Friday 31 July 2020

सुवीरा-भाग 1: सुवीरा के जीवन में किस चीज की कमी थी?

विनोद औफिस से चहकता हुआ आया तो सुवीरा ने पूछा, ‘‘कुछ खास बात है क्या?’’

‘‘हां, कितने दिनों से इच्छा थी आस्ट्रेलिया जाने की, कंपनी अब भेज रही है.’’

सुवीरा मुसकराई, ‘‘अच्छा, वाह, कब तक जाना है?’’

‘‘पेपर्स तो मेरे तैयार ही हैं, बस, जल्दी ही समझ लो.’’

‘‘लेकिन मेरा तो पासपोर्ट भी नहीं बना है, इतनी जल्दी बन जाएगा?’’

‘‘अभी मैं अकेला ही जा रहा हूं.’’

‘‘और मैं?’’ सुवीरा को धक्का लगा.

‘‘अभी फैमिली नहीं ले जा सकते, तुम्हारा बाद में देखेंगे.’’

‘‘मैं कैसे रहूंगी अकेले? फिर तुम्हें क्यों इतनी खुशी हो रही है?’’

‘‘यह मौका बड़ी मुश्किल से मिला है, मैं इसे नहीं छोड़ूंगा.’’

‘‘तो ठीक है, पर मुझे भी तो ले जाओ.’’

‘‘नहीं, अभी तो यह असंभव है.’’

‘‘शादी के 6 महीने बाद ही मुझे अकेला छोड़ कर जाओगे और वह भी तब जब मुझे तुम्हारी सब से ज्यादा जरूरत है.’’

‘‘सुवीरा अभी तुम प्रैग्नैंट हो, 5 महीने बाद डिलीवरी है, मैं तब तक आ ही जाऊंगा और आनाजाना तो लगा ही रहेगा.’’

‘‘डिलीवरी के बाद ले कर जाओगे?’’

‘‘हां, अभी बहुत टाइम है, अभी तो तुम मेरे साथ खुशी मनाओ.’’ सुवीरा आंखों में आए आंसू छिपाते हुए विनोद की फैली बांहों में समा गई. विनोद भविष्य के प्रति बहुत उत्साहित था. लेकिन सुवीरा का मूड ठीक होने को नहीं आ रहा था. सुवीरा ने कई बार अपने आंसू पोंछते हुए डिनर तैयार किया और विनोद के साथ बैठ कर बहुत बेमन से खाया. विनोद तो आराम से सो गया लेकिन सुवीरा को चैन नहीं आ रहा था. पूरी रात करवटें ही बदलती रही वह.

और देखते ही देखते तेजी से दिन बीतते गए. विनोद डिलीवरी के समय वापस आने का वादा कर आस्ट्रेलिया चला गया. सुवीरा की मम्मी बीना आ चुकी थीं. हमेशा लखनऊ में ही रही बीना का मन मुंबई में नहीं लग रहा था. वे कहतीं, ‘‘यहां तो न आसपड़ोस है न कोई जानपहचान, कैसे कटेगा टाइम. मांबेटी दोनों की तबीयत ढीली रहने लगी थी. विनोद से वैबकैम के माध्यम से बात तो हो जाती लेकिन सुवीरा की बेचैनी और बढ़ जाती. 2-2 मेड होने से सुवीरा को आराम तो था लेकिन एक तो गर्भावस्था, उस पर इतना अकेलापन. एक दिन मां ने कहा, ‘‘सुवीरा, मैं यहां नहीं रह पाऊंगी ज्यादा दिन, मन बिलकुल नहीं लगता यहां, कोई कितना टीवी देखे, कितना आराम करे. ऐसा कर, तू ही लखनऊ चल.’’

‘‘नहीं मां, विनोद चाहते हैं कि मैं यहीं रहूं. डिलीवरी के बाद आप चली जाना.’’ डिलीवरी की डेट से एक हफ्ता पहले आ गया विनोद. सुवीरा खिल उठी. सुवीरा के ऐडमिट होने की सारी तैयारी शुरू हो गई. सुवीरा ने एक सुंदर, स्वस्थ बच्ची को जन्म दिया. विनोद ने बेटी का नाम सिद्धि रखा. सब खुश थे. एक महीना हो चुका था. विनोद ने कोई बात नहीं छेड़ी तो एक दिन सुवीरा ने ही कहा, ‘‘अब तो ले चलोगे न हमें?’’

‘‘सिद्धि अभी छोटी है. वहां नई जगह इसे संभालने में तुम्हें दिक्कत होगी. बाद में देखते हैं.’’ मां ने पतिपत्नी की बात में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा. बस, इतना ही कहा, ‘‘मैं तो अब जाने की सोच रही हूं.’’

‘‘हां मां, आप अब चली जाओ,’’ सुवीरा ने अपने दिल पर पत्थर रखते हुए कहा. मां ने कहा, ‘‘अकेली कैसे रहोगी? मेरे साथ ही चलो.’’

‘‘नहीं मां, मैं रह लूंगी, मेड और मेरी सहेली सीमा है. वह आतीजाती रहती है. मैं मैनेज कर लूंगी.’’ बीना बेटी को बहुत सारी हिदायतें दे कर चिंतित मन से चली गईं. कुछ दिनों बाद जल्दी आने का वादा कर विनोद भी चला गया. सुवीरा ने अपनेआप को सिद्धि में रमा दिया. सीमा ने एक बहुत शरीफ और मेहनती महिला नैना को सुवीरा और सिद्धि की देखरेख के लिए ढूंढ़ लिया. नैना के दोनों बच्चे गांव में उस की मां के पास रहते थे. वह तलाकशुदा थी. उस ने बहुत उत्साह से नन्ही सिद्धि की देखभाल में सुवीरा का साथ दिया. सुवीरा विनोद के साथ रहने की आस में दिन गिनती रही. 1 साल बाद विनोद आया. आते ही उस ने सुवीरा और सिद्धि पर महंगे उपहारों की बरसात कर दी. विनोद को देख खुशी के मारे सुवीरा अकेले बिताया पूरा साल भूल सी गई. एक दिन विनोद ने कहा, ‘‘मैं वापस आने की कोशिश कर रहा हूं. बौस से बात की है. वे भी कुछ तैयार से लग रहे हैं. रहूंगा यहीं लेकिन विदेश के दौरे चलते रहेंगे. पोस्ट बढ़ी है तो काम भी बढ़ेगा ही और इस बार तो 6 महीने में ही आ जाऊंगा.’’

‘‘ठीक है विनोद, इस बार आ ही जाओ तो ठीक है. अकेले रहा नहीं जाता.’’ विनोद 6 महीने में आने के लिए कह कर फिर से चला गया. उस के चैक लगातार समय पर आते रहे. नैना ने सुवीरा को कभी शिकायत का मौका नहीं दिया था. नैना, सिद्धि, सीमा, अंजना और बाकी सहेलियों के साथ सुवीरा अपना दिन तो बिता देती लेकिन रात को जब बिस्तर पर लेटती तो विनोद की अनुपस्थिति उस का कलेजा होम कर देती. दिन में सब के सामने वह एक हिम्मती लड़की थी लेकिन उस का दिल किस अकेलेपन से भरा था, यह वही जानती थी. विनोद 6 महीने बाद सचमुच आ गया है. सुवीरा की खुशी का ठिकाना नहीं था. अब सब ठीक हो गया था. बस, बीचबीच में विनोद को टूर पर जाना था. सिद्धि 4 साल की हुई तो सुवीरा ने एक और बेटी को जन्म दिया जिस का नाम विनोद ने समृद्धि रखा. दोनों बेटियों को  सुवीरा ने कलेजे से लगा लिया. उसे इस समय अपनी मां की बहुत याद आई जिन की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी थी. उस के पिता लखनऊ में अकेले ही रह रहे थे.

अब वह रातदिन बेटियों की परवरिश में व्यस्त थी. विनोद को अपने काम की जिम्मेदारियों से फुरसत नहीं थी. समय अपनी रफ्तार से चलता रहा. सिद्धि, समृद्धि बड़ी हो रही थीं पर कहीं कुछ ऐसा था जो सुवीरा को उदास कर देता था. वह जो चाहती थी, उसे मिल नहीं पा रहा था. वह चाहती थी विनोद उसे और समय दे, बैठ कर बातें करे, कुछ अपनी कहे व कुछ उस की सुने. लेकिन विनोद के पास किसी भी भावना में बहने का समय नहीं था अब. वह हर समय व्यस्त दिखता. सुवीरा उस का मुंह देखती रह जाती. वह बिलकुल प्रैक्टिकल, मशीनी इंसान हो गया था. सुवीरा दिन पर दिन अकेली होती जा रही थी. सुवीरा ने एक दिन  कहा भी, ‘‘विनोद, थोड़ा तो टाइम निकालो कभी मेरे लिए.’’

‘‘सुवीरा, यही टाइम है बढि़या लाइफस्टाइल के लिए खूब भागदौड़ करने का. कितनों के पास है मुंबई में ऐसा शानदार घर. सब सुखसुविधाएं तो हैं घर में. तुम, बस आराम से ऐश करो. फोन, इंटरनैट, कार, क्या नहीं है तुम्हारे पास.’’ सुवीरा क्या कहती, मन मार कर रह गई. वह विनोद के मशीनी जीवन से उकता चुकी थी. या तो बाहर, या घर पर फोन, लैपटौप पर व्यस्त रहना. रात को अंतरंग पलों में भी उस का रोबोटिक ढंग सुवीरा को आहत कर जाता.

एक दिन विनोद बाहर से आया तो उस के साथ में उस की हमउम्र का एक पुरुष था. विनोद ने परिचय करवाते हुए कहा, ‘‘सुवीरा, यह महेश है. एक साथ ही पढ़े हैं. यह सीए है.’’ महेश और सुवीरा ने एकदूसरे का अभिवादन किया. महेश बहुत सादा सा इंसान लगा सुवीरा को. महेश ने विनोद के घर की खुलेदिल से तारीफ की. सुवीरा महेश के लिए कुछ लाने रसोई में गई तो विनोद भी वहीं पहुंच गया, बोला, ‘‘मेरे अच्छे दोस्तों में से एक रहा है यह. बहुत अच्छा स्वभाव है लेकिन कमाई में मुझ से बहुत पीछे रह गया. आज अचानक एक होटल के बाहर मिल गया. इस का अपना औफिस है मुलुंड में. एक कोचिंग सैंटर में अकाउंटैंसी की क्लासेज लेता है. बहुत इंटैलिजैंट है. मैं ने सोचा है, इसे यहीं ऊपर के रूम में रहने के लिए कह दूं. बच्चों की पढ़ाई भी देख लेगा, इस पर एहसान भी हो जाएगा और बच्चों को ट्यूशन के लिए कहीं जाना नहीं पड़ेगा.’’

‘‘इस का परिवार?’’

‘‘शादी नहीं की इस ने, किसी लड़की को चाहता तो था लेकिन घरपरिवार की जिम्मेदारी, अपनी 2 बहनों

की शादी निबटातेनिबटाते खुद को भूल गया. उस लड़की ने कहीं और शादी कर ली थी किसी अमीर लड़के से. बस, दूसरों के बारे में ही सोच कर जीता रहा बेवकूफ.’’ सुवीरा को दिल ही दिल में विनोद की आखिरी कही गई बात पर तेज गुस्सा आया, लेकिन इतना ही बोली, ‘‘जैसे तुम ठीक समझो.’’ विनोद ने दिल ही दिल में पूरा हिसाबकिताब लगा कर महेश से कहा, ‘‘देख, घर होते हुए तू कहीं और नहीं रहेगा.’’

‘‘नहीं यार, मैं आराम से एक लड़के के साथ शेयर कर के एक फ्लैट में रह रहा हूं. कोई प्रौब्लम नहीं है. सुबह अपनी क्लास ले कर औफिस चला जाता हूं.  औफिस पास ही है.’’

‘‘नहीं, मैं तेरी एक नहीं सुनूंगा. अभी ड्राइवर के साथ जा और अपना सामान ले कर आ,’’ विनोद ने उसे कुछ बोलने का मौका ही नहीं दिया और ड्राइवर को बुला कर आदेश भी दे दिया  दोनों की बातचीत में सुवीरा ने कोई हिस्सा नहीं लिया था. महेश के जाने के बाद विनोद ने सिद्धि, समृद्धि से कहा, ‘‘लो भई, तुम्हारे लिए टीचर का इंतजाम घर में ही कर दिया, अब जितना चाहो, जब चाहो इस से पढ़ लेना.’’ दोनों ‘‘थैंक्यू पापा,’’ कह कर हंसते हुए पिता से लिपट गईं. सुवीरा को चुप देख कर विनोद ने पूछा, ‘‘तुम क्यों सीरियस हो? तुम पर इस का कोई काम नहीं बढ़ेगा. अरे, इसे रखना नुकसानदायक नहीं होगा.’’ सुवीरा मन ही मन विनोद के हिसाबकिताब पर झुंझला गई. कैसा है विनोद, हर बात में हिसाबकिताब, दिल में किसी के लिए कोई कोमल भावनाएं नहीं, दोस्ती में भी स्वार्थ, क्या सोच है.

महेश अपना सामान ले कर आ गया. सामान क्या, एक बौक्स में किताबें ही किताबें थीं. कपड़े कम, किताबें ज्यादा थीं. सुवीरा से झिझकते हुए कहने लगा, ‘‘मेरे आने से आप को प्रौब्लम तो होगी?’’

‘‘नहीं, प्रौब्लम कैसी. आप आराम से रहें. किसी चीज की भी जरूरत हो तो जरूर कह दें.’’ डिनर के समय विनोद ने सुवीरा से कहा, ‘‘ऐसा करते हैं, आज पहला दिन है, इसे नीचे बुला लेते हैं. कल से महेश का नाश्ता और डिनर ऊपर ही भिजवा देना. लंच टाइम में तो यह रहेगा नहीं.’’ सुवीरा ने हां में सिर हिला दिया. महेश नीचे आ गया. उस की बातों ने, आकर्षक हंसी ने सब को प्रभावित किया. सिद्धि, समृद्धि तो खाना खत्म होने तक उस से फ्री हो चुकी थीं. विनोद अपनी कंपनी टूर के बारे

में बताता रहा. डिनर के बाद महेश सब को ‘गुडनाइट’ और ‘थैंक्स’ बोल कर ऊपर चला गया. थोड़ी देर बाद विनोद और सुवीरा अपने बैडरूम में आए. सुवीरा कपड़े बदल कर लेट गई. विनोद ने पूछा, ‘‘इसे रख कर ठीक किया न?’’

‘‘अभी क्या कह सकते हैं? अभी तो एक दिन भी नहीं हुआ.’’

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विनोद औफिस से चहकता हुआ आया तो सुवीरा ने पूछा, ‘‘कुछ खास बात है क्या?’’

‘‘हां, कितने दिनों से इच्छा थी आस्ट्रेलिया जाने की, कंपनी अब भेज रही है.’’

सुवीरा मुसकराई, ‘‘अच्छा, वाह, कब तक जाना है?’’

‘‘पेपर्स तो मेरे तैयार ही हैं, बस, जल्दी ही समझ लो.’’

‘‘लेकिन मेरा तो पासपोर्ट भी नहीं बना है, इतनी जल्दी बन जाएगा?’’

‘‘अभी मैं अकेला ही जा रहा हूं.’’

‘‘और मैं?’’ सुवीरा को धक्का लगा.

‘‘अभी फैमिली नहीं ले जा सकते, तुम्हारा बाद में देखेंगे.’’

‘‘मैं कैसे रहूंगी अकेले? फिर तुम्हें क्यों इतनी खुशी हो रही है?’’

‘‘यह मौका बड़ी मुश्किल से मिला है, मैं इसे नहीं छोड़ूंगा.’’

‘‘तो ठीक है, पर मुझे भी तो ले जाओ.’’

‘‘नहीं, अभी तो यह असंभव है.’’

‘‘शादी के 6 महीने बाद ही मुझे अकेला छोड़ कर जाओगे और वह भी तब जब मुझे तुम्हारी सब से ज्यादा जरूरत है.’’

‘‘सुवीरा अभी तुम प्रैग्नैंट हो, 5 महीने बाद डिलीवरी है, मैं तब तक आ ही जाऊंगा और आनाजाना तो लगा ही रहेगा.’’

‘‘डिलीवरी के बाद ले कर जाओगे?’’

‘‘हां, अभी बहुत टाइम है, अभी तो तुम मेरे साथ खुशी मनाओ.’’ सुवीरा आंखों में आए आंसू छिपाते हुए विनोद की फैली बांहों में समा गई. विनोद भविष्य के प्रति बहुत उत्साहित था. लेकिन सुवीरा का मूड ठीक होने को नहीं आ रहा था. सुवीरा ने कई बार अपने आंसू पोंछते हुए डिनर तैयार किया और विनोद के साथ बैठ कर बहुत बेमन से खाया. विनोद तो आराम से सो गया लेकिन सुवीरा को चैन नहीं आ रहा था. पूरी रात करवटें ही बदलती रही वह.

और देखते ही देखते तेजी से दिन बीतते गए. विनोद डिलीवरी के समय वापस आने का वादा कर आस्ट्रेलिया चला गया. सुवीरा की मम्मी बीना आ चुकी थीं. हमेशा लखनऊ में ही रही बीना का मन मुंबई में नहीं लग रहा था. वे कहतीं, ‘‘यहां तो न आसपड़ोस है न कोई जानपहचान, कैसे कटेगा टाइम. मांबेटी दोनों की तबीयत ढीली रहने लगी थी. विनोद से वैबकैम के माध्यम से बात तो हो जाती लेकिन सुवीरा की बेचैनी और बढ़ जाती. 2-2 मेड होने से सुवीरा को आराम तो था लेकिन एक तो गर्भावस्था, उस पर इतना अकेलापन. एक दिन मां ने कहा, ‘‘सुवीरा, मैं यहां नहीं रह पाऊंगी ज्यादा दिन, मन बिलकुल नहीं लगता यहां, कोई कितना टीवी देखे, कितना आराम करे. ऐसा कर, तू ही लखनऊ चल.’’

‘‘नहीं मां, विनोद चाहते हैं कि मैं यहीं रहूं. डिलीवरी के बाद आप चली जाना.’’ डिलीवरी की डेट से एक हफ्ता पहले आ गया विनोद. सुवीरा खिल उठी. सुवीरा के ऐडमिट होने की सारी तैयारी शुरू हो गई. सुवीरा ने एक सुंदर, स्वस्थ बच्ची को जन्म दिया. विनोद ने बेटी का नाम सिद्धि रखा. सब खुश थे. एक महीना हो चुका था. विनोद ने कोई बात नहीं छेड़ी तो एक दिन सुवीरा ने ही कहा, ‘‘अब तो ले चलोगे न हमें?’’

‘‘सिद्धि अभी छोटी है. वहां नई जगह इसे संभालने में तुम्हें दिक्कत होगी. बाद में देखते हैं.’’ मां ने पतिपत्नी की बात में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा. बस, इतना ही कहा, ‘‘मैं तो अब जाने की सोच रही हूं.’’

‘‘हां मां, आप अब चली जाओ,’’ सुवीरा ने अपने दिल पर पत्थर रखते हुए कहा. मां ने कहा, ‘‘अकेली कैसे रहोगी? मेरे साथ ही चलो.’’

‘‘नहीं मां, मैं रह लूंगी, मेड और मेरी सहेली सीमा है. वह आतीजाती रहती है. मैं मैनेज कर लूंगी.’’ बीना बेटी को बहुत सारी हिदायतें दे कर चिंतित मन से चली गईं. कुछ दिनों बाद जल्दी आने का वादा कर विनोद भी चला गया. सुवीरा ने अपनेआप को सिद्धि में रमा दिया. सीमा ने एक बहुत शरीफ और मेहनती महिला नैना को सुवीरा और सिद्धि की देखरेख के लिए ढूंढ़ लिया. नैना के दोनों बच्चे गांव में उस की मां के पास रहते थे. वह तलाकशुदा थी. उस ने बहुत उत्साह से नन्ही सिद्धि की देखभाल में सुवीरा का साथ दिया. सुवीरा विनोद के साथ रहने की आस में दिन गिनती रही. 1 साल बाद विनोद आया. आते ही उस ने सुवीरा और सिद्धि पर महंगे उपहारों की बरसात कर दी. विनोद को देख खुशी के मारे सुवीरा अकेले बिताया पूरा साल भूल सी गई. एक दिन विनोद ने कहा, ‘‘मैं वापस आने की कोशिश कर रहा हूं. बौस से बात की है. वे भी कुछ तैयार से लग रहे हैं. रहूंगा यहीं लेकिन विदेश के दौरे चलते रहेंगे. पोस्ट बढ़ी है तो काम भी बढ़ेगा ही और इस बार तो 6 महीने में ही आ जाऊंगा.’’

‘‘ठीक है विनोद, इस बार आ ही जाओ तो ठीक है. अकेले रहा नहीं जाता.’’ विनोद 6 महीने में आने के लिए कह कर फिर से चला गया. उस के चैक लगातार समय पर आते रहे. नैना ने सुवीरा को कभी शिकायत का मौका नहीं दिया था. नैना, सिद्धि, सीमा, अंजना और बाकी सहेलियों के साथ सुवीरा अपना दिन तो बिता देती लेकिन रात को जब बिस्तर पर लेटती तो विनोद की अनुपस्थिति उस का कलेजा होम कर देती. दिन में सब के सामने वह एक हिम्मती लड़की थी लेकिन उस का दिल किस अकेलेपन से भरा था, यह वही जानती थी. विनोद 6 महीने बाद सचमुच आ गया है. सुवीरा की खुशी का ठिकाना नहीं था. अब सब ठीक हो गया था. बस, बीचबीच में विनोद को टूर पर जाना था. सिद्धि 4 साल की हुई तो सुवीरा ने एक और बेटी को जन्म दिया जिस का नाम विनोद ने समृद्धि रखा. दोनों बेटियों को  सुवीरा ने कलेजे से लगा लिया. उसे इस समय अपनी मां की बहुत याद आई जिन की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी थी. उस के पिता लखनऊ में अकेले ही रह रहे थे.

अब वह रातदिन बेटियों की परवरिश में व्यस्त थी. विनोद को अपने काम की जिम्मेदारियों से फुरसत नहीं थी. समय अपनी रफ्तार से चलता रहा. सिद्धि, समृद्धि बड़ी हो रही थीं पर कहीं कुछ ऐसा था जो सुवीरा को उदास कर देता था. वह जो चाहती थी, उसे मिल नहीं पा रहा था. वह चाहती थी विनोद उसे और समय दे, बैठ कर बातें करे, कुछ अपनी कहे व कुछ उस की सुने. लेकिन विनोद के पास किसी भी भावना में बहने का समय नहीं था अब. वह हर समय व्यस्त दिखता. सुवीरा उस का मुंह देखती रह जाती. वह बिलकुल प्रैक्टिकल, मशीनी इंसान हो गया था. सुवीरा दिन पर दिन अकेली होती जा रही थी. सुवीरा ने एक दिन  कहा भी, ‘‘विनोद, थोड़ा तो टाइम निकालो कभी मेरे लिए.’’

‘‘सुवीरा, यही टाइम है बढि़या लाइफस्टाइल के लिए खूब भागदौड़ करने का. कितनों के पास है मुंबई में ऐसा शानदार घर. सब सुखसुविधाएं तो हैं घर में. तुम, बस आराम से ऐश करो. फोन, इंटरनैट, कार, क्या नहीं है तुम्हारे पास.’’ सुवीरा क्या कहती, मन मार कर रह गई. वह विनोद के मशीनी जीवन से उकता चुकी थी. या तो बाहर, या घर पर फोन, लैपटौप पर व्यस्त रहना. रात को अंतरंग पलों में भी उस का रोबोटिक ढंग सुवीरा को आहत कर जाता.

एक दिन विनोद बाहर से आया तो उस के साथ में उस की हमउम्र का एक पुरुष था. विनोद ने परिचय करवाते हुए कहा, ‘‘सुवीरा, यह महेश है. एक साथ ही पढ़े हैं. यह सीए है.’’ महेश और सुवीरा ने एकदूसरे का अभिवादन किया. महेश बहुत सादा सा इंसान लगा सुवीरा को. महेश ने विनोद के घर की खुलेदिल से तारीफ की. सुवीरा महेश के लिए कुछ लाने रसोई में गई तो विनोद भी वहीं पहुंच गया, बोला, ‘‘मेरे अच्छे दोस्तों में से एक रहा है यह. बहुत अच्छा स्वभाव है लेकिन कमाई में मुझ से बहुत पीछे रह गया. आज अचानक एक होटल के बाहर मिल गया. इस का अपना औफिस है मुलुंड में. एक कोचिंग सैंटर में अकाउंटैंसी की क्लासेज लेता है. बहुत इंटैलिजैंट है. मैं ने सोचा है, इसे यहीं ऊपर के रूम में रहने के लिए कह दूं. बच्चों की पढ़ाई भी देख लेगा, इस पर एहसान भी हो जाएगा और बच्चों को ट्यूशन के लिए कहीं जाना नहीं पड़ेगा.’’

‘‘इस का परिवार?’’

‘‘शादी नहीं की इस ने, किसी लड़की को चाहता तो था लेकिन घरपरिवार की जिम्मेदारी, अपनी 2 बहनों

की शादी निबटातेनिबटाते खुद को भूल गया. उस लड़की ने कहीं और शादी कर ली थी किसी अमीर लड़के से. बस, दूसरों के बारे में ही सोच कर जीता रहा बेवकूफ.’’ सुवीरा को दिल ही दिल में विनोद की आखिरी कही गई बात पर तेज गुस्सा आया, लेकिन इतना ही बोली, ‘‘जैसे तुम ठीक समझो.’’ विनोद ने दिल ही दिल में पूरा हिसाबकिताब लगा कर महेश से कहा, ‘‘देख, घर होते हुए तू कहीं और नहीं रहेगा.’’

‘‘नहीं यार, मैं आराम से एक लड़के के साथ शेयर कर के एक फ्लैट में रह रहा हूं. कोई प्रौब्लम नहीं है. सुबह अपनी क्लास ले कर औफिस चला जाता हूं.  औफिस पास ही है.’’

‘‘नहीं, मैं तेरी एक नहीं सुनूंगा. अभी ड्राइवर के साथ जा और अपना सामान ले कर आ,’’ विनोद ने उसे कुछ बोलने का मौका ही नहीं दिया और ड्राइवर को बुला कर आदेश भी दे दिया  दोनों की बातचीत में सुवीरा ने कोई हिस्सा नहीं लिया था. महेश के जाने के बाद विनोद ने सिद्धि, समृद्धि से कहा, ‘‘लो भई, तुम्हारे लिए टीचर का इंतजाम घर में ही कर दिया, अब जितना चाहो, जब चाहो इस से पढ़ लेना.’’ दोनों ‘‘थैंक्यू पापा,’’ कह कर हंसते हुए पिता से लिपट गईं. सुवीरा को चुप देख कर विनोद ने पूछा, ‘‘तुम क्यों सीरियस हो? तुम पर इस का कोई काम नहीं बढ़ेगा. अरे, इसे रखना नुकसानदायक नहीं होगा.’’ सुवीरा मन ही मन विनोद के हिसाबकिताब पर झुंझला गई. कैसा है विनोद, हर बात में हिसाबकिताब, दिल में किसी के लिए कोई कोमल भावनाएं नहीं, दोस्ती में भी स्वार्थ, क्या सोच है.

महेश अपना सामान ले कर आ गया. सामान क्या, एक बौक्स में किताबें ही किताबें थीं. कपड़े कम, किताबें ज्यादा थीं. सुवीरा से झिझकते हुए कहने लगा, ‘‘मेरे आने से आप को प्रौब्लम तो होगी?’’

‘‘नहीं, प्रौब्लम कैसी. आप आराम से रहें. किसी चीज की भी जरूरत हो तो जरूर कह दें.’’ डिनर के समय विनोद ने सुवीरा से कहा, ‘‘ऐसा करते हैं, आज पहला दिन है, इसे नीचे बुला लेते हैं. कल से महेश का नाश्ता और डिनर ऊपर ही भिजवा देना. लंच टाइम में तो यह रहेगा नहीं.’’ सुवीरा ने हां में सिर हिला दिया. महेश नीचे आ गया. उस की बातों ने, आकर्षक हंसी ने सब को प्रभावित किया. सिद्धि, समृद्धि तो खाना खत्म होने तक उस से फ्री हो चुकी थीं. विनोद अपनी कंपनी टूर के बारे

में बताता रहा. डिनर के बाद महेश सब को ‘गुडनाइट’ और ‘थैंक्स’ बोल कर ऊपर चला गया. थोड़ी देर बाद विनोद और सुवीरा अपने बैडरूम में आए. सुवीरा कपड़े बदल कर लेट गई. विनोद ने पूछा, ‘‘इसे रख कर ठीक किया न?’’

‘‘अभी क्या कह सकते हैं? अभी तो एक दिन भी नहीं हुआ.’’

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August 01, 2020 at 10:00AM

सुवीरा-भाग 4 : सुवीरा के जीवन में किस चीज की कमी थी?

‘‘महेश के साथ, हमेशा के लिए.’’

पेपर पटक कर विनोद दहाड़ा, ‘‘यह क्या बकवास है,’’ कहतेकहते सुवीरा को मारने के लिए हाथ उठाया तो सुवीरा ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘यह हिम्मत मत करना, विनोद, बहुत पछताओगे.’’

‘‘क्या बकवास कर रही हो यह?’’

‘‘मैं अब तुम्हारे साथ एक दिन भी नहीं रह सकती.’’

‘‘क्यों , क्या परेशानी है तुम्हें, सबकुछ तो है घर में, कितना पैसा देता हूं तुम्हें.’’

‘‘पैसा अगर खुशी खरीद सकता तो मैं भी खुश होती. मेरे अंदर कुछ टूटने की यह प्रक्रिया लंबे समय से चल रही है विनोद. मुझे जो चाहिए वह नहीं है घर में.’’

‘‘वह धोखेबाज है, उसे मैं हरगिज नहीं छोड़ूंगा.’’

‘‘तुम्हारे पास किसी को पकड़नेछोड़ने के लिए समय है कहां,’’ व्यंग्यपूर्वक कहा सुवीरा ने, ‘‘जिस के पास पत्नी का मन समझने के लिए थोड़ी भी कोई भावना न हो, वह क्या किसी को दोष देगा?’’ विनोद उस का मुंह देखता रह गया, सुवीरा एक बैग में अपने कपड़े रखने लगी. रात हो रही थी. बच्चे सो चुके थे. विनोद पैर पटकते हुए बैडरूम से निकला. कुछ समझ नहीं आया तो सीमा को फोन पर पूरी बता बता

कर उसे फौरन आने के लिए कहा. सुवीरा ने चारों ओर एक उदास सी नजर डाली. ये सब छोड़ कर एक अनजान रास्ते पर निकल रही है. वह गलत तो नहीं कर रही है. अगर गलत होगा भी तो क्या, देखा जाएगा. महेश का साथ अगर रहेगा तो ठीक है वरना पिता के पास चली जाएगी या कहीं अकेली रह लेगी. अब भी तो वह अकेली ही जी रही है. सीमा रंजन के साथ फौरन आ गई. सुवीरा अपना बैग ले कर निकल ही रही थी, वह समझ गई विनोद ने सीमा को बुलाया है. सीमा ने उसे झ्ंिझोड़ा, ‘‘यह क्या कर रही हो, सुवीरा ऐसी क्या मजबूरी हो गई जो इतना बड़ा कदम उठाने के लिए तैयार हो गई?’’

‘‘बस, सीमा, दिमाग को तो सालों से समझा रही हूं, बस, दिल को नहीं समझा पाई. दिल से मजबूर हो गई. अब नहीं रुक पाऊंगी,’’ कह कर सुवीरा गेट के बाहर निकल गई. विनोद जड़वत खड़ा रह गया. सीमा और रंजन देखते रह गए. सुवीरा चली जा रही थी, नहीं  जानती थी कि उस ने गलत किया या सही. बस, वह उस रास्ते पर बढ़ गई जहां महेश उस का इंतजार कर रहा था.

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‘‘महेश के साथ, हमेशा के लिए.’’

पेपर पटक कर विनोद दहाड़ा, ‘‘यह क्या बकवास है,’’ कहतेकहते सुवीरा को मारने के लिए हाथ उठाया तो सुवीरा ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘यह हिम्मत मत करना, विनोद, बहुत पछताओगे.’’

‘‘क्या बकवास कर रही हो यह?’’

‘‘मैं अब तुम्हारे साथ एक दिन भी नहीं रह सकती.’’

‘‘क्यों , क्या परेशानी है तुम्हें, सबकुछ तो है घर में, कितना पैसा देता हूं तुम्हें.’’

‘‘पैसा अगर खुशी खरीद सकता तो मैं भी खुश होती. मेरे अंदर कुछ टूटने की यह प्रक्रिया लंबे समय से चल रही है विनोद. मुझे जो चाहिए वह नहीं है घर में.’’

‘‘वह धोखेबाज है, उसे मैं हरगिज नहीं छोड़ूंगा.’’

‘‘तुम्हारे पास किसी को पकड़नेछोड़ने के लिए समय है कहां,’’ व्यंग्यपूर्वक कहा सुवीरा ने, ‘‘जिस के पास पत्नी का मन समझने के लिए थोड़ी भी कोई भावना न हो, वह क्या किसी को दोष देगा?’’ विनोद उस का मुंह देखता रह गया, सुवीरा एक बैग में अपने कपड़े रखने लगी. रात हो रही थी. बच्चे सो चुके थे. विनोद पैर पटकते हुए बैडरूम से निकला. कुछ समझ नहीं आया तो सीमा को फोन पर पूरी बता बता

कर उसे फौरन आने के लिए कहा. सुवीरा ने चारों ओर एक उदास सी नजर डाली. ये सब छोड़ कर एक अनजान रास्ते पर निकल रही है. वह गलत तो नहीं कर रही है. अगर गलत होगा भी तो क्या, देखा जाएगा. महेश का साथ अगर रहेगा तो ठीक है वरना पिता के पास चली जाएगी या कहीं अकेली रह लेगी. अब भी तो वह अकेली ही जी रही है. सीमा रंजन के साथ फौरन आ गई. सुवीरा अपना बैग ले कर निकल ही रही थी, वह समझ गई विनोद ने सीमा को बुलाया है. सीमा ने उसे झ्ंिझोड़ा, ‘‘यह क्या कर रही हो, सुवीरा ऐसी क्या मजबूरी हो गई जो इतना बड़ा कदम उठाने के लिए तैयार हो गई?’’

‘‘बस, सीमा, दिमाग को तो सालों से समझा रही हूं, बस, दिल को नहीं समझा पाई. दिल से मजबूर हो गई. अब नहीं रुक पाऊंगी,’’ कह कर सुवीरा गेट के बाहर निकल गई. विनोद जड़वत खड़ा रह गया. सीमा और रंजन देखते रह गए. सुवीरा चली जा रही थी, नहीं  जानती थी कि उस ने गलत किया या सही. बस, वह उस रास्ते पर बढ़ गई जहां महेश उस का इंतजार कर रहा था.

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August 01, 2020 at 10:00AM

Friendship Day Special: उसकी दोस्त

नेहा घबराई हुई थी, सागर की रिपोर्ट्स जो आनी थीं आज. नेहा ने सोते हुए सागर के चेहरे पर नजर डाली, क्या हुआ है सागर को, कितना कमजोर होता चला जा रहा है. फिर वह मुंबई के मुलुंड इलाके में तीसरे फ्लोर पर स्थित अपने फ्लैट की बालकनी में आ खड़ी हुई. यहां से उसे सोसाइटी का मेनगेट दिखाई पड़ता है. उस ने दूर से ही देख लिया कि रिया अपनी स्कूटी से आ रही है. उस का मन और बु झ गया.

यह रिया भी उसे चैन से नहीं जीने दे रही है. सागर के बचपन की इस दोस्त पर उसे बहुत गुस्सा आता है. कभी कुछ कह नहीं पाती. सोचती है, कह दिया तो सागर की नजरों में गिर जाएगी. पर कभी वह सागर और रिया की दोस्ती पर शक करती, कभी जासूसी करती, कभी उन के हावभाव देखती.

सागर को नेहा के मातापिता ने पसंद किया था. सागर का स्वभाव, व्यवहार देख कर नेहा को अपने पर गर्व ही हुआ था. वह सागर के साथ अपने वैवाहिक जीवन में पूरी तरह सुखी और संतुष्ट थी.

अब नेहा के मातापिता नहीं रहे थे. बहनभाई कोई था नहीं. सागर के भी मातापिता का सालों पहले देहांत हो चुका था. एक बड़ा भाई था, जो अपने परिवार के साथ अमेरिका में ही बस गया था. विवाह के बाद ही सागर का ट्रांसफर दिल्ली से मुंबई हो गया था. और एक दिन यहां उसे अचानक एक मौल में रिया मिल गई थी. सागर जबरदस्ती रिया को साथ घर ले कर आया था. फिर तो दोनों की बातें खत्म ही नहीं हुई थीं.

ये भी पढ़ें- वक्त की अदालत में

सागर ने उसे बताया था कि दिल्ली में एक ही गली में दोनों के घर थे. दोनों साथ ही पढ़े थे. पढ़ाई के बाद रिया जौब के लिए मुंबई आ गई थी. बीच में कभीकभार दोनों की फोन पर ही बात हुई थी. रिया अपने मातापिता की एकमात्र संतान थी. उस के मातापिता इस समय दिल्ली में ही रह रहे थे.

अब तो रिया कभी भी उन के घर आ धमकती थी. रिया वैसे नेहा को पसंद आई थी. स्मार्ट, सुंदर, मस्तमौला, खुशमिजाज लड़की थी. यहां एक एमएनसी में अच्छे पद पर कार्यरत थी. वह 2 लड़कियों के साथ फ्लैट शेयर कर रहती थी.

डोरबैल की आवाज से नेहा की तंद्रा भंग हुई. हाथ में खूब सारे पैकेट ले कर रिया अंदर आई. सब पैकेट टेबल पर रख कर सीधे सागर को देखने बैडरूम में गई. कुछ आहट पा कर सागर ने आंखें खोलीं.

‘‘कैसे हो?’’ रिया ने पूछा.

‘‘ठीक हूं.’’ सागर मुसकरा दिया.

‘‘कुछ नाश्ता लेती हुई आई हूं, सब खाते हैं,’’ रिया बोली.

नेहा ने कहा, ‘‘तुम खा लो, मेरा मन नहीं है.’’

रिया ने नेहा को स्नेहपूर्वक, अधिकार के साथ आंखें दिखाईं, ‘‘चुपचाप खा लो. अभी तुम्हारा राजकुमार भी स्कूल से आने वाला होगा. फिर उस की सेवा में लग जाओगी. चलो, अब शांति से बैठ कर कुछ खा लो.’’

नेहा अब मना नहीं कर पाई. वह सागर के लिए फल काट कर लाई और अपने दोनों के लिए चाय. सागर ने 2 टुकडे़ ही खाए थे कि फिर उस के पेट में तेज दर्द उठा. वह पसीनेपसीने हो गया. नेहा फिर घबरा गई.

रिया ने कहा, ‘‘रहने दो, सागर. तुम

कुछ मत खाओ. अब रिपोर्ट्स

आ ही जाएंगी, पता चलेगा क्या परेशानी है. लो, थोड़ा पानी पियो.’’ रिया ने सागर के मुंह में 2 चम्मच पानी डाला. नेहा के हाथपांव फूल रहे थे. रिया ने कहा, ‘‘अब तुम लोगों का डाक्टर के पास जाने का टाइम हो रहा है. मैं यहीं रुकती हूं. यश स्कूल से आएगा तो मैं उसे देख लूंगी.’’

नेहा ने उस की तरफ कृतज्ञताभरी नजरों से देखा तो रिया हंस पड़ी.

‘‘ज्यादा मत सोचो, तैयार हो जाओ. कभी मेरी तबीयत खराब होगी न, तो इतनी सेवा करवाऊंगी कि याद रखोगे.’’

दर्द में भी हंसी आ गई सागर को, बोला, ‘‘तुम हमेशा बकवास ही करना.’’ रिया ने उसे घूरा तो नेहा दोनों को देखती रह गई. अकसर दोनों की खुली दोस्ती को सम झने की नेहा कोशिश ही करती रह जाती थी.

यश स्कूल से आ गया तो नेहा उस के साथ व्यस्त हो गई. रिया आराम से सागर के पास बैठ कर बातें कर रही थी. अब तक यश भी रिया से काफी घुलमिल चुका था. यश को रिया के पास छोड़ सागर और नेहा अस्पताल चले गए.

ये भी पढ़ें- तपस्या

नेहा रिपोर्ट्स ले कर डाक्टर के रूम के बाहर अपने नंबर की प्रतीक्षा कर रही थी. सागर निढाल बैठा हुआ था. नेहा चिंतामग्न थी. उस के विवाह को 8 साल ही तो हुए थे. सागर के पेट में काफी समय से बहुत तेज दर्द की शिकायत थी. वह कोई पेनकिलर खा लेता था, दर्द ठीक हो जाता था. पर इस बार नेहा की जिद पर वह अपना चैकअप करवाने आया था. बहुत सारे टैस्ट हुए थे.

अपना नंबर आने पर नेहा डाक्टर सतीश के हाथ में रिपोर्ट देते हुए मन ही मन बहुत घबरा रही थी. उस की हथेलियां पसीने से भीग उठी थीं. वह सागर की गिरती सेहत को ले कर बहुत फिक्रमंद थी. डाक्टर की गंभीरता देख कर तो सागर भी असहज हो उठा.

‘‘सब ठीक तो है न, डाक्टर साहब?’’

‘‘नहीं, मिस्टर सागर, कुछ ठीक नहीं है. आप को आंतों का कैंसर है.’’

‘‘नहीं, डाक्टर,’’ नेहा लगभग चीख ही पड़ी, ‘‘यह कैसे हो सकता है.’’ सागर तो जैसे पत्थर का हो गया था.

‘‘ज्यादा चिंता मत करें. आप ऐडमिट हो जाइए, इलाज शुरू करते हैं, कीमोथेरैपी होगी. आजकल हर बीमारी का इलाज है. आप लोग देर न करें. इलाज शुरू करते हैं.’’ लगातार बरसती आंखों से सागर को ऐडमिट करवा कर नेहा फिर डाक्टर के पास गई, पूछने लगी, ‘‘डाक्टर, सागर ठीक तो हो जाएंगे न?’’

‘‘कोशिश तो पूरी की जाएगी लेकिन रिपोर्ट्स के हिसाब से इन के पास मुश्किल से 6 महीने ही हैं. कैंसर पूरी तरह से फैल चुका है. आप लोगों ने आने में बहुत देर कर दी है.’’

ये भी पढ़ें- घुटन : भाग 3

अपनेआप को संभालती, रोतीसिसकती नेहा ने रिया को सब बताया तो उसे भी तेज  झटका लगा. फिर तुरंत अपनेआप पर काबू रखते हुए कहा, ‘‘तुम वहीं रहो, मैं रात को भी यहीं घर पर रहूंगी. कल यश को स्कूल भेज अस्पताल आ जाऊंगी. फिर तुम फ्रैश होने घर आ जाना. किसी भी बात की चिंता मत करना. मैं औफिस से छुट्टी ले लूंगी.’’ नेहा को सम झा कर, तसल्ली दे कर, फोन रख कर रिया भी फूटफूट कर रो पड़ी. यह क्या हो गया, उस का दोस्त इतनी बड़ी बीमारी की चपेट में आ गया. अब क्या होगा. नेहा अकेले कैसे सब करेगी. इन दोनों का तो कोई है भी नहीं यहां. अब उसे ही इन का सहारा बनना है.

अगले दिन यश को स्कूल भेज, सब का खाना बना कर, मेड से घर की साफसफाई करवा कर रिया अस्पताल पहुंच गई. वह सामान्य ढंग से सागर और नेहा से बातें करती रही. सागर तो अब मानसिक रूप से भी निढाल हो चुका था. उस ने नेहा को जबरदस्ती घर भेज दिया. उस के वापस आने तक रिया सागर से हमेशा की तरह हलकीफुलकी बातें करती रही. एकदो बार सागर को हंसा भी दिया. फिर सागर भी थोड़ा सहज हो कर बातें करता रहा.

नेहा वापस आई तो तीनों अपनेआप को सामान्य करने की कोशिश करते रहे. अब यही नियम बन गया. रात को रिया ही यश के पास रहती. वह अपना काफी सामान नेहा के घर ही उठा लाई थी. यश को स्कूल भेज वह भी अस्पताल चली आती. फिर यश के आने के समय नेहा घर आ जाती. उस के साथ कुछ समय बिता कर रात को फिर सागर के पास चली जाती.

एक हफ्ता सागर अस्पताल में ऐडमिट रहा. कीमो का पहला सैशन सागर के लिए काफी कष्टप्रद रहा. सागर की पीड़ा देख कर नेहा तड़प जाती. आंखें हर पल भीगी रहतीं. एक हफ्ते बाद डाक्टर ने कहा, ‘‘अब ये घर जा सकते हैं. इलाज तो चलता रहेगा. इन्हें हर हफ्ते कीमोथेरैपी के लिए आना है.’’ बहुत सारे निर्देशों के साथ तीनों घर लौट आए.

रिया ने ही सागर के औफिस फोन कर सब जानकारी दे दी. सब को सुन कर धक्का लगा था. फिर सागर से मिलने जानपहचान का कोई न कोई आता रहता था. वैसे तो मुंबई में हर व्यक्ति व्यस्त ही रहता है पर जिन पड़ोसियों से आतेजाते जानपहचान हो गई थी, उन्हें रिया ने सागर की बीमारी का हलका सा संकेत दे दिया था. रिया को महसूस हुआ था कि सागर को कभी भी तबीयत खराब होने पर समयअसमय हौस्पिटल ले कर भागना पड़ सकता है. सो, कम से कम कोई पड़ोसी तो ऐसा हो जिस पर नेहा भरोसा कर सके.

कीमोथेरैपी के हर सैशन में रिया ही नेहा और सागर को अस्पताल ले कर जाती. नेहा को ड्राइविंग नहीं आती थी. रिया को जैसे हर चीज की जानकारी थी. कीमो के सैशन हो रहे थे पर सागर की हालत में कोईर् सुधार नहीं था. उस के दर्द से नेहा कांप जाती. कभी चुपचाप बैठी रिया की हर बात सोचती तो पलकें आंसुओं से भीग जातीं. यह कैसी दोस्त है जिस ने उन लोगों के लिए अपना हर सुख, हर आराम भुला दिया है. उसे अब सम झ आया था कि दोस्ती तो एक ऐसा सच्चा रिश्ता है जो किसी मांग पर आधारित नहीं है, एक आंतरिक अनुभूति है, स्वार्थ से परे है.

ये भी पढ़ें- दरार : भाग 3

कई हफ्ते बीत रहे थे पर सागर की हालत में कोई सुधार नहीं था. अब तो नेहा को हर पल अनिष्ट की आशंका बनी रहती और फिर एक दिन वही हुआ जिस का डर था. सागर सोया तो उठा ही नहीं. नेहा चीत्कार कर उठी. उस की चीख सुन कर पड़ोसी भी आ गए. नेहा और यश को अपनी बांहों में भर कर रिया भी फूटफूट कर रो पड़ी.

उस के बाद नेहा को कुछ होश नहीं रहा. कैसे रिया ने सागर के बड़े भाई रवि को फोन किया. रवि कब पहुंचा. कब अंतिम संस्कार की तैयारियां हुईं. कैसे सब हुआ. नेहा को कुछ होश नहीं था. बारबार बेहोश होती. फिर होश आता, फिर रोती. उस का संसार लुट चुका था. उसे चुप करवाने वाली पड़ोसिनें भी रो देतीं. उस की हालत देखी नहीं जा रही थी. रिया ने ही सब संभाला.

अंतिम संस्कार के बाद यश के सिर पर हाथ रखते हुए रवि ने कहा, ‘‘नेहा, मेरे साथ चलोगी?’’

‘‘नहीं, भैया.’’

वहीं बैठी रिया ने कहा, ‘‘भैया, आप चिंता न करें. मैं यहीं हूं यश और नेहा के साथ.’’

‘‘पर तुम भी कब तक सब देखोगी?’’

‘‘हमेशा, भैया. इस में परेशानी क्या है?’’

‘‘फिर भी, रिया, कल तुम्हें अपने भी काम होंगे.’’

‘‘नहीं भैया, नेहा और यश से बढ़ कर मु झे कभी कोई काम नहीं होगा. मेरे दोस्त के अपने, मेरे अपने हैं अब.’’

‘‘रिया, यह भावनाओं में बहने वाली बात नहीं है. कल तुम्हारा विवाह होगा, परिवार होगा.’’

‘‘वह जब होगा, देखा जाएगा. फिलहाल तो मैं इस के बारे में सोच भी नहीं सकती, भैया. आप चिंता न करें. मैं हूं इन के साथ.’’

रवि इस प्रेम, मित्रता और इंसानियत की मूरत को देखता ही रह गया. उस की आंखें रिया के प्रति सम्मान से भर उठीं. एक हफ्ते बाद रवि चला गया.

नेहा बुरी तरह डिप्रैशन का शिकार हो गई थी. कभी रिया के गले लग कर तो कभी यश को सीने से लगा कर फूटफूट कर रोती रही. रिया ने अपनी छुट्टियां और बढ़ा ली थीं. उस ने नेहा और यश की पूरी देखभाल की. उस की कोशिशों से नेहा सामान्य होने लगी. नेहा सामान्य हुई तो रिया ने औफिस जाना शुरू किया. वह अपना सारा सामान नेहा के घर ही ले आई थी. सागर की सारी जमापूंजी, बीमे की रकम, सब जानकारी नेहा को दी. हर पल उसे यश के लिए जीने का हौसला बंधाती रहती.

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4-5 महीने और बीत गए. नेहा को अब यश के भविष्य की सुध आई. उस ने रिया से कहा, ‘‘रिया, क्या मु झे नौकरी मिल सकती है कहीं?’’

‘‘क्यों नेहा, मैं हूं न, सब कर लूंगी.’’

‘‘कब तक? रिया, प्लीज मेरी नौकरी ढूंढ़ने में मदद करो.’’

‘‘अच्छा, ठीक है, तुम कहती हो तो देखती हूं. तुम्हारा मन भी लगा रहेगा.’’

रिया ने हर तरफ कोशिश करते हुए घर से थोड़ी दूर ही स्थित एक अच्छे स्कूल में नेहा के लिए टीचिंग की जौब ढूंढ़ ली. मुसकराते हुए रिया बोली, ‘‘यह स्कूल घर के पास भी है, यश का ऐडमिशन भी यहीं करवा लेंगे, दोनों मांबेटा साथ आनाजाना, खुश?’’

नेहा ने रिया के दोनों हाथ पकड़ लिए, ‘‘रिया, कुदरत ने शायद तुम्हें मेरे लिए ही भेजा था. तुम्हारा एहसान मैं…’’ कहतेकहते नेहा का स्वर भर्रा गया.

‘‘चलो, तुम्हें मेरी कुछ तो कद्र है. एक नालायक से दोस्ती की थी वह तो छोड़ कर चला गया,’’ कह कर मुसकराने की कोशिश करतेकरते भी रिया का गला रुंध गया. दोनों एकदूसरे के गले लग कर रो पड़ीं.

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आज नेहा के दिल में रिया के लिए प्यार ही प्यार था. सारे संदेह, शंका निर्मूल साबित हुए थे. अपने मन के सारे संदेहों पर वह दिल से शर्मिंदा थी. सागर तो हमेशा के लिए चला गया था पर वह ऐसी दोस्त दे गया था जो अब नेहा के मनप्राण का हिस्सा बन चुकी थी. जीवन में आए इस तूफान में, दुखभरे बादलों के बीच उस की दोस्त ही तो थी उस के साथ. दोस्ती की मिसाल तो अब सम झ आई थी. नेहा को महसूस हो चुका था कि दोस्ती स्त्रीपुरुष की मुहताज नहीं है. भीगी पलकों से नेहा अपने मृत पति की प्यारी दोस्त को देखती रह गई.

अब लग रहा था उसे कि उन की दोस्ती तो वर्षा की तरह थी. उन की दोस्ती के केंद्र में तो मात्र संवेदना, करुणा और प्रत्येक परिस्थिति में संबल बनने की प्रेरणा सांसें लेती थीं. मृत पति और सामने खड़ी उस की दोस्त के पावन रिश्ते की गहराई महसूस कर नेहा की आंखें भीगती चली गई थीं.

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नेहा घबराई हुई थी, सागर की रिपोर्ट्स जो आनी थीं आज. नेहा ने सोते हुए सागर के चेहरे पर नजर डाली, क्या हुआ है सागर को, कितना कमजोर होता चला जा रहा है. फिर वह मुंबई के मुलुंड इलाके में तीसरे फ्लोर पर स्थित अपने फ्लैट की बालकनी में आ खड़ी हुई. यहां से उसे सोसाइटी का मेनगेट दिखाई पड़ता है. उस ने दूर से ही देख लिया कि रिया अपनी स्कूटी से आ रही है. उस का मन और बु झ गया.

यह रिया भी उसे चैन से नहीं जीने दे रही है. सागर के बचपन की इस दोस्त पर उसे बहुत गुस्सा आता है. कभी कुछ कह नहीं पाती. सोचती है, कह दिया तो सागर की नजरों में गिर जाएगी. पर कभी वह सागर और रिया की दोस्ती पर शक करती, कभी जासूसी करती, कभी उन के हावभाव देखती.

सागर को नेहा के मातापिता ने पसंद किया था. सागर का स्वभाव, व्यवहार देख कर नेहा को अपने पर गर्व ही हुआ था. वह सागर के साथ अपने वैवाहिक जीवन में पूरी तरह सुखी और संतुष्ट थी.

अब नेहा के मातापिता नहीं रहे थे. बहनभाई कोई था नहीं. सागर के भी मातापिता का सालों पहले देहांत हो चुका था. एक बड़ा भाई था, जो अपने परिवार के साथ अमेरिका में ही बस गया था. विवाह के बाद ही सागर का ट्रांसफर दिल्ली से मुंबई हो गया था. और एक दिन यहां उसे अचानक एक मौल में रिया मिल गई थी. सागर जबरदस्ती रिया को साथ घर ले कर आया था. फिर तो दोनों की बातें खत्म ही नहीं हुई थीं.

ये भी पढ़ें- वक्त की अदालत में

सागर ने उसे बताया था कि दिल्ली में एक ही गली में दोनों के घर थे. दोनों साथ ही पढ़े थे. पढ़ाई के बाद रिया जौब के लिए मुंबई आ गई थी. बीच में कभीकभार दोनों की फोन पर ही बात हुई थी. रिया अपने मातापिता की एकमात्र संतान थी. उस के मातापिता इस समय दिल्ली में ही रह रहे थे.

अब तो रिया कभी भी उन के घर आ धमकती थी. रिया वैसे नेहा को पसंद आई थी. स्मार्ट, सुंदर, मस्तमौला, खुशमिजाज लड़की थी. यहां एक एमएनसी में अच्छे पद पर कार्यरत थी. वह 2 लड़कियों के साथ फ्लैट शेयर कर रहती थी.

डोरबैल की आवाज से नेहा की तंद्रा भंग हुई. हाथ में खूब सारे पैकेट ले कर रिया अंदर आई. सब पैकेट टेबल पर रख कर सीधे सागर को देखने बैडरूम में गई. कुछ आहट पा कर सागर ने आंखें खोलीं.

‘‘कैसे हो?’’ रिया ने पूछा.

‘‘ठीक हूं.’’ सागर मुसकरा दिया.

‘‘कुछ नाश्ता लेती हुई आई हूं, सब खाते हैं,’’ रिया बोली.

नेहा ने कहा, ‘‘तुम खा लो, मेरा मन नहीं है.’’

रिया ने नेहा को स्नेहपूर्वक, अधिकार के साथ आंखें दिखाईं, ‘‘चुपचाप खा लो. अभी तुम्हारा राजकुमार भी स्कूल से आने वाला होगा. फिर उस की सेवा में लग जाओगी. चलो, अब शांति से बैठ कर कुछ खा लो.’’

नेहा अब मना नहीं कर पाई. वह सागर के लिए फल काट कर लाई और अपने दोनों के लिए चाय. सागर ने 2 टुकडे़ ही खाए थे कि फिर उस के पेट में तेज दर्द उठा. वह पसीनेपसीने हो गया. नेहा फिर घबरा गई.

रिया ने कहा, ‘‘रहने दो, सागर. तुम

कुछ मत खाओ. अब रिपोर्ट्स

आ ही जाएंगी, पता चलेगा क्या परेशानी है. लो, थोड़ा पानी पियो.’’ रिया ने सागर के मुंह में 2 चम्मच पानी डाला. नेहा के हाथपांव फूल रहे थे. रिया ने कहा, ‘‘अब तुम लोगों का डाक्टर के पास जाने का टाइम हो रहा है. मैं यहीं रुकती हूं. यश स्कूल से आएगा तो मैं उसे देख लूंगी.’’

नेहा ने उस की तरफ कृतज्ञताभरी नजरों से देखा तो रिया हंस पड़ी.

‘‘ज्यादा मत सोचो, तैयार हो जाओ. कभी मेरी तबीयत खराब होगी न, तो इतनी सेवा करवाऊंगी कि याद रखोगे.’’

दर्द में भी हंसी आ गई सागर को, बोला, ‘‘तुम हमेशा बकवास ही करना.’’ रिया ने उसे घूरा तो नेहा दोनों को देखती रह गई. अकसर दोनों की खुली दोस्ती को सम झने की नेहा कोशिश ही करती रह जाती थी.

यश स्कूल से आ गया तो नेहा उस के साथ व्यस्त हो गई. रिया आराम से सागर के पास बैठ कर बातें कर रही थी. अब तक यश भी रिया से काफी घुलमिल चुका था. यश को रिया के पास छोड़ सागर और नेहा अस्पताल चले गए.

ये भी पढ़ें- तपस्या

नेहा रिपोर्ट्स ले कर डाक्टर के रूम के बाहर अपने नंबर की प्रतीक्षा कर रही थी. सागर निढाल बैठा हुआ था. नेहा चिंतामग्न थी. उस के विवाह को 8 साल ही तो हुए थे. सागर के पेट में काफी समय से बहुत तेज दर्द की शिकायत थी. वह कोई पेनकिलर खा लेता था, दर्द ठीक हो जाता था. पर इस बार नेहा की जिद पर वह अपना चैकअप करवाने आया था. बहुत सारे टैस्ट हुए थे.

अपना नंबर आने पर नेहा डाक्टर सतीश के हाथ में रिपोर्ट देते हुए मन ही मन बहुत घबरा रही थी. उस की हथेलियां पसीने से भीग उठी थीं. वह सागर की गिरती सेहत को ले कर बहुत फिक्रमंद थी. डाक्टर की गंभीरता देख कर तो सागर भी असहज हो उठा.

‘‘सब ठीक तो है न, डाक्टर साहब?’’

‘‘नहीं, मिस्टर सागर, कुछ ठीक नहीं है. आप को आंतों का कैंसर है.’’

‘‘नहीं, डाक्टर,’’ नेहा लगभग चीख ही पड़ी, ‘‘यह कैसे हो सकता है.’’ सागर तो जैसे पत्थर का हो गया था.

‘‘ज्यादा चिंता मत करें. आप ऐडमिट हो जाइए, इलाज शुरू करते हैं, कीमोथेरैपी होगी. आजकल हर बीमारी का इलाज है. आप लोग देर न करें. इलाज शुरू करते हैं.’’ लगातार बरसती आंखों से सागर को ऐडमिट करवा कर नेहा फिर डाक्टर के पास गई, पूछने लगी, ‘‘डाक्टर, सागर ठीक तो हो जाएंगे न?’’

‘‘कोशिश तो पूरी की जाएगी लेकिन रिपोर्ट्स के हिसाब से इन के पास मुश्किल से 6 महीने ही हैं. कैंसर पूरी तरह से फैल चुका है. आप लोगों ने आने में बहुत देर कर दी है.’’

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अपनेआप को संभालती, रोतीसिसकती नेहा ने रिया को सब बताया तो उसे भी तेज  झटका लगा. फिर तुरंत अपनेआप पर काबू रखते हुए कहा, ‘‘तुम वहीं रहो, मैं रात को भी यहीं घर पर रहूंगी. कल यश को स्कूल भेज अस्पताल आ जाऊंगी. फिर तुम फ्रैश होने घर आ जाना. किसी भी बात की चिंता मत करना. मैं औफिस से छुट्टी ले लूंगी.’’ नेहा को सम झा कर, तसल्ली दे कर, फोन रख कर रिया भी फूटफूट कर रो पड़ी. यह क्या हो गया, उस का दोस्त इतनी बड़ी बीमारी की चपेट में आ गया. अब क्या होगा. नेहा अकेले कैसे सब करेगी. इन दोनों का तो कोई है भी नहीं यहां. अब उसे ही इन का सहारा बनना है.

अगले दिन यश को स्कूल भेज, सब का खाना बना कर, मेड से घर की साफसफाई करवा कर रिया अस्पताल पहुंच गई. वह सामान्य ढंग से सागर और नेहा से बातें करती रही. सागर तो अब मानसिक रूप से भी निढाल हो चुका था. उस ने नेहा को जबरदस्ती घर भेज दिया. उस के वापस आने तक रिया सागर से हमेशा की तरह हलकीफुलकी बातें करती रही. एकदो बार सागर को हंसा भी दिया. फिर सागर भी थोड़ा सहज हो कर बातें करता रहा.

नेहा वापस आई तो तीनों अपनेआप को सामान्य करने की कोशिश करते रहे. अब यही नियम बन गया. रात को रिया ही यश के पास रहती. वह अपना काफी सामान नेहा के घर ही उठा लाई थी. यश को स्कूल भेज वह भी अस्पताल चली आती. फिर यश के आने के समय नेहा घर आ जाती. उस के साथ कुछ समय बिता कर रात को फिर सागर के पास चली जाती.

एक हफ्ता सागर अस्पताल में ऐडमिट रहा. कीमो का पहला सैशन सागर के लिए काफी कष्टप्रद रहा. सागर की पीड़ा देख कर नेहा तड़प जाती. आंखें हर पल भीगी रहतीं. एक हफ्ते बाद डाक्टर ने कहा, ‘‘अब ये घर जा सकते हैं. इलाज तो चलता रहेगा. इन्हें हर हफ्ते कीमोथेरैपी के लिए आना है.’’ बहुत सारे निर्देशों के साथ तीनों घर लौट आए.

रिया ने ही सागर के औफिस फोन कर सब जानकारी दे दी. सब को सुन कर धक्का लगा था. फिर सागर से मिलने जानपहचान का कोई न कोई आता रहता था. वैसे तो मुंबई में हर व्यक्ति व्यस्त ही रहता है पर जिन पड़ोसियों से आतेजाते जानपहचान हो गई थी, उन्हें रिया ने सागर की बीमारी का हलका सा संकेत दे दिया था. रिया को महसूस हुआ था कि सागर को कभी भी तबीयत खराब होने पर समयअसमय हौस्पिटल ले कर भागना पड़ सकता है. सो, कम से कम कोई पड़ोसी तो ऐसा हो जिस पर नेहा भरोसा कर सके.

कीमोथेरैपी के हर सैशन में रिया ही नेहा और सागर को अस्पताल ले कर जाती. नेहा को ड्राइविंग नहीं आती थी. रिया को जैसे हर चीज की जानकारी थी. कीमो के सैशन हो रहे थे पर सागर की हालत में कोईर् सुधार नहीं था. उस के दर्द से नेहा कांप जाती. कभी चुपचाप बैठी रिया की हर बात सोचती तो पलकें आंसुओं से भीग जातीं. यह कैसी दोस्त है जिस ने उन लोगों के लिए अपना हर सुख, हर आराम भुला दिया है. उसे अब सम झ आया था कि दोस्ती तो एक ऐसा सच्चा रिश्ता है जो किसी मांग पर आधारित नहीं है, एक आंतरिक अनुभूति है, स्वार्थ से परे है.

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कई हफ्ते बीत रहे थे पर सागर की हालत में कोई सुधार नहीं था. अब तो नेहा को हर पल अनिष्ट की आशंका बनी रहती और फिर एक दिन वही हुआ जिस का डर था. सागर सोया तो उठा ही नहीं. नेहा चीत्कार कर उठी. उस की चीख सुन कर पड़ोसी भी आ गए. नेहा और यश को अपनी बांहों में भर कर रिया भी फूटफूट कर रो पड़ी.

उस के बाद नेहा को कुछ होश नहीं रहा. कैसे रिया ने सागर के बड़े भाई रवि को फोन किया. रवि कब पहुंचा. कब अंतिम संस्कार की तैयारियां हुईं. कैसे सब हुआ. नेहा को कुछ होश नहीं था. बारबार बेहोश होती. फिर होश आता, फिर रोती. उस का संसार लुट चुका था. उसे चुप करवाने वाली पड़ोसिनें भी रो देतीं. उस की हालत देखी नहीं जा रही थी. रिया ने ही सब संभाला.

अंतिम संस्कार के बाद यश के सिर पर हाथ रखते हुए रवि ने कहा, ‘‘नेहा, मेरे साथ चलोगी?’’

‘‘नहीं, भैया.’’

वहीं बैठी रिया ने कहा, ‘‘भैया, आप चिंता न करें. मैं यहीं हूं यश और नेहा के साथ.’’

‘‘पर तुम भी कब तक सब देखोगी?’’

‘‘हमेशा, भैया. इस में परेशानी क्या है?’’

‘‘फिर भी, रिया, कल तुम्हें अपने भी काम होंगे.’’

‘‘नहीं भैया, नेहा और यश से बढ़ कर मु झे कभी कोई काम नहीं होगा. मेरे दोस्त के अपने, मेरे अपने हैं अब.’’

‘‘रिया, यह भावनाओं में बहने वाली बात नहीं है. कल तुम्हारा विवाह होगा, परिवार होगा.’’

‘‘वह जब होगा, देखा जाएगा. फिलहाल तो मैं इस के बारे में सोच भी नहीं सकती, भैया. आप चिंता न करें. मैं हूं इन के साथ.’’

रवि इस प्रेम, मित्रता और इंसानियत की मूरत को देखता ही रह गया. उस की आंखें रिया के प्रति सम्मान से भर उठीं. एक हफ्ते बाद रवि चला गया.

नेहा बुरी तरह डिप्रैशन का शिकार हो गई थी. कभी रिया के गले लग कर तो कभी यश को सीने से लगा कर फूटफूट कर रोती रही. रिया ने अपनी छुट्टियां और बढ़ा ली थीं. उस ने नेहा और यश की पूरी देखभाल की. उस की कोशिशों से नेहा सामान्य होने लगी. नेहा सामान्य हुई तो रिया ने औफिस जाना शुरू किया. वह अपना सारा सामान नेहा के घर ही ले आई थी. सागर की सारी जमापूंजी, बीमे की रकम, सब जानकारी नेहा को दी. हर पल उसे यश के लिए जीने का हौसला बंधाती रहती.

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4-5 महीने और बीत गए. नेहा को अब यश के भविष्य की सुध आई. उस ने रिया से कहा, ‘‘रिया, क्या मु झे नौकरी मिल सकती है कहीं?’’

‘‘क्यों नेहा, मैं हूं न, सब कर लूंगी.’’

‘‘कब तक? रिया, प्लीज मेरी नौकरी ढूंढ़ने में मदद करो.’’

‘‘अच्छा, ठीक है, तुम कहती हो तो देखती हूं. तुम्हारा मन भी लगा रहेगा.’’

रिया ने हर तरफ कोशिश करते हुए घर से थोड़ी दूर ही स्थित एक अच्छे स्कूल में नेहा के लिए टीचिंग की जौब ढूंढ़ ली. मुसकराते हुए रिया बोली, ‘‘यह स्कूल घर के पास भी है, यश का ऐडमिशन भी यहीं करवा लेंगे, दोनों मांबेटा साथ आनाजाना, खुश?’’

नेहा ने रिया के दोनों हाथ पकड़ लिए, ‘‘रिया, कुदरत ने शायद तुम्हें मेरे लिए ही भेजा था. तुम्हारा एहसान मैं…’’ कहतेकहते नेहा का स्वर भर्रा गया.

‘‘चलो, तुम्हें मेरी कुछ तो कद्र है. एक नालायक से दोस्ती की थी वह तो छोड़ कर चला गया,’’ कह कर मुसकराने की कोशिश करतेकरते भी रिया का गला रुंध गया. दोनों एकदूसरे के गले लग कर रो पड़ीं.

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आज नेहा के दिल में रिया के लिए प्यार ही प्यार था. सारे संदेह, शंका निर्मूल साबित हुए थे. अपने मन के सारे संदेहों पर वह दिल से शर्मिंदा थी. सागर तो हमेशा के लिए चला गया था पर वह ऐसी दोस्त दे गया था जो अब नेहा के मनप्राण का हिस्सा बन चुकी थी. जीवन में आए इस तूफान में, दुखभरे बादलों के बीच उस की दोस्त ही तो थी उस के साथ. दोस्ती की मिसाल तो अब सम झ आई थी. नेहा को महसूस हो चुका था कि दोस्ती स्त्रीपुरुष की मुहताज नहीं है. भीगी पलकों से नेहा अपने मृत पति की प्यारी दोस्त को देखती रह गई.

अब लग रहा था उसे कि उन की दोस्ती तो वर्षा की तरह थी. उन की दोस्ती के केंद्र में तो मात्र संवेदना, करुणा और प्रत्येक परिस्थिति में संबल बनने की प्रेरणा सांसें लेती थीं. मृत पति और सामने खड़ी उस की दोस्त के पावन रिश्ते की गहराई महसूस कर नेहा की आंखें भीगती चली गई थीं.

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August 01, 2020 at 10:00AM

सुवीरा-भाग 3 : सुवीरा के जीवन में किस चीज की कमी थी?

विनोद दिल्ली से लौटा तो इस बार सुवीरा उसे देख कर खुश नहीं, उदास ही हुई. अब महेश से मिलने में बाधा रहेगी. खैर, देखा जाएगा. विनोद ने रात को पत्नी का अनमना रवैया भी महसूस नहीं किया. सुवीरा आहत हुई. वह इतना आत्मकेंद्रित है कि उसे पत्नी की बांहों का ढीलापन भी महसूस नहीं हो रहा है. पत्नी की बेदिली पर भी उस का ध्यान नहीं जा रहा है. वह मन ही मन महेश और विनोद की तुलना करती रही. अब वह पूरी तरह बदल गई थी. उस का एक हिस्सा विनोद के पास था, दूसरा महेश के पास. विनोद जैसे एक जरूरी काम खत्म कर करवट बदल कर सो गया. वह सोचती रही, वह हमेशा कैसे रहेगी विनोद के साथ. उसे सुखसुविधाएं, पैसा, गाड़ी बड़ा घर कुछ नहीं चाहिए, उसे बस प्यार चाहिए. ऐसा साथी चाहिए जो उसे समझे, उस की भावनाओं की कद्र करे. रातभर महेश का चेहरा उस की आंखों के आगे आता रहा.

सुबह नाश्ते के समय विनोद ने पूछा, ‘‘महेश कैसा है? बच्चों को पढ़ाता है न?’’

‘‘हां.’’

‘‘नाश्ता भिजवा दिया उसे?’’

‘‘नहीं, नीचे ही बुला लिया है.’’

‘‘अच्छा? वाह,’’ थोड़ा चौंका विनोद. महेश आया विनोद से हायहैलो हुई. सुवीरा महेश को देखते ही खिल उठी. विनोद ने पूछा, ‘‘और तुम्हारा औफिस, कोचिंग कैसी चल रही है?’’

‘‘अच्छी चल रही है.’’

‘‘भई, टीचर के तो मजे होते हैं, पढ़ाया और घर आ गए, यहां देखो, रातदिन फुरसत नहीं है.’’

‘‘तो क्यों इतनी भागदौड़ करते हो? कभी तो चैन से बैठो?’’

‘‘अरे यार, चैन से बैठ कर थोड़े ही यह सब मिलता है,’’ गर्व से कह कर विनोद नाश्ता करता रहा. महेश ने बिना किसी झिझक के सुवीरा से पूछा, ‘‘आप का नाश्ता कहां है?’’

विनोद थोड़ा चौंक कर बोला, ‘‘अरे, सुवीरा तुम भी तो करो.’’ सुवीरा बैठ गई, अपना भी चाय का कप लिया. विनोद नाश्ता खत्म कर जल्दी उठ गया. सिद्धि, समृद्धि भी जाने के लिए तैयार थीं. सुवीरा महेश एकदूसरे के प्यार में डूबे नाश्ता करते रहे. महेश ने कहा, ‘‘मैं भी चलता हूं.’’ बच्चे भी निकल गए तो सुवीरा ने कहा, ‘‘रुकोगे नहीं?’’

‘‘बहुत जरूरी क्लास है. फ्री होते ही आ जाऊंगा. औफिस में भी एक जरूरी क्लाइंट आने वाला है, जल्दी आ जाऊंगा, सब निबटा कर.’’

‘‘लेकिन तब तक तो बच्चे भी आ जाएंगे.’’

‘‘इतनी बेताबी?’’

सुवीरा हंस पड़ी. सुवीरा को अपने सीने से लगा कर प्यार कर महेश चला गया. सुवीरा उस के पास से आती खुशबू में बहुत देर खोई रही. अब उसे किसी बात की न चिंता थी न डर. वह अपनी ही हिम्मत पर हैरान थी, क्या प्यार ऐसा होता है, क्या प्रेमीपुरुष का साथ एक औरत को इतनी हिम्मत से भर देता है. तो वह जो 15 साल से विनोद के साथ रह रही है, वह क्या है. विनोद के लिए उस का दिल वह सब क्यों महसूस नहीं करता जो महेश के लिए करता है. विनोद का स्पर्श उस के अंदर वह उमंग, वह उत्साह क्यों नहीं भरता जो महेश का स्पर्श भरता है. अब रातदिन एक बार भी विनोद का ध्यान क्यों नहीं आता. महेश ही उस के दिलोदिमाग पर क्यों छाया रहता है. एक उत्साह उमंग सी भरी रहने लगी थी उस के रोमरोम में. वह कई बार सोचती, घर में सक्षम, संपन्न पति के रहने के बावजूद वह पराए पुरुष के स्पर्श के लिए कैसे उत्सुक रहने लगी है. कहां गए वो सालों पुराने संस्कार जिन्हें खून में संचारित करते हुए इतने सालों में किसी पुरुष के प्रति कोई आकर्षण तक न जागा था. आंखें बंद कर वह महसूस करती कि यह कोई अपरिचित पुरुष नहीं है बल्कि उस का स्वप्नपुरुष है, स्त्रियों के चरित्र और चरित्रहीनता का मामला सिर्फ शारीरिक घटनाओं से क्यों तय किया जाता है. कितना विचित्र नियम है यह.

फिर कई दिन बीत गए. दोनों के संबंध दिन पर दिन पक्के होते जा रहे थे. मौका मिलते ही दोनों काफी समय साथ बिताते. सुवीरा अपनी सब सहेलियों को जैसे भूल गई थी. सब उस से न मिलने की शिकायत करतीं पर वह बच्चों की पढ़ाई की व्यस्तता का बहाना बना सब को बहला देती. सुवीरा विनोद की अनुपस्थिति में अकसर महेश की बाइक पर बैठ कर बाहर घूमतीफिरती. दोनों शौपिंग करते, मूवी देखते, और घर आ कर एकदूसरे की बांहों में खो जाते. सीमा ने दोनों को बाइक पर आतेजाते कई बार देखा था. कुछ था जो उसे खटक रहा था लेकिन किस से कहती और क्या कहती. कितनी भी अच्छी सहेली थी लेकिन यह बात छेड़ना भी उसे उचित नहीं लग रहा था. सुवीरा को अब यह चिंता लगी थी कि इस संबंध का भविष्य क्या होगा. वह तो अब महेश के बिना जीवन जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी. एक दिन अकेले में सुवीरा को उदास देख कर महेश ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? उदास क्यों हो?’’

‘‘महेश, क्या होगा हमारा? मैं अब तुम्हारे बिना नहीं रह पाऊंगी.’’

‘‘तो मैं भी कहां रह पाऊंगा अब. मैं ने तो कभी यह सोचा ही नहीं था कि तुम भी मुझ से इतना प्यार करोगी क्योंकि समाज के इस ढांचे को तोड़ना आसान नहीं होता. इतना तो जानता हूं मैं.’’

‘‘लेकिन एक न एक दिन विनोद को पता चल ही जाएगा.’’

‘‘तब देख लेंगे, क्या करना है.’’

‘‘नहीं महेश, कोई भी अप्रिय स्थिति आने से पहले सोचना होगा.’’

‘‘तो बताओ फिर, क्या चाहती हो? मुझे तुम्हारा हर फैसला मंजूर है.’’

‘‘तो हम दोनों कहीं और जा कर रहें?’’

‘‘क्या?’’ करंट सा लगा महेश को, बोला,‘‘विनोद? बच्चे?’’

‘‘विनोद को तो पत्नी का मतलब ही नहीं पता, बेटियों को वह वैसे भी बहुत जल्दी एक मशहूर होस्टल में डालने वाला है. और वैसे भी, मेरी बेटियां शायद पिता के ही पदचिह्नों पर चलने वाली हैं. वही पैसे का घमंड, वही अकड़, जब घर में किसी को मेरी जरूरत ही नहीं है तो क्या मैं अपने बारे में नहीं सोच सकती,’’ कहते हुए सुवीरा का स्वर भर्रा गया. महेश ने उसे सीने से लगा लिया. उस के बाद सहलाते हुए बोला, ‘‘लेकिन मैं शायद तुम्हें इतनी सुखसुविधाएं न दे पाऊं, सुवीरा.’’

‘‘जो तुम ने मुझे दिया है उस के आगे ये सब बहुत फीका है. महेश, हम जल्दी से जल्दी यहां से चले जाएंगे. अपने मन को मारतेमारते मैं थक चुकी हूं.’’

‘‘ठीक है, मैं रहने का इंतजाम करता हूं.’’

‘‘और तुम पैसे की चिंता मत करना. मुझे कोई ऐशोआराम नहीं चाहिए, सादा सा जीवन और तुम्हारा साथ, बस.’’

‘‘पर तुम देख लो, रह पाओगी अपने परिवार के बिना?’’

‘‘हां, मैं ने सबकुछ सोच लिया है. तुम से मिले एक साल हो रहा है और मैं ने इतने समय में बहुत कुछ सोचा है.’’ महेश उस के दृढ़ स्वर की गंभीरता को महसूस करता रहा. सुवीरा ने कहा, ‘‘मैं विनोद को बहुत जल्दी बता दूंगी कि मैं अब उस के साथ नहीं रह सकती.’’ दोनों आगे की योजना बनाते रहे. सिद्धि, समृद्धि आ गईं तो महेश ऊपर चला गया. सुवीरा ने पूछा, ‘‘बड़ी देर लगा दी पार्टी में?’’

‘‘हां मम्मी, फ्रैंड्स के साथ टाइम का पता ही नहीं चलता.’’ सुवीरा अपनी बेटियों का मुंह देखती रही, छोड़ पाएगी इन्हें. वह मां है,  क्या करने जा रही है. इतने में समृद्धि ने कहा,

‘‘मम्मी, रिंकी की मम्मी को देखा है आप ने?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘अरे, आप देखो उन्हें. क्या लगती हैं. क्या इंजौय करती हैं लाइफ. और आप कितनी चुपचुप सी रहती हैं.’’

‘‘तो क्या करूं, तुम दोनों तो अपने स्कूल फ्रैंड्स में बिजी रहती हो, मैं अकेली क्या खुश होती घूमूं?’’

सिद्धि शुरू हो गई, ‘‘ओह मम्मी, क्या नहीं है हमारे पास. डैड को देखो, कितने सक्सैसफुल हैं.’’ सुवीरा ने मन में कहा, जैसा बाप वैसी बेटियां. कुछ बोली नहीं, सब को छोड़ कर जाने का इरादा और पक्का हो गया उस का. आगे के तय प्रोग्राम के हिसाब से महेश विनोद के घर से यह कह कर चला गया कि उसे कहीं अच्छा जौब मिल गया है, जहां का आनाजाना यहां से दूर पड़ेगा. विनोद ने बस ‘एज यू विश’ कह कर कुछ खास प्रतिक्रिया नहीं दी. अब सुवीरा और महेश मोबाइल पर ही बात कर रहे थे. 3 दिनों बाद सुवीरा का 37वां बर्थडे था. विनोद ने औफिस से आते ही कहा, ‘‘सुवीरा, मैं परसों जरमनी जा रहा हूं, एक मीटिंग है.’’

वहीं बैठी सिद्धि ने कहा, ‘‘मम्मी का बर्थडे?’’

‘‘हां, तो वहां से महंगा गिफ्ट ले कर आऊंगा तुम्हारी मम्मी के लिए और क्या चाहिए बर्थडे पर.’’ सिद्धि अपने कमरे में चली गई. डिनर के बाद विनोद बैडरूम में अपनी अलमारी में कुछ पेपर्स देख रहा था. वह काफी व्यस्त दिख रहा था. सुवीरा ने बहुत गंभीर स्वर में कहा, ‘‘विनोद, कुछ जरूरी बात करनी है.’’

‘‘अभी नहीं, बहुत बिजी हूं.’’

‘‘नहीं, अभी करनी है.’’

‘‘जल्दी क्या है, लौट कर करता हूं.’’

‘‘तब नहीं हो पाएगी.’’

‘‘क्यों डिस्टर्ब कर रही हो इतना?’’

‘‘विनोद, मैं जा रही हूं.’’

पेपर्स से नजरें हटाए बिना ही विनोद ने पूछा, ‘‘कहां?’’

 

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विनोद दिल्ली से लौटा तो इस बार सुवीरा उसे देख कर खुश नहीं, उदास ही हुई. अब महेश से मिलने में बाधा रहेगी. खैर, देखा जाएगा. विनोद ने रात को पत्नी का अनमना रवैया भी महसूस नहीं किया. सुवीरा आहत हुई. वह इतना आत्मकेंद्रित है कि उसे पत्नी की बांहों का ढीलापन भी महसूस नहीं हो रहा है. पत्नी की बेदिली पर भी उस का ध्यान नहीं जा रहा है. वह मन ही मन महेश और विनोद की तुलना करती रही. अब वह पूरी तरह बदल गई थी. उस का एक हिस्सा विनोद के पास था, दूसरा महेश के पास. विनोद जैसे एक जरूरी काम खत्म कर करवट बदल कर सो गया. वह सोचती रही, वह हमेशा कैसे रहेगी विनोद के साथ. उसे सुखसुविधाएं, पैसा, गाड़ी बड़ा घर कुछ नहीं चाहिए, उसे बस प्यार चाहिए. ऐसा साथी चाहिए जो उसे समझे, उस की भावनाओं की कद्र करे. रातभर महेश का चेहरा उस की आंखों के आगे आता रहा.

सुबह नाश्ते के समय विनोद ने पूछा, ‘‘महेश कैसा है? बच्चों को पढ़ाता है न?’’

‘‘हां.’’

‘‘नाश्ता भिजवा दिया उसे?’’

‘‘नहीं, नीचे ही बुला लिया है.’’

‘‘अच्छा? वाह,’’ थोड़ा चौंका विनोद. महेश आया विनोद से हायहैलो हुई. सुवीरा महेश को देखते ही खिल उठी. विनोद ने पूछा, ‘‘और तुम्हारा औफिस, कोचिंग कैसी चल रही है?’’

‘‘अच्छी चल रही है.’’

‘‘भई, टीचर के तो मजे होते हैं, पढ़ाया और घर आ गए, यहां देखो, रातदिन फुरसत नहीं है.’’

‘‘तो क्यों इतनी भागदौड़ करते हो? कभी तो चैन से बैठो?’’

‘‘अरे यार, चैन से बैठ कर थोड़े ही यह सब मिलता है,’’ गर्व से कह कर विनोद नाश्ता करता रहा. महेश ने बिना किसी झिझक के सुवीरा से पूछा, ‘‘आप का नाश्ता कहां है?’’

विनोद थोड़ा चौंक कर बोला, ‘‘अरे, सुवीरा तुम भी तो करो.’’ सुवीरा बैठ गई, अपना भी चाय का कप लिया. विनोद नाश्ता खत्म कर जल्दी उठ गया. सिद्धि, समृद्धि भी जाने के लिए तैयार थीं. सुवीरा महेश एकदूसरे के प्यार में डूबे नाश्ता करते रहे. महेश ने कहा, ‘‘मैं भी चलता हूं.’’ बच्चे भी निकल गए तो सुवीरा ने कहा, ‘‘रुकोगे नहीं?’’

‘‘बहुत जरूरी क्लास है. फ्री होते ही आ जाऊंगा. औफिस में भी एक जरूरी क्लाइंट आने वाला है, जल्दी आ जाऊंगा, सब निबटा कर.’’

‘‘लेकिन तब तक तो बच्चे भी आ जाएंगे.’’

‘‘इतनी बेताबी?’’

सुवीरा हंस पड़ी. सुवीरा को अपने सीने से लगा कर प्यार कर महेश चला गया. सुवीरा उस के पास से आती खुशबू में बहुत देर खोई रही. अब उसे किसी बात की न चिंता थी न डर. वह अपनी ही हिम्मत पर हैरान थी, क्या प्यार ऐसा होता है, क्या प्रेमीपुरुष का साथ एक औरत को इतनी हिम्मत से भर देता है. तो वह जो 15 साल से विनोद के साथ रह रही है, वह क्या है. विनोद के लिए उस का दिल वह सब क्यों महसूस नहीं करता जो महेश के लिए करता है. विनोद का स्पर्श उस के अंदर वह उमंग, वह उत्साह क्यों नहीं भरता जो महेश का स्पर्श भरता है. अब रातदिन एक बार भी विनोद का ध्यान क्यों नहीं आता. महेश ही उस के दिलोदिमाग पर क्यों छाया रहता है. एक उत्साह उमंग सी भरी रहने लगी थी उस के रोमरोम में. वह कई बार सोचती, घर में सक्षम, संपन्न पति के रहने के बावजूद वह पराए पुरुष के स्पर्श के लिए कैसे उत्सुक रहने लगी है. कहां गए वो सालों पुराने संस्कार जिन्हें खून में संचारित करते हुए इतने सालों में किसी पुरुष के प्रति कोई आकर्षण तक न जागा था. आंखें बंद कर वह महसूस करती कि यह कोई अपरिचित पुरुष नहीं है बल्कि उस का स्वप्नपुरुष है, स्त्रियों के चरित्र और चरित्रहीनता का मामला सिर्फ शारीरिक घटनाओं से क्यों तय किया जाता है. कितना विचित्र नियम है यह.

फिर कई दिन बीत गए. दोनों के संबंध दिन पर दिन पक्के होते जा रहे थे. मौका मिलते ही दोनों काफी समय साथ बिताते. सुवीरा अपनी सब सहेलियों को जैसे भूल गई थी. सब उस से न मिलने की शिकायत करतीं पर वह बच्चों की पढ़ाई की व्यस्तता का बहाना बना सब को बहला देती. सुवीरा विनोद की अनुपस्थिति में अकसर महेश की बाइक पर बैठ कर बाहर घूमतीफिरती. दोनों शौपिंग करते, मूवी देखते, और घर आ कर एकदूसरे की बांहों में खो जाते. सीमा ने दोनों को बाइक पर आतेजाते कई बार देखा था. कुछ था जो उसे खटक रहा था लेकिन किस से कहती और क्या कहती. कितनी भी अच्छी सहेली थी लेकिन यह बात छेड़ना भी उसे उचित नहीं लग रहा था. सुवीरा को अब यह चिंता लगी थी कि इस संबंध का भविष्य क्या होगा. वह तो अब महेश के बिना जीवन जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी. एक दिन अकेले में सुवीरा को उदास देख कर महेश ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? उदास क्यों हो?’’

‘‘महेश, क्या होगा हमारा? मैं अब तुम्हारे बिना नहीं रह पाऊंगी.’’

‘‘तो मैं भी कहां रह पाऊंगा अब. मैं ने तो कभी यह सोचा ही नहीं था कि तुम भी मुझ से इतना प्यार करोगी क्योंकि समाज के इस ढांचे को तोड़ना आसान नहीं होता. इतना तो जानता हूं मैं.’’

‘‘लेकिन एक न एक दिन विनोद को पता चल ही जाएगा.’’

‘‘तब देख लेंगे, क्या करना है.’’

‘‘नहीं महेश, कोई भी अप्रिय स्थिति आने से पहले सोचना होगा.’’

‘‘तो बताओ फिर, क्या चाहती हो? मुझे तुम्हारा हर फैसला मंजूर है.’’

‘‘तो हम दोनों कहीं और जा कर रहें?’’

‘‘क्या?’’ करंट सा लगा महेश को, बोला,‘‘विनोद? बच्चे?’’

‘‘विनोद को तो पत्नी का मतलब ही नहीं पता, बेटियों को वह वैसे भी बहुत जल्दी एक मशहूर होस्टल में डालने वाला है. और वैसे भी, मेरी बेटियां शायद पिता के ही पदचिह्नों पर चलने वाली हैं. वही पैसे का घमंड, वही अकड़, जब घर में किसी को मेरी जरूरत ही नहीं है तो क्या मैं अपने बारे में नहीं सोच सकती,’’ कहते हुए सुवीरा का स्वर भर्रा गया. महेश ने उसे सीने से लगा लिया. उस के बाद सहलाते हुए बोला, ‘‘लेकिन मैं शायद तुम्हें इतनी सुखसुविधाएं न दे पाऊं, सुवीरा.’’

‘‘जो तुम ने मुझे दिया है उस के आगे ये सब बहुत फीका है. महेश, हम जल्दी से जल्दी यहां से चले जाएंगे. अपने मन को मारतेमारते मैं थक चुकी हूं.’’

‘‘ठीक है, मैं रहने का इंतजाम करता हूं.’’

‘‘और तुम पैसे की चिंता मत करना. मुझे कोई ऐशोआराम नहीं चाहिए, सादा सा जीवन और तुम्हारा साथ, बस.’’

‘‘पर तुम देख लो, रह पाओगी अपने परिवार के बिना?’’

‘‘हां, मैं ने सबकुछ सोच लिया है. तुम से मिले एक साल हो रहा है और मैं ने इतने समय में बहुत कुछ सोचा है.’’ महेश उस के दृढ़ स्वर की गंभीरता को महसूस करता रहा. सुवीरा ने कहा, ‘‘मैं विनोद को बहुत जल्दी बता दूंगी कि मैं अब उस के साथ नहीं रह सकती.’’ दोनों आगे की योजना बनाते रहे. सिद्धि, समृद्धि आ गईं तो महेश ऊपर चला गया. सुवीरा ने पूछा, ‘‘बड़ी देर लगा दी पार्टी में?’’

‘‘हां मम्मी, फ्रैंड्स के साथ टाइम का पता ही नहीं चलता.’’ सुवीरा अपनी बेटियों का मुंह देखती रही, छोड़ पाएगी इन्हें. वह मां है,  क्या करने जा रही है. इतने में समृद्धि ने कहा,

‘‘मम्मी, रिंकी की मम्मी को देखा है आप ने?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘अरे, आप देखो उन्हें. क्या लगती हैं. क्या इंजौय करती हैं लाइफ. और आप कितनी चुपचुप सी रहती हैं.’’

‘‘तो क्या करूं, तुम दोनों तो अपने स्कूल फ्रैंड्स में बिजी रहती हो, मैं अकेली क्या खुश होती घूमूं?’’

सिद्धि शुरू हो गई, ‘‘ओह मम्मी, क्या नहीं है हमारे पास. डैड को देखो, कितने सक्सैसफुल हैं.’’ सुवीरा ने मन में कहा, जैसा बाप वैसी बेटियां. कुछ बोली नहीं, सब को छोड़ कर जाने का इरादा और पक्का हो गया उस का. आगे के तय प्रोग्राम के हिसाब से महेश विनोद के घर से यह कह कर चला गया कि उसे कहीं अच्छा जौब मिल गया है, जहां का आनाजाना यहां से दूर पड़ेगा. विनोद ने बस ‘एज यू विश’ कह कर कुछ खास प्रतिक्रिया नहीं दी. अब सुवीरा और महेश मोबाइल पर ही बात कर रहे थे. 3 दिनों बाद सुवीरा का 37वां बर्थडे था. विनोद ने औफिस से आते ही कहा, ‘‘सुवीरा, मैं परसों जरमनी जा रहा हूं, एक मीटिंग है.’’

वहीं बैठी सिद्धि ने कहा, ‘‘मम्मी का बर्थडे?’’

‘‘हां, तो वहां से महंगा गिफ्ट ले कर आऊंगा तुम्हारी मम्मी के लिए और क्या चाहिए बर्थडे पर.’’ सिद्धि अपने कमरे में चली गई. डिनर के बाद विनोद बैडरूम में अपनी अलमारी में कुछ पेपर्स देख रहा था. वह काफी व्यस्त दिख रहा था. सुवीरा ने बहुत गंभीर स्वर में कहा, ‘‘विनोद, कुछ जरूरी बात करनी है.’’

‘‘अभी नहीं, बहुत बिजी हूं.’’

‘‘नहीं, अभी करनी है.’’

‘‘जल्दी क्या है, लौट कर करता हूं.’’

‘‘तब नहीं हो पाएगी.’’

‘‘क्यों डिस्टर्ब कर रही हो इतना?’’

‘‘विनोद, मैं जा रही हूं.’’

पेपर्स से नजरें हटाए बिना ही विनोद ने पूछा, ‘‘कहां?’’

 

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August 01, 2020 at 10:00AM

Raksha Bandhan Special: अनमोल रिश्ता-रंजना को संजय से क्या दिक्कत थी?

फेसबुक पर फाइंड फ्रैंड में नाम डालडाल कर कई बार सर्च किया, लेकिन संजय का कोई पता न चला. ‘पता नहीं फेसबुक पर उस का अकाउंट है भी कि नहीं,’ यह सोच कर मैं ने लौगआउट किया ही था कि स्मार्टफोन पर व्हाट्सऐप की मैसेज ट्यून सुनाई दी. फोन की स्क्रीन पर देखा तो जानापहचाना चेहरा लगा. डबल क्लिक कर फोटो को बड़ा किया तो चेहरा देख दंग रह गई. फिर मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. ‘बिलकुल वैसा ही लगता है संजय जैसा पहले था.’

मैं अपने मातापिता की एकलौती संतान थी और 12वीं में पढ़ती थी. पिताजी रेलवे में टीटीई के पद पर कार्यरत थे. इस कारण अकसर बाहर ही रहते. घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण हम ने डिसाइड किया कि घर का एक कमरा किराए पर दे दिया जाए. बहुत सोचविचार कर पापा ने 2 स्टूडैंट्स जो ग्रैजुएशन करने के बाद आईएएस की तैयारी करने केरल से दिल्ली आए हुए थे, को कमरा किराए पर दे दिया. जब वे हमारे यहां रहने आए तो आपसी परिचय के बाद उन्होंने मुझे कहा, ‘पढ़ाई के सिलसिले में कभी जरूरत हो तो कहिएगा.’

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उन में से एक, जिस का नाम संजय था अकसर मुझ से बातचीत करने को उत्सुक रहता. कभी 10वीं की एनसीईआरटी की किताब मांगता तो कभी मेरे कोर्स की. मुझे उस का इस तरह किताबें मांगना बात करने का बहाना लगता. एक दिन जब वह किताब मांगने आया तो मैं ने उसे बुरी तरह डांट दिया, ‘क्या करोगे 10वीं की किताब का. मुझे सब पता है, यह सब बहाने हैं लड़कियों से बात करने के. मुझ से मेलजोल बढ़ाने की कोशिश न करो. आगे से मत आना किताब मांगने.’ उस ने अपने पक्ष में बहुत दलीलें दीं लेकिन मैं ने नकारते हुए सब खारिज कर दीं. उस दिन मुझे स्कूल से ही अपनी फ्रैंड के घर जाना था. मैं मम्मी को बता भी गई थी, लेकिन जब घर आई तो जैसे सभी मुझे शक की निगाह से देखने लगे.

बस्ता रखा ही था कि मम्मी पूछने लगीं, ‘आज तुम रमेश के साथ क्या कर रही थीं?’

‘रमेश,’ मैं समझ गई कि यह आग संजय की लगाई हुई है. मैं ने जैसेतैसे मम्मी को समझाया, लेकिन संजय से बदला लेने उसी के रूम में चली गई. ‘तुम होते कौन हो मेरे मामले में टांग अड़ाने वाले. मैं चाहे किसी के साथ जाऊं, घूमूंफिरूं तुम्हें क्या. तुम किराएदार हो, किराया दो और चुपचाप रहो. आइंदा मेरे बारे में मां से बात करने की कोई जरूरत नहीं, समझे,’ मैं संजय को कह कर बाहर निकल गई. दरअसल, रमेश मेरी कक्षा में पढ़ता था. अच्छी पर्सनैलिटी होने के कारण सभी लड़कियां उस से दोस्ती करना चाहती थीं. मेरे दिल में भी उस के लिए प्यार था और मैं उसे चाहती थी. सो फ्रैंड के घर जाते समय उसी ने मुझे ड्रौप किया था, लेकिन संजय ने मुझे उस के साथ जाते हुए देख लिया था.

थोड़ी देर बाहर घूम कर आई तो संजय मम्मी के पास बैठा दिखा. मुझे उसे देखते ही गुस्सा आ गया, लेकिन मेरे आते ही वह उठ कर चला गया. बाद में मम्मी ने मुझे समझाया,  ‘संजय ने मुझे उस लड़के के बारे में बताया है. वह लड़कियों से फ्लर्ट करता है. उस का तुम्हारे स्कूल की 11वीं में पढ़ने वाली रंजना से भी संबंध है. तुम उस से ज्यादा दोस्ती न ही बढ़ाओ तो ठीक है.’ ‘ठीक है मां,’ मैं ने उन्हें कह दिया, लेकिन संजय पर बिफर पड़ी, ‘अब तुम मेरी जासूसी भी करने लगे. मैं किस से मिलती हूं, कहां जाती हूं इस से तुम्हें क्या?’

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इस पर वह चुप ही रहा. शाम को मुझे मैथ्स का एक सवाल समझ नहीं आ रहा था तो मैं ने संजय से ही पूछा. उस ने भी बिना हिचक मुझे समझा दिया, लेकिन ज्यों ही वह सुबह की बात छेड़ने लगा मैं ने फिर डांट दिया, ‘मेरी जासूसी करने की जरूरत नहीं. रमेश को मैं जानती हूं वह अच्छा लड़का है और बड़ी बात है कि मैं उसे चाहती हूं. तुम अपने काम से काम रखो.’ कुछ दिन बाद मैं स्कूल पहुंची तो हैरान रह गई. स्कूल में पुलिस आई हुई थी. पता चला कि रमेश और रंजना घर से भाग गए हैं. अभी तक उन का कुछ पता नहीं चला. पुलिस ने पूछताछ वाले लोगोें में मेरा नाम भी लिख लिया व मुझे थाने आने को कहा. पापा दौरे पर गए हुए थे सो मम्मी ने और कोई सहारा न देख संजय से बात की. फिर न चाहते हुए भी मैं संजय के साथ थाने गई. वहां इंस्पैक्टर ने जो पूछा बता दिया. संजय ने इंस्पैक्टर से मेरी तारीफ की. रमेश से सिर्फ क्लासफैलो होने का नाता बताया और ऐसे बात की जैसे मेरा बड़ा भाई मुझे बचा रहा हो. उस की बातचीत से इंप्रैस हो इंस्पैक्टर ने उस केस से मेरा नाम भी हटा दिया. घर आए तो संजय ने मुझे समझाया, ‘ऐसे लड़कों से दूर ही रहो तो अच्छा है. वैसे भी अभी तुम्हारी उम्र पढ़ने की है. पढ़लिख कर कुछ बन जाओ तब बनाना ऐसे रिश्ते. तब तुम्हें इन की समझ भी होगी,’ साथ ही उस ने मुझे दलील भी दी, ‘‘मैं तुम्हारे भाई जैसा हूं तुम्हारे भले के लिए ही कहूंगा.’’

दरअसल, गुस्सा तो मुझे खुद पर था कि मैं रमेश को समझ न पाई और मुझे प्यार में धोखा हुआ, लेकिन खीज संजय पर निकल गई. मेरी इस बात का संजय पर गहरा असर हुआ. राखी का त्योहार नजदीक था सो शाम को आते समय संजय राखी ले आया और मम्मी के सामने मुझ से रमेश के बारे में बताने व समझाने के लिए क्षमा मांगता हुआ राखी बांध कर भाई बनाने की पेशकश कर खुद को सही साबित करने लगा. मैं कहां मानने वाली थी. मैं पैर पटकती हुई बाहर निकल गई. उस ने राखी वहीं टेबल पर रख दी. पापा अगले दिन जम्मू से लौटने वाले थे. मैं और मम्मी घर में अकेली थीं. रात के लगभग 12 बजे थे कि अचानक मुझे आवाज मारती हुई मम्मी उठ बैठीं.

मैं भी हड़बड़ा कर उठी और देखा कि मम्मी की नाक से खून बह रहा था. मैं कुछ समझ न पाई, बस जल्दी से दराज से रूई निकाल कर नाक में ठूंस दी और खून बंद करने की कोशिश करने लगी. इधरउधर देखा, कुछ समझ न आया कि क्या करूं. लेकिन अचानक संजय के कमरे की बत्ती जलती देखी. कल उन का ऐग्जाम होने के कारण वे दोनों काफी देर तक पढ़ रहे थे. तभी मम्मी बेसुध हो कर गिर पड़ीं. मैं ने उन्हें गिरते देखा तो मेरी चीख निकल गई, ‘मम्मी…’ मेरी चीख सुनते ही संजय के कमरे का दरवाजा खुला. सारी स्थिति भांपते हुए संजय बोला, ‘आप घबराइए नहीं, हम देखते हैं,’ फिर अपने दोस्त कार्तिक से बोला कि औटो ले कर आए. इन्हें अस्पताल ले जाना होगा.

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औटो ला कर उन दोनों ने मिल कर मम्मी को उठाया और मुझे चिंता न करने की हिदायत दे कर मम्मी को औल इंडिया मैडिकल हौस्पिटल की इमरजैंसी में ले गए. वहां उन्हें डाक्टर ने बताया कि हाइपरटैंशन के कारण इन के नाक से खून बह रहा है. आप सही वक्त पर ले आए ज्यादा देर होने पर कुछ भी हो सकता था. फिर उन्हें 2 इंजैक्शन दिए गए और अधिक खून बहने के कारण खून चढ़वाने को कहा गया. संजय ने ब्लड बैंक जा कर रक्तदान किया तब जा कर मम्मी के लिए उन के ग्रुप का खून मिला. कार्तिक ने ब्लड बैंक से खून ला कर मम्मी को चढ़वाया. सुबह करीब 6 बजे वे दोनों मम्मी को वापस ले कर आए तो मेरी भी जान में जान आई. अब मम्मी ठीक लग रही थीं. संजय ने बताया कि घबराने की बात नहीं है आप आराम से सो जाएं. हम हफ्ते की दवाएं भी ले आए हैं. आज हमारा पेपर है लेकिन रातभर जगे हैं अत: हम भी थोड़ा आराम कर लेते हैं. मम्मी को सलामत पा मैं बहुत खुश थी. मेरे इतना भलाबुरा कहने के बावजूद संजय ने मुझ पर जो उपकार किया उस ने मुझे अपनी ही नजरों में गिरा दिया था. मैं इन्हीं विचारों में खोई बिस्तर पर लेटी थी कि कब सुबह के 8 बज गए पता ही न चला. मैं ने देखा संजय के कमरे का दरवाजा खुला था और वे दोनों घोड़े बेच कर सोए थे.

अचानक मुझे याद आया कि आज तो इन का पेपर है. अत: मैं तेजी से उन के कमरे में गई और उन्हें उठा कर कहा, ‘पेपर देने नहीं जाना क्या?’ हड़बड़ा कर उठते हुए संजय ने घड़ी देखी तो उन की नींद काफूर हो गई. दोनों फटाफट तैयार हो कर बिना खाएपीए ही पेपर देने चल दिए. मैं ने पीछे से आवाज दे कर उन्हें रोका, ‘भैया रुको,’ भैया शब्द सुन कर संजय अजीब नजरों से मुझे देखने लगा. लेकिन मैं ने बिना समय गंवाए उस की कलाई पर वही राखी बांध दी जो वह सुबह लाया था. फिर मैं ने कहा, ‘जल्दी जाओ, कहीं पेपर में देर न हो जाए.’ शाम को जब पापा आए और उन्हें सारी बात पता चली तो उन्होंने जा कर उन्हें धन्यवाद दिया. मैं ने भी पूछा, ‘पेपर कैसा हुआ?’ तो संजय ने हंस कर कहा, ‘‘अच्छा कैसे नहीं होता. बहन की शुभकामनाएं जो साथ थीं.’

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अब मैं और संजय अनमोल रिश्ते में बंध गए थे. जहां बिगर दुरावछिपाव के एकदूसरे के लिए कुछ करने की तमन्ना थी. मेरा अपना तो कोई भाई नहीं था सो मैं संजय को ही भाई मानती. स्कूल से आती तो सीधा उस के पास जाती और बेझिझक उस से कठिन विषयों के बारे में पूछती. कुछ ही दिन में संजय के तरीके से पढ़ने पर मुझे वे विषय भी आसान लगने लगे जो अब तक कठिन लगते थे. घर का कोई सामान लाना हो या अपनी जरूरत का मैं संजय को ही कहती. कभी किसी काम से बाहर जाती तो संजय को साथ ले लेती. वह जैसे मेरा सुरक्षा कवच भी बन गया था. कभीकभी लोग बातें बनाते तो संजय उन को भी बड़े तरीके से हैंडिल करता.

एक बार एक अंकल ने कुछ कह दिया तो संजय बेझिझक उन के पास गया और बताया, ‘यह मेरी मुंहबोली बहन है, गलत न समझें. अगर आप की लड़की अपने भाई के साथ जाती दिखे और लोग गलत समझें तो आप क्या करेंगे.’ उन की बोलती बंद हो गई लेकिन फायदा हमें हुआ, अब गली के लोग हमें सही नजरों से देखने लगे. कुछ दिन बाद मेरा जन्मदिन था. मैं काफी समय से पापा से मोबाइल लेने की जिद कर रही थी, लेकिन हाथ तंग होने के कारण वे नहीं खरीद पा रहे थे. मेरे केक काटते ही संजय ने मुझे केक खिलाया और मेरे हाथ में मेरा मनपसंद तोहफा यानी मोबाइल रख दिया तो मैं इसे पा कर फूली नहीं समाई. उस समय नएनए मोबाइल चले थे. मैं खुश थी कि मैं कालेज जाऊंगी तो मोबाइल के साथ. कुछ दिन बाद उन की प्रतियोगी परीक्षा समाप्त हुई तो पता चला कि वे वापस जाने वाले हैं, यह जान कर मुझे दुख हुआ लेकिन मेरी भी मति मारी गई थी कि मैं ने उन का पता, फोन नंबर कुछ न पूछा. बस यही कहा, ‘भूलना मत इस अनमोल रिश्ते को.’

जिस दिन उन्होंने जाना था उसी दिन मेरी सहेली का बर्थडे था. मैं उस के घर गई हुई थी और पीछे से संजय ने कमरा खाली किया और दोनों केरल रवाना हो गए. वापस आने पर मैं ने पापा से पूछा तो पता चला कि उन्होंने भी उस का पताठिकाना नहीं पूछा था. इस पर मैं पापा से नाराज भी हुई. मैं संजय द्वारा बताए गए परीक्षा के टिप्स अपना कर 12वीं में अव्वल दर्जे से पास हुई और कालेज मोबाइल के साथ गई, जिस में हमारे अनमोल रिश्ते के क्षण छिपे थे. फिर कालेज के साथसाथ जब प्रतियोगी परीक्षाएं देने लगी तो मुझे ज्ञात हुआ कि एनसीईआरटी की किताबें इन में कितनी सहायक होती हैं. तब मुझे अपनी नादानी भरी भूल का भी एहसास हुआ. अब मैं हर साल राखी के सीजन में संजय को मिस करती. जब बाजार में राखियां सजने लगतीं तो मुझे अनबोला भाई याद आ जाता. समय के साथ मोबाइल तकनीक में भी तेजी से बदलाव आया और फोन के टचस्क्रीन और स्मार्टफोन तक के सफर में न जाने कितने ऐप्स भी जुड़े, लेकिन मैं ने अपना नंबर वही रखा जो संजय ने ला कर दिया था, भले मोबाइल बदल लिए. मैं हर बार फेसबुक पर फ्रैंड सर्च में संजय का नाम डालती, लेकिन नतीजा सिफर रहता. कुछ पता चलता तो राखी जरूर भेजती. इस बीच संजय ने भी कोई फोन नहीं किया था. लेकिन अचानक व्हाट्सऐप पर मैसेज देख दंग रह गई. तभी व्हाट्सऐप के मैसेज की टोन बजी और मेरी तंद्रा भंग हुई. संजय ने चैट करते हुए लिखा था, ‘‘नया स्मार्टफोन खरीदा तो पुरानी डायरी में नंबर देख सेव करते हुए जब तुम्हारा नंबर भी सेव किया तो व्हाट्सऐप में तुम्हारा फोटो सहित नंबर सेव हुआ देख मन खुश हो गया.

‘‘फिर फटाफट व्हाट्सऐप पर अपना परिचय दिया. तुम्हें मैं याद हूं न या भूल गई.’’ संजय के शब्दों से मेरी आंखें भर आईं. तुम्हें कैसे भूल सकती हूं निस्वार्थ रिश्ता. अगर तुम न होते तो शायद उस दिन पता नहीं मम्मी के साथ क्या होता. मेरे किशोरावस्था में भटके पांव कौन रोकता. मैं ने फट से मैसेज टाइप किया, ‘‘राखी भेजनी है भैया, फटाफट अपना पता व्हाट्सऐप करो.’’ मिनटों में व्हाट्सऐप पर ही पता भी आ गया और साथ ही  पेटीएम के जरिए राखी का शगुन भी, साथ ही लिखा था, ‘‘इस अनमोल रिश्ते को जिंदगी भर बनाए रखना.’’ मैं ने पढ़ा और अश्रुपूरित नेत्रों से बाजार में राखी पसंद करने चल दी अपने मुंहबोले भाई के लिए.

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फेसबुक पर फाइंड फ्रैंड में नाम डालडाल कर कई बार सर्च किया, लेकिन संजय का कोई पता न चला. ‘पता नहीं फेसबुक पर उस का अकाउंट है भी कि नहीं,’ यह सोच कर मैं ने लौगआउट किया ही था कि स्मार्टफोन पर व्हाट्सऐप की मैसेज ट्यून सुनाई दी. फोन की स्क्रीन पर देखा तो जानापहचाना चेहरा लगा. डबल क्लिक कर फोटो को बड़ा किया तो चेहरा देख दंग रह गई. फिर मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. ‘बिलकुल वैसा ही लगता है संजय जैसा पहले था.’

मैं अपने मातापिता की एकलौती संतान थी और 12वीं में पढ़ती थी. पिताजी रेलवे में टीटीई के पद पर कार्यरत थे. इस कारण अकसर बाहर ही रहते. घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण हम ने डिसाइड किया कि घर का एक कमरा किराए पर दे दिया जाए. बहुत सोचविचार कर पापा ने 2 स्टूडैंट्स जो ग्रैजुएशन करने के बाद आईएएस की तैयारी करने केरल से दिल्ली आए हुए थे, को कमरा किराए पर दे दिया. जब वे हमारे यहां रहने आए तो आपसी परिचय के बाद उन्होंने मुझे कहा, ‘पढ़ाई के सिलसिले में कभी जरूरत हो तो कहिएगा.’

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उन में से एक, जिस का नाम संजय था अकसर मुझ से बातचीत करने को उत्सुक रहता. कभी 10वीं की एनसीईआरटी की किताब मांगता तो कभी मेरे कोर्स की. मुझे उस का इस तरह किताबें मांगना बात करने का बहाना लगता. एक दिन जब वह किताब मांगने आया तो मैं ने उसे बुरी तरह डांट दिया, ‘क्या करोगे 10वीं की किताब का. मुझे सब पता है, यह सब बहाने हैं लड़कियों से बात करने के. मुझ से मेलजोल बढ़ाने की कोशिश न करो. आगे से मत आना किताब मांगने.’ उस ने अपने पक्ष में बहुत दलीलें दीं लेकिन मैं ने नकारते हुए सब खारिज कर दीं. उस दिन मुझे स्कूल से ही अपनी फ्रैंड के घर जाना था. मैं मम्मी को बता भी गई थी, लेकिन जब घर आई तो जैसे सभी मुझे शक की निगाह से देखने लगे.

बस्ता रखा ही था कि मम्मी पूछने लगीं, ‘आज तुम रमेश के साथ क्या कर रही थीं?’

‘रमेश,’ मैं समझ गई कि यह आग संजय की लगाई हुई है. मैं ने जैसेतैसे मम्मी को समझाया, लेकिन संजय से बदला लेने उसी के रूम में चली गई. ‘तुम होते कौन हो मेरे मामले में टांग अड़ाने वाले. मैं चाहे किसी के साथ जाऊं, घूमूंफिरूं तुम्हें क्या. तुम किराएदार हो, किराया दो और चुपचाप रहो. आइंदा मेरे बारे में मां से बात करने की कोई जरूरत नहीं, समझे,’ मैं संजय को कह कर बाहर निकल गई. दरअसल, रमेश मेरी कक्षा में पढ़ता था. अच्छी पर्सनैलिटी होने के कारण सभी लड़कियां उस से दोस्ती करना चाहती थीं. मेरे दिल में भी उस के लिए प्यार था और मैं उसे चाहती थी. सो फ्रैंड के घर जाते समय उसी ने मुझे ड्रौप किया था, लेकिन संजय ने मुझे उस के साथ जाते हुए देख लिया था.

थोड़ी देर बाहर घूम कर आई तो संजय मम्मी के पास बैठा दिखा. मुझे उसे देखते ही गुस्सा आ गया, लेकिन मेरे आते ही वह उठ कर चला गया. बाद में मम्मी ने मुझे समझाया,  ‘संजय ने मुझे उस लड़के के बारे में बताया है. वह लड़कियों से फ्लर्ट करता है. उस का तुम्हारे स्कूल की 11वीं में पढ़ने वाली रंजना से भी संबंध है. तुम उस से ज्यादा दोस्ती न ही बढ़ाओ तो ठीक है.’ ‘ठीक है मां,’ मैं ने उन्हें कह दिया, लेकिन संजय पर बिफर पड़ी, ‘अब तुम मेरी जासूसी भी करने लगे. मैं किस से मिलती हूं, कहां जाती हूं इस से तुम्हें क्या?’

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इस पर वह चुप ही रहा. शाम को मुझे मैथ्स का एक सवाल समझ नहीं आ रहा था तो मैं ने संजय से ही पूछा. उस ने भी बिना हिचक मुझे समझा दिया, लेकिन ज्यों ही वह सुबह की बात छेड़ने लगा मैं ने फिर डांट दिया, ‘मेरी जासूसी करने की जरूरत नहीं. रमेश को मैं जानती हूं वह अच्छा लड़का है और बड़ी बात है कि मैं उसे चाहती हूं. तुम अपने काम से काम रखो.’ कुछ दिन बाद मैं स्कूल पहुंची तो हैरान रह गई. स्कूल में पुलिस आई हुई थी. पता चला कि रमेश और रंजना घर से भाग गए हैं. अभी तक उन का कुछ पता नहीं चला. पुलिस ने पूछताछ वाले लोगोें में मेरा नाम भी लिख लिया व मुझे थाने आने को कहा. पापा दौरे पर गए हुए थे सो मम्मी ने और कोई सहारा न देख संजय से बात की. फिर न चाहते हुए भी मैं संजय के साथ थाने गई. वहां इंस्पैक्टर ने जो पूछा बता दिया. संजय ने इंस्पैक्टर से मेरी तारीफ की. रमेश से सिर्फ क्लासफैलो होने का नाता बताया और ऐसे बात की जैसे मेरा बड़ा भाई मुझे बचा रहा हो. उस की बातचीत से इंप्रैस हो इंस्पैक्टर ने उस केस से मेरा नाम भी हटा दिया. घर आए तो संजय ने मुझे समझाया, ‘ऐसे लड़कों से दूर ही रहो तो अच्छा है. वैसे भी अभी तुम्हारी उम्र पढ़ने की है. पढ़लिख कर कुछ बन जाओ तब बनाना ऐसे रिश्ते. तब तुम्हें इन की समझ भी होगी,’ साथ ही उस ने मुझे दलील भी दी, ‘‘मैं तुम्हारे भाई जैसा हूं तुम्हारे भले के लिए ही कहूंगा.’’

दरअसल, गुस्सा तो मुझे खुद पर था कि मैं रमेश को समझ न पाई और मुझे प्यार में धोखा हुआ, लेकिन खीज संजय पर निकल गई. मेरी इस बात का संजय पर गहरा असर हुआ. राखी का त्योहार नजदीक था सो शाम को आते समय संजय राखी ले आया और मम्मी के सामने मुझ से रमेश के बारे में बताने व समझाने के लिए क्षमा मांगता हुआ राखी बांध कर भाई बनाने की पेशकश कर खुद को सही साबित करने लगा. मैं कहां मानने वाली थी. मैं पैर पटकती हुई बाहर निकल गई. उस ने राखी वहीं टेबल पर रख दी. पापा अगले दिन जम्मू से लौटने वाले थे. मैं और मम्मी घर में अकेली थीं. रात के लगभग 12 बजे थे कि अचानक मुझे आवाज मारती हुई मम्मी उठ बैठीं.

मैं भी हड़बड़ा कर उठी और देखा कि मम्मी की नाक से खून बह रहा था. मैं कुछ समझ न पाई, बस जल्दी से दराज से रूई निकाल कर नाक में ठूंस दी और खून बंद करने की कोशिश करने लगी. इधरउधर देखा, कुछ समझ न आया कि क्या करूं. लेकिन अचानक संजय के कमरे की बत्ती जलती देखी. कल उन का ऐग्जाम होने के कारण वे दोनों काफी देर तक पढ़ रहे थे. तभी मम्मी बेसुध हो कर गिर पड़ीं. मैं ने उन्हें गिरते देखा तो मेरी चीख निकल गई, ‘मम्मी…’ मेरी चीख सुनते ही संजय के कमरे का दरवाजा खुला. सारी स्थिति भांपते हुए संजय बोला, ‘आप घबराइए नहीं, हम देखते हैं,’ फिर अपने दोस्त कार्तिक से बोला कि औटो ले कर आए. इन्हें अस्पताल ले जाना होगा.

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औटो ला कर उन दोनों ने मिल कर मम्मी को उठाया और मुझे चिंता न करने की हिदायत दे कर मम्मी को औल इंडिया मैडिकल हौस्पिटल की इमरजैंसी में ले गए. वहां उन्हें डाक्टर ने बताया कि हाइपरटैंशन के कारण इन के नाक से खून बह रहा है. आप सही वक्त पर ले आए ज्यादा देर होने पर कुछ भी हो सकता था. फिर उन्हें 2 इंजैक्शन दिए गए और अधिक खून बहने के कारण खून चढ़वाने को कहा गया. संजय ने ब्लड बैंक जा कर रक्तदान किया तब जा कर मम्मी के लिए उन के ग्रुप का खून मिला. कार्तिक ने ब्लड बैंक से खून ला कर मम्मी को चढ़वाया. सुबह करीब 6 बजे वे दोनों मम्मी को वापस ले कर आए तो मेरी भी जान में जान आई. अब मम्मी ठीक लग रही थीं. संजय ने बताया कि घबराने की बात नहीं है आप आराम से सो जाएं. हम हफ्ते की दवाएं भी ले आए हैं. आज हमारा पेपर है लेकिन रातभर जगे हैं अत: हम भी थोड़ा आराम कर लेते हैं. मम्मी को सलामत पा मैं बहुत खुश थी. मेरे इतना भलाबुरा कहने के बावजूद संजय ने मुझ पर जो उपकार किया उस ने मुझे अपनी ही नजरों में गिरा दिया था. मैं इन्हीं विचारों में खोई बिस्तर पर लेटी थी कि कब सुबह के 8 बज गए पता ही न चला. मैं ने देखा संजय के कमरे का दरवाजा खुला था और वे दोनों घोड़े बेच कर सोए थे.

अचानक मुझे याद आया कि आज तो इन का पेपर है. अत: मैं तेजी से उन के कमरे में गई और उन्हें उठा कर कहा, ‘पेपर देने नहीं जाना क्या?’ हड़बड़ा कर उठते हुए संजय ने घड़ी देखी तो उन की नींद काफूर हो गई. दोनों फटाफट तैयार हो कर बिना खाएपीए ही पेपर देने चल दिए. मैं ने पीछे से आवाज दे कर उन्हें रोका, ‘भैया रुको,’ भैया शब्द सुन कर संजय अजीब नजरों से मुझे देखने लगा. लेकिन मैं ने बिना समय गंवाए उस की कलाई पर वही राखी बांध दी जो वह सुबह लाया था. फिर मैं ने कहा, ‘जल्दी जाओ, कहीं पेपर में देर न हो जाए.’ शाम को जब पापा आए और उन्हें सारी बात पता चली तो उन्होंने जा कर उन्हें धन्यवाद दिया. मैं ने भी पूछा, ‘पेपर कैसा हुआ?’ तो संजय ने हंस कर कहा, ‘‘अच्छा कैसे नहीं होता. बहन की शुभकामनाएं जो साथ थीं.’

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अब मैं और संजय अनमोल रिश्ते में बंध गए थे. जहां बिगर दुरावछिपाव के एकदूसरे के लिए कुछ करने की तमन्ना थी. मेरा अपना तो कोई भाई नहीं था सो मैं संजय को ही भाई मानती. स्कूल से आती तो सीधा उस के पास जाती और बेझिझक उस से कठिन विषयों के बारे में पूछती. कुछ ही दिन में संजय के तरीके से पढ़ने पर मुझे वे विषय भी आसान लगने लगे जो अब तक कठिन लगते थे. घर का कोई सामान लाना हो या अपनी जरूरत का मैं संजय को ही कहती. कभी किसी काम से बाहर जाती तो संजय को साथ ले लेती. वह जैसे मेरा सुरक्षा कवच भी बन गया था. कभीकभी लोग बातें बनाते तो संजय उन को भी बड़े तरीके से हैंडिल करता.

एक बार एक अंकल ने कुछ कह दिया तो संजय बेझिझक उन के पास गया और बताया, ‘यह मेरी मुंहबोली बहन है, गलत न समझें. अगर आप की लड़की अपने भाई के साथ जाती दिखे और लोग गलत समझें तो आप क्या करेंगे.’ उन की बोलती बंद हो गई लेकिन फायदा हमें हुआ, अब गली के लोग हमें सही नजरों से देखने लगे. कुछ दिन बाद मेरा जन्मदिन था. मैं काफी समय से पापा से मोबाइल लेने की जिद कर रही थी, लेकिन हाथ तंग होने के कारण वे नहीं खरीद पा रहे थे. मेरे केक काटते ही संजय ने मुझे केक खिलाया और मेरे हाथ में मेरा मनपसंद तोहफा यानी मोबाइल रख दिया तो मैं इसे पा कर फूली नहीं समाई. उस समय नएनए मोबाइल चले थे. मैं खुश थी कि मैं कालेज जाऊंगी तो मोबाइल के साथ. कुछ दिन बाद उन की प्रतियोगी परीक्षा समाप्त हुई तो पता चला कि वे वापस जाने वाले हैं, यह जान कर मुझे दुख हुआ लेकिन मेरी भी मति मारी गई थी कि मैं ने उन का पता, फोन नंबर कुछ न पूछा. बस यही कहा, ‘भूलना मत इस अनमोल रिश्ते को.’

जिस दिन उन्होंने जाना था उसी दिन मेरी सहेली का बर्थडे था. मैं उस के घर गई हुई थी और पीछे से संजय ने कमरा खाली किया और दोनों केरल रवाना हो गए. वापस आने पर मैं ने पापा से पूछा तो पता चला कि उन्होंने भी उस का पताठिकाना नहीं पूछा था. इस पर मैं पापा से नाराज भी हुई. मैं संजय द्वारा बताए गए परीक्षा के टिप्स अपना कर 12वीं में अव्वल दर्जे से पास हुई और कालेज मोबाइल के साथ गई, जिस में हमारे अनमोल रिश्ते के क्षण छिपे थे. फिर कालेज के साथसाथ जब प्रतियोगी परीक्षाएं देने लगी तो मुझे ज्ञात हुआ कि एनसीईआरटी की किताबें इन में कितनी सहायक होती हैं. तब मुझे अपनी नादानी भरी भूल का भी एहसास हुआ. अब मैं हर साल राखी के सीजन में संजय को मिस करती. जब बाजार में राखियां सजने लगतीं तो मुझे अनबोला भाई याद आ जाता. समय के साथ मोबाइल तकनीक में भी तेजी से बदलाव आया और फोन के टचस्क्रीन और स्मार्टफोन तक के सफर में न जाने कितने ऐप्स भी जुड़े, लेकिन मैं ने अपना नंबर वही रखा जो संजय ने ला कर दिया था, भले मोबाइल बदल लिए. मैं हर बार फेसबुक पर फ्रैंड सर्च में संजय का नाम डालती, लेकिन नतीजा सिफर रहता. कुछ पता चलता तो राखी जरूर भेजती. इस बीच संजय ने भी कोई फोन नहीं किया था. लेकिन अचानक व्हाट्सऐप पर मैसेज देख दंग रह गई. तभी व्हाट्सऐप के मैसेज की टोन बजी और मेरी तंद्रा भंग हुई. संजय ने चैट करते हुए लिखा था, ‘‘नया स्मार्टफोन खरीदा तो पुरानी डायरी में नंबर देख सेव करते हुए जब तुम्हारा नंबर भी सेव किया तो व्हाट्सऐप में तुम्हारा फोटो सहित नंबर सेव हुआ देख मन खुश हो गया.

‘‘फिर फटाफट व्हाट्सऐप पर अपना परिचय दिया. तुम्हें मैं याद हूं न या भूल गई.’’ संजय के शब्दों से मेरी आंखें भर आईं. तुम्हें कैसे भूल सकती हूं निस्वार्थ रिश्ता. अगर तुम न होते तो शायद उस दिन पता नहीं मम्मी के साथ क्या होता. मेरे किशोरावस्था में भटके पांव कौन रोकता. मैं ने फट से मैसेज टाइप किया, ‘‘राखी भेजनी है भैया, फटाफट अपना पता व्हाट्सऐप करो.’’ मिनटों में व्हाट्सऐप पर ही पता भी आ गया और साथ ही  पेटीएम के जरिए राखी का शगुन भी, साथ ही लिखा था, ‘‘इस अनमोल रिश्ते को जिंदगी भर बनाए रखना.’’ मैं ने पढ़ा और अश्रुपूरित नेत्रों से बाजार में राखी पसंद करने चल दी अपने मुंहबोले भाई के लिए.

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August 01, 2020 at 10:00AM

सुवीरा-भाग 2: सुवीरा के जीवन में किस चीज की कमी थी?

‘‘अरे, मेरा हिसाब कभी गलत नहीं होता. जीएम की पोस्ट तक ऐसे ही नहीं पहुंचा मैं.’’

‘‘तुम्हारी लाइफ में हिसाबकिताब लगाने या अपनी पोस्ट के रोब में रहने के अलावा भी कुछ बचा है क्या?’’

‘‘हां, बचा है न,’’ यह कहते हुए विनोद सुवीरा के चेहरे की ओर झुकता चला गया. एक हफ्ते बाद विनोद 15 दिन के लिए आस्ट्रेलिया चला गया. महेश सुबह 10 बजे जा कर शाम 6 बजे आता. सुवीरा उसे चाय, फिर डिनर ऊपर भिजवा देती. सिद्धि, समृद्धि को जब भी कुछ पूछना होता, वे उसे नीचे से ही आवाज देतीं, ‘‘अंकल, कुछ पूछना है, नीचे आइए न.’’ महेश मुसकराता हुआ आता और वहीं ड्राइंगरूम में उन्हें पढ़ाने लगता. सुवीरा को महेश का सरल स्वभाव अच्छा लगता. न बड़ीबड़ी बातें, न दूसरों को छोटा समझने वाली सोच. एक सरल, सहज, आकर्षक पुरुष. बराबर वाला घर सीमा का ही था. सीमा, उस का पति रंजन और उन का 14 वर्षीय बेटा विपुल भी महेश से मिल चुके थे. विपुल भी अकसर शाम को महेश से मैथ्स पढ़ने चला आता था. इतवार को भी महेश कोचिंग इंस्टिट्यूट जाता था. उस दिन उस की क्लास ज्यादा लंबी चलती थी. एक इतवार को सिद्धि, समृद्धि किसी बर्थडे पार्टी में गई हुई थीं. सुवीरा डिनर करने बैठी ही थी, इतने में बाइक रुकने की आवाज आई. महेश आया, पूछा, ‘‘सिद्धि,समृद्धि कहां है? बड़ा सन्नाटा है.’’

‘‘बर्थडे पार्टी में गई हैं.’’

‘‘आप अच्छे समय पर आए, मैं बस खाना खाने बैठी ही थी, आप का खाना भी लगा देती हूं.’’

‘‘महेश ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आप अकेली हैं, आप को डिनर में कंपनी दूं?’’

‘‘अरे, आइए न, बैठिए.’’

‘‘अभी फ्रैश हो कर आता हूं.’’

दोनों ने खाना शुरू किया. कहां तो पलभर पहले सुवीरा सोच रही थी कि महेश से वह क्या बात करेगी और कहां अब बातें थीं कि खत्म ही नहीं हो रही थीं. एक नए अनोखे एहसास से भर उठी वह. ध्यान से महेश को देखा, पुरुषोचित सौंदर्य, आकर्षक मुसकराहट, बेहद सरल स्वभाव. महेश ने खंखारा, ‘‘बोर हो गईं क्या?’’

हंस पड़ी सुवीरा, बोली, ‘‘नहींनहीं, ’’ ऐसी बात नहीं. सुवीरा हंसी तो महेश उसे देखता ही रह गया. 2 बेटियों की मां, इतनी खूबसूरत हंसी, इतना आकर्षक चेहरा, बोला, ‘‘इस तरह हंसते हुए आप को आज देखा है मैं ने, आप इतनी सीरियस क्यों रहती हैं?’’ सुवीरा ने दिल में कहा, किस से हंसे, किस से बातें करे, उस की बात सुनने वाला इस घर में है कौन, बेटियां स्कूल, फोन, नैट, दोस्तों में व्यस्त हैं, विनोद की बात करना ही बेकार है. महेश ने उसे विचारों में खोया देख टोका, ‘‘सौरी, मैं ने आप को सीरियस कर दिया?’’

‘‘नो, इट्स ओके,’’ कह कर सुवीरा ने मुसकराने की कोशिश की लेकिन आंखों की उदासी महेश से छिपी न रही.

महेश ने कहा, ‘‘आप बहुत सुंदर हैं तन से और मन से भी.’’ उस की आंखों में प्रशंसा थी और वह प्रशंसा उस के शरीर को जितना पिघलाने लगी उस का मन उतना ही घबराने लगा. सुवीरा हैरान थी, कोई उस के बारे में भी इतनी देर बात कर सकता है. महेश ने अपनी प्लेट उठा कर रसोई में रखी. सुवीरा के मना करने पर भी टेबल साफ करवाने में उस का हाथ बंटाया. फिर गुडनाइट कह कर ऊपर चला गया. इस मुलाकात के बाद औपचारिकताएं खत्म सी हो गई थीं. धीरेधीरे सुवीरा के दिल में एक खाली कोने को महेश के साथ ने भर दिया. अब उसे महेश का इंतजार सा रहने लगा. वह लाख दिल को समझाती कि अब किसी और का खयाल गुनाह है मगर दिल क्या बातें समझ लेता है? उस में जो समा जाए वह जरा मुश्किल से ही निकलता है. विनोद आ गया, घर की हवा में उसे कुछ बदलाव सा लगा. लेकिन बदले माहौल पर ध्यान देने का कुछ खास समय भी नहीं था उस के पास. विनोद के औफिस जाने का रुटीन शुरू हो गया. वह कार से 8 बजे दादर के लिए निकल जाता था. आने का कोई टाइम नहीं था. सुवीरा ने अब कुछ कहना छोड़ दिया था.

एक दिन विनोद ने हंसीमुसकराती सुवीरा से कहा, ‘‘अब तुम समझदार हो गई हो. अब तुम ने मेरी व्यस्तता के हिसाब से खुद को समझा ही लिया.’’ सुवीरा बस उसे देखती रही थी. बोली कुछ नहीं. क्या कहती, एक पराए पुरुष ने उसे बदल दिया है, एक पराए पुरुष की ओर उस का मन खिंचता चला जा रहा है. महेश के शालीन व्यवहार और अपनेपन के आगे वह दीवानी होती जा रही थी. 15 दिन रह कर विनोद एक हफ्ते के लिए दिल्ली चला गया. अब तक सुवीरा और महेश दोनों ही एकदूसरे के प्रति अपना लगाव महसूस कर चुके थे. एक दिन सिद्धि, सम़ृद्धि स्कूल जा चुकी थीं. सुवीरा को अपनी तबीयत कुछ ढीली सी लगी, वह अपने बैडरूम में जा कर आराम करने लगी. महेश को देखने का उस का मन था लेकिन उस से उठा नहीं गया.

महेश को भी जब वह दिखाई नहीं दी तो वह उसे ढूंढ़ता हुआ दरवाजे पर दस्तक दे कर अंदर आ गया. वह संकोच से भर उठी. कोई परपुरुष पहली बार उस के बैडरूम में आया था. उस ने उठने की कोशिश की लेकिन महेश ने उस के कंधे पर हाथ रख कर उसे लिटा दिया. महेश के स्पर्श ने उसे एक अजीब सी अनुभूति से भर दिया. उस के गाल लाल हो गए. महेश ने पूछा,‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, बस ऐसे ही.’’

महेश ने उस के माथे को छू कर कहा, ‘‘बुखार तो नहीं है, सिरदर्द है?’’ सुवीरा ने ‘हां’ में गरदन हिलाई तो महेश वहीं बैड पर बैठ कर अपने हाथ से उस का सिर दबाने लगा. सुवीरा ने मना करने के लिए मुंह खोला तो महेश ने दूसरा हाथ उस के होंठों पर रख कर उसे कुछ बोलने से रोक दिया. सुवीरा तो जैसे किसी और दुनिया में खोने लगी. कोई उसे ऐसे प्यार से सहेजे, संभाले कि छूते ही तनमन की तकलीफ कम होती लगे. उसे तो याद ही नहीं आया कि विनोद के स्पर्श से ऐसा कभी हुआ हो. इस स्पर्श में कितना रस कितना सुख, कितना रोमांच कितनी मादकता थी. उस के हलके गरम माथे पर महेश के हाथ की ठंडक देती छुअन. सुवीरा की आंखें बंद हो गईं. महेश का हाथ अब माथे से सरक कर उस के गाल सहला रहा था, सुवीरा ने अपनी आंखें नहीं खोलीं. महेश उसे अपलक देखता रहा. फिर खुद को रोक नहीं पाया और उस के माथे पर पहला चुंबन अंकित कर दिया. सुवीरा यह सब रोक देना चाहती थी. लेकिन वह आंख बंद किए लेटी रही. महेश धीरेधीरे उस के करीब आता गया. जब महेश उस की तरफ झुका तो सुवीरा ने अचानक अपनी आंखें खोलीं तो दोनों की नजरें मिलते ही बिना बोले बहुतकुछ कहासुना गया. वह कसमसा उठी. शरीर का अपना संगीत, अपना राग होता है.

महेश ने जब उस के शरीर को छुआ तो उस के अंदर एक झंकार सी पैदा हुई और वह उस की बांहों में खोती चली गई. महेश ने उस के होंठों को चूमा तो मिश्री की तरह कुछ मीठामीठा, उस के होंठों तक आया. उस स्पर्श में कुछ तो था. वह ‘नहीं’ कर ही नहीं पाई. दोनों एकदूसरे में खोते चले गए. कुछ देर बाद अपने अस्तव्यस्त कपड़े संभाल कर महेश ने प्यार से पूछा, ‘‘मुझ से नाराज तो नहीं हो?’’ सुवीरा ने शरमा कर ‘न’ में गरदन हिला दी. महेश ने कहा, ‘‘मैं अभी जाऊं? मेरी क्लास है.’’ सुवीरा के गाल पर किस कर के महेश चला गया. सुवीरा फिर लेट गई. पूरा शरीर एक अलग ही एहसास से भरा था. कहां विनोद के मशीनी तौरतरीके, कहां महेश का इतना प्यार व भावनाओं से भरा स्पर्श, हर स्पर्श में चाहत ही चाहत. वह हैरान थी, उसे अपराधबोध क्यों नहीं हो रहा है. क्या वह इतने सालों से विनोद के अतिव्यावहारिक स्वभाव, अतिव्यस्त दिनचर्या से सचमुच थक चुकी है, क्या विनोद कभी उस के दिल तक पहुंचा ही नहीं था. वह, बस, अब अपने लिए सोचेगी. वह एक पत्नी है, मां है तो क्या हुआ, वह एक औरत भी तो है.

अगले दिन सिद्धि, समृद्धि स्कूल चली गईं. महेश तैयार हो कर नीचे आया. सुवीरा ने उसे प्यार से देखा, कहा कुछ नहीं. महेश ने उस का हाथ खींच कर उसे अपने सीने से लगा लिया. दोनों एकदूसरे की बांहों में बंधे चुपचाप खड़े रहे. फिर महेश ने उसे होंठों पर किस कर के उसे बांहों में उठा लिया और बैडरूम की तरफ चल दिया. सुवीरा ने कोई प्रतिरोध नहीं किया. सुवीरा को लगा, उस का मन सूखे पड़े जीवन के लिए मांग रहा था थोड़ा पानी और अचानक बिना मांगे ही सुख की मूसलाधार बारिश मिल गई. महेश के साथ बने संबंधों ने जैसे सुवीरा को नया जीवन दे दिया. उस का रोमरोम पुलकित हो उठा.  फोन पर तो विनोद दिन में एक बार सुवीरा और बच्चों के हालचाल लेता था. वह भी ऐसे नपेतुले सवालजवाब होते, कैसी हो? ठीक, तुम कैसे हो? ठीक, बच्चे कैसे हैं? ठीक, चलो, फिर बात करता हूं ठीक है, बाय. इतनी ही बातचीत अकसर होती थी. सुवीरा को लगता कि उन के पास बात करने के लिए क्या कुछ नहीं बचा? लेकिन महेश, वह कैसे बातें करता है, उस की सुनता है. विनोद को तो जब भी वह किसी के बारे में बताने लगती है, वह कह देता है, अरे छोड़ो, किसी की बात क्या सुनूं. उसे तो किसी की बात न कहनी होती है न सुननी होती है. वह बस अपने में जीता है. पैसा हाथ पर रख देने से ही तो पति का कर्तव्य पूरा नहीं हो जाता.

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‘‘अरे, मेरा हिसाब कभी गलत नहीं होता. जीएम की पोस्ट तक ऐसे ही नहीं पहुंचा मैं.’’

‘‘तुम्हारी लाइफ में हिसाबकिताब लगाने या अपनी पोस्ट के रोब में रहने के अलावा भी कुछ बचा है क्या?’’

‘‘हां, बचा है न,’’ यह कहते हुए विनोद सुवीरा के चेहरे की ओर झुकता चला गया. एक हफ्ते बाद विनोद 15 दिन के लिए आस्ट्रेलिया चला गया. महेश सुबह 10 बजे जा कर शाम 6 बजे आता. सुवीरा उसे चाय, फिर डिनर ऊपर भिजवा देती. सिद्धि, समृद्धि को जब भी कुछ पूछना होता, वे उसे नीचे से ही आवाज देतीं, ‘‘अंकल, कुछ पूछना है, नीचे आइए न.’’ महेश मुसकराता हुआ आता और वहीं ड्राइंगरूम में उन्हें पढ़ाने लगता. सुवीरा को महेश का सरल स्वभाव अच्छा लगता. न बड़ीबड़ी बातें, न दूसरों को छोटा समझने वाली सोच. एक सरल, सहज, आकर्षक पुरुष. बराबर वाला घर सीमा का ही था. सीमा, उस का पति रंजन और उन का 14 वर्षीय बेटा विपुल भी महेश से मिल चुके थे. विपुल भी अकसर शाम को महेश से मैथ्स पढ़ने चला आता था. इतवार को भी महेश कोचिंग इंस्टिट्यूट जाता था. उस दिन उस की क्लास ज्यादा लंबी चलती थी. एक इतवार को सिद्धि, समृद्धि किसी बर्थडे पार्टी में गई हुई थीं. सुवीरा डिनर करने बैठी ही थी, इतने में बाइक रुकने की आवाज आई. महेश आया, पूछा, ‘‘सिद्धि,समृद्धि कहां है? बड़ा सन्नाटा है.’’

‘‘बर्थडे पार्टी में गई हैं.’’

‘‘आप अच्छे समय पर आए, मैं बस खाना खाने बैठी ही थी, आप का खाना भी लगा देती हूं.’’

‘‘महेश ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आप अकेली हैं, आप को डिनर में कंपनी दूं?’’

‘‘अरे, आइए न, बैठिए.’’

‘‘अभी फ्रैश हो कर आता हूं.’’

दोनों ने खाना शुरू किया. कहां तो पलभर पहले सुवीरा सोच रही थी कि महेश से वह क्या बात करेगी और कहां अब बातें थीं कि खत्म ही नहीं हो रही थीं. एक नए अनोखे एहसास से भर उठी वह. ध्यान से महेश को देखा, पुरुषोचित सौंदर्य, आकर्षक मुसकराहट, बेहद सरल स्वभाव. महेश ने खंखारा, ‘‘बोर हो गईं क्या?’’

हंस पड़ी सुवीरा, बोली, ‘‘नहींनहीं, ’’ ऐसी बात नहीं. सुवीरा हंसी तो महेश उसे देखता ही रह गया. 2 बेटियों की मां, इतनी खूबसूरत हंसी, इतना आकर्षक चेहरा, बोला, ‘‘इस तरह हंसते हुए आप को आज देखा है मैं ने, आप इतनी सीरियस क्यों रहती हैं?’’ सुवीरा ने दिल में कहा, किस से हंसे, किस से बातें करे, उस की बात सुनने वाला इस घर में है कौन, बेटियां स्कूल, फोन, नैट, दोस्तों में व्यस्त हैं, विनोद की बात करना ही बेकार है. महेश ने उसे विचारों में खोया देख टोका, ‘‘सौरी, मैं ने आप को सीरियस कर दिया?’’

‘‘नो, इट्स ओके,’’ कह कर सुवीरा ने मुसकराने की कोशिश की लेकिन आंखों की उदासी महेश से छिपी न रही.

महेश ने कहा, ‘‘आप बहुत सुंदर हैं तन से और मन से भी.’’ उस की आंखों में प्रशंसा थी और वह प्रशंसा उस के शरीर को जितना पिघलाने लगी उस का मन उतना ही घबराने लगा. सुवीरा हैरान थी, कोई उस के बारे में भी इतनी देर बात कर सकता है. महेश ने अपनी प्लेट उठा कर रसोई में रखी. सुवीरा के मना करने पर भी टेबल साफ करवाने में उस का हाथ बंटाया. फिर गुडनाइट कह कर ऊपर चला गया. इस मुलाकात के बाद औपचारिकताएं खत्म सी हो गई थीं. धीरेधीरे सुवीरा के दिल में एक खाली कोने को महेश के साथ ने भर दिया. अब उसे महेश का इंतजार सा रहने लगा. वह लाख दिल को समझाती कि अब किसी और का खयाल गुनाह है मगर दिल क्या बातें समझ लेता है? उस में जो समा जाए वह जरा मुश्किल से ही निकलता है. विनोद आ गया, घर की हवा में उसे कुछ बदलाव सा लगा. लेकिन बदले माहौल पर ध्यान देने का कुछ खास समय भी नहीं था उस के पास. विनोद के औफिस जाने का रुटीन शुरू हो गया. वह कार से 8 बजे दादर के लिए निकल जाता था. आने का कोई टाइम नहीं था. सुवीरा ने अब कुछ कहना छोड़ दिया था.

एक दिन विनोद ने हंसीमुसकराती सुवीरा से कहा, ‘‘अब तुम समझदार हो गई हो. अब तुम ने मेरी व्यस्तता के हिसाब से खुद को समझा ही लिया.’’ सुवीरा बस उसे देखती रही थी. बोली कुछ नहीं. क्या कहती, एक पराए पुरुष ने उसे बदल दिया है, एक पराए पुरुष की ओर उस का मन खिंचता चला जा रहा है. महेश के शालीन व्यवहार और अपनेपन के आगे वह दीवानी होती जा रही थी. 15 दिन रह कर विनोद एक हफ्ते के लिए दिल्ली चला गया. अब तक सुवीरा और महेश दोनों ही एकदूसरे के प्रति अपना लगाव महसूस कर चुके थे. एक दिन सिद्धि, सम़ृद्धि स्कूल जा चुकी थीं. सुवीरा को अपनी तबीयत कुछ ढीली सी लगी, वह अपने बैडरूम में जा कर आराम करने लगी. महेश को देखने का उस का मन था लेकिन उस से उठा नहीं गया.

महेश को भी जब वह दिखाई नहीं दी तो वह उसे ढूंढ़ता हुआ दरवाजे पर दस्तक दे कर अंदर आ गया. वह संकोच से भर उठी. कोई परपुरुष पहली बार उस के बैडरूम में आया था. उस ने उठने की कोशिश की लेकिन महेश ने उस के कंधे पर हाथ रख कर उसे लिटा दिया. महेश के स्पर्श ने उसे एक अजीब सी अनुभूति से भर दिया. उस के गाल लाल हो गए. महेश ने पूछा,‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, बस ऐसे ही.’’

महेश ने उस के माथे को छू कर कहा, ‘‘बुखार तो नहीं है, सिरदर्द है?’’ सुवीरा ने ‘हां’ में गरदन हिलाई तो महेश वहीं बैड पर बैठ कर अपने हाथ से उस का सिर दबाने लगा. सुवीरा ने मना करने के लिए मुंह खोला तो महेश ने दूसरा हाथ उस के होंठों पर रख कर उसे कुछ बोलने से रोक दिया. सुवीरा तो जैसे किसी और दुनिया में खोने लगी. कोई उसे ऐसे प्यार से सहेजे, संभाले कि छूते ही तनमन की तकलीफ कम होती लगे. उसे तो याद ही नहीं आया कि विनोद के स्पर्श से ऐसा कभी हुआ हो. इस स्पर्श में कितना रस कितना सुख, कितना रोमांच कितनी मादकता थी. उस के हलके गरम माथे पर महेश के हाथ की ठंडक देती छुअन. सुवीरा की आंखें बंद हो गईं. महेश का हाथ अब माथे से सरक कर उस के गाल सहला रहा था, सुवीरा ने अपनी आंखें नहीं खोलीं. महेश उसे अपलक देखता रहा. फिर खुद को रोक नहीं पाया और उस के माथे पर पहला चुंबन अंकित कर दिया. सुवीरा यह सब रोक देना चाहती थी. लेकिन वह आंख बंद किए लेटी रही. महेश धीरेधीरे उस के करीब आता गया. जब महेश उस की तरफ झुका तो सुवीरा ने अचानक अपनी आंखें खोलीं तो दोनों की नजरें मिलते ही बिना बोले बहुतकुछ कहासुना गया. वह कसमसा उठी. शरीर का अपना संगीत, अपना राग होता है.

महेश ने जब उस के शरीर को छुआ तो उस के अंदर एक झंकार सी पैदा हुई और वह उस की बांहों में खोती चली गई. महेश ने उस के होंठों को चूमा तो मिश्री की तरह कुछ मीठामीठा, उस के होंठों तक आया. उस स्पर्श में कुछ तो था. वह ‘नहीं’ कर ही नहीं पाई. दोनों एकदूसरे में खोते चले गए. कुछ देर बाद अपने अस्तव्यस्त कपड़े संभाल कर महेश ने प्यार से पूछा, ‘‘मुझ से नाराज तो नहीं हो?’’ सुवीरा ने शरमा कर ‘न’ में गरदन हिला दी. महेश ने कहा, ‘‘मैं अभी जाऊं? मेरी क्लास है.’’ सुवीरा के गाल पर किस कर के महेश चला गया. सुवीरा फिर लेट गई. पूरा शरीर एक अलग ही एहसास से भरा था. कहां विनोद के मशीनी तौरतरीके, कहां महेश का इतना प्यार व भावनाओं से भरा स्पर्श, हर स्पर्श में चाहत ही चाहत. वह हैरान थी, उसे अपराधबोध क्यों नहीं हो रहा है. क्या वह इतने सालों से विनोद के अतिव्यावहारिक स्वभाव, अतिव्यस्त दिनचर्या से सचमुच थक चुकी है, क्या विनोद कभी उस के दिल तक पहुंचा ही नहीं था. वह, बस, अब अपने लिए सोचेगी. वह एक पत्नी है, मां है तो क्या हुआ, वह एक औरत भी तो है.

अगले दिन सिद्धि, समृद्धि स्कूल चली गईं. महेश तैयार हो कर नीचे आया. सुवीरा ने उसे प्यार से देखा, कहा कुछ नहीं. महेश ने उस का हाथ खींच कर उसे अपने सीने से लगा लिया. दोनों एकदूसरे की बांहों में बंधे चुपचाप खड़े रहे. फिर महेश ने उसे होंठों पर किस कर के उसे बांहों में उठा लिया और बैडरूम की तरफ चल दिया. सुवीरा ने कोई प्रतिरोध नहीं किया. सुवीरा को लगा, उस का मन सूखे पड़े जीवन के लिए मांग रहा था थोड़ा पानी और अचानक बिना मांगे ही सुख की मूसलाधार बारिश मिल गई. महेश के साथ बने संबंधों ने जैसे सुवीरा को नया जीवन दे दिया. उस का रोमरोम पुलकित हो उठा.  फोन पर तो विनोद दिन में एक बार सुवीरा और बच्चों के हालचाल लेता था. वह भी ऐसे नपेतुले सवालजवाब होते, कैसी हो? ठीक, तुम कैसे हो? ठीक, बच्चे कैसे हैं? ठीक, चलो, फिर बात करता हूं ठीक है, बाय. इतनी ही बातचीत अकसर होती थी. सुवीरा को लगता कि उन के पास बात करने के लिए क्या कुछ नहीं बचा? लेकिन महेश, वह कैसे बातें करता है, उस की सुनता है. विनोद को तो जब भी वह किसी के बारे में बताने लगती है, वह कह देता है, अरे छोड़ो, किसी की बात क्या सुनूं. उसे तो किसी की बात न कहनी होती है न सुननी होती है. वह बस अपने में जीता है. पैसा हाथ पर रख देने से ही तो पति का कर्तव्य पूरा नहीं हो जाता.

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August 01, 2020 at 10:00AM

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