Thursday 12 May 2022

विद्या का मंदिर- भाग 3: क्या थी सतीश की सोच

“राहुल के पापा,” रमा तो किसी और ही दुनिया में विचरण कर रही थी. आराधना स्थलों की चकाचौंध से अभिभूत थी. सतीश का कहा तो वह ग्रहण ही न कर पाई. भावातिरेक में बोलती चली जा रही थी, “देवी मां का मंदिर इतना आलीशान हो गया, आप पहचान भी न पाओगे. सुना है मैं ने कि आसपास के लोगों ने मंदिर के लिए जमीन दान की है.”

“अच्छा, पर मैं ने तो लोगों को सरकारी स्कूलों की जमीन का अतिक्रमण करते देखा है. वहां इन की दान प्रवृत्ति कहां चली जाती है.”

“आप भी…मूड खराब कर देते हो, बात को पता नहीं कहां से कहां ले जाते हो,” तमक कर रमा बोली.

“नहीं रमा, समझ में नहीं आता कि हम सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की जर्जर स्थिति पर शर्म करें या फिर आराधना स्थलों की भव्यता पर गर्व? बात को समझने की कोशिश करो.”

“पूजास्थल भी तो हमारी शान है. तमाम स्कूल और नर्सिंग होम हैं तो शहर में.”

“हां हैं, लेकिन क्या वे सब की पहुंच में हैं?

“मंदिर में लोग दुआएं मांगने आते हैं, मन्नतें करते हैं. कितना चढ़ावा चढ़ता है… है न राहुल?” रमा ने उत्कंठा से राहुल की ओर समर्थन की अपेक्षा से देखा.

“उं…मैं तो परेशान हो गया था,” मम्मी की देवी मां की पूजा से मुक्त, चायपकौड़ों से तृप्त, सोफे पर अलसाए सा लेटे हुए, फोन पर उंगलियां घुमाते राहुल ने अनमने मन से कहा.

“दुआ तो मन के कोने में भी हो जाती है, लेकिन इलाज के लिए अस्पताल चाहिए होते हैं,” अपने विचारों में खोए सतीश चंद्र के मुंह से बरबस ही निकल गया.

“आप से तो बात करना ही बेकार है,” झुंझलाती हुई कपप्लेटों को समटते हुए रमा बोली.

“पापा, पहले मैं ने कभी नोटिस नहीं किया था यह, बस. आज जब मम्मी ने इतने सारे मंदिरों में रुकवाया, तो ध्यान गया कि जराजरा सी दूरी पर इतने धार्मिकस्थल क्यों हैं.”

“तुम्हें, इस से क्या समस्या है? ” तुनकती हुई रमा बोली.

“समस्या मुझे नहीं है, देश को है. एक बैड के न मिलने से तड़पतड़प कर प्राण गंवाने वाले समाज की प्राथमिकता कम से कम मंदिरमसजिद या चर्चमठ तो नहीं होने चाहिए,” थोड़ा चिंतित स्वर में राहुल बोला.

“दिमाग खराब हो गया इस का,” कह रमा वहां से उठ किचन में खाना बनाने चली गई.

“पापा, अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व अन्य विकसित राष्ट्रों में चर्च की संख्या बढ़ने के स्थान पर कम हो रही है, और हमारे देश में…” अब तो राहुल मोरचे पर आ गया, “यूरोप में तो कुछ चर्चों को तो अन्य कार्यों के लिए इस्तेमाल  करना शुरू कर दिया.”

“हमारे देश में लोग आज भी लोकपरलोक में ही उलझे हुए हैं,”  बेहद अफसोस से सतीश चंद्र के मुंह से निकल पड़ा.

“हमारे देश में आज भी लोग रोजगार, सड़क, बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं. विकास सिर्फ शहरों तक ही सीमित है. गांवों से लगातार हो रहा पलायन हमारे गांवों की स्थिति को दर्शाता है. सरकारी योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं. गरीबी, अशिक्षा, विस्फोटक रूप से बढ़ती जनसंख्या आज भी मुंहबाए खड़ी हैं. अंधविश्वास की जड़ें और गहराई से फैलती जा रही हैं. जिस देश में इतनी समस्याएं हों  और जहां पहले से ही इतने धार्मिकस्थल हो, वहां पर आएदिन नित नए धार्मिकस्थल का निर्माण क्या सही है?” राहुल ने पापा की ओर देखते हुए कहा.

पापाबेटे धार्मिक स्थलों के मुद्दे पर इतना मशगूल हो गए कि उन्हें समय का पता ही नहीं  चला. रमा ने जब खाने के लिए बुलाया, तब उन्हें समय का एहसास हुआ.

“पापा, मैं कह रहा था कि मंदिर…”

“उफ्फ, क्या मंदिरमंदिर लगा रखा है. ऐसा तो नहीं हैं कि हमारे देश ने कोई तरक्की नहीं की. आज घरों में गाड़ी आम बात हो गई है. क्या जमघट था गाड़ियों का देवी मां के मंदिर में,” रमा के संस्कार उसे इस महिमा जगत से निकलने की इजाजत ही नहीं दे रहे थे.

“हां, आंकड़ों में खूब तरक्की की है,” सतीश चंद्र ने खिन्नता से कहा.

“क्या मतलब?” रमा ने उत्तेजित होते हुए कहा.

“रमा, सरकारी संस्थाओं की एक आत्मा होती है, जो सामाजिक सरोकारों के प्रति हमारी संवेदनशीलता से अस्तित्व में रहती है.”

“अभी भी तो हैं सरकारी स्कूल,” रमा बेफिक्री से बोली.

“हां हैं, टिमटिमाते दीये की तरह. याद है तुम्हें ‘इंगलिश मीडियम’ मूवी का वह डायलौग जो इरफान के मुख से बेसाख्ता निकल गया था- ‘सरकारी स्कूलों की इतनी बुरी दशा तो हमारे समय में भी नहीं थी.’ हम ने बहुतकुछ खो दिया है,” एक अफसोस स्वर में उभर आया.

“आप भी क्या बात करते हो, कहां मंदिर और कहां स्कूल.”

“रमा, स्कूल ही असली मंदिर है- विद्या का मंदिर. हम ने अपनी सामाजिक संस्थाओं को कमजोर किया है. किसी चीज का न होना या मामूली सा होना अलग बात है, लेकिन किसी अच्छी चीज का खराब होना एक खतरनाक संकेत है. हमारे समय में कितनी प्रतिष्ठा हुआ करती थी सरकारी स्कूलों की. हम सब भी तो सरकारी स्कूलों में पढ़े हैं. आज थोड़ी सी आय वाला भी अपने बच्चों को इन सरकारी स्कूलों में भेजने से कतरा रहा है. ऐसे में तो हम उन को रौंदते जा रहे हैं जो इस भगदड़ में चल ही नहीं पा रहे है. बहुतकुछ करना चाहता था इन बच्चों के लिए, इन स्कूलों के लिए, किया भी है, लेकिन वह पर्याप्त नहीं था,” ढहता सरकारी स्कूलों का ढांचा, समर्पित शिक्षकों का अभाव, प्रधानाचार्य की स्कूल के प्रति उदासीनता अनायास ही सतीश चंद्र की आंखों के आगे घूमने लगे. वे खामोश हो खाना खाने लगे.

कुछ पलों तक तो डाइनिंग टेबल पर बस चम्मचों, खाने और डोंगों के खुलने व बंद होने की आवाजें ही आती रहीं.

“एक से बढ़ कर एक स्कूल खुले हुए हैं,” रमा अभी भी हथियार डालने को तैयार न थी.

“क्या वे सब की पहुंच में हैं? नहीं…हम ने ऐसे पेड़ लगा दिए हैं, जिन के फल तोड़ना हरेक के बस की बात नहीं. हम अंतिम छोर में रहने वालों के स्कूलों और अस्पतालों को लील गए.”

“ऐसा नहीं कि दुआएं कुबूल नहीं होतीं. आराधना भी सफल होती है. इन के लिए पूजास्थल तो चाहिए ही.  काश, आप कभी तो मेरे साथ, मेरी आस्था में शामिल हो जाया करो,” बोलतेबोलते रमा का स्वर भीगने लगा.

“जिस दिन तुम नहीं, राहुल गाड़ी रोक कर कहेगा, ‘जरा रुक कर चलते हैं, यहां पर एक सरकारी स्कूल देखने लायक है और यहां के बच्चे देश के विभिन्न उच्च पदों पर आसीन हैं,’ उस दिन मैं समझूंगा कि हमारी आराधना सफल हो गई और उस दिन इन धार्मिक स्थानों की भव्यता देखने को मैं अवश्य जाऊंगा,” खाने की मेज से उठते हुए सतीश चंद्र के उद्गार शब्द बन बह निकले.

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“राहुल के पापा,” रमा तो किसी और ही दुनिया में विचरण कर रही थी. आराधना स्थलों की चकाचौंध से अभिभूत थी. सतीश का कहा तो वह ग्रहण ही न कर पाई. भावातिरेक में बोलती चली जा रही थी, “देवी मां का मंदिर इतना आलीशान हो गया, आप पहचान भी न पाओगे. सुना है मैं ने कि आसपास के लोगों ने मंदिर के लिए जमीन दान की है.”

“अच्छा, पर मैं ने तो लोगों को सरकारी स्कूलों की जमीन का अतिक्रमण करते देखा है. वहां इन की दान प्रवृत्ति कहां चली जाती है.”

“आप भी…मूड खराब कर देते हो, बात को पता नहीं कहां से कहां ले जाते हो,” तमक कर रमा बोली.

“नहीं रमा, समझ में नहीं आता कि हम सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की जर्जर स्थिति पर शर्म करें या फिर आराधना स्थलों की भव्यता पर गर्व? बात को समझने की कोशिश करो.”

“पूजास्थल भी तो हमारी शान है. तमाम स्कूल और नर्सिंग होम हैं तो शहर में.”

“हां हैं, लेकिन क्या वे सब की पहुंच में हैं?

“मंदिर में लोग दुआएं मांगने आते हैं, मन्नतें करते हैं. कितना चढ़ावा चढ़ता है… है न राहुल?” रमा ने उत्कंठा से राहुल की ओर समर्थन की अपेक्षा से देखा.

“उं…मैं तो परेशान हो गया था,” मम्मी की देवी मां की पूजा से मुक्त, चायपकौड़ों से तृप्त, सोफे पर अलसाए सा लेटे हुए, फोन पर उंगलियां घुमाते राहुल ने अनमने मन से कहा.

“दुआ तो मन के कोने में भी हो जाती है, लेकिन इलाज के लिए अस्पताल चाहिए होते हैं,” अपने विचारों में खोए सतीश चंद्र के मुंह से बरबस ही निकल गया.

“आप से तो बात करना ही बेकार है,” झुंझलाती हुई कपप्लेटों को समटते हुए रमा बोली.

“पापा, पहले मैं ने कभी नोटिस नहीं किया था यह, बस. आज जब मम्मी ने इतने सारे मंदिरों में रुकवाया, तो ध्यान गया कि जराजरा सी दूरी पर इतने धार्मिकस्थल क्यों हैं.”

“तुम्हें, इस से क्या समस्या है? ” तुनकती हुई रमा बोली.

“समस्या मुझे नहीं है, देश को है. एक बैड के न मिलने से तड़पतड़प कर प्राण गंवाने वाले समाज की प्राथमिकता कम से कम मंदिरमसजिद या चर्चमठ तो नहीं होने चाहिए,” थोड़ा चिंतित स्वर में राहुल बोला.

“दिमाग खराब हो गया इस का,” कह रमा वहां से उठ किचन में खाना बनाने चली गई.

“पापा, अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व अन्य विकसित राष्ट्रों में चर्च की संख्या बढ़ने के स्थान पर कम हो रही है, और हमारे देश में…” अब तो राहुल मोरचे पर आ गया, “यूरोप में तो कुछ चर्चों को तो अन्य कार्यों के लिए इस्तेमाल  करना शुरू कर दिया.”

“हमारे देश में लोग आज भी लोकपरलोक में ही उलझे हुए हैं,”  बेहद अफसोस से सतीश चंद्र के मुंह से निकल पड़ा.

“हमारे देश में आज भी लोग रोजगार, सड़क, बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं. विकास सिर्फ शहरों तक ही सीमित है. गांवों से लगातार हो रहा पलायन हमारे गांवों की स्थिति को दर्शाता है. सरकारी योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं. गरीबी, अशिक्षा, विस्फोटक रूप से बढ़ती जनसंख्या आज भी मुंहबाए खड़ी हैं. अंधविश्वास की जड़ें और गहराई से फैलती जा रही हैं. जिस देश में इतनी समस्याएं हों  और जहां पहले से ही इतने धार्मिकस्थल हो, वहां पर आएदिन नित नए धार्मिकस्थल का निर्माण क्या सही है?” राहुल ने पापा की ओर देखते हुए कहा.

पापाबेटे धार्मिक स्थलों के मुद्दे पर इतना मशगूल हो गए कि उन्हें समय का पता ही नहीं  चला. रमा ने जब खाने के लिए बुलाया, तब उन्हें समय का एहसास हुआ.

“पापा, मैं कह रहा था कि मंदिर…”

“उफ्फ, क्या मंदिरमंदिर लगा रखा है. ऐसा तो नहीं हैं कि हमारे देश ने कोई तरक्की नहीं की. आज घरों में गाड़ी आम बात हो गई है. क्या जमघट था गाड़ियों का देवी मां के मंदिर में,” रमा के संस्कार उसे इस महिमा जगत से निकलने की इजाजत ही नहीं दे रहे थे.

“हां, आंकड़ों में खूब तरक्की की है,” सतीश चंद्र ने खिन्नता से कहा.

“क्या मतलब?” रमा ने उत्तेजित होते हुए कहा.

“रमा, सरकारी संस्थाओं की एक आत्मा होती है, जो सामाजिक सरोकारों के प्रति हमारी संवेदनशीलता से अस्तित्व में रहती है.”

“अभी भी तो हैं सरकारी स्कूल,” रमा बेफिक्री से बोली.

“हां हैं, टिमटिमाते दीये की तरह. याद है तुम्हें ‘इंगलिश मीडियम’ मूवी का वह डायलौग जो इरफान के मुख से बेसाख्ता निकल गया था- ‘सरकारी स्कूलों की इतनी बुरी दशा तो हमारे समय में भी नहीं थी.’ हम ने बहुतकुछ खो दिया है,” एक अफसोस स्वर में उभर आया.

“आप भी क्या बात करते हो, कहां मंदिर और कहां स्कूल.”

“रमा, स्कूल ही असली मंदिर है- विद्या का मंदिर. हम ने अपनी सामाजिक संस्थाओं को कमजोर किया है. किसी चीज का न होना या मामूली सा होना अलग बात है, लेकिन किसी अच्छी चीज का खराब होना एक खतरनाक संकेत है. हमारे समय में कितनी प्रतिष्ठा हुआ करती थी सरकारी स्कूलों की. हम सब भी तो सरकारी स्कूलों में पढ़े हैं. आज थोड़ी सी आय वाला भी अपने बच्चों को इन सरकारी स्कूलों में भेजने से कतरा रहा है. ऐसे में तो हम उन को रौंदते जा रहे हैं जो इस भगदड़ में चल ही नहीं पा रहे है. बहुतकुछ करना चाहता था इन बच्चों के लिए, इन स्कूलों के लिए, किया भी है, लेकिन वह पर्याप्त नहीं था,” ढहता सरकारी स्कूलों का ढांचा, समर्पित शिक्षकों का अभाव, प्रधानाचार्य की स्कूल के प्रति उदासीनता अनायास ही सतीश चंद्र की आंखों के आगे घूमने लगे. वे खामोश हो खाना खाने लगे.

कुछ पलों तक तो डाइनिंग टेबल पर बस चम्मचों, खाने और डोंगों के खुलने व बंद होने की आवाजें ही आती रहीं.

“एक से बढ़ कर एक स्कूल खुले हुए हैं,” रमा अभी भी हथियार डालने को तैयार न थी.

“क्या वे सब की पहुंच में हैं? नहीं…हम ने ऐसे पेड़ लगा दिए हैं, जिन के फल तोड़ना हरेक के बस की बात नहीं. हम अंतिम छोर में रहने वालों के स्कूलों और अस्पतालों को लील गए.”

“ऐसा नहीं कि दुआएं कुबूल नहीं होतीं. आराधना भी सफल होती है. इन के लिए पूजास्थल तो चाहिए ही.  काश, आप कभी तो मेरे साथ, मेरी आस्था में शामिल हो जाया करो,” बोलतेबोलते रमा का स्वर भीगने लगा.

“जिस दिन तुम नहीं, राहुल गाड़ी रोक कर कहेगा, ‘जरा रुक कर चलते हैं, यहां पर एक सरकारी स्कूल देखने लायक है और यहां के बच्चे देश के विभिन्न उच्च पदों पर आसीन हैं,’ उस दिन मैं समझूंगा कि हमारी आराधना सफल हो गई और उस दिन इन धार्मिक स्थानों की भव्यता देखने को मैं अवश्य जाऊंगा,” खाने की मेज से उठते हुए सतीश चंद्र के उद्गार शब्द बन बह निकले.

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May 07, 2022 at 09:57PM

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