Thursday 31 March 2022

साथी साथ निभाना: भाग 1

Writer- Richa Sharma

उस शाम नेहा की जेठानी सपना ने अपने पति राजीव के साथ जबरदस्त झगड़ा किया. उन के बीच गालीगलौज भी हुई.

‘‘तुम सविता के साथ अपने संबंध फौरन तोड़ लो, नहीं तो मैं अपनी जान दे दूंगी या तुम्हारा खून कर दूंगी,’’ सपना की इस धमकी को घर के सभी सदस्यों ने बारबार सुना.

नेहा को इस घर में दुलहन बन कर आए अभी 3 महीने ही हुए थे. ऐसे हंगामों से घबरा कर वह कांपने लगी.

उस के पति संजीव और सासससुर ने राजीव व सपना का झगड़ा खत्म कराने का बहुत प्रयास किया, पर वे असफल रहे.

‘‘मुझे इस गलत इंसान के साथ बांधने के तुम सभी दोषी हो,’’ सपना ने उन तीनों को भी झगड़े में लपेटा, ‘‘जब इन की जिंदगी में वह चुड़ैल मौजूद थी, तो मुझे ब्याह कर क्यों लाए? क्यों अंधेरे में रखा मुझे और मेरे घर वालों को? अपनी मौत के लिए मैं तुम सब को भी जिम्मेदार ठहराऊंगी, यह कान खोल कर सुन लो.’’

सपना के इस आखिरी वाक्य ने नेहा के पैरों तले जमीन खिसका दी. संजीव के कमरे में आते ही वह उस से लिपट कर रोने लगी और फिर बोली, ‘‘मुझे यहां बहुत डर लगने लगा है. प्लीज मुझे कुछ समय के लिए अपने मम्मीपापा के पास जाने दो.’’

ये भी पढ़ें0 स्पेनिश मौस: क्या गीता अपनी गृहस्थी बचा पाई?

‘‘भाभी इस वक्त बहुत नाराज हैं. तुम चली जाओगी तो पूरे घर में अफरातफरी मच जाएगी. अभी तुम्हारा मायके जाना ठीक नहीं रहेगा,’’ संजीव ने उसे प्यार से समझाया.

‘‘मैं यहां रही, तो मेरी तबीयत बहुत बिगड़ जाएगी.’’

‘‘जब तुम से कोई कुछ कह नहीं रहा है, तो तुम क्यों डरती हो?’’ संजीव नाराज हो उठा.

नेहा कोई जवाब न दे कर फिर रोने लगी.

उस के रोतेबिलखते चेहरे को देख कर संजीव परेशान हो गया. हार कर वह कुछ दिनों के लिए नेहा को मायके छोड़ आने को राजी हो गया.

उसी रात सपना ने अपने ससुर की नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या करने की कोशिश की.

उसे ऐसा करते राजीव ने देख लिया. उस ने फौरन नमकपानी का घोल पिला कर सपना को उलटियां कराईं. उस की जान का खतरा तो टल गया, पर घर के सभी सदस्यों के चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगीं.

डरीसहमी नेहा ने तो संजीव के साथ मायके जाने का इंतजार भी नहीं किया. उस ने अपने पिता को फोन पर सारा मामला बताया, तो वे सुबहसुबह खुद ही उसे लेने आ पहुंचे.

नेहा के मायके जाने की बात के लिए अपने मातापिता से इजाजत लेना संजीव के लिए बड़ा मुश्किल काम साबित हुआ.

‘‘इस वक्त उस की जरूरत यहां है. तब तू उसे मायके क्यों भेज रहा है?’’ अपने पिता के इस सवाल का संजीव के पास कोई ठीक जवाब नहीं था.

‘‘मैं उसे 2-3 दिन में वापस ले आऊंगा. अभी उसे जाने दें,’’ संजीव की इस मांग को उस के मातापिता ने बड़ी मुश्किल से स्वीकार किया.

नेहा को विदा करते वक्त संजीव तनाव में था. लेकिन उस की भावनाओं की फिक्र न नेहा ने की, न ही उस के पिता ने. नेहा के पिता तो  गुस्से में थे. किसी से भी ठीक तरह से बोले बिना वे अपनी बेटी को ले कर चले गए.

उन के मनोभावों का पता संजीव को 3 दिन बाद चला जब वह नेहा को वापस  लाने के लिए अपनी ससुराल पहुंचा.

नेहा की मां नीरजा ने संजीव से कहा, ‘‘हम ने बहुत लाड़प्यार से पाला था अपनी नेहा को. इसलिए तुम्हारे घर के खराब माहौल ने उसे डरा दिया.’’

नेहा के पिता राजेंद्र तो एकदम गुस्से से फट पड़े, ‘‘अरे, मारपीट, गालीगलौज करना सभ्य आदमियों की निशानी नहीं. तुम्हारे घर में न आपसी प्रेम है, न इज्जत. मेरी गुडि़या तो डर के कारण मर जाएगी वहां.’’

‘‘पापा, नेहा को मेरे घर के सभी लोग बहुत प्यार करते हैं. उसे डरनेघबराने की कोई जरूरत नहीं है,’’ संजीव ने दबे स्वर में अपनी बात कही.

ये भी पढ़ें- चमत्कार: मोहिनी की शादी में आखिर ऐसा क्या हुआ?

‘‘यह कैसा प्यार है तुम्हारी भाभी का, जो कल को तुम्हारे व मेरी बेटी के हाथों में हथकडि़यां पहनवा देगा?’’

‘‘पापा, गुस्से में इंसान बहुत कुछ कह जाता है. सपना भाभी को भी नेहा बहुत पसंद है. वे इस का बुरा कभी नहीं चाहेंगी.’’

‘‘देखो संजीव, जो इंसान आत्महत्या करने की नासमझी कर सकता है, उस से संतुलित व्यवहार की हम कैसे उम्मीद करें?’’

‘‘पापा, हम सब मिल कर भैयाभाभी को प्यार से समझाएंगे. हमारे प्रयासों से समस्या जल्दी हल हो जाएगी.’’

‘‘मुझे ऐसा नहीं लगता. मैं नहीं चाहता कि मेरी बेटी की खुशियां तुम्हारे भैयाभाभी के कभी समझदार बनने की उम्मीद पर आश्रित रहें.’’

‘‘फिर आप ही बताएं कि आप सब क्या चाहते हैं?’’ संजीव ने पूछा.

‘‘इस समस्या का समाधान यही है कि तुम और नेहा अलग रहने लगो. भावी मुसीबतों से बचने का और कोई रास्ता नहीं है,’’ राजेंद्रजी ने गंभीर लहजे में अपनी राय दी.

‘‘मुझे पता था कि देरसवेर आप यह रास्ता मुझे जरूर सुझाएंगे. लेकिन मेरी एक बात आप सब ध्यान से सुन लें, मैं संयुक्त परिवार में रहना चाहता हूं और रहूंगा. नेहा को उसी घर में  लौटना होगा,’’ संजीव का चेहरा कठोर हो गया.

‘‘मुझे सचमुच वहां बहुत डर लगता है,’’ नेहा ने सहमे हुए अपने मन की बात कही, ‘‘न ठीक से नींद आती है, न कुछ खाया जाता है? मैं वहां लौटना नहीं चाहती हूं.’’

‘‘नेहा, तुम्हें जीवन भर मेरे साथ कदम से कदम मिला कर चलना चाहिए. अपने मातापिता की बातों में आने के बजाय मेरी इच्छाओं और भावनाओं को ध्यान में रख कर काम करो. मुझे ही नहीं, पूरे घर को तुम्हारी इस वक्त बहुत जरूरत है. प्लीज मेरे साथ चलो,’’ संजीव भावुक हो उठा.

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Writer- Richa Sharma

उस शाम नेहा की जेठानी सपना ने अपने पति राजीव के साथ जबरदस्त झगड़ा किया. उन के बीच गालीगलौज भी हुई.

‘‘तुम सविता के साथ अपने संबंध फौरन तोड़ लो, नहीं तो मैं अपनी जान दे दूंगी या तुम्हारा खून कर दूंगी,’’ सपना की इस धमकी को घर के सभी सदस्यों ने बारबार सुना.

नेहा को इस घर में दुलहन बन कर आए अभी 3 महीने ही हुए थे. ऐसे हंगामों से घबरा कर वह कांपने लगी.

उस के पति संजीव और सासससुर ने राजीव व सपना का झगड़ा खत्म कराने का बहुत प्रयास किया, पर वे असफल रहे.

‘‘मुझे इस गलत इंसान के साथ बांधने के तुम सभी दोषी हो,’’ सपना ने उन तीनों को भी झगड़े में लपेटा, ‘‘जब इन की जिंदगी में वह चुड़ैल मौजूद थी, तो मुझे ब्याह कर क्यों लाए? क्यों अंधेरे में रखा मुझे और मेरे घर वालों को? अपनी मौत के लिए मैं तुम सब को भी जिम्मेदार ठहराऊंगी, यह कान खोल कर सुन लो.’’

सपना के इस आखिरी वाक्य ने नेहा के पैरों तले जमीन खिसका दी. संजीव के कमरे में आते ही वह उस से लिपट कर रोने लगी और फिर बोली, ‘‘मुझे यहां बहुत डर लगने लगा है. प्लीज मुझे कुछ समय के लिए अपने मम्मीपापा के पास जाने दो.’’

ये भी पढ़ें0 स्पेनिश मौस: क्या गीता अपनी गृहस्थी बचा पाई?

‘‘भाभी इस वक्त बहुत नाराज हैं. तुम चली जाओगी तो पूरे घर में अफरातफरी मच जाएगी. अभी तुम्हारा मायके जाना ठीक नहीं रहेगा,’’ संजीव ने उसे प्यार से समझाया.

‘‘मैं यहां रही, तो मेरी तबीयत बहुत बिगड़ जाएगी.’’

‘‘जब तुम से कोई कुछ कह नहीं रहा है, तो तुम क्यों डरती हो?’’ संजीव नाराज हो उठा.

नेहा कोई जवाब न दे कर फिर रोने लगी.

उस के रोतेबिलखते चेहरे को देख कर संजीव परेशान हो गया. हार कर वह कुछ दिनों के लिए नेहा को मायके छोड़ आने को राजी हो गया.

उसी रात सपना ने अपने ससुर की नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या करने की कोशिश की.

उसे ऐसा करते राजीव ने देख लिया. उस ने फौरन नमकपानी का घोल पिला कर सपना को उलटियां कराईं. उस की जान का खतरा तो टल गया, पर घर के सभी सदस्यों के चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगीं.

डरीसहमी नेहा ने तो संजीव के साथ मायके जाने का इंतजार भी नहीं किया. उस ने अपने पिता को फोन पर सारा मामला बताया, तो वे सुबहसुबह खुद ही उसे लेने आ पहुंचे.

नेहा के मायके जाने की बात के लिए अपने मातापिता से इजाजत लेना संजीव के लिए बड़ा मुश्किल काम साबित हुआ.

‘‘इस वक्त उस की जरूरत यहां है. तब तू उसे मायके क्यों भेज रहा है?’’ अपने पिता के इस सवाल का संजीव के पास कोई ठीक जवाब नहीं था.

‘‘मैं उसे 2-3 दिन में वापस ले आऊंगा. अभी उसे जाने दें,’’ संजीव की इस मांग को उस के मातापिता ने बड़ी मुश्किल से स्वीकार किया.

नेहा को विदा करते वक्त संजीव तनाव में था. लेकिन उस की भावनाओं की फिक्र न नेहा ने की, न ही उस के पिता ने. नेहा के पिता तो  गुस्से में थे. किसी से भी ठीक तरह से बोले बिना वे अपनी बेटी को ले कर चले गए.

उन के मनोभावों का पता संजीव को 3 दिन बाद चला जब वह नेहा को वापस  लाने के लिए अपनी ससुराल पहुंचा.

नेहा की मां नीरजा ने संजीव से कहा, ‘‘हम ने बहुत लाड़प्यार से पाला था अपनी नेहा को. इसलिए तुम्हारे घर के खराब माहौल ने उसे डरा दिया.’’

नेहा के पिता राजेंद्र तो एकदम गुस्से से फट पड़े, ‘‘अरे, मारपीट, गालीगलौज करना सभ्य आदमियों की निशानी नहीं. तुम्हारे घर में न आपसी प्रेम है, न इज्जत. मेरी गुडि़या तो डर के कारण मर जाएगी वहां.’’

‘‘पापा, नेहा को मेरे घर के सभी लोग बहुत प्यार करते हैं. उसे डरनेघबराने की कोई जरूरत नहीं है,’’ संजीव ने दबे स्वर में अपनी बात कही.

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‘‘यह कैसा प्यार है तुम्हारी भाभी का, जो कल को तुम्हारे व मेरी बेटी के हाथों में हथकडि़यां पहनवा देगा?’’

‘‘पापा, गुस्से में इंसान बहुत कुछ कह जाता है. सपना भाभी को भी नेहा बहुत पसंद है. वे इस का बुरा कभी नहीं चाहेंगी.’’

‘‘देखो संजीव, जो इंसान आत्महत्या करने की नासमझी कर सकता है, उस से संतुलित व्यवहार की हम कैसे उम्मीद करें?’’

‘‘पापा, हम सब मिल कर भैयाभाभी को प्यार से समझाएंगे. हमारे प्रयासों से समस्या जल्दी हल हो जाएगी.’’

‘‘मुझे ऐसा नहीं लगता. मैं नहीं चाहता कि मेरी बेटी की खुशियां तुम्हारे भैयाभाभी के कभी समझदार बनने की उम्मीद पर आश्रित रहें.’’

‘‘फिर आप ही बताएं कि आप सब क्या चाहते हैं?’’ संजीव ने पूछा.

‘‘इस समस्या का समाधान यही है कि तुम और नेहा अलग रहने लगो. भावी मुसीबतों से बचने का और कोई रास्ता नहीं है,’’ राजेंद्रजी ने गंभीर लहजे में अपनी राय दी.

‘‘मुझे पता था कि देरसवेर आप यह रास्ता मुझे जरूर सुझाएंगे. लेकिन मेरी एक बात आप सब ध्यान से सुन लें, मैं संयुक्त परिवार में रहना चाहता हूं और रहूंगा. नेहा को उसी घर में  लौटना होगा,’’ संजीव का चेहरा कठोर हो गया.

‘‘मुझे सचमुच वहां बहुत डर लगता है,’’ नेहा ने सहमे हुए अपने मन की बात कही, ‘‘न ठीक से नींद आती है, न कुछ खाया जाता है? मैं वहां लौटना नहीं चाहती हूं.’’

‘‘नेहा, तुम्हें जीवन भर मेरे साथ कदम से कदम मिला कर चलना चाहिए. अपने मातापिता की बातों में आने के बजाय मेरी इच्छाओं और भावनाओं को ध्यान में रख कर काम करो. मुझे ही नहीं, पूरे घर को तुम्हारी इस वक्त बहुत जरूरत है. प्लीज मेरे साथ चलो,’’ संजीव भावुक हो उठा.

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April 01, 2022 at 09:31AM

अलविदा काकुल: उसकी इस चाहत का परिणाम क्या निकला

पेरिस का अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा चार्ल्स डि गाल, चारों तरफ चहलपहल, शोरशराबा, विभिन्न परिधानों में सजीसंवरी युवतियां, तरहतरह के इत्रों से महकता वातावरण… काकुल पेरिस छोड़ कर हमेशाहमेशा के लिए अपने शहर इसलामाबाद वापस जा रही थी. लेकिन अपने वतन, अपने शहर, अपने घर जाने की कोई खुशी उस के चेहरे पर नहीं थी. चुपचाप, गुमसुम, अपने में सिमटी, मेरे किसी सवाल से बचती हुई सी. पर मैं तो कुछ पूछना ही नहीं चाहता था, शायद माहौल ही इस की इजाजत नहीं दे रहा था. हां, काकुल से थोड़ा ऊंचा उठ कर उसे सांत्वना देना चाहता था. शायद उस का अपराधबोध कुछ कम हो. पर मैं ऐसा कर न पाया. बस, ऐसा लगा कि दोनों तरफ भावनाओं का समंदर अपने आरोह पर है. हम दोनों ही कमजोर बांधों से उसे रोकने की कोशिश कर रहे थे.

तभी काकुल की फ्लाइट की घोषणा हुई. वह डबडबाई आंखों से धीरे से हाथ दबा कर चली गई. काकुल चली गई. 2 वर्षों पहले हुई जानपहचान की ऐसी परिणति दोनों को ही स्वीकार नहीं थी. हंगरी के लेखक अर्नेस्ट हेंमिग्वे ने लिखा है कि ‘कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जैसे बरसात के दिनों में रुके हुए पानी में कागज की नावें तैराना.’ ये नावें तैरती तो हैं, पर बहुत दूर तक और बहुत देर तक नहीं. शायद हमारा रिश्ता ऐसी ही एक किश्ती जैसा था.

टैक्निकल ट्रेनिंग के लिए मैं दिल्ली से फ्रांस आया तो यहीं का हो कर रह गया. दिलोदिमाग में कुछ वक्त यह जद्दोजेहद जरूर रही कि अपनी सरकार ने मुझे उच्चशिक्षा के लिए भेजा था. सो, मेरा फर्ज है कि अपने देश लौटूं और देश को कुछ दूं. लेकिन स्वार्थ का पर्वत ज्यादा बड़ा निकला और देशप्रेम छोटा. लिहाजा, यहीं नौकरी कर ली. शुरू में बहुत दिक्कतें आईं. अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने वाले फ्रैंच समुदाय में किसी का भी टिकना बहुत कठिन है. बस, एक जिद थी, एक दीवानगी थी कि इसी समुदाय में अपना लोहा मनवाना है. जैसा लोकप्रिय मैं अपनी जनकपुरी में था, वैसा ही कुछ यहां भी होना चाहिए.

ये भी पढ़ें- विक्की : समय ने क्या खेल खेला की अक्खड़ विक्की सबका चहेता बन गया

पहली बात यह समझ आई कि अंगरेजी से फ्रैंच समुदाय वैसे ही भड़कता है जैसे लाल रंग से सांड़. सो, मैं ने फ्रैंच भाषा पर मेहनत शुरू की. फ्रैंच समुदाय में अपनी भाषा, अपने देश, अपने भोजन व सुंदरता के लिए ऐसी शिद्दत से चाहत है कि आप अंगरेजी में किसी से पता भी पूछेंगे तो जवाब यही मिलेगा, ‘फ्रांस में हो तो फ्रैंच बोलो.’ पेरिस की तेज रफ्तार जिंदगी को किसी लेखक ने केवल 3 शब्दों में कहा है, ‘काम करना, सोना, यात्रा करना.’ यह बात पहले सुनी थी, यकीन यहीं देख कर आया. मैं कुछकुछ इसी जिंदगी के सांचे में ढल रहा था, तभी काकुल मिली.

काकुल से मिलना भी बस ऐसे था जैसे ‘यों ही कोई मिल गया था सरेराह चलतेचलते.’ हुआ ऐसा कि मैं एक रैस्तरां में बैठा कुछ खापी रहा था और धीमे स्वर में गुलाम अली की गजल ‘चुपकेचुपके रातदिन…’ गुनगुना रहा था. कौफी के 3 गिलास खाली हुए और मेरा गुनगुनाना गाने में तबदील हो गया. मेज पर उंगलियां भी तबले की थाप देने लगी थीं. पूरा आलाप ले कर जैसे ही मैं ‘दोपहर… की धूप में…’ तक पहुंचा, अचानक एक लड़की मेरे सामने आ कर झटके से बैठी और पूछा, ‘वू जेत पाकी?’

‘नो, आई एम इंडियन.’ ‘आप बहुत अच्छा गाते हैं, पर इस रैस्तरां को अपना बाथरूम तो मत समझिए’.

‘ओह, माफ कीजिएगा,’ मैं बुरी तरह झेंप गया.

काकुल से दोस्ती हो गई, रोज मिलनेजुलने का सिलसिला शुरू हुआ. वह इसलामाबाद, पाकिस्तान से थी. पिताजी का अपना व्यापार था. जब उन्होंने काकुल की अम्मी को तलाक दिया तो वह नाराज हो कर पेरिस में अपनी आंटी के पास आ गई और तब से यहीं थी. वह एक होटल में रिसैप्शनिस्ट का काम देखती थी. ज्यादातर सप्ताहांत, मैं काकुल के साथ ही बिताने लगा. वह बहुत से सवाल पूछती, जैसे ‘आप जिंदगी के बारे में क्या सोचते हैं?’

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‘हम बचपन में सांपसीढ़ी खेल खेलते थे, मेरे खयाल से जिंदगी भी बिलकुल वैसी है…कहां सीढ़ी है और कहां सांप, यही इस जीवन का रहस्य है और यही रोमांच है,’ मैं ने अपना फलसफा बताया. ‘आप के इस खेल में मैं क्या हूं, सांप या सीढ़ी?’ बड़ी सादगी से काकुल ने पूछा.

‘मैं ने कहा न, यही तो रहस्य है.’ मैं ने लोगों को व्यायाम सिखाना शुरू किया. मेरा काम चल निकला. मुझे यश मिलना शुरू हुआ. मैं ज्यादा व्यस्त होता गया. काकुल से मिलना बस सप्ताहांत पर ही हो पाता था.

कम मिलने की वजह से हम आपस में ज्यादा नजदीक हुए. एक इतवार को स्टीमर पर सैर करते हुए काकुल ने कहा, ‘मैं आप को आई एल कहा करूं?’

‘भई, यह ‘आई एल’ क्या बला है?’ मैं ने अचकचा कर पूछा. ‘आई एल, यानी इमरती लाल, इमरती हमें बहुत पसंद है. बस यों जानिए, हमारी जान है, और आप भी…’ सांझ के आकाश की सारी लालिमा काकुल के कपोलों में समा गई थी.

‘एक बात पूछूं, क्या पापामम्मी को काकुल मंजूर होगी?’ उस ने पूछा. मैं ने पहली बार गौर किया कि मेरे पापामम्मी को अंकल, आंटी कहना वह कभी का छोड़ चुकी है. मुझे भी नाम से बुलाए उसे शायद अरसा हो गया था.

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‘काकुल, अगर बेटे को मंजूर, तो मम्मीपापा को भी मंजूर,’ मैं ने जवाब दिया. काकुल ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया और अपनी आंखें बंद कर लीं. शायद बंद आंखों से वह एक सजीसंवरी दुलहन और उस का दूल्हा देख रही थी. इस से पहले उस ने कभी मुझ से शादी की इच्छा जाहिर नहीं की थी. बस, ऐसा लगा, जैसे काकुल दबेपांव चुपके से बिना दरवाजा खटखटाए मेरे घर में दाखिल हो गई हो.

मैं ज्यादा व्यस्त होता गया, सुबह नौकरी और शाम को एक ट्रेनिंग क्लास. पर दिन में काकुल से फोन पर बात जरूर होती. अब मैं आने वाले दिनों के बारे में ज्यादा गंभीरता से सोचता कि इस रिश्ते के बारे में मेरे पापामम्मी और उस के पापा, कैसी प्रतिक्रया जाहिर करेंगे. हम एकदूसरे से निभा तो पाएंगे? कहीं यह प्रयोग असफल तो नहीं होगा? ऐसे ढेर सारे सवाल मुझे घेरे रहते. एक दिन काकुल ने फोन कर के बताया कि उस के अब्बा के दोस्त का बेटा जावेद, कुछ दिनों के लिए पेरिस आया हुआ है. हम कुछ दिनों के लिए आपस में मिल नहीं पाएंगे. इस का उसे बहुत रंज रहेगा, ऐसा उस ने कहा.

धीरेधीरे काकुल ने फोन करना कम कर दिया. कभी मैं फोन करता तो काकुल से बात कम होती, वह जावेदपुराण ज्यादा बांच रही होती. जैसे, जावेद बहुत रईस है, कई देशों में उस का कारोबार फैला हुआ है. अगर जावेद को बैंक से पैसे निकालने हों तो उसे बैंक जाने की कोई जरूरत नहीं. मैनेजर उसे पैसे देने आता है. उस की सैक्रेटरी बहुत खूबसूरत है. उस का इसलामाबाद में खूब रसूख है. वह कई सियासी पार्टियों को चंदा देता है. जावेद का जिस से भी निकाह होगा, उस का समय ही अच्छा होगा. मुझे बहुत हैरानी हुई काकुल को जावेद के रंग में रंगी देख कर. मैं ने फोन करना बंद कर दिया.

जैसे बर्फ का टुकड़ा धीरेधीरे पिघल कर पानी में तबदील हो जाता है, उसी तरह मेरा और काकुल का रिश्ता भी धीरेधीरे अपनी गरमी खो चुका था. रिश्ते की तपिश एकदूसरे के लिए प्यार, एक घर बसाने का सपना, एकदूसरे को खूब सारी खुशियां देने का अरमान, सब खत्म हो चुका था. इस अग्निकुंड में अंतिम आहुति तब पड़ी जब काकुल ने फोन पर बताया कि उस के अब्बा उस का और जावेद का निकाह करना चाहते हैं. मैं ने मुबारकबाद दी और रिसीवर रख दिया.

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कई महीने गुजर गए. शुरूशुरू में काकुल की बहुत याद आती थी, फिर धीरेधीरे उस के बिना रहने की आदत पड़ गई. एक दिन वह अचानक मेरे अपार्टमैंट में आई. गुमसुम, उदास, कहीं दूर कुछ तलाशती सी आंखें, उलझे हुए बाल, पीली होती हुई रंगत…मैं उसे कहीं और देखता तो शायद पहचान न पाता. उसे बैठाया, फ्रिज से एक कोल्ड ड्रिंक निकाल कर, फिर जावेद और उस के बारे में पूछा.

‘जावेद एक धोखेबाज इंसान था, वह दिवालिया था और उस ने आस्ट्रेलिया में निकाह भी कर रखा था. समय रहते अब्बा को पता चल गया और मैं इस जिल्लत से बच गई,’ काकुल ने जवाब दिया. ‘ओह,’ मैं ने धीमे से सहानुभूतिवश गरदन हिलाई. चंद क्षणों के बाद सहज भाव से पूछा, ‘‘कैसे आना हुआ?’’

‘मैं आज शाम की फ्लाइट से वापस इसलामाबाद जा रही हूं. मुझे विदा करने एअरपोर्ट पर आप आ पाएंगे तो बहुत अच्छा लगेगा.’ ‘मैं जरूर आऊंगा.’

शायद वह चाहती थी कि मैं उसे रोक लूं. मेरे दिल के किसी कोने में कहीं वह अब भी मौजूद थी. मैं ने खुद अपनेआप को टटोला, अपनेआप से पूछा तो जवाब पाया कि हम 2 नदी के किनारों की तरह हैं, जिन पर कोई पुल नहीं है. अब कुछ ऐसा बाकी नहीं है जिसे जिंदा रखने की कोशिश की जाए. अलविदा…काकुल…अलविदा…

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पेरिस का अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा चार्ल्स डि गाल, चारों तरफ चहलपहल, शोरशराबा, विभिन्न परिधानों में सजीसंवरी युवतियां, तरहतरह के इत्रों से महकता वातावरण… काकुल पेरिस छोड़ कर हमेशाहमेशा के लिए अपने शहर इसलामाबाद वापस जा रही थी. लेकिन अपने वतन, अपने शहर, अपने घर जाने की कोई खुशी उस के चेहरे पर नहीं थी. चुपचाप, गुमसुम, अपने में सिमटी, मेरे किसी सवाल से बचती हुई सी. पर मैं तो कुछ पूछना ही नहीं चाहता था, शायद माहौल ही इस की इजाजत नहीं दे रहा था. हां, काकुल से थोड़ा ऊंचा उठ कर उसे सांत्वना देना चाहता था. शायद उस का अपराधबोध कुछ कम हो. पर मैं ऐसा कर न पाया. बस, ऐसा लगा कि दोनों तरफ भावनाओं का समंदर अपने आरोह पर है. हम दोनों ही कमजोर बांधों से उसे रोकने की कोशिश कर रहे थे.

तभी काकुल की फ्लाइट की घोषणा हुई. वह डबडबाई आंखों से धीरे से हाथ दबा कर चली गई. काकुल चली गई. 2 वर्षों पहले हुई जानपहचान की ऐसी परिणति दोनों को ही स्वीकार नहीं थी. हंगरी के लेखक अर्नेस्ट हेंमिग्वे ने लिखा है कि ‘कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जैसे बरसात के दिनों में रुके हुए पानी में कागज की नावें तैराना.’ ये नावें तैरती तो हैं, पर बहुत दूर तक और बहुत देर तक नहीं. शायद हमारा रिश्ता ऐसी ही एक किश्ती जैसा था.

टैक्निकल ट्रेनिंग के लिए मैं दिल्ली से फ्रांस आया तो यहीं का हो कर रह गया. दिलोदिमाग में कुछ वक्त यह जद्दोजेहद जरूर रही कि अपनी सरकार ने मुझे उच्चशिक्षा के लिए भेजा था. सो, मेरा फर्ज है कि अपने देश लौटूं और देश को कुछ दूं. लेकिन स्वार्थ का पर्वत ज्यादा बड़ा निकला और देशप्रेम छोटा. लिहाजा, यहीं नौकरी कर ली. शुरू में बहुत दिक्कतें आईं. अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने वाले फ्रैंच समुदाय में किसी का भी टिकना बहुत कठिन है. बस, एक जिद थी, एक दीवानगी थी कि इसी समुदाय में अपना लोहा मनवाना है. जैसा लोकप्रिय मैं अपनी जनकपुरी में था, वैसा ही कुछ यहां भी होना चाहिए.

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पहली बात यह समझ आई कि अंगरेजी से फ्रैंच समुदाय वैसे ही भड़कता है जैसे लाल रंग से सांड़. सो, मैं ने फ्रैंच भाषा पर मेहनत शुरू की. फ्रैंच समुदाय में अपनी भाषा, अपने देश, अपने भोजन व सुंदरता के लिए ऐसी शिद्दत से चाहत है कि आप अंगरेजी में किसी से पता भी पूछेंगे तो जवाब यही मिलेगा, ‘फ्रांस में हो तो फ्रैंच बोलो.’ पेरिस की तेज रफ्तार जिंदगी को किसी लेखक ने केवल 3 शब्दों में कहा है, ‘काम करना, सोना, यात्रा करना.’ यह बात पहले सुनी थी, यकीन यहीं देख कर आया. मैं कुछकुछ इसी जिंदगी के सांचे में ढल रहा था, तभी काकुल मिली.

काकुल से मिलना भी बस ऐसे था जैसे ‘यों ही कोई मिल गया था सरेराह चलतेचलते.’ हुआ ऐसा कि मैं एक रैस्तरां में बैठा कुछ खापी रहा था और धीमे स्वर में गुलाम अली की गजल ‘चुपकेचुपके रातदिन…’ गुनगुना रहा था. कौफी के 3 गिलास खाली हुए और मेरा गुनगुनाना गाने में तबदील हो गया. मेज पर उंगलियां भी तबले की थाप देने लगी थीं. पूरा आलाप ले कर जैसे ही मैं ‘दोपहर… की धूप में…’ तक पहुंचा, अचानक एक लड़की मेरे सामने आ कर झटके से बैठी और पूछा, ‘वू जेत पाकी?’

‘नो, आई एम इंडियन.’ ‘आप बहुत अच्छा गाते हैं, पर इस रैस्तरां को अपना बाथरूम तो मत समझिए’.

‘ओह, माफ कीजिएगा,’ मैं बुरी तरह झेंप गया.

काकुल से दोस्ती हो गई, रोज मिलनेजुलने का सिलसिला शुरू हुआ. वह इसलामाबाद, पाकिस्तान से थी. पिताजी का अपना व्यापार था. जब उन्होंने काकुल की अम्मी को तलाक दिया तो वह नाराज हो कर पेरिस में अपनी आंटी के पास आ गई और तब से यहीं थी. वह एक होटल में रिसैप्शनिस्ट का काम देखती थी. ज्यादातर सप्ताहांत, मैं काकुल के साथ ही बिताने लगा. वह बहुत से सवाल पूछती, जैसे ‘आप जिंदगी के बारे में क्या सोचते हैं?’

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‘हम बचपन में सांपसीढ़ी खेल खेलते थे, मेरे खयाल से जिंदगी भी बिलकुल वैसी है…कहां सीढ़ी है और कहां सांप, यही इस जीवन का रहस्य है और यही रोमांच है,’ मैं ने अपना फलसफा बताया. ‘आप के इस खेल में मैं क्या हूं, सांप या सीढ़ी?’ बड़ी सादगी से काकुल ने पूछा.

‘मैं ने कहा न, यही तो रहस्य है.’ मैं ने लोगों को व्यायाम सिखाना शुरू किया. मेरा काम चल निकला. मुझे यश मिलना शुरू हुआ. मैं ज्यादा व्यस्त होता गया. काकुल से मिलना बस सप्ताहांत पर ही हो पाता था.

कम मिलने की वजह से हम आपस में ज्यादा नजदीक हुए. एक इतवार को स्टीमर पर सैर करते हुए काकुल ने कहा, ‘मैं आप को आई एल कहा करूं?’

‘भई, यह ‘आई एल’ क्या बला है?’ मैं ने अचकचा कर पूछा. ‘आई एल, यानी इमरती लाल, इमरती हमें बहुत पसंद है. बस यों जानिए, हमारी जान है, और आप भी…’ सांझ के आकाश की सारी लालिमा काकुल के कपोलों में समा गई थी.

‘एक बात पूछूं, क्या पापामम्मी को काकुल मंजूर होगी?’ उस ने पूछा. मैं ने पहली बार गौर किया कि मेरे पापामम्मी को अंकल, आंटी कहना वह कभी का छोड़ चुकी है. मुझे भी नाम से बुलाए उसे शायद अरसा हो गया था.

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‘काकुल, अगर बेटे को मंजूर, तो मम्मीपापा को भी मंजूर,’ मैं ने जवाब दिया. काकुल ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया और अपनी आंखें बंद कर लीं. शायद बंद आंखों से वह एक सजीसंवरी दुलहन और उस का दूल्हा देख रही थी. इस से पहले उस ने कभी मुझ से शादी की इच्छा जाहिर नहीं की थी. बस, ऐसा लगा, जैसे काकुल दबेपांव चुपके से बिना दरवाजा खटखटाए मेरे घर में दाखिल हो गई हो.

मैं ज्यादा व्यस्त होता गया, सुबह नौकरी और शाम को एक ट्रेनिंग क्लास. पर दिन में काकुल से फोन पर बात जरूर होती. अब मैं आने वाले दिनों के बारे में ज्यादा गंभीरता से सोचता कि इस रिश्ते के बारे में मेरे पापामम्मी और उस के पापा, कैसी प्रतिक्रया जाहिर करेंगे. हम एकदूसरे से निभा तो पाएंगे? कहीं यह प्रयोग असफल तो नहीं होगा? ऐसे ढेर सारे सवाल मुझे घेरे रहते. एक दिन काकुल ने फोन कर के बताया कि उस के अब्बा के दोस्त का बेटा जावेद, कुछ दिनों के लिए पेरिस आया हुआ है. हम कुछ दिनों के लिए आपस में मिल नहीं पाएंगे. इस का उसे बहुत रंज रहेगा, ऐसा उस ने कहा.

धीरेधीरे काकुल ने फोन करना कम कर दिया. कभी मैं फोन करता तो काकुल से बात कम होती, वह जावेदपुराण ज्यादा बांच रही होती. जैसे, जावेद बहुत रईस है, कई देशों में उस का कारोबार फैला हुआ है. अगर जावेद को बैंक से पैसे निकालने हों तो उसे बैंक जाने की कोई जरूरत नहीं. मैनेजर उसे पैसे देने आता है. उस की सैक्रेटरी बहुत खूबसूरत है. उस का इसलामाबाद में खूब रसूख है. वह कई सियासी पार्टियों को चंदा देता है. जावेद का जिस से भी निकाह होगा, उस का समय ही अच्छा होगा. मुझे बहुत हैरानी हुई काकुल को जावेद के रंग में रंगी देख कर. मैं ने फोन करना बंद कर दिया.

जैसे बर्फ का टुकड़ा धीरेधीरे पिघल कर पानी में तबदील हो जाता है, उसी तरह मेरा और काकुल का रिश्ता भी धीरेधीरे अपनी गरमी खो चुका था. रिश्ते की तपिश एकदूसरे के लिए प्यार, एक घर बसाने का सपना, एकदूसरे को खूब सारी खुशियां देने का अरमान, सब खत्म हो चुका था. इस अग्निकुंड में अंतिम आहुति तब पड़ी जब काकुल ने फोन पर बताया कि उस के अब्बा उस का और जावेद का निकाह करना चाहते हैं. मैं ने मुबारकबाद दी और रिसीवर रख दिया.

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कई महीने गुजर गए. शुरूशुरू में काकुल की बहुत याद आती थी, फिर धीरेधीरे उस के बिना रहने की आदत पड़ गई. एक दिन वह अचानक मेरे अपार्टमैंट में आई. गुमसुम, उदास, कहीं दूर कुछ तलाशती सी आंखें, उलझे हुए बाल, पीली होती हुई रंगत…मैं उसे कहीं और देखता तो शायद पहचान न पाता. उसे बैठाया, फ्रिज से एक कोल्ड ड्रिंक निकाल कर, फिर जावेद और उस के बारे में पूछा.

‘जावेद एक धोखेबाज इंसान था, वह दिवालिया था और उस ने आस्ट्रेलिया में निकाह भी कर रखा था. समय रहते अब्बा को पता चल गया और मैं इस जिल्लत से बच गई,’ काकुल ने जवाब दिया. ‘ओह,’ मैं ने धीमे से सहानुभूतिवश गरदन हिलाई. चंद क्षणों के बाद सहज भाव से पूछा, ‘‘कैसे आना हुआ?’’

‘मैं आज शाम की फ्लाइट से वापस इसलामाबाद जा रही हूं. मुझे विदा करने एअरपोर्ट पर आप आ पाएंगे तो बहुत अच्छा लगेगा.’ ‘मैं जरूर आऊंगा.’

शायद वह चाहती थी कि मैं उसे रोक लूं. मेरे दिल के किसी कोने में कहीं वह अब भी मौजूद थी. मैं ने खुद अपनेआप को टटोला, अपनेआप से पूछा तो जवाब पाया कि हम 2 नदी के किनारों की तरह हैं, जिन पर कोई पुल नहीं है. अब कुछ ऐसा बाकी नहीं है जिसे जिंदा रखने की कोशिश की जाए. अलविदा…काकुल…अलविदा…

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April 01, 2022 at 09:00AM

खोया हुआ सच: सीमा के दुख की क्या थी वजह

सीमा रसोई के दरवाजे से चिपकी खड़ी रही, लेकिन अपनेआप में खोए हुए उस के पति रमेश ने एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. बाएं हाथ में फाइलें दबाए वह चुपचाप दरवाजा ठेल कर बाहर निकल गया और धीरेधीरे उस की आंखों से ओझल हो गया.

सीमा के मुंह से एक निश्वास सा निकला, आज चौथा दिन था कि रमेश उस से एक शब्द भी नहीं बोला था. आखिर उपेक्षाभरी इस कड़वी जिंदगी के जहरीले घूंट वह कब तक पिएगी?

अन्यमनस्क सी वह रसोई के कोने में बैठ गई कि तभी पड़ोस की खिड़की से छन कर आती खिलखिलाहट की आवाज ने उसे चौंका दिया. वह दबेपांव खिड़की की ओर बढ़ गई और दरार से आंख लगा कर देखा, लीला का पति सूखे टोस्ट चाय में डुबोडुबो कर खा रहा था और लीला किसी बात पर खिलखिलाते हुए उस की कमीज में बटन टांक रही थी. चाय का आखिरी घूंट भर कर लीला का पति उठा और कमीज पहन कर बड़े प्यार से लीला का कंधा थपथपाता हुआ दफ्तर जाने के लिए बाहर निकल गया.

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सीमा के मुंह से एक ठंडी आह निकल गई. कितने खुश हैं ये दोनों… रूखासूखा खा कर भी हंसतेखेलते रहते हैं. लीला का पति कैसे दुलार से उसे देखता हुआ दफ्तर गया है. उसे विश्वास नहीं होता कि यह वही लीला है, जो कुछ वर्षों पहले कालेज में भोंदू कहलाती थी. पढ़ने में फिसड्डी और महाबेवकूफ. न कपड़े पहनने की तमीज थी, न बात करने की. ढीलेढाले कपड़े पहने हर वक्त बेवकूफीभरी हरकतें करती रहती थी.

क्लासरूम से सौ गज दूर भी उसे कोई कुत्ता दिखाई पड़ जाता तो बेंत ले कर उसे मारने दौड़ती. लड़कियां हंस कर कहती थीं कि इस भोंदू से कौन शादी करेगा. तब सीमा ने ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि एक दिन यही फूहड़ और भोंदू लीला शादी के बाद उस की पड़ोसिन बन कर आ जाएगी और वह खिड़की की दरार से चोर की तरह झांकती हुई, उसे अपने पति से असीम प्यार पाते हुए देखेगी.

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दर्द की एक लहर सीमा के पूरे व्यक्त्तित्व में दौड़ गई और वह अन्यमनस्क सी वापस अपने कमरे में लौट आई.

‘‘सीमा, पानी…’’ तभी अंदर के कमरे से क्षीण सी आवाज आई.

वह उठने को हुई, लेकिन फिर ठिठक कर रुक गई. उस के नथुने फूल गए, ‘अब क्यों बुला रही हो सीमा को?’ वह बड़बड़ाई, ‘बुलाओ न अपने लाड़ले बेटे को, जो तुम्हारी वजह से हर दम मुझे दुत्कारता है और जराजरा सी बात में मुंह टेढ़ा कर लेता है, उंह.’

और प्रतिशोध की एक कुटिल मुसकान उस के चेहरे पर आ गई. अपने दोनों हाथ कमर पर रख कर वह तन कर रमेश की फोटो के सामने खड़ी हो गई, ‘‘ठीक है रमेश, तुम इसलिए मुझ से नाराज हो न, कि मैं ने तुम्हारी मां को टाइम पर खाना और दवाई नहीं दी और उस से जबान चलाई. तो लो यह सीमा का बदला, चौबीसों घंटे तो तुम अपनी मां की चौकीदारी नहीं कर सकते. सीमा सबकुछ सह सकती है, अपनी उपेक्षा नहीं. और धौंस के साथ वह तुम्हारी मां की चाकरी नहीं करेगी.’’

और उस के चेहरे की जहरीली मुसकान एकाएक एक क्रूर हंसी में बदल गई और वह खिलाखिला कर हंस पड़ी, फिर हंसतेहंसते रुक गई. यह अपनी हंसी की आवाज उसे कैसी अजीब सी, खोखली सी लग रही थी, यह उस के अंदर से रोतारोता कौन हंस रहा था? क्या यह उस के अंदर की उपेक्षित नारी अपनी उपेक्षा का बदला लेने की खुशी में हंस रही थी? पर इस बदले का बदला क्या होगा? और उस बदले का बदला…क्या उपेक्षा और बदले का यह क्रम जिंदगीभर चलता रहेगा?

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आखिर कब तक वे दोनों एक ही घर की चारदीवारी में एकदूसरे के पास से अजनबियों की तरह गुजरते रहेंगे? कब तक एक ही पलंग की सीमाओं में फंसे वे दोनों, एक ही कालकोठरी में कैद 2 दुश्मन कैदियों की तरह एकदूसरे पर नफरत की फुंकारें फेंकते हुए अपनी अंधेरी रातों में जहर घोलते रहेंगे?

उसे लगा जैसे कमरे की दीवारें घूम रही हों. और वह विचलित सी हो कर धम्म से पलंग पर गिर पड़ी.

थप…थप…थप…खिड़की थपथपाने की आवाज आई और सीमा चौंक कर उठ बैठी. उस के माथे पर बल पड़ गए. वह बड़बड़ाती हुई खिड़की की ओर बढ़ी.

‘‘क्या है?’’ उस ने खिड़की खोल कर रूखे स्वर में पूछा. सामने लीला खड़ी थी, भोंदू लीला, मोटा शरीर, मोटा थुलथुल चेहरा और चेहरे पर बच्चों सी अल्हड़ता.

‘‘दीदी, डेटौल है?’’ उस ने भोलेपन से पूछा, ‘‘बिल्लू को नहलाना है. अगर डेटौल हो तो थोड़ा सा दे दो.’’

‘‘बिल्लू को,’’ सीमा ने नाक सिकोड़ कर पूछा कि तभी उस का कुत्ता बिल्लू भौंभौं करता हुआ खिड़की तक आ गया.

सीमा पीछे को हट गई और बड़बड़ाई, ‘उंह, मरे को पता नहीं मुझ से क्या नफरत है कि देखते ही भूंकता हुआ चढ़ आता है. वैसे भी कितना गंदा रहता है, हर वक्त खुजलाता ही रहता है. और इस भोंदू लीला को क्या हो गया है, कालेज में तो कुत्ते को देखते ही बेंत ले कर दौड़ पड़ती थी, पर इसे ऐसे दुलार करती है जैसे उस का अपना बच्चा हो. बेअक्ल कहीं की.’

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अन्यमनस्क सी वह अंदर आई और डेटौल की शीशी ला कर लीला के हाथ में पकड़ा दी. लीला शीशी ले कर बिल्लू को दुलारते हुए मुड़ गई और उस ने घृणा से मुंह फेर कर खिड़की बंद कर ली.

पर भोंदू लीला का चेहरा जैसे खिड़की चीर कर उस की आंखों के सामने नाचने लगा. ‘उंह, अब भी वैसी ही बेवकूफ है, जैसे कालेज में थी. पर एक बात समझ में नहीं आती, इतनी साधारण शक्लसूरत की बेवकूफ व फूहड़ महिला को भी उस का क्लर्क पति ऐसे रखता है जैसे वह बहुत नायाब चीज हो. उस के लिए आएदिन कोई न कोई गिफ्ट लाता रहता है. हर महीने तनख्वाह मिलते ही मूवी दिखाने या घुमाने ले जाता है.’

खिड़की के पार उन के ठहाके गूंजते, तो सीमा हैरान होती और मन ही मन उसे लीला के पति पर गुस्सा भी आता कि आखिर उस फूहड़ लीला में ऐसा क्या है जो वह उस पर दिलोजान से फिदा है. कई बार जब सीमा का पति कईकई दिन उस से नाराज रहता तो उसे उस लीला से रश्क सा होने लगता. एक तरफ वह है जो खूबसूरत और समझदार होते हुए भी पति से उपेक्षित है और दूसरी तरफ यह भोंदू है, जो बदसूरत और बेवकूफ होते हुए भी पति से बेपनाह प्यार पाती है. सीमा के मुंह से अकसर एक ठंडी सांस निकल जाती. अपनाअपना वक्त है. अचार के साथ रोटी खाते हुए भी लीला और उस का पति ठहाके लगाते हैं. जबकि दूसरी ओर उस के घर में सातसात पकवान बनते हैं और वे उन्हें ऐसे खाते हैं जैसे खाना खाना भी एक सजा हो. जब भी वह खिड़की खोलती, उस के अंदर खालीपन का एहसास और गहरा हो जाता और वह अपने दर्द की गहराइयों में डूबने लगती.

‘‘सीमा, दवाई…’’ दूसरे कमरे से क्षीण सी आवाज आई. बीमार सास दवाई मांग रही थी. वह बेखयाली में उठ बैठी, पर द्वेष की एक लहर फिर उस के मन में दौड़ गई. ‘क्या है इस घर में मेरा, जो मैं सब की चाकरी करती रहूं? इतने सालों के बाद भी मैं इस घर में पराई हूं, अजनबी हूं,’ और वह सास की आवाज अनसुनी कर के फिर लेट गई.

तभी खिड़की के पार लीला के जोरजोर से रोने और उस के कुत्ते के कातर स्वर में भूंकने की आवाज आई. उस ने झपट कर खिड़की खोली. लीला के घर के सामने नगरपलिका की गाड़ी खड़ी थी और एक कर्मचारी उस के बिल्लू को घसीट कर गाड़ी में ले जा रहा था.

‘‘इसे मत ले जाओ, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं,’’ लीला रोतेरोते कह रही थी.

लेकिन कर्मचारी ने कुत्ते को नहीं छोड़ा. ‘‘तुम्हारे कुत्ते को खाज है, बीमारी फैलेगी,’’ वह बोला.

‘‘प्लीज मेरे बिल्लू को मत ले जाओ. मैं डाक्टर को दिखा कर इसे ठीक करा दूंगी.’’

‘‘सुनो,’’ गाड़ी के पास खड़ा इंस्पैक्टर रोब से बोला, ‘‘इसे हम ऐसे नहीं छोड़ सकते. नगरपालिका पहुंच कर छुड़ा लाना. 2,000 रुपए जुर्माना देना पड़ेगा.’’

‘‘रुको, रुको, मैं जुर्माना दे दूंगी,’’ कह कर वह पागलों की तरह सीमा के घर की ओर भागी और सीमा को खिड़की के पास खड़ी देख कर गिड़गिड़ाते हुए बोली, ‘‘दीदी, मेरे बिल्लू को बचा लो. मुझे 2,000 रुपए उधार दे दो.’’

‘‘पागल हो गई हो क्या? इस गंदे और बीमार कुत्ते के लिए 2,000 रुपए देना चाहती हो? ले जाने दो, दूसरा कुत्ता पाल लेना,’’  सीमा बोली.

लीला ने एक बार असीम निराशा और वेदना के साथ सीमा की ओर देखा. उस की आंखों से आंसुओं की धारा बह रही थी. सहसा उस की आंखें अपने हाथ में पड़ी सोने की पतली सी एकमात्र चूड़ी पर टिक गईं. उस की आंखों में एक चमक आ गई और वह चूड़ी उतारती हुई वापस कुत्ता गाड़ी की तरफ दौड़ पड़ी.

‘‘भैया, यह लो जुर्माना. मेरे बिल्लू को छोड़ दो,’’ वह चूड़ी इंस्पैक्टर की ओर बढ़ाती हुई बोली.

इंस्पैक्टर भौचक्का सा कभी उस के हाथ में पकड़ी सोने की चूड़ी की ओर और कभी उस कुत्ते की ओर देखने लगा. सहसा उस के चेहरे पर दया की एक भावना आ गई, ‘‘इस बार छोड़ देता हूं. अब बाहर मत निकलने देना,’’ उस ने कहा और कुत्ता गाड़ी आगे बढ़ गई.

लीला एकदम कुत्ते से लिपट गई, जैसे उसे अपना खोया हुआ कोई प्रियजन मिल गया हो और वह फूटफूट कर रोने लगी.

सीमा दरवाजा खोल कर उस के पास पहुंची और बोली, ‘‘चुप हो जाओ, लीला, पागल न बनो. अब तो तुम्हारा बिल्लू छूट गया, पर क्या कोई कुत्ते के लिए भी इतना परेशान होता है?’’

लीला ने सिर उठा कर कातर दृष्टि से उस की ओर देखा. उस के चेहरे से वेदना फूट पड़ी, ‘‘ऐसा न कहो, सीमा दीदी, ऐसा न कहो. यह बिल्लू है, मेरा प्यारा बिल्लू. जानती हो, यह इतना सा था जब मेरे पति ने इसे पाला था. उन्होंने खुद चाय पीनी छोड़ दी थी और दूध बचा कर इसे पिलाते थे, प्यार से इसे पुचकारते थे, दुलारते थे. और अब, अब मैं इसे दुत्कार कर छोड़ दूं, जल्लादों के हवाले कर दूं, इसलिए कि यह बूढ़ा हो गया है, बीमार है, इसे खुजली हो गई है. नहीं दीदी, नहीं, मैं इस की सेवा करूंगी, इस के जख्म धोऊंगी क्योंकि यह मेरे लिए साधारण कुत्ता नहीं है, यह बिल्लू है, मेरे पति का जान से भी प्यारा बिल्लू. और जो चीज मेरे पति को प्यारी है, वह मुझे भी प्यारी है, चाहे वह बीमार कुत्ता ही क्यों न हो.’’

सीमा ठगी सी खड़ी रह गई. आंसुओं के सागर में डूबी यह भोंदू क्या कह रही है. उसे लगा जैसे लीला के शब्द उस के कानों के परदों पर हथौड़ों की तरह पड़ रहे हों और उस का बिल्लू भौंभौं कर के उसे अपने घर से भगा देना चाहता हो.

अकस्मात ही उस की रुलाई फूट पड़ी और उस ने लीला का आंसुओंभरा चेहरा अपने दोनों हाथों में भर लिया, ‘‘मत रो, मेरी लीला, आज तुम ने मेरी आंखों के जाले साफ कर दिए हैं. आज मैं समझ गई कि तुम्हारा पति तुम से इतना प्यार क्यों करता है. तुम उस जानवर को भी प्यार करती हो जो तुम्हारे पति को प्यारा है. और मैं, मैं उन इंसानों से प्यार करने की भी कीमत मांगती हूं, जो अटूट बंधनों से मेरे पति के मन के साथ बंधे हैं. तुम्हारे घर का जर्राजर्रा तुम्हारे प्यार का दीवाना है और मेरे घर की एकएक ईंट मुझे अजनबी समझती है. लेकिन अब नहीं, मेरी लीला, अब ऐसा नहीं होगा.’’

लीला ने हैरान हो कर सीमा को देखा. सीमा ने अपने घर की तरफ रुख कर लिया. अपनी गलतियों को सुधारने की प्रबल इच्छा उस की आंखों में दिख रही थी.

 

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सीमा रसोई के दरवाजे से चिपकी खड़ी रही, लेकिन अपनेआप में खोए हुए उस के पति रमेश ने एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. बाएं हाथ में फाइलें दबाए वह चुपचाप दरवाजा ठेल कर बाहर निकल गया और धीरेधीरे उस की आंखों से ओझल हो गया.

सीमा के मुंह से एक निश्वास सा निकला, आज चौथा दिन था कि रमेश उस से एक शब्द भी नहीं बोला था. आखिर उपेक्षाभरी इस कड़वी जिंदगी के जहरीले घूंट वह कब तक पिएगी?

अन्यमनस्क सी वह रसोई के कोने में बैठ गई कि तभी पड़ोस की खिड़की से छन कर आती खिलखिलाहट की आवाज ने उसे चौंका दिया. वह दबेपांव खिड़की की ओर बढ़ गई और दरार से आंख लगा कर देखा, लीला का पति सूखे टोस्ट चाय में डुबोडुबो कर खा रहा था और लीला किसी बात पर खिलखिलाते हुए उस की कमीज में बटन टांक रही थी. चाय का आखिरी घूंट भर कर लीला का पति उठा और कमीज पहन कर बड़े प्यार से लीला का कंधा थपथपाता हुआ दफ्तर जाने के लिए बाहर निकल गया.

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सीमा के मुंह से एक ठंडी आह निकल गई. कितने खुश हैं ये दोनों… रूखासूखा खा कर भी हंसतेखेलते रहते हैं. लीला का पति कैसे दुलार से उसे देखता हुआ दफ्तर गया है. उसे विश्वास नहीं होता कि यह वही लीला है, जो कुछ वर्षों पहले कालेज में भोंदू कहलाती थी. पढ़ने में फिसड्डी और महाबेवकूफ. न कपड़े पहनने की तमीज थी, न बात करने की. ढीलेढाले कपड़े पहने हर वक्त बेवकूफीभरी हरकतें करती रहती थी.

क्लासरूम से सौ गज दूर भी उसे कोई कुत्ता दिखाई पड़ जाता तो बेंत ले कर उसे मारने दौड़ती. लड़कियां हंस कर कहती थीं कि इस भोंदू से कौन शादी करेगा. तब सीमा ने ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि एक दिन यही फूहड़ और भोंदू लीला शादी के बाद उस की पड़ोसिन बन कर आ जाएगी और वह खिड़की की दरार से चोर की तरह झांकती हुई, उसे अपने पति से असीम प्यार पाते हुए देखेगी.

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दर्द की एक लहर सीमा के पूरे व्यक्त्तित्व में दौड़ गई और वह अन्यमनस्क सी वापस अपने कमरे में लौट आई.

‘‘सीमा, पानी…’’ तभी अंदर के कमरे से क्षीण सी आवाज आई.

वह उठने को हुई, लेकिन फिर ठिठक कर रुक गई. उस के नथुने फूल गए, ‘अब क्यों बुला रही हो सीमा को?’ वह बड़बड़ाई, ‘बुलाओ न अपने लाड़ले बेटे को, जो तुम्हारी वजह से हर दम मुझे दुत्कारता है और जराजरा सी बात में मुंह टेढ़ा कर लेता है, उंह.’

और प्रतिशोध की एक कुटिल मुसकान उस के चेहरे पर आ गई. अपने दोनों हाथ कमर पर रख कर वह तन कर रमेश की फोटो के सामने खड़ी हो गई, ‘‘ठीक है रमेश, तुम इसलिए मुझ से नाराज हो न, कि मैं ने तुम्हारी मां को टाइम पर खाना और दवाई नहीं दी और उस से जबान चलाई. तो लो यह सीमा का बदला, चौबीसों घंटे तो तुम अपनी मां की चौकीदारी नहीं कर सकते. सीमा सबकुछ सह सकती है, अपनी उपेक्षा नहीं. और धौंस के साथ वह तुम्हारी मां की चाकरी नहीं करेगी.’’

और उस के चेहरे की जहरीली मुसकान एकाएक एक क्रूर हंसी में बदल गई और वह खिलाखिला कर हंस पड़ी, फिर हंसतेहंसते रुक गई. यह अपनी हंसी की आवाज उसे कैसी अजीब सी, खोखली सी लग रही थी, यह उस के अंदर से रोतारोता कौन हंस रहा था? क्या यह उस के अंदर की उपेक्षित नारी अपनी उपेक्षा का बदला लेने की खुशी में हंस रही थी? पर इस बदले का बदला क्या होगा? और उस बदले का बदला…क्या उपेक्षा और बदले का यह क्रम जिंदगीभर चलता रहेगा?

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आखिर कब तक वे दोनों एक ही घर की चारदीवारी में एकदूसरे के पास से अजनबियों की तरह गुजरते रहेंगे? कब तक एक ही पलंग की सीमाओं में फंसे वे दोनों, एक ही कालकोठरी में कैद 2 दुश्मन कैदियों की तरह एकदूसरे पर नफरत की फुंकारें फेंकते हुए अपनी अंधेरी रातों में जहर घोलते रहेंगे?

उसे लगा जैसे कमरे की दीवारें घूम रही हों. और वह विचलित सी हो कर धम्म से पलंग पर गिर पड़ी.

थप…थप…थप…खिड़की थपथपाने की आवाज आई और सीमा चौंक कर उठ बैठी. उस के माथे पर बल पड़ गए. वह बड़बड़ाती हुई खिड़की की ओर बढ़ी.

‘‘क्या है?’’ उस ने खिड़की खोल कर रूखे स्वर में पूछा. सामने लीला खड़ी थी, भोंदू लीला, मोटा शरीर, मोटा थुलथुल चेहरा और चेहरे पर बच्चों सी अल्हड़ता.

‘‘दीदी, डेटौल है?’’ उस ने भोलेपन से पूछा, ‘‘बिल्लू को नहलाना है. अगर डेटौल हो तो थोड़ा सा दे दो.’’

‘‘बिल्लू को,’’ सीमा ने नाक सिकोड़ कर पूछा कि तभी उस का कुत्ता बिल्लू भौंभौं करता हुआ खिड़की तक आ गया.

सीमा पीछे को हट गई और बड़बड़ाई, ‘उंह, मरे को पता नहीं मुझ से क्या नफरत है कि देखते ही भूंकता हुआ चढ़ आता है. वैसे भी कितना गंदा रहता है, हर वक्त खुजलाता ही रहता है. और इस भोंदू लीला को क्या हो गया है, कालेज में तो कुत्ते को देखते ही बेंत ले कर दौड़ पड़ती थी, पर इसे ऐसे दुलार करती है जैसे उस का अपना बच्चा हो. बेअक्ल कहीं की.’

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अन्यमनस्क सी वह अंदर आई और डेटौल की शीशी ला कर लीला के हाथ में पकड़ा दी. लीला शीशी ले कर बिल्लू को दुलारते हुए मुड़ गई और उस ने घृणा से मुंह फेर कर खिड़की बंद कर ली.

पर भोंदू लीला का चेहरा जैसे खिड़की चीर कर उस की आंखों के सामने नाचने लगा. ‘उंह, अब भी वैसी ही बेवकूफ है, जैसे कालेज में थी. पर एक बात समझ में नहीं आती, इतनी साधारण शक्लसूरत की बेवकूफ व फूहड़ महिला को भी उस का क्लर्क पति ऐसे रखता है जैसे वह बहुत नायाब चीज हो. उस के लिए आएदिन कोई न कोई गिफ्ट लाता रहता है. हर महीने तनख्वाह मिलते ही मूवी दिखाने या घुमाने ले जाता है.’

खिड़की के पार उन के ठहाके गूंजते, तो सीमा हैरान होती और मन ही मन उसे लीला के पति पर गुस्सा भी आता कि आखिर उस फूहड़ लीला में ऐसा क्या है जो वह उस पर दिलोजान से फिदा है. कई बार जब सीमा का पति कईकई दिन उस से नाराज रहता तो उसे उस लीला से रश्क सा होने लगता. एक तरफ वह है जो खूबसूरत और समझदार होते हुए भी पति से उपेक्षित है और दूसरी तरफ यह भोंदू है, जो बदसूरत और बेवकूफ होते हुए भी पति से बेपनाह प्यार पाती है. सीमा के मुंह से अकसर एक ठंडी सांस निकल जाती. अपनाअपना वक्त है. अचार के साथ रोटी खाते हुए भी लीला और उस का पति ठहाके लगाते हैं. जबकि दूसरी ओर उस के घर में सातसात पकवान बनते हैं और वे उन्हें ऐसे खाते हैं जैसे खाना खाना भी एक सजा हो. जब भी वह खिड़की खोलती, उस के अंदर खालीपन का एहसास और गहरा हो जाता और वह अपने दर्द की गहराइयों में डूबने लगती.

‘‘सीमा, दवाई…’’ दूसरे कमरे से क्षीण सी आवाज आई. बीमार सास दवाई मांग रही थी. वह बेखयाली में उठ बैठी, पर द्वेष की एक लहर फिर उस के मन में दौड़ गई. ‘क्या है इस घर में मेरा, जो मैं सब की चाकरी करती रहूं? इतने सालों के बाद भी मैं इस घर में पराई हूं, अजनबी हूं,’ और वह सास की आवाज अनसुनी कर के फिर लेट गई.

तभी खिड़की के पार लीला के जोरजोर से रोने और उस के कुत्ते के कातर स्वर में भूंकने की आवाज आई. उस ने झपट कर खिड़की खोली. लीला के घर के सामने नगरपलिका की गाड़ी खड़ी थी और एक कर्मचारी उस के बिल्लू को घसीट कर गाड़ी में ले जा रहा था.

‘‘इसे मत ले जाओ, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं,’’ लीला रोतेरोते कह रही थी.

लेकिन कर्मचारी ने कुत्ते को नहीं छोड़ा. ‘‘तुम्हारे कुत्ते को खाज है, बीमारी फैलेगी,’’ वह बोला.

‘‘प्लीज मेरे बिल्लू को मत ले जाओ. मैं डाक्टर को दिखा कर इसे ठीक करा दूंगी.’’

‘‘सुनो,’’ गाड़ी के पास खड़ा इंस्पैक्टर रोब से बोला, ‘‘इसे हम ऐसे नहीं छोड़ सकते. नगरपालिका पहुंच कर छुड़ा लाना. 2,000 रुपए जुर्माना देना पड़ेगा.’’

‘‘रुको, रुको, मैं जुर्माना दे दूंगी,’’ कह कर वह पागलों की तरह सीमा के घर की ओर भागी और सीमा को खिड़की के पास खड़ी देख कर गिड़गिड़ाते हुए बोली, ‘‘दीदी, मेरे बिल्लू को बचा लो. मुझे 2,000 रुपए उधार दे दो.’’

‘‘पागल हो गई हो क्या? इस गंदे और बीमार कुत्ते के लिए 2,000 रुपए देना चाहती हो? ले जाने दो, दूसरा कुत्ता पाल लेना,’’  सीमा बोली.

लीला ने एक बार असीम निराशा और वेदना के साथ सीमा की ओर देखा. उस की आंखों से आंसुओं की धारा बह रही थी. सहसा उस की आंखें अपने हाथ में पड़ी सोने की पतली सी एकमात्र चूड़ी पर टिक गईं. उस की आंखों में एक चमक आ गई और वह चूड़ी उतारती हुई वापस कुत्ता गाड़ी की तरफ दौड़ पड़ी.

‘‘भैया, यह लो जुर्माना. मेरे बिल्लू को छोड़ दो,’’ वह चूड़ी इंस्पैक्टर की ओर बढ़ाती हुई बोली.

इंस्पैक्टर भौचक्का सा कभी उस के हाथ में पकड़ी सोने की चूड़ी की ओर और कभी उस कुत्ते की ओर देखने लगा. सहसा उस के चेहरे पर दया की एक भावना आ गई, ‘‘इस बार छोड़ देता हूं. अब बाहर मत निकलने देना,’’ उस ने कहा और कुत्ता गाड़ी आगे बढ़ गई.

लीला एकदम कुत्ते से लिपट गई, जैसे उसे अपना खोया हुआ कोई प्रियजन मिल गया हो और वह फूटफूट कर रोने लगी.

सीमा दरवाजा खोल कर उस के पास पहुंची और बोली, ‘‘चुप हो जाओ, लीला, पागल न बनो. अब तो तुम्हारा बिल्लू छूट गया, पर क्या कोई कुत्ते के लिए भी इतना परेशान होता है?’’

लीला ने सिर उठा कर कातर दृष्टि से उस की ओर देखा. उस के चेहरे से वेदना फूट पड़ी, ‘‘ऐसा न कहो, सीमा दीदी, ऐसा न कहो. यह बिल्लू है, मेरा प्यारा बिल्लू. जानती हो, यह इतना सा था जब मेरे पति ने इसे पाला था. उन्होंने खुद चाय पीनी छोड़ दी थी और दूध बचा कर इसे पिलाते थे, प्यार से इसे पुचकारते थे, दुलारते थे. और अब, अब मैं इसे दुत्कार कर छोड़ दूं, जल्लादों के हवाले कर दूं, इसलिए कि यह बूढ़ा हो गया है, बीमार है, इसे खुजली हो गई है. नहीं दीदी, नहीं, मैं इस की सेवा करूंगी, इस के जख्म धोऊंगी क्योंकि यह मेरे लिए साधारण कुत्ता नहीं है, यह बिल्लू है, मेरे पति का जान से भी प्यारा बिल्लू. और जो चीज मेरे पति को प्यारी है, वह मुझे भी प्यारी है, चाहे वह बीमार कुत्ता ही क्यों न हो.’’

सीमा ठगी सी खड़ी रह गई. आंसुओं के सागर में डूबी यह भोंदू क्या कह रही है. उसे लगा जैसे लीला के शब्द उस के कानों के परदों पर हथौड़ों की तरह पड़ रहे हों और उस का बिल्लू भौंभौं कर के उसे अपने घर से भगा देना चाहता हो.

अकस्मात ही उस की रुलाई फूट पड़ी और उस ने लीला का आंसुओंभरा चेहरा अपने दोनों हाथों में भर लिया, ‘‘मत रो, मेरी लीला, आज तुम ने मेरी आंखों के जाले साफ कर दिए हैं. आज मैं समझ गई कि तुम्हारा पति तुम से इतना प्यार क्यों करता है. तुम उस जानवर को भी प्यार करती हो जो तुम्हारे पति को प्यारा है. और मैं, मैं उन इंसानों से प्यार करने की भी कीमत मांगती हूं, जो अटूट बंधनों से मेरे पति के मन के साथ बंधे हैं. तुम्हारे घर का जर्राजर्रा तुम्हारे प्यार का दीवाना है और मेरे घर की एकएक ईंट मुझे अजनबी समझती है. लेकिन अब नहीं, मेरी लीला, अब ऐसा नहीं होगा.’’

लीला ने हैरान हो कर सीमा को देखा. सीमा ने अपने घर की तरफ रुख कर लिया. अपनी गलतियों को सुधारने की प्रबल इच्छा उस की आंखों में दिख रही थी.

 

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April 01, 2022 at 09:00AM

पार्टनर: छवि ने क्या खो दिया?

आवाज में वही मधुरता, जैसे कुछ हुआ ही नहीं. काम है, करना तो पड़ेगा, कोई लिहाज नहीं है. दुखी हो तो हो जाओ, किसे पड़ी है. बिजनैस देना है तो प्यार से बोलना पड़ेगा. छवि अब भी फोन पर बात करती तो उसी मिठास के साथ कि मानो कुछ हुआ ही नहीं. वैसे कुछ हुआ भी नहीं. बस, एक धुंधली तसवीर को डैस्क से ड्रौअर के नीचे वाले हिस्से में रखा ही तो है. अब उस की औफिस डैस्क पर केवल एक कंप्यूटर, एक पैनहोल्डर और उस के पसंदीदा गुलाबी कप में अलगअलग रंग के हाइलाइटर्स रखे थे. 2 हफ्ते पहले तक उस की डैस्क की शान थी ब्रांच मैनेजर मिस्टर दीपक से बैस्ट एंप्लौयी की ट्रौफी लेते हुए फोटो. कैसे बड़े भाई की तरह उस के सिर पर हाथ रख वे उसे आगे बढ़ने को प्रेरित कर रहे थे.

आज उस ने फोटो को नीचे ड्रौअर में रख दिया. अब वह ड्रौअर के निचले हिस्से को बंद ही रखती. वह फोटो उस के लिए बहुत माने रखती थी. इस कंपनी में पिछले 6 महीने से छवि सभी एंप्लौयीज के लिए रोलमौडल थी और दीपक सर के लिए एक मिसाल. छवि ने घड़ी देखी, 5 बजने में अब भी 25 मिनट बाकी थे. अगर उस के पास कोई अदृश्य ताकत होती तो समय की इस बाधा को हाथ से पकड़ कर पूरा कर देती. समय चूंकि अपनी गति से धीरेधीरे आगे बढ़ रहा था, छवि ने अपने चेहरे पर हाथ रख, आंखों को ढक अपनी विवशता को कुछ कम किया.

ये भी पढ़ें- विक्की : समय ने क्या खेल खेला की अक्खड़ विक्की सबका चहेता बन गया

अभी तो उसे लौगआउट करने से पहले रीजनल मैनेजर विनोद को दिनभर की रिपोर्टिंग करनी थी, यही सोच कर उस का मन रोने को कर रहा था. अगर उस ने फोन नहीं किया तो कभी भी उन का फोन आ सकता है. औफिस का काम औफिस में ही खत्म हो जाए तो अच्छा है. घर तक ले जाने की न तो उस की ताकत थी और न ही मंशा. यह आखिरी काम खत्म कर छवि एक पंख के कबूतर की तरह अपनी कंपनी के वन बैडरूम फ्लैट में आ गई. फ्लैट की औफव्हाइट दीवारों ने उस का स्वागत उसी तरह किया जैसे उस ने किसी अनजान पड़ोसी को गुडमौर्निंग कहा हो. फ्लैट में कंपनी ने उसे बेसिक मगर ब्रैंडेड फर्नीचर मुहैया करवा रखे थे. कभी उसे लगता घर भी औफिस का ही एक हिस्सा है और वह कभी घर आती ही नहीं. सच भी तो है, पिछले 6 महीने में वह एक बार भी घर नहीं गई थी.

मात्र 100 किलोमीटर की दूरी पर उस का कसबा था, सराय अजीतमल. पर वहां दिलों की बहुत दूरी थी. पिता के देहांत के बाद मां ने पिता के एक दोस्त प्रोफैसर महेश से लिवइन रिलेशन बना लिए. अब छवि का घर, जहां वह 22 साल रही, 2 प्रेमियों का अड्डा बन गया जहां उस के पहुंचने से पहले ही उस के जाने के बारे में जानकारी ले ली जाती.

ये भी पढ़ें- मेरे अनुभव-भाग 1: रेणु को अपने ससुराल वालों से क्या शिकायत थी?

कभीकभी तो उसे अपनी मां पर आश्चर्य होता कि वह क्या उस के पिता के मरने का ही इंतजार कर रही थी. पिता पिछले 5 सालों से कैंसर से जूझ रहे थे. इसी कारण छवि को बीच में पढ़ाई छोड़ जौब करनी पड़ी और महेश अंकल ने तो मदद की ही थी. यह बात और है कि उसे न चाहते हुए भी अब उन्हें पापा कहना पड़ता.

छवि ने अपनेआप को आईने में देखा और थोड़ा मुसकराई, वह सुंदर लग रही थी. औफिस में नौजवान एंप्लौयी चोरीछिपे उसे देखने का बहाना ढूंढ़ते और कुछेक अधेड़ बेशर्मी के साथ उस से कौफी पीने का अनुरोध करते. दीपक सर की चहेती होने से कोई सीधा हमला नहीं कर पाता. क्या फोन पर रिपोर्टिंग करते समय विनोद सर जान पाते होंगे कि यह एक पंख की कबूतर कौन्ट्रैक्ट की वजह से अब तक इस नौकरी को निभा रही है, हां…दीपक सर का अपनापन भी एक प्रमुख कारण था कि वह दूसरा जौब नहीं ढूंढ़ पाई. क्या पता उन्हें मालूम हो कि औफिस जाना उसे कितना गंदा लगता है. वह नीचे झुकी, ड्रैसिंग टेबल पर फाइवस्टार रिजोर्ट में 2 दिन और 3 रातों का पैकेज टिकट पड़ा था. मन किया उस के टुकड़ेटुकड़े कर फाड़ कर फेंक दे, पर उस ने केवल एक आह भरी और कमरे की दीवारों को देखने लगी. दीवारों की सफेदी ने उसे पिछले महीने गोवा में समंदर किनारे हुई क्लाइंट मीटिंग की याद दिला दी. मन कसैला हो गया. कैसे समुद्र का चिपचिपा नमकीन पानी बारबार कमर तक टकरा रहा था और 2 क्लाइंट उस से अगलबगल चिपके खड़े थे. उन दोनों की बांहों के किले में वह जकड़ी थी और विनोद सर से ‘चीज’ कह कर एक ग्रुप फोटो लेने में व्यस्त थे.

छवि एक बिन ताज की महारानी की तरह कंपनी और क्लाइंट के बीच होने वाली डील में पिस रही थी. एक लहर ने आ कर उसे गिरा दिया, वह सोचने लगी कि क्या वह सचमुच गिर गई थी. बस, विनोद सर बीचबीच में हौसला बढ़ाते रहते, ‘बिजनैस है, हंसना तो पड़ेगा.’ उन के शब्द याद आते ही उस का मन रोने का किया. उसे लगा इस कमरे की दीवारें सफेद लहरें हैं जो उस के मुंह पर उछलउछल कर गिर रही हैं. वह जमीन पर बैठ गईर् और घुटनों को सीने से लगा सुबकने लगी. अपनी कंपनी से एक कौन्ट्रैक्ट साइन कर उस ने 3 साल की सैलरी का 60 प्रतिशत हिस्सा पहले ही ले लिया था. सारा पैसा पिता की बीमारी में लग गया. छवि का मन रोने से हलका हो गया. थोड़ी राहत मिली तो उठ कर बैड पर बैठ गई. डिनर करने का मन नहीं था, इसलिए सो गई.

ये भी पढ़ें- रुक गई प्राची : क्या प्राची को उस का प्यार मिल पाया

सुबह 7 बजे सूरज की किरणें जब परदे को पार कर आंखों में चुभने लगीं तो वह हड़बड़ा कर उठी. वह ठीक 9 बजे औफिस पहुंच गई, उस के पास एक छोटा बैग था. दीपक सर उसे देख कर हलका सा मुसकराए. वह उन से भी छिपती हुई जल्दी से अपने कैबिन में आ कर बैठ गई. 1 घंटा प्रैजैंटेशन बनाने के बाद उसे बड़ी थकान लगने लगी, लगता था कल के रोने ने उस की बहुत ताकत खींच ली थी. तभी फोन बजा और उस का आलस टूटा. दूसरी लाइन पर दीपक सर थे, बोले, ‘‘तुम ने क्या सोचा?’’

ड्रौअर के नीचे के आखिरी खाने में कौन्ट्रैक्ट की कौपी और दीपक सर के साथ उस की फोटो थी. उस ने कौन्ट्रैक्ट को बिना देखे, फोटो को उठा अपने बैग में डाल लिया और बोली, ‘‘आप के साथ पार्टनरशिप,’’ और छवि ने फोन काट दिया. यह कोई पागलपन नहीं था, बल्कि एक सोचासमझा फैसला था. छवि ने ड्रौअर को ताला लगाया और चाबियों को झिझकते हुए, पर दृढ़ता से, पर्स में डाल दिया. 15 दिन लगे पर उसे अपने फैसले पर विश्वास था. फोटो को बैग से निकाल कर एक बार फिर देखा, थोड़ा धुंधला लग रहा था पर उस में अब भी चमक थी.

ये भी पढ़ें- मेरे अनुभव-भाग 2: रेणु को अपने ससुराल वालों से क्या शिकायत थी?

छवि की आंखों में हलका गीलापन था, कौन्ट्रैक्ट का पैसा दीपक सर की हैल्प से भर पा रही थी. अब वह कंपनी में कभी नहीं आएगी. वह अब आजाद थी. पर 2 दिन और 3 रातें दीपक सर के साथ रिजोर्ट में बिता कर वह उन्हीं के नए फ्लैट में रहेगी, एक पार्टनर बन कर.

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आवाज में वही मधुरता, जैसे कुछ हुआ ही नहीं. काम है, करना तो पड़ेगा, कोई लिहाज नहीं है. दुखी हो तो हो जाओ, किसे पड़ी है. बिजनैस देना है तो प्यार से बोलना पड़ेगा. छवि अब भी फोन पर बात करती तो उसी मिठास के साथ कि मानो कुछ हुआ ही नहीं. वैसे कुछ हुआ भी नहीं. बस, एक धुंधली तसवीर को डैस्क से ड्रौअर के नीचे वाले हिस्से में रखा ही तो है. अब उस की औफिस डैस्क पर केवल एक कंप्यूटर, एक पैनहोल्डर और उस के पसंदीदा गुलाबी कप में अलगअलग रंग के हाइलाइटर्स रखे थे. 2 हफ्ते पहले तक उस की डैस्क की शान थी ब्रांच मैनेजर मिस्टर दीपक से बैस्ट एंप्लौयी की ट्रौफी लेते हुए फोटो. कैसे बड़े भाई की तरह उस के सिर पर हाथ रख वे उसे आगे बढ़ने को प्रेरित कर रहे थे.

आज उस ने फोटो को नीचे ड्रौअर में रख दिया. अब वह ड्रौअर के निचले हिस्से को बंद ही रखती. वह फोटो उस के लिए बहुत माने रखती थी. इस कंपनी में पिछले 6 महीने से छवि सभी एंप्लौयीज के लिए रोलमौडल थी और दीपक सर के लिए एक मिसाल. छवि ने घड़ी देखी, 5 बजने में अब भी 25 मिनट बाकी थे. अगर उस के पास कोई अदृश्य ताकत होती तो समय की इस बाधा को हाथ से पकड़ कर पूरा कर देती. समय चूंकि अपनी गति से धीरेधीरे आगे बढ़ रहा था, छवि ने अपने चेहरे पर हाथ रख, आंखों को ढक अपनी विवशता को कुछ कम किया.

ये भी पढ़ें- विक्की : समय ने क्या खेल खेला की अक्खड़ विक्की सबका चहेता बन गया

अभी तो उसे लौगआउट करने से पहले रीजनल मैनेजर विनोद को दिनभर की रिपोर्टिंग करनी थी, यही सोच कर उस का मन रोने को कर रहा था. अगर उस ने फोन नहीं किया तो कभी भी उन का फोन आ सकता है. औफिस का काम औफिस में ही खत्म हो जाए तो अच्छा है. घर तक ले जाने की न तो उस की ताकत थी और न ही मंशा. यह आखिरी काम खत्म कर छवि एक पंख के कबूतर की तरह अपनी कंपनी के वन बैडरूम फ्लैट में आ गई. फ्लैट की औफव्हाइट दीवारों ने उस का स्वागत उसी तरह किया जैसे उस ने किसी अनजान पड़ोसी को गुडमौर्निंग कहा हो. फ्लैट में कंपनी ने उसे बेसिक मगर ब्रैंडेड फर्नीचर मुहैया करवा रखे थे. कभी उसे लगता घर भी औफिस का ही एक हिस्सा है और वह कभी घर आती ही नहीं. सच भी तो है, पिछले 6 महीने में वह एक बार भी घर नहीं गई थी.

मात्र 100 किलोमीटर की दूरी पर उस का कसबा था, सराय अजीतमल. पर वहां दिलों की बहुत दूरी थी. पिता के देहांत के बाद मां ने पिता के एक दोस्त प्रोफैसर महेश से लिवइन रिलेशन बना लिए. अब छवि का घर, जहां वह 22 साल रही, 2 प्रेमियों का अड्डा बन गया जहां उस के पहुंचने से पहले ही उस के जाने के बारे में जानकारी ले ली जाती.

ये भी पढ़ें- मेरे अनुभव-भाग 1: रेणु को अपने ससुराल वालों से क्या शिकायत थी?

कभीकभी तो उसे अपनी मां पर आश्चर्य होता कि वह क्या उस के पिता के मरने का ही इंतजार कर रही थी. पिता पिछले 5 सालों से कैंसर से जूझ रहे थे. इसी कारण छवि को बीच में पढ़ाई छोड़ जौब करनी पड़ी और महेश अंकल ने तो मदद की ही थी. यह बात और है कि उसे न चाहते हुए भी अब उन्हें पापा कहना पड़ता.

छवि ने अपनेआप को आईने में देखा और थोड़ा मुसकराई, वह सुंदर लग रही थी. औफिस में नौजवान एंप्लौयी चोरीछिपे उसे देखने का बहाना ढूंढ़ते और कुछेक अधेड़ बेशर्मी के साथ उस से कौफी पीने का अनुरोध करते. दीपक सर की चहेती होने से कोई सीधा हमला नहीं कर पाता. क्या फोन पर रिपोर्टिंग करते समय विनोद सर जान पाते होंगे कि यह एक पंख की कबूतर कौन्ट्रैक्ट की वजह से अब तक इस नौकरी को निभा रही है, हां…दीपक सर का अपनापन भी एक प्रमुख कारण था कि वह दूसरा जौब नहीं ढूंढ़ पाई. क्या पता उन्हें मालूम हो कि औफिस जाना उसे कितना गंदा लगता है. वह नीचे झुकी, ड्रैसिंग टेबल पर फाइवस्टार रिजोर्ट में 2 दिन और 3 रातों का पैकेज टिकट पड़ा था. मन किया उस के टुकड़ेटुकड़े कर फाड़ कर फेंक दे, पर उस ने केवल एक आह भरी और कमरे की दीवारों को देखने लगी. दीवारों की सफेदी ने उसे पिछले महीने गोवा में समंदर किनारे हुई क्लाइंट मीटिंग की याद दिला दी. मन कसैला हो गया. कैसे समुद्र का चिपचिपा नमकीन पानी बारबार कमर तक टकरा रहा था और 2 क्लाइंट उस से अगलबगल चिपके खड़े थे. उन दोनों की बांहों के किले में वह जकड़ी थी और विनोद सर से ‘चीज’ कह कर एक ग्रुप फोटो लेने में व्यस्त थे.

छवि एक बिन ताज की महारानी की तरह कंपनी और क्लाइंट के बीच होने वाली डील में पिस रही थी. एक लहर ने आ कर उसे गिरा दिया, वह सोचने लगी कि क्या वह सचमुच गिर गई थी. बस, विनोद सर बीचबीच में हौसला बढ़ाते रहते, ‘बिजनैस है, हंसना तो पड़ेगा.’ उन के शब्द याद आते ही उस का मन रोने का किया. उसे लगा इस कमरे की दीवारें सफेद लहरें हैं जो उस के मुंह पर उछलउछल कर गिर रही हैं. वह जमीन पर बैठ गईर् और घुटनों को सीने से लगा सुबकने लगी. अपनी कंपनी से एक कौन्ट्रैक्ट साइन कर उस ने 3 साल की सैलरी का 60 प्रतिशत हिस्सा पहले ही ले लिया था. सारा पैसा पिता की बीमारी में लग गया. छवि का मन रोने से हलका हो गया. थोड़ी राहत मिली तो उठ कर बैड पर बैठ गई. डिनर करने का मन नहीं था, इसलिए सो गई.

ये भी पढ़ें- रुक गई प्राची : क्या प्राची को उस का प्यार मिल पाया

सुबह 7 बजे सूरज की किरणें जब परदे को पार कर आंखों में चुभने लगीं तो वह हड़बड़ा कर उठी. वह ठीक 9 बजे औफिस पहुंच गई, उस के पास एक छोटा बैग था. दीपक सर उसे देख कर हलका सा मुसकराए. वह उन से भी छिपती हुई जल्दी से अपने कैबिन में आ कर बैठ गई. 1 घंटा प्रैजैंटेशन बनाने के बाद उसे बड़ी थकान लगने लगी, लगता था कल के रोने ने उस की बहुत ताकत खींच ली थी. तभी फोन बजा और उस का आलस टूटा. दूसरी लाइन पर दीपक सर थे, बोले, ‘‘तुम ने क्या सोचा?’’

ड्रौअर के नीचे के आखिरी खाने में कौन्ट्रैक्ट की कौपी और दीपक सर के साथ उस की फोटो थी. उस ने कौन्ट्रैक्ट को बिना देखे, फोटो को उठा अपने बैग में डाल लिया और बोली, ‘‘आप के साथ पार्टनरशिप,’’ और छवि ने फोन काट दिया. यह कोई पागलपन नहीं था, बल्कि एक सोचासमझा फैसला था. छवि ने ड्रौअर को ताला लगाया और चाबियों को झिझकते हुए, पर दृढ़ता से, पर्स में डाल दिया. 15 दिन लगे पर उसे अपने फैसले पर विश्वास था. फोटो को बैग से निकाल कर एक बार फिर देखा, थोड़ा धुंधला लग रहा था पर उस में अब भी चमक थी.

ये भी पढ़ें- मेरे अनुभव-भाग 2: रेणु को अपने ससुराल वालों से क्या शिकायत थी?

छवि की आंखों में हलका गीलापन था, कौन्ट्रैक्ट का पैसा दीपक सर की हैल्प से भर पा रही थी. अब वह कंपनी में कभी नहीं आएगी. वह अब आजाद थी. पर 2 दिन और 3 रातें दीपक सर के साथ रिजोर्ट में बिता कर वह उन्हीं के नए फ्लैट में रहेगी, एक पार्टनर बन कर.

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April 01, 2022 at 09:00AM

स्पेनिश मौस: क्या गीता अपनी गृहस्थी बचा पाई?

‘‘आप यह नहीं सोचना कि मैं उन की बुराई कर रही हूं, पर…पर…जानती हैं क्या है, वे जरा…सामाजिक नहीं हैं.’’

उस महिला का रुकरुक कर बोला गया वह वाक्य, सोच कर, तोल कर रखे शब्द. ऋचा चौंक गई. लगा, इस सब के पीछे हो न हो एक बवंडर है. उस ने महिला की आंखों में झांकने का प्रयत्न किया, पर आंखों में कोई भाव नहीं थे, था तो एक अपारदर्शी खालीपन.

मुझे आश्चर्य होना स्वाभाविक था. उस महिला से परिचय हुए अभी एक सप्ताह भी नहीं हुआ था और उस से यह दूसरी मुलाकात थी. अभी तो वह ‘गीताजी’ और ‘ऋचाजी’ जैसे औपचारिक संबोधनों के बीच ही गोते खा रही थी कि गीता ने अपनी सफाई देते हुए यह कहा था, ‘‘माफ करना ऋचाजी, हम आप को टैलीफोन न कर सके. बात यह है कि हम…हम कुछ व्यस्त रहे.’’

ऋचा को इस वाक्य ने नहीं चौंकाया. वह जान गई कि अमेरिका में आते ही हम भारतीय व्यस्त हो जाने के आदी हो जाते हैं. भारत में होते हैं तो हम जब इच्छा हो, उठ कर परिचितों, प्रियजनों, मित्रों, संबंधियों के घर जा धमकते हैं. वहां हमारे पास एकदूसरे के लिए समय ही समय होता है. घंटों बैठे रहते हैं, नानुकर करतेकरते भी चायजलपान चलता है क्योंकि वहां ‘न’ का छिपा अर्थ ‘हां’ होता है. किंतु यहां सब अमेरिकन ढंग से व्यस्त हो जाते हैं. टैलीफोन कर के ही किसी के घर जाते हैं और चाय की इच्छा हो तो पूछने पर ‘हां’ ही करते हैं क्योंकि आप ने ‘न’ कहा तो फिर भारतीय भी यह नहीं कहेगा, ‘‘अजी, ले लो. एक कप से क्या फर्क पड़ेगा आप की नींद को,’’ बल्कि अमेरिकन ढंग से कंधे उचका कर कहेगा, ‘‘ठीक है, कोई बात नहीं,’’ और आप बिना चाय के घर.

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अमेरिका आए ऋचा को अभी एक माह ही हुआ था. घर की याद आती थी. भारत याद आता था. यहां आने पर ही पता चलता है कि हमारे जीवन में कितनी विविधता है. दैनिक जीवन को चलाने के संघर्ष में ही व्यक्ति इतना डूब जाता है कि उसे कुछ हट कर जीवन पर नजर डालने का अवसर ही नहीं मिलता. यहां जीवन की हर छोटी से छोटी सुखसुविधा उपलब्ध है और फिर भी मन यहां की एकरसता से ऊब जाता है. अजीब एकाकीपन में घिरी ऋचा को जब एक अमेरिकन परिचिता ने ‘फार्म’ पर चलने की दावत दी तो वह फूली न समाई और वहीं गीता से परिचय हुआ था.

शहर से 20-25 किलोमीटर दूर स्थित इस ‘फार्म’ पर हर रविवार शाम को ‘गुडविल’ संस्था के 20-30 लोग आते थे, मिलते थे. कुछ जलपान हो जाता था और हफ्तेभर के लिए दिमाग तरोताजा हो जाता था. यह अनौपचारिक ‘मंडल’ था जिस में विविध देशों के लोगों को आने के लिए खास प्रेरित किया जाता था. सांस्कृतिक आदानप्रदान का एक छोटा सा प्रयास था यह.

यहीं उन गोरे चेहरों में ऋचा ने यह भारतीय चेहरा देखा और उस का मन हलका हो गया. वही गेहुआं रंग, काले घने बाल, माथे पर बिंदी और साड़ी का लहराता पल्ला. दोनों ने एकदूसरे की ओर देखा और अनायास दोनों चेहरों पर मुसकान थिरक गई. फिर परिचय, फिर अतापता, टैलीफोन नंबर का लेनदेन और छोटीमोटी, इधरउधर की बातें. कई दिनों बाद हिंदी में बातचीत कर अच्छा लगा.

तब गीता ने कहा था, ‘‘मैं टैलीफोन करूंगी.’’

और दूसरे सप्ताह मिली तो टैलीफोन न कर सकने का कारण बतातेबताते मन में लगी काई पर से जबान फिसल गई. उस के शब्द ऋचा ने पकड़ लिए, ‘‘वे सामाजिक नहीं हैं…’’ शब्द नहीं, मर्म को छूने वाली आवाज थी शायद, जो उसे चौंका गई. सामाजिक न होना कोई अपराध नहीं, स्वभाव है. गीता के पति सामाजिक नहीं हैं. फिर?

बातचीत का दौर चल रहा था. हरीहरी घास पर रंगबिरंगे कपड़े पहने लोग. लगा वातावरण में चटकीले रंग बिखर गए थे. ऋचा भी इधरउधर घूमघूम कर बातों में उलझी थी. अच्छा लग रहा था, दुनिया का नागरिक होने का आभास. ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की एक नन्ही झलक.

यहां मलयेशिया से आया एक परिवार था, कोई ब्राजील से, ये पतिपत्नी मैक्सिकन थे और वे कोस्टारिका के. सब अपनेअपने ढंग से अंगरेजी बोल रहे थे. कई ऋचा की भारतीय सिल्क साड़ी की प्रशंसा कर रहे थे तो कई बिंदी की ओर इशारा कर पूछ रहे थे कि यह क्या है? क्या यह जन्म से ही है आदि. कुल मिला कर ऐसा समां बंधा था कि ऋचा की हफ्तेभर की थकान मिट गई थी. तभी उस की नजर अकेली खड़ी गीता पर पड़ी. उस का पति बच्चों को संभालने के बहाने भीड़ से दूर चला गया था और उन्हें गाय दिखा रहा था.

ऋचा ने सोचा, ‘सचमुच ही गीता

का पति सामाजिक नहीं है. पर फिर यहां क्यों आते हैं? शायद गीता के कहने पर. किंतु गीता भी कुछ खास हिलीमिली नहीं इन लोगों से.’

‘‘अरे, आप अकेली क्यों खड़ी हैं?’’ कहती हुई ऋचा उस के पास जा खड़ी हुई.

‘‘यों ही, हर सप्ताह ही तो यहां आते हैं. क्या बातचीत करे कोई?’’ गीता ने दार्शनिक अंदाज से कहा.

‘‘हां, हो सकता है. आप तो काफी दिनों से आ रही हैं न?’’

‘‘हां.’’

‘‘तुम्हारे पति को अच्छा लगता है यहां? मेरा मतलब है भीड़ में, लोगों के बीच?’’

‘‘पता नहीं. कुछ कहते नहीं. हर इतवार आते जरूर हैं.’’

‘‘ओह, शायद तुम्हारे लिए,’’ ऋचा कब आप से तुम पर उतर आई वह जान न पाई.

‘‘मेरे लिए, शायद?’’ और गीता के होंठों पर मुसकान ठहर गई, पर होंठों का वक्र बहुत कुछ कह गया. ऋचा को लगा, कदाचित उस ने किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया था, अनजाने ही अपराधबोध से उस ने झट आंखें फेर लीं.

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तभी गीता ने उस के कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘सच मानो, ऋचा. मैं तो यहां आना बंद ही करने वाली थी कि पिछली बार तुम मिल गईं. बड़ा सहारा सा लगा. इस बार बस, तुम्हारी वजह से आई हूं.’’

‘‘मेरी वजह से?’’

‘‘हां, सोचा दो बातें हो जाएंगी. वरना हमारे न कोई मित्र हैं, न घर आनेजाने वाले. सारा दिन घर में अकेले रह कर ऊब जाती हूं. शाम को कभी बाजार के लिए निकल जाते हैं पर अब तो इन बड़ीबड़ी दुकानों से भी मन ऊब गया है. वही चमकदमक, वही एक सी वस्तुएं, वही डब्बों में बंद सब्जियां, गत्तों के चिकने डब्बों में बंद सीरियल, चाहे कौर्नफ्लैक लो या ओटबार्न, क्या फर्क पड़ता है.’’

गीता अभी बहुत कुछ कहना चाहती थी पर अब चलने का समय हो गया था. उस के पति कार के पास खड़े थे. वह उठ खड़ी हुई. ऋचा को लगा, गीता मन को खोल कर घुटन निकाल दे तो उसे शायद राहत मिलेगी. इस परदेस में इनसान मन भी किस के सामने खोले?

वह अपनी भावुकता को छिपाती हुई बोली, ‘‘गीता, कभी मैं तुम्हारे घर आऊं तो? बुरा तो नहीं मानेंगे तुम्हारे पति?’’

‘‘नहीं. परंतु हां, वे कभी कार से लेने या छोड़ने नहीं आएंगे, जैसे आमतौर पर भारतीय करते हैं. इन से यह सामाजिक औपचारिकता नहीं निभती,’’ वह चलते- चलते बोली. फिर निकट आ गई और साड़ी का पल्ला संवारते हुए धीरे से बोली, ‘‘तभी तो नौकरी छूट गई.’’

और वह चली गई, ऋचा के शांत मन में कंकड़ फेंक कर उठने वाली लहरों के बीच ऋचा का मन कमल के पत्ते की भांति डोलने लगा.

इस परदेस में, अपने घर से, लोगों से, देश से हजारों मील दूर वैसे ही इनसान को घुटन होती है, निहायत अकेलापन लगता है. ऊपर से गीता जैसी स्त्री जिसे पति का भी सहारा न हो. कैसे जी रही होगी यह महिला?

अगली बार गीता मिली तो बहुत उदास थी. पिछले पूरे सप्ताह ऋचा अपने काम में लगी रही. गीता का ध्यान भी उसे कम ही आया. एक बार टैलीफोन पर कुछ मिनट बात हुई थी, बस. अब गीता को देख फिर से मन में प्रश्नों का बवंडर खड़ा हो गया.

इस बार गीता और अधिक खुल कर बोली. सारांश यही था कि पति नौकरी छोड़ कर बैठ गए हैं. कहते हैं भारत वापस चलेंगे. उन का यहां मन नहीं लगता.

‘‘तो ठीक है. वहां जा कर शायद ठीक हो जाएं,’’ ऋचा ने कहा.

गीता की अपारदर्शी आंखों में अचानक ही डर उभर आया.

ऋचा सिहर गई, ‘‘नहीं. ऐसा न कहो. वहां मैं और अकेली पड़ जाऊंगी. इन के सब वहां हैं. इन का पूरा मन वहीं है और मेरा यहां.’’

तब पता चला कि गीता के 2 भाई हैं जो अब इंगलैंड में ही रहते हैं, पहले यहां थे. मातापिता उन के पास हैं. बहन कनाडा में है.

‘‘हमारी शादियां होने तक तो हम सब भारत में थे. फिर एकएक कर के इधर आते गए. मैं सब से छोटी हूं. मेरी शादी के बाद मातापिता भी भाइयों के पास आ गए.’’

गीता एक विचित्र परिस्थिति में थी. पति भारत जाना चाहते थे,वह रोकती थी. घर में क्लेश हो जाता. वे कहते कि अकेले जा कर आऊंगा तो भी गीता को मंजूर नहीं था क्योंकि उसे डर था कि मांबाप, भाईबहनों के बीच में से निकल कर वे नहीं आएंगे.

‘‘बच्चों की खातिर तो लौट आएंगे,’’ ऋचा ने समझाया.

‘‘बच्चों की खातिर? हुंह,’’ स्पष्ट था कि गीता को इस बात का भी भय था कि उन्हें बच्चों से भी लगाव नहीं है. ऋचा को अजीब लगा क्योंकि हर रविवार को बच्चों के साथ वे घंटों खेलते हैं, उन्हें प्यार से रखते हैं.

ऋचा कई बार सोचती, ‘आखिर कमी कहां रह गई है, वह तो सिर्फ गीता का दृष्टिकोण ही जान पाई है. उस के पति से बात नहीं हुई. वैसे गीता यह भी कहती है कि उस के पति बहुत योग्य व्यक्ति हैं और नामी कंप्यूटर वैज्ञानिक हैं. फिर यह सब क्या है?’

अब तो जब मिलो, गीता की वही शिकायत होती. पति ने फिलहाल अकेले भारत जाने की ठानी है. 3-4 महीने में वे चले जाएंगे. तत्पश्चात बच्चों की छुट्टियां होते ही वह जाएगी और फिर सब लौट आएंगे. पिछले 2 रविवारों को ऋचा फार्म पर गई नहीं थी. तीसरे रविवार गई तो गीता मिली. वही चिंतित चेहरा.

गीता के चेहरे पर भय की रेखाएं अब पूरी तरह अंकित थीं.

‘‘उन के बिना यहां…’’ गीता का वाक्य अभी अधूरा ही था कि ऋचा बोल पड़ी.

‘‘उन से इतना लगाव है तो लड़ती क्यों हो?’’

गीता चुप रही. फिर कुछ संभल कर बोली, ‘‘हमारा जीवन तो अस्तव्यस्त हो जाएगा न. बच्चों को स्कूल पहुंचाना, हर हफ्ते की ग्रौसरी शौपिंग, और भी तो गृहस्थी के झंझट होते हैं.’’

तभी गीता की परिचिता एक अमेरिकी महिला आ कर उस से कुछ कहने लगी. गीता का रंग उड़ गया. ऋचा ने उस की ओर देखा. गीता अंगरेजी में जवाब देने के प्रयास में हकला रही थी. ऋचा ने गीता की ओर से ध्यान हटा लिया और दूर एक पेड़ की ओर ध्यानमग्न हो देखने लगी. कुछ देर बाद अमेरिकन महिला चली गई. ऋचा को पता तब चला जब गीता ने उसे झकझोरा.

‘‘तुम ऋचा, दार्शनिक बनी पेड़ ताक रही हो. मैं इधर समस्याओं से घिरी हूं.’’

ऋचा ने उस की शिकायत सुनी- अनसुनी कर दी.

‘‘गीता, यह तुम्हारी अमेरिकी सहेली है. है न?’’

‘‘हां. नहीं. सच पूछो ऋचा, तो मैं कहां दोस्ती बढ़ाऊं? कैसे? अंगरेजी बोलना भी तो नहीं आता. मांबाप ने हिंदी स्कूलों में पढ़ाया.’’

‘‘ऐसा मत कहो,’’ ऋचा ने बीच में टोका, ‘‘अपनी भाषा के स्कूल में पढ़ना कोई गुनाह नहीं.’’

‘‘पर इस से मेरा हाल क्या हुआ, देख रही हो न?’’

‘‘यह स्कूल का दोष नहीं.’’

‘‘फिर?’’

‘‘दोष तुम्हारा है. अपने को समय व परिस्थिति के मुताबिक ढाल न सकना गुनाह है. बेबसी गुनाह है. दूसरे पर अवलंबित रहना गुनाह है. यही गुनाह औरत सदियों से करती चली आ रही है और पुरुषों को दोष देती चली आ रही है,’’ ऋचा तैश में बोलती चली गई. चेहरा तमतमाया हुआ था.

‘‘तुम कहना क्या चाहती हो, ऋचा?’’

‘‘बताती हूं. सामने पेड़ देख रही हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘उन पेड़ों की टहनियों से ‘लेस’ की भांति नाजुक, हलके हरे रंग की बेल लटक रही है. है न?’’

‘‘हां. पर इन से मेरी समस्या का क्या ताल्लुक?’’

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‘‘अमेरिका के दक्षिणी प्रांतों में ये बेलें प्रचुर मात्रा में मिलती हैं…’’

‘‘सुनो, ऋचा. इस वक्त मैं न कविता के मूड में हूं, न भूगोल सीखने के,’’ गीता लगभग चिढ़ गई थी.

ऋचा के चेहरे पर हलकी मुसकराहट उभर आई. फिर अपनी बात को जारी रखते हुए कहने लगी, ‘‘इन बेलों को ‘स्पेनिश मौस’ कहते हैं. इन की खासीयत यह है कि ये बेलें पेड़ से चिपक कर लटकती तो हैं पर उन पर अवलंबित नहीं हैं.’’

‘‘तो मैं क्या करूं इन बेलों का?’’

‘‘तुम्हें स्पेनिश मौस बनना है.’’

‘‘मुझे? स्पेनिश मौस?’’

‘‘हां, ‘अमर बेल’ नहीं, स्पेनिश मौस. ’’

‘‘पहेलियां न बुझाओ, ऋचा,’’ गीता का कंठ क्रोध और अपनी असहाय दशा से भर आया.

‘‘गीता, तुम्हारी समस्या की जड़ है तुम्हारी आश्रित रहने की प्रवृत्ति. पति पर निर्भर रहते हुए भी तुम्हें अपना अस्तित्व स्पेनिश मौस की भांति अलग रखना है. उन के साथ रहो, प्यार से रहो, पर उन्हें बैसाखी मत बनाओ. अपने पांव पर खड़ी हो.’’

‘‘कहना आसान है…’’ गीता कड़वाहट में कुछ कहने जा रही थी. पर ऋचा ने बात काट कर अपने ढंग से पूरी की, ‘‘और करना भी.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘पहला कदम लेने भर की देर है.’’

‘‘तो पहला कदम लेना कौन सिखाएगा?’’

‘‘तुम्हारा अपना आत्मबल, उसे जगाओ.’’

‘‘कैसे जगाऊं?’’

‘‘तुम्हें अंगरेजी बोलनी आती है, जिस की यहां आवश्यकता है, बोलो?’’

‘‘नहीं?’’

‘‘कार चलानी आती है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘यहां आए कितने वर्ष हो गए?’’

‘‘8.’’

‘‘अब तक क्यों नहीं सीखी?’’

‘‘विश्वास नहीं है अपने पर.’’

‘‘बस, यही है हमारी आम औरत की समस्या और यहीं से शुरू करना है तुम्हें. मदद मैं करूंगी,’’ ऋचा ने कहा.

गीता के चेहरे पर कुछ भाव उभरे, कुछ विलीन हो गए.

‘स्पेनिश मौस,’ वह बुदबुदाई. दूर पेड़ों पर स्पेनिश मौस के झालरनुमा गुच्छे लटक रहे थे. अनायास गीता को लगा कि अब तक उस ने नहीं जाना था कि स्पेनिश मौस की अपनी खूबसूरती है.

‘‘यह सुंदर बेल है ऋचा, है न?’’ आंखों में झिलमिलाते सपनों के बीच से वह बोली.

‘‘हां, गीता. पर स्पेनिश मौस बनना और अधिक सुंदर होगा.’’

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‘‘आप यह नहीं सोचना कि मैं उन की बुराई कर रही हूं, पर…पर…जानती हैं क्या है, वे जरा…सामाजिक नहीं हैं.’’

उस महिला का रुकरुक कर बोला गया वह वाक्य, सोच कर, तोल कर रखे शब्द. ऋचा चौंक गई. लगा, इस सब के पीछे हो न हो एक बवंडर है. उस ने महिला की आंखों में झांकने का प्रयत्न किया, पर आंखों में कोई भाव नहीं थे, था तो एक अपारदर्शी खालीपन.

मुझे आश्चर्य होना स्वाभाविक था. उस महिला से परिचय हुए अभी एक सप्ताह भी नहीं हुआ था और उस से यह दूसरी मुलाकात थी. अभी तो वह ‘गीताजी’ और ‘ऋचाजी’ जैसे औपचारिक संबोधनों के बीच ही गोते खा रही थी कि गीता ने अपनी सफाई देते हुए यह कहा था, ‘‘माफ करना ऋचाजी, हम आप को टैलीफोन न कर सके. बात यह है कि हम…हम कुछ व्यस्त रहे.’’

ऋचा को इस वाक्य ने नहीं चौंकाया. वह जान गई कि अमेरिका में आते ही हम भारतीय व्यस्त हो जाने के आदी हो जाते हैं. भारत में होते हैं तो हम जब इच्छा हो, उठ कर परिचितों, प्रियजनों, मित्रों, संबंधियों के घर जा धमकते हैं. वहां हमारे पास एकदूसरे के लिए समय ही समय होता है. घंटों बैठे रहते हैं, नानुकर करतेकरते भी चायजलपान चलता है क्योंकि वहां ‘न’ का छिपा अर्थ ‘हां’ होता है. किंतु यहां सब अमेरिकन ढंग से व्यस्त हो जाते हैं. टैलीफोन कर के ही किसी के घर जाते हैं और चाय की इच्छा हो तो पूछने पर ‘हां’ ही करते हैं क्योंकि आप ने ‘न’ कहा तो फिर भारतीय भी यह नहीं कहेगा, ‘‘अजी, ले लो. एक कप से क्या फर्क पड़ेगा आप की नींद को,’’ बल्कि अमेरिकन ढंग से कंधे उचका कर कहेगा, ‘‘ठीक है, कोई बात नहीं,’’ और आप बिना चाय के घर.

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अमेरिका आए ऋचा को अभी एक माह ही हुआ था. घर की याद आती थी. भारत याद आता था. यहां आने पर ही पता चलता है कि हमारे जीवन में कितनी विविधता है. दैनिक जीवन को चलाने के संघर्ष में ही व्यक्ति इतना डूब जाता है कि उसे कुछ हट कर जीवन पर नजर डालने का अवसर ही नहीं मिलता. यहां जीवन की हर छोटी से छोटी सुखसुविधा उपलब्ध है और फिर भी मन यहां की एकरसता से ऊब जाता है. अजीब एकाकीपन में घिरी ऋचा को जब एक अमेरिकन परिचिता ने ‘फार्म’ पर चलने की दावत दी तो वह फूली न समाई और वहीं गीता से परिचय हुआ था.

शहर से 20-25 किलोमीटर दूर स्थित इस ‘फार्म’ पर हर रविवार शाम को ‘गुडविल’ संस्था के 20-30 लोग आते थे, मिलते थे. कुछ जलपान हो जाता था और हफ्तेभर के लिए दिमाग तरोताजा हो जाता था. यह अनौपचारिक ‘मंडल’ था जिस में विविध देशों के लोगों को आने के लिए खास प्रेरित किया जाता था. सांस्कृतिक आदानप्रदान का एक छोटा सा प्रयास था यह.

यहीं उन गोरे चेहरों में ऋचा ने यह भारतीय चेहरा देखा और उस का मन हलका हो गया. वही गेहुआं रंग, काले घने बाल, माथे पर बिंदी और साड़ी का लहराता पल्ला. दोनों ने एकदूसरे की ओर देखा और अनायास दोनों चेहरों पर मुसकान थिरक गई. फिर परिचय, फिर अतापता, टैलीफोन नंबर का लेनदेन और छोटीमोटी, इधरउधर की बातें. कई दिनों बाद हिंदी में बातचीत कर अच्छा लगा.

तब गीता ने कहा था, ‘‘मैं टैलीफोन करूंगी.’’

और दूसरे सप्ताह मिली तो टैलीफोन न कर सकने का कारण बतातेबताते मन में लगी काई पर से जबान फिसल गई. उस के शब्द ऋचा ने पकड़ लिए, ‘‘वे सामाजिक नहीं हैं…’’ शब्द नहीं, मर्म को छूने वाली आवाज थी शायद, जो उसे चौंका गई. सामाजिक न होना कोई अपराध नहीं, स्वभाव है. गीता के पति सामाजिक नहीं हैं. फिर?

बातचीत का दौर चल रहा था. हरीहरी घास पर रंगबिरंगे कपड़े पहने लोग. लगा वातावरण में चटकीले रंग बिखर गए थे. ऋचा भी इधरउधर घूमघूम कर बातों में उलझी थी. अच्छा लग रहा था, दुनिया का नागरिक होने का आभास. ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की एक नन्ही झलक.

यहां मलयेशिया से आया एक परिवार था, कोई ब्राजील से, ये पतिपत्नी मैक्सिकन थे और वे कोस्टारिका के. सब अपनेअपने ढंग से अंगरेजी बोल रहे थे. कई ऋचा की भारतीय सिल्क साड़ी की प्रशंसा कर रहे थे तो कई बिंदी की ओर इशारा कर पूछ रहे थे कि यह क्या है? क्या यह जन्म से ही है आदि. कुल मिला कर ऐसा समां बंधा था कि ऋचा की हफ्तेभर की थकान मिट गई थी. तभी उस की नजर अकेली खड़ी गीता पर पड़ी. उस का पति बच्चों को संभालने के बहाने भीड़ से दूर चला गया था और उन्हें गाय दिखा रहा था.

ऋचा ने सोचा, ‘सचमुच ही गीता

का पति सामाजिक नहीं है. पर फिर यहां क्यों आते हैं? शायद गीता के कहने पर. किंतु गीता भी कुछ खास हिलीमिली नहीं इन लोगों से.’

‘‘अरे, आप अकेली क्यों खड़ी हैं?’’ कहती हुई ऋचा उस के पास जा खड़ी हुई.

‘‘यों ही, हर सप्ताह ही तो यहां आते हैं. क्या बातचीत करे कोई?’’ गीता ने दार्शनिक अंदाज से कहा.

‘‘हां, हो सकता है. आप तो काफी दिनों से आ रही हैं न?’’

‘‘हां.’’

‘‘तुम्हारे पति को अच्छा लगता है यहां? मेरा मतलब है भीड़ में, लोगों के बीच?’’

‘‘पता नहीं. कुछ कहते नहीं. हर इतवार आते जरूर हैं.’’

‘‘ओह, शायद तुम्हारे लिए,’’ ऋचा कब आप से तुम पर उतर आई वह जान न पाई.

‘‘मेरे लिए, शायद?’’ और गीता के होंठों पर मुसकान ठहर गई, पर होंठों का वक्र बहुत कुछ कह गया. ऋचा को लगा, कदाचित उस ने किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया था, अनजाने ही अपराधबोध से उस ने झट आंखें फेर लीं.

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तभी गीता ने उस के कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘सच मानो, ऋचा. मैं तो यहां आना बंद ही करने वाली थी कि पिछली बार तुम मिल गईं. बड़ा सहारा सा लगा. इस बार बस, तुम्हारी वजह से आई हूं.’’

‘‘मेरी वजह से?’’

‘‘हां, सोचा दो बातें हो जाएंगी. वरना हमारे न कोई मित्र हैं, न घर आनेजाने वाले. सारा दिन घर में अकेले रह कर ऊब जाती हूं. शाम को कभी बाजार के लिए निकल जाते हैं पर अब तो इन बड़ीबड़ी दुकानों से भी मन ऊब गया है. वही चमकदमक, वही एक सी वस्तुएं, वही डब्बों में बंद सब्जियां, गत्तों के चिकने डब्बों में बंद सीरियल, चाहे कौर्नफ्लैक लो या ओटबार्न, क्या फर्क पड़ता है.’’

गीता अभी बहुत कुछ कहना चाहती थी पर अब चलने का समय हो गया था. उस के पति कार के पास खड़े थे. वह उठ खड़ी हुई. ऋचा को लगा, गीता मन को खोल कर घुटन निकाल दे तो उसे शायद राहत मिलेगी. इस परदेस में इनसान मन भी किस के सामने खोले?

वह अपनी भावुकता को छिपाती हुई बोली, ‘‘गीता, कभी मैं तुम्हारे घर आऊं तो? बुरा तो नहीं मानेंगे तुम्हारे पति?’’

‘‘नहीं. परंतु हां, वे कभी कार से लेने या छोड़ने नहीं आएंगे, जैसे आमतौर पर भारतीय करते हैं. इन से यह सामाजिक औपचारिकता नहीं निभती,’’ वह चलते- चलते बोली. फिर निकट आ गई और साड़ी का पल्ला संवारते हुए धीरे से बोली, ‘‘तभी तो नौकरी छूट गई.’’

और वह चली गई, ऋचा के शांत मन में कंकड़ फेंक कर उठने वाली लहरों के बीच ऋचा का मन कमल के पत्ते की भांति डोलने लगा.

इस परदेस में, अपने घर से, लोगों से, देश से हजारों मील दूर वैसे ही इनसान को घुटन होती है, निहायत अकेलापन लगता है. ऊपर से गीता जैसी स्त्री जिसे पति का भी सहारा न हो. कैसे जी रही होगी यह महिला?

अगली बार गीता मिली तो बहुत उदास थी. पिछले पूरे सप्ताह ऋचा अपने काम में लगी रही. गीता का ध्यान भी उसे कम ही आया. एक बार टैलीफोन पर कुछ मिनट बात हुई थी, बस. अब गीता को देख फिर से मन में प्रश्नों का बवंडर खड़ा हो गया.

इस बार गीता और अधिक खुल कर बोली. सारांश यही था कि पति नौकरी छोड़ कर बैठ गए हैं. कहते हैं भारत वापस चलेंगे. उन का यहां मन नहीं लगता.

‘‘तो ठीक है. वहां जा कर शायद ठीक हो जाएं,’’ ऋचा ने कहा.

गीता की अपारदर्शी आंखों में अचानक ही डर उभर आया.

ऋचा सिहर गई, ‘‘नहीं. ऐसा न कहो. वहां मैं और अकेली पड़ जाऊंगी. इन के सब वहां हैं. इन का पूरा मन वहीं है और मेरा यहां.’’

तब पता चला कि गीता के 2 भाई हैं जो अब इंगलैंड में ही रहते हैं, पहले यहां थे. मातापिता उन के पास हैं. बहन कनाडा में है.

‘‘हमारी शादियां होने तक तो हम सब भारत में थे. फिर एकएक कर के इधर आते गए. मैं सब से छोटी हूं. मेरी शादी के बाद मातापिता भी भाइयों के पास आ गए.’’

गीता एक विचित्र परिस्थिति में थी. पति भारत जाना चाहते थे,वह रोकती थी. घर में क्लेश हो जाता. वे कहते कि अकेले जा कर आऊंगा तो भी गीता को मंजूर नहीं था क्योंकि उसे डर था कि मांबाप, भाईबहनों के बीच में से निकल कर वे नहीं आएंगे.

‘‘बच्चों की खातिर तो लौट आएंगे,’’ ऋचा ने समझाया.

‘‘बच्चों की खातिर? हुंह,’’ स्पष्ट था कि गीता को इस बात का भी भय था कि उन्हें बच्चों से भी लगाव नहीं है. ऋचा को अजीब लगा क्योंकि हर रविवार को बच्चों के साथ वे घंटों खेलते हैं, उन्हें प्यार से रखते हैं.

ऋचा कई बार सोचती, ‘आखिर कमी कहां रह गई है, वह तो सिर्फ गीता का दृष्टिकोण ही जान पाई है. उस के पति से बात नहीं हुई. वैसे गीता यह भी कहती है कि उस के पति बहुत योग्य व्यक्ति हैं और नामी कंप्यूटर वैज्ञानिक हैं. फिर यह सब क्या है?’

अब तो जब मिलो, गीता की वही शिकायत होती. पति ने फिलहाल अकेले भारत जाने की ठानी है. 3-4 महीने में वे चले जाएंगे. तत्पश्चात बच्चों की छुट्टियां होते ही वह जाएगी और फिर सब लौट आएंगे. पिछले 2 रविवारों को ऋचा फार्म पर गई नहीं थी. तीसरे रविवार गई तो गीता मिली. वही चिंतित चेहरा.

गीता के चेहरे पर भय की रेखाएं अब पूरी तरह अंकित थीं.

‘‘उन के बिना यहां…’’ गीता का वाक्य अभी अधूरा ही था कि ऋचा बोल पड़ी.

‘‘उन से इतना लगाव है तो लड़ती क्यों हो?’’

गीता चुप रही. फिर कुछ संभल कर बोली, ‘‘हमारा जीवन तो अस्तव्यस्त हो जाएगा न. बच्चों को स्कूल पहुंचाना, हर हफ्ते की ग्रौसरी शौपिंग, और भी तो गृहस्थी के झंझट होते हैं.’’

तभी गीता की परिचिता एक अमेरिकी महिला आ कर उस से कुछ कहने लगी. गीता का रंग उड़ गया. ऋचा ने उस की ओर देखा. गीता अंगरेजी में जवाब देने के प्रयास में हकला रही थी. ऋचा ने गीता की ओर से ध्यान हटा लिया और दूर एक पेड़ की ओर ध्यानमग्न हो देखने लगी. कुछ देर बाद अमेरिकन महिला चली गई. ऋचा को पता तब चला जब गीता ने उसे झकझोरा.

‘‘तुम ऋचा, दार्शनिक बनी पेड़ ताक रही हो. मैं इधर समस्याओं से घिरी हूं.’’

ऋचा ने उस की शिकायत सुनी- अनसुनी कर दी.

‘‘गीता, यह तुम्हारी अमेरिकी सहेली है. है न?’’

‘‘हां. नहीं. सच पूछो ऋचा, तो मैं कहां दोस्ती बढ़ाऊं? कैसे? अंगरेजी बोलना भी तो नहीं आता. मांबाप ने हिंदी स्कूलों में पढ़ाया.’’

‘‘ऐसा मत कहो,’’ ऋचा ने बीच में टोका, ‘‘अपनी भाषा के स्कूल में पढ़ना कोई गुनाह नहीं.’’

‘‘पर इस से मेरा हाल क्या हुआ, देख रही हो न?’’

‘‘यह स्कूल का दोष नहीं.’’

‘‘फिर?’’

‘‘दोष तुम्हारा है. अपने को समय व परिस्थिति के मुताबिक ढाल न सकना गुनाह है. बेबसी गुनाह है. दूसरे पर अवलंबित रहना गुनाह है. यही गुनाह औरत सदियों से करती चली आ रही है और पुरुषों को दोष देती चली आ रही है,’’ ऋचा तैश में बोलती चली गई. चेहरा तमतमाया हुआ था.

‘‘तुम कहना क्या चाहती हो, ऋचा?’’

‘‘बताती हूं. सामने पेड़ देख रही हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘उन पेड़ों की टहनियों से ‘लेस’ की भांति नाजुक, हलके हरे रंग की बेल लटक रही है. है न?’’

‘‘हां. पर इन से मेरी समस्या का क्या ताल्लुक?’’

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‘‘अमेरिका के दक्षिणी प्रांतों में ये बेलें प्रचुर मात्रा में मिलती हैं…’’

‘‘सुनो, ऋचा. इस वक्त मैं न कविता के मूड में हूं, न भूगोल सीखने के,’’ गीता लगभग चिढ़ गई थी.

ऋचा के चेहरे पर हलकी मुसकराहट उभर आई. फिर अपनी बात को जारी रखते हुए कहने लगी, ‘‘इन बेलों को ‘स्पेनिश मौस’ कहते हैं. इन की खासीयत यह है कि ये बेलें पेड़ से चिपक कर लटकती तो हैं पर उन पर अवलंबित नहीं हैं.’’

‘‘तो मैं क्या करूं इन बेलों का?’’

‘‘तुम्हें स्पेनिश मौस बनना है.’’

‘‘मुझे? स्पेनिश मौस?’’

‘‘हां, ‘अमर बेल’ नहीं, स्पेनिश मौस. ’’

‘‘पहेलियां न बुझाओ, ऋचा,’’ गीता का कंठ क्रोध और अपनी असहाय दशा से भर आया.

‘‘गीता, तुम्हारी समस्या की जड़ है तुम्हारी आश्रित रहने की प्रवृत्ति. पति पर निर्भर रहते हुए भी तुम्हें अपना अस्तित्व स्पेनिश मौस की भांति अलग रखना है. उन के साथ रहो, प्यार से रहो, पर उन्हें बैसाखी मत बनाओ. अपने पांव पर खड़ी हो.’’

‘‘कहना आसान है…’’ गीता कड़वाहट में कुछ कहने जा रही थी. पर ऋचा ने बात काट कर अपने ढंग से पूरी की, ‘‘और करना भी.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘पहला कदम लेने भर की देर है.’’

‘‘तो पहला कदम लेना कौन सिखाएगा?’’

‘‘तुम्हारा अपना आत्मबल, उसे जगाओ.’’

‘‘कैसे जगाऊं?’’

‘‘तुम्हें अंगरेजी बोलनी आती है, जिस की यहां आवश्यकता है, बोलो?’’

‘‘नहीं?’’

‘‘कार चलानी आती है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘यहां आए कितने वर्ष हो गए?’’

‘‘8.’’

‘‘अब तक क्यों नहीं सीखी?’’

‘‘विश्वास नहीं है अपने पर.’’

‘‘बस, यही है हमारी आम औरत की समस्या और यहीं से शुरू करना है तुम्हें. मदद मैं करूंगी,’’ ऋचा ने कहा.

गीता के चेहरे पर कुछ भाव उभरे, कुछ विलीन हो गए.

‘स्पेनिश मौस,’ वह बुदबुदाई. दूर पेड़ों पर स्पेनिश मौस के झालरनुमा गुच्छे लटक रहे थे. अनायास गीता को लगा कि अब तक उस ने नहीं जाना था कि स्पेनिश मौस की अपनी खूबसूरती है.

‘‘यह सुंदर बेल है ऋचा, है न?’’ आंखों में झिलमिलाते सपनों के बीच से वह बोली.

‘‘हां, गीता. पर स्पेनिश मौस बनना और अधिक सुंदर होगा.’’

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March 31, 2022 at 09:40AM

Wednesday 30 March 2022

सुधरा संबंध: निलेश और उस की पत्नी क्यों अलग हो गए?

शादी की वर्षगांठ की पूर्वसंध्या पर हम दोनों पतिपत्नी साथ बैठे चाय की चुसकियां ले रहे थे. संसार की दृष्टि में हम आदर्श युगल थे. प्रेम भी बहुत है अब हम दोनों में. लेकिन कुछ समय पहले या कहिए कुछ साल पहले ऐसा नहीं था. उस समय तो ऐसा प्रतीत होता था कि संबंधों पर समय की धूल जम रही है.

मुकदमा 2 साल तक चला था तब. आखिर पतिपत्नी के तलाक का मुकदमा था. तलाक के केस की वजह बहुत ही मामूली बातें थीं. इन मामूली सी बातों को बढ़ाचढ़ा कर बड़ी घटना में ननद ने बदल दिया. निलेश ने आव देखा न ताव जड़ दिए 2 थप्पड़ मेरे गाल पर. मुझ से यह अपमान नहीं सहा गया. यह मेरे आत्मसम्मान के खिलाफ था. वैसे भी शादी के बाद से ही हमारा रिश्ता सिर्फ पतिपत्नी का ही था. उस घर की मैं सिर्फ जरूरत थी, सास को मेरे आने से अपनी सत्ता हिलती लगी थी, इसलिए रोज एक नया बखेड़ा. निलेश को मुझ से ज्यादा अपने परिवार पर विश्वास था और उन का परिवार उन की मां तथा एक बहन थीं. मौका मिलते ही मैं अपने बेटे को ले कर अपने घर चली गई. मुझे इस तरह आया देख कर मातापिता सकते में आ गए. बहुत समझाने की कोशिश की मुझे पर मैं ने तो अलग होने का मन बना लिया था. अत: मेरी जिद के आगे घुटने टेक दिए.

दोनों ओर से अदालत में केस दर्ज कर दिए गए. चाहते तो मामले को रफादफा भी किया जा सकता था, पर निलेश ने इसे अपनी तौहीन समझा. रिश्तेदारों ने मामले को और पेचीदा बना दिया. न सिर्फ पेचीदा, बल्कि संगीन भी. सब रिश्तेदारों ने इसे खानदान की नाक कटना कहा. यह भी कहा कि ऐसी औरत न वफादार होती है न पतिव्रता. इसे घर में रखना, अपने शरीर में मियादी बुखार पालते रहने जैसा है.

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बुरी बातें चक्रवृत्ति ब्याज की तरह बढ़ती हैं. अत: दोनों तरफ से खूब आरोप उछाले गए. ऐसा लगता था जैसे दोनों पक्षों के लोग आरोपों की कबड्डी खेल रहे हैं. निलेश ने मेरे लिए कई असुविधाजनक बातें कहीं. निलेश ने मुझ पर चरित्रहीनता का तो हम ने दहेज उत्पीड़न का मामला दर्ज कराया. 6 साल तक शादीशुदा जीवन बिताने और 1 बच्चे के मातापिता होने के बाद आज दोनों तलाक के लिए लड़ रहे थे. हम दोनों पतिपत्नी के हाथों में तलाक के लिए अर्जी के कागजों की प्रति थी. दोनों चुप थे, दोनों शांत, दोनों निर्विकार.

मुकदमा 2 साल तक चला था. 2 साल हम पतिपत्नी अलग रहे थे और इन 2 सालों में बहुत कुछ झेला था. मैं ने नौकरी ढूंढ़ ली थी. बेटे का दाखिला एक अच्छे स्कूल में करा दिया था. सब से बड़ी बात हम दोनों में से ही किसी ने भी अपने बच्चे की मनोस्थिति नहीं पढ़ी.

बेटा हमारे अलग होने के फैसले से खुश नहीं था, पर सब कुछ उस की आंखों के सामने हुआ था तो वह चुप था. मुकदमे की सुनवाई पर दोनों को आना होता. दोनों एकदूसरे को देखते जैसे चकमक पत्थर आपस में रगड़ खा गए हों. दोनों गुस्से में होते. दोनों में बदले की भावना का आवेश होता. दोनों के साथ रिश्तेदार होते जिन

की हमदर्दियों में जराजरा विस्फोटक पदार्थ भी छिपा होता. जब हम पतिपत्नी कोर्ट में दाखिल होते तो एकदूसरे को देख कर मुंह फेर लेते. वकील और रिश्तेदार दोनों के साथ होते. दोनों पक्ष के वकीलों द्वारा अच्छाखासा सबक सिखाया जाता कि हमें क्या कहना है. हम दोनों वही कहते. कई बार दोनों के वक्तव्य बदलने लगते तो फिर संभल जाते.

अंत में वही हुआ जो हम सब चाहते थे यानी तलाक की मंजूरी. पहले उन के साथ रिश्तेदारों की फौज होती थी, धीरेधीरे यह संख्या घटने लगी. निलेश की तरफ के रिश्तेदार खुश थे, दोनों के वकील खुश थे, पर मेरे मातापिता दुखी थे. अपनीअपनी फाइलों के साथ मैं चुप थी. निलेश भी खामोश.

यह महज इत्तफाक ही था. उस दिन की अदालत की फाइनल कार्रवाई थोड़ी देर से थी. अदालत के बाहर तेज धूप से बचने के लिए हम दोनों एक ही टी स्टौल में बैठे थे. यह भी महज इत्तफाक ही था कि हम पतिपत्नी एक ही मेज के आमनेसामने थे.

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मैं ने कटाक्ष किया, ‘‘मुबारक हो… अब तुम जो चाहते हो वही होने को है.’’

‘‘तुम्हें भी बधाई… तुम भी तो यही चाह रही थीं. मुझ से अलग हो कर अब जीत जाओगी,’ निलेश बोला. मुझ से रहा नहीं गया. बोली, ‘‘तलाक का फैसला क्या जीत का प्रतीक

होता है?’’

निलेश बोले, ‘‘तुम बताओ?’’

मैं ने जवाब नहीं दिया, चुपचाप बैठी रही, फिर बोली, ‘‘तुम ने मुझे चरित्रहीन कहा था… अच्छा हुआ अब तुम्हारा चरित्रहीन स्त्री से पीछा छूटा.’’

‘‘वह मेरी गलती थी, मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था.’’

‘‘मैं ने बहुत मानसिक तनाव झेला,’’ मेरी आवाज सपाट थी. न दुख, न गुस्सा, निलेश ने कहा, ‘‘जानता हूं पुरुष इसी हथियार से स्त्री पर वार करता है, जो स्त्री के मन को लहूलुहान कर देता है… तुम बहुत उज्ज्वल हो. मुझे तुम्हारे बारे में ऐसी गंदी बात नहीं कहनी चाहिए थी. मुझे बेहद अफसोस है.’’

मैं चुप रही, निलेश को एक बार देखा. कुछ पल चुप रहने के बाद उन्होंने गहरी सांस ली और फिर कहा, ‘‘तुम ने भी तो मुझे दहेज का लोभी कहा था…’’

‘‘गलत कहा था,’’ मैं निलेश की ओर देखते हुए बोली.

कुछ देर और चुप रही. फिर बोली, ‘‘मैं कोई और आरोप लगाती, लेकिन मैं नहीं…’’

तभी चाय आ गई. मैं ने चाय उठाई. चाय जरा सी छलकी. गरम चाय मेरे हाथ पर गिरी तो सीसी की आवाज निकली.

निलेश के मुंह से उसी क्षण उफ की आवाज निकली. हम दोनों ने एकदूसरे को देखा.

‘‘तुम्हारा कमर दर्द कैसा है?’’ निलेश का पूछना थोड़ा अजीब लगा.

‘‘ऐसा ही है,’’ और बात खत्म करनी चाही.

‘‘तुम्हारे हार्ट की क्या कंडीशन है? फिर अटैक तो नहीं पड़ा, मैं ने पूछा.’’

‘‘हार्ट…डाक्टर ने स्ट्रेन…मैंटल स्ट्रैस कम करने को कहा है,’’ निलेश ने जानकारी दी.

एकदूसरे को देखा, देखते रहे एकटक जैसे एकदूसरे के चेहरे पर छपे तनाव को पढ़ रहे हों.

‘‘दवा तो लेते रहते हो न?’’ मैं ने निलेश के चेहरे से नजरें हटा पूछा.

‘‘हां, लेता रहता हूं. आज लाना याद नहीं रहा,’’ निलेश ने कहा.

‘‘तभी आज तुम्हारी सांसें उखड़ीउखड़ी सी हैं,’’ बरबस ही हमदर्द लहजे में कहा.

‘‘हां, कुछ इस वजह से और कुछ…’’ कहतेकहते वे रुक गए.

‘‘कुछ…कुछ तनाव के कारण,’’ मैं ने बात पूरी की.

वे कुछ सोचते रहे, फिर बोले,  ‘‘तुम्हें 15 लाख रुपए देने हैं और 20 हजार रुपए महीना भी.’’

‘‘हां, फिर?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नोएडा में फ्लैट है… तुम्हें तो पता है. मैं उसे तुम्हारे नाम कर देता हूं. 15 लाख फिलहाल मेरे पास नहीं हैं,’’ निलेश ने अपने मन की बात कही.

नोएडा वाले फ्लैट की कीमत तो 30 लाख होगी?

मुझे सिर्फ 15 लाख चाहिए… मैं ने अपनी बात स्पष्ट की.

‘‘बेटा बड़ा होगा… सौ खर्च होते हैं,’’ वे बोले.

‘‘वह तो तुम 20 हजार महीना मुझे देते रहोगे,’’ मैं बोली.

‘‘हां जरूर दूंगा.’’

‘‘15 लाख अगर तुम्हारे पास नहीं हैं तो मुझे मत देना,’’ मेरी आवाज में पुराने संबंधों की गर्द थी.

वे मेरा चेहरा देखते रहे.

मैं निलेश को देख रही थी और सोच रही थी कि कितना सरल स्वभाव है इन का… जो कभी मेरे थे. कितने अच्छे हैं… मैं ही खोट निकालती रही…

शायद निलेश भी यही सोच रहे थे. दूसरों की बीमारी की कौन परवाह करता है? यह करती थी परवाह. कभी जाहिर भी नहीं होने देती थी. काश, मैं इस के जज्बे को समझ पाता.

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हम दोनों चुप थे, बेहद चुप. दुनिया भर की आवाजों से मुक्त हो कर खामोश.

दोनों भीगी आंखों से एकदूसरे को देखते रहे.

‘‘मुझे एक बात कहनी है,’’ निलेश की आवाज में झिझक थी.

‘‘कहो,’’ मैं ने सजल आंखों से उन्हें देखा.

‘‘डरता हूं,’’ निलेश ने कहा.

‘‘डरो मत. हो सकता है तुम्हारी बात मेरे मन की बात हो.’’

‘‘तुम्हारी बहुत याद आती रही,’’ वे बोले.

‘‘तुम भी,’’ मैं एकदम बोली.

‘‘मैं तुम्हें अब भी प्रेम करता हूं.’’

‘‘मैं भी,’’ तुरंत मैं ने भी कहा.

दोनों की आंखें कुछ ज्यादा ही सजल हो गई थीं. दोनों की आवाज जज्बाती और चेहरे मासूम.

‘‘क्या हम दोनों जीवन को नया मोड़ नहीं दे सकते?’’ निलेश ने पूछा.

‘‘कौन सा मोड़?’’ पूछ ही बैठी.

‘‘हम फिर से साथसाथ रहने लगें… एकसाथ… पतिपत्नी बन कर… बहुत अच्छे दोस्त बन कर?’’

‘‘ये पेपर, यह अर्जी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘फाड़ देते हैं. निलेश ने कहा और अपनेअपने हाथ से तलाक के कागजात फाड़ दिए. फिर हम दोनों उठ खड़े हुए. एकदूसरे के हाथ में हाथ डाल कर मुसकराए.’’

दोनों पक्षों के वकील हैरानपरेशान थे. दोनों पतिपत्नी हाथ में हाथ डाले घर की तरफ चल दिए. सब से पहले हम दोनों मेरे घर आए. मातापिता से आशीर्वाद लिया. आज उन के चेहरे पर संतुष्टि थी. 2 साल बाद मांपापा को इतना खुश देखा था. फिर हम बेटे के साथ इन के घर, हमारे घर, जो सिर्फ और सिर्फ पतिपत्नी का था. 2 दोस्तों का था, चल दिए.

वक्त बदल गया और हालात भी. कल भी हम थे और आज भी हम ही पर अब किसी कड़वाहट की जगह नहीं. यह सुधरा संबंध है. पतिपत्नी के रिश्ते से भी कुछ ज्यादा खास.

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शादी की वर्षगांठ की पूर्वसंध्या पर हम दोनों पतिपत्नी साथ बैठे चाय की चुसकियां ले रहे थे. संसार की दृष्टि में हम आदर्श युगल थे. प्रेम भी बहुत है अब हम दोनों में. लेकिन कुछ समय पहले या कहिए कुछ साल पहले ऐसा नहीं था. उस समय तो ऐसा प्रतीत होता था कि संबंधों पर समय की धूल जम रही है.

मुकदमा 2 साल तक चला था तब. आखिर पतिपत्नी के तलाक का मुकदमा था. तलाक के केस की वजह बहुत ही मामूली बातें थीं. इन मामूली सी बातों को बढ़ाचढ़ा कर बड़ी घटना में ननद ने बदल दिया. निलेश ने आव देखा न ताव जड़ दिए 2 थप्पड़ मेरे गाल पर. मुझ से यह अपमान नहीं सहा गया. यह मेरे आत्मसम्मान के खिलाफ था. वैसे भी शादी के बाद से ही हमारा रिश्ता सिर्फ पतिपत्नी का ही था. उस घर की मैं सिर्फ जरूरत थी, सास को मेरे आने से अपनी सत्ता हिलती लगी थी, इसलिए रोज एक नया बखेड़ा. निलेश को मुझ से ज्यादा अपने परिवार पर विश्वास था और उन का परिवार उन की मां तथा एक बहन थीं. मौका मिलते ही मैं अपने बेटे को ले कर अपने घर चली गई. मुझे इस तरह आया देख कर मातापिता सकते में आ गए. बहुत समझाने की कोशिश की मुझे पर मैं ने तो अलग होने का मन बना लिया था. अत: मेरी जिद के आगे घुटने टेक दिए.

दोनों ओर से अदालत में केस दर्ज कर दिए गए. चाहते तो मामले को रफादफा भी किया जा सकता था, पर निलेश ने इसे अपनी तौहीन समझा. रिश्तेदारों ने मामले को और पेचीदा बना दिया. न सिर्फ पेचीदा, बल्कि संगीन भी. सब रिश्तेदारों ने इसे खानदान की नाक कटना कहा. यह भी कहा कि ऐसी औरत न वफादार होती है न पतिव्रता. इसे घर में रखना, अपने शरीर में मियादी बुखार पालते रहने जैसा है.

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बुरी बातें चक्रवृत्ति ब्याज की तरह बढ़ती हैं. अत: दोनों तरफ से खूब आरोप उछाले गए. ऐसा लगता था जैसे दोनों पक्षों के लोग आरोपों की कबड्डी खेल रहे हैं. निलेश ने मेरे लिए कई असुविधाजनक बातें कहीं. निलेश ने मुझ पर चरित्रहीनता का तो हम ने दहेज उत्पीड़न का मामला दर्ज कराया. 6 साल तक शादीशुदा जीवन बिताने और 1 बच्चे के मातापिता होने के बाद आज दोनों तलाक के लिए लड़ रहे थे. हम दोनों पतिपत्नी के हाथों में तलाक के लिए अर्जी के कागजों की प्रति थी. दोनों चुप थे, दोनों शांत, दोनों निर्विकार.

मुकदमा 2 साल तक चला था. 2 साल हम पतिपत्नी अलग रहे थे और इन 2 सालों में बहुत कुछ झेला था. मैं ने नौकरी ढूंढ़ ली थी. बेटे का दाखिला एक अच्छे स्कूल में करा दिया था. सब से बड़ी बात हम दोनों में से ही किसी ने भी अपने बच्चे की मनोस्थिति नहीं पढ़ी.

बेटा हमारे अलग होने के फैसले से खुश नहीं था, पर सब कुछ उस की आंखों के सामने हुआ था तो वह चुप था. मुकदमे की सुनवाई पर दोनों को आना होता. दोनों एकदूसरे को देखते जैसे चकमक पत्थर आपस में रगड़ खा गए हों. दोनों गुस्से में होते. दोनों में बदले की भावना का आवेश होता. दोनों के साथ रिश्तेदार होते जिन

की हमदर्दियों में जराजरा विस्फोटक पदार्थ भी छिपा होता. जब हम पतिपत्नी कोर्ट में दाखिल होते तो एकदूसरे को देख कर मुंह फेर लेते. वकील और रिश्तेदार दोनों के साथ होते. दोनों पक्ष के वकीलों द्वारा अच्छाखासा सबक सिखाया जाता कि हमें क्या कहना है. हम दोनों वही कहते. कई बार दोनों के वक्तव्य बदलने लगते तो फिर संभल जाते.

अंत में वही हुआ जो हम सब चाहते थे यानी तलाक की मंजूरी. पहले उन के साथ रिश्तेदारों की फौज होती थी, धीरेधीरे यह संख्या घटने लगी. निलेश की तरफ के रिश्तेदार खुश थे, दोनों के वकील खुश थे, पर मेरे मातापिता दुखी थे. अपनीअपनी फाइलों के साथ मैं चुप थी. निलेश भी खामोश.

यह महज इत्तफाक ही था. उस दिन की अदालत की फाइनल कार्रवाई थोड़ी देर से थी. अदालत के बाहर तेज धूप से बचने के लिए हम दोनों एक ही टी स्टौल में बैठे थे. यह भी महज इत्तफाक ही था कि हम पतिपत्नी एक ही मेज के आमनेसामने थे.

ये भी पढ़ें- छोटा सा घर

मैं ने कटाक्ष किया, ‘‘मुबारक हो… अब तुम जो चाहते हो वही होने को है.’’

‘‘तुम्हें भी बधाई… तुम भी तो यही चाह रही थीं. मुझ से अलग हो कर अब जीत जाओगी,’ निलेश बोला. मुझ से रहा नहीं गया. बोली, ‘‘तलाक का फैसला क्या जीत का प्रतीक

होता है?’’

निलेश बोले, ‘‘तुम बताओ?’’

मैं ने जवाब नहीं दिया, चुपचाप बैठी रही, फिर बोली, ‘‘तुम ने मुझे चरित्रहीन कहा था… अच्छा हुआ अब तुम्हारा चरित्रहीन स्त्री से पीछा छूटा.’’

‘‘वह मेरी गलती थी, मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था.’’

‘‘मैं ने बहुत मानसिक तनाव झेला,’’ मेरी आवाज सपाट थी. न दुख, न गुस्सा, निलेश ने कहा, ‘‘जानता हूं पुरुष इसी हथियार से स्त्री पर वार करता है, जो स्त्री के मन को लहूलुहान कर देता है… तुम बहुत उज्ज्वल हो. मुझे तुम्हारे बारे में ऐसी गंदी बात नहीं कहनी चाहिए थी. मुझे बेहद अफसोस है.’’

मैं चुप रही, निलेश को एक बार देखा. कुछ पल चुप रहने के बाद उन्होंने गहरी सांस ली और फिर कहा, ‘‘तुम ने भी तो मुझे दहेज का लोभी कहा था…’’

‘‘गलत कहा था,’’ मैं निलेश की ओर देखते हुए बोली.

कुछ देर और चुप रही. फिर बोली, ‘‘मैं कोई और आरोप लगाती, लेकिन मैं नहीं…’’

तभी चाय आ गई. मैं ने चाय उठाई. चाय जरा सी छलकी. गरम चाय मेरे हाथ पर गिरी तो सीसी की आवाज निकली.

निलेश के मुंह से उसी क्षण उफ की आवाज निकली. हम दोनों ने एकदूसरे को देखा.

‘‘तुम्हारा कमर दर्द कैसा है?’’ निलेश का पूछना थोड़ा अजीब लगा.

‘‘ऐसा ही है,’’ और बात खत्म करनी चाही.

‘‘तुम्हारे हार्ट की क्या कंडीशन है? फिर अटैक तो नहीं पड़ा, मैं ने पूछा.’’

‘‘हार्ट…डाक्टर ने स्ट्रेन…मैंटल स्ट्रैस कम करने को कहा है,’’ निलेश ने जानकारी दी.

एकदूसरे को देखा, देखते रहे एकटक जैसे एकदूसरे के चेहरे पर छपे तनाव को पढ़ रहे हों.

‘‘दवा तो लेते रहते हो न?’’ मैं ने निलेश के चेहरे से नजरें हटा पूछा.

‘‘हां, लेता रहता हूं. आज लाना याद नहीं रहा,’’ निलेश ने कहा.

‘‘तभी आज तुम्हारी सांसें उखड़ीउखड़ी सी हैं,’’ बरबस ही हमदर्द लहजे में कहा.

‘‘हां, कुछ इस वजह से और कुछ…’’ कहतेकहते वे रुक गए.

‘‘कुछ…कुछ तनाव के कारण,’’ मैं ने बात पूरी की.

वे कुछ सोचते रहे, फिर बोले,  ‘‘तुम्हें 15 लाख रुपए देने हैं और 20 हजार रुपए महीना भी.’’

‘‘हां, फिर?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नोएडा में फ्लैट है… तुम्हें तो पता है. मैं उसे तुम्हारे नाम कर देता हूं. 15 लाख फिलहाल मेरे पास नहीं हैं,’’ निलेश ने अपने मन की बात कही.

नोएडा वाले फ्लैट की कीमत तो 30 लाख होगी?

मुझे सिर्फ 15 लाख चाहिए… मैं ने अपनी बात स्पष्ट की.

‘‘बेटा बड़ा होगा… सौ खर्च होते हैं,’’ वे बोले.

‘‘वह तो तुम 20 हजार महीना मुझे देते रहोगे,’’ मैं बोली.

‘‘हां जरूर दूंगा.’’

‘‘15 लाख अगर तुम्हारे पास नहीं हैं तो मुझे मत देना,’’ मेरी आवाज में पुराने संबंधों की गर्द थी.

वे मेरा चेहरा देखते रहे.

मैं निलेश को देख रही थी और सोच रही थी कि कितना सरल स्वभाव है इन का… जो कभी मेरे थे. कितने अच्छे हैं… मैं ही खोट निकालती रही…

शायद निलेश भी यही सोच रहे थे. दूसरों की बीमारी की कौन परवाह करता है? यह करती थी परवाह. कभी जाहिर भी नहीं होने देती थी. काश, मैं इस के जज्बे को समझ पाता.

ये भी पढ़ें- सिर्फ अफसोस

हम दोनों चुप थे, बेहद चुप. दुनिया भर की आवाजों से मुक्त हो कर खामोश.

दोनों भीगी आंखों से एकदूसरे को देखते रहे.

‘‘मुझे एक बात कहनी है,’’ निलेश की आवाज में झिझक थी.

‘‘कहो,’’ मैं ने सजल आंखों से उन्हें देखा.

‘‘डरता हूं,’’ निलेश ने कहा.

‘‘डरो मत. हो सकता है तुम्हारी बात मेरे मन की बात हो.’’

‘‘तुम्हारी बहुत याद आती रही,’’ वे बोले.

‘‘तुम भी,’’ मैं एकदम बोली.

‘‘मैं तुम्हें अब भी प्रेम करता हूं.’’

‘‘मैं भी,’’ तुरंत मैं ने भी कहा.

दोनों की आंखें कुछ ज्यादा ही सजल हो गई थीं. दोनों की आवाज जज्बाती और चेहरे मासूम.

‘‘क्या हम दोनों जीवन को नया मोड़ नहीं दे सकते?’’ निलेश ने पूछा.

‘‘कौन सा मोड़?’’ पूछ ही बैठी.

‘‘हम फिर से साथसाथ रहने लगें… एकसाथ… पतिपत्नी बन कर… बहुत अच्छे दोस्त बन कर?’’

‘‘ये पेपर, यह अर्जी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘फाड़ देते हैं. निलेश ने कहा और अपनेअपने हाथ से तलाक के कागजात फाड़ दिए. फिर हम दोनों उठ खड़े हुए. एकदूसरे के हाथ में हाथ डाल कर मुसकराए.’’

दोनों पक्षों के वकील हैरानपरेशान थे. दोनों पतिपत्नी हाथ में हाथ डाले घर की तरफ चल दिए. सब से पहले हम दोनों मेरे घर आए. मातापिता से आशीर्वाद लिया. आज उन के चेहरे पर संतुष्टि थी. 2 साल बाद मांपापा को इतना खुश देखा था. फिर हम बेटे के साथ इन के घर, हमारे घर, जो सिर्फ और सिर्फ पतिपत्नी का था. 2 दोस्तों का था, चल दिए.

वक्त बदल गया और हालात भी. कल भी हम थे और आज भी हम ही पर अब किसी कड़वाहट की जगह नहीं. यह सुधरा संबंध है. पतिपत्नी के रिश्ते से भी कुछ ज्यादा खास.

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March 31, 2022 at 09:35AM