Tuesday 17 May 2022

आस्था का व्यापार

रमेश बाबू ने दफ्तर में घुसते ही सब को ताजा खबर यों सुनाई, ‘‘नरेंद्र को उस के बीवी-बच्चों ने घर से निकाल दिया.’’

‘‘3 दिन से दफ्तर भी नहीं आया,’’ राजेश ने बात आगे बढ़ाई.‘‘यह तो होना ही  था. गलत काम का परिणाम भी गलत ही होता है,’’ सुनील ने अपना ज्ञान प्रदर्शित किया.

‘‘आजकल नरेंद्र कहां रह रहा है?’’ सब ने एक स्वर में जिज्ञासा प्रकट की.‘‘रहेगा कहां? सुनने में आया है कि वह आजकल एक ब्राह्मणी के चक्कर में था. उसी के यहां रह रहा है.  त्रिपाठी का पड़ोसी बता रहा था कि उसी विधवा ब्राह्मणी के कारण घर में झगड़ा हुआ.’’‘‘यार, नरेंद्र ने तो हद ही कर दी, घर में जवान बेटेबहू होते हुए यह सब क्या अच्छा लगता है?’’ जितने मुंह उतनी बातें.

मैं अपनी फाइलों में सिर गड़ाए सब की बातें सुन रहा था. मुझे उन की बातों से जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ. मैं तो बहुत पहले से उस की करतूतों से परिचित था. शर्मा, ये लोग तो दफ्तर में बहुत बाद में आए. मैं ने और नरेंद्र ने बहुत लंबा समय साथसाथ बिताया है.

उन सब की बातें सुन कर मैं अतीत में खो गया.तब मैं दफ्तर में नयानया आया था. कम उम्र, अनुभव शून्य. मैं बड़ा घबराया सा रहता था. काम में गलतियां होना आम बात थी. उस समय दफ्तर में 4-5 लोग ही थे. 3 बाबू, 1 बड़े बाबू तथा 1 चपरासी. तब नरेंद्र ने मुझे काम करना सिखाया. मुझ में आत्मविश्वास जगाया. तभी से मैं उन का सम्मान करने लगा.

कई बार वे मुझे अपने घर भी ले गए. बहुत ही साधारण रहनसहन था उन का. बिलकुल एक दफ्तर के बाबू की तरह. पूरे महीने काम करने पर जो तनख्वाह मिलती थी, वह सैकड़े में ही होती थी. आजकल की तरह उस समय वेतन हजारों में कहां मिलता था? खींचतान कर महीना पूरा होता था. उस समय दफ्तरों के बाबुओं की स्थिति बड़ी दयनीय थी. नरेंद्रजी का बड़ा परिवार था. सब बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाना तो दूर रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करना भी कठिन था. उन के 2 लड़के 10वीं पास कर के दुकानों में नौकरी करने लगे थे. जवान लड़की दहेज के अभाव के कारण घर में कुंआरी बैठी थी. उन्हीं दिनों नरेंद्रजी के रहनसहन में एक बदलाव दिखा. वे पैंटशर्ट के स्थान पर धोतीकुरता पहन कर दफ्तर आने लगे. माथे पर बड़ा सा चंदन का टीका लगाए रखते. पूछने पर कहने लगे, ‘हमारे घर के पास ही एक पुजारीजी का?घर है. वे वृद्ध हैं, अत: सुबह उठ कर उन की मदद कर देता हूं तो वे मुझे प्रेम से यह टीका लगा देते हैं. इस में मेरा भी लाभ है, उन का भी लाभ है.’ इतना बता कर वे मुसकराने लगे.

इस के बाद से ही धीरेधीरे उन के विषय में कई समाचार छनछन कर दफ्तर में आने लगे. वे अधिकतर अवकाश पर रहने लगे. कोई आ कर बताता कि नरेंद्रजी पुजारी के घर के मालिक बन गए हैं. कभी सुनने में आता कि बूढ़ा पुजारी लापता हो गया है. जितने मुंह उतनी बातें.

कई दिन बाद नरेंद्रजी दफ्तर आए. बड़े थकेथके से लग रहे थे. पूछने पर कहने लगे, ‘पुजारीजी बीमार हो गए. उन्हीं की सेवाटहल में लगा हुआ था. पिछले सप्ताह उन की मृत्यु हो गई. मृत्यु से पूर्व उन्होंने मंदिर की सारी जिम्मेदारी मेरे कंधों पर डाल दी.

‘अब तो जैसे भी होगा मुझे ही यह कार्य संभालना है. इसी कारण दफ्तर नहीं आ पाया. कुछ भी समझ में नहीं आ पा रहा है कि दफ्तर एवं मंदिर दोनों का काम कैसे संभाल पाऊंगा.’

‘सब संभल जाएगा आप परेशान न हो,’ मैं ने उन्हें सांत्वना दी. ऐसे ही कई माह बीत गए. एक दिन सुनील ने आ कर बताया, ‘यार, यह नरेंद्र बड़ा चमत्कारी निकला. मंदिर में तो रौनक लगी ही रहती है. मंदिर के आसपास ‘मंगल बाजार’ लगने लगा है. बाजार का सारा नियंत्रण नरेंद्र के हाथ में है. वे दुकानदारों से कमीशन वसूलते हैं. पैसा बरस रहा है.’

कोई समाचार लाता, ‘अरे, पुजारी अपनी मौत थोड़े ही मरा है. उसे तो नरेंद्र ने कागजों पर अंगूठा लगवा कर मार डाला.’

क्या सच है, क्या झूठ, कुछ समझ में नहीं आ रहा था. जितने मुंह उतनी बातें.

एक दिन रास्ते से पकड़ कर नरेंद्रजी मुझे मंदिर ले गए और पूरा मंदिर दिखाया. मंदिर परिसर में पुजारी का आवास देख कर मैं चकित रह गया. पांचसितारा होटलों वाली सभी सुविधाएं वहां मौजूद थीं. वहां का वैभव देख कर मुझे जरा भी संशय नहीं रहा कि दफ्तर के लोग झूठी अफवाएं फैला रहे हैं. ‘करोड़ों की संपत्ति क्या कभी सही रास्ते से प्राप्त होती है?’ मैं भी सोचने लगा.

सोने की मोटी चेन, सिल्क का कुरतापाजामा, पशमीना शाल और माथे पर लाल चंदन का तिलक. इसी वेशभूषा में अब नरेंद्रजी नजर आते थे. पत्नी भी सोने के भारीभारी गहने पहन कर सुबहशाम 108 दीपकों की आरती करती. साथ में प्रसाद का थाल लिए बच्चे, भक्तों की भीड़ को संभाल रहे होते. हनुमान की असीम कृपा चढ़ावे के रूप में नरेंद्रजी के आंगन में बरस रही थी.

उन के दोनों बेटों की पत्नियां संपन्न परिवारों से आई थीं. 8वीं पास पुत्री का विवाह बनारस के संपन्न कर्मकांडी ब्राह्मण के इंजीनियर लड़के से हो गया था. बड़ा सुखमय जीवन व्यतीत कर रहा था उन का परिवार.

एक दिन दफ्तर आ कर नरेंद्रजी कहने लगे, अंगरेजी में एक विज्ञापन का मसौदा बना दो. जैसा प्राय: दक्षिण भारत के मंदिरों का इधर के अखबारों में छपता है : भगवान के चरणों में दक्षिणा भेजिए, दुखों से मुक्ति पाइए. बदले में मनीआर्डर प्राप्त होने पर कष्टों से मुक्ति के लिए भगवान के श्रीचरणों का प्रसाद एवं भभूति पार्सल द्वारा भेजी जाएगी. इस प्रकार का विज्ञापन लिखने को उन्होंने मुझ से कहा. मैं ने उन के निर्देशानुसार विज्ञापन का प्रारूप तैयार कर के उन्हें दे दिया.

जल्द ही उन का विज्ञापन दक्षिण भारत के अखबारों में छपने लगा. परिणामस्वरूप 100, 200 एवं 500 रुपए के मनीआर्डर प्राप्त होने लगे. आशीर्वाद स्वरूप नरेंद्रजी बजरंगबली का लाल चोला, सिंदूर, भक्तों को प्रसाद भिजवाने लगे. पूरी रात बैठ कर परिवार के लोग प्रसाद के पैकेट बनाते. हजारों की संख्या में मनीआर्डर आ रहे थे, उसी अनुपात में प्रसाद भेजा जा रहा था. जैसी दक्षिणा वैसा प्रसाद.

वे प्राय: मुझ से कहते कि इनसान को धोखा देना कितना सरल है. दुनिया में दुखी इनसान भरे पड़े हैं. हर दुखी व्यक्ति बस, एक बार मेरे झांसे में आ जाए, इस से ज्यादा की आवश्यकता नहीं है मुझे.

कई वर्ष तक उन का यह धंधा निर्बाध चलता रहा. आखिर में उन्होंने जब मनीआर्डर के बदले प्रसाद भेजना बंद कर दिया तब यह सिलसिला स्वत: ही बंद हो गया. उस समय तक वे अंधभक्तों को काफी लूट चुके थे.

नरेंद्रजी की बातें कभीकभी मुझे वितृष्णा से भर देतीं. मैं सोचता, ‘धर्म की आड़ में यह कैसा खेल खेला जा रहा है? आस्था के नाम पर लूटखसोट का व्यापार सदियों से चला आ रहा है. पाखंडी पंडेपुजारी बड़ी सफाई से इस खेल को खेल रहे हैं. दुखों में डूबा इनसान शांति पाने के लिए अपना सब कुछ लुटाने को तैयार रहता है. इसी का फायदा नरेंद्रजी जैसे अवसरवादी ब्राह्मण उठा रहे हैं.

नरेंद्रजी का रिटायरमैंट करीब आ रहा था. वे आजकल बहुत कम दफ्तर आते. उन्होंने अपने और भी काम फैला लिए थे. जैसे उन्होंने ब्राह्मणों की एक टीम बना ली थी जो घरघर जा कर पाठहवन आदि करवाते थे. तेरहवीं एवं बरसी पर जो दक्षिणा मिलती थी उस का बड़ा हिस्सा कमीशन के रूप में त्रिपाठीजी को मिलता था.

एक दिन दफ्तर में आ कर उन्होंने बताया कि उन्होंने जन्मपत्री बनाने का काम भी शुरू कर दिया है. कोई बनवाना चाहे तो बताना.

‘आप न तो संस्कृत जानते हैं न ज्योतिषशास्त्र, तब आप जन्मपत्री कैसे बना लेते हैं?’ मैं ने उत्सुकता से पूछा.

‘मैं एक ज्योतिषी से कमीशन पर जन्मपत्रियां बनवाता हूं. एक जन्मपत्री का 100 रुपए मुझे मिलता है. 25 रुपए पंडित को दे देता हूं. 4-5 जन्मपत्रियां हर रोज बनने के लिए आ जाती हैं. पूजापाठ के अन्य काम भी मंदिर के द्वारा ही आते हैं जो मैं अन्य ब्राह्मणों में बांट देता हूं. मेरा भी फायदा, उन का भी फायदा. है न फायदा ही फायदा,’ वे मुसकराने लगे.

उन की बातों से मैं स्तब्ध रह गया. इधर दफ्तर के लोग उन के निर्वासन को ले कर चर्चा करने में व्यस्त थे. मैं वर्तमान में लौट आया.

‘‘जिस विधवा ब्राह्मणी के कारण नरेंद्रजी घर से निकाले गए उस किस्से का ज्ञान मुझे बहुत पहले से था. वह विधवा और कोई नहीं, उन के परम मित्र की पत्नी है. यह बात भी नरेंद्रजी ने बहुत पहले मुझे बताई थी.

रघुवर दयाल मिश्र नाम था उन का. वे बहुत ही संपन्न परिवार से थे. संतानहीनता का दुख उन्हें चैन से न बैठने देता था. संतान के लिए क्या कुछ नहीं किया उन्होंने. पूजापाठ, तीर्थ, दानव्रत सभी कुछ कर चुके थे. संतान नहीं होनी थी, सो नहीं हुई. इसी दुख के कारण उन्होंने चारपाई पकड़ ली. बीमारी शारीरिक से अधिक मानसिक थी. कोई भी दवा कारगर नहीं हुई. रोग असाध्य हो गया जो उन की जान ले कर गया. उस समय नरेंद्रजी को मित्र की विधवा से बहुत सहानुभूति हुई. उन्हें सांत्वना देने वे प्राय: उन के घर जाते. सांत्वना कब आकर्षण में बदल गई, यह दोनों को ही बहुत बाद में पता चला.

दोस्त की पत्नी उन पर इतना विश्वास करने लगी कि उस ने अपना आलीशान मकान एवं जमाजमाया व्यवसाय नरेंद्रजी के नाम कर दिया. लोगों का क्या है वे तो यह भी कहने से नहीं चूके कि प्यार की आड़ में नरेंद्र ने विधवा को लूट लिया.

लोगों की बात गलत भी नहीं थी क्योंकि आजकल वे ज्यादातर उसी के घर पर रहते थे. पत्नी एवं बच्चों को उन का आचरण नागवार लगता था. आएदिन घर में कलह होती थी. उसी कलह का परिणाम था कि नरेंद्रजी को घर से निकाला गया. दरअसल, कोई भी स्त्री पति के सौ अपराध माफ कर सकती है पर अपने प्रति की गई उस की बेवफाई नहीं सह सकती.

‘अब क्या होगा नरेंद्र का?’ यह प्रश्न दफ्तर में सभी की जबान पर था. मैं चूंकि उन के काफी करीब था इसलिए इस का आभास मुझे पहले से ही था. परिणति तो अब जा कर हुई है.

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रमेश बाबू ने दफ्तर में घुसते ही सब को ताजा खबर यों सुनाई, ‘‘नरेंद्र को उस के बीवी-बच्चों ने घर से निकाल दिया.’’

‘‘3 दिन से दफ्तर भी नहीं आया,’’ राजेश ने बात आगे बढ़ाई.‘‘यह तो होना ही  था. गलत काम का परिणाम भी गलत ही होता है,’’ सुनील ने अपना ज्ञान प्रदर्शित किया.

‘‘आजकल नरेंद्र कहां रह रहा है?’’ सब ने एक स्वर में जिज्ञासा प्रकट की.‘‘रहेगा कहां? सुनने में आया है कि वह आजकल एक ब्राह्मणी के चक्कर में था. उसी के यहां रह रहा है.  त्रिपाठी का पड़ोसी बता रहा था कि उसी विधवा ब्राह्मणी के कारण घर में झगड़ा हुआ.’’‘‘यार, नरेंद्र ने तो हद ही कर दी, घर में जवान बेटेबहू होते हुए यह सब क्या अच्छा लगता है?’’ जितने मुंह उतनी बातें.

मैं अपनी फाइलों में सिर गड़ाए सब की बातें सुन रहा था. मुझे उन की बातों से जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ. मैं तो बहुत पहले से उस की करतूतों से परिचित था. शर्मा, ये लोग तो दफ्तर में बहुत बाद में आए. मैं ने और नरेंद्र ने बहुत लंबा समय साथसाथ बिताया है.

उन सब की बातें सुन कर मैं अतीत में खो गया.तब मैं दफ्तर में नयानया आया था. कम उम्र, अनुभव शून्य. मैं बड़ा घबराया सा रहता था. काम में गलतियां होना आम बात थी. उस समय दफ्तर में 4-5 लोग ही थे. 3 बाबू, 1 बड़े बाबू तथा 1 चपरासी. तब नरेंद्र ने मुझे काम करना सिखाया. मुझ में आत्मविश्वास जगाया. तभी से मैं उन का सम्मान करने लगा.

कई बार वे मुझे अपने घर भी ले गए. बहुत ही साधारण रहनसहन था उन का. बिलकुल एक दफ्तर के बाबू की तरह. पूरे महीने काम करने पर जो तनख्वाह मिलती थी, वह सैकड़े में ही होती थी. आजकल की तरह उस समय वेतन हजारों में कहां मिलता था? खींचतान कर महीना पूरा होता था. उस समय दफ्तरों के बाबुओं की स्थिति बड़ी दयनीय थी. नरेंद्रजी का बड़ा परिवार था. सब बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाना तो दूर रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करना भी कठिन था. उन के 2 लड़के 10वीं पास कर के दुकानों में नौकरी करने लगे थे. जवान लड़की दहेज के अभाव के कारण घर में कुंआरी बैठी थी. उन्हीं दिनों नरेंद्रजी के रहनसहन में एक बदलाव दिखा. वे पैंटशर्ट के स्थान पर धोतीकुरता पहन कर दफ्तर आने लगे. माथे पर बड़ा सा चंदन का टीका लगाए रखते. पूछने पर कहने लगे, ‘हमारे घर के पास ही एक पुजारीजी का?घर है. वे वृद्ध हैं, अत: सुबह उठ कर उन की मदद कर देता हूं तो वे मुझे प्रेम से यह टीका लगा देते हैं. इस में मेरा भी लाभ है, उन का भी लाभ है.’ इतना बता कर वे मुसकराने लगे.

इस के बाद से ही धीरेधीरे उन के विषय में कई समाचार छनछन कर दफ्तर में आने लगे. वे अधिकतर अवकाश पर रहने लगे. कोई आ कर बताता कि नरेंद्रजी पुजारी के घर के मालिक बन गए हैं. कभी सुनने में आता कि बूढ़ा पुजारी लापता हो गया है. जितने मुंह उतनी बातें.

कई दिन बाद नरेंद्रजी दफ्तर आए. बड़े थकेथके से लग रहे थे. पूछने पर कहने लगे, ‘पुजारीजी बीमार हो गए. उन्हीं की सेवाटहल में लगा हुआ था. पिछले सप्ताह उन की मृत्यु हो गई. मृत्यु से पूर्व उन्होंने मंदिर की सारी जिम्मेदारी मेरे कंधों पर डाल दी.

‘अब तो जैसे भी होगा मुझे ही यह कार्य संभालना है. इसी कारण दफ्तर नहीं आ पाया. कुछ भी समझ में नहीं आ पा रहा है कि दफ्तर एवं मंदिर दोनों का काम कैसे संभाल पाऊंगा.’

‘सब संभल जाएगा आप परेशान न हो,’ मैं ने उन्हें सांत्वना दी. ऐसे ही कई माह बीत गए. एक दिन सुनील ने आ कर बताया, ‘यार, यह नरेंद्र बड़ा चमत्कारी निकला. मंदिर में तो रौनक लगी ही रहती है. मंदिर के आसपास ‘मंगल बाजार’ लगने लगा है. बाजार का सारा नियंत्रण नरेंद्र के हाथ में है. वे दुकानदारों से कमीशन वसूलते हैं. पैसा बरस रहा है.’

कोई समाचार लाता, ‘अरे, पुजारी अपनी मौत थोड़े ही मरा है. उसे तो नरेंद्र ने कागजों पर अंगूठा लगवा कर मार डाला.’

क्या सच है, क्या झूठ, कुछ समझ में नहीं आ रहा था. जितने मुंह उतनी बातें.

एक दिन रास्ते से पकड़ कर नरेंद्रजी मुझे मंदिर ले गए और पूरा मंदिर दिखाया. मंदिर परिसर में पुजारी का आवास देख कर मैं चकित रह गया. पांचसितारा होटलों वाली सभी सुविधाएं वहां मौजूद थीं. वहां का वैभव देख कर मुझे जरा भी संशय नहीं रहा कि दफ्तर के लोग झूठी अफवाएं फैला रहे हैं. ‘करोड़ों की संपत्ति क्या कभी सही रास्ते से प्राप्त होती है?’ मैं भी सोचने लगा.

सोने की मोटी चेन, सिल्क का कुरतापाजामा, पशमीना शाल और माथे पर लाल चंदन का तिलक. इसी वेशभूषा में अब नरेंद्रजी नजर आते थे. पत्नी भी सोने के भारीभारी गहने पहन कर सुबहशाम 108 दीपकों की आरती करती. साथ में प्रसाद का थाल लिए बच्चे, भक्तों की भीड़ को संभाल रहे होते. हनुमान की असीम कृपा चढ़ावे के रूप में नरेंद्रजी के आंगन में बरस रही थी.

उन के दोनों बेटों की पत्नियां संपन्न परिवारों से आई थीं. 8वीं पास पुत्री का विवाह बनारस के संपन्न कर्मकांडी ब्राह्मण के इंजीनियर लड़के से हो गया था. बड़ा सुखमय जीवन व्यतीत कर रहा था उन का परिवार.

एक दिन दफ्तर आ कर नरेंद्रजी कहने लगे, अंगरेजी में एक विज्ञापन का मसौदा बना दो. जैसा प्राय: दक्षिण भारत के मंदिरों का इधर के अखबारों में छपता है : भगवान के चरणों में दक्षिणा भेजिए, दुखों से मुक्ति पाइए. बदले में मनीआर्डर प्राप्त होने पर कष्टों से मुक्ति के लिए भगवान के श्रीचरणों का प्रसाद एवं भभूति पार्सल द्वारा भेजी जाएगी. इस प्रकार का विज्ञापन लिखने को उन्होंने मुझ से कहा. मैं ने उन के निर्देशानुसार विज्ञापन का प्रारूप तैयार कर के उन्हें दे दिया.

जल्द ही उन का विज्ञापन दक्षिण भारत के अखबारों में छपने लगा. परिणामस्वरूप 100, 200 एवं 500 रुपए के मनीआर्डर प्राप्त होने लगे. आशीर्वाद स्वरूप नरेंद्रजी बजरंगबली का लाल चोला, सिंदूर, भक्तों को प्रसाद भिजवाने लगे. पूरी रात बैठ कर परिवार के लोग प्रसाद के पैकेट बनाते. हजारों की संख्या में मनीआर्डर आ रहे थे, उसी अनुपात में प्रसाद भेजा जा रहा था. जैसी दक्षिणा वैसा प्रसाद.

वे प्राय: मुझ से कहते कि इनसान को धोखा देना कितना सरल है. दुनिया में दुखी इनसान भरे पड़े हैं. हर दुखी व्यक्ति बस, एक बार मेरे झांसे में आ जाए, इस से ज्यादा की आवश्यकता नहीं है मुझे.

कई वर्ष तक उन का यह धंधा निर्बाध चलता रहा. आखिर में उन्होंने जब मनीआर्डर के बदले प्रसाद भेजना बंद कर दिया तब यह सिलसिला स्वत: ही बंद हो गया. उस समय तक वे अंधभक्तों को काफी लूट चुके थे.

नरेंद्रजी की बातें कभीकभी मुझे वितृष्णा से भर देतीं. मैं सोचता, ‘धर्म की आड़ में यह कैसा खेल खेला जा रहा है? आस्था के नाम पर लूटखसोट का व्यापार सदियों से चला आ रहा है. पाखंडी पंडेपुजारी बड़ी सफाई से इस खेल को खेल रहे हैं. दुखों में डूबा इनसान शांति पाने के लिए अपना सब कुछ लुटाने को तैयार रहता है. इसी का फायदा नरेंद्रजी जैसे अवसरवादी ब्राह्मण उठा रहे हैं.

नरेंद्रजी का रिटायरमैंट करीब आ रहा था. वे आजकल बहुत कम दफ्तर आते. उन्होंने अपने और भी काम फैला लिए थे. जैसे उन्होंने ब्राह्मणों की एक टीम बना ली थी जो घरघर जा कर पाठहवन आदि करवाते थे. तेरहवीं एवं बरसी पर जो दक्षिणा मिलती थी उस का बड़ा हिस्सा कमीशन के रूप में त्रिपाठीजी को मिलता था.

एक दिन दफ्तर में आ कर उन्होंने बताया कि उन्होंने जन्मपत्री बनाने का काम भी शुरू कर दिया है. कोई बनवाना चाहे तो बताना.

‘आप न तो संस्कृत जानते हैं न ज्योतिषशास्त्र, तब आप जन्मपत्री कैसे बना लेते हैं?’ मैं ने उत्सुकता से पूछा.

‘मैं एक ज्योतिषी से कमीशन पर जन्मपत्रियां बनवाता हूं. एक जन्मपत्री का 100 रुपए मुझे मिलता है. 25 रुपए पंडित को दे देता हूं. 4-5 जन्मपत्रियां हर रोज बनने के लिए आ जाती हैं. पूजापाठ के अन्य काम भी मंदिर के द्वारा ही आते हैं जो मैं अन्य ब्राह्मणों में बांट देता हूं. मेरा भी फायदा, उन का भी फायदा. है न फायदा ही फायदा,’ वे मुसकराने लगे.

उन की बातों से मैं स्तब्ध रह गया. इधर दफ्तर के लोग उन के निर्वासन को ले कर चर्चा करने में व्यस्त थे. मैं वर्तमान में लौट आया.

‘‘जिस विधवा ब्राह्मणी के कारण नरेंद्रजी घर से निकाले गए उस किस्से का ज्ञान मुझे बहुत पहले से था. वह विधवा और कोई नहीं, उन के परम मित्र की पत्नी है. यह बात भी नरेंद्रजी ने बहुत पहले मुझे बताई थी.

रघुवर दयाल मिश्र नाम था उन का. वे बहुत ही संपन्न परिवार से थे. संतानहीनता का दुख उन्हें चैन से न बैठने देता था. संतान के लिए क्या कुछ नहीं किया उन्होंने. पूजापाठ, तीर्थ, दानव्रत सभी कुछ कर चुके थे. संतान नहीं होनी थी, सो नहीं हुई. इसी दुख के कारण उन्होंने चारपाई पकड़ ली. बीमारी शारीरिक से अधिक मानसिक थी. कोई भी दवा कारगर नहीं हुई. रोग असाध्य हो गया जो उन की जान ले कर गया. उस समय नरेंद्रजी को मित्र की विधवा से बहुत सहानुभूति हुई. उन्हें सांत्वना देने वे प्राय: उन के घर जाते. सांत्वना कब आकर्षण में बदल गई, यह दोनों को ही बहुत बाद में पता चला.

दोस्त की पत्नी उन पर इतना विश्वास करने लगी कि उस ने अपना आलीशान मकान एवं जमाजमाया व्यवसाय नरेंद्रजी के नाम कर दिया. लोगों का क्या है वे तो यह भी कहने से नहीं चूके कि प्यार की आड़ में नरेंद्र ने विधवा को लूट लिया.

लोगों की बात गलत भी नहीं थी क्योंकि आजकल वे ज्यादातर उसी के घर पर रहते थे. पत्नी एवं बच्चों को उन का आचरण नागवार लगता था. आएदिन घर में कलह होती थी. उसी कलह का परिणाम था कि नरेंद्रजी को घर से निकाला गया. दरअसल, कोई भी स्त्री पति के सौ अपराध माफ कर सकती है पर अपने प्रति की गई उस की बेवफाई नहीं सह सकती.

‘अब क्या होगा नरेंद्र का?’ यह प्रश्न दफ्तर में सभी की जबान पर था. मैं चूंकि उन के काफी करीब था इसलिए इस का आभास मुझे पहले से ही था. परिणति तो अब जा कर हुई है.

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May 17, 2022 at 09:00AM

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