Thursday 10 March 2022

Holi Special: अब वैसी होली कहां

दरवाजे पर पहुंचते ही मैं ने जोर से आवाज लगाई, ‘‘फूफाजी?’’

बाहर दरवाजे पर खड़ी बूआजी ने माथे पर बल डाल कर कहा, ‘‘अंदर आंगन में बैठे हैं. जाओ, जा कर आरती उतार लो.’’

फूफाजी ने सुबह से ही टेलीफोन पर ‘जल्दी पहुंचो’, ‘फौरन पहुंचो’ की रट लगा रखी थी. जाने क्या आफत आन पड़ी है, यही सोच कर मैं आटो पकड़ उन के घर पहुंचा था.

फूफाजी आंगन में फर्श पर बैठे थे. उन के सामने स्टोव पर रखे बरतन में पानी उबल रहा था. पास ही सूखे रंगों की डब्बियां और प्लास्टिक की 3-4 बोतलें नीले, पीले, हरे, लाल रंगों से भरी हुई रखी थीं. पैरों के पास सफेद कपड़े के कुछ टुकड़े थे जिन पर रंगों से धारियां खींच कर उन्हें परखा गया था.

‘‘अरे, फूफाजी, आप ने कपड़े रंगने का काम शुरू कर दिया क्या?’’ मैं ने हैरानी से पूछा.

‘‘तुम्हारे खानदान के सभी सदस्य क्या उलटी खोपड़ी के ही हैं?’’ अजीब सा मुंह बना कर फूफाजी बोले, ‘‘बूआभतीजे को क्या मैं रंगरेज नजर आता हूं? अगर कभी रोटी के लाले पड़ भी गए तो भीख मांगना मंजूर कर लूंगा मगर ऐसा घटिया काम नहीं करूंगा.’’

‘‘वाह, कितने ऊंचे विचार हैं,’’ बूआजी आंगन में आ गईं और मेरी ओर मुंह कर के बोलीं, ‘‘देख लो बेटा, इन्हें अपने हाथ की मेहनत की कमाई भीख मांगने से भी बुरी लगती है.’’

ये भी पढ़ें- बागी नेताओं के इंटरव्यू

‘‘बुरी तो लगेगी ही,’’ बूआजी की ओर देख कर फूफाजी बोले, फिर मेरी ओर मुंह फेर कर कहने लगे, ‘‘बेटा मनोज, जरा सोचो, जिस खानदान ने ताउम्र मेहनत से जी चुराया हो…मेरा मतलब है जिस खानदान में मामूली काम के लिए भी नौकर रखे जाते थे उस खानदान का नाम लेवा, यानी कि तुम्हारा यह फूफाजी ऐसा घटिया काम कर सकता है?’’

‘‘अपने हाथों की मेहनत की कमाई तो गिरा हुआ काम नहीं है,’’ मैं ने उन्हें समझाना चाहा था.

‘‘हां, अब सही बात मुंह से निकल गई न. अरे, जब मैं दोनों हाथों से रिश्वत लेता हूं तो तुम लोग उसे बुरा क्यों कहते हो?’’

‘‘बेईमानी, रिश्वतखोरी और मेहनतमजदूरी इन की नजर में सब एक बराबर हैं,’’ बूआजी तमक कर बोलीं, ‘‘कभी आप ने किसी मेहनत करने

वाले को कानून की पकड़ में आते देखा है?’’

‘‘क्यों नहीं देखा. ये चोर, डाकू, लुटेरे, स्मगलर क्या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं? बेचारे जीतोड़ मेहनत करते हैं, अपनी जान को जोखिम में डाल कर अपना धंधा चलाते हैं और अभी माल समेट भी नहीं पाते कि धर लिए जाते हैं.’’

बूआ और फूफा के वाक्युद्ध का सिलसिला कोई भयानक रूप ले उस से पहले उस का रुख मोड़ते हुए मैं ने कहा, ‘‘फूफाजी, आप ने मुझे क्यों बुलाया था, और यह आप कर क्या रहे हैं?’’

‘‘बेटे, होली के लिए मेल खाते रंग बनाने में तुम्हारी सलाह चाहिए.’’

‘‘होली में तो अभी 4 दिन पड़े हैं.’’

‘‘और ये 4 दिन पहले से ही आफिस से छुट्टी ले कर रंग बनाने बैठ गए हैं,’’ बूआजी ने बतलाया.

‘‘अरी भागवान, तुम क्या जानो कि पहले होली किस धूमधाम से मनाई जाती थी. एक सप्ताह पहले से ही रंगों की बौछार और लाल गुलाल हवा में उड़ने शुरू हो जाते थे. और आजकल एक दिन की होली, वह भी घंटा आधा घंटा रंग के छींटे छिड़काए और फिर नहाधो लिए,’’ फूफाजी कहते गए, ‘‘उस जमाने में होली मनाने का जोश ऐसा होता था कि सब कामकाज बंद, दफ्तर, दुकानों में बस, होली के रंग और हुड़दंग.’’

बूआजी के साथ मैं भी फूफाजी को देख रहा था. उन्होंने स्टोव पर उबलते पानी में एक डब्बे से चम्मच भर रंग डाला, आंच कम की, फिर 2 और डब्बियों से आधाआधा चम्मच कुछ डाला और स्टोव बंद कर दिया.

‘‘अब मेरे छोटे भाई की शादी की बात ले लो,’’ फूफाजी हमारी तरफ मुंह कर के कहने लगे, ‘‘शादी का मुहूर्त होली से एक दिन पहले का था. बरात लड़की वालों के गांव जानी थी मगर होली के कारण कोई गांव वाला बरात में जाने को तैयार नहीं था. हर रिश्तेदार, कुनबे के लोग और गांव वालों को घरघर जा कर बरात में शामिल होने का न्योता दिया गया मगर होली की वजह से कोई बराती बनने को राजी नहीं…’’

‘‘उंह, वह होली के कारण नहीं,’’ बूआजी कहने लगीं, ‘‘गांव वालों ने तुम्हारे चाचाजी से झगड़े को ले कर बरात में जाने से इनकार किया था,’’ बूआजी ने याद दिलाया, ‘‘उस झगडे़ में लाठियां भी तो चली थीं.’’

‘‘लाठियां नहीं गोलियां चली थीं,’’ फूफाजी उबल पड़े, फिर मेरी ओर मुंह कर के बोले, ‘‘मनोज बेटा, गांव वालों से मामूली कहासुनी हो गई थी जिस में सुलहसफाई करवाने के लिए हमारे ताऊजी लाठी टेकते हुए गए थे. अब धक्कामुक्की में उन के हाथ से लाठी छूट कर गिरी तो आप की बूआजी ने उस ‘लाठी गिरने को’ लाठी चलाना बना दिया.’’

‘‘फिर आप लोग सिर्फ  दूल्हे के साथ ही लड़की वालों के घर पहुंच गए थे?’’

‘‘अरे, नहीं, भला ऐसे कोई बरात सजती है,’’ फूफाजी बोले, ‘‘बड़ी मुश्किल से लड़की वालों को समझाया कि बराती वहां रंग खेलेंगे तभी दूल्हा मंडप में बैठेगा.’’

‘‘फिर?’’

‘‘अब वहां दूल्हादुलहन मंडप में बैठे थे और बराती रंग खेल रहे थे. अपनेपराए का कोई भेद नहीं, जो भी सामने पड़ा रंग डाला. लड़की के बाप, भाई, मां, ताई, बहनें, भाभी, संबंधी, हलवाई, यहां तक कि बरात का स्वागत करने वालों तक के कपड़े रंगीन कर दिए.’’

फूफाजी झूम कर बता रहे थे कि मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘तो फेरे करवाने वाले पुरोहित पर भी रंग डाला?’’

‘‘उन के तो धोतीकुरता, रामनाम का अंगोछा, पोथीपत्रा सभी पर रंग के छींटे पड़ने लगे,’’ फूफाजी बोले, ‘‘पुरोहित ने जल्दीजल्दी मंत्रोच्चारण कर वरवधू से फेरे लेने को कहा. फिर औनेपौने फेरे डलवा कर अपना पोथीपत्रा समेट, मंत्रों के बीच ‘क्रमश:क्रमश:’ का उच्चारण करते हुए बिना दानदक्षिणा लिए भाग लिए.’’

‘‘बड़ी अजीब शादी थी,’’ मैं ने हैरानी से कहा.

‘‘अब एक विचित्र शवयात्रा की बात भी सुन लो,’’ फूफाजी ने आंखें नचाईं और बताने लगे, ‘‘एक बार होली पर हम यारदोस्त सिर से पांव तक रंग में नहाए हुए थे, चेहरों पर काले, नीले, पीले, लाल रंगों की बहारें खिलाए भांग के गिलासों और पकौड़ों की महफिल जमाए हुए थे कि इतने में एक युवक ने रोनी सी सूरत लिए आ कर हमारे पुते चेहरों को घूरते हुए पूछा, ‘इन में से राज कौन है?’ राज ने उसे इशारे से अपने पास बुलाया.’’

मैं ने फूफाजी की ओर देखा तो वह आगे बताने लगे, ‘‘राज के उस पड़ोसी ने सिसकते हुए बताया कि राज, तुम्हारे पिता की शव यात्रा श्मशान घाट की ओर कूच करने वाली है.’’

ये भी पढ़ें- एक नन्हा जीवनसाथी: भाग-3

‘‘अरे, यानी आप के दोस्त राज के पिताजी का अचानक इंतकाल हो गया था?’’ मेरे मुंह से एकदम निकला.

‘‘नहीं जी,’’ फूफाजी ने मुझ से आंखें मिलाईं और बोले, ‘‘उन्होंने होली की सुबह ही राज की बांहों में दम तोड़ा था मगर हमारा होली खेलने का कार्यक्रम चौपट न हो जाता इसलिए उस ने अपने पिताजी की मौत का गम दिल में दबाए रखा और पूरे जोश से होली खेलता रहा.’’

‘‘वाह, वाह, कैसेकैसे सपूत आप की टोली में शामिल थे,’’ बूआजी ने व्यंग्यबाण छोड़ा.

‘‘और नहीं तो क्या? ’’ फूफाजी ने गर्व से सिर उठाया और बोले, ‘‘हम में से कोई खुद भी मर गया होता तो अर्थी से उठ कर होली खेलने चला आता. आज की तरह नहीं कि संसार के किसी कोने में आंधी, तूफान, भूचाल आया और कुछ जानें गईं तो होली के रंग नाली में बहा दिए.’’

‘‘आप लोग इनसानी हमदर्दी को क्या समझें?’’ बूआजी ने मुंह बिचकाया.

‘‘अब हमदर्दी की बात ले लो, ज्यों ही हमें राज के पिताजी के इंतकाल का पता चला, फौरन राज के साथ उस के घर पहुंचे और वहां जो हम सभी चारों लोग फूटफूट कर रोए तो देखने वाले हैरानपरेशान हो गए कि आखिर इन नौजवानों में से किस का बापू, किस का डैडी, किस के पिताजी, संसार से कूच कर गए हैं,’’ फूफाजी ने आंखें पोंछीं, ‘‘सच मानना मनोज बेटे, हम लोगों ने रोनेपीटने का वह समां बांधा था कि…’’

‘‘लो, सुन लो,’’ फूफाजी की बात को बीच में काटते हुए बूआजी बोलीं, ‘‘रोनेपीटने का समां बांधा था?’’

‘‘चलो, समां बांधा नहीं…समां खुला छोड़ दिया था…अब तो खुश?’’ फूफाजी उखड़ गए.

फूफाजी ने रंग की 2-3 बोतलें एक झोले में डालीं और रंग वाला बरतन स्टोव पर ही छोड़ कर उठ खड़े हुए और बोले, ‘‘आओ, चलेंबेटा.’’

फूफाजी ने रंग की बोतलों वाला झोला उठाया.

अपने दफ्तर के सामने फूफाजी ने किराया दे कर आटो वाले को विदा किया.

‘‘क्या आप अपने दफ्तर के साथी को अपना बनाया स्पेशल रंग देने आए हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नहीं बेटा, नहीं, कल से आफिस साप्ताहिक अवकाश के कारण बंद है और सोमवार की होली है. मेरे दफ्तर के साथी इन 3 दिनों की छुट्टियों में अपनेअपने घरों को चले जाएंगे, फिर उन के साथ होली खेलने का मौका कहां मिलेगा. इसलिए मैं आज ही इन के साथ होली मनाने आ गया हूं,’’ फूफाजी ने झोले से रंग की एक बोतल निकाली और झोला मुझे थमा कर पीछेपीछे चले आने का इशारा कर आफिस की ओर बढ़े.

आफिस के दरवाजे पर चपरासी अपनी कुरसी पर बैठा हथेली पर खैनी रगड़ रहा था.

‘‘भोलाराम…होली मुबारक हो,’’ फूफाजी ने बोतल का रंग भोलाराम पर उड़ेला.

चपरासी उछल कर खड़ा हो गया और खैनी फेंक ‘बचाओबचाओ’ चिल्लाता हुआ आफिस के अंदर की ओर भागा. फूफाजी भी उस के ऊपर रंग फेंकते हुए उस के पीछे हो लिए.

आफिस के कमरों में अपनीअपनी  सीटों पर बैठे, फाइलों पर झुके बाबू लोग चौंक पड़े.

फूफाजी ने मेरे हाथ में पकड़े झोले में से रंग की एक और बोतल निकाली और दोनों हाथों में पकड़ी बोतलों से अपने साथियों पर रंग बरसाते हुए होली है…होली है’ के नारे लगा रहे थे.

बाबू लोग खुद को और फाइलों को बचाने की कोशिश कर रहे थे मगर फूफाजी इस ‘उस्तादी’ से रंग फेंक रहे थे कि किसी को बचने का मौका नहीं मिल रहा था. आफिस में अजब भगदड़ मची हुई थी.

‘अरे, सब सत्यानाश हो गया’ के शोर के बीच फूफाजी के ऊंचे स्वर में ‘होली है भई होली है’ के नारे गूंज रहे थे.

शोर सुन कर बड़े साहब अपने केबिन से बाहर आ गए थे. उन्होंने क्रीम कलर की कमीज पर सुर्ख टाई सजा रखी थी.

‘‘ये क्या हो रहा है?’’ बड़े साहब दहाड़े.

फूफाजी ने बोतल में भरा हरा रंग बड़े साहब की कमीज पर फेंका, जो उन की पैंट और लाल टाई सभी को तर कर गया.

‘‘होली मुबारक…बड़े साहब… हैप्पीहैप्पी होली.’’

‘‘अरे, रोको इसे…पागल हो गया

है क्या…अरे, पकड़ोपकड़ो…भोला… सहगल…वर्मा…पकड़ो इसे. छीन लो रंग,’’ बड़े साहब अपने कपड़ों का सत्यानाश होते देख बिलबिला उठे.

भोला और 3-4 बाबुओं ने रंग की परवा न करते हुए फूफाजी को पकड़ लिया और रंगों की बोतलें फूफाजी के हाथों से छीन कर पटक दीं.

‘‘मैं तुम्हें नौकरी से बाहर कर दूंगा,’’ बड़े साहब गुस्से से उबल रहे थे, ‘‘मैं तुम्हारे खिलाफ एक्शन लूंगा.’’

‘‘मैं आप के खिलाफ सीधे एक्शन लूंगा कि समान धर्म के होते हुए भी आप ने मुझे मेरे धार्मिक त्योहार को मनाने से रोका है. मैं आप के खिलाफ देश भर में एजीटेशन चलाऊंगा. प्रेस कानफे्रंस बुलाऊंगा,’’ फूफाजी जोश और रोष से उछल रहे थे, ‘‘मैं दंगेफसाद भड़का दूंगा. अमन में आग लगा दूंगा.’’

इस से पहले कि मामला और बिगड़ता, मैं फूफाजी का हाथ पकड़ कर उन्हें आफिस से बाहर ले आया.

‘‘आप ने दफ्तर में होली खेल कर अच्छा नहीं किया,’’ मैं ने समझाया.

ये भी पढ़ें- एक नन्हा जीवनसाथी: भाग-1

‘‘दफ्तर में कहां लिखा है कि यहां होली खेलने की मनाही है? जाओ, खुद जा कर दफ्तर में लगे बोर्ड पढ़ लो,’’ फूफाजी ने अपने माथे पर बल डाले, ‘‘थूकना मना है, बीड़ीसिगरेट पीना मना है, रिश्वत लेनादेना मना है, शोर करना मना है, सभी कुछ लिखा है, मगर दफ्तर में होली खेलने की मनाही के बारे में कुछ नहीं लिखा है.’’

‘‘यह तो बड़ी सीधी सी बात है कि होली के रंगों से आफिस रिकार्ड खराब हो जाएगा,’’ मैं ने दलील देनी चाही.

‘‘पहले जमाने में आफिस के बड़े अफसर अपने स्टाफ को दफ्तर में होली खेलने के लिए खुद उकसाते थे ताकि जिन फाइलों के कारण उन पर आंच आ सकती है उन्हें होली के रंगों से नष्ट हो जाने की आड़ ले कर अपनी गरदन को किसी केस में फंसने से बचा सकें,’’ फूफाजी ने बतलाया.

‘‘लेकिन आज तो दफ्तर में होली खेलने की वजह से आप की अपनी गरदन फंस गई है.’’

‘‘तभी तो कहता हूं कि अबवैसी होली कहां,’’ फूफाजी ने लंबी आह भरी.

The post Holi Special: अब वैसी होली कहां appeared first on Sarita Magazine.



from कहानी – Sarita Magazine https://ift.tt/8tR1ULV

दरवाजे पर पहुंचते ही मैं ने जोर से आवाज लगाई, ‘‘फूफाजी?’’

बाहर दरवाजे पर खड़ी बूआजी ने माथे पर बल डाल कर कहा, ‘‘अंदर आंगन में बैठे हैं. जाओ, जा कर आरती उतार लो.’’

फूफाजी ने सुबह से ही टेलीफोन पर ‘जल्दी पहुंचो’, ‘फौरन पहुंचो’ की रट लगा रखी थी. जाने क्या आफत आन पड़ी है, यही सोच कर मैं आटो पकड़ उन के घर पहुंचा था.

फूफाजी आंगन में फर्श पर बैठे थे. उन के सामने स्टोव पर रखे बरतन में पानी उबल रहा था. पास ही सूखे रंगों की डब्बियां और प्लास्टिक की 3-4 बोतलें नीले, पीले, हरे, लाल रंगों से भरी हुई रखी थीं. पैरों के पास सफेद कपड़े के कुछ टुकड़े थे जिन पर रंगों से धारियां खींच कर उन्हें परखा गया था.

‘‘अरे, फूफाजी, आप ने कपड़े रंगने का काम शुरू कर दिया क्या?’’ मैं ने हैरानी से पूछा.

‘‘तुम्हारे खानदान के सभी सदस्य क्या उलटी खोपड़ी के ही हैं?’’ अजीब सा मुंह बना कर फूफाजी बोले, ‘‘बूआभतीजे को क्या मैं रंगरेज नजर आता हूं? अगर कभी रोटी के लाले पड़ भी गए तो भीख मांगना मंजूर कर लूंगा मगर ऐसा घटिया काम नहीं करूंगा.’’

‘‘वाह, कितने ऊंचे विचार हैं,’’ बूआजी आंगन में आ गईं और मेरी ओर मुंह कर के बोलीं, ‘‘देख लो बेटा, इन्हें अपने हाथ की मेहनत की कमाई भीख मांगने से भी बुरी लगती है.’’

ये भी पढ़ें- बागी नेताओं के इंटरव्यू

‘‘बुरी तो लगेगी ही,’’ बूआजी की ओर देख कर फूफाजी बोले, फिर मेरी ओर मुंह फेर कर कहने लगे, ‘‘बेटा मनोज, जरा सोचो, जिस खानदान ने ताउम्र मेहनत से जी चुराया हो…मेरा मतलब है जिस खानदान में मामूली काम के लिए भी नौकर रखे जाते थे उस खानदान का नाम लेवा, यानी कि तुम्हारा यह फूफाजी ऐसा घटिया काम कर सकता है?’’

‘‘अपने हाथों की मेहनत की कमाई तो गिरा हुआ काम नहीं है,’’ मैं ने उन्हें समझाना चाहा था.

‘‘हां, अब सही बात मुंह से निकल गई न. अरे, जब मैं दोनों हाथों से रिश्वत लेता हूं तो तुम लोग उसे बुरा क्यों कहते हो?’’

‘‘बेईमानी, रिश्वतखोरी और मेहनतमजदूरी इन की नजर में सब एक बराबर हैं,’’ बूआजी तमक कर बोलीं, ‘‘कभी आप ने किसी मेहनत करने

वाले को कानून की पकड़ में आते देखा है?’’

‘‘क्यों नहीं देखा. ये चोर, डाकू, लुटेरे, स्मगलर क्या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं? बेचारे जीतोड़ मेहनत करते हैं, अपनी जान को जोखिम में डाल कर अपना धंधा चलाते हैं और अभी माल समेट भी नहीं पाते कि धर लिए जाते हैं.’’

बूआ और फूफा के वाक्युद्ध का सिलसिला कोई भयानक रूप ले उस से पहले उस का रुख मोड़ते हुए मैं ने कहा, ‘‘फूफाजी, आप ने मुझे क्यों बुलाया था, और यह आप कर क्या रहे हैं?’’

‘‘बेटे, होली के लिए मेल खाते रंग बनाने में तुम्हारी सलाह चाहिए.’’

‘‘होली में तो अभी 4 दिन पड़े हैं.’’

‘‘और ये 4 दिन पहले से ही आफिस से छुट्टी ले कर रंग बनाने बैठ गए हैं,’’ बूआजी ने बतलाया.

‘‘अरी भागवान, तुम क्या जानो कि पहले होली किस धूमधाम से मनाई जाती थी. एक सप्ताह पहले से ही रंगों की बौछार और लाल गुलाल हवा में उड़ने शुरू हो जाते थे. और आजकल एक दिन की होली, वह भी घंटा आधा घंटा रंग के छींटे छिड़काए और फिर नहाधो लिए,’’ फूफाजी कहते गए, ‘‘उस जमाने में होली मनाने का जोश ऐसा होता था कि सब कामकाज बंद, दफ्तर, दुकानों में बस, होली के रंग और हुड़दंग.’’

बूआजी के साथ मैं भी फूफाजी को देख रहा था. उन्होंने स्टोव पर उबलते पानी में एक डब्बे से चम्मच भर रंग डाला, आंच कम की, फिर 2 और डब्बियों से आधाआधा चम्मच कुछ डाला और स्टोव बंद कर दिया.

‘‘अब मेरे छोटे भाई की शादी की बात ले लो,’’ फूफाजी हमारी तरफ मुंह कर के कहने लगे, ‘‘शादी का मुहूर्त होली से एक दिन पहले का था. बरात लड़की वालों के गांव जानी थी मगर होली के कारण कोई गांव वाला बरात में जाने को तैयार नहीं था. हर रिश्तेदार, कुनबे के लोग और गांव वालों को घरघर जा कर बरात में शामिल होने का न्योता दिया गया मगर होली की वजह से कोई बराती बनने को राजी नहीं…’’

‘‘उंह, वह होली के कारण नहीं,’’ बूआजी कहने लगीं, ‘‘गांव वालों ने तुम्हारे चाचाजी से झगड़े को ले कर बरात में जाने से इनकार किया था,’’ बूआजी ने याद दिलाया, ‘‘उस झगडे़ में लाठियां भी तो चली थीं.’’

‘‘लाठियां नहीं गोलियां चली थीं,’’ फूफाजी उबल पड़े, फिर मेरी ओर मुंह कर के बोले, ‘‘मनोज बेटा, गांव वालों से मामूली कहासुनी हो गई थी जिस में सुलहसफाई करवाने के लिए हमारे ताऊजी लाठी टेकते हुए गए थे. अब धक्कामुक्की में उन के हाथ से लाठी छूट कर गिरी तो आप की बूआजी ने उस ‘लाठी गिरने को’ लाठी चलाना बना दिया.’’

‘‘फिर आप लोग सिर्फ  दूल्हे के साथ ही लड़की वालों के घर पहुंच गए थे?’’

‘‘अरे, नहीं, भला ऐसे कोई बरात सजती है,’’ फूफाजी बोले, ‘‘बड़ी मुश्किल से लड़की वालों को समझाया कि बराती वहां रंग खेलेंगे तभी दूल्हा मंडप में बैठेगा.’’

‘‘फिर?’’

‘‘अब वहां दूल्हादुलहन मंडप में बैठे थे और बराती रंग खेल रहे थे. अपनेपराए का कोई भेद नहीं, जो भी सामने पड़ा रंग डाला. लड़की के बाप, भाई, मां, ताई, बहनें, भाभी, संबंधी, हलवाई, यहां तक कि बरात का स्वागत करने वालों तक के कपड़े रंगीन कर दिए.’’

फूफाजी झूम कर बता रहे थे कि मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘तो फेरे करवाने वाले पुरोहित पर भी रंग डाला?’’

‘‘उन के तो धोतीकुरता, रामनाम का अंगोछा, पोथीपत्रा सभी पर रंग के छींटे पड़ने लगे,’’ फूफाजी बोले, ‘‘पुरोहित ने जल्दीजल्दी मंत्रोच्चारण कर वरवधू से फेरे लेने को कहा. फिर औनेपौने फेरे डलवा कर अपना पोथीपत्रा समेट, मंत्रों के बीच ‘क्रमश:क्रमश:’ का उच्चारण करते हुए बिना दानदक्षिणा लिए भाग लिए.’’

‘‘बड़ी अजीब शादी थी,’’ मैं ने हैरानी से कहा.

‘‘अब एक विचित्र शवयात्रा की बात भी सुन लो,’’ फूफाजी ने आंखें नचाईं और बताने लगे, ‘‘एक बार होली पर हम यारदोस्त सिर से पांव तक रंग में नहाए हुए थे, चेहरों पर काले, नीले, पीले, लाल रंगों की बहारें खिलाए भांग के गिलासों और पकौड़ों की महफिल जमाए हुए थे कि इतने में एक युवक ने रोनी सी सूरत लिए आ कर हमारे पुते चेहरों को घूरते हुए पूछा, ‘इन में से राज कौन है?’ राज ने उसे इशारे से अपने पास बुलाया.’’

मैं ने फूफाजी की ओर देखा तो वह आगे बताने लगे, ‘‘राज के उस पड़ोसी ने सिसकते हुए बताया कि राज, तुम्हारे पिता की शव यात्रा श्मशान घाट की ओर कूच करने वाली है.’’

ये भी पढ़ें- एक नन्हा जीवनसाथी: भाग-3

‘‘अरे, यानी आप के दोस्त राज के पिताजी का अचानक इंतकाल हो गया था?’’ मेरे मुंह से एकदम निकला.

‘‘नहीं जी,’’ फूफाजी ने मुझ से आंखें मिलाईं और बोले, ‘‘उन्होंने होली की सुबह ही राज की बांहों में दम तोड़ा था मगर हमारा होली खेलने का कार्यक्रम चौपट न हो जाता इसलिए उस ने अपने पिताजी की मौत का गम दिल में दबाए रखा और पूरे जोश से होली खेलता रहा.’’

‘‘वाह, वाह, कैसेकैसे सपूत आप की टोली में शामिल थे,’’ बूआजी ने व्यंग्यबाण छोड़ा.

‘‘और नहीं तो क्या? ’’ फूफाजी ने गर्व से सिर उठाया और बोले, ‘‘हम में से कोई खुद भी मर गया होता तो अर्थी से उठ कर होली खेलने चला आता. आज की तरह नहीं कि संसार के किसी कोने में आंधी, तूफान, भूचाल आया और कुछ जानें गईं तो होली के रंग नाली में बहा दिए.’’

‘‘आप लोग इनसानी हमदर्दी को क्या समझें?’’ बूआजी ने मुंह बिचकाया.

‘‘अब हमदर्दी की बात ले लो, ज्यों ही हमें राज के पिताजी के इंतकाल का पता चला, फौरन राज के साथ उस के घर पहुंचे और वहां जो हम सभी चारों लोग फूटफूट कर रोए तो देखने वाले हैरानपरेशान हो गए कि आखिर इन नौजवानों में से किस का बापू, किस का डैडी, किस के पिताजी, संसार से कूच कर गए हैं,’’ फूफाजी ने आंखें पोंछीं, ‘‘सच मानना मनोज बेटे, हम लोगों ने रोनेपीटने का वह समां बांधा था कि…’’

‘‘लो, सुन लो,’’ फूफाजी की बात को बीच में काटते हुए बूआजी बोलीं, ‘‘रोनेपीटने का समां बांधा था?’’

‘‘चलो, समां बांधा नहीं…समां खुला छोड़ दिया था…अब तो खुश?’’ फूफाजी उखड़ गए.

फूफाजी ने रंग की 2-3 बोतलें एक झोले में डालीं और रंग वाला बरतन स्टोव पर ही छोड़ कर उठ खड़े हुए और बोले, ‘‘आओ, चलेंबेटा.’’

फूफाजी ने रंग की बोतलों वाला झोला उठाया.

अपने दफ्तर के सामने फूफाजी ने किराया दे कर आटो वाले को विदा किया.

‘‘क्या आप अपने दफ्तर के साथी को अपना बनाया स्पेशल रंग देने आए हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नहीं बेटा, नहीं, कल से आफिस साप्ताहिक अवकाश के कारण बंद है और सोमवार की होली है. मेरे दफ्तर के साथी इन 3 दिनों की छुट्टियों में अपनेअपने घरों को चले जाएंगे, फिर उन के साथ होली खेलने का मौका कहां मिलेगा. इसलिए मैं आज ही इन के साथ होली मनाने आ गया हूं,’’ फूफाजी ने झोले से रंग की एक बोतल निकाली और झोला मुझे थमा कर पीछेपीछे चले आने का इशारा कर आफिस की ओर बढ़े.

आफिस के दरवाजे पर चपरासी अपनी कुरसी पर बैठा हथेली पर खैनी रगड़ रहा था.

‘‘भोलाराम…होली मुबारक हो,’’ फूफाजी ने बोतल का रंग भोलाराम पर उड़ेला.

चपरासी उछल कर खड़ा हो गया और खैनी फेंक ‘बचाओबचाओ’ चिल्लाता हुआ आफिस के अंदर की ओर भागा. फूफाजी भी उस के ऊपर रंग फेंकते हुए उस के पीछे हो लिए.

आफिस के कमरों में अपनीअपनी  सीटों पर बैठे, फाइलों पर झुके बाबू लोग चौंक पड़े.

फूफाजी ने मेरे हाथ में पकड़े झोले में से रंग की एक और बोतल निकाली और दोनों हाथों में पकड़ी बोतलों से अपने साथियों पर रंग बरसाते हुए होली है…होली है’ के नारे लगा रहे थे.

बाबू लोग खुद को और फाइलों को बचाने की कोशिश कर रहे थे मगर फूफाजी इस ‘उस्तादी’ से रंग फेंक रहे थे कि किसी को बचने का मौका नहीं मिल रहा था. आफिस में अजब भगदड़ मची हुई थी.

‘अरे, सब सत्यानाश हो गया’ के शोर के बीच फूफाजी के ऊंचे स्वर में ‘होली है भई होली है’ के नारे गूंज रहे थे.

शोर सुन कर बड़े साहब अपने केबिन से बाहर आ गए थे. उन्होंने क्रीम कलर की कमीज पर सुर्ख टाई सजा रखी थी.

‘‘ये क्या हो रहा है?’’ बड़े साहब दहाड़े.

फूफाजी ने बोतल में भरा हरा रंग बड़े साहब की कमीज पर फेंका, जो उन की पैंट और लाल टाई सभी को तर कर गया.

‘‘होली मुबारक…बड़े साहब… हैप्पीहैप्पी होली.’’

‘‘अरे, रोको इसे…पागल हो गया

है क्या…अरे, पकड़ोपकड़ो…भोला… सहगल…वर्मा…पकड़ो इसे. छीन लो रंग,’’ बड़े साहब अपने कपड़ों का सत्यानाश होते देख बिलबिला उठे.

भोला और 3-4 बाबुओं ने रंग की परवा न करते हुए फूफाजी को पकड़ लिया और रंगों की बोतलें फूफाजी के हाथों से छीन कर पटक दीं.

‘‘मैं तुम्हें नौकरी से बाहर कर दूंगा,’’ बड़े साहब गुस्से से उबल रहे थे, ‘‘मैं तुम्हारे खिलाफ एक्शन लूंगा.’’

‘‘मैं आप के खिलाफ सीधे एक्शन लूंगा कि समान धर्म के होते हुए भी आप ने मुझे मेरे धार्मिक त्योहार को मनाने से रोका है. मैं आप के खिलाफ देश भर में एजीटेशन चलाऊंगा. प्रेस कानफे्रंस बुलाऊंगा,’’ फूफाजी जोश और रोष से उछल रहे थे, ‘‘मैं दंगेफसाद भड़का दूंगा. अमन में आग लगा दूंगा.’’

इस से पहले कि मामला और बिगड़ता, मैं फूफाजी का हाथ पकड़ कर उन्हें आफिस से बाहर ले आया.

‘‘आप ने दफ्तर में होली खेल कर अच्छा नहीं किया,’’ मैं ने समझाया.

ये भी पढ़ें- एक नन्हा जीवनसाथी: भाग-1

‘‘दफ्तर में कहां लिखा है कि यहां होली खेलने की मनाही है? जाओ, खुद जा कर दफ्तर में लगे बोर्ड पढ़ लो,’’ फूफाजी ने अपने माथे पर बल डाले, ‘‘थूकना मना है, बीड़ीसिगरेट पीना मना है, रिश्वत लेनादेना मना है, शोर करना मना है, सभी कुछ लिखा है, मगर दफ्तर में होली खेलने की मनाही के बारे में कुछ नहीं लिखा है.’’

‘‘यह तो बड़ी सीधी सी बात है कि होली के रंगों से आफिस रिकार्ड खराब हो जाएगा,’’ मैं ने दलील देनी चाही.

‘‘पहले जमाने में आफिस के बड़े अफसर अपने स्टाफ को दफ्तर में होली खेलने के लिए खुद उकसाते थे ताकि जिन फाइलों के कारण उन पर आंच आ सकती है उन्हें होली के रंगों से नष्ट हो जाने की आड़ ले कर अपनी गरदन को किसी केस में फंसने से बचा सकें,’’ फूफाजी ने बतलाया.

‘‘लेकिन आज तो दफ्तर में होली खेलने की वजह से आप की अपनी गरदन फंस गई है.’’

‘‘तभी तो कहता हूं कि अबवैसी होली कहां,’’ फूफाजी ने लंबी आह भरी.

The post Holi Special: अब वैसी होली कहां appeared first on Sarita Magazine.

March 11, 2022 at 09:00AM

No comments:

Post a Comment