Sunday 29 May 2022

जातपांत की बिसात: मिसेज मालती का धर्म कैसे भ्रष्ट हुआ?

अग्निहोत्री परिवार तो जैसे आसमान से गिरा और खजूर में अटक गया. सचाई को सांप के मुंह में छछूंदर सा न उगलते बन रहा था न निगलते. उस का धर्म तो भ्रष्ट हो चुका था लेकिन भ्रम बनाए रखना जरूरी था. पर कब तक और कैसे?

मिसेज मालती अग्निहोत्री ने घर आए मेहमानों का मुसकराते हुए स्वागत किया और उन्हें सोफ़े पर बैठने का इशारा करते हुए कहा–

“आइए, बैठिए.” फिर बालबच्चों के हाल चाल पूछे और किचन की ओर देख कर आवाज लगाई- “रवींद्र, जरा चायनाश्ता ले आओ और…” उन की बात अभी पूरी भी नहीं हो पाई थी की रवींद्र चायनाश्ते की ट्रे ले कर ड्राइंगरूम में प्रकट हो गया.

“अरे वाह, मालतीजी, आप का कुक तो बहुत ही एफ़िशिएंट है. बात पूरी होने के पहले ही चाय ले  आया,” मेहमान महिला ने प्रशंसनीय भाव से रवींद्र की ओर देखते हुए कहा.

“वह क्या है न मैडम, जब आप सोसाइटी में दाखिल हुए थे, तभी गार्ड का फोन आया यह बताने के लिए कि मेहमान आ गए हैं. बस, तभी हम ने चाय चढ़ा दी थी,” खीसें निपोरते हुए रवींद्र ने जवाब दिया और मालतीजी ने मुसकराते हुए उसे किचन में जाने का इशारा कर दिया.

मालतीजी के बड़े से घर में 3 पीढ़ियां एकसाथ रहती थीं. उन के सासससुर, उन के पति और  उन के 2 बच्चे. इस भरेपूरे परिवार को मालतीजी 3 नौकरों की मदद से चलाती थीं और बाकी समय अपने सोशल वर्क को देती थीं. रवींद्र के इलावा घर में 2 नौकरानियां थीं और ये सब उन के विला के पीछे बने सर्वेंट क्वार्टर में रहते थे.

रवींद्र की तारीफ उन का हर मेहमान करता था. उन की गृहस्थी की गाड़ी को निर्विघ्न चलाने में उस का बड़ा हाथ था. 10 वर्ष पहले पिता की असमय मौत और घर की आर्थिक स्थिति के जर्जर ढांचे ने उस के हाथ से स्कूल का बस्ता छीन कर कढ़ाईचमचा थमा दिया था.

मालतीजी को आज भी वह दिन याद है जब 12 साल के नन्हे से रवींद्र ने पहली बार उन के घर की घंटी बजाई थी. किचन में कुक को खाना बनाने के बारे में निर्देश देती मालतीजी ने नौकरानी को दरवाज़ा खोलने के लिए कहा था. कुछ देर में नौकरानी ने आ कर बताया था कि-

‘एक बच्चा आप की सहेली की नौकरानी के साथ आया है.’

‘ओहो, मैं तो भूल ही गई,’ वे माथे पर हाथ मार कर बोली थीं और उन्हें एक दिन पहले अपनी सहेली के साथ फोन पर हुई वार्त्ता याद हो आई थी जब उन की सहेली कह रही थी- ‘हैलो मालती, तुझ से कुछ बात करनी थी.’

‘हां बोल न, इतना क्या सोच रही है,’ मालती ने अपनेपन से कहा था.

‘वह मेरी मेड है न, मीरा,’ सहेली बोली.

‘हां, क्या हुआ उसे?’ मालती ने व्यग्रता से पूछा.

‘उसे कुछ नहीं हुआ, उस की बहन के पति का ऐक्सिडैंट में देहांत हो गया.’

‘ओ गौड, यह तो बहुत बुरा हुआ. वैसे कौनकौन हैं उस के परिवार में?’

‘परिवार में तो 12 साल का बेटा, 6 साल की बेटी और वह औरत खुद है. लेकिन कमाने वाला अकेला उस का पति ही था,’ सहेली ने बताया.

‘सो सैड, अब वह क्या करेगी?’ मालती ने संवेदना दर्शाते हुए पूछा था.

‘मैं सोच रही थी कि उसे और उस के बेटे को कहीं काम मिल जाता तो उन की जीवन की गाड़ी चल पड़ती,’ सहेली ने जरा सोच कर कहा.

‘बात तो ठीक है. और औरत तो चलो काम कर लेगी, लेकिन 12 साल का बच्चा भला क्या काम कर सकता है?’

‘वो, तू कह रही थी न, कि तेरा कुक बहुत बूढ़ा हो गया है, जल्दीजल्दी काम नहीं कर पाता लेकिन खाना तुम्हें उसी के हाथ का पसंद है?’ सहेली ने कहा.

‘हां यह तो है, लेकिन इस से बच्चे का क्या लेनादेना?’

‘क्यों न तू इस बच्चे को अपने कुक की मदद के लिए रख ले. धीरेधीरे जब तक वह रिटायर्ड होगा तब तक यह बच्चा उस से काम सीख लेगा.’

‘हां बात तो ठीक है, लेकिन तुझे तो पता है न, मेरे सासससुर जातपांत को कितना महत्त्व देते हैं. उन के रहते हुए तो हम हर किसी को किचन में घुसा नहीं सकते.’

‘उस की तू चिंता मत कर. ये लोग उच्च कोटि के ब्राह्मण हैं. यह परिवार बहुत ईमानदार और सरल है. इसीलिए तो मैं चिंतित हूं कि ब्राह्मण जात हैं ये, जाने कहां मारेमारे फिरेंगे.’

‘तू क्या उन्हें पर्सनली जानती है?’ मालती ने हैरानी से पूछा.

‘हांहां, कई बार मेरी मेड के साथ आते रहे हैं. लड़का भी बड़ा प्यारा बच्चा है. हाथ से दिए बिना किसी चीज को छूता तक नहीं है. उस की गारंटी तो मैं भी दे सकती हूं.’

‘ऐसी बात है, तो फिर ठीक है. तू उसे कल सुबह अपनी मेड के साथ मेरे यहां भेज देना. मैं बात कर लूंगी,’ मालतीजी ने हर तरह से आश्वस्त हो कर कहा.

एक दिन पहले कि ये सब बातें याद आते ही मालतीजी ने बच्चे को अंदर बुलवा लिया. फिर कुक को दी जाने वाली अपनी हिदायतों की लिस्ट खत्म कर के ड्राइंगरूम में सोफ़े पर आ कर बैठ गईं.

कुछ देर में एक सलोना सा भोलाभाला चेहरा उन के सामने आ खड़ा हुआ. साफसुथरे कपड़े और करीने से बने तेल लगे बाल देख कर उन्हें अच्छा लगा. अपनी बड़ीबड़ी आंखों में आश्चर्य और असमंजस के भाव लिए यह लड़का मालतीजी के दिल को भा गया था. उसे पास बुला कर उन्होंने प्यार से पूछा-

‘तुम्हारा नाम क्या है?’

‘रवींद्र, मां रवि बुलाती हैं,’ अपने पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदते हुए वह बोला.

‘खाना खाया?’ मालतीजी ने थोड़ा झुक कर उस की आंखों में झांकने की कोशिश करते पूछा.

‘सुबह चाय पी थी,’ उस ने एक बार नजर उठाई और फिर झुका ली.

‘काका, रवींद्र के लिए नाश्ता लाना,’ उन्होंने किचन की ओर देख कर अपने कुक को आवाज लगाई.

आलू के 2 परांठे और एक गिलास दूध खत्म करने में उसे कुछ ही मिनट लगे. मालतीजी ने उस के सिर पर हाथ फिराते हुए पूछा- ‘हमारे घर में रहोगे?’

‘हां,’ वह शरमा कर बोला. शायद उस की मां ने उसे पहले से सब समझा कर भेजा था.

‘ठीक है,’ मालतीजी ने उठते हुए कहा.

फिर अपने कुक को बुला कर उन्होंने रवींद्र को उस के सुपुर्द किया और उसे छोटेछोटे काम समझाने की हिदायत दे कर वे अपने काम में व्यस्त हो गईं.

उस की साफसफाई की आदत और हंसमुख स्वभाव ने जल्द ही घर में अपनी जगह बना ली. हालांकि शुरूशुरू में वह टमाटरप्याज काटने के अलावा कुछ खास मदद नहीं कर पाता था लेकिन धीरेधीरे वह न केवल घर के हर सदस्य के हिसाब से खाना बनाना सीख गया था बल्कि हर सदस्य के मिजाज को भी बखूबी समझने लगा था.

वक़्त के साथ किचन के काम का सारा भार बूढ़े होते कुक के हाथों से निकल कर जवान होते रवींद्र के कंधों पर आ गया था. अब तो कुक को रिटायर हुए कई साल हो चुके हैं और किचन में रवींद्र का एकछत्र राज है. यह काम वह सालों से अकेले ही बड़े सलीके से संभालता आ रहा है.

रवींद्र को अग्निहोत्री परिवार में आए एक अरसा हो चुका था. अब वह इस घर का सदस्य था. उस के बिना मालतीजी का किचन ऐसा था जैसे सिंदूर बिना सुहागन. 12 साल का मासूम बच्चा अब 22 साल के सजीले नौजवान में तबदील हो चुका था.

एक सुबह मालतीजी ने रवींद्र को बुलाया और उसे बताया कि अगले दिन सारा परिवार उन की बहन की बेटी की शादी में दूसरे शहर जा रहा है. सुबह नाश्ते के बाद सब निकलेंगे और 2 दिन बाद लौटेंगे. घर में वही सब से पुराना और जिम्मेदार व्यक्ति था, इसलिए घर का ध्यान रखना और किसी अनजान व्यक्ति को घर में न आने देना उसी की जिम्मेदारी थी.

इस खबर को सुनते ही रवींद्र के चेहरे पर एक हलकी सी मुसकान दौड़ गई जो मालती को बड़ी बेमौका लगी.  लेकिन अपने व्यस्त कार्यक्रम के चलते उन्होंने इस ओर कोई खास तवज्जुह नहीं दी. रवींद्र महीने में एक बार अपनी मां और बहन से मिलने जाता था, बाकी समय वह वहीं बना रहता था. उस के रहते मालती को कभी घर की चिंता नहीं करनी पड़ी थी.

2 दिनों बाद थकन से चूर अग्निहोत्री परिवार घर वापस लौटा. मालतीजी रवींद्र को चाय बनाने के लिए  कह कर अपने बैडरूम की ओर बढ़ गईं. वे अपने बैड पर बैठी ही थीं की उन की नजर अपने बैड के साइड में पड़े यूज़्ड कंडोम पर पड़ी तो वे ऐसे चौंक पड़ीं जैसे उन्हे सांप दिख गया हो. वे तुरंत बैड से उठ गईं और सिर पकड़ कर पास पड़ी कुरसी पर बैठ गईं. फिर खुद से ही बड़बड़ाईं-

‘ओह, यह क्या चल रहा है हमारे पीठपीछे… बैडरूम की चाबी रवींद्र के ही पास थी और कुछ दिनों से रवींद्र के रंगढंग कुछ बदले से लग रहे थे, तो यह करतूत तो उसी की है लेकिन उस के इतनी जल्दी पर निकल आएंगे, यह तो मैं ने कभी सोचा भी न था.’

फिर उन्होंने नौकरानी को आवाज लगाई और उसे तुरंत बैड की चादर, तकिए बदलने का आदेश दिया. नौकरानी ने सवालिया नजर बैड की साफ चादर पर डाली, फिर अपनी मालकिन पर डाली.

चादर बदलो, देख क्या रही हो.’ वे गुस्से में बोलीं.

फिर उन्होंने सोचा, चादर तो ये बदल देगी, लेकिन उस घटना को कौन बदलेगा जो उन की गैरहाजिरी में वहां घट चुकी थी.

मालती अपनी सासुमां के जितनी दकियानूसी और संकीर्ण विचारों वाली तो नहीं थी लेकिन इस तरह का उन्मुक्त सैक्स उन के संस्कारों के दायरे से भी बाहर था. जो पाप हो चुका है उस का वे क्या करें, समझ नहीं आ रहा था. काश, कंप्यूटर की तरह ज़िंदगी में भी कोई ‘अनडू’ का विकल्प होता.

वे रवींद्र को आवाज लगाने ही वाली थीं कि पूछूं तो सही कि उस की ये सब करने की हिम्मत कैसे हुई? उस ने यह पाप कर के अपने और हमारे कुल की मर्यादा को दांव पर कैसे लगा दिया? और ये बेशर्म लड़की कौन थी? और फिर अगर सब ठीक लगा तो उस की शादी ही करवा देंगी.

लेकिन फिर उन्होंने खुद को रोका और सोचा कि चूंकि यह पाप तो रवींद्र ने किया ही है, इस में तो कोई शक नहीं है, लेकिन यदि यह बात सीधेसीधे उस से पूछी गई, तो वह शायद सच न बताए और चौकन्ना भी हो जाए. ऐसे में बात की जड़ तक पहुंचना और भी मुश्किल हो जाएगा. इस से बेहतर तो यही होगा कि कुछ दिन अनजान बनने का नाटक करो और उसे अगली बार रंगेहाथ पकड़ो.

बस, फिर तो अगले दिन से मालती की तेज नजर रवींद्र के हर कदम पर रहने लगी. वह कब, किस से और क्या बात कर रहा है, ये सब मालती की नज़रों के कैमरे में हर समय कैद होता रहता.

एक दिन मालती अपनी बालकनी में बैठी शाम की चाय का आनंद ले रही थी. रवींद्र नीचे सब्जी लाने गया था. तभी उन की नजर नीचे पार्क में एक लड़की से बात करते हुए रवींद्र पर पड़ी.

उन्होंने तुरंत अपना दूर का चश्मा लगाया और लड़की को पहचानने की कोशिश करने लगीं. फिर लड़की को पहचानते हुए हैरानी से बोलीं-

‘यह तो सोसाइटी में झाड़ू लगाने वाली जमादारिन की बेटी है.’

जमादारिन की खूबसूरत बेटी को सोसाइटी में सभी लोग पहचानते थे लेकिन उस की खूबसूरती की गाज़ उन्हीं के घर पर गिरेगी, यह मालती ने कभी न सोचा था.

फिर उन्होंने खुद ही को समझाया, जरूरी तो नहीं कि यही वह लड़की हो. हो सकता है कोई और लड़की हो जो उन की गैरहाजिरी में उन के घर रवींद्र के साथ सोई थी और रवींद्र इस लड़की से ऐसे ही बातें कर रहा हो.

इंसान की फितरत भी कितनी अजीब है, जो बात उस की पसंद के दायरे से बाहर होती है उसे वह अपनी सोच के दायरे में भी नहीं आने देना चाहता. फिर चाहे वह सारी संभावनाओं सहित उस के सामने ही क्यों न खड़ी हो.

अब रवींद्र के बहकते कदमों का खुलासा तो हो ही चुका था, लेकिन समस्या उस के बहकते कदमों से ज्यादा यह थी कि लड़की कौन है? अगर कहीं वह जमादारिन की लड़की के साथ सोया है और उन का सारा परिवार आज भी उसी के हाथ का बना खाना कहा रहा है, तब उन के उच्च कुल के धर्म का क्या होगा?

क्या उन का धर्म भ्रष्ट हो चुका है? यही सब सोचसोच कर मालती का सिर दर्द से फटने लगा था. अब उन से रुका न गया और उन्होंने ने सारी बात अपने पति को जा बताई और फिलहाल अम्माजी से छिपाने की प्रार्थना की.

मामला संगीन था. दांव पर पैसा या फिर जान नहीं लगी थी. दांव पर लगा था उन का धर्म. उच्च कुलीन ब्राह्मण होने का जो दर्प सारे अग्निहोत्री परिवार के माथे पर दमकता था, वह आज खतरे में था.

अब रवींद्र के कदमों पर दो नहीं चार आंखों का पहरा लग गया था. लेकिन रवींद्र के बाजार जा कर सौदासुल्फ लाने के समय पर कैसे नजर रखी जाए, इस का इलाज अग्निहोत्री दंपती खोज ही रहे थे कि उस की जरूरत ही न पड़ी.

सारे सचझूठ, सारी मानना और अवमाननाओं पर फुलस्टौप लगाता रवींद्र अगले ही दिन उस जमादारिन की बेटी के साथ वरमाला पहने उन के द्वार पर आ खड़ा हुआ.

अग्निहोत्री परिवार तो जैसे आसमान से गिरा और खजूर में अटक गया. सांप के मुंह में छछूंदर सा इस सचाई को न उगलते बन रहा था न निगलते.

अब मामला पानी की तरह साफ था. रवींद्र को घर से निकालना तो लाजिमी था. लेकिन एक जमादारिन की बेटी के साथ उन के बैड पर सोना और फिर उन्हीं हाथों से उन के परिवार के लिए खाना बनाना, इस पाप का निवारण कैसे होगा…

काश, इस सचाई को भी वे बैड की चादर की तरह बदल पातीं.

उन का धर्म तो भ्रष्ट हो चुका था, लेकिन भ्रम बनाए रखना जरूरी था. पर कब तक और कैसे? जल्द ही यह बात खुल जाएगी और फिर उन की बिरादरी वाले उन का जीना हराम कर देंगे. बिरादरी में उन का उठनाबैठना बंद कर देंगे. कल को उन के बच्चों के रिश्ते करने में प्रौब्लम  खड़ी करेंगे.

‘ओह, अब हम क्या करें?’ यह सोचसोच कर उन का दिमाग घूम रहा था लेकिन समाधान कहीं दूरदूर तक नज़र नहीं आ रहा था.

क्या यह समस्या सच में रवींद्र की शादी से जुड़ी थी या अग्निहोत्री परिवार की जातपांत की ओछी सोच से?

यह समस्या किसी एक अग्निहोत्री परिवार या किसी एक रवींद्र की नहीं है. यह समस्या है हमारे पढेलिखे समाज के बीच पलती सड़ीगली धार्मिक मान्यताओं की. 21वीं सदी के इस तथाकथित आधुनिक व विकसित समाज की, जो चांद पर पहुंचना तो चाहता है लेकिन जमीनी दलदल से अपने पांव निकालना नहीं चाहता.

यह समस्या जुड़ी है सोकौल्ड स्वर्णों से, जो दलितों के विकास का नारा तो लगा सकते है लेकिन उन को अपने बराबर बिठा नहीं सकते. वे उन्हें उठाना तो चाहते हैं, लेकिन सिर्फ उतना ही जितना स्वर्णों से दबे रहते हुए संभव है.

यह समस्या शुरू होती है हमारी सदियों पुरानी वर्णव्यवस्था से और आ कर रुकती है एक बहुत बड़े प्रश्नचिन्ह पर कि आखिर क्या है दलितों का विकास और क्या मतलब है समानता के अधिकार का? इंसान और इंसान के बीच यह फर्क आखिर कब तक बना रहेगा और क्यों?

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अग्निहोत्री परिवार तो जैसे आसमान से गिरा और खजूर में अटक गया. सचाई को सांप के मुंह में छछूंदर सा न उगलते बन रहा था न निगलते. उस का धर्म तो भ्रष्ट हो चुका था लेकिन भ्रम बनाए रखना जरूरी था. पर कब तक और कैसे?

मिसेज मालती अग्निहोत्री ने घर आए मेहमानों का मुसकराते हुए स्वागत किया और उन्हें सोफ़े पर बैठने का इशारा करते हुए कहा–

“आइए, बैठिए.” फिर बालबच्चों के हाल चाल पूछे और किचन की ओर देख कर आवाज लगाई- “रवींद्र, जरा चायनाश्ता ले आओ और…” उन की बात अभी पूरी भी नहीं हो पाई थी की रवींद्र चायनाश्ते की ट्रे ले कर ड्राइंगरूम में प्रकट हो गया.

“अरे वाह, मालतीजी, आप का कुक तो बहुत ही एफ़िशिएंट है. बात पूरी होने के पहले ही चाय ले  आया,” मेहमान महिला ने प्रशंसनीय भाव से रवींद्र की ओर देखते हुए कहा.

“वह क्या है न मैडम, जब आप सोसाइटी में दाखिल हुए थे, तभी गार्ड का फोन आया यह बताने के लिए कि मेहमान आ गए हैं. बस, तभी हम ने चाय चढ़ा दी थी,” खीसें निपोरते हुए रवींद्र ने जवाब दिया और मालतीजी ने मुसकराते हुए उसे किचन में जाने का इशारा कर दिया.

मालतीजी के बड़े से घर में 3 पीढ़ियां एकसाथ रहती थीं. उन के सासससुर, उन के पति और  उन के 2 बच्चे. इस भरेपूरे परिवार को मालतीजी 3 नौकरों की मदद से चलाती थीं और बाकी समय अपने सोशल वर्क को देती थीं. रवींद्र के इलावा घर में 2 नौकरानियां थीं और ये सब उन के विला के पीछे बने सर्वेंट क्वार्टर में रहते थे.

रवींद्र की तारीफ उन का हर मेहमान करता था. उन की गृहस्थी की गाड़ी को निर्विघ्न चलाने में उस का बड़ा हाथ था. 10 वर्ष पहले पिता की असमय मौत और घर की आर्थिक स्थिति के जर्जर ढांचे ने उस के हाथ से स्कूल का बस्ता छीन कर कढ़ाईचमचा थमा दिया था.

मालतीजी को आज भी वह दिन याद है जब 12 साल के नन्हे से रवींद्र ने पहली बार उन के घर की घंटी बजाई थी. किचन में कुक को खाना बनाने के बारे में निर्देश देती मालतीजी ने नौकरानी को दरवाज़ा खोलने के लिए कहा था. कुछ देर में नौकरानी ने आ कर बताया था कि-

‘एक बच्चा आप की सहेली की नौकरानी के साथ आया है.’

‘ओहो, मैं तो भूल ही गई,’ वे माथे पर हाथ मार कर बोली थीं और उन्हें एक दिन पहले अपनी सहेली के साथ फोन पर हुई वार्त्ता याद हो आई थी जब उन की सहेली कह रही थी- ‘हैलो मालती, तुझ से कुछ बात करनी थी.’

‘हां बोल न, इतना क्या सोच रही है,’ मालती ने अपनेपन से कहा था.

‘वह मेरी मेड है न, मीरा,’ सहेली बोली.

‘हां, क्या हुआ उसे?’ मालती ने व्यग्रता से पूछा.

‘उसे कुछ नहीं हुआ, उस की बहन के पति का ऐक्सिडैंट में देहांत हो गया.’

‘ओ गौड, यह तो बहुत बुरा हुआ. वैसे कौनकौन हैं उस के परिवार में?’

‘परिवार में तो 12 साल का बेटा, 6 साल की बेटी और वह औरत खुद है. लेकिन कमाने वाला अकेला उस का पति ही था,’ सहेली ने बताया.

‘सो सैड, अब वह क्या करेगी?’ मालती ने संवेदना दर्शाते हुए पूछा था.

‘मैं सोच रही थी कि उसे और उस के बेटे को कहीं काम मिल जाता तो उन की जीवन की गाड़ी चल पड़ती,’ सहेली ने जरा सोच कर कहा.

‘बात तो ठीक है. और औरत तो चलो काम कर लेगी, लेकिन 12 साल का बच्चा भला क्या काम कर सकता है?’

‘वो, तू कह रही थी न, कि तेरा कुक बहुत बूढ़ा हो गया है, जल्दीजल्दी काम नहीं कर पाता लेकिन खाना तुम्हें उसी के हाथ का पसंद है?’ सहेली ने कहा.

‘हां यह तो है, लेकिन इस से बच्चे का क्या लेनादेना?’

‘क्यों न तू इस बच्चे को अपने कुक की मदद के लिए रख ले. धीरेधीरे जब तक वह रिटायर्ड होगा तब तक यह बच्चा उस से काम सीख लेगा.’

‘हां बात तो ठीक है, लेकिन तुझे तो पता है न, मेरे सासससुर जातपांत को कितना महत्त्व देते हैं. उन के रहते हुए तो हम हर किसी को किचन में घुसा नहीं सकते.’

‘उस की तू चिंता मत कर. ये लोग उच्च कोटि के ब्राह्मण हैं. यह परिवार बहुत ईमानदार और सरल है. इसीलिए तो मैं चिंतित हूं कि ब्राह्मण जात हैं ये, जाने कहां मारेमारे फिरेंगे.’

‘तू क्या उन्हें पर्सनली जानती है?’ मालती ने हैरानी से पूछा.

‘हांहां, कई बार मेरी मेड के साथ आते रहे हैं. लड़का भी बड़ा प्यारा बच्चा है. हाथ से दिए बिना किसी चीज को छूता तक नहीं है. उस की गारंटी तो मैं भी दे सकती हूं.’

‘ऐसी बात है, तो फिर ठीक है. तू उसे कल सुबह अपनी मेड के साथ मेरे यहां भेज देना. मैं बात कर लूंगी,’ मालतीजी ने हर तरह से आश्वस्त हो कर कहा.

एक दिन पहले कि ये सब बातें याद आते ही मालतीजी ने बच्चे को अंदर बुलवा लिया. फिर कुक को दी जाने वाली अपनी हिदायतों की लिस्ट खत्म कर के ड्राइंगरूम में सोफ़े पर आ कर बैठ गईं.

कुछ देर में एक सलोना सा भोलाभाला चेहरा उन के सामने आ खड़ा हुआ. साफसुथरे कपड़े और करीने से बने तेल लगे बाल देख कर उन्हें अच्छा लगा. अपनी बड़ीबड़ी आंखों में आश्चर्य और असमंजस के भाव लिए यह लड़का मालतीजी के दिल को भा गया था. उसे पास बुला कर उन्होंने प्यार से पूछा-

‘तुम्हारा नाम क्या है?’

‘रवींद्र, मां रवि बुलाती हैं,’ अपने पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदते हुए वह बोला.

‘खाना खाया?’ मालतीजी ने थोड़ा झुक कर उस की आंखों में झांकने की कोशिश करते पूछा.

‘सुबह चाय पी थी,’ उस ने एक बार नजर उठाई और फिर झुका ली.

‘काका, रवींद्र के लिए नाश्ता लाना,’ उन्होंने किचन की ओर देख कर अपने कुक को आवाज लगाई.

आलू के 2 परांठे और एक गिलास दूध खत्म करने में उसे कुछ ही मिनट लगे. मालतीजी ने उस के सिर पर हाथ फिराते हुए पूछा- ‘हमारे घर में रहोगे?’

‘हां,’ वह शरमा कर बोला. शायद उस की मां ने उसे पहले से सब समझा कर भेजा था.

‘ठीक है,’ मालतीजी ने उठते हुए कहा.

फिर अपने कुक को बुला कर उन्होंने रवींद्र को उस के सुपुर्द किया और उसे छोटेछोटे काम समझाने की हिदायत दे कर वे अपने काम में व्यस्त हो गईं.

उस की साफसफाई की आदत और हंसमुख स्वभाव ने जल्द ही घर में अपनी जगह बना ली. हालांकि शुरूशुरू में वह टमाटरप्याज काटने के अलावा कुछ खास मदद नहीं कर पाता था लेकिन धीरेधीरे वह न केवल घर के हर सदस्य के हिसाब से खाना बनाना सीख गया था बल्कि हर सदस्य के मिजाज को भी बखूबी समझने लगा था.

वक़्त के साथ किचन के काम का सारा भार बूढ़े होते कुक के हाथों से निकल कर जवान होते रवींद्र के कंधों पर आ गया था. अब तो कुक को रिटायर हुए कई साल हो चुके हैं और किचन में रवींद्र का एकछत्र राज है. यह काम वह सालों से अकेले ही बड़े सलीके से संभालता आ रहा है.

रवींद्र को अग्निहोत्री परिवार में आए एक अरसा हो चुका था. अब वह इस घर का सदस्य था. उस के बिना मालतीजी का किचन ऐसा था जैसे सिंदूर बिना सुहागन. 12 साल का मासूम बच्चा अब 22 साल के सजीले नौजवान में तबदील हो चुका था.

एक सुबह मालतीजी ने रवींद्र को बुलाया और उसे बताया कि अगले दिन सारा परिवार उन की बहन की बेटी की शादी में दूसरे शहर जा रहा है. सुबह नाश्ते के बाद सब निकलेंगे और 2 दिन बाद लौटेंगे. घर में वही सब से पुराना और जिम्मेदार व्यक्ति था, इसलिए घर का ध्यान रखना और किसी अनजान व्यक्ति को घर में न आने देना उसी की जिम्मेदारी थी.

इस खबर को सुनते ही रवींद्र के चेहरे पर एक हलकी सी मुसकान दौड़ गई जो मालती को बड़ी बेमौका लगी.  लेकिन अपने व्यस्त कार्यक्रम के चलते उन्होंने इस ओर कोई खास तवज्जुह नहीं दी. रवींद्र महीने में एक बार अपनी मां और बहन से मिलने जाता था, बाकी समय वह वहीं बना रहता था. उस के रहते मालती को कभी घर की चिंता नहीं करनी पड़ी थी.

2 दिनों बाद थकन से चूर अग्निहोत्री परिवार घर वापस लौटा. मालतीजी रवींद्र को चाय बनाने के लिए  कह कर अपने बैडरूम की ओर बढ़ गईं. वे अपने बैड पर बैठी ही थीं की उन की नजर अपने बैड के साइड में पड़े यूज़्ड कंडोम पर पड़ी तो वे ऐसे चौंक पड़ीं जैसे उन्हे सांप दिख गया हो. वे तुरंत बैड से उठ गईं और सिर पकड़ कर पास पड़ी कुरसी पर बैठ गईं. फिर खुद से ही बड़बड़ाईं-

‘ओह, यह क्या चल रहा है हमारे पीठपीछे… बैडरूम की चाबी रवींद्र के ही पास थी और कुछ दिनों से रवींद्र के रंगढंग कुछ बदले से लग रहे थे, तो यह करतूत तो उसी की है लेकिन उस के इतनी जल्दी पर निकल आएंगे, यह तो मैं ने कभी सोचा भी न था.’

फिर उन्होंने नौकरानी को आवाज लगाई और उसे तुरंत बैड की चादर, तकिए बदलने का आदेश दिया. नौकरानी ने सवालिया नजर बैड की साफ चादर पर डाली, फिर अपनी मालकिन पर डाली.

चादर बदलो, देख क्या रही हो.’ वे गुस्से में बोलीं.

फिर उन्होंने सोचा, चादर तो ये बदल देगी, लेकिन उस घटना को कौन बदलेगा जो उन की गैरहाजिरी में वहां घट चुकी थी.

मालती अपनी सासुमां के जितनी दकियानूसी और संकीर्ण विचारों वाली तो नहीं थी लेकिन इस तरह का उन्मुक्त सैक्स उन के संस्कारों के दायरे से भी बाहर था. जो पाप हो चुका है उस का वे क्या करें, समझ नहीं आ रहा था. काश, कंप्यूटर की तरह ज़िंदगी में भी कोई ‘अनडू’ का विकल्प होता.

वे रवींद्र को आवाज लगाने ही वाली थीं कि पूछूं तो सही कि उस की ये सब करने की हिम्मत कैसे हुई? उस ने यह पाप कर के अपने और हमारे कुल की मर्यादा को दांव पर कैसे लगा दिया? और ये बेशर्म लड़की कौन थी? और फिर अगर सब ठीक लगा तो उस की शादी ही करवा देंगी.

लेकिन फिर उन्होंने खुद को रोका और सोचा कि चूंकि यह पाप तो रवींद्र ने किया ही है, इस में तो कोई शक नहीं है, लेकिन यदि यह बात सीधेसीधे उस से पूछी गई, तो वह शायद सच न बताए और चौकन्ना भी हो जाए. ऐसे में बात की जड़ तक पहुंचना और भी मुश्किल हो जाएगा. इस से बेहतर तो यही होगा कि कुछ दिन अनजान बनने का नाटक करो और उसे अगली बार रंगेहाथ पकड़ो.

बस, फिर तो अगले दिन से मालती की तेज नजर रवींद्र के हर कदम पर रहने लगी. वह कब, किस से और क्या बात कर रहा है, ये सब मालती की नज़रों के कैमरे में हर समय कैद होता रहता.

एक दिन मालती अपनी बालकनी में बैठी शाम की चाय का आनंद ले रही थी. रवींद्र नीचे सब्जी लाने गया था. तभी उन की नजर नीचे पार्क में एक लड़की से बात करते हुए रवींद्र पर पड़ी.

उन्होंने तुरंत अपना दूर का चश्मा लगाया और लड़की को पहचानने की कोशिश करने लगीं. फिर लड़की को पहचानते हुए हैरानी से बोलीं-

‘यह तो सोसाइटी में झाड़ू लगाने वाली जमादारिन की बेटी है.’

जमादारिन की खूबसूरत बेटी को सोसाइटी में सभी लोग पहचानते थे लेकिन उस की खूबसूरती की गाज़ उन्हीं के घर पर गिरेगी, यह मालती ने कभी न सोचा था.

फिर उन्होंने खुद ही को समझाया, जरूरी तो नहीं कि यही वह लड़की हो. हो सकता है कोई और लड़की हो जो उन की गैरहाजिरी में उन के घर रवींद्र के साथ सोई थी और रवींद्र इस लड़की से ऐसे ही बातें कर रहा हो.

इंसान की फितरत भी कितनी अजीब है, जो बात उस की पसंद के दायरे से बाहर होती है उसे वह अपनी सोच के दायरे में भी नहीं आने देना चाहता. फिर चाहे वह सारी संभावनाओं सहित उस के सामने ही क्यों न खड़ी हो.

अब रवींद्र के बहकते कदमों का खुलासा तो हो ही चुका था, लेकिन समस्या उस के बहकते कदमों से ज्यादा यह थी कि लड़की कौन है? अगर कहीं वह जमादारिन की लड़की के साथ सोया है और उन का सारा परिवार आज भी उसी के हाथ का बना खाना कहा रहा है, तब उन के उच्च कुल के धर्म का क्या होगा?

क्या उन का धर्म भ्रष्ट हो चुका है? यही सब सोचसोच कर मालती का सिर दर्द से फटने लगा था. अब उन से रुका न गया और उन्होंने ने सारी बात अपने पति को जा बताई और फिलहाल अम्माजी से छिपाने की प्रार्थना की.

मामला संगीन था. दांव पर पैसा या फिर जान नहीं लगी थी. दांव पर लगा था उन का धर्म. उच्च कुलीन ब्राह्मण होने का जो दर्प सारे अग्निहोत्री परिवार के माथे पर दमकता था, वह आज खतरे में था.

अब रवींद्र के कदमों पर दो नहीं चार आंखों का पहरा लग गया था. लेकिन रवींद्र के बाजार जा कर सौदासुल्फ लाने के समय पर कैसे नजर रखी जाए, इस का इलाज अग्निहोत्री दंपती खोज ही रहे थे कि उस की जरूरत ही न पड़ी.

सारे सचझूठ, सारी मानना और अवमाननाओं पर फुलस्टौप लगाता रवींद्र अगले ही दिन उस जमादारिन की बेटी के साथ वरमाला पहने उन के द्वार पर आ खड़ा हुआ.

अग्निहोत्री परिवार तो जैसे आसमान से गिरा और खजूर में अटक गया. सांप के मुंह में छछूंदर सा इस सचाई को न उगलते बन रहा था न निगलते.

अब मामला पानी की तरह साफ था. रवींद्र को घर से निकालना तो लाजिमी था. लेकिन एक जमादारिन की बेटी के साथ उन के बैड पर सोना और फिर उन्हीं हाथों से उन के परिवार के लिए खाना बनाना, इस पाप का निवारण कैसे होगा…

काश, इस सचाई को भी वे बैड की चादर की तरह बदल पातीं.

उन का धर्म तो भ्रष्ट हो चुका था, लेकिन भ्रम बनाए रखना जरूरी था. पर कब तक और कैसे? जल्द ही यह बात खुल जाएगी और फिर उन की बिरादरी वाले उन का जीना हराम कर देंगे. बिरादरी में उन का उठनाबैठना बंद कर देंगे. कल को उन के बच्चों के रिश्ते करने में प्रौब्लम  खड़ी करेंगे.

‘ओह, अब हम क्या करें?’ यह सोचसोच कर उन का दिमाग घूम रहा था लेकिन समाधान कहीं दूरदूर तक नज़र नहीं आ रहा था.

क्या यह समस्या सच में रवींद्र की शादी से जुड़ी थी या अग्निहोत्री परिवार की जातपांत की ओछी सोच से?

यह समस्या किसी एक अग्निहोत्री परिवार या किसी एक रवींद्र की नहीं है. यह समस्या है हमारे पढेलिखे समाज के बीच पलती सड़ीगली धार्मिक मान्यताओं की. 21वीं सदी के इस तथाकथित आधुनिक व विकसित समाज की, जो चांद पर पहुंचना तो चाहता है लेकिन जमीनी दलदल से अपने पांव निकालना नहीं चाहता.

यह समस्या जुड़ी है सोकौल्ड स्वर्णों से, जो दलितों के विकास का नारा तो लगा सकते है लेकिन उन को अपने बराबर बिठा नहीं सकते. वे उन्हें उठाना तो चाहते हैं, लेकिन सिर्फ उतना ही जितना स्वर्णों से दबे रहते हुए संभव है.

यह समस्या शुरू होती है हमारी सदियों पुरानी वर्णव्यवस्था से और आ कर रुकती है एक बहुत बड़े प्रश्नचिन्ह पर कि आखिर क्या है दलितों का विकास और क्या मतलब है समानता के अधिकार का? इंसान और इंसान के बीच यह फर्क आखिर कब तक बना रहेगा और क्यों?

The post जातपांत की बिसात: मिसेज मालती का धर्म कैसे भ्रष्ट हुआ? appeared first on Sarita Magazine.

May 30, 2022 at 10:17AM

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