Thursday 30 July 2020

उड़ान- भाग 2 : दीपा को बुढ़ापे मेें क्या याद आ रहा था?

सौरभ भी पढ़ाई की पुस्तकों से समय पाता तो वाकमैन से गाने सुनने लगता. अब कोई भला उसे कैसे पुकारे? वाकमैन उतरा नहीं कि ‘वीडियो गेम’ के आंकड़ों से उलझने लगता.

अकेलेपन से उकता कर दीपा पास जा बैठती भी तो हर बात का उत्तर बस, ‘हां, हूं’ में मिलता.

‘अरे मां, करवा दी न तुम ने सारी गड़बड़. इधर तुम से बात करने लगा, उधर मेरा निशाना ही चूक गया. बस, 5 मिनट, मेरी अच्छी मां, बस, यह गेम खत्म होने दो, फिर मैं तुम्हें सबकुछ बताता हूं.’ पर कहां? 5 मिनट? 5 मिनट तो कभी खत्म होने को ही नहीं आते. कभी टीवी चल जाता, तो कभी दोस्त पहुंच जाते. दीपा यों ही रह जाती अकेली की अकेली. क्या करे अब दीपा? पासपड़ोस की गपगोष्ठियों में भाग ले?

अकारण भटकना, अनर्गल वार्त्तालाप, अनापशनाप खरीदफरोख्त, यह सब न उसे आता था न ही भाता था. उस के मन की खुशियां तो बस घर की सीमाओं में ही सीमित थीं. अपना परिवार ही उसे परमप्रिय था. क्या वह स्वार्थी और अदूरदर्शी है? ममता के असमंजस का अंत न था. गृहिणी की ऊहापोह भी अनंत थी. ऐसा भी न था कि घरपरिवार के अतिरिक्त दीपा की अपनी रुचियां ही न हों.

हिंदी साहित्य एवं सुगमशास्त्रीय संगीत से उसे गहरा लगाव था. संगीत की तो उस ने विधिवत शिक्षा भी ली थी. कभी सितार बजाना भी उसे खूब भाता था. नयानया ब्याह, रजत की छोटी सी नौकरी, आर्थिक असुविधाएं, संतान का आगमन, इन सब से तालमेल बैठातेबैठाते दीपा कब अपनी रुचियों से कट गई, उसे पता भी न चला था. फिर भी कभीकभी मन मचल ही उठता था सरगमी तारों पर हाथ फेरने को, प्रेमचंद और निराला की रचनाओं में डूबनेउतरने को. पर कहां? कभी समय का अभाव तो कभी सुविधा की कमी. फिर धीरेधीरे, पिया की प्रीत में, ममता के अनुराग में वह अपना सबकुछ भूलती चली गई थी.

किंतु अब, कालचक्र के चलते स्थितियां कैसे विपरीत हो गई थीं. अपार आर्थिक सुविधाएं, समय ही समय, सुस्ती से सरकने वाला समय. मन…मन फिर भी उदास और क्लांत.

रजत उसे चाह कर भी समय न दे पाता और बच्चे तो अब उसे समय देना ही नहीं चाहते थे. कहां कमी रह गई थी उस की स्नेहिल शुश्रूषा में? ठंडे ठहराव भरी मानसिकता में रजत के लखनऊ तबादले का समाचार सुन दीपा के मुख पर अकस्मात मधुर मुसकान बिखर गई कि नई जगह नए सिरे से रचनाबसना, कुछ दिनों के लिए ही सही, यह एकरसता अब तो टूटेगी.

‘‘हे नारी, सच ही तुम सृष्टि की सब से रहस्यमय कृति, मायामोहिनी, अबूझ पहेली हो.’’

जरा सी मुसकान की ऐसी प्रतिक्रिया कि दीपा और भी खिलखिला उठी. ‘‘कहां तो मैं सोच रहा था कि तबादले की सुन कर तुम खीजोगी, झल्लाओगी पर तुम तो मुसकरा और खिलखिला रही हो, आखिर इस का राज क्या है मेरी रहस्यमयी रमणी?’’

अब दीपा क्या कह कर अपनी बात समझाती. ऊहापोह और अंतर्द्वंद्व को शब्द देना उसे बड़ा कठिन कार्य लगता. यों एकदो बार उस ने अपनी समस्या रजत को सुनाई भी थी, पर स्वभावानुसार वह सब हंसी में टाल जाता, ‘सृष्टि सृजन का सुख उठाओ मैडम, संतान को संवारो, संभालो, बस. अपेक्षाओं को पास न पड़ने दो, कुंठा खुद ही तुम से दूर रहेगी.’ ‘संतान से स्नेह, साथ की आशा रखना भी जैसे कोई बड़ी भारी अपेक्षा हो, हुंह,’ दीपा को रजत की भाषणबाजी जरा न भाती.

दीपा की संभावना सही सिद्ध हुई. नई जगह के लिए दायित्व, नई व्यस्तताएं. नया स्कूल, नया कालेज. संगीसाथियों के अभाव में बच्चे भी आश्रित से आसपास, साथसाथ बने रहते. दीपा को पुराने दिनों की छायाएं लौटती प्रतीत होतीं. सबकुछ बड़ा भलाभला सा लगता. किंतु यह व्यवस्था, यह सुख भी अस्थायी ही निकला. व्यवस्थित होते ही बच्चे फिर अपनी पढ़ाई और नए पाए संगसाथ में मगन हो गए. रजत तो पहले से भी अधिक व्यस्त हो गया. दीपा के अकेलेपन का अंत न था. अवांछना, अस्थिरता एवं असुरक्षा के मकड़जाल फिर उस के मनमस्तिष्क को कसने लगे. दीवाली के बाद लखनऊ के मौसम ने रंग बदलना शुरू कर दिया. कहां मुंबई का सदाबहार मौसम, कहां यह कड़कती, सरसराती सर्दी. जल्दीजल्दी काम निबटा कर दीपा दिनभर बरामदे की धूप का पीछा किया करती. वहीं कुरसी डाल कर पुस्तक, पत्रिका ले कर बैठ जाती. बैठेबैठे थकती तो धूप से तपे फर्श पर चटाई डाल कर लेट जाती.

उस दिन, रविवार को उसे सुबह से ही कुछ हरारत सी हो रही थी. ‘छुट्टी वाले दिन भी रजत की अनुपस्थिति और व्यस्तता का अवसाद होगा,’ यह सोच कर वह सुस्ती को झटक ज्योंत्यों काम में जुटी रही. ‘इतनी बड़ी हो गई है रुचि, पर जरा खयाल नहीं कि छुट्टी वाले दिन ही मां की थोड़ी सी मदद कर दे. पढ़ाई… पढ़ाई…पढ़ाई. हरदम पढ़ाई का बहाना. हुंह.’

आज सर्दी कुछ ज्यादा ही कड़क है शायद. झुरझुरी जब ज्यादा सही न गई तो हाथ का काम आधे में ही छोड़ वह बाहर बरामदे की धूप सेंकने लगी. पर धूप भी कैसी, धुंधलाईधुंधलाई सी, एकदम प्रभावहीन और बेदम. बगिया के फूल भी कुम्हलाएकुम्हलाए से थे. सर्दी के प्रकोप से सब परेशान प्रतीत हो रहे थे. दीपा ने शौल को कस कर चारों ओर लपेट लिया और वहीं गुड़ीमुड़ी बन कर लेट गई. अंतस की थरथराहट थी कि थमने क ा नाम ही नहीं ले रही थी. सिर भारी और आंखें जलती सी लगीं. ‘रुचि को आवाज दूं? बुलाने से जैसे वह बड़ा आ ही जाएगी.’ कंपकंपाती, थरथराती वह यों ही लेटी रही, मौन, चुपचाप.

‘‘हाय मां, अंदर तो बड़ी सर्दी है और तुम यहां मजे से अकेलेअकेले धूप सेंक रही हो,’’ रुचि ने कहा. दीपा ने आंखें खोलने का यत्न किया, पर पलकों पर तो मानो मनभर का बोझा पड़ा हो.

‘‘मां, मां, देखो तो, धूप कैसी चटकचमकीली है.’’

‘‘चटकचमकीली?’’ दीपा ने आंखें खोलने का प्रयत्न किया, पर आंखें फिर भी नहीं खुलीं.

रुचि हैरान हो गई. बोली, ‘‘मां, तुम इस समय सो क्यों रही हो?’’ उस ने उस के हाथों को झकझोरा तो चौंक गई, ‘‘मां, तुम्हें तो बुखार है. इतना तेज बुखार. बताया क्यों नहीं? सौरभ, सौरभ, मां को तो देख.’’ 4-5 आवाजें यों ही अनसुनी करने वाला सौरभ आज बहन की पहली ही पुकार पर दौड़ा चला आया, ‘‘क्या हुआ, बुखार? बताया क्यों नहीं?’’

दोनों ने सहारा दे कर उसे अंदर बिस्तर पर लिटा कर मोटी रजाई ओढ़ा दी, पर कंपकंपी थी कि कम ही नहीं हो रही थी. ‘‘सौरभ, जा जल्दी से सामने वाली आंटी से उन के डाक्टर का फोन नंबर, नहींनहीं, फोन नहीं, पता ही ले ले और खुद जा कर डाक्टर को अपने साथ ले आ. मैं यहां मां के पास रहती हूं, जा, जा, जल्दी.’’

‘नई जगह, नए लोग, अकेला सौरभ भला कहां से…’ पर तंद्रा ऐसी भारी हो रही थी कि दीपा से कुछ बोलते भी न बना. सौरभ डाक्टर के पास दौड़ा तो रुचि भाग कर अदरक वाली चाय बना लाई. कमरे में हीटर लगा दिया. फिर हाथपैरों को जोरजोर से मलने लगी.

‘‘तुम भी मां कुछ बताती नहीं हो,’’ आतुर उत्तेजना में बारबार रुचि अपनी शिकायत दोहराती जा रही थी. देखते ही देखते डाक्टर भी पहुंच गया. आननफानन दवा भी आ गई. बच्चे, जिन्हें अब तक दीपा सुस्त ही समझती थी, बड़े ही चतुर, चौकस निकले. उन की तत्परता और तन्मयता भी देखते ही बनती थी. बच्चे, जिन्हें दीपा आत्मकेंद्रित ही समझती थी, आज साये की भांति उस के आगेपीछे डोल रहे थे. उन का यह स्नेह, यह सेवा देख कर दीपा के सारे भ्रम दूर हो गए थे. इस बीमारी ने उस की आंखें खोल दी थीं. रसोईघर से दूरदूर भागने वाली, भूलेभटके भी अंदर न झांकने वाली रुचि, चायनाश्ते के साथसाथ दालचावल भी बना रही थी तो दलिया, खिचड़ी भी पका रही थी. दीपा हैरान कि छिपेरुस्तम होते हैं आजकल के बच्चे. सौरभ को स्कूल भेज वह मुस्तैदी से मोरचे पर डटी रहती. दीपा के पथ्य को भी ध्यान रखती, घर की भी देखरेख करती. उस के कार्यों में अनुभवहीनता की छाप अवश्य थी, पर अकर्मण्यता की छवि कदापि नहीं.

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सौरभ भी पढ़ाई की पुस्तकों से समय पाता तो वाकमैन से गाने सुनने लगता. अब कोई भला उसे कैसे पुकारे? वाकमैन उतरा नहीं कि ‘वीडियो गेम’ के आंकड़ों से उलझने लगता.

अकेलेपन से उकता कर दीपा पास जा बैठती भी तो हर बात का उत्तर बस, ‘हां, हूं’ में मिलता.

‘अरे मां, करवा दी न तुम ने सारी गड़बड़. इधर तुम से बात करने लगा, उधर मेरा निशाना ही चूक गया. बस, 5 मिनट, मेरी अच्छी मां, बस, यह गेम खत्म होने दो, फिर मैं तुम्हें सबकुछ बताता हूं.’ पर कहां? 5 मिनट? 5 मिनट तो कभी खत्म होने को ही नहीं आते. कभी टीवी चल जाता, तो कभी दोस्त पहुंच जाते. दीपा यों ही रह जाती अकेली की अकेली. क्या करे अब दीपा? पासपड़ोस की गपगोष्ठियों में भाग ले?

अकारण भटकना, अनर्गल वार्त्तालाप, अनापशनाप खरीदफरोख्त, यह सब न उसे आता था न ही भाता था. उस के मन की खुशियां तो बस घर की सीमाओं में ही सीमित थीं. अपना परिवार ही उसे परमप्रिय था. क्या वह स्वार्थी और अदूरदर्शी है? ममता के असमंजस का अंत न था. गृहिणी की ऊहापोह भी अनंत थी. ऐसा भी न था कि घरपरिवार के अतिरिक्त दीपा की अपनी रुचियां ही न हों.

हिंदी साहित्य एवं सुगमशास्त्रीय संगीत से उसे गहरा लगाव था. संगीत की तो उस ने विधिवत शिक्षा भी ली थी. कभी सितार बजाना भी उसे खूब भाता था. नयानया ब्याह, रजत की छोटी सी नौकरी, आर्थिक असुविधाएं, संतान का आगमन, इन सब से तालमेल बैठातेबैठाते दीपा कब अपनी रुचियों से कट गई, उसे पता भी न चला था. फिर भी कभीकभी मन मचल ही उठता था सरगमी तारों पर हाथ फेरने को, प्रेमचंद और निराला की रचनाओं में डूबनेउतरने को. पर कहां? कभी समय का अभाव तो कभी सुविधा की कमी. फिर धीरेधीरे, पिया की प्रीत में, ममता के अनुराग में वह अपना सबकुछ भूलती चली गई थी.

किंतु अब, कालचक्र के चलते स्थितियां कैसे विपरीत हो गई थीं. अपार आर्थिक सुविधाएं, समय ही समय, सुस्ती से सरकने वाला समय. मन…मन फिर भी उदास और क्लांत.

रजत उसे चाह कर भी समय न दे पाता और बच्चे तो अब उसे समय देना ही नहीं चाहते थे. कहां कमी रह गई थी उस की स्नेहिल शुश्रूषा में? ठंडे ठहराव भरी मानसिकता में रजत के लखनऊ तबादले का समाचार सुन दीपा के मुख पर अकस्मात मधुर मुसकान बिखर गई कि नई जगह नए सिरे से रचनाबसना, कुछ दिनों के लिए ही सही, यह एकरसता अब तो टूटेगी.

‘‘हे नारी, सच ही तुम सृष्टि की सब से रहस्यमय कृति, मायामोहिनी, अबूझ पहेली हो.’’

जरा सी मुसकान की ऐसी प्रतिक्रिया कि दीपा और भी खिलखिला उठी. ‘‘कहां तो मैं सोच रहा था कि तबादले की सुन कर तुम खीजोगी, झल्लाओगी पर तुम तो मुसकरा और खिलखिला रही हो, आखिर इस का राज क्या है मेरी रहस्यमयी रमणी?’’

अब दीपा क्या कह कर अपनी बात समझाती. ऊहापोह और अंतर्द्वंद्व को शब्द देना उसे बड़ा कठिन कार्य लगता. यों एकदो बार उस ने अपनी समस्या रजत को सुनाई भी थी, पर स्वभावानुसार वह सब हंसी में टाल जाता, ‘सृष्टि सृजन का सुख उठाओ मैडम, संतान को संवारो, संभालो, बस. अपेक्षाओं को पास न पड़ने दो, कुंठा खुद ही तुम से दूर रहेगी.’ ‘संतान से स्नेह, साथ की आशा रखना भी जैसे कोई बड़ी भारी अपेक्षा हो, हुंह,’ दीपा को रजत की भाषणबाजी जरा न भाती.

दीपा की संभावना सही सिद्ध हुई. नई जगह के लिए दायित्व, नई व्यस्तताएं. नया स्कूल, नया कालेज. संगीसाथियों के अभाव में बच्चे भी आश्रित से आसपास, साथसाथ बने रहते. दीपा को पुराने दिनों की छायाएं लौटती प्रतीत होतीं. सबकुछ बड़ा भलाभला सा लगता. किंतु यह व्यवस्था, यह सुख भी अस्थायी ही निकला. व्यवस्थित होते ही बच्चे फिर अपनी पढ़ाई और नए पाए संगसाथ में मगन हो गए. रजत तो पहले से भी अधिक व्यस्त हो गया. दीपा के अकेलेपन का अंत न था. अवांछना, अस्थिरता एवं असुरक्षा के मकड़जाल फिर उस के मनमस्तिष्क को कसने लगे. दीवाली के बाद लखनऊ के मौसम ने रंग बदलना शुरू कर दिया. कहां मुंबई का सदाबहार मौसम, कहां यह कड़कती, सरसराती सर्दी. जल्दीजल्दी काम निबटा कर दीपा दिनभर बरामदे की धूप का पीछा किया करती. वहीं कुरसी डाल कर पुस्तक, पत्रिका ले कर बैठ जाती. बैठेबैठे थकती तो धूप से तपे फर्श पर चटाई डाल कर लेट जाती.

उस दिन, रविवार को उसे सुबह से ही कुछ हरारत सी हो रही थी. ‘छुट्टी वाले दिन भी रजत की अनुपस्थिति और व्यस्तता का अवसाद होगा,’ यह सोच कर वह सुस्ती को झटक ज्योंत्यों काम में जुटी रही. ‘इतनी बड़ी हो गई है रुचि, पर जरा खयाल नहीं कि छुट्टी वाले दिन ही मां की थोड़ी सी मदद कर दे. पढ़ाई… पढ़ाई…पढ़ाई. हरदम पढ़ाई का बहाना. हुंह.’

आज सर्दी कुछ ज्यादा ही कड़क है शायद. झुरझुरी जब ज्यादा सही न गई तो हाथ का काम आधे में ही छोड़ वह बाहर बरामदे की धूप सेंकने लगी. पर धूप भी कैसी, धुंधलाईधुंधलाई सी, एकदम प्रभावहीन और बेदम. बगिया के फूल भी कुम्हलाएकुम्हलाए से थे. सर्दी के प्रकोप से सब परेशान प्रतीत हो रहे थे. दीपा ने शौल को कस कर चारों ओर लपेट लिया और वहीं गुड़ीमुड़ी बन कर लेट गई. अंतस की थरथराहट थी कि थमने क ा नाम ही नहीं ले रही थी. सिर भारी और आंखें जलती सी लगीं. ‘रुचि को आवाज दूं? बुलाने से जैसे वह बड़ा आ ही जाएगी.’ कंपकंपाती, थरथराती वह यों ही लेटी रही, मौन, चुपचाप.

‘‘हाय मां, अंदर तो बड़ी सर्दी है और तुम यहां मजे से अकेलेअकेले धूप सेंक रही हो,’’ रुचि ने कहा. दीपा ने आंखें खोलने का यत्न किया, पर पलकों पर तो मानो मनभर का बोझा पड़ा हो.

‘‘मां, मां, देखो तो, धूप कैसी चटकचमकीली है.’’

‘‘चटकचमकीली?’’ दीपा ने आंखें खोलने का प्रयत्न किया, पर आंखें फिर भी नहीं खुलीं.

रुचि हैरान हो गई. बोली, ‘‘मां, तुम इस समय सो क्यों रही हो?’’ उस ने उस के हाथों को झकझोरा तो चौंक गई, ‘‘मां, तुम्हें तो बुखार है. इतना तेज बुखार. बताया क्यों नहीं? सौरभ, सौरभ, मां को तो देख.’’ 4-5 आवाजें यों ही अनसुनी करने वाला सौरभ आज बहन की पहली ही पुकार पर दौड़ा चला आया, ‘‘क्या हुआ, बुखार? बताया क्यों नहीं?’’

दोनों ने सहारा दे कर उसे अंदर बिस्तर पर लिटा कर मोटी रजाई ओढ़ा दी, पर कंपकंपी थी कि कम ही नहीं हो रही थी. ‘‘सौरभ, जा जल्दी से सामने वाली आंटी से उन के डाक्टर का फोन नंबर, नहींनहीं, फोन नहीं, पता ही ले ले और खुद जा कर डाक्टर को अपने साथ ले आ. मैं यहां मां के पास रहती हूं, जा, जा, जल्दी.’’

‘नई जगह, नए लोग, अकेला सौरभ भला कहां से…’ पर तंद्रा ऐसी भारी हो रही थी कि दीपा से कुछ बोलते भी न बना. सौरभ डाक्टर के पास दौड़ा तो रुचि भाग कर अदरक वाली चाय बना लाई. कमरे में हीटर लगा दिया. फिर हाथपैरों को जोरजोर से मलने लगी.

‘‘तुम भी मां कुछ बताती नहीं हो,’’ आतुर उत्तेजना में बारबार रुचि अपनी शिकायत दोहराती जा रही थी. देखते ही देखते डाक्टर भी पहुंच गया. आननफानन दवा भी आ गई. बच्चे, जिन्हें अब तक दीपा सुस्त ही समझती थी, बड़े ही चतुर, चौकस निकले. उन की तत्परता और तन्मयता भी देखते ही बनती थी. बच्चे, जिन्हें दीपा आत्मकेंद्रित ही समझती थी, आज साये की भांति उस के आगेपीछे डोल रहे थे. उन का यह स्नेह, यह सेवा देख कर दीपा के सारे भ्रम दूर हो गए थे. इस बीमारी ने उस की आंखें खोल दी थीं. रसोईघर से दूरदूर भागने वाली, भूलेभटके भी अंदर न झांकने वाली रुचि, चायनाश्ते के साथसाथ दालचावल भी बना रही थी तो दलिया, खिचड़ी भी पका रही थी. दीपा हैरान कि छिपेरुस्तम होते हैं आजकल के बच्चे. सौरभ को स्कूल भेज वह मुस्तैदी से मोरचे पर डटी रहती. दीपा के पथ्य को भी ध्यान रखती, घर की भी देखरेख करती. उस के कार्यों में अनुभवहीनता की छाप अवश्य थी, पर अकर्मण्यता की छवि कदापि नहीं.

The post उड़ान- भाग 2 : दीपा को बुढ़ापे मेें क्या याद आ रहा था? appeared first on Sarita Magazine.

July 31, 2020 at 10:00AM

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