Monday 31 January 2022

वो कमजोर पल: क्या सीमा ने राज से दूसरी शादी की?

Devendra Kumar Mishra

वही हुआ जिस का सीमा को डर था. उस के पति को पता चल ही गया कि उस का किसी और के साथ अफेयर चल रहा है. अब क्या होगा? वह सोच रही थी, क्या कहेगा पति? क्यों किया तुम ने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा? क्या कमी थी मेरे प्यार में? क्या नहीं दिया मैं ने तुम्हें? घरपरिवार, सुखी संसार, पैसा, इज्जत, प्यार किस चीज की कमी रह गई थी जो तुम्हें बदचलन होना पड़ा? क्या कारण था कि तुम्हें चरित्रहीन होना पड़ा? मैं ने तुम से प्यार किया. शादी की. हमारे प्यार की निशानी हमारा एक प्यारा बेटा. अब क्या था बाकी? सिवा तुम्हारी शारीरिक भूख के. तुम पत्नी नहीं वेश्या हो, वेश्या.

हां, मैं ने धोखा दिया है अपने पति को, अपने शादीशुदा जीवन के साथ छल किया है मैं ने. मैं एक गिरी हुई औरत हूं. मुझे कोई अधिकार नहीं किसी के नाम का सिंदूर भर कर किसी और के साथ बिस्तर सजाने का. यह बेईमानी है, धोखा है. लेकिन जिस्म के इस इंद्रजाल में फंस ही गई आखिर.

मैं खुश थी अपनी दुनिया में, अपने पति, अपने घर व अपने बच्चे के साथ. फिर क्यों, कब, कैसे राज मेरे अस्तित्व पर छाता गया और मैं उस के प्रेमजाल में उलझती चली गई. हां, मैं एक साधारण नारी, मुझ पर भी किसी का जादू चल सकता है. मैं भी किसी के मोहपाश में बंध सकती हूं, ठीक वैसे ही जैसे कोई बच्चा नया खिलौना देख कर अपने पास के खिलौने को फेंक कर नए खिलौने की तरफ हाथ बढ़ाने लगता है.

नहीं…मैं कोई बच्ची नहीं. पति कोई खिलौना नहीं. घरपरिवार, शादीशुदा जीवन कोई मजाक नहीं कि कल दूसरा मिला तो पहला छोड़ दिया. यदि अहल्या को अपने भ्रष्ट होने पर पत्थर की शिला बनना पड़ा तो मैं क्या चीज हूं. मैं भी एक औरत हूं, मेरे भी कुछ अरमान हैं. इच्छाएं हैं. यदि कोई अच्छा लगने लगे तो इस में मैं क्या कर सकती हूं. मैं मजबूर थी अपने दिल के चलते. राज चमकते सूरज की तरह आया और मुझ पर छा गया.

उन दिनों मेरे पति अकाउंट की ट्रेनिंग पर 9 माह के लिए राजधानी गए हुए थे. फोन पर अकसर बातें होती रहती थीं. बीच में आना संभव नहीं था. हर रात पति के आलिंगन की आदी मैं अपने को रोकती, संभालती रही. अपने को जीवन के अन्य कामों में व्यस्त रखते हुए समझाती रही कि यह तन, यह मन पति के लिए है. किसी की छाया पड़ना, किसी के बारे में सोचना भी गुनाह है. लेकिन यह गुनाह कर गई मैं.

ये भी पढ़ें- अटूट बंधन: कैसा था त्रिशा और आजाद का प्यार का बंधन

मैं अपनी सहेली रीता के घर बैठने जाती. पति घर पर थे नहीं. बेटा नानानानी के घर गया हुआ था गरमियों की छुट्टी में. रीता के घर कभी पार्टी होती, कभी शेरोशायरी, कभी गीतसंगीत की महफिल सजती, कभी पत्ते खेलते. ऐसी ही पार्टी में एक दिन राज आया. और्केस्ट्रा में गाता था. रीता का चचेरा भाई था. रात का खाना वह अपनी चचेरी बहन के यहां खाता और दिनभर स्ट्रगल करता. एक दिन रीता के कहने पर उस ने कुछ प्रेमभरे, कुछ दर्दभरे गीत सुनाए. खूबसूरत बांका जवान, गोरा रंग, 6 फुट के लगभग हाइट. उस की आंखें जबजब मुझ से टकरातीं, मेरे दिल में तूफान सा उठने लगता.

राज अकसर मुझ से हंसीमजाक करता. मुझे छेड़ता और यही हंसीमजाक, छेड़छाड़ एक दिन मुझे राज के बहुत करीब ले आई. मैं रीता के घर पहुंची. रीता कहीं गई हुई थी काम से. राज मिला. ढेर सारी बातें हुईं और बातों ही बातों में राज ने कह दिया, ‘मैं तुम से प्यार करता हूं.’

मुझे उसे डांटना चाहिए था, मना करना चाहिए था. लेकिन नहीं, मैं भी जैसे बिछने के लिए तैयार बैठी थी. मैं ने कहा, ‘राज, मैं शादीशुदा हूं.’

राज ने तुरंत कहा, ‘क्या शादीशुदा औरत किसी से प्यार नहीं कर सकती? ऐसा कहीं लिखा है? क्या तुम मुझ से प्यार करती हो?’

मैं ने कहा, ‘हां.’ और उस ने मुझे अपनी बांहों में समेट लिया. फिर मैं भूल गई कि मैं एक बच्चे की मां हूं. मैं किसी की ब्याहता हूं. जिस के साथ जीनेमरने की मैं ने अग्नि के समक्ष सौगंध खाई थी. लेकिन यह दिल का बहकना, राज की बांहों में खो जाना, इस ने मुझे सबकुछ भुला कर रख दिया.

मैं और राज अकसर मिलते. प्यारभरी बातें करते. राज ने एक कमरा किराए पर लिया हुआ था. जब रीता ने पूछताछ करनी शुरू की तो मैं राज के साथ बाहर मिलने लगी. कभी उस के घर पर, कभी किसी होटल में तो कभी कहीं हिल स्टेशन पर. और सच कहूं तो मैं उसे अपने घर पर भी ले कर आई थी. यह गुनाह इतना खूबसूरत लग रहा था कि मैं भूल गई कि जिस बिस्तर पर मेरे पति आनंद का हक था, उसी बिस्तर पर मैं ने बेशर्मी के साथ राज के साथ कई रातें गुजारीं. राज की बांहों की कशिश ही ऐसी थी कि आनंद के साथ बंधे विवाह के पवित्र बंधन मुझे बेडि़यों की तरह लगने लगे.

मैं ने एक दिन राज से कहा भी कि क्या वह मुझ से शादी करेगा? उस ने हंस कर कहा, ‘मतलब यह कि तुम मेरे लिए अपने पति को छोड़ सकती हो. इस का मतलब यह भी हुआ कि कल किसी और के लिए मुझे भी.’

मुझे अपने बेवफा होने का एहसास राज ने हंसीहंसी में करा दिया था. एक रात राज के आगोश में मैं ने शादी का जिक्र फिर छेड़ा. उस ने मुझे चूमते हुए कहा, ‘शादी तो तुम्हारी हो चुकी है. दोबारा शादी क्यों? बिना किसी बंधन में बंधे सिर्फ प्यार नहीं कर सकतीं.’

‘मैं एक स्त्री हूं. प्यार के साथ सुरक्षा भी चाहिए और शादी किसी भी स्त्री के लिए सब से सुरक्षित संस्था है.’

राज ने हंसते हुए कहा, ‘क्या तुम अपने पति का सामना कर सकोगी? उस से तलाक मांग सकोगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के वापस आते ही प्यार टूट जाए और शादी जीत जाए?’

मुझ पर तो राज का नशा हावी था. मैं ने कहा, ‘तुम हां तो कहो. मैं सबकुछ छोड़ने को तैयार हूं.’

‘अपना बच्चा भी,’ राज ने मुझे घूरते हुए कहा. उफ यह तो मैं ने सोचा ही नहीं था.

‘राज, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम बच्चे को अपने साथ रख लें?’

राज ने हंसते हुए कहा, ‘क्या तुम्हारा बेटा, मुझे अपना पिता मानेगा? कभी नहीं. क्या मैं उसे उस के बाप जैसा प्यार दे सकूंगा? कभी नहीं. क्या तलाक लेने के बाद अदालत बच्चा तुम्हें सौंपेगी? कभी नहीं. क्या वह बच्चा मुझे हर घड़ी इस बात का एहसास नहीं दिलाएगा कि तुम पहले किसी और के साथ…किसी और की निशानी…क्या उस बच्चे में तुम्हें अपने पति की यादें…देखो सीमा, मैं तुम से प्यार करता हूं. लेकिन शादी करना तुम्हारे लिए तब तक संभव नहीं जब तक तुम अपना अतीत पूरी तरह नहीं भूल जातीं.

‘अपने मातापिता, भाईबहन, सासससुर, देवरननद अपनी शादी, अपनी सुहागरात, अपने पति के साथ बिताए पलपल. यहां तक कि अपना बच्चा भी क्योंकि यह बच्चा सिर्फ तुम्हारा नहीं है. इतना सब भूलना तुम्हारे लिए संभव नहीं है.

‘कल जब तुम्हें मुझ में कोई कमी दिखेगी तो तुम अपने पति के साथ मेरी तुलना करने लगोगी, इसलिए शादी करना संभव नहीं है. प्यार एक अलग बात है. किसी पल में कमजोर हो कर किसी और में खो जाना, उसे अपना सबकुछ मान लेना और बात है लेकिन शादी बहुत बड़ा फैसला है. तुम्हारे प्यार में मैं भी भूल गया कि तुम किसी की पत्नी हो. किसी की मां हो. किसी के साथ कई रातें पत्नी बन कर गुजारी हैं तुम ने. यह मेरा प्यार था जो मैं ने इन बातों की परवा नहीं की. यह भी मेरा प्यार है कि तुम सब छोड़ने को राजी हो जाओ तो मैं तुम से शादी करने को तैयार हूं. लेकिन क्या तुम सबकुछ छोड़ने को, भूलने को राजी हो? कर पाओगी इतना सबकुछ?’ राज कहता रहा और मैं अवाक खड़ी सुनती रही.

‘यह भी ध्यान रखना कि मुझ से शादी के बाद जब तुम कभी अपने पति के बारे में सोचोगी तो वह मुझ से बेवफाई होगी. क्या तुम तैयार हो?’

‘तुम ने मुझे पहले क्यों नहीं समझाया ये सब?’

‘मैं शादीशुदा नहीं हूं, कुंआरा हूं. तुम्हें देख कर दिल मचला. फिसला और सीधा तुम्हारी बांहों में पनाह मिल गई. मैं अब भी तैयार हूं. तुम शादीशुदा हो, तुम्हें सोचना है. तुम सोचो. मेरा प्यार सच्चा है. मुझे नहीं सोचना क्योंकि मैं अकेला हूं. मैं तुम्हारे साथ सारा जीवन गुजारने को तैयार हूं लेकिन वफा के वादे के साथ.’

मैं रो पड़ी. मैं ने राज से कहा, ‘तुम ने पहले ये सब क्यों नहीं कहा.’

‘तुम ने पूछा नहीं.’

‘लेकिन जो जिस्मानी संबंध बने थे?’

‘वह एक कमजोर पल था. वह वह समय था जब तुम कमजोर पड़ गई थीं. मैं कमजोर पड़ गया था. वह पल अब गुजर चुका है. उस कमजोर पल में हम प्यार कर बैठे. इस में न तुम्हारी खता है न मेरी. दिल पर किस का जोर चला है. लेकिन अब बात शादी की है.’

राज की बातों में सचाई थी. वह मुझ से प्यार करता था या मेरे जिस्म से बंध चुका था. जो भी हो, वह कुंआरा था. तनहा था. उसे हमसफर के रूप में कोई और न मिला, मैं मिल गई. मुझे भी उन कमजोर पलों को भूलना चाहिए था जिन में मैं ने अपने विवाह को अपवित्र कर दिया. मैं परपुरुष के साथ सैक्स करने के सुख में, देह की तृप्ति में ऐसी उलझी कि सबकुछ भूल गई. अब एक और सब से बड़ा कदम या सब से बड़ी बेवकूफी कि मैं अपने पति से तलाक ले कर राज से शादी कर लूं. क्या करूं मैं, मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था.  मैं ने राज से पूछा, ‘मेरी जगह तुम होते तो क्या करते?’

राज हंस कर बोला, ‘ये तो दिल की बातें हैं. तुम्हारी तुम जानो. यदि तुम्हारी जगह मैं होता तो शायद मैं तुम्हारे प्यार में ही न पड़ता या अपने कमजोर पड़ने वाले क्षणों के लिए अपनेआप से माफी मांगता. पता नहीं, मैं क्या करता?’

राज ये सब कहीं इसलिए तो नहीं कह रहा कि मैं अपनी गलती मान कर वापस चली जाऊं, सब भूल कर. फिर जो इतना समय इतनी रातें राज की बांहों में बिताईं. वह क्या था? प्यार नहीं मात्र वासना थी? दलदल था शरीर की भूख का? कहीं ऐसा तो नहीं कि राज का दिल भर गया हो मुझ से, अपनी हवस की प्यास बुझा ली और अब विवाह की रीतिनीति समझा रहा हो? यदि ऐसी बात थी तो जब मैं ने कहा था कि मैं ब्याहता हूं तो फिर क्यों कहा था कि किस किताब में लिखा है कि शादीशुदा प्यार नहीं कर सकते?

राज ने आगे कहा, ‘किसी स्त्री के आगोश में किसी कुंआरे पुरुष का पहला संपर्क उस के जीवन का सब से बड़ा रोमांच होता है. मैं न होता कोई और होता तब भी यही होता. हां, यदि लड़की कुंआरी होती, अकेली होती तो इतनी बातें ही न होतीं. तुम उन क्षणों में कमजोर पड़ीं या बहकीं, यह तो मैं नहीं जानता लेकिन जब तुम्हारे साथ का साया पड़ा मन पर, तो प्यार हो गया और जिसे प्यार कहते हैं उसे गलत रास्ता नहीं दिखा सकते.’

मैं रोने लगी, ‘मैं ने तो अपने हाथों अपना सबकुछ बरबाद कर लिया. तुम्हें सौंप दिया. अब तुम मुझे दिल की दुनिया से दूर हकीकत पर ला कर छोड़ रहे हो.’

‘तुम चाहो तो अब भी मैं शादी करने को तैयार हूं. क्या तुम मेरे साथ मेरी वफादार बन कर रह सकती हो, सबकुछ छोड़ कर, सबकुछ भूल कर?’ राज ने फिर दोहराया.

इधर, आनंद, मेरे पति वापस आ गए. मैं अजीब से चक्रव्यूह में फंसी हुई थी. मैं क्या करूं? क्या न करूं? आनंद के आते ही घर के काम की जिम्मेदारी. एक पत्नी बन कर रहना. मेरा बेटा भी वापस आ चुका था. मुझे मां और पत्नी दोनों का फर्ज निभाना था. मैं निभा भी रही थी. और ये निभाना किसी पर कोई एहसान नहीं था. ये तो वे काम थे जो सहज ही हो जाते थे. लेकिन आनंद के दफ्तर और बेटे के स्कूल जाते ही राज आ जाता या मैं उस से मिलने चल पड़ती, दिल के हाथों मजबूर हो कर.

मैं ने राज से कहा, ‘‘मैं तुम्हें भूल नहीं पा रही हूं.’’

‘‘तो छोड़ दो सबकुछ.’’

‘‘मैं ऐसा भी नहीं कर सकती.’’

‘‘यह तो दोतरफा बेवफाई होगी और तुम्हारी इस बेवफाई से होगा यह कि मेरा प्रेम किसी अपराधकथा की पत्रिका में अवैध संबंध की कहानी के रूप में छप जाएगा. तुम्हारा पति तुम्हारी या मेरी हत्या कर के जेल चला जाएगा. हमारा प्रेम पुलिस केस बन जाएगा,’’ राज ने गंभीर होते हुए कहा.

मैं भी डर गई और बात सच भी कही थी राज ने. फिर वह मुझ से क्यों मिलता है? यदि मैं पूछूंगी तो हंस कर कहेगा कि तुम आती हो, मैं इनकार कैसे कर दूं. मैं भंवर में फंस चुकी थी. एक तरफ मेरा हंसताखेलता परिवार, मेरी सुखी विवाहित जिंदगी, मेरा पति, मेरा बेटा और दूसरी तरफ उन कमजोर पलों का साथी राज जो आज भी मेरी कमजोरी है.

इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. पति को भनक लगी. उन्होंने दोटूक कहा, ‘‘रहना है तो तरीके से रहो वरना तलाक लो और जहां मुंह काला करना हो करो. दो में से कोई एक चुन लो, प्रेमी या पति. दो नावों की सवारी तुम्हें डुबो देगी और हमें भी.’’

मैं शर्मिंदा थी. मैं गुनाहगार थी. मैं चुप रही. मैं सुनती रही. रोती रही.

मैं फिर राज के पास पहुंची. वह कलाकार था. गायक था. उसे मैं ने बताया कि मेरे पति ने मुझ से क्याक्या कहा है और अपने शर्मसार होने के विषय में भी. उस ने कहा, ‘‘यदि तुम्हें शर्मिंदगी है तो तुम अब तक गुनाह कर रही थीं. तुम्हारा पति सज्जन है. यदि हिंसक होता तो तुम नहीं आतीं, तुम्हारे मरने की खबर आती. अब मेरा निर्णय सुनो. मैं तुम से शादी नहीं कर सकता. मैं एक ऐसी औरत से शादी करने की सोच भी नहीं सकता जो दोहरा जीवन जीए. तुम मेरे लायक नहीं हो. आज के बाद मुझ से मिलने की कोशिश मत करना. वे कमजोर पल मेरी पूरी जिंदगी को कमजोर बना कर गिरा देंगे. आज के बाद आईं तो बेवफा कहलाओगी दोनों तरफ से. उन कमजोर पलों को भूलने में ही भलाई है.’’

मैं चली आई. उस के बाद कभी नहीं मिली राज से. रीता ने ही एक बार बताया कि वह शहर छोड़ कर चला गया है. हां, अपनी बेवफाई, चरित्रहीनता पर अकसर मैं शर्मिंदगी महसूस करती रहती हूं. खासकर तब जब कोई वफा का किस्सा निकले और मैं उस किस्से पर गर्व करने लगूं तो पति की नजरों में कुछ हिकारत सी दिखने लगती है. मानो कह रहे हों, तुम और वफा. पति सभ्य थे, सुशिक्षित थे और परिवार के प्रति समर्पित.

कभी कुलटा, चरित्रहीन, वेश्या नहीं कहा. लेकिन अब शायद उन की नजरों में मेरे लिए वह सम्मान, प्यार न रहा हो. लेकिन उन्होंने कभी एहसास नहीं दिलाया. न ही कभी अपनी जिम्मेदारियों से मुंह छिपाया.

मैं सचमुच आज भी जब उन कमजोर पलों को सोचती हूं तो अपनेआप को कोसती हूं. काश, उस क्षण, जब मैं कमजोर पड़ गई थी, कमजोर न पड़ती तो आज पूरे गर्व से तन कर जीती. लेकिन क्या करूं, हर गुनाह सजा ले कर आता है. मैं यह सजा आत्मग्लानि के रूप में भोग रही थी. राज जैसे पुरुष बहका देते हैं लेकिन बरबाद होने से बचा भी लेते हैं.

स्त्री के लिए सब से महत्त्वपूर्ण होती है घर की दहलीज, अपनी शादी, अपना पति, अपना परिवार, अपने बच्चे. शादीशुदा औरत की जिंदगी में ऐसे मोड़ आते हैं कभीकभी. उन में फंस कर सबकुछ बरबाद करने से अच्छा है कि कमजोर न पड़े और जो भी सुख तलाशना हो, अपने घरपरिवार, पति, बच्चों में ही तलाशे. यही हकीकत है, यही रिवाज, यही उचित भी है.

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Devendra Kumar Mishra

वही हुआ जिस का सीमा को डर था. उस के पति को पता चल ही गया कि उस का किसी और के साथ अफेयर चल रहा है. अब क्या होगा? वह सोच रही थी, क्या कहेगा पति? क्यों किया तुम ने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा? क्या कमी थी मेरे प्यार में? क्या नहीं दिया मैं ने तुम्हें? घरपरिवार, सुखी संसार, पैसा, इज्जत, प्यार किस चीज की कमी रह गई थी जो तुम्हें बदचलन होना पड़ा? क्या कारण था कि तुम्हें चरित्रहीन होना पड़ा? मैं ने तुम से प्यार किया. शादी की. हमारे प्यार की निशानी हमारा एक प्यारा बेटा. अब क्या था बाकी? सिवा तुम्हारी शारीरिक भूख के. तुम पत्नी नहीं वेश्या हो, वेश्या.

हां, मैं ने धोखा दिया है अपने पति को, अपने शादीशुदा जीवन के साथ छल किया है मैं ने. मैं एक गिरी हुई औरत हूं. मुझे कोई अधिकार नहीं किसी के नाम का सिंदूर भर कर किसी और के साथ बिस्तर सजाने का. यह बेईमानी है, धोखा है. लेकिन जिस्म के इस इंद्रजाल में फंस ही गई आखिर.

मैं खुश थी अपनी दुनिया में, अपने पति, अपने घर व अपने बच्चे के साथ. फिर क्यों, कब, कैसे राज मेरे अस्तित्व पर छाता गया और मैं उस के प्रेमजाल में उलझती चली गई. हां, मैं एक साधारण नारी, मुझ पर भी किसी का जादू चल सकता है. मैं भी किसी के मोहपाश में बंध सकती हूं, ठीक वैसे ही जैसे कोई बच्चा नया खिलौना देख कर अपने पास के खिलौने को फेंक कर नए खिलौने की तरफ हाथ बढ़ाने लगता है.

नहीं…मैं कोई बच्ची नहीं. पति कोई खिलौना नहीं. घरपरिवार, शादीशुदा जीवन कोई मजाक नहीं कि कल दूसरा मिला तो पहला छोड़ दिया. यदि अहल्या को अपने भ्रष्ट होने पर पत्थर की शिला बनना पड़ा तो मैं क्या चीज हूं. मैं भी एक औरत हूं, मेरे भी कुछ अरमान हैं. इच्छाएं हैं. यदि कोई अच्छा लगने लगे तो इस में मैं क्या कर सकती हूं. मैं मजबूर थी अपने दिल के चलते. राज चमकते सूरज की तरह आया और मुझ पर छा गया.

उन दिनों मेरे पति अकाउंट की ट्रेनिंग पर 9 माह के लिए राजधानी गए हुए थे. फोन पर अकसर बातें होती रहती थीं. बीच में आना संभव नहीं था. हर रात पति के आलिंगन की आदी मैं अपने को रोकती, संभालती रही. अपने को जीवन के अन्य कामों में व्यस्त रखते हुए समझाती रही कि यह तन, यह मन पति के लिए है. किसी की छाया पड़ना, किसी के बारे में सोचना भी गुनाह है. लेकिन यह गुनाह कर गई मैं.

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मैं अपनी सहेली रीता के घर बैठने जाती. पति घर पर थे नहीं. बेटा नानानानी के घर गया हुआ था गरमियों की छुट्टी में. रीता के घर कभी पार्टी होती, कभी शेरोशायरी, कभी गीतसंगीत की महफिल सजती, कभी पत्ते खेलते. ऐसी ही पार्टी में एक दिन राज आया. और्केस्ट्रा में गाता था. रीता का चचेरा भाई था. रात का खाना वह अपनी चचेरी बहन के यहां खाता और दिनभर स्ट्रगल करता. एक दिन रीता के कहने पर उस ने कुछ प्रेमभरे, कुछ दर्दभरे गीत सुनाए. खूबसूरत बांका जवान, गोरा रंग, 6 फुट के लगभग हाइट. उस की आंखें जबजब मुझ से टकरातीं, मेरे दिल में तूफान सा उठने लगता.

राज अकसर मुझ से हंसीमजाक करता. मुझे छेड़ता और यही हंसीमजाक, छेड़छाड़ एक दिन मुझे राज के बहुत करीब ले आई. मैं रीता के घर पहुंची. रीता कहीं गई हुई थी काम से. राज मिला. ढेर सारी बातें हुईं और बातों ही बातों में राज ने कह दिया, ‘मैं तुम से प्यार करता हूं.’

मुझे उसे डांटना चाहिए था, मना करना चाहिए था. लेकिन नहीं, मैं भी जैसे बिछने के लिए तैयार बैठी थी. मैं ने कहा, ‘राज, मैं शादीशुदा हूं.’

राज ने तुरंत कहा, ‘क्या शादीशुदा औरत किसी से प्यार नहीं कर सकती? ऐसा कहीं लिखा है? क्या तुम मुझ से प्यार करती हो?’

मैं ने कहा, ‘हां.’ और उस ने मुझे अपनी बांहों में समेट लिया. फिर मैं भूल गई कि मैं एक बच्चे की मां हूं. मैं किसी की ब्याहता हूं. जिस के साथ जीनेमरने की मैं ने अग्नि के समक्ष सौगंध खाई थी. लेकिन यह दिल का बहकना, राज की बांहों में खो जाना, इस ने मुझे सबकुछ भुला कर रख दिया.

मैं और राज अकसर मिलते. प्यारभरी बातें करते. राज ने एक कमरा किराए पर लिया हुआ था. जब रीता ने पूछताछ करनी शुरू की तो मैं राज के साथ बाहर मिलने लगी. कभी उस के घर पर, कभी किसी होटल में तो कभी कहीं हिल स्टेशन पर. और सच कहूं तो मैं उसे अपने घर पर भी ले कर आई थी. यह गुनाह इतना खूबसूरत लग रहा था कि मैं भूल गई कि जिस बिस्तर पर मेरे पति आनंद का हक था, उसी बिस्तर पर मैं ने बेशर्मी के साथ राज के साथ कई रातें गुजारीं. राज की बांहों की कशिश ही ऐसी थी कि आनंद के साथ बंधे विवाह के पवित्र बंधन मुझे बेडि़यों की तरह लगने लगे.

मैं ने एक दिन राज से कहा भी कि क्या वह मुझ से शादी करेगा? उस ने हंस कर कहा, ‘मतलब यह कि तुम मेरे लिए अपने पति को छोड़ सकती हो. इस का मतलब यह भी हुआ कि कल किसी और के लिए मुझे भी.’

मुझे अपने बेवफा होने का एहसास राज ने हंसीहंसी में करा दिया था. एक रात राज के आगोश में मैं ने शादी का जिक्र फिर छेड़ा. उस ने मुझे चूमते हुए कहा, ‘शादी तो तुम्हारी हो चुकी है. दोबारा शादी क्यों? बिना किसी बंधन में बंधे सिर्फ प्यार नहीं कर सकतीं.’

‘मैं एक स्त्री हूं. प्यार के साथ सुरक्षा भी चाहिए और शादी किसी भी स्त्री के लिए सब से सुरक्षित संस्था है.’

राज ने हंसते हुए कहा, ‘क्या तुम अपने पति का सामना कर सकोगी? उस से तलाक मांग सकोगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के वापस आते ही प्यार टूट जाए और शादी जीत जाए?’

मुझ पर तो राज का नशा हावी था. मैं ने कहा, ‘तुम हां तो कहो. मैं सबकुछ छोड़ने को तैयार हूं.’

‘अपना बच्चा भी,’ राज ने मुझे घूरते हुए कहा. उफ यह तो मैं ने सोचा ही नहीं था.

‘राज, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम बच्चे को अपने साथ रख लें?’

राज ने हंसते हुए कहा, ‘क्या तुम्हारा बेटा, मुझे अपना पिता मानेगा? कभी नहीं. क्या मैं उसे उस के बाप जैसा प्यार दे सकूंगा? कभी नहीं. क्या तलाक लेने के बाद अदालत बच्चा तुम्हें सौंपेगी? कभी नहीं. क्या वह बच्चा मुझे हर घड़ी इस बात का एहसास नहीं दिलाएगा कि तुम पहले किसी और के साथ…किसी और की निशानी…क्या उस बच्चे में तुम्हें अपने पति की यादें…देखो सीमा, मैं तुम से प्यार करता हूं. लेकिन शादी करना तुम्हारे लिए तब तक संभव नहीं जब तक तुम अपना अतीत पूरी तरह नहीं भूल जातीं.

‘अपने मातापिता, भाईबहन, सासससुर, देवरननद अपनी शादी, अपनी सुहागरात, अपने पति के साथ बिताए पलपल. यहां तक कि अपना बच्चा भी क्योंकि यह बच्चा सिर्फ तुम्हारा नहीं है. इतना सब भूलना तुम्हारे लिए संभव नहीं है.

‘कल जब तुम्हें मुझ में कोई कमी दिखेगी तो तुम अपने पति के साथ मेरी तुलना करने लगोगी, इसलिए शादी करना संभव नहीं है. प्यार एक अलग बात है. किसी पल में कमजोर हो कर किसी और में खो जाना, उसे अपना सबकुछ मान लेना और बात है लेकिन शादी बहुत बड़ा फैसला है. तुम्हारे प्यार में मैं भी भूल गया कि तुम किसी की पत्नी हो. किसी की मां हो. किसी के साथ कई रातें पत्नी बन कर गुजारी हैं तुम ने. यह मेरा प्यार था जो मैं ने इन बातों की परवा नहीं की. यह भी मेरा प्यार है कि तुम सब छोड़ने को राजी हो जाओ तो मैं तुम से शादी करने को तैयार हूं. लेकिन क्या तुम सबकुछ छोड़ने को, भूलने को राजी हो? कर पाओगी इतना सबकुछ?’ राज कहता रहा और मैं अवाक खड़ी सुनती रही.

‘यह भी ध्यान रखना कि मुझ से शादी के बाद जब तुम कभी अपने पति के बारे में सोचोगी तो वह मुझ से बेवफाई होगी. क्या तुम तैयार हो?’

‘तुम ने मुझे पहले क्यों नहीं समझाया ये सब?’

‘मैं शादीशुदा नहीं हूं, कुंआरा हूं. तुम्हें देख कर दिल मचला. फिसला और सीधा तुम्हारी बांहों में पनाह मिल गई. मैं अब भी तैयार हूं. तुम शादीशुदा हो, तुम्हें सोचना है. तुम सोचो. मेरा प्यार सच्चा है. मुझे नहीं सोचना क्योंकि मैं अकेला हूं. मैं तुम्हारे साथ सारा जीवन गुजारने को तैयार हूं लेकिन वफा के वादे के साथ.’

मैं रो पड़ी. मैं ने राज से कहा, ‘तुम ने पहले ये सब क्यों नहीं कहा.’

‘तुम ने पूछा नहीं.’

‘लेकिन जो जिस्मानी संबंध बने थे?’

‘वह एक कमजोर पल था. वह वह समय था जब तुम कमजोर पड़ गई थीं. मैं कमजोर पड़ गया था. वह पल अब गुजर चुका है. उस कमजोर पल में हम प्यार कर बैठे. इस में न तुम्हारी खता है न मेरी. दिल पर किस का जोर चला है. लेकिन अब बात शादी की है.’

राज की बातों में सचाई थी. वह मुझ से प्यार करता था या मेरे जिस्म से बंध चुका था. जो भी हो, वह कुंआरा था. तनहा था. उसे हमसफर के रूप में कोई और न मिला, मैं मिल गई. मुझे भी उन कमजोर पलों को भूलना चाहिए था जिन में मैं ने अपने विवाह को अपवित्र कर दिया. मैं परपुरुष के साथ सैक्स करने के सुख में, देह की तृप्ति में ऐसी उलझी कि सबकुछ भूल गई. अब एक और सब से बड़ा कदम या सब से बड़ी बेवकूफी कि मैं अपने पति से तलाक ले कर राज से शादी कर लूं. क्या करूं मैं, मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था.  मैं ने राज से पूछा, ‘मेरी जगह तुम होते तो क्या करते?’

राज हंस कर बोला, ‘ये तो दिल की बातें हैं. तुम्हारी तुम जानो. यदि तुम्हारी जगह मैं होता तो शायद मैं तुम्हारे प्यार में ही न पड़ता या अपने कमजोर पड़ने वाले क्षणों के लिए अपनेआप से माफी मांगता. पता नहीं, मैं क्या करता?’

राज ये सब कहीं इसलिए तो नहीं कह रहा कि मैं अपनी गलती मान कर वापस चली जाऊं, सब भूल कर. फिर जो इतना समय इतनी रातें राज की बांहों में बिताईं. वह क्या था? प्यार नहीं मात्र वासना थी? दलदल था शरीर की भूख का? कहीं ऐसा तो नहीं कि राज का दिल भर गया हो मुझ से, अपनी हवस की प्यास बुझा ली और अब विवाह की रीतिनीति समझा रहा हो? यदि ऐसी बात थी तो जब मैं ने कहा था कि मैं ब्याहता हूं तो फिर क्यों कहा था कि किस किताब में लिखा है कि शादीशुदा प्यार नहीं कर सकते?

राज ने आगे कहा, ‘किसी स्त्री के आगोश में किसी कुंआरे पुरुष का पहला संपर्क उस के जीवन का सब से बड़ा रोमांच होता है. मैं न होता कोई और होता तब भी यही होता. हां, यदि लड़की कुंआरी होती, अकेली होती तो इतनी बातें ही न होतीं. तुम उन क्षणों में कमजोर पड़ीं या बहकीं, यह तो मैं नहीं जानता लेकिन जब तुम्हारे साथ का साया पड़ा मन पर, तो प्यार हो गया और जिसे प्यार कहते हैं उसे गलत रास्ता नहीं दिखा सकते.’

मैं रोने लगी, ‘मैं ने तो अपने हाथों अपना सबकुछ बरबाद कर लिया. तुम्हें सौंप दिया. अब तुम मुझे दिल की दुनिया से दूर हकीकत पर ला कर छोड़ रहे हो.’

‘तुम चाहो तो अब भी मैं शादी करने को तैयार हूं. क्या तुम मेरे साथ मेरी वफादार बन कर रह सकती हो, सबकुछ छोड़ कर, सबकुछ भूल कर?’ राज ने फिर दोहराया.

इधर, आनंद, मेरे पति वापस आ गए. मैं अजीब से चक्रव्यूह में फंसी हुई थी. मैं क्या करूं? क्या न करूं? आनंद के आते ही घर के काम की जिम्मेदारी. एक पत्नी बन कर रहना. मेरा बेटा भी वापस आ चुका था. मुझे मां और पत्नी दोनों का फर्ज निभाना था. मैं निभा भी रही थी. और ये निभाना किसी पर कोई एहसान नहीं था. ये तो वे काम थे जो सहज ही हो जाते थे. लेकिन आनंद के दफ्तर और बेटे के स्कूल जाते ही राज आ जाता या मैं उस से मिलने चल पड़ती, दिल के हाथों मजबूर हो कर.

मैं ने राज से कहा, ‘‘मैं तुम्हें भूल नहीं पा रही हूं.’’

‘‘तो छोड़ दो सबकुछ.’’

‘‘मैं ऐसा भी नहीं कर सकती.’’

‘‘यह तो दोतरफा बेवफाई होगी और तुम्हारी इस बेवफाई से होगा यह कि मेरा प्रेम किसी अपराधकथा की पत्रिका में अवैध संबंध की कहानी के रूप में छप जाएगा. तुम्हारा पति तुम्हारी या मेरी हत्या कर के जेल चला जाएगा. हमारा प्रेम पुलिस केस बन जाएगा,’’ राज ने गंभीर होते हुए कहा.

मैं भी डर गई और बात सच भी कही थी राज ने. फिर वह मुझ से क्यों मिलता है? यदि मैं पूछूंगी तो हंस कर कहेगा कि तुम आती हो, मैं इनकार कैसे कर दूं. मैं भंवर में फंस चुकी थी. एक तरफ मेरा हंसताखेलता परिवार, मेरी सुखी विवाहित जिंदगी, मेरा पति, मेरा बेटा और दूसरी तरफ उन कमजोर पलों का साथी राज जो आज भी मेरी कमजोरी है.

इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. पति को भनक लगी. उन्होंने दोटूक कहा, ‘‘रहना है तो तरीके से रहो वरना तलाक लो और जहां मुंह काला करना हो करो. दो में से कोई एक चुन लो, प्रेमी या पति. दो नावों की सवारी तुम्हें डुबो देगी और हमें भी.’’

मैं शर्मिंदा थी. मैं गुनाहगार थी. मैं चुप रही. मैं सुनती रही. रोती रही.

मैं फिर राज के पास पहुंची. वह कलाकार था. गायक था. उसे मैं ने बताया कि मेरे पति ने मुझ से क्याक्या कहा है और अपने शर्मसार होने के विषय में भी. उस ने कहा, ‘‘यदि तुम्हें शर्मिंदगी है तो तुम अब तक गुनाह कर रही थीं. तुम्हारा पति सज्जन है. यदि हिंसक होता तो तुम नहीं आतीं, तुम्हारे मरने की खबर आती. अब मेरा निर्णय सुनो. मैं तुम से शादी नहीं कर सकता. मैं एक ऐसी औरत से शादी करने की सोच भी नहीं सकता जो दोहरा जीवन जीए. तुम मेरे लायक नहीं हो. आज के बाद मुझ से मिलने की कोशिश मत करना. वे कमजोर पल मेरी पूरी जिंदगी को कमजोर बना कर गिरा देंगे. आज के बाद आईं तो बेवफा कहलाओगी दोनों तरफ से. उन कमजोर पलों को भूलने में ही भलाई है.’’

मैं चली आई. उस के बाद कभी नहीं मिली राज से. रीता ने ही एक बार बताया कि वह शहर छोड़ कर चला गया है. हां, अपनी बेवफाई, चरित्रहीनता पर अकसर मैं शर्मिंदगी महसूस करती रहती हूं. खासकर तब जब कोई वफा का किस्सा निकले और मैं उस किस्से पर गर्व करने लगूं तो पति की नजरों में कुछ हिकारत सी दिखने लगती है. मानो कह रहे हों, तुम और वफा. पति सभ्य थे, सुशिक्षित थे और परिवार के प्रति समर्पित.

कभी कुलटा, चरित्रहीन, वेश्या नहीं कहा. लेकिन अब शायद उन की नजरों में मेरे लिए वह सम्मान, प्यार न रहा हो. लेकिन उन्होंने कभी एहसास नहीं दिलाया. न ही कभी अपनी जिम्मेदारियों से मुंह छिपाया.

मैं सचमुच आज भी जब उन कमजोर पलों को सोचती हूं तो अपनेआप को कोसती हूं. काश, उस क्षण, जब मैं कमजोर पड़ गई थी, कमजोर न पड़ती तो आज पूरे गर्व से तन कर जीती. लेकिन क्या करूं, हर गुनाह सजा ले कर आता है. मैं यह सजा आत्मग्लानि के रूप में भोग रही थी. राज जैसे पुरुष बहका देते हैं लेकिन बरबाद होने से बचा भी लेते हैं.

स्त्री के लिए सब से महत्त्वपूर्ण होती है घर की दहलीज, अपनी शादी, अपना पति, अपना परिवार, अपने बच्चे. शादीशुदा औरत की जिंदगी में ऐसे मोड़ आते हैं कभीकभी. उन में फंस कर सबकुछ बरबाद करने से अच्छा है कि कमजोर न पड़े और जो भी सुख तलाशना हो, अपने घरपरिवार, पति, बच्चों में ही तलाशे. यही हकीकत है, यही रिवाज, यही उचित भी है.

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February 01, 2022 at 09:54AM

Valentine’s Special- डिवोर्सी: मुक्ति ने शादी के महीने भर बाद ही तलाक क्यों ले लिया

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February 01, 2022 at 09:51AM

Valentine’s Special: डिवोर्सी- भाग 1: मुक्ति ने शादी के महीने भर बाद ही तलाक क्यों ले लिया

वह डिवोर्सी है. यह बात सारे स्टाफ को पता थी. मुझे तो इंटरव्यू के समय ही पता चल गया था. एक बड़े प्राइवेट कालेज में हमारा साक्षात्कार एकसाथ था. मेरे पास पुस्तकालय विज्ञान में डिगरी थी. उस के पास मास्टर डिगरी. कालेज की साक्षात्कार कमेटी में प्राचार्य महोदया जो कालेज की मालकिन, अध्यक्ष सभी कुछ वही एकमात्र थीं. हमें बताया गया था कि कमेटी इंटरव्यू लेगी, मगर जब कमरे के अंदर पहुंचे तो वही थीं यानी पूरी कमेटी स्नेहा ही थीं. उन्होंने हमारे भरे हुए फार्म और डिगरियां देखीं. फिर मुझ से कहा, ‘‘आप शादीशुदा हैं.’’ ‘‘जी.’’

‘‘बी. लिब. हैं?’’ ‘‘जी,’’ मैं ने कहा.

फिर उन्होंने मेरे पास खड़ी उस अति सुंदर व गोरी लड़की से पूछा, ‘‘आप की मास्टर डिगरी है? एम.लिब. हैं आप मुक्ति?’’ ‘‘जी,’’ उस ने कहा. लेकिन उस के जी कहने में मेरे जैसी दीनता नहीं थी.

‘‘आप डिवोर्सी हैं?’’ ‘‘जी,’’ उस ने बेझिझक कहा.

‘‘पूछ सकती हूं क्यों?’’ ‘‘व्यक्तिगत मैटर,’’ उस ने जवाब देना उचित नहीं समझा.

‘‘ओके,’’ कालेज की मालकिन, जो अध्यक्ष व प्राचार्य भी थीं, ने कहा. ‘‘तो आप आज से लाइब्रेरियन की पोस्ट संभालेंगी और कार्तिक आप सहायक लाइब्रेरियन. और हां अटैंडैंट की पोस्ट इस वर्ष नहीं है. आप दोनों को ही सब कुछ संभालना है.’’

‘‘जी,’’ हम दोनों के मुंह से एकसाथ निकला. इस प्राइवेट कालेज में मेरा वेतन क्व15 हजार मासिक था. और मेरी सीनियर मुक्ति का 20 हजार. मुक्ति अब मेरे लिए मुक्तिजी थी क्योंकि वे मुझ से बड़ी पोस्ट पर थीं.

मुक्ति के बाहर जाते ही मैं भी बाहर निकलने ही वाला था कि प्राचार्य महोदया ने मुझे रोकते हुए कहा, ‘‘कार्तिक डिवोर्सी है… संभल कर… भूखी शेरनी कच्चा खा जाती है शिकार को,’’ कह वे जोर से हंसती हुई आगे बोलीं, ‘‘मजाक कर रही थी, आप जा सकते हैं.’’ विशाल लाइब्रेरी कक्ष. काम बहुत ज्यादा नहीं रहता था. मैं मुक्तिजी के साथ ही काम करता था, बल्कि उन के अधीनस्थ था. मुझे उन के डिवोर्सी होने से हमदर्दी थी. दुख था… इतनी सुंदर स्त्री… कैसा बेवकूफ पति है, जिस ने इसे डिवोर्स दे दिया. लेकिन मुक्तिजी के चेहरे पर कोई दुख नहीं था. वे खूब खुश रहतीं. हरदम हंसीमजाक करती रहतीं. पहले तो उन्होंने मुझ से अपने नाम के आगे जी लगवाना बंद करवाया, ‘‘आप की उम्र 30 वर्ष है और मेरी 29. एक साल छोटी हूं आप से. यह जी लगाना बंद करिए, केवल मुक्ति कहा करिए.’’

‘‘लेकिन आप सीनियर हैं.’’ ‘‘यह कौन सी फौज या पुलिस की नौकरी है. इतने अनुशासन की जरूरत नहीं है. हम साथ काम करते हैं. दोस्तों की तरह बात करें तो ज्यादा सहज रहेगा मेरे लिए.’’

मैं उन की बात से सहमत था. इन 8 महीनों में हम एकदूसरे से बहुतघुल मिल गए थे. विद्यालय के काम में एकदूसरे की मदद कर दिया करते थे. अपनी हर बात एकदूसरे को बता दिया करते थे. उन्होंने अपने जीवन को ले कर, परिवार को ले कर कभी कोई शिकायत नहीं की और न ही मुझ से कभी मेरे परिवार के बारे में पूछा. वे सिर्फ इतना पूछतीं, ‘‘और घर में सब ठीक हैं?’’

उन के हंसीमजाक से मुझे कई बार लगता कि वे अपने अंदर के दर्द को छिपाने के लिए दिखावे की हंसी हंसती हैं. लेकिन मुझे बहुत समय बाद भी ऐसा कुछ नजर नहीं आया उन में. कोई दर्द, तकलीफ, परेशानी नहीं और मैं हद से ज्यादा जानने को उत्सुक था कि उन के पति ने उन्हें तलाक क्यों दिया? हम लंच साथ करते. चाय साथ पीते. इधरउधर की बातें भी दोस्तों की तरह मिल कर करते. कालेज के काम से भी कई बार साथ बाहर जाना होता.

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वह डिवोर्सी है. यह बात सारे स्टाफ को पता थी. मुझे तो इंटरव्यू के समय ही पता चल गया था. एक बड़े प्राइवेट कालेज में हमारा साक्षात्कार एकसाथ था. मेरे पास पुस्तकालय विज्ञान में डिगरी थी. उस के पास मास्टर डिगरी. कालेज की साक्षात्कार कमेटी में प्राचार्य महोदया जो कालेज की मालकिन, अध्यक्ष सभी कुछ वही एकमात्र थीं. हमें बताया गया था कि कमेटी इंटरव्यू लेगी, मगर जब कमरे के अंदर पहुंचे तो वही थीं यानी पूरी कमेटी स्नेहा ही थीं. उन्होंने हमारे भरे हुए फार्म और डिगरियां देखीं. फिर मुझ से कहा, ‘‘आप शादीशुदा हैं.’’ ‘‘जी.’’

‘‘बी. लिब. हैं?’’ ‘‘जी,’’ मैं ने कहा.

फिर उन्होंने मेरे पास खड़ी उस अति सुंदर व गोरी लड़की से पूछा, ‘‘आप की मास्टर डिगरी है? एम.लिब. हैं आप मुक्ति?’’ ‘‘जी,’’ उस ने कहा. लेकिन उस के जी कहने में मेरे जैसी दीनता नहीं थी.

‘‘आप डिवोर्सी हैं?’’ ‘‘जी,’’ उस ने बेझिझक कहा.

‘‘पूछ सकती हूं क्यों?’’ ‘‘व्यक्तिगत मैटर,’’ उस ने जवाब देना उचित नहीं समझा.

‘‘ओके,’’ कालेज की मालकिन, जो अध्यक्ष व प्राचार्य भी थीं, ने कहा. ‘‘तो आप आज से लाइब्रेरियन की पोस्ट संभालेंगी और कार्तिक आप सहायक लाइब्रेरियन. और हां अटैंडैंट की पोस्ट इस वर्ष नहीं है. आप दोनों को ही सब कुछ संभालना है.’’

‘‘जी,’’ हम दोनों के मुंह से एकसाथ निकला. इस प्राइवेट कालेज में मेरा वेतन क्व15 हजार मासिक था. और मेरी सीनियर मुक्ति का 20 हजार. मुक्ति अब मेरे लिए मुक्तिजी थी क्योंकि वे मुझ से बड़ी पोस्ट पर थीं.

मुक्ति के बाहर जाते ही मैं भी बाहर निकलने ही वाला था कि प्राचार्य महोदया ने मुझे रोकते हुए कहा, ‘‘कार्तिक डिवोर्सी है… संभल कर… भूखी शेरनी कच्चा खा जाती है शिकार को,’’ कह वे जोर से हंसती हुई आगे बोलीं, ‘‘मजाक कर रही थी, आप जा सकते हैं.’’ विशाल लाइब्रेरी कक्ष. काम बहुत ज्यादा नहीं रहता था. मैं मुक्तिजी के साथ ही काम करता था, बल्कि उन के अधीनस्थ था. मुझे उन के डिवोर्सी होने से हमदर्दी थी. दुख था… इतनी सुंदर स्त्री… कैसा बेवकूफ पति है, जिस ने इसे डिवोर्स दे दिया. लेकिन मुक्तिजी के चेहरे पर कोई दुख नहीं था. वे खूब खुश रहतीं. हरदम हंसीमजाक करती रहतीं. पहले तो उन्होंने मुझ से अपने नाम के आगे जी लगवाना बंद करवाया, ‘‘आप की उम्र 30 वर्ष है और मेरी 29. एक साल छोटी हूं आप से. यह जी लगाना बंद करिए, केवल मुक्ति कहा करिए.’’

‘‘लेकिन आप सीनियर हैं.’’ ‘‘यह कौन सी फौज या पुलिस की नौकरी है. इतने अनुशासन की जरूरत नहीं है. हम साथ काम करते हैं. दोस्तों की तरह बात करें तो ज्यादा सहज रहेगा मेरे लिए.’’

मैं उन की बात से सहमत था. इन 8 महीनों में हम एकदूसरे से बहुतघुल मिल गए थे. विद्यालय के काम में एकदूसरे की मदद कर दिया करते थे. अपनी हर बात एकदूसरे को बता दिया करते थे. उन्होंने अपने जीवन को ले कर, परिवार को ले कर कभी कोई शिकायत नहीं की और न ही मुझ से कभी मेरे परिवार के बारे में पूछा. वे सिर्फ इतना पूछतीं, ‘‘और घर में सब ठीक हैं?’’

उन के हंसीमजाक से मुझे कई बार लगता कि वे अपने अंदर के दर्द को छिपाने के लिए दिखावे की हंसी हंसती हैं. लेकिन मुझे बहुत समय बाद भी ऐसा कुछ नजर नहीं आया उन में. कोई दर्द, तकलीफ, परेशानी नहीं और मैं हद से ज्यादा जानने को उत्सुक था कि उन के पति ने उन्हें तलाक क्यों दिया? हम लंच साथ करते. चाय साथ पीते. इधरउधर की बातें भी दोस्तों की तरह मिल कर करते. कालेज के काम से भी कई बार साथ बाहर जाना होता.

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February 01, 2022 at 09:00AM

Valentine’s Special- दूरदर्शिता: विवेक क्यों माधुरी से दूर हो गया?

रो रो कर माधुरी अचेत हो गई थी. समीप बैठी रोती कलपती मां ने उस का सिर अपनी गोद में रख लिया और उसे झकझोरने लगीं, ‘‘होश में आ, बेटी.’’ एक महिला दौड़ कर गिलास में पानी भर लाई. कुछ छींटे माधुरी के मुंह पर मारे तो धीरेधीरे उस ने आंखें खोलीं. वस्तुस्थिति का ज्ञान होते ही वह फिर विलाप करने लगी थी, ‘‘तुम मुझे छोड़ कर नहीं जा सकते. मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी. मां, उन्हें उठाओ न. मैं ने तो कभी किसी का बुरा नहीं किया, फिर मुझ पर यह कहर क्यों टूटा? क्यों मुझे उजाड़ डाला…’’ उसे फिर गश आ गया था.

आंगन में बैठी मातमपुरसी करने आईं सभी महिलाओं की आंखें नम थीं. हादसा ही ऐसा हुआ था कि जिस ने भी सुना, एकबारगी स्तब्ध रह गया. माधुरी का पति विवेक व्यापार के सिलसिले में कार से दूसरे शहर जा रहा था. सामने से अंधी गति से आते ट्रक ने इतनी बुरी तरह से रौंद डाला था कि कार के साथसाथ उस का शरीर भी बुरी तरह क्षतविक्षत हो गया. ट्रक ड्राइवर घबरा कर तेजी से वहां से भाग निकलने में सफल हो गया.

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‘‘कहां है?’’ अचानक होश में आते ही माधुरी ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘गुडि़या सोई हुई है,’’ बड़ी बहन ने धीरे से कहा.

‘‘उसे दूध…’’‘‘मैं ने पिला दिया है.’’

कुछ न करने की मजबूरी से तड़प रहे थें

बड़ी बहन बंबई से आई थी. उस का पति व इकलौता 5 वर्षीय बेटा भी साथ था. विवेक की असमय दर्दनाक मृत्यु से पूरा परिवार भीतर तक हिल गया था. मांबाप अपने सीने पर पत्थर रख बेटी को विदा करते हैं. अगर वही कलेजे का टुकड़ा 2 वर्षों में ही उजड़ कर उन की आंखों के समक्ष आ खड़ा हो तो मांबाप की कारुणिक मनोदशा को सहज ही समझा जा सकता है. पिछले 10 दिनों से रोरो कर उन के आंसू भी सूख चुके थे. बेटी के जीवन में अकस्मात छा गए घटाटोप अंधेरे से वे बुरी तरह विचलित हो गए थे. बेबसी, लाचारी और कुछ न कर पाने की अपनी मजबूरी से वे स्वयं भीतर ही भीतर तड़प रहे थे.

2 वर्ष पहले ही तो माधुरी दुलहन बन विदा हुई थी. क्या उस का रंगरूप था और क्या उस में गुण थे. एक भरीपूरी गुणों और सुंदरता की वह खान थी. रंगरूप ऐसा कि देखने वाला पलभर ठहरने के लिए विवश हो जाए, वह डाक्टर थी. स्वभाव इतना मृदु कि घर वाले उस पर फख्र करते. कभी गुस्से में तो किसी ने देखा ही नहीं था. अपने स्नेह, प्रेम, विश्वास, अपनत्व के लबालब भरे प्याले से वह विवेक को पूरी तरह संतुष्ट रखे हुए थी.

‘सच कहूं माधुरी, तुम्हें पा कर मेरा जीवन धन्य हो गया,’ अकसर विवेक कहता रहता.माधुरी मंदमंद मुसकराती तो वह उसे आलिंगनबद्ध कर प्रेम की फुहार कर देता. तब वह भी तो तृप्त हो जाती थी. कभीकभार हलकी सी तकरार, नोकझोंक भी होती लेकिन वह उन के प्रेम में कमी या दरार न बन कर टौनिक का ही काम करती.एक दिन माधुरी ने कहा था, ‘आज रवींद्र नाट्यगृह में रंगोली की प्रदर्शनी लगी है. चलो, देख कर आते हैं.’

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‘अरे भई, हमें रंगोली से क्या लेनादेना. इस के बजाय कोई फिल्म देख आते हैं. रीगल सिनेमाघर में एक बढि़या अंगरेजी फिल्म लगी है,’ विवेक ने टालते हुए कहा.

‘ऊंह, तुम्हें तो मेरी पसंद से मतलब ही नहीं. हर बार अपनी ही मरजी चलाते हो,’ माधुरी के स्वर में रोष था.

‘कौन सी मरजी चलाई है मैं ने? क्या पिछली बार तुम्हारी पसंद का नाटक देखने नहीं गए थे? उस दिन भी तुम्हारे कहने से फिल्म का प्रोग्राम रद्द किया था…’

‘अच्छा बाबा, बस करो. अब और सूची मत पढ़ो. जो तुम्हारी मरजी हो, करो.’ विवेक चुपचाप कपड़े बदल कर पलंग पर जा लेटा. शायद कुछ खफा हो गया था. माधुरी भी दूसरी ओर मुंह कर के लेट गई. खाना मेज पर पड़ापड़ा ठंडा हो गया. आधा घंटा बीत गया था.

माधुरी सोच रही थी, ‘झूठा, बेईमान, मुझ से हमेशा कहता है कि तुम कभी नाराज मत होना. मैं तुम्हारा मुसकराता चेहरा ही सदा देखना चाहता हूं. तुम्हें छेड़े बिना मुझे तो नींद ही नहीं आती. तुम तो जानती हो, मैं तुम्हारे बगैर रह नहीं सकता.

‘अब घंटेभर से मैं इधर मुंह किए पड़ी हूं तो पूछा तक नहीं कि क्यों नाराज हो? खाना खाया या नहीं? अब कैसे नींद आ रही है मुझे छेड़े बिना? सभी मर्द एक जैसे होते हैं, मतलबी. अपने स्वार्थ के लिए बीवी की तारीफें, खुशामदें करते हैं, मिमियाते हैं और काम निकल जाने पर फिर शेर बन जाते हैं.?

विवेक ने पलट कर देखा, ‘क्या हुआ?’

‘मेरा सिर. घंटेभर से उधर मुंह किए पड़े हो और अब पूछ रहे हो क्या हुआ? न खाना खाया…’ शेष शब्द हलकी सी रुलाई में खो गए.

‘ओह, तो तुम्हें भूख लगी है. फिर इतनी देर से क्यों नहीं कहा?’ विवेक ने उस के आंसुओं से भरे चेहरे को चुंबनों से सराबोर कर दिया, ‘अब तो खुश हो. कल रंगोली देखने चलेंगे. चलो, अब खाना खाते हैं, नाराजगी खत्म.’

फिर खाना गरम कर दोनों ने खाया. ऐसे ही रूठने, मनाने में साल मानो पलों में बीत गया था. घर में ही खोली गई माधुरी की डिस्पैंसरी अच्छी चलने लगी थी. गुडि़या के आ जाने से उन के प्रेम की डोर और दृढ़ हो गई. नाजुक, रुई सी मुलायम गुडि़या को उठाते वक्त विवेक नाटकीय घबराहट दिखाता, ‘भई, मुझे तो इसे उठाने में डर लगता है. गुडि़या रानी, जल्दी से बड़ी हो जाओ. फिर तुम्हारे साथ तुतलाने, बतियाने, खेलने में बड़ा मजा आएगा. तुम भी अपनी मां जैसे नकली रूठनेमनाने के अभिनय करोगी?’ कहते हुए वह माधुरी की ओर शरारत से देखता तो वह भी नकली क्रोध से कहती, ‘अच्छा, तो मेरी नाराजगी आप को नकली लगती है, ठीक है अब असली…’‘न बाबा, न, मैं ने तो मजाक किया था. सचमुच रूठने की बात मत करना.’

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सचमुच की नाराजगी तो विवेक ने ही जाहिर कर दी थी. उस से रूठ कर कितनी दूर चला गया था. उस ने तो कभी स्वप्न में भी इस तरह उजड़ने की कल्पना न की थी.

पिछले 10 दिनों में जब भी माधुरी की चेतना लौटती, यही लगता कि अभी विवेक शरारत से मुसकराते हुए सामने आ खड़ा होगा, ‘देखा, कैसे बुद्धू बनाया तुम्हें. मैं सचमुच में थोड़े ही मरा था. वह तो झूठमूठ अभिनय कर रहा था, तुम्हें तंग करने के लिए.’

माधुरी के चेहरे पर हलकी सी राहत और आंखों में चमक, मुसकराहट देख बड़ी बहन सशंकित हो उठती, ‘‘क्या हुआ, माधुरी?’’

फिर वस्तुस्थिति का भान होते ही वह बहन से लिपट आर्तनाद कर उठती, ‘‘दीदी, मैं क्या करूं? कैसे जिंदगी गुजारूंगी उन के बिना? मेरी गुडि़या अनाथ हो गई…’’ और इस विलाप में वह फिर बेसुध हो जाती.

मां, पिताजी, दीदी, जीजाजी, विवेक की मां, भैयाभाभी देर रात तक बैठते, माधुरी के भविष्य के बारे में विचारविमर्श करते. कोई ठोस निर्णय लेने से पहले माधुरी की राय तो आवश्यक थी ही, पर उस से पहले सर्वसम्मति से किसी निर्णय का आधार तो बनाना था.

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‘‘गुडि़या को माधुरी की बड़ी बहन को सौंप दिया जाए. उस के एक ही बेटा है, गुडि़या वहां भली प्रकार से पल जाएगी. माधुरी अपनी डिस्पैंसरी देखती रहे. फिर जहां जब कोई सुपात्र मिले तो पुनर्विवाह…’’ माधुरी की मां ने धीरेधीरे संकोच के साथ अपने विचार प्रस्तुत कर दिए.

‘‘यह कैसे संभव है?’’ विवेक की मां कुछ तेजी से बोलीं, ‘‘फिर गुडि़या के बगैर माधुरी कैसे रह पाएगी?’’

दीदी, जीजाजी अब तक आपस में काफी गुफ्तगू कर चुके थे. दीदी बोलीं, ‘‘हम गुडि़या को बाकायदा गोद लेने के लिए तैयार हैं.’’

‘‘माधुरी को हम समझा लेंगे. यह तो निश्चित है कि गुडि़या के कारण उस के पुनर्विवाह में अड़चनें आएंगी और यह भी उतना ही सच है कि अपनी ममता को मारने के लिए वह कदापि तैयार नहीं होगी. विवेक के प्रेम की निशानी वह खोना नहीं चाहेगी, पर जीवन में कभीकभी ऐसे निर्णय लेने के लिए विवश होना पड़ता है जिन्हें हमारा मन कहीं गहरे तक स्वीकारने की इजाजत नहीं देता,’’ डबडबा आई आंखों को पल्लू से पोंछते हुए मां ने कहा.

‘‘अगर माधुरी इस निर्णय के लिए तैयार हो तो ठीक है,’’ विवेक की मां के स्वर में निराशा थी, ‘‘लेकिन लोग क्या कहेंगे? समाज द्वारा उठाए गए सवालों, लोगों की चुभती बातों, तानों, उठती उंगलियों…इन सब का सामना…’’ अपनी शंका भी जाहिर कर दी उन्होंने. साथ ही, यह भी कहा, ‘‘हमें लोगों की जबानों या नजरों से अधिक अपनी बेटी के भविष्य की चिंता है. लोग 2 दिन बोल कर चुप हो जाएंगे.’’

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माधुरी के सामने उस के भविष्य की भूमिका बांधते हुए मां ने ही धीरेधीरे झिझकते हुए टुकड़ों में अपनी बात को रखा. परंतु वह सुनते ही बिफर पड़ी, ‘‘आप लोग मेरी गुडि़या मुझ से छीनना चाहते हैं. पति तो पहले ही साथ छोड़ गए…’’

काफी वक्त लगा था उसे सहज होने में. मां ने फिर बड़े धैर्य से उसे समझाया था. साथ ही, दीदी, विवेक की मां, भाभी ने भी अपनी सहमति प्रकट की और पहाड़ सी जिंदगी का हवाला देते हुए निर्णय को स्वीकारने की राय दी.

तेरहवीं के बाद जब गुडि़या को दीदी की गोद में डाला गया तो इस अद्भुत लाचार व दूरदर्शी फैसले पर जहां घर के सदस्यों की आंखें नम थीं, वहीं समाज में तेजी से कानाफूसी आरंभ हो गई थी. पति व बेटी की जुदाई की दोहरी पीड़ा से व्यथित माधुरी की रोती, थकान से बोझिल आंखें पलभर को मुंद गई थीं और सभी यंत्रणाओं से पलभर के लिए उस ने नजात पा ली थी.

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रो रो कर माधुरी अचेत हो गई थी. समीप बैठी रोती कलपती मां ने उस का सिर अपनी गोद में रख लिया और उसे झकझोरने लगीं, ‘‘होश में आ, बेटी.’’ एक महिला दौड़ कर गिलास में पानी भर लाई. कुछ छींटे माधुरी के मुंह पर मारे तो धीरेधीरे उस ने आंखें खोलीं. वस्तुस्थिति का ज्ञान होते ही वह फिर विलाप करने लगी थी, ‘‘तुम मुझे छोड़ कर नहीं जा सकते. मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी. मां, उन्हें उठाओ न. मैं ने तो कभी किसी का बुरा नहीं किया, फिर मुझ पर यह कहर क्यों टूटा? क्यों मुझे उजाड़ डाला…’’ उसे फिर गश आ गया था.

आंगन में बैठी मातमपुरसी करने आईं सभी महिलाओं की आंखें नम थीं. हादसा ही ऐसा हुआ था कि जिस ने भी सुना, एकबारगी स्तब्ध रह गया. माधुरी का पति विवेक व्यापार के सिलसिले में कार से दूसरे शहर जा रहा था. सामने से अंधी गति से आते ट्रक ने इतनी बुरी तरह से रौंद डाला था कि कार के साथसाथ उस का शरीर भी बुरी तरह क्षतविक्षत हो गया. ट्रक ड्राइवर घबरा कर तेजी से वहां से भाग निकलने में सफल हो गया.

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‘‘कहां है?’’ अचानक होश में आते ही माधुरी ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘गुडि़या सोई हुई है,’’ बड़ी बहन ने धीरे से कहा.

‘‘उसे दूध…’’‘‘मैं ने पिला दिया है.’’

कुछ न करने की मजबूरी से तड़प रहे थें

बड़ी बहन बंबई से आई थी. उस का पति व इकलौता 5 वर्षीय बेटा भी साथ था. विवेक की असमय दर्दनाक मृत्यु से पूरा परिवार भीतर तक हिल गया था. मांबाप अपने सीने पर पत्थर रख बेटी को विदा करते हैं. अगर वही कलेजे का टुकड़ा 2 वर्षों में ही उजड़ कर उन की आंखों के समक्ष आ खड़ा हो तो मांबाप की कारुणिक मनोदशा को सहज ही समझा जा सकता है. पिछले 10 दिनों से रोरो कर उन के आंसू भी सूख चुके थे. बेटी के जीवन में अकस्मात छा गए घटाटोप अंधेरे से वे बुरी तरह विचलित हो गए थे. बेबसी, लाचारी और कुछ न कर पाने की अपनी मजबूरी से वे स्वयं भीतर ही भीतर तड़प रहे थे.

2 वर्ष पहले ही तो माधुरी दुलहन बन विदा हुई थी. क्या उस का रंगरूप था और क्या उस में गुण थे. एक भरीपूरी गुणों और सुंदरता की वह खान थी. रंगरूप ऐसा कि देखने वाला पलभर ठहरने के लिए विवश हो जाए, वह डाक्टर थी. स्वभाव इतना मृदु कि घर वाले उस पर फख्र करते. कभी गुस्से में तो किसी ने देखा ही नहीं था. अपने स्नेह, प्रेम, विश्वास, अपनत्व के लबालब भरे प्याले से वह विवेक को पूरी तरह संतुष्ट रखे हुए थी.

‘सच कहूं माधुरी, तुम्हें पा कर मेरा जीवन धन्य हो गया,’ अकसर विवेक कहता रहता.माधुरी मंदमंद मुसकराती तो वह उसे आलिंगनबद्ध कर प्रेम की फुहार कर देता. तब वह भी तो तृप्त हो जाती थी. कभीकभार हलकी सी तकरार, नोकझोंक भी होती लेकिन वह उन के प्रेम में कमी या दरार न बन कर टौनिक का ही काम करती.एक दिन माधुरी ने कहा था, ‘आज रवींद्र नाट्यगृह में रंगोली की प्रदर्शनी लगी है. चलो, देख कर आते हैं.’

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‘अरे भई, हमें रंगोली से क्या लेनादेना. इस के बजाय कोई फिल्म देख आते हैं. रीगल सिनेमाघर में एक बढि़या अंगरेजी फिल्म लगी है,’ विवेक ने टालते हुए कहा.

‘ऊंह, तुम्हें तो मेरी पसंद से मतलब ही नहीं. हर बार अपनी ही मरजी चलाते हो,’ माधुरी के स्वर में रोष था.

‘कौन सी मरजी चलाई है मैं ने? क्या पिछली बार तुम्हारी पसंद का नाटक देखने नहीं गए थे? उस दिन भी तुम्हारे कहने से फिल्म का प्रोग्राम रद्द किया था…’

‘अच्छा बाबा, बस करो. अब और सूची मत पढ़ो. जो तुम्हारी मरजी हो, करो.’ विवेक चुपचाप कपड़े बदल कर पलंग पर जा लेटा. शायद कुछ खफा हो गया था. माधुरी भी दूसरी ओर मुंह कर के लेट गई. खाना मेज पर पड़ापड़ा ठंडा हो गया. आधा घंटा बीत गया था.

माधुरी सोच रही थी, ‘झूठा, बेईमान, मुझ से हमेशा कहता है कि तुम कभी नाराज मत होना. मैं तुम्हारा मुसकराता चेहरा ही सदा देखना चाहता हूं. तुम्हें छेड़े बिना मुझे तो नींद ही नहीं आती. तुम तो जानती हो, मैं तुम्हारे बगैर रह नहीं सकता.

‘अब घंटेभर से मैं इधर मुंह किए पड़ी हूं तो पूछा तक नहीं कि क्यों नाराज हो? खाना खाया या नहीं? अब कैसे नींद आ रही है मुझे छेड़े बिना? सभी मर्द एक जैसे होते हैं, मतलबी. अपने स्वार्थ के लिए बीवी की तारीफें, खुशामदें करते हैं, मिमियाते हैं और काम निकल जाने पर फिर शेर बन जाते हैं.?

विवेक ने पलट कर देखा, ‘क्या हुआ?’

‘मेरा सिर. घंटेभर से उधर मुंह किए पड़े हो और अब पूछ रहे हो क्या हुआ? न खाना खाया…’ शेष शब्द हलकी सी रुलाई में खो गए.

‘ओह, तो तुम्हें भूख लगी है. फिर इतनी देर से क्यों नहीं कहा?’ विवेक ने उस के आंसुओं से भरे चेहरे को चुंबनों से सराबोर कर दिया, ‘अब तो खुश हो. कल रंगोली देखने चलेंगे. चलो, अब खाना खाते हैं, नाराजगी खत्म.’

फिर खाना गरम कर दोनों ने खाया. ऐसे ही रूठने, मनाने में साल मानो पलों में बीत गया था. घर में ही खोली गई माधुरी की डिस्पैंसरी अच्छी चलने लगी थी. गुडि़या के आ जाने से उन के प्रेम की डोर और दृढ़ हो गई. नाजुक, रुई सी मुलायम गुडि़या को उठाते वक्त विवेक नाटकीय घबराहट दिखाता, ‘भई, मुझे तो इसे उठाने में डर लगता है. गुडि़या रानी, जल्दी से बड़ी हो जाओ. फिर तुम्हारे साथ तुतलाने, बतियाने, खेलने में बड़ा मजा आएगा. तुम भी अपनी मां जैसे नकली रूठनेमनाने के अभिनय करोगी?’ कहते हुए वह माधुरी की ओर शरारत से देखता तो वह भी नकली क्रोध से कहती, ‘अच्छा, तो मेरी नाराजगी आप को नकली लगती है, ठीक है अब असली…’‘न बाबा, न, मैं ने तो मजाक किया था. सचमुच रूठने की बात मत करना.’

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सचमुच की नाराजगी तो विवेक ने ही जाहिर कर दी थी. उस से रूठ कर कितनी दूर चला गया था. उस ने तो कभी स्वप्न में भी इस तरह उजड़ने की कल्पना न की थी.

पिछले 10 दिनों में जब भी माधुरी की चेतना लौटती, यही लगता कि अभी विवेक शरारत से मुसकराते हुए सामने आ खड़ा होगा, ‘देखा, कैसे बुद्धू बनाया तुम्हें. मैं सचमुच में थोड़े ही मरा था. वह तो झूठमूठ अभिनय कर रहा था, तुम्हें तंग करने के लिए.’

माधुरी के चेहरे पर हलकी सी राहत और आंखों में चमक, मुसकराहट देख बड़ी बहन सशंकित हो उठती, ‘‘क्या हुआ, माधुरी?’’

फिर वस्तुस्थिति का भान होते ही वह बहन से लिपट आर्तनाद कर उठती, ‘‘दीदी, मैं क्या करूं? कैसे जिंदगी गुजारूंगी उन के बिना? मेरी गुडि़या अनाथ हो गई…’’ और इस विलाप में वह फिर बेसुध हो जाती.

मां, पिताजी, दीदी, जीजाजी, विवेक की मां, भैयाभाभी देर रात तक बैठते, माधुरी के भविष्य के बारे में विचारविमर्श करते. कोई ठोस निर्णय लेने से पहले माधुरी की राय तो आवश्यक थी ही, पर उस से पहले सर्वसम्मति से किसी निर्णय का आधार तो बनाना था.

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‘‘गुडि़या को माधुरी की बड़ी बहन को सौंप दिया जाए. उस के एक ही बेटा है, गुडि़या वहां भली प्रकार से पल जाएगी. माधुरी अपनी डिस्पैंसरी देखती रहे. फिर जहां जब कोई सुपात्र मिले तो पुनर्विवाह…’’ माधुरी की मां ने धीरेधीरे संकोच के साथ अपने विचार प्रस्तुत कर दिए.

‘‘यह कैसे संभव है?’’ विवेक की मां कुछ तेजी से बोलीं, ‘‘फिर गुडि़या के बगैर माधुरी कैसे रह पाएगी?’’

दीदी, जीजाजी अब तक आपस में काफी गुफ्तगू कर चुके थे. दीदी बोलीं, ‘‘हम गुडि़या को बाकायदा गोद लेने के लिए तैयार हैं.’’

‘‘माधुरी को हम समझा लेंगे. यह तो निश्चित है कि गुडि़या के कारण उस के पुनर्विवाह में अड़चनें आएंगी और यह भी उतना ही सच है कि अपनी ममता को मारने के लिए वह कदापि तैयार नहीं होगी. विवेक के प्रेम की निशानी वह खोना नहीं चाहेगी, पर जीवन में कभीकभी ऐसे निर्णय लेने के लिए विवश होना पड़ता है जिन्हें हमारा मन कहीं गहरे तक स्वीकारने की इजाजत नहीं देता,’’ डबडबा आई आंखों को पल्लू से पोंछते हुए मां ने कहा.

‘‘अगर माधुरी इस निर्णय के लिए तैयार हो तो ठीक है,’’ विवेक की मां के स्वर में निराशा थी, ‘‘लेकिन लोग क्या कहेंगे? समाज द्वारा उठाए गए सवालों, लोगों की चुभती बातों, तानों, उठती उंगलियों…इन सब का सामना…’’ अपनी शंका भी जाहिर कर दी उन्होंने. साथ ही, यह भी कहा, ‘‘हमें लोगों की जबानों या नजरों से अधिक अपनी बेटी के भविष्य की चिंता है. लोग 2 दिन बोल कर चुप हो जाएंगे.’’

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माधुरी के सामने उस के भविष्य की भूमिका बांधते हुए मां ने ही धीरेधीरे झिझकते हुए टुकड़ों में अपनी बात को रखा. परंतु वह सुनते ही बिफर पड़ी, ‘‘आप लोग मेरी गुडि़या मुझ से छीनना चाहते हैं. पति तो पहले ही साथ छोड़ गए…’’

काफी वक्त लगा था उसे सहज होने में. मां ने फिर बड़े धैर्य से उसे समझाया था. साथ ही, दीदी, विवेक की मां, भाभी ने भी अपनी सहमति प्रकट की और पहाड़ सी जिंदगी का हवाला देते हुए निर्णय को स्वीकारने की राय दी.

तेरहवीं के बाद जब गुडि़या को दीदी की गोद में डाला गया तो इस अद्भुत लाचार व दूरदर्शी फैसले पर जहां घर के सदस्यों की आंखें नम थीं, वहीं समाज में तेजी से कानाफूसी आरंभ हो गई थी. पति व बेटी की जुदाई की दोहरी पीड़ा से व्यथित माधुरी की रोती, थकान से बोझिल आंखें पलभर को मुंद गई थीं और सभी यंत्रणाओं से पलभर के लिए उस ने नजात पा ली थी.

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February 01, 2022 at 09:00AM

Valentine’s Special- हमेशा की तरह: सुमन को उस दिन कौन-सा सरप्राइज मिला

सुबह जब गुलशन की आंख खुली तो सुमन मादक अंगड़ाई ले रही थी. पति को देख कर उस ने नशीली मुसकान फेंकी, जिस से कहते हैं कि समुद्र में ठहरे जहाज भी चल पड़ते हैं. अचानक गुलशन गहरी ठंडी सांस छोड़ने को मजबूर हो गया.

‘काश, पिछले 20 वर्ष लौट आते,’’ गुलशन ने सुमन का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा.

‘‘क्या करते तब?’’ सुमन ने हंस कर पूछा.

गुलशन ने शरारत से कहा, ‘‘किसी लालनीली परी को ले कर बहुत दूर उड़ जाता.’’

सुमन सोच रही थी कि शायद गुलशन उस के लिए कुछ रोमानी जुमले कहेगा. थोड़ी देर पहले जो सुबह सुहावनी लग रही थी और बहुतकुछ मनभावन आशाएं ले कर आई थी, अचानक फीकी सी लगने लगी.

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‘‘मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं?’’ सुमन ने शब्दों पर जोर देते हुए पूछा, ‘‘आज के दिन भी नहीं?’’

‘‘तुम ही तो मेरी लालनीली और सब्जपरी हो,’’ गुलशन अचानक सुमन को भूल कर चादर फेंक कर उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘अरे बाबा, मैं तो भूल ही गया था.’’

सुमन के मन में फिर से आशा जगी, ‘‘क्या भूल गए थे?’’

‘‘बड़ी जरूरी मीटिंग है. थोड़ा जल्दी जाना है,’’ कहतेकहते गुलशन स्नानघर में घुस गया.

सुमन का चेहरा फिर से मुरझा गया. गुलशन 50 करोड़ रुपए की संपत्ति वाले एक कारखाने का प्रबंध निदेशक था. बड़ा तनावभरा जीवन था. कभी हड़ताल, कभी बोनस, कभी मीटिंग तो कभी बोर्ड सदस्यों का आगमन. कभी रोजमर्रा की छोटीछोटी दिखने वाली बड़ी समस्याएं, कभी अधकारियों के घोटाले तो कभी यूनियन वालों की तंग करने वाली हरकतें. इतने सारे झमेलों में फंसा इंसान अकसर अपने अधीनस्थ अधिकारियों से भी परेशान हो जाता है. परामर्शदाताओं ने उसे यही समझाया है कि इतनी परेशानियों के लिए वह खुद जिम्मेदार है. वह अपने अधीनस्थ अधिकारियों में पूरा विश्वास नहीं रखता. वह कार्यविभाजन में भी विश्वास नहीं रखता. जब तक स्वयं संतुष्ट नहीं हो जाता, किसी काम को आगे नहीं बढ़ने देता. यह अगर उस का गुण है तो एक बड़ी कमजोरी भी.

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जल्दीजल्दी उस ने एक टोस्ट खाया और एक गिलास दूध पी कर ब्रीफकेस उठाया. सुमन उस के चेहरे को देख रही थी शायद अभी भी कुछ कहे. पर पति के चेहरे पर केवल तनाव की रेखाएं थीं, कोमल भावनाओं का तो नामोनिशान तक न था. गलशन की कार के स्टार्ट होने की आवाज आई. सुमन ने ठंडी सांस ली. जब गुलशन छोटा अधिकारी था और वेतन भी मामूली था, तब उन का जीवन कितना सुखी था. एक अव्यक्त प्यार का सुखद प्रतीक था, आत्मीयता का सागर था. परंतु आज सबकुछ होते हुए भी कुछ नहीं. दोपहर के 12 बजे थे. प्रेमलता ने घर का सारा काम निबटा दिया था. सुमन भी नहाधो कर बालकनी में बैठी एक पत्रिका देख रही थी. प्रेमलता ने कौफी का प्याला सामने मेज पर रख दिया था.

टैलीफोन की घंटी ने उसे चौंका तो दिया पर साथ ही चेहरे पर एक मुसकान भी ला दी. सोचा, शायद साहब को याद आ ही गया. सिवा गुलशन के और कौन करेगा फोन इस समय? पास रखे फोन को उठा कर मीठे स्वर में कहा, ‘‘हैलो.’’

‘‘हाय, सुमन,’’ गुलशन ही था.

‘‘सुनो,’’ सुमन ने कहना चाहा.

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‘‘देखो, सुबह मैं भूल गया था. और अब मुझे समय नहीं मिलेगा. मिक्की को फोन कर देना. आज उस का जन्मदिन है न,’’ गुलशन ने प्यार से कहा, ‘‘तुम बहुत अच्छी हो.’’ गुलशन ने फोन रख दिया था. सुमन हाथ में पकड़ी उस निर्जीव वस्तु को देखते हुए सोचने लगी, ‘बस, इतना ही याद रहा कि मिक्की का जन्मदिन है.’ मिक्की गुलशन की बहन है. यह एक अजीब संयोग था कि आज सुमन का भी जन्मदिन था. दिन तो दोनों का एक ही था, बस साल अलगअलग थे. शुरू में कई वर्षों तक दोनों अपने जन्मदिन एकसाथ बड़ी धूमधाम से मनाती थीं. बाद में तो अपनअपने परिवारों में उलझती चली गईं. साल में एक यही ऐसा दिन आता है, जब कोई अकेला नहीं रहना चाहता. भीड़भाड़, शोरगुल और जश्न के लिए दिल मचलता है. मांबाप की तो बात ही और है, पर जब अपना परिवार हो तो हर इंसान आत्मीयता के क्षण सब के साथ बांटना चाहता है. गुलशन के साथ बिताए कई आरंभिक जन्मदिन जबजब याद आते, पिछले कुछ वर्षों से चली आ रही उपेक्षा बड़ी चोट करती.

आज भी हमेशा की तरह…

‘कोई बात नहीं. तरक्की और बहुत ऊंचा जाने की कामना अनेक त्याग मांगती है. इस त्याग का सब से पहला शिकार पत्नी तो होगी ही, और अगर स्त्री ऊंची उड़ान भरती है तो पति से दूर होने लगती है,’ सुमन कुछ ऐसी ही विचारधारा में खोई हुई थी कि फोन की घंटी ने उस की तंद्रा भंग कर दी.

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‘‘हैलो,’’ उस ने उदास स्वर में कहा.

‘‘हाय, मां,’’ अलका ने खिलते फूल की तरह उत्साह से कहा, ‘‘जन्मदिन मुबारक हो.’’

बेटी अलका मसूरी में एक स्कूल में पढ़ती है और वहीं होस्टल में रहती है.

‘‘धन्यवाद, बेटी,’’ सुमन ने पुलकित स्वर में कहा, ‘‘कैसी है तू?’’

‘‘अरे, मुझे क्या होगा मां, पहले यह बताओ, क्या पक रहा है जन्मदिन की खुशी में?’’ अलका ने हंस कर पूछा, ‘‘आ जाऊं?’’

‘‘आजा, बहुत याद आ रही है तेरी,’’ सुमन ने प्यार से कहा.

‘‘मां, मुझे भी तुम्हारी दूरी अब अच्छी नहीं लग रही है,’’ अलका ने चौंकने के स्वर में कहा, ‘‘अरे, साढ़े 12 बजने वाले हैं. चलती हूं, मां. कक्षा में जाना है.’’

‘‘ठीक है, बेटी, अच्छी तरह पढ़ना. अच्छे नंबरों से पास होना. अपनी सेहत का ध्यान रखना और रुपयों की जरूरत हो तो फोन कर देना,’’ सुमन ने जल्दीजल्दी से वह सब दोहरा दिया जिसे दोहराते वह कभी थकती नहीं.

अलका खिलखिला पड़ी, ‘‘मां, क्या सारी माएं तुम्हारी तरह ही होती हैं? कभी तो हम मूर्ख संतानों को अपने हाल पर छोड़ दिया करो.’’

‘‘अभी थोड़ी समझेगी तू…’’

अलका ने बात काटते हुए कहा, ‘‘जब मां बनेगी तो जानेगी. अरे मां, बाकी का संवाद मुंहजबानी याद है. ठीक है, जा रही हूं. देर हो रही है.’’ सुमन के चेहरे पर खिन्न मुसकान थी. ‘ये आजकल के बच्चे तो बस.’ धीरे से सोचते हुए फोन बंद कर के रख दिया, ‘कम से कम बेटी को तो याद आई. इतनी दूर है, पर मां का जन्मदिन नहीं भूलती.’ संध्या के 5 बज रहे थे. ‘क्या गुलशन को जल्दी आने के लिए फोन करे? पर नहीं,’ सुमन ने सोचा, ‘जब पति को न तो याद है और न ही इस के प्रति कोई भावना, तो उसे याद दिला कर अपनी मानहानि करवाएगी.’

दरवाजे की घंटी बजी. सुमन भी कभीकभी बौखला जाती है. दरवाजे की नहीं, फोन की घंटी थी. लपक कर रिसीवर उठाया.

‘‘हैलो,’’ सुमन का स्वर भर्रा गया.

‘‘हाय, मां, जन्मदिन मुबारक,’’ न्यूयार्क से बेटे मन्नू का फोन था.

सुमन की आंखों में आंसू आ गए और आवाज भी भीग गई, ‘‘बेटे, मां की याद आ गई?’’

‘‘क्यों मां?’’ मन्नू ने शिकायती स्वर में पूछा, ‘‘दूर होने से क्या तुम मां नहीं रहीं? अरे मां, मेरे जैसा बेटा तुम्हें कहां मिलेगा?’’

‘‘चल हट, झूठा कहीं का,’’ सुमन ने मुसकराने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘शादी होने के बाद कोई बेटा मां का नहीं रहता.’’

‘‘मां,’’ मन्नू ने सुमन को सदा अच्छा लगने वाला संवाद दोहराया, ‘‘इसीलिए तो मैं ने कभी शादी न करने का फैसला कर लिया है.’’

‘‘मूर्ख बनाने के लिए मां ही तो है न,’’ सुमन ने हंसते हुए पूछा, ‘‘क्या बजा है तेरे देश में?’’

‘‘समय पूछ कर क्या करोगी मां, यहां तो 24 घंटे बस काम का समय रहता है. अच्छा, पिताजी को प्रणाम कहना. और हां, मेरे लिए केक बचा कर रख लेना,’’ मन्नू जल्दीजल्दी बोल रहा था, ‘‘मां, एक बार फिर, तुम्हारा जन्मदिन हर साल आए और बस आता ही रहे,’’ कहते हुए मन्नू ने फोन बंद कर दिया था.

थोड़ी देर बाद फिर फोन बजा.

‘‘हैलो,’’ सुमन ने आशा से कहा.

‘‘मैडम, मैं हैनरीटा बोल रही हूं,’’ गुलशन की निजी सचिव ने कहा, ‘‘साहब को आने में बहुत देर हो जाएगी. आप इंतजार न करें.’’

‘‘क्यों?’’ सुमन लगभग चीख पड़ी.

‘‘जी, जरमनी से जो प्रतिनिधि आए हैं, उन के साथ रात्रिभोज है. पता नहीं कितनी देर लग जाए,’’ हैनरीटा ने अचानक चहक कर कहा, ‘‘क्षमा करें मैडम, आप को जन्मदिन की बधाई. मैं तो भूल ही गई थी.’’

‘‘धन्यवाद,’’ सुमन ने निराशा से बुझे स्वर में पूछा, ‘‘साहब ने और कुछ कहा?’’

‘‘जी नहीं, बहुत व्यस्त हैं. एक मिनट का भी समय नहीं मिला. जरमनी के प्रतिनिधियों से सहयोग के विषय में बड़ी महत्त्वपूर्ण बातें हो रही हैं,’’ हैनरीटा ने इस तरह कहा मानो ये बातें वह स्वयं कर रही हो.

‘‘ओह,’’ सुमन के हाथ से रिसीवर लगभग फिसल गया.

घंटी बजी. पर इस बार फोन की नहीं, दरवाजे की थी. प्रेमलता को जाते देखा. उसे बातें करते सुना. जब रहा नहीं गया तो सुमन ने ऊंचे स्वर में पूछा, ‘‘कौन है?’’ प्रेमलता जब आई तो उस के हाथ में फूलों का एक सुंदर गुलदस्ता था. खिले गुलाब देख कर सुमन का चेहरा खिल उठा. चलो, इतना तो सोचा श्रीमान ने. गुलदस्ते के साथ एक कार्ड भी था, ‘जन्मदिन की बधाई. भेजने वाले का नाम स्वरूप.’ स्वरूप गुलशन का मित्र था.

सुमन ने एक गहरी सांस ली और प्रेमलता को उस से मेज पर रखने का आदेश दिया. सुमन सोचने लगी, ‘आज स्वरूपजी को उस के जन्मदिन की याद कैसे आ गई?’ अधरों पर मुसकान आ गई, ‘अब फोन कर के उन्हें धन्यवाद देना पड़ेगा.’

कुछ ही देर बाद फिर दरवाजे की घंटी बजी. प्रेमलता ने आने वाले से कुछ वार्त्तालाप किया और फिर सुमन को एक बड़ा सा गुलदस्ता पेश किया, ‘जन्मदिन की बधाई. भेजने वाले का नाम अनवर.’

गुलशन का एक और दोस्त. सुमन ने गहरी सांस ली और फिर वही आदेश प्रेमलता को. फिर जब घंटी बजी तो सुमन ने उठ कर स्वयं दरवाजा खोला. एक बहुत बड़ा गुलदस्ता, रात की रानी से महकता हुआ. गुलदस्ते के पीछे लाने वाले का मुंह छिपा हुआ था. ‘‘जन्मदिन मुबारक हो, भाभी,’’ केवलकिशन ने गुलदस्ता आगे बढ़ाते हुए कहा. गुलशन का एक और जिगरी दोस्त.

‘‘धन्यवाद,’’ निराशा के बावजूद मुसकान बिखेरते हुए सुमन ने कहा, ‘‘आइए, अंदर आइए.’’

‘‘नहीं भाभी, जल्दी में हूं. दफ्तर से सीधा आ रहा हूं. घर में मेहमान प्रतीक्षा कर रहे हैं. महारानी का 2 बार फोन आ चुका है,’’ केवलकिशन ने हंसते हुए कहा, ‘‘चिंता मत करिए. फिर आऊंगा और पूरी पलटन के साथ.’’

यही बात अच्छी है केवलकिशन की. हमेशा हंसता रहता है. अब दूसरा भी कब तक चेहरा लटकाए बैठा रहे. रात की रानी को सुमन ने अपने हाथों से गुलदान में सजा कर रखा. खुशबू को गहरी सांस ले कर अंदर खींचा. फिर से घंटी बजी. सुमन हंस पड़ी. फिर से दरवाजा खोला. हरनाम सिंह गुलदाऊदी का गुलदस्ता हाथ में लिए हुए था.

‘‘जन्मदिन की बधाई, मैडम,’’ हरनाम सिंह ने गुलदस्ता पकड़ाते हुए कहा, ‘‘जल्दी जाना है. मिठाई खाने कल आऊंगा.’’

इस से पहले कि वह कुछ कहती, हरनाम सिंह आंखों से ओझल हो गया. वह सोचने लगी, ‘क्लब में हमेशा मिलता है पर न जाने क्यों हमेशा शरमाता सा रहता है. हां, इस की पत्नी बड़ी बातूनी है. क्लब के सारे सदस्यों की पोल खोलती रहती है, टांग खींचती रहती है. उस के साथ बैठो तो पता ही नहीं लगता कि कितना समय निकल गया.’

गुलदस्ते को सजाते हुए सुमन सोच रही थी, ‘क्या उस के जन्मदिन की खबर सारे अखबारों में छपी है?’ इस बार यकीनन घंटी फोन की थी.

‘‘हैलो,’’ सुमन की आंखों में आशा की चमक थी.

‘‘क्षमा करना सुमनजी,’’ डेविड ने अंगरेजी में कहा, ‘‘जन्मदिन की बधाई हो. मैं खुद न आ सका. वैसे आप का तोहफा सुबह अखबार वाले से पहले पहुंच जाएगा. कृपया मेरी ओर से मुबारकबाद स्वीकार करें.’’

‘‘तोहफे की क्या जरूरत है,’’ सुमन ने संयत हो कर कहा, ‘‘आप ने याद किया, क्या यह कम है.’’

‘‘वह तो ठीक है, पर तोहफे की बात ही अलग है,’’ डेविड ने हंसते हुए कहा, ‘‘अब देखिए, हमें तो कोई तोहफा देता नहीं, इसलिए बस तरसते रहते हैं.’’

‘‘अपना जन्मदिन बताइए,’’ सुमन ने हंसते हुए उत्तर दिया, ‘‘अगले 15 सालों के लिए बुक कर दूंगी.’’

‘‘वाहवाह, क्या खूब कहा,’’ डेविड ने भी हंस कर कहा, ‘‘पर मेरा जन्मदिन एक रहस्य है. आप को बताने से मजबूर हूं, अच्छा.’’ डेविड ने फोन रख दिया. वह एक सरकारी कारखाने का प्रबंध निदेशक था. हमेशा क्लब और औपचारिक दावतों में मिलता रहता था. गुलशन का घनिष्ठ मित्र था. रात्रि के 2 बज रहे थे. गुलशन घर लौट रहा था. आज वह बहुत संतुष्ट था. जरमन प्रतिनिधियों से सहयोग का ठेका पक्का हो गया था. वे 30 करोड़ डौलर का सामान और मशीनें देंगे. स्वयं उन के इंजीनियर कारखाने के विस्तार व नवीनीकरण में सहायता करेंगे. भारतीय इंजीनियरों को प्रशिक्षण देंगे और 3 साल बाद जब माल बनना शुरू हो जाएगा तो सारा का सारा स्वयं खरीद लेंगे. कहीं और बेचने की आवश्यकता नहीं है. इस से बढि़या सौदा और क्या हो सकता है. अचानक गुलशन के मन में एक बिजली सी कौंध गई कि पता नहीं सुमन ने मिक्की को फोन किया या नहीं? उस के जन्मदिन पर वह सुबह उठ कर सब से पहले यही काम करता था. आज ही गलती हो गई थी. जरमन प्रतिनिधि मंडल उस के दिमाग पर भूत की तरह सवार था. जरूर ही मिक्की आज नाटक करेगी.

तभी एक और बिजली कड़क उठी. कितना मूर्ख है वह. अरे, सुमन का भी तो जन्मदिन है. आंख खुलते ही उस ने इतने सारे इशारे फेंके, पर वह तो जन्मजात मूर्ख है. बाप रे, इतनी बड़ी भूल कैसे कर दी. अब क्या करे? गुलशन ने फौरन कार को वापस होटल की ओर मोड़ दिया. जल्दीजल्दी कदम बढ़ाते हुए अंदर पहुंचा.

प्रबंधक ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘क्या कुछ भूल गए आप?’’

‘‘हां, जो काम सब से पहले करना था, वह सब से बाद में याद आया,’’ गुलशन ने कहा, ‘‘मुझे एक बहुत अच्छा गुलदस्ता चाहिए और एक केक… जन्मदिन का.’’

‘‘किस का जन्मदिन है?’’ प्रबंधक ने पूछा.

गुलशन ने उदास हो कर कहा, ‘‘वैसे तो कल था, पर गलती सुधर जाए, कोशिश करूंगा.’’

‘‘फूलों की दुकान तो खुलवानी पड़ेगी,’’ प्रबंधक ने कहा, ‘‘इस समय तो कोई फूल लेता नहीं. वैसे किस का जन्मदिन है?’’

‘‘मेरी पत्नी का,’’ गुलशन के मुंह से निकल पड़ा.

‘‘ओह, तब तो कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा,’’ प्रबंधक ने कहा.

गुलशन इस होटल का पुराना ग्राहक था. साल में कई बार कंपनी का खानापीना यहां ही होता था. आधे घंटे बाद प्रबंधक बहुत बड़ा गुलदस्ता ले कर उपस्थित हुआ. सहायक के हाथ में केक था.

‘‘हमारी ओर से मैडम को भेंट,’’ प्रबंधक ने हंस कर कहा.

गुलशन का हाथ जेब में था. पर्स निकालता हुआ बोला, ‘‘नहीं, आप दाम ले लें.’’

‘‘शर्मिंदा न करें हम को,’’ प्रबंधक ने मुसकरा कर कहा.

घंटी की मधुर आवाज भी गहरी नींद में सोई सुमन को बड़ी कर्कश लगी. धीरेधीरे जैसे नींद की खुमारी की परतें उतरने लगीं तो उसे होश आने लगा. प्रेमलता तो बाहर पिछवाड़े में अपने कमरे में सो रही थी. वैसे भी उसे जाने के लिए कह रखा था. वह दरवाजा खोलने कहां से आएगी.

उसे अचानक हंसी भी आई, ‘‘लगता है, एक और गुलदस्ता आ गया.’’

दरवाजा खोलने से पहले पूछा, ‘‘कौन है?’’

‘‘गुल्लर, तुम्हारा गुल्लर. देर आया, पर दुरुस्त आया,’’ गुलशन ने विनोद से कहा.

सुमन के चेहरे पर लकीरें तन गईं. हंसी लुप्त हो गई और क्रोध झलक आया. दरवाजा खोला तो गुलशन ने हंसते हुए कहा, ‘‘जन्मदिन मुबारक हो. हर साल, हर साल, हर साल इसी तरह आता रहे. यह भेंट स्वीकार करिए.’’

सुमन ने मुंह बना दिया और बिना कुछ लिए अंदर आ गई. नाराजगी बढ़ती जा रही थी. इतनी देर से डब्बे में बंद गुबार बाहर आ गया.

‘‘भई, क्षमा कर दो, बड़ी भूल हो गई,’’ गुलशन ने केक मेज पर रखा और गुलदस्ता सुमन की ओर बढ़ा दिया.

‘‘नहीं चाहिए मुझे,’’ सुमन ने तड़प कर कहा, ‘‘मुझे कुछ नहीं चाहिए.’’

‘‘इतनी नाराज मत हो,’’ गुलशन ने खुशामदी स्वर में कहा, ‘‘जन्मदिन की खुशी में अगले महीने तुम्हें जरमनी की सैर कराने ले जाऊंगा.’’

‘‘कहा न, न मुझे कुछ चाहिए और न ही कहीं जाना है,’’ सुमन ने दूर हटते हुए कहा.

अचानक गुलशन की निगाह कार्निस व कोने में सजे हुए गुलदस्तों पर पड़ी. उस ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘अरे, इतने सारे गुलदस्ते… कहां से आए? किस ने दिए?’’

‘‘इस दुनिया में कुछ लोग हैं जो तुम्हारी तरह लापरवाह और बेगैरत नहीं हैं,’’ सुमन ने कड़वाहट से कहा.

‘‘देखूं तो सही, वे महान लोग कौन हैं?’’ गुलशन पास जा कर कार्ड पढ़ने लगा…केवलकिशन…अनवर…हरनाम सिंह…स्वरूप…डेविड…’’

फिर गुलशन ठठा कर हंस पड़ा. सुमन आश्चर्य से उस को देखने लगी. जब वह हंसता ही रहा तो सुमन ने गुस्से से पूछा, ‘‘इस में हंसने की क्या बात है?’’

‘‘तुम्हें याद है, पिछले महीने हम कहां गए थे?’’ गुलशन ने पूछा.

‘‘हां, याद है.’’

‘‘वहां तुम तो अपनी महिला समिति में तल्लीन हो गईं और मैं अपने दोस्तों के साथ कौफी पी रहा था. अरे, यही लोग तो थे,’’ गुलशन ने कहा.

‘‘तो फिर?’’

‘‘बस, बातों ही बातों में जन्मदिन की बात निकल आई. सब का एक ही मत था कि कभी न कभी ऐसी बात हो जाती है जब जन्मदिन, वह भी पत्नी का, बड़ा बदमजा हो जाता है,’’ गुलशन ने कहा, ‘‘और मैं ने कहा कि मैं अकसर जन्मदिन भूल जाता हूं.’’

‘‘तो फिर?’’ सुमन ने दोहराया.

‘‘तो फिर क्या, मैं ने उन सब से तुम्हारा जन्मदिन उन की डायरी में लिखवाया और कहा कि अगर हमेशा की तरह मैं भूल जाऊं तो वे जरूर मेरी ओर से तोहफा भिजवा दें,’’ गुलशन ने स्पष्ट किया.

‘‘पर उन्होंने यह तो नहीं कहा,’’ सुमन ने शिकायत की.

‘‘यह उन की शरारत है,’’ गुलशन हंसा, ‘‘पर हम इतनी छोटी सी बात पर लड़ेंगे तो नहीं.’’

अब तो सिवा हंसने के सुमन के पास और कोई रास्ता न था.

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सुबह जब गुलशन की आंख खुली तो सुमन मादक अंगड़ाई ले रही थी. पति को देख कर उस ने नशीली मुसकान फेंकी, जिस से कहते हैं कि समुद्र में ठहरे जहाज भी चल पड़ते हैं. अचानक गुलशन गहरी ठंडी सांस छोड़ने को मजबूर हो गया.

‘काश, पिछले 20 वर्ष लौट आते,’’ गुलशन ने सुमन का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा.

‘‘क्या करते तब?’’ सुमन ने हंस कर पूछा.

गुलशन ने शरारत से कहा, ‘‘किसी लालनीली परी को ले कर बहुत दूर उड़ जाता.’’

सुमन सोच रही थी कि शायद गुलशन उस के लिए कुछ रोमानी जुमले कहेगा. थोड़ी देर पहले जो सुबह सुहावनी लग रही थी और बहुतकुछ मनभावन आशाएं ले कर आई थी, अचानक फीकी सी लगने लगी.

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‘‘मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं?’’ सुमन ने शब्दों पर जोर देते हुए पूछा, ‘‘आज के दिन भी नहीं?’’

‘‘तुम ही तो मेरी लालनीली और सब्जपरी हो,’’ गुलशन अचानक सुमन को भूल कर चादर फेंक कर उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘अरे बाबा, मैं तो भूल ही गया था.’’

सुमन के मन में फिर से आशा जगी, ‘‘क्या भूल गए थे?’’

‘‘बड़ी जरूरी मीटिंग है. थोड़ा जल्दी जाना है,’’ कहतेकहते गुलशन स्नानघर में घुस गया.

सुमन का चेहरा फिर से मुरझा गया. गुलशन 50 करोड़ रुपए की संपत्ति वाले एक कारखाने का प्रबंध निदेशक था. बड़ा तनावभरा जीवन था. कभी हड़ताल, कभी बोनस, कभी मीटिंग तो कभी बोर्ड सदस्यों का आगमन. कभी रोजमर्रा की छोटीछोटी दिखने वाली बड़ी समस्याएं, कभी अधकारियों के घोटाले तो कभी यूनियन वालों की तंग करने वाली हरकतें. इतने सारे झमेलों में फंसा इंसान अकसर अपने अधीनस्थ अधिकारियों से भी परेशान हो जाता है. परामर्शदाताओं ने उसे यही समझाया है कि इतनी परेशानियों के लिए वह खुद जिम्मेदार है. वह अपने अधीनस्थ अधिकारियों में पूरा विश्वास नहीं रखता. वह कार्यविभाजन में भी विश्वास नहीं रखता. जब तक स्वयं संतुष्ट नहीं हो जाता, किसी काम को आगे नहीं बढ़ने देता. यह अगर उस का गुण है तो एक बड़ी कमजोरी भी.

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जल्दीजल्दी उस ने एक टोस्ट खाया और एक गिलास दूध पी कर ब्रीफकेस उठाया. सुमन उस के चेहरे को देख रही थी शायद अभी भी कुछ कहे. पर पति के चेहरे पर केवल तनाव की रेखाएं थीं, कोमल भावनाओं का तो नामोनिशान तक न था. गलशन की कार के स्टार्ट होने की आवाज आई. सुमन ने ठंडी सांस ली. जब गुलशन छोटा अधिकारी था और वेतन भी मामूली था, तब उन का जीवन कितना सुखी था. एक अव्यक्त प्यार का सुखद प्रतीक था, आत्मीयता का सागर था. परंतु आज सबकुछ होते हुए भी कुछ नहीं. दोपहर के 12 बजे थे. प्रेमलता ने घर का सारा काम निबटा दिया था. सुमन भी नहाधो कर बालकनी में बैठी एक पत्रिका देख रही थी. प्रेमलता ने कौफी का प्याला सामने मेज पर रख दिया था.

टैलीफोन की घंटी ने उसे चौंका तो दिया पर साथ ही चेहरे पर एक मुसकान भी ला दी. सोचा, शायद साहब को याद आ ही गया. सिवा गुलशन के और कौन करेगा फोन इस समय? पास रखे फोन को उठा कर मीठे स्वर में कहा, ‘‘हैलो.’’

‘‘हाय, सुमन,’’ गुलशन ही था.

‘‘सुनो,’’ सुमन ने कहना चाहा.

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‘‘देखो, सुबह मैं भूल गया था. और अब मुझे समय नहीं मिलेगा. मिक्की को फोन कर देना. आज उस का जन्मदिन है न,’’ गुलशन ने प्यार से कहा, ‘‘तुम बहुत अच्छी हो.’’ गुलशन ने फोन रख दिया था. सुमन हाथ में पकड़ी उस निर्जीव वस्तु को देखते हुए सोचने लगी, ‘बस, इतना ही याद रहा कि मिक्की का जन्मदिन है.’ मिक्की गुलशन की बहन है. यह एक अजीब संयोग था कि आज सुमन का भी जन्मदिन था. दिन तो दोनों का एक ही था, बस साल अलगअलग थे. शुरू में कई वर्षों तक दोनों अपने जन्मदिन एकसाथ बड़ी धूमधाम से मनाती थीं. बाद में तो अपनअपने परिवारों में उलझती चली गईं. साल में एक यही ऐसा दिन आता है, जब कोई अकेला नहीं रहना चाहता. भीड़भाड़, शोरगुल और जश्न के लिए दिल मचलता है. मांबाप की तो बात ही और है, पर जब अपना परिवार हो तो हर इंसान आत्मीयता के क्षण सब के साथ बांटना चाहता है. गुलशन के साथ बिताए कई आरंभिक जन्मदिन जबजब याद आते, पिछले कुछ वर्षों से चली आ रही उपेक्षा बड़ी चोट करती.

आज भी हमेशा की तरह…

‘कोई बात नहीं. तरक्की और बहुत ऊंचा जाने की कामना अनेक त्याग मांगती है. इस त्याग का सब से पहला शिकार पत्नी तो होगी ही, और अगर स्त्री ऊंची उड़ान भरती है तो पति से दूर होने लगती है,’ सुमन कुछ ऐसी ही विचारधारा में खोई हुई थी कि फोन की घंटी ने उस की तंद्रा भंग कर दी.

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‘‘हैलो,’’ उस ने उदास स्वर में कहा.

‘‘हाय, मां,’’ अलका ने खिलते फूल की तरह उत्साह से कहा, ‘‘जन्मदिन मुबारक हो.’’

बेटी अलका मसूरी में एक स्कूल में पढ़ती है और वहीं होस्टल में रहती है.

‘‘धन्यवाद, बेटी,’’ सुमन ने पुलकित स्वर में कहा, ‘‘कैसी है तू?’’

‘‘अरे, मुझे क्या होगा मां, पहले यह बताओ, क्या पक रहा है जन्मदिन की खुशी में?’’ अलका ने हंस कर पूछा, ‘‘आ जाऊं?’’

‘‘आजा, बहुत याद आ रही है तेरी,’’ सुमन ने प्यार से कहा.

‘‘मां, मुझे भी तुम्हारी दूरी अब अच्छी नहीं लग रही है,’’ अलका ने चौंकने के स्वर में कहा, ‘‘अरे, साढ़े 12 बजने वाले हैं. चलती हूं, मां. कक्षा में जाना है.’’

‘‘ठीक है, बेटी, अच्छी तरह पढ़ना. अच्छे नंबरों से पास होना. अपनी सेहत का ध्यान रखना और रुपयों की जरूरत हो तो फोन कर देना,’’ सुमन ने जल्दीजल्दी से वह सब दोहरा दिया जिसे दोहराते वह कभी थकती नहीं.

अलका खिलखिला पड़ी, ‘‘मां, क्या सारी माएं तुम्हारी तरह ही होती हैं? कभी तो हम मूर्ख संतानों को अपने हाल पर छोड़ दिया करो.’’

‘‘अभी थोड़ी समझेगी तू…’’

अलका ने बात काटते हुए कहा, ‘‘जब मां बनेगी तो जानेगी. अरे मां, बाकी का संवाद मुंहजबानी याद है. ठीक है, जा रही हूं. देर हो रही है.’’ सुमन के चेहरे पर खिन्न मुसकान थी. ‘ये आजकल के बच्चे तो बस.’ धीरे से सोचते हुए फोन बंद कर के रख दिया, ‘कम से कम बेटी को तो याद आई. इतनी दूर है, पर मां का जन्मदिन नहीं भूलती.’ संध्या के 5 बज रहे थे. ‘क्या गुलशन को जल्दी आने के लिए फोन करे? पर नहीं,’ सुमन ने सोचा, ‘जब पति को न तो याद है और न ही इस के प्रति कोई भावना, तो उसे याद दिला कर अपनी मानहानि करवाएगी.’

दरवाजे की घंटी बजी. सुमन भी कभीकभी बौखला जाती है. दरवाजे की नहीं, फोन की घंटी थी. लपक कर रिसीवर उठाया.

‘‘हैलो,’’ सुमन का स्वर भर्रा गया.

‘‘हाय, मां, जन्मदिन मुबारक,’’ न्यूयार्क से बेटे मन्नू का फोन था.

सुमन की आंखों में आंसू आ गए और आवाज भी भीग गई, ‘‘बेटे, मां की याद आ गई?’’

‘‘क्यों मां?’’ मन्नू ने शिकायती स्वर में पूछा, ‘‘दूर होने से क्या तुम मां नहीं रहीं? अरे मां, मेरे जैसा बेटा तुम्हें कहां मिलेगा?’’

‘‘चल हट, झूठा कहीं का,’’ सुमन ने मुसकराने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘शादी होने के बाद कोई बेटा मां का नहीं रहता.’’

‘‘मां,’’ मन्नू ने सुमन को सदा अच्छा लगने वाला संवाद दोहराया, ‘‘इसीलिए तो मैं ने कभी शादी न करने का फैसला कर लिया है.’’

‘‘मूर्ख बनाने के लिए मां ही तो है न,’’ सुमन ने हंसते हुए पूछा, ‘‘क्या बजा है तेरे देश में?’’

‘‘समय पूछ कर क्या करोगी मां, यहां तो 24 घंटे बस काम का समय रहता है. अच्छा, पिताजी को प्रणाम कहना. और हां, मेरे लिए केक बचा कर रख लेना,’’ मन्नू जल्दीजल्दी बोल रहा था, ‘‘मां, एक बार फिर, तुम्हारा जन्मदिन हर साल आए और बस आता ही रहे,’’ कहते हुए मन्नू ने फोन बंद कर दिया था.

थोड़ी देर बाद फिर फोन बजा.

‘‘हैलो,’’ सुमन ने आशा से कहा.

‘‘मैडम, मैं हैनरीटा बोल रही हूं,’’ गुलशन की निजी सचिव ने कहा, ‘‘साहब को आने में बहुत देर हो जाएगी. आप इंतजार न करें.’’

‘‘क्यों?’’ सुमन लगभग चीख पड़ी.

‘‘जी, जरमनी से जो प्रतिनिधि आए हैं, उन के साथ रात्रिभोज है. पता नहीं कितनी देर लग जाए,’’ हैनरीटा ने अचानक चहक कर कहा, ‘‘क्षमा करें मैडम, आप को जन्मदिन की बधाई. मैं तो भूल ही गई थी.’’

‘‘धन्यवाद,’’ सुमन ने निराशा से बुझे स्वर में पूछा, ‘‘साहब ने और कुछ कहा?’’

‘‘जी नहीं, बहुत व्यस्त हैं. एक मिनट का भी समय नहीं मिला. जरमनी के प्रतिनिधियों से सहयोग के विषय में बड़ी महत्त्वपूर्ण बातें हो रही हैं,’’ हैनरीटा ने इस तरह कहा मानो ये बातें वह स्वयं कर रही हो.

‘‘ओह,’’ सुमन के हाथ से रिसीवर लगभग फिसल गया.

घंटी बजी. पर इस बार फोन की नहीं, दरवाजे की थी. प्रेमलता को जाते देखा. उसे बातें करते सुना. जब रहा नहीं गया तो सुमन ने ऊंचे स्वर में पूछा, ‘‘कौन है?’’ प्रेमलता जब आई तो उस के हाथ में फूलों का एक सुंदर गुलदस्ता था. खिले गुलाब देख कर सुमन का चेहरा खिल उठा. चलो, इतना तो सोचा श्रीमान ने. गुलदस्ते के साथ एक कार्ड भी था, ‘जन्मदिन की बधाई. भेजने वाले का नाम स्वरूप.’ स्वरूप गुलशन का मित्र था.

सुमन ने एक गहरी सांस ली और प्रेमलता को उस से मेज पर रखने का आदेश दिया. सुमन सोचने लगी, ‘आज स्वरूपजी को उस के जन्मदिन की याद कैसे आ गई?’ अधरों पर मुसकान आ गई, ‘अब फोन कर के उन्हें धन्यवाद देना पड़ेगा.’

कुछ ही देर बाद फिर दरवाजे की घंटी बजी. प्रेमलता ने आने वाले से कुछ वार्त्तालाप किया और फिर सुमन को एक बड़ा सा गुलदस्ता पेश किया, ‘जन्मदिन की बधाई. भेजने वाले का नाम अनवर.’

गुलशन का एक और दोस्त. सुमन ने गहरी सांस ली और फिर वही आदेश प्रेमलता को. फिर जब घंटी बजी तो सुमन ने उठ कर स्वयं दरवाजा खोला. एक बहुत बड़ा गुलदस्ता, रात की रानी से महकता हुआ. गुलदस्ते के पीछे लाने वाले का मुंह छिपा हुआ था. ‘‘जन्मदिन मुबारक हो, भाभी,’’ केवलकिशन ने गुलदस्ता आगे बढ़ाते हुए कहा. गुलशन का एक और जिगरी दोस्त.

‘‘धन्यवाद,’’ निराशा के बावजूद मुसकान बिखेरते हुए सुमन ने कहा, ‘‘आइए, अंदर आइए.’’

‘‘नहीं भाभी, जल्दी में हूं. दफ्तर से सीधा आ रहा हूं. घर में मेहमान प्रतीक्षा कर रहे हैं. महारानी का 2 बार फोन आ चुका है,’’ केवलकिशन ने हंसते हुए कहा, ‘‘चिंता मत करिए. फिर आऊंगा और पूरी पलटन के साथ.’’

यही बात अच्छी है केवलकिशन की. हमेशा हंसता रहता है. अब दूसरा भी कब तक चेहरा लटकाए बैठा रहे. रात की रानी को सुमन ने अपने हाथों से गुलदान में सजा कर रखा. खुशबू को गहरी सांस ले कर अंदर खींचा. फिर से घंटी बजी. सुमन हंस पड़ी. फिर से दरवाजा खोला. हरनाम सिंह गुलदाऊदी का गुलदस्ता हाथ में लिए हुए था.

‘‘जन्मदिन की बधाई, मैडम,’’ हरनाम सिंह ने गुलदस्ता पकड़ाते हुए कहा, ‘‘जल्दी जाना है. मिठाई खाने कल आऊंगा.’’

इस से पहले कि वह कुछ कहती, हरनाम सिंह आंखों से ओझल हो गया. वह सोचने लगी, ‘क्लब में हमेशा मिलता है पर न जाने क्यों हमेशा शरमाता सा रहता है. हां, इस की पत्नी बड़ी बातूनी है. क्लब के सारे सदस्यों की पोल खोलती रहती है, टांग खींचती रहती है. उस के साथ बैठो तो पता ही नहीं लगता कि कितना समय निकल गया.’

गुलदस्ते को सजाते हुए सुमन सोच रही थी, ‘क्या उस के जन्मदिन की खबर सारे अखबारों में छपी है?’ इस बार यकीनन घंटी फोन की थी.

‘‘हैलो,’’ सुमन की आंखों में आशा की चमक थी.

‘‘क्षमा करना सुमनजी,’’ डेविड ने अंगरेजी में कहा, ‘‘जन्मदिन की बधाई हो. मैं खुद न आ सका. वैसे आप का तोहफा सुबह अखबार वाले से पहले पहुंच जाएगा. कृपया मेरी ओर से मुबारकबाद स्वीकार करें.’’

‘‘तोहफे की क्या जरूरत है,’’ सुमन ने संयत हो कर कहा, ‘‘आप ने याद किया, क्या यह कम है.’’

‘‘वह तो ठीक है, पर तोहफे की बात ही अलग है,’’ डेविड ने हंसते हुए कहा, ‘‘अब देखिए, हमें तो कोई तोहफा देता नहीं, इसलिए बस तरसते रहते हैं.’’

‘‘अपना जन्मदिन बताइए,’’ सुमन ने हंसते हुए उत्तर दिया, ‘‘अगले 15 सालों के लिए बुक कर दूंगी.’’

‘‘वाहवाह, क्या खूब कहा,’’ डेविड ने भी हंस कर कहा, ‘‘पर मेरा जन्मदिन एक रहस्य है. आप को बताने से मजबूर हूं, अच्छा.’’ डेविड ने फोन रख दिया. वह एक सरकारी कारखाने का प्रबंध निदेशक था. हमेशा क्लब और औपचारिक दावतों में मिलता रहता था. गुलशन का घनिष्ठ मित्र था. रात्रि के 2 बज रहे थे. गुलशन घर लौट रहा था. आज वह बहुत संतुष्ट था. जरमन प्रतिनिधियों से सहयोग का ठेका पक्का हो गया था. वे 30 करोड़ डौलर का सामान और मशीनें देंगे. स्वयं उन के इंजीनियर कारखाने के विस्तार व नवीनीकरण में सहायता करेंगे. भारतीय इंजीनियरों को प्रशिक्षण देंगे और 3 साल बाद जब माल बनना शुरू हो जाएगा तो सारा का सारा स्वयं खरीद लेंगे. कहीं और बेचने की आवश्यकता नहीं है. इस से बढि़या सौदा और क्या हो सकता है. अचानक गुलशन के मन में एक बिजली सी कौंध गई कि पता नहीं सुमन ने मिक्की को फोन किया या नहीं? उस के जन्मदिन पर वह सुबह उठ कर सब से पहले यही काम करता था. आज ही गलती हो गई थी. जरमन प्रतिनिधि मंडल उस के दिमाग पर भूत की तरह सवार था. जरूर ही मिक्की आज नाटक करेगी.

तभी एक और बिजली कड़क उठी. कितना मूर्ख है वह. अरे, सुमन का भी तो जन्मदिन है. आंख खुलते ही उस ने इतने सारे इशारे फेंके, पर वह तो जन्मजात मूर्ख है. बाप रे, इतनी बड़ी भूल कैसे कर दी. अब क्या करे? गुलशन ने फौरन कार को वापस होटल की ओर मोड़ दिया. जल्दीजल्दी कदम बढ़ाते हुए अंदर पहुंचा.

प्रबंधक ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘क्या कुछ भूल गए आप?’’

‘‘हां, जो काम सब से पहले करना था, वह सब से बाद में याद आया,’’ गुलशन ने कहा, ‘‘मुझे एक बहुत अच्छा गुलदस्ता चाहिए और एक केक… जन्मदिन का.’’

‘‘किस का जन्मदिन है?’’ प्रबंधक ने पूछा.

गुलशन ने उदास हो कर कहा, ‘‘वैसे तो कल था, पर गलती सुधर जाए, कोशिश करूंगा.’’

‘‘फूलों की दुकान तो खुलवानी पड़ेगी,’’ प्रबंधक ने कहा, ‘‘इस समय तो कोई फूल लेता नहीं. वैसे किस का जन्मदिन है?’’

‘‘मेरी पत्नी का,’’ गुलशन के मुंह से निकल पड़ा.

‘‘ओह, तब तो कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा,’’ प्रबंधक ने कहा.

गुलशन इस होटल का पुराना ग्राहक था. साल में कई बार कंपनी का खानापीना यहां ही होता था. आधे घंटे बाद प्रबंधक बहुत बड़ा गुलदस्ता ले कर उपस्थित हुआ. सहायक के हाथ में केक था.

‘‘हमारी ओर से मैडम को भेंट,’’ प्रबंधक ने हंस कर कहा.

गुलशन का हाथ जेब में था. पर्स निकालता हुआ बोला, ‘‘नहीं, आप दाम ले लें.’’

‘‘शर्मिंदा न करें हम को,’’ प्रबंधक ने मुसकरा कर कहा.

घंटी की मधुर आवाज भी गहरी नींद में सोई सुमन को बड़ी कर्कश लगी. धीरेधीरे जैसे नींद की खुमारी की परतें उतरने लगीं तो उसे होश आने लगा. प्रेमलता तो बाहर पिछवाड़े में अपने कमरे में सो रही थी. वैसे भी उसे जाने के लिए कह रखा था. वह दरवाजा खोलने कहां से आएगी.

उसे अचानक हंसी भी आई, ‘‘लगता है, एक और गुलदस्ता आ गया.’’

दरवाजा खोलने से पहले पूछा, ‘‘कौन है?’’

‘‘गुल्लर, तुम्हारा गुल्लर. देर आया, पर दुरुस्त आया,’’ गुलशन ने विनोद से कहा.

सुमन के चेहरे पर लकीरें तन गईं. हंसी लुप्त हो गई और क्रोध झलक आया. दरवाजा खोला तो गुलशन ने हंसते हुए कहा, ‘‘जन्मदिन मुबारक हो. हर साल, हर साल, हर साल इसी तरह आता रहे. यह भेंट स्वीकार करिए.’’

सुमन ने मुंह बना दिया और बिना कुछ लिए अंदर आ गई. नाराजगी बढ़ती जा रही थी. इतनी देर से डब्बे में बंद गुबार बाहर आ गया.

‘‘भई, क्षमा कर दो, बड़ी भूल हो गई,’’ गुलशन ने केक मेज पर रखा और गुलदस्ता सुमन की ओर बढ़ा दिया.

‘‘नहीं चाहिए मुझे,’’ सुमन ने तड़प कर कहा, ‘‘मुझे कुछ नहीं चाहिए.’’

‘‘इतनी नाराज मत हो,’’ गुलशन ने खुशामदी स्वर में कहा, ‘‘जन्मदिन की खुशी में अगले महीने तुम्हें जरमनी की सैर कराने ले जाऊंगा.’’

‘‘कहा न, न मुझे कुछ चाहिए और न ही कहीं जाना है,’’ सुमन ने दूर हटते हुए कहा.

अचानक गुलशन की निगाह कार्निस व कोने में सजे हुए गुलदस्तों पर पड़ी. उस ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘अरे, इतने सारे गुलदस्ते… कहां से आए? किस ने दिए?’’

‘‘इस दुनिया में कुछ लोग हैं जो तुम्हारी तरह लापरवाह और बेगैरत नहीं हैं,’’ सुमन ने कड़वाहट से कहा.

‘‘देखूं तो सही, वे महान लोग कौन हैं?’’ गुलशन पास जा कर कार्ड पढ़ने लगा…केवलकिशन…अनवर…हरनाम सिंह…स्वरूप…डेविड…’’

फिर गुलशन ठठा कर हंस पड़ा. सुमन आश्चर्य से उस को देखने लगी. जब वह हंसता ही रहा तो सुमन ने गुस्से से पूछा, ‘‘इस में हंसने की क्या बात है?’’

‘‘तुम्हें याद है, पिछले महीने हम कहां गए थे?’’ गुलशन ने पूछा.

‘‘हां, याद है.’’

‘‘वहां तुम तो अपनी महिला समिति में तल्लीन हो गईं और मैं अपने दोस्तों के साथ कौफी पी रहा था. अरे, यही लोग तो थे,’’ गुलशन ने कहा.

‘‘तो फिर?’’

‘‘बस, बातों ही बातों में जन्मदिन की बात निकल आई. सब का एक ही मत था कि कभी न कभी ऐसी बात हो जाती है जब जन्मदिन, वह भी पत्नी का, बड़ा बदमजा हो जाता है,’’ गुलशन ने कहा, ‘‘और मैं ने कहा कि मैं अकसर जन्मदिन भूल जाता हूं.’’

‘‘तो फिर?’’ सुमन ने दोहराया.

‘‘तो फिर क्या, मैं ने उन सब से तुम्हारा जन्मदिन उन की डायरी में लिखवाया और कहा कि अगर हमेशा की तरह मैं भूल जाऊं तो वे जरूर मेरी ओर से तोहफा भिजवा दें,’’ गुलशन ने स्पष्ट किया.

‘‘पर उन्होंने यह तो नहीं कहा,’’ सुमन ने शिकायत की.

‘‘यह उन की शरारत है,’’ गुलशन हंसा, ‘‘पर हम इतनी छोटी सी बात पर लड़ेंगे तो नहीं.’’

अब तो सिवा हंसने के सुमन के पास और कोई रास्ता न था.

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February 01, 2022 at 09:00AM

Sunday 30 January 2022

नेकी वाला पेड़: क्या हुआ जब यादों से बना पेड़ गिरा?

लेखिका- मंजुला अमिय गंगराड़े

टन…टन… टन… बड़ी बेसब्री से दरवाजे की घंटी बज रही थी. गरमी की दोपहर और लौकडाउन के दिनों में थोड़ा असामान्य लग रहा था. जैसे कोई मुसीबत के समय या फिर आप को सावधान करने के लिए बजाता हो, ठीक वैसी ही घंटी बज रही थी. हम सभी चौंक उठे और दरवाजे की ओर लपके.

मैं लगभग दौड़ते हुए दरवाजे की ओर बढ़ी. एक आदमी मास्क पहने दिखाई दिया. मैं ने दरवाजे से ही पूछा, ‘‘क्या बात है?’’

वह जल्दी से हड़बड़ाहट में बोला, ‘‘मैडम, आप का पेड़ गिर गया.’’

‘‘क्या…’’ हम सभी जल्दी से आंगन वाले गेट की ओर बढ़े. वहां का दृश्य देखते ही हम सभी हैरान रह गए.

‘‘अरे, यह कब…? कैसे हुआ…?’’

पेड़ बिलकुल सड़क के बीचोबीच गिरा पड़ा था. कुछ सूखी हुई कमजोर डालियां इधरउधर टूट कर बिखरी हुई थीं. पेड़ के नीचे मैं ने छोटे गमले क्यारी के किनारेकिनारे लगा रखे थे, वे उस के तने के नीचे दबे पड़े थे. पेड़ पर बंधी टीवी केबल की तारें भी पेड़ के साथ ही टूट कर लटक गई थीं. घर के सामने रहने वाले पड़ोसियों की कारें बिलकुल सुरक्षित थीं. पेड़ ने उन्हें एक खरोंच भी नहीं पहुंचाई थी.

गरमी की दोपहर में उस समय कोई सड़क पर भी नहीं था. मैं ने मन ही मन उस सूखे हुए नेक पेड़ को निहारा. उसे देख कर मुझे 30 वर्ष पुरानी सारी यादें ताजा हो आईं.

हम कुछ समय पहले ही इस घर में रहने को आए थे. हमारी एक पड़ोसिन ने लगभग 30 वर्ष पहले एक छोटा सा पौधा लगाते हुए मुझ से कहा था, ‘‘सारी गली में ऐसे ही पेड़ हैं. सोचा, एक आप के यहां भी लगा देती हूं. अच्छे लगेंगे सभी एकजैसे पेड़.’’

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पेड़ धीरेधीरे बड़ा होने लगा. कमाल का पेड़ था. हमेशा हराभरा रहता. छोटे सफेद फूल खिलते, जिन की तेज गंध कुछ अजीब सी लगती थी. गरमी के दिनों में लंबीपतली फलियों से छोटे हलके उड़ने वाले बीज सब को बहुत परेशान करते. सब के घरों में बिन बुलाए घुस जाते और उड़ते रहते. पर यह पेड़ सदा हराभरा रहता तो ये सब थोड़े दिन चलने वाली परेशानियां कुछ खास माने नहीं रखती थीं.

मैं ने पता किया कि आखिर इस पौधे का नाम क्या है? पूछने पर वनस्पतिशास्त्र के एक प्राध्यापक ने बताया कि इस का नाम ‘सप्तपर्णी’ है. एक ही गुच्छे में एकसाथ 7 पत्तियां होने के कारण इस का यह नाम पड़ा.

मुझे उस पेड़ का नाम ‘सप्तपर्णी’ बेहद प्यारा लगा. साथ ही, तेज गंध वाले फूलों की वजह से आम भाषा में इसे लोग ‘लहसुनिया’ भी कहते हैं. सचमुच पेड़ों और फूलों के नाम उन की खूबसूरती को और बढ़ा देते हैं. उन के नाम लेते ही हमें वे दिखाई पड़ने लगते हैं, साथ ही हम उन की खुशबू को भी महसूस करने लगते हैं. मन को कितनी प्रसन्नता दे जाते हैं.

यह धराशायी हुआ ‘सप्तपर्णी’ भी कुछ ऐसा ही था. तेज गरमी में जब भी डाक या कुरियर वाला आता तो उन्हें अकसर मैं इस पेड़ के नीचे खड़ा पाती. फल या सब्जी बेचने वाले भी इसी पेड़ की छाया में खड़े दिखते. कोई अपनी कार धूप से बचाने के लिए पेड़ के ठीक नीचे खड़ी कर देता, तो कभी कोई मेहनतकश कुछ देर इस पेड़ के नीचे खड़े हो कर सुस्ता लेता. कुछ सुंदर पंछियों ने अपने घोंसले बना कर पेड की रौनक और बढ़ा दी थी. वे पेड़ से बातें करते नजर आते थे. टीवी केबल वाले इस की डालियों में अपने तार बांध कर चले जाते. कभीकभी बच्चों की पतंगें इस में अटक जातीं तो लगता जैसे ये भी बच्चों के साथ पतंगबाजी का मजा ले रहा हो.

दीवाली के दिनों में मैं इस के तने के नीचे भी दीपक जलाती. मुझे बड़ा सुकून मिलता. बच्चों ने इस के नीचे खड़े हो कर जो तसवीरें खिंचवाई थीं, वे कितनी सुंदर हैं. जब भी मैं कहीं से घर लौटती तो रिकशे वाले से बोलती, ‘‘भैया,

वहां उस पेड़ के पास वाले घर पर रोक देना.’’

लगता, जैसे ये पेड़ मेरा पता बन गया था. बरसात में जब बूंदें इस के पत्तों पर गिरतीं तो वे आवाज मुझे बेहद प्यारी लगती. ओले गिरे या सर्दी का पाला, यह क्यारी के किनारे रखे छोटे पौधों की ढाल बन कर सब झेलता रहता.

30 वर्ष की कितनी यादें इस पेड़ से जुड़ी थीं. कितनी सारी घटनाओं का साक्षी यह पेड़ हमारे साथ था भी तो इतने वर्षों से… दिनरात, हर मौसम में तटस्थता से खड़ा.

पता नहीं, कितने लोगों को सुकून भरी छाया देने वाले इस पेड़ को पिछले 2 वर्ष से क्या हुआ कि यह दिन ब दिन सूखता चला गया. पहले कुछ दिनों में जब इस की टहनियां सूखने लगीं, तो मैं ने कुछ मोटी, मजबूत डालियों को देखा. उस पर अभी भी पत्ते हरे थे.

मैं थोड़ी आश्वस्त हो गई कि अभी सब ठीक है, परंतु कुछ ही समय में वे पत्ते भी मुरझाने लगे. मुझे अब चिंता होने लगी. सोचा, बारिश आने पर पेड़ फिर ठीक हो जाएगा, पर सावनभादों सब बीत गए, वह सूखा ही बना रहा. अंदर ही अंदर से वह कमजोर होने लगा. कभी आंधी आती तो उसे और झकझोर जाती. मैं भाग कर सारे खिड़कीदरवाजे बंद करती, पर बाहर खड़े उस सूखे पेड़ की चिंता मुझे लगी रहती.

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पेड़ अब पूरा सूख गया था. संबंधित विभाग को भी इस की जानकारी दे दी गई थी.

जब इस के पुन: हरे होने की उम्मीद बिलकुल टूट गई, तो मैं ने एक फूलों की बेल इस के साथ लगा दी. बेल दिन ब दिन बढ़ती गई. माली ने बेल को पेड़ के तने और टहनियों पर लपेट दिया. अब बेल पर सुर्ख लाल फूल खिलने लगे.

यह देख मुझे अच्छा लगा कि इस उपाय से पेड़ पर कुछ बहार तो नजर आ रही है… पंछी भी वापस आने लगे थे, पर घोंसले नहीं बना रहे थे. कुछ देर ठहरते, पेड़ से बातें करते और वापस उड़ जाते. अब बेल भी घनी होने लगी थी. उस की छाया पेड़ जितनी घनी तो नहीं थी, पर कुछ राहत तो मिल ही जाती थी. पेड़ सूख जरूर गया, पर अभी भी कितने नेक काम कर रहा था.

टीवी केबल के तार अभी भी उस के सूखे तने से बंधे थे. सुर्ख फूलों की बेल को उस के सूखे तने ने सहारा दे रखा था. बेल को सहारा मिला तो उस की छाया में क्यारी के छोटे पौधे सहारा पा कर सुरक्षित थे. पेड़ सूख कर भी कितनी भलाई के काम कर रहा था. इसीलिए मैं इसे नेकी वाला पेड़ कहती. मैं ने इस पेड़ को पलपल बढ़ते हुए देखा था. इस से लगाव होना बहुत स्वाभाविक था.

परंतु आज इसे यों धरती पर चित्त पड़े देख कर मेरा मन बहुत उदास हो गया. लगा, जैसे आज सारी नेकी धराशायी हो कर जमीन पर पड़ी हो. पेड़ के साथ सुर्ख लाल फूलों वाली बेल भी दबी हुई पड़ी थी. उस के नीचे छोटे पौधे वाले गमले तो दिखाई ही नहीं दे रहे थे. मुझे और भी ज्यादा दुख हो रहा था.

घंटी बजाने वाले ने बताया कि अचानक ही यह पेड़ गिर पड़ा. कुछ देर बाद केबल वाले आ गए. वे तारें ठीक करने लगे. पेड़ की सूखी टहनियों को काटकाट कर तार निकाल रहे थे.

यह मुझ से देखा नहीं जा रहा था. मैं घर के अंदर आ गई, परंतु मन बैचेन हो रहा था. सोच रही थी, जगलों में भी तो कितने सूखे पेड़ ऐसे गिरे रहते हैं. मन तो तब भी दुखता है, परंतु जो लगातार आप के साथ हो वह आप के जीवन का हिस्सा बन जाता है.

याद आ रहा था, जब गली की जमीनको पक्की सड़क में तबदील किया जा रहा था, तो मैं खड़ी हुई पेड़ के आसपास की जगह को वैसा ही बनाए रखने के लिए बोल रही थी.

लगा, इसे भी सांस लेने के लिए कुछ जगह तो चाहिए. क्यों हम पेड़ों को सीमेंट के पिंजड़ों में कैद करना चाहते हैं? हमें जीवनदान देने वाले पेड़ों को क्या हम इतनी जमीन भी नहीं दे सकते? बड़ेबुजुर्गों ने भी पेड़ लगाने के महत्त्व को समझाया है.

बचपन में मैं अकसर अपनी दादी से कहती कि यह आम का पेड़, जो आप ने लगाया है, इस के आम आप को तो खाने को मिलेंगे नहीं.

यह सुन कर दादी हंस कर कहतीं कि यह तो मैं तुम सब बच्चों के लिए लगा रही हूं. उस समय मुझे यह बात समझ में नहीं आती थी, पर अब स्वार्थ से ऊपर उठ कर हमारे पूर्वजों की परमार्थ भावना समझ आती हैं. क्यों न हम भी कुछ ऐसी ही भावनाएं अगली पीढ़ी को विरासत के रूप में दे जाएं.

मैं ने पेड़ के आसपास काफी बड़ी क्यारी बनवा दी थी. दीवाली के दिनों में उस पर भी नया लाल रंग किया जाता तो पेड़ और भी खिल जाता.

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पर आज मन व्यथित हो रहा था. पुन: बाहर गई. कुछ देर में ही संबंधित विभाग के कर्मचारी भी आ गए. वे सब काम में जुट गए. सभी छोटीबड़ी सूखी हुई सारी टहनियां एक ओर पड़ी हुई थीं. मैं ने पास से देखा, पेड़ का पूरा तना उखड़ चुका था. वे उस के तने को एक मोटी रस्सी से खींच कर ले जा रहे थे.

आश्चर्य तो तब हुआ, जब क्यारी के किनारे रखे सारे छोटे गमले सुरक्षित थे. एक भी गमला नहीं टूटा था. जातेजाते भी नेकी करना नहीं भूला था ‘सप्तपर्णी’. लगा, सच में नेकी कभी धराशायी हो कर जमीन पर नहीं गिर सकती.

मैं उदास खड़ी उन्हें उस यादों के दरफ्त को ले जाते हुए देख रही थी. मेरी आंखों में आंसू थे.

पेड़ का पूरा तना और डालियां वे ले जा चुके थे, पर उस की गहरी जड़ें अभी भी वहीं, उसी जगह हैं. मुझे पूरा यकीन है कि किसी सावन में उस की जड़ें फिर से फूटेंगी, फिर वापस आएगा ‘सप्तपर्णी.’

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लेखिका- मंजुला अमिय गंगराड़े

टन…टन… टन… बड़ी बेसब्री से दरवाजे की घंटी बज रही थी. गरमी की दोपहर और लौकडाउन के दिनों में थोड़ा असामान्य लग रहा था. जैसे कोई मुसीबत के समय या फिर आप को सावधान करने के लिए बजाता हो, ठीक वैसी ही घंटी बज रही थी. हम सभी चौंक उठे और दरवाजे की ओर लपके.

मैं लगभग दौड़ते हुए दरवाजे की ओर बढ़ी. एक आदमी मास्क पहने दिखाई दिया. मैं ने दरवाजे से ही पूछा, ‘‘क्या बात है?’’

वह जल्दी से हड़बड़ाहट में बोला, ‘‘मैडम, आप का पेड़ गिर गया.’’

‘‘क्या…’’ हम सभी जल्दी से आंगन वाले गेट की ओर बढ़े. वहां का दृश्य देखते ही हम सभी हैरान रह गए.

‘‘अरे, यह कब…? कैसे हुआ…?’’

पेड़ बिलकुल सड़क के बीचोबीच गिरा पड़ा था. कुछ सूखी हुई कमजोर डालियां इधरउधर टूट कर बिखरी हुई थीं. पेड़ के नीचे मैं ने छोटे गमले क्यारी के किनारेकिनारे लगा रखे थे, वे उस के तने के नीचे दबे पड़े थे. पेड़ पर बंधी टीवी केबल की तारें भी पेड़ के साथ ही टूट कर लटक गई थीं. घर के सामने रहने वाले पड़ोसियों की कारें बिलकुल सुरक्षित थीं. पेड़ ने उन्हें एक खरोंच भी नहीं पहुंचाई थी.

गरमी की दोपहर में उस समय कोई सड़क पर भी नहीं था. मैं ने मन ही मन उस सूखे हुए नेक पेड़ को निहारा. उसे देख कर मुझे 30 वर्ष पुरानी सारी यादें ताजा हो आईं.

हम कुछ समय पहले ही इस घर में रहने को आए थे. हमारी एक पड़ोसिन ने लगभग 30 वर्ष पहले एक छोटा सा पौधा लगाते हुए मुझ से कहा था, ‘‘सारी गली में ऐसे ही पेड़ हैं. सोचा, एक आप के यहां भी लगा देती हूं. अच्छे लगेंगे सभी एकजैसे पेड़.’’

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पेड़ धीरेधीरे बड़ा होने लगा. कमाल का पेड़ था. हमेशा हराभरा रहता. छोटे सफेद फूल खिलते, जिन की तेज गंध कुछ अजीब सी लगती थी. गरमी के दिनों में लंबीपतली फलियों से छोटे हलके उड़ने वाले बीज सब को बहुत परेशान करते. सब के घरों में बिन बुलाए घुस जाते और उड़ते रहते. पर यह पेड़ सदा हराभरा रहता तो ये सब थोड़े दिन चलने वाली परेशानियां कुछ खास माने नहीं रखती थीं.

मैं ने पता किया कि आखिर इस पौधे का नाम क्या है? पूछने पर वनस्पतिशास्त्र के एक प्राध्यापक ने बताया कि इस का नाम ‘सप्तपर्णी’ है. एक ही गुच्छे में एकसाथ 7 पत्तियां होने के कारण इस का यह नाम पड़ा.

मुझे उस पेड़ का नाम ‘सप्तपर्णी’ बेहद प्यारा लगा. साथ ही, तेज गंध वाले फूलों की वजह से आम भाषा में इसे लोग ‘लहसुनिया’ भी कहते हैं. सचमुच पेड़ों और फूलों के नाम उन की खूबसूरती को और बढ़ा देते हैं. उन के नाम लेते ही हमें वे दिखाई पड़ने लगते हैं, साथ ही हम उन की खुशबू को भी महसूस करने लगते हैं. मन को कितनी प्रसन्नता दे जाते हैं.

यह धराशायी हुआ ‘सप्तपर्णी’ भी कुछ ऐसा ही था. तेज गरमी में जब भी डाक या कुरियर वाला आता तो उन्हें अकसर मैं इस पेड़ के नीचे खड़ा पाती. फल या सब्जी बेचने वाले भी इसी पेड़ की छाया में खड़े दिखते. कोई अपनी कार धूप से बचाने के लिए पेड़ के ठीक नीचे खड़ी कर देता, तो कभी कोई मेहनतकश कुछ देर इस पेड़ के नीचे खड़े हो कर सुस्ता लेता. कुछ सुंदर पंछियों ने अपने घोंसले बना कर पेड की रौनक और बढ़ा दी थी. वे पेड़ से बातें करते नजर आते थे. टीवी केबल वाले इस की डालियों में अपने तार बांध कर चले जाते. कभीकभी बच्चों की पतंगें इस में अटक जातीं तो लगता जैसे ये भी बच्चों के साथ पतंगबाजी का मजा ले रहा हो.

दीवाली के दिनों में मैं इस के तने के नीचे भी दीपक जलाती. मुझे बड़ा सुकून मिलता. बच्चों ने इस के नीचे खड़े हो कर जो तसवीरें खिंचवाई थीं, वे कितनी सुंदर हैं. जब भी मैं कहीं से घर लौटती तो रिकशे वाले से बोलती, ‘‘भैया,

वहां उस पेड़ के पास वाले घर पर रोक देना.’’

लगता, जैसे ये पेड़ मेरा पता बन गया था. बरसात में जब बूंदें इस के पत्तों पर गिरतीं तो वे आवाज मुझे बेहद प्यारी लगती. ओले गिरे या सर्दी का पाला, यह क्यारी के किनारे रखे छोटे पौधों की ढाल बन कर सब झेलता रहता.

30 वर्ष की कितनी यादें इस पेड़ से जुड़ी थीं. कितनी सारी घटनाओं का साक्षी यह पेड़ हमारे साथ था भी तो इतने वर्षों से… दिनरात, हर मौसम में तटस्थता से खड़ा.

पता नहीं, कितने लोगों को सुकून भरी छाया देने वाले इस पेड़ को पिछले 2 वर्ष से क्या हुआ कि यह दिन ब दिन सूखता चला गया. पहले कुछ दिनों में जब इस की टहनियां सूखने लगीं, तो मैं ने कुछ मोटी, मजबूत डालियों को देखा. उस पर अभी भी पत्ते हरे थे.

मैं थोड़ी आश्वस्त हो गई कि अभी सब ठीक है, परंतु कुछ ही समय में वे पत्ते भी मुरझाने लगे. मुझे अब चिंता होने लगी. सोचा, बारिश आने पर पेड़ फिर ठीक हो जाएगा, पर सावनभादों सब बीत गए, वह सूखा ही बना रहा. अंदर ही अंदर से वह कमजोर होने लगा. कभी आंधी आती तो उसे और झकझोर जाती. मैं भाग कर सारे खिड़कीदरवाजे बंद करती, पर बाहर खड़े उस सूखे पेड़ की चिंता मुझे लगी रहती.

ये भी पढ़ें- सच्ची खुशी: क्या विशाखा को भूलकर खुश रह पाया वसंत?

पेड़ अब पूरा सूख गया था. संबंधित विभाग को भी इस की जानकारी दे दी गई थी.

जब इस के पुन: हरे होने की उम्मीद बिलकुल टूट गई, तो मैं ने एक फूलों की बेल इस के साथ लगा दी. बेल दिन ब दिन बढ़ती गई. माली ने बेल को पेड़ के तने और टहनियों पर लपेट दिया. अब बेल पर सुर्ख लाल फूल खिलने लगे.

यह देख मुझे अच्छा लगा कि इस उपाय से पेड़ पर कुछ बहार तो नजर आ रही है… पंछी भी वापस आने लगे थे, पर घोंसले नहीं बना रहे थे. कुछ देर ठहरते, पेड़ से बातें करते और वापस उड़ जाते. अब बेल भी घनी होने लगी थी. उस की छाया पेड़ जितनी घनी तो नहीं थी, पर कुछ राहत तो मिल ही जाती थी. पेड़ सूख जरूर गया, पर अभी भी कितने नेक काम कर रहा था.

टीवी केबल के तार अभी भी उस के सूखे तने से बंधे थे. सुर्ख फूलों की बेल को उस के सूखे तने ने सहारा दे रखा था. बेल को सहारा मिला तो उस की छाया में क्यारी के छोटे पौधे सहारा पा कर सुरक्षित थे. पेड़ सूख कर भी कितनी भलाई के काम कर रहा था. इसीलिए मैं इसे नेकी वाला पेड़ कहती. मैं ने इस पेड़ को पलपल बढ़ते हुए देखा था. इस से लगाव होना बहुत स्वाभाविक था.

परंतु आज इसे यों धरती पर चित्त पड़े देख कर मेरा मन बहुत उदास हो गया. लगा, जैसे आज सारी नेकी धराशायी हो कर जमीन पर पड़ी हो. पेड़ के साथ सुर्ख लाल फूलों वाली बेल भी दबी हुई पड़ी थी. उस के नीचे छोटे पौधे वाले गमले तो दिखाई ही नहीं दे रहे थे. मुझे और भी ज्यादा दुख हो रहा था.

घंटी बजाने वाले ने बताया कि अचानक ही यह पेड़ गिर पड़ा. कुछ देर बाद केबल वाले आ गए. वे तारें ठीक करने लगे. पेड़ की सूखी टहनियों को काटकाट कर तार निकाल रहे थे.

यह मुझ से देखा नहीं जा रहा था. मैं घर के अंदर आ गई, परंतु मन बैचेन हो रहा था. सोच रही थी, जगलों में भी तो कितने सूखे पेड़ ऐसे गिरे रहते हैं. मन तो तब भी दुखता है, परंतु जो लगातार आप के साथ हो वह आप के जीवन का हिस्सा बन जाता है.

याद आ रहा था, जब गली की जमीनको पक्की सड़क में तबदील किया जा रहा था, तो मैं खड़ी हुई पेड़ के आसपास की जगह को वैसा ही बनाए रखने के लिए बोल रही थी.

लगा, इसे भी सांस लेने के लिए कुछ जगह तो चाहिए. क्यों हम पेड़ों को सीमेंट के पिंजड़ों में कैद करना चाहते हैं? हमें जीवनदान देने वाले पेड़ों को क्या हम इतनी जमीन भी नहीं दे सकते? बड़ेबुजुर्गों ने भी पेड़ लगाने के महत्त्व को समझाया है.

बचपन में मैं अकसर अपनी दादी से कहती कि यह आम का पेड़, जो आप ने लगाया है, इस के आम आप को तो खाने को मिलेंगे नहीं.

यह सुन कर दादी हंस कर कहतीं कि यह तो मैं तुम सब बच्चों के लिए लगा रही हूं. उस समय मुझे यह बात समझ में नहीं आती थी, पर अब स्वार्थ से ऊपर उठ कर हमारे पूर्वजों की परमार्थ भावना समझ आती हैं. क्यों न हम भी कुछ ऐसी ही भावनाएं अगली पीढ़ी को विरासत के रूप में दे जाएं.

मैं ने पेड़ के आसपास काफी बड़ी क्यारी बनवा दी थी. दीवाली के दिनों में उस पर भी नया लाल रंग किया जाता तो पेड़ और भी खिल जाता.

ये भी पढ़ें- अपनी शर्तों पर: जब खूनी खेल में बदली नव्या-परख की कहानी

पर आज मन व्यथित हो रहा था. पुन: बाहर गई. कुछ देर में ही संबंधित विभाग के कर्मचारी भी आ गए. वे सब काम में जुट गए. सभी छोटीबड़ी सूखी हुई सारी टहनियां एक ओर पड़ी हुई थीं. मैं ने पास से देखा, पेड़ का पूरा तना उखड़ चुका था. वे उस के तने को एक मोटी रस्सी से खींच कर ले जा रहे थे.

आश्चर्य तो तब हुआ, जब क्यारी के किनारे रखे सारे छोटे गमले सुरक्षित थे. एक भी गमला नहीं टूटा था. जातेजाते भी नेकी करना नहीं भूला था ‘सप्तपर्णी’. लगा, सच में नेकी कभी धराशायी हो कर जमीन पर नहीं गिर सकती.

मैं उदास खड़ी उन्हें उस यादों के दरफ्त को ले जाते हुए देख रही थी. मेरी आंखों में आंसू थे.

पेड़ का पूरा तना और डालियां वे ले जा चुके थे, पर उस की गहरी जड़ें अभी भी वहीं, उसी जगह हैं. मुझे पूरा यकीन है कि किसी सावन में उस की जड़ें फिर से फूटेंगी, फिर वापस आएगा ‘सप्तपर्णी.’

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January 31, 2022 at 09:07AM