Thursday 19 May 2022

उम्मीद बाकी है: क्या प्रज्ञा के प्यार को मिली मंजिल

5-6 दिनों बाद बिगड़े मौसम के मिजाज ठीक हुए थे. आंधीबारिश थम गए थे और कुनकुनी धूप छितर आई थी. प्रज्ञा ने घर के सारे कपड़े बिस्तर पर ला कर धूप में पटक दिए थे और खुद भी पलंग पर जगह बना कर कुनकुनी धूप में पसर गई थी. आंखें मुंदने ही लगी थीं कि ठंडीठंडी हवा के ?ांकों से सिहर कर उस ने आंखें खोल दीं. टपटप बूंदें बरसती देख उस के होश उड़ गए. वह बदहवास सी दोनों हाथों से कपड़े समेटने लगी, पर फुहार एकाएक बौछार में बदल गई थी. उस के हौसले पस्त हो गए. तभी एक सुदर्शन नवयुवक जाने कहां से प्रकट हो गया. दोनों बगलों में उस ने एकएक गद्दा दबाया, हाथों में तकिए… दो चक्करों में ही प्रज्ञा सब सामान सहित अंदर पहुंच गई थी. बौछार अब मूसलाधार में बदल गई थी.

प्रज्ञा ने राहत की सांस लेते हुए उस अजनबी को धन्यवाद देने के लिए गरदन घुमाई, तब तक वह सीढि़यां चढ़ कर फिर से ऊपर अपने फ्लैट में पहुंच चुका था.

प्रज्ञा को सबकुछ एक परीकथा की भांति लग रहा था. उस मोहक व्यक्तित्व वाले युवक का एक हीरो की तरह प्रकट होना, उस का बलिष्ठ शरीर, उस की फुरती… स्मरण करते हुए प्रज्ञा के होंठों पर एक लजीली मुसकान तैर गई. इस का मतलब वह नवयुवक ऊपर से उसे सोते हुए ताक रहा था… और आज ही क्यों, न जाने कब से ताक रहा हो? उसे कपड़े फैलाते, बाल सुखाते, पौधों में पानी देते… वह तो बिना दुपट्टे के ही, बल्कि कई बार तो नाइटी में ही… सोचते हुए प्रज्ञा लाज से दोहरी हो उठी थी.

वह सुदर्शन नवयुवक पहली ही मुलाकात में उस पर बेतरह छा गया था. तब से प्रज्ञा को हर वक्त एक जोड़ी आंखों द्वारा अपना पीछा किए जाने का एहसास रोमांचित किए रहता. वह अपने बनावसिंगार के प्रति अतिरिक्त रूप से सजग हो उठी थी, पर वह युवक उसे फिर नजर नहीं आया. कहते हैं, शिद्दत से किसी चीज की आरजू की जाए तो प्रकृति उस से मिलवा ही देती है.

अपनी साथी डाक्टर नेहा से मिलने प्रज्ञा उस के फ्लैट पर पहुंची, पर वहां ताला लगा देख बेहद निराश हो उठी. लौटते में कंपाउड से निकलते समय उसे ऐसा लगा कि उस के पास से गुजरने वाले युवक को उस ने कहीं देखा है.

‘‘सुनिए… आप… उस दिन बारिश में आप ने मेरी मदद की थी…’’

‘‘ओह हां, आप यहां क्या कर रही हैं?’’

‘‘मेरी सहेली डा. नेहा यहां रहती है, उस से मिलने आई थी, पर ताला लगा है. गलती मेरी है. मु?ो इतनी दूर आने से पहले उसे फोन कर लेना चाहिए था,’’ प्रज्ञा के चेहरे पर परेशानी उभर आई थी.

‘‘तो आप मेरे यहां चलिए.’’

‘‘आप यहां रहते हैं? आप तो मेरे ऊपर वाले…’ प्रज्ञा आश्चर्यचकित थी.

‘‘अरे नहीं, आप को कोई गलतफहमी हो गई है. वहां तो मेरी दीदी रहती हैं. अब तो उन का भी तबादला हो गया है. घर खाली करने वाली हैं. उस दिन मैं उन्हीं से मिलने आया हुआ था. बालकनी में बैठा था कि बारिश शुरू हो गई. नीचे आप को बदहवास देखा तो मदद के लिए चला आया था.’’

‘‘ओह,’’ प्रज्ञा ?ोंप गई थी. वह भी कितनी बेवकूफ है, क्याक्या सम?ा कर क्याक्या ख्वाब संजोने लगी थी.

‘‘आइए, चलते हैं. आप को नीता से मिलवाता हूं.’’

‘‘न… नीता कौन?’’

‘‘मेरी पत्नी.’’

प्रज्ञा के बचेखुचे सपने भी बिखर गए थे. वह भारी कदमों से अरुण के संग हो ली थी. बातें करते, परिचय जुटाते वे घर पहुंच गए. नीता से मिल कर उस का मूड ठीक होने लगा था. वह बहुत बातूनी और बिंदास थी. दोनों एडवोकेट पतिपत्नी में अच्छी अंडरस्टैंडिग थी. चाय के साथसाथ उस ने पकौड़े भी बना डाले.

‘‘मेरा आजकल चटपटी चीजें खाने का बहुत मन करता है.’’

‘‘इस अवस्था में ऐसा स्वाभाविक है,’’ प्रज्ञा ने उस की गर्भावस्था को लक्ष्य कर के कहा.

‘‘तो तुम्हें पता चल गया?’’

‘‘हां, मैं पीजी गायनिक में कर रही हूं.’

‘‘ओह, फिर तो दाई से क्या पेट छिपाना,’’ नीता ने अपनी सेहत, स्वाद, रखरखाव संबंधी पचासों सवाल प्रज्ञा से कर डाले और प्रज्ञा ने बहुत इतमीनान से उस की सारी जिज्ञासाएं शांत कीं.

अरुण मंदमंद मुसकराते वार्त्तालाप में बिना हस्तक्षेप किए पकौड़ों का मजा उठाता रहा.

‘‘प्रज्ञा, इस से तगड़ी फीस वसूल लेना.’’

‘‘सच, बहुत सुकून मिल रहा है तुम से मिल कर. लेडी डाक्टर से इतना कुछ पूछ ही नहीं पाती. मैं सोनोग्राफी, चैकअप वगैरह के लिए भी आऊंगी, तब तुम से मदद लूंगी. कोई अपना जानकार साथ हो, तो विश्वास बना रहता है.’’

प्रज्ञा ने उसे आश्वस्त किया था. नीता और अरुण ने प्रज्ञा से दोस्ती की तो दिल से निबाही भी. वे अकसर उसे किसी न किसी बहाने घर बुलाते रहते, साथ में ताश खेलते, टीवी देखते, खातेपीते. ऐसे ही एक छुट्टी के दिन प्रज्ञा नीता से मिलने पहुंची तो उसे परेशान पाया.

‘‘अच्छा हुआ, तुम आ गईं. बहुत परेशान हूं मैं. सम?ा नहीं पा रही हूं कि क्या करूं? तुम्हें तो पता ही है कि आजकल मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती. मैं मां के पास जाना चाह रही थी, पर अरुण की चिंता थी. अब एक मेड की व्यवस्था हो गई है. अरुण भी राजी थे, पर एक नई समस्या उठ खड़ी हुई है. मेरे इंजीनियर देवर वरुण की पोस्ंिटग यहां हो गई है. अरुण का मानना है कि जब वह हमारे साथ रहने आ रहा है तो मु?ो यहीं रुकना चाहिए. इतनी मुश्किल से छुट्टी मैनेज की थी, मेड का प्रबंध किया था, सारी पैकिंग भी कर ली है और अब अरुण की यह जिद… कुछ सम?ा नहीं आ रहा कि क्या करूं?’’

प्रज्ञा को पतिपत्नी के मामले के बीच पड़ना ठीक नहीं लगा. वह भला कर भी क्या सकती थी? नीता के प्रति दिल में गहरी हमदर्दी समेटे वह लौट आई थी. इस के अगले ही दिन उस के पास अरुण का फोन आ गया था. वरुण का औफिस प्रज्ञा के घर के समीप था. इसलिए उसे उस लोकैलिटी में मकान चाहिए था. अरुण ने उस से आग्रह किया था कि वह पता करे कि उस की दीदी जो फ्लैट खाली कर गई थीं, वह अब तक खाली है क्या?

प्रज्ञा ने पता किया तो फ्लैट खाली मिल गया. प्रज्ञा ने तुरंत मकान मालिक से बात कर अरुण को सूचित कर दिया और धीरे से नीता के बारे में भी पूछ लिया.

‘‘उसे मैं आज ही उस के मायके छोड़ने जा रहा हूं. अब जब वरुण यहां रह ही नहीं रहा है तो उस बेचारी को रोकने की क्या तुक? तुम फ्लैट की चाबी ले कर रख लेना, वरुण कभी भी आ कर तुम से ले लेगा,’’ सुन कर प्रज्ञा खुश हो उठी थी.

छुट्टी का दिन था. प्रज्ञा नहा कर निकली ही थी. गीले बाल तौलिए में बंधे थे कि घंटी बजी. दरवाजा खोलते ही वह बुरी तरह चौंक कर दो कदम पीछे हट गई.

‘‘अरुण? आप तो नीता को छोड़ने गए थे न?’’

आगंतुक के चेहरे पर अपरिचित भाव देख उसे सम?ा आ गया कि उस से कोई गलती हो गई है.

‘‘मैं वरुण हूं. भैया ने आप से चाबी लेने को कहा था.’’

‘‘ओह, हां लाई, अं…आप अंदर आइए न?’’

‘‘नहीं बस, चाबी दे दीजिए,’’

हड़बड़ाई सी प्रज्ञा ने चाबी ला कर पकड़ा दी. आगंतुक धन्यवाद दे कर सीढि़यां भी चढ़ गया और प्रज्ञा बुत बनी उसे ताकती ही रह गई. हूबहू वही चेहरामोहरा… एक पल को उसे लगा कि वह सपना देख रही है, पर नहीं, यह सपना नहीं था. लेकिन आंखों में कुछ नए सपने जन्म लेने लगे थे. रोमांचित दिल एक बार फिर तेजी से धड़कने लगा था. प्रज्ञा पीछे दालान में बाल सुखाने लगी तो मन यह सोच कर रोमांचित होता रहा कि एक जोड़ी आंखें उसे चोरीचोरी निहार रही होंगी. न जाने उस चेहरे में क्या कशिश थी, प्रज्ञा उसे अब तक दिल से नहीं निकाल पाई थी. दबी हुई महत्त्वाकांक्षाएं फिर हिलोरें लेने लगीं. प्रज्ञा ने ?ाटपट चायनाश्ता तैयार किया और वरुण को बुलाने चल दी. आभार प्रकट करते हुए वरुण ने प्रज्ञा के साथ चायनाश्ता लिया.

‘‘भैयाभाभी आप की तारीफों के पुल ऐसे ही नहीं बांधते. वाकई आप का स्वभाव बहुत अच्छा है.’’

जब तक वरुण पूरी तरह व्यवस्थित नहीं हो गया, प्रज्ञा ने स्वेच्छा से उस के खानेपीने की जिम्मेदारी अपने सिर ले ली. उम्मीदों के हिंडोले में ?ालता मन अपनी ही कल्पनाओं की उड़ान देख चकित था. वरुण सामने भी आ जाता तो मुंह से बोल फूटने से पहले चेहरा आरक्त हो उठता. प्रज्ञा जानने को लालायित थी कि चाहत के जिस रंग ने उसे सिर से पांव तक सराबोर कर रखा है, उस ने वरुण पर भी कुछ असर किया है या नहीं? पर कैसे? शीघ्र ही उसे जवाब मिल गया. जिंदगी में कुछ प्रश्नों के जवाब जितनी देरी से मिलें, उतना ही अच्छा होता है. असमंजस की ढलान निराशा के गर्त से ज्यादा सुकूनदायक होती है.

प्रज्ञा उस दिन बाहर धूप में कपड़े फैला रही थी. एक जोड़ी आंखों द्वारा पीछा किए जाने का एहसास हमेशा की तरह तनमन को रोमांचित किए हुए था. उसे लगा कि ऊपर से उसे देख कर कोई फुरती से अंदर चला गया है. कुतूहल से उस ने नजरें ऊपर उठाईं तो जी धक से रह गया. वहां कोई नहीं था, पर तार पर सूखते लेडीज कपड़े देख कर उस के सीने में शूल चुभने लगे. लहूलुहान दिल को संभालते वह अंदर भागी. दो गिलास ठंडा पानी पिया, तब कहीं जा कर उखड़ी सांसें संभलीं और दिमाग कुछ सोचनेविचारने की स्थिति में आया. हो सकता है कि कोई रिश्तेदार वगैरह मिलने आए हों. अवश्य ऐसा ही होगा. वह भी जाने क्याक्या सोच लेती है?

प्रज्ञा तैयार हो कर अस्पताल निकल गई, पर मूड सारे दिन उखड़ा ही रहा. कभी मरीजों के सवाल पर ?ाल्ला उठती तो कभी नर्स को डांटने लगती. बारबार मन हो रहा था कि सीधे वरुण के सामने पहुंच जाए और उस से साफसाफ बात कर ले. लेकिन क्या बात…? सारे खयालीपुलाव तो वही पकाती आ रही है, वरुण ने तो कभी कुछ कहा ही नहीं.

ऊहापोह में घिरी प्रज्ञा शाम को घर लौटी तो अहाते में ही वरुण को एक स्मार्ट सी लड़की के साथ देख कर चौंक उठी. उसे देखते ही एक पल को दोनों ठिठक कर थोड़ा दूरदूर हो गए. फिर वरुण ने ही पहल की, ‘‘यह चैताली है. मेरी ही कंपनी में इंजीनियर है. हम दोनों यहां लिवइन में रह रहे हैं. अभी घर वालों को इस बारे में बताया नहीं है. इसीलिए भैयाभाभी के साथ न रह कर मैं यहां शिफ्ट हो गया था. अं…कुछ समय बाद उपयुक्त अवसर देख कर घर वालों को बता दूंगा. तब तक आप प्लीज…’’

‘‘मेरी ओर से आप निश्ंिचत रहिए. मु?ो किसी के फटे में टांग अड़ाने का शौक नहीं है,’’ न चाहते हुए भी प्रज्ञा का स्वर तिक्त और भारी हो उठा था. वह तीर की तरह अपने घर में घुसी और बिस्तर पर औंधी पड़ गई. रुलाई का दबा हुआ सोता सारे बांध तोड़ पूरे आवेग से बह निकला. घंटों वह बेसुध रोती रही. अंधेरा घिर आया तो उस ने उठ कर बत्ती जलाई, मुंह धोया, कौफी बनाई और बिस्तर पर आ कर बैठ गई. कितने साथी डाक्टर उस से रिश्ता जोड़ने के लिए लालायित हैं. वही पागल है, जो इस चेहरे की कशिश में इस तरह उल?ा गई है कि निकल ही नहीं पा रही है. पहले अरुण में अटकी, सचाई जान लेने के बाद भी शायद यह उस चेहरे को ही बारबार देखने का आकर्षण था कि वह नीता से मिलने के बहाने बराबर वहां आतीजाती रही. फिर वही चेहरा वरुण के रूप में सामने आया तो वह वहां अटक गई, पर अब बस… अब वह यहां नहीं रहेगी. उसे इन सब से दूर जाना होगा, वरना वह पागल हो जाएगी.

यहां समय ने प्रज्ञा का साथ दिया. उस की पोस्ंिटग दूसरी जगह हुई तो प्रज्ञा ने शिफ्ट होने में जरा भी देर न लगाई. मोह और आकर्षण के इस जाल से जितनी जल्दी निकल सके, अच्छा है. अरुण-नीता, वरुण-चैताली सभी ने भरेमन से उसे विदा किया. प्रज्ञा ने अल्पसमय में ही अपनी सहृदयता और सद्व्यवहार से सभी के दिलों में एक विशेष जगह बना ली थी.

नई जगह, नया काम और नए दोस्तों ने प्रज्ञा को सबकुछ भुलाने में बहुत मदद की. वह जितना सबकुछ भुलाने का प्रयास करती, अरुण, वरुण और नीता के फोन कौल्स उसे उतना ही सब फिर से याद दिलाते रहते. सभी अकसर उस से शिकायत करते कि वह उन्हें बिलकुल भूल गई है. कभी आगे से फोन नहीं करती. प्रज्ञा बेचारी निरुत्तर रह जाती.

फिर एक दिन प्रज्ञा को दो कार्ड और दो फोन कौल्स आए. वरुण और चैताली की शादी हो रही थी और नीता ने एक प्यारी सी गुडि़या को जन्म दिया था. उस का जन्मोत्सव था. नीता के पास उस की सास भी आई हुई थी. उन्होंने भी प्रज्ञा से बात की और दोनों अवसरों पर मौजूद रहने के लिए प्रज्ञा से बहुत अनुरोध किया. प्रज्ञा के पास इनकार की कोई वजह नहीं थी. उस ने सभी के लिए सुंदर उपहार खरीदे और नियत तिथि पर पहुंच गई. इतने समय बाद सभी को देख कर, मिल कर वह बहुत प्रसन्न हुई. अरुण, वरुण की मां तो उस का एहसान मानते नहीं थक रही थीं.

‘‘दोनों बेटाबहू तुम्हारी बहुत तारीफ करते हैं. तुम ने इन लोगों की बहुत मदद की, बहुत खयाल रखा. तुम हमेशा खुश रहो, तुम्हारी हर मुराद पूरी हो.’’

‘‘हैलो, जैसा सुना था, उस से बढ़ कर पाया… माइसैल्फ डाक्टर तरुण,’ मांजी के पीछे से निकलते हुए एक सुदर्शन नवयुवक ने प्रज्ञा की ओर हाथ बढ़ाया तो प्रज्ञा चित्रलिखित सी खड़ी रह गई. शक्लसूरत का इतना साम्य… उसे लगा कि वह एक बार फिर चक्कर खा कर गिर पड़ेगी. नहीं, अब वह नियति के किसी भी ?ांसे में आने वाली नहीं. हाथ मिलाए बिना ही वह मुड़ने को हुई तो मांजी ने आगे बढ़ कर परिचय करवाने की बागडोर संभाली, ‘यह अरुण, वरुण और उस का छोटा भाई तरुण, डाक्टर है…’’

‘‘आप के और भी कोई बेटा है या बस?’’ प्रज्ञा मानो नियति के इस खेल से उकता सी गई थी और उस में और सहने की शक्ति शेष नहीं रही थी.

‘‘बेटे तो बस ये 3 ही हैं. क्यों?’’ मां थोड़ा हैरानपरेशान थीं.

‘‘नहींनहीं, ऐसे ही पूछ रही थी,’’ अपने व्यवहार पर शर्मिंदा होते हुए प्रज्ञा चेहरे पर मुसकराहट ले आई. एक परिचित मरीज प्रज्ञा का अभिवादन कर उसे अपने भाई से मिलाने लगी. ‘‘ये हैं डा. प्रज्ञा, मैं तो उम्मीद खो चुकी थी, पर इन्होंने मेरा इलाज जारी रखा और इन के सद्प्रयासों से ही मैं मां बन पाई हूं.’’

‘‘उम्मीद का दामन हमेशा थामे रहो,’’ प्रज्ञा ने स्नेह से उस के कंधे थपथपा दिए.

मांजी दूसरे मेहमानों के साथ व्यस्त हो गईं तो तरुण उस के और पास आ गया, बोला, ‘‘मैं आप के साथ डांस कर सकता हूं?’’ मुसकराते हुए उस ने प्रज्ञा की ओर हाथ बढ़ाया. प्रज्ञा एक पल के लिए ठिठकी. फिर मुसकराते हुए गर्मजोशी से उस ने तरुण का बढ़ा हाथ थामा और डांसफ्लोर की ओर बढ़ ली.

शैली माथुर

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5-6 दिनों बाद बिगड़े मौसम के मिजाज ठीक हुए थे. आंधीबारिश थम गए थे और कुनकुनी धूप छितर आई थी. प्रज्ञा ने घर के सारे कपड़े बिस्तर पर ला कर धूप में पटक दिए थे और खुद भी पलंग पर जगह बना कर कुनकुनी धूप में पसर गई थी. आंखें मुंदने ही लगी थीं कि ठंडीठंडी हवा के ?ांकों से सिहर कर उस ने आंखें खोल दीं. टपटप बूंदें बरसती देख उस के होश उड़ गए. वह बदहवास सी दोनों हाथों से कपड़े समेटने लगी, पर फुहार एकाएक बौछार में बदल गई थी. उस के हौसले पस्त हो गए. तभी एक सुदर्शन नवयुवक जाने कहां से प्रकट हो गया. दोनों बगलों में उस ने एकएक गद्दा दबाया, हाथों में तकिए… दो चक्करों में ही प्रज्ञा सब सामान सहित अंदर पहुंच गई थी. बौछार अब मूसलाधार में बदल गई थी.

प्रज्ञा ने राहत की सांस लेते हुए उस अजनबी को धन्यवाद देने के लिए गरदन घुमाई, तब तक वह सीढि़यां चढ़ कर फिर से ऊपर अपने फ्लैट में पहुंच चुका था.

प्रज्ञा को सबकुछ एक परीकथा की भांति लग रहा था. उस मोहक व्यक्तित्व वाले युवक का एक हीरो की तरह प्रकट होना, उस का बलिष्ठ शरीर, उस की फुरती… स्मरण करते हुए प्रज्ञा के होंठों पर एक लजीली मुसकान तैर गई. इस का मतलब वह नवयुवक ऊपर से उसे सोते हुए ताक रहा था… और आज ही क्यों, न जाने कब से ताक रहा हो? उसे कपड़े फैलाते, बाल सुखाते, पौधों में पानी देते… वह तो बिना दुपट्टे के ही, बल्कि कई बार तो नाइटी में ही… सोचते हुए प्रज्ञा लाज से दोहरी हो उठी थी.

वह सुदर्शन नवयुवक पहली ही मुलाकात में उस पर बेतरह छा गया था. तब से प्रज्ञा को हर वक्त एक जोड़ी आंखों द्वारा अपना पीछा किए जाने का एहसास रोमांचित किए रहता. वह अपने बनावसिंगार के प्रति अतिरिक्त रूप से सजग हो उठी थी, पर वह युवक उसे फिर नजर नहीं आया. कहते हैं, शिद्दत से किसी चीज की आरजू की जाए तो प्रकृति उस से मिलवा ही देती है.

अपनी साथी डाक्टर नेहा से मिलने प्रज्ञा उस के फ्लैट पर पहुंची, पर वहां ताला लगा देख बेहद निराश हो उठी. लौटते में कंपाउड से निकलते समय उसे ऐसा लगा कि उस के पास से गुजरने वाले युवक को उस ने कहीं देखा है.

‘‘सुनिए… आप… उस दिन बारिश में आप ने मेरी मदद की थी…’’

‘‘ओह हां, आप यहां क्या कर रही हैं?’’

‘‘मेरी सहेली डा. नेहा यहां रहती है, उस से मिलने आई थी, पर ताला लगा है. गलती मेरी है. मु?ो इतनी दूर आने से पहले उसे फोन कर लेना चाहिए था,’’ प्रज्ञा के चेहरे पर परेशानी उभर आई थी.

‘‘तो आप मेरे यहां चलिए.’’

‘‘आप यहां रहते हैं? आप तो मेरे ऊपर वाले…’ प्रज्ञा आश्चर्यचकित थी.

‘‘अरे नहीं, आप को कोई गलतफहमी हो गई है. वहां तो मेरी दीदी रहती हैं. अब तो उन का भी तबादला हो गया है. घर खाली करने वाली हैं. उस दिन मैं उन्हीं से मिलने आया हुआ था. बालकनी में बैठा था कि बारिश शुरू हो गई. नीचे आप को बदहवास देखा तो मदद के लिए चला आया था.’’

‘‘ओह,’’ प्रज्ञा ?ोंप गई थी. वह भी कितनी बेवकूफ है, क्याक्या सम?ा कर क्याक्या ख्वाब संजोने लगी थी.

‘‘आइए, चलते हैं. आप को नीता से मिलवाता हूं.’’

‘‘न… नीता कौन?’’

‘‘मेरी पत्नी.’’

प्रज्ञा के बचेखुचे सपने भी बिखर गए थे. वह भारी कदमों से अरुण के संग हो ली थी. बातें करते, परिचय जुटाते वे घर पहुंच गए. नीता से मिल कर उस का मूड ठीक होने लगा था. वह बहुत बातूनी और बिंदास थी. दोनों एडवोकेट पतिपत्नी में अच्छी अंडरस्टैंडिग थी. चाय के साथसाथ उस ने पकौड़े भी बना डाले.

‘‘मेरा आजकल चटपटी चीजें खाने का बहुत मन करता है.’’

‘‘इस अवस्था में ऐसा स्वाभाविक है,’’ प्रज्ञा ने उस की गर्भावस्था को लक्ष्य कर के कहा.

‘‘तो तुम्हें पता चल गया?’’

‘‘हां, मैं पीजी गायनिक में कर रही हूं.’

‘‘ओह, फिर तो दाई से क्या पेट छिपाना,’’ नीता ने अपनी सेहत, स्वाद, रखरखाव संबंधी पचासों सवाल प्रज्ञा से कर डाले और प्रज्ञा ने बहुत इतमीनान से उस की सारी जिज्ञासाएं शांत कीं.

अरुण मंदमंद मुसकराते वार्त्तालाप में बिना हस्तक्षेप किए पकौड़ों का मजा उठाता रहा.

‘‘प्रज्ञा, इस से तगड़ी फीस वसूल लेना.’’

‘‘सच, बहुत सुकून मिल रहा है तुम से मिल कर. लेडी डाक्टर से इतना कुछ पूछ ही नहीं पाती. मैं सोनोग्राफी, चैकअप वगैरह के लिए भी आऊंगी, तब तुम से मदद लूंगी. कोई अपना जानकार साथ हो, तो विश्वास बना रहता है.’’

प्रज्ञा ने उसे आश्वस्त किया था. नीता और अरुण ने प्रज्ञा से दोस्ती की तो दिल से निबाही भी. वे अकसर उसे किसी न किसी बहाने घर बुलाते रहते, साथ में ताश खेलते, टीवी देखते, खातेपीते. ऐसे ही एक छुट्टी के दिन प्रज्ञा नीता से मिलने पहुंची तो उसे परेशान पाया.

‘‘अच्छा हुआ, तुम आ गईं. बहुत परेशान हूं मैं. सम?ा नहीं पा रही हूं कि क्या करूं? तुम्हें तो पता ही है कि आजकल मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती. मैं मां के पास जाना चाह रही थी, पर अरुण की चिंता थी. अब एक मेड की व्यवस्था हो गई है. अरुण भी राजी थे, पर एक नई समस्या उठ खड़ी हुई है. मेरे इंजीनियर देवर वरुण की पोस्ंिटग यहां हो गई है. अरुण का मानना है कि जब वह हमारे साथ रहने आ रहा है तो मु?ो यहीं रुकना चाहिए. इतनी मुश्किल से छुट्टी मैनेज की थी, मेड का प्रबंध किया था, सारी पैकिंग भी कर ली है और अब अरुण की यह जिद… कुछ सम?ा नहीं आ रहा कि क्या करूं?’’

प्रज्ञा को पतिपत्नी के मामले के बीच पड़ना ठीक नहीं लगा. वह भला कर भी क्या सकती थी? नीता के प्रति दिल में गहरी हमदर्दी समेटे वह लौट आई थी. इस के अगले ही दिन उस के पास अरुण का फोन आ गया था. वरुण का औफिस प्रज्ञा के घर के समीप था. इसलिए उसे उस लोकैलिटी में मकान चाहिए था. अरुण ने उस से आग्रह किया था कि वह पता करे कि उस की दीदी जो फ्लैट खाली कर गई थीं, वह अब तक खाली है क्या?

प्रज्ञा ने पता किया तो फ्लैट खाली मिल गया. प्रज्ञा ने तुरंत मकान मालिक से बात कर अरुण को सूचित कर दिया और धीरे से नीता के बारे में भी पूछ लिया.

‘‘उसे मैं आज ही उस के मायके छोड़ने जा रहा हूं. अब जब वरुण यहां रह ही नहीं रहा है तो उस बेचारी को रोकने की क्या तुक? तुम फ्लैट की चाबी ले कर रख लेना, वरुण कभी भी आ कर तुम से ले लेगा,’’ सुन कर प्रज्ञा खुश हो उठी थी.

छुट्टी का दिन था. प्रज्ञा नहा कर निकली ही थी. गीले बाल तौलिए में बंधे थे कि घंटी बजी. दरवाजा खोलते ही वह बुरी तरह चौंक कर दो कदम पीछे हट गई.

‘‘अरुण? आप तो नीता को छोड़ने गए थे न?’’

आगंतुक के चेहरे पर अपरिचित भाव देख उसे सम?ा आ गया कि उस से कोई गलती हो गई है.

‘‘मैं वरुण हूं. भैया ने आप से चाबी लेने को कहा था.’’

‘‘ओह, हां लाई, अं…आप अंदर आइए न?’’

‘‘नहीं बस, चाबी दे दीजिए,’’

हड़बड़ाई सी प्रज्ञा ने चाबी ला कर पकड़ा दी. आगंतुक धन्यवाद दे कर सीढि़यां भी चढ़ गया और प्रज्ञा बुत बनी उसे ताकती ही रह गई. हूबहू वही चेहरामोहरा… एक पल को उसे लगा कि वह सपना देख रही है, पर नहीं, यह सपना नहीं था. लेकिन आंखों में कुछ नए सपने जन्म लेने लगे थे. रोमांचित दिल एक बार फिर तेजी से धड़कने लगा था. प्रज्ञा पीछे दालान में बाल सुखाने लगी तो मन यह सोच कर रोमांचित होता रहा कि एक जोड़ी आंखें उसे चोरीचोरी निहार रही होंगी. न जाने उस चेहरे में क्या कशिश थी, प्रज्ञा उसे अब तक दिल से नहीं निकाल पाई थी. दबी हुई महत्त्वाकांक्षाएं फिर हिलोरें लेने लगीं. प्रज्ञा ने ?ाटपट चायनाश्ता तैयार किया और वरुण को बुलाने चल दी. आभार प्रकट करते हुए वरुण ने प्रज्ञा के साथ चायनाश्ता लिया.

‘‘भैयाभाभी आप की तारीफों के पुल ऐसे ही नहीं बांधते. वाकई आप का स्वभाव बहुत अच्छा है.’’

जब तक वरुण पूरी तरह व्यवस्थित नहीं हो गया, प्रज्ञा ने स्वेच्छा से उस के खानेपीने की जिम्मेदारी अपने सिर ले ली. उम्मीदों के हिंडोले में ?ालता मन अपनी ही कल्पनाओं की उड़ान देख चकित था. वरुण सामने भी आ जाता तो मुंह से बोल फूटने से पहले चेहरा आरक्त हो उठता. प्रज्ञा जानने को लालायित थी कि चाहत के जिस रंग ने उसे सिर से पांव तक सराबोर कर रखा है, उस ने वरुण पर भी कुछ असर किया है या नहीं? पर कैसे? शीघ्र ही उसे जवाब मिल गया. जिंदगी में कुछ प्रश्नों के जवाब जितनी देरी से मिलें, उतना ही अच्छा होता है. असमंजस की ढलान निराशा के गर्त से ज्यादा सुकूनदायक होती है.

प्रज्ञा उस दिन बाहर धूप में कपड़े फैला रही थी. एक जोड़ी आंखों द्वारा पीछा किए जाने का एहसास हमेशा की तरह तनमन को रोमांचित किए हुए था. उसे लगा कि ऊपर से उसे देख कर कोई फुरती से अंदर चला गया है. कुतूहल से उस ने नजरें ऊपर उठाईं तो जी धक से रह गया. वहां कोई नहीं था, पर तार पर सूखते लेडीज कपड़े देख कर उस के सीने में शूल चुभने लगे. लहूलुहान दिल को संभालते वह अंदर भागी. दो गिलास ठंडा पानी पिया, तब कहीं जा कर उखड़ी सांसें संभलीं और दिमाग कुछ सोचनेविचारने की स्थिति में आया. हो सकता है कि कोई रिश्तेदार वगैरह मिलने आए हों. अवश्य ऐसा ही होगा. वह भी जाने क्याक्या सोच लेती है?

प्रज्ञा तैयार हो कर अस्पताल निकल गई, पर मूड सारे दिन उखड़ा ही रहा. कभी मरीजों के सवाल पर ?ाल्ला उठती तो कभी नर्स को डांटने लगती. बारबार मन हो रहा था कि सीधे वरुण के सामने पहुंच जाए और उस से साफसाफ बात कर ले. लेकिन क्या बात…? सारे खयालीपुलाव तो वही पकाती आ रही है, वरुण ने तो कभी कुछ कहा ही नहीं.

ऊहापोह में घिरी प्रज्ञा शाम को घर लौटी तो अहाते में ही वरुण को एक स्मार्ट सी लड़की के साथ देख कर चौंक उठी. उसे देखते ही एक पल को दोनों ठिठक कर थोड़ा दूरदूर हो गए. फिर वरुण ने ही पहल की, ‘‘यह चैताली है. मेरी ही कंपनी में इंजीनियर है. हम दोनों यहां लिवइन में रह रहे हैं. अभी घर वालों को इस बारे में बताया नहीं है. इसीलिए भैयाभाभी के साथ न रह कर मैं यहां शिफ्ट हो गया था. अं…कुछ समय बाद उपयुक्त अवसर देख कर घर वालों को बता दूंगा. तब तक आप प्लीज…’’

‘‘मेरी ओर से आप निश्ंिचत रहिए. मु?ो किसी के फटे में टांग अड़ाने का शौक नहीं है,’’ न चाहते हुए भी प्रज्ञा का स्वर तिक्त और भारी हो उठा था. वह तीर की तरह अपने घर में घुसी और बिस्तर पर औंधी पड़ गई. रुलाई का दबा हुआ सोता सारे बांध तोड़ पूरे आवेग से बह निकला. घंटों वह बेसुध रोती रही. अंधेरा घिर आया तो उस ने उठ कर बत्ती जलाई, मुंह धोया, कौफी बनाई और बिस्तर पर आ कर बैठ गई. कितने साथी डाक्टर उस से रिश्ता जोड़ने के लिए लालायित हैं. वही पागल है, जो इस चेहरे की कशिश में इस तरह उल?ा गई है कि निकल ही नहीं पा रही है. पहले अरुण में अटकी, सचाई जान लेने के बाद भी शायद यह उस चेहरे को ही बारबार देखने का आकर्षण था कि वह नीता से मिलने के बहाने बराबर वहां आतीजाती रही. फिर वही चेहरा वरुण के रूप में सामने आया तो वह वहां अटक गई, पर अब बस… अब वह यहां नहीं रहेगी. उसे इन सब से दूर जाना होगा, वरना वह पागल हो जाएगी.

यहां समय ने प्रज्ञा का साथ दिया. उस की पोस्ंिटग दूसरी जगह हुई तो प्रज्ञा ने शिफ्ट होने में जरा भी देर न लगाई. मोह और आकर्षण के इस जाल से जितनी जल्दी निकल सके, अच्छा है. अरुण-नीता, वरुण-चैताली सभी ने भरेमन से उसे विदा किया. प्रज्ञा ने अल्पसमय में ही अपनी सहृदयता और सद्व्यवहार से सभी के दिलों में एक विशेष जगह बना ली थी.

नई जगह, नया काम और नए दोस्तों ने प्रज्ञा को सबकुछ भुलाने में बहुत मदद की. वह जितना सबकुछ भुलाने का प्रयास करती, अरुण, वरुण और नीता के फोन कौल्स उसे उतना ही सब फिर से याद दिलाते रहते. सभी अकसर उस से शिकायत करते कि वह उन्हें बिलकुल भूल गई है. कभी आगे से फोन नहीं करती. प्रज्ञा बेचारी निरुत्तर रह जाती.

फिर एक दिन प्रज्ञा को दो कार्ड और दो फोन कौल्स आए. वरुण और चैताली की शादी हो रही थी और नीता ने एक प्यारी सी गुडि़या को जन्म दिया था. उस का जन्मोत्सव था. नीता के पास उस की सास भी आई हुई थी. उन्होंने भी प्रज्ञा से बात की और दोनों अवसरों पर मौजूद रहने के लिए प्रज्ञा से बहुत अनुरोध किया. प्रज्ञा के पास इनकार की कोई वजह नहीं थी. उस ने सभी के लिए सुंदर उपहार खरीदे और नियत तिथि पर पहुंच गई. इतने समय बाद सभी को देख कर, मिल कर वह बहुत प्रसन्न हुई. अरुण, वरुण की मां तो उस का एहसान मानते नहीं थक रही थीं.

‘‘दोनों बेटाबहू तुम्हारी बहुत तारीफ करते हैं. तुम ने इन लोगों की बहुत मदद की, बहुत खयाल रखा. तुम हमेशा खुश रहो, तुम्हारी हर मुराद पूरी हो.’’

‘‘हैलो, जैसा सुना था, उस से बढ़ कर पाया… माइसैल्फ डाक्टर तरुण,’ मांजी के पीछे से निकलते हुए एक सुदर्शन नवयुवक ने प्रज्ञा की ओर हाथ बढ़ाया तो प्रज्ञा चित्रलिखित सी खड़ी रह गई. शक्लसूरत का इतना साम्य… उसे लगा कि वह एक बार फिर चक्कर खा कर गिर पड़ेगी. नहीं, अब वह नियति के किसी भी ?ांसे में आने वाली नहीं. हाथ मिलाए बिना ही वह मुड़ने को हुई तो मांजी ने आगे बढ़ कर परिचय करवाने की बागडोर संभाली, ‘यह अरुण, वरुण और उस का छोटा भाई तरुण, डाक्टर है…’’

‘‘आप के और भी कोई बेटा है या बस?’’ प्रज्ञा मानो नियति के इस खेल से उकता सी गई थी और उस में और सहने की शक्ति शेष नहीं रही थी.

‘‘बेटे तो बस ये 3 ही हैं. क्यों?’’ मां थोड़ा हैरानपरेशान थीं.

‘‘नहींनहीं, ऐसे ही पूछ रही थी,’’ अपने व्यवहार पर शर्मिंदा होते हुए प्रज्ञा चेहरे पर मुसकराहट ले आई. एक परिचित मरीज प्रज्ञा का अभिवादन कर उसे अपने भाई से मिलाने लगी. ‘‘ये हैं डा. प्रज्ञा, मैं तो उम्मीद खो चुकी थी, पर इन्होंने मेरा इलाज जारी रखा और इन के सद्प्रयासों से ही मैं मां बन पाई हूं.’’

‘‘उम्मीद का दामन हमेशा थामे रहो,’’ प्रज्ञा ने स्नेह से उस के कंधे थपथपा दिए.

मांजी दूसरे मेहमानों के साथ व्यस्त हो गईं तो तरुण उस के और पास आ गया, बोला, ‘‘मैं आप के साथ डांस कर सकता हूं?’’ मुसकराते हुए उस ने प्रज्ञा की ओर हाथ बढ़ाया. प्रज्ञा एक पल के लिए ठिठकी. फिर मुसकराते हुए गर्मजोशी से उस ने तरुण का बढ़ा हाथ थामा और डांसफ्लोर की ओर बढ़ ली.

शैली माथुर

The post उम्मीद बाकी है: क्या प्रज्ञा के प्यार को मिली मंजिल appeared first on Sarita Magazine.

May 20, 2022 at 12:01PM

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