Friday 30 April 2021

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नौकरी पाने के लिए उम्‍मीदवारों को स्किल टेस्‍ट/ टाइप टेस्‍ट से भी गुजरना होगा। अंत ...

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GDS Vacancy 2021: भारतीय डाक विभाग में 2428 पदों पर निकलीं ...

10वीं पास के लिए सरकारी नौकरी का शानदार ... ली है और किसी नौकरी (Jobs) की तलाश में हैं, ...

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सिंह: सरकारी नौकरी पेशा लोगों के लिए समय अनुकूल नहीं है। बिना इच्छा के कार्य ...

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Jabalpur News: निजी कॉलेजों में नर्सिंग अंतिम वर्ष के ...

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प्रायश्चित्त : क्या सुधीर के गुनाह को उस की पत्नी माफ कर सकी

आज सुधीर की तेरहवीं है. मेरा चित्त अशांत है. बारबार नजर सुधीर की तसवीर की तरफ चली जाती. पति कितना भी दुराचारी क्यों न हो पत्नी के लिए उस की अहमियत कम नहीं होती. तमाम उपेक्षा, तिरस्कार के बावजूद ताउम्र मुझे सुधीर का इंतजार रहा. हो न हो उन्हें अपनी गलतियों का एहसास हो और मेरे पास चले आएं. पर यह मेरे लिए एक दिवास्वप्न ही रहा. आज जबकि वह सचमुच में नहीं रहे तो मन मानने को तैयार ही नहीं. बेटाबहू इंतजाम में लगे हैं और मैं अतीत के जख्मों को कुरेदने में लग गई.

सुधीर एक स्कूल में अध्यापक थे. साथ ही वह एक अच्छे कथाकार भी थे. कल्पनाशील, बौद्धिक. वह अकसर मुझे बड़ेबड़े साहित्यकारों के सारगर्भित तत्त्वों से अवगत कराते तो लगता अपना ज्ञान शून्य है. मुझ में कोई साहित्यिक सरोकार न था फिर भी उन की बातें ध्यानपूर्वक सुनती. उसी का असर था कि मैं भी कभीकभी उन से तर्कवितर्क कर बैठती. वह बुरा न मानते बल्कि प्रोत्साहित ही करते.

ये भी पढ़ें- फोन कौल्स : आखिर कौन था देर रात मीनाक्षी को फोन करने वाला

उस दिन सुधीर कोई कथा लिख रहे थे. कथा में दूसरी स्त्री का जिक्र था. मैं ने कहा, ‘यह सरासर अन्याय है उस पुरुष का जो पत्नी के होते हुए दूसरी औरत से संबंध बनाए,’ सुधीर हंस पड़े तो मैं बोली, ‘व्यवहार में ऐसा होता नहीं.’

सुधीर बोले, ‘खूबसूरत स्त्री हमेशा पुरुष की कमजोरी रही. मुझे नहीं लगता अगर सहज में किसी को ऐसी औरत मिले तो अछूता रहे. पुरुष को फिसलते देर नहीं लगती.’

‘मैं ऐसी स्त्री का मुंह नोंच लूंगी,’ कृत्रिम क्रोधित होते हुए मैं बोली.

‘पुरुष का नहीं?’ सुधीर ने टोका तो मैं ने कोई जवाब नहीं दिया.

कई साल गुजर गए उस वार्त्तालाप को. पर आज सोचती हूं कि मैं ने बड़ी गलती की. मुझे सुधीर के सवाल का जवाब देना चाहिए था. औरत का मौन खुद के लिए आत्मघाती होता है. पुरुष इसे स्त्री की कमजोरी मान लेता है और कमजोर को सताना हमारे समाज का दस्तूर है. इसी दस्तूर ने ही तो मुझे 30 साल सुधीर से दूर रखा.

सुधीर पर मैं ने आंख मूंद कर भरोसा किया. 2 बच्चों के पिता सुधीर ने जब इंटर की छात्रा नम्रता को घर पर ट्यूशन देना शुरू किया तो मुझे कल्पना में भी भान नहीं था कि दोनों के बीच प्रेमांकुर पनप रहे हैं. मैं भी कितनी मूर्ख थी कि बगल के कमरे में अपने छोटेछोटे बच्चों के साथ लेटी रहती पर एक बार भी नहीं देखती कि अंदर क्या हो रहा है. कभी गलत विचार मन में पनपे ही नहीं. पता तब चला जब नम्रता गर्भवती हो गई और एक दिन सुधीर अपनी नौकरी छोड़ कर रांची चले गए.

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मेरे सिर पर तब दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. 2 बच्चों को ले कर मेरा भविष्य अंधकारमय हो गया. कहां जाऊं, कैसे कटेगी जिंदगी? बच्चों की परवरिश कैसे होगी? लोग तरहतरह के सवाल करेंगे तो उन का जवाब क्या दूंगी? कहेंगे कि इस का पति लड़की ले कर भाग गया.

पुरुष पर जल्दी कोई दोष नहीं मढ़ता. उन्हें मुझ में ही खोट नजर आएंगे. कहेंगे, कैसी औरत है जो अपने पति को संभाल न सकी. अब मैं उन्हें कैसे समझाऊं कि मैं ने स्त्री धर्म का पालन किया. मैं ने उन वचनों को निभाया जो अग्नि को साक्षी मान कर लिए थे.

तीज का व्रत याद आने लगा. कितनी तड़प और बेचैनी होती है जब सारा दिन बिना अन्न, जल के अपने पति का साथ सात जन्मों तक पाने की लालसा में गुजार देती थी. गला सूख कर कांटा हो जाता. शाम होतेहोते लगता दम निकल जाएगा. सुधीर कहते, यह सब करने की क्या जरूरत है. मैं तो हमेशा तुम्हारे साथ हूं. पर वह क्या जाने इस तड़प में भी कितना सुख होता है. उस का यह सिला दिया सुधीर ने.

बनारस रहना मेरे लिए असह्य हो गया. लोगों की सशंकित नजरों ने जीना मुहाल कर दिया. असुरक्षा की भावना के चलते रात में नींद नहीं आती. दोनों बच्चे पापा को पूछते. इस बीच भइया आ गए. उन्हें मैं ने ही सूचित किया था. आते ही हमदोनों को खरीखोटी सुनाने लगे. मुझे जहां लापरवाह कहा वहीं सुधीर को लंपट. मैं लाख कहूं कि मैं ने उन पर भरोसा किया, अब कोई विश्वासघात पर उतारू हो जाए तो क्या किया जा सकता है. क्या मैं उठउठ कर उन के कमरे में झांकती कि वह क्या कर रहे हैं? क्या यह उचित होता? उन्होंने मेरे पीठ में छुरा भोंका. यह उन का चरित्र था पर मेरा नहीं जो उन पर निगरानी करूं.

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‘तो भुगतो,’ भैया गुस्साए.

भैया ने भी मुझे नहीं समझा. उन्हें लगा मैं ने गैरजिम्मेदारी का परिचय दिया. पति को ऐसे छोड़ देना मूर्ख स्त्री का काम है. मैं रोने लगी. भइया का दिल पसीज गया. जब उन का गुस्सा शांत हुआ तो उन्होंने रांची चलने के लिए कहा.

‘देखता हूं कहां जाता है,’ भैया बोले.

हम रांची आए. यहां शहर में मेरे एक चचेरे भाई रहते थे. मैं वहीं रहने लगी. उन्हें मुझ से सहानुभूति थी. भरसक उन्होंने मेरी मदद की. अंतत: एक दिन सुधीर का पता चल गया. उन्होंने नम्रता से विवाह कर लिया था. सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ. सुधीर इतने नीचे तक गिर सकते हैं. सारी बौद्धिकता, कल्पनाशीलता, बड़ीबड़ी इल्म की बातें सब खोखली साबित हुईं. स्त्री का सौंदर्य मतिभ्रष्टा होता है यह मैं ने सुधीर से जाना.

उस रोज भैया भी मेरे साथ जाना चाहते थे. पर मैं ने मना कर दिया. बिला वजह बहसाबहसी, हाथापाई का रूप ले सकता था. घर पर नम्रता मिली. देख कर मेरा खून खौल गया. मैं बिना इजाजत घर में घुस गई. उस में आंख मिलाने की भी हिम्मत न थी. वह नजरें चुराने लगी. मैं बरस पड़ी, ‘मेरा घर उजाड़ते हुए तुम्हें शर्म नहीं आई?’

उस की निगाहें झुकी हुई थीं.

‘चुप क्यों हो? तुम ने तो सारी हदें तोड़ दीं. रिश्तों का भी खयाल नहीं रहा.’

‘यह आप मुझ से क्यों पूछ रही हैं? उन्होंने मुझे बरगलाया. आज मैं न इधर की रही न उधर की,’ उस की आंखें भर आईं. एकाएक मेरा हृदय परिवर्तित हो गया.

मैं विचार करने लगी. इस में नम्रता का क्या दोष? जब 2 बच्चों का पिता अपनी मर्यादा भूल गया तो वह बेचारी तो अभी नादान है. गुरु मार्ग दर्शक होता है. अच्छे बुरे का ज्ञान कराता है. पर यहां गुरु ही शिष्या का शोषण करने पर तुला है. सुधीर से मुझे घिन आने लगी. खुद पर शर्म भी. कितना फर्क था दोनों की उम्र में. सुधीर को इस का भी खयाल नहीं आया. इस कदर कामोन्मत्त हो गया था कि लाज, शर्म, मानसम्मान सब को लात मार कर भाग गया. कायर, बुजदिल…मैं ने मन ही मन उसे लताड़ा.

‘तुम्हारी उम्र ही क्या है,’ कुछ सोच कर मैं बोली, ‘बेहतर होगा तुम अपने घर चली जाओ और नए सिरे से जिंदगी शुरू करो.’

‘अब संभव नहीं.’

‘क्यों?’ मुझे आश्चर्य हुआ.

‘मैं उन के बच्चे की मां बनने वाली हूं.’

‘तो क्या हुआ. गर्भ गिराया भी तो जा सकता है. सोचो, तुम्हें सुधीर से मिलेगा क्या? उम्र का इतना बड़ा फासला. उस पर रखैल की संज्ञा.’

‘मुझे सब मंजूर है क्योंकि मैं उन से प्यार करती हूं.’

यह सुन कर मैं तिलमिला कर रह गई पर संयत रही.

‘अभीअभी तुम ने कहा कि सुधीर ने तुम्हें बरगलाया है. फिर यह प्यारमोहब्बत की बात कहां से आ गई. जिसे तुम प्यार कहती हो वह महज शारीरिक आकर्षण है. एक दिन सुधीर का मन तुम से भी भर जाएगा तो किसी और को ले आएगा. अरे, जिसे 2 अबोध बच्चों का खयाल नहीं आया वह भला तुम्हारा क्या होगा,’ मैं ने नम्रता को भरसक समझाने का प्रयास किया. तभी सुधीर आ गया. मुझे देख कर सकपकाया. बोला, ‘तुम, यहां?’

‘हां मैं यहां. तुम जहन्नुम में भी होते तो खोज लेती. इतनी आसानी से नहीं छोड़ूंगी.’

‘मैं ने तुम्हें अपने से अलग ही कब किया था,’ सुधीर ने ढिठाई की.

‘बेशर्मी कोई तुम से सीखे,’ मैं बोली.

‘इन सब के लिए तुम जिम्मेदार हो.’

‘मैं…’ मैं चीखी, ‘मैं ने कहा था इसे लाने के लिए,’ नम्रता की तरफ इशारा करते हुए बोली.

‘मेरे प्रति तुम्हारी बेरुखी का नतीजा है.’

‘चौबीस घंटे क्या सारी औरतें अपने मर्दों की आरती उतारती रहती हैं? साफसाफ क्यों नहीं कहते कि तुम्हारा मन मुझ से भर गया.’

‘जो समझो पर मेरे लिए तुम अब भी वैसी ही हो.’

‘पत्नी.’

‘हां.’

‘तो यह कौन है?’

‘पत्नी.’

‘पत्नी नहीं, रखैल.’

‘जबान को लगाम दो,’ सुधीर तनिक ऊंचे स्वर में बोले. यह सब उन का नम्रता के लिए नाटक था.

‘मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतने बड़े पाखंडी हो. तुम्हारी सोच, बौद्धिकता सिर्फ दिखावा है. असल में तुम नाली के कीड़े हो,’ मैं उठने लगी, ‘याद रखना, तुम ने मेरे विश्वास को तोड़ा है. एक पतिव्रता स्त्री की आस्था खंडित की है. मेरी बददुआ हमेशा तुम्हारे साथ रहेगी. तुम इस के साथ कभी सुखी नहीं रहोगे,’ भर्राए गले से कहते हुए मैं ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. भरे कदमों से घर आई.

इस बीच मैं ने परिस्थितियों से मुकाबला करने का मन बना लिया था. सुधीर मेरे चित्त से उतर चुका था. रोनेगिड़गिड़ाने या फिर किसी पर आश्रित रहने से अच्छा है मैं खुद अपने पैरों पर खड़ी हूं. बेशक भैया ने मेरी मदद की. मगर मैं ने भी अपने बच्चों के भविष्य के लिए भरपूर मेहनत की. इस का मुझे नतीजा भी मिला. बेटा प्रशांत सरकारी नौकरी में आ गया और मेरी बेटी सुमेधा का ब्याह हो गया.

बेटी के ब्याह में शुरुआती दिक्कतें आईं. लोग मेरे पति के बारे में ऊलजलूल सवाल करते. पर मैं ने हिम्मत नहीं हारी. एक जगह बात बन गई. उन्हें हमारे परिवार से रिश्ता करने में कोई खोट नहीं नजर आई. अब मैं पूरी तरह बेटेबहू में रम गई. जिंदगी से जो भी शिकवाशिकायत थी सब दूर हो गई. उलटे मुझे लगा कि अगर ऐसा बुरा दिन न आता तो शायद मुझ में इतना आत्मबल न आता. जिंदगी से संघर्ष कर के ही जाना कि जिंदगी किसी के भरोसे नहीं चलती. सुधीर नहीं रहे तो क्या सारे रास्ते बंद हो गए. एक बंद होगा तो सौ खुलेंगे. इस तरह कब 60 की हो गई पता ही न चला. इस दौरान अकसर सुधीर का खयाल जेहन में आता रहा. कहां होंगे…कैसे होंगे?

एक रोज भैया ने खबर दी कि सुधीर आया है. वह मुझ से मिलना चाहता है. मुझे आश्चर्य हुआ. भला सुधीर को मुझ से क्या काम. मैं ने ज्यादा सोचविचार करना मुनासिब नहीं समझा. वर्षों बाद सुधीर का आगमन मुझे भावविभोर कर गया. अब मेरे दिल में सुधीर के लिए कोई रंज न था. मैं जल्दीजल्दी तैयार हुई. बाल संवार कर जैसे ही मांग भरने के लिए हाथ ऊपर किया कि प्रशांत ने रोक लिया.

‘मम्मी, पापा हमारे लिए मर चुके हैं.’

‘नहीं,’ मैं चिल्लाई, ‘वह आज भी मेरे लिए जिंदा हैं. वह जब तक जीवित रहेंगे मैं सिं?दूर लगाना नहीं छोड़ूंगी. तू कौन होता है मुझे यह सब समझाने वाला.’

‘मम्मी, उन्होंने क्या दिया है हमें, आप को. एक जिल्लत भरी जिंदगी. दरदर की ठोकरें खाई हैं हम ने तब कहीं जा कर यह मुकाम पाया है. उन्होंने तो कभी झांकना भी मुनासिब नहीं समझा. तुम्हारा न सही हमारा तो खयाल किया होता. कोई अपने बच्चों को ऐसे दुत्कारता है,’ प्रशांत भावुक हो उठा.

‘वह तेरे पिता हैं.’

‘सिर्फ नाम के.’

‘हमारे संस्कारों की जड़ें अभी इतनी कमजोर नहीं हैं बेटा कि मांबाप को मांबाप का दर्जा लेखाजोखा कर के दिया जाए. उन्होंने तुझे अपनी बांहों में खिलाया है. तुझे कहानी सुना कर वही सुलाते थे, इसे तू भूल गया होगा पर मैं नहीं. कितनी ही रात तेरी बीमारी के चलते वह सोए नहीं. आज तू कहता है कि वह सिर्फ नाम के पिता हैं,’ मैं कहती रही, ‘अगर तुझे उन्हें पिता नहीं मानना है तो मत मान पर मैं उन्हें अपना पति आज भी मानती हूं,’ प्रशांत निरुत्तर था.

मैं भरे मन से सुधीर से मिलने चल पड़ी.

सुधीर का हुलिया काफी बदल चुका था. वह काफी कमजोर लग रहे थे. मानो लंबी बीमारी से उठे हों. मुझे देखते ही उन की आंखें नम हो गईं.

‘मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम सब को बहुत दुख दिए.’

जी में आया कि उन के बगैर गुजारे एकएक पल का उन से हिसाब लूं पर खामोश रही. उम्र के इस पड़ाव पर हिसाबकिताब निरर्थक लगे.

सुधीर मेरे सामने हाथ जोड़े खड़े थे. इतनी सजा काफी थी. गुजरा वक्त लौट कर आता नहीं पर सुधीर अब भी मेरे पति थे. मैं अपने पति को और जलील नहीं देख सकती. बातोंबातों में भइया ने बताया कि सुधीर के दोनों गुर्दे खराब हो गए हैं. सुन कर मेरे कानों को विश्वास नहीं हुआ.

मैं विस्फारित नेत्रों से भैया को देखने लगी. वर्षों बाद सुधीर आए भी तो इस स्थिति में. कोई औरत विधवा होना नहीं चाहती. पर मेरा वैधव्य आसन्न था. मुझ से रहा न गया. उठ कर कमरे में चली आई. पीछे से भैया भी चले आए. शायद उन्हें आभास हो गया था. मेरे सिर पर हाथ रख कर बोले, ‘इन आंसुओं को रोको.’

‘मेरे वश में नहीं…’

‘नम्रता दवा के पैसे नहीं देती. वह और उस के बच्चे उसे मारतेपीटते हैं.’

‘बाप पर हाथ छोड़ते हैं?’

‘क्या करोगी. ऐसे रिश्तों की यही परिणति होती है.’

भइया के कथन पर मैं सुबकने लगी.

‘भइया, सुधीर से कहो, वह मेरे साथ ही रहें. मैं उन की पत्नी हूं…भले ही हमारा शरीर अलग हुआ हो पर आत्मा तो एक है. मैं उन की सेवा करूंगी. मेरे सामने दम निकलेगा तो मुझे तसल्ली होगी.’

भैया कुछ सोचविचार कर बोले, ‘प्रशांत तैयार होगा?’

‘वह कौन होता है हम पतिपत्नी के बीच में एतराज जताने वाला.’

‘ठीक है, मैं बात करता हूं…’

सुधीर ने साफ मना कर दिया, ‘मैं अपने गुनाहों का प्रायश्चित्त करना चाहता हूं. मुझे जितना तिरस्कार मिलेगा मुझे उतना ही सुकून मिलेगा. मैं इसी का हकदार हूं,’ इतना बोल कर सुधीर चले गए. मैं बेबस कुछ भी न कर सकी.

आज भी वह मेरे न हो सके. शांत जल में कंकड़ मार कर सुधीर ने टीस, दर्द ही दिया. पर आज और कल में एक फर्क था. वर्षों इस आस से मांग भरती रही कि अगर मेरे सतीत्व में बल होगा तो सुधीर जरूर आएंगे. वह लौटे. देर से ही सही. उन्होंने मुझे अपनी अर्धांगिनी होने का एहसास कराया तो. पति पत्नी का संबल होता है. आज वह एहसास भी चला गया.

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आज सुधीर की तेरहवीं है. मेरा चित्त अशांत है. बारबार नजर सुधीर की तसवीर की तरफ चली जाती. पति कितना भी दुराचारी क्यों न हो पत्नी के लिए उस की अहमियत कम नहीं होती. तमाम उपेक्षा, तिरस्कार के बावजूद ताउम्र मुझे सुधीर का इंतजार रहा. हो न हो उन्हें अपनी गलतियों का एहसास हो और मेरे पास चले आएं. पर यह मेरे लिए एक दिवास्वप्न ही रहा. आज जबकि वह सचमुच में नहीं रहे तो मन मानने को तैयार ही नहीं. बेटाबहू इंतजाम में लगे हैं और मैं अतीत के जख्मों को कुरेदने में लग गई.

सुधीर एक स्कूल में अध्यापक थे. साथ ही वह एक अच्छे कथाकार भी थे. कल्पनाशील, बौद्धिक. वह अकसर मुझे बड़ेबड़े साहित्यकारों के सारगर्भित तत्त्वों से अवगत कराते तो लगता अपना ज्ञान शून्य है. मुझ में कोई साहित्यिक सरोकार न था फिर भी उन की बातें ध्यानपूर्वक सुनती. उसी का असर था कि मैं भी कभीकभी उन से तर्कवितर्क कर बैठती. वह बुरा न मानते बल्कि प्रोत्साहित ही करते.

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उस दिन सुधीर कोई कथा लिख रहे थे. कथा में दूसरी स्त्री का जिक्र था. मैं ने कहा, ‘यह सरासर अन्याय है उस पुरुष का जो पत्नी के होते हुए दूसरी औरत से संबंध बनाए,’ सुधीर हंस पड़े तो मैं बोली, ‘व्यवहार में ऐसा होता नहीं.’

सुधीर बोले, ‘खूबसूरत स्त्री हमेशा पुरुष की कमजोरी रही. मुझे नहीं लगता अगर सहज में किसी को ऐसी औरत मिले तो अछूता रहे. पुरुष को फिसलते देर नहीं लगती.’

‘मैं ऐसी स्त्री का मुंह नोंच लूंगी,’ कृत्रिम क्रोधित होते हुए मैं बोली.

‘पुरुष का नहीं?’ सुधीर ने टोका तो मैं ने कोई जवाब नहीं दिया.

कई साल गुजर गए उस वार्त्तालाप को. पर आज सोचती हूं कि मैं ने बड़ी गलती की. मुझे सुधीर के सवाल का जवाब देना चाहिए था. औरत का मौन खुद के लिए आत्मघाती होता है. पुरुष इसे स्त्री की कमजोरी मान लेता है और कमजोर को सताना हमारे समाज का दस्तूर है. इसी दस्तूर ने ही तो मुझे 30 साल सुधीर से दूर रखा.

सुधीर पर मैं ने आंख मूंद कर भरोसा किया. 2 बच्चों के पिता सुधीर ने जब इंटर की छात्रा नम्रता को घर पर ट्यूशन देना शुरू किया तो मुझे कल्पना में भी भान नहीं था कि दोनों के बीच प्रेमांकुर पनप रहे हैं. मैं भी कितनी मूर्ख थी कि बगल के कमरे में अपने छोटेछोटे बच्चों के साथ लेटी रहती पर एक बार भी नहीं देखती कि अंदर क्या हो रहा है. कभी गलत विचार मन में पनपे ही नहीं. पता तब चला जब नम्रता गर्भवती हो गई और एक दिन सुधीर अपनी नौकरी छोड़ कर रांची चले गए.

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मेरे सिर पर तब दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. 2 बच्चों को ले कर मेरा भविष्य अंधकारमय हो गया. कहां जाऊं, कैसे कटेगी जिंदगी? बच्चों की परवरिश कैसे होगी? लोग तरहतरह के सवाल करेंगे तो उन का जवाब क्या दूंगी? कहेंगे कि इस का पति लड़की ले कर भाग गया.

पुरुष पर जल्दी कोई दोष नहीं मढ़ता. उन्हें मुझ में ही खोट नजर आएंगे. कहेंगे, कैसी औरत है जो अपने पति को संभाल न सकी. अब मैं उन्हें कैसे समझाऊं कि मैं ने स्त्री धर्म का पालन किया. मैं ने उन वचनों को निभाया जो अग्नि को साक्षी मान कर लिए थे.

तीज का व्रत याद आने लगा. कितनी तड़प और बेचैनी होती है जब सारा दिन बिना अन्न, जल के अपने पति का साथ सात जन्मों तक पाने की लालसा में गुजार देती थी. गला सूख कर कांटा हो जाता. शाम होतेहोते लगता दम निकल जाएगा. सुधीर कहते, यह सब करने की क्या जरूरत है. मैं तो हमेशा तुम्हारे साथ हूं. पर वह क्या जाने इस तड़प में भी कितना सुख होता है. उस का यह सिला दिया सुधीर ने.

बनारस रहना मेरे लिए असह्य हो गया. लोगों की सशंकित नजरों ने जीना मुहाल कर दिया. असुरक्षा की भावना के चलते रात में नींद नहीं आती. दोनों बच्चे पापा को पूछते. इस बीच भइया आ गए. उन्हें मैं ने ही सूचित किया था. आते ही हमदोनों को खरीखोटी सुनाने लगे. मुझे जहां लापरवाह कहा वहीं सुधीर को लंपट. मैं लाख कहूं कि मैं ने उन पर भरोसा किया, अब कोई विश्वासघात पर उतारू हो जाए तो क्या किया जा सकता है. क्या मैं उठउठ कर उन के कमरे में झांकती कि वह क्या कर रहे हैं? क्या यह उचित होता? उन्होंने मेरे पीठ में छुरा भोंका. यह उन का चरित्र था पर मेरा नहीं जो उन पर निगरानी करूं.

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‘तो भुगतो,’ भैया गुस्साए.

भैया ने भी मुझे नहीं समझा. उन्हें लगा मैं ने गैरजिम्मेदारी का परिचय दिया. पति को ऐसे छोड़ देना मूर्ख स्त्री का काम है. मैं रोने लगी. भइया का दिल पसीज गया. जब उन का गुस्सा शांत हुआ तो उन्होंने रांची चलने के लिए कहा.

‘देखता हूं कहां जाता है,’ भैया बोले.

हम रांची आए. यहां शहर में मेरे एक चचेरे भाई रहते थे. मैं वहीं रहने लगी. उन्हें मुझ से सहानुभूति थी. भरसक उन्होंने मेरी मदद की. अंतत: एक दिन सुधीर का पता चल गया. उन्होंने नम्रता से विवाह कर लिया था. सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ. सुधीर इतने नीचे तक गिर सकते हैं. सारी बौद्धिकता, कल्पनाशीलता, बड़ीबड़ी इल्म की बातें सब खोखली साबित हुईं. स्त्री का सौंदर्य मतिभ्रष्टा होता है यह मैं ने सुधीर से जाना.

उस रोज भैया भी मेरे साथ जाना चाहते थे. पर मैं ने मना कर दिया. बिला वजह बहसाबहसी, हाथापाई का रूप ले सकता था. घर पर नम्रता मिली. देख कर मेरा खून खौल गया. मैं बिना इजाजत घर में घुस गई. उस में आंख मिलाने की भी हिम्मत न थी. वह नजरें चुराने लगी. मैं बरस पड़ी, ‘मेरा घर उजाड़ते हुए तुम्हें शर्म नहीं आई?’

उस की निगाहें झुकी हुई थीं.

‘चुप क्यों हो? तुम ने तो सारी हदें तोड़ दीं. रिश्तों का भी खयाल नहीं रहा.’

‘यह आप मुझ से क्यों पूछ रही हैं? उन्होंने मुझे बरगलाया. आज मैं न इधर की रही न उधर की,’ उस की आंखें भर आईं. एकाएक मेरा हृदय परिवर्तित हो गया.

मैं विचार करने लगी. इस में नम्रता का क्या दोष? जब 2 बच्चों का पिता अपनी मर्यादा भूल गया तो वह बेचारी तो अभी नादान है. गुरु मार्ग दर्शक होता है. अच्छे बुरे का ज्ञान कराता है. पर यहां गुरु ही शिष्या का शोषण करने पर तुला है. सुधीर से मुझे घिन आने लगी. खुद पर शर्म भी. कितना फर्क था दोनों की उम्र में. सुधीर को इस का भी खयाल नहीं आया. इस कदर कामोन्मत्त हो गया था कि लाज, शर्म, मानसम्मान सब को लात मार कर भाग गया. कायर, बुजदिल…मैं ने मन ही मन उसे लताड़ा.

‘तुम्हारी उम्र ही क्या है,’ कुछ सोच कर मैं बोली, ‘बेहतर होगा तुम अपने घर चली जाओ और नए सिरे से जिंदगी शुरू करो.’

‘अब संभव नहीं.’

‘क्यों?’ मुझे आश्चर्य हुआ.

‘मैं उन के बच्चे की मां बनने वाली हूं.’

‘तो क्या हुआ. गर्भ गिराया भी तो जा सकता है. सोचो, तुम्हें सुधीर से मिलेगा क्या? उम्र का इतना बड़ा फासला. उस पर रखैल की संज्ञा.’

‘मुझे सब मंजूर है क्योंकि मैं उन से प्यार करती हूं.’

यह सुन कर मैं तिलमिला कर रह गई पर संयत रही.

‘अभीअभी तुम ने कहा कि सुधीर ने तुम्हें बरगलाया है. फिर यह प्यारमोहब्बत की बात कहां से आ गई. जिसे तुम प्यार कहती हो वह महज शारीरिक आकर्षण है. एक दिन सुधीर का मन तुम से भी भर जाएगा तो किसी और को ले आएगा. अरे, जिसे 2 अबोध बच्चों का खयाल नहीं आया वह भला तुम्हारा क्या होगा,’ मैं ने नम्रता को भरसक समझाने का प्रयास किया. तभी सुधीर आ गया. मुझे देख कर सकपकाया. बोला, ‘तुम, यहां?’

‘हां मैं यहां. तुम जहन्नुम में भी होते तो खोज लेती. इतनी आसानी से नहीं छोड़ूंगी.’

‘मैं ने तुम्हें अपने से अलग ही कब किया था,’ सुधीर ने ढिठाई की.

‘बेशर्मी कोई तुम से सीखे,’ मैं बोली.

‘इन सब के लिए तुम जिम्मेदार हो.’

‘मैं…’ मैं चीखी, ‘मैं ने कहा था इसे लाने के लिए,’ नम्रता की तरफ इशारा करते हुए बोली.

‘मेरे प्रति तुम्हारी बेरुखी का नतीजा है.’

‘चौबीस घंटे क्या सारी औरतें अपने मर्दों की आरती उतारती रहती हैं? साफसाफ क्यों नहीं कहते कि तुम्हारा मन मुझ से भर गया.’

‘जो समझो पर मेरे लिए तुम अब भी वैसी ही हो.’

‘पत्नी.’

‘हां.’

‘तो यह कौन है?’

‘पत्नी.’

‘पत्नी नहीं, रखैल.’

‘जबान को लगाम दो,’ सुधीर तनिक ऊंचे स्वर में बोले. यह सब उन का नम्रता के लिए नाटक था.

‘मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतने बड़े पाखंडी हो. तुम्हारी सोच, बौद्धिकता सिर्फ दिखावा है. असल में तुम नाली के कीड़े हो,’ मैं उठने लगी, ‘याद रखना, तुम ने मेरे विश्वास को तोड़ा है. एक पतिव्रता स्त्री की आस्था खंडित की है. मेरी बददुआ हमेशा तुम्हारे साथ रहेगी. तुम इस के साथ कभी सुखी नहीं रहोगे,’ भर्राए गले से कहते हुए मैं ने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. भरे कदमों से घर आई.

इस बीच मैं ने परिस्थितियों से मुकाबला करने का मन बना लिया था. सुधीर मेरे चित्त से उतर चुका था. रोनेगिड़गिड़ाने या फिर किसी पर आश्रित रहने से अच्छा है मैं खुद अपने पैरों पर खड़ी हूं. बेशक भैया ने मेरी मदद की. मगर मैं ने भी अपने बच्चों के भविष्य के लिए भरपूर मेहनत की. इस का मुझे नतीजा भी मिला. बेटा प्रशांत सरकारी नौकरी में आ गया और मेरी बेटी सुमेधा का ब्याह हो गया.

बेटी के ब्याह में शुरुआती दिक्कतें आईं. लोग मेरे पति के बारे में ऊलजलूल सवाल करते. पर मैं ने हिम्मत नहीं हारी. एक जगह बात बन गई. उन्हें हमारे परिवार से रिश्ता करने में कोई खोट नहीं नजर आई. अब मैं पूरी तरह बेटेबहू में रम गई. जिंदगी से जो भी शिकवाशिकायत थी सब दूर हो गई. उलटे मुझे लगा कि अगर ऐसा बुरा दिन न आता तो शायद मुझ में इतना आत्मबल न आता. जिंदगी से संघर्ष कर के ही जाना कि जिंदगी किसी के भरोसे नहीं चलती. सुधीर नहीं रहे तो क्या सारे रास्ते बंद हो गए. एक बंद होगा तो सौ खुलेंगे. इस तरह कब 60 की हो गई पता ही न चला. इस दौरान अकसर सुधीर का खयाल जेहन में आता रहा. कहां होंगे…कैसे होंगे?

एक रोज भैया ने खबर दी कि सुधीर आया है. वह मुझ से मिलना चाहता है. मुझे आश्चर्य हुआ. भला सुधीर को मुझ से क्या काम. मैं ने ज्यादा सोचविचार करना मुनासिब नहीं समझा. वर्षों बाद सुधीर का आगमन मुझे भावविभोर कर गया. अब मेरे दिल में सुधीर के लिए कोई रंज न था. मैं जल्दीजल्दी तैयार हुई. बाल संवार कर जैसे ही मांग भरने के लिए हाथ ऊपर किया कि प्रशांत ने रोक लिया.

‘मम्मी, पापा हमारे लिए मर चुके हैं.’

‘नहीं,’ मैं चिल्लाई, ‘वह आज भी मेरे लिए जिंदा हैं. वह जब तक जीवित रहेंगे मैं सिं?दूर लगाना नहीं छोड़ूंगी. तू कौन होता है मुझे यह सब समझाने वाला.’

‘मम्मी, उन्होंने क्या दिया है हमें, आप को. एक जिल्लत भरी जिंदगी. दरदर की ठोकरें खाई हैं हम ने तब कहीं जा कर यह मुकाम पाया है. उन्होंने तो कभी झांकना भी मुनासिब नहीं समझा. तुम्हारा न सही हमारा तो खयाल किया होता. कोई अपने बच्चों को ऐसे दुत्कारता है,’ प्रशांत भावुक हो उठा.

‘वह तेरे पिता हैं.’

‘सिर्फ नाम के.’

‘हमारे संस्कारों की जड़ें अभी इतनी कमजोर नहीं हैं बेटा कि मांबाप को मांबाप का दर्जा लेखाजोखा कर के दिया जाए. उन्होंने तुझे अपनी बांहों में खिलाया है. तुझे कहानी सुना कर वही सुलाते थे, इसे तू भूल गया होगा पर मैं नहीं. कितनी ही रात तेरी बीमारी के चलते वह सोए नहीं. आज तू कहता है कि वह सिर्फ नाम के पिता हैं,’ मैं कहती रही, ‘अगर तुझे उन्हें पिता नहीं मानना है तो मत मान पर मैं उन्हें अपना पति आज भी मानती हूं,’ प्रशांत निरुत्तर था.

मैं भरे मन से सुधीर से मिलने चल पड़ी.

सुधीर का हुलिया काफी बदल चुका था. वह काफी कमजोर लग रहे थे. मानो लंबी बीमारी से उठे हों. मुझे देखते ही उन की आंखें नम हो गईं.

‘मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम सब को बहुत दुख दिए.’

जी में आया कि उन के बगैर गुजारे एकएक पल का उन से हिसाब लूं पर खामोश रही. उम्र के इस पड़ाव पर हिसाबकिताब निरर्थक लगे.

सुधीर मेरे सामने हाथ जोड़े खड़े थे. इतनी सजा काफी थी. गुजरा वक्त लौट कर आता नहीं पर सुधीर अब भी मेरे पति थे. मैं अपने पति को और जलील नहीं देख सकती. बातोंबातों में भइया ने बताया कि सुधीर के दोनों गुर्दे खराब हो गए हैं. सुन कर मेरे कानों को विश्वास नहीं हुआ.

मैं विस्फारित नेत्रों से भैया को देखने लगी. वर्षों बाद सुधीर आए भी तो इस स्थिति में. कोई औरत विधवा होना नहीं चाहती. पर मेरा वैधव्य आसन्न था. मुझ से रहा न गया. उठ कर कमरे में चली आई. पीछे से भैया भी चले आए. शायद उन्हें आभास हो गया था. मेरे सिर पर हाथ रख कर बोले, ‘इन आंसुओं को रोको.’

‘मेरे वश में नहीं…’

‘नम्रता दवा के पैसे नहीं देती. वह और उस के बच्चे उसे मारतेपीटते हैं.’

‘बाप पर हाथ छोड़ते हैं?’

‘क्या करोगी. ऐसे रिश्तों की यही परिणति होती है.’

भइया के कथन पर मैं सुबकने लगी.

‘भइया, सुधीर से कहो, वह मेरे साथ ही रहें. मैं उन की पत्नी हूं…भले ही हमारा शरीर अलग हुआ हो पर आत्मा तो एक है. मैं उन की सेवा करूंगी. मेरे सामने दम निकलेगा तो मुझे तसल्ली होगी.’

भैया कुछ सोचविचार कर बोले, ‘प्रशांत तैयार होगा?’

‘वह कौन होता है हम पतिपत्नी के बीच में एतराज जताने वाला.’

‘ठीक है, मैं बात करता हूं…’

सुधीर ने साफ मना कर दिया, ‘मैं अपने गुनाहों का प्रायश्चित्त करना चाहता हूं. मुझे जितना तिरस्कार मिलेगा मुझे उतना ही सुकून मिलेगा. मैं इसी का हकदार हूं,’ इतना बोल कर सुधीर चले गए. मैं बेबस कुछ भी न कर सकी.

आज भी वह मेरे न हो सके. शांत जल में कंकड़ मार कर सुधीर ने टीस, दर्द ही दिया. पर आज और कल में एक फर्क था. वर्षों इस आस से मांग भरती रही कि अगर मेरे सतीत्व में बल होगा तो सुधीर जरूर आएंगे. वह लौटे. देर से ही सही. उन्होंने मुझे अपनी अर्धांगिनी होने का एहसास कराया तो. पति पत्नी का संबल होता है. आज वह एहसास भी चला गया.

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May 01, 2021 at 10:00AM

बलात्कार : कैसे उठाया उसने तकनीक का लाभ

अखबार के पहले पन्ने पर बड़ेबड़े अक्षरों में छपा था : पुलिस स्टेशन से मात्र 100 मीटर दूर स्थित फ्लैट में चाकू की नोक पर नकाबपोश ने बलात्कार किया. महिला के बयान के आधार पर विस्तृत वर्णन छपा था. महिला संगठनों द्वारा सरकार की लानतमलानत की गई. गृहमंत्री के घर पर प्रदर्शन हुआ. अखबार के तीसरे पन्ने पर खोजी पत्रकार ने बढ़ते बलात्कार की घटनाओं के आंकड़े छापे. विपक्ष के नेता ने प्रदेश में बढ़ते अपराध के लिए जिम्मेदार गृहमंत्री का इस्तीफा मांगा और सहानुभूति के लिए महिला के घर गए. पासपड़ोस के लोगों के साक्षात्कार लिए गए. किसी एक पड़ोसी ने महिला के संदिग्ध चरित्र पर टिप्पणी कर दी तो महिला पत्रकार उस व्यक्ति के पीछे पड़ गई. किसी का आचरण संदिग्ध हो तो क्या आप को उस से बलात्कार करने का अधिकार मिल गया?

पुलिस आई. विधि विज्ञान विशेषज्ञ आए. महिला का चिकित्सकीय परीक्षण हुआ. महिला के शरीर से वीर्य का नमूना लिया गया. घटनास्थल से उंगलियों के निशान उठाए गए. बिस्तर के कपड़ों पर वीर्य के धब्बों को अंकित कर कपड़े सील किए गए. महिला के शरीर से और कपड़ों पर पड़े वीर्य के नमूनों को डी.एन.ए. जांच के लिए विधि विज्ञान प्रयोगशाला भेजा गया. पुलिस ने प्रदेश के शातिर सभी अपराधियों का डी.एन.ए. परीक्षण कर रखा था. उन के डी.एन.ए. प्रिंट कंप्यूटर में सुरक्षित उपलब्ध थे. बलात्कारी के वीर्य के डी.एन.ए. प्रिंट का अपराधियों के डी.एन.ए. प्रिंट से मिलान किया गया.

ये भी पढ़ें- आदर्श मत बनना तनु

परिणाम चौंकाने वाले थे. बलात्कारी के वीर्य के डी.एन.ए. प्रिंट का मिलान जिस अपराधी के डी.एन.ए. से हुआ था वह शातिर अपराधी प्रदेश के एक केंद्रीय कारागार में बलात्कार के अपराध में ही सजा काट रहा था. वारदात के समय वह जेल में ही था, उस के पुख्ता सुबूत थे. डी.एन.ए. के परिणाम गलत नहीं हो सकते. पुलिस और विधि विज्ञान के विशेषज्ञ भौचक थे. दोबारा डी.एन.ए. परीक्षण हुआ और फिर मिलान किया गया. दूसरी प्रयोगशाला में भी परीक्षण किया गया, परिणाम वही थे. डी.एन.ए. परीक्षण के आधार पर ही सजायाफ्ता अपराधी को पहले सजा हुई थी. मुख्य साक्ष्य तब भी डी.एन.ए. परीक्षण और मिलान ही था. तब भी कोई चश्मदीद गवाह नहीं था.

अखबार वालों को फिर उछालने को मसाला मिल गया. विधि विज्ञान की डी.एन.ए. लैब की वीर्य परीक्षण प्रणाली पर सवाल उठाए गए. डी.एन.ए. जांच की सार्थकता पर भी सवाल उठे. डी.एन.ए. प्रिंट जुड़वां बच्चों को छोड़ कर, करोड़ों लोगों में से भी किन्हीं 2 का एक जैसा होना वैज्ञानिक आधार पर संभव नहीं था. यह केस इस आधार को ही चुनौती थी. जेल में बंद अपराधी जेल में कहता फिर रहा था कि वह अपनी पहली सजा को न्यायालय में चुनौती देगा. उस ने अपने वकील को बुलाया था.

ये भी पढ़ें- हमदर्दों से दूर -भाग 3 : अखिलेश सरला से क्यों मिलना चाहता था

जेल का रिकार्ड देखा गया. पिछले दिनों कौनकौन उस से मिलने आया था. यह देखा गया. घटना के पिछले हफ्ते अपराधी से जेल में मिलने एक महिला आई थी जो उस की बहन थी. तहकीकात की गई. अपराधी की बहन अपराधी के घर ठिकाने पर नहीं थी. वह वहां रहती भी नहीं थी. उस की शादी किसी दूसरे शहर में हुई थी. वह वहीं रहती थी.

एक टीम उस शहर में भेजी गई तो पता चला कि वह हैदराबाद गई हुई थी. सूचना के अनुसार जेल में मिलने की तारीख से पहले से ही. हैदराबाद में पता चला कि जेल में मिलने की तारीख को तो अपराधी की बहन की डिलीवरी वहां के एक अस्पताल में हुई थी. उस रोज वह अस्पताल में थी. अभी भी वहीं थी. फिर वह महिला कौन थी जो अपराधी से मिलने जेल में आई थी? क्या अपराधी का डी.एन.ए जांच का नतीजा गलत था? क्या उस को गलत सजा हुई थी? बलात्कार स्थल से प्राप्त वीर्य के नमूने का डी.एन.ए. का मिलान संदिग्ध अपराधी के रक्त के डी.एन.ए. से किया जाता है. क्या दोनों डी.एन.ए. में फर्क हो सकता है? वैसे तो कहते हैं एक व्यक्ति की हर कोशिका, रक्त, वीर्य, थूक आदि सभी का डी.एन.ए. एक होता है, लेकिन जब दूसरे व्यक्ति का रक्त चढ़ाया जाता है तब क्या रक्त के डी.एन.ए. में परिवर्तन हो सकता है? कहीं ऐसा ही कुछ सजायाफ्ता अपराधी के साथ तो नहीं हुआ था? क्या किसी परिस्थिति विशेष में शरीर के अवयवों का डी.एन.ए. बदल सकता है?

ये भी पढ़ें- सासुजी हों तो हमारी जैसी…

इन सभी सवालों का उत्तर जानना आवश्यक था. कारण, अपराधी अपने वकील द्वारा उच्च न्यायालय में केस करने जा रहा था. अत: केस से संबंधित एस.पी. विधि विज्ञान प्रयोगशाला के विशेषज्ञ के पास गए. विशेषज्ञ ने बताया कि ब्लड बैंक से रक्त लेने वाले के रक्त का डी.एन.ए. नहीं बदलता. कारण चढ़ाए गए रक्त में मुख्यतया लाल रक्त कण ही होते हैं और उन में कोई डी.एन.ए. नहीं होता. डी.एन.ए. केवल श्वेत रक्त कणों में होता है और उन का नंबर इतना कम हो जाता है कि छोटे से रक्त के सैंपल में उन का आना असंभव है. फिर इन सभी रक्त कणों का जीवन चक्र मात्र कुछ महीनों का ही होता है.

‘‘तो क्या किसी भी स्थिति में, जैसे बारबार ब्लड ट्रांसफ्यूजन हो या कई बोतलें रक्त चढ़ें तो रक्त का डी.एन.ए. बदल सकता है?’’ एस.पी. ने पूछा. ‘‘नहीं, संभावना न के बराबर है. हां, एक स्थिति में रक्त का डी.एन.ए. बदल सकता है, जब व्यक्ति का बोन मैरो प्रत्यारोपण किया जाए.

‘‘देखिए, रक्त हड्डियों में स्थित रक्त मज्जा से बनता है. रक्त कणों का जीवन मात्र 120 दिनों का होता है. बोन मैरो ट्रांसप्लांट में हम व्यक्ति की स्वयं की रक्त मज्जा को सर्वथा खत्म कर उस की जगह दूसरे व्यक्ति की रक्त मज्जा की कोशिकाओं को स्थापित करते हैं. तब नई रक्त मज्जा की कोशिकाएं अपनी डी.एन.ए. वाले रक्त कण बनाती हैं. रक्त में वही मिलते हैं. अत: रक्त का डी.एन.ए. बदल जाता है.’’ ‘‘क्या ऐसे में वीर्य का डी.एन.ए. भी बदल जाएगा?’’ एस.पी. ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ फिर कुछ सोच कर, ‘‘हां, अगर उस के जननांग के किसी भाग, प्रोस्टेट आदि का इंफेक्शन हो और उस के फलस्वरूप वीर्य में काफी पस सेल्स, अर्थात रक्त की श्वेत कण कोशिकाएं हों तो जरूर मिक्स डी.एन.ए. पैटर्न मिल सकता है. शुक्राणुओं का एक डी.एन.ए. और श्वेत कणों का दूसरा. इधर जिस महिला का बलात्कार हुआ था उस पर नजर रखी जा रही थी. वह एक ट्रैवल एजेंसी में काम करती थी. शुरू में तो उस की हरकतें सामान्य ही दिखीं. आफिस, घर, थोड़ाबहुत इधरउधर. जानपहचान वालों से पूछताछ पर उस महिला की काफी संग्दिध गतिविधियों का पता लगा. धीरेधीरे परतें खुलती गईं. समय गुजरने के साथसाथ वह अपने वास्तविक आचरण पर आ गई. जिन महिलाओं से वह मिलती थी, जिन पुरुषों के संपर्क में आती थी उन पर नजर रखी गई तो असलियत सामने आ गई. वह एक कालगर्ल रैकेट (देह व्यापार गिरोह) की सदस्य थी. पुलिस ने जाल बिछाया और आखिर में सभी को पकड़ लिया.

ये भी पढ़ें- भंवरजाल : जब भाई बहन ने लांघी रिश्तों की मर्यादा

जब उन लड़कियों और उस महिला को जेल में लाया गया तो महिला को देख कर एक पुलिस वाला बोला, ‘‘अरे, यह तो वही है जो बलात्कारी कैदी से मिलने आई थी. बड़ा मुंह ढक कर आई थी.’’ तहकीकात की गई तो और सचाई सामने आ गई. साक्ष्य जुड़ते गए और आखिर में महिला और कैदी ने स्वीकार कर लिया कि कैदी का वीर्य, महिला जब बहन के नाम से मिलने आई थी तभी ले गई थी और तयशुदा ढोंग रच कर उस ने बलात्कार होने का शोर मचा कर जेल से लाए गए वीर्य का प्रयोग किया.

विधि विज्ञान का वैज्ञानिक आधार बढ़ा है तो अपराधी भी शातिर हो गए हैं.

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अखबार के पहले पन्ने पर बड़ेबड़े अक्षरों में छपा था : पुलिस स्टेशन से मात्र 100 मीटर दूर स्थित फ्लैट में चाकू की नोक पर नकाबपोश ने बलात्कार किया. महिला के बयान के आधार पर विस्तृत वर्णन छपा था. महिला संगठनों द्वारा सरकार की लानतमलानत की गई. गृहमंत्री के घर पर प्रदर्शन हुआ. अखबार के तीसरे पन्ने पर खोजी पत्रकार ने बढ़ते बलात्कार की घटनाओं के आंकड़े छापे. विपक्ष के नेता ने प्रदेश में बढ़ते अपराध के लिए जिम्मेदार गृहमंत्री का इस्तीफा मांगा और सहानुभूति के लिए महिला के घर गए. पासपड़ोस के लोगों के साक्षात्कार लिए गए. किसी एक पड़ोसी ने महिला के संदिग्ध चरित्र पर टिप्पणी कर दी तो महिला पत्रकार उस व्यक्ति के पीछे पड़ गई. किसी का आचरण संदिग्ध हो तो क्या आप को उस से बलात्कार करने का अधिकार मिल गया?

पुलिस आई. विधि विज्ञान विशेषज्ञ आए. महिला का चिकित्सकीय परीक्षण हुआ. महिला के शरीर से वीर्य का नमूना लिया गया. घटनास्थल से उंगलियों के निशान उठाए गए. बिस्तर के कपड़ों पर वीर्य के धब्बों को अंकित कर कपड़े सील किए गए. महिला के शरीर से और कपड़ों पर पड़े वीर्य के नमूनों को डी.एन.ए. जांच के लिए विधि विज्ञान प्रयोगशाला भेजा गया. पुलिस ने प्रदेश के शातिर सभी अपराधियों का डी.एन.ए. परीक्षण कर रखा था. उन के डी.एन.ए. प्रिंट कंप्यूटर में सुरक्षित उपलब्ध थे. बलात्कारी के वीर्य के डी.एन.ए. प्रिंट का अपराधियों के डी.एन.ए. प्रिंट से मिलान किया गया.

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परिणाम चौंकाने वाले थे. बलात्कारी के वीर्य के डी.एन.ए. प्रिंट का मिलान जिस अपराधी के डी.एन.ए. से हुआ था वह शातिर अपराधी प्रदेश के एक केंद्रीय कारागार में बलात्कार के अपराध में ही सजा काट रहा था. वारदात के समय वह जेल में ही था, उस के पुख्ता सुबूत थे. डी.एन.ए. के परिणाम गलत नहीं हो सकते. पुलिस और विधि विज्ञान के विशेषज्ञ भौचक थे. दोबारा डी.एन.ए. परीक्षण हुआ और फिर मिलान किया गया. दूसरी प्रयोगशाला में भी परीक्षण किया गया, परिणाम वही थे. डी.एन.ए. परीक्षण के आधार पर ही सजायाफ्ता अपराधी को पहले सजा हुई थी. मुख्य साक्ष्य तब भी डी.एन.ए. परीक्षण और मिलान ही था. तब भी कोई चश्मदीद गवाह नहीं था.

अखबार वालों को फिर उछालने को मसाला मिल गया. विधि विज्ञान की डी.एन.ए. लैब की वीर्य परीक्षण प्रणाली पर सवाल उठाए गए. डी.एन.ए. जांच की सार्थकता पर भी सवाल उठे. डी.एन.ए. प्रिंट जुड़वां बच्चों को छोड़ कर, करोड़ों लोगों में से भी किन्हीं 2 का एक जैसा होना वैज्ञानिक आधार पर संभव नहीं था. यह केस इस आधार को ही चुनौती थी. जेल में बंद अपराधी जेल में कहता फिर रहा था कि वह अपनी पहली सजा को न्यायालय में चुनौती देगा. उस ने अपने वकील को बुलाया था.

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जेल का रिकार्ड देखा गया. पिछले दिनों कौनकौन उस से मिलने आया था. यह देखा गया. घटना के पिछले हफ्ते अपराधी से जेल में मिलने एक महिला आई थी जो उस की बहन थी. तहकीकात की गई. अपराधी की बहन अपराधी के घर ठिकाने पर नहीं थी. वह वहां रहती भी नहीं थी. उस की शादी किसी दूसरे शहर में हुई थी. वह वहीं रहती थी.

एक टीम उस शहर में भेजी गई तो पता चला कि वह हैदराबाद गई हुई थी. सूचना के अनुसार जेल में मिलने की तारीख से पहले से ही. हैदराबाद में पता चला कि जेल में मिलने की तारीख को तो अपराधी की बहन की डिलीवरी वहां के एक अस्पताल में हुई थी. उस रोज वह अस्पताल में थी. अभी भी वहीं थी. फिर वह महिला कौन थी जो अपराधी से मिलने जेल में आई थी? क्या अपराधी का डी.एन.ए जांच का नतीजा गलत था? क्या उस को गलत सजा हुई थी? बलात्कार स्थल से प्राप्त वीर्य के नमूने का डी.एन.ए. का मिलान संदिग्ध अपराधी के रक्त के डी.एन.ए. से किया जाता है. क्या दोनों डी.एन.ए. में फर्क हो सकता है? वैसे तो कहते हैं एक व्यक्ति की हर कोशिका, रक्त, वीर्य, थूक आदि सभी का डी.एन.ए. एक होता है, लेकिन जब दूसरे व्यक्ति का रक्त चढ़ाया जाता है तब क्या रक्त के डी.एन.ए. में परिवर्तन हो सकता है? कहीं ऐसा ही कुछ सजायाफ्ता अपराधी के साथ तो नहीं हुआ था? क्या किसी परिस्थिति विशेष में शरीर के अवयवों का डी.एन.ए. बदल सकता है?

ये भी पढ़ें- सासुजी हों तो हमारी जैसी…

इन सभी सवालों का उत्तर जानना आवश्यक था. कारण, अपराधी अपने वकील द्वारा उच्च न्यायालय में केस करने जा रहा था. अत: केस से संबंधित एस.पी. विधि विज्ञान प्रयोगशाला के विशेषज्ञ के पास गए. विशेषज्ञ ने बताया कि ब्लड बैंक से रक्त लेने वाले के रक्त का डी.एन.ए. नहीं बदलता. कारण चढ़ाए गए रक्त में मुख्यतया लाल रक्त कण ही होते हैं और उन में कोई डी.एन.ए. नहीं होता. डी.एन.ए. केवल श्वेत रक्त कणों में होता है और उन का नंबर इतना कम हो जाता है कि छोटे से रक्त के सैंपल में उन का आना असंभव है. फिर इन सभी रक्त कणों का जीवन चक्र मात्र कुछ महीनों का ही होता है.

‘‘तो क्या किसी भी स्थिति में, जैसे बारबार ब्लड ट्रांसफ्यूजन हो या कई बोतलें रक्त चढ़ें तो रक्त का डी.एन.ए. बदल सकता है?’’ एस.पी. ने पूछा. ‘‘नहीं, संभावना न के बराबर है. हां, एक स्थिति में रक्त का डी.एन.ए. बदल सकता है, जब व्यक्ति का बोन मैरो प्रत्यारोपण किया जाए.

‘‘देखिए, रक्त हड्डियों में स्थित रक्त मज्जा से बनता है. रक्त कणों का जीवन मात्र 120 दिनों का होता है. बोन मैरो ट्रांसप्लांट में हम व्यक्ति की स्वयं की रक्त मज्जा को सर्वथा खत्म कर उस की जगह दूसरे व्यक्ति की रक्त मज्जा की कोशिकाओं को स्थापित करते हैं. तब नई रक्त मज्जा की कोशिकाएं अपनी डी.एन.ए. वाले रक्त कण बनाती हैं. रक्त में वही मिलते हैं. अत: रक्त का डी.एन.ए. बदल जाता है.’’ ‘‘क्या ऐसे में वीर्य का डी.एन.ए. भी बदल जाएगा?’’ एस.पी. ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ फिर कुछ सोच कर, ‘‘हां, अगर उस के जननांग के किसी भाग, प्रोस्टेट आदि का इंफेक्शन हो और उस के फलस्वरूप वीर्य में काफी पस सेल्स, अर्थात रक्त की श्वेत कण कोशिकाएं हों तो जरूर मिक्स डी.एन.ए. पैटर्न मिल सकता है. शुक्राणुओं का एक डी.एन.ए. और श्वेत कणों का दूसरा. इधर जिस महिला का बलात्कार हुआ था उस पर नजर रखी जा रही थी. वह एक ट्रैवल एजेंसी में काम करती थी. शुरू में तो उस की हरकतें सामान्य ही दिखीं. आफिस, घर, थोड़ाबहुत इधरउधर. जानपहचान वालों से पूछताछ पर उस महिला की काफी संग्दिध गतिविधियों का पता लगा. धीरेधीरे परतें खुलती गईं. समय गुजरने के साथसाथ वह अपने वास्तविक आचरण पर आ गई. जिन महिलाओं से वह मिलती थी, जिन पुरुषों के संपर्क में आती थी उन पर नजर रखी गई तो असलियत सामने आ गई. वह एक कालगर्ल रैकेट (देह व्यापार गिरोह) की सदस्य थी. पुलिस ने जाल बिछाया और आखिर में सभी को पकड़ लिया.

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जब उन लड़कियों और उस महिला को जेल में लाया गया तो महिला को देख कर एक पुलिस वाला बोला, ‘‘अरे, यह तो वही है जो बलात्कारी कैदी से मिलने आई थी. बड़ा मुंह ढक कर आई थी.’’ तहकीकात की गई तो और सचाई सामने आ गई. साक्ष्य जुड़ते गए और आखिर में महिला और कैदी ने स्वीकार कर लिया कि कैदी का वीर्य, महिला जब बहन के नाम से मिलने आई थी तभी ले गई थी और तयशुदा ढोंग रच कर उस ने बलात्कार होने का शोर मचा कर जेल से लाए गए वीर्य का प्रयोग किया.

विधि विज्ञान का वैज्ञानिक आधार बढ़ा है तो अपराधी भी शातिर हो गए हैं.

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May 01, 2021 at 10:00AM

नशा : नीरा किसके इंतजार में चक्कर लगा रही थी

आगंतुकों के स्वागत सत्कार के चक्कर में बैठक से मुख्य दरवाजे तक नीरा के लगभग 10 चक्कर लग चुके थे, लेकिन थकने के बजाय वे स्फूर्ति ही महसूस कर रही थीं, क्योंकि आगंतुकों द्वारा उन की प्रशंसा में पुल बांधे जा रहे थे. हुआ यह था कि नीरा की बहू पूर्वी का परीक्षा परिणाम आ गया था. उस ने एम.बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी. लेकिन तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे नीरा के. पूर्वी तो बेचारी रसोई और बैठक के बीच ही चक्करघिन्नी बनी हुई थी. बीचबीच में कोई बधाई का जुमला उस तक पहुंचता तो वह मुसकराहट सहित धन्यवाद कह देती. आगंतुकों में ज्यादातर उस की महिला क्लब की सदस्याएं ही थीं, तो कुछ थे उस के परिवार के लोग और रिश्तेदार. नीरा को याद आ रहा था इस खूबसूरत पल से जुड़ा अपना सफर.

जब महिला क्लब अध्यक्षा के चुनाव में अप्रत्याशित रूप से उन का नाम घोषित हुआ था, तो वे चौंक उठी थीं. और जब धन्यवाद देने के लिए उन्हें माइक थमा दिया गया था, तो साथी महिलाओं को आभार प्रकट करती वे अनायास ही भावुक हो उठी थीं, ‘‘आप लोगों ने मुझ पर जो विश्वास जताया है उस के लिए मैं आप सभी की आभारी हूं. मैं प्रयास करूंगी कि अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाते हुए आप लोगों की अपेक्षाओं पर खरी उतरूं.’’

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लेकिन इस तरह का वादा कर लेने के बाद भी नीरा का पेट नहीं भरा था. वे चाहती थीं कुछ ऐसा कर दिखाएं कि सभी सहेलियां वाहवाह कर उठें और उन्हें अपने चयन पर गर्व हो कि अध्यक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण पद के लिए उन्होंने सर्वथा उपयुक्त पात्र चुना है. बहुत सोचविचार के बाद नीरा को आखिर एक युक्ति सूझ ही गई. बहू पूर्वी को एम.बी.ए. में प्रवेश दिलवाना उन्हें अपनी प्रगतिशील सोच के प्रचार का सर्वाधिक सुलभ हथियार लगा. शादी के 4 साल बाद और 1 बच्चे की मां बन जाने के बाद फिर से पढ़ाई में जुट जाने का सास का प्रस्ताव पूर्वी को बड़ा अजीब लगा. वह तो नौकरी भी नहीं कर रही थी.

उस ने दबे शब्दों में प्रतिरोध करना चाहा तो नीरा ने मीठी डांट पिलाते हुए उस का मुंह बंद कर दिया, ‘‘अरे देर कैसी? जब जागो तभी सवेरा. अभी तुम्हारी उम्र ही क्या हुई है? मेरे दिमाग में तो तुम्हें आगे पढ़ाने की बात शुरू से ही थी. शुरू में 1-2 साल तो मैं ने सोचा मौजमस्ती कर लेने दो फिर देखा जाएगा. पर तब तक गोलू आ गया और तुम उस में व्यस्त हो गईं. अब वह भी ढाई साल का हो गया है. थोड़े दिनों में नर्सरी में जाने लगेगा. घर तो मैं संभाल लूंगी और ज्यादा जरूरत हुई तो खाना बनाने वाली रख लेंगे.’’

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‘‘लेकिन एम.बी.ए. कर के मैं करूंगी क्या? नौकरी? मैं ने तो कभी की नहीं,’’ पूर्वी कुछ समझ नहीं पा रही थी कि सास के मन में क्या है?

‘‘पढ़ाई सिर्फ नौकरी के लिए ही नहीं की जाती. वह करो न करो तुम्हारी मरजी. पर इस से ज्ञान तो बढ़ता है और हाथ में डिगरी आती है, जो कभी भी काम आ सकती है. समझ रही हो न?’’

‘‘जी.’’

‘‘मैं ने 2-3 कालेजों से ब्रोशर मंगवाए हैं. उन्हें पढ़ कर तय करते हैं कि तुम्हें किस कालेज में प्रवेश लेना है.’’

‘‘मुझे अब फिर से कालेज जाना होगा? घर बैठे पत्राचार से…’’

‘‘नहींनहीं. उस से किसी को कैसे पता चलेगा कि तुम आगे पढ़ रही हो?’’

‘‘पता चलेगा? किसे पता करवाना है?’’ सासूमां के इरादों से सर्वथा अनजान पूर्वी कुछ भी समझ नहीं पा रह थी.

‘‘मेरा मतलब था कि पत्राचार से इसलिए नहीं क्योंकि उस की प्रतिष्ठा और मान्यता पर मुझे थोड़ा संदेह है. नियमित कालेज विद्यार्थी की तरह पढ़ाई कर के डिगरी लेना ही उपयुक्त होगा.’’

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पूर्वी के चेहरे पर अभी भी हिचकिचाहट देख कर नीरा ने तुरंत बात समेटना ही उचित समझा. कहीं तर्कवितर्क का यह सिलसिला लंबा खिंच कर उस के मंसूबों पर पानी न फेर दे.

‘‘एक बार कालेज जाना आरंभ करोगी तो खुदबखुद सारी रुकावटें दूर होती चली जाएंगी और तुम्हें अच्छा लगने लगेगा.’’

वाकई फिर ऐसा हुआ भी. पूर्वी ने कालेज जाना फिर से आरंभ किया और आज उसे डिगरी मिल गई थी. उसी की बधाई देने नातेरिश्तेदारों, पड़ोसियों, पूर्वी  की सहेलियों और नीरा के महिला क्लब की सदस्याओं का तांता सा बंध गया था. पूर्वी से ज्यादा नीरा की तारीफों के सुर सुनाई पड़ रहे थे.

‘‘भई, सास हो तो नीरा जैसी. इन्होंने तो एक मिसाल कायम कर दी है. लोग तो अपनी बहुओं की शादी के बाद पढ़ाई, नौकरी आदि छुड़वा कर घरों में बैठा लेते हैं. सास उन पर गृहस्थी का बोझ लाद कर तानाशाही हुक्म चलाती है. और नीरा को देखो, गृहस्थी, बच्चे सब की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले कर बहू को आजाद कर दिया. ऐसा कर के उन्होंने एक आदर्श सास की भूमिका अदा की है. हम सभी को उन का अनुसरण करना चाहिए.’’

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‘‘अरे नहीं, आप लोग तो बस ऐसे ही…’’ प्रशंसा से अभिभूत और स्नेह से गद्गद नीरा ने प्रतिक्रिया में खींसे निपोर दी थीं.

‘‘नीरा ने आज एक और बात सिद्ध कर दी है,’’ अपने चिरपरिचित रहस्यात्मक अंदाज में सुरभि बोली.

‘‘क्या? क्या?’’ कई उत्सुक निगाहें उस की ओर उठ गईं.

‘‘यही कि अपने क्लब की अध्यक्षा के रूप में उन का चयन कर के हम ने कोई गलती नहीं की. ये वास्तव में इस पद के लिए सही पात्र थीं. अपने इस प्रगतिशील कदम से उन्होंने अध्यक्षा पद की गरिमा में चार चांद लगा दिए हैं. हम सभी को उन पर बेहद गर्व है.’’ सभी महिलाओं ने ताली बजा कर अपनी सहमति दर्ज कराई. ये ही वे पल थे जिन से रूबरू होने के लिए नीरा ने इतनी तपस्या की थी. गर्व से उन की गरदन तन गई.

‘‘आप लोग तो एक छोटी सी बात को इतना बढ़ाचढ़ा कर प्रस्तुत कर रहे हैं. सच कहती हूं, यह कदम उठाने से पहले मेरे दिल में इस तरह की तारीफ पाने जैसी कोई मंशा ही नहीं थी. बस अनायास ही दिल जो कहता गया मैं करती चली गई. अब आप लोगों को इतना अच्छा लगेगा यह तो मैं ने कभी सोचा भी नहीं था. खैर छोडि़ए अब उस बात को…कुछ खानेपीने का लुत्फ उठाइए. अरे सुरभि, तुम ने तो कुछ लिया ही नहीं,’’ कहते हुए नीरा ने जबरदस्ती उस की प्लेट में एक रसगुल्ला डाल दिया. शायद यह उस के द्वारा की गई प्रशंसा का पुरस्कार था, जिस का नशा नीरा के सिर चढ़ कर बोलने लगा था.

‘‘मैं आप लोगों के लिए गरमगरम चाय बना कर लाती हूं,’’ नीरा ने उठने का उपक्रम किया.

‘‘अरे नहीं, आप बैठो न. चाय घर जा कर पी लेंगे. आप से बात करने का तो मौका ही कम मिलता है. आप हर वक्त घरगृहस्थी में जो लगी रहती हो.’’

‘‘आप बैठिए मम्मीजी, चाय मैं बना लाती हूं,’’ पूर्वी बोली.

‘‘अरे नहीं, तू बैठ न. मैं बना दूंगी,’’ नीरा ने फिर हलका सा उठने का उपक्रम करना चाहा पर तब तक पूर्वी को रसोई की ओर जाता देख वे फिर से आराम से बैठ गईं और बोली, ‘‘यह सुबह से मुझे कुछ करने ही नहीं दे रही. कहती है कि हमेशा तो आप ही संभालती हैं. कभी तो मुझे भी मौका दीजिए.’’

पूर्वी का दबा व्यक्तित्व आज और भी दब्बू हो उठा था. सासूमां के नाम के आगे जुड़ती प्रगतिशील, ममतामयी, उदारमना जैसी एक के बाद एक पदवियां उसे हीन बनाए जा रही थीं. उसे लग रहा था उसे तो एक ही डिगरी मिली है पर उस की एक डिगरी की वजह से सासूमां को न जाने कितनी डिगरियां मिल गई हैं. कहीं सच में उसे कालेज भेजने के पीछे सासूमां का कोई सुनियोजित मंतव्य तो नहीं था?…नहींनहीं उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिए.

‘‘पूर्वी बेटी, मैं कुछ मदद करूं?’’ बैठक से आवाज आई तो पूर्वी ने दिमाग को झटका दे कर तेजी से ट्रे में कप जमाने आरंभ कर दिए, ‘‘नहीं मम्मीजी, चाय बन गई है. मैं ला रही हूं,’’ फिर चाय की ट्रे हाथों में थामे पूर्वी बैठक में पहुंच कर सब को चाय सर्व करने लगी. विदा लेते वक्त मम्मीजी की सहेलियों ने उसे एक बार फिर बधाई दी.

‘‘यह बधाई डिगरी के लिए भी है और नीरा जैसी सास पाने के लिए भी, सुरभि ने जाते वक्त पूर्वी से हंस कर कहा.’’

‘‘जी शुक्रिया.’’

अंदर लौटते ही नीरा दीवान पर पसर गईं और बुदबुदाईं, ‘‘उफ, एक के बाद एक…हुजूम थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. थक गई मैं तो आवभगत करतेकरते.’’ जूठे कपप्लेट उठाती पूर्वी के हाथ एक पल को ठिठके पर फिर इन बातों के अभ्यस्त कानों ने आगे बढ़ने का इशारा किया तो वह फिर से सामान्य हो कर कपप्लेट समेटने लगी.

‘‘मीनाबाई आई नहीं क्या अभी तक?’’ नीरा को एकाएक खयाल आया.

‘‘नहीं.’’

‘‘ओह, फिर तो रसोई में बरतनों का ढेर लग गया होगा. इन बाइयों के मारे तो नाक में दम है. लो फिर घंटी बजी…तुम चलो रसोई में, मैं देखती हूं.’’

फिर इठलाती नीरा ने दरवाजा खोला, तो सामने पूर्वी के मातापिता को देख कर बोल उठीं, ‘‘आइएआइए, बहुतबहुत बधाई हो आप को बेटी के रिजल्ट की.’’

‘‘अरे, बधाई की असली हकदार तो आप हैं. आप उसे सहयोग नहीं करतीं तो उस के बूते का थोड़े ही था यह सब.’’

‘‘अरे आप तो मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं. मैं ने तो बस अपना फर्ज निभाया है. आइए, बैठिए. मैं पूर्वी को भेजती हूं,’’ फिर पूर्वी को आवाज दी, ‘‘पूर्वी बेटा. तुम्हारे मम्मीपापा आए हैं. अब तुम इन के पास बैठो. इन्हें मिठाई खिलाओ, बातें करो. अंदर रसोई आदि की चिंता मुझ पर छोड़ दो. मैं संभाल लूंगी.’’

नीरा ने दिखाने को यह कह तो दिया था. पर अंदर रसोई में आ कर जो बरतनों का पहाड़ देखा तो सिर पकड़ लिया. मन ही मन बाई को सौ गालियां देते हुए उन्होंने बैठक में नाश्ता भिजवाया ही था कि देवदूत की तरह पिछले दरवाजे से मीनाबाई प्रकट हुई.

‘‘कहां अटक गई थीं बाईजी आप? घर में मेहमानों का मेला सा उमड़ आया है और आप का कहीं अतापता ही नहीं है. अब पहले अपने लिए चाय चढ़ा दो. हां साथ में मेहमानों के लिए भी 2 कप बना देना. मैं तो अब थक गई हूं. वैसे आप रुक कहां गई थीं?’’

‘‘कहीं नहीं. बहू को साथ ले कर वर्माजी के यहां गई थी इसलिए देर हो गई.’’

‘‘अच्छा, काम में मदद के लिए,’’ नीरा को याद आया कि अभी कुछ समय पूर्व ही मीनाबाई के बेटे की शादी हुई थी.

‘‘नहींनहीं, उसे इस काम में नहीं लगाऊंगी. 12वीं पास है वह. उसे तो आगे पढ़ाऊंगी. वर्माजी के यहां इसलिए ले गई थी कि वे इस की आगे की पढ़ाई के लिए कुछ बता सकें. उन्होंने पत्राचार से आगे पढ़ाई जारी रखने की कही है. फौर्म वे ला देंगे. कह रहे थे इस से पढ़ना सस्ता रहेगा. मेरा बेटा तो 7 तक ही पढ़ सका. ठेला चलाता है. बहुत इच्छा थी उसे आगे पढ़ाने की पर नालायक तैयार ही नहीं हुआ. मैं ने तभी सोच लिया था कि बहू आएगी और उसे पढ़ने में जरा भी रुचि होगी तो उसे जरूर पढ़ाऊंगी.’’

‘‘पर 12वीं पास लड़की तुम्हारे बेटे से शादी करने को राजी कैसे हो गई?’’ बात अभी भी नीरा को हजम नहीं हो रही थी. 4 पैसे कमाने वाली बाई उसे कड़ी चु़नौती देती प्रतीत हो रही थी.

‘‘अनाथ है बेचारी. रिश्तेदारों ने किसी तरह हाथ पीले कर बोझ से मुक्ति पा ली. पर मैं उसे कभी बोझ नहीं समझूंगी. उसे खूब पढ़ाऊंगीलिखाऊंगी. इज्जत की जिंदगी जीना सिखाऊंगी.’’

‘‘और घर बाहर के कामों में अकेली ही पिसती रहोगी?’’

‘‘उस के आने से पहले भी तो मैं सब कुछ अकेले ही कर रही थी. आगे भी करती रहूंगी. मुझे कोई परेशानी नहीं है, बल्कि जीने का एक उद्देश्य मिल जाने से हाथों में गति आ गई है. लो देखो, बातोंबातों में चाय तैयार भी हो गई. अभी जा कर दे आती हूं. मैं ने कड़क चाय बनाई है. आधा कप आप भी ले लो. आप की थकान उतर जाएगी,’’ कहते हुए मीनाबाई ट्रे उठा कर चल दी. नीरा को अपना नशा उतरता सा प्रतीत हो रहा था.

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आगंतुकों के स्वागत सत्कार के चक्कर में बैठक से मुख्य दरवाजे तक नीरा के लगभग 10 चक्कर लग चुके थे, लेकिन थकने के बजाय वे स्फूर्ति ही महसूस कर रही थीं, क्योंकि आगंतुकों द्वारा उन की प्रशंसा में पुल बांधे जा रहे थे. हुआ यह था कि नीरा की बहू पूर्वी का परीक्षा परिणाम आ गया था. उस ने एम.बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी. लेकिन तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे नीरा के. पूर्वी तो बेचारी रसोई और बैठक के बीच ही चक्करघिन्नी बनी हुई थी. बीचबीच में कोई बधाई का जुमला उस तक पहुंचता तो वह मुसकराहट सहित धन्यवाद कह देती. आगंतुकों में ज्यादातर उस की महिला क्लब की सदस्याएं ही थीं, तो कुछ थे उस के परिवार के लोग और रिश्तेदार. नीरा को याद आ रहा था इस खूबसूरत पल से जुड़ा अपना सफर.

जब महिला क्लब अध्यक्षा के चुनाव में अप्रत्याशित रूप से उन का नाम घोषित हुआ था, तो वे चौंक उठी थीं. और जब धन्यवाद देने के लिए उन्हें माइक थमा दिया गया था, तो साथी महिलाओं को आभार प्रकट करती वे अनायास ही भावुक हो उठी थीं, ‘‘आप लोगों ने मुझ पर जो विश्वास जताया है उस के लिए मैं आप सभी की आभारी हूं. मैं प्रयास करूंगी कि अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाते हुए आप लोगों की अपेक्षाओं पर खरी उतरूं.’’

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लेकिन इस तरह का वादा कर लेने के बाद भी नीरा का पेट नहीं भरा था. वे चाहती थीं कुछ ऐसा कर दिखाएं कि सभी सहेलियां वाहवाह कर उठें और उन्हें अपने चयन पर गर्व हो कि अध्यक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण पद के लिए उन्होंने सर्वथा उपयुक्त पात्र चुना है. बहुत सोचविचार के बाद नीरा को आखिर एक युक्ति सूझ ही गई. बहू पूर्वी को एम.बी.ए. में प्रवेश दिलवाना उन्हें अपनी प्रगतिशील सोच के प्रचार का सर्वाधिक सुलभ हथियार लगा. शादी के 4 साल बाद और 1 बच्चे की मां बन जाने के बाद फिर से पढ़ाई में जुट जाने का सास का प्रस्ताव पूर्वी को बड़ा अजीब लगा. वह तो नौकरी भी नहीं कर रही थी.

उस ने दबे शब्दों में प्रतिरोध करना चाहा तो नीरा ने मीठी डांट पिलाते हुए उस का मुंह बंद कर दिया, ‘‘अरे देर कैसी? जब जागो तभी सवेरा. अभी तुम्हारी उम्र ही क्या हुई है? मेरे दिमाग में तो तुम्हें आगे पढ़ाने की बात शुरू से ही थी. शुरू में 1-2 साल तो मैं ने सोचा मौजमस्ती कर लेने दो फिर देखा जाएगा. पर तब तक गोलू आ गया और तुम उस में व्यस्त हो गईं. अब वह भी ढाई साल का हो गया है. थोड़े दिनों में नर्सरी में जाने लगेगा. घर तो मैं संभाल लूंगी और ज्यादा जरूरत हुई तो खाना बनाने वाली रख लेंगे.’’

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‘‘लेकिन एम.बी.ए. कर के मैं करूंगी क्या? नौकरी? मैं ने तो कभी की नहीं,’’ पूर्वी कुछ समझ नहीं पा रही थी कि सास के मन में क्या है?

‘‘पढ़ाई सिर्फ नौकरी के लिए ही नहीं की जाती. वह करो न करो तुम्हारी मरजी. पर इस से ज्ञान तो बढ़ता है और हाथ में डिगरी आती है, जो कभी भी काम आ सकती है. समझ रही हो न?’’

‘‘जी.’’

‘‘मैं ने 2-3 कालेजों से ब्रोशर मंगवाए हैं. उन्हें पढ़ कर तय करते हैं कि तुम्हें किस कालेज में प्रवेश लेना है.’’

‘‘मुझे अब फिर से कालेज जाना होगा? घर बैठे पत्राचार से…’’

‘‘नहींनहीं. उस से किसी को कैसे पता चलेगा कि तुम आगे पढ़ रही हो?’’

‘‘पता चलेगा? किसे पता करवाना है?’’ सासूमां के इरादों से सर्वथा अनजान पूर्वी कुछ भी समझ नहीं पा रह थी.

‘‘मेरा मतलब था कि पत्राचार से इसलिए नहीं क्योंकि उस की प्रतिष्ठा और मान्यता पर मुझे थोड़ा संदेह है. नियमित कालेज विद्यार्थी की तरह पढ़ाई कर के डिगरी लेना ही उपयुक्त होगा.’’

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पूर्वी के चेहरे पर अभी भी हिचकिचाहट देख कर नीरा ने तुरंत बात समेटना ही उचित समझा. कहीं तर्कवितर्क का यह सिलसिला लंबा खिंच कर उस के मंसूबों पर पानी न फेर दे.

‘‘एक बार कालेज जाना आरंभ करोगी तो खुदबखुद सारी रुकावटें दूर होती चली जाएंगी और तुम्हें अच्छा लगने लगेगा.’’

वाकई फिर ऐसा हुआ भी. पूर्वी ने कालेज जाना फिर से आरंभ किया और आज उसे डिगरी मिल गई थी. उसी की बधाई देने नातेरिश्तेदारों, पड़ोसियों, पूर्वी  की सहेलियों और नीरा के महिला क्लब की सदस्याओं का तांता सा बंध गया था. पूर्वी से ज्यादा नीरा की तारीफों के सुर सुनाई पड़ रहे थे.

‘‘भई, सास हो तो नीरा जैसी. इन्होंने तो एक मिसाल कायम कर दी है. लोग तो अपनी बहुओं की शादी के बाद पढ़ाई, नौकरी आदि छुड़वा कर घरों में बैठा लेते हैं. सास उन पर गृहस्थी का बोझ लाद कर तानाशाही हुक्म चलाती है. और नीरा को देखो, गृहस्थी, बच्चे सब की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले कर बहू को आजाद कर दिया. ऐसा कर के उन्होंने एक आदर्श सास की भूमिका अदा की है. हम सभी को उन का अनुसरण करना चाहिए.’’

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‘‘अरे नहीं, आप लोग तो बस ऐसे ही…’’ प्रशंसा से अभिभूत और स्नेह से गद्गद नीरा ने प्रतिक्रिया में खींसे निपोर दी थीं.

‘‘नीरा ने आज एक और बात सिद्ध कर दी है,’’ अपने चिरपरिचित रहस्यात्मक अंदाज में सुरभि बोली.

‘‘क्या? क्या?’’ कई उत्सुक निगाहें उस की ओर उठ गईं.

‘‘यही कि अपने क्लब की अध्यक्षा के रूप में उन का चयन कर के हम ने कोई गलती नहीं की. ये वास्तव में इस पद के लिए सही पात्र थीं. अपने इस प्रगतिशील कदम से उन्होंने अध्यक्षा पद की गरिमा में चार चांद लगा दिए हैं. हम सभी को उन पर बेहद गर्व है.’’ सभी महिलाओं ने ताली बजा कर अपनी सहमति दर्ज कराई. ये ही वे पल थे जिन से रूबरू होने के लिए नीरा ने इतनी तपस्या की थी. गर्व से उन की गरदन तन गई.

‘‘आप लोग तो एक छोटी सी बात को इतना बढ़ाचढ़ा कर प्रस्तुत कर रहे हैं. सच कहती हूं, यह कदम उठाने से पहले मेरे दिल में इस तरह की तारीफ पाने जैसी कोई मंशा ही नहीं थी. बस अनायास ही दिल जो कहता गया मैं करती चली गई. अब आप लोगों को इतना अच्छा लगेगा यह तो मैं ने कभी सोचा भी नहीं था. खैर छोडि़ए अब उस बात को…कुछ खानेपीने का लुत्फ उठाइए. अरे सुरभि, तुम ने तो कुछ लिया ही नहीं,’’ कहते हुए नीरा ने जबरदस्ती उस की प्लेट में एक रसगुल्ला डाल दिया. शायद यह उस के द्वारा की गई प्रशंसा का पुरस्कार था, जिस का नशा नीरा के सिर चढ़ कर बोलने लगा था.

‘‘मैं आप लोगों के लिए गरमगरम चाय बना कर लाती हूं,’’ नीरा ने उठने का उपक्रम किया.

‘‘अरे नहीं, आप बैठो न. चाय घर जा कर पी लेंगे. आप से बात करने का तो मौका ही कम मिलता है. आप हर वक्त घरगृहस्थी में जो लगी रहती हो.’’

‘‘आप बैठिए मम्मीजी, चाय मैं बना लाती हूं,’’ पूर्वी बोली.

‘‘अरे नहीं, तू बैठ न. मैं बना दूंगी,’’ नीरा ने फिर हलका सा उठने का उपक्रम करना चाहा पर तब तक पूर्वी को रसोई की ओर जाता देख वे फिर से आराम से बैठ गईं और बोली, ‘‘यह सुबह से मुझे कुछ करने ही नहीं दे रही. कहती है कि हमेशा तो आप ही संभालती हैं. कभी तो मुझे भी मौका दीजिए.’’

पूर्वी का दबा व्यक्तित्व आज और भी दब्बू हो उठा था. सासूमां के नाम के आगे जुड़ती प्रगतिशील, ममतामयी, उदारमना जैसी एक के बाद एक पदवियां उसे हीन बनाए जा रही थीं. उसे लग रहा था उसे तो एक ही डिगरी मिली है पर उस की एक डिगरी की वजह से सासूमां को न जाने कितनी डिगरियां मिल गई हैं. कहीं सच में उसे कालेज भेजने के पीछे सासूमां का कोई सुनियोजित मंतव्य तो नहीं था?…नहींनहीं उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिए.

‘‘पूर्वी बेटी, मैं कुछ मदद करूं?’’ बैठक से आवाज आई तो पूर्वी ने दिमाग को झटका दे कर तेजी से ट्रे में कप जमाने आरंभ कर दिए, ‘‘नहीं मम्मीजी, चाय बन गई है. मैं ला रही हूं,’’ फिर चाय की ट्रे हाथों में थामे पूर्वी बैठक में पहुंच कर सब को चाय सर्व करने लगी. विदा लेते वक्त मम्मीजी की सहेलियों ने उसे एक बार फिर बधाई दी.

‘‘यह बधाई डिगरी के लिए भी है और नीरा जैसी सास पाने के लिए भी, सुरभि ने जाते वक्त पूर्वी से हंस कर कहा.’’

‘‘जी शुक्रिया.’’

अंदर लौटते ही नीरा दीवान पर पसर गईं और बुदबुदाईं, ‘‘उफ, एक के बाद एक…हुजूम थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. थक गई मैं तो आवभगत करतेकरते.’’ जूठे कपप्लेट उठाती पूर्वी के हाथ एक पल को ठिठके पर फिर इन बातों के अभ्यस्त कानों ने आगे बढ़ने का इशारा किया तो वह फिर से सामान्य हो कर कपप्लेट समेटने लगी.

‘‘मीनाबाई आई नहीं क्या अभी तक?’’ नीरा को एकाएक खयाल आया.

‘‘नहीं.’’

‘‘ओह, फिर तो रसोई में बरतनों का ढेर लग गया होगा. इन बाइयों के मारे तो नाक में दम है. लो फिर घंटी बजी…तुम चलो रसोई में, मैं देखती हूं.’’

फिर इठलाती नीरा ने दरवाजा खोला, तो सामने पूर्वी के मातापिता को देख कर बोल उठीं, ‘‘आइएआइए, बहुतबहुत बधाई हो आप को बेटी के रिजल्ट की.’’

‘‘अरे, बधाई की असली हकदार तो आप हैं. आप उसे सहयोग नहीं करतीं तो उस के बूते का थोड़े ही था यह सब.’’

‘‘अरे आप तो मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं. मैं ने तो बस अपना फर्ज निभाया है. आइए, बैठिए. मैं पूर्वी को भेजती हूं,’’ फिर पूर्वी को आवाज दी, ‘‘पूर्वी बेटा. तुम्हारे मम्मीपापा आए हैं. अब तुम इन के पास बैठो. इन्हें मिठाई खिलाओ, बातें करो. अंदर रसोई आदि की चिंता मुझ पर छोड़ दो. मैं संभाल लूंगी.’’

नीरा ने दिखाने को यह कह तो दिया था. पर अंदर रसोई में आ कर जो बरतनों का पहाड़ देखा तो सिर पकड़ लिया. मन ही मन बाई को सौ गालियां देते हुए उन्होंने बैठक में नाश्ता भिजवाया ही था कि देवदूत की तरह पिछले दरवाजे से मीनाबाई प्रकट हुई.

‘‘कहां अटक गई थीं बाईजी आप? घर में मेहमानों का मेला सा उमड़ आया है और आप का कहीं अतापता ही नहीं है. अब पहले अपने लिए चाय चढ़ा दो. हां साथ में मेहमानों के लिए भी 2 कप बना देना. मैं तो अब थक गई हूं. वैसे आप रुक कहां गई थीं?’’

‘‘कहीं नहीं. बहू को साथ ले कर वर्माजी के यहां गई थी इसलिए देर हो गई.’’

‘‘अच्छा, काम में मदद के लिए,’’ नीरा को याद आया कि अभी कुछ समय पूर्व ही मीनाबाई के बेटे की शादी हुई थी.

‘‘नहींनहीं, उसे इस काम में नहीं लगाऊंगी. 12वीं पास है वह. उसे तो आगे पढ़ाऊंगी. वर्माजी के यहां इसलिए ले गई थी कि वे इस की आगे की पढ़ाई के लिए कुछ बता सकें. उन्होंने पत्राचार से आगे पढ़ाई जारी रखने की कही है. फौर्म वे ला देंगे. कह रहे थे इस से पढ़ना सस्ता रहेगा. मेरा बेटा तो 7 तक ही पढ़ सका. ठेला चलाता है. बहुत इच्छा थी उसे आगे पढ़ाने की पर नालायक तैयार ही नहीं हुआ. मैं ने तभी सोच लिया था कि बहू आएगी और उसे पढ़ने में जरा भी रुचि होगी तो उसे जरूर पढ़ाऊंगी.’’

‘‘पर 12वीं पास लड़की तुम्हारे बेटे से शादी करने को राजी कैसे हो गई?’’ बात अभी भी नीरा को हजम नहीं हो रही थी. 4 पैसे कमाने वाली बाई उसे कड़ी चु़नौती देती प्रतीत हो रही थी.

‘‘अनाथ है बेचारी. रिश्तेदारों ने किसी तरह हाथ पीले कर बोझ से मुक्ति पा ली. पर मैं उसे कभी बोझ नहीं समझूंगी. उसे खूब पढ़ाऊंगीलिखाऊंगी. इज्जत की जिंदगी जीना सिखाऊंगी.’’

‘‘और घर बाहर के कामों में अकेली ही पिसती रहोगी?’’

‘‘उस के आने से पहले भी तो मैं सब कुछ अकेले ही कर रही थी. आगे भी करती रहूंगी. मुझे कोई परेशानी नहीं है, बल्कि जीने का एक उद्देश्य मिल जाने से हाथों में गति आ गई है. लो देखो, बातोंबातों में चाय तैयार भी हो गई. अभी जा कर दे आती हूं. मैं ने कड़क चाय बनाई है. आधा कप आप भी ले लो. आप की थकान उतर जाएगी,’’ कहते हुए मीनाबाई ट्रे उठा कर चल दी. नीरा को अपना नशा उतरता सा प्रतीत हो रहा था.

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10 12 Sarkari Naukri | 8 vi Pass Sarkari Naukri |10-12वी नौकरी. All Information about 8th 10th 12th govt jobs available in this article. Please ...

संक्रमण के कारण मारे गए कर्मियों के आश्रितों को ...

मायावती ने मांग की कि राज्य सरकार उन सरकारी कर्मियों के आश्रितों को नौकरी एवं ...

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मायावती ने मांग की कि राज्य सरकार उन सरकारी कर्मियों के आश्रितों को नौकरी एवं ...

Kisan Vikas Patra: कोरोना काल में बैंक एफडी करा रहे हैं तो ...

हालांकि, सरकारी नौकरी (Government Job) वाले या फिर जिनकी पक्की नौकरी है, उनके पास ऐसी ...

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हालांकि, सरकारी नौकरी (Government Job) वाले या फिर जिनकी पक्की नौकरी है, उनके पास ऐसी ...

कोरोना काल: छात्रों को तुरंत मिल रही डिग्री और ...

जिससे किसी छात्र को नौकरी या किसी संस्था में प्रवेश के लिए आवेदन करने में कोई ...

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जिससे किसी छात्र को नौकरी या किसी संस्था में प्रवेश के लिए आवेदन करने में कोई ...

आदर्श मत बनना तनु

शाम के वक्त 7 बजे थे. अनिल ने औफिस से आते ही बैग सोफे पर पटका और फ्रेश होने चला गया. वहीं बैठी उस की मां माया उस के लिए चाय बनाने के लिए उठ गई. उन्होंने टाइम देखा, बहू तनु भी औफिस से आने ही वाली होगी, यह सोच कर उस के लिए भी चाय चढ़ा दी. चाय बनी ही थी कि डोरबैल बजी. तनु भी आ गई थी. माया को प्यार से देख कर मुसकराई. माया ने स्नेहपूर्वक कहा, ”बेटा, तुम भी फ्रेश हो जाओ, चाय तैयार ही है.”

माया के पति टी वी देख रहे थे. वे औफिस से जल्दी आते हैं. माया ने बहू व बेटे को चाय पिलाई. अनिल ने झींकते हुए कहा, ”तनु, आज सुबह सब्जी में कितना नमक था, बहुत गुस्सा आया मुझे. और एक तो यह गट्टे की सब्जी क्यों बनाई? मुझे जरा भी पसंद नहीं. मां,आप ने भी तनु को नहीं बताया कि मैं यह सब्जी नहीं खाता.”

ये भी पढ़ें- बुरके के पीछे का दर्द- भाग 3 : नसीम के साथ अकरम ने ऐसा क्या किया

”तनु को पसंद है. तुम्हारी शादी को 5 महीने ही हुए हैं, तनु को इस सब्जी का शौक है और इस सब्जी को बनाने में उस ने सुबहसुबह बहुत मेहनत की है. कभी तुम उस की पसंद का खाओ, कभी वह तुम्हारी पसंद का खाए. और सब्जी तो बहुत ही अच्छी बनी थी, मुझे भी नहीं आती ऐसी बनानी.”

माया ने देखा, तनु का चेहरा उतर गया था. नयानया विवाह था. माया सोचने लगी, एक पत्नी को पति से मिली तारीफ़ से जितनी ख़ुशी मिलती है, उतनी किसी और की तारीफ़ से नहीं, वह भी जब नयानया विवाह हो. दुनिया नएनए खुमार से भरी ही तो लगती है. आजकल के कपल्स के बीच रोमांस, मानमनुहार के लिए समय ही नहीं. माया हैरान होती हैं अपने बेटेबहू का लाइफस्टाइल देख कर. दोनों के पास सबकुछ है. बस, समय नहीं है. उस पर भी अब अनिल अपनी नवविवाहिता के हाथ की बनी सब्जी की तारीफ़ करने के बजाय कमी निकाल रहा था. हां, नमक ज्यादा था, हो जाता है कभी कभी. पर सुबह के गए अब मिले हैं, तो इस बात को क्या तूल देना. खैर, उन की लाइफ है, बीच में ज्यादा बोलना ठीक नहीं.

अनिल उस के बाद भी चिढ़ा ही रहा. माया जानती हैं, उन के फूडी बेटे को खानेपीने में कोई कमी बरदाश्त नहीं. कितनी बार उन से भी उस की बहस होती ही रही है. इकलौता बेटा है,खूब नखरे दिखाता है. पर अब तनु क्यों सहे इतने नखरे. मैं मां हूं, मैं ने सह लिए. ये बेचारी क्यों सहे. सुबह जातेजाते कितनी हैल्प करवाती है. वे मना करती रह जाती हैं पर तनु जितना हो सकता है, उतने काम करवा कर जाती है. तनु कहती है, ”मां, मुंबई में सफर करने के बाद आ कर तो हिम्मत नहीं होती कुछ करने की, कम से कम सुबह तो कुछ करने दें.”

ये भी पढ़ें- प्यार का रंग : राशि के बौयफ्रैंड ने क्यों गिरगिट की तरह बदला रंग

माया मेड के साथ सब काम मैनेज कर ही लेती हैं पर तनु सुबह कुछ न कुछ कर ही जाती है. तीनतीन टिफ़िन होते हैं, काफी काम होता है. मेड सब के जाने के बाद ही आती है. माया एक पढ़ीलिखी हाउसवाइफ हैं. खाली समय वे टीवी में नहीं, किताबों के साथ बिताती हैं. उन की खूब पढ़ने की आदत है. खुली सोच वाली शांतिपसंद महिला हैं वे. तनु को खूब स्नेह देती हैं, वह भी उन्हें खूब मान देती है. माया के पति और बेटा कुछ आत्मकेंद्रित से हैं, तनु सब को समझने की कोशिश में लगी हुई है. वे जानती हैं कि तनु भी मुंबई की ही लड़की है, उस का मायका भी मुंबई में ही है. पेरैंट्स और एक छोटी बहन सब कामकाजी हैं.

लौकडाउन के बाद औफिस शुरू हुए ही थे. अभी तीनों को हफ्ते में 3 दिन ही जाना पड़ रहा था. बाकी दिन सब वर्क फ्रौम होम करते थे. ऐसे में सब को खूब परेशानी हो रही थी. टू बैडरूम फ्लैट था. लिविंगरूम में रखे डाइनिंग टेबल पर सुधीर काम करते थे. अनिल के रूम में एक टेबल थी जिस पर वह बैठ जाता था. तनु कभी इधर कभी उधर अपना लैपटौप उठाए घूमती रहती. एक दिन झिझकती हुई बोली, “मां, आप के रूम में बैठ कर एक कौल कर लूं, अर्जेंट है, बौस से बात करनी है?”

”और क्या, आराम से बैठो, तब तक मैं किचन में कुछ कर लेती हूं.”

”थैंक्स मां, अनिल तो एक मिनट के लिए भी अपनी टेबल नहीं देता.”

माया को दुख हुआ, बोलीं, ”जब मन हो, मेरे रूम में बैठ कर काम कर लेना.”

तनु की मीटिंग लंबी चली. बैड पर गलत पोस्चर में बैठेबैठे उस का कंधा अकड़ गया. माया ने जब सब को खाने के लिए आवाज दी, सब ने थोड़ी देर के लिए लैपटौप बंद किया. माया ने कहा, ”तनु को बहुत परेशानी हुई बैड पर बैठेबैठे, उसे भी एक टेबल चाहिए. तनु, या तो तुम यहीं पापा के साथ बैठ जाया करो या अनिल अपनी टेबल इसे मीटिंग के लिए तो दे दिया कर.”

ये भी पढ़ें- फोन कौल्स : आखिर कौन था देर रात मीनाक्षी को फोन करने वाला

सुधीर ने कहा, ”मुझे कोई दिक्कत नहीं है, बेटा. पर मुझे बहुत फ़ोन करने होते हैं, तुम डिस्टर्ब तो नहीं होगी?”

”मुझे अपनी डैस्क पर ही आराम मिलता है,” अनिल ने कहा, ”दो दिन की ही तो बात होती है, कहीं भी एडजस्ट कर लो.”

तनु चुप ही रही. माया बहुत कुछ सोचने लगी थीं. कुछ समय और बीता. एक दिन तनु औफिस से थोड़ा पहले आ गई थी. माया फोन पर अपनी फ्रैंड से एक कोने में ही बैठ कर बात कर रही थीं. तनु जो मूवी देख रही थी,वह ख़तम होने ही वाली थी. अनिल जैसे ही औफिस से आया, उस ने कहा, “अरे तनु, इसे बंद कर दो, बेकार मूवी है और मेरे लिए बढ़िया सी चाय बनाओ.” जुर अनिल ने टीवी बंद कर दिया.

तनु का अपमानित चेहरा देख माया फोन पर फिर बात न कर सकीं, उन्होंने जल्दी ही फोन रख दिया पर चुप रहीं. बेटे पर बहुत गुस्सा आया पर रोजरोज उसे बहू के सामने टोकना शायद उसे अच्छा न लगता.

माया तनु को देखती, हैरान होती कि यह क्यों हर बात में एडजस्ट किए जा रही है जैसे अपनी किसी चीज में कोई इच्छा हो ही न. वही पहनती जो अनिल को पसंद था, वही बनाती जो घर में सब को पसंद हो, कोई भी बात हो, न अपनी राय देती,न पसंद बताती. माया सोचती यह तो अभी नवविवाहिता ही है, कहां हैं इस के सारे शौक, एक मूवी भी अपनी पसंद की नहीं देखती. अनिल जब चाहे,रिमोट ले कर चैनल बदल दे. वह कुछ भी न कहती. बस, मुसकरा कर रह जाती.

ये भी पढ़ें- दूसरी हार : क्या वे डेढ़ करोड़ की रकम लूट पाए

एक दिन सब घर से ही काम कर रहे थे. लंच के बाद माया थोड़ी देर आराम करती थीं. उस दिन लेट कर उठीं तो देखा, सुधीर डाइनिंग टेबल पर हमेशा की तरह फोन पर हैं. अनिल के रूम से जोरजोर से हंसने की आवाज़ आई, तो माया ने झांका, अनिल किसी दोस्त से गपें मार रहा था. किचन में जा कर देखा, तनु फर्श पर लैपटौप लिए बैठी थी और किसी मीटिंग में होने का इशारा माया को दिया.

माया चुपचाप अपने रूम में आ कर बैठ गईं. पौन घंटे बाद तनु उन के कमरे में आई और लैपटौप एक तरफ रख, उन के बैड पर पड़ गई. उस के मुंह से एक आह सी निकल गई, इतना ही कहा, “ओह्ह, मां, फर्श पर तो कमर अकड़ गई.”

माया आज और चुप न रह पाईं, बोलीं, ”एक बात करनी है तुम से.”

”हां मां, कहो न.”

”तुम किचन में नीचे बैठ कर काम क्यों कर रही थीं?”

”अनिल ने कहा, वह अपने रूम में ही रहेगा, उसे वहीं आराम मिलता है.”

”तुम ने उसे बताया नहीं कि तुम्हारी जरूरी मीटिंग है.”

”बताया तो था, पर वह बोला, मैं कहीं और बैठ कर अपना काम कर लूं. आप सो रही थीं, तो मैं किचन में ही बैठ गई.”

”सुनो तनु, अपनी बात क्यों नहीं कहतीं तुम?”

”मां, मैं चाहती हूं कि मैं एक अच्छी पत्नी और बहू बन कर रहूं. मेरे मम्मीपापा में जब किसी बात पर झगड़ा होता था तो मुझे अच्छा नहीं लगता था. मैं सोचा करती थी कि मैं अपनी शादी के बाद घर में कोई झगड़ा कभी होने ही नहीं दूंगी.”

माया मुसकराईं, ”तुम्हारे मम्मीपापा झगड़े के बाद नौर्मल हो जाते थे न?”

”हां मां, पर मुझे उन के झगड़े अच्छे नहीं लगते थे.”

”देखो तनु, तुम आदर्श पत्नी या बहू बनने की कोशिश भी न करना, उस से अच्छा होगा कि एक आम बहू या पत्नी बन कर अपने मन की भी कभी करो. सिर्फ हमारे मन से नहीं, कभी अपने मन से भी चलो और अगर कभी किसी से झगड़ा हो भी जाए तो डरना कैसा, हम साथसाथ रहते हैं, कितनी देर तक झगड़ा चलेगा. थोड़ा मनमुटाव कभी हो भी जाए तो रिश्ते टूट थोड़े ही जाते हैं. मैं तो कहती हूं कि उस के बाद का प्यार बड़ा प्यारा होता है.

“कोई बहस न हो, कोई झगड़ा न हो, इसी कोशिश में लगी रहोगी, तो खुद के लिए कैसे जियोगी, कितने दिन ऐसे खुश रह लोगी, मन ही मन कुंठित होती रहोगी. फिर जो नुकसान होगा उसे कौन भरेगा. कल बच्चे हो जाएंगे, फिर तो उन की ही इच्छाएं सर्वोपरि हो जाएंगी. अपने लिए कब जियोगी? फिर आदर्श मां बनने के चक्कर में पड़ जाओगी.

“अपनी बात कहना, फिर उसे पूरा करना सीखो. मैं ने भी यह गलती की है, हमेशा वही किया जो सास, ससुर, ननद, देवर, सुधीर, अनिल को पसंद रहा. जो हमें खुद को अच्छा लगता था, वह किया ही नहीं. अब इतनी उम्र बीतने पर अफ़सोस होता है कि अपने लिए तो मैं जी ही नहीं.

“सो, आदर्श बनने के चक्कर में बिलकुल मत पड़ो. मैं तो कहती हूं कि मुझ पर भी गुस्सा आए, तो मुझ से भी लड़ लो. मन मार कर जीने से फ़ायदा नहीं होगा, कुछ नहीं मिलेगा. उलटे, दिनोंदिन कमजोर होती जाओगी.‘’

तकिये के सहारे लेटी तनु मंत्रमुग्ध सी अपनी सासुमां का चेहरा देखे जा रही थी, सोचने लगी, ये कैसी सासुमां हैं जो मुझे इस तरह से समझा रही हैं, ये तो निराली ही हैं.

माया ने पूछा, ”अब किस सोच में हो?”

”मुझे तो लगता था आप खुश होंगी कि मैं घर में सब का ध्यान रखती हूं, जो कुछ कहा जाता है, मैं वही करती हूं. मैं सच में एक आदर्श बहू और पत्नी बनना चाहती थी, मां.”

”कोई जरूरत नहीं है, मुझे एक आम इंसान अच्छा लगता है जो खुद भी जीना चाहे, जिस की खुद भी इच्छाएं हों और जो उन्हें भी पूरा करना चाहे. वैसे भी, हमारा समाज पुरुषप्रधान है, एक लड़की ही क्यों आदर्श बनने के चक्कर में अपना जीवन होम करे. अनिल और सुधीर क्यों नहीं करते ऐसा कुछ कि हमारी इच्छाओं के लिए अपनी इच्छाएं कभी छोड़ दें, कभी तो कहें कि चलो, आज वह बनाओ जो तुम्हें पसंद हो. ऐसा तो कभी नहीं होता.

“कभी उस की सुनो, कभी वह तुम्हारी सुने, पर ऐसा होता नहीं है. ऐसे में दुख होता है. और मैं यह बिलकुल नहीं चाहती कि मेरी बहू कभी अपना मन मारे. आज भी मेरे मन में कितनी कड़वी यादें हैं जबजब मैं अपने मन का नहीं कर पाई. एक उम्र के बाद तुम्हें यह दुख नहीं होना चाहिए कि कभी तुम ने अपने मन का कुछ किया ही नहीं. आम इंसान की तरह ही जी लो, बहूरानी,‘’ कहतेकहते माया ने तनु के सिर पर हाथ रख दिया. तनु ने उन की हथेली चूम ली. इतने में अनिल अंदर आया, वहीं पलंग पर वह भी लेट गया, बोला, ”तनु, आज मंचूरियन और फ्राइड राइस बनाओगी?”

”नहीं अनिल, आज नहीं, फिर कभी.”

अनिल को जैसे एक झटका लगा, उठ कर बैठ गया, ”क्या?”

”हां, मीटिंग किचन में फर्श पर बैठ कर अटेंड की है, कमर अकड़ गई. आज शौर्टकट मारूंगी, बस, पुलाव ही बना सकती हूं, बहुत थक गई हूं. मां ने भी आज सुबह से बहुत काम कर लिया है, ठीक है न?”

विवाह के बाद यह पहला मौका था जब तनु ने किसी बात के लिए मना किया था. अनिल कभी पत्नी का मुंह देखता, कभी मां का. फिर उस ने इतना ही कहा, ”ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी.”

अनिल का कोई फोन आ गया तो वह बाहर निकल गया. माया ने तनु का हाथ सहलाते हुए कहा, ”शाबाश, यह हुई न बात.”

सुधीर ने अंदर आते हुए पूछा, ”किस बात की शाबाशी दी जा रही है, भाई, हमें भी बताओ.”

”पर्सनल बात है सासबहू की, पापा,” हंसती हुई कह कर तनु रूम से बाहर निकलने लगी, माया ने उसे देखा, तो उस ने माया को आंख मार दी. माया जोर से हंस पड़ीं. सुधीर कुछ समझे नहीं, बस, माया के मुसकराते चेहरे को देखते रह गए.

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शाम के वक्त 7 बजे थे. अनिल ने औफिस से आते ही बैग सोफे पर पटका और फ्रेश होने चला गया. वहीं बैठी उस की मां माया उस के लिए चाय बनाने के लिए उठ गई. उन्होंने टाइम देखा, बहू तनु भी औफिस से आने ही वाली होगी, यह सोच कर उस के लिए भी चाय चढ़ा दी. चाय बनी ही थी कि डोरबैल बजी. तनु भी आ गई थी. माया को प्यार से देख कर मुसकराई. माया ने स्नेहपूर्वक कहा, ”बेटा, तुम भी फ्रेश हो जाओ, चाय तैयार ही है.”

माया के पति टी वी देख रहे थे. वे औफिस से जल्दी आते हैं. माया ने बहू व बेटे को चाय पिलाई. अनिल ने झींकते हुए कहा, ”तनु, आज सुबह सब्जी में कितना नमक था, बहुत गुस्सा आया मुझे. और एक तो यह गट्टे की सब्जी क्यों बनाई? मुझे जरा भी पसंद नहीं. मां,आप ने भी तनु को नहीं बताया कि मैं यह सब्जी नहीं खाता.”

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”तनु को पसंद है. तुम्हारी शादी को 5 महीने ही हुए हैं, तनु को इस सब्जी का शौक है और इस सब्जी को बनाने में उस ने सुबहसुबह बहुत मेहनत की है. कभी तुम उस की पसंद का खाओ, कभी वह तुम्हारी पसंद का खाए. और सब्जी तो बहुत ही अच्छी बनी थी, मुझे भी नहीं आती ऐसी बनानी.”

माया ने देखा, तनु का चेहरा उतर गया था. नयानया विवाह था. माया सोचने लगी, एक पत्नी को पति से मिली तारीफ़ से जितनी ख़ुशी मिलती है, उतनी किसी और की तारीफ़ से नहीं, वह भी जब नयानया विवाह हो. दुनिया नएनए खुमार से भरी ही तो लगती है. आजकल के कपल्स के बीच रोमांस, मानमनुहार के लिए समय ही नहीं. माया हैरान होती हैं अपने बेटेबहू का लाइफस्टाइल देख कर. दोनों के पास सबकुछ है. बस, समय नहीं है. उस पर भी अब अनिल अपनी नवविवाहिता के हाथ की बनी सब्जी की तारीफ़ करने के बजाय कमी निकाल रहा था. हां, नमक ज्यादा था, हो जाता है कभी कभी. पर सुबह के गए अब मिले हैं, तो इस बात को क्या तूल देना. खैर, उन की लाइफ है, बीच में ज्यादा बोलना ठीक नहीं.

अनिल उस के बाद भी चिढ़ा ही रहा. माया जानती हैं, उन के फूडी बेटे को खानेपीने में कोई कमी बरदाश्त नहीं. कितनी बार उन से भी उस की बहस होती ही रही है. इकलौता बेटा है,खूब नखरे दिखाता है. पर अब तनु क्यों सहे इतने नखरे. मैं मां हूं, मैं ने सह लिए. ये बेचारी क्यों सहे. सुबह जातेजाते कितनी हैल्प करवाती है. वे मना करती रह जाती हैं पर तनु जितना हो सकता है, उतने काम करवा कर जाती है. तनु कहती है, ”मां, मुंबई में सफर करने के बाद आ कर तो हिम्मत नहीं होती कुछ करने की, कम से कम सुबह तो कुछ करने दें.”

ये भी पढ़ें- प्यार का रंग : राशि के बौयफ्रैंड ने क्यों गिरगिट की तरह बदला रंग

माया मेड के साथ सब काम मैनेज कर ही लेती हैं पर तनु सुबह कुछ न कुछ कर ही जाती है. तीनतीन टिफ़िन होते हैं, काफी काम होता है. मेड सब के जाने के बाद ही आती है. माया एक पढ़ीलिखी हाउसवाइफ हैं. खाली समय वे टीवी में नहीं, किताबों के साथ बिताती हैं. उन की खूब पढ़ने की आदत है. खुली सोच वाली शांतिपसंद महिला हैं वे. तनु को खूब स्नेह देती हैं, वह भी उन्हें खूब मान देती है. माया के पति और बेटा कुछ आत्मकेंद्रित से हैं, तनु सब को समझने की कोशिश में लगी हुई है. वे जानती हैं कि तनु भी मुंबई की ही लड़की है, उस का मायका भी मुंबई में ही है. पेरैंट्स और एक छोटी बहन सब कामकाजी हैं.

लौकडाउन के बाद औफिस शुरू हुए ही थे. अभी तीनों को हफ्ते में 3 दिन ही जाना पड़ रहा था. बाकी दिन सब वर्क फ्रौम होम करते थे. ऐसे में सब को खूब परेशानी हो रही थी. टू बैडरूम फ्लैट था. लिविंगरूम में रखे डाइनिंग टेबल पर सुधीर काम करते थे. अनिल के रूम में एक टेबल थी जिस पर वह बैठ जाता था. तनु कभी इधर कभी उधर अपना लैपटौप उठाए घूमती रहती. एक दिन झिझकती हुई बोली, “मां, आप के रूम में बैठ कर एक कौल कर लूं, अर्जेंट है, बौस से बात करनी है?”

”और क्या, आराम से बैठो, तब तक मैं किचन में कुछ कर लेती हूं.”

”थैंक्स मां, अनिल तो एक मिनट के लिए भी अपनी टेबल नहीं देता.”

माया को दुख हुआ, बोलीं, ”जब मन हो, मेरे रूम में बैठ कर काम कर लेना.”

तनु की मीटिंग लंबी चली. बैड पर गलत पोस्चर में बैठेबैठे उस का कंधा अकड़ गया. माया ने जब सब को खाने के लिए आवाज दी, सब ने थोड़ी देर के लिए लैपटौप बंद किया. माया ने कहा, ”तनु को बहुत परेशानी हुई बैड पर बैठेबैठे, उसे भी एक टेबल चाहिए. तनु, या तो तुम यहीं पापा के साथ बैठ जाया करो या अनिल अपनी टेबल इसे मीटिंग के लिए तो दे दिया कर.”

ये भी पढ़ें- फोन कौल्स : आखिर कौन था देर रात मीनाक्षी को फोन करने वाला

सुधीर ने कहा, ”मुझे कोई दिक्कत नहीं है, बेटा. पर मुझे बहुत फ़ोन करने होते हैं, तुम डिस्टर्ब तो नहीं होगी?”

”मुझे अपनी डैस्क पर ही आराम मिलता है,” अनिल ने कहा, ”दो दिन की ही तो बात होती है, कहीं भी एडजस्ट कर लो.”

तनु चुप ही रही. माया बहुत कुछ सोचने लगी थीं. कुछ समय और बीता. एक दिन तनु औफिस से थोड़ा पहले आ गई थी. माया फोन पर अपनी फ्रैंड से एक कोने में ही बैठ कर बात कर रही थीं. तनु जो मूवी देख रही थी,वह ख़तम होने ही वाली थी. अनिल जैसे ही औफिस से आया, उस ने कहा, “अरे तनु, इसे बंद कर दो, बेकार मूवी है और मेरे लिए बढ़िया सी चाय बनाओ.” जुर अनिल ने टीवी बंद कर दिया.

तनु का अपमानित चेहरा देख माया फोन पर फिर बात न कर सकीं, उन्होंने जल्दी ही फोन रख दिया पर चुप रहीं. बेटे पर बहुत गुस्सा आया पर रोजरोज उसे बहू के सामने टोकना शायद उसे अच्छा न लगता.

माया तनु को देखती, हैरान होती कि यह क्यों हर बात में एडजस्ट किए जा रही है जैसे अपनी किसी चीज में कोई इच्छा हो ही न. वही पहनती जो अनिल को पसंद था, वही बनाती जो घर में सब को पसंद हो, कोई भी बात हो, न अपनी राय देती,न पसंद बताती. माया सोचती यह तो अभी नवविवाहिता ही है, कहां हैं इस के सारे शौक, एक मूवी भी अपनी पसंद की नहीं देखती. अनिल जब चाहे,रिमोट ले कर चैनल बदल दे. वह कुछ भी न कहती. बस, मुसकरा कर रह जाती.

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एक दिन सब घर से ही काम कर रहे थे. लंच के बाद माया थोड़ी देर आराम करती थीं. उस दिन लेट कर उठीं तो देखा, सुधीर डाइनिंग टेबल पर हमेशा की तरह फोन पर हैं. अनिल के रूम से जोरजोर से हंसने की आवाज़ आई, तो माया ने झांका, अनिल किसी दोस्त से गपें मार रहा था. किचन में जा कर देखा, तनु फर्श पर लैपटौप लिए बैठी थी और किसी मीटिंग में होने का इशारा माया को दिया.

माया चुपचाप अपने रूम में आ कर बैठ गईं. पौन घंटे बाद तनु उन के कमरे में आई और लैपटौप एक तरफ रख, उन के बैड पर पड़ गई. उस के मुंह से एक आह सी निकल गई, इतना ही कहा, “ओह्ह, मां, फर्श पर तो कमर अकड़ गई.”

माया आज और चुप न रह पाईं, बोलीं, ”एक बात करनी है तुम से.”

”हां मां, कहो न.”

”तुम किचन में नीचे बैठ कर काम क्यों कर रही थीं?”

”अनिल ने कहा, वह अपने रूम में ही रहेगा, उसे वहीं आराम मिलता है.”

”तुम ने उसे बताया नहीं कि तुम्हारी जरूरी मीटिंग है.”

”बताया तो था, पर वह बोला, मैं कहीं और बैठ कर अपना काम कर लूं. आप सो रही थीं, तो मैं किचन में ही बैठ गई.”

”सुनो तनु, अपनी बात क्यों नहीं कहतीं तुम?”

”मां, मैं चाहती हूं कि मैं एक अच्छी पत्नी और बहू बन कर रहूं. मेरे मम्मीपापा में जब किसी बात पर झगड़ा होता था तो मुझे अच्छा नहीं लगता था. मैं सोचा करती थी कि मैं अपनी शादी के बाद घर में कोई झगड़ा कभी होने ही नहीं दूंगी.”

माया मुसकराईं, ”तुम्हारे मम्मीपापा झगड़े के बाद नौर्मल हो जाते थे न?”

”हां मां, पर मुझे उन के झगड़े अच्छे नहीं लगते थे.”

”देखो तनु, तुम आदर्श पत्नी या बहू बनने की कोशिश भी न करना, उस से अच्छा होगा कि एक आम बहू या पत्नी बन कर अपने मन की भी कभी करो. सिर्फ हमारे मन से नहीं, कभी अपने मन से भी चलो और अगर कभी किसी से झगड़ा हो भी जाए तो डरना कैसा, हम साथसाथ रहते हैं, कितनी देर तक झगड़ा चलेगा. थोड़ा मनमुटाव कभी हो भी जाए तो रिश्ते टूट थोड़े ही जाते हैं. मैं तो कहती हूं कि उस के बाद का प्यार बड़ा प्यारा होता है.

“कोई बहस न हो, कोई झगड़ा न हो, इसी कोशिश में लगी रहोगी, तो खुद के लिए कैसे जियोगी, कितने दिन ऐसे खुश रह लोगी, मन ही मन कुंठित होती रहोगी. फिर जो नुकसान होगा उसे कौन भरेगा. कल बच्चे हो जाएंगे, फिर तो उन की ही इच्छाएं सर्वोपरि हो जाएंगी. अपने लिए कब जियोगी? फिर आदर्श मां बनने के चक्कर में पड़ जाओगी.

“अपनी बात कहना, फिर उसे पूरा करना सीखो. मैं ने भी यह गलती की है, हमेशा वही किया जो सास, ससुर, ननद, देवर, सुधीर, अनिल को पसंद रहा. जो हमें खुद को अच्छा लगता था, वह किया ही नहीं. अब इतनी उम्र बीतने पर अफ़सोस होता है कि अपने लिए तो मैं जी ही नहीं.

“सो, आदर्श बनने के चक्कर में बिलकुल मत पड़ो. मैं तो कहती हूं कि मुझ पर भी गुस्सा आए, तो मुझ से भी लड़ लो. मन मार कर जीने से फ़ायदा नहीं होगा, कुछ नहीं मिलेगा. उलटे, दिनोंदिन कमजोर होती जाओगी.‘’

तकिये के सहारे लेटी तनु मंत्रमुग्ध सी अपनी सासुमां का चेहरा देखे जा रही थी, सोचने लगी, ये कैसी सासुमां हैं जो मुझे इस तरह से समझा रही हैं, ये तो निराली ही हैं.

माया ने पूछा, ”अब किस सोच में हो?”

”मुझे तो लगता था आप खुश होंगी कि मैं घर में सब का ध्यान रखती हूं, जो कुछ कहा जाता है, मैं वही करती हूं. मैं सच में एक आदर्श बहू और पत्नी बनना चाहती थी, मां.”

”कोई जरूरत नहीं है, मुझे एक आम इंसान अच्छा लगता है जो खुद भी जीना चाहे, जिस की खुद भी इच्छाएं हों और जो उन्हें भी पूरा करना चाहे. वैसे भी, हमारा समाज पुरुषप्रधान है, एक लड़की ही क्यों आदर्श बनने के चक्कर में अपना जीवन होम करे. अनिल और सुधीर क्यों नहीं करते ऐसा कुछ कि हमारी इच्छाओं के लिए अपनी इच्छाएं कभी छोड़ दें, कभी तो कहें कि चलो, आज वह बनाओ जो तुम्हें पसंद हो. ऐसा तो कभी नहीं होता.

“कभी उस की सुनो, कभी वह तुम्हारी सुने, पर ऐसा होता नहीं है. ऐसे में दुख होता है. और मैं यह बिलकुल नहीं चाहती कि मेरी बहू कभी अपना मन मारे. आज भी मेरे मन में कितनी कड़वी यादें हैं जबजब मैं अपने मन का नहीं कर पाई. एक उम्र के बाद तुम्हें यह दुख नहीं होना चाहिए कि कभी तुम ने अपने मन का कुछ किया ही नहीं. आम इंसान की तरह ही जी लो, बहूरानी,‘’ कहतेकहते माया ने तनु के सिर पर हाथ रख दिया. तनु ने उन की हथेली चूम ली. इतने में अनिल अंदर आया, वहीं पलंग पर वह भी लेट गया, बोला, ”तनु, आज मंचूरियन और फ्राइड राइस बनाओगी?”

”नहीं अनिल, आज नहीं, फिर कभी.”

अनिल को जैसे एक झटका लगा, उठ कर बैठ गया, ”क्या?”

”हां, मीटिंग किचन में फर्श पर बैठ कर अटेंड की है, कमर अकड़ गई. आज शौर्टकट मारूंगी, बस, पुलाव ही बना सकती हूं, बहुत थक गई हूं. मां ने भी आज सुबह से बहुत काम कर लिया है, ठीक है न?”

विवाह के बाद यह पहला मौका था जब तनु ने किसी बात के लिए मना किया था. अनिल कभी पत्नी का मुंह देखता, कभी मां का. फिर उस ने इतना ही कहा, ”ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी.”

अनिल का कोई फोन आ गया तो वह बाहर निकल गया. माया ने तनु का हाथ सहलाते हुए कहा, ”शाबाश, यह हुई न बात.”

सुधीर ने अंदर आते हुए पूछा, ”किस बात की शाबाशी दी जा रही है, भाई, हमें भी बताओ.”

”पर्सनल बात है सासबहू की, पापा,” हंसती हुई कह कर तनु रूम से बाहर निकलने लगी, माया ने उसे देखा, तो उस ने माया को आंख मार दी. माया जोर से हंस पड़ीं. सुधीर कुछ समझे नहीं, बस, माया के मुसकराते चेहरे को देखते रह गए.

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April 30, 2021 at 10:00AM

हमदर्दों से दूर -भाग 3 : अखिलेश सरला से क्यों मिलना चाहता था

इस तरह एकदूसरे का खयाल रखतेरखते दोनों ठीक हो गए. अब एक अलग तरह का बंधन दोनों एकदूसरे के लिए महसूस करने लगे थे.

एक दिन शाम में अखिलेश ने सरला से कहा,” मेरी सारी संपत्ति दोनों लड़कों के नाम की हुई है. यह मकान भी बड़े बेटे के नाम है. मैं चाहता हूं कि हम दोनों कहीं दूर जा कर एक नई जिंदगी की शुरुआत करें. क्या तुम इस के लिए तैयार हो?”

“हां ठीक है. इस में समस्या क्या है? हम सब कुछ छोड़ कर कहीं दूर चलते हैं. बस रहने और खाने का प्रबंध हो जाए फिर हमें किस चीज की जरूरत? दोनों आराम से एक छोटा सा घर ले कर रह लेंगे. वैसे भी मेरे पहले पति ने मेरे लिए बैंक में थोड़ीबहुत रकम रख छोड़ी है. जरूरत पड़ी तो उस का भी उपयोग कर लेंगे.”

सरला की बात सुन कर अखिलेश की आंखें भीग गईं. एक तरफ बच्चे जिस महिला को दौलत का लालची बता रहे थे वही इस गृहस्थी में अपनी सारी जमापूंजी लगाने को तैयार थी. अखिलेश को यही सुनने की इच्छा थी.

उस ने सरला को गले से लगा लिया और बोला,” ऐसा कुछ नहीं है सरला. सारी संपत्ति अभी भी मेरे ही नाम है. मैं तो तुम्हारा रिएक्शन देख कर तुम्हें

परखना चाहता था. तुम से अच्छी पत्नी मुझे मिल ही नहीं सकती. वैसे कहीं दूर जाने का प्लान अच्छा है. यह घर बेच कर किसी खूबसूरत जगह घर लिया जा सकता है. ” “सच, मैं भी सब से दूर कहीं चली जाना चाहती हूं,”सरला ने कहा.

अगले ही दिन अखिलेश ने घर बेचने के कागज तैयार करा लिए. काफी समय से उस का एक दोस्त घर खरीदने की कोशिश में था. अखिलेश ने बात कर अपना घर उसे बेच दिया और मिलने वाली रकम से देहरादून के पास एक छोटा सा खूबसूरत मकान खरीद लिया.

उस ने अपना नया पता किसी को भी नहीं दिया था. फोन भी स्विच औफ कर दिया. अपना बैंकबैलेंस भी उस ने दूसरे बैंक में ट्रांसफर करा लिया और पूर्व पत्नी के गहने भी लौकर में रखवा दिए. सरला ने भी अपने घर में किसी को नया पता नहीं बताया.

सारे हमदर्द रिश्तेदारों से दूर दोनों ने अपना एक प्यारा सा आशियाना बना लिया था. यहां वे अपनी जिंदगी दूसरों की हर तरह की दखलंदाजी से दूर शांतिपूर्वक एकदूसरे के साथ बिताना चाहते थे.

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इस तरह एकदूसरे का खयाल रखतेरखते दोनों ठीक हो गए. अब एक अलग तरह का बंधन दोनों एकदूसरे के लिए महसूस करने लगे थे.

एक दिन शाम में अखिलेश ने सरला से कहा,” मेरी सारी संपत्ति दोनों लड़कों के नाम की हुई है. यह मकान भी बड़े बेटे के नाम है. मैं चाहता हूं कि हम दोनों कहीं दूर जा कर एक नई जिंदगी की शुरुआत करें. क्या तुम इस के लिए तैयार हो?”

“हां ठीक है. इस में समस्या क्या है? हम सब कुछ छोड़ कर कहीं दूर चलते हैं. बस रहने और खाने का प्रबंध हो जाए फिर हमें किस चीज की जरूरत? दोनों आराम से एक छोटा सा घर ले कर रह लेंगे. वैसे भी मेरे पहले पति ने मेरे लिए बैंक में थोड़ीबहुत रकम रख छोड़ी है. जरूरत पड़ी तो उस का भी उपयोग कर लेंगे.”

सरला की बात सुन कर अखिलेश की आंखें भीग गईं. एक तरफ बच्चे जिस महिला को दौलत का लालची बता रहे थे वही इस गृहस्थी में अपनी सारी जमापूंजी लगाने को तैयार थी. अखिलेश को यही सुनने की इच्छा थी.

उस ने सरला को गले से लगा लिया और बोला,” ऐसा कुछ नहीं है सरला. सारी संपत्ति अभी भी मेरे ही नाम है. मैं तो तुम्हारा रिएक्शन देख कर तुम्हें

परखना चाहता था. तुम से अच्छी पत्नी मुझे मिल ही नहीं सकती. वैसे कहीं दूर जाने का प्लान अच्छा है. यह घर बेच कर किसी खूबसूरत जगह घर लिया जा सकता है. ” “सच, मैं भी सब से दूर कहीं चली जाना चाहती हूं,”सरला ने कहा.

अगले ही दिन अखिलेश ने घर बेचने के कागज तैयार करा लिए. काफी समय से उस का एक दोस्त घर खरीदने की कोशिश में था. अखिलेश ने बात कर अपना घर उसे बेच दिया और मिलने वाली रकम से देहरादून के पास एक छोटा सा खूबसूरत मकान खरीद लिया.

उस ने अपना नया पता किसी को भी नहीं दिया था. फोन भी स्विच औफ कर दिया. अपना बैंकबैलेंस भी उस ने दूसरे बैंक में ट्रांसफर करा लिया और पूर्व पत्नी के गहने भी लौकर में रखवा दिए. सरला ने भी अपने घर में किसी को नया पता नहीं बताया.

सारे हमदर्द रिश्तेदारों से दूर दोनों ने अपना एक प्यारा सा आशियाना बना लिया था. यहां वे अपनी जिंदगी दूसरों की हर तरह की दखलंदाजी से दूर शांतिपूर्वक एकदूसरे के साथ बिताना चाहते थे.

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April 30, 2021 at 10:00AM

सासुजी हों तो हमारी जैसी…

पत्नीजी का खुश होना तो लाजिमी था, क्योंकि उन की मम्मीजी का फोन आया था कि वे आ रही हैं.

मेरे दुख का कारण यह नहीं था कि मेरी सासुजी आ रही हैं, बल्कि दुख का कारण था कि वे अपनी सोरायसिस बीमारी के इलाज के लिए यहां आ रही हैं. यह चर्मरोग उन की हथेली में पिछले 3 वर्षों से है, जो ढेर सारे इलाज के बाद भी ठीक नहीं हो पाया.

अचानक किसी सिरफिरे ने हमारी पत्नी को बताया कि पहाड़ी क्षेत्र में एक व्यक्ति देशी दवाइयां देता है, जिस से बरसों पुराने रोग ठीक हो जाते हैं.

ये भी पढ़ें- ब्रह्म राक्षस : विक्रम ने कैसे लिया अपनी पत्नी की बेइज्जती का बदला

परिणामस्वरूप बिना हमारी जानकारी के पत्नीजी ने मम्मीजी को बुलवा लिया था. यदि किसी दवाई से फायदा नहीं होता तो भी घूमनाफिरना तो हो ही जाता. वह  तो जब उन के आने की पक्की सूचना आई तब मालूम हुआ कि वे क्यों आ रही हैं?

यही हमारे दुख का कारण था कि उन्हें ले कर हमें पहाड़ों में उस देशी दवाई वाले को खोजने के लिए जाना होगा, पहाड़ों पर भटकना होगा, जहां हम कभी गए नहीं, वहां जाना होगा. हम औफिस का काम करेंगे या उस नालायक पहाड़ी वैद्य को खोजेंगे. उन के आने की अब पक्की सूचना फैल चुकी थी, इसलिए मैं बहुत परेशान था. लेकिन पत्नी से अपनी क्या व्यथा कहता?

निश्चित दिन पत्नीजी ने बताया कि सुबह मम्मीजी आ रही हैं, जिस के चलते मुझे जल्दी उठना पड़ा और उन्हें लेने स्टेशन जाना पड़ा. कड़कती सर्दी में बाइक चलाते हुए मैं वहां पहुंचा. सासुजी से मिला, उन्होंने बत्तीसी दिखाते हुए मुझे आशीर्वाद दिया.

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हम ने उन से बाइक पर बैठने को कहा तो उन्होंने कड़कती सर्दी में बैठने से मना कर दिया. वे टैक्सी से आईं और पूरे 450 रुपए का भुगतान हम ने किया. हम मन ही मन सोच रहे थे कि न जाने कब जाएंगी?

घर पहुंचे तो गरमागरम नाश्ता तैयार था. वैसे सर्दी में हम ही नाश्ता तैयार करते थे. पत्नी को ठंड से एलर्जी थी, लेकिन आज एलर्जी न जाने कहां जा चुकी थी. थोड़ी देर इधरउधर की बातें करने के बाद उन्होंने अपने चर्म रोग को मेरे सामने रखते हुए हथेलियों को आगे बढ़ाया. हाथों में से मवाद निकल रहा था, हथेलियां कटीफटी थीं.

‘‘बहुत तकलीफ है, जैसे ही इस ने बताया मैं तुरंत आ गई.’’

‘‘सच में, मम्मी 100 प्रतिशत आराम मिल जाएगा,’’ बड़े उत्साह से पत्नीजी ने कहा.

दोपहर में हमें एक परचे पर एक पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल का पता उन्होंने दिया. मैं ने उस नामपते की खोज की. मालूम हुआ कि एक पहाड़ी गांव है, जहां पैदल यात्रा कर के पहुंचना होगा, क्योंकि सड़क न होने के कारण वहां कोई भी वाहन नहीं जाता. औफिस में औडिट चल रहा था. मैं अपनी व्यथा क्या कहता. मैं ने पत्नी से कहा, ‘‘आज तो रैस्ट कर लो, कल देखते हैं क्या कर सकते हैं.’’

ये भी पढ़ें- फोन कौल्स : आखिर कौन था देर रात मीनाक्षी को फोन करने वाला

वह और सासुजी आराम करने कमरे में चली गईं. थोड़ी ही देर में अचानक जोर से कुछ टूटने की आवाज आइर््र. हम तो घबरा गए. देखा तो एक गेंद हमारी खिड़की तोड़ कर टीवी के पास गोलगोल चक्कर लगा रही थी. घर की घंटी बजी, महल्ले के 2-3 बच्चे आ गए. ‘‘अंकलजी, गेंद दे दीजिए.’’

अब उन पर क्या गुस्सा करते. गेंद तो दे दी, लेकिन परदे के पीछे से आग्नेय नेत्रों से सासुजी को देख कर हम समझ गए थे कि वे बहुत नाराज हो गईर् हैं. खैर, पानी में रह कर मगर से क्या बैर करते.

अगले दिन हम ने पत्नीजी को चपरासी के साथ सासुजी को ले कर पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल के पास भेज दिया. देररात वे थकी हुई लौटीं, लेकिन खुश थीं कि आखिर वह वैद्य मिल गया था. ढेर सारी जड़ीबूटी, छाल से लदी हुई वे लौटी थीं. इतनी थकी हुई थीं कि कोई भी यात्रा वृत्तांत उन्होंने मुझे नहीं बताया और गहरी नींद में सो गईं.

सुबह मेरी नींद खुली तो अजीब

सी बदबू घर में आ रही थी.

उठ कर देखने गया तो देखा, मांबेटी दोनों गैस पर एक पतीले में कुछ उबाल रही थीं. उसी की यह बदबू चारों ओर फैल रही थी. मैं ने नाक पर रूमाल रखा, निकल कर जा ही रहा था कि पत्नी ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ आप आ गए.’’

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‘‘क्यों, क्या बात है?’’

‘‘कुछ सूखी लकडि़यां, एक छोटी मटकी और ईंटे ले कर आ जाना.’’

‘‘क्यों?’’ मेरा दिल जोरों से धड़क उठा. ये सब सामान तो आखिरी समय मंगाया जाता है?

पत्नी ने कहा, ‘‘कुछ जड़ों का भस्म तैयार करना है.’’

औफिस जाते समय ये सब फालतू सामान खोजने में एक घंटे का समय लग गया था. अगले दिन रविवार था. हम थोड़ी देर बाद उठे. बिस्तर से उठ कर बाहर जाएं या नहीं, सोच रहे थे कि महल्ले के बच्चों की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘भूत, भूत…’’

हम ने सुना तो हम भी घबरा गए. जहां से आवाज आ रही थी, उस दिशा में भागे तो देखा आंगन में काले रंग का भूत खड़ा था? हम ने भी डर कर भूतभूत कहा. तब अचानक उस भूतनी ने कहा, ‘‘दामादजी, ये तो मैं हूं.’’

‘‘वो…वो…भूत…’’

‘‘अरे, बच्चों की गेंद अंदर आ गईर् थी, मैं सोच रही थी क्या करूं? तभी उन्होंने दीवार पर चढ़ कर देखा, मैं भस्म लगा कर धूप ले रही थी. वे भूतभूत चिल्ला उठे, गेंद वह देखो पड़ी है.’’ हम ने गेंद देखी. हम ने गेंद ली और देने को बाहर निकले तो बच्चे दूर खड़े डरेसहमे हुए थे. उन्होंने वहीं से कान पकड़ कर कहा, ‘‘अंकलजी, आज के बाद कभी आप के घर के पास नहीं खेलेंगे,’’ वे सब काफी डरे हुए थे.

हम ने गेंद उन्हें दे दी, वे चले गए. लेकिन बच्चों ने फिर हमारे घर के पास दोबारा खेलने की हिम्मत नहीं दिखाई.

महल्ले में चोरी की वारदातें भी बढ़ गई थीं. पहाड़ी वैद्य ने हाथों पर यानी हथेलियों पर कोई लेप रात को लगाने को दिया था, जो बहुत चिकना, गोंद से भी ज्यादा चिपकने वाला था. वह सुबह गाय के दूध से धोने के बाद ही छूटता था. उस लेप को हथेलियों से निकालने के लिए मजबूरी में गाय के दूध को प्रतिदिन मुझे लेने जाना होता था.

न जाने वे कब जाएंगी? मैं यह मुंह पर तो कह नहीं सकता था, क्यों किसी तरह का विवाद खड़ा करूं?

रात में मैं सो रहा था कि अचानक पड़ोस से शोर आया, ‘चोरचोर,’ हम घबरा कर उठ बैठे. हमें लगा कि बालकनी में कोई जोर से कूदा. हम ने भी घबरा कर चोरचोर चीखना शुरू कर दिया. हमारी आवाज सासुजी के कानों में पहुंची होगी, वे भी जोरों से पत्नी के साथ समवेत स्वर में चीखने लगीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’

महल्ले के लोग, जो चोर को पकड़ने के लिए पड़ोसी के घर में इकट्ठा हुए थे, हमारे घर की ओर आ गए, जहां सासुजी चीख रही थीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’ हम ने दरवाजा खोला, पूरे महल्ले वालों ने घर को घेर लिया था.

हम ने उन्हें बताया, ‘‘हम जो चीखे थे उस के चलते सासुजी भी चीखचीख कर, ‘दामादजी, चोर’ का शोर बुलंद कर रही हैं.’’

हम अभी समझा ही रहे थे कि पत्नीजी दौड़ती, गिरतीपड़ती आ गईं. हमें देख कर उठीं, ‘‘चोर…चोर…’’

‘‘कहां का चोर?’’ मैं ने उसे सांत्वना देते हुए कहा.

‘‘कमरे में चोर है?’’

‘‘क्या बात कर रही हो?’’

‘‘हां, सच कह रही हूं?’’

‘‘अंदर क्या कर रहा है?’’

‘‘मम्मी ने पकड़ रखा है,’’ उस ने डरतेसहमते कहा.

हम 2-3 महल्ले वालों के साथ कमरे में दाखिल हुए. वहां का जो नजारा देखा तो हम भौचक्के रह गए. सासुजी के हाथों में चोर था, उस चोर को उस का साथी सासुजी से छुड़वा रहा था. सासुजी उसे छोड़ नहीं रही थीं और बेहोश हो गई थीं. हमें आया देख चोर को छुड़वाने की कोशिश कर रहे चोर के साथी ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर सरैंडर कर दिया. वह जोरों से रोने लगा और कहने लगा, ‘‘सरजी, मेरे साथी को अम्माजी के पंजों से बचा लें.’’

हम ने ध्यान से देखा, सासुजी के दोनों हाथ चोर की छाती से चिपके हुए थे. पहाड़ी वैद्य की दवाई हथेलियों में लगी थी, वे शायद चोर को धक्का मार रही थीं कि दोनों हथेलियां चोर की छाती से चिपक गई थीं. हथेलियां ऐसी चिपकीं कि चोर क्या, चोर के बाप से भी वे नहीं छूट रही थीं. सासुजी थक कर, डर कर बेहोश हो गई थीं. वे अनारकली की तरह फिल्म ‘मुगलेआजम’ के सलीम के गले में लटकी हुई सी लग रही थीं. वह बेचारा बेबस हो कर जोरजोर से रो रहा था.

अगले दिन अखबारों में उन के करिश्मे का वर्णन फोटो सहित आया, देख कर हम धन्य हो गए.

आश्चर्य तो हमें तब हुआ जब पता चला कि हमारी सासुजी की वह लाइलाज बीमारी भी ठीक हो गई थी. पहाड़ी वैद्य झुमरूलालजी के अनुसार, हाथों के पूरे बैक्टीरिया चोर की छाती में जा पहुंचे थे.

यदि शहर में आप को कोई छाती पर खुजलाता, परेशान व्यक्ति दिखाई दे तो तुरंत समझ लीजिए कि वह हमारी सासुजी द्वारा दी गई बीमारी का मरीज है. हां, चोर गिरोह के पकड़े जाने से हमारी सासुजी के साथ हमारी साख भी पूरे शहर में बन गई थी. ऐसी सासुजी पा कर हम धन्य हो गए थे.

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पत्नीजी का खुश होना तो लाजिमी था, क्योंकि उन की मम्मीजी का फोन आया था कि वे आ रही हैं.

मेरे दुख का कारण यह नहीं था कि मेरी सासुजी आ रही हैं, बल्कि दुख का कारण था कि वे अपनी सोरायसिस बीमारी के इलाज के लिए यहां आ रही हैं. यह चर्मरोग उन की हथेली में पिछले 3 वर्षों से है, जो ढेर सारे इलाज के बाद भी ठीक नहीं हो पाया.

अचानक किसी सिरफिरे ने हमारी पत्नी को बताया कि पहाड़ी क्षेत्र में एक व्यक्ति देशी दवाइयां देता है, जिस से बरसों पुराने रोग ठीक हो जाते हैं.

ये भी पढ़ें- ब्रह्म राक्षस : विक्रम ने कैसे लिया अपनी पत्नी की बेइज्जती का बदला

परिणामस्वरूप बिना हमारी जानकारी के पत्नीजी ने मम्मीजी को बुलवा लिया था. यदि किसी दवाई से फायदा नहीं होता तो भी घूमनाफिरना तो हो ही जाता. वह  तो जब उन के आने की पक्की सूचना आई तब मालूम हुआ कि वे क्यों आ रही हैं?

यही हमारे दुख का कारण था कि उन्हें ले कर हमें पहाड़ों में उस देशी दवाई वाले को खोजने के लिए जाना होगा, पहाड़ों पर भटकना होगा, जहां हम कभी गए नहीं, वहां जाना होगा. हम औफिस का काम करेंगे या उस नालायक पहाड़ी वैद्य को खोजेंगे. उन के आने की अब पक्की सूचना फैल चुकी थी, इसलिए मैं बहुत परेशान था. लेकिन पत्नी से अपनी क्या व्यथा कहता?

निश्चित दिन पत्नीजी ने बताया कि सुबह मम्मीजी आ रही हैं, जिस के चलते मुझे जल्दी उठना पड़ा और उन्हें लेने स्टेशन जाना पड़ा. कड़कती सर्दी में बाइक चलाते हुए मैं वहां पहुंचा. सासुजी से मिला, उन्होंने बत्तीसी दिखाते हुए मुझे आशीर्वाद दिया.

ये भी पढ़ें- Short Story : वापसी

हम ने उन से बाइक पर बैठने को कहा तो उन्होंने कड़कती सर्दी में बैठने से मना कर दिया. वे टैक्सी से आईं और पूरे 450 रुपए का भुगतान हम ने किया. हम मन ही मन सोच रहे थे कि न जाने कब जाएंगी?

घर पहुंचे तो गरमागरम नाश्ता तैयार था. वैसे सर्दी में हम ही नाश्ता तैयार करते थे. पत्नी को ठंड से एलर्जी थी, लेकिन आज एलर्जी न जाने कहां जा चुकी थी. थोड़ी देर इधरउधर की बातें करने के बाद उन्होंने अपने चर्म रोग को मेरे सामने रखते हुए हथेलियों को आगे बढ़ाया. हाथों में से मवाद निकल रहा था, हथेलियां कटीफटी थीं.

‘‘बहुत तकलीफ है, जैसे ही इस ने बताया मैं तुरंत आ गई.’’

‘‘सच में, मम्मी 100 प्रतिशत आराम मिल जाएगा,’’ बड़े उत्साह से पत्नीजी ने कहा.

दोपहर में हमें एक परचे पर एक पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल का पता उन्होंने दिया. मैं ने उस नामपते की खोज की. मालूम हुआ कि एक पहाड़ी गांव है, जहां पैदल यात्रा कर के पहुंचना होगा, क्योंकि सड़क न होने के कारण वहां कोई भी वाहन नहीं जाता. औफिस में औडिट चल रहा था. मैं अपनी व्यथा क्या कहता. मैं ने पत्नी से कहा, ‘‘आज तो रैस्ट कर लो, कल देखते हैं क्या कर सकते हैं.’’

ये भी पढ़ें- फोन कौल्स : आखिर कौन था देर रात मीनाक्षी को फोन करने वाला

वह और सासुजी आराम करने कमरे में चली गईं. थोड़ी ही देर में अचानक जोर से कुछ टूटने की आवाज आइर््र. हम तो घबरा गए. देखा तो एक गेंद हमारी खिड़की तोड़ कर टीवी के पास गोलगोल चक्कर लगा रही थी. घर की घंटी बजी, महल्ले के 2-3 बच्चे आ गए. ‘‘अंकलजी, गेंद दे दीजिए.’’

अब उन पर क्या गुस्सा करते. गेंद तो दे दी, लेकिन परदे के पीछे से आग्नेय नेत्रों से सासुजी को देख कर हम समझ गए थे कि वे बहुत नाराज हो गईर् हैं. खैर, पानी में रह कर मगर से क्या बैर करते.

अगले दिन हम ने पत्नीजी को चपरासी के साथ सासुजी को ले कर पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल के पास भेज दिया. देररात वे थकी हुई लौटीं, लेकिन खुश थीं कि आखिर वह वैद्य मिल गया था. ढेर सारी जड़ीबूटी, छाल से लदी हुई वे लौटी थीं. इतनी थकी हुई थीं कि कोई भी यात्रा वृत्तांत उन्होंने मुझे नहीं बताया और गहरी नींद में सो गईं.

सुबह मेरी नींद खुली तो अजीब

सी बदबू घर में आ रही थी.

उठ कर देखने गया तो देखा, मांबेटी दोनों गैस पर एक पतीले में कुछ उबाल रही थीं. उसी की यह बदबू चारों ओर फैल रही थी. मैं ने नाक पर रूमाल रखा, निकल कर जा ही रहा था कि पत्नी ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ आप आ गए.’’

ये भी पढ़ें- ब्रह्म राक्षस : विक्रम ने कैसे लिया अपनी पत्नी की बेइज्जती का बदला

‘‘क्यों, क्या बात है?’’

‘‘कुछ सूखी लकडि़यां, एक छोटी मटकी और ईंटे ले कर आ जाना.’’

‘‘क्यों?’’ मेरा दिल जोरों से धड़क उठा. ये सब सामान तो आखिरी समय मंगाया जाता है?

पत्नी ने कहा, ‘‘कुछ जड़ों का भस्म तैयार करना है.’’

औफिस जाते समय ये सब फालतू सामान खोजने में एक घंटे का समय लग गया था. अगले दिन रविवार था. हम थोड़ी देर बाद उठे. बिस्तर से उठ कर बाहर जाएं या नहीं, सोच रहे थे कि महल्ले के बच्चों की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘भूत, भूत…’’

हम ने सुना तो हम भी घबरा गए. जहां से आवाज आ रही थी, उस दिशा में भागे तो देखा आंगन में काले रंग का भूत खड़ा था? हम ने भी डर कर भूतभूत कहा. तब अचानक उस भूतनी ने कहा, ‘‘दामादजी, ये तो मैं हूं.’’

‘‘वो…वो…भूत…’’

‘‘अरे, बच्चों की गेंद अंदर आ गईर् थी, मैं सोच रही थी क्या करूं? तभी उन्होंने दीवार पर चढ़ कर देखा, मैं भस्म लगा कर धूप ले रही थी. वे भूतभूत चिल्ला उठे, गेंद वह देखो पड़ी है.’’ हम ने गेंद देखी. हम ने गेंद ली और देने को बाहर निकले तो बच्चे दूर खड़े डरेसहमे हुए थे. उन्होंने वहीं से कान पकड़ कर कहा, ‘‘अंकलजी, आज के बाद कभी आप के घर के पास नहीं खेलेंगे,’’ वे सब काफी डरे हुए थे.

हम ने गेंद उन्हें दे दी, वे चले गए. लेकिन बच्चों ने फिर हमारे घर के पास दोबारा खेलने की हिम्मत नहीं दिखाई.

महल्ले में चोरी की वारदातें भी बढ़ गई थीं. पहाड़ी वैद्य ने हाथों पर यानी हथेलियों पर कोई लेप रात को लगाने को दिया था, जो बहुत चिकना, गोंद से भी ज्यादा चिपकने वाला था. वह सुबह गाय के दूध से धोने के बाद ही छूटता था. उस लेप को हथेलियों से निकालने के लिए मजबूरी में गाय के दूध को प्रतिदिन मुझे लेने जाना होता था.

न जाने वे कब जाएंगी? मैं यह मुंह पर तो कह नहीं सकता था, क्यों किसी तरह का विवाद खड़ा करूं?

रात में मैं सो रहा था कि अचानक पड़ोस से शोर आया, ‘चोरचोर,’ हम घबरा कर उठ बैठे. हमें लगा कि बालकनी में कोई जोर से कूदा. हम ने भी घबरा कर चोरचोर चीखना शुरू कर दिया. हमारी आवाज सासुजी के कानों में पहुंची होगी, वे भी जोरों से पत्नी के साथ समवेत स्वर में चीखने लगीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’

महल्ले के लोग, जो चोर को पकड़ने के लिए पड़ोसी के घर में इकट्ठा हुए थे, हमारे घर की ओर आ गए, जहां सासुजी चीख रही थीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’ हम ने दरवाजा खोला, पूरे महल्ले वालों ने घर को घेर लिया था.

हम ने उन्हें बताया, ‘‘हम जो चीखे थे उस के चलते सासुजी भी चीखचीख कर, ‘दामादजी, चोर’ का शोर बुलंद कर रही हैं.’’

हम अभी समझा ही रहे थे कि पत्नीजी दौड़ती, गिरतीपड़ती आ गईं. हमें देख कर उठीं, ‘‘चोर…चोर…’’

‘‘कहां का चोर?’’ मैं ने उसे सांत्वना देते हुए कहा.

‘‘कमरे में चोर है?’’

‘‘क्या बात कर रही हो?’’

‘‘हां, सच कह रही हूं?’’

‘‘अंदर क्या कर रहा है?’’

‘‘मम्मी ने पकड़ रखा है,’’ उस ने डरतेसहमते कहा.

हम 2-3 महल्ले वालों के साथ कमरे में दाखिल हुए. वहां का जो नजारा देखा तो हम भौचक्के रह गए. सासुजी के हाथों में चोर था, उस चोर को उस का साथी सासुजी से छुड़वा रहा था. सासुजी उसे छोड़ नहीं रही थीं और बेहोश हो गई थीं. हमें आया देख चोर को छुड़वाने की कोशिश कर रहे चोर के साथी ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर सरैंडर कर दिया. वह जोरों से रोने लगा और कहने लगा, ‘‘सरजी, मेरे साथी को अम्माजी के पंजों से बचा लें.’’

हम ने ध्यान से देखा, सासुजी के दोनों हाथ चोर की छाती से चिपके हुए थे. पहाड़ी वैद्य की दवाई हथेलियों में लगी थी, वे शायद चोर को धक्का मार रही थीं कि दोनों हथेलियां चोर की छाती से चिपक गई थीं. हथेलियां ऐसी चिपकीं कि चोर क्या, चोर के बाप से भी वे नहीं छूट रही थीं. सासुजी थक कर, डर कर बेहोश हो गई थीं. वे अनारकली की तरह फिल्म ‘मुगलेआजम’ के सलीम के गले में लटकी हुई सी लग रही थीं. वह बेचारा बेबस हो कर जोरजोर से रो रहा था.

अगले दिन अखबारों में उन के करिश्मे का वर्णन फोटो सहित आया, देख कर हम धन्य हो गए.

आश्चर्य तो हमें तब हुआ जब पता चला कि हमारी सासुजी की वह लाइलाज बीमारी भी ठीक हो गई थी. पहाड़ी वैद्य झुमरूलालजी के अनुसार, हाथों के पूरे बैक्टीरिया चोर की छाती में जा पहुंचे थे.

यदि शहर में आप को कोई छाती पर खुजलाता, परेशान व्यक्ति दिखाई दे तो तुरंत समझ लीजिए कि वह हमारी सासुजी द्वारा दी गई बीमारी का मरीज है. हां, चोर गिरोह के पकड़े जाने से हमारी सासुजी के साथ हमारी साख भी पूरे शहर में बन गई थी. ऐसी सासुजी पा कर हम धन्य हो गए थे.

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