी लेकिन जिस तरह नींव कमजोर होती है तो इमारत मजबूत नहीं रहती ठीक उसी तरह मनीष और शोभना की गृहस्थी चरमराने लगी. प्रस्तुत है एन.के. सोमानी की कहानी.

मनीष उस समय 27 साल का था. उस ने अपनी शिक्षा पूरी कर मुंबई के उपनगर शिवड़ी स्थित एक काल सेंटर से अपने कैरियर की शुरुआत की, जहां का ज्यादातर काम रात को ही होता था. अमेरिका के ग्राहकों का जब दिन होता तो भारत की रात, अत: दिनचर्या अब रातचर्या में बदल गई.

मनीष एक खातेपीते परिवार का बेटा था. सातरस्ते पर उस का परिवार एक ऊंची इमारत में रहता था. पिता का मंगलदास मार्केट में कपड़े का थोक व्यापार था. मनीष की उस पुरानी गंदी गलियों में स्थित मार्केट में पुश्तैनी काम करने में कोई रुचि नहीं थी. परिवार के मना करने पर भी आई.टी. क्षेत्र में नौकरी शुरू की, जो रात को 9 बजे से सुबह 8 बजे तक की ड्यूटी के रूप में करनी पड़ती. खानापीना, सोनाउठना सभी उलटे हो गए थे.

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जवानी व नई नौकरी का जोश, सभी साथी लड़केलड़कियां उसी की उम्र के थे. दफ्तर में ही कैंटीन का खाना, व्यायाम का जिमनेजियम व आराम करने के लिए रूम थे. उस कमरे में जोरजोर से पश्चिमी तर्ज व ताल पर संगीत चीखता रहता. सभी युवा काम से ऊबने पर थोड़ी देर आ कर नाच लेते. साथ ही सिगरेट के साथ एक्स्टेसी की गोली का भी बियर के साथ प्रचलन था, जिस से होश, बदहोश, मदहोश का सिलसिला चलता रहता.

शोभना एक आम मध्यम आय वाले परिवार की लड़की थी. हैदराबाद से शिक्षा पूरी कर मुंबई आई थी और मनीष के ही काल सेंटर में काम करती थी. वह 3 अन्य सहेलियों के साथ एक छोटे से फ्लैट में रहती थी. फ्लैट का किराया व बिजलीपानी का जो भी खर्च आता वे तीनों सहेलियां आपस में बांट लेतीं. भोजन दोनों समय बाहर ही होता. एक समय तो कंपनी की कैंटीन में और दिन में कहीं भी सुविधानुसार.

रात को 2-3 बजे के बीच मनीष व शोभना को डिनर बे्रक व आराम का समय मिलता. डिनर तो पिज्जा या बर्गर के रूप में होता, बाकी समय डांस में गुजरता. थोड़े ही दिनों में दफ्तर के एक छोटे बूथ में दोनों का यौन संबंध हो गया. मित्रों के बीच उन के प्रेम के चर्चे आम होने लगे तो साल भर बीतने पर दोनों का विवाह भी हो गया, जिस में उन के काल सेंटर के अधिकांश सहकर्मी व स्टाफ आया था. विवाह उपनगर के एक हालीडे रिजोर्ट में हुआ. उस दिन सभी वहां से नशे में धुत हो कर निकले थे.

दूसरे साल मनीष ने काल सेंटर की नौकरी से इस्तीफा दे कर अपने एक मित्र के छोटे से दफ्तर में एक मेज लगवा कर एक्सपोर्ट का काम शुरू किया. उन दिनों रेडीमेड कपड़ों की पश्चिमी देशों में काफी मांग थी. अत: नियमित आर्डर के मुताबिक वह कंटेनर से कोच्चि से माल भिजवाने लगा. उधर शोभना उसी जगह काम करती रही थी. अब उन दोनों की दिनचर्या में इतना अंतराल आ गया कि वे एक जगह रहते हुए भी हफ्तों तक अपने दुखसुख की बात नहीं कर पाते, गपशप की तो बात ही क्या थी. दोनों ही को फिलहाल बच्चे नहीं चाहिए थे, अत: शोभना इस की व्यवस्था स्वयं रखती. इस के अलावा घर की साफसफाई तो दूर, फ्लैट में कपड़े भी ठीक से नहीं रखे जाते और वे चारों ओर बिखरे रहते. मनीष शोभना के भरोसे रहता और उसे काम से आने के बाद बिलकुल भी सुध न रहती. पलंग पर आ कर धम्म से पड़ जाती थी.

मनीष का रहनसहन व संगत अब ऐसी हो गई थी कि उसे हर दूसरे दिन पार्टियों में जाना पड़ता था जहां रात भर पी कर नाचना और उस पर से ड्रग लेना पड़ता था. इन सब में और दूसरी औरतों के संग शारीरिक संबंध बनाने में इतना समय व रुपए खर्च होने लगे कि उस के अच्छेभले व्यवसाय से अब खर्च पूरा नहीं पड़ता.

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किसी विशेष दिन शोभना छुट्टी ले कर मनीष के साथ रहना चाहती तो वह उस से रूखा व्यवहार करता. साथ में रहना या रेस्तरां में जाना उसे गवारा न होता. शोभना मन मार कर अपने काम में लगी रहती.

यद्यपि शोभना ने कई बार मनीष को बातोंबातों में सावधान रहने व पीने, ड्रग  आदि से दूर रहने के संकेत दिए थे पर वह झुंझला कर सुनीअनसुनी कर देता, ‘‘तुम क्या जानो कमाई कैसे की जाती है. नेटवर्क तो बनाना ही पड़ता है.’’

एक बार मनीष ने एक कंटेनर में फटेपुराने चिथड़े भर कर रेडीमेड के नाम से दस्तावेज बना कर बैंक से रकम ले ली, लेकिन जब पोर्ट के एक जूनियर अधिकारी ने कंटेनर खोल कर तलाशी ली तो मनीष के होश उड़ गए. कोर्ट में केस न दर्ज हो इस के लिए उस ने 15 लाख में मामला तय कर अपना पीछा छुड़ाया, लेकिन उस के लिए उसे कोच्चि का अपना फ्लैट बेचना पड़ा था. वहां से बैंक को बिना बताए वापस मुंबई शोभना के साथ आ कर रहने लगा. बैंक का अकाउंट भी गलत बयानी के आधार पर खोला था. अत: उन लोगों ने एफ.आई.आर. दर्ज करा कर फाइल बंद कर दी.

इस बीच मनीष की जीवनशैली के कारण उस के लिवर ने धीरेधीरे काम करना बंद कर दिया. खानापीना व किडनी के ठीक न चलने से डाक्टरों ने उसे सलाह दी कि लिवर ट्रांसप्लांट के बिना अब कुछ नहीं हो सकता. इस बीच 4-6 महीने मनीष आयुर्वेदिक दवाआें के चक्कर में भी पड़ा रहा. लेकिन कोई फायदा न होता देख कर आखिर शोभना से उसे बात करनी पड़ी कि लिवर नया लगा कर पूरी प्रक्रिया में 3-4 महीने लगेंगे, 12-15 लाख का खर्च है. पर सब से बड़ी दुविधा है नया लिवर मिलने की.

‘‘मैं ने आप से कितनी बार मना किया था कि खानेपीने व ड्रग के मामले में सावधानी बरतो पर आप मेरी सुनें तब न.’’

‘‘अब सुनासुना कर छलनी करने से क्या मैं ठीक हो जाऊंगा?’’

सारी परिस्थिति समझ कर शोभना ने मुंबई के जे.जे. अस्पताल में जा कर अपने लिवर की जांच कराई. उस का लिवर ऐसा निकला जिसे मनीष के शरीर ने मंजूर कर लिया. अपने गहनेजेवर व फ्लैट को गिरवी रख एवं बाकी राशि मनीष के परिवार से जुटा कर दोनों अस्पताल में इस बड़ी शल्यक्रिया के लिए भरती हो गए.

ये भी पढ़ें- रैना : भाग 1

मनीष को 6 महीने लगे पूरी तरह ठीक होने में. उस ने अब अपनी जीवन पद्धति को पूरी तरह से बदलने व शोभना के साथ संतोषपूर्वक जीवन बिताने का निश्चय कर लिया है. दोनों अब बच्चे की सोचने लगे हैं, ताकि उनकी गलती की सजा बच्चों को न मिले.

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मनीष और शोभना ने बड़े जोश से अपनी गृहस्थी की शुरुआत की थी लेकिन जिस तरह नींव कमजोर होती है तो इमारत मजबूत नहीं रहती ठीक उसी तरह मनीष और शोभना की गृहस्थी चरमराने लगी. प्रस्तुत है एन.के. सोमानी की कहानी.

मनीष उस समय 27 साल का था. उस ने अपनी शिक्षा पूरी कर मुंबई के उपनगर शिवड़ी स्थित एक काल सेंटर से अपने कैरियर की शुरुआत की, जहां का ज्यादातर काम रात को ही होता था. अमेरिका के ग्राहकों का जब दिन होता तो भारत की रात, अत: दिनचर्या अब रातचर्या में बदल गई.

मनीष एक खातेपीते परिवार का बेटा था. सातरस्ते पर उस का परिवार एक ऊंची इमारत में रहता था. पिता का मंगलदास मार्केट में कपड़े का थोक व्यापार था. मनीष की उस पुरानी गंदी गलियों में स्थित मार्केट में पुश्तैनी काम करने में कोई रुचि नहीं थी. परिवार के मना करने पर भी आई.टी. क्षेत्र में नौकरी शुरू की, जो रात को 9 बजे से सुबह 8 बजे तक की ड्यूटी के रूप में करनी पड़ती. खानापीना, सोनाउठना सभी उलटे हो गए थे.

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जवानी व नई नौकरी का जोश, सभी साथी लड़केलड़कियां उसी की उम्र के थे. दफ्तर में ही कैंटीन का खाना, व्यायाम का जिमनेजियम व आराम करने के लिए रूम थे. उस कमरे में जोरजोर से पश्चिमी तर्ज व ताल पर संगीत चीखता रहता. सभी युवा काम से ऊबने पर थोड़ी देर आ कर नाच लेते. साथ ही सिगरेट के साथ एक्स्टेसी की गोली का भी बियर के साथ प्रचलन था, जिस से होश, बदहोश, मदहोश का सिलसिला चलता रहता.

शोभना एक आम मध्यम आय वाले परिवार की लड़की थी. हैदराबाद से शिक्षा पूरी कर मुंबई आई थी और मनीष के ही काल सेंटर में काम करती थी. वह 3 अन्य सहेलियों के साथ एक छोटे से फ्लैट में रहती थी. फ्लैट का किराया व बिजलीपानी का जो भी खर्च आता वे तीनों सहेलियां आपस में बांट लेतीं. भोजन दोनों समय बाहर ही होता. एक समय तो कंपनी की कैंटीन में और दिन में कहीं भी सुविधानुसार.

रात को 2-3 बजे के बीच मनीष व शोभना को डिनर बे्रक व आराम का समय मिलता. डिनर तो पिज्जा या बर्गर के रूप में होता, बाकी समय डांस में गुजरता. थोड़े ही दिनों में दफ्तर के एक छोटे बूथ में दोनों का यौन संबंध हो गया. मित्रों के बीच उन के प्रेम के चर्चे आम होने लगे तो साल भर बीतने पर दोनों का विवाह भी हो गया, जिस में उन के काल सेंटर के अधिकांश सहकर्मी व स्टाफ आया था. विवाह उपनगर के एक हालीडे रिजोर्ट में हुआ. उस दिन सभी वहां से नशे में धुत हो कर निकले थे.

दूसरे साल मनीष ने काल सेंटर की नौकरी से इस्तीफा दे कर अपने एक मित्र के छोटे से दफ्तर में एक मेज लगवा कर एक्सपोर्ट का काम शुरू किया. उन दिनों रेडीमेड कपड़ों की पश्चिमी देशों में काफी मांग थी. अत: नियमित आर्डर के मुताबिक वह कंटेनर से कोच्चि से माल भिजवाने लगा. उधर शोभना उसी जगह काम करती रही थी. अब उन दोनों की दिनचर्या में इतना अंतराल आ गया कि वे एक जगह रहते हुए भी हफ्तों तक अपने दुखसुख की बात नहीं कर पाते, गपशप की तो बात ही क्या थी. दोनों ही को फिलहाल बच्चे नहीं चाहिए थे, अत: शोभना इस की व्यवस्था स्वयं रखती. इस के अलावा घर की साफसफाई तो दूर, फ्लैट में कपड़े भी ठीक से नहीं रखे जाते और वे चारों ओर बिखरे रहते. मनीष शोभना के भरोसे रहता और उसे काम से आने के बाद बिलकुल भी सुध न रहती. पलंग पर आ कर धम्म से पड़ जाती थी.

मनीष का रहनसहन व संगत अब ऐसी हो गई थी कि उसे हर दूसरे दिन पार्टियों में जाना पड़ता था जहां रात भर पी कर नाचना और उस पर से ड्रग लेना पड़ता था. इन सब में और दूसरी औरतों के संग शारीरिक संबंध बनाने में इतना समय व रुपए खर्च होने लगे कि उस के अच्छेभले व्यवसाय से अब खर्च पूरा नहीं पड़ता.

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किसी विशेष दिन शोभना छुट्टी ले कर मनीष के साथ रहना चाहती तो वह उस से रूखा व्यवहार करता. साथ में रहना या रेस्तरां में जाना उसे गवारा न होता. शोभना मन मार कर अपने काम में लगी रहती.

यद्यपि शोभना ने कई बार मनीष को बातोंबातों में सावधान रहने व पीने, ड्रग  आदि से दूर रहने के संकेत दिए थे पर वह झुंझला कर सुनीअनसुनी कर देता, ‘‘तुम क्या जानो कमाई कैसे की जाती है. नेटवर्क तो बनाना ही पड़ता है.’’

एक बार मनीष ने एक कंटेनर में फटेपुराने चिथड़े भर कर रेडीमेड के नाम से दस्तावेज बना कर बैंक से रकम ले ली, लेकिन जब पोर्ट के एक जूनियर अधिकारी ने कंटेनर खोल कर तलाशी ली तो मनीष के होश उड़ गए. कोर्ट में केस न दर्ज हो इस के लिए उस ने 15 लाख में मामला तय कर अपना पीछा छुड़ाया, लेकिन उस के लिए उसे कोच्चि का अपना फ्लैट बेचना पड़ा था. वहां से बैंक को बिना बताए वापस मुंबई शोभना के साथ आ कर रहने लगा. बैंक का अकाउंट भी गलत बयानी के आधार पर खोला था. अत: उन लोगों ने एफ.आई.आर. दर्ज करा कर फाइल बंद कर दी.

इस बीच मनीष की जीवनशैली के कारण उस के लिवर ने धीरेधीरे काम करना बंद कर दिया. खानापीना व किडनी के ठीक न चलने से डाक्टरों ने उसे सलाह दी कि लिवर ट्रांसप्लांट के बिना अब कुछ नहीं हो सकता. इस बीच 4-6 महीने मनीष आयुर्वेदिक दवाआें के चक्कर में भी पड़ा रहा. लेकिन कोई फायदा न होता देख कर आखिर शोभना से उसे बात करनी पड़ी कि लिवर नया लगा कर पूरी प्रक्रिया में 3-4 महीने लगेंगे, 12-15 लाख का खर्च है. पर सब से बड़ी दुविधा है नया लिवर मिलने की.

‘‘मैं ने आप से कितनी बार मना किया था कि खानेपीने व ड्रग के मामले में सावधानी बरतो पर आप मेरी सुनें तब न.’’

‘‘अब सुनासुना कर छलनी करने से क्या मैं ठीक हो जाऊंगा?’’

सारी परिस्थिति समझ कर शोभना ने मुंबई के जे.जे. अस्पताल में जा कर अपने लिवर की जांच कराई. उस का लिवर ऐसा निकला जिसे मनीष के शरीर ने मंजूर कर लिया. अपने गहनेजेवर व फ्लैट को गिरवी रख एवं बाकी राशि मनीष के परिवार से जुटा कर दोनों अस्पताल में इस बड़ी शल्यक्रिया के लिए भरती हो गए.

ये भी पढ़ें- रैना : भाग 1

मनीष को 6 महीने लगे पूरी तरह ठीक होने में. उस ने अब अपनी जीवन पद्धति को पूरी तरह से बदलने व शोभना के साथ संतोषपूर्वक जीवन बिताने का निश्चय कर लिया है. दोनों अब बच्चे की सोचने लगे हैं, ताकि उनकी गलती की सजा बच्चों को न मिले.

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February 01, 2020 at 10:39AM

आजकल की लड़कियां

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February 01, 2020 at 10:39AM

आजकल की लड़कियां : भाग 3

खैर, जब प्रथम की शादी की बात नातेरिश्तेदारों में वायरल हुई तो हर रोज कहीं न कहीं से लड़कियों के फोटो और बायोडाटा आने लगे. हर शाम पहले रमा उन्हें देखतीपरखती, फिर रमा की चुनी हुई लिस्ट पर योगेश की सहमति की मुहर लगती और फिर फाइनल अप्रूवल के लिए सारा डाटा प्रथम को भेज दिया जाता.

महीनों की कवायद के बाद आखिर सर्वसम्मति से सलोनी के नाम पर अंतिम मुहर लग गई. 5 फुट, 4 इंच लंबी, रंग गोरा, कालेघने बाल, और आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी सलोनी यथा नाम यथा गुण, एक ही नजर में सब को पसंद आ गई. ऊपर से एमटैक की डिगरी सोने पर सुहागा. जिस ने सुना उसी ने प्रथम को उत्तम चयन के लिए बधाई दी.

रमा खुश थी, लेकिन एक डर अभी भी उसे भीतर खाए जा रहा था. डर यह कि कहीं सलोनी भी सोने की परत चढ़ा हुआ पीतल तो नहीं है. आखिर यह भी आज के जमाने की ही लड़की है न, क्या शादी को निबाह लेगी?

सगाई के 4 महीने बाद शादी होना तय हुआ. इन 4 महीनों में रमा ने चाहे कपड़े हों या गहने, शादी का जोड़ा हो या हनीमून डैस्टिनेशन, सबकुछ सलोनी की पसंद को ध्यान में रखते हुए ही फाइनल किया. रमा सभी के अनुभवों से सबक लेते हुए बहुत ही सेफ साइड चल रही थी.

धूमधाम से शादी हो गई. कुछ रमा को, तो कुछ सलोनी को हिदायतेंनसीहतें देतेदेते मेहमानों से भरा हुआ घर धीरेधीरे खाली हो गया. प्रथम और सलोनी अपने हनीमून से भी लौट आए. दोनों ही खुश और संतुष्ट लग रहे थे. रमा ने चैन की सांस ली. अब तक तो सबकुछ किसी सुंदर सपने सा चल रहा था. हकीकत से सामना होना अभी बाकी था.

शादी के बाद प्रथम और सलोनी का बेंगलुरु जाना तो तय ही था. रमा पैकिंग में उन की मदद कर रही थी. हालांकि वह चाहती थी कि अभी कुछ दिन और सलोनी को लाड़ कर ले लेकिन दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है. आसपास के उदाहरण देखते हुए रमा कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी. वह नहीं चाहती थी कि उस की किसी भी बात से सलोनी का मूड खराब हो और उसे प्रथम से अपने शादी के फैसले पर पछतावा हो.

ये भी पढ़ें- सीप में बंद मोती : भाग 1

‘‘लो, अब मैडम की नई जिद सुनो, कहती हैं कि मम्मीजी के साथ रहना है. अरे भई, जब मम्मी के साथ ही रहना था तो इस बंदे से शादी ही क्यों की थी?’’ प्रथम ने डाइनिंग टेबल पर सलोनी को छेड़ा, तो रमा आश्चर्य से सलोनी की तरफ देखने लगी. योगेश ने भी चौंक कर देखा.

‘पता नहीं वहां जा कर कौन सा तिरिया चरितर दिखाएगी,’ रमा आशंकित हो गई. उस ने बेंगलुरु जाने में बहुत आनाकानी की, लेकिन बहुमत कहो या बहूमत, उस की एक न चली और चारों सदस्य बेंगलुरु आ गए.

पढ़ाई के सिलसिले में कभी होस्टल, तो कभी पीजी में रही सलोनी को घर में रहने के तौरतरीके नहीं आते थे. पूरा घर होस्टल की तरह ही बिखरा रहता था. घर का बुरा हाल देख कर रमा को बहुत कोफ्त होती थी. बाकी घर तो रमा सहेज लेती थी, लेकिन सलोनी की चीजों को हाथ लगाने की उस की हिम्मत नहीं होती थी. इस बात से डरती वह बहू को कुछ बोल नहीं पाती थी कि कहीं उसे बुरा न लग जाए और वह ससुराल छोड़ कर मायके जाने की न सोचने लगे.

ये भी पढ़ें- एक नई पहल : भाग 1

साफसफाई की तो छोडि़ए, रसोई में भी सलोनी दक्ष नहीं थी. शौक कहो या मजबूरी, आएदिन उसे बाहर से पिज्जाबर्गर और्डर करने की आदत थी. सो, यहां भी रोज बाहर से खाना आने लगा.

‘उफ्फ, यह रोजरोज बाहर का खाना. जेब और पेट दोनों का भट्ठा बिठा देगा. लेकिन सलोनी को समझ आए तब न. मैं ने कुछ कह दिया तो खामखां बात का बतंगड़ बन जाएगा,’ यह सोच कर रमा चुप्पी साध लेती.

रमा सलोनी से मन ही मन भयभीत सी रहती थी. घर में सौहार्दपूर्ण वातावरण होते हुए भी एक अनजानी सी दूरी उस ने अपने दोनों के बीच बना रखी थी. सहमीसहमी सी रमा ने खुद को एक खोल में बंद कर के अपने चारों तरफ लक्ष्मणरेखा खींच ली.

रमा ने खुद को तो ऐडजस्ट कर लिया लेकिन पेट तो आखिर पेट ही था. अधिक सहन नहीं कर पाया और एक दिन योगेश की तबीयत खराब हो गई.

‘‘क्या रमा, तुम भी, बहू के आते ही फिल्मों वाली सास बन गईं. एकदम आलसी हो गई हो, आलसी. अरे भई, जरा रसोई में भी झांक लिया करो, यह रोजरोज का मैदामिर्च मेरा पेट अब बरदाश्त नहीं कर रहा. बाहर का खातेखाते मुझे होटल की सी फील आने लगी. अब कुछ घरवाली फीलिंग आने दो,’’ योगेश ने मजाकिया लहजे में कहा.

‘‘अगर सलोनी को बुरा लग गया तो, कहीं वह घर छोड़ कर चली गई तो? जानते हो न, आजकल की लड़कियां कुछ भी टौलरेट नहीं करतीं. न बाबा न, मैं कोई रिस्क नहीं लूंगी. तुम थोड़ा सा बरदाश्त कर लो. अपने घर चल कर सब तुम्हारे हिसाब से बना दूंगी. बरदाश्त न हो, तो कुछ दिन एसिडिटी या हाजमे की दवाएं ले लो,’’ योगेश को समझाती रमा कमरे से बाहर निकल गई. तभी वह प्रथम के कमरे से आती सलोनी की आवाज सुन कर ठिठक गई. सलोनी किसी से फोन पर बात कर रही थी.

‘‘समझने की कोशिश करो, इस तरह तो यहां मेरा दम घुट जाएगा. यह माहौल ज्यादा दिन रहा तो मैं बरदाश्त नहीं कर पाऊंगी.’’ सलोनी हालांकि बहुत धीरेधीरे बोल रही थी लेकिन रमा का तो रोमरोम कान बना हुआ था. सलोनी की बातें सुन कर उसे चक्कर सा आ गया. वह वहीं लौबी में कुरसी पकड़ कर बैठ गई. उन के परिवार की हंसी उड़ाते नातेरिश्तेदार, चटखारे लेते पड़ोसी, उदास, नर्वस सा प्रथम, मुंह छिपाते योगेश, और भी न जाने कितनी ही तसवीरें उस की आंखों के सामने घूमने लगीं.

नहींनहीं, वह इस तरह की स्थिति नहीं आने देगी. अपने परिवार की इज्जत और प्रथम की आने वाली जिंदगी के लिए सलोनी के पांव पकड़ लेगी, लेकिन उसे यह घर छोड़ कर नहीं जाने देगी. रमा ने निश्चय किया और किसी तरह उठ कर सलोनी के कमरे की तरफ बढ़ गई.

‘‘सलोनी बिटिया, मैं तो तुम्हें कुछ कहती भी नहीं, तुम पर किसी तरह की कोई पाबंदी भी हम ने नहीं लगाई. देखो, अगर फिर भी तुम्हें मेरी किसी बात से तकलीफ हुई है तो प्लीज, तुम प्रथम को कोई सजा मत देना. वह तुम से बहुत प्यार करता है. तुम जैसे चाहो वैसे रहो, लेकिन घर छोड़ कर जाने की बात मत सोचना. हम कल ही यहां से चले जाएंगे,’’ रमा सलोनी के आगे गिड़गिड़ा कर बोली.

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सलोनी हतप्रभ सी उसे देख रही थी. पहले तो उसे कुछ भी समझ में नहीं आया, फिर अचानक उस का ध्यान अपने हाथ में पकड़े मोबाइल की तरफ गया और उसे अपनी मां से होने वाली बातचीत याद हो आई. सारा माजरा समझ में आते ही सलोनी की हंसी छूट गई. वह खिलखिलाते हुए रमा के गले से झूल गई.

‘‘ओह मां, आप कितनी क्यूट हो, अब तक मुझ से इसलिए दूरी बनाए हुए थीं कि कहीं मुझे कुछ बुरा न लग जाए, और मैं नासमझ इसे आप का ऐटीट्यूड समझ रही थी. मां, यह सच है कि हम आजकल की लड़कियां अपने अधिकारों के लिए जागरूक हैं. हम ज्यादती बरदाश्त नहीं करतीं, तो किसी पर ज्यादती करती भी नहीं. परिवार में रहना हमें भी अच्छा लगता है, लेकिन अपने स्वाभिमान की कीमत पर नहीं. शायद आप ने भी आजकल की लड़कियों को ठीक से नहीं समझा. लेकिन इतना पढ़लिख कर आखिर में भी तो बौड़म ही रही न. मैं भी आप को कहां समझ पाई,’’ सलोनी ने प्यार से रमा के गाल खींच लिए.

‘‘लो, कर लो बात. भई, यह तो गजब ही हुआ. सास अपनी बहू से डर रही थी और बहू अपनी सास से. अरे रमा रानी, रिश्तों के समीकरण गणित की तरह नहीं होते कि 2 और 2 हमेशा 4 ही होंगे. यहां 2 और 2, 22 भी हो सकते हैं. जिस तरह से पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं उसी तरह से यह भी जरूरी नहीं कि जो सब के साथ हुआ वही तुम्हारे साथ भी हो.  समझीं तुम,’’ यह कह कर योगेश ने ठहाका लगाया.

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‘‘जी पापा, आप एकदम सही कह रहे हैं. चलिए, आज हम सब आप की पसंद की सब्जियां ले कर आते हैं. यों तो यूट्यूब पर कुछ भी बनाना सीखा जा सकता है लेकिन जो रैसिपी मां के हाथ की हो उस का भला किसी से क्या मुकाबला. मां, मुझे भी खाना बनाना सीखना है, सिखाओगी न?’ सलोनी ने रमा के गले में बांहें डाल दीं.

‘‘क्यों नहीं, जरूर,’’ रमा मुसकरा दी.

इस मुसकराहट में डर की परछाईं बिलकुल भी नहीं थी.

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खैर, जब प्रथम की शादी की बात नातेरिश्तेदारों में वायरल हुई तो हर रोज कहीं न कहीं से लड़कियों के फोटो और बायोडाटा आने लगे. हर शाम पहले रमा उन्हें देखतीपरखती, फिर रमा की चुनी हुई लिस्ट पर योगेश की सहमति की मुहर लगती और फिर फाइनल अप्रूवल के लिए सारा डाटा प्रथम को भेज दिया जाता.

महीनों की कवायद के बाद आखिर सर्वसम्मति से सलोनी के नाम पर अंतिम मुहर लग गई. 5 फुट, 4 इंच लंबी, रंग गोरा, कालेघने बाल, और आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी सलोनी यथा नाम यथा गुण, एक ही नजर में सब को पसंद आ गई. ऊपर से एमटैक की डिगरी सोने पर सुहागा. जिस ने सुना उसी ने प्रथम को उत्तम चयन के लिए बधाई दी.

रमा खुश थी, लेकिन एक डर अभी भी उसे भीतर खाए जा रहा था. डर यह कि कहीं सलोनी भी सोने की परत चढ़ा हुआ पीतल तो नहीं है. आखिर यह भी आज के जमाने की ही लड़की है न, क्या शादी को निबाह लेगी?

सगाई के 4 महीने बाद शादी होना तय हुआ. इन 4 महीनों में रमा ने चाहे कपड़े हों या गहने, शादी का जोड़ा हो या हनीमून डैस्टिनेशन, सबकुछ सलोनी की पसंद को ध्यान में रखते हुए ही फाइनल किया. रमा सभी के अनुभवों से सबक लेते हुए बहुत ही सेफ साइड चल रही थी.

धूमधाम से शादी हो गई. कुछ रमा को, तो कुछ सलोनी को हिदायतेंनसीहतें देतेदेते मेहमानों से भरा हुआ घर धीरेधीरे खाली हो गया. प्रथम और सलोनी अपने हनीमून से भी लौट आए. दोनों ही खुश और संतुष्ट लग रहे थे. रमा ने चैन की सांस ली. अब तक तो सबकुछ किसी सुंदर सपने सा चल रहा था. हकीकत से सामना होना अभी बाकी था.

शादी के बाद प्रथम और सलोनी का बेंगलुरु जाना तो तय ही था. रमा पैकिंग में उन की मदद कर रही थी. हालांकि वह चाहती थी कि अभी कुछ दिन और सलोनी को लाड़ कर ले लेकिन दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है. आसपास के उदाहरण देखते हुए रमा कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी. वह नहीं चाहती थी कि उस की किसी भी बात से सलोनी का मूड खराब हो और उसे प्रथम से अपने शादी के फैसले पर पछतावा हो.

ये भी पढ़ें- सीप में बंद मोती : भाग 1

‘‘लो, अब मैडम की नई जिद सुनो, कहती हैं कि मम्मीजी के साथ रहना है. अरे भई, जब मम्मी के साथ ही रहना था तो इस बंदे से शादी ही क्यों की थी?’’ प्रथम ने डाइनिंग टेबल पर सलोनी को छेड़ा, तो रमा आश्चर्य से सलोनी की तरफ देखने लगी. योगेश ने भी चौंक कर देखा.

‘पता नहीं वहां जा कर कौन सा तिरिया चरितर दिखाएगी,’ रमा आशंकित हो गई. उस ने बेंगलुरु जाने में बहुत आनाकानी की, लेकिन बहुमत कहो या बहूमत, उस की एक न चली और चारों सदस्य बेंगलुरु आ गए.

पढ़ाई के सिलसिले में कभी होस्टल, तो कभी पीजी में रही सलोनी को घर में रहने के तौरतरीके नहीं आते थे. पूरा घर होस्टल की तरह ही बिखरा रहता था. घर का बुरा हाल देख कर रमा को बहुत कोफ्त होती थी. बाकी घर तो रमा सहेज लेती थी, लेकिन सलोनी की चीजों को हाथ लगाने की उस की हिम्मत नहीं होती थी. इस बात से डरती वह बहू को कुछ बोल नहीं पाती थी कि कहीं उसे बुरा न लग जाए और वह ससुराल छोड़ कर मायके जाने की न सोचने लगे.

ये भी पढ़ें- एक नई पहल : भाग 1

साफसफाई की तो छोडि़ए, रसोई में भी सलोनी दक्ष नहीं थी. शौक कहो या मजबूरी, आएदिन उसे बाहर से पिज्जाबर्गर और्डर करने की आदत थी. सो, यहां भी रोज बाहर से खाना आने लगा.

‘उफ्फ, यह रोजरोज बाहर का खाना. जेब और पेट दोनों का भट्ठा बिठा देगा. लेकिन सलोनी को समझ आए तब न. मैं ने कुछ कह दिया तो खामखां बात का बतंगड़ बन जाएगा,’ यह सोच कर रमा चुप्पी साध लेती.

रमा सलोनी से मन ही मन भयभीत सी रहती थी. घर में सौहार्दपूर्ण वातावरण होते हुए भी एक अनजानी सी दूरी उस ने अपने दोनों के बीच बना रखी थी. सहमीसहमी सी रमा ने खुद को एक खोल में बंद कर के अपने चारों तरफ लक्ष्मणरेखा खींच ली.

रमा ने खुद को तो ऐडजस्ट कर लिया लेकिन पेट तो आखिर पेट ही था. अधिक सहन नहीं कर पाया और एक दिन योगेश की तबीयत खराब हो गई.

‘‘क्या रमा, तुम भी, बहू के आते ही फिल्मों वाली सास बन गईं. एकदम आलसी हो गई हो, आलसी. अरे भई, जरा रसोई में भी झांक लिया करो, यह रोजरोज का मैदामिर्च मेरा पेट अब बरदाश्त नहीं कर रहा. बाहर का खातेखाते मुझे होटल की सी फील आने लगी. अब कुछ घरवाली फीलिंग आने दो,’’ योगेश ने मजाकिया लहजे में कहा.

‘‘अगर सलोनी को बुरा लग गया तो, कहीं वह घर छोड़ कर चली गई तो? जानते हो न, आजकल की लड़कियां कुछ भी टौलरेट नहीं करतीं. न बाबा न, मैं कोई रिस्क नहीं लूंगी. तुम थोड़ा सा बरदाश्त कर लो. अपने घर चल कर सब तुम्हारे हिसाब से बना दूंगी. बरदाश्त न हो, तो कुछ दिन एसिडिटी या हाजमे की दवाएं ले लो,’’ योगेश को समझाती रमा कमरे से बाहर निकल गई. तभी वह प्रथम के कमरे से आती सलोनी की आवाज सुन कर ठिठक गई. सलोनी किसी से फोन पर बात कर रही थी.

‘‘समझने की कोशिश करो, इस तरह तो यहां मेरा दम घुट जाएगा. यह माहौल ज्यादा दिन रहा तो मैं बरदाश्त नहीं कर पाऊंगी.’’ सलोनी हालांकि बहुत धीरेधीरे बोल रही थी लेकिन रमा का तो रोमरोम कान बना हुआ था. सलोनी की बातें सुन कर उसे चक्कर सा आ गया. वह वहीं लौबी में कुरसी पकड़ कर बैठ गई. उन के परिवार की हंसी उड़ाते नातेरिश्तेदार, चटखारे लेते पड़ोसी, उदास, नर्वस सा प्रथम, मुंह छिपाते योगेश, और भी न जाने कितनी ही तसवीरें उस की आंखों के सामने घूमने लगीं.

नहींनहीं, वह इस तरह की स्थिति नहीं आने देगी. अपने परिवार की इज्जत और प्रथम की आने वाली जिंदगी के लिए सलोनी के पांव पकड़ लेगी, लेकिन उसे यह घर छोड़ कर नहीं जाने देगी. रमा ने निश्चय किया और किसी तरह उठ कर सलोनी के कमरे की तरफ बढ़ गई.

‘‘सलोनी बिटिया, मैं तो तुम्हें कुछ कहती भी नहीं, तुम पर किसी तरह की कोई पाबंदी भी हम ने नहीं लगाई. देखो, अगर फिर भी तुम्हें मेरी किसी बात से तकलीफ हुई है तो प्लीज, तुम प्रथम को कोई सजा मत देना. वह तुम से बहुत प्यार करता है. तुम जैसे चाहो वैसे रहो, लेकिन घर छोड़ कर जाने की बात मत सोचना. हम कल ही यहां से चले जाएंगे,’’ रमा सलोनी के आगे गिड़गिड़ा कर बोली.

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सलोनी हतप्रभ सी उसे देख रही थी. पहले तो उसे कुछ भी समझ में नहीं आया, फिर अचानक उस का ध्यान अपने हाथ में पकड़े मोबाइल की तरफ गया और उसे अपनी मां से होने वाली बातचीत याद हो आई. सारा माजरा समझ में आते ही सलोनी की हंसी छूट गई. वह खिलखिलाते हुए रमा के गले से झूल गई.

‘‘ओह मां, आप कितनी क्यूट हो, अब तक मुझ से इसलिए दूरी बनाए हुए थीं कि कहीं मुझे कुछ बुरा न लग जाए, और मैं नासमझ इसे आप का ऐटीट्यूड समझ रही थी. मां, यह सच है कि हम आजकल की लड़कियां अपने अधिकारों के लिए जागरूक हैं. हम ज्यादती बरदाश्त नहीं करतीं, तो किसी पर ज्यादती करती भी नहीं. परिवार में रहना हमें भी अच्छा लगता है, लेकिन अपने स्वाभिमान की कीमत पर नहीं. शायद आप ने भी आजकल की लड़कियों को ठीक से नहीं समझा. लेकिन इतना पढ़लिख कर आखिर में भी तो बौड़म ही रही न. मैं भी आप को कहां समझ पाई,’’ सलोनी ने प्यार से रमा के गाल खींच लिए.

‘‘लो, कर लो बात. भई, यह तो गजब ही हुआ. सास अपनी बहू से डर रही थी और बहू अपनी सास से. अरे रमा रानी, रिश्तों के समीकरण गणित की तरह नहीं होते कि 2 और 2 हमेशा 4 ही होंगे. यहां 2 और 2, 22 भी हो सकते हैं. जिस तरह से पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं उसी तरह से यह भी जरूरी नहीं कि जो सब के साथ हुआ वही तुम्हारे साथ भी हो.  समझीं तुम,’’ यह कह कर योगेश ने ठहाका लगाया.

ये भी पढ़ें- मानिनी : भाग 1

‘‘जी पापा, आप एकदम सही कह रहे हैं. चलिए, आज हम सब आप की पसंद की सब्जियां ले कर आते हैं. यों तो यूट्यूब पर कुछ भी बनाना सीखा जा सकता है लेकिन जो रैसिपी मां के हाथ की हो उस का भला किसी से क्या मुकाबला. मां, मुझे भी खाना बनाना सीखना है, सिखाओगी न?’ सलोनी ने रमा के गले में बांहें डाल दीं.

‘‘क्यों नहीं, जरूर,’’ रमा मुसकरा दी.

इस मुसकराहट में डर की परछाईं बिलकुल भी नहीं थी.

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February 01, 2020 at 10:39AM

आजकल की लड़कियां : भाग 2

‘‘सुनिए, हम प्रथम की शादी  अपनी पसंद की लड़की से करेंगे या फिर प्रथम की?’’ एक रात रमा ने योगेश से पूछा. ‘‘तुम भी न, बिना सिरपैर की बातें करती हो. अरे भई, आजकल बच्चों की शादी की जाती है, उन पर थोपी नहीं जाती. सीधी सी बात है, यदि प्रथम ने किसी को पसंद कर रखा है तो फिर वही हमारी भी पसंद होगी. तुम तो बस उस के मन की थाह ले लो,’’ योगेश ने अपना मत स्पष्ट किया. सुन कर रमा को यह राहत मिली कि कम से कम इस मुद्दे पर तो घर में कोई बवाल नहीं मचेगा.

‘‘प्रथम, तुम्हारी मौसी ने 2-3 लड़कियों के बायोडाटा भेजे हैं. तुम्हें व्हाट्सऐप कर दूं?’’ एक दिन रमा ने बेटे का दिल टटोलने की मंशा से कहा.

‘‘अरे मां, तुम मेरी पसंद तब से जानती हो जब मैं खुद भी कुछ नहीं जानता था, तुम से बेहतर चुनाव मेरा नहीं हो सकता. तुम्हें जो ठीक लगे, करो,’’ प्रथम ने स्पष्ट कह दिया. उस के इस जवाब से  यह तो साफ था कि वह अरेंज मैरिज चाहता है. रमा के दिल से एक बोझ उतरा. लेकिन, अब दूसरा बोझ सवार हो गया.

‘कहीं मेरी पसंद की लड़की प्रथम की पसंद न बन सकी तो? कहीं मुझ से लड़की को पहचानने में चूक हो गई तो? फोटो, बायोडाटा और एकदो मुलाकातों में आप किसी को जान ही कितना पाते हो? अगर कुछ अनचाहा हुआ तो प्रथम तो सारा दोष मुझ पर डाल कर जिंदगीभर मुझे कोसता रहेगा. तो फिर कैसे चुनी जाए सर्वगुणसंपन्न बहू, जो पतिप्रिया भी हो?’ रमा फिर से उलझ गई.

‘हर सवाल के जवाब गूगल बाबा के पास मिल जाते हैं. क्यों न मैं भी उन की मदद लूं.’ रमा ने सोचा और अगले दिन गूगल पर सर्च करने लगी.

‘अच्छी बहू की तलाश कैसे करें?’ रमा ने गूगल सर्च पर टाइप किया और एक क्लिक के साथ ही कुछ सजीधजी भारतीय पहनावे वाली खूबसूरत लड़कियों की तसवीरों के साथ कई सारी वैबसाइट्स के लिंक्स भी स्क्रीन पर आ गए जिन में लिखा था कि अच्छी बहू में क्याक्या गुण होने चाहिए. अच्छी बहू कैसे बना जाए, बहू को सांचे में कैसे ढाला जाए, सासबहू में कैसे तालमेल हो आदिआदि. गूगल ने तो दिमाग में ही घालमेल कर दिया. नैट पर अच्छी बहू खंगालतेखंगालते रमा का सिर चकराने लगा, लेकिन जो रिजल्ट वह चाह रही थी वह उसे फिर भी न मिला. अब तो रमा और भी ज्यादा दुविधा में फंस गई.

ये भी पढ़ें- दूरी : भाग 2

क्यों न किसी अनुभवी से सलाह ली जाए, यह सोच कर उस ने अपनी दूर की ननद माया को फोन लगाया.

‘‘कहो भाभी, कैसी हो? प्रथम के लिए कोई लड़कीवड़की देखी क्या?’’ माया ने फोन उठाते ही पूछा

‘‘अरे, कहां दीदी. लड़कियां तो बहुत हैं लेकिन अपने घरपरिवार में सैट होने वाली लड़की को आखिर कैसे पहचाना जाए. कहीं हीरे के फेर में पत्थर उठा लिया तो?’’ रमा ने अपनी उलझन उन के सामने रख दी.

‘‘अरे भाभी, पराई जाई लड़कियों को तो हमें ही अपने मनमुताबिक ढालना पड़ता है, जरा सा कस कर रखो, फिर देखो, कैसे सिर झुकाए आगेपीछे घूमती हैं,’’ माया ने अपने अनुभव से दावा किया.

लेकिन ज्यादा कसने से वह कहीं बिदक गई तो? माया की बातें सुन कर रमा सोच में पड़ गई. फिर उस ने अपनी मौसेरी बहन विमला को फोन लगाया.

‘‘अरे, विमला दीदी, कैसी हो आप?’’ रमा ने प्यार से पूछा.

‘‘बस, ठीक हूं. तुम कहो. प्रथम के बारे में क्या प्रोग्रैस है, कोई रिश्ता पसंद आया?’’ विमला को जिज्ञासा हो उठी थी.

‘‘देख रहे हैं, आप की नजर में कोई अच्छी लड़की हो, तो बताओ,’’ रमा ने उन्हें टटोला.

‘‘अरे रमा, लड़कियां तो मिल ही जाएंगी, लेकिन एक बात गांठ बांध के रख लेना, बहू पर ज्यादा पाबंदी मत लगाना. खूंटे से बंधे हुए तो जानवर भी नहीं रहते, फिर वह तो जीतीजागती एक इंसान होगी. बस, अपनी बेटी की तरह ही रखना,’’ विमला ने उसे सलाह दी.

ये भी पढ़ें- दूरी : भाग 2

विमला की बात सुनते ही रमा के दिमाग में मिश्रा जी की बहू का किस्सा घूम गया. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि बहू को छूट देना अधिक उचित है या उसे थोड़ी सी पाबंदी लगा कर अपने हिसाब से ढालना चाहिए. सबकुछ जलेबी की तरह गोलगोल उलझा हुआ था. शाम होतेहोते उस का दिमाग चक्करघिन्नी हो गया.

एक तो पक्की उम्र में ब्याह, ऊपर से पढ़ीलिखी होने के साथसाथ आत्मनिर्भर भी. न झुकने को तैयार, न सहने को. आजकल की लड़कियों के दिमाग भी न जाने कौन से आसमान में रहते हैं. अपने आगे किसी को कुछ समझतीं ही नहीं. अपनी शर्तों पर जीना चाहती हैं. रमा को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि प्रथम के लिए किस तरह की लड़की तलाश करे. कामकाजी या घरेलू? व्यावसायिक डिगरी वाली या सिर्फ उच्चशिक्षित? यह तो बिलकुल भूसे के ढेर में सूई खोजने जैसा कठिन काम हो गया था. काम नहीं, इसे मिशन कहा जाए, तो अधिक उपयुक्त होगा.

अगले भाग में पढ़ें- क्या शादी को निबाह लेगी?

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‘‘सुनिए, हम प्रथम की शादी  अपनी पसंद की लड़की से करेंगे या फिर प्रथम की?’’ एक रात रमा ने योगेश से पूछा. ‘‘तुम भी न, बिना सिरपैर की बातें करती हो. अरे भई, आजकल बच्चों की शादी की जाती है, उन पर थोपी नहीं जाती. सीधी सी बात है, यदि प्रथम ने किसी को पसंद कर रखा है तो फिर वही हमारी भी पसंद होगी. तुम तो बस उस के मन की थाह ले लो,’’ योगेश ने अपना मत स्पष्ट किया. सुन कर रमा को यह राहत मिली कि कम से कम इस मुद्दे पर तो घर में कोई बवाल नहीं मचेगा.

‘‘प्रथम, तुम्हारी मौसी ने 2-3 लड़कियों के बायोडाटा भेजे हैं. तुम्हें व्हाट्सऐप कर दूं?’’ एक दिन रमा ने बेटे का दिल टटोलने की मंशा से कहा.

‘‘अरे मां, तुम मेरी पसंद तब से जानती हो जब मैं खुद भी कुछ नहीं जानता था, तुम से बेहतर चुनाव मेरा नहीं हो सकता. तुम्हें जो ठीक लगे, करो,’’ प्रथम ने स्पष्ट कह दिया. उस के इस जवाब से  यह तो साफ था कि वह अरेंज मैरिज चाहता है. रमा के दिल से एक बोझ उतरा. लेकिन, अब दूसरा बोझ सवार हो गया.

‘कहीं मेरी पसंद की लड़की प्रथम की पसंद न बन सकी तो? कहीं मुझ से लड़की को पहचानने में चूक हो गई तो? फोटो, बायोडाटा और एकदो मुलाकातों में आप किसी को जान ही कितना पाते हो? अगर कुछ अनचाहा हुआ तो प्रथम तो सारा दोष मुझ पर डाल कर जिंदगीभर मुझे कोसता रहेगा. तो फिर कैसे चुनी जाए सर्वगुणसंपन्न बहू, जो पतिप्रिया भी हो?’ रमा फिर से उलझ गई.

‘हर सवाल के जवाब गूगल बाबा के पास मिल जाते हैं. क्यों न मैं भी उन की मदद लूं.’ रमा ने सोचा और अगले दिन गूगल पर सर्च करने लगी.

‘अच्छी बहू की तलाश कैसे करें?’ रमा ने गूगल सर्च पर टाइप किया और एक क्लिक के साथ ही कुछ सजीधजी भारतीय पहनावे वाली खूबसूरत लड़कियों की तसवीरों के साथ कई सारी वैबसाइट्स के लिंक्स भी स्क्रीन पर आ गए जिन में लिखा था कि अच्छी बहू में क्याक्या गुण होने चाहिए. अच्छी बहू कैसे बना जाए, बहू को सांचे में कैसे ढाला जाए, सासबहू में कैसे तालमेल हो आदिआदि. गूगल ने तो दिमाग में ही घालमेल कर दिया. नैट पर अच्छी बहू खंगालतेखंगालते रमा का सिर चकराने लगा, लेकिन जो रिजल्ट वह चाह रही थी वह उसे फिर भी न मिला. अब तो रमा और भी ज्यादा दुविधा में फंस गई.

ये भी पढ़ें- दूरी : भाग 2

क्यों न किसी अनुभवी से सलाह ली जाए, यह सोच कर उस ने अपनी दूर की ननद माया को फोन लगाया.

‘‘कहो भाभी, कैसी हो? प्रथम के लिए कोई लड़कीवड़की देखी क्या?’’ माया ने फोन उठाते ही पूछा

‘‘अरे, कहां दीदी. लड़कियां तो बहुत हैं लेकिन अपने घरपरिवार में सैट होने वाली लड़की को आखिर कैसे पहचाना जाए. कहीं हीरे के फेर में पत्थर उठा लिया तो?’’ रमा ने अपनी उलझन उन के सामने रख दी.

‘‘अरे भाभी, पराई जाई लड़कियों को तो हमें ही अपने मनमुताबिक ढालना पड़ता है, जरा सा कस कर रखो, फिर देखो, कैसे सिर झुकाए आगेपीछे घूमती हैं,’’ माया ने अपने अनुभव से दावा किया.

लेकिन ज्यादा कसने से वह कहीं बिदक गई तो? माया की बातें सुन कर रमा सोच में पड़ गई. फिर उस ने अपनी मौसेरी बहन विमला को फोन लगाया.

‘‘अरे, विमला दीदी, कैसी हो आप?’’ रमा ने प्यार से पूछा.

‘‘बस, ठीक हूं. तुम कहो. प्रथम के बारे में क्या प्रोग्रैस है, कोई रिश्ता पसंद आया?’’ विमला को जिज्ञासा हो उठी थी.

‘‘देख रहे हैं, आप की नजर में कोई अच्छी लड़की हो, तो बताओ,’’ रमा ने उन्हें टटोला.

‘‘अरे रमा, लड़कियां तो मिल ही जाएंगी, लेकिन एक बात गांठ बांध के रख लेना, बहू पर ज्यादा पाबंदी मत लगाना. खूंटे से बंधे हुए तो जानवर भी नहीं रहते, फिर वह तो जीतीजागती एक इंसान होगी. बस, अपनी बेटी की तरह ही रखना,’’ विमला ने उसे सलाह दी.

ये भी पढ़ें- दूरी : भाग 2

विमला की बात सुनते ही रमा के दिमाग में मिश्रा जी की बहू का किस्सा घूम गया. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि बहू को छूट देना अधिक उचित है या उसे थोड़ी सी पाबंदी लगा कर अपने हिसाब से ढालना चाहिए. सबकुछ जलेबी की तरह गोलगोल उलझा हुआ था. शाम होतेहोते उस का दिमाग चक्करघिन्नी हो गया.

एक तो पक्की उम्र में ब्याह, ऊपर से पढ़ीलिखी होने के साथसाथ आत्मनिर्भर भी. न झुकने को तैयार, न सहने को. आजकल की लड़कियों के दिमाग भी न जाने कौन से आसमान में रहते हैं. अपने आगे किसी को कुछ समझतीं ही नहीं. अपनी शर्तों पर जीना चाहती हैं. रमा को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि प्रथम के लिए किस तरह की लड़की तलाश करे. कामकाजी या घरेलू? व्यावसायिक डिगरी वाली या सिर्फ उच्चशिक्षित? यह तो बिलकुल भूसे के ढेर में सूई खोजने जैसा कठिन काम हो गया था. काम नहीं, इसे मिशन कहा जाए, तो अधिक उपयुक्त होगा.

अगले भाग में पढ़ें- क्या शादी को निबाह लेगी?

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February 01, 2020 at 10:39AM

प्राथमिक शिक्षक परीक्षा में नौकरी से पहले टेस्ट

हजारों आवेदकों को समझ नहीं आ रहा है कि नौकरी से पहले एक और टेस्ट देना होगा या नहीं। 10 हजार पदों को भरने के ...

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सेना में फर्जी तरीके से नौकरी पाने के आरोपी को जेल भेजा

Alwar News - लक्ष्मणगढ़| अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट राजपाल सिंह मीणा ने सेना में फर्जी तरीके से नौकरी ...

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कैबिनेट बैठक / हरियाणा सरकार दस ऊंची चोटियां फतह करने वालों को 5 लाख ...

कैबिनेट बैठक / हरियाणा सरकार दस ऊंची चोटियां फतह करने वालों को 5 लाख कैश और नौकरी में कोटा देगी; रियल एस्टेट ...

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प्रतियोगी परीक्षाओं के सिलेबस होते हैं अलग, उनके हिसाब से करें तैयारी ...

News - इंदौर| सरकारी नौकरी की तैयारी कैसे करें और स्वरोजगार लोन के विषय पर सेमिनार शुक्रवार को पोलोग्राउंड ...

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नौकरी लगाने के नाम पर शिक्षक ने ठगे 10 लाख

पीड़ित शिवशंकर के मुताबिक वह अपने बेटे और भतीजे को नौकरी लगाना चाहता था, वह गौतम कांडे के झांसे में आ गए।

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पीड़ित शिवशंकर के मुताबिक वह अपने बेटे और भतीजे को नौकरी लगाना चाहता था, वह गौतम कांडे के झांसे में आ गए।

News हरियाणा के उद्योगों में 75 फीसदी नौकरी हरियाणवियों को

नयी दिल्ली/चंडीगढ़, 31 जनवरी (ट्रिन्यू) हरियाणा के युवाओं को निजी क्षेत्र में 75 फीसदी आरक्षण दिलाने की ...

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केंद्र और राज्य सरकार पर जमकर बरसे तेजस्वी यादव, कहा 4 करोड़ लोगों की ...

उन्होंने कहा की इन्होंने करोड़ों युवाओं को नौकरी देने के बजाय 4 करोड़ लोगों की नौकरी छिनने का अपराध किया ...

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रेलवे में नौकरी का सुनहरा मौका, 10वीं पास करें आवेदन

भारतीय रेलवे ने एक बार फ‍िर दसवीं पास युवाओं के ल‍िये बंपर वैकेंसी जारी की है. यहां प्रस्तुत है इच्‍छुक ...

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नौकरी हमारे लिए रोजगार ही नहीं, जनसेवा का मौका भी

संगठन के प्रदेश अध्यक्ष चंद्रपाल चांवरिया ने कहा कि नौकरी हमारे लिए केवल एक रोजगार नहीं है, बल्कि इससे हमें ...

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4 करोड़ नौकरी निकलेगी 5 साल मे सरकार द्वारा घोषणा

सरकारी नौकरी कि चाहत रखने वाले युवाओ के लिए एक अछि खबर 5 साल मे निकलेगी 4 करोड़ नौकरी. Sarkari Naukri : 4 करोड़ ...

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नौकरी में प्रमोशन देने के नाम पर कंपनी के पदाधिकारी ने युवती से की ...

Gaya News - नौकरी में प्रमोशन देने के नाम पर शहर की एक इंश्योरेंस कंपनी के पदाधिकारी द्वारा महिला कर्मी के साथ ...

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रेलवे में नौकरी के नाम पर 9.25 लाख ठगे

रेलवे में नौकरी लगवाने के नाम पर ज्वालापुर के पिता-पुत्र से 9.25 लाख रुपये की ठगी का मामला सामने आया है।

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Thursday 30 January 2020

नौकरी आपके द्वार : Health Department में भरे जाएंगे साढ़े छह सौ से ज्यादा पद

शिमला। प्रदेश के हेल्थ डिपार्टमेंट में चिकित्सा प्रयोगशाला तकनीशियन के 674 पद भरे जाने हैं। सरकार ने इसकी ...

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नौकरी का झांसा देकर जम्मू-कश्मीर से लाई गई लडक़ी को परिजनों को सौंपा

दा जस्टिस फॉर ह्यूमन राइट्स के राष्ट्रीय अध्यक्ष गोपाल चौहान ने कुछ लोगों द्वारा जम्मू-कश्मीर से नौकरी का ...

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Sarkari Naukri 2020 Live: 10वीं पास के लिए इस विभाग में वैकेंसी, जानें नौकरी ...

Sarkari Naukri 2020 Latest Updates: राज्यसभा सचिवालय ने कैजुअल लेबरर के पदों पर वैकेंसी निकाली है. इन पदों पर चयनित ...

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जम्मू-कश्मीरः पहाड़ी भाषियों को तोहफा, नौकरी व दाखिले में चार फीसदी ...

इसके तहत उन्हें नौकरी और प्रोफेशनल कोर्सेज में दाखिले के लिए चार फीसदी आरक्षण भी मिलेगा। इसके लिए मौजूदा ...

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इसके तहत उन्हें नौकरी और प्रोफेशनल कोर्सेज में दाखिले के लिए चार फीसदी आरक्षण भी मिलेगा। इसके लिए मौजूदा ...

बेरोजगारों के करियर से खिलवाड़, अपात्र अफसरों ने बना दिए आरक्षण प्रमाण ...

्‌रसामान्य वर्ग के निर्धन युवाओं ने सरकार द्वारा नौकरी में आरक्षण पाने के लिए ईडब्ल्यूएस प्रमाण पत्र बनाए है।

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्‌रसामान्य वर्ग के निर्धन युवाओं ने सरकार द्वारा नौकरी में आरक्षण पाने के लिए ईडब्ल्यूएस प्रमाण पत्र बनाए है।

जौनपुर: बेरोजगार युवाओं के लिए नामी कंपनी में नौकरी का सुनहरा मौका ...

जौनपुर। जिला सेवायोजन अधिकारी राजीव कुमार सिंह ने बताया कि शासन के निर्देश के क्रम में जनपद के बेरोजगार ...

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जौनपुर। जिला सेवायोजन अधिकारी राजीव कुमार सिंह ने बताया कि शासन के निर्देश के क्रम में जनपद के बेरोजगार ...

Sarkari Naukri 2020 Live Updates: टीचिंग (PGT, TGT, PRT), ईडीपी कंसल्टेंट और ऑफिसर ...

Sarkari Naukri 2020 Live Updates: आज 31 जनवरी 2020 को विभिन्न सरकारी विभाग और संगठनों ने सरकारी नौकरी के विज्ञापन ...

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Sarkari Naukri 2020 Live Updates: आज 31 जनवरी 2020 को विभिन्न सरकारी विभाग और संगठनों ने सरकारी नौकरी के विज्ञापन ...

डीआइजी से दारोगा बोले- बीमार पत्नी की देखभाल के लिए दे दो रिटायरमेंट ...

जेएनएन, बरेली : पुलिस की व्यस्तता भरी नौकरी में परिवार को समय न दे पाने की शिकायत अक्सर रहती है। इस स्थिति से ...

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जेएनएन, बरेली : पुलिस की व्यस्तता भरी नौकरी में परिवार को समय न दे पाने की शिकायत अक्सर रहती है। इस स्थिति से ...

विदेश में नौकरी दिलाने के नाम पर ठगी में युवती गिरफ्तार

विस, नोएडा : विदेश में नौकरी दिलवाने के नाम पर करीब 200 युवाओं से ठगी के आरोप में सेक्टर-20 पुलिस ने फिरोज ...

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Valentine’s Special – कल हमेशा रहेगा : भाग 3

‘‘ऐसी बात नहीं, मैं तुम्हें अपने इतने नजदीक पा कर बेहद खुश हूं…खैर, मेरी बात जाने दो, मुझे यह बताओ, अब मानव कैसा है?’’

‘‘वह ठीक है. उसे एक नेक डोनेटर मिल गया, जिस की बदौलत वह अपनी नन्हीनन्ही आंखों से अब सबकुछ देख सकता है. आज मुझे लगता है जैसे उसे नहीं, मुझे आंखों की रोशनी वापस मिली हो. सच, उस की तकलीफ से परे, मैं कुछ भी साफसाफ नहीं देख पा रही थी. हर पल यही डर लगा रहता था कि यदि उस की आंखों की रोशनी वापस नहीं मिली तो उस के गम में कहीं मम्मी या पापा को कुछ न हो जाए. उस दाता का और डा. साकेत का एहसान हम उम्र भर नहीं भुला सकेंगे.’’

‘‘अच्छा, तुम बताओ, तुम्हारा भांजा प्रदीप किस तरह दुर्घटना का शिकार हुआ? मैं ने सुना था तो बेहद दुख हुआ. कितना हंसमुख और जिंदादिल था वह. उस की गहरी भूरी आंखों में हर पल जिंदगी के प्रति कितना उत्साह छलकता रहता…’’

अभि अपलक उसे देखता रहा. क्या वह कभी उसे बता भी सकेगा कि प्रदीप की ही आंख से उस का भाई इस दुनिया को देख रहा है? वह मरा नहीं, मानव की एक आंख के रूप में उस की जिंदगी के रहने तक जिंदा रहेगा.

वह बोझिल स्वर में वेदश्री को बताने लगा.

‘‘प्रदीप अपने दोस्त के साथ ‘कल हो न हो’ फिल्म देखने जा रहा था. हाई वे पर उन की मोटरसाइकिल फिसल कर बस से टकरा गई. उस का मित्र जो मोटरसाइकिल चला रहा था, वह हेलमेट की वजह से बच गया और प्रदीप ने सिर के पिछले हिस्से में आई चोट की वजह से गिरते ही वहीं उसी पल दम तोड़ दिया.

‘‘कहना अच्छा नहीं लगता, आखिर वह मेरी बहन का बेटा था, फिर भी मैं यही कहूंगा कि जो कुछ भी हुआ ठीक ही हुआ…पोस्टमार्टम के बाद डाक्टर ने रिपोर्ट में दर्शाया था कि अगर वह जिंदा रहता भी तो शायद आजीवन अपाहिज बन कर रह जाता…’’

‘‘इतना सबकुछ हो गया और तुम ने मुझे कुछ भी बताने योग्य नहीं समझा?’’ अभिजीत की बात बीच में काट कर श्री बोली.

ये भी पढ़ें- सर्वस्व : भाग 3

‘‘श्री, तुम वैसे भी मानव को ले कर इतनी परेशान रहती थीं, तुम्हें यह सब बता कर मैं तुम्हारा दुख और बढ़ाना नहीं चाहता था.’’

कुछ पलों के लिए दोनों के बीच मौन का साम्राज्य छाया रहा. दिल ही दिल में एकदूसरे के लिए दुआएं लिए दोनों जुदा हुए. अभि से मिल कर वेदश्री घर लौटी तो डा. साकेत को एक अजनबी युगल के साथ पा कर वह आश्चर्य में पड़ गई.

‘‘नमस्ते, डाक्टर साहब,’’ श्री ने साकेत का अभिवादन किया.

प्रत्युत्तर में अभिवादन कर डा. साकेत ने अपने साथ आए युगल का परिचय करवाया.

‘‘श्रीजी, यह मेरे बडे़ भैया आकाश एवं भाभी विश्वा हैं और आप सब से मिलने आए हैं. भाभी, ये श्रीजी हैं.’’

विश्वा भाभी उठ खड़ी हुईं और बोलीं, ‘‘आओ श्री, हमारे पास बैठो,’’ उन्हें भी श्री पहली ही नजर में पसंद आ गई.

‘‘अंकलजी, हम अपने देवर डा. साकेत की ओर से आप की बेटी वेदश्री का हाथ मांगने आए हैं,’’ भाभी ने आने का मकसद स्पष्ट किया.

ये भी पढ़ें-  दिये से रंगों तक : भाग 1

यह सुन कर श्री को लगा जैसे किसी ने उसे ऊंचे पहाड़ की चोटी से नीचे खाई में धकेल दिया हो. उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ कि जो वह सुन रही है वह सच है या फिर एक अवांछनीय सपना?

भाभी का प्रस्ताव सुनते ही श्री के मातापिता की आंखोंमें एक चमक आ गई. उन्होंने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उन की बेटी के लिए इतने बड़े घराने से रिश्ता आएगा.

‘‘क्या हुआ श्री, तुम हमारे प्रस्ताव से खुश नहीं?’’ श्री के चेहरे का उड़ा हुआ रंग देख कर भाभी ने पूछ लिया.

साकेत और आकाश दोनों ही उसे देखने लगे. साकेत का दिल यह सोच कर तेजी से धड़कने लगा कि कहीं श्री ने इस रिश्ते से मना कर दिया तो?

‘‘नहीं, भाभीजी, ऐसी कोई बात नहीं. दरअसल, आप का प्रस्ताव मेरे लिए अप्रत्याशित है. इसीलिए कुछ पलों के लिए मैं उलझन में पड़ गई थी पर अब मैं ठीक हूं,’’ जबरन मुसकराते हुए वेदश्री ने कहा, ‘‘मैं ने तो साकेत को सिर्फ एक डाक्टर के नजरिए से देखा था.’’

‘‘सच तो यह है श्री कि जिस दिन तुम पहली बार मेरे अस्पताल में अपने भाई को ले कर आई थीं उसी दिन तुम्हें देख कर मेरे मन ने मुझ से कहा था कि तुम्हारे योग्य जीवनसाथी की तलाश आज खत्म हो गई. और आज मैं परिवार के सामने अपने मन की बात रख कर तुम्हें अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं. अब फैसला तुम्हारे ऊपर है.’’

‘‘साकेत, मुझे सोचने के लिए कुछ वक्त दीजिए, प्लीज. मैं ने आप को आज तक उस नजरिए से कभी देखा नहीं न, इसलिए उलझन में हूं कि मुझे क्या फैसला लेना चाहिए…क्या आप मुझे कुछ दिन का वक्त दे सकते हैं?’’ वेदश्री ने उन की ओर देखते हुए दोनों हाथ जोड़ दिए.

‘‘जरूर,’’ आकाश जो अब तक चुप बैठा था, बोल उठा, ‘‘शादी जैसे अहम मुद्दे पर जल्दबाजी में कोई भी फैसला लेना उचित नहीं होगा. तुम इत्मीनान से सोच कर जवाब देना. हम साकेत को भलीभांति जानते हैं. वह तुम पर अपनी मर्जी थोपना कभी भी पसंद नहीं करेगा.’’

‘‘हम भी उम्मीद का दामन कभी नहीं छोडें़गे, क्यों साकेत?’’ भाभी ने साकेत की ओर देखा.

‘‘जी, भाभी,’’ साकेत ने हंसते हुए कहा, ‘‘शतप्रतिशत, आप ने बड़े पते की बात कही है.’’

जलपान के बाद सब ने फिर एकदूसरे का अभिवादन किया और अलग हो गए.

आज की रात वेदश्री के लिए कयामत की रात बन गई थी. साकेत के प्रस्ताव को सुन वह बौखला सी गई थी. ये प्रश्न बारबार उस के मन में कौंधते रहे:

‘क्या मुझे साकेत का प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए? यदि मैं ने ऐसा किया तो अभि का क्या होगा? हमारे उन सपनों का क्या होगा जो हम दोनों ने मिल कर संजोए थे? क्या अभि मेरे बिना जी पाएगा और उस से वादाखिलाफी कर क्या मैं जी पाऊंगी? नहीं…नहीं…मैं अपने प्यार का दामन नहीं छोड़ सकती. मैं साकेत से साफ शब्दों में मना कर दूंगी. नए रिश्तों को बनाने के लिए पुराने रिश्तों से मुंह मोड़ लेना कहां की रीति है?’

सोचतेसोचते वेदश्री को साकेत याद आ गया. उस ने खुद को टोका कि श्री तुम

डा. साकेत के बारे में क्यों नहीं सोच रहीं? तुम से प्यार कर के उन्होंने भी तो कोेई गलती नहीं की. कितना चाहते हैं वह तुम्हें? तभी तो एक इतना बड़ा डाक्टर दिल के हाथों मजबूर हो कर तुम्हारे पास चला आया. कितने नेकदिल इनसान हैं. भूल गईं क्या, जो उन्होंने मानव के लिए किया? यदि उन का सहारा न होता तो क्या तुम्हारा मानव दुनिया को दोनों आंखों से फिर से देख पाता? खबरदार श्री, तुम गलती से भी अपने दिमाग में इस गलतफहमी को न पाल बैठना कि साकेत ने तुम्हें पाने के इरादे से मानव के लिए इतना सबकुछ किया. आखिर तुम दुनिया की अंतिम खूबसूरत लड़की तो हो ही नहीं सकतीं न…दिल ने उसे उलाहना दिया.

साकेत के जाने के बाद पापामम्मी से हुई बातचीत का एकएक शब्द उसे याद आने लगा.

मां ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘बेटी, ऐसे मौके जीवन में बारबार नहीं आते. समझदार इनसान वही है जो हाथ आए मौके को हाथ से न जाने दे, उस का सही इस्तेमाल करे. बेटी, हो सकता है ऐसा मौका तुम्हारी जिंदगी के दरवाजे पर दोबारा दस्तक न दे…साकेत बहुत ही नेक लड़का है, लाखों में एक है. सुंदर है, नम्र है, सुशील है और सब से अहम बात कि वह तुम्हें दिल से चाहता है.’

पापा ने भी मम्मी के साथ सहमत होते हुए कहा था, ‘बेटी, डा. साकेत ने हमारे बच्चे के लिए जो कुछ भी किया, वह आज के जमाने में शायद ही किसी के लिए कोई करे. यदि उन्होंने हमारी मदद न की होती तो क्या हम मानव का इलाज बिना पैसे के करवा सकते थे?

ये भी पढ़ें- बिहाइंड द बार्स : भाग 10

‘यह बात कभी न भूलना बेटी कि हम ने मानव के इलाज के बारे में मदद के लिए कितने लोगों के सामने अपने स्वाभिमान का गला घोंट कर हाथ फैलाए थे, और हर जगह से हमें सिर्फ निराशा ही हाथ लगी थी. जब अपनों ने हमारा साथ छोड़ दिया तब साकेत ने गैर होते हुए भी हमारा दामन थामा था.’

‘अभिजीत अगर तुम्हारा प्यार है तो मानव तुम्हारा फर्ज है. फर्ज निभाने में जिस ने तुम्हारा साथ दिया वही तुम्हारा जीवनसाथी बनने योग्य है, क्योंकि सदियों से चली आ रही प्यार और फर्ज की जंग में जीत हमेशा फर्ज की ही हुई है,’ दिमाग के किसी कोने से वेदश्री को सुनाई पड़ा.

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‘‘ऐसी बात नहीं, मैं तुम्हें अपने इतने नजदीक पा कर बेहद खुश हूं…खैर, मेरी बात जाने दो, मुझे यह बताओ, अब मानव कैसा है?’’

‘‘वह ठीक है. उसे एक नेक डोनेटर मिल गया, जिस की बदौलत वह अपनी नन्हीनन्ही आंखों से अब सबकुछ देख सकता है. आज मुझे लगता है जैसे उसे नहीं, मुझे आंखों की रोशनी वापस मिली हो. सच, उस की तकलीफ से परे, मैं कुछ भी साफसाफ नहीं देख पा रही थी. हर पल यही डर लगा रहता था कि यदि उस की आंखों की रोशनी वापस नहीं मिली तो उस के गम में कहीं मम्मी या पापा को कुछ न हो जाए. उस दाता का और डा. साकेत का एहसान हम उम्र भर नहीं भुला सकेंगे.’’

‘‘अच्छा, तुम बताओ, तुम्हारा भांजा प्रदीप किस तरह दुर्घटना का शिकार हुआ? मैं ने सुना था तो बेहद दुख हुआ. कितना हंसमुख और जिंदादिल था वह. उस की गहरी भूरी आंखों में हर पल जिंदगी के प्रति कितना उत्साह छलकता रहता…’’

अभि अपलक उसे देखता रहा. क्या वह कभी उसे बता भी सकेगा कि प्रदीप की ही आंख से उस का भाई इस दुनिया को देख रहा है? वह मरा नहीं, मानव की एक आंख के रूप में उस की जिंदगी के रहने तक जिंदा रहेगा.

वह बोझिल स्वर में वेदश्री को बताने लगा.

‘‘प्रदीप अपने दोस्त के साथ ‘कल हो न हो’ फिल्म देखने जा रहा था. हाई वे पर उन की मोटरसाइकिल फिसल कर बस से टकरा गई. उस का मित्र जो मोटरसाइकिल चला रहा था, वह हेलमेट की वजह से बच गया और प्रदीप ने सिर के पिछले हिस्से में आई चोट की वजह से गिरते ही वहीं उसी पल दम तोड़ दिया.

‘‘कहना अच्छा नहीं लगता, आखिर वह मेरी बहन का बेटा था, फिर भी मैं यही कहूंगा कि जो कुछ भी हुआ ठीक ही हुआ…पोस्टमार्टम के बाद डाक्टर ने रिपोर्ट में दर्शाया था कि अगर वह जिंदा रहता भी तो शायद आजीवन अपाहिज बन कर रह जाता…’’

‘‘इतना सबकुछ हो गया और तुम ने मुझे कुछ भी बताने योग्य नहीं समझा?’’ अभिजीत की बात बीच में काट कर श्री बोली.

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‘‘श्री, तुम वैसे भी मानव को ले कर इतनी परेशान रहती थीं, तुम्हें यह सब बता कर मैं तुम्हारा दुख और बढ़ाना नहीं चाहता था.’’

कुछ पलों के लिए दोनों के बीच मौन का साम्राज्य छाया रहा. दिल ही दिल में एकदूसरे के लिए दुआएं लिए दोनों जुदा हुए. अभि से मिल कर वेदश्री घर लौटी तो डा. साकेत को एक अजनबी युगल के साथ पा कर वह आश्चर्य में पड़ गई.

‘‘नमस्ते, डाक्टर साहब,’’ श्री ने साकेत का अभिवादन किया.

प्रत्युत्तर में अभिवादन कर डा. साकेत ने अपने साथ आए युगल का परिचय करवाया.

‘‘श्रीजी, यह मेरे बडे़ भैया आकाश एवं भाभी विश्वा हैं और आप सब से मिलने आए हैं. भाभी, ये श्रीजी हैं.’’

विश्वा भाभी उठ खड़ी हुईं और बोलीं, ‘‘आओ श्री, हमारे पास बैठो,’’ उन्हें भी श्री पहली ही नजर में पसंद आ गई.

‘‘अंकलजी, हम अपने देवर डा. साकेत की ओर से आप की बेटी वेदश्री का हाथ मांगने आए हैं,’’ भाभी ने आने का मकसद स्पष्ट किया.

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यह सुन कर श्री को लगा जैसे किसी ने उसे ऊंचे पहाड़ की चोटी से नीचे खाई में धकेल दिया हो. उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ कि जो वह सुन रही है वह सच है या फिर एक अवांछनीय सपना?

भाभी का प्रस्ताव सुनते ही श्री के मातापिता की आंखोंमें एक चमक आ गई. उन्होंने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उन की बेटी के लिए इतने बड़े घराने से रिश्ता आएगा.

‘‘क्या हुआ श्री, तुम हमारे प्रस्ताव से खुश नहीं?’’ श्री के चेहरे का उड़ा हुआ रंग देख कर भाभी ने पूछ लिया.

साकेत और आकाश दोनों ही उसे देखने लगे. साकेत का दिल यह सोच कर तेजी से धड़कने लगा कि कहीं श्री ने इस रिश्ते से मना कर दिया तो?

‘‘नहीं, भाभीजी, ऐसी कोई बात नहीं. दरअसल, आप का प्रस्ताव मेरे लिए अप्रत्याशित है. इसीलिए कुछ पलों के लिए मैं उलझन में पड़ गई थी पर अब मैं ठीक हूं,’’ जबरन मुसकराते हुए वेदश्री ने कहा, ‘‘मैं ने तो साकेत को सिर्फ एक डाक्टर के नजरिए से देखा था.’’

‘‘सच तो यह है श्री कि जिस दिन तुम पहली बार मेरे अस्पताल में अपने भाई को ले कर आई थीं उसी दिन तुम्हें देख कर मेरे मन ने मुझ से कहा था कि तुम्हारे योग्य जीवनसाथी की तलाश आज खत्म हो गई. और आज मैं परिवार के सामने अपने मन की बात रख कर तुम्हें अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं. अब फैसला तुम्हारे ऊपर है.’’

‘‘साकेत, मुझे सोचने के लिए कुछ वक्त दीजिए, प्लीज. मैं ने आप को आज तक उस नजरिए से कभी देखा नहीं न, इसलिए उलझन में हूं कि मुझे क्या फैसला लेना चाहिए…क्या आप मुझे कुछ दिन का वक्त दे सकते हैं?’’ वेदश्री ने उन की ओर देखते हुए दोनों हाथ जोड़ दिए.

‘‘जरूर,’’ आकाश जो अब तक चुप बैठा था, बोल उठा, ‘‘शादी जैसे अहम मुद्दे पर जल्दबाजी में कोई भी फैसला लेना उचित नहीं होगा. तुम इत्मीनान से सोच कर जवाब देना. हम साकेत को भलीभांति जानते हैं. वह तुम पर अपनी मर्जी थोपना कभी भी पसंद नहीं करेगा.’’

‘‘हम भी उम्मीद का दामन कभी नहीं छोडें़गे, क्यों साकेत?’’ भाभी ने साकेत की ओर देखा.

‘‘जी, भाभी,’’ साकेत ने हंसते हुए कहा, ‘‘शतप्रतिशत, आप ने बड़े पते की बात कही है.’’

जलपान के बाद सब ने फिर एकदूसरे का अभिवादन किया और अलग हो गए.

आज की रात वेदश्री के लिए कयामत की रात बन गई थी. साकेत के प्रस्ताव को सुन वह बौखला सी गई थी. ये प्रश्न बारबार उस के मन में कौंधते रहे:

‘क्या मुझे साकेत का प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए? यदि मैं ने ऐसा किया तो अभि का क्या होगा? हमारे उन सपनों का क्या होगा जो हम दोनों ने मिल कर संजोए थे? क्या अभि मेरे बिना जी पाएगा और उस से वादाखिलाफी कर क्या मैं जी पाऊंगी? नहीं…नहीं…मैं अपने प्यार का दामन नहीं छोड़ सकती. मैं साकेत से साफ शब्दों में मना कर दूंगी. नए रिश्तों को बनाने के लिए पुराने रिश्तों से मुंह मोड़ लेना कहां की रीति है?’

सोचतेसोचते वेदश्री को साकेत याद आ गया. उस ने खुद को टोका कि श्री तुम

डा. साकेत के बारे में क्यों नहीं सोच रहीं? तुम से प्यार कर के उन्होंने भी तो कोेई गलती नहीं की. कितना चाहते हैं वह तुम्हें? तभी तो एक इतना बड़ा डाक्टर दिल के हाथों मजबूर हो कर तुम्हारे पास चला आया. कितने नेकदिल इनसान हैं. भूल गईं क्या, जो उन्होंने मानव के लिए किया? यदि उन का सहारा न होता तो क्या तुम्हारा मानव दुनिया को दोनों आंखों से फिर से देख पाता? खबरदार श्री, तुम गलती से भी अपने दिमाग में इस गलतफहमी को न पाल बैठना कि साकेत ने तुम्हें पाने के इरादे से मानव के लिए इतना सबकुछ किया. आखिर तुम दुनिया की अंतिम खूबसूरत लड़की तो हो ही नहीं सकतीं न…दिल ने उसे उलाहना दिया.

साकेत के जाने के बाद पापामम्मी से हुई बातचीत का एकएक शब्द उसे याद आने लगा.

मां ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘बेटी, ऐसे मौके जीवन में बारबार नहीं आते. समझदार इनसान वही है जो हाथ आए मौके को हाथ से न जाने दे, उस का सही इस्तेमाल करे. बेटी, हो सकता है ऐसा मौका तुम्हारी जिंदगी के दरवाजे पर दोबारा दस्तक न दे…साकेत बहुत ही नेक लड़का है, लाखों में एक है. सुंदर है, नम्र है, सुशील है और सब से अहम बात कि वह तुम्हें दिल से चाहता है.’

पापा ने भी मम्मी के साथ सहमत होते हुए कहा था, ‘बेटी, डा. साकेत ने हमारे बच्चे के लिए जो कुछ भी किया, वह आज के जमाने में शायद ही किसी के लिए कोई करे. यदि उन्होंने हमारी मदद न की होती तो क्या हम मानव का इलाज बिना पैसे के करवा सकते थे?

ये भी पढ़ें- बिहाइंड द बार्स : भाग 10

‘यह बात कभी न भूलना बेटी कि हम ने मानव के इलाज के बारे में मदद के लिए कितने लोगों के सामने अपने स्वाभिमान का गला घोंट कर हाथ फैलाए थे, और हर जगह से हमें सिर्फ निराशा ही हाथ लगी थी. जब अपनों ने हमारा साथ छोड़ दिया तब साकेत ने गैर होते हुए भी हमारा दामन थामा था.’

‘अभिजीत अगर तुम्हारा प्यार है तो मानव तुम्हारा फर्ज है. फर्ज निभाने में जिस ने तुम्हारा साथ दिया वही तुम्हारा जीवनसाथी बनने योग्य है, क्योंकि सदियों से चली आ रही प्यार और फर्ज की जंग में जीत हमेशा फर्ज की ही हुई है,’ दिमाग के किसी कोने से वेदश्री को सुनाई पड़ा.

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January 31, 2020 at 10:38AM

Valentine’s Special – कल हमेशा रहेगा : भाग 1

‘‘अभि, मैं आज कालिज नहीं आ रही. प्लीज, मेरा इंतजार मत करना.’’

‘‘क्यों? क्या हुआ वेदश्री. कोई खास समस्या है?’’ अभि ने एकसाथ कई प्रश्न कर डाले.

‘‘हां, अभि. मानव की आंखों की जांच के लिए उसे ले कर डाक्टर के पास जाना है.’’

‘‘क्या हुआ मानव की आंखों को?’’ अभि की आवाज में चिंता घुल गई.

‘‘वह कल शाम को जब स्कूल से वापस आया तो कहने लगा कि आंखों में कुछ चुभन सी महसूस हो रही है. रात भर में उस की दाईं आंख सूज कर लाल हो गई है.

आज साढ़े 11 बजे का डा. साकेत अग्रवाल से समय ले रखा है.’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ चलूं?’’ अभि ने प्यार से पूछा.

‘‘नहीं, अभि…मां मेरे साथ जा रही हैं.’’

डा. साकेत अग्रवाल के अस्पताल में मानव का नाम पुकारे जाने पर वेदश्री अपनी मां के साथ डाक्टर के कमरे में गई.

डा. साकेत ने जैसे ही वेदश्री को देखा तो बस, देखते ही रह गए. आज तक न जाने कितनी ही लड़कियों से उन की अपने अस्पताल में और अस्पताल के बाहर मुलाकात होती रही है, लेकिन दिल की गहराइयों में उतर जाने वाला इतना चित्ताकर्षक चेहरा साकेत की नजरों के सामने से कभी नहीं गुजरा था.

वेदश्री ने डाक्टर का अभिवादन किया तो वह अपनेआप में पुन: वापस लौटे.

अभिवादन का जवाब देते हुए डाक्टर ने वेदश्री और उस की मां को सामने की कुरसियों पर बैठने का इशारा किया.

मानव की आंखों की जांच कर डा. साकेत ने बताया कि उस की दाईं आंख में संक्रमण हो गया है जिस की वजह से यह दर्द हो रहा है. आप घबराइए नहीं, बच्चे की आंखों का दर्द जल्द ही ठीक हो जाएगा पर आंखों के इस संक्रमण का इलाज लंबा चलेगा और इस में भारी खर्च भी आ सकता है.

हकीकत जान कर मां का रोरो कर बुरा हाल हो रहा था. वेदश्री मम्मी को ढाढ़स बंधाने का प्रयास करती हुई किसी तरह घर पहुंची. पिताजी भी हकीकत जान कर सकते में आ गए.

वेदश्री ने अपना मन यह सोच कर कड़ा किया कि अब बेटी से बेटा बन कर उसे ही सब को संभालना होगा.

मानव जैसे ही आंखों में चुभन होने की फरियाद करता वह तड़प जाती थी. उसे मानव का बचपन याद आ जाता.

उस के जन्म के 15 साल के बाद मानव का जन्म हुआ था. इतने सालों के बाद दोबारा बच्चे को जन्म देने के कारण मां को शर्मिंदगी सी महसूस हो रही थी.  वह कहतीं, ‘‘श्री…बेटा, लोग क्या सोचेंगे? बुढ़ापे में पहुंच गई, पर बच्चे पैदा करने का शौक नहीं गया.’’

ये भी पढ़ें- विश्वासघात : भाग 2

‘‘मम्मा, आप ऐसा क्यों सोचती हैं.’’ वेदश्री ने समझाते हुए कहा, ‘‘आप ने मुझे राखी बांधने वाला भाई दिया है, जिस की बरसों से हम सब को चाहत थी. आप की अब जो उम्र है इस उम्र में तो आज की आधुनिक लड़कियां शादी करती दिखाई देती हैं…आप को गलतसलत कोई भी बात सोचने की जरूरत नहीं है.’’

गोराचिट्टा, भूरी आंखों वाला प्यारा सा मानव, अभी तो आंखों में ढेर सारा विस्मय लिए दुनिया को देखने के योग्य भी नहीं हुआ था कि उस की एक आंख प्रकृति के सुंदरतम नजारों को अपने आप में कैद करने में पूर्णतया असमर्थ हो चुकी थी. परिवार में सब की आंखों का नूर अपनी खुद की आंखों के नूर से वंचित हुआ जा रहा था और वे कुछ भी करने में असमर्थ थे.

‘‘वेदश्रीजी, कीटाणुओं के संक्रमण ने मानव की एक आंख की पुतली पर गहरा असर किया है और उस में एक सफेद धब्बा बन गया है जिस की वजह से उस की आंख की रोशनी चली गई है. कम उम्र का होने के कारण उस की सर्जरी संभव नहीं है.’’

15 दिन बाद जब वह मानव को ले कर चेकअप के लिए दोबारा अस्पताल गई तब डा. साकेत ने उसे समझाते हुए बताया तो वह दम साधे उन की बातें सुनती रही और मन ही मन सोचती रही कि काश, कोई चमत्कार हो और उस का भाई ठीक हो जाए.

‘‘लेकिन उचित समय आने पर हम आई बैंक से संपर्क कर के मानव की आंख के लिए कोई डोनेटर ढूंढ़ लेंगे और जैसे ही वह मिल जाएगा, सर्जरी कर के उस की आंख को ठीक कर देंगे, पर इस काम के लिए आप को इंतजार करना होगा,’’ डा. साकेत ने आश्वासन दिया.

वेदश्री भारी कदमों और उदास मन से वहां से चल दी तो उस की उदासी भांप कर साकेत से रहा न गया और एक डाक्टर का फर्ज निभाते हुए उन्होंने समझाया, ‘‘वेदश्रीजी, मुझे आप से पूरी हमदर्दी है. आप की हर तरह से मदद कर के मुझे बेहद खुशी मिलेगी. प्लीज, मेरी बात को आप अन्यथा न लीजिएगा, ये बात मैं दिल से कह रहा हूं.’’

ये भी पढ़ें- चौथापन : भाग 1

‘‘थैंक्स, डा. साहब,’’ उसे डाक्टर का सहानुभूति जताना उस समय सचमुच अच्छा लग रहा था.

मानव की आंख का इलाज संभव तो था लेकिन दुष्कर भी उतना ही था. समय एवं पैसा, दोनों का बलिदान ही उस के इलाज की प्राथमिक शर्त बन गए थे.

पिताजी अपनी मर्यादित आय में जैसेतैसे घर का खर्च चला रहे थे. बेटे की तकलीफ और उस के इलाज के खर्च ने उन्हें उम्र से पहले ही जैसे बूढ़ा बना दिया था. उन का दर्द महसूस कर वेदश्री भी दुखी होती रहती. मानव की चिंता में उस ने कालिज के अलावा और कहीं आनाजाना कम कर दिया था. यहां तक कि अभि जिसे वह दिल की गहराइयों से चाहती थी, से भी जैसे वह कट कर रह गई थी.

अगले भाग में पढ़ें- उस के होंठों पर एक मीठी मधुर मुसकान फैल गई.

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‘‘अभि, मैं आज कालिज नहीं आ रही. प्लीज, मेरा इंतजार मत करना.’’

‘‘क्यों? क्या हुआ वेदश्री. कोई खास समस्या है?’’ अभि ने एकसाथ कई प्रश्न कर डाले.

‘‘हां, अभि. मानव की आंखों की जांच के लिए उसे ले कर डाक्टर के पास जाना है.’’

‘‘क्या हुआ मानव की आंखों को?’’ अभि की आवाज में चिंता घुल गई.

‘‘वह कल शाम को जब स्कूल से वापस आया तो कहने लगा कि आंखों में कुछ चुभन सी महसूस हो रही है. रात भर में उस की दाईं आंख सूज कर लाल हो गई है.

आज साढ़े 11 बजे का डा. साकेत अग्रवाल से समय ले रखा है.’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ चलूं?’’ अभि ने प्यार से पूछा.

‘‘नहीं, अभि…मां मेरे साथ जा रही हैं.’’

डा. साकेत अग्रवाल के अस्पताल में मानव का नाम पुकारे जाने पर वेदश्री अपनी मां के साथ डाक्टर के कमरे में गई.

डा. साकेत ने जैसे ही वेदश्री को देखा तो बस, देखते ही रह गए. आज तक न जाने कितनी ही लड़कियों से उन की अपने अस्पताल में और अस्पताल के बाहर मुलाकात होती रही है, लेकिन दिल की गहराइयों में उतर जाने वाला इतना चित्ताकर्षक चेहरा साकेत की नजरों के सामने से कभी नहीं गुजरा था.

वेदश्री ने डाक्टर का अभिवादन किया तो वह अपनेआप में पुन: वापस लौटे.

अभिवादन का जवाब देते हुए डाक्टर ने वेदश्री और उस की मां को सामने की कुरसियों पर बैठने का इशारा किया.

मानव की आंखों की जांच कर डा. साकेत ने बताया कि उस की दाईं आंख में संक्रमण हो गया है जिस की वजह से यह दर्द हो रहा है. आप घबराइए नहीं, बच्चे की आंखों का दर्द जल्द ही ठीक हो जाएगा पर आंखों के इस संक्रमण का इलाज लंबा चलेगा और इस में भारी खर्च भी आ सकता है.

हकीकत जान कर मां का रोरो कर बुरा हाल हो रहा था. वेदश्री मम्मी को ढाढ़स बंधाने का प्रयास करती हुई किसी तरह घर पहुंची. पिताजी भी हकीकत जान कर सकते में आ गए.

वेदश्री ने अपना मन यह सोच कर कड़ा किया कि अब बेटी से बेटा बन कर उसे ही सब को संभालना होगा.

मानव जैसे ही आंखों में चुभन होने की फरियाद करता वह तड़प जाती थी. उसे मानव का बचपन याद आ जाता.

उस के जन्म के 15 साल के बाद मानव का जन्म हुआ था. इतने सालों के बाद दोबारा बच्चे को जन्म देने के कारण मां को शर्मिंदगी सी महसूस हो रही थी.  वह कहतीं, ‘‘श्री…बेटा, लोग क्या सोचेंगे? बुढ़ापे में पहुंच गई, पर बच्चे पैदा करने का शौक नहीं गया.’’

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‘‘मम्मा, आप ऐसा क्यों सोचती हैं.’’ वेदश्री ने समझाते हुए कहा, ‘‘आप ने मुझे राखी बांधने वाला भाई दिया है, जिस की बरसों से हम सब को चाहत थी. आप की अब जो उम्र है इस उम्र में तो आज की आधुनिक लड़कियां शादी करती दिखाई देती हैं…आप को गलतसलत कोई भी बात सोचने की जरूरत नहीं है.’’

गोराचिट्टा, भूरी आंखों वाला प्यारा सा मानव, अभी तो आंखों में ढेर सारा विस्मय लिए दुनिया को देखने के योग्य भी नहीं हुआ था कि उस की एक आंख प्रकृति के सुंदरतम नजारों को अपने आप में कैद करने में पूर्णतया असमर्थ हो चुकी थी. परिवार में सब की आंखों का नूर अपनी खुद की आंखों के नूर से वंचित हुआ जा रहा था और वे कुछ भी करने में असमर्थ थे.

‘‘वेदश्रीजी, कीटाणुओं के संक्रमण ने मानव की एक आंख की पुतली पर गहरा असर किया है और उस में एक सफेद धब्बा बन गया है जिस की वजह से उस की आंख की रोशनी चली गई है. कम उम्र का होने के कारण उस की सर्जरी संभव नहीं है.’’

15 दिन बाद जब वह मानव को ले कर चेकअप के लिए दोबारा अस्पताल गई तब डा. साकेत ने उसे समझाते हुए बताया तो वह दम साधे उन की बातें सुनती रही और मन ही मन सोचती रही कि काश, कोई चमत्कार हो और उस का भाई ठीक हो जाए.

‘‘लेकिन उचित समय आने पर हम आई बैंक से संपर्क कर के मानव की आंख के लिए कोई डोनेटर ढूंढ़ लेंगे और जैसे ही वह मिल जाएगा, सर्जरी कर के उस की आंख को ठीक कर देंगे, पर इस काम के लिए आप को इंतजार करना होगा,’’ डा. साकेत ने आश्वासन दिया.

वेदश्री भारी कदमों और उदास मन से वहां से चल दी तो उस की उदासी भांप कर साकेत से रहा न गया और एक डाक्टर का फर्ज निभाते हुए उन्होंने समझाया, ‘‘वेदश्रीजी, मुझे आप से पूरी हमदर्दी है. आप की हर तरह से मदद कर के मुझे बेहद खुशी मिलेगी. प्लीज, मेरी बात को आप अन्यथा न लीजिएगा, ये बात मैं दिल से कह रहा हूं.’’

ये भी पढ़ें- चौथापन : भाग 1

‘‘थैंक्स, डा. साहब,’’ उसे डाक्टर का सहानुभूति जताना उस समय सचमुच अच्छा लग रहा था.

मानव की आंख का इलाज संभव तो था लेकिन दुष्कर भी उतना ही था. समय एवं पैसा, दोनों का बलिदान ही उस के इलाज की प्राथमिक शर्त बन गए थे.

पिताजी अपनी मर्यादित आय में जैसेतैसे घर का खर्च चला रहे थे. बेटे की तकलीफ और उस के इलाज के खर्च ने उन्हें उम्र से पहले ही जैसे बूढ़ा बना दिया था. उन का दर्द महसूस कर वेदश्री भी दुखी होती रहती. मानव की चिंता में उस ने कालिज के अलावा और कहीं आनाजाना कम कर दिया था. यहां तक कि अभि जिसे वह दिल की गहराइयों से चाहती थी, से भी जैसे वह कट कर रह गई थी.

अगले भाग में पढ़ें- उस के होंठों पर एक मीठी मधुर मुसकान फैल गई.

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Valentine’s Special – कल हमेशा रहेगा : भाग 2

डा. साकेत अग्रवाल शायद उस की मजबूरी को भांप चुके थे. उन्होंने वेदश्री को ढाढ़स बंधाया कि वह पैसे की चिंता न करें, अगर सर्जरी जल्द करनी पड़ी तो पैसे का इंतजाम वह खुद कर देंगे. निष्णात डाक्टर होने के साथसाथ साकेत एक सहृदय इनसान भी हैं.

दरअसल, साकेत उम्र में वेदश्री से 2-3 साल ही बड़े होंगे. जवान मन का तकाजा था कि वह जब भी वेदश्री को देखते उन का दिल बेचैन हो उठता. वह हमेशा इसी इंतजार में रहते कि कब वह मानव को ले कर उस के पास आए और वह उसे जी भर कर देख सकें. न जाने कब वेदश्री डा. साकेत के हृदय सिंहासन पर चुपके से आ कर बैठ गई, उन्हें पता ही नहीं चला. तभी तो साकेत ने मन ही मन फैसला किया था कि मानव की सर्जरी के बाद वह उस के मातापिता से उस का हाथ मांग लेंगे.

उधर वेदश्री डा. साकेत के मन में अपने प्रति उठने वाले प्यार की कोमल भावनाओं से पूरी तरह अनभिज्ञ थी. वह अभिजीत के साथ मिल कर अपने सुंदर सहजीवन के सपने संजोने में मगन थी. उस के लिए साकेत एक डाक्टर से अधिक कुछ भी न थे. हां, वह उन की बहुत इज्जत करती थी क्योंकि उस ने महसूस किया था कि डा. साकेत एक आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी होने के साथसाथ नेक दिल इनसान भी हैं.

समय अपनी चाल से चलता रहा और देखते ही देखते डेढ़ वर्ष का समय कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला. एक दिन फोन की घंटी बजी तो अभिजीत का फोन समझ कर वेदश्री ने फोन उठा लिया और ‘हैलो’ बोली.

‘‘वेदश्रीजी, डा. साकेत बोल रहा हूं. मैं ने यह बताने के लिए आप को फोन किया है कि यदि आप मानव को ले कर कल 12 बजे के करीब अस्पताल आ जाएं तो बेहतर होगा.’’

साकेत चाहता तो अपनी रिसेप्शनिस्ट से फोन करवा सकता था, लेकिन दिल का मामला था अत: उस ने खुद ही यह काम करना उचित समझा.

‘‘क्या कोई खास बात है, डाक्टर साहब,’’ वेदश्री समझ नहीं पा रही थी कि डाक्टर ने खुद क्यों उसे फोन किया. उसे लगा जरूर कोई गंभीर बात होगी.

‘‘नहीं, कोई ऐसी खास बात नहीं है. मैं ने तो यह संभावना दर्शाने के लिए आप के पास फोन किया है कि शायद कल मैं आप को एक बहुत बढि़या खबर सुना सकूं, क्योंकि मैं मानव को ले कर बेहद सकारात्मक हूं.’’

‘‘धन्यवाद, सर. मुझे खुशी है कि आप मानव के लिए इतना सोचते हैं. मैं कल मानव को ले कर जरूर हाजिर हो जाऊंगी, बाय…’’ और वेदश्री ने फोन रख दिया.

वेदश्री की मधुर आवाज ने साकेत को तरोताजा कर दिया. उस के होंठों पर एक मीठी मधुर मुसकान फैल गई.

मानव का चेकअप करने के बाद डा. साकेत वेदश्री की ओर मुखातिब हुए.

ये भी पढ़ें- लैटर बौक्स : भाग 1

‘‘क्या मैं आप को सिर्फ ‘श्री…जी’ कह कर बुला सकता हूं?’’ डा. साकेत बोले, ‘‘आप का नाम सुंदर होते हुए भी मुझे लगता है कि उसे थोड़ा छोटा कर के और सुंदर बनाया जा सकता है.’’

‘‘जी,’’ कह कर वेदश्री भी हंस पड़ी.

‘‘श्रीजी, मेरे खयाल से अब मानव की सर्जरी में हमें देर नहीं करनी चाहिए और इस से भी अधिक खुशी की बात यह है कि एशियन आई इंस्टीट्यूट बैंक से हमें मानव के लिए योग्य डोनेटर मिल गया है.’’

‘‘सच, डाक्टर साहब, मैं आप का यह ऋण कभी भी नहीं चुका सकूंगी,’’ उस की आंखों में आंसू उभर आए.

डा. साकेत के हाथों मानव की आंख की सर्जरी सफलतापूर्वक संपन्न हुई. परिवार के लोग दम साधे उस की आंख की पट्टी खुलने का इंतजार कर रहे थे.

सर्जरी के तुरंत बाद डा. साकेत ने उसे बताया कि मानव की सर्जरी सफल तो रही लेकिन उस आंख का विजन पूर्णतया वापस लौटने में कम से कम 6 महीने का वक्त और लगेगा. यह सुन कर उसे तकलीफ तो हुई थी लेकिन साथसाथ यह तसल्ली भी थी कि उस का भाई फिर इस दुनिया को अपनी स्वस्थ आंखों से देख सकेगा.

‘‘श्री…जी, मैं ने आप से वादा किया था कि आप को कभी नाउम्मीद नहीं होने दूंगा…’’ साकेत ने उस की गहरी आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘मैं ने आप को दिया अपना वादा पूरा किया.’’

वेदश्री ने संकोच से अपनी पलकें झुका दीं.

‘‘फिर मिलेंगे…’’ कुछ निराश भाव से डा. साकेत ने कहा और फिर मुड़ कर चले गए.

उस दिन एक लंबे अरसे के बाद वेदश्री बिना किसी बोझ के बेहद खुश मन से अभिजीत से मिली. उसे तनावरहित और खुशहाल देख कर अभि को भी बेहद खुशी हुई.

‘‘अभि, कितने लंबे अरसे के बाद आज हम फिर मिल रहे हैं. क्या तुम खुश नहीं?’’ श्री ने उस का हाथ अपने हाथ में थाम कर ऊष्मा से दबाते हुए पूछा.

ये भी पढ़ें- उस की दोस्त

अगले भाग में पढ़ें-  वह जिंदा रहता भी तो शायद आजीवन अपाहिज बन कर रह जाता.

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डा. साकेत अग्रवाल शायद उस की मजबूरी को भांप चुके थे. उन्होंने वेदश्री को ढाढ़स बंधाया कि वह पैसे की चिंता न करें, अगर सर्जरी जल्द करनी पड़ी तो पैसे का इंतजाम वह खुद कर देंगे. निष्णात डाक्टर होने के साथसाथ साकेत एक सहृदय इनसान भी हैं.

दरअसल, साकेत उम्र में वेदश्री से 2-3 साल ही बड़े होंगे. जवान मन का तकाजा था कि वह जब भी वेदश्री को देखते उन का दिल बेचैन हो उठता. वह हमेशा इसी इंतजार में रहते कि कब वह मानव को ले कर उस के पास आए और वह उसे जी भर कर देख सकें. न जाने कब वेदश्री डा. साकेत के हृदय सिंहासन पर चुपके से आ कर बैठ गई, उन्हें पता ही नहीं चला. तभी तो साकेत ने मन ही मन फैसला किया था कि मानव की सर्जरी के बाद वह उस के मातापिता से उस का हाथ मांग लेंगे.

उधर वेदश्री डा. साकेत के मन में अपने प्रति उठने वाले प्यार की कोमल भावनाओं से पूरी तरह अनभिज्ञ थी. वह अभिजीत के साथ मिल कर अपने सुंदर सहजीवन के सपने संजोने में मगन थी. उस के लिए साकेत एक डाक्टर से अधिक कुछ भी न थे. हां, वह उन की बहुत इज्जत करती थी क्योंकि उस ने महसूस किया था कि डा. साकेत एक आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी होने के साथसाथ नेक दिल इनसान भी हैं.

समय अपनी चाल से चलता रहा और देखते ही देखते डेढ़ वर्ष का समय कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला. एक दिन फोन की घंटी बजी तो अभिजीत का फोन समझ कर वेदश्री ने फोन उठा लिया और ‘हैलो’ बोली.

‘‘वेदश्रीजी, डा. साकेत बोल रहा हूं. मैं ने यह बताने के लिए आप को फोन किया है कि यदि आप मानव को ले कर कल 12 बजे के करीब अस्पताल आ जाएं तो बेहतर होगा.’’

साकेत चाहता तो अपनी रिसेप्शनिस्ट से फोन करवा सकता था, लेकिन दिल का मामला था अत: उस ने खुद ही यह काम करना उचित समझा.

‘‘क्या कोई खास बात है, डाक्टर साहब,’’ वेदश्री समझ नहीं पा रही थी कि डाक्टर ने खुद क्यों उसे फोन किया. उसे लगा जरूर कोई गंभीर बात होगी.

‘‘नहीं, कोई ऐसी खास बात नहीं है. मैं ने तो यह संभावना दर्शाने के लिए आप के पास फोन किया है कि शायद कल मैं आप को एक बहुत बढि़या खबर सुना सकूं, क्योंकि मैं मानव को ले कर बेहद सकारात्मक हूं.’’

‘‘धन्यवाद, सर. मुझे खुशी है कि आप मानव के लिए इतना सोचते हैं. मैं कल मानव को ले कर जरूर हाजिर हो जाऊंगी, बाय…’’ और वेदश्री ने फोन रख दिया.

वेदश्री की मधुर आवाज ने साकेत को तरोताजा कर दिया. उस के होंठों पर एक मीठी मधुर मुसकान फैल गई.

मानव का चेकअप करने के बाद डा. साकेत वेदश्री की ओर मुखातिब हुए.

ये भी पढ़ें- लैटर बौक्स : भाग 1

‘‘क्या मैं आप को सिर्फ ‘श्री…जी’ कह कर बुला सकता हूं?’’ डा. साकेत बोले, ‘‘आप का नाम सुंदर होते हुए भी मुझे लगता है कि उसे थोड़ा छोटा कर के और सुंदर बनाया जा सकता है.’’

‘‘जी,’’ कह कर वेदश्री भी हंस पड़ी.

‘‘श्रीजी, मेरे खयाल से अब मानव की सर्जरी में हमें देर नहीं करनी चाहिए और इस से भी अधिक खुशी की बात यह है कि एशियन आई इंस्टीट्यूट बैंक से हमें मानव के लिए योग्य डोनेटर मिल गया है.’’

‘‘सच, डाक्टर साहब, मैं आप का यह ऋण कभी भी नहीं चुका सकूंगी,’’ उस की आंखों में आंसू उभर आए.

डा. साकेत के हाथों मानव की आंख की सर्जरी सफलतापूर्वक संपन्न हुई. परिवार के लोग दम साधे उस की आंख की पट्टी खुलने का इंतजार कर रहे थे.

सर्जरी के तुरंत बाद डा. साकेत ने उसे बताया कि मानव की सर्जरी सफल तो रही लेकिन उस आंख का विजन पूर्णतया वापस लौटने में कम से कम 6 महीने का वक्त और लगेगा. यह सुन कर उसे तकलीफ तो हुई थी लेकिन साथसाथ यह तसल्ली भी थी कि उस का भाई फिर इस दुनिया को अपनी स्वस्थ आंखों से देख सकेगा.

‘‘श्री…जी, मैं ने आप से वादा किया था कि आप को कभी नाउम्मीद नहीं होने दूंगा…’’ साकेत ने उस की गहरी आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘मैं ने आप को दिया अपना वादा पूरा किया.’’

वेदश्री ने संकोच से अपनी पलकें झुका दीं.

‘‘फिर मिलेंगे…’’ कुछ निराश भाव से डा. साकेत ने कहा और फिर मुड़ कर चले गए.

उस दिन एक लंबे अरसे के बाद वेदश्री बिना किसी बोझ के बेहद खुश मन से अभिजीत से मिली. उसे तनावरहित और खुशहाल देख कर अभि को भी बेहद खुशी हुई.

‘‘अभि, कितने लंबे अरसे के बाद आज हम फिर मिल रहे हैं. क्या तुम खुश नहीं?’’ श्री ने उस का हाथ अपने हाथ में थाम कर ऊष्मा से दबाते हुए पूछा.

ये भी पढ़ें- उस की दोस्त

अगले भाग में पढ़ें-  वह जिंदा रहता भी तो शायद आजीवन अपाहिज बन कर रह जाता.

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January 31, 2020 at 10:38AM

Valentine’s Special : कल हमेशा रहेगा

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