Tuesday 31 May 2022

वेटिंग रूम: सिद्धार्थ और जानकी की जिंदगी में क्या नया मोड़ आया

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June 01, 2022 at 10:19AM

अंतिम प्रयाण: अपनों और परायों का दो मुंहा चेहरा

विनायक के चेहरे को तिरछी नजरों से ताकती हुई परिता पिता से संवाद साध रही थी कि यह देखो पापा, अच्छा ही हुआ वरना आप अपनों और परायों का यह दोमुंहा चेहरा सहन न कर पाते. मैं और मम्मी  इन लोगों के बीच अब कैसे रहूं? और फिर उस ने सुधा की ओर देखा.

आखिर विनायक ने अंतिम सांस ली. बगल में उन का हाथ थामे बैठी सुधा, आंखें बंद किए लगातार मृत्युंजय जाप कर रही थी. पुनीत और परिता सजल आंखों से 15वां अध्याय गुनगुना रहे थे. विनायक इस सब के बिलकुल खिलाफ थे. खिलाफ तो इस सब के सुधा भी थी लेकिन जगहंसाई से बचने के लिए उसे यह ढोंग करना पड़ रहा था. जैसा विनायक का सात्विक, सत्यनिष्ठ, शांत जीवन था वैसा ही उन की शांत मृत्यु और वैसा ही उन का स्थितिप्रज्ञ परिवार, जिस ने पूरी स्वस्थता के साथ यह आघात सहने का मनोबल बना रखा था. इस के पीछे भी विनायक और सुधा के ही विचार थे.

दोनों ही देश की प्रतिष्ठत यूनिवर्सिटी में विज्ञान शाखा के पूर्व प्राध्यापक होने के कारण हमेशा सत्य की खोज में रत, स्पष्टवक्ता, समाज और परिवार में व्ववहार के नाम पर चलने वाले दंभ के सामने विरोध कर क्रांतिकारी कदम उठाने में हमेशा आगे रहे. उन से मिलने वाले किसी भी व्यक्ति को यही लगता था कि जीवन की सभी वास्तविकताओं और चढ़ावउतार को तटस्थताभाव से समझने वाले और पचाने वाला यह दंपती धर्म में कम, मानवता व कर्म में ज्यादा जीता है. शायद इसीलिए विनायक को अच्छा लगे, उन के व्यक्तित्व पर जमे, इस तरह पूरे परिवार ने मोक्षमार्ग के प्रयाण के समय आंसू गिराए बिना खुद को संभाला और निभाया.

खबर मिलते ही सगेसंबंधी, पड़ोसी, यारदोस्त, कलेज के साथी जुटने लगे थे. अंतिम प्रयाण की तैयारियां होने लगी थीं. पुनीत और परिता के फोन बजने लगे थे. फोन विनायक के दूर के मौसेरे भाई हरीश का था, “अरे, मुझे तो अभीअभी पता चला. प्रकृति जो करे, वही ठीक है. वैसे तो कुछ भी नहीं था न उन्हें? कैसे हो गया यह? बेटा, हिम्मत से काम लेना. मैं तो बेंगलुरु से अभी पहुंच नहीं सकता, पर कोई काम हो, कह देना, जरा भी संकोच मत करना.”

“जी अंकल, नहींनहीं, कोई बात नहीं. बस, अचानक सांस भारी हुई. पापा की इच्छानुसार किसी तरह का कोई लौकिक रीतिरिवाज नहीं रखा, इसलिए परेशान मत होइए.”

“सुधा भाभी को संभालना. अब तो घर में तुम्हीं सब से बड़े हो. परिता तो अभी छोटी है. मुझे विश्वास है, तुम संभाल लोगे. बाकी और बोलो, नया क्या है. मजे में हो न?” और फोन कट गया.

पुनीत एकटक फोन को ताकता रहा. ‘नया क्या है, मजे में हो न? नया क्या है मजे में हो न?’ कान के परदे पर ये शब्द गूंजते रहे. बाप को खोए अभी कुछ ही घंटे हुए हैं. उन का पार्थिव शरीर अभी सामने पड़ा है. इस हालत में भला कोई मजे में हो सकता है? यह नया कहा जाएगा? इस तरह के सवाल? मन को धक्का लगा.

अब पुनीत ने मां की ओर नजर दौडाई. गजब स्वस्थ हैं मम्मी. लगातार गुनगुना कर रही हैं, पापा की ऊर्ध्वगति के लिए, अपनी वेदना को छिपा कर. तभी मिसेज तिवारी आंटी आईं. इस्त्री की हुई साड़ी में, दोनों हाथ जोड़े, “सुधा, यह क्या हो गया? मुझे तो प्रोफैसर शशांक से पता चला. अब तुम इन दोनों को देखो. इन की हिम्मत तो तुम्हीं हो अब. किसी भी तरह की कोई जरूरत हो तो कहना. खाने की चिंता मत करना. कालेज की कैंटीन में कह दिया है. अभी कुछ दिनों तक घर में लोगों का आनाजाना लगा रहेगा न. सागसब्जी तो कुछ नहीं चाहिए?”

सुधा मिसेस तिवारी के चल रहे नौनस्टौप लैक्चर को नतमस्तक हो कर सुन रही थी, “देखो, चाहोगी तो यह सब तुम्हें घरबैठे मिल जाएगा. ऐसी तमाम ऐप हैं. मैं तो इस महामारी के दौर में औनलाइन ही और्डर करती हूं. 3-4 घंटों में सब्जी आ जाती है.” तभी बगल में बैठी तारा बूआ ने आंख पोंछते हुए धीरे से कहा, “हांहां, बहुत अच्छी सर्विस है उन की. उस में डिस्काउंट स्कीम भी चलती रहती है. परवल और भिंडी एकदम ताजी और आर्गेनिक.”

मिसेज तिवारी अब बूआ की ओर घूम कर फुसफुसाती हुई बोलीं, “उस में आप कौन्टैक्ट ऐड कर के फायदा भी ले सकती हैं. आप अपना नंबर दीजिए, मैं आप को ऐड…”

वहीं पास में बैठे पुनीत और परिता स्तब्ध हो कर एकदूसरे को देख रहे थे. यह स्थान और समय सचमुच सागसब्जी की ऐप के संवाद के लिए था. ऐसे मौके की तो छोड़ो, सामान्य संयोगों पर भी मम्मी इस तरह के माहौल का जोरदार बहिष्कार करतीं. पर इस समय, ऐसे मौके पर एक सामान्य महिला की तरह चुपचाप बैठी सभी का मुंह ताक रही थीं. भाईबहन कभी एकदूसरे का तो कभी मां का तो कभी बातें करने वालों का मुंह ताक रहे थे.

अभी सभी थोड़ा सामन्य हुए थे कि रविंद्र ताऊ पुनीत के पास आ कर बोले, “ए पुनीत, विनय भैया का एक कुरतापायजामा दो. जल्दीजल्दी में मैं ने तौलिया तो ले लिया, पर श्मशान से लौट कर नहाने के बाद बदलने के लिए कपड़े साथ लाना भूल गया. और अब तो विनय भैया के कपड़ों की जरूरत ही क्या है. अरे हां, पिछले महीने फैशन वेयर से उन्होंने जो कुरतापायजामा खरीदा था, उसे ही ले आना.”

रविंद्र विनायक के सगे बड़े भाई थे. पुनीत ने झटके से रविंद्र की ओर देखा. बड़ेबुजुर्ग हैं, इसलिए लिहाज करने के अलावा और क्या विकल्प हो सकता था? बड़ी बूआ कनक 2-4 अन्य बुजुर्ग महिलाओं के बीच बैठी सुधा से फरमा रही थीं, “ऐसे में तुम्हें रहने में अकेलापन लगेगा. कहो तो मैं एकाध महीने रुक जाऊं? वैसे भी हमें क्या काम है. मंदिर में बैठी रहूं या तुम्हारे घर में, क्या फर्क पड़ता है. व्रतउपवास तो मैं करती नहीं. हां, मेरे लिए अलग खाना बनाने का थोड़ा झंझट जरूर रहेगा. तुम्हारा भी मन लगा रहेगा और भजनसत्संग भी होता रहेगा. अब तो तुम्हें भी इसी में हमेशाहमेशा के लिए मन लगाना होगा.”

सुधा शून्यभाव से चुपचाप अपने चारों ओर बुढ़ियों को ताकती रही. उन सब की बातें सुन कर वह थक गई हो, इस तरह निसास छोड़ती रही. उसी समय कोने में दीवार से टेक लगाए बैठे मनोज मोबाइल पर जोरजोर से बातें करते हुए आगे खिसके, “हांहां, सुनाई दे रहा है. वहां तो इस समय देररात होगी? ले बात कर पुनीत से.” इस के बाद पुनीत को फोन पकड़ाते हुए कहा, “ले, बात कर, दीपक है स्काइप पर. तेरे लिए ही जाग रहा है. फर्ज निभाने में मेरा दीपक जरा भी पीछे नहीं रहता. बहुत व्यावहारिक है. ले जरा बात कर ले और थोड़ा अंतिमदर्शन भी करा देना. मोबाइल की स्क्रीन विनायक मौसा की ओर घुमा देना. हमारे दीपक को परिवार से बहुत लगाव है.” इतना कह कर मनोज ने गर्वभरी नजरों से वहां बैठे लोगों की ओर देखा.

पुनीत को एकाएक झिझक सी हुई. जबरदस्ती हाथ में पकड़ाए गए मोबाइल को ले कर वह दूसरे कमरे में चला गया. बात कर के वह वापस आया तो अंतिमयात्रा के लिए मंत्रोच्चार और विधि हो रही थी. विनायक के पार्थिव शरीर को फूलों से सजाया जा रहा था. परिता बाप की विदाई और उस समय चल रही आसपास की विषमताओं को पचाने का असफल प्रयास कर रही थी.  तभी धीरे से खिसक कर धीरेंद्र ने कहा, “विश्वास ही नहीं हो रहा कि विनय मामा हम सब को छोड़ कर चले गए. मैं सब संभाल लूंगा, हां. मैं तुम्हारा भाई हूं न. मैं वह क्या कह रहा था कि कोई उतावल नहीं है, फिर भी आगेपीछे पुनीत के कान में बात डाल देना. इन फूलों और बाकी चीजों को मिला कर 3 हजार रुपए हुए हैं. कोई उतावल नहीं है. मामा को कितने अच्छे से सजाया है न, जैसे अभी उठ कर बोलने लगेंगे. चेहरे पर तेज तो देखो. श्मशान से आने के बाद खाने की क्या व्यवस्था की है? मैं वह क्या कह रहा था कि कहो तो पंडित के ढाबे पर फोन कर दूं. हमारी जानपहचान है पंडित से. उस के यहां का खाना बहुत टेस्टी होता है.”

धीरेंद्र की बातों से परिता की आंखों में आंसू आ गए. “पापा… यह किस तरह के लोगों के बीच छोड़ कर चले गए हो. आप तो समाज की सोच को बदलना चाहते थे, यहां तो इन के मन में मौत के बजाय ढाबे के टेस्टी खाने की परवा ज्यादा है.” मन में उठ रहे आक्रोश को वह आंसुओं में बहा रही थी.

पुनीत ने बहन को सांत्वना देने के लिए उस के सिर पर हाथ फेरा. उसी समय सुन॔दा आंटी एकाएक चिल्लाती हुई आईं और ध्यानमुद्रा में बैठी सुधा को बांहों में भर लिया. अपनी जेठानी के इस आवेगभरे हमले से सुधा हिल उठी. वे जोरजोर से कहने लगीं, “सुधा, यह क्या हो गया. मेरा प्यारा देवर हम सब को दगा दे गया. रो ले सुधा, रो ले. इस तरह गुमसुम बैठी रहेगी तो पत्थर हो जाएगी. फिर इन दोनों को कौन देखेगा?” थोड़ा खंखार कर गला साफ किया तो सुनंदा की आवाज थोड़ा स्पष्ट हुई. अब उन की बात पुनीत और परिता की भी समझ में आने लगी.

उन्होंने आगे कहा, “विधि का विधान तो देखो, अभी हम दोनों ने शादी की 50वीं वर्षगांठ मनाई है. तुम्हारे जेठ तो 75 पार कर गए और यह तो उन से कितने छोटे थे, फिर भी पहले चले गए.” आवाज की खनक और तरीके में छिपा राजी वाला मर्म स्पष्ट झलक रहा था, “पीकू मुझ से कह रहा था कि दादी, यह कैसा हुआ?  आप ओल्डर हैं तब भी कपल हैं. पर सुधा दादी तो आप से छोटी हैं, फिर भी विडो हो गईं, ऐसा कैसे?”

पुनीत मुट्ठी भींच कर लौन में खड़े लोगों की ओर बढ़ गया. परिता विनायक के निश्चेत चेहरे को तिरछी नजरों से ताकते हुए मन ही मन पिता से संवाद साध रही थी, ‘यह देखो, पापा, सुन रहे हो न? अच्छा ही हुआ, आप यह सब देखने के लिए यहां नहीं हो. आप चले गए, यही अच्छा है. वरना आप अपनों और परायों का यह दोमुंहा चेहरा सहन न कर पाते. इन लोगों की यह मानसिकता आप कैसे सह पाते. पापा, आप को तो छुटकारा मिल गया, अब मैं, मम्मी  इन लोगों के बीच कैसे रह पाऊंगी?’ और विनायक के चेहरे से नजर हटा कर लाचारी से मां सुधा की ओर देखा.

ठीक उसी समय सुनंदा बैठैबैठे बड़बड़ाती रहीं और पलभर में खुद को संभाल कर अगलबगल, आगेपीछे देखने लगीं, जैसे अदृश्य धक्का मारने वाली को खोज रही हों. और यह देख लेने वाली परिता उधर से नजर हटा कर पिता की सजी देह को ध्यान से देखने लगी.

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विनायक के चेहरे को तिरछी नजरों से ताकती हुई परिता पिता से संवाद साध रही थी कि यह देखो पापा, अच्छा ही हुआ वरना आप अपनों और परायों का यह दोमुंहा चेहरा सहन न कर पाते. मैं और मम्मी  इन लोगों के बीच अब कैसे रहूं? और फिर उस ने सुधा की ओर देखा.

आखिर विनायक ने अंतिम सांस ली. बगल में उन का हाथ थामे बैठी सुधा, आंखें बंद किए लगातार मृत्युंजय जाप कर रही थी. पुनीत और परिता सजल आंखों से 15वां अध्याय गुनगुना रहे थे. विनायक इस सब के बिलकुल खिलाफ थे. खिलाफ तो इस सब के सुधा भी थी लेकिन जगहंसाई से बचने के लिए उसे यह ढोंग करना पड़ रहा था. जैसा विनायक का सात्विक, सत्यनिष्ठ, शांत जीवन था वैसा ही उन की शांत मृत्यु और वैसा ही उन का स्थितिप्रज्ञ परिवार, जिस ने पूरी स्वस्थता के साथ यह आघात सहने का मनोबल बना रखा था. इस के पीछे भी विनायक और सुधा के ही विचार थे.

दोनों ही देश की प्रतिष्ठत यूनिवर्सिटी में विज्ञान शाखा के पूर्व प्राध्यापक होने के कारण हमेशा सत्य की खोज में रत, स्पष्टवक्ता, समाज और परिवार में व्ववहार के नाम पर चलने वाले दंभ के सामने विरोध कर क्रांतिकारी कदम उठाने में हमेशा आगे रहे. उन से मिलने वाले किसी भी व्यक्ति को यही लगता था कि जीवन की सभी वास्तविकताओं और चढ़ावउतार को तटस्थताभाव से समझने वाले और पचाने वाला यह दंपती धर्म में कम, मानवता व कर्म में ज्यादा जीता है. शायद इसीलिए विनायक को अच्छा लगे, उन के व्यक्तित्व पर जमे, इस तरह पूरे परिवार ने मोक्षमार्ग के प्रयाण के समय आंसू गिराए बिना खुद को संभाला और निभाया.

खबर मिलते ही सगेसंबंधी, पड़ोसी, यारदोस्त, कलेज के साथी जुटने लगे थे. अंतिम प्रयाण की तैयारियां होने लगी थीं. पुनीत और परिता के फोन बजने लगे थे. फोन विनायक के दूर के मौसेरे भाई हरीश का था, “अरे, मुझे तो अभीअभी पता चला. प्रकृति जो करे, वही ठीक है. वैसे तो कुछ भी नहीं था न उन्हें? कैसे हो गया यह? बेटा, हिम्मत से काम लेना. मैं तो बेंगलुरु से अभी पहुंच नहीं सकता, पर कोई काम हो, कह देना, जरा भी संकोच मत करना.”

“जी अंकल, नहींनहीं, कोई बात नहीं. बस, अचानक सांस भारी हुई. पापा की इच्छानुसार किसी तरह का कोई लौकिक रीतिरिवाज नहीं रखा, इसलिए परेशान मत होइए.”

“सुधा भाभी को संभालना. अब तो घर में तुम्हीं सब से बड़े हो. परिता तो अभी छोटी है. मुझे विश्वास है, तुम संभाल लोगे. बाकी और बोलो, नया क्या है. मजे में हो न?” और फोन कट गया.

पुनीत एकटक फोन को ताकता रहा. ‘नया क्या है, मजे में हो न? नया क्या है मजे में हो न?’ कान के परदे पर ये शब्द गूंजते रहे. बाप को खोए अभी कुछ ही घंटे हुए हैं. उन का पार्थिव शरीर अभी सामने पड़ा है. इस हालत में भला कोई मजे में हो सकता है? यह नया कहा जाएगा? इस तरह के सवाल? मन को धक्का लगा.

अब पुनीत ने मां की ओर नजर दौडाई. गजब स्वस्थ हैं मम्मी. लगातार गुनगुना कर रही हैं, पापा की ऊर्ध्वगति के लिए, अपनी वेदना को छिपा कर. तभी मिसेज तिवारी आंटी आईं. इस्त्री की हुई साड़ी में, दोनों हाथ जोड़े, “सुधा, यह क्या हो गया? मुझे तो प्रोफैसर शशांक से पता चला. अब तुम इन दोनों को देखो. इन की हिम्मत तो तुम्हीं हो अब. किसी भी तरह की कोई जरूरत हो तो कहना. खाने की चिंता मत करना. कालेज की कैंटीन में कह दिया है. अभी कुछ दिनों तक घर में लोगों का आनाजाना लगा रहेगा न. सागसब्जी तो कुछ नहीं चाहिए?”

सुधा मिसेस तिवारी के चल रहे नौनस्टौप लैक्चर को नतमस्तक हो कर सुन रही थी, “देखो, चाहोगी तो यह सब तुम्हें घरबैठे मिल जाएगा. ऐसी तमाम ऐप हैं. मैं तो इस महामारी के दौर में औनलाइन ही और्डर करती हूं. 3-4 घंटों में सब्जी आ जाती है.” तभी बगल में बैठी तारा बूआ ने आंख पोंछते हुए धीरे से कहा, “हांहां, बहुत अच्छी सर्विस है उन की. उस में डिस्काउंट स्कीम भी चलती रहती है. परवल और भिंडी एकदम ताजी और आर्गेनिक.”

मिसेज तिवारी अब बूआ की ओर घूम कर फुसफुसाती हुई बोलीं, “उस में आप कौन्टैक्ट ऐड कर के फायदा भी ले सकती हैं. आप अपना नंबर दीजिए, मैं आप को ऐड…”

वहीं पास में बैठे पुनीत और परिता स्तब्ध हो कर एकदूसरे को देख रहे थे. यह स्थान और समय सचमुच सागसब्जी की ऐप के संवाद के लिए था. ऐसे मौके की तो छोड़ो, सामान्य संयोगों पर भी मम्मी इस तरह के माहौल का जोरदार बहिष्कार करतीं. पर इस समय, ऐसे मौके पर एक सामान्य महिला की तरह चुपचाप बैठी सभी का मुंह ताक रही थीं. भाईबहन कभी एकदूसरे का तो कभी मां का तो कभी बातें करने वालों का मुंह ताक रहे थे.

अभी सभी थोड़ा सामन्य हुए थे कि रविंद्र ताऊ पुनीत के पास आ कर बोले, “ए पुनीत, विनय भैया का एक कुरतापायजामा दो. जल्दीजल्दी में मैं ने तौलिया तो ले लिया, पर श्मशान से लौट कर नहाने के बाद बदलने के लिए कपड़े साथ लाना भूल गया. और अब तो विनय भैया के कपड़ों की जरूरत ही क्या है. अरे हां, पिछले महीने फैशन वेयर से उन्होंने जो कुरतापायजामा खरीदा था, उसे ही ले आना.”

रविंद्र विनायक के सगे बड़े भाई थे. पुनीत ने झटके से रविंद्र की ओर देखा. बड़ेबुजुर्ग हैं, इसलिए लिहाज करने के अलावा और क्या विकल्प हो सकता था? बड़ी बूआ कनक 2-4 अन्य बुजुर्ग महिलाओं के बीच बैठी सुधा से फरमा रही थीं, “ऐसे में तुम्हें रहने में अकेलापन लगेगा. कहो तो मैं एकाध महीने रुक जाऊं? वैसे भी हमें क्या काम है. मंदिर में बैठी रहूं या तुम्हारे घर में, क्या फर्क पड़ता है. व्रतउपवास तो मैं करती नहीं. हां, मेरे लिए अलग खाना बनाने का थोड़ा झंझट जरूर रहेगा. तुम्हारा भी मन लगा रहेगा और भजनसत्संग भी होता रहेगा. अब तो तुम्हें भी इसी में हमेशाहमेशा के लिए मन लगाना होगा.”

सुधा शून्यभाव से चुपचाप अपने चारों ओर बुढ़ियों को ताकती रही. उन सब की बातें सुन कर वह थक गई हो, इस तरह निसास छोड़ती रही. उसी समय कोने में दीवार से टेक लगाए बैठे मनोज मोबाइल पर जोरजोर से बातें करते हुए आगे खिसके, “हांहां, सुनाई दे रहा है. वहां तो इस समय देररात होगी? ले बात कर पुनीत से.” इस के बाद पुनीत को फोन पकड़ाते हुए कहा, “ले, बात कर, दीपक है स्काइप पर. तेरे लिए ही जाग रहा है. फर्ज निभाने में मेरा दीपक जरा भी पीछे नहीं रहता. बहुत व्यावहारिक है. ले जरा बात कर ले और थोड़ा अंतिमदर्शन भी करा देना. मोबाइल की स्क्रीन विनायक मौसा की ओर घुमा देना. हमारे दीपक को परिवार से बहुत लगाव है.” इतना कह कर मनोज ने गर्वभरी नजरों से वहां बैठे लोगों की ओर देखा.

पुनीत को एकाएक झिझक सी हुई. जबरदस्ती हाथ में पकड़ाए गए मोबाइल को ले कर वह दूसरे कमरे में चला गया. बात कर के वह वापस आया तो अंतिमयात्रा के लिए मंत्रोच्चार और विधि हो रही थी. विनायक के पार्थिव शरीर को फूलों से सजाया जा रहा था. परिता बाप की विदाई और उस समय चल रही आसपास की विषमताओं को पचाने का असफल प्रयास कर रही थी.  तभी धीरे से खिसक कर धीरेंद्र ने कहा, “विश्वास ही नहीं हो रहा कि विनय मामा हम सब को छोड़ कर चले गए. मैं सब संभाल लूंगा, हां. मैं तुम्हारा भाई हूं न. मैं वह क्या कह रहा था कि कोई उतावल नहीं है, फिर भी आगेपीछे पुनीत के कान में बात डाल देना. इन फूलों और बाकी चीजों को मिला कर 3 हजार रुपए हुए हैं. कोई उतावल नहीं है. मामा को कितने अच्छे से सजाया है न, जैसे अभी उठ कर बोलने लगेंगे. चेहरे पर तेज तो देखो. श्मशान से आने के बाद खाने की क्या व्यवस्था की है? मैं वह क्या कह रहा था कि कहो तो पंडित के ढाबे पर फोन कर दूं. हमारी जानपहचान है पंडित से. उस के यहां का खाना बहुत टेस्टी होता है.”

धीरेंद्र की बातों से परिता की आंखों में आंसू आ गए. “पापा… यह किस तरह के लोगों के बीच छोड़ कर चले गए हो. आप तो समाज की सोच को बदलना चाहते थे, यहां तो इन के मन में मौत के बजाय ढाबे के टेस्टी खाने की परवा ज्यादा है.” मन में उठ रहे आक्रोश को वह आंसुओं में बहा रही थी.

पुनीत ने बहन को सांत्वना देने के लिए उस के सिर पर हाथ फेरा. उसी समय सुन॔दा आंटी एकाएक चिल्लाती हुई आईं और ध्यानमुद्रा में बैठी सुधा को बांहों में भर लिया. अपनी जेठानी के इस आवेगभरे हमले से सुधा हिल उठी. वे जोरजोर से कहने लगीं, “सुधा, यह क्या हो गया. मेरा प्यारा देवर हम सब को दगा दे गया. रो ले सुधा, रो ले. इस तरह गुमसुम बैठी रहेगी तो पत्थर हो जाएगी. फिर इन दोनों को कौन देखेगा?” थोड़ा खंखार कर गला साफ किया तो सुनंदा की आवाज थोड़ा स्पष्ट हुई. अब उन की बात पुनीत और परिता की भी समझ में आने लगी.

उन्होंने आगे कहा, “विधि का विधान तो देखो, अभी हम दोनों ने शादी की 50वीं वर्षगांठ मनाई है. तुम्हारे जेठ तो 75 पार कर गए और यह तो उन से कितने छोटे थे, फिर भी पहले चले गए.” आवाज की खनक और तरीके में छिपा राजी वाला मर्म स्पष्ट झलक रहा था, “पीकू मुझ से कह रहा था कि दादी, यह कैसा हुआ?  आप ओल्डर हैं तब भी कपल हैं. पर सुधा दादी तो आप से छोटी हैं, फिर भी विडो हो गईं, ऐसा कैसे?”

पुनीत मुट्ठी भींच कर लौन में खड़े लोगों की ओर बढ़ गया. परिता विनायक के निश्चेत चेहरे को तिरछी नजरों से ताकते हुए मन ही मन पिता से संवाद साध रही थी, ‘यह देखो, पापा, सुन रहे हो न? अच्छा ही हुआ, आप यह सब देखने के लिए यहां नहीं हो. आप चले गए, यही अच्छा है. वरना आप अपनों और परायों का यह दोमुंहा चेहरा सहन न कर पाते. इन लोगों की यह मानसिकता आप कैसे सह पाते. पापा, आप को तो छुटकारा मिल गया, अब मैं, मम्मी  इन लोगों के बीच कैसे रह पाऊंगी?’ और विनायक के चेहरे से नजर हटा कर लाचारी से मां सुधा की ओर देखा.

ठीक उसी समय सुनंदा बैठैबैठे बड़बड़ाती रहीं और पलभर में खुद को संभाल कर अगलबगल, आगेपीछे देखने लगीं, जैसे अदृश्य धक्का मारने वाली को खोज रही हों. और यह देख लेने वाली परिता उधर से नजर हटा कर पिता की सजी देह को ध्यान से देखने लगी.

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June 01, 2022 at 09:19AM

कैनवास: सुलिवान मैडम का कैसा व्यक्तित्व था

‘‘अलका, आज नो स्कूल डे की मौज ले,’’ शमीका मोबाइल पर खुशी जाहिर कर रही थी.

‘‘मतलब क्या है तेरा?’’ मैं असमंजस में थी.

‘‘अरे सुन, आज सुबहसुबह राजन सर की हार्टअटैक से मौत हो गई. सो, आज छुट्टी है स्कूल की,’’ शमीका ने खुशी जाहिर की.

‘‘यह ठीक है कि राजन सर को हम पसंद नहीं करते, मगर इस पर खुश होना ठीक नहीं शमीका. यह गलत है. एक तो वे नौजवान थे और उन की फैमिली भी थी. प्लीज, ऐसा मत बोल,’’ मैं ने शमीका को सम?ाने की कोशिश की.

‘‘हेलो यार, छोटीछोटी गलतियों पर सारे लड़कों के सामने हम लड़कियों को ‘डम्ब’ और ‘डंकी’ कहते थे, तब,’’ शमीका बड़बड़ाती रही अपनी रौ में. मैं ने फोन काट दिया.

ठीक है हमारे इंग्लिश टीचर राजन सर थोड़ा ज्यादा ही रूड थे और खासकर लड़कियों को अकसर नीचा दिखाते थे, मगर इस का मतलब यह तो नहीं कि उन की एकाएक डैथ हो जाए और हम खुश हों. उन के बारे में सुन कर दिल भारी हो गया. अभी कुछ दिनों पहले ही तो उन्होंने अपनी लाड़ली बेटी रिम्पी का पहला बर्थडे मनाया था और उस की फोटो अपने फेसबुक प्रोफाइल में डाली थी. उस बच्ची के लिए मैं उदास थी.

मेरा इंग्लिश मीडियम स्कूल एक को-एड स्कूल था और मेरे क्लास के सारे साथी 11-13 उम्र वर्ग से थे जब सारे लड़केलड़कियों के तनमन में अजीब सी सनसनाहट शुरू हो जाती है और एकदूसरे के लिए अजीब अजीब खयाल उठना शुरू हो जाता है.

जब लड़कों में ईगो बढ़ने लगता है और उन की सोच में ऐंठन आने लगती है. वहीं लड़कियां आईने के सामने ज्यादा समय अपने को सजानेसंवारने में लगाती हैं. यहां तक कि  स्कूल यूनिफौर्म में भी अपने को घुमाफिरा कर चोरीचोरी ये सम?ाने की कोशिश करती हैं कि क्लास के लड़के उन के लुक्स और उभरते शरीर को देख कर नर्वस होते हैं या नहीं. लड़के और लड़कियों के बीच एकदूसरे से बेहतर साबित करने का मौन कंपीटिशन चलता रहता है. प्रौब्लम यह भी है कि जबतब किसी का भी किसी पर क्रश हो जाता है.

खैर, 2 दिनों तक स्कूल बंद रहने के बाद फिर सोमवार को स्कूल खुला. हिंदी और मैथ के पीरियड्स के बाद थर्ड पीरियड इंग्लिश का था और हम निश्ंिचत थे कि यह पीरियड औफ ही रहेगा तो हम शोरगुल मचाने लगे थे. जब हमारा उत्पात और शोर चरम पर था तो एकाएक शांति छा गई.

एक बहुत ही सुंदर और सौम्य लेडी, जो उन दिनों अपनी उम्र के तीसरे दशक के आसपास थी, अपनी हाई हील की खटखट की आवाज करती हुई क्लास में पधारीं. उन के बदन के ज्वारभाटा, लहराते हुए लंबे व खुले बाल और काजल खींची हिरणी सी आखें उन के चारों तरफ एक आभा फैला रही थीं. बड़े सलीके से पहनी हुई उन की सुनहरी बूटीदार मैरून साड़ी, पूरे शबाब के साथ उभरे सीने पर रखा हुआ, मोतियों का नैकलैस, डीप रैड लिपस्टिक और डस्की त्वचा एक अजीब सी मादकता पैदा कर रही थी.

हां, यही वे मिसेज अम्बर सुलिवान थीं जो हमारे दिवंगत राजन सर की जगह हमें इंग्लिश पढ़ाने के लिए नियुक्त की गई थीं.

मिसेज सुलिवान के रूप और पर्सनैलिटी का जादू मेरे ऊपर तुरंत चढ़ गया. मैं उन्हें देखती ही रही और मन ही मन अपनी जवानी के दिनों में वैसी ही बनने की ठान ली. मैं ने चोर निगाहों से क्लास के सब से मवाली लड़कों- रोहन, अदीब और पीयूष की तरफ देखा. वे सब भी बिलकुल डंब हो गए थे. उन की हालत देख कर मैं मन ही मन इतनी खुश हुई कि पूछो मत.

मैडम की पर्सनैलिटी से वे क्लीनबोल्ड हो कर भीगी बिल्ली बन गए थे. एक और जोर का बिजली का ?ाटका तब लगा जब उन्होंने अपनी गजब की सुरीली आवाज में हम लोगों को विश किया. वैसे ही अपने मादक रूपरंग से वे किसी को भी मार सकती थीं, ऊपर से ऐसी जलतरंग सी आवाज. क्लास के हम सारे 40 लड़के व लड़कियां तत्काल ही मिसेज सुलिवान के प्यार में डूब गए.

इस के बाद उन्होंने अपने बारे में थोड़ी सी जानकारी दी और फिर ‘द फाउंटेन’ कविता को इतने रसीले अंदाज में पढ़ाया कि सारे शब्द भाव बन कर हमारे दिल में उतर गए. नोट लेने की जरूरत ही नहीं पड़ी. पूरे समय तक क्लास में पिनड्रौप साइलैंस बना रहा और हम पीरियड खत्म होने की घंटी बजने के साथ ही होश में आए.

जब मिसेज सुलिवान क्लास छोड़ कर जाने लगीं तो 80 आंखें उन की अदाओं पर चिपकी हुई थीं. वाह, कुदरत ने भी क्या करिश्मा किया है. रूप और गुणों से मैडम को बेइंतहा लैस किया है.

फोर्थ पीरियड अब फिजिकल ट्रेनिंग का था. जैसे ही पीटी टीचर की विस्सल बजी, हम सब तरतीब से लाइन में खड़े हो गए. हमारे पीटी टीचर मिस्टर असलम एकदम रफटफ लंबेतगड़े और बिलकुल गुलाबी रंगत के थे. उन्हें भी हम खूब पसंद करते थे मगर उस की एक दूसरी वजह थी. उन्हें इंग्लिश में बोलना निहायत पसंद था और उन की बेधड़क इंग्लिश भी ऐसी थी कि बड़ेबड़े अंग्रेजीदां लोगों को भी अपनी भाषा बोली रिसेट करने की जरूरत पड़ जाए.

एक दिन उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘यू नो, आई हैव टू डौटर्स एंड बोथ आर गर्ल्स. आई डोंट हैव अ सन.’’ (तुम्हें पता है मेरी दो जुड़वां बेटियां हैं और दोनों लड़कियां हैं. मेरा कोई लड़का नहीं है). उन की बात खत्म होते ही हंसी का फौआरा छूट गया. हमारी हंसी रुके ही न.

असलम सर बेचारे अपना मासूम सा चेहरा लिए यह सम?ाने की कोशिश में थे कि उन्होंने ऐसी कौन सी बात कह दी कि बच्चों को इतना आनंद आ गया. मगर कुछ भी हो, न उन की स्पोकन इंग्लिश छूटी और न ही उन के आत्मविश्वास में कमी आई. हम लोगों ने भी कभी उन को चिढ़ाया नहीं, उन से लगाव जो था.

इसी तरह एक बार टीचर्स डे के अवसर पर प्रार्थना सभा में ही उन्होंने अपनी भारी आवाज में ऐलान किया-‘‘ब्रिंग योर पेरैंट्स टुमारो, एस्पेशली योर फादर्स एंड मदर्स.’’ (कल अपने पेरैंट्स को साथ लाना, खासतौर पर अपने माता और पिता को). अब पूरी असेंबली में हीही हुहु मच गई और प्रिंसिपल मैडम का चेहरा लाल हो गया. स्थिति संभालने के लिए सुलिवान मैडम आगे आईं और अपनी चुस्त इंग्लिश व मोहक मुसकान से सब को चुप कराया. असलम सर तब भी चौड़े हो कर हंस रहे थे.

मजे की बात यह हुई कि अब तक लगभग पूरे शहर को पता चल गया था कि असलम सर बुरी तरह सुलिवान मैडम पर फिदा हैं और सुलिवान मैडम के दिल में भी असलम सर के लिए कुछकुछ होता है. किसी भी बहाने से एकदूसरे के करीब बैठते हैं और तुर्रा तो यह कि असलम सर उन से इंग्लिश में ही बात करते हैं. हालांकि दोनों ही शादीशुदा थे और दोनों के बच्चे भी थे मगर दिल ने कब दुनियावी रोकटोक को माना है.

हुआ यह कि मैडम सुलिवान के 29वें बर्थडे के दिन असलम सर ने स्कूल के कौरिडोर के दूसरे छोर से ही ऊंची आवाज में मैडम को विश किया- ‘‘हैप्पी बर्थडे मैडम, मे गौड ब्लास्ट यू.’’ (हैप्पी बर्थ डे मैडम, ईश्वर आप को फाड़ें). जब सारे टीचर्स और स्टूडैंट्स इस पर खुल कर हंसने लगे, मैडम ने ?ोंपती हुई मुसकरा कर अपनी भारी पलकें ?ाका लीं. जाहिर है, असलम सर ने कभी ‘ब्लेस्स’ और ‘ब्लास्ट’ के अंतर पर ध्यान नही दिया.

हर एक बीते दिन के साथ ही हम सब बच्चे जवान हो रहे थे. मेरी कुछ सहेलियों ने तो ‘नारित्व’ का पहला पड़ाव भी छू लिया था और उन का चहकनामचलना भी एकाएक शांत हो गया था. अब उन की आंखें क्लास के लड़कों में कुछ और चीज की तलाश करने लगी थीं.

प्रकृति का अपना एक षड्यंत्र है. क्यूपिड का अदृश्य तीर तनमन में सुनामी लाता ही है. कितनी ही बार हम लोगों ने गौर किया है कि असलम सर की चोर निगाहें सुलिवान मैडम के स्तनों और साटन की साड़ी में लिपटी नितंबों पर अटकी हुई हैं. सही में असलम सर की इस बेबसी पर हमें दया आती थी.

उसी साल क्रिसमस डे के ठीक पहले सुलिवान मैडम ने सूचित किया कि वे अपने गृहनगर त्रिवेंद्रम लौट रही हैं क्योंकि उन्हें वहां के संत जोसफ कालेज में लैक्चरर की नौकरी मिल गई है. उन की इस छोटी सी सूचना ने हम लोगों को अंदर तक हिला दिया और असलम सर के तो दिल के हजार टुकड़े लखनऊ की सड़कों पर बिखर गए. सुलिवान मैडम ने अपने सौम्य व्यवहार और आकर्षक व्यक्तित्व से पूरे स्कूल के वातावरण में एक अजीब सी रौनक ला दी थी.

प्रिंसिपल से ले कर चपरासी तक उन के मुरीद हो चुके थे. इन कई महीनों की सर्विस में न तो उन्होंने कोई छुट्टी ली थी और न ही किसी से नाराज हुई थीं. खैर, जो होता है वह तो हो कर रहता है. वह दिन भी आ ही गया जब उन का फेयरवैल होना था.

असलम सर ने बड़ी मेहनत से अपने दिल में बसे समस्त आवेग और रचनात्मकता उड़ेल कर सुलिवान मैडम के लिए तैयार किया गया एक बड़ा सा ग्रीटिंग कार्ड और लालपीले गुलाबों से सजा एक गुलदस्ता ला कर उन्हें गिफ्ट किया. स्वाभाविक था कि सब में यह जिज्ञासा थी कि उस में उन्होंने कैसे अपने दिल की जबां को व्यक्त किया है.

हम सब ने उस कार्ड के अंदर ताक?ांक की और पाया कि सुनहरे ग्लिटर से लिखा था, ‘‘मैरी क्रिसमस, डियर सुलिवान मैडम.’’ (क्रिसमस से विवाह करें, प्रिय सुलिवान मैडम). हम सब ने चुपचाप अपनी हंसी दबा ली.

असलम सर ने कभी ‘मेरी’ और ‘मैरी’ के बीच का अंतर न सम?ा था. सुलिवान मैडम ने बड़ी नजाकत के साथ कार्ड को स्वीकार किया, टैक्स्ट को पढ़ा और संयत ढंग से मुसकरा कर असलम सर को थैंक्स कहा.

फेयरवैल के बाद सुलिवान मैडम ने असलम सर को एक खाली क्लासरूम में एकांत में बुलाया और कार्ड के लेखन में हुई गलती को बड़े प्रेम से सम?ाया और हौले से उन के गाल पर एक चुंबन दे दिया. मैडम की तरफ से असलम सर के लिए यह एक छोटा सा गुडबाई रिटर्न गिफ्ट था. असलम सर की बड़ीबड़ी आंखों से सावन की धार बह निकली. क्यूपिड का खेल इसी तरह ओवर हो गया. हम में से कुछ शरारती बच्चे, जो खिड़की की ओट से इस छोटी सी घटना के रोमांटिक एंड का नजारा देख रहे थे, अपने आंसुओं को रोक नहीं पाए और दबे कदमों से वहां से भाग लिए.

आज जब मैं खुद अपना 29वां जन्मदिन मनाने की तैयारी कर रही हूं, एक सफल जर्नलिस्ट के रूप में शोहरत कमा चुकी हूं. मेरे मन के कैनवास पर असलम सर की स्पोकन इंग्लिश के साथसाथ सुलिवान मैडम के उज्ज्वल व्यक्तित्व की अमिट छाप, उन की हर अदा और पढ़ाने का अंदाज, उन का रोमांस और हर पल में उन की उपस्थिति मु?ो प्रेरित कर रही है.

आज मैं जो कुछ भी हूं और आगे जीवन में जो कुछ भी हासिल करूंगी, उस में मेरी चहेती सुलिवान मैडम का योगदान और आशीर्वाद दोनों रहेंगे.

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‘‘अलका, आज नो स्कूल डे की मौज ले,’’ शमीका मोबाइल पर खुशी जाहिर कर रही थी.

‘‘मतलब क्या है तेरा?’’ मैं असमंजस में थी.

‘‘अरे सुन, आज सुबहसुबह राजन सर की हार्टअटैक से मौत हो गई. सो, आज छुट्टी है स्कूल की,’’ शमीका ने खुशी जाहिर की.

‘‘यह ठीक है कि राजन सर को हम पसंद नहीं करते, मगर इस पर खुश होना ठीक नहीं शमीका. यह गलत है. एक तो वे नौजवान थे और उन की फैमिली भी थी. प्लीज, ऐसा मत बोल,’’ मैं ने शमीका को सम?ाने की कोशिश की.

‘‘हेलो यार, छोटीछोटी गलतियों पर सारे लड़कों के सामने हम लड़कियों को ‘डम्ब’ और ‘डंकी’ कहते थे, तब,’’ शमीका बड़बड़ाती रही अपनी रौ में. मैं ने फोन काट दिया.

ठीक है हमारे इंग्लिश टीचर राजन सर थोड़ा ज्यादा ही रूड थे और खासकर लड़कियों को अकसर नीचा दिखाते थे, मगर इस का मतलब यह तो नहीं कि उन की एकाएक डैथ हो जाए और हम खुश हों. उन के बारे में सुन कर दिल भारी हो गया. अभी कुछ दिनों पहले ही तो उन्होंने अपनी लाड़ली बेटी रिम्पी का पहला बर्थडे मनाया था और उस की फोटो अपने फेसबुक प्रोफाइल में डाली थी. उस बच्ची के लिए मैं उदास थी.

मेरा इंग्लिश मीडियम स्कूल एक को-एड स्कूल था और मेरे क्लास के सारे साथी 11-13 उम्र वर्ग से थे जब सारे लड़केलड़कियों के तनमन में अजीब सी सनसनाहट शुरू हो जाती है और एकदूसरे के लिए अजीब अजीब खयाल उठना शुरू हो जाता है.

जब लड़कों में ईगो बढ़ने लगता है और उन की सोच में ऐंठन आने लगती है. वहीं लड़कियां आईने के सामने ज्यादा समय अपने को सजानेसंवारने में लगाती हैं. यहां तक कि  स्कूल यूनिफौर्म में भी अपने को घुमाफिरा कर चोरीचोरी ये सम?ाने की कोशिश करती हैं कि क्लास के लड़के उन के लुक्स और उभरते शरीर को देख कर नर्वस होते हैं या नहीं. लड़के और लड़कियों के बीच एकदूसरे से बेहतर साबित करने का मौन कंपीटिशन चलता रहता है. प्रौब्लम यह भी है कि जबतब किसी का भी किसी पर क्रश हो जाता है.

खैर, 2 दिनों तक स्कूल बंद रहने के बाद फिर सोमवार को स्कूल खुला. हिंदी और मैथ के पीरियड्स के बाद थर्ड पीरियड इंग्लिश का था और हम निश्ंिचत थे कि यह पीरियड औफ ही रहेगा तो हम शोरगुल मचाने लगे थे. जब हमारा उत्पात और शोर चरम पर था तो एकाएक शांति छा गई.

एक बहुत ही सुंदर और सौम्य लेडी, जो उन दिनों अपनी उम्र के तीसरे दशक के आसपास थी, अपनी हाई हील की खटखट की आवाज करती हुई क्लास में पधारीं. उन के बदन के ज्वारभाटा, लहराते हुए लंबे व खुले बाल और काजल खींची हिरणी सी आखें उन के चारों तरफ एक आभा फैला रही थीं. बड़े सलीके से पहनी हुई उन की सुनहरी बूटीदार मैरून साड़ी, पूरे शबाब के साथ उभरे सीने पर रखा हुआ, मोतियों का नैकलैस, डीप रैड लिपस्टिक और डस्की त्वचा एक अजीब सी मादकता पैदा कर रही थी.

हां, यही वे मिसेज अम्बर सुलिवान थीं जो हमारे दिवंगत राजन सर की जगह हमें इंग्लिश पढ़ाने के लिए नियुक्त की गई थीं.

मिसेज सुलिवान के रूप और पर्सनैलिटी का जादू मेरे ऊपर तुरंत चढ़ गया. मैं उन्हें देखती ही रही और मन ही मन अपनी जवानी के दिनों में वैसी ही बनने की ठान ली. मैं ने चोर निगाहों से क्लास के सब से मवाली लड़कों- रोहन, अदीब और पीयूष की तरफ देखा. वे सब भी बिलकुल डंब हो गए थे. उन की हालत देख कर मैं मन ही मन इतनी खुश हुई कि पूछो मत.

मैडम की पर्सनैलिटी से वे क्लीनबोल्ड हो कर भीगी बिल्ली बन गए थे. एक और जोर का बिजली का ?ाटका तब लगा जब उन्होंने अपनी गजब की सुरीली आवाज में हम लोगों को विश किया. वैसे ही अपने मादक रूपरंग से वे किसी को भी मार सकती थीं, ऊपर से ऐसी जलतरंग सी आवाज. क्लास के हम सारे 40 लड़के व लड़कियां तत्काल ही मिसेज सुलिवान के प्यार में डूब गए.

इस के बाद उन्होंने अपने बारे में थोड़ी सी जानकारी दी और फिर ‘द फाउंटेन’ कविता को इतने रसीले अंदाज में पढ़ाया कि सारे शब्द भाव बन कर हमारे दिल में उतर गए. नोट लेने की जरूरत ही नहीं पड़ी. पूरे समय तक क्लास में पिनड्रौप साइलैंस बना रहा और हम पीरियड खत्म होने की घंटी बजने के साथ ही होश में आए.

जब मिसेज सुलिवान क्लास छोड़ कर जाने लगीं तो 80 आंखें उन की अदाओं पर चिपकी हुई थीं. वाह, कुदरत ने भी क्या करिश्मा किया है. रूप और गुणों से मैडम को बेइंतहा लैस किया है.

फोर्थ पीरियड अब फिजिकल ट्रेनिंग का था. जैसे ही पीटी टीचर की विस्सल बजी, हम सब तरतीब से लाइन में खड़े हो गए. हमारे पीटी टीचर मिस्टर असलम एकदम रफटफ लंबेतगड़े और बिलकुल गुलाबी रंगत के थे. उन्हें भी हम खूब पसंद करते थे मगर उस की एक दूसरी वजह थी. उन्हें इंग्लिश में बोलना निहायत पसंद था और उन की बेधड़क इंग्लिश भी ऐसी थी कि बड़ेबड़े अंग्रेजीदां लोगों को भी अपनी भाषा बोली रिसेट करने की जरूरत पड़ जाए.

एक दिन उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘यू नो, आई हैव टू डौटर्स एंड बोथ आर गर्ल्स. आई डोंट हैव अ सन.’’ (तुम्हें पता है मेरी दो जुड़वां बेटियां हैं और दोनों लड़कियां हैं. मेरा कोई लड़का नहीं है). उन की बात खत्म होते ही हंसी का फौआरा छूट गया. हमारी हंसी रुके ही न.

असलम सर बेचारे अपना मासूम सा चेहरा लिए यह सम?ाने की कोशिश में थे कि उन्होंने ऐसी कौन सी बात कह दी कि बच्चों को इतना आनंद आ गया. मगर कुछ भी हो, न उन की स्पोकन इंग्लिश छूटी और न ही उन के आत्मविश्वास में कमी आई. हम लोगों ने भी कभी उन को चिढ़ाया नहीं, उन से लगाव जो था.

इसी तरह एक बार टीचर्स डे के अवसर पर प्रार्थना सभा में ही उन्होंने अपनी भारी आवाज में ऐलान किया-‘‘ब्रिंग योर पेरैंट्स टुमारो, एस्पेशली योर फादर्स एंड मदर्स.’’ (कल अपने पेरैंट्स को साथ लाना, खासतौर पर अपने माता और पिता को). अब पूरी असेंबली में हीही हुहु मच गई और प्रिंसिपल मैडम का चेहरा लाल हो गया. स्थिति संभालने के लिए सुलिवान मैडम आगे आईं और अपनी चुस्त इंग्लिश व मोहक मुसकान से सब को चुप कराया. असलम सर तब भी चौड़े हो कर हंस रहे थे.

मजे की बात यह हुई कि अब तक लगभग पूरे शहर को पता चल गया था कि असलम सर बुरी तरह सुलिवान मैडम पर फिदा हैं और सुलिवान मैडम के दिल में भी असलम सर के लिए कुछकुछ होता है. किसी भी बहाने से एकदूसरे के करीब बैठते हैं और तुर्रा तो यह कि असलम सर उन से इंग्लिश में ही बात करते हैं. हालांकि दोनों ही शादीशुदा थे और दोनों के बच्चे भी थे मगर दिल ने कब दुनियावी रोकटोक को माना है.

हुआ यह कि मैडम सुलिवान के 29वें बर्थडे के दिन असलम सर ने स्कूल के कौरिडोर के दूसरे छोर से ही ऊंची आवाज में मैडम को विश किया- ‘‘हैप्पी बर्थडे मैडम, मे गौड ब्लास्ट यू.’’ (हैप्पी बर्थ डे मैडम, ईश्वर आप को फाड़ें). जब सारे टीचर्स और स्टूडैंट्स इस पर खुल कर हंसने लगे, मैडम ने ?ोंपती हुई मुसकरा कर अपनी भारी पलकें ?ाका लीं. जाहिर है, असलम सर ने कभी ‘ब्लेस्स’ और ‘ब्लास्ट’ के अंतर पर ध्यान नही दिया.

हर एक बीते दिन के साथ ही हम सब बच्चे जवान हो रहे थे. मेरी कुछ सहेलियों ने तो ‘नारित्व’ का पहला पड़ाव भी छू लिया था और उन का चहकनामचलना भी एकाएक शांत हो गया था. अब उन की आंखें क्लास के लड़कों में कुछ और चीज की तलाश करने लगी थीं.

प्रकृति का अपना एक षड्यंत्र है. क्यूपिड का अदृश्य तीर तनमन में सुनामी लाता ही है. कितनी ही बार हम लोगों ने गौर किया है कि असलम सर की चोर निगाहें सुलिवान मैडम के स्तनों और साटन की साड़ी में लिपटी नितंबों पर अटकी हुई हैं. सही में असलम सर की इस बेबसी पर हमें दया आती थी.

उसी साल क्रिसमस डे के ठीक पहले सुलिवान मैडम ने सूचित किया कि वे अपने गृहनगर त्रिवेंद्रम लौट रही हैं क्योंकि उन्हें वहां के संत जोसफ कालेज में लैक्चरर की नौकरी मिल गई है. उन की इस छोटी सी सूचना ने हम लोगों को अंदर तक हिला दिया और असलम सर के तो दिल के हजार टुकड़े लखनऊ की सड़कों पर बिखर गए. सुलिवान मैडम ने अपने सौम्य व्यवहार और आकर्षक व्यक्तित्व से पूरे स्कूल के वातावरण में एक अजीब सी रौनक ला दी थी.

प्रिंसिपल से ले कर चपरासी तक उन के मुरीद हो चुके थे. इन कई महीनों की सर्विस में न तो उन्होंने कोई छुट्टी ली थी और न ही किसी से नाराज हुई थीं. खैर, जो होता है वह तो हो कर रहता है. वह दिन भी आ ही गया जब उन का फेयरवैल होना था.

असलम सर ने बड़ी मेहनत से अपने दिल में बसे समस्त आवेग और रचनात्मकता उड़ेल कर सुलिवान मैडम के लिए तैयार किया गया एक बड़ा सा ग्रीटिंग कार्ड और लालपीले गुलाबों से सजा एक गुलदस्ता ला कर उन्हें गिफ्ट किया. स्वाभाविक था कि सब में यह जिज्ञासा थी कि उस में उन्होंने कैसे अपने दिल की जबां को व्यक्त किया है.

हम सब ने उस कार्ड के अंदर ताक?ांक की और पाया कि सुनहरे ग्लिटर से लिखा था, ‘‘मैरी क्रिसमस, डियर सुलिवान मैडम.’’ (क्रिसमस से विवाह करें, प्रिय सुलिवान मैडम). हम सब ने चुपचाप अपनी हंसी दबा ली.

असलम सर ने कभी ‘मेरी’ और ‘मैरी’ के बीच का अंतर न सम?ा था. सुलिवान मैडम ने बड़ी नजाकत के साथ कार्ड को स्वीकार किया, टैक्स्ट को पढ़ा और संयत ढंग से मुसकरा कर असलम सर को थैंक्स कहा.

फेयरवैल के बाद सुलिवान मैडम ने असलम सर को एक खाली क्लासरूम में एकांत में बुलाया और कार्ड के लेखन में हुई गलती को बड़े प्रेम से सम?ाया और हौले से उन के गाल पर एक चुंबन दे दिया. मैडम की तरफ से असलम सर के लिए यह एक छोटा सा गुडबाई रिटर्न गिफ्ट था. असलम सर की बड़ीबड़ी आंखों से सावन की धार बह निकली. क्यूपिड का खेल इसी तरह ओवर हो गया. हम में से कुछ शरारती बच्चे, जो खिड़की की ओट से इस छोटी सी घटना के रोमांटिक एंड का नजारा देख रहे थे, अपने आंसुओं को रोक नहीं पाए और दबे कदमों से वहां से भाग लिए.

आज जब मैं खुद अपना 29वां जन्मदिन मनाने की तैयारी कर रही हूं, एक सफल जर्नलिस्ट के रूप में शोहरत कमा चुकी हूं. मेरे मन के कैनवास पर असलम सर की स्पोकन इंग्लिश के साथसाथ सुलिवान मैडम के उज्ज्वल व्यक्तित्व की अमिट छाप, उन की हर अदा और पढ़ाने का अंदाज, उन का रोमांस और हर पल में उन की उपस्थिति मु?ो प्रेरित कर रही है.

आज मैं जो कुछ भी हूं और आगे जीवन में जो कुछ भी हासिल करूंगी, उस में मेरी चहेती सुलिवान मैडम का योगदान और आशीर्वाद दोनों रहेंगे.

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June 01, 2022 at 09:02AM

वह सांवली लड़की: कैसे उस लड़की ने अपनी पहचान बनाई

रंग पक्का सांवला और नाम हो चांदनी, तो क्या सोचेंगे आप? यही न कि नाम और रूपरंग में कोई तालमेल नहीं. जिस दिन चांदनी ने उस कालेज में बीए प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया, उसी दिन से छात्रों के जेहन में यह बात कौंधने लगी. किसी की आंखों में व्यंग्य होता, किसी की मुसकराहट में, कोई ऐसे हायहैलो करता कि उस में भी व्यंग्य जरूर झलकता था. चांदनी सब समझती थी. मगर वह इन सब से बेखबर केवल एक हलकी सी मुसकान बिखेरती हुई सीधे अपनी क्लास में चली जाती. केवल नाम और रंग ही होता तो कोई बात नहीं थी, वह तो ठेठ एक कसबाई लड़की नजर आती थी. किसी छोटेमोटे कसबे से इंटर पास कर आई हुई. बड़े शहर के उस कालेज के आधुनिक रूपरंग में ढले हुए छात्रछात्राओं को भला उस की शालीनता क्या नजर आती. हां, 5-7 दिन में ही पूरी क्लास ने यह जरूर जान लिया

था कि वह मेधावी भी है. बोर्ड परीक्षा की मैरिट लिस्ट में अपना स्थान बनाने वाली लड़की. इस बात की गवाही हर टीचर का चेहरा देने लगता, जो उस का प्रोजैक्ट देखते. वे कभी प्रोजैक्ट की फाइल देखते, तो कभी चांदनी का चेहरा. रंगनाथ क्लास का मुंहफट छात्र था. एक दिन वह चांदनी से पूछ बैठा, ‘‘मैडम, क्या हमें बताएंगी कि आप कौन सी चक्की का आटा खाती हैं?’’

चांदनी कुछ नहीं बोली. बस, चुपचाप उसे देख भर लिया. तभी नीलम के मुंह से भी निकला, ’’हां, हां, जरूर बताना ताकि हम भी उसे खा कर अपने दिमाग को तरोताजा रख सकें.’’ रंगनाथ और नीलम की ये फबतियां सुन पूरी क्लास ठहाका मार कर हंसने लगी. लेकिन चांदनी के चेहरे का सौम्यभाव इस से जरा भी प्रभावित नहीं हुआ. वह मुसकरा कर केवल इतना बोली, ‘‘हां, हां, क्यों नहीं बताऊंगी, जरूर बताऊंगी,’’ फिर उस का ध्यान अपनी कौपी पर चला गया.

चांदनी गर्ल्स होस्टल में रहती थी. वह छुट्टी का दिन था. लड़कियां होस्टल के मैदान में वौलीबौल खेल रही थीं. कुछ हरी घास पर बैठी गपशप कर रही थीं, तो कुछ मिलने आए अपने परिजनों से बातचीत में व्यस्त थीं. साथ आए बच्चे हरीहरी घास पर लोटपोट हो रहे थे. वहीं कौरीडोर में एक किनारे कुरसी पर बैठी होस्टल वार्डन रीना मैडम सारे दृश्य देख रही थीं. उन के चेहरे पर उदासी छाई हुई थी. इन सारे दृश्यों को देखते हुए भी उन की आंखें जैसे कहीं और खोई हुई थीं. उन का हमेशा प्रसन्न रहने वाला चेहरा, इस वक्त चिंता में डूबा हुआ था. कौरीडोर में लड़कियां इधर से उधर भागदौड़ मचाए हुए थीं. मगर शायद किसी का भी ध्यान रीना मैडम पर नहीं गया. अगर गया भी हो तो किसी ने उन के चेहरे की उदासी के बारे में पूछने की जरूरत नहीं समझी. अचानक रीना मैडम के कंधे पर किसी का हाथ पड़ा. उन्होंने सिर उठा कर देखा, वह चांदनी थी, ‘‘कहां खोई हुई हैं, मैडम? आप की तबीयत तो ठीक है न,’’ चांदनी ने पूछा.

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं है. मैं ठीक हूं चांदनी,’’ रीना मैडम बोलीं. ‘‘नहीं मैडम. कुछ तो है. छिपाइए मत, आप का चेहरा बता रहा है कि आप किसी परेशानी में हैं.’’

रीना मैडम की आंखें नम हो आईं. चांदनी के शब्दों में न जाने कैसा अपनापन था कि उन से बताए बिना नहीं रहा गया. वे अपनी आंखों में छलक आए आंसुओं को आंचल से पोंछती हुई भरे गले से बोलीं, ‘‘चांदनी, कुछ देर पहले ही मेरे घर से फोन आया है कि मेरे बेटे की तबीयत ठीक नहीं है. वह मुझे बहुत याद कर रहा है. मैं कुछ समय के लिए उसे यहां लाना चाहती हूं. लेकिन यहां मैं हर समय तो उस के पास रह नहीं सकती. घर से कोई और आ नहीं सकता. ऐसे में कौन रहेगा, उस के पास?’’ ‘‘बस, इतनी सी बात के लिए आप परेशान हैं. मैडम, बस समझ लीजिए कि आप की प्रौब्लम दूर हो गई. उदासी और चिंता को दूर भगाइए. घर जा कर बच्चे को ले आइए.’’

‘‘मगर कैसे?’’ ‘‘मैं हूं न यहां,’’ चांदनी बोली.

रीना मैडम ने उस का हाथ पकड़ लिया. वे चकित हो कर उसे देखती भर रहीं. उन्हें अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. क्या होस्टल की एक सामान्य छात्रा इतना आत्मीय भाव प्रकट कर सकती है. आज ऐसा पहली बार हुआ था, पर चांदनी की आंखों से झांकती निश्छलता कह रही थी, ‘हां, मैडम, यह सच है. मुझे हर किसी के दर्द और चिंता की पहचान हो जाती है.’ रीना मैडम की आंखों में एक बार फिर आंसू छलक आए. ‘‘न…न…न… मैडम, आप की ये आंखें आंसू बहाने के लिए नहीं हैं. जो मैं ने कहा है उसे कीजिए,’’ चांदनी इस बार स्वयं अपने रूमाल से उन के आंसू पोंछती हुई बोली.

धीरेधीरे साल बीत गया. चांदनी बीए द्वितीय वर्ष में पहुंच गई. वह टैलेंटेड तो थी ही, उस के व्यवहार ने भी अब तक कालेज में उस की अपनी एक अलग पहचान बना दी थी. मगर रंगनाथ जैसे साहबजादों को अभी भी यह सब चांदनी का एक ढोंग मात्र लगता था. अब भी वे मौका मिलने पर उस पर व्यंग्य करने से नहीं चूकते थे.

नया सत्र शुरू होते ही हमेशा की तरह इस बार भी अपनीअपनी कक्षाओं में प्रथम आए छात्रों का सम्मान समारोह आयोजित करने की घोषणा हुई. इस में उन छात्रछात्राओं को अपने अभिभावकों को भी साथ लाने के लिए कहा जाता था. चांदनी अपनी कक्षा में प्रथम आई थी. रंगनाथ के लिए चांदनी पर फबती कसने का यह अच्छा मौका था. उस ने अपने दोस्तों से कहा, ‘‘चलो, अच्छा है. इस बार हमें भी मैडम के मम्मीपापा के दर्शन हो जाएंगे.’’

मम्मीपापा, ‘‘अरे, बेवकूफ, मैडम तो गांव से आई हैं. वहां मम्मीपापा कहां होते हैं,’’ एक दोस्त बोला. ‘‘फिर?’’ रंगनाथ ने पूछा.

‘‘अपनी अम्मां और बापू को ले कर आएंगी मैडम,’’ दोस्त के इस जुमले पर पूरी मित्रमंडली खिलखिला पड़ी. ‘‘चलो, तब तो यह भी देख लेंगे कि मखमल की चादर पर टाट का पैबंद कैसा नजर आता है,’’ रंगनाथ इस पर भी चुटकी लेने से नहीं चूका.

समारोह के दिन प्राचार्य और स्टाफ के साथ शहर के कुछ गण्यमान्य लोग भी स्टेज पर बैठे हुए थे. प्राचार्य ने सब लोगों के स्वागत की औपचारिकता पूरी करने के बाद एकएक कर सभी कक्षाओं के सर्वश्रेष्ठ छात्रों को स्टेज पर बुलाना शुरू किया. चांदनी का नाम लेते ही पूरे कालेज की नजरें उधर उठ गईं. चांदनी एक अधेड़ उम्र की औरत का हाथ पकड़ कर उसे सहारा देती हुई धीरेधीरे स्टेज की ओर बढ़ रही थी. वह एक सामान्य हिंदुस्तानी महिला जैसी थी. वहां उपस्थित दर्जनों सजीसंवरी शहरी महिलाओं से बिलकुल अलग. मगर सलीके से पहनी सफेद साड़ी, खिचड़ी हुए बालों के बीच सिंदूरविहीन मांग, थकी हुई दृष्टि के बावजूद सजग आंखें, चेहरे पर झलकता उस का आत्मविश्वास. लेकिन साधारण होते हुए भी उन के व्यक्तित्व में गजब का आकर्षण था. वह चांदनी की मां थी. वहां उपस्थित अभिभावकों में पहली ऐसी मां थीं, जिन्हें कोई छात्र अपने साथ स्टेज पर ले गया.

उन के स्टेज पर पहुंचते ही प्राचार्य ने खड़े हो कर उन का स्वागत किया. फिर एक कुरसी मंगा कर उन्हें बैठाया. अब आगे चांदनी को बोलना था. उस ने थोड़े से नपेतुले शब्दों में बताया, ‘‘ये मेरी मां हैं. गांव में रहती हैं. पिताजी के देहांत के बाद मुझे कभी उन की कमी महसूस नहीं होने दी. इन्होंने मां और पिता दोनों की जगह ले ली. मुझे पढ़ाने के इन के इरादों में जरा भी कमी नहीं आई. आज मैं जो आप लोगों के बीच हूं वह इन्हीं की बदौलत है. ‘‘काफी समय पहले मेरे कुछ मित्रों ने पूछा था कि मैं कौन सी चक्की का आटा खाती हूं. मैं ने उन से वादा किया था कि समय आने पर आप को जरूर बताऊंगी. आज वह वादा पूरा करने का समय आ गया है. मैं अपने उन प्रिय मित्रों को बताना चाहूंगी कि वह चक्की है, मेरी मां. तमाम मुश्किलों और तकलीफों में पिस कर भी इन्होंने मुझे कभी हताश नहीं होने दिया. इन का प्रोत्साहन पा कर ही मैं आगे बढ़ी हूं. मेरा आज का मुकाम, आप के सामने है. इस से भी बड़े मुकाम को मैं हासिल करना चाहती हूं. उस के लिए मुझे आप की शुभकामनाएं चाहिए.’’

चांदनी के चुप होते ही पूरा हौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. प्राचार्य ने स्वयं उठ कर उस की मां को स्टेज की सीढि़यों से नीचे उतरने के लिए सहारा दिया. रंगनाथ और उस के दोस्तों को आज पहली बार एहसास हुआ कि उस सांवली लड़की का नाम ही चांदनी नहीं है बल्कि उस के भीतर चांदनी सा उजला एक दिल भी है. बाहर निकलते ही चांदनी को बधाई देने वाला पहला व्यक्ति रंगनाथ ही था, दोनों हाथ जोड़े और आंखों में क्षमायाचना लिए हुए, चांदनी ने गद्गद हो कर उस के जुड़े हुए हाथों को थाम लिया.

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रंग पक्का सांवला और नाम हो चांदनी, तो क्या सोचेंगे आप? यही न कि नाम और रूपरंग में कोई तालमेल नहीं. जिस दिन चांदनी ने उस कालेज में बीए प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया, उसी दिन से छात्रों के जेहन में यह बात कौंधने लगी. किसी की आंखों में व्यंग्य होता, किसी की मुसकराहट में, कोई ऐसे हायहैलो करता कि उस में भी व्यंग्य जरूर झलकता था. चांदनी सब समझती थी. मगर वह इन सब से बेखबर केवल एक हलकी सी मुसकान बिखेरती हुई सीधे अपनी क्लास में चली जाती. केवल नाम और रंग ही होता तो कोई बात नहीं थी, वह तो ठेठ एक कसबाई लड़की नजर आती थी. किसी छोटेमोटे कसबे से इंटर पास कर आई हुई. बड़े शहर के उस कालेज के आधुनिक रूपरंग में ढले हुए छात्रछात्राओं को भला उस की शालीनता क्या नजर आती. हां, 5-7 दिन में ही पूरी क्लास ने यह जरूर जान लिया

था कि वह मेधावी भी है. बोर्ड परीक्षा की मैरिट लिस्ट में अपना स्थान बनाने वाली लड़की. इस बात की गवाही हर टीचर का चेहरा देने लगता, जो उस का प्रोजैक्ट देखते. वे कभी प्रोजैक्ट की फाइल देखते, तो कभी चांदनी का चेहरा. रंगनाथ क्लास का मुंहफट छात्र था. एक दिन वह चांदनी से पूछ बैठा, ‘‘मैडम, क्या हमें बताएंगी कि आप कौन सी चक्की का आटा खाती हैं?’’

चांदनी कुछ नहीं बोली. बस, चुपचाप उसे देख भर लिया. तभी नीलम के मुंह से भी निकला, ’’हां, हां, जरूर बताना ताकि हम भी उसे खा कर अपने दिमाग को तरोताजा रख सकें.’’ रंगनाथ और नीलम की ये फबतियां सुन पूरी क्लास ठहाका मार कर हंसने लगी. लेकिन चांदनी के चेहरे का सौम्यभाव इस से जरा भी प्रभावित नहीं हुआ. वह मुसकरा कर केवल इतना बोली, ‘‘हां, हां, क्यों नहीं बताऊंगी, जरूर बताऊंगी,’’ फिर उस का ध्यान अपनी कौपी पर चला गया.

चांदनी गर्ल्स होस्टल में रहती थी. वह छुट्टी का दिन था. लड़कियां होस्टल के मैदान में वौलीबौल खेल रही थीं. कुछ हरी घास पर बैठी गपशप कर रही थीं, तो कुछ मिलने आए अपने परिजनों से बातचीत में व्यस्त थीं. साथ आए बच्चे हरीहरी घास पर लोटपोट हो रहे थे. वहीं कौरीडोर में एक किनारे कुरसी पर बैठी होस्टल वार्डन रीना मैडम सारे दृश्य देख रही थीं. उन के चेहरे पर उदासी छाई हुई थी. इन सारे दृश्यों को देखते हुए भी उन की आंखें जैसे कहीं और खोई हुई थीं. उन का हमेशा प्रसन्न रहने वाला चेहरा, इस वक्त चिंता में डूबा हुआ था. कौरीडोर में लड़कियां इधर से उधर भागदौड़ मचाए हुए थीं. मगर शायद किसी का भी ध्यान रीना मैडम पर नहीं गया. अगर गया भी हो तो किसी ने उन के चेहरे की उदासी के बारे में पूछने की जरूरत नहीं समझी. अचानक रीना मैडम के कंधे पर किसी का हाथ पड़ा. उन्होंने सिर उठा कर देखा, वह चांदनी थी, ‘‘कहां खोई हुई हैं, मैडम? आप की तबीयत तो ठीक है न,’’ चांदनी ने पूछा.

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं है. मैं ठीक हूं चांदनी,’’ रीना मैडम बोलीं. ‘‘नहीं मैडम. कुछ तो है. छिपाइए मत, आप का चेहरा बता रहा है कि आप किसी परेशानी में हैं.’’

रीना मैडम की आंखें नम हो आईं. चांदनी के शब्दों में न जाने कैसा अपनापन था कि उन से बताए बिना नहीं रहा गया. वे अपनी आंखों में छलक आए आंसुओं को आंचल से पोंछती हुई भरे गले से बोलीं, ‘‘चांदनी, कुछ देर पहले ही मेरे घर से फोन आया है कि मेरे बेटे की तबीयत ठीक नहीं है. वह मुझे बहुत याद कर रहा है. मैं कुछ समय के लिए उसे यहां लाना चाहती हूं. लेकिन यहां मैं हर समय तो उस के पास रह नहीं सकती. घर से कोई और आ नहीं सकता. ऐसे में कौन रहेगा, उस के पास?’’ ‘‘बस, इतनी सी बात के लिए आप परेशान हैं. मैडम, बस समझ लीजिए कि आप की प्रौब्लम दूर हो गई. उदासी और चिंता को दूर भगाइए. घर जा कर बच्चे को ले आइए.’’

‘‘मगर कैसे?’’ ‘‘मैं हूं न यहां,’’ चांदनी बोली.

रीना मैडम ने उस का हाथ पकड़ लिया. वे चकित हो कर उसे देखती भर रहीं. उन्हें अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. क्या होस्टल की एक सामान्य छात्रा इतना आत्मीय भाव प्रकट कर सकती है. आज ऐसा पहली बार हुआ था, पर चांदनी की आंखों से झांकती निश्छलता कह रही थी, ‘हां, मैडम, यह सच है. मुझे हर किसी के दर्द और चिंता की पहचान हो जाती है.’ रीना मैडम की आंखों में एक बार फिर आंसू छलक आए. ‘‘न…न…न… मैडम, आप की ये आंखें आंसू बहाने के लिए नहीं हैं. जो मैं ने कहा है उसे कीजिए,’’ चांदनी इस बार स्वयं अपने रूमाल से उन के आंसू पोंछती हुई बोली.

धीरेधीरे साल बीत गया. चांदनी बीए द्वितीय वर्ष में पहुंच गई. वह टैलेंटेड तो थी ही, उस के व्यवहार ने भी अब तक कालेज में उस की अपनी एक अलग पहचान बना दी थी. मगर रंगनाथ जैसे साहबजादों को अभी भी यह सब चांदनी का एक ढोंग मात्र लगता था. अब भी वे मौका मिलने पर उस पर व्यंग्य करने से नहीं चूकते थे.

नया सत्र शुरू होते ही हमेशा की तरह इस बार भी अपनीअपनी कक्षाओं में प्रथम आए छात्रों का सम्मान समारोह आयोजित करने की घोषणा हुई. इस में उन छात्रछात्राओं को अपने अभिभावकों को भी साथ लाने के लिए कहा जाता था. चांदनी अपनी कक्षा में प्रथम आई थी. रंगनाथ के लिए चांदनी पर फबती कसने का यह अच्छा मौका था. उस ने अपने दोस्तों से कहा, ‘‘चलो, अच्छा है. इस बार हमें भी मैडम के मम्मीपापा के दर्शन हो जाएंगे.’’

मम्मीपापा, ‘‘अरे, बेवकूफ, मैडम तो गांव से आई हैं. वहां मम्मीपापा कहां होते हैं,’’ एक दोस्त बोला. ‘‘फिर?’’ रंगनाथ ने पूछा.

‘‘अपनी अम्मां और बापू को ले कर आएंगी मैडम,’’ दोस्त के इस जुमले पर पूरी मित्रमंडली खिलखिला पड़ी. ‘‘चलो, तब तो यह भी देख लेंगे कि मखमल की चादर पर टाट का पैबंद कैसा नजर आता है,’’ रंगनाथ इस पर भी चुटकी लेने से नहीं चूका.

समारोह के दिन प्राचार्य और स्टाफ के साथ शहर के कुछ गण्यमान्य लोग भी स्टेज पर बैठे हुए थे. प्राचार्य ने सब लोगों के स्वागत की औपचारिकता पूरी करने के बाद एकएक कर सभी कक्षाओं के सर्वश्रेष्ठ छात्रों को स्टेज पर बुलाना शुरू किया. चांदनी का नाम लेते ही पूरे कालेज की नजरें उधर उठ गईं. चांदनी एक अधेड़ उम्र की औरत का हाथ पकड़ कर उसे सहारा देती हुई धीरेधीरे स्टेज की ओर बढ़ रही थी. वह एक सामान्य हिंदुस्तानी महिला जैसी थी. वहां उपस्थित दर्जनों सजीसंवरी शहरी महिलाओं से बिलकुल अलग. मगर सलीके से पहनी सफेद साड़ी, खिचड़ी हुए बालों के बीच सिंदूरविहीन मांग, थकी हुई दृष्टि के बावजूद सजग आंखें, चेहरे पर झलकता उस का आत्मविश्वास. लेकिन साधारण होते हुए भी उन के व्यक्तित्व में गजब का आकर्षण था. वह चांदनी की मां थी. वहां उपस्थित अभिभावकों में पहली ऐसी मां थीं, जिन्हें कोई छात्र अपने साथ स्टेज पर ले गया.

उन के स्टेज पर पहुंचते ही प्राचार्य ने खड़े हो कर उन का स्वागत किया. फिर एक कुरसी मंगा कर उन्हें बैठाया. अब आगे चांदनी को बोलना था. उस ने थोड़े से नपेतुले शब्दों में बताया, ‘‘ये मेरी मां हैं. गांव में रहती हैं. पिताजी के देहांत के बाद मुझे कभी उन की कमी महसूस नहीं होने दी. इन्होंने मां और पिता दोनों की जगह ले ली. मुझे पढ़ाने के इन के इरादों में जरा भी कमी नहीं आई. आज मैं जो आप लोगों के बीच हूं वह इन्हीं की बदौलत है. ‘‘काफी समय पहले मेरे कुछ मित्रों ने पूछा था कि मैं कौन सी चक्की का आटा खाती हूं. मैं ने उन से वादा किया था कि समय आने पर आप को जरूर बताऊंगी. आज वह वादा पूरा करने का समय आ गया है. मैं अपने उन प्रिय मित्रों को बताना चाहूंगी कि वह चक्की है, मेरी मां. तमाम मुश्किलों और तकलीफों में पिस कर भी इन्होंने मुझे कभी हताश नहीं होने दिया. इन का प्रोत्साहन पा कर ही मैं आगे बढ़ी हूं. मेरा आज का मुकाम, आप के सामने है. इस से भी बड़े मुकाम को मैं हासिल करना चाहती हूं. उस के लिए मुझे आप की शुभकामनाएं चाहिए.’’

चांदनी के चुप होते ही पूरा हौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. प्राचार्य ने स्वयं उठ कर उस की मां को स्टेज की सीढि़यों से नीचे उतरने के लिए सहारा दिया. रंगनाथ और उस के दोस्तों को आज पहली बार एहसास हुआ कि उस सांवली लड़की का नाम ही चांदनी नहीं है बल्कि उस के भीतर चांदनी सा उजला एक दिल भी है. बाहर निकलते ही चांदनी को बधाई देने वाला पहला व्यक्ति रंगनाथ ही था, दोनों हाथ जोड़े और आंखों में क्षमायाचना लिए हुए, चांदनी ने गद्गद हो कर उस के जुड़े हुए हाथों को थाम लिया.

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June 01, 2022 at 09:00AM

वेटिंग रूम- भाग1: सिद्धार्थ और जानकी की जिंदगी में क्या नया मोड़ आया

हाथ में एक छोटा सा हैंडबैग लिए हलके पीले रंग का चूड़ीदार कुरता पहने जानकी तेज कदमों से प्रतीक्षालय की ओर बढ़ी आ रही थी. यहां आ कर देखा तो प्रतीक्षालय यात्रियों से खचाखच भरा हुआ था. बारिश की वजह से आज काफी गाडि़यां देरी से आ रही थीं. उस ने भीड़ में देखा, एक नौजवान एक कुरसी पर बैठा था तथा दूसरी पर अपना बैग रख कर उस पर टिक कर सो रहा था, पता नहीं सो रहा था या नहीं. एक बार उस ने सोचा कि उस नौजवान से कहे कि बैग को नीचे रखे ताकि एक यात्री वहां बैठ सके, परंतु कानों में लगे इयरफोंस, बिखरे बेढंगे बाल, घुटने से फटी जींस, ठोड़ी पर थोड़ी सी दाढ़ी, मानो किसी ने काले स्कैचपैन से बना दी हो, इस तरह के हुलिया वाले नौजवान से कुछ समझदारी की बात कहना उसे व्यर्थ लगा. वह चुपचाप प्रतीक्षालय के बाहर चली गई.

मनमाड़ स्टेशन के प्लेटफौर्म पर यात्रियों के लिए कुछ ढंग की व्यवस्था भी नहीं है, बाहर बड़ी मुश्किल से जानकी को बैठने के लिए एक जगह मिली. ट्रेन रात 2:30 बजे की थी और अभी शाम के 6:30 बजे थे. रोशनी मंद थी, फिर भी उस ने अपने बैग में से मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास ‘गोदान’ निकाला और पढ़ने लगी. गाडि़यां आतीजाती रहीं. प्लेटफौर्म पर कभी भीड़ बढ़ जाती तो कभी एकदम गायब हो जाती. 8 बज चुके थे, प्लेटफौर्म पर अंधेरा हो गया था. प्लेटफौर्म की मंद बत्तियों से मोमबत्ती जैसी रोशनी आ रही थी. सारे दिन की बारिश के बाद मौसम में ठंडक घुल गई थी. जानकी ने एक बार फिर प्रतीक्षालय जा कर देखा तो वहां अब काफी जगह हो गई थी.

जानकी एक अनुकूल जगह देख कर वहां बैठ गई. उस ने चारों तरफ नजर दौड़ाई तो लगभग 15-20 लोग अब भी प्रतीक्षालय में बैठे थे. वह नौजवान अब भी वहीं बैठा था. कुरसियां खाली होने का फायदा उठा कर अब वह आराम से लेट गया था. 2 लड़कियां थीं. पहनावे, बालों का ढंग और बातचीत के अंदाज से काफी आजाद खयालों वाली लग रही थीं. उन के अलावा कुछ और यात्री भी थे, जो जाने की तैयारी में लग रहे थे, शायद उन की गाड़ी के आने की घोषणा हो चुकी थी. जल्द ही उन की गाड़ी आ गई और अब प्रतीक्षालय में जानकी के अलावा सिर्फ वे 2 युवतियां और वह नौजवान था, जो अब सो कर उठ चुका था. देखने से तो वह किसी अच्छे घर का लगता था पर कुछ बिगड़ा हुआ, जैसे किसी की इकलौती संतान हो या 5-6 बेटियों के बाद पैदा हुआ बेटा हो.

नौजवान उठ कर बाहर गया और थोड़ी देर में चाय का गिलास ले कर वापस आया. अब तक जानकी दोबारा उपन्यास पढ़ने में व्यस्त हो चुकी थी. थोड़ी देर बाद युवतियों की आवाज तेज होने से उस का ध्यान उन पर गया. वे मौडर्न लड़कियां उस नौजवान में काफी रुचि लेती दिख रही थीं. नौजवान भी बारबार उन की तरफ देख रहा था. लग रहा था जैसे इस तरह वे तीनों टाइमपास कर रहे हों. जानकी को टाइमपास का यह तरीका अजीब लग रहा था. उन तीनों की ये नौटंकी काफी देर तक चलती रही. इस बीच प्रतीक्षालय में काफी यात्री आए और चले गए. जानकी को एहसास हो रहा था कि वह नौजवान कई बार उस का ध्यान अपनी तरफ खींचने का प्रयास कर रहा था, परंतु उस ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. अब तक 9:00 बज चुके थे. जानकी को अब भूख का एहसास होने लगा था. उस ने अपने साथ ब्रैड और मक्खन रखा था. आज यही उस का रात का खाना था. तभी किसी गाड़ी के आने की घोषणा हुई और वे लड़कियां सामान उठा कर चली गईं. अब 2-4 यात्रियों के अलावा प्रतीक्षालय में सिर्फ वह नौजवान और जानकी ही बचे थे. नौजवान को भी अब खाने की तलाश करनी थी. प्रतीक्षालय में जानकी ही उसे सब से पुरानी लगी, सो उस ने पास जा कर धीरे से उस से कहा, ‘‘एक्सक्यूज मी मैम, क्या मैं आप से थोड़ी सी मदद ले सकता हूं?’’

जानकी ने काफी आश्चर्य और असमंजस से नौजवान की तरफ देखा, थोड़ी घबराहट में बोली, ‘‘कहिए.’’ ‘‘मुझे खाना खाने जाना है, अगर आप की गाड़ी अभी न आ रही हो तो प्लीज मेरे सामान का ध्यान रख सकेंगी?’’ ‘‘ओके,’’ जानकी ने अतिसंक्षिप्त उत्तर दिया और नौजवान चला गया. लगभग 1 घंटे बाद वह वापस आया, जानकी को थैंक्स कहने के बहाने उस के पास आया और कहा, ‘‘यहां मनमाड़ में खाने के लिए कोई ढंग का होटल तक नहीं है.’’

‘‘अच्छा?’’ फिर जानकी ने कम से कम शब्दों का इस्तेमाल करना उचित समझा.

‘‘आप यहां पहली बार आई हैं क्या?’’ बात को बढ़ाते हुए नौजवान ने पूछा.

‘‘जी हां.’’ जानकी ने नौजवान की ओर देखे बिना ही उत्तर दिया. अब तक शायद नौजवान की समझ में आ गया था कि जानकी को उस से बात करने में ज्यादा रुचि नहीं है.

‘‘एनी वे, थैंक्स,’’ कह कर उस ने अपनी जगह पर जाना ही ठीक समझा. जानकी ने भी राहत की सांस ली. पिछले 4 घंटों में उस ने उस नौजवान के बारे में जितना समझा था, उस के बाद उस से बात करने की सोच भी नहीं सकती थी. जानकी की गाड़ी काफी देर से आने वाली थी. शुरू में उस ने पूछताछ खिड़की पर पूछा था तब उन्होंने 2:00 बजे तक आने को कहा था. अब न तो वह सो पा रही थी न कोई बातचीत करने के लिए ही था. किताब पढ़तेपढ़ते भी वह थक गई थी. वैसे भी प्रतीक्षालय में रोशनी ज्यादा नहीं थी, इसलिए पढ़ना मुश्किल हो रहा था. नौजवान को भी कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करे. वैसे स्वभाव के मुताबिक उस की नजर बारबार जानकी की तरफ जा रही थी. यह बात जानकी को भी पता चल चुकी थी. वह दिखने में बहुत सुंदर तो नहीं थी, लेकिन एक अनूठा सा आकर्षण था उस में. चेहरे पर गजब का तेज था. नौजवान ने कई बार सोचा कि उस के पास जा कर कुछ वार्त्तालाप करे लेकिन पहली बातचीत में उस के रूखे व्यवहार से उस की दोबारा हिम्मत नहीं हो रही थी. नौजवान फिर उठ कर बाहर गया. चाय के 2 गिलास ले कर बड़ी हिम्मत जुटा कर जानकी के पास जा कर कहा, ‘‘मैम, चाय.’’ इस से पहले कि जानकी कुछ समझ या बोल पाती, उस ने एक गिलास जानकी की ओर बढ़ा दिया. जानकी ने चाय लेते हुए धीरे से मुसकरा कर कहा, ‘‘थैंक्स.’’ नौजवान को हिम्मत देने के लिए इतना काफी था. थोड़ी औपचारिक भाषा में कहा, ‘‘क्या मैं आप से थोड़ी देर बातें कर सकता हूं?’’

जानकी कुछ क्षण रुक कर बोली, ‘‘बैठिए.’’

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हाथ में एक छोटा सा हैंडबैग लिए हलके पीले रंग का चूड़ीदार कुरता पहने जानकी तेज कदमों से प्रतीक्षालय की ओर बढ़ी आ रही थी. यहां आ कर देखा तो प्रतीक्षालय यात्रियों से खचाखच भरा हुआ था. बारिश की वजह से आज काफी गाडि़यां देरी से आ रही थीं. उस ने भीड़ में देखा, एक नौजवान एक कुरसी पर बैठा था तथा दूसरी पर अपना बैग रख कर उस पर टिक कर सो रहा था, पता नहीं सो रहा था या नहीं. एक बार उस ने सोचा कि उस नौजवान से कहे कि बैग को नीचे रखे ताकि एक यात्री वहां बैठ सके, परंतु कानों में लगे इयरफोंस, बिखरे बेढंगे बाल, घुटने से फटी जींस, ठोड़ी पर थोड़ी सी दाढ़ी, मानो किसी ने काले स्कैचपैन से बना दी हो, इस तरह के हुलिया वाले नौजवान से कुछ समझदारी की बात कहना उसे व्यर्थ लगा. वह चुपचाप प्रतीक्षालय के बाहर चली गई.

मनमाड़ स्टेशन के प्लेटफौर्म पर यात्रियों के लिए कुछ ढंग की व्यवस्था भी नहीं है, बाहर बड़ी मुश्किल से जानकी को बैठने के लिए एक जगह मिली. ट्रेन रात 2:30 बजे की थी और अभी शाम के 6:30 बजे थे. रोशनी मंद थी, फिर भी उस ने अपने बैग में से मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास ‘गोदान’ निकाला और पढ़ने लगी. गाडि़यां आतीजाती रहीं. प्लेटफौर्म पर कभी भीड़ बढ़ जाती तो कभी एकदम गायब हो जाती. 8 बज चुके थे, प्लेटफौर्म पर अंधेरा हो गया था. प्लेटफौर्म की मंद बत्तियों से मोमबत्ती जैसी रोशनी आ रही थी. सारे दिन की बारिश के बाद मौसम में ठंडक घुल गई थी. जानकी ने एक बार फिर प्रतीक्षालय जा कर देखा तो वहां अब काफी जगह हो गई थी.

जानकी एक अनुकूल जगह देख कर वहां बैठ गई. उस ने चारों तरफ नजर दौड़ाई तो लगभग 15-20 लोग अब भी प्रतीक्षालय में बैठे थे. वह नौजवान अब भी वहीं बैठा था. कुरसियां खाली होने का फायदा उठा कर अब वह आराम से लेट गया था. 2 लड़कियां थीं. पहनावे, बालों का ढंग और बातचीत के अंदाज से काफी आजाद खयालों वाली लग रही थीं. उन के अलावा कुछ और यात्री भी थे, जो जाने की तैयारी में लग रहे थे, शायद उन की गाड़ी के आने की घोषणा हो चुकी थी. जल्द ही उन की गाड़ी आ गई और अब प्रतीक्षालय में जानकी के अलावा सिर्फ वे 2 युवतियां और वह नौजवान था, जो अब सो कर उठ चुका था. देखने से तो वह किसी अच्छे घर का लगता था पर कुछ बिगड़ा हुआ, जैसे किसी की इकलौती संतान हो या 5-6 बेटियों के बाद पैदा हुआ बेटा हो.

नौजवान उठ कर बाहर गया और थोड़ी देर में चाय का गिलास ले कर वापस आया. अब तक जानकी दोबारा उपन्यास पढ़ने में व्यस्त हो चुकी थी. थोड़ी देर बाद युवतियों की आवाज तेज होने से उस का ध्यान उन पर गया. वे मौडर्न लड़कियां उस नौजवान में काफी रुचि लेती दिख रही थीं. नौजवान भी बारबार उन की तरफ देख रहा था. लग रहा था जैसे इस तरह वे तीनों टाइमपास कर रहे हों. जानकी को टाइमपास का यह तरीका अजीब लग रहा था. उन तीनों की ये नौटंकी काफी देर तक चलती रही. इस बीच प्रतीक्षालय में काफी यात्री आए और चले गए. जानकी को एहसास हो रहा था कि वह नौजवान कई बार उस का ध्यान अपनी तरफ खींचने का प्रयास कर रहा था, परंतु उस ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. अब तक 9:00 बज चुके थे. जानकी को अब भूख का एहसास होने लगा था. उस ने अपने साथ ब्रैड और मक्खन रखा था. आज यही उस का रात का खाना था. तभी किसी गाड़ी के आने की घोषणा हुई और वे लड़कियां सामान उठा कर चली गईं. अब 2-4 यात्रियों के अलावा प्रतीक्षालय में सिर्फ वह नौजवान और जानकी ही बचे थे. नौजवान को भी अब खाने की तलाश करनी थी. प्रतीक्षालय में जानकी ही उसे सब से पुरानी लगी, सो उस ने पास जा कर धीरे से उस से कहा, ‘‘एक्सक्यूज मी मैम, क्या मैं आप से थोड़ी सी मदद ले सकता हूं?’’

जानकी ने काफी आश्चर्य और असमंजस से नौजवान की तरफ देखा, थोड़ी घबराहट में बोली, ‘‘कहिए.’’ ‘‘मुझे खाना खाने जाना है, अगर आप की गाड़ी अभी न आ रही हो तो प्लीज मेरे सामान का ध्यान रख सकेंगी?’’ ‘‘ओके,’’ जानकी ने अतिसंक्षिप्त उत्तर दिया और नौजवान चला गया. लगभग 1 घंटे बाद वह वापस आया, जानकी को थैंक्स कहने के बहाने उस के पास आया और कहा, ‘‘यहां मनमाड़ में खाने के लिए कोई ढंग का होटल तक नहीं है.’’

‘‘अच्छा?’’ फिर जानकी ने कम से कम शब्दों का इस्तेमाल करना उचित समझा.

‘‘आप यहां पहली बार आई हैं क्या?’’ बात को बढ़ाते हुए नौजवान ने पूछा.

‘‘जी हां.’’ जानकी ने नौजवान की ओर देखे बिना ही उत्तर दिया. अब तक शायद नौजवान की समझ में आ गया था कि जानकी को उस से बात करने में ज्यादा रुचि नहीं है.

‘‘एनी वे, थैंक्स,’’ कह कर उस ने अपनी जगह पर जाना ही ठीक समझा. जानकी ने भी राहत की सांस ली. पिछले 4 घंटों में उस ने उस नौजवान के बारे में जितना समझा था, उस के बाद उस से बात करने की सोच भी नहीं सकती थी. जानकी की गाड़ी काफी देर से आने वाली थी. शुरू में उस ने पूछताछ खिड़की पर पूछा था तब उन्होंने 2:00 बजे तक आने को कहा था. अब न तो वह सो पा रही थी न कोई बातचीत करने के लिए ही था. किताब पढ़तेपढ़ते भी वह थक गई थी. वैसे भी प्रतीक्षालय में रोशनी ज्यादा नहीं थी, इसलिए पढ़ना मुश्किल हो रहा था. नौजवान को भी कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करे. वैसे स्वभाव के मुताबिक उस की नजर बारबार जानकी की तरफ जा रही थी. यह बात जानकी को भी पता चल चुकी थी. वह दिखने में बहुत सुंदर तो नहीं थी, लेकिन एक अनूठा सा आकर्षण था उस में. चेहरे पर गजब का तेज था. नौजवान ने कई बार सोचा कि उस के पास जा कर कुछ वार्त्तालाप करे लेकिन पहली बातचीत में उस के रूखे व्यवहार से उस की दोबारा हिम्मत नहीं हो रही थी. नौजवान फिर उठ कर बाहर गया. चाय के 2 गिलास ले कर बड़ी हिम्मत जुटा कर जानकी के पास जा कर कहा, ‘‘मैम, चाय.’’ इस से पहले कि जानकी कुछ समझ या बोल पाती, उस ने एक गिलास जानकी की ओर बढ़ा दिया. जानकी ने चाय लेते हुए धीरे से मुसकरा कर कहा, ‘‘थैंक्स.’’ नौजवान को हिम्मत देने के लिए इतना काफी था. थोड़ी औपचारिक भाषा में कहा, ‘‘क्या मैं आप से थोड़ी देर बातें कर सकता हूं?’’

जानकी कुछ क्षण रुक कर बोली, ‘‘बैठिए.’’

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June 01, 2022 at 03:32AM

Monday 30 May 2022

व्यंग्य: सरकारी बाबा जिंदाबाद

लाचार, त्रस्त जनता जब लाख जतन के बाद भी महंगाई से मुक्त नहीं हो पाई तो फिर उन्होंने तय किया कि किसी पंजीकृत बाबा से संपर्क स्थापित किया जाए. मगर यहां तो बाबा ही मालामाल हो गए और जनता सबकुछ खुली आंखों से देखती रही…

उस द्वीप में सरकार के विपक्ष की तरह महंगाई को भी लाख डरानेधमकाने के बाद भी जब वह न रुकी तो महंगाई से अधिक सरकार से हताश, निराश जनता ने यह तय किया कि क्यों न अब महंगाई को भगाने के लिए किसी पंजीकृत तांत्रिक बाबा का सहारा लिया जाए। कारण, जबजब उस द्वीप की सरकार जनता को भय से नजात दिलवाने में असफल रहती, तबतब भय भगाने के लिए किसी न किसी सरकारी तांत्रिक बाबा का सहारा ले लेती.

जबजब उस द्वीप की सरकार द्वीप से भ्रष्टाचार को भगाने में असमर्थ रहती, तबतब उस द्वीप की जनता द्वीप से भ्रष्टाचार को भगाने के लिए सरकारी तांत्रिक बाबा का ही सहारा लेती. जब भी उस द्वीप की जनता सरकार की ओर से भूख की ओर से निराश हो जाती तो वह सरकारी तांत्रिक बाबाओं का मजे से सहारा लेती.

उस द्वीप के ग्रेट सरकारी तांत्रिक बाबा ने जनता में यह प्रचार कर रखा था कि वे अपनी जादुई तंत्र विद्या से द्वीप से किसी को भी भगा सकते हैं। हर किस्म की बीमारी, महामारी को भी। कोरोना को भी उन्होंने अपने तंत्र विद्या से भगाया है और पिछली दफा बौर्डर पर से अपनी तंत्र विद्या के माध्यम से दुश्मनों को खदेड़ा भी था। सरकार जिस काम को नहीं कर सकती वे अपनी तंत्र विद्या से उस काम को पालथी मारे अपने मठ के हैडक्वाटर से आंखें मूंदे कर सकते हैं। औरों की तो छोड़ो, वे स्टौक ऐक्सचैंज तक को मजे से चला चलवा सकते हैं.

आखिर कुछ खोजबीन के बाद वे सरकारी तांत्रिक बाबा उस द्वीप की जनता को मिल ही गए। उन्हें जंतरमंतर पर बुलाया गया ताकि वे ढोंगी तंत्र विद्या से उस द्वीप की जनता को महंगाई से नजात दिलवा सकें.

उस द्वीप के सरकारी तांत्रिक बाबा जंतरमंतर पर पधारे तो उन्होंने कुरसी पर विराजते ही उस द्वीप की जनता से अपील की कि हे, मेरे द्वीप के महंगाई के मारो… अगर तुम सचमुच महंगाई से नजात पाना चाहते हो तो समस्त देशवासियों को जंतरमंतर पर यज्ञ करना होगा। मरते देशवासी क्या न करते। उस द्वीप के देशवासी उन के कहेनुसार तांत्रिक यज्ञ करने को राजी हो गए।

तब उन्होंने रेडियो पर अपने तंत्र की बात की, “महंगाई डायन को भगाने के लिए हर घर से चावल, आटा, दाल, तेल लाने होंगे। पूर्णाहुति के लिए पैट्रोल, डीजल लाना होगा…”

अब उस द्वीप की जनता परेशान। वह सरकार से मुफ्त में मिली दाल खुद खाए या यज्ञ के लिए ले जाए? मुफ्त में मिले चावल खुद खाए या यज्ञ के लिए ले जाए? मुफ्त में मिला आटा खुद खाए या फिर यज्ञ के लिए ले जाए? रोतेरोते पैट्रोल से अपने स्कूटर के पहियों की मालिश करे या तांत्रिक बाबा की टांगों की?

पर सवाल महंगाई डायन से नजात पाने का था। सो, अपनीअपनी परात का आटा, अपने पतीले के दालचावल, सिर में लगाने का सरसों का तेल ले कर सभी जंतरमंतर पर आ गए।

सवाल सरकार से नहीं, महंगाई से छुटकारा पाने का जो था। देखते ही देखते उस द्वीप की जनता के पेट से चुराए आटा, दाल, चावलों का वहां ढेर लग गया। सरकारी तांत्रिक बाबा ने उस में से ढेर सारा अपने अधर्म के बोरों में भरा और बाजार में उतार कर जम कर नोट कमाए। कुछ उन्होंने यज्ञ के लिए बचा लिया ताकि वे आसानी से जनता की आंखों में धूल झोंक सकें.

अखबारों में बड़ेबड़े विज्ञापन देने के बाद जंतरमंतर पर महंगाई डायन को भगाने के लिए यज्ञ शुरू हुआ। बड़ी सी हलुआ बनाने वाली कड़ाही में जनता को मुफ्त में मिले आटा, दाल, चावल, सरसों का तेल मिलाया गया। एक टांग पर खड़ी जनता भूखे पेट हंसती हुई सब देखती रही। गाय के गोबर के उपलों के नाम पर झोटे के गोबर के उपले लाए गए। तांत्रिक बाबा ने अपनी पैंट पर रेशम की धोती बांधी और सिंहासन पर जा विराजे, तो फिल्मी गानों की तर्ज पर जनता ने भजन गाने शुरू कर दिए। थालियां बजने लगीं, गिलास बजने लगे.

2 दिन तक महंगाई डायन को भगाने के लिए जंतरमंतर पर महंगाई डायन द्वीप छोड़ो यज्ञ होता रहा। मीडिया ने उसे पूरी कवरेज दी. घी की जगह यज्ञ में पैट्रोल, डीजल की आहुति दी जाती रही।

तीसरे दिन जब यज्ञ कथित तौर पर पूर्ण होने को आया तो सरकारी तांत्रिक बाबा ज्यों ही महंगाई डायन को वश में करने के लिए 4 नीबू काट उन को अग्नि में डालने लगे तो 2 दिनों से चिलचिलाती धूप में महंगाई डायन को प्रत्यक्ष भागते देखने की इच्छा से एक टांग पर खड़ा उस द्वीप का एक नागरिक जोर से चीखा,”बाबा…बाबा… यह क्या कर रहो हो?”

“चुप, महंगाई डायन को भगाने का यज्ञ अंतिम दौर में है। अरे, महंगाई के नाती नराधम, टोक दिया न… मेरा सारा प्रयास गुड़गोबर कर दिया। विघ्न, घोर विघ्न… अब इस द्वीप की जनता को महंगाई से कोई नहीं बचा सकता। मेरा गुरु भी नहीं। मेरे कठिन प्रयासों से भी जो अब महंगाई डायन न भागी तो इस के लिए मैं नहीं, इस द्वीप की जनता शतप्रतिशत जिम्मेदार होगी।”

“क्षमा बाबा, क्षमा… असल में क्या है न कि आप ने यज्ञ में जनता की रसोई के चावल जलाए, मैं चुप रहा। आप ने यज्ञ में जनता की रसोई के दाल जलाई, मैं चुप रहा। आप ने यज्ञ में जनता की रसोई का आटा जलाया, मैं फिर भी चुप रहा। आप ने यज्ञ में जनता की रसोई का तेल जलाया तो भी मैं चुप रहा। कारण, यह सब सरकार ने हम को मुफ्त दिया था। हमें खिलाने को नहीं, अपनी कुरसी बचाने को। हमारा कमाया तो था नहीं। इस मुफ्तामुफ्ती के चक्कर में हम सब एक ही छत के नीचे रहते भी अलगअलग हो गए हैं। जितने फैमिली मैंबर, उतरने ही राशन कार्ड। मुफ्त का राशन, जहां मन करे वहां कर बेटा भाषण। पर हे बाबा, याद रहे कि जिस द्वीप में जनता लालच में आ अपने हाथपांव चलाना बंद कर दे वह द्वीप बहुत जल्दी पंगु हो जाता है.

“जिस द्वीप की सरकार अपने सत्ताई स्वार्थ के लिए मुफ्त का भरे पेट वालों को भी खिलाने लग जाएं, वहां की जनता बहुत जल्द आलसी हो जाती है, बाबा। पर जब तुम यह नीबू जलाने लगे तो पता है, आजकल नीबू का क्या रेट चल रहा है?”

“सत्ताई बाबाओं को महंगाई से क्या लेनादेना नराधम?”

“पूरे ₹4 सौ किलोग्राम चले हैं बाबा… गरमी में किसी डिहाइड्रेशन वाले को इस का रस पिलाओ तो किसी की तो जान बचे बाबा,” पर जो सुने, वह सरकारी बाबा नहीं.

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लाचार, त्रस्त जनता जब लाख जतन के बाद भी महंगाई से मुक्त नहीं हो पाई तो फिर उन्होंने तय किया कि किसी पंजीकृत बाबा से संपर्क स्थापित किया जाए. मगर यहां तो बाबा ही मालामाल हो गए और जनता सबकुछ खुली आंखों से देखती रही…

उस द्वीप में सरकार के विपक्ष की तरह महंगाई को भी लाख डरानेधमकाने के बाद भी जब वह न रुकी तो महंगाई से अधिक सरकार से हताश, निराश जनता ने यह तय किया कि क्यों न अब महंगाई को भगाने के लिए किसी पंजीकृत तांत्रिक बाबा का सहारा लिया जाए। कारण, जबजब उस द्वीप की सरकार जनता को भय से नजात दिलवाने में असफल रहती, तबतब भय भगाने के लिए किसी न किसी सरकारी तांत्रिक बाबा का सहारा ले लेती.

जबजब उस द्वीप की सरकार द्वीप से भ्रष्टाचार को भगाने में असमर्थ रहती, तबतब उस द्वीप की जनता द्वीप से भ्रष्टाचार को भगाने के लिए सरकारी तांत्रिक बाबा का ही सहारा लेती. जब भी उस द्वीप की जनता सरकार की ओर से भूख की ओर से निराश हो जाती तो वह सरकारी तांत्रिक बाबाओं का मजे से सहारा लेती.

उस द्वीप के ग्रेट सरकारी तांत्रिक बाबा ने जनता में यह प्रचार कर रखा था कि वे अपनी जादुई तंत्र विद्या से द्वीप से किसी को भी भगा सकते हैं। हर किस्म की बीमारी, महामारी को भी। कोरोना को भी उन्होंने अपने तंत्र विद्या से भगाया है और पिछली दफा बौर्डर पर से अपनी तंत्र विद्या के माध्यम से दुश्मनों को खदेड़ा भी था। सरकार जिस काम को नहीं कर सकती वे अपनी तंत्र विद्या से उस काम को पालथी मारे अपने मठ के हैडक्वाटर से आंखें मूंदे कर सकते हैं। औरों की तो छोड़ो, वे स्टौक ऐक्सचैंज तक को मजे से चला चलवा सकते हैं.

आखिर कुछ खोजबीन के बाद वे सरकारी तांत्रिक बाबा उस द्वीप की जनता को मिल ही गए। उन्हें जंतरमंतर पर बुलाया गया ताकि वे ढोंगी तंत्र विद्या से उस द्वीप की जनता को महंगाई से नजात दिलवा सकें.

उस द्वीप के सरकारी तांत्रिक बाबा जंतरमंतर पर पधारे तो उन्होंने कुरसी पर विराजते ही उस द्वीप की जनता से अपील की कि हे, मेरे द्वीप के महंगाई के मारो… अगर तुम सचमुच महंगाई से नजात पाना चाहते हो तो समस्त देशवासियों को जंतरमंतर पर यज्ञ करना होगा। मरते देशवासी क्या न करते। उस द्वीप के देशवासी उन के कहेनुसार तांत्रिक यज्ञ करने को राजी हो गए।

तब उन्होंने रेडियो पर अपने तंत्र की बात की, “महंगाई डायन को भगाने के लिए हर घर से चावल, आटा, दाल, तेल लाने होंगे। पूर्णाहुति के लिए पैट्रोल, डीजल लाना होगा…”

अब उस द्वीप की जनता परेशान। वह सरकार से मुफ्त में मिली दाल खुद खाए या यज्ञ के लिए ले जाए? मुफ्त में मिले चावल खुद खाए या यज्ञ के लिए ले जाए? मुफ्त में मिला आटा खुद खाए या फिर यज्ञ के लिए ले जाए? रोतेरोते पैट्रोल से अपने स्कूटर के पहियों की मालिश करे या तांत्रिक बाबा की टांगों की?

पर सवाल महंगाई डायन से नजात पाने का था। सो, अपनीअपनी परात का आटा, अपने पतीले के दालचावल, सिर में लगाने का सरसों का तेल ले कर सभी जंतरमंतर पर आ गए।

सवाल सरकार से नहीं, महंगाई से छुटकारा पाने का जो था। देखते ही देखते उस द्वीप की जनता के पेट से चुराए आटा, दाल, चावलों का वहां ढेर लग गया। सरकारी तांत्रिक बाबा ने उस में से ढेर सारा अपने अधर्म के बोरों में भरा और बाजार में उतार कर जम कर नोट कमाए। कुछ उन्होंने यज्ञ के लिए बचा लिया ताकि वे आसानी से जनता की आंखों में धूल झोंक सकें.

अखबारों में बड़ेबड़े विज्ञापन देने के बाद जंतरमंतर पर महंगाई डायन को भगाने के लिए यज्ञ शुरू हुआ। बड़ी सी हलुआ बनाने वाली कड़ाही में जनता को मुफ्त में मिले आटा, दाल, चावल, सरसों का तेल मिलाया गया। एक टांग पर खड़ी जनता भूखे पेट हंसती हुई सब देखती रही। गाय के गोबर के उपलों के नाम पर झोटे के गोबर के उपले लाए गए। तांत्रिक बाबा ने अपनी पैंट पर रेशम की धोती बांधी और सिंहासन पर जा विराजे, तो फिल्मी गानों की तर्ज पर जनता ने भजन गाने शुरू कर दिए। थालियां बजने लगीं, गिलास बजने लगे.

2 दिन तक महंगाई डायन को भगाने के लिए जंतरमंतर पर महंगाई डायन द्वीप छोड़ो यज्ञ होता रहा। मीडिया ने उसे पूरी कवरेज दी. घी की जगह यज्ञ में पैट्रोल, डीजल की आहुति दी जाती रही।

तीसरे दिन जब यज्ञ कथित तौर पर पूर्ण होने को आया तो सरकारी तांत्रिक बाबा ज्यों ही महंगाई डायन को वश में करने के लिए 4 नीबू काट उन को अग्नि में डालने लगे तो 2 दिनों से चिलचिलाती धूप में महंगाई डायन को प्रत्यक्ष भागते देखने की इच्छा से एक टांग पर खड़ा उस द्वीप का एक नागरिक जोर से चीखा,”बाबा…बाबा… यह क्या कर रहो हो?”

“चुप, महंगाई डायन को भगाने का यज्ञ अंतिम दौर में है। अरे, महंगाई के नाती नराधम, टोक दिया न… मेरा सारा प्रयास गुड़गोबर कर दिया। विघ्न, घोर विघ्न… अब इस द्वीप की जनता को महंगाई से कोई नहीं बचा सकता। मेरा गुरु भी नहीं। मेरे कठिन प्रयासों से भी जो अब महंगाई डायन न भागी तो इस के लिए मैं नहीं, इस द्वीप की जनता शतप्रतिशत जिम्मेदार होगी।”

“क्षमा बाबा, क्षमा… असल में क्या है न कि आप ने यज्ञ में जनता की रसोई के चावल जलाए, मैं चुप रहा। आप ने यज्ञ में जनता की रसोई के दाल जलाई, मैं चुप रहा। आप ने यज्ञ में जनता की रसोई का आटा जलाया, मैं फिर भी चुप रहा। आप ने यज्ञ में जनता की रसोई का तेल जलाया तो भी मैं चुप रहा। कारण, यह सब सरकार ने हम को मुफ्त दिया था। हमें खिलाने को नहीं, अपनी कुरसी बचाने को। हमारा कमाया तो था नहीं। इस मुफ्तामुफ्ती के चक्कर में हम सब एक ही छत के नीचे रहते भी अलगअलग हो गए हैं। जितने फैमिली मैंबर, उतरने ही राशन कार्ड। मुफ्त का राशन, जहां मन करे वहां कर बेटा भाषण। पर हे बाबा, याद रहे कि जिस द्वीप में जनता लालच में आ अपने हाथपांव चलाना बंद कर दे वह द्वीप बहुत जल्दी पंगु हो जाता है.

“जिस द्वीप की सरकार अपने सत्ताई स्वार्थ के लिए मुफ्त का भरे पेट वालों को भी खिलाने लग जाएं, वहां की जनता बहुत जल्द आलसी हो जाती है, बाबा। पर जब तुम यह नीबू जलाने लगे तो पता है, आजकल नीबू का क्या रेट चल रहा है?”

“सत्ताई बाबाओं को महंगाई से क्या लेनादेना नराधम?”

“पूरे ₹4 सौ किलोग्राम चले हैं बाबा… गरमी में किसी डिहाइड्रेशन वाले को इस का रस पिलाओ तो किसी की तो जान बचे बाबा,” पर जो सुने, वह सरकारी बाबा नहीं.

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May 31, 2022 at 10:30AM

आधी तस्वीर: क्या मनशा भैया को माफ कर पाई?

भैया के लिए मनशा के मन में जो शक बैठ गया उसे वह जीवनभर हटा न सकी. मन की अदालत में भी वह उन्हें माफ न कर सकी.

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भैया के लिए मनशा के मन में जो शक बैठ गया उसे वह जीवनभर हटा न सकी. मन की अदालत में भी वह उन्हें माफ न कर सकी.

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May 31, 2022 at 09:17AM

विरासत: क्यों कठघरे में खड़ा था विनय

कई दिनों से एक बात मन में बारबार उठ रही है कि इनसान को शायद अपने कर्मों का फल इस जीवन में ही भोगना पड़ता है. यह बात नहीं है कि मैं टैलीविजन में आने वाले क्राइम और भक्तिप्रधान कार्यक्रमों से प्रभावित हो गया हूं. यह भी नहीं है कि धर्मग्रंथों का पाठ करने लगा हूं, न ही किसी बाबा का भक्त बना हूं. यह भी नहीं कि पश्चात्ताप की महत्ता नए सिरे में समझ आ गई हो.

दरअसल, बात यह है कि इन दिनों मेरी सुपुत्री राशि का मेलजोल अपने सहकर्मी रमन के साथ काफी बढ़ गया है. मेरी चिंता का विषय रमन का शादीशुदा होना है. राशि एक निजी बैंक में मैनेजर के पद पर कार्यरत है. रमन सीनियर मैनेजर है. मेरी बेटी अपने काम में काफी होशियार है. परंतु रमन के साथ उस की नजदीकी मेरी घबराहट को डर में बदल रही थी. मेरी पत्नी शोभा बेटे के पास न्यू जर्सी गई थी. अब वहां फोन कर के दोनों को क्या बताता. स्थिति का सामना मुझे स्वयं ही करना था. आज मेरा अतीत मुझे अपने सामने खड़ा दिखाई दे रहा था…

मेरा मुजफ्फर नगर में नया नया तबादला हुआ था. परिवार दिल्ली में ही छोड़ दिया था.  वैसे भी शोभा उस समय गर्भवती थी. वरुण भी बहुत छोटा था और शोभा का अपना परिवार भी वहीं था. इसलिए मैं ने उन को यहां लाना उचित नहीं समझा था. वैसे भी 2 साल बाद मुझे दोबारा पोस्टिंग मिल ही जानी थी.

गांधी कालोनी में एक घर किराए पर ले लिया था मैं ने. वहां से मेरा बैंक भी पास पड़ता था. पड़ोस में भी एक नया परिवार आया था. एक औरत और तीसरी या चौथी में पढ़ने वाले 2 जुड़वां लड़के. मेरे बैंक में काम करने वाले रमेश बाबू उसी महल्ले में रहते थे. उन से ही पता चला था कि वह औरत विधवा है. हमारे बैंक में ही उस के पति काम करते थे. कुछ साल पहले बीमारी की वजह से उन का देहांत हो गया था. उन्हीं की जगह उस औरत को नौकरी मिली थी. पहले अपनी ससुराल में रहती थी, परंतु पिछले महीने ही उन के तानों से तंग आ कर यहां रहने आई थी.

‘‘बच कर रहना विनयजी, बड़ी चालू औरत है. हाथ भी नहीं रखने देती,’’ जातेजाते रमेश बाबू यह बताना नहीं भूले थे. शायद उन की कोशिश का परिणाम अच्छा नहीं रहा होगा. इसीलिए मुझे सावधान करना उन्होंने अपना परम कर्तव्य समझा.

सौजन्य हमें विरासत में मिला है और पड़ोसियों के प्रति स्नेह और सहयोग की भावना हमारी अपनी कमाई है. इन तीनों गुणों का हम पुरुषवर्ग पूरी ईमानदारी से जतन तब और भी करते हैं जब पड़ोस में एक सुंदर स्त्री रहती हो. इसलिए पहला मौका मिलते ही मैं ने उसे अपने सौजन्य से अभिभूत कर दिया.

औफिस से लौट कर मैं ने देखा वह सीढि़यों पर बैठ हुई थी.

‘‘आप यहां क्यों बैठी हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जी… सर… मेरी चाभी कहीं गिर कई है, बच्चे आने वाले हैं… समझ नहीं आ रहा क्या करूं?’’

‘‘आप परेशान न हों, आओ मेरे घर में आ जाओ.’’

‘‘जी…?’’

‘‘मेरा मतलब है आप अंदर चल कर बैठिए. तब तक मैं चाभी बनाने वाले को ले कर आता हूं.’’

‘‘जी, मैं यहीं इंतजार कर लूंगी.’’

‘‘जैसी आप की मरजी.’’

थोड़ी देर बाद रचनाजी के घर की चाभी बन गई और मैं उन के घर में बैठ कर चाय पी रहा था. आधे घंटे बाद उन के बच्चे भी आ गए. दोनों मेरे बेटे वरुण की ही उम्र के थे. पल भर में ही मैं ने उन का दिल जीत लिया.

जितना समय मैं ने शायद अपने बेटे को नहीं दिया था उस से कहीं ज्यादा मैं अखिल और निखिल को देने लगा था. उन के साथ क्रिकेट खेलना, पढ़ाई में उन की सहायता करना,

रविवार को उन्हें ले कर मंडी की चाट खाने का तो जैसे नियम बन गया था. रचनाजी अब रचना हो गई थीं. अब किसी भी फैसले में रचना के लिए मेरी अनुमति महत्त्वपूर्ण हो गई थी. इसीलिए मेरे समझाने पर उस ने अपने दोनों बेटों को स्कूल के बाकी बच्चों के साथ पिकनिक पर भेज दिया था.

सरकारी बैंक में काम हो न हो हड़ताल तो होती ही रहती है. हमारे बैंक में भी 2 दिन की हड़ताल थी, इसलिए उस दिन मैं घर पर ही था. अमूमन छुट्टी के दिन मैं रचना के घर ही खाना खाता था. परंतु उस रोज बात कुछ अलग थी. घर में दोनों बच्चे नहीं थे.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं रचना?’’

‘‘अरे विनयजी अब क्या आप को भी आने से पहले इजाजत लेनी पड़ेगी?’’

खाना खा कर दोनों टीवी देखने लगे. थोड़ी देर बाद मुझे लगा रचना कुछ असहज सी है.

‘‘क्या हुआ रचना, तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

‘‘कुछ नहीं, बस थोड़ा सिरदर्द है.’’

अपनी जगह से उठ कर मैं उस का सिर दबाने लगा. सिर दबातेदबाते मेरे हाथ उस के कंधे तक पहुंच गए. उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं. हम किसी और ही दुनिया में खोने लगे. थोड़ी देर बाद रचना ने मना करने के लिए मुंह खोला तो मैं ने आगे बढ़ कर उस के होंठों पर अपने होंठ रख दिए.

उस के बाद रचना ने आंखें नहीं खोलीं. मैं धीरेधीरे उस के करीब आता चला गया. कहीं कोई संकोच नहीं था दोनों के बीच जैसे हमारे शरीर सालों से मिलना चाहते हों. दिल ने दिल की आवाज सुन ली थी, शरीर ने शरीर की भाषा पहचान ली थी.

उस के कानों के पास जा कर मैं धीरे से फुसफुसाया, ‘‘प्लीज, आंखें न खोलना तुम… आज बंद आंखों में मैं समाया हूं…’’

न जाने कितनी देर हम दोनों एकदूसरे की बांहों में बंधे चुपचाप लेटे रहे दोनों के बीच की खामोशी को मैं ने ही तोड़ा, ‘‘मुझ से नाराज तो नहीं हो तुम?’’

‘‘नहीं, परंतु अपनेआप से हूं… आप शादीशुदा हैं और…’’

‘‘रचना, शोभा से मेरी शादी महज एक समझौता है जो हमारे परिवारों के बीच हुआ था. बस उसे ही निभा रहा हूं… प्रेम क्या होता है यह मैं ने तुम से मिलने के बाद ही जाना.’’

‘‘परंतु… विवाह…’’

‘‘रचना… क्या 7 फेरे प्रेम को जन्म दे सकते हैं? 7 फेरों के बाद पतिपत्नी के बीच सैक्स का होना तो तय है, परंतु प्रेम का नहीं. क्या तुम्हें पछतावा हो रहा है रचना?’’

‘‘प्रेम शक्ति देता है, कमजोर नहीं करता. हां, वासना पछतावा उत्पन्न करती है. जिस पुरुष से मैं ने विवाह किया, उसे केवल अपना शरीर दिया. परंतु मेरे दिल तक तो वह कभी पहुंच ही नहीं पाया. फिर जितने भी पुरुष मिले उन की गंदी नजरों ने उन्हें मेरे दिल तक आने ही नहीं दिया. परंतु आप ने मुझे एक शरीर से ज्यादा एक इनसान समझा. इसीलिए वह पुराना संस्कार, जिसे अपने खून में पाला था कि विवाहेतर संबंध नहीं बनाना, आज टूट गया. शायद आज मैं समाज के अनुसार चरित्रहीन हो गई.’’

फिर कई दिन बीत गए, हम दोनों के संबंध और प्रगाढ़ होते जा रहे थे. मौका मिलते ही हम काफी समय साथ बिताते. एकसाथ घूमनाफिरना, शौपिंग करना, फिल्म देखना और फिर घर आ कर अखिल और निखिल के सोने के बाद एकदूसरे की बांहों में खो जाना दिनचर्या में शामिल हो गया था. औफिस में भी दोनों के बीच आंखों ही आंखों में प्रेम की बातें होती रहती थीं.

बीचबीच में मैं अपने घर आ जाता और शोभा के लिए और दोनों बच्चों के लिए ढेर सारे उपहार भी ले जाता. राशि का भी जन्म हो चुका था. देखते ही देखते 2 साल बीत गए. अब शोभा मुझ पर तबादला करवा लेने का दबाव डालने लगी थी. इधर रचना भी हमारे रिश्ते का नाम तलाशने लगी थी. मैं अब इन दोनों औरतों को नहीं संभाल पा रहा था. 2 नावों की सवारी में डूबने का खतरा लगातार बना रहता है. अब समय आ गया था किसी एक नाव में उतर जाने का.

रचना से मुझे वह मिला जो मुझे शोभा से कभी नहीं मिल पाया था, परंतु यह भी सत्य था कि जो मुझे शोभा के साथ रहने में मिलता वह मुझे रचना के साथ कभी नहीं मिल पाता और वह था मेरे बच्चे और सामाजिक सम्मान. यह सब कुछ सोच कर मैं ने तबादले के लिए आवेदन कर दिया.

‘‘तुम दिल्ली जा रहे हो?’’

रचना को पता चल गया था, हालांकि मैं ने पूरी कोशिश की थी उस से यह बात छिपाने की. बोला, ‘‘हां. वह जाना तो था ही…’’

‘‘और मुझे बताने की जरूरत भी नहीं समझी…’’

‘‘देखो रचना मैं इस रिश्ते को खत्म करना चाहता हूं.’’

‘‘पर तुम तो कहते थे कि तुम मुझ से प्रेम करते हो?’’

‘‘हां करता था, परंतु अब…’’

‘‘अब नहीं करते?’’

‘‘तब मैं होश में नहीं था, अब हूं.’’

‘‘तुम कहते थे शोभा मान जाएगी… तुम मुझ से भी शादी करोगे… अब क्या हो गया?’’

‘‘तुम पागल हो गई हो क्या? एक पत्नी के रहते क्या मैं दूसरी शादी कर सकता हूं?’’

‘‘मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगी? क्या जो हमारे बीच था वह महज.’’

‘‘रचना… देखो मैं ने तुम्हारे साथ कोई जबरदस्ती नहीं की, जो भी हुआ उस में तुम्हारी भी मरजी शामिल थी.’’

‘‘तुम मुझे छोड़ने का निर्णय ले रहे हो… ठीक है मैं समझ सकती हूं… तुम्हारी पत्नी है, बच्चे हैं. दुख मुझे इस बात का है कि तुम ने मुझे एक बार भी बताना जरूरी नहीं समझा. अगर मुझे पता नहीं चलता तो तुम शायद मुझे बिना बताए ही चले जाते. क्या मेरे प्रेम को इतने सम्मान की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी?’’

‘‘तुम्हें मुझ से किसी तरह की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी.’’

‘‘मतलब तुम ने मेरा इस्तेमाल किया और अब मन भर जाने पर मुझे…’’

‘‘हां किया जाओ क्या कर लोगी… मैं ने मजा किया तो क्या तुम ने नहीं किया? पूरी कीमत चुकाई है मैं ने. बताऊं तुम्हें कितना खर्चा किया है मैं ने तुम्हारे ऊपर?’’

कितना नीचे गिर गया था मैं… कैसे बोल गया था मैं वह सब. यह मैं भी जानता था कि रचना ने कभी खुद पर या अपने बच्चों पर ज्यादा खर्च नहीं करने दिया था. उस के अकेलेपन को भरने का दिखावा करतेकरते मैं ने उसी का फायदा उठा लिया था.

‘‘मैं तुम्हें बताऊंगी कि मैं क्या कर सकती हूं… आज जो तुम ने मेरे साथ किया है वह किसी और लड़की के साथ न करो, इस के लिए तुम्हें सजा मिलनी जरूरी है… तुम जैसा इनसान कभी नहीं सुधरेगा… मुझे शर्म आ रही है कि मैं ने तुम से प्यार किया.’’

उस के बाद रचना ने मुझ पर रेप का केस कर दिया. केस की बात सुनते ही शोभा और मेरी ससुराल वाले और परिवार वाले सभी मुजफ्फर नगर आ गए. मैं ने रोरो कर शोभा से माफी मांगी.

‘‘अगर मैं किसी और पुरुष के साथ संबंध बना कर तुम से माफी की उम्मीद करती तो क्या तुम मुझे माफ कर देते विनय?’’

मैं एकदम चुप रहा. क्या जवाब देता.

‘‘चुप क्यों हो बोलो?’’

‘‘शायद नहीं.’’

‘‘शायद… हा… हा… हा… यकीनन तुम मुझे माफ नहीं करते. पुरुष जब बेवफाई करता है तो समाज स्त्री से उसे माफ कर आगे बढ़ने की उम्मीद करता है. परंतु जब यही गलती एक स्त्री से होती है, तो समाज उसे कईर् नाम दे डालता है. जिस स्त्री से मुझे नफरत होनी चाहिए थी. मुझे उस पर दया भी आ रही थी और गर्व भी हो रहा था, क्योंकि इस पुरुष दंभी समाज को चुनौती देने की कोशिश उस ने की थी.’’

‘‘तो तुम मुझे माफ नहीं…’’

‘‘मैं उस के जैसी साहसी नहीं हूं… लेकिन एक बात याद रखना तुम्हें माफ एक मां कर रही है एक पत्नी और एक स्त्री के अपराधी तुम हमेशा रहोगे.’’

शर्म से गरदन झुक गई थी मेरी.

पूरा महल्ला रचना पर थूथू कर रहा था. वैसे भी हमारा समाज कमजोर को हमेशा दबाता रहा है… फिर एक अकेली, जवान विधवा के चरित्र पर उंगली उठाना बहुत आसान था. उन सभी लोगों ने रचना के खिलाफ गवाही दी जिन के प्रस्ताव को उस ने कभी न कभी ठुकराया था.

अदालतमें रचना केस हार गई थी. जज ने उस पर मुझे बदनाम करने का इलजाम लगाया. अपने शरीर को स्वयं परपुरुष को सौंपने वाली स्त्री सही कैसे हो सकती थी और वह भी तब जब वह गरीब हो?

रचना के पास न शक्ति बची थी और न पैसे, जो वह केस हाई कोर्ट ले जाती. उस शहर में भी उस का कुछ नहीं बचा था. अपने बेटों को ले कर वह शहर छोड़ कर चली गई. जिस दिन वह जा रही थी मुझ से मिलने आई थी.

‘‘आज जो भी मेरे साथ हुआ है वह एक मृगतृष्णा के पीछे भागने की सजा है. मुझे तो मेरी मूर्खता की सजा मिल गई है और मैं जा रही हूं, परंतु तुम से एक ही प्रार्थना है कि अपने इस फरेब की विरासत अपने बच्चों में मत बांटना.’’

चली गई थी वह. मैं भी अपने परिवार के साथ दिल्ली आ गया था. मेरे और शोभा के बीच जो खालीपन आया था वह कभी नहीं भर पाया. सही कहा था उस ने एक पत्नी ने मुझे कभी माफ नहीं किया था. मैं भी कहां स्वयं को माफ कर पाया और न ही भुला पाया था रचना को.

किसी भी रिश्ते में मैं वफादारी नहीं निभा पाया था. और आज मेरा अतीत मेरे सामने खड़ा हो कर मुझ पर हंस रहा था. जो मैं ने आज से कई साल पहले एक स्त्री के साथ किया था वही मेरी बेटी के साथ होने जा रहा था.

नहीं मैं राशि के साथ ऐसा नहीं होने दूंगा. उस से बात करूंगा, उसे समझाऊंगा. वह मेरी बेटी है समझ जाएगी. नहीं मानी तो उस रमन से मिलूंगा, उस के परिवार से मिलूंगा, परंतु मुझे पूरा यकीन था ऐसी नौबत नहीं आएगी… राशि समझदार है मेरी बात समझ जाएगी.

उस के कमरे के पास पहुंचा ही था तो देखा वह अपने किसी दोस्त से वीडियो चैट कर रही थी. उन की बातों में रमन का जिक्र सुन कर मैं वहीं ठिठक गया.

‘‘तेरे और रमन सर के बीच क्या चल रहा है?’’

‘‘वही जो इस उम्र में चलता है… हा… हा… हा…’’

‘‘तुझे शायद पता नहीं कि वे शादीशुदा हैं?’’

‘‘पता है.’’

‘‘फिर भी…’’

‘‘राशि, देख यार जो इनसान अपनी पत्नी के साथ वफादार नहीं है वह तेरे साथ क्या होगा? क्या पता कल तुझे छोड़ कर…’’

‘‘ही… ही… मुझे लड़के नहीं, मैं लड़कों को छोड़ती हूं.’’

‘‘तू समझ नहीं रही…’’

‘‘यार अब वह मुरगा खुद कटने को तैयार बैठा है तो फिर मेरी क्या गलती? उसे लगता है कि मैं उस के प्यार में डूब गई हूं, परंतु उसे यह नहीं पता कि वह सिर्फ मेरे लिए एक सीढ़ी है, जिस का इस्तेमाल कर के मुझे आगे बढ़ना है. जिस दिन उस ने मेरे और मेरे सपने के बीच आने की सोची उसी दिन उस पर रेप का केस ठोक दूंगी और तुझे तो पता है ऐसे केसेज में कोर्ट भी लड़की के पक्ष में फैसला सुनाता है,’’ और फिर हंसी का सम्मिलित स्वर सुनाई दिया.

सीने में तेज दर्द के साथ मैं वहीं गिर पड़ा. मेरे कानों में रचना की आवाज गूंज रही थी कि अपने फरेब की विरासत अपने बच्चों में मत बांटना… अपने फरेब की विरासत अपने बच्चों में मत बांटना, परंतु विरासत तो बंट चुकी थी.

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कई दिनों से एक बात मन में बारबार उठ रही है कि इनसान को शायद अपने कर्मों का फल इस जीवन में ही भोगना पड़ता है. यह बात नहीं है कि मैं टैलीविजन में आने वाले क्राइम और भक्तिप्रधान कार्यक्रमों से प्रभावित हो गया हूं. यह भी नहीं है कि धर्मग्रंथों का पाठ करने लगा हूं, न ही किसी बाबा का भक्त बना हूं. यह भी नहीं कि पश्चात्ताप की महत्ता नए सिरे में समझ आ गई हो.

दरअसल, बात यह है कि इन दिनों मेरी सुपुत्री राशि का मेलजोल अपने सहकर्मी रमन के साथ काफी बढ़ गया है. मेरी चिंता का विषय रमन का शादीशुदा होना है. राशि एक निजी बैंक में मैनेजर के पद पर कार्यरत है. रमन सीनियर मैनेजर है. मेरी बेटी अपने काम में काफी होशियार है. परंतु रमन के साथ उस की नजदीकी मेरी घबराहट को डर में बदल रही थी. मेरी पत्नी शोभा बेटे के पास न्यू जर्सी गई थी. अब वहां फोन कर के दोनों को क्या बताता. स्थिति का सामना मुझे स्वयं ही करना था. आज मेरा अतीत मुझे अपने सामने खड़ा दिखाई दे रहा था…

मेरा मुजफ्फर नगर में नया नया तबादला हुआ था. परिवार दिल्ली में ही छोड़ दिया था.  वैसे भी शोभा उस समय गर्भवती थी. वरुण भी बहुत छोटा था और शोभा का अपना परिवार भी वहीं था. इसलिए मैं ने उन को यहां लाना उचित नहीं समझा था. वैसे भी 2 साल बाद मुझे दोबारा पोस्टिंग मिल ही जानी थी.

गांधी कालोनी में एक घर किराए पर ले लिया था मैं ने. वहां से मेरा बैंक भी पास पड़ता था. पड़ोस में भी एक नया परिवार आया था. एक औरत और तीसरी या चौथी में पढ़ने वाले 2 जुड़वां लड़के. मेरे बैंक में काम करने वाले रमेश बाबू उसी महल्ले में रहते थे. उन से ही पता चला था कि वह औरत विधवा है. हमारे बैंक में ही उस के पति काम करते थे. कुछ साल पहले बीमारी की वजह से उन का देहांत हो गया था. उन्हीं की जगह उस औरत को नौकरी मिली थी. पहले अपनी ससुराल में रहती थी, परंतु पिछले महीने ही उन के तानों से तंग आ कर यहां रहने आई थी.

‘‘बच कर रहना विनयजी, बड़ी चालू औरत है. हाथ भी नहीं रखने देती,’’ जातेजाते रमेश बाबू यह बताना नहीं भूले थे. शायद उन की कोशिश का परिणाम अच्छा नहीं रहा होगा. इसीलिए मुझे सावधान करना उन्होंने अपना परम कर्तव्य समझा.

सौजन्य हमें विरासत में मिला है और पड़ोसियों के प्रति स्नेह और सहयोग की भावना हमारी अपनी कमाई है. इन तीनों गुणों का हम पुरुषवर्ग पूरी ईमानदारी से जतन तब और भी करते हैं जब पड़ोस में एक सुंदर स्त्री रहती हो. इसलिए पहला मौका मिलते ही मैं ने उसे अपने सौजन्य से अभिभूत कर दिया.

औफिस से लौट कर मैं ने देखा वह सीढि़यों पर बैठ हुई थी.

‘‘आप यहां क्यों बैठी हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जी… सर… मेरी चाभी कहीं गिर कई है, बच्चे आने वाले हैं… समझ नहीं आ रहा क्या करूं?’’

‘‘आप परेशान न हों, आओ मेरे घर में आ जाओ.’’

‘‘जी…?’’

‘‘मेरा मतलब है आप अंदर चल कर बैठिए. तब तक मैं चाभी बनाने वाले को ले कर आता हूं.’’

‘‘जी, मैं यहीं इंतजार कर लूंगी.’’

‘‘जैसी आप की मरजी.’’

थोड़ी देर बाद रचनाजी के घर की चाभी बन गई और मैं उन के घर में बैठ कर चाय पी रहा था. आधे घंटे बाद उन के बच्चे भी आ गए. दोनों मेरे बेटे वरुण की ही उम्र के थे. पल भर में ही मैं ने उन का दिल जीत लिया.

जितना समय मैं ने शायद अपने बेटे को नहीं दिया था उस से कहीं ज्यादा मैं अखिल और निखिल को देने लगा था. उन के साथ क्रिकेट खेलना, पढ़ाई में उन की सहायता करना,

रविवार को उन्हें ले कर मंडी की चाट खाने का तो जैसे नियम बन गया था. रचनाजी अब रचना हो गई थीं. अब किसी भी फैसले में रचना के लिए मेरी अनुमति महत्त्वपूर्ण हो गई थी. इसीलिए मेरे समझाने पर उस ने अपने दोनों बेटों को स्कूल के बाकी बच्चों के साथ पिकनिक पर भेज दिया था.

सरकारी बैंक में काम हो न हो हड़ताल तो होती ही रहती है. हमारे बैंक में भी 2 दिन की हड़ताल थी, इसलिए उस दिन मैं घर पर ही था. अमूमन छुट्टी के दिन मैं रचना के घर ही खाना खाता था. परंतु उस रोज बात कुछ अलग थी. घर में दोनों बच्चे नहीं थे.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं रचना?’’

‘‘अरे विनयजी अब क्या आप को भी आने से पहले इजाजत लेनी पड़ेगी?’’

खाना खा कर दोनों टीवी देखने लगे. थोड़ी देर बाद मुझे लगा रचना कुछ असहज सी है.

‘‘क्या हुआ रचना, तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

‘‘कुछ नहीं, बस थोड़ा सिरदर्द है.’’

अपनी जगह से उठ कर मैं उस का सिर दबाने लगा. सिर दबातेदबाते मेरे हाथ उस के कंधे तक पहुंच गए. उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं. हम किसी और ही दुनिया में खोने लगे. थोड़ी देर बाद रचना ने मना करने के लिए मुंह खोला तो मैं ने आगे बढ़ कर उस के होंठों पर अपने होंठ रख दिए.

उस के बाद रचना ने आंखें नहीं खोलीं. मैं धीरेधीरे उस के करीब आता चला गया. कहीं कोई संकोच नहीं था दोनों के बीच जैसे हमारे शरीर सालों से मिलना चाहते हों. दिल ने दिल की आवाज सुन ली थी, शरीर ने शरीर की भाषा पहचान ली थी.

उस के कानों के पास जा कर मैं धीरे से फुसफुसाया, ‘‘प्लीज, आंखें न खोलना तुम… आज बंद आंखों में मैं समाया हूं…’’

न जाने कितनी देर हम दोनों एकदूसरे की बांहों में बंधे चुपचाप लेटे रहे दोनों के बीच की खामोशी को मैं ने ही तोड़ा, ‘‘मुझ से नाराज तो नहीं हो तुम?’’

‘‘नहीं, परंतु अपनेआप से हूं… आप शादीशुदा हैं और…’’

‘‘रचना, शोभा से मेरी शादी महज एक समझौता है जो हमारे परिवारों के बीच हुआ था. बस उसे ही निभा रहा हूं… प्रेम क्या होता है यह मैं ने तुम से मिलने के बाद ही जाना.’’

‘‘परंतु… विवाह…’’

‘‘रचना… क्या 7 फेरे प्रेम को जन्म दे सकते हैं? 7 फेरों के बाद पतिपत्नी के बीच सैक्स का होना तो तय है, परंतु प्रेम का नहीं. क्या तुम्हें पछतावा हो रहा है रचना?’’

‘‘प्रेम शक्ति देता है, कमजोर नहीं करता. हां, वासना पछतावा उत्पन्न करती है. जिस पुरुष से मैं ने विवाह किया, उसे केवल अपना शरीर दिया. परंतु मेरे दिल तक तो वह कभी पहुंच ही नहीं पाया. फिर जितने भी पुरुष मिले उन की गंदी नजरों ने उन्हें मेरे दिल तक आने ही नहीं दिया. परंतु आप ने मुझे एक शरीर से ज्यादा एक इनसान समझा. इसीलिए वह पुराना संस्कार, जिसे अपने खून में पाला था कि विवाहेतर संबंध नहीं बनाना, आज टूट गया. शायद आज मैं समाज के अनुसार चरित्रहीन हो गई.’’

फिर कई दिन बीत गए, हम दोनों के संबंध और प्रगाढ़ होते जा रहे थे. मौका मिलते ही हम काफी समय साथ बिताते. एकसाथ घूमनाफिरना, शौपिंग करना, फिल्म देखना और फिर घर आ कर अखिल और निखिल के सोने के बाद एकदूसरे की बांहों में खो जाना दिनचर्या में शामिल हो गया था. औफिस में भी दोनों के बीच आंखों ही आंखों में प्रेम की बातें होती रहती थीं.

बीचबीच में मैं अपने घर आ जाता और शोभा के लिए और दोनों बच्चों के लिए ढेर सारे उपहार भी ले जाता. राशि का भी जन्म हो चुका था. देखते ही देखते 2 साल बीत गए. अब शोभा मुझ पर तबादला करवा लेने का दबाव डालने लगी थी. इधर रचना भी हमारे रिश्ते का नाम तलाशने लगी थी. मैं अब इन दोनों औरतों को नहीं संभाल पा रहा था. 2 नावों की सवारी में डूबने का खतरा लगातार बना रहता है. अब समय आ गया था किसी एक नाव में उतर जाने का.

रचना से मुझे वह मिला जो मुझे शोभा से कभी नहीं मिल पाया था, परंतु यह भी सत्य था कि जो मुझे शोभा के साथ रहने में मिलता वह मुझे रचना के साथ कभी नहीं मिल पाता और वह था मेरे बच्चे और सामाजिक सम्मान. यह सब कुछ सोच कर मैं ने तबादले के लिए आवेदन कर दिया.

‘‘तुम दिल्ली जा रहे हो?’’

रचना को पता चल गया था, हालांकि मैं ने पूरी कोशिश की थी उस से यह बात छिपाने की. बोला, ‘‘हां. वह जाना तो था ही…’’

‘‘और मुझे बताने की जरूरत भी नहीं समझी…’’

‘‘देखो रचना मैं इस रिश्ते को खत्म करना चाहता हूं.’’

‘‘पर तुम तो कहते थे कि तुम मुझ से प्रेम करते हो?’’

‘‘हां करता था, परंतु अब…’’

‘‘अब नहीं करते?’’

‘‘तब मैं होश में नहीं था, अब हूं.’’

‘‘तुम कहते थे शोभा मान जाएगी… तुम मुझ से भी शादी करोगे… अब क्या हो गया?’’

‘‘तुम पागल हो गई हो क्या? एक पत्नी के रहते क्या मैं दूसरी शादी कर सकता हूं?’’

‘‘मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगी? क्या जो हमारे बीच था वह महज.’’

‘‘रचना… देखो मैं ने तुम्हारे साथ कोई जबरदस्ती नहीं की, जो भी हुआ उस में तुम्हारी भी मरजी शामिल थी.’’

‘‘तुम मुझे छोड़ने का निर्णय ले रहे हो… ठीक है मैं समझ सकती हूं… तुम्हारी पत्नी है, बच्चे हैं. दुख मुझे इस बात का है कि तुम ने मुझे एक बार भी बताना जरूरी नहीं समझा. अगर मुझे पता नहीं चलता तो तुम शायद मुझे बिना बताए ही चले जाते. क्या मेरे प्रेम को इतने सम्मान की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी?’’

‘‘तुम्हें मुझ से किसी तरह की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए थी.’’

‘‘मतलब तुम ने मेरा इस्तेमाल किया और अब मन भर जाने पर मुझे…’’

‘‘हां किया जाओ क्या कर लोगी… मैं ने मजा किया तो क्या तुम ने नहीं किया? पूरी कीमत चुकाई है मैं ने. बताऊं तुम्हें कितना खर्चा किया है मैं ने तुम्हारे ऊपर?’’

कितना नीचे गिर गया था मैं… कैसे बोल गया था मैं वह सब. यह मैं भी जानता था कि रचना ने कभी खुद पर या अपने बच्चों पर ज्यादा खर्च नहीं करने दिया था. उस के अकेलेपन को भरने का दिखावा करतेकरते मैं ने उसी का फायदा उठा लिया था.

‘‘मैं तुम्हें बताऊंगी कि मैं क्या कर सकती हूं… आज जो तुम ने मेरे साथ किया है वह किसी और लड़की के साथ न करो, इस के लिए तुम्हें सजा मिलनी जरूरी है… तुम जैसा इनसान कभी नहीं सुधरेगा… मुझे शर्म आ रही है कि मैं ने तुम से प्यार किया.’’

उस के बाद रचना ने मुझ पर रेप का केस कर दिया. केस की बात सुनते ही शोभा और मेरी ससुराल वाले और परिवार वाले सभी मुजफ्फर नगर आ गए. मैं ने रोरो कर शोभा से माफी मांगी.

‘‘अगर मैं किसी और पुरुष के साथ संबंध बना कर तुम से माफी की उम्मीद करती तो क्या तुम मुझे माफ कर देते विनय?’’

मैं एकदम चुप रहा. क्या जवाब देता.

‘‘चुप क्यों हो बोलो?’’

‘‘शायद नहीं.’’

‘‘शायद… हा… हा… हा… यकीनन तुम मुझे माफ नहीं करते. पुरुष जब बेवफाई करता है तो समाज स्त्री से उसे माफ कर आगे बढ़ने की उम्मीद करता है. परंतु जब यही गलती एक स्त्री से होती है, तो समाज उसे कईर् नाम दे डालता है. जिस स्त्री से मुझे नफरत होनी चाहिए थी. मुझे उस पर दया भी आ रही थी और गर्व भी हो रहा था, क्योंकि इस पुरुष दंभी समाज को चुनौती देने की कोशिश उस ने की थी.’’

‘‘तो तुम मुझे माफ नहीं…’’

‘‘मैं उस के जैसी साहसी नहीं हूं… लेकिन एक बात याद रखना तुम्हें माफ एक मां कर रही है एक पत्नी और एक स्त्री के अपराधी तुम हमेशा रहोगे.’’

शर्म से गरदन झुक गई थी मेरी.

पूरा महल्ला रचना पर थूथू कर रहा था. वैसे भी हमारा समाज कमजोर को हमेशा दबाता रहा है… फिर एक अकेली, जवान विधवा के चरित्र पर उंगली उठाना बहुत आसान था. उन सभी लोगों ने रचना के खिलाफ गवाही दी जिन के प्रस्ताव को उस ने कभी न कभी ठुकराया था.

अदालतमें रचना केस हार गई थी. जज ने उस पर मुझे बदनाम करने का इलजाम लगाया. अपने शरीर को स्वयं परपुरुष को सौंपने वाली स्त्री सही कैसे हो सकती थी और वह भी तब जब वह गरीब हो?

रचना के पास न शक्ति बची थी और न पैसे, जो वह केस हाई कोर्ट ले जाती. उस शहर में भी उस का कुछ नहीं बचा था. अपने बेटों को ले कर वह शहर छोड़ कर चली गई. जिस दिन वह जा रही थी मुझ से मिलने आई थी.

‘‘आज जो भी मेरे साथ हुआ है वह एक मृगतृष्णा के पीछे भागने की सजा है. मुझे तो मेरी मूर्खता की सजा मिल गई है और मैं जा रही हूं, परंतु तुम से एक ही प्रार्थना है कि अपने इस फरेब की विरासत अपने बच्चों में मत बांटना.’’

चली गई थी वह. मैं भी अपने परिवार के साथ दिल्ली आ गया था. मेरे और शोभा के बीच जो खालीपन आया था वह कभी नहीं भर पाया. सही कहा था उस ने एक पत्नी ने मुझे कभी माफ नहीं किया था. मैं भी कहां स्वयं को माफ कर पाया और न ही भुला पाया था रचना को.

किसी भी रिश्ते में मैं वफादारी नहीं निभा पाया था. और आज मेरा अतीत मेरे सामने खड़ा हो कर मुझ पर हंस रहा था. जो मैं ने आज से कई साल पहले एक स्त्री के साथ किया था वही मेरी बेटी के साथ होने जा रहा था.

नहीं मैं राशि के साथ ऐसा नहीं होने दूंगा. उस से बात करूंगा, उसे समझाऊंगा. वह मेरी बेटी है समझ जाएगी. नहीं मानी तो उस रमन से मिलूंगा, उस के परिवार से मिलूंगा, परंतु मुझे पूरा यकीन था ऐसी नौबत नहीं आएगी… राशि समझदार है मेरी बात समझ जाएगी.

उस के कमरे के पास पहुंचा ही था तो देखा वह अपने किसी दोस्त से वीडियो चैट कर रही थी. उन की बातों में रमन का जिक्र सुन कर मैं वहीं ठिठक गया.

‘‘तेरे और रमन सर के बीच क्या चल रहा है?’’

‘‘वही जो इस उम्र में चलता है… हा… हा… हा…’’

‘‘तुझे शायद पता नहीं कि वे शादीशुदा हैं?’’

‘‘पता है.’’

‘‘फिर भी…’’

‘‘राशि, देख यार जो इनसान अपनी पत्नी के साथ वफादार नहीं है वह तेरे साथ क्या होगा? क्या पता कल तुझे छोड़ कर…’’

‘‘ही… ही… मुझे लड़के नहीं, मैं लड़कों को छोड़ती हूं.’’

‘‘तू समझ नहीं रही…’’

‘‘यार अब वह मुरगा खुद कटने को तैयार बैठा है तो फिर मेरी क्या गलती? उसे लगता है कि मैं उस के प्यार में डूब गई हूं, परंतु उसे यह नहीं पता कि वह सिर्फ मेरे लिए एक सीढ़ी है, जिस का इस्तेमाल कर के मुझे आगे बढ़ना है. जिस दिन उस ने मेरे और मेरे सपने के बीच आने की सोची उसी दिन उस पर रेप का केस ठोक दूंगी और तुझे तो पता है ऐसे केसेज में कोर्ट भी लड़की के पक्ष में फैसला सुनाता है,’’ और फिर हंसी का सम्मिलित स्वर सुनाई दिया.

सीने में तेज दर्द के साथ मैं वहीं गिर पड़ा. मेरे कानों में रचना की आवाज गूंज रही थी कि अपने फरेब की विरासत अपने बच्चों में मत बांटना… अपने फरेब की विरासत अपने बच्चों में मत बांटना, परंतु विरासत तो बंट चुकी थी.

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May 31, 2022 at 09:00AM

बदल गया जमाना: सास और बहू की कहानी

आदित्य और वसुंधरा की शादी एक महीना पहले हुई थी. घर के सारे मेहमान चले गए थे. अम्मा दिनभर फैले हुए घर को समेटने में लगी रहतीं. आदित्य ने कई बार कहा, “अम्मा, वसुंधरा को खाना बनाने दिया करो, ज्यादा नहीं तो कम से कम वह तुम्हारी मदद तो कर ही देगी.”

पर, अम्मा तो अम्मा थीं. “अभी सवा महीना भी नहीं हुआ है शादी को हुए, दुनिया क्या कहेगी. बहू के हाथ की अभी मेहंदी भी नहीं छुटी और उसे चूल्हे में झोंक दिया. तुम लोग तो नए जमाने के बच्चे हो, कुछ भी कहतेकरते हो पर दुनियादारी तो हमें देखनीसमझनी है.”

वसुंधरा मांबेटे के बीच दर्शक की तरह ताकती रहती थी. “अम्मा, अम्मा.” “क्या है आदि?” अम्मा सब्जी छौंकने में व्यस्त थीं. “अम्मा, बाहर लल्लू चाचा आए हैं.” “अरे, लल्लू भाईसाहब आए हैं.” लल्लू चाचा मेरे बाबू जी के बचपन के दोस्त थे. सुखदुख, अमीरीगरीबी के साथी. पहले तो बगल वाले घर में रहते थे. लल्लू चाचा…पड़ोसी कम, रिश्तेदार ज्यादा थे. आज के जमाने में तो रिश्तेदार भी इतना नहीं सोचते जितना कि ये दोनों परिवार एकदूसरे के लिए सोचा करते थे. पर समय ने करवट बदली और लल्लू भाईसाहब को यह महल्ला छोड़ कर दूसरे महल्ले में जाना पड़ा.

“अम्मा, चलोगी भी कि बस यहीं खड़ेख़ड़े मुसकराती रहोगी,” आदित्य ने अम्मा का कंधा हिलाया. “आदित्य, बेटा जरा दौड़ कर नुक्कड़ से गुलाबजामुन ले आ. तुम्हारे चाचा को हरिया की दुकान के गुलाबजामुन बहुत पसंद हैं.” आदित्य अम्मा की बात सुन कर मुसकराने लगा.

“सुन बहू वसुंधरा, अंदर जा कर अच्छी सी साड़ी पहन कर बाहर आ जा. ये चाचा तुम से मिले बिना नहीं जाएंगे. जरा सिर पर पल्ला कायदे से रखना, थोड़ा पुराने विचार के हैं. जनेऊ धारण करते हैं, लहसुनप्याज नहीं खाते. जल्दी किसी के यहां खातेपीते नहीं. वह तो हमारा घर है,  जानते हैं हम कितना साफसफ़ाई से काम करते हैं.”अम्मा के चेहरे पर गर्व का भाव उभर आया. ‘कितना नाराज होंगे भाईसाहब, सालभर हो गया, ऐसा बापबेटे के बीच  फंसी रहती हूं कि उन के घर नहीं जा पाती,’ अम्मा बड़बड़ाए जा रही थीं.

“प्रणाम भाईसाहब, बहुत दिनों बाद आना हुआ?”“प्रणाम, हां, बस ऐसे ही.” लल्लूजी मतलब… हम सब के लल्लू चाचा. दोहरे बदन के, पान से रंगे हुए दांत, झक दूध की तरह सफेद कुरताधोती, माथे पर चंदन का टीका, गरदन के पास से जनेऊ झांक रहा था. आदित्य बचपन से उन्हें ऐसे ही देख रहा था. मजाल था कि कुरते पर एक सिलवट मिल जाए.

“और लड्डू, कैसे हो?” चाचा ने कहा तो आदित्य पत्नी वसुंधरा के सामने अपना यह नाम सुन कर झेंप गया. अम्मा ने वसुंधरा को ऊपर से नीचे तक देखा. ऐसे देखा जैसे कोई मैटल डिटैक्टर से जांच कर रहा हो. फिर वसुंधरा को आंखों से इशारा किया. वसुंधरा चाचाजी के पैर छूने के लिए जैसे ही झुकी, चाचाजी रामराम कह कर उठ खड़े हुए.

“क्या हुआ भाईसाहब, कोई गलती हो गई क्या बहू से?” “अरे नहीं भाभी, काहे की गलती, जइसे निशा वईसे वसुंधरा. ई सब तो लक्छमी की अवतार हैं. इन से क्या पैर छुआना.” अम्मा का मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया, “और घर में सब ठीकठाक है न?” अम्मा के ठीकठाक के पीछे एक प्रश्नचिन्ह की महक आ रही थी. लल्लू चाचा  का बेटा वैभव ने चाचाजी और चाचीजी के खिलाफ जा कर कोर्टमैरिज की थी. लड़की दूसरी बिरादरी की थी. वैभव के साथ ही नौकरी करती थी. प्यार हुआ और झटपट शादी कर ली. लल्लू भाईसाहब और भाभीजी ने तो गुस्से के मारे कोई पार्टी भी नहीं करी थी.

“हां भाभी, घर में सब ठीकठाक है.” “भाईसाहब, चाय तो पिएंगे न?”  पूजापाठ किए बिना चाचाजी कुछ खातेपीते नहीं थे. “हां, सिर्फ चाय पिलाइए, नाश्ता कर के आए हैं.” अम्मा आश्चर्य से चाचाजी को देख रही थीं.  इतनी सुबहसुबह शकुंतला… उस के तो हमेशा घुटनों में ही दर्द होता रहता है,  हो सकता है बहू ने जिम्मेदारियां संभाल ली हों. अरे भैया, आए हैं तो खा कर जाइए.  आप की पसंद के गुलाबजामुन मंगाए हैं.”

गुलाबजामुन के नाम से चाचाजी  का चेहरा खिल उठा, “गुलाबजामुन, अरे वही हरिया के हैं क्या?” “हांहां, भाईसाहब, आप की पसंद के मंगवाए हैं.” “तब तो हम जरूर खाएंगे. भाभी वह ऐसा है न, निशा बिटिया कहती है, खाली पेट गैस बनने लगती है. दवा भी खानी होती है, इसलिए अब पहले नाश्तापानी, फिर कोई काम दूजा.”

अम्मा का चेहरा देखने लायक था. आदित्य मन ही मन मुसकरा रहा था. अम्मा दिन में चारचार बार चाचाजी और उन के परिवार के बारे में बात करती थीं. ‘देखो और सीखो, उस महल्ले में क्या गए, लोगों ने पंडितजी के सारे रीतिरिवाज अपना लिए. तुम लोग हो, पूजा से मतलब न दानपुण्य से. बिना नहाएधोए गायभैंस की तरह कचरकचर जब देखो तब मुंह में कुछ न कुछ भर लेते हो. कितनी बार कहा, बिना नहाएधोए चौके में मत घुसा करो, लक्ष्मी की हानि होती है. पर कौन समझाए इन बापबेटे को,’ अम्मा वसुंधरा से बुदबुदाए जा रही थीं, ‘जानती हो वसुंधरा, शकुंतला ने अपनी बहू के लिए कितने सपने देखे थे.  भैया से चुराचुरा कर बड़ेबड़े गहने बनवाए थे कि बहू को शादी में चढ़ाएंगे. पर वह नासपीटा वैभव, अपनी मरजी की शादी कर बैठा. शकुंतला के मन का शौक मन ही में रह गया.’

“भाभी, आप लोगों को परसों का न्योता देने आए हैं. बहू और लड्डू को साथ ले कर आइएगा. कम से कम बहू भी हमारा घर देख ले.” “हांहां भैया, जरूर.  हम भी कितने दिनों से सोच रहे थे आप के घर आने के लिए. पर काम से फुरसत ही नहीं मिल रही थी. हम जरूर आएंगे.” लल्लू चाचा हमें निमंत्रित कर के चले गए और अम्मा वसुंधरा के सामने पूरा पिटारा खोल कर बैठ गईं. “ध्यान रखना बेटा, एक अच्छी सी साड़ी पहन कर चलना और अपने सारे भारी वाले गहने पहन कर चलना. शकुंतला बहुत ध्यान देती है इन सब चीजों पर. जानती नहीं हो तुम उस का स्वभाव, सारे महल्ले में रिपोर्ट देगी कि बहू के मायके से कुछ मिला ही नहीं. आंखें नीची कर के बैठना, जितना कम हो सके उतना कम बोलना. ये सब औरतें…क्या कहते हैं अंग्रेजी में कैमरे की तरह काम करती हैं, सबकुछ रिकौर्ड कर लेती हैं अपने दिमाग में. इसलिए थोड़ा कोशिश करना कि कोई गलती न हो तुम्हारी तरफ से. उन के चौके में लहसुनप्याज नहीं बनता है, तो हो सकता है, तुम्हें खाने में स्वाद न लगे पर चुपचाप सब खा लेना. एक दिन की बात है बेटा,  हमारी इज्जत रख लेना.”

वसुंधरा चुपचाप उन की हां में हां मिलाए जा रही थी. आखिर वह दिन भी आ गया. वसुंधरा अपनी सासुमां के कहे अनुसार भारी सी लाल बनारसी साड़ी, गहनों से लदीफंदी चाचाजी के घर पहुंची थी. सब की आवाज को सुन कर चाचीजी चौके से बाहर आ गईं. वसुंधरा ने उन के पैर छुए. चाचीजी ने आशीर्वाद का पिटारा खोल दिया, “दूधो नहाओ, पूतो फलो. घरभर का नाम रोशन करो. बैठोबैठो बेटा, कितने दिनों बाद आई है. तुम्हारी सास को फुरसत ही नहीं.”

“अरे ऐसा क्यों कहती हो शकुंतला, तुम तो जानती हो अकेले प्राणी हैं हम.  क्याक्या देखें  और कहाकहां देखें.” “जीजी, सही कह रही हैं आप. महल्ला क्या छूटा, आनाजाना भी छूट गया. पर प्रेम वैसा ही है आज भी हमारे बीच, बिटिया.”  “अरे बात ही करती रहोगी या बहू को कुछ खिलाओ भी,” लल्लू चाचा ने जोर से आवाज लगाई.’अरे हांहां, खिलाती हूं. काहे गला फाड़ रहे हो वैभव के पापा.’ तभी एक दुबलीपतली सी स्मार्ट और बिंदास सी दिखने वाली लड़की, जिस ने जींस के ऊपर कुरती डाल रखी थी और गले में एक पतली से सोने की चेन, हाथ में ट्रे ले कर प्रकट हुई. “नमस्ते चाचाजी, नमस्ते चाचीजी.”

“अरे नमस्ते से कैसे काम चलेगा निशा, तुम्हारे घर पहली बार आईं चाचीजी के पैर तो छुओ,” चाचीजी ने कहा. “ओएमजी, सौरीसौरी, मैं भूल गई थी,”  निशा खिलखिला कर हंस पड़ी. सब के पैर छूने के बाद निशा वसुंधरा की ओर मुड़ी, “वैलकम भाभी, मैं निशा, आप की देवरानी.” निशा ने अपनी बड़ीबड़ी, गोलगोल आंखों को घुमा कर कहा. वसुंधरा उसे आश्चर्य से देखती रह गई. “आप परेशान मत होइए. वैसे तो आप मुझ से पद में बड़ी हैं यानी जिठानी हैं पर शादी के मामले में मैं आप से सीनियर हूं.” उस के चेहरे पर एक अजीब सी शरारत थी, “एक्चुअली, हमारी लवमैरिज है, थोड़ा मेलो ड्रामा भी हुआ था,” उस ने धीरे से कानों में फुसफुसाया.

शकुंतला मौसी निशा के आने से थोड़ी असहज हो गई थीं. “क्या शकुंतला, अपनी बहू के लिए तुम ने इतने सारे गहने गढ़वाए थे. यह क्या एकदम मरी सी चेन पहने हुए है. निशा बेटा, तुम्हारी सास ने तुम्हें कुछ पहनने को नहीं दिया क्या?” शकुंतला मौसी का चेहरा उतर गया था. पर निशा ने बड़ी बेफिक्री और चपलता से जवाब दिया, “चाचीजी, आज के जमाने में गहने पहनता ही कौन है. हर समय यही डर लगा रहता है कि कहीं कोई चोर छीन न ले. वैसे भी, साड़ी  तो मेरे बस की नहीं. औऱ जींस और सलवार सूट पर भारी गहने अच्छे नहीं लगते. मैं तो बस ऐसे ही फंकी टाइप के गहने पहनती हूं. चाचीजी, ये लीजिए गरमागरम प्याज की पकौड़ी, लहसुनधनिया की चटनी के साथ खा कर देखिए, मैं ने बनाई हैं, मजा आ जाएगा.”

आज तो एक के बाद एक विस्फोट हो रहे थे. अम्मा को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि उन के साथ क्या हो रहा है. या तो जमाना आगे बढ़ गया है या फिर वही पीछे रह गई हैं. तभी शंकुतला चाचीजी ने अम्मा के कान में धीरे से फुसफुसाया, ‘जीजी, बहू के पैर तो देखो.’ “क्या हुआ शकुंतला जीजी?”

“आप की बहू की बीच की उंगली बड़ी है. अम्मा कहती थीं, जिस लड़की के पैर की उंगलियां बड़ी होती हैं वह अपने पति पर राज करती है राज. जीजी, पहले दिन से ही लगाम कस कर रखना वरना तुम्हारा बेटवा फ़ुर्र हो जाएगा. फिर न कहना, हम सचेत नहीं किए.” वसुंधरा चुपचाप उन दोनों की बातों को सुन रही थी. फिलहाल तो उसे उन के बेटे की कमान निशा के हाथों में ही दिख रही थी.

वहीं, अम्मा क्यों पीछे रहतीं. उन्हें अपनी बहू के सामने यह बताना था कि वह कितना भी अपने रूप का जादू अपने पति के ऊपर चला दे पर उन का बेटा तो सिर्फ उन का ही है. “अरे शकुंतला, दुनिया का मैं नहीं जानती,  पर मेरा बेटा तो गऊ है, गऊ. मेरी मरजी के बिना तो वह घर के बाहर कदम भी नहीं रखता. पान, बीड़ी सिगरेट तो बहुत दूर की बात है. जमाने की हवा तो उसे बिलकुल भी नहीं लगी.”

वसुंधरा चुपचाप उन दोनों की बातों को सुन कर मुसकरा रही थी. उस की मम्मीजी अपने लल्ला का गुणगान करने से नहीं थक रही थीं और उन का लल्ला तो शादी की पहली रात ही उस के सामने यह स्वीकार कर चुका था कि वह कभीकभी दोस्तों के साथ शराब पी लेता है पर आदत नहीं है. पानगुटके का भी कोई विशेष शौक नहीं है पर कसम भी नहीं है. वसुंधरा सास के इस भ्रम को तोड़ना नहीं चाहती थी.

तभी एक और बम फूटा.  निशा की नजर अचानक अपनी सास की तरफ गई और वह झुंझला उठी, “क्या मम्मीजी, कितनी बार कहा है आप से कि मैचिंग कपड़े पहना कीजिए. देखिए न, आप फिर से वही लालपीली चूड़ियां पहन कर खड़ी हो गई हैं.”

अभी तक शकुंतला मौसीजी वसुंधरा की सासुमां को दिव्यज्ञान दे रही थीं, अब उन के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. “अरे बिटिया, अब हमारी उम्र थोड़ी है  यह सब मैचिंगवैचिंग पहनने की.”

“क्या मम्मी, आप भी न किस जमाने की बात कर रही हैं और हां, हम जो आप के लिए रात में पहनने के लिए गाउन लाए थे, एक बार भी पहना कि नहीं… कि वैसे ही अलमारी में पड़ा हुआ है,” निशा नौनस्टौप बोले जा रही थी, “वसुंधरा भाभी, आप ही बताइए, आज के जमाने में कैसे लोग 5 मीटर की साड़ी लपेट कर सोते हैं, मुझे तो टीशर्ट और कैपरी के बिना नींद ही नहीं आती.”

अम्मा का चेहरा देखने लायक हो रहा था.  आदित्य की हंसी रुक न रही थी. दिनभर लल्लूजी घर के खूबियों का आलाप करने वाली अम्मा सोचसोच परेशान हो रही थीं कि वसुंधरा तो कुछ भी नहीं कहेगी पर घर पहुंच कर बापबेटे उस का जीना हराम कर देंगे. तभी शकुंतला ने कहा, “जीजीजी, चलिए खाना लग गया है. खाना खा लीजिए, ठंडा हो जाएगा.” एक बड़ी सी मेज पर बहुत सारे स्वादिष्ठ व्यंजन लगे हुए थे. खाने की खुशबू ने सब की भूख को और भी बढ़ा दिया.

“निशा बेटा, क्याक्या बनाया है हमारी बहू के लिए,”  लल्लू चाचा ने बड़ी जिज्ञासा से पूछा.

“पापाजी, गोभी मुसल्लम, सोयाबीन के कबाब और मुगलई परांठा. मैं ने तो मम्मीजी से कहा था कि चिकन टिक्का भी बना दूं पर मम्मीजी तैयार नहीं हुईं.”

अम्मा का मुंह पर एक के बाद एक उतारचढ़ाव आ रहे थे. वे समझ नहीं पा रही थीं कि उन के साथ यह क्या हो रहा है. आखिर उन्होंने धीरे से पूछ ही लिया, “शकुंतला, अब तुम्हारी तबीयत कैसी रहती है?”

“जीजीजी, डाक्टर ने बताया हैं कि विटामिन बी12 बहुत कम हो गया है, अच्छा खाना खाने को बोले हैं.” तभी निशा ने एक और बम फोड़ा. “आंटीजी, डाक्टर ने कहा है मीटमुरगा ज्यादा से ज्यादा खाइए. पर मम्मीजी तैयार नहीं होतीं. मैं चिकन सूप बहुत शानदार बनाती हूं. एक बार खा लेंगी तो उंगलियां चाटती रह जाएंगी. पर मम्मीजी तैयार ही नहीं होतीं.”

अब अम्मा के लिए वहां बैठना और भी मुश्किल होता जा रहा था. उन्होंने जल्दीजल्दी दोचार निवाले  गले के नीचे उतारे और आदित्य की तरफ इशारा किया. “कल औफिस भी है न तुम्हारा? जल्दी करो पहुंचतेपहुंचते लेट हो जाएंगे. खाना वाकई बहुत स्वादिष्ठ था.”

वसुंधरा ने सभी के पैर छुए और गाड़ी में आ कर बैठ गई. रास्तेभर आदित्य और उस के पापा ने अम्मा को खूब छेड़ा. “पापा, कबाब इतने शानदार बने थे कि मजा आ गया.” तब आदित्य के पापा ने कनखियों से आदित्य को देखते हुए कहा, “गोभी मुसल्लम अगर बताई न जाए तो एकदम नौनवेज की तरह लग रही थी.”

“अम्मा, अगली बार निशा के हाथ का चिकन सूप पीने जरूर चलेंगे.” वसुंधरा दोनों बापबेटे की छेड़खानी को अच्छी तरह से समझ रही थी और अम्मा खिसियाई हुई चुपचाप खिड़की के बाहर देख रही थीं, सोच रही थीं कि वाकई में जमाना बहुत बदल गया है.

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आदित्य और वसुंधरा की शादी एक महीना पहले हुई थी. घर के सारे मेहमान चले गए थे. अम्मा दिनभर फैले हुए घर को समेटने में लगी रहतीं. आदित्य ने कई बार कहा, “अम्मा, वसुंधरा को खाना बनाने दिया करो, ज्यादा नहीं तो कम से कम वह तुम्हारी मदद तो कर ही देगी.”

पर, अम्मा तो अम्मा थीं. “अभी सवा महीना भी नहीं हुआ है शादी को हुए, दुनिया क्या कहेगी. बहू के हाथ की अभी मेहंदी भी नहीं छुटी और उसे चूल्हे में झोंक दिया. तुम लोग तो नए जमाने के बच्चे हो, कुछ भी कहतेकरते हो पर दुनियादारी तो हमें देखनीसमझनी है.”

वसुंधरा मांबेटे के बीच दर्शक की तरह ताकती रहती थी. “अम्मा, अम्मा.” “क्या है आदि?” अम्मा सब्जी छौंकने में व्यस्त थीं. “अम्मा, बाहर लल्लू चाचा आए हैं.” “अरे, लल्लू भाईसाहब आए हैं.” लल्लू चाचा मेरे बाबू जी के बचपन के दोस्त थे. सुखदुख, अमीरीगरीबी के साथी. पहले तो बगल वाले घर में रहते थे. लल्लू चाचा…पड़ोसी कम, रिश्तेदार ज्यादा थे. आज के जमाने में तो रिश्तेदार भी इतना नहीं सोचते जितना कि ये दोनों परिवार एकदूसरे के लिए सोचा करते थे. पर समय ने करवट बदली और लल्लू भाईसाहब को यह महल्ला छोड़ कर दूसरे महल्ले में जाना पड़ा.

“अम्मा, चलोगी भी कि बस यहीं खड़ेख़ड़े मुसकराती रहोगी,” आदित्य ने अम्मा का कंधा हिलाया. “आदित्य, बेटा जरा दौड़ कर नुक्कड़ से गुलाबजामुन ले आ. तुम्हारे चाचा को हरिया की दुकान के गुलाबजामुन बहुत पसंद हैं.” आदित्य अम्मा की बात सुन कर मुसकराने लगा.

“सुन बहू वसुंधरा, अंदर जा कर अच्छी सी साड़ी पहन कर बाहर आ जा. ये चाचा तुम से मिले बिना नहीं जाएंगे. जरा सिर पर पल्ला कायदे से रखना, थोड़ा पुराने विचार के हैं. जनेऊ धारण करते हैं, लहसुनप्याज नहीं खाते. जल्दी किसी के यहां खातेपीते नहीं. वह तो हमारा घर है,  जानते हैं हम कितना साफसफ़ाई से काम करते हैं.”अम्मा के चेहरे पर गर्व का भाव उभर आया. ‘कितना नाराज होंगे भाईसाहब, सालभर हो गया, ऐसा बापबेटे के बीच  फंसी रहती हूं कि उन के घर नहीं जा पाती,’ अम्मा बड़बड़ाए जा रही थीं.

“प्रणाम भाईसाहब, बहुत दिनों बाद आना हुआ?”“प्रणाम, हां, बस ऐसे ही.” लल्लूजी मतलब… हम सब के लल्लू चाचा. दोहरे बदन के, पान से रंगे हुए दांत, झक दूध की तरह सफेद कुरताधोती, माथे पर चंदन का टीका, गरदन के पास से जनेऊ झांक रहा था. आदित्य बचपन से उन्हें ऐसे ही देख रहा था. मजाल था कि कुरते पर एक सिलवट मिल जाए.

“और लड्डू, कैसे हो?” चाचा ने कहा तो आदित्य पत्नी वसुंधरा के सामने अपना यह नाम सुन कर झेंप गया. अम्मा ने वसुंधरा को ऊपर से नीचे तक देखा. ऐसे देखा जैसे कोई मैटल डिटैक्टर से जांच कर रहा हो. फिर वसुंधरा को आंखों से इशारा किया. वसुंधरा चाचाजी के पैर छूने के लिए जैसे ही झुकी, चाचाजी रामराम कह कर उठ खड़े हुए.

“क्या हुआ भाईसाहब, कोई गलती हो गई क्या बहू से?” “अरे नहीं भाभी, काहे की गलती, जइसे निशा वईसे वसुंधरा. ई सब तो लक्छमी की अवतार हैं. इन से क्या पैर छुआना.” अम्मा का मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया, “और घर में सब ठीकठाक है न?” अम्मा के ठीकठाक के पीछे एक प्रश्नचिन्ह की महक आ रही थी. लल्लू चाचा  का बेटा वैभव ने चाचाजी और चाचीजी के खिलाफ जा कर कोर्टमैरिज की थी. लड़की दूसरी बिरादरी की थी. वैभव के साथ ही नौकरी करती थी. प्यार हुआ और झटपट शादी कर ली. लल्लू भाईसाहब और भाभीजी ने तो गुस्से के मारे कोई पार्टी भी नहीं करी थी.

“हां भाभी, घर में सब ठीकठाक है.” “भाईसाहब, चाय तो पिएंगे न?”  पूजापाठ किए बिना चाचाजी कुछ खातेपीते नहीं थे. “हां, सिर्फ चाय पिलाइए, नाश्ता कर के आए हैं.” अम्मा आश्चर्य से चाचाजी को देख रही थीं.  इतनी सुबहसुबह शकुंतला… उस के तो हमेशा घुटनों में ही दर्द होता रहता है,  हो सकता है बहू ने जिम्मेदारियां संभाल ली हों. अरे भैया, आए हैं तो खा कर जाइए.  आप की पसंद के गुलाबजामुन मंगाए हैं.”

गुलाबजामुन के नाम से चाचाजी  का चेहरा खिल उठा, “गुलाबजामुन, अरे वही हरिया के हैं क्या?” “हांहां, भाईसाहब, आप की पसंद के मंगवाए हैं.” “तब तो हम जरूर खाएंगे. भाभी वह ऐसा है न, निशा बिटिया कहती है, खाली पेट गैस बनने लगती है. दवा भी खानी होती है, इसलिए अब पहले नाश्तापानी, फिर कोई काम दूजा.”

अम्मा का चेहरा देखने लायक था. आदित्य मन ही मन मुसकरा रहा था. अम्मा दिन में चारचार बार चाचाजी और उन के परिवार के बारे में बात करती थीं. ‘देखो और सीखो, उस महल्ले में क्या गए, लोगों ने पंडितजी के सारे रीतिरिवाज अपना लिए. तुम लोग हो, पूजा से मतलब न दानपुण्य से. बिना नहाएधोए गायभैंस की तरह कचरकचर जब देखो तब मुंह में कुछ न कुछ भर लेते हो. कितनी बार कहा, बिना नहाएधोए चौके में मत घुसा करो, लक्ष्मी की हानि होती है. पर कौन समझाए इन बापबेटे को,’ अम्मा वसुंधरा से बुदबुदाए जा रही थीं, ‘जानती हो वसुंधरा, शकुंतला ने अपनी बहू के लिए कितने सपने देखे थे.  भैया से चुराचुरा कर बड़ेबड़े गहने बनवाए थे कि बहू को शादी में चढ़ाएंगे. पर वह नासपीटा वैभव, अपनी मरजी की शादी कर बैठा. शकुंतला के मन का शौक मन ही में रह गया.’

“भाभी, आप लोगों को परसों का न्योता देने आए हैं. बहू और लड्डू को साथ ले कर आइएगा. कम से कम बहू भी हमारा घर देख ले.” “हांहां भैया, जरूर.  हम भी कितने दिनों से सोच रहे थे आप के घर आने के लिए. पर काम से फुरसत ही नहीं मिल रही थी. हम जरूर आएंगे.” लल्लू चाचा हमें निमंत्रित कर के चले गए और अम्मा वसुंधरा के सामने पूरा पिटारा खोल कर बैठ गईं. “ध्यान रखना बेटा, एक अच्छी सी साड़ी पहन कर चलना और अपने सारे भारी वाले गहने पहन कर चलना. शकुंतला बहुत ध्यान देती है इन सब चीजों पर. जानती नहीं हो तुम उस का स्वभाव, सारे महल्ले में रिपोर्ट देगी कि बहू के मायके से कुछ मिला ही नहीं. आंखें नीची कर के बैठना, जितना कम हो सके उतना कम बोलना. ये सब औरतें…क्या कहते हैं अंग्रेजी में कैमरे की तरह काम करती हैं, सबकुछ रिकौर्ड कर लेती हैं अपने दिमाग में. इसलिए थोड़ा कोशिश करना कि कोई गलती न हो तुम्हारी तरफ से. उन के चौके में लहसुनप्याज नहीं बनता है, तो हो सकता है, तुम्हें खाने में स्वाद न लगे पर चुपचाप सब खा लेना. एक दिन की बात है बेटा,  हमारी इज्जत रख लेना.”

वसुंधरा चुपचाप उन की हां में हां मिलाए जा रही थी. आखिर वह दिन भी आ गया. वसुंधरा अपनी सासुमां के कहे अनुसार भारी सी लाल बनारसी साड़ी, गहनों से लदीफंदी चाचाजी के घर पहुंची थी. सब की आवाज को सुन कर चाचीजी चौके से बाहर आ गईं. वसुंधरा ने उन के पैर छुए. चाचीजी ने आशीर्वाद का पिटारा खोल दिया, “दूधो नहाओ, पूतो फलो. घरभर का नाम रोशन करो. बैठोबैठो बेटा, कितने दिनों बाद आई है. तुम्हारी सास को फुरसत ही नहीं.”

“अरे ऐसा क्यों कहती हो शकुंतला, तुम तो जानती हो अकेले प्राणी हैं हम.  क्याक्या देखें  और कहाकहां देखें.” “जीजी, सही कह रही हैं आप. महल्ला क्या छूटा, आनाजाना भी छूट गया. पर प्रेम वैसा ही है आज भी हमारे बीच, बिटिया.”  “अरे बात ही करती रहोगी या बहू को कुछ खिलाओ भी,” लल्लू चाचा ने जोर से आवाज लगाई.’अरे हांहां, खिलाती हूं. काहे गला फाड़ रहे हो वैभव के पापा.’ तभी एक दुबलीपतली सी स्मार्ट और बिंदास सी दिखने वाली लड़की, जिस ने जींस के ऊपर कुरती डाल रखी थी और गले में एक पतली से सोने की चेन, हाथ में ट्रे ले कर प्रकट हुई. “नमस्ते चाचाजी, नमस्ते चाचीजी.”

“अरे नमस्ते से कैसे काम चलेगा निशा, तुम्हारे घर पहली बार आईं चाचीजी के पैर तो छुओ,” चाचीजी ने कहा. “ओएमजी, सौरीसौरी, मैं भूल गई थी,”  निशा खिलखिला कर हंस पड़ी. सब के पैर छूने के बाद निशा वसुंधरा की ओर मुड़ी, “वैलकम भाभी, मैं निशा, आप की देवरानी.” निशा ने अपनी बड़ीबड़ी, गोलगोल आंखों को घुमा कर कहा. वसुंधरा उसे आश्चर्य से देखती रह गई. “आप परेशान मत होइए. वैसे तो आप मुझ से पद में बड़ी हैं यानी जिठानी हैं पर शादी के मामले में मैं आप से सीनियर हूं.” उस के चेहरे पर एक अजीब सी शरारत थी, “एक्चुअली, हमारी लवमैरिज है, थोड़ा मेलो ड्रामा भी हुआ था,” उस ने धीरे से कानों में फुसफुसाया.

शकुंतला मौसी निशा के आने से थोड़ी असहज हो गई थीं. “क्या शकुंतला, अपनी बहू के लिए तुम ने इतने सारे गहने गढ़वाए थे. यह क्या एकदम मरी सी चेन पहने हुए है. निशा बेटा, तुम्हारी सास ने तुम्हें कुछ पहनने को नहीं दिया क्या?” शकुंतला मौसी का चेहरा उतर गया था. पर निशा ने बड़ी बेफिक्री और चपलता से जवाब दिया, “चाचीजी, आज के जमाने में गहने पहनता ही कौन है. हर समय यही डर लगा रहता है कि कहीं कोई चोर छीन न ले. वैसे भी, साड़ी  तो मेरे बस की नहीं. औऱ जींस और सलवार सूट पर भारी गहने अच्छे नहीं लगते. मैं तो बस ऐसे ही फंकी टाइप के गहने पहनती हूं. चाचीजी, ये लीजिए गरमागरम प्याज की पकौड़ी, लहसुनधनिया की चटनी के साथ खा कर देखिए, मैं ने बनाई हैं, मजा आ जाएगा.”

आज तो एक के बाद एक विस्फोट हो रहे थे. अम्मा को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि उन के साथ क्या हो रहा है. या तो जमाना आगे बढ़ गया है या फिर वही पीछे रह गई हैं. तभी शंकुतला चाचीजी ने अम्मा के कान में धीरे से फुसफुसाया, ‘जीजी, बहू के पैर तो देखो.’ “क्या हुआ शकुंतला जीजी?”

“आप की बहू की बीच की उंगली बड़ी है. अम्मा कहती थीं, जिस लड़की के पैर की उंगलियां बड़ी होती हैं वह अपने पति पर राज करती है राज. जीजी, पहले दिन से ही लगाम कस कर रखना वरना तुम्हारा बेटवा फ़ुर्र हो जाएगा. फिर न कहना, हम सचेत नहीं किए.” वसुंधरा चुपचाप उन दोनों की बातों को सुन रही थी. फिलहाल तो उसे उन के बेटे की कमान निशा के हाथों में ही दिख रही थी.

वहीं, अम्मा क्यों पीछे रहतीं. उन्हें अपनी बहू के सामने यह बताना था कि वह कितना भी अपने रूप का जादू अपने पति के ऊपर चला दे पर उन का बेटा तो सिर्फ उन का ही है. “अरे शकुंतला, दुनिया का मैं नहीं जानती,  पर मेरा बेटा तो गऊ है, गऊ. मेरी मरजी के बिना तो वह घर के बाहर कदम भी नहीं रखता. पान, बीड़ी सिगरेट तो बहुत दूर की बात है. जमाने की हवा तो उसे बिलकुल भी नहीं लगी.”

वसुंधरा चुपचाप उन दोनों की बातों को सुन कर मुसकरा रही थी. उस की मम्मीजी अपने लल्ला का गुणगान करने से नहीं थक रही थीं और उन का लल्ला तो शादी की पहली रात ही उस के सामने यह स्वीकार कर चुका था कि वह कभीकभी दोस्तों के साथ शराब पी लेता है पर आदत नहीं है. पानगुटके का भी कोई विशेष शौक नहीं है पर कसम भी नहीं है. वसुंधरा सास के इस भ्रम को तोड़ना नहीं चाहती थी.

तभी एक और बम फूटा.  निशा की नजर अचानक अपनी सास की तरफ गई और वह झुंझला उठी, “क्या मम्मीजी, कितनी बार कहा है आप से कि मैचिंग कपड़े पहना कीजिए. देखिए न, आप फिर से वही लालपीली चूड़ियां पहन कर खड़ी हो गई हैं.”

अभी तक शकुंतला मौसीजी वसुंधरा की सासुमां को दिव्यज्ञान दे रही थीं, अब उन के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. “अरे बिटिया, अब हमारी उम्र थोड़ी है  यह सब मैचिंगवैचिंग पहनने की.”

“क्या मम्मी, आप भी न किस जमाने की बात कर रही हैं और हां, हम जो आप के लिए रात में पहनने के लिए गाउन लाए थे, एक बार भी पहना कि नहीं… कि वैसे ही अलमारी में पड़ा हुआ है,” निशा नौनस्टौप बोले जा रही थी, “वसुंधरा भाभी, आप ही बताइए, आज के जमाने में कैसे लोग 5 मीटर की साड़ी लपेट कर सोते हैं, मुझे तो टीशर्ट और कैपरी के बिना नींद ही नहीं आती.”

अम्मा का चेहरा देखने लायक हो रहा था.  आदित्य की हंसी रुक न रही थी. दिनभर लल्लूजी घर के खूबियों का आलाप करने वाली अम्मा सोचसोच परेशान हो रही थीं कि वसुंधरा तो कुछ भी नहीं कहेगी पर घर पहुंच कर बापबेटे उस का जीना हराम कर देंगे. तभी शकुंतला ने कहा, “जीजीजी, चलिए खाना लग गया है. खाना खा लीजिए, ठंडा हो जाएगा.” एक बड़ी सी मेज पर बहुत सारे स्वादिष्ठ व्यंजन लगे हुए थे. खाने की खुशबू ने सब की भूख को और भी बढ़ा दिया.

“निशा बेटा, क्याक्या बनाया है हमारी बहू के लिए,”  लल्लू चाचा ने बड़ी जिज्ञासा से पूछा.

“पापाजी, गोभी मुसल्लम, सोयाबीन के कबाब और मुगलई परांठा. मैं ने तो मम्मीजी से कहा था कि चिकन टिक्का भी बना दूं पर मम्मीजी तैयार नहीं हुईं.”

अम्मा का मुंह पर एक के बाद एक उतारचढ़ाव आ रहे थे. वे समझ नहीं पा रही थीं कि उन के साथ यह क्या हो रहा है. आखिर उन्होंने धीरे से पूछ ही लिया, “शकुंतला, अब तुम्हारी तबीयत कैसी रहती है?”

“जीजीजी, डाक्टर ने बताया हैं कि विटामिन बी12 बहुत कम हो गया है, अच्छा खाना खाने को बोले हैं.” तभी निशा ने एक और बम फोड़ा. “आंटीजी, डाक्टर ने कहा है मीटमुरगा ज्यादा से ज्यादा खाइए. पर मम्मीजी तैयार नहीं होतीं. मैं चिकन सूप बहुत शानदार बनाती हूं. एक बार खा लेंगी तो उंगलियां चाटती रह जाएंगी. पर मम्मीजी तैयार ही नहीं होतीं.”

अब अम्मा के लिए वहां बैठना और भी मुश्किल होता जा रहा था. उन्होंने जल्दीजल्दी दोचार निवाले  गले के नीचे उतारे और आदित्य की तरफ इशारा किया. “कल औफिस भी है न तुम्हारा? जल्दी करो पहुंचतेपहुंचते लेट हो जाएंगे. खाना वाकई बहुत स्वादिष्ठ था.”

वसुंधरा ने सभी के पैर छुए और गाड़ी में आ कर बैठ गई. रास्तेभर आदित्य और उस के पापा ने अम्मा को खूब छेड़ा. “पापा, कबाब इतने शानदार बने थे कि मजा आ गया.” तब आदित्य के पापा ने कनखियों से आदित्य को देखते हुए कहा, “गोभी मुसल्लम अगर बताई न जाए तो एकदम नौनवेज की तरह लग रही थी.”

“अम्मा, अगली बार निशा के हाथ का चिकन सूप पीने जरूर चलेंगे.” वसुंधरा दोनों बापबेटे की छेड़खानी को अच्छी तरह से समझ रही थी और अम्मा खिसियाई हुई चुपचाप खिड़की के बाहर देख रही थीं, सोच रही थीं कि वाकई में जमाना बहुत बदल गया है.

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May 31, 2022 at 09:00AM