Monday 30 November 2020

कानपुर: नौकरी लगवाने के नाम पर आरपीएफ के हेड ...

नौकरी न लगने पर जब रुपये वापस मांगे तो टहलाना शुरू कर दिया। आरोप है कि उन्होंने ...

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दूसरे के प्रमाणपत्रों के आधार पर नौकरी कर रहा फर्जी ...

सूरज कुमार, मदन कुमार उपाध्याय के दस्तावेजों के आधार पर नौकरी कर रहा था. एसटीएफ ...

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सूरज कुमार, मदन कुमार उपाध्याय के दस्तावेजों के आधार पर नौकरी कर रहा था. एसटीएफ ...

Jharkhand: रोजगार सेवक की नौकरी छोड़ मधु हांसदा ने शुरू ...

Jharkhand: रोजगार सेवक की नौकरी छोड़ मधु हांसदा ने शुरू की फूलों की खेती, ऐसे बदली ...

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Govt Jobs: पाना चाहते हैं सरकारी नौकरी के साथ अच्छी ...

सरकारी नौकरी का इंतजार रहे लोगों के एक खास खबर है। देश की एक नामी संस्थान ने कई ...

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ZEE Rozgar समाचार: MP पुलिस में नौकरी के बड़े मौके, ऐसे ...

जिन पर आवेदन करके आप पुलिस में नौकरी पा सकते हैं. ZEE Rozgaar समाचार दे रहा है जानकारी

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जिन पर आवेदन करके आप पुलिस में नौकरी पा सकते हैं. ZEE Rozgaar समाचार दे रहा है जानकारी

सांझ पड़े घर आना- भाग 1 : नीलिमा की बौस क्यों रोने लगी

उसकी मेरे औफिस में नईनई नियुक्ति हुई थी. हमारी कंपनी का हैड औफिस बैंगलुरु में था और मैं यहां की ब्रांच मैनेजर थी. औफिस में कोई और केबिन खाली नहीं था, इसलिए मैं ने उसे अपने कमरे के बाहर वाले केबिन में जगह दे दी. उस का नाम नीलिमा था. क्योंकि उस का केबिन मेरे केबिन के बिलकुल बाहर था, इसलिए मैं उसे आतेजाते देख सकती थी. मैं जब भी अपने औफिस में आती, उसे हमेशा फाइलों या कंप्यूटर में उलझा पाती. उस का औफिस में सब से पहले पहुंचना और देर तक काम करते रहना मुझे और भी हैरान करने लगा. एक दिन मेरे पूछने पर उस ने बताया कि पति और बेटा जल्दी चले जाते हैं, इसलिए वह भी जल्दी चली आती है. फिर सुबहसुबह ट्रैफिक भी ज्यादा नहीं रहता.

वह रिजर्व तो नहीं थी, पर मिलनसार भी नहीं थी. कुछ चेहरे ऐसे होते हैं, जो आंखों को बांध लेते हैं. उस का मेकअप भी एकदम नपातुला होता. वह अधिकतर गोल गले की कुरती ही पहनती. कानों में छोटे बुंदे, मैचिंग बिंदी और नाममात्र का सिंदूर लगाती. इधर मैं कंपनी की ब्रांच मैनेजर होने के नाते स्वयं के प्रति बहुत ही संजीदा थी. दिन में जब तक 3-4 बार वाशरूम में जा कर स्वयं को देख नहीं लेती, मुझे चैन ही नहीं पड़ता. परंतु उस की सादगी के सामने मेरा सारा वजूद कभीकभी फीका सा पड़ने लगता.

लंच ब्रेक में मैं ने अकसर उसे चाय के साथ ब्रैडबटर या और कोई हलका नाश्ता करते पाया. एक दिन मैं ने उस से पूछा तो कहने लगी, ‘‘हम लोग नाश्ता इतना हैवी कर लेते हैं कि लंच की जरूरत ही महसूस नहीं होती. पर कभीकभी मैं लंच भी करती हूं. शायद आप ने ध्यान नहीं दिया होगा. वैसे भी मेरे पति उमेश और बेटे मयंक को तरहतरह के व्यंजन खाने पसंद हैं.’’ ‘‘वाह,’’ कह कर मैं ने उसे बैठने का इशारा किया, ‘‘फिर कभी हमें भी तो खिलाइए कुछ नया.’’ इसी बीच मेरा फोन बज उठा तो मैं अपने केबिन में आ गई.

एक दिन वह सचमुच बड़ा सा टिफिन ले कर आ गई. भरवां कचौरी, आलू की सब्जी और बूंदी का रायता. न केवल मेरे लिए बल्कि सारे स्टाफ के लिए. इतना कुछ देख कर मैं ने कहा, ‘‘लगता है कल शाम से ही इस की तैयारी में लग गई होगी.’’

वह मुसकराने लगी. फिर बोली, ‘‘मुझे खाना बनाने और खिलाने का बहुत शौक है. यहां तक कि हमारी कालोनी में कोई भी पार्टी होती है तो सारी डिशेज मैं ही बनाती हूं.’’ नीलिमा को हमारी कंपनी में काम करते हुए 6 महीने हो गए थे. न कभी वह लेट हुई और न जाने की जल्दी करती. घर से तरहतरह का खाना या नाश्ता लाने का सिलसिला भी निरंतर चलता रहा. कई बार मैं ने उसे औफिस के बाद भी काम करते देखा. यहां तक कि वह अपने आधीन काम करने वालों की मीटिंग भी शाम 6 बजे के बाद ही करती. उस का मानना था कि औफिस के बाद मन भी थोड़ा शांत रहता है और बाहर से फोन भी नहीं आते.

एक दिन मैं ने उसे दोपहर के बाद अपने केबिन में बुलाया. मेरे लिए फुरसत से बात करने का समय दोपहर के बाद ही होता था. सुबह मैं सब को काम बांट देती थी. हमारी कंपनी बाहर से प्लास्टिक के खिलौने आयात करती और डिस्ट्रीब्यूटर्स को भेज देती थी. हमारी ब्रांच का काम और्डर ले कर हैड औफिस को भेजने तक ही सीमित था. नीलिमा ने बड़ी शालीनता से मेरे केबिन का दरवाजा खटखटा भीतर आने की इजाजत मांगी. मैं कुछ पुरानी फाइलें देख रही थी. उसे बुलाया और सामने वाली कुरसी पर बैठने का इशारा किया. मैं ने फाइलें बंद कीं और चपरासी को बुला कर किसी के अंदर न आने की हिदायत दे दी.

नीलिमा आप को हमारे यहां काम करते हुए 6 महीने से ज्यादा का समय हो गया. कंपनी के नियमानुसार आप का प्रोबेशन पीरियड समाप्त हो चुका है. यहां आप को कोई परेशानी तो नहीं? काम तो आपने ठीक से समझ ही लिया है. स्टाफ से किसी प्रकार की कोई शिकायत हो तो बताओ. ‘‘मैम, न मुझे यहां कोई परेशानी है और न ही किसी से कोई शिकायत. यदि आप को मेरे व्यवहार में कोई कमी लगे तो बता दीजिए. मैं खुद को सुधार लूंगी… मैं आप के जितना पढ़ीलिखी तो नहीं पर इतना जरूर विश्वास दिलाती हूं कि मैं अपने काम के प्रति समर्पित रहूंगी. यदि पिछली कंपनी बंद न हुई होती तो पूरे 10 साल एक ही कंपनी में काम करते हो जाते,’’ कह कर वह खामोश हो गई. उस की बातों में बड़ा ठहराव और विनम्रता थी.

‘‘जो भी हो, तुम्हें अपने परिवार की भी सपोर्ट है. तभी तो मन लगा कर काम कर सकती हो. ऐसा सभी के साथ नहीं होता है.’’ मैं ने थोड़े रोंआसे स्वर में कहा. वह मुझे देखती रही जैसे चेहरे के भाव पढ़ रही हो. मैं ने बात बदल कर कहा, ‘‘अच्छा मैं ने आप को यहां इसलिए बुलाया है कि अगला पूरा हफ्ता मैं छुट्टी पर रहूंगी. हो सकता है 1-2 दिन ज्यादा भी लग जाएं. मुझे उम्मीद है आप को कोई ज्यादा परेशानी नहीं होगी. मेरा मोबाइल चालू रहेगा.’’

‘‘कहीं बाहर जा रही हैं आप?’’ उस ने ऐसे पूछा जैसे मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. मैं ने कहा, ‘‘नहीं, रहूंगी तो यहीं… कोर्ट की आखिरी तारीख है. शायद मेरा तलाक मंजूर हो जाए. फिर मैं कुछ दिन सुकून से रहना चाहती हूं.’’

‘‘तलाक?’’ कह जैसे वह अपनी सीट से उछली हो. ‘‘हां.’’

‘‘इस उम्र में तलाक?’’ वह कहने लगी, ‘‘सौरी मैम मुझे पूछना तो नहीं चाहिए पर…’’

‘‘तलाक की भी कोई उम्र होती है? सदियों से मैं रिश्ता ढोती आई हूं. बेटी यूके में पढ़ने गई तो वहीं की हो कर रह गई. मेरे पति और मेरी कभी बनी ही नहीं और अब तो बात यहां तक आ गई है कि खाना भी बाहर से ही आता है. मैं थक गई यह सब निभातेनिभाते… और जब से बेटी ने वहीं रहने का निर्णय लिया है, हमारे बीच का वह पुल भी टूट गया,’’ कहतेकहते मेरी आंखों में आंसू आ गए.

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उसकी मेरे औफिस में नईनई नियुक्ति हुई थी. हमारी कंपनी का हैड औफिस बैंगलुरु में था और मैं यहां की ब्रांच मैनेजर थी. औफिस में कोई और केबिन खाली नहीं था, इसलिए मैं ने उसे अपने कमरे के बाहर वाले केबिन में जगह दे दी. उस का नाम नीलिमा था. क्योंकि उस का केबिन मेरे केबिन के बिलकुल बाहर था, इसलिए मैं उसे आतेजाते देख सकती थी. मैं जब भी अपने औफिस में आती, उसे हमेशा फाइलों या कंप्यूटर में उलझा पाती. उस का औफिस में सब से पहले पहुंचना और देर तक काम करते रहना मुझे और भी हैरान करने लगा. एक दिन मेरे पूछने पर उस ने बताया कि पति और बेटा जल्दी चले जाते हैं, इसलिए वह भी जल्दी चली आती है. फिर सुबहसुबह ट्रैफिक भी ज्यादा नहीं रहता.

वह रिजर्व तो नहीं थी, पर मिलनसार भी नहीं थी. कुछ चेहरे ऐसे होते हैं, जो आंखों को बांध लेते हैं. उस का मेकअप भी एकदम नपातुला होता. वह अधिकतर गोल गले की कुरती ही पहनती. कानों में छोटे बुंदे, मैचिंग बिंदी और नाममात्र का सिंदूर लगाती. इधर मैं कंपनी की ब्रांच मैनेजर होने के नाते स्वयं के प्रति बहुत ही संजीदा थी. दिन में जब तक 3-4 बार वाशरूम में जा कर स्वयं को देख नहीं लेती, मुझे चैन ही नहीं पड़ता. परंतु उस की सादगी के सामने मेरा सारा वजूद कभीकभी फीका सा पड़ने लगता.

लंच ब्रेक में मैं ने अकसर उसे चाय के साथ ब्रैडबटर या और कोई हलका नाश्ता करते पाया. एक दिन मैं ने उस से पूछा तो कहने लगी, ‘‘हम लोग नाश्ता इतना हैवी कर लेते हैं कि लंच की जरूरत ही महसूस नहीं होती. पर कभीकभी मैं लंच भी करती हूं. शायद आप ने ध्यान नहीं दिया होगा. वैसे भी मेरे पति उमेश और बेटे मयंक को तरहतरह के व्यंजन खाने पसंद हैं.’’ ‘‘वाह,’’ कह कर मैं ने उसे बैठने का इशारा किया, ‘‘फिर कभी हमें भी तो खिलाइए कुछ नया.’’ इसी बीच मेरा फोन बज उठा तो मैं अपने केबिन में आ गई.

एक दिन वह सचमुच बड़ा सा टिफिन ले कर आ गई. भरवां कचौरी, आलू की सब्जी और बूंदी का रायता. न केवल मेरे लिए बल्कि सारे स्टाफ के लिए. इतना कुछ देख कर मैं ने कहा, ‘‘लगता है कल शाम से ही इस की तैयारी में लग गई होगी.’’

वह मुसकराने लगी. फिर बोली, ‘‘मुझे खाना बनाने और खिलाने का बहुत शौक है. यहां तक कि हमारी कालोनी में कोई भी पार्टी होती है तो सारी डिशेज मैं ही बनाती हूं.’’ नीलिमा को हमारी कंपनी में काम करते हुए 6 महीने हो गए थे. न कभी वह लेट हुई और न जाने की जल्दी करती. घर से तरहतरह का खाना या नाश्ता लाने का सिलसिला भी निरंतर चलता रहा. कई बार मैं ने उसे औफिस के बाद भी काम करते देखा. यहां तक कि वह अपने आधीन काम करने वालों की मीटिंग भी शाम 6 बजे के बाद ही करती. उस का मानना था कि औफिस के बाद मन भी थोड़ा शांत रहता है और बाहर से फोन भी नहीं आते.

एक दिन मैं ने उसे दोपहर के बाद अपने केबिन में बुलाया. मेरे लिए फुरसत से बात करने का समय दोपहर के बाद ही होता था. सुबह मैं सब को काम बांट देती थी. हमारी कंपनी बाहर से प्लास्टिक के खिलौने आयात करती और डिस्ट्रीब्यूटर्स को भेज देती थी. हमारी ब्रांच का काम और्डर ले कर हैड औफिस को भेजने तक ही सीमित था. नीलिमा ने बड़ी शालीनता से मेरे केबिन का दरवाजा खटखटा भीतर आने की इजाजत मांगी. मैं कुछ पुरानी फाइलें देख रही थी. उसे बुलाया और सामने वाली कुरसी पर बैठने का इशारा किया. मैं ने फाइलें बंद कीं और चपरासी को बुला कर किसी के अंदर न आने की हिदायत दे दी.

नीलिमा आप को हमारे यहां काम करते हुए 6 महीने से ज्यादा का समय हो गया. कंपनी के नियमानुसार आप का प्रोबेशन पीरियड समाप्त हो चुका है. यहां आप को कोई परेशानी तो नहीं? काम तो आपने ठीक से समझ ही लिया है. स्टाफ से किसी प्रकार की कोई शिकायत हो तो बताओ. ‘‘मैम, न मुझे यहां कोई परेशानी है और न ही किसी से कोई शिकायत. यदि आप को मेरे व्यवहार में कोई कमी लगे तो बता दीजिए. मैं खुद को सुधार लूंगी… मैं आप के जितना पढ़ीलिखी तो नहीं पर इतना जरूर विश्वास दिलाती हूं कि मैं अपने काम के प्रति समर्पित रहूंगी. यदि पिछली कंपनी बंद न हुई होती तो पूरे 10 साल एक ही कंपनी में काम करते हो जाते,’’ कह कर वह खामोश हो गई. उस की बातों में बड़ा ठहराव और विनम्रता थी.

‘‘जो भी हो, तुम्हें अपने परिवार की भी सपोर्ट है. तभी तो मन लगा कर काम कर सकती हो. ऐसा सभी के साथ नहीं होता है.’’ मैं ने थोड़े रोंआसे स्वर में कहा. वह मुझे देखती रही जैसे चेहरे के भाव पढ़ रही हो. मैं ने बात बदल कर कहा, ‘‘अच्छा मैं ने आप को यहां इसलिए बुलाया है कि अगला पूरा हफ्ता मैं छुट्टी पर रहूंगी. हो सकता है 1-2 दिन ज्यादा भी लग जाएं. मुझे उम्मीद है आप को कोई ज्यादा परेशानी नहीं होगी. मेरा मोबाइल चालू रहेगा.’’

‘‘कहीं बाहर जा रही हैं आप?’’ उस ने ऐसे पूछा जैसे मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. मैं ने कहा, ‘‘नहीं, रहूंगी तो यहीं… कोर्ट की आखिरी तारीख है. शायद मेरा तलाक मंजूर हो जाए. फिर मैं कुछ दिन सुकून से रहना चाहती हूं.’’

‘‘तलाक?’’ कह जैसे वह अपनी सीट से उछली हो. ‘‘हां.’’

‘‘इस उम्र में तलाक?’’ वह कहने लगी, ‘‘सौरी मैम मुझे पूछना तो नहीं चाहिए पर…’’

‘‘तलाक की भी कोई उम्र होती है? सदियों से मैं रिश्ता ढोती आई हूं. बेटी यूके में पढ़ने गई तो वहीं की हो कर रह गई. मेरे पति और मेरी कभी बनी ही नहीं और अब तो बात यहां तक आ गई है कि खाना भी बाहर से ही आता है. मैं थक गई यह सब निभातेनिभाते… और जब से बेटी ने वहीं रहने का निर्णय लिया है, हमारे बीच का वह पुल भी टूट गया,’’ कहतेकहते मेरी आंखों में आंसू आ गए.

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December 01, 2020 at 10:00AM

सांझ पड़े घर आना- भाग 3 : नीलिमा की बौस क्यों रोने लगी

उस रात हमारा जम कर झगड़ा हुआ. उस का गुस्सा जायज था. मैं झुकना नहीं जानती थी. न जीवन में झुकी हूं और न ही झुकूंगी…वही सब मेरी बेटी ने भी सीखा और किया. नतीजा तलाक पर आ गया. मैं ने ताना दिया था कि इस घर के लिए तुम ने किया ही क्या है. तुम्हारी तनख्वाह से तो घर का किराया भी नहीं दिया जाता… तुम्हारे भरोसे रहती तो जीवन घुटघुट कर जीना पड़ता. और इतना सुनना था कि वह गुस्से में घर छोड़ कर चला गया. अब सब कुछ खत्म हो गया था. मैं ने उस पर कई झूठे इलजाम लगाए, जिन से उस का बच पाना संभव नहीं था. मैं ने एक लंबी लड़ाई लड़ी थी और अब उस का अंतिम फैसला कल आना था. उस के बाद सब कुछ खत्म. परंतु नीलिमा ने इस बीच एक नया प्रश्न खड़ा कर दिया जो मेरे कलेजे में बर्फ बन कर जम गया.

पर अभी भी सब कुछ खत्म नहीं हुआ था, होने वाला था. बस मेरे कोर्ट में हाजिरी लगाने भर की देरी थी. मेरे पास आज भी 2 रास्ते खुले थे. एक रास्ता कोर्ट जाता था और दूसरा उस के घर की तरफ, जहां वह मुझ से अलग हो कर चला गया था. कोर्ट जाना आसान था और उस के घर की तरफ जाने का साहस शायद मुझ में नहीं था. मैं ने कोर्ट में उसे इतना बेईज्जत किया, ऐसेऐसे लांछन लगाए कि वह शायद ही मुझे माफ करता. मैं अब भी ठीक से निर्णय नहीं ले पा रही थी. हार कर मैं ने पुन: नीलिमा से मिलने का फैसला किया जिस ने मेरे शांत होते जीवन में पुन: उथलपुथल मचा दी थी. मैं उस दोराहे से अब निकलना चाहती थी. मैं ने कई बार उसे आज फोन किया, परंतु उस का फोन लगातार बंद मिलता रहा.

आज रविवार था. अत: सुबहसुबह वह घर पर मिल ही जाएगी, सोच मैं उसे मिलने चली गई. मेरे पास स्टाफ के घर का पता और मोबाइल नंबर हमेशा रहता था ताकि किसी आपातकालीन समय में उन से संपर्क कर सकूं. वह एक तीनमंजिला मकान में रहती थी. ‘‘मैम, आप?’’ मुझे देखते ही वह एकदम सकपका गई? ‘‘सब ठीक तो है न?’’

‘‘सब कुछ ठीक नहीं है,’’ मैं बड़ी उदासी से बोली. वह मेरे चेहरे पर परेशानी के भाव देख रही थी. मैं बिफर कर बोली, ‘‘तुम्हारी कल की बातों ने मुझे भीतर तक झकझोर कर रख दिया है.’’

वह हतप्रभ सी मेरे चेहरे की तरफ देखती रही.

‘‘क्या मैं कुछ देर के लिए अंदर आ सकती हूं?’’

‘‘हां मैम,’’ कह कर वह दरवाजे के सामने से हट गई, ‘‘आइए न.’’ ‘‘सौरी, मैं तुम्हें बिना बताए आ गई. मैं क्या करती. लगातार तुम्हारा फोन ट्राई कर रही थी पर स्विचऔफ आता रहा. मुझ से रहा नहीं गया तो मैं आ गई,’’ कहतेकहते मैं बैठ गई.

ड्राइंगरूम के नाम पर केवल 4 कुरसियां और एक राउंड टेबल, कोने में अलमारी और कंप्यूटर रखा था. घर में एकदम खामोशी थी. वह मुझे वहां बैठा कर बोली, ‘‘मैं चेंज कर के आती हूं.’’

थोड़ी देर में वह एक ट्रे में चाय और थोड़ा नमकीन रख कर ले आई और सामने की कुरसी पर बैठ गई. हम दोनों ही शांत बैठी रहीं. मुझे बात करने का सिरा पकड़ में नहीं आ रहा था. चुप्पी तोड़ते हुए मैं ने कहा, ‘‘मैं ने सुबहसुबह आप लोगों को डिस्टर्ब किया. सौरी… आप का पति और बेटा कहीं बाहर गए हैं क्या? बड़ी खामोशी है.’’

वह मुझे ऐसे देखने लगी जैसे मैं ने कोई गलत बात पूछ ली हो. फिर नजरें नीची कर के बोली, ‘‘मैम, न मेरा कोई पति है न बेटा. मुझे पता नहीं था कि मेरा यह राज इतनी जल्दी खुल जाएगा,’’ कह कर वह मायूस हो गई. मैं हैरानी से उस की तरफ देखने लगी. मेरे पास शब्द नहीं थे कि अगला सवाल क्या पूछूं. मैं तो अपनी समस्या का हल ढूंढ़ने आई थी और यहां तो… फिर भी हिम्मत कर के पूछा, तो क्या तुम्हारी शादी नहीं हुई?

‘‘हुई थी मगर 6 महीने बाद ही मेरे पति एक हादसे में गुजर गए. एक मध्यवर्गीय लड़की, जिस के भाई ने बड़ी कठिनाई से विदा किया हो और ससुराल ने निकाल दिया हो, उस का वजूद क्या हो सकता है,’’ कहतेकहते उस की आवाज टूट गई. चेहरा पीला पड़ गया मानो वही इस हालात की दोषी हो. ‘‘जवान अकेली लड़की का होना कितना कष्टदायी होता है, यह मुझ से बेहतर और कौन जान सकता है… हर समय घूरती नजरों का सामना करना पड़ता है…’’

‘‘तो फिर तुम ने दोबारा शादी क्यों नहीं की?’’ ‘‘कोशिश तो की थी पर कोई मन का नहीं मिला. अपनी जिंदगी के फैसले हम खुद नहीं करते, बल्कि बहुत सी स्थितियां करती हैं.

‘‘अकेली लड़की को न कोई घर देने को तैयार है न पेइंग गैस्ट रखना चाहता है. मेरी जिंदगी के हालात बहुत बुरे हो चुके थे. हार कर मैं ने ‘मिसेज खन्ना’ लिबास ओढ़ लिया. कोई पूछता है तो कह देती हूं पति दूसरे शहर में काम करते हैं. हर साल 2 साल में घर बदलना पड़ता है. और कभीकभी तो 6 महीने में ही, क्योंकि पति नाम की वस्तु मैं खरीद कर तो ला नहीं सकती. आप से भी मैं ने झूठ बोला था. पार्टियां, कचौरियां, बच्चे सब झूठ था. अब आप चाहे रखें चाहे निकालें…’’ कह कर वह नजरें झुकाए रोने लगी. मेरे पास कोई शब्द नहीं था.

‘‘बड़ा मुश्किल है मैडम अकेले रहना… यह इतना आसान नहीं है जितना आप समझती हैं… भले ही आप कितनी भी सामर्थ्यवान हों, कितना भी पढ़ीलिखी हों, समाज में कैसा भी रुतबा क्यों न हो… आप दुनिया से तो लड़ सकती हैं पर अपनेआप से नहीं. तभी तो मैं ने कहा था कि आप अपनी जिंदगी से समझौता कर लीजिए.’’

मेरा तो सारा वजूद ही डगमगाने लगा. मुझे जहां से जिंदगी शुरू करनी थी, वह सच तो मेरे सामने खड़ा था. अब इस के बाद मेरे लिए निर्णय लेना और भी आसान हो गया. मेरे लिए यहां बैठने का अब कोई औचित्य भी नहीं था. जब आगे का रास्ता मालूम न हो तो पीछे लौटना ही पड़ता है. मैं भरे मन से उठ कर जाने लगी तो नीलिमा ने पूछा, ‘‘मैम, आप ने बताया नहीं आप क्यों आई थीं.’’ ‘‘नहीं बस यों ही,’’ मैं ने डबडबाती आंखों से उसे देखा

वह बुझे मन से पूछने लगी, ‘‘आप ने बताया नहीं मैं कल से काम पर आऊं या…’’ और हाथ जोड़ दिए. पता नहीं उस एक लमहे में क्या हुआ कि मैं उस की सादगी और मजबूरी पर बुरी तरह रो पड़ी. न मेरे पास कोई शब्द सहानुभूति का था और न ही सांत्वना का. इन शब्दों से ऊपर भी शब्द होते तो आज कम पड़ जाते. एक क्षण के लिए काठ की मूर्ति की तरह मेरे कदम जड़ हो गए. मैं अपने घर आ कर बहुत रोई. पता नहीं उस के लिए या अपने अहं के लिए… और कितनी बार रोई. शाम होतेहोते मैं ने बेहद विनम्रता से अपने पति को फोन किया और साथ रहने की प्रार्थना की. बहुत अनुनयविनय की. शायद मेरे ऐसे व्यवहार पर पति को तरस आ गया और वह मान गए.

और हां, जिस ने मुझे तबाही से बचा लिया, उसे मैं ने एक अलग फ्लैट ले कर दे दिया. अब वह ‘मिसेज खन्ना’ का लिबास नहीं ओढ़ती. नीलिमा और सिर्फ नीलिमा. उस के मुझ पर बहुत एहसान हैं. चुका तो सकती नहीं पर भूलूंगी भी नह

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उस रात हमारा जम कर झगड़ा हुआ. उस का गुस्सा जायज था. मैं झुकना नहीं जानती थी. न जीवन में झुकी हूं और न ही झुकूंगी…वही सब मेरी बेटी ने भी सीखा और किया. नतीजा तलाक पर आ गया. मैं ने ताना दिया था कि इस घर के लिए तुम ने किया ही क्या है. तुम्हारी तनख्वाह से तो घर का किराया भी नहीं दिया जाता… तुम्हारे भरोसे रहती तो जीवन घुटघुट कर जीना पड़ता. और इतना सुनना था कि वह गुस्से में घर छोड़ कर चला गया. अब सब कुछ खत्म हो गया था. मैं ने उस पर कई झूठे इलजाम लगाए, जिन से उस का बच पाना संभव नहीं था. मैं ने एक लंबी लड़ाई लड़ी थी और अब उस का अंतिम फैसला कल आना था. उस के बाद सब कुछ खत्म. परंतु नीलिमा ने इस बीच एक नया प्रश्न खड़ा कर दिया जो मेरे कलेजे में बर्फ बन कर जम गया.

पर अभी भी सब कुछ खत्म नहीं हुआ था, होने वाला था. बस मेरे कोर्ट में हाजिरी लगाने भर की देरी थी. मेरे पास आज भी 2 रास्ते खुले थे. एक रास्ता कोर्ट जाता था और दूसरा उस के घर की तरफ, जहां वह मुझ से अलग हो कर चला गया था. कोर्ट जाना आसान था और उस के घर की तरफ जाने का साहस शायद मुझ में नहीं था. मैं ने कोर्ट में उसे इतना बेईज्जत किया, ऐसेऐसे लांछन लगाए कि वह शायद ही मुझे माफ करता. मैं अब भी ठीक से निर्णय नहीं ले पा रही थी. हार कर मैं ने पुन: नीलिमा से मिलने का फैसला किया जिस ने मेरे शांत होते जीवन में पुन: उथलपुथल मचा दी थी. मैं उस दोराहे से अब निकलना चाहती थी. मैं ने कई बार उसे आज फोन किया, परंतु उस का फोन लगातार बंद मिलता रहा.

आज रविवार था. अत: सुबहसुबह वह घर पर मिल ही जाएगी, सोच मैं उसे मिलने चली गई. मेरे पास स्टाफ के घर का पता और मोबाइल नंबर हमेशा रहता था ताकि किसी आपातकालीन समय में उन से संपर्क कर सकूं. वह एक तीनमंजिला मकान में रहती थी. ‘‘मैम, आप?’’ मुझे देखते ही वह एकदम सकपका गई? ‘‘सब ठीक तो है न?’’

‘‘सब कुछ ठीक नहीं है,’’ मैं बड़ी उदासी से बोली. वह मेरे चेहरे पर परेशानी के भाव देख रही थी. मैं बिफर कर बोली, ‘‘तुम्हारी कल की बातों ने मुझे भीतर तक झकझोर कर रख दिया है.’’

वह हतप्रभ सी मेरे चेहरे की तरफ देखती रही.

‘‘क्या मैं कुछ देर के लिए अंदर आ सकती हूं?’’

‘‘हां मैम,’’ कह कर वह दरवाजे के सामने से हट गई, ‘‘आइए न.’’ ‘‘सौरी, मैं तुम्हें बिना बताए आ गई. मैं क्या करती. लगातार तुम्हारा फोन ट्राई कर रही थी पर स्विचऔफ आता रहा. मुझ से रहा नहीं गया तो मैं आ गई,’’ कहतेकहते मैं बैठ गई.

ड्राइंगरूम के नाम पर केवल 4 कुरसियां और एक राउंड टेबल, कोने में अलमारी और कंप्यूटर रखा था. घर में एकदम खामोशी थी. वह मुझे वहां बैठा कर बोली, ‘‘मैं चेंज कर के आती हूं.’’

थोड़ी देर में वह एक ट्रे में चाय और थोड़ा नमकीन रख कर ले आई और सामने की कुरसी पर बैठ गई. हम दोनों ही शांत बैठी रहीं. मुझे बात करने का सिरा पकड़ में नहीं आ रहा था. चुप्पी तोड़ते हुए मैं ने कहा, ‘‘मैं ने सुबहसुबह आप लोगों को डिस्टर्ब किया. सौरी… आप का पति और बेटा कहीं बाहर गए हैं क्या? बड़ी खामोशी है.’’

वह मुझे ऐसे देखने लगी जैसे मैं ने कोई गलत बात पूछ ली हो. फिर नजरें नीची कर के बोली, ‘‘मैम, न मेरा कोई पति है न बेटा. मुझे पता नहीं था कि मेरा यह राज इतनी जल्दी खुल जाएगा,’’ कह कर वह मायूस हो गई. मैं हैरानी से उस की तरफ देखने लगी. मेरे पास शब्द नहीं थे कि अगला सवाल क्या पूछूं. मैं तो अपनी समस्या का हल ढूंढ़ने आई थी और यहां तो… फिर भी हिम्मत कर के पूछा, तो क्या तुम्हारी शादी नहीं हुई?

‘‘हुई थी मगर 6 महीने बाद ही मेरे पति एक हादसे में गुजर गए. एक मध्यवर्गीय लड़की, जिस के भाई ने बड़ी कठिनाई से विदा किया हो और ससुराल ने निकाल दिया हो, उस का वजूद क्या हो सकता है,’’ कहतेकहते उस की आवाज टूट गई. चेहरा पीला पड़ गया मानो वही इस हालात की दोषी हो. ‘‘जवान अकेली लड़की का होना कितना कष्टदायी होता है, यह मुझ से बेहतर और कौन जान सकता है… हर समय घूरती नजरों का सामना करना पड़ता है…’’

‘‘तो फिर तुम ने दोबारा शादी क्यों नहीं की?’’ ‘‘कोशिश तो की थी पर कोई मन का नहीं मिला. अपनी जिंदगी के फैसले हम खुद नहीं करते, बल्कि बहुत सी स्थितियां करती हैं.

‘‘अकेली लड़की को न कोई घर देने को तैयार है न पेइंग गैस्ट रखना चाहता है. मेरी जिंदगी के हालात बहुत बुरे हो चुके थे. हार कर मैं ने ‘मिसेज खन्ना’ लिबास ओढ़ लिया. कोई पूछता है तो कह देती हूं पति दूसरे शहर में काम करते हैं. हर साल 2 साल में घर बदलना पड़ता है. और कभीकभी तो 6 महीने में ही, क्योंकि पति नाम की वस्तु मैं खरीद कर तो ला नहीं सकती. आप से भी मैं ने झूठ बोला था. पार्टियां, कचौरियां, बच्चे सब झूठ था. अब आप चाहे रखें चाहे निकालें…’’ कह कर वह नजरें झुकाए रोने लगी. मेरे पास कोई शब्द नहीं था.

‘‘बड़ा मुश्किल है मैडम अकेले रहना… यह इतना आसान नहीं है जितना आप समझती हैं… भले ही आप कितनी भी सामर्थ्यवान हों, कितना भी पढ़ीलिखी हों, समाज में कैसा भी रुतबा क्यों न हो… आप दुनिया से तो लड़ सकती हैं पर अपनेआप से नहीं. तभी तो मैं ने कहा था कि आप अपनी जिंदगी से समझौता कर लीजिए.’’

मेरा तो सारा वजूद ही डगमगाने लगा. मुझे जहां से जिंदगी शुरू करनी थी, वह सच तो मेरे सामने खड़ा था. अब इस के बाद मेरे लिए निर्णय लेना और भी आसान हो गया. मेरे लिए यहां बैठने का अब कोई औचित्य भी नहीं था. जब आगे का रास्ता मालूम न हो तो पीछे लौटना ही पड़ता है. मैं भरे मन से उठ कर जाने लगी तो नीलिमा ने पूछा, ‘‘मैम, आप ने बताया नहीं आप क्यों आई थीं.’’ ‘‘नहीं बस यों ही,’’ मैं ने डबडबाती आंखों से उसे देखा

वह बुझे मन से पूछने लगी, ‘‘आप ने बताया नहीं मैं कल से काम पर आऊं या…’’ और हाथ जोड़ दिए. पता नहीं उस एक लमहे में क्या हुआ कि मैं उस की सादगी और मजबूरी पर बुरी तरह रो पड़ी. न मेरे पास कोई शब्द सहानुभूति का था और न ही सांत्वना का. इन शब्दों से ऊपर भी शब्द होते तो आज कम पड़ जाते. एक क्षण के लिए काठ की मूर्ति की तरह मेरे कदम जड़ हो गए. मैं अपने घर आ कर बहुत रोई. पता नहीं उस के लिए या अपने अहं के लिए… और कितनी बार रोई. शाम होतेहोते मैं ने बेहद विनम्रता से अपने पति को फोन किया और साथ रहने की प्रार्थना की. बहुत अनुनयविनय की. शायद मेरे ऐसे व्यवहार पर पति को तरस आ गया और वह मान गए.

और हां, जिस ने मुझे तबाही से बचा लिया, उसे मैं ने एक अलग फ्लैट ले कर दे दिया. अब वह ‘मिसेज खन्ना’ का लिबास नहीं ओढ़ती. नीलिमा और सिर्फ नीलिमा. उस के मुझ पर बहुत एहसान हैं. चुका तो सकती नहीं पर भूलूंगी भी नह

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December 01, 2020 at 10:00AM

सांझ पड़े घर आना- भाग 2 : नीलिमा की बौस क्यों रोने लगी

वह धीरे से अपनी सीट से उठी और मेरी साड़ी के पल्लू से मेरे आंसू पोंछने लगी. फिर सामने पड़े गिलास से मुझे पानी पिलाया और मेरी पीठ पर स्नेह भरा हाथ रख दिया. बहुत देर तक वह यों ही खड़ी रही. अचानक गमगीन होते माहौल को सामान्य करने के लिए मैं ने 2-3 लंबी सांसें लीं और फिर अपनी थर्मस से चाय ले कर 2 कपों में डाल दी.

उस ने चाय का घूंट भरते हुए धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘मैम, मैं तो आप से बहुत छोटी हूं. मैं आप के बारे में न कुछ जानती हूं और न ही जानना चाहती हूं. पर इतना जरूर कह सकती हूं कि कुछ गलतियां आप की भी रही होंगी… पर हमें अपनी गलती का एहसास नहीं होता. हमारा अहं जो सामने आ जाता है. हो सकता है आप को तलाक मिल भी जाए… आप स्वतंत्रता चाहती हैं, वह भी मिल जाएगी, पर फिर क्या करेंगी आप?’’ ‘‘सुकून तो मिलेगा न… जिंदगी अपने ढंग से जिऊंगी.’’

‘‘अपने ढंग से जिंदगी तो आज भी जी रही हैं आप… इंडिपैंडैंट हैं अपना काम करने के लिए… एक प्रतिष्ठित कंपनी की बौस हैं… फिर…’’ कह कर वह चुप हो गई. उस की भाषा तल्ख पर शिष्ट थी. मैं एकदम सकपका गई. वह बेबाक बोलती जा रही थी. मैं ने झल्ला कर तेज स्वर में पूछा, ‘‘मैं समझ नहीं पा रही हूं तुम मेरी वकालत कर रही हो, मुझ से तर्कवितर्क कर रही हो, मेरा हौंसला बढ़ा रही हो या पुन: नर्क में धकेल रही हो.’’

‘‘मैम,’’ वह धीरे से पुन: शिष्ट भाषा में बोली, ‘‘एक अकेली औरत के लिए, वह भी तलाकशुदा के लिए अकेले जिंदगी काटना कितना मुश्किल होता है, यह कैसे बताऊं आप को…’’ ‘‘पहले आप के पास पति से खुशियां बांटने का मकसद रहा होगा, फिर बेटी और उस की पढ़ाई का मकसद. फिर लड़ कर अलग होने का मकसद और अब जब सब झंझटों से मुक्ति मिल जाएगी तो क्या मकसद रह जाएगा? आगे एक अकेली वीरान जिंदगी रह जाएगी…’’ कह कर वह चुप हो गई और प्रश्नसूचक निगाहों से मुझे देखती रही. फिर बोली, ‘‘मैम, आप कल सुबह यह सोच कर उठना कि आप स्वतंत्र हो गई हैं पर आप के आसपास कोई नहीं है. न सुख बांटने को न दुख बांटने को. न कोई लड़ने के लिए न झगड़ने के लिए. फिर आप देखना सब सुखसुविधाओं के बाद भी आप अपनेआप को अकेला ही पाएंगी.’’

मैं समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या कहना चाहती है. मेरे चेहरे पर कई रंग आ रहे थे, परंतु एक बात तो ठीक थी कि तलाक के बाद अगला कदम क्या होगा. यह मैं ने कभी ठीक से सोचा न था. ‘‘मैम, मैं अब चलती हूं. बाहर कई लोग मेरा इंतजार कर रहे हैं… जाने से पहले एक बार फिर से सलाह दूंगी कि इस तलाक को बचा लीजिए,’’ कह वह वहां से चली गई.

उस के जाने के बाद पुन: उस की बातों ने सोचने पर मजबूर कर दिया. मेरी सोच का दायरा अभी तक केवल तलाक तक सीमित था…उस के बाद व्हाट नैक्स्ट? उस पूरी रात मैं ठीक से सो नहीं पाई. सुबहसुबह कामवाली बालकनी में चाय रख कर चली गई. मैं ने सामने वाली कुरसी खींच कर टांगें पसारीं और फिर भूत के गर्भ में चली गई. किसी ने ठीक ही कहा था कि या तो हम भूत में जीते हैं या फिर भविष्य में. वर्तमान में जीने के लिए मैं तब घर वालों से लड़ती रही और आज उस से अलग होने के लिए. पापा को मनाने के लिए इस के बारे में झूठसच का सहारा लेती रही, उस की जौब और शिक्षा के बारे में तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करती रही और आज उस पर उलटेसीधे लांछन लगा कर तलाक ले रही हूं.

तब उस का तेजतर्रार स्वभाव और खुल कर बोलना मुझे प्रभावित करता था और अब वही चुभने लगा है. तब उस का साधारण कपड़े पहनना और सादगी से रहना मेरे मन को भाता था और अब वही सब मेरी सोसाइटी में मुझे नीचा दिखाने की चाल नजर आता है. तब भी उस की जौब और वेतन मुझ से कम थी और आज भी है. ‘‘ऐसा भी नहीं है कि पिछले 25 साल हमने लड़तेझगड़ते गुजारे हों. कुछ सुकून और प्यारभरे पल भी साथसाथ जरूर गुजारे होंगे. पहाड़ों, नदियों और समुद्री किनारों के बीच हम ने गृहस्थ की नींव भी रखी होगी. अपनी बेटी को बड़े होते भी देखा होगा और उस के भविष्य के सपने भी संजोए होंगे. फिर आखिर गलती हुई कहां?’’ मैं सोचती रही गई.

अपनी भूलीबिसरी यादों के अंधेरे गलियारों में मुझे इस तनाव का सिरा पकड़ में नहीं आ रहा था. जहां तक मुझे याद आता है मैं बेटी को 12वीं कक्षा के बाद यूके भेजना चाहती थी और मेरे पति यहीं भारत में पढ़ाना चाहते थे. शायद उन की यह मंशा थी कि बेटी नजरों के सामने रहेगी. मगर मैं उस का भविष्य विदेशी धरती पर खोज रही थी? और अंतत: मैं ने उसे अपने पैसों और रुतबे के दम पर बाहर भेज दिया. बेटी का मन भी बाहर जाने का नहीं था. पर मैं जो ठान लेती करती. इस से मेरे पति को कहीं भीतर तक चोट लगी और वह और भी उग्र हो गए. फिर कई दिनों तक हमारे बीच अबोला पसर गया. हमारे बीच की खाई फैलती गई. कभी वह देर से आता तो कभी नहीं भी आता. मैं ने कभी इस बात की परवाह नहीं की और अंत में वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था. बेटी विदेश क्या गई बस वहीं की हो गई. फिर वहीं पर एक विदेशी लड़के से शादी कर ली. कोई इजाजत नहीं बस निर्णय… मेरी तरह.

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वह धीरे से अपनी सीट से उठी और मेरी साड़ी के पल्लू से मेरे आंसू पोंछने लगी. फिर सामने पड़े गिलास से मुझे पानी पिलाया और मेरी पीठ पर स्नेह भरा हाथ रख दिया. बहुत देर तक वह यों ही खड़ी रही. अचानक गमगीन होते माहौल को सामान्य करने के लिए मैं ने 2-3 लंबी सांसें लीं और फिर अपनी थर्मस से चाय ले कर 2 कपों में डाल दी.

उस ने चाय का घूंट भरते हुए धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘मैम, मैं तो आप से बहुत छोटी हूं. मैं आप के बारे में न कुछ जानती हूं और न ही जानना चाहती हूं. पर इतना जरूर कह सकती हूं कि कुछ गलतियां आप की भी रही होंगी… पर हमें अपनी गलती का एहसास नहीं होता. हमारा अहं जो सामने आ जाता है. हो सकता है आप को तलाक मिल भी जाए… आप स्वतंत्रता चाहती हैं, वह भी मिल जाएगी, पर फिर क्या करेंगी आप?’’ ‘‘सुकून तो मिलेगा न… जिंदगी अपने ढंग से जिऊंगी.’’

‘‘अपने ढंग से जिंदगी तो आज भी जी रही हैं आप… इंडिपैंडैंट हैं अपना काम करने के लिए… एक प्रतिष्ठित कंपनी की बौस हैं… फिर…’’ कह कर वह चुप हो गई. उस की भाषा तल्ख पर शिष्ट थी. मैं एकदम सकपका गई. वह बेबाक बोलती जा रही थी. मैं ने झल्ला कर तेज स्वर में पूछा, ‘‘मैं समझ नहीं पा रही हूं तुम मेरी वकालत कर रही हो, मुझ से तर्कवितर्क कर रही हो, मेरा हौंसला बढ़ा रही हो या पुन: नर्क में धकेल रही हो.’’

‘‘मैम,’’ वह धीरे से पुन: शिष्ट भाषा में बोली, ‘‘एक अकेली औरत के लिए, वह भी तलाकशुदा के लिए अकेले जिंदगी काटना कितना मुश्किल होता है, यह कैसे बताऊं आप को…’’ ‘‘पहले आप के पास पति से खुशियां बांटने का मकसद रहा होगा, फिर बेटी और उस की पढ़ाई का मकसद. फिर लड़ कर अलग होने का मकसद और अब जब सब झंझटों से मुक्ति मिल जाएगी तो क्या मकसद रह जाएगा? आगे एक अकेली वीरान जिंदगी रह जाएगी…’’ कह कर वह चुप हो गई और प्रश्नसूचक निगाहों से मुझे देखती रही. फिर बोली, ‘‘मैम, आप कल सुबह यह सोच कर उठना कि आप स्वतंत्र हो गई हैं पर आप के आसपास कोई नहीं है. न सुख बांटने को न दुख बांटने को. न कोई लड़ने के लिए न झगड़ने के लिए. फिर आप देखना सब सुखसुविधाओं के बाद भी आप अपनेआप को अकेला ही पाएंगी.’’

मैं समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या कहना चाहती है. मेरे चेहरे पर कई रंग आ रहे थे, परंतु एक बात तो ठीक थी कि तलाक के बाद अगला कदम क्या होगा. यह मैं ने कभी ठीक से सोचा न था. ‘‘मैम, मैं अब चलती हूं. बाहर कई लोग मेरा इंतजार कर रहे हैं… जाने से पहले एक बार फिर से सलाह दूंगी कि इस तलाक को बचा लीजिए,’’ कह वह वहां से चली गई.

उस के जाने के बाद पुन: उस की बातों ने सोचने पर मजबूर कर दिया. मेरी सोच का दायरा अभी तक केवल तलाक तक सीमित था…उस के बाद व्हाट नैक्स्ट? उस पूरी रात मैं ठीक से सो नहीं पाई. सुबहसुबह कामवाली बालकनी में चाय रख कर चली गई. मैं ने सामने वाली कुरसी खींच कर टांगें पसारीं और फिर भूत के गर्भ में चली गई. किसी ने ठीक ही कहा था कि या तो हम भूत में जीते हैं या फिर भविष्य में. वर्तमान में जीने के लिए मैं तब घर वालों से लड़ती रही और आज उस से अलग होने के लिए. पापा को मनाने के लिए इस के बारे में झूठसच का सहारा लेती रही, उस की जौब और शिक्षा के बारे में तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करती रही और आज उस पर उलटेसीधे लांछन लगा कर तलाक ले रही हूं.

तब उस का तेजतर्रार स्वभाव और खुल कर बोलना मुझे प्रभावित करता था और अब वही चुभने लगा है. तब उस का साधारण कपड़े पहनना और सादगी से रहना मेरे मन को भाता था और अब वही सब मेरी सोसाइटी में मुझे नीचा दिखाने की चाल नजर आता है. तब भी उस की जौब और वेतन मुझ से कम थी और आज भी है. ‘‘ऐसा भी नहीं है कि पिछले 25 साल हमने लड़तेझगड़ते गुजारे हों. कुछ सुकून और प्यारभरे पल भी साथसाथ जरूर गुजारे होंगे. पहाड़ों, नदियों और समुद्री किनारों के बीच हम ने गृहस्थ की नींव भी रखी होगी. अपनी बेटी को बड़े होते भी देखा होगा और उस के भविष्य के सपने भी संजोए होंगे. फिर आखिर गलती हुई कहां?’’ मैं सोचती रही गई.

अपनी भूलीबिसरी यादों के अंधेरे गलियारों में मुझे इस तनाव का सिरा पकड़ में नहीं आ रहा था. जहां तक मुझे याद आता है मैं बेटी को 12वीं कक्षा के बाद यूके भेजना चाहती थी और मेरे पति यहीं भारत में पढ़ाना चाहते थे. शायद उन की यह मंशा थी कि बेटी नजरों के सामने रहेगी. मगर मैं उस का भविष्य विदेशी धरती पर खोज रही थी? और अंतत: मैं ने उसे अपने पैसों और रुतबे के दम पर बाहर भेज दिया. बेटी का मन भी बाहर जाने का नहीं था. पर मैं जो ठान लेती करती. इस से मेरे पति को कहीं भीतर तक चोट लगी और वह और भी उग्र हो गए. फिर कई दिनों तक हमारे बीच अबोला पसर गया. हमारे बीच की खाई फैलती गई. कभी वह देर से आता तो कभी नहीं भी आता. मैं ने कभी इस बात की परवाह नहीं की और अंत में वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था. बेटी विदेश क्या गई बस वहीं की हो गई. फिर वहीं पर एक विदेशी लड़के से शादी कर ली. कोई इजाजत नहीं बस निर्णय… मेरी तरह.

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December 01, 2020 at 10:00AM

शहादत : पड़ोसिन ने हमें पत्नीव्रता रहने कहां दिया

विश्वास कीजिए, मैं एक अदद पत्नी का पत्नीव्रता पति और एक जोड़ी बच्चों का बौड़म सा पिता हूं. दुनिया की ज्यादातर महिलाएं मेरे लिए मांबहन के समान हैं. ज्यादातर सद्गृहस्थों की तरह मैं भी घर से नाक की सीध में आफिस जाता हूं और इसी तरह वापस आता हूं.

अपने छोटे से परिवार के साथ मैं एक बड़े से मल्टीस्टोरी कांप्लेक्स में सुखपूर्वक रह रहा था. मेरे ऊपर मुसीबतों का पहाड़ तब टूटा जब मेरे पड़ोस वाले फ्लैट में एक फुलझड़ी रहने आ गई. आप की तरह मेरी भी तबीयत खूबसूरत पड़ोसिन को देख कर झक्क हो गई. किंतु मेरे दिल का गुब्बारा अगले ही दिन पिचक गया जब पता चला कि वह एक पुलिस इंस्पेक्टर की अघोषित पत्नी है.

जैसे सरकारी बाबुआें की घोषित संपत्ति के अलावा अनेक अघोषित संपत्तियां होती हैं वैसे ही समझदार पुलिस वालों की घोषित पत्नी के अलावा अनेक अघोषित पत्नियां होती हैं. बेचारों को जनता की सेवा में दिनरात पूरे शहर की खाक छाननी पड़ती है. चौबीसों घंटे की ड्यूटी. थक कर चूर हो जाना लाजमी है. ऐसे में वे शहर के जिस कोने में हों वहीं थकावट दूर कर तरोताजा होने की व्यवस्था को उन की जनसेवा का ही अभिन्न अंग माना जाना चाहिए.

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अपनी खूबसूरत पड़ोसिन के बारे में जो सूचना मुझ तक पहुंची उस के अनुसार कुछ दिनों पहले तक हमारी पड़ोसिन निराश्रित और जमाने के जुल्मों की शिकार थीं. एक बार मदद लेने की आस में पुलिस स्टेशन पहुंचीं तो इंस्पेक्टर साहब ने उन्हें पूरा संरक्षण प्रदान कर दिया. रोटी, कपड़ा और मकान के साथसाथ सारी मूलभूत आवश्यकताओं (आप समस्याएं भी कह सकते हैं) का जिम्मा अपने सिर ले लिया. बेचारे कुछ दिनों तक तो हर रात अबला को सुरक्षा प्रदान करने आते रहे किंतु वह लोकतांत्रिक व्यवस्था के पैरोकार थे. इसलिए किसी एक का पक्षपात करने के बजाय उन्होंने सप्ताह में अपना एक दिन हमारी पड़ोसिन के लिए आरक्षित कर दिया.

वह जब भी आते उन के दोनों हाथ भारीभरकम पैकेटों से लदे रहते. कई बार उन के साथ मजदूर टाइप के दोचार लोग भी होते जो कभी टीवी, कभी फ्रिज तो कभी वाशिंग मशीन जैसी चीजें उठाए रहते.

जिस दिन वह आते पड़ोसिन के फ्लैट में बड़ी चहलपहल रहती. बाकी के 6 दिन उन की आंखों में दुख का सागर लहराता रहता. कई बार मन में आता कि पड़ोसी धर्म का पालन कर उन के दुखदर्द को बांटूं किंतु इंस्पेक्टर का ध्यान आते ही सारा जोश फना हो जाता.

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एक दिन मेरा बेटा नए मोबाइल के लिए जिद कर रहा था. मैं काफी देर तक उसे समझाता रहा और आखिर में अधिकांश भारतीय पिताआें की तरह उसे चांटा जड़ दिया. वह भी सच्चा सपूत था. रोरो कर बंदे ने आसमान सिर पर उठा लिया.

अगले दिन मैं आफिस जाने के लिए निकला तो लिफ्ट में पड़ोसिन मिल गईं. संयोग से वहां हम दोनों के अलावा और कोई न था. उन्होंने मेरी ओर अपनत्व भरी नजर से देखा फिर संजीदा होती हुई बोलीं, ‘‘देखिए, बच्चों का मन मारना अच्छी बात नहीं होती है. आप उस के लिए एक नया मोबाइल खरीद ही लीजिए.’’

‘‘जी, महीने का आखिरी चल…’’ मैं चाह कर भी अपना वाक्य पूरा नहीं कर पाया.

पड़ोसिन अत्यंत आत्मीयता से मुसकराईं और पर्स से 3 हजार रुपए निकाल कर मेरी ओर बढ़ाती हुई बोलीं, ‘‘यह लीजिए, मेरी ओर से खरीद दीजिएगा.’’

‘‘लेकिन मैं आप से रुपए कैसे ले सकता हूं,’’ मैं अचकचा उठा.

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‘‘अरे, हम पड़ोसी हैं. एकदूसरे के सुखदुख में काम आना पड़ोसी का कर्तव्य होता है,’’ कहतेकहते उन्होंने इतने अधिकार से मेरी जेब में रुपए ठूंस दिए कि मैं न नहीं कर सका.

इस के बाद पड़ोसिन अकसर मुझे लिफ्ट में मिल जातीं और मेरी मदद कर देतीं. पता नहीं उन्हें मेरी जरूरतों के बारे में कैसे पता चल जाता था. जाने वह जादू जानती थीं या हम नौकरीपेशा गृहस्थों के चेहरे पर जरूरतों का बोर्ड टंगा रहता है. जो भी हो, मैं धीरेधीरे उन के एहसानों तले दबता चला जा रहा था.

मैं कमरतोड़ मेहनत करता था फिर भी बहुत मुश्किल से गाड़ी खींचने लायक कमा पाता था. उधर उन के पास जैसे जादू की डिबिया थी जिस में रुपए कभी कम ही नहीं होते थे. एक दिन मैं ने उन से पूछा तो वह खिलखिला पड़ीं, ‘‘जादू की डिबिया तो नहीं लेकिन मेरे पास जादू की पुडि़या जरूर है.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘अब आप से क्या छिपाना,’’ पड़ोसिन ने अपने पर्स से एक छोटी सी पुडि़या निकाली. उस में सफेद पाउडर जैसा कुछ भरा हुआ था. वह उसे दिखाती हुई मुसकराईं, ‘‘मुझे जितने पैसों की जरूरत होती है इन्हें बता देती हूं. ये इस पुडि़या के दम पर उतने पैसे किसी से भी मांग लेते हैं.’’

‘‘लेकिन कोई ऐसे ही पैसे कैसे दे देगा,’’ मुझे उस पुडि़या की जादुई शक्तियों पर भरोसा नहीं हुआ.

‘‘क्यों नहीं देगा,’’ वह रहस्यमय ढंग से मुसकराईं फिर मेरे कान में फुसफुसाते हुए बोलीं, ‘‘अगर इस पुडि़या में रखी कोकीन की बरामदगी आप की जेब से दिखा दी जाए तो आप क्या करेंगे? अपनी इज्जत बचाने की खातिर मुंहमांगी रकम देंगे या नहीं?’’

‘‘क्या वास्तव में यह कोकीन है?’’ मेरा सर्वांग कांप उठा.

‘‘यह तो फोरेंसिक रिपोर्ट आने के बाद कोर्ट में ही पता चलेगा, लेकिन तब तक आप की इज्जत का फलूदा बन जाएगा. सारे रिश्तेदार मान लेंगे कि इसी के दम पर आप कार पर घूमते थे,’’ उन्होंने बताया.

‘‘लेकिन कार तो मैं ने लोन ले कर खरीदी है,’’ मैं ने बचाव की कोशिश की.

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‘‘सभी जानते हैं कि लोन आयकर वालों की आंखों में धूल झोंकने के लिए लिया जाता है,’’ उन्होंने मेरे रक्षाकवच को फूंक मार कर उड़ा दिया.

यह सुन कर मेरे चेहरे का रंग उड़ गया. यह देख वह हलका सा मुसकराईं फिर मेरे कंधे पर हाथ मारते हुए बोलीं, ‘‘लेकिन आप क्यों परेशान हो रहे हैं. आप तो हमारे शुभचिंतक हैं.’’

मेरी जान में जान आई और मैं सांस भरते हुए बोला, ‘‘इस का मतलब इंस्पेक्टर साहब जिस आदमी की चाहें उस की इज्जत मिनटों में धो सकते हैं?’’

‘‘आदमी की ही क्यों वह औरत की भी इज्जत धो सकते हैं,’’ वह नयनों को तिरछा कर मुसकराईं.

‘‘वह कैसे?’’

‘‘दुनिया के सब से पुराने व्यापार में लिप्त बता कर. सभी जानते हैं कि आजकल अमीर घराने की महिलाएं अपने शौक की खातिर, मिडिल क्लास महिलाएं अपने ख्वाब पूरा करने की खातिर और गरीब महिलाएं अपना पेट पालने के लिए इस धंधे में लिप्त रहती हैं. इसलिए जिस पर चाहो हाथ धर दो, जनता सच मान लेगी,’’ उन्होंने सत्य उजागर किया.

‘‘बाप रे, तब तो आप के वह बहुत खतरनाक आदमी हुए,’’ मैं हड़बड़ाते हुए बोला.

‘‘लेकिन मेरे इशारों पर नाचते हैं,’’ वह गर्व से मुसकराईं और कंधे उचकाते हुए चली गईं.

2 दिन के बाद मेरी श्रीमतीजी अचानक कुछ काम से मायके चली गईं. उन के बिना खाली फ्लैट काटने को दौड़ता था लेकिन मजबूरी थी. शाम को मैं मुंह लटकाए आफिस से लौट रहा था कि लिफ्ट में पड़ोसिन मिल गईं.

‘‘सुना है भाभीजी मायके गई हैं?’’ उन्होंने अत्यंत शालीनता से पूछा.

‘‘जी हां.’’

‘‘अकेले में तो बड़ी बोरियत होती होगी,’’ उन्होंने मेरी आंखों में झांका.

‘‘मजबूरी है,’’ मेरे होंठ हिले.

‘‘मैं रात को आप के फ्लैट में आ जाऊंगी. सारी बोरियत दूर हो जाएगी,’’ उन्होंने मादक निगाहों से मेरी ओर देखा.

‘‘न, न…आप मेरे फ्लैट पर मत आइएगा,’’ मैं बुरी तरह घबरा उठा.

‘‘ठीक है, तो तुम मेरे फ्लैट पर आ जाना,’’ वह बड़े अधिकार के साथ आप से तुम पर उतर आईं.

मैं कुछ कहने जा ही रहा था कि लिफ्ट रुक गई. कुछ लोग बाहर खड़े थे.

‘‘मेरी बात ध्यान में रखना,’’ उन्होंने आदेशात्मक स्वर में कहा और लिफ्ट का दरवाजा खुलते ही तेजी से बाहर निकल गईं.

मैं पसीने से लथपथ हो गया. हांफते हुए अपने फ्लैट में आया और ब्रीफकेस फेंक बिस्तर पर गिर पड़ा.

आज मेरी समझ में आ गया कि वह गाहेबगाहे मेरी मदद क्यों करती थीं. खुद तो किसी की रखैल थीं और मुझे अपना… छी…उन्होंने मुझे बिकाऊ माल समझ रखा है. मेरा अंतर्मन वितृष्णा से भर उठा. टाइम पास करने के लिए मैं ने एक पत्रिका उठा ली. किंतु उस के पन्नों पर भी पड़ोसिन का चेहरा उभर आया. उस की मादक हंसी मुझे पास आने के लिए मौन निमंत्रण दे रही थी किंतु मैं एक सदचरित्र गृहस्थ था. किसी भी कीमत पर उस नागिन के जाल में नहीं फंसूंगा. मैं ने पत्रिका को दूर उछाल दिया.

रिमोट उठा कर मैं ने टीवी चला दिया. एक आइटम गर्ल का उत्तेजक डांस आ रहा था. यह मेरा पसंदीदा गाना था. बच्चों से छिप कर मैं अकसर इस का आनंद लेता रहता था. आज तो घर में कोई नहीं था. मैं निश्ंिचत भाव से उसे देखने लगा. अचानक आइटम गर्ल की गर्दन पर पड़ोसिन का चेहरा चिपक गया. अपनी मादक अदाआें से वह मुझे पास आने का आमंत्रण दे रही थी. मेनका की तरह मेरी तपस्या भंग कर देने के लिए आतुर थी.

‘तुम मुझे अपनी तरह दलदल में नहीं घसीट सकतीं,’ मैं ने झल्लाते हुए टीवी बंद कर दिया और बिस्तर पर लेट गया.

धीरेधीरे रात गहराने लगी. मेरी भूखप्यास गायब हो चुकी थी. नींद मुझ से कोसों दूर थी. काफी देर तक मैं करवटें बदलता रहा. पड़ोसिन के शब्द मेरे कानों में अंगार की तरह दहक रहे थे. मेरे बारे में ऐसा सोचने की उस चरित्रहीन की हिम्मत कैसे हुई? अपमान से मेरा पूरा शरीर दहकने लगा था. अगर मेरे परिवार और रिश्तेदारों को इस बारे में पता चल जाए तो मैं तो किसी को मुंह दिखाने के लायक नहीं रहूंगा.

अचानक मेरी सोच को झटका लगा, ‘अगर मैं ने उस का कहना नहीं माना और उस ने इंस्पेक्टर से कह कर वह जादू की पुडि़या मेरी जेब से बरामद करवा दी तो क्या होगा? अपने जिस चरित्र को मैं बचाना चाहता हूं क्या उस की धज्जियां नहीं उड़ जाएंगी? क्या समाज के सामने मेरी इज्जत दो कौड़ी की नहीं रह जाएगी?

‘कुछ भी हो मैं उस के जाल में नहीं फंसने वाला. बड़ेबड़े महापुरुषों को सद्चरित्रता दिखलाने पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है. मेरी भी जो बेइज्जती होगी उसे सह लूंगा,’ मैं ने अटल निर्णय ले लिया.

‘ठीक है. तुम तो महापुरुषों की श्रेणी में आ जाओगे लेकिन यदि उस घायल नागिन ने बदला लेने की खातिर इंस्पेक्टर से कह कर तुम्हारी पत्नी के दामन पर दाग लगवा दिया तो? क्या वह बेचारी बेमौत नहीं मारी जाएगी? उस की पवित्रता का दामन तारतार नहीं हो जाएगा? जिस ने जीवन भर तुम्हारी निस्वार्थ सेवा की है, क्या अपने स्वार्थ की खातिर उस का जीवन बरबाद हो जाने दोगे?’ तभी मेरी अंतरआत्मा ने दस्तक दी.

एकएक प्रश्न हथौड़े की भांति मेरे मनोमस्तिष्क पर बरसने लगा. तेज कोलाहल से मेरे कान के परदे फटने लगे.

‘‘नहीं,’’ मैं अपने हाथों को दोनों कानों पर रख कर सिसक पड़ा. पत्नी की इज्जत की रक्षा करना तो पति का कर्तव्य होता है. मैं ने भी सात फेरों के समय इस बात की शपथ खाई थी. चाहे मेरा सर्वस्व ही क्यों न बरबाद हो जाए, मैं उस के चरित्र पर आंच नहीं आने दूंगा.

मैं ने मन ही मन एक कठोर फैसला लिया और अपने परिवार की इज्जत बचाने की खातिर पड़ोसिन के समक्ष आत्म- समर्पण करने चल दिया.

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विश्वास कीजिए, मैं एक अदद पत्नी का पत्नीव्रता पति और एक जोड़ी बच्चों का बौड़म सा पिता हूं. दुनिया की ज्यादातर महिलाएं मेरे लिए मांबहन के समान हैं. ज्यादातर सद्गृहस्थों की तरह मैं भी घर से नाक की सीध में आफिस जाता हूं और इसी तरह वापस आता हूं.

अपने छोटे से परिवार के साथ मैं एक बड़े से मल्टीस्टोरी कांप्लेक्स में सुखपूर्वक रह रहा था. मेरे ऊपर मुसीबतों का पहाड़ तब टूटा जब मेरे पड़ोस वाले फ्लैट में एक फुलझड़ी रहने आ गई. आप की तरह मेरी भी तबीयत खूबसूरत पड़ोसिन को देख कर झक्क हो गई. किंतु मेरे दिल का गुब्बारा अगले ही दिन पिचक गया जब पता चला कि वह एक पुलिस इंस्पेक्टर की अघोषित पत्नी है.

जैसे सरकारी बाबुआें की घोषित संपत्ति के अलावा अनेक अघोषित संपत्तियां होती हैं वैसे ही समझदार पुलिस वालों की घोषित पत्नी के अलावा अनेक अघोषित पत्नियां होती हैं. बेचारों को जनता की सेवा में दिनरात पूरे शहर की खाक छाननी पड़ती है. चौबीसों घंटे की ड्यूटी. थक कर चूर हो जाना लाजमी है. ऐसे में वे शहर के जिस कोने में हों वहीं थकावट दूर कर तरोताजा होने की व्यवस्था को उन की जनसेवा का ही अभिन्न अंग माना जाना चाहिए.

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अपनी खूबसूरत पड़ोसिन के बारे में जो सूचना मुझ तक पहुंची उस के अनुसार कुछ दिनों पहले तक हमारी पड़ोसिन निराश्रित और जमाने के जुल्मों की शिकार थीं. एक बार मदद लेने की आस में पुलिस स्टेशन पहुंचीं तो इंस्पेक्टर साहब ने उन्हें पूरा संरक्षण प्रदान कर दिया. रोटी, कपड़ा और मकान के साथसाथ सारी मूलभूत आवश्यकताओं (आप समस्याएं भी कह सकते हैं) का जिम्मा अपने सिर ले लिया. बेचारे कुछ दिनों तक तो हर रात अबला को सुरक्षा प्रदान करने आते रहे किंतु वह लोकतांत्रिक व्यवस्था के पैरोकार थे. इसलिए किसी एक का पक्षपात करने के बजाय उन्होंने सप्ताह में अपना एक दिन हमारी पड़ोसिन के लिए आरक्षित कर दिया.

वह जब भी आते उन के दोनों हाथ भारीभरकम पैकेटों से लदे रहते. कई बार उन के साथ मजदूर टाइप के दोचार लोग भी होते जो कभी टीवी, कभी फ्रिज तो कभी वाशिंग मशीन जैसी चीजें उठाए रहते.

जिस दिन वह आते पड़ोसिन के फ्लैट में बड़ी चहलपहल रहती. बाकी के 6 दिन उन की आंखों में दुख का सागर लहराता रहता. कई बार मन में आता कि पड़ोसी धर्म का पालन कर उन के दुखदर्द को बांटूं किंतु इंस्पेक्टर का ध्यान आते ही सारा जोश फना हो जाता.

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एक दिन मेरा बेटा नए मोबाइल के लिए जिद कर रहा था. मैं काफी देर तक उसे समझाता रहा और आखिर में अधिकांश भारतीय पिताआें की तरह उसे चांटा जड़ दिया. वह भी सच्चा सपूत था. रोरो कर बंदे ने आसमान सिर पर उठा लिया.

अगले दिन मैं आफिस जाने के लिए निकला तो लिफ्ट में पड़ोसिन मिल गईं. संयोग से वहां हम दोनों के अलावा और कोई न था. उन्होंने मेरी ओर अपनत्व भरी नजर से देखा फिर संजीदा होती हुई बोलीं, ‘‘देखिए, बच्चों का मन मारना अच्छी बात नहीं होती है. आप उस के लिए एक नया मोबाइल खरीद ही लीजिए.’’

‘‘जी, महीने का आखिरी चल…’’ मैं चाह कर भी अपना वाक्य पूरा नहीं कर पाया.

पड़ोसिन अत्यंत आत्मीयता से मुसकराईं और पर्स से 3 हजार रुपए निकाल कर मेरी ओर बढ़ाती हुई बोलीं, ‘‘यह लीजिए, मेरी ओर से खरीद दीजिएगा.’’

‘‘लेकिन मैं आप से रुपए कैसे ले सकता हूं,’’ मैं अचकचा उठा.

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‘‘अरे, हम पड़ोसी हैं. एकदूसरे के सुखदुख में काम आना पड़ोसी का कर्तव्य होता है,’’ कहतेकहते उन्होंने इतने अधिकार से मेरी जेब में रुपए ठूंस दिए कि मैं न नहीं कर सका.

इस के बाद पड़ोसिन अकसर मुझे लिफ्ट में मिल जातीं और मेरी मदद कर देतीं. पता नहीं उन्हें मेरी जरूरतों के बारे में कैसे पता चल जाता था. जाने वह जादू जानती थीं या हम नौकरीपेशा गृहस्थों के चेहरे पर जरूरतों का बोर्ड टंगा रहता है. जो भी हो, मैं धीरेधीरे उन के एहसानों तले दबता चला जा रहा था.

मैं कमरतोड़ मेहनत करता था फिर भी बहुत मुश्किल से गाड़ी खींचने लायक कमा पाता था. उधर उन के पास जैसे जादू की डिबिया थी जिस में रुपए कभी कम ही नहीं होते थे. एक दिन मैं ने उन से पूछा तो वह खिलखिला पड़ीं, ‘‘जादू की डिबिया तो नहीं लेकिन मेरे पास जादू की पुडि़या जरूर है.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘अब आप से क्या छिपाना,’’ पड़ोसिन ने अपने पर्स से एक छोटी सी पुडि़या निकाली. उस में सफेद पाउडर जैसा कुछ भरा हुआ था. वह उसे दिखाती हुई मुसकराईं, ‘‘मुझे जितने पैसों की जरूरत होती है इन्हें बता देती हूं. ये इस पुडि़या के दम पर उतने पैसे किसी से भी मांग लेते हैं.’’

‘‘लेकिन कोई ऐसे ही पैसे कैसे दे देगा,’’ मुझे उस पुडि़या की जादुई शक्तियों पर भरोसा नहीं हुआ.

‘‘क्यों नहीं देगा,’’ वह रहस्यमय ढंग से मुसकराईं फिर मेरे कान में फुसफुसाते हुए बोलीं, ‘‘अगर इस पुडि़या में रखी कोकीन की बरामदगी आप की जेब से दिखा दी जाए तो आप क्या करेंगे? अपनी इज्जत बचाने की खातिर मुंहमांगी रकम देंगे या नहीं?’’

‘‘क्या वास्तव में यह कोकीन है?’’ मेरा सर्वांग कांप उठा.

‘‘यह तो फोरेंसिक रिपोर्ट आने के बाद कोर्ट में ही पता चलेगा, लेकिन तब तक आप की इज्जत का फलूदा बन जाएगा. सारे रिश्तेदार मान लेंगे कि इसी के दम पर आप कार पर घूमते थे,’’ उन्होंने बताया.

‘‘लेकिन कार तो मैं ने लोन ले कर खरीदी है,’’ मैं ने बचाव की कोशिश की.

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‘‘सभी जानते हैं कि लोन आयकर वालों की आंखों में धूल झोंकने के लिए लिया जाता है,’’ उन्होंने मेरे रक्षाकवच को फूंक मार कर उड़ा दिया.

यह सुन कर मेरे चेहरे का रंग उड़ गया. यह देख वह हलका सा मुसकराईं फिर मेरे कंधे पर हाथ मारते हुए बोलीं, ‘‘लेकिन आप क्यों परेशान हो रहे हैं. आप तो हमारे शुभचिंतक हैं.’’

मेरी जान में जान आई और मैं सांस भरते हुए बोला, ‘‘इस का मतलब इंस्पेक्टर साहब जिस आदमी की चाहें उस की इज्जत मिनटों में धो सकते हैं?’’

‘‘आदमी की ही क्यों वह औरत की भी इज्जत धो सकते हैं,’’ वह नयनों को तिरछा कर मुसकराईं.

‘‘वह कैसे?’’

‘‘दुनिया के सब से पुराने व्यापार में लिप्त बता कर. सभी जानते हैं कि आजकल अमीर घराने की महिलाएं अपने शौक की खातिर, मिडिल क्लास महिलाएं अपने ख्वाब पूरा करने की खातिर और गरीब महिलाएं अपना पेट पालने के लिए इस धंधे में लिप्त रहती हैं. इसलिए जिस पर चाहो हाथ धर दो, जनता सच मान लेगी,’’ उन्होंने सत्य उजागर किया.

‘‘बाप रे, तब तो आप के वह बहुत खतरनाक आदमी हुए,’’ मैं हड़बड़ाते हुए बोला.

‘‘लेकिन मेरे इशारों पर नाचते हैं,’’ वह गर्व से मुसकराईं और कंधे उचकाते हुए चली गईं.

2 दिन के बाद मेरी श्रीमतीजी अचानक कुछ काम से मायके चली गईं. उन के बिना खाली फ्लैट काटने को दौड़ता था लेकिन मजबूरी थी. शाम को मैं मुंह लटकाए आफिस से लौट रहा था कि लिफ्ट में पड़ोसिन मिल गईं.

‘‘सुना है भाभीजी मायके गई हैं?’’ उन्होंने अत्यंत शालीनता से पूछा.

‘‘जी हां.’’

‘‘अकेले में तो बड़ी बोरियत होती होगी,’’ उन्होंने मेरी आंखों में झांका.

‘‘मजबूरी है,’’ मेरे होंठ हिले.

‘‘मैं रात को आप के फ्लैट में आ जाऊंगी. सारी बोरियत दूर हो जाएगी,’’ उन्होंने मादक निगाहों से मेरी ओर देखा.

‘‘न, न…आप मेरे फ्लैट पर मत आइएगा,’’ मैं बुरी तरह घबरा उठा.

‘‘ठीक है, तो तुम मेरे फ्लैट पर आ जाना,’’ वह बड़े अधिकार के साथ आप से तुम पर उतर आईं.

मैं कुछ कहने जा ही रहा था कि लिफ्ट रुक गई. कुछ लोग बाहर खड़े थे.

‘‘मेरी बात ध्यान में रखना,’’ उन्होंने आदेशात्मक स्वर में कहा और लिफ्ट का दरवाजा खुलते ही तेजी से बाहर निकल गईं.

मैं पसीने से लथपथ हो गया. हांफते हुए अपने फ्लैट में आया और ब्रीफकेस फेंक बिस्तर पर गिर पड़ा.

आज मेरी समझ में आ गया कि वह गाहेबगाहे मेरी मदद क्यों करती थीं. खुद तो किसी की रखैल थीं और मुझे अपना… छी…उन्होंने मुझे बिकाऊ माल समझ रखा है. मेरा अंतर्मन वितृष्णा से भर उठा. टाइम पास करने के लिए मैं ने एक पत्रिका उठा ली. किंतु उस के पन्नों पर भी पड़ोसिन का चेहरा उभर आया. उस की मादक हंसी मुझे पास आने के लिए मौन निमंत्रण दे रही थी किंतु मैं एक सदचरित्र गृहस्थ था. किसी भी कीमत पर उस नागिन के जाल में नहीं फंसूंगा. मैं ने पत्रिका को दूर उछाल दिया.

रिमोट उठा कर मैं ने टीवी चला दिया. एक आइटम गर्ल का उत्तेजक डांस आ रहा था. यह मेरा पसंदीदा गाना था. बच्चों से छिप कर मैं अकसर इस का आनंद लेता रहता था. आज तो घर में कोई नहीं था. मैं निश्ंिचत भाव से उसे देखने लगा. अचानक आइटम गर्ल की गर्दन पर पड़ोसिन का चेहरा चिपक गया. अपनी मादक अदाआें से वह मुझे पास आने का आमंत्रण दे रही थी. मेनका की तरह मेरी तपस्या भंग कर देने के लिए आतुर थी.

‘तुम मुझे अपनी तरह दलदल में नहीं घसीट सकतीं,’ मैं ने झल्लाते हुए टीवी बंद कर दिया और बिस्तर पर लेट गया.

धीरेधीरे रात गहराने लगी. मेरी भूखप्यास गायब हो चुकी थी. नींद मुझ से कोसों दूर थी. काफी देर तक मैं करवटें बदलता रहा. पड़ोसिन के शब्द मेरे कानों में अंगार की तरह दहक रहे थे. मेरे बारे में ऐसा सोचने की उस चरित्रहीन की हिम्मत कैसे हुई? अपमान से मेरा पूरा शरीर दहकने लगा था. अगर मेरे परिवार और रिश्तेदारों को इस बारे में पता चल जाए तो मैं तो किसी को मुंह दिखाने के लायक नहीं रहूंगा.

अचानक मेरी सोच को झटका लगा, ‘अगर मैं ने उस का कहना नहीं माना और उस ने इंस्पेक्टर से कह कर वह जादू की पुडि़या मेरी जेब से बरामद करवा दी तो क्या होगा? अपने जिस चरित्र को मैं बचाना चाहता हूं क्या उस की धज्जियां नहीं उड़ जाएंगी? क्या समाज के सामने मेरी इज्जत दो कौड़ी की नहीं रह जाएगी?

‘कुछ भी हो मैं उस के जाल में नहीं फंसने वाला. बड़ेबड़े महापुरुषों को सद्चरित्रता दिखलाने पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है. मेरी भी जो बेइज्जती होगी उसे सह लूंगा,’ मैं ने अटल निर्णय ले लिया.

‘ठीक है. तुम तो महापुरुषों की श्रेणी में आ जाओगे लेकिन यदि उस घायल नागिन ने बदला लेने की खातिर इंस्पेक्टर से कह कर तुम्हारी पत्नी के दामन पर दाग लगवा दिया तो? क्या वह बेचारी बेमौत नहीं मारी जाएगी? उस की पवित्रता का दामन तारतार नहीं हो जाएगा? जिस ने जीवन भर तुम्हारी निस्वार्थ सेवा की है, क्या अपने स्वार्थ की खातिर उस का जीवन बरबाद हो जाने दोगे?’ तभी मेरी अंतरआत्मा ने दस्तक दी.

एकएक प्रश्न हथौड़े की भांति मेरे मनोमस्तिष्क पर बरसने लगा. तेज कोलाहल से मेरे कान के परदे फटने लगे.

‘‘नहीं,’’ मैं अपने हाथों को दोनों कानों पर रख कर सिसक पड़ा. पत्नी की इज्जत की रक्षा करना तो पति का कर्तव्य होता है. मैं ने भी सात फेरों के समय इस बात की शपथ खाई थी. चाहे मेरा सर्वस्व ही क्यों न बरबाद हो जाए, मैं उस के चरित्र पर आंच नहीं आने दूंगा.

मैं ने मन ही मन एक कठोर फैसला लिया और अपने परिवार की इज्जत बचाने की खातिर पड़ोसिन के समक्ष आत्म- समर्पण करने चल दिया.

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December 01, 2020 at 10:00AM

नथ : नाक की नथ कैसे मुन्नी की शादी में कुहराम की वजह बन गई

उस दिन बैंक से नोटिस आया कि बैंक की शाखा का स्थानांतरण हो रहा है. जिन ग्राहकों के लौकर हैं वे उसे खाली कर दें. सो पतिदेव लौकर से सारा सामान उठा कर घर ले आए. जैसे वेतनयाफ्ता, पेंशनप्राप्ता 60-70 वर्षीय बूढ़े के लौकर में कुछ फिक्स डिपौजिट के कागज तथा 2 बेटियों के विवाह उपरांत कुछ बचेखुचे गहनों के नाम पर टूटे कंगन, कान का एक बुंदा या फिर चांदी के सिक्के, इतना ही पड़ा था. उन दिनों, टिन के बने टौफी के डब्बे आया करते थे और वे बड़े उपयोगी सिद्ध होते थे, हमारे पिताजी तथा जेठ आदि सब की शेविंग का सामान उन्हीं डब्बों में सदियों रखा जाता रहा है, आज भी जंग लगे उन डब्बों से बिछुड़ना उन्हें पीड़ा पहुंचा जाता है, और उन्हीं डब्बों में सुरक्षित रखे जाते थे गहनेजेवर. वैसा ही डब्बा, जिस में सफेद रुई, जो अब पीली पड़ गई थी और लाल पतंगी कागज (फटा हुआ), ‘गुदड़ी में लाल’ मुहावरे को चरितार्थ करता हुआ, घर लाया गया तो हम ने अपनी जायदाद के मनोहारी दर्शन किए. एक गले की हंसली, जिस में सोना कम पीतल ज्यादा थी, सुनार ने बेईमानी की थी, कान के 2 झुमके अलगअलग भांति के, एकआध चूड़ी, दोचार अजीबोगरीब दिखने वाली अंगूठियां और अचानक दिखी 9 नगीनों जडि़त नाक की समूची नथ.

‘‘अरे, यह तो वही नथ है जोे रश्मि भाभी ने मेरी शादी पर पहनी थी,’’ अपनी हथेली पर उस को बड़े दुलार से लिटाया, उस का सौंदर्य निहारा. अनुपम रूपमति नथ. उस डब्बे की एकमात्र शोभा. अचानक यादों की बरात हमारी अपनी बरात के साथ, बैंडबाजे के साथ, मानस पर उमड़ पड़ी. याद आया वह दिन जब हमें दुलहन बनाया जा रहा था, नातेरिश्तेदारों से घर भरा था. दादीजी तो रही नहीं थीं, सो घर की सब से बड़ी या यों कहिए चौधराहट छांटने वाली बड़ी ताईजी, पुरखों के गांव से स्पैशली बुलाई गई थीं क्योंकि उन की सब से छोटी देवरानी यानी कि हमारी अम्मा को तो शादीब्याह करने की अक्ल नहीं थी. 7 बच्चों को जन्म देने वाली, उन्हें उच्चतम शिक्षा से पारंगत करने की क्षमता तो अम्मा कर सकती थीं किंतु शादीब्याह में ऊंचनीच का उन्हें क्या ज्ञान धरा था भला? रस्मों की भरमार, दिनभर में पच्चीसों रस्में, उन रस्मों में तो जैसे ताईजी ने पीएचडी कर रखी थी और मजाल कि उन की बात कोई टाल दे. अच्छेभले शिक्षित पिताजी, जो भौतिक शास्त्र के प्रोफैसर थे, न कोई देवीदेवता को मानते थे न किसी प्रपंच में पड़ते थे किंतु उस समय बेटी के ब्याह पर जैसा ताईजी ने कहा उन्होंने भी वैसा ही किया, शायद शिष्टतावश. लेकिन 21 वर्षीय, अंगरेजी में एमए पास मौडर्न कन्या को ताईजी की कोई बात फूटी आंख नहीं सुहाती थी.

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गौर पूजा के समय ताईजी ने हुक्म दिया, ‘सिर धो कर नहाओ और सीधा बिना किसी को छुए, आंगन में बनी वेदी के पटरे पर बैठ जाओ.’ कन्या यानी मैं ने विद्रोह किया, शोर मचाया, ‘कल ही सिर धोया था.’  परंतु ताईजी ने एक नहीं सुनी, अम्मा सिर पर पल्ला रखे मुझे घूर रही थीं, मानो कह रही हों – मेरी इज्जत का फालूदा मत बना. झक मार कर मुझे दोबारा सिर धोना पड़ा और सफेद तौलिया बालों में लपेट कर आज्ञाकारी पुत्री का सा रोल अदा करने आंगन में बिछे पटरे पर बैठने का उपक्रम करने लगी. अभी आधी ही बैठी थी कि ताईजी ने झपट कर मेरे सिर पर बंधा तौलिया खींच कर खोल दिया, ‘अरे, घोर अपशुगन, सिर पर सफेद कपड़ा बांध कर क्यों बैठ गई?’ काटो तो खून नहीं, क्रोध से भुनभुनाती हुई कन्या वेदी से उठ खड़ी हुई,  ‘नहीं करनी मुझे ऐसी शादी, यह भी कोई तरीका है, कोई मैनर्स नहीं है? एक हजार टोनेटोटके लगा रखे हैं, तंग कर दिया.’

रिश्तेदारों में फुसफुसाहट शुरू हो गई, ‘हाय कैसी बेहया लड़की है,’  चाची, बूआ, पड़ोसिनों में यह ‘बे्रकिंग न्यूज’ की भांति करंट सी दौड़ गई. बड़ी मुश्किल से मौसी ने समझाबुझा कर गौरी पूजा की रस्म करवाई, सिर के गीले बालों पर गुलाबी दुपट्टा डाल कर. ऐसा लग रहा था जैसे सफेद तौलिया बांधने मात्र से मैं विधवा हो जाऊंगी. रीतिरिवाज, विवाहित जीवन में मंगल लाने वाली ‘इंश्योरैंस कंपनियों’ जैसी हैं कि प्रीमियम नहीं भरा तो विवाह टूट जाएगा. 33 करोड़ देवीदेवताओं को मनाना क्या इतना सरल होता है? कभी चंद्रमा को प्रसन्न किया जाता, कभी पुरखों को, कभी दीवार पर थापे, कभी गेहूं, हल्दी, चावल की शामत आती, शुभअशुभ नेग. पता नहीं कौन सी किताबों में ये सब लिखा था. और ताईजी को इतना याद कैसे रहता था? गांव से ताईजी बड़ेबडे पतीले, कड़ाही, ढेरों बरतनों के साथ रिकशा पर लद कर आई थीं.

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मिसरानीजी, जिन का काम रसोई में चूल्हा मैनेज करना था और दूसरा उन का परमप्रिय काम था जब कोई शगुन का समय आया वे बेसुरी ढोलक बजाने बैठ जातीं. वे अपनी सफेद किनारी वाली धोती का पल्ला मुंह में दबा कर इतना बेसुरा गातीं कि उपस्थित श्रोता हंसी नहीं दबा पाते  मिसरानीजी से मजा लेने के लिए लड़केलड़कियां मनोरंजन करने की खातिर उन से फरमाइश करते. ‘मिसरानीजी, वह वाला गीत गाना.’ ले दे कर उन्हें एक ही तो ‘बन्नी’ आती थी और वे बड़ी खुश हो कर राग अलापने लगतीं. ‘पटरे पे बैठी लाड़ो भजन करे…’ और सब का हंसहंस कर बुरा हाल हो जाता. आखिर ‘लाड़ो’ अपनी शादी पर भजन क्यों कर रही होगी? कोई सोचे क्या संन्यास लेने जा रही थी? आखिर बरात आने का समय हुआ. दुलहन का इंस्पैक्शन करने ताईजी तथा पूरा प्रपंची स्त्री समाज नख से शिख तक बारीकी से जांच करने कमरे में आया. बड़े यत्न से मेरी प्रिय सखी ने मेरा शृंगार किया था. उस ने कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी थी किंतु उसे क्या पता कि कमी किस कोने से टपक पड़ेगी.

देखते ही ताईजी गरजीं, ‘नथ कहां है? नाक सूनी क्यों है? मामा के यहां से नथ आनी चाहिए थी?’ अब तो मानो कोहराम मच गया, एक बार फिर खुसुरफुसुर होने लगी, ‘हाय, नथ नहीं आई भात में?’ अम्मा के पीहर वालों को नीचा दिखाने का इस से बढि़या मौका और क्या हो सकता था. बेचारी अम्मा का चेहरा फक पड़ गया. अपनी सास को संकट में देख कर, रश्मि भाभी भाग कर अपनी नथ ले आईं और दुलहन को यानी मुझे पहना दी. सब ने राहत की सांस ली. उधर बैंडबाजे की आवाज कानों में पड़ते ही सब के सब बरात देखने भाग खड़े हुए. जैसेतैसे ब्याह पूर्ण हुआ और विदाई के गमगीन वातावरण के चलते जिसे देखो वही टसुए बहा रहा था. हमारे यहां लोगों को झूठमूठ का रोना खूब आता है. क्षणभर में रोने लगते हैं, क्षणभर में हंसने. विदा होती कन्या ने भी कुछ आंसू ताईजी के डर के मारे अपने नेत्रों से टपकाए. सोचा, रोना तो पड़ेगा वरना ताईजी कहेंगी, कैसी बेशर्म है. विदाई की तमाम रस्में खत्म हो चुकीं और मेरे पैर घर की दहलीज पार करने ही वाले थे कि एक क्षीण सी आवाज में किसी ने टोका, ‘रश्मि की नाक की नथ तो निकाल लो.’ यह सुनते ही ताईजी एकदम मैदानेजंग में आ खड़ी हुईं और बोलीं, ‘इस नथ में मुन्नी की भांवर पड़ गई है, अब यह इस की नाक से नहीं उतारी जा सकती.’

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किस में इतना दमखम था कि हिटलरी ताईजी की अवज्ञा कर सकता. सो, मुन्नी यानी मेरी विदाई उसी नथ में हो गई. आज नथ को देखते ही मुन्नी को पूरी दास्तान-ए-नथ याद हो आई. व्यंग्य करते हुए मैं ने पति से कहा, ‘‘वाह रे ताईजी, वाह, आप का तर्क. इसी नथ में तो रश्मि भाभी के भी फेरे हुए होंगे, तब उसे पहनाने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं हुई?’’ पति उवाच, ‘‘होती भी क्यों? रश्मि भाभी तो बहू ठहरीं. बहू का जेवर बेटी को पहनाने में उन्हें क्यों और कैसे एतराज होता?’’ मुझे अपने पर क्रोध आया. क्या मैं भी इन दकियानूसी अंधविश्वासों से ग्रसित थी? मैं ने तब क्यों विरोध नहीं किया था और अब तक क्यों नहीं नथ वापस की? ढेरों प्रश्न मुझे विचलित करने लगे. मेरे विवाह को आज 47 वर्ष हो गए हैं, आज उस नथ का खयाल आया? आज मैं चेती हूं? अपने को धिक्कारते हुए मैं ने निश्चय किया कि अगली बार जब भी रश्मि भाभी से मिलूंगी तो उन की नथ उन्हें लौटा दूंगी. कथा का समापन पतिदेव ने यों कह कर किया कि पिछले 47 वर्षों से रश्मि भाभी का और तुम्हारा, ‘सुहाग’ बैंक के घटाटोप छोटे से लौकर में बंद पड़ा रहा.

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उस दिन बैंक से नोटिस आया कि बैंक की शाखा का स्थानांतरण हो रहा है. जिन ग्राहकों के लौकर हैं वे उसे खाली कर दें. सो पतिदेव लौकर से सारा सामान उठा कर घर ले आए. जैसे वेतनयाफ्ता, पेंशनप्राप्ता 60-70 वर्षीय बूढ़े के लौकर में कुछ फिक्स डिपौजिट के कागज तथा 2 बेटियों के विवाह उपरांत कुछ बचेखुचे गहनों के नाम पर टूटे कंगन, कान का एक बुंदा या फिर चांदी के सिक्के, इतना ही पड़ा था. उन दिनों, टिन के बने टौफी के डब्बे आया करते थे और वे बड़े उपयोगी सिद्ध होते थे, हमारे पिताजी तथा जेठ आदि सब की शेविंग का सामान उन्हीं डब्बों में सदियों रखा जाता रहा है, आज भी जंग लगे उन डब्बों से बिछुड़ना उन्हें पीड़ा पहुंचा जाता है, और उन्हीं डब्बों में सुरक्षित रखे जाते थे गहनेजेवर. वैसा ही डब्बा, जिस में सफेद रुई, जो अब पीली पड़ गई थी और लाल पतंगी कागज (फटा हुआ), ‘गुदड़ी में लाल’ मुहावरे को चरितार्थ करता हुआ, घर लाया गया तो हम ने अपनी जायदाद के मनोहारी दर्शन किए. एक गले की हंसली, जिस में सोना कम पीतल ज्यादा थी, सुनार ने बेईमानी की थी, कान के 2 झुमके अलगअलग भांति के, एकआध चूड़ी, दोचार अजीबोगरीब दिखने वाली अंगूठियां और अचानक दिखी 9 नगीनों जडि़त नाक की समूची नथ.

‘‘अरे, यह तो वही नथ है जोे रश्मि भाभी ने मेरी शादी पर पहनी थी,’’ अपनी हथेली पर उस को बड़े दुलार से लिटाया, उस का सौंदर्य निहारा. अनुपम रूपमति नथ. उस डब्बे की एकमात्र शोभा. अचानक यादों की बरात हमारी अपनी बरात के साथ, बैंडबाजे के साथ, मानस पर उमड़ पड़ी. याद आया वह दिन जब हमें दुलहन बनाया जा रहा था, नातेरिश्तेदारों से घर भरा था. दादीजी तो रही नहीं थीं, सो घर की सब से बड़ी या यों कहिए चौधराहट छांटने वाली बड़ी ताईजी, पुरखों के गांव से स्पैशली बुलाई गई थीं क्योंकि उन की सब से छोटी देवरानी यानी कि हमारी अम्मा को तो शादीब्याह करने की अक्ल नहीं थी. 7 बच्चों को जन्म देने वाली, उन्हें उच्चतम शिक्षा से पारंगत करने की क्षमता तो अम्मा कर सकती थीं किंतु शादीब्याह में ऊंचनीच का उन्हें क्या ज्ञान धरा था भला? रस्मों की भरमार, दिनभर में पच्चीसों रस्में, उन रस्मों में तो जैसे ताईजी ने पीएचडी कर रखी थी और मजाल कि उन की बात कोई टाल दे. अच्छेभले शिक्षित पिताजी, जो भौतिक शास्त्र के प्रोफैसर थे, न कोई देवीदेवता को मानते थे न किसी प्रपंच में पड़ते थे किंतु उस समय बेटी के ब्याह पर जैसा ताईजी ने कहा उन्होंने भी वैसा ही किया, शायद शिष्टतावश. लेकिन 21 वर्षीय, अंगरेजी में एमए पास मौडर्न कन्या को ताईजी की कोई बात फूटी आंख नहीं सुहाती थी.

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गौर पूजा के समय ताईजी ने हुक्म दिया, ‘सिर धो कर नहाओ और सीधा बिना किसी को छुए, आंगन में बनी वेदी के पटरे पर बैठ जाओ.’ कन्या यानी मैं ने विद्रोह किया, शोर मचाया, ‘कल ही सिर धोया था.’  परंतु ताईजी ने एक नहीं सुनी, अम्मा सिर पर पल्ला रखे मुझे घूर रही थीं, मानो कह रही हों – मेरी इज्जत का फालूदा मत बना. झक मार कर मुझे दोबारा सिर धोना पड़ा और सफेद तौलिया बालों में लपेट कर आज्ञाकारी पुत्री का सा रोल अदा करने आंगन में बिछे पटरे पर बैठने का उपक्रम करने लगी. अभी आधी ही बैठी थी कि ताईजी ने झपट कर मेरे सिर पर बंधा तौलिया खींच कर खोल दिया, ‘अरे, घोर अपशुगन, सिर पर सफेद कपड़ा बांध कर क्यों बैठ गई?’ काटो तो खून नहीं, क्रोध से भुनभुनाती हुई कन्या वेदी से उठ खड़ी हुई,  ‘नहीं करनी मुझे ऐसी शादी, यह भी कोई तरीका है, कोई मैनर्स नहीं है? एक हजार टोनेटोटके लगा रखे हैं, तंग कर दिया.’

रिश्तेदारों में फुसफुसाहट शुरू हो गई, ‘हाय कैसी बेहया लड़की है,’  चाची, बूआ, पड़ोसिनों में यह ‘बे्रकिंग न्यूज’ की भांति करंट सी दौड़ गई. बड़ी मुश्किल से मौसी ने समझाबुझा कर गौरी पूजा की रस्म करवाई, सिर के गीले बालों पर गुलाबी दुपट्टा डाल कर. ऐसा लग रहा था जैसे सफेद तौलिया बांधने मात्र से मैं विधवा हो जाऊंगी. रीतिरिवाज, विवाहित जीवन में मंगल लाने वाली ‘इंश्योरैंस कंपनियों’ जैसी हैं कि प्रीमियम नहीं भरा तो विवाह टूट जाएगा. 33 करोड़ देवीदेवताओं को मनाना क्या इतना सरल होता है? कभी चंद्रमा को प्रसन्न किया जाता, कभी पुरखों को, कभी दीवार पर थापे, कभी गेहूं, हल्दी, चावल की शामत आती, शुभअशुभ नेग. पता नहीं कौन सी किताबों में ये सब लिखा था. और ताईजी को इतना याद कैसे रहता था? गांव से ताईजी बड़ेबडे पतीले, कड़ाही, ढेरों बरतनों के साथ रिकशा पर लद कर आई थीं.

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मिसरानीजी, जिन का काम रसोई में चूल्हा मैनेज करना था और दूसरा उन का परमप्रिय काम था जब कोई शगुन का समय आया वे बेसुरी ढोलक बजाने बैठ जातीं. वे अपनी सफेद किनारी वाली धोती का पल्ला मुंह में दबा कर इतना बेसुरा गातीं कि उपस्थित श्रोता हंसी नहीं दबा पाते  मिसरानीजी से मजा लेने के लिए लड़केलड़कियां मनोरंजन करने की खातिर उन से फरमाइश करते. ‘मिसरानीजी, वह वाला गीत गाना.’ ले दे कर उन्हें एक ही तो ‘बन्नी’ आती थी और वे बड़ी खुश हो कर राग अलापने लगतीं. ‘पटरे पे बैठी लाड़ो भजन करे…’ और सब का हंसहंस कर बुरा हाल हो जाता. आखिर ‘लाड़ो’ अपनी शादी पर भजन क्यों कर रही होगी? कोई सोचे क्या संन्यास लेने जा रही थी? आखिर बरात आने का समय हुआ. दुलहन का इंस्पैक्शन करने ताईजी तथा पूरा प्रपंची स्त्री समाज नख से शिख तक बारीकी से जांच करने कमरे में आया. बड़े यत्न से मेरी प्रिय सखी ने मेरा शृंगार किया था. उस ने कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी थी किंतु उसे क्या पता कि कमी किस कोने से टपक पड़ेगी.

देखते ही ताईजी गरजीं, ‘नथ कहां है? नाक सूनी क्यों है? मामा के यहां से नथ आनी चाहिए थी?’ अब तो मानो कोहराम मच गया, एक बार फिर खुसुरफुसुर होने लगी, ‘हाय, नथ नहीं आई भात में?’ अम्मा के पीहर वालों को नीचा दिखाने का इस से बढि़या मौका और क्या हो सकता था. बेचारी अम्मा का चेहरा फक पड़ गया. अपनी सास को संकट में देख कर, रश्मि भाभी भाग कर अपनी नथ ले आईं और दुलहन को यानी मुझे पहना दी. सब ने राहत की सांस ली. उधर बैंडबाजे की आवाज कानों में पड़ते ही सब के सब बरात देखने भाग खड़े हुए. जैसेतैसे ब्याह पूर्ण हुआ और विदाई के गमगीन वातावरण के चलते जिसे देखो वही टसुए बहा रहा था. हमारे यहां लोगों को झूठमूठ का रोना खूब आता है. क्षणभर में रोने लगते हैं, क्षणभर में हंसने. विदा होती कन्या ने भी कुछ आंसू ताईजी के डर के मारे अपने नेत्रों से टपकाए. सोचा, रोना तो पड़ेगा वरना ताईजी कहेंगी, कैसी बेशर्म है. विदाई की तमाम रस्में खत्म हो चुकीं और मेरे पैर घर की दहलीज पार करने ही वाले थे कि एक क्षीण सी आवाज में किसी ने टोका, ‘रश्मि की नाक की नथ तो निकाल लो.’ यह सुनते ही ताईजी एकदम मैदानेजंग में आ खड़ी हुईं और बोलीं, ‘इस नथ में मुन्नी की भांवर पड़ गई है, अब यह इस की नाक से नहीं उतारी जा सकती.’

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किस में इतना दमखम था कि हिटलरी ताईजी की अवज्ञा कर सकता. सो, मुन्नी यानी मेरी विदाई उसी नथ में हो गई. आज नथ को देखते ही मुन्नी को पूरी दास्तान-ए-नथ याद हो आई. व्यंग्य करते हुए मैं ने पति से कहा, ‘‘वाह रे ताईजी, वाह, आप का तर्क. इसी नथ में तो रश्मि भाभी के भी फेरे हुए होंगे, तब उसे पहनाने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं हुई?’’ पति उवाच, ‘‘होती भी क्यों? रश्मि भाभी तो बहू ठहरीं. बहू का जेवर बेटी को पहनाने में उन्हें क्यों और कैसे एतराज होता?’’ मुझे अपने पर क्रोध आया. क्या मैं भी इन दकियानूसी अंधविश्वासों से ग्रसित थी? मैं ने तब क्यों विरोध नहीं किया था और अब तक क्यों नहीं नथ वापस की? ढेरों प्रश्न मुझे विचलित करने लगे. मेरे विवाह को आज 47 वर्ष हो गए हैं, आज उस नथ का खयाल आया? आज मैं चेती हूं? अपने को धिक्कारते हुए मैं ने निश्चय किया कि अगली बार जब भी रश्मि भाभी से मिलूंगी तो उन की नथ उन्हें लौटा दूंगी. कथा का समापन पतिदेव ने यों कह कर किया कि पिछले 47 वर्षों से रश्मि भाभी का और तुम्हारा, ‘सुहाग’ बैंक के घटाटोप छोटे से लौकर में बंद पड़ा रहा.

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December 01, 2020 at 10:00AM

घबराना क्या : ताऊजी का जिंदगी के प्रति क्या था फलसफा

‘‘देखो बेटा, यह जीवन इतना लचीला भी नहीं है कि हम जिधर चाहें इसे मोड़ लें और यह मुड़ भी जाए. कुछ ऐसा है जिसे मोड़ा जा सकता है और कुछ ऐसा भी है जिसे मोड़ा नहीं जा सकता. मोड़ना क्या मोड़ने के बारे में सोचना ही सब से बड़ा भुलावा देने जैसा है, क्योंकि हमारे हाथ ही कुछ नहीं है. हम सोच सकते हैं कि कल यह करेंगे पर कर भी पाएंगे इस की कोई गारंटी नहीं है.

‘‘कल क्या होगा हम नहीं जानते मगर कल हम क्या करना चाहेंगे यह कार्यक्रम बनाना तो हमारे हाथ में है न. इसलिए जो हाथ में है उसे कर लो, जो नहीं है उस की तरफ से आंखें मूंद लो. जब जो होगा देखा जाएगा.

‘‘कुछ भी निश्चित नहीं होता तो कल का सोचना भी क्यों?

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‘‘यह भी तो निश्चित नहीं है न कि जो सोचोगे वह नहीं ही होगा. वह हो भी  सकता है और नहीं भी. पूरी लगन और फ र्ज मेहनत से अपना कर्म निभाना तो हमारे हाथ में है न. इसलिए साफ नीयत और ईमानदारी से काम करते रहो. अगर समय ने कोई राह आप को देनी है तो मिलेगी जरूर. और एक दूसरा सत्य याद रखो कि प्रकृति ईमानदार और सच्चे इनसान का साथ हमेशा देती है. अगर तुम्हारा मन साफ है तो संयोग ऐसा ही बनेगा जिस में तुम्हारा अनिष्ट कभी नहीं होगा. मुसीबतें भी इनसान पर ही आती हैं और हर मुसीबत के बाद आप को लगता है आप पहले से ज्यादा मजबूत हो गए हैं. इसलिए बेटा, घबरा कर अपना दिमाग खराब मत करो.’’

ताऊजी की ये बातें मेरा दिमाग खराब कर देने को काफी लग रही थीं कि कल क्या होगा इस की चिंता मत करो, आज क्या है उस के बारे में सोचो.

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कल मेरा इंटरव्यू है. उस के बारे में कैसे न सोचूं. कल का न सोचूं तो आज उस की तैयारी भी नहीं न कर पाऊंगा. परेशान हूं मैं, हाथपैर फूल रहे हैं मेरे. ताऊजी के जमाने में इतनी परेशानियां कहां थीं. उन के जमाने में इतनी स्पर्धा कहां थी.

आज का सच यह है कि ठंडे दिमाग से पढ़ाई करो. मन में कोई दुविधा मत पालो. अपनेआप पर भरोसा रखो उसी में तुम्हारा कल्याण होगा.

‘‘क्या कल्याण होगा? नौकरी किसी और को मिल जाएगी,’’ स्वत: मेरे होंठों से निकल गया.

‘‘तुम्हें कैसे पता कि नौकरी किसी और को मिल जाएगी. तुम अंतरयामी कब से हो गए.

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‘‘किसे क्या मिलने वाला है उसी में क्यों उलझे पड़े हो. अपना समय और ताकत इस तरह बरबाद मत करो, पढ़ने में समय क्यों नहीं खर्च कर रहे?’’

इतना कहते हुए ताऊजी ने एक हलकी सी चपत मेरे सिर पर लगा दी.

‘‘कब से यही कथा दोहरा रहे हो. मिल जाएगी किसी और को नौकरी तो मिल जाए. क्या उस से दुनिया में आग लग जाएगी और सबकुछ भस्म हो जाएगा. ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, कुछ भी तो नहीं. यही दुनिया होगी और यही हम होंगे. संसार इसी तरह चलेगा. किसी दूसरी नौकरी का मौका मिलेगा. यहां नहीं तो कहीं और सही.’’

‘‘आप इतनी आसानी से ऐसी बातें कैसे कर सकते हैं, ताऊजी. अगर मैं कल सफल न हो पाया तो…’’

‘‘तो क्या होगा? वही तो समझा रहा हूं. जीवन का अंत तो नहीं हो जाएगा, दो हाथ तुम्हारे पास हैं. हिम्मत और ईमानदारी से अगर तुम ओतप्रोत हो तो क्या फर्क पड़ता है. मनचाहा अवश्य मिल जाएगा.’’

‘‘क्या सचमुच?’’

क्षण भर को लगा, कितना आसान है सब. ताऊजी जैसा कह रहे हैं वैसा ही अगर सच में जीवन का फलसफा हो तो वास्तव में दुविधा कैसी, कैसी परेशानी. जो हमारा है वह हम से कोई छीन नहीं सकता.

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मेहनती हूं, ईमानदार हूं. मेरे पास अपनी योग्यता प्रमाणित करने का एक यही तो रास्ता है न कि मैं पूरी तरह इंटरव्यू की तैयारी करूं. जो मैं कर सकता हूं उसी को पूरा जोर लगा कर कर डालूं, न कि इस दुविधा में समय बरबाद कर डालूं कि अगर किसी और को नौकरी मिल गई तो मेरा क्या होगा? ताऊजी की बातें मुझे अब शीशे की तरह पारदर्शी लगने लगीं.

दूसरी शाम आ गई. 24 घंटे बीत चुके और मेरा इंटरव्यू हो गया. अपनी तरफ से मैं ने सब किया जो भी मेरी क्षमता में था. मेरे मन में कहीं कोई मलाल न था कि अगर इस से भी अच्छा हो पाता तो ज्यादा अच्छा होता.

गरमी की शाम जब उमस गहरा गई तो सभी बाहर बालकनी में  आ बैठे. ताऊजी ने पुन: चुसकी ली :

‘‘हमारे जमाने में आंगन हुआ करते थे. आज आंगन की जगह बालकनी ने ले ली है. हर दौर की समस्या अलगअलग होती है. हर दौर का समाधान भी अलगअलग होता है. ऐसा नहीं कि हमारे जमाने में हमारा जीवन आसान था. अपनी मां से पूछो जब मिट्टी के तेल का स्टोव जलाने में कितना समय लगता था. आज चुटकी बजाते ही गैस का चूल्हा जला लो. मसाला चुटकी में पीस लो आज. हमारी पत्नी पत्थर की कूंडी और डंडे से मसाला पीसा करती थी. अकसर मसाले की छींट आंख में चली जाती थी…क्यों राघव, याद है न.’’

ताऊजी ने मेरे पापा से पूछा और दोनों हंसने लगे. चाय परोसती मां ने भी नजरें झुका ली थीं.

‘‘क्यों शोभा, तुम ने क्या अपने बेटे को बताया नहीं कि उस के मांबाप को किस ने मिलाया था. अरे, इसी डंडेकूंडे ने. मसाले की छींट तुम्हारी मां की आंख में चली गई थी और तुम्हारा बाप पानी का गिलास लिए पीछे भागा था.’’

‘‘मेरी मां आप के घर कैसे चली आई थीं?’’

‘‘तुम्हारी बूआ की सहेली थीं न. दोनों कपड़े बदलबदल कर पहना करती थीं. कदकाठी भी एक जैसी थी. राघव नौकरी पर रहता था. काफी समय बाद घर आया और अभी आंगन में पैर ही रखा था कि तुम्हारी मां को आंख पर हाथ रख कर भागते देखा. समझ गया, मसाला आंख में चला गया होगा. सो तुम्हारी बूआ समझ झट से पानी ले कर पीछे भागा. मुंह धुलाया, तौलिया ला कर मुंह पोंछा और जब शक्ल देखी तो हक्काबक्का. तभी सामने तुम्हारी बूआ को भी देख लिया. गलती हो गई है समझ तो गया पर क्या करता.’’

‘‘फिर?’’ सहसा पूछा मैं ने.

ताऊजी हंसने लगे थे. पापा भी मुसकरा रहे थे और मेरी मां भी.

‘‘फिर क्या बेटा, कभीकभी गलती हो जाना बड़ा सुखद होता है. राघव बेचारा परेशान. जानबूझ कर तो इस की बांह नहीं पकड़ी थी न और न ही गरदन पकड़ कर जबरदस्ती जो मुंह पोंछा था उस में इस का कोई दोष था. तुम्हारी मां अब तक यही समझ रही थी कि तुम्हारी बूआ उस की आंखें धुला रही है.’’

हंसने लगे पापा भी.

‘‘यह भी सोचने लगी थी कि एकाएक उस के हाथ इतने सख्त कैसे हो गए हैं. बारबार कहने लगी, ‘इतनी जोर से क्यों पकड़ रही है. धीरेधीरे पानी डाल,’ और मैं सोचूं कि मेरी बहन की आवाज बदलीबदली सी क्यों है?’’

पहली बार अपने मातापिता के मिलन के बारे में जान पाया मैं उस दिन. आज भी मेरे पिता का स्वभाव बड़ा स्नेहमयी है. किसी की पीड़ा उन से देखी नहीं जाती. बूआ से आज भी बहुत प्यार करते हैं. बूआ की आंख में मसाले की छींट का पड़ जाना उन्हें पीड़ा पहुंचा गया होगा. बस, हाथ का सामान फेंक उन की ओर लपके होंगे. ताऊजी से आगे की कहानी जाननी चाही तो बड़ी गहरी सी मुसकान लिए मेरी मां को ताकने लगे.

‘‘बड़ी प्यारी बच्ची थी तुम्हारी मां. इसी एक घटना ने ऐसी डोरी बांधी कि बस, सभी इन दोनों को जोड़ने की सोचने लगे.’’

‘‘आप दोनों की दोस्ती हो गई थी क्या उस के बाद?’’

सहज सवाल था मेरा जिस पर पापा ने गरदन हिला दी.

‘‘नहीं तो, दोस्ती जैसा कुछ नहीं था. कभी नजर आ जाती तो नमस्ते, रामराम हो जाती थी.’’

‘‘आप के जमाने में इतना धीरे क्यों था सब?’’

‘‘धीरे था तो गहरा भी था. जरा सी घटना अगर घट जाती थी तो वह रुक कर सोचने का समय तो देती थी. आज तुम्हारे जमाने में क्या किसी के पास रुक कर सोचने का  समय है? इतनी गहरी कोई भावना जाती ही कब है जिसे निकाल बाहर करना तुम्हें मुश्किल लगे. रिश्तों में इतनी आत्मीयता अब है कहां?’’

पुराना जमाना था. लोग घर के बर्तनों से भी उतना ही मोह पाल लेते थे. हमारी दादी मरती मर गईं पर उन्होंने अपने दहेज की पीतल की टूटी सुराही नहीं फेंकी. आज डिस्पोजेबल बर्तन लाओ, खाना खाओ, कूड़ा बाहर फेंक दो. वही हाल दोस्ती में है भई, जल्दी से ‘हां’ करो नहीं तो और भी हैं लाइन में. तू नहीं तो और सही और नहीं तो और सही.

‘‘जेट का जमाना है. इनसान जल्दी- जल्दी सब जी लेना चाहता है और इसी जल्दी में वह जीना ही भूल गया है. न उसे खुश रहना याद रहा है और न ही उसे यही याद रहता है कि उस ने किस पल किस से क्या नाता बांधा था. रिश्तों में गहराई नहीं रही. स्वार्थ रिश्तों पर हावी होता जा रहा है. जहां आप का काम बन गया वहीं आप ने वह संबंध कूड़ेदान में फेंक दिया.’’

ताऊजी ने बात शुरू की तो कहते ही चले गए, ‘‘मैं यह नहीं कहता कि दादी की तरह घर को कूड़ेदान ही बना दो, जहां घर अजायबघर ही लगने लगे. पुरानी चीजों को बदल कर नई चीजों को जगह देनी चाहिए. जीवन में एक उचित संतुलन होना चाहिए. नई चीजों को स्वीकारो, पुरानी का भी सम्मान करो. इतना तेज भी मत भागो कि पीछे क्याक्या छूट गया याद ही न रहे और इतना धीरे भी मत चलो कि सभी साथ छोड़ कर आगे निकल जाएं. इतने बेचैन भी मत हो जाओ कि ऐसा लगे जो करना है आज ही कर लो कल का क्या भरोसा आए न आए और निकम्मे हो कर भी इतना न पसर जाओ कि कल किस ने देखा है कौन कल के लिए आज सोचे.

‘‘तुम्हारे पापा की शादी हुई. शोभा हमारे घर चली आई. इस ने भी कोई ज्यादा सुख नहीं पाया. हमारी मां बीमार थीं, दमा की मरीज थीं और उसी साल मेरी पत्नी को ऐसा भयानक पीलिया हुआ कि एक ही साल में दोनों चली गईं. इस जरा सी बच्ची पर पूरा घर ही आश्रित हो गया.

‘‘इस से पूछो, इस ने कैसेकैसे सब संभाला होगा. जरा सोचो इस ने अपना चाहा कब जिया. जैसेजैसे हालात मुड़ते गए यह बेचारी भी मुड़ती गई. मेरी छोटी भाभी है न यह, पर कभी लगा ही नहीं. सदा मेरी मां बन कर रही यह बच्ची. जरा सी उम्र में इस ने कब कैसे सभी को संभालना सीखा होगा, पूछो इस से.

‘‘मेरे दोनों बच्चे कब इसे अपनी मां समझने लगे मुझे पता ही नहीं चला. तुम्हारे दादा और हम तीनों बापबेटे इसे कभी कहीं जाने ही नहीं देते थे क्योंकि हम अंधे हो जाते थे इस के बिना. इस का भी मन होता होगा न अपनी मां के घर जाने का. 18-20 साल की बच्ची क्या इतनी सयानी हो जाती है कि हर मौजमस्ती से कट जाए.’’

ताऊजी कहतेकहते रो पड़े. मेरे पापा और मां गरदन झुकाए चुपचाप बैठे रहे. सहसा हंसने लगे ताऊजी. एक फीकी हंसी, ‘‘आज याद आता है तो बहुत आत्मग्लानि होती है. पूरे 10 साल यह दोनों पतिपत्नी मेरे परिवार को पालते रहे. अपनी संतान का तब सोचा जब मेरे दोनों बच्चे 15-15 साल के हो गए. कबकब अपना मन मारा होगा इन्होंने, सोच सकते हो तुम?’’

मन भर आया मेरा भी. ताऊजी चश्मा उतार आंखें पोंछने लगे. ताऊजी के दोनों बेटे आज बच्चों वाले हैं. मुझ से बहुत स्नेह करते हैं और मां को तो सिरआंखों पर बिठाते हैं. बहुत मान करते हैं मेरी मां का.

‘‘क्या जीवन वास्तव में आसान होता है, बताना मुझे. नहीं होता न. मुश्किलें तो सब के साथ लगी हैं. प्रकृति ने सब का हिस्सा निश्चित कर रखा है. हमारा हिस्सा हमें मिलेगा जरूर. नौकरी के इंटरव्यू पर ही तुम इतना घबरा रहे थे. कल पहाड़ जैसे जीवन का सामना कैसे करोगे?’’

सुनता रहा मैं सब. सच ही कह रहे हैं ताऊजी. मेरा बचपन तो सरलसुगम है और जवानी आराम से भरपूर. क्या स्वस्थ तरीके से बिना घबराए, ठंडे मन से मैं अपनी नौकरी के अलगअलग साक्षात्कार की तैयारी नहीं कर सकता? आखिर घबराने जैसा इस में है ही क्या? कल का कल देखा जाएगा पर ऐसी भी क्या बेचैनी कि जो सुखसुविधा आज मेरे पास है उस का सुख भी नकार कर सिर्फ कल की ही चिंता में घुलता रहूं. क्यों जीना ही भूल जाऊं? जो मेरा है वह मुझे मिलेगा जरूर. मैं ईमानदार हूं, मेहनती हूं प्रकृति मेरा साथ अवश्य देगी. सच कहते हैं ताऊजी, आखिर घबराने जैसा इस में है ही क्या? कल क्या होगा देख लेंगे न. हम हैं तो, कुछ न कुछ तो कर ही लेंगे.

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‘‘देखो बेटा, यह जीवन इतना लचीला भी नहीं है कि हम जिधर चाहें इसे मोड़ लें और यह मुड़ भी जाए. कुछ ऐसा है जिसे मोड़ा जा सकता है और कुछ ऐसा भी है जिसे मोड़ा नहीं जा सकता. मोड़ना क्या मोड़ने के बारे में सोचना ही सब से बड़ा भुलावा देने जैसा है, क्योंकि हमारे हाथ ही कुछ नहीं है. हम सोच सकते हैं कि कल यह करेंगे पर कर भी पाएंगे इस की कोई गारंटी नहीं है.

‘‘कल क्या होगा हम नहीं जानते मगर कल हम क्या करना चाहेंगे यह कार्यक्रम बनाना तो हमारे हाथ में है न. इसलिए जो हाथ में है उसे कर लो, जो नहीं है उस की तरफ से आंखें मूंद लो. जब जो होगा देखा जाएगा.

‘‘कुछ भी निश्चित नहीं होता तो कल का सोचना भी क्यों?

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‘‘यह भी तो निश्चित नहीं है न कि जो सोचोगे वह नहीं ही होगा. वह हो भी  सकता है और नहीं भी. पूरी लगन और फ र्ज मेहनत से अपना कर्म निभाना तो हमारे हाथ में है न. इसलिए साफ नीयत और ईमानदारी से काम करते रहो. अगर समय ने कोई राह आप को देनी है तो मिलेगी जरूर. और एक दूसरा सत्य याद रखो कि प्रकृति ईमानदार और सच्चे इनसान का साथ हमेशा देती है. अगर तुम्हारा मन साफ है तो संयोग ऐसा ही बनेगा जिस में तुम्हारा अनिष्ट कभी नहीं होगा. मुसीबतें भी इनसान पर ही आती हैं और हर मुसीबत के बाद आप को लगता है आप पहले से ज्यादा मजबूत हो गए हैं. इसलिए बेटा, घबरा कर अपना दिमाग खराब मत करो.’’

ताऊजी की ये बातें मेरा दिमाग खराब कर देने को काफी लग रही थीं कि कल क्या होगा इस की चिंता मत करो, आज क्या है उस के बारे में सोचो.

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कल मेरा इंटरव्यू है. उस के बारे में कैसे न सोचूं. कल का न सोचूं तो आज उस की तैयारी भी नहीं न कर पाऊंगा. परेशान हूं मैं, हाथपैर फूल रहे हैं मेरे. ताऊजी के जमाने में इतनी परेशानियां कहां थीं. उन के जमाने में इतनी स्पर्धा कहां थी.

आज का सच यह है कि ठंडे दिमाग से पढ़ाई करो. मन में कोई दुविधा मत पालो. अपनेआप पर भरोसा रखो उसी में तुम्हारा कल्याण होगा.

‘‘क्या कल्याण होगा? नौकरी किसी और को मिल जाएगी,’’ स्वत: मेरे होंठों से निकल गया.

‘‘तुम्हें कैसे पता कि नौकरी किसी और को मिल जाएगी. तुम अंतरयामी कब से हो गए.

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‘‘किसे क्या मिलने वाला है उसी में क्यों उलझे पड़े हो. अपना समय और ताकत इस तरह बरबाद मत करो, पढ़ने में समय क्यों नहीं खर्च कर रहे?’’

इतना कहते हुए ताऊजी ने एक हलकी सी चपत मेरे सिर पर लगा दी.

‘‘कब से यही कथा दोहरा रहे हो. मिल जाएगी किसी और को नौकरी तो मिल जाए. क्या उस से दुनिया में आग लग जाएगी और सबकुछ भस्म हो जाएगा. ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, कुछ भी तो नहीं. यही दुनिया होगी और यही हम होंगे. संसार इसी तरह चलेगा. किसी दूसरी नौकरी का मौका मिलेगा. यहां नहीं तो कहीं और सही.’’

‘‘आप इतनी आसानी से ऐसी बातें कैसे कर सकते हैं, ताऊजी. अगर मैं कल सफल न हो पाया तो…’’

‘‘तो क्या होगा? वही तो समझा रहा हूं. जीवन का अंत तो नहीं हो जाएगा, दो हाथ तुम्हारे पास हैं. हिम्मत और ईमानदारी से अगर तुम ओतप्रोत हो तो क्या फर्क पड़ता है. मनचाहा अवश्य मिल जाएगा.’’

‘‘क्या सचमुच?’’

क्षण भर को लगा, कितना आसान है सब. ताऊजी जैसा कह रहे हैं वैसा ही अगर सच में जीवन का फलसफा हो तो वास्तव में दुविधा कैसी, कैसी परेशानी. जो हमारा है वह हम से कोई छीन नहीं सकता.

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मेहनती हूं, ईमानदार हूं. मेरे पास अपनी योग्यता प्रमाणित करने का एक यही तो रास्ता है न कि मैं पूरी तरह इंटरव्यू की तैयारी करूं. जो मैं कर सकता हूं उसी को पूरा जोर लगा कर कर डालूं, न कि इस दुविधा में समय बरबाद कर डालूं कि अगर किसी और को नौकरी मिल गई तो मेरा क्या होगा? ताऊजी की बातें मुझे अब शीशे की तरह पारदर्शी लगने लगीं.

दूसरी शाम आ गई. 24 घंटे बीत चुके और मेरा इंटरव्यू हो गया. अपनी तरफ से मैं ने सब किया जो भी मेरी क्षमता में था. मेरे मन में कहीं कोई मलाल न था कि अगर इस से भी अच्छा हो पाता तो ज्यादा अच्छा होता.

गरमी की शाम जब उमस गहरा गई तो सभी बाहर बालकनी में  आ बैठे. ताऊजी ने पुन: चुसकी ली :

‘‘हमारे जमाने में आंगन हुआ करते थे. आज आंगन की जगह बालकनी ने ले ली है. हर दौर की समस्या अलगअलग होती है. हर दौर का समाधान भी अलगअलग होता है. ऐसा नहीं कि हमारे जमाने में हमारा जीवन आसान था. अपनी मां से पूछो जब मिट्टी के तेल का स्टोव जलाने में कितना समय लगता था. आज चुटकी बजाते ही गैस का चूल्हा जला लो. मसाला चुटकी में पीस लो आज. हमारी पत्नी पत्थर की कूंडी और डंडे से मसाला पीसा करती थी. अकसर मसाले की छींट आंख में चली जाती थी…क्यों राघव, याद है न.’’

ताऊजी ने मेरे पापा से पूछा और दोनों हंसने लगे. चाय परोसती मां ने भी नजरें झुका ली थीं.

‘‘क्यों शोभा, तुम ने क्या अपने बेटे को बताया नहीं कि उस के मांबाप को किस ने मिलाया था. अरे, इसी डंडेकूंडे ने. मसाले की छींट तुम्हारी मां की आंख में चली गई थी और तुम्हारा बाप पानी का गिलास लिए पीछे भागा था.’’

‘‘मेरी मां आप के घर कैसे चली आई थीं?’’

‘‘तुम्हारी बूआ की सहेली थीं न. दोनों कपड़े बदलबदल कर पहना करती थीं. कदकाठी भी एक जैसी थी. राघव नौकरी पर रहता था. काफी समय बाद घर आया और अभी आंगन में पैर ही रखा था कि तुम्हारी मां को आंख पर हाथ रख कर भागते देखा. समझ गया, मसाला आंख में चला गया होगा. सो तुम्हारी बूआ समझ झट से पानी ले कर पीछे भागा. मुंह धुलाया, तौलिया ला कर मुंह पोंछा और जब शक्ल देखी तो हक्काबक्का. तभी सामने तुम्हारी बूआ को भी देख लिया. गलती हो गई है समझ तो गया पर क्या करता.’’

‘‘फिर?’’ सहसा पूछा मैं ने.

ताऊजी हंसने लगे थे. पापा भी मुसकरा रहे थे और मेरी मां भी.

‘‘फिर क्या बेटा, कभीकभी गलती हो जाना बड़ा सुखद होता है. राघव बेचारा परेशान. जानबूझ कर तो इस की बांह नहीं पकड़ी थी न और न ही गरदन पकड़ कर जबरदस्ती जो मुंह पोंछा था उस में इस का कोई दोष था. तुम्हारी मां अब तक यही समझ रही थी कि तुम्हारी बूआ उस की आंखें धुला रही है.’’

हंसने लगे पापा भी.

‘‘यह भी सोचने लगी थी कि एकाएक उस के हाथ इतने सख्त कैसे हो गए हैं. बारबार कहने लगी, ‘इतनी जोर से क्यों पकड़ रही है. धीरेधीरे पानी डाल,’ और मैं सोचूं कि मेरी बहन की आवाज बदलीबदली सी क्यों है?’’

पहली बार अपने मातापिता के मिलन के बारे में जान पाया मैं उस दिन. आज भी मेरे पिता का स्वभाव बड़ा स्नेहमयी है. किसी की पीड़ा उन से देखी नहीं जाती. बूआ से आज भी बहुत प्यार करते हैं. बूआ की आंख में मसाले की छींट का पड़ जाना उन्हें पीड़ा पहुंचा गया होगा. बस, हाथ का सामान फेंक उन की ओर लपके होंगे. ताऊजी से आगे की कहानी जाननी चाही तो बड़ी गहरी सी मुसकान लिए मेरी मां को ताकने लगे.

‘‘बड़ी प्यारी बच्ची थी तुम्हारी मां. इसी एक घटना ने ऐसी डोरी बांधी कि बस, सभी इन दोनों को जोड़ने की सोचने लगे.’’

‘‘आप दोनों की दोस्ती हो गई थी क्या उस के बाद?’’

सहज सवाल था मेरा जिस पर पापा ने गरदन हिला दी.

‘‘नहीं तो, दोस्ती जैसा कुछ नहीं था. कभी नजर आ जाती तो नमस्ते, रामराम हो जाती थी.’’

‘‘आप के जमाने में इतना धीरे क्यों था सब?’’

‘‘धीरे था तो गहरा भी था. जरा सी घटना अगर घट जाती थी तो वह रुक कर सोचने का समय तो देती थी. आज तुम्हारे जमाने में क्या किसी के पास रुक कर सोचने का  समय है? इतनी गहरी कोई भावना जाती ही कब है जिसे निकाल बाहर करना तुम्हें मुश्किल लगे. रिश्तों में इतनी आत्मीयता अब है कहां?’’

पुराना जमाना था. लोग घर के बर्तनों से भी उतना ही मोह पाल लेते थे. हमारी दादी मरती मर गईं पर उन्होंने अपने दहेज की पीतल की टूटी सुराही नहीं फेंकी. आज डिस्पोजेबल बर्तन लाओ, खाना खाओ, कूड़ा बाहर फेंक दो. वही हाल दोस्ती में है भई, जल्दी से ‘हां’ करो नहीं तो और भी हैं लाइन में. तू नहीं तो और सही और नहीं तो और सही.

‘‘जेट का जमाना है. इनसान जल्दी- जल्दी सब जी लेना चाहता है और इसी जल्दी में वह जीना ही भूल गया है. न उसे खुश रहना याद रहा है और न ही उसे यही याद रहता है कि उस ने किस पल किस से क्या नाता बांधा था. रिश्तों में गहराई नहीं रही. स्वार्थ रिश्तों पर हावी होता जा रहा है. जहां आप का काम बन गया वहीं आप ने वह संबंध कूड़ेदान में फेंक दिया.’’

ताऊजी ने बात शुरू की तो कहते ही चले गए, ‘‘मैं यह नहीं कहता कि दादी की तरह घर को कूड़ेदान ही बना दो, जहां घर अजायबघर ही लगने लगे. पुरानी चीजों को बदल कर नई चीजों को जगह देनी चाहिए. जीवन में एक उचित संतुलन होना चाहिए. नई चीजों को स्वीकारो, पुरानी का भी सम्मान करो. इतना तेज भी मत भागो कि पीछे क्याक्या छूट गया याद ही न रहे और इतना धीरे भी मत चलो कि सभी साथ छोड़ कर आगे निकल जाएं. इतने बेचैन भी मत हो जाओ कि ऐसा लगे जो करना है आज ही कर लो कल का क्या भरोसा आए न आए और निकम्मे हो कर भी इतना न पसर जाओ कि कल किस ने देखा है कौन कल के लिए आज सोचे.

‘‘तुम्हारे पापा की शादी हुई. शोभा हमारे घर चली आई. इस ने भी कोई ज्यादा सुख नहीं पाया. हमारी मां बीमार थीं, दमा की मरीज थीं और उसी साल मेरी पत्नी को ऐसा भयानक पीलिया हुआ कि एक ही साल में दोनों चली गईं. इस जरा सी बच्ची पर पूरा घर ही आश्रित हो गया.

‘‘इस से पूछो, इस ने कैसेकैसे सब संभाला होगा. जरा सोचो इस ने अपना चाहा कब जिया. जैसेजैसे हालात मुड़ते गए यह बेचारी भी मुड़ती गई. मेरी छोटी भाभी है न यह, पर कभी लगा ही नहीं. सदा मेरी मां बन कर रही यह बच्ची. जरा सी उम्र में इस ने कब कैसे सभी को संभालना सीखा होगा, पूछो इस से.

‘‘मेरे दोनों बच्चे कब इसे अपनी मां समझने लगे मुझे पता ही नहीं चला. तुम्हारे दादा और हम तीनों बापबेटे इसे कभी कहीं जाने ही नहीं देते थे क्योंकि हम अंधे हो जाते थे इस के बिना. इस का भी मन होता होगा न अपनी मां के घर जाने का. 18-20 साल की बच्ची क्या इतनी सयानी हो जाती है कि हर मौजमस्ती से कट जाए.’’

ताऊजी कहतेकहते रो पड़े. मेरे पापा और मां गरदन झुकाए चुपचाप बैठे रहे. सहसा हंसने लगे ताऊजी. एक फीकी हंसी, ‘‘आज याद आता है तो बहुत आत्मग्लानि होती है. पूरे 10 साल यह दोनों पतिपत्नी मेरे परिवार को पालते रहे. अपनी संतान का तब सोचा जब मेरे दोनों बच्चे 15-15 साल के हो गए. कबकब अपना मन मारा होगा इन्होंने, सोच सकते हो तुम?’’

मन भर आया मेरा भी. ताऊजी चश्मा उतार आंखें पोंछने लगे. ताऊजी के दोनों बेटे आज बच्चों वाले हैं. मुझ से बहुत स्नेह करते हैं और मां को तो सिरआंखों पर बिठाते हैं. बहुत मान करते हैं मेरी मां का.

‘‘क्या जीवन वास्तव में आसान होता है, बताना मुझे. नहीं होता न. मुश्किलें तो सब के साथ लगी हैं. प्रकृति ने सब का हिस्सा निश्चित कर रखा है. हमारा हिस्सा हमें मिलेगा जरूर. नौकरी के इंटरव्यू पर ही तुम इतना घबरा रहे थे. कल पहाड़ जैसे जीवन का सामना कैसे करोगे?’’

सुनता रहा मैं सब. सच ही कह रहे हैं ताऊजी. मेरा बचपन तो सरलसुगम है और जवानी आराम से भरपूर. क्या स्वस्थ तरीके से बिना घबराए, ठंडे मन से मैं अपनी नौकरी के अलगअलग साक्षात्कार की तैयारी नहीं कर सकता? आखिर घबराने जैसा इस में है ही क्या? कल का कल देखा जाएगा पर ऐसी भी क्या बेचैनी कि जो सुखसुविधा आज मेरे पास है उस का सुख भी नकार कर सिर्फ कल की ही चिंता में घुलता रहूं. क्यों जीना ही भूल जाऊं? जो मेरा है वह मुझे मिलेगा जरूर. मैं ईमानदार हूं, मेहनती हूं प्रकृति मेरा साथ अवश्य देगी. सच कहते हैं ताऊजी, आखिर घबराने जैसा इस में है ही क्या? कल क्या होगा देख लेंगे न. हम हैं तो, कुछ न कुछ तो कर ही लेंगे.

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December 01, 2020 at 10:00AM

Sunday 29 November 2020

साठ पार का प्यार -भाग 1: सुहानी ने कैसा पैतरा अपनाया

सुबहसुबह रजाई से मुंह ढांपे समीर  काफी देर तक जब पत्नी के उठाने का और गरमागरम चाय के कप का इंतजार करतेकरते थक गए तो रजाई से धीरे से मुंह निकाल कर बाहर झांका, ‘अभी तक कहां है सुहानी’ तो जो कुछ नजर आया, उस पर यकीन करना मुश्किल हो गया.

उलटेसीधे गाउन पर 2-3 स्वेटर पहने, मुंह और सिर भी शौल से लपेटे रहने वाली सुहानी आज गुलाबी रंग का चुस्त ट्रैक सूट पहने, ड्रैसिंग मिरर के सामने खुद को कई एंगल से निहारनिहार कर खुश हो रही थी.

‘‘यह क्या कर रही हो सुहानी,’’ समीर हैरानी से पलकें झपकाते हुए बोले.

‘‘ओह, उठ गए तुम. मैं जौगिंग पर जा रही हूं.’’ वह ‘जौगिंग’ शब्द पर जोर डालती हुई मीठी मुसकराहट के साथ आगे बोली, ‘‘मैं ने चाय पी ली, तुम्हारी रखी है, गरम कर के पी लेना.’’

‘‘लेकिन तुम इतने कम कपड़े पहन कर कहां जा रही हो, सर्दी लग जाएगी. वाक पर तो रोज ही जाती हो, आज यह जौगिंग की क्या सूझी,’’ समीर उठ कर बैठते हुए बोले. उन्हें सामने खड़ी सुहानी पर अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था.

‘‘डार्लिंग,’’ सुहानी प्यार से उन के गालों पर हलकी सी चिकौटी काटती, दिलकश मुसकराहट बिखेरती हुई बोली, ‘‘पहले सारे किस्सेकहानियों में फोर्टीज की बात होती थी, अब सिक्सटीज की बात होती है. सुना नहीं, ‘लव इन सिक्सटीज?’ ’’

वह थोड़ा सा उन से सट कर बैठती हुई आगे बोली, ‘‘मैं ने सोचा, लव दूसरे से करना जरूरी है क्या, क्यों न खुद से ही शुरुआत की जाए. पहले खुद से, फिर तुम से,’’ उस ने रोमांटिक अंदाज में समीर के होंठों पर उंगली फेरने के साथ उन की आंखों में झांका.

समीर को गले से थूक निगलना पड़ा. 64 साल की उम्र में भी बांछें खिल गईं. मन ही मन सोचने लगे, ‘वैसे तो हाथ ही नहीं आती है…अब उम्र हो गई है, ये है, वो है. बिगड़ी घोड़ी सी बिदक जाती है. आज क्या हो गया.’

‘‘लेकिन इतने कम कपड़ों में तुम्हें ठंड नहीं लगेगी,’’ बुढ़ापे में चिंता स्वाभाविक थी.

‘‘अंदर से सारा इंतजाम किया हुआ है,’’ वह अंदर पहने कपड़े दिखाती हुई बोली, ‘‘ठंड नहीं लगेगी. अब तुम भी रजाई फेंक कर उठ जाओ और चाय गरम कर के पीलो,’’ उस ने फिर एक बार समीर के होंठों को हौले से छूने के साथ मस्तीभरी नजरों से देखा.

समीर को लगा कि शायद सुहानी कहीं मस्ती में उन के होंठों को चूम ही न ले. पर सुहानी का इतना नेक इरादा न था. वह उठ खड़ी हुई.

उस ने एकदो बार अपनी ही जगह पर खड़े हो कर जूते फटकारे. थोड़ी उछलीकूदी.

‘‘यह क्या कर रही हो?’’ समीर की हैरानी अभी भी कम नहीं हो रही थी.

‘‘बौडी को वार्मअप कर रही हूं डियर,’’ कह कर, तीरे नजर उन पर डाल कर, उन्हें खुश करती, 2 उंगलियों से बाय करती, बलखाती हुई सुहानी बाहर निकल गई.

समीर बेवकूफों की तरह थोड़ी देर वैसे ही बैठ कर उस भिड़े दरवाजे को देखते रहे जो अचानक लगे धक्के से अभी भी हिल रहा था. फिर हकीकत में वे रजाई फेंक कर उठ खड़े हो गए.

सड़क पर सुहानी हलकी चाल से दौड़ रही थी. उस का पहला दिन था. एक तय चाल से वाक करना और हलकी चाल से दौड़ना, दोनों बातें अलग थीं. अधिक थकान न हो, इसलिए वह बहुत एहतियात बरत रही थी. समीर को रिटायर हुए 4 साल हो गए थे. रिटायर होने के बाद भी 2 साल तक वे छिटपुट इधरउधर जौब करते रहे, पर 2 साल से पूरी तरह घर पर ही थे. समीर को सेहत का पाठ पढ़ातेपढ़ाते सुहानी थक चुकी थी. समीर सेहत के मामले में लापरवाह थे.

सुहानी अपनी सेहत का पूरा खयाल

रखती थी, रोज वाक पर जाती

थी, खाने में परहेज करती थी. पर समीर के पास हर बात के लिए कारण ही कारण थे. कभी नौकरी की व्यस्तता का बहाना, फिर कभी रिटायरमैंट के

बाद कुछ समय आराम करने का बहाना. 2 साल से हर तरह से खाली होने के बावजूद समीर को सुबह की सैर पर ले जाना टेढ़ी खीर था. वे आलसी इंसान थे. आराम से उठो, सब तरह का खाना खाओपियो, ऐश करो.

समीर का बढ़ता वजन, बढ़ता पेट देख कर सुहानी को चिंता होती. उन का बढ़ता ब्लडप्रैशर, कभीकभी शुगर का बढ़ना उस की पेशानी में बल डाल देता. वह सोच में पड़ जाती कि कैसे समीर को अपनी सेहत पर ध्यान देने की आदत डाले, कैसे समझाए समीर को, कैसे उन का आलसीपन दूर करे.

इसी कशमकश में डूबतीउतराती सुहानी की नजर एक दिन पत्रिका में छपे एक लेख ‘लव इन सिक्सटीज’ पर पड़ी. वाह, कितना रोमांचक और रोमैंटिक टाइटल है. उस लेख को पढ़ कर पलभर के लिए उसे भी रोमांच हो आया. उस का दिल किया कि थोड़ा रोमांस वह भी कर ले समीर से. पर समीर के थुलथुलेपन को देख कर उस का सारा रोमांस काफूर हो गया.

बात सिर्फ सेहत के प्रति लापरवाही की होती, तो भी एक बात थी, पर घर में दिनभर खाली रहने के चलते समीर को हर छोटीछोटी बात पर टोकने की आदत पड़ गई थी. घर में काम वाली, धोबी, प्रैसवाला, माली सभी समीर के इस रवैए से परेशान रहने लगे थे.

‘ठीक से काम नहीं करती हो तुम, पोंछा ऐसे लगाते हैं क्या, बरतन भी कितने गंदे धोती हो. प्रैस कितनी गंदी कर के लाता है यह प्रैसवाला, लगता है बिना प्रैस किए ही तह कर दिए कपड़े.’’ कभी माली के पीछे पड़ जाते, ‘‘कुछ काम नहीं करता यह माली, बस आता है और फेरी लगा कर चला जाता है. तुम भी इसे देखती नहीं हो…’’

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सुबहसुबह रजाई से मुंह ढांपे समीर  काफी देर तक जब पत्नी के उठाने का और गरमागरम चाय के कप का इंतजार करतेकरते थक गए तो रजाई से धीरे से मुंह निकाल कर बाहर झांका, ‘अभी तक कहां है सुहानी’ तो जो कुछ नजर आया, उस पर यकीन करना मुश्किल हो गया.

उलटेसीधे गाउन पर 2-3 स्वेटर पहने, मुंह और सिर भी शौल से लपेटे रहने वाली सुहानी आज गुलाबी रंग का चुस्त ट्रैक सूट पहने, ड्रैसिंग मिरर के सामने खुद को कई एंगल से निहारनिहार कर खुश हो रही थी.

‘‘यह क्या कर रही हो सुहानी,’’ समीर हैरानी से पलकें झपकाते हुए बोले.

‘‘ओह, उठ गए तुम. मैं जौगिंग पर जा रही हूं.’’ वह ‘जौगिंग’ शब्द पर जोर डालती हुई मीठी मुसकराहट के साथ आगे बोली, ‘‘मैं ने चाय पी ली, तुम्हारी रखी है, गरम कर के पी लेना.’’

‘‘लेकिन तुम इतने कम कपड़े पहन कर कहां जा रही हो, सर्दी लग जाएगी. वाक पर तो रोज ही जाती हो, आज यह जौगिंग की क्या सूझी,’’ समीर उठ कर बैठते हुए बोले. उन्हें सामने खड़ी सुहानी पर अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था.

‘‘डार्लिंग,’’ सुहानी प्यार से उन के गालों पर हलकी सी चिकौटी काटती, दिलकश मुसकराहट बिखेरती हुई बोली, ‘‘पहले सारे किस्सेकहानियों में फोर्टीज की बात होती थी, अब सिक्सटीज की बात होती है. सुना नहीं, ‘लव इन सिक्सटीज?’ ’’

वह थोड़ा सा उन से सट कर बैठती हुई आगे बोली, ‘‘मैं ने सोचा, लव दूसरे से करना जरूरी है क्या, क्यों न खुद से ही शुरुआत की जाए. पहले खुद से, फिर तुम से,’’ उस ने रोमांटिक अंदाज में समीर के होंठों पर उंगली फेरने के साथ उन की आंखों में झांका.

समीर को गले से थूक निगलना पड़ा. 64 साल की उम्र में भी बांछें खिल गईं. मन ही मन सोचने लगे, ‘वैसे तो हाथ ही नहीं आती है…अब उम्र हो गई है, ये है, वो है. बिगड़ी घोड़ी सी बिदक जाती है. आज क्या हो गया.’

‘‘लेकिन इतने कम कपड़ों में तुम्हें ठंड नहीं लगेगी,’’ बुढ़ापे में चिंता स्वाभाविक थी.

‘‘अंदर से सारा इंतजाम किया हुआ है,’’ वह अंदर पहने कपड़े दिखाती हुई बोली, ‘‘ठंड नहीं लगेगी. अब तुम भी रजाई फेंक कर उठ जाओ और चाय गरम कर के पीलो,’’ उस ने फिर एक बार समीर के होंठों को हौले से छूने के साथ मस्तीभरी नजरों से देखा.

समीर को लगा कि शायद सुहानी कहीं मस्ती में उन के होंठों को चूम ही न ले. पर सुहानी का इतना नेक इरादा न था. वह उठ खड़ी हुई.

उस ने एकदो बार अपनी ही जगह पर खड़े हो कर जूते फटकारे. थोड़ी उछलीकूदी.

‘‘यह क्या कर रही हो?’’ समीर की हैरानी अभी भी कम नहीं हो रही थी.

‘‘बौडी को वार्मअप कर रही हूं डियर,’’ कह कर, तीरे नजर उन पर डाल कर, उन्हें खुश करती, 2 उंगलियों से बाय करती, बलखाती हुई सुहानी बाहर निकल गई.

समीर बेवकूफों की तरह थोड़ी देर वैसे ही बैठ कर उस भिड़े दरवाजे को देखते रहे जो अचानक लगे धक्के से अभी भी हिल रहा था. फिर हकीकत में वे रजाई फेंक कर उठ खड़े हो गए.

सड़क पर सुहानी हलकी चाल से दौड़ रही थी. उस का पहला दिन था. एक तय चाल से वाक करना और हलकी चाल से दौड़ना, दोनों बातें अलग थीं. अधिक थकान न हो, इसलिए वह बहुत एहतियात बरत रही थी. समीर को रिटायर हुए 4 साल हो गए थे. रिटायर होने के बाद भी 2 साल तक वे छिटपुट इधरउधर जौब करते रहे, पर 2 साल से पूरी तरह घर पर ही थे. समीर को सेहत का पाठ पढ़ातेपढ़ाते सुहानी थक चुकी थी. समीर सेहत के मामले में लापरवाह थे.

सुहानी अपनी सेहत का पूरा खयाल

रखती थी, रोज वाक पर जाती

थी, खाने में परहेज करती थी. पर समीर के पास हर बात के लिए कारण ही कारण थे. कभी नौकरी की व्यस्तता का बहाना, फिर कभी रिटायरमैंट के

बाद कुछ समय आराम करने का बहाना. 2 साल से हर तरह से खाली होने के बावजूद समीर को सुबह की सैर पर ले जाना टेढ़ी खीर था. वे आलसी इंसान थे. आराम से उठो, सब तरह का खाना खाओपियो, ऐश करो.

समीर का बढ़ता वजन, बढ़ता पेट देख कर सुहानी को चिंता होती. उन का बढ़ता ब्लडप्रैशर, कभीकभी शुगर का बढ़ना उस की पेशानी में बल डाल देता. वह सोच में पड़ जाती कि कैसे समीर को अपनी सेहत पर ध्यान देने की आदत डाले, कैसे समझाए समीर को, कैसे उन का आलसीपन दूर करे.

इसी कशमकश में डूबतीउतराती सुहानी की नजर एक दिन पत्रिका में छपे एक लेख ‘लव इन सिक्सटीज’ पर पड़ी. वाह, कितना रोमांचक और रोमैंटिक टाइटल है. उस लेख को पढ़ कर पलभर के लिए उसे भी रोमांच हो आया. उस का दिल किया कि थोड़ा रोमांस वह भी कर ले समीर से. पर समीर के थुलथुलेपन को देख कर उस का सारा रोमांस काफूर हो गया.

बात सिर्फ सेहत के प्रति लापरवाही की होती, तो भी एक बात थी, पर घर में दिनभर खाली रहने के चलते समीर को हर छोटीछोटी बात पर टोकने की आदत पड़ गई थी. घर में काम वाली, धोबी, प्रैसवाला, माली सभी समीर के इस रवैए से परेशान रहने लगे थे.

‘ठीक से काम नहीं करती हो तुम, पोंछा ऐसे लगाते हैं क्या, बरतन भी कितने गंदे धोती हो. प्रैस कितनी गंदी कर के लाता है यह प्रैसवाला, लगता है बिना प्रैस किए ही तह कर दिए कपड़े.’’ कभी माली के पीछे पड़ जाते, ‘‘कुछ काम नहीं करता यह माली, बस आता है और फेरी लगा कर चला जाता है. तुम भी इसे देखती नहीं हो…’’

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November 30, 2020 at 10:00AM