Monday 16 May 2022

कठघरे में प्यार- भाग 3: प्रो. विवेक शास्त्री के साथ क्या हुआ

“एक बात कहना चाहता हूं. आई होप, तुम मुझे गलत नहीं समझोगी,” एक दिन पिज्जा हट में बैठे हुए पिज्जा कुतरते हुए रोमेश ने इतना कहा तो रीतिका चौंकी. बेबाकी से हर बात कहने वाला इंसान आज अनुमति ले रहा था. यह सच था कि रोमेश का साथ उसे भाने लगा था और औपचारिकताएं की सीमा भी उन के बीच टूट चुकी थीं, इसलिए आप से तुम पर आ गए थे.

“बोलो ना, तुम कब से हिचकिचाने लगे?” रीतिका हंसी.

“तुम्हें ले कर एक लाइकिंग मन में हो गई है. आई नो यू आर मैरिड. एंड आई बिलीव हैप्पिली मैरिड. आई डोंट वांट एनी कमिटमैंट फ्रौम यू एंड प्लीज मुझ से दोस्ती मत तोड़ देना.”

रीतिका चुप रही. मिंट मौकटेल का सिप लेती रही.

“कुछ कहोगी नहीं?”

“क्या कहूं? कि आई ऑल्सो लाइक यू? बहुत बचकाना नहीं लगेगा क्या?” रोमेश उस की इस बात का जवाब देते, उस से पहले ही वह आगे बोल उठी, “अच्छा चलो, बचकाना लगने दो, मुझे भी तुम अच्छे लगते हो, इसीलिए मैं इस समय यहां बैठी हुई हूं, वरना केवल दोस्ती की डोर इतनी दूर तक नहीं खिंच पाती है.” और रीतिका ने रोमेश के हाथ पर अपना हाथ रख दिया. “पर प्लीज, इसे प्यार का नाम मत देना. बड़ी खतरनाक चीज है वह.” अपनी आगे झूल आई लट को पीछे धकलते हुए वह बोली.

“कोई नाम देना जरूरी तो नहीं हर रिश्ते को. एहसासों का समुद्र, बस, बहते रहना चाहिए बीच में. किसी बंधन की जरूरत नहीं,” रोमेश थोड़े पोएटिक हो गए थे.

समुद्र में कभीकभी उफान आ ही जाता है, फिर उन दोनों के बीच भी उफान आना स्वाभाविक ही था, क्योंकि दोनों एकदूसरे का साथ पाने को बेचैन रहते थे. दो दिन के लिए प्रो. विवेक शास्त्री दूसरे शहर में अपना नाटक मंचन करने गए थे. रीतिका एक रात रोमेश के घर ही रुक गई. रोमेश के स्पर्श से भीग जब वह लौटी तो मन में कोई ग्लानि नहीं थी उस के, पर एक डर था कि विवेक को पता लगा तो उन की जिंदगी में तूफान आ सकता है. जो सुख, जो पल विवेक उसे नहीं दे पाए थे, वे रोमेश के सान्निध्य ने दे दिए थे. वह हजारों बार खुद को समझा चुकी थी कि जिस्म की जरूरत क्या माने नहीं रखती…वह विवेक के प्रति पूरी तरह समर्पित है…फिर इस में गलत क्या है…

नहीं, वह इस तरह के संबंधों को न तो जस्टीफाई करना चाहती है और न ही एक्स्ट्रा मैरिटल रिलेशन की पक्षधर है. बस, खालीपन के साथ जीतेजीते वह थक गई है. विवेक बहुत अच्छे इंसान हैं, बेहतरीन पति हैं, पर उन के आदर्शों का चोला उठातेउठाते उसे लगने लगा है कि जैसे वह भीतर ही भीतर खोखली हो रही है. जैसे वह बूढ़ी हो रही है, जैसे उस के जीने की इच्छा खत्म हो रही है. वह, बस, एक बार सिर्फ पुरुष के सान्निध्य को पूरी तरह से महसूस करना चाहती थी, जानना चाहती थी कि चरम सुख कैसा होता है, पाना चाहती थी अपने जिस्म के हर रेशे पर होंठों की तपिश, एक मजबूत आलिंगन का एहसास जो उसे तृप्त कर दे. प्यार को जताना कितना सुखद होता है…

रीतिका जब घर लौटी तो सच में तृप्त महसूस कर रही थी, सुखद अनुभूतियों के घेरों में कैद, पर उस बंधन में भी बहुत खुश.

“क्यों तुम अब नौकरी छोड़ रही हो? सब ठीक ही तो चल रहा है,” हैरान विवेक की बात का जवाब देने के बजाय रीतिका रसोई का काम करती रही.

“बोलो न, कुछ हुआ है क्या?”

“नहीं, यों ही,” रीतिका ने इतना ही कहा.

शाम को जब स्टूडैंट्स एकत्र हुए नाटक की रिहर्सल करने के लिए तो रीतिका बिस्तर पर लेटी हुई थी. ऐसा शायद पहली बार ही हुआ था. प्रो. शास्त्री इस बात से जितना हैरान थे, उतने ही बाकी सब भी थे. इला उन के कमरे में गई. अंधेरा इतना था कि उसे कुछ पल लगे यह समझने में कि रीतिका जाग रही है या सो रही है. “दीदी, क्या तबीयत ठीक नहीं है?”

“नहीं, तबीयत ठीक है, इला. बस, कुछ देर अकेले रहने का मन था. मन को भी तो विराम देना जरूरी होता है. आज कुछ बनाने का भी मन नहीं है. तुम्हें ही बनाना पड़ेगा.”

“कोई नहीं दीदी, आखिर आप से इतने दिनों से डिशेज बनाने की ट्रेनिंग ले रही हूं, उस को आज आजमा लेती हूं कि कितनी दक्ष हुई हूं,” इला ने वातावरण को हलका करने के ख़याल से मजाक किया.

इला केवल प्रो. शास्त्री की स्टूडैंट ही नहीं थी, बल्कि लगातार घर आते रहने की वजह से उस में और रीतिका के बीच एक रिश्ता सा जुड़ गया था. शेयर करने का रिश्ता…अच्छीबुरी सारी बातें. एकदूसरे की वे कब राजदार बन गई थीं, उन्हें भी पता न चला था.

“दीदी, मन को विराम देने के लिए उसे हलका करना भी जरूरी है. कह दीजिए न, जो भी है भीतर.”

रीतिका को समझ नहीं आ रहा था कि वह अपने भीतर चल रही कशमकश को इला को बताए या नहीं. पता नहीं वह कैसे रिऐक्ट करेगी. इस उम्र में उसे यह सब समझ आएगा भी कि नहीं. वह तो चाहती थी कि विवेक को ही जा कर सब बता दे क्योंकि उसे पता था वे उस की बात समझेंगे और उस की गलती, हां, दूसरों को तो यह गलती ही लगेगी, माफ कर देंगे.

इला ने रीतिका के हाथ को छुआ, मानो उसे आश्वस्त कर रही हो कि वह उसे बता सकती है. बह निकला रीतिका के भीतर से सब. यह भी कि वह कितनी तृप्त महसूस कर रही है.

इला ने लाइट औन कर दी. दरवाजे के पास कोई खड़ा था सफेद कुरतेपाजामे में. कोल्हापुरी चप्पलों से उस ने पहचान लिया.

प्रो. शास्त्री लड़खड़ाते कदमों से बाहर आए. यह क्या हो गया, कैसे माफ कर सकते हैं वे रीतिका को इस बात के लिए. नहीं, कभी नहीं. किसी और पुरुष से संबंध बनाए और वह इस एहसास में डोल रही है खुशी से…

इला उन के पीछेपीछे उन के कमरे तक आ गई. एक सन्नाटा सा हर ओर पसर गया था.

“अब मैं इस के साथ नहीं रह पाऊंगा. इतना प्यार करने पर भी मेरे साथ ऐसा किया. अब तो अच्छा है कि मैं जहर खाकर मर जाऊं. कितनी जिल्लत की बात है. अच्छा होगा कि वही यह घर छोड़ कर चली जाए…” प्रो. शास्त्री बारबार यही कह रहे थे.

“इस का मतलब आप रीतिका दीदी से प्यार नहीं करते? आप ने ही तो प्यार की नई परिभाषा दी है. आप ही तो कहते हैं कि प्यार का मतलब होता है अपने जीवन की सारी समस्याओं, सारी परेशानियों और दुख में एकदूसरे का साथ देना, एकदूसरे की गलतियों को माफ करना, उसे सपोर्ट करना और सहयोग देना. बताइए आप रीतिका दीदी से प्यार करते हैं कि नहीं?”

इला का सवाल सुन प्रो. शास्त्री सकते में आ गए. उन्हें लगा कि जैसे उन के आइडियलिज्म के परखच्चे उड़ गए हैं. कहीं गहरे जमीं सोच की जड़ें उन के भीतर भी कब्जा जमाए हुए हैं और शायद बरसों से इसी सच को गहराती रही हैं कि रोमियो-जूलियट, हीर-रांझा, शीरीं-फरहाद और लैला-मजनूं का प्यार सच्चा था. उन्हें लगा कि रोमियो-जूलियट, हीर-रांझा, शीरीं-फरहाद और लैला-मजनूं के प्यार ने आज उन्हें कठघरे में ला कर खड़ा कर दिया है. या शायद, प्यार को ही उन्होंने कठघरे में ला कर खड़ा कर दिया है.

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“एक बात कहना चाहता हूं. आई होप, तुम मुझे गलत नहीं समझोगी,” एक दिन पिज्जा हट में बैठे हुए पिज्जा कुतरते हुए रोमेश ने इतना कहा तो रीतिका चौंकी. बेबाकी से हर बात कहने वाला इंसान आज अनुमति ले रहा था. यह सच था कि रोमेश का साथ उसे भाने लगा था और औपचारिकताएं की सीमा भी उन के बीच टूट चुकी थीं, इसलिए आप से तुम पर आ गए थे.

“बोलो ना, तुम कब से हिचकिचाने लगे?” रीतिका हंसी.

“तुम्हें ले कर एक लाइकिंग मन में हो गई है. आई नो यू आर मैरिड. एंड आई बिलीव हैप्पिली मैरिड. आई डोंट वांट एनी कमिटमैंट फ्रौम यू एंड प्लीज मुझ से दोस्ती मत तोड़ देना.”

रीतिका चुप रही. मिंट मौकटेल का सिप लेती रही.

“कुछ कहोगी नहीं?”

“क्या कहूं? कि आई ऑल्सो लाइक यू? बहुत बचकाना नहीं लगेगा क्या?” रोमेश उस की इस बात का जवाब देते, उस से पहले ही वह आगे बोल उठी, “अच्छा चलो, बचकाना लगने दो, मुझे भी तुम अच्छे लगते हो, इसीलिए मैं इस समय यहां बैठी हुई हूं, वरना केवल दोस्ती की डोर इतनी दूर तक नहीं खिंच पाती है.” और रीतिका ने रोमेश के हाथ पर अपना हाथ रख दिया. “पर प्लीज, इसे प्यार का नाम मत देना. बड़ी खतरनाक चीज है वह.” अपनी आगे झूल आई लट को पीछे धकलते हुए वह बोली.

“कोई नाम देना जरूरी तो नहीं हर रिश्ते को. एहसासों का समुद्र, बस, बहते रहना चाहिए बीच में. किसी बंधन की जरूरत नहीं,” रोमेश थोड़े पोएटिक हो गए थे.

समुद्र में कभीकभी उफान आ ही जाता है, फिर उन दोनों के बीच भी उफान आना स्वाभाविक ही था, क्योंकि दोनों एकदूसरे का साथ पाने को बेचैन रहते थे. दो दिन के लिए प्रो. विवेक शास्त्री दूसरे शहर में अपना नाटक मंचन करने गए थे. रीतिका एक रात रोमेश के घर ही रुक गई. रोमेश के स्पर्श से भीग जब वह लौटी तो मन में कोई ग्लानि नहीं थी उस के, पर एक डर था कि विवेक को पता लगा तो उन की जिंदगी में तूफान आ सकता है. जो सुख, जो पल विवेक उसे नहीं दे पाए थे, वे रोमेश के सान्निध्य ने दे दिए थे. वह हजारों बार खुद को समझा चुकी थी कि जिस्म की जरूरत क्या माने नहीं रखती…वह विवेक के प्रति पूरी तरह समर्पित है…फिर इस में गलत क्या है…

नहीं, वह इस तरह के संबंधों को न तो जस्टीफाई करना चाहती है और न ही एक्स्ट्रा मैरिटल रिलेशन की पक्षधर है. बस, खालीपन के साथ जीतेजीते वह थक गई है. विवेक बहुत अच्छे इंसान हैं, बेहतरीन पति हैं, पर उन के आदर्शों का चोला उठातेउठाते उसे लगने लगा है कि जैसे वह भीतर ही भीतर खोखली हो रही है. जैसे वह बूढ़ी हो रही है, जैसे उस के जीने की इच्छा खत्म हो रही है. वह, बस, एक बार सिर्फ पुरुष के सान्निध्य को पूरी तरह से महसूस करना चाहती थी, जानना चाहती थी कि चरम सुख कैसा होता है, पाना चाहती थी अपने जिस्म के हर रेशे पर होंठों की तपिश, एक मजबूत आलिंगन का एहसास जो उसे तृप्त कर दे. प्यार को जताना कितना सुखद होता है…

रीतिका जब घर लौटी तो सच में तृप्त महसूस कर रही थी, सुखद अनुभूतियों के घेरों में कैद, पर उस बंधन में भी बहुत खुश.

“क्यों तुम अब नौकरी छोड़ रही हो? सब ठीक ही तो चल रहा है,” हैरान विवेक की बात का जवाब देने के बजाय रीतिका रसोई का काम करती रही.

“बोलो न, कुछ हुआ है क्या?”

“नहीं, यों ही,” रीतिका ने इतना ही कहा.

शाम को जब स्टूडैंट्स एकत्र हुए नाटक की रिहर्सल करने के लिए तो रीतिका बिस्तर पर लेटी हुई थी. ऐसा शायद पहली बार ही हुआ था. प्रो. शास्त्री इस बात से जितना हैरान थे, उतने ही बाकी सब भी थे. इला उन के कमरे में गई. अंधेरा इतना था कि उसे कुछ पल लगे यह समझने में कि रीतिका जाग रही है या सो रही है. “दीदी, क्या तबीयत ठीक नहीं है?”

“नहीं, तबीयत ठीक है, इला. बस, कुछ देर अकेले रहने का मन था. मन को भी तो विराम देना जरूरी होता है. आज कुछ बनाने का भी मन नहीं है. तुम्हें ही बनाना पड़ेगा.”

“कोई नहीं दीदी, आखिर आप से इतने दिनों से डिशेज बनाने की ट्रेनिंग ले रही हूं, उस को आज आजमा लेती हूं कि कितनी दक्ष हुई हूं,” इला ने वातावरण को हलका करने के ख़याल से मजाक किया.

इला केवल प्रो. शास्त्री की स्टूडैंट ही नहीं थी, बल्कि लगातार घर आते रहने की वजह से उस में और रीतिका के बीच एक रिश्ता सा जुड़ गया था. शेयर करने का रिश्ता…अच्छीबुरी सारी बातें. एकदूसरे की वे कब राजदार बन गई थीं, उन्हें भी पता न चला था.

“दीदी, मन को विराम देने के लिए उसे हलका करना भी जरूरी है. कह दीजिए न, जो भी है भीतर.”

रीतिका को समझ नहीं आ रहा था कि वह अपने भीतर चल रही कशमकश को इला को बताए या नहीं. पता नहीं वह कैसे रिऐक्ट करेगी. इस उम्र में उसे यह सब समझ आएगा भी कि नहीं. वह तो चाहती थी कि विवेक को ही जा कर सब बता दे क्योंकि उसे पता था वे उस की बात समझेंगे और उस की गलती, हां, दूसरों को तो यह गलती ही लगेगी, माफ कर देंगे.

इला ने रीतिका के हाथ को छुआ, मानो उसे आश्वस्त कर रही हो कि वह उसे बता सकती है. बह निकला रीतिका के भीतर से सब. यह भी कि वह कितनी तृप्त महसूस कर रही है.

इला ने लाइट औन कर दी. दरवाजे के पास कोई खड़ा था सफेद कुरतेपाजामे में. कोल्हापुरी चप्पलों से उस ने पहचान लिया.

प्रो. शास्त्री लड़खड़ाते कदमों से बाहर आए. यह क्या हो गया, कैसे माफ कर सकते हैं वे रीतिका को इस बात के लिए. नहीं, कभी नहीं. किसी और पुरुष से संबंध बनाए और वह इस एहसास में डोल रही है खुशी से…

इला उन के पीछेपीछे उन के कमरे तक आ गई. एक सन्नाटा सा हर ओर पसर गया था.

“अब मैं इस के साथ नहीं रह पाऊंगा. इतना प्यार करने पर भी मेरे साथ ऐसा किया. अब तो अच्छा है कि मैं जहर खाकर मर जाऊं. कितनी जिल्लत की बात है. अच्छा होगा कि वही यह घर छोड़ कर चली जाए…” प्रो. शास्त्री बारबार यही कह रहे थे.

“इस का मतलब आप रीतिका दीदी से प्यार नहीं करते? आप ने ही तो प्यार की नई परिभाषा दी है. आप ही तो कहते हैं कि प्यार का मतलब होता है अपने जीवन की सारी समस्याओं, सारी परेशानियों और दुख में एकदूसरे का साथ देना, एकदूसरे की गलतियों को माफ करना, उसे सपोर्ट करना और सहयोग देना. बताइए आप रीतिका दीदी से प्यार करते हैं कि नहीं?”

इला का सवाल सुन प्रो. शास्त्री सकते में आ गए. उन्हें लगा कि जैसे उन के आइडियलिज्म के परखच्चे उड़ गए हैं. कहीं गहरे जमीं सोच की जड़ें उन के भीतर भी कब्जा जमाए हुए हैं और शायद बरसों से इसी सच को गहराती रही हैं कि रोमियो-जूलियट, हीर-रांझा, शीरीं-फरहाद और लैला-मजनूं का प्यार सच्चा था. उन्हें लगा कि रोमियो-जूलियट, हीर-रांझा, शीरीं-फरहाद और लैला-मजनूं के प्यार ने आज उन्हें कठघरे में ला कर खड़ा कर दिया है. या शायद, प्यार को ही उन्होंने कठघरे में ला कर खड़ा कर दिया है.

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May 14, 2022 at 11:08AM

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