Thursday 31 December 2020

लॉकडाउन में नौकरी गंवाने वालों को हम रोजगार मुहैया ...

जो लोग संकटकाल में अपनी नौकरी गंवाकर घर लौटे हैं, उनके लिए सरकार प्रयास कर रही ...

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जो लोग संकटकाल में अपनी नौकरी गंवाकर घर लौटे हैं, उनके लिए सरकार प्रयास कर रही ...

GATE 2021: दो और नए विषय जुड़े, छात्रों के पास अवसर बढ़े

इसके साथ यह स्कोर देश के कई बड़े संस्थानों में नौकरी पाने के लिए भी मानव संसाधन ...

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इसके साथ यह स्कोर देश के कई बड़े संस्थानों में नौकरी पाने के लिए भी मानव संसाधन ...

Staff Nurse Recruitment 2021: यहां स्टाफ नर्स के 4 हजार से ज्यादा ...

... रहने वाले मेडिकल फील्ड से जुड़े युवाओं के लिए नौकरी पाने का एक अच्छा मौका है।

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... रहने वाले मेडिकल फील्ड से जुड़े युवाओं के लिए नौकरी पाने का एक अच्छा मौका है।

Jabalpur News: हाई कोर्ट ने कहा- दो साल पहले सेवानिवृत्त ...

स्टाफ नर्स को नौकरी पर वापस क्यों नहीं लिया: मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के ...

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बलाचौर के युवक की इटली में मौत, 11 साल से विदेश में कर ...

... ने बताया कि उसका भाई मोहित कौशल पिछले 11 साल से इटली में नौकरी कर रहा है। वह 15 ...

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चंडीगढ़ में नववर्ष पर सैकड़ों टीचर्स के सपने होंगे ...

नौकरी पाने का सपना पूरा होने की उम्मीद. शिक्षा विभाग के पास वर्तमान में 114 ...

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मृतक आश्रितों की राह आसान करेगा रेलवे, डिजिटल ...

नौकरी के दौरान कर्मचारियों के असामयिक निधन पर स्वजन को अनुकंपा के आधार पर ...

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रिक्तियों के लिए जूनियर प्रोजेक्ट फेलो आवेदन करें

FRI सरकारी नौकरी Recruitment 2020: रिक्तियों के लिए जूनियर प्रोजेक्ट फेलो आवेदन करें.

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FRI सरकारी नौकरी Recruitment 2020: रिक्तियों के लिए जूनियर प्रोजेक्ट फेलो आवेदन करें.

New Year Special: नया कलैंडर-आखिर आकाश क्यों गुस्सा होकर चला गया

नए साल की पहली सुबह थी. बच्चों ने बिस्तर छोड़ने के साथ ही मुझे और आकाश को नए साल की मुबारकबाद दी. रसोई में जा कर मैं ने नववर्ष का विशेष व्यंजन बनाने के लिए सामग्री का चुनाव किया. फिर चाय ले कर मैं बाबूजी के कमरे में गई. आकाश वहीं पिता से सट कर बैठे थे. मैं ने स्टूल पर चाय रखी और आकाश से मुखातिब हो कर कहा, ‘‘चाय पी कर बाजार निकल जाइए, सब्जी वगैरह ले आइए.’’

‘‘नए साल की शुरुआत गुलामी से?’’ आकाश ने आंखें तरेर कर कहा.

मैं कुछ कहती इस से पूर्व ही बाबूजी ने कहा, ‘‘घर का काम करना खुशी की बात होती है, गुलामी की नहीं.’’चाय पी कर ज्यों ही मैं उठने को हुई, चंदनजी का स्कूटर सरसराता हुआ आ कर रुक गया.

ये भी पढ़ें- कविता-विभाष अपनी पत्नी कि हत्या करने के लिए क्यों मजबूर हुआ

‘‘नए साल की बहुतबहुत बधाई हो,’’ कह कर उन्होंने आकाश, बाबूजी एवं मुझे नमस्कार किया.

बाबूजी ने कहा, ‘‘नए साल का पहला मेहमान आया है. मुंह मीठा कराओ, दुलहन.’’

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‘‘जी, बाबूजी, अभी लाई,’’ कह कर ज्यों ही मैं उठने लगी, चंदनजी ने 2 प्लास्टिक के थैले मुझे पकड़ाते हुए कहा, ‘‘एक में मिठाई है बच्चों के लिए, दूसरे में चिकन है, आकाश साहब के लिए.’’

‘‘और मेरे लिए?’’ बाबूजी ने शरारती बच्चों की तरह पूछा.

‘‘नए साल का कलैंडर और डायरी लाया हूं चाचाजी,’’ कह कर चंदनजी ने भारतीय जीवन बीमा निगम का एक खूबसूरत कलैंडर अपने थैले से निकाल कर दीवार पर टांग दिया. राजस्थानी वेशभूषा से सुसज्जित 8-10 युवतियां, परंपरागत आभूषणों से लदी नृत्य कर रही थीं. पृष्ठभूमि में चमकीली रेत और रेत पर पड़ती सूर्य की सुनहरी किरणें बहुत आकर्षक लग रही थीं. डायरी भी बेहद खूबसूरत थी.

‘‘इतना सब करने की क्या जरूरत थी?’’ बाबूजी ने स्नेहपूर्वक कहा.

‘‘आप के प्यार और सहयोग से इस वर्ष मैं ने रिकौर्ड व्यवसाय दिया है. बोनस भी भरपूर मिला है. आप लोगों को पहले जानता नहीं था, कुछ खिलायापिलाया नहीं. इसे एक बेटे की कमाई समझ कर स्वीकार कीजिए.’’

‘‘अच्छी बात है बेटे. मगर आज दिन का खाना तुम मेरे साथ खाओ तब मुझे आनंद आएगा,’’ बाबूजी ने कहा.

ये भी पढ़ें-एक घर उदास सा

‘‘ऐसा है चाचाजी, मुझे आज 7-8 और घनिष्ठ मित्रों के घर मिठाई पहुंचानी है. सुप्रियाजी के ससुर के लिए मछली लेनी है. इसलिए आज आप मुझे क्षमा कर दें. मेरा लाया कलैंडर हर पल आप के साथ है न,’’ कह कर चंदनजी ने आज्ञा ली और हाथ जोड़ कर मुझे नमस्कार किया.उन के जाने के बाद बाबूजी ने कहा, ‘‘दुलहन का यह सहकर्मी भला इंसान है. देखो तो, सब की रुचि के अनुसार नववर्ष की भेंट दे कर चला गया. आजकल के युग में ऐसे भलेमानुष दुर्लभ हैं. आकाश बेटे, तुम्हारा क्या विचार है?’’

‘‘मैं आप से विपरीत विचार रखता हूं. मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि अति विनम्रता, अकारण विनम्रता व्यक्ति की धूर्तता पर पड़ा आवरण है. मुझे यह व्यक्ति मतलबी, धोखेबाज और…’’

आकाश की बात बीच में ही काटते हुए मैं ने कहा, ‘‘आप को तो हर बात में मनोविज्ञान नजर आने लगता है. अकारण किसी पर संदेह करना कौन सा बड़प्पन है? कालेज में वे सब के सुखदुख में शामिल रहने वाले आदमी हैं.’’

‘‘ओहो, आप दोनों बहस करने बैठ गए. देखिए, चंदन चाचा का दिया, कलैंडर कितना खूबसूरत है,’’ बेटे ने पिता के गले में बांहें डाल कर लाड़ जताते हुए कहा.

‘‘वाह, साल का नया कलैंडर. बेटे, यह तो मछली को फंसाने के लिए फेंका गया चारा है…चारा. चंदन बीमा एजेंट है और नएनए लोगों को येनकेन प्रकारेण आकर्षित करना उस का खास शगल है,’’ आकाश ने मुंह बनाते हुए कहा और उठ कर स्नानघर में चले गए.

कालेज में सुप्रिया से भेंट हुई. वह मेरी अंतरंग सहेली थी. उस से मैं ने चंदन वाली बात बताई तो उस ने भी मेरे विचारों से सहमत होते हुए कहा, ‘‘ये पति लोग भी बड़े अजीब होते हैं, हमारे मुंह से किसी की तारीफ सुन ही नहीं सकते. कोई न कोई मीनमेख जरूर निकाल लेंगे. न हुआ तो उसे आवारा, बदचलन ही साबित कर देंगे.’’

‘‘ठीक कहती हो तुम. आकाश को भी हर चीज में गड़बड़ नजर आती है. पर मेरे बाबूजी बहुत भले आदमी हैं. वे ही मेरे सब से बड़े हिमायती हैं.’’

‘‘क्या बातें हो रही हैं?’’ दूर से आते हुए चंदनजी ने कहा.

ये भी पढ़ें-प्रमाण दो : भाग 2

‘‘जी, कुछ नहीं, नई समयसारणी की चर्चा हो रही थी. 2-2 पीरियड खाली रहने के बाद शाम तक क्लास…’’ सुप्रिया ने बात बदलते हुए कहा.

‘‘लाइए, समयसारणी मुझे दे दीजिए और कक्षाएं कैसेकैसे ऐडजस्ट करनी हैं, इस पर पीछे लिख दीजिए. मैं इंचार्ज से कह कर ठीक करवा दूंगा,’’ चंदन ने विनम्रता से कहा.

सुप्रिया ने समयसारणी निकाली और इच्छानुसार हम दोनों की कक्षाएं निर्धारित कर कागज के पीछे लिख दीं. फिर कागज चंदन को देते हुए कहा, ‘‘इंचार्ज तो बड़े टेढ़े आदमी हैं, संभव है, इसे स्वीकार नहीं करेंगे.’’

‘‘उन्हें समझाना और मनाना मेरा काम है, आप निश्ंचत रहें.’’

‘‘लो, चंदन बहुत ही नेक इंसान है. मैं ने उसे एक झूठी बात कही तो उस ने उस मुश्किल को भी आसान कर दिया,’’ सुप्रिया ने कहा.

‘‘चल, कैंटीन में बैठ कर चाय पीते हैं,’’ कह कर मैं ने सुप्रिया का हाथ थामा और कैंटीन की ओर बढ़ गई.

20 जनवरी को चंदनजी हमारी पदोन्नति का आदेश ले कर रसायनशास्त्र विभाग में पधारे. हमारी खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था. घर बैठे, बिना कुलपति, कुलसचिव की जीहुजूरी किए पदोन्नति हमारी कल्पना से परे थी, अविश्वसनीय थी. सब ने हमें बधाई दी और एक स्वर में कहा, ‘‘चंदन ने आप दोनों के लिए बहुत परिश्रम किया, उसे तो इनाम मिलना चाहिए.’’

इनाम शब्द कह कर कुछ लोग बड़े अजीब ढंग से मुसकराए, जो हमें अजीब लगा.

बाबूजी को जब मैं ने अपनी पदोन्नति का कागज दिया तो वे बेहद खुश हुए और चंदनजी को मन ही मन शुभकामनाएं दीं. दिन बीतते रहे. फरवरी माह में आयकर की विवरणी के संबंध में कार्यालय से एक नोटिस मिला. उस में चेतावनी थी कि अगर हम ने 40 हजार रुपयों का राष्ट्रीय बचतपत्र अथवा अन्य उपाय नहीं किए तो लगभग 8 हजार रुपए आयकर के रूप में जमा करने होंगे. हर वर्ष इस प्रकार की स्थिति आती थी और सामान्यतया आकाश की इच्छानुसार मैं आयकर ही देती आई थी. इस बार भी मेरे जिक्र करने पर आकाश ने कहा, ‘‘8 हजार रुपए बचाने के लिए 40 हजार रुपए निवेश करना हमारे लिए मुश्किल है. हाउसिंग बोर्ड को पैसे देने हैं, बच्चों का दाखिला है…आयकर दे देना.’’

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अकसर मैं वही करती थी जो आकाश चाहते थे. इस से 2 लाभ होते, एक तो परिणाम से मैं निश्ंिचत रहती. जो भी होता, अच्छा या बुरा, आकाश के ऊपर उस की जवाबदेही होती. दूसरे, इस से परिवार में असीम सुख एवं शांति रहती थी. दूसरे दिन दोपहर में मैं अपने ससुर के साथ बैठी पुरानी तसवीरों का अलबम पलट रही थी कि चंदनजी आ गए. बाबूजी को प्रणाम किया और मगही पान का बीड़ा उन को दे कर बोले, ‘‘इस बेटे की ओर से.’’

इधरउधर की बातें होने के बाद चाय की चुसकियों के साथ आयकर की चर्चा छिड़ गई. चंदन ने जीवन बीमा के सैकड़ों फायदों का बखान किया.

मैं ने कहा, ‘‘मेरे पति आयकर देने के ही मूड में हैं.’’

‘‘वह तो ठीक है, परंतु आप सोचिए, सरकारी खजाने में 8 हजार रुपए जाने से सरकार को जो भी लाभ हो, हमें और आप को क्या लाभ है?’’ चंदन ने पूछा.

‘‘देखो बेटा, सरकार को जो पैसा आयकर के रूप में देते हैं, उसी से तो कल्याण कार्य होते हैं,’’ बाबूजी ने कहा.

‘‘पर चाचाजी, जो 8 हजार रुपए सपनाजी टैक्स के रूप में जमा करेंगी, केवल उतने का ही अगर बीमा करवा लें तो मालूम है, अगले 20 वर्षों में उन्हें लगभग 6 लाख रुपए बीमा कंपनी देगी.’’

‘‘हां, यह बात तो ठीक है, पर बाकी राशि तो टैक्स के रूप में भरनी ही होगी,’’ मैं ने 6 लाख रुपए का सपना देखते हुए कहा.

‘‘उस की चिंता आप मुझ पर छोड़ दें, मैं आप को कुछ ऋण दिला दूंगा. आप के आरडी अथवा बीमा के एवज में उन पैसों की अदायगी प्रतिमाह किस्त के रूप में हो जाएगी. पदोन्नति के बाद जो बढ़ोतरी हुई है, उन्हीं पैसों से वह सब हो जाएगा,’’ चंदनजी ने मुसकराते हुए आगे कहा, ‘‘तो लीजिए, यह फौर्म भर दीजिए, मुझे चार पैसे मिल जाएंगे कमीशन के रूप में और आप का भविष्य पूरी तरह सुरक्षित हो जाएगा.’’

मैं ने ससुरजी से कहा, ‘‘जरा भीतर चलिए, बाबूजी.’’

‘‘क्या बात है, बेटी?’’ भीतर जा कर बाबूजी ने पूछा.

‘‘बाबूजी, मैं क्या करूं? आप के पुत्र टैक्स देने को कहते हैं, चंदनजी बीमा कराने को. चंदनजी के अलावा अन्य कोई ऐसा नहीं जो कालेज में हमारी समस्याओं को सुलझा सके.’’

‘‘तुम फौर्म पर दस्तखत कर दो, मैं आकाश को समझा दूंगा,’’ बाबूजी ने मेरे सिर पर हाथ रखते हुए कहा.

मैं ने हस्ताक्षर कर फौर्म चंदनजी को लौटा दिया और बाकी कौलमों को उन्हें स्वयं भर देने का आग्रह किया. चंदनजी ने उन्हें भर दिया और प्रसन्न मन से चले गए. सबकुछ चंदनजी ने ही किया था. ऋण दिलाना, ऋण के पैसों से फिर बचतपत्र खरीद कर ला देना, बीमा की राशि जमा करवा देना वगैरहवगैरह. आकाश से हम ने न तो चर्चा की, न उन्होंने स्वयं कभी इस संबंध में पूछताछ की. एक दिन मैं कालेज से लौटी तो पितापुत्र दोनों मुंह फुलाए बैठे थे.

‘‘क्या बात है, आप लोग चुपचाप हैं?’’ मैं ने हिम्मत कर के पूछ लिया.

‘‘तो क्या जश्न मनाऊं? बीमा कराने का बड़ा शौक है न तुम्हें, पहले का कराया हुआ बीमा ही हम से नहीं संभल रहा है, ऊपर से यह सब…’’ कहते हुए उन्होंने बीमे का बौंड, जो रजिस्टर्ड डाक से आया था, मेरी ओर फेंक दिया.

पहले तो चोरी पकड़ी जाने के एहसास से मैं घबराई, फिर संभलते हुए कहा, ‘‘आप को तो मेरा लिया गया एक भी निर्णय सही नहीं लगता.’’

‘‘बकवास बंद करो, हमेशा उलटा सोचने की आदत है तुम्हारी. अरी पागल, बाबूजी तो सीधेसादे गृहस्थ ठहरे, ये क्या जानें आयकर और बीमावीमा को. इन्होंने इसलिए हां कर दी, क्योंकि तुम्हारे कथनानुसार चंदन तुम्हारी बहुत सहायता करता है. पर जान लो, तुम ने बीमा करा के उस का काम पूरा कर दिया. वह अब तुम से कोई भी मतलब नहीं रखेगा. बीमा न करातीं तो कम से कम वह मृगतृष्णा में ही तुम्हारी मदद करता रहता,’’ इतना कह कर आकाश मुसकरा दिए.

उन का मुसकराना देख बाबूजी हंस पड़े और बोले, ‘‘अब तुम भी हंसो दुलहन. आकाश का गुस्सा जाड़े की धूप की तरह है, बैठो तो सरकता जाए.’’

बहरहाल, वह साल गुजर गया, नया साल फिर आ गया. पूरे दिन मैं मन ही मन चंदनजी का इंतजार करती रही. पुराना कलैंडर उतर चुका था. उस की जगह खाली पड़ी थी. बाबूजी ने शाम को कहा, ‘‘चंदन कहता था कि वह हर साल इतना ही खूबसूरत नया कलैंडर दीवार पर टांगता रहेगा…आया नहीं?’’

‘‘वह अब कभी नहीं आएगा बाबूजी, नया कलैंडर ले कर वह किसी नए शिकार की टोह में निकला होगा,’’ आकाश ने कहा.

‘इंसान भूल भी तो सकता है, व्यस्त भी तो हो सकता है, बीमार भी तो पड़ सकता है. आप को तो बस…’ मैं ने बुदबुदाते हुए कहा. तभी फोन की घंटी बजी. चंदन ने मुबारकबाद दे कर कहा कि इस वर्ष नया कलैंडर मिला ही नहीं.

2 जनवरी को कालेज के बाद सुप्रिया ने कहा, ‘‘मेरी एक सहपाठिन यहां डाक्टर बन कर आई है. उस ने फोन किया था. चलो, आज उस के घर चल कर उसे नए साल की बधाई दे आएं.’’

रास्ते में सुप्रिया मुझे अपनी सहेली के स्वभाव के बारे में बताती रही. उस ने कहा कि वह किसी सहपाठी से प्यार करती है, इसलिए अब तक कुंआरी है.

मैं ने कहा, ‘‘तो शादी क्यों नहीं कर लेती?’’

‘‘कैसे करेगी, प्रेमी तो शादीशुदा है. इसे जब तक मालूम हुआ, पानी सिर से ऊपर पहुंच चुका था. अब यह बिहार में और वह गुजरात में, अपनेअपने दिलों में प्यार छिपाए बैठे हैं.’’

‘‘यह तो पागलपन है, छिछोरापन है,’’ मैं ने कहा.

‘‘क्या राधा पागल थी? कृष्ण छिछोरे थे?’’ उस ने पूछा.

‘‘अब मैं क्या कहूं. वह हमारी तरह साधारण…’’ बात बीच में ही रुक गई. डा. शोभना का निवास आ चुका था.

गैलरी में हम दोनों ठिठक गईं. चंदनजी, शोभना के पिताजी के लिए ताजी मछलियां, डायरी और कलैंडर ले कर हाजिर थे. सुप्रिया ने मुझे चुप रहने का संकेत किया.

चंदनजी कह रहे थे, ‘‘शोभनाजी, 2 माह पूर्व आप आईं, मगर समाजसेवा से मुझे फुरसत कहां जो इतनी महान त्याग की मूर्ति के दर्शन कर सकूं. आज सोचा आप के पिताजी मेरे पिताजी जैसे हैं. कोई ला कर दे, न दे, मैं हर साल पिताजी को पुत्र की तरह नया कलैंडर, नई डायरी और ताजी मछलियां दे कर बधाई दूंगा.’’

‘‘बड़ा सुंदर कलैंडर है,’’ पिताजी ने कहा.

‘‘सीमित मिलता है, कल से ही खासखास मित्रों को बांट रहा हूं. यह अंतिम आप के घर की दीवार पर मेरी याद…’’

मैं ने कहा, ‘‘चंदनजी, हमारा कलैंडर कहां गया?’’

‘‘अरे, तुम दोनों कब आईं?’’ शोभना ने उठ कर स्वागत करते हुए कहा.

‘‘जब ये महोदय तुम्हें खास मित्र, त्याग की मूर्ति और न जाने क्याक्या कह रहे थे,’’ सुप्रिया ने कहा.

चंदनजी को काटो तो खून नहीं. दीवार पर कलैंडर टांगते हुए उन के हाथ रुक से गए. अचानक उन्होंने, ‘नमस्ते पिताजी, नमस्ते शोभनाजी,’ कहा और चले गए.

‘‘बड़ा अजीब आदमी है. अभी साथ में खाना खाने का प्रोग्राम बना रहा था, तुम्हें देखते ही…’’

शोभना की बात बीच में ही काटते हुए मैं ने कहा, ‘‘दुम दबा कर भाग गया.’’ और फिर वहां समवेत ठहाका गूंज उठा

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नए साल की पहली सुबह थी. बच्चों ने बिस्तर छोड़ने के साथ ही मुझे और आकाश को नए साल की मुबारकबाद दी. रसोई में जा कर मैं ने नववर्ष का विशेष व्यंजन बनाने के लिए सामग्री का चुनाव किया. फिर चाय ले कर मैं बाबूजी के कमरे में गई. आकाश वहीं पिता से सट कर बैठे थे. मैं ने स्टूल पर चाय रखी और आकाश से मुखातिब हो कर कहा, ‘‘चाय पी कर बाजार निकल जाइए, सब्जी वगैरह ले आइए.’’

‘‘नए साल की शुरुआत गुलामी से?’’ आकाश ने आंखें तरेर कर कहा.

मैं कुछ कहती इस से पूर्व ही बाबूजी ने कहा, ‘‘घर का काम करना खुशी की बात होती है, गुलामी की नहीं.’’चाय पी कर ज्यों ही मैं उठने को हुई, चंदनजी का स्कूटर सरसराता हुआ आ कर रुक गया.

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‘‘नए साल की बहुतबहुत बधाई हो,’’ कह कर उन्होंने आकाश, बाबूजी एवं मुझे नमस्कार किया.

बाबूजी ने कहा, ‘‘नए साल का पहला मेहमान आया है. मुंह मीठा कराओ, दुलहन.’’

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‘‘जी, बाबूजी, अभी लाई,’’ कह कर ज्यों ही मैं उठने लगी, चंदनजी ने 2 प्लास्टिक के थैले मुझे पकड़ाते हुए कहा, ‘‘एक में मिठाई है बच्चों के लिए, दूसरे में चिकन है, आकाश साहब के लिए.’’

‘‘और मेरे लिए?’’ बाबूजी ने शरारती बच्चों की तरह पूछा.

‘‘नए साल का कलैंडर और डायरी लाया हूं चाचाजी,’’ कह कर चंदनजी ने भारतीय जीवन बीमा निगम का एक खूबसूरत कलैंडर अपने थैले से निकाल कर दीवार पर टांग दिया. राजस्थानी वेशभूषा से सुसज्जित 8-10 युवतियां, परंपरागत आभूषणों से लदी नृत्य कर रही थीं. पृष्ठभूमि में चमकीली रेत और रेत पर पड़ती सूर्य की सुनहरी किरणें बहुत आकर्षक लग रही थीं. डायरी भी बेहद खूबसूरत थी.

‘‘इतना सब करने की क्या जरूरत थी?’’ बाबूजी ने स्नेहपूर्वक कहा.

‘‘आप के प्यार और सहयोग से इस वर्ष मैं ने रिकौर्ड व्यवसाय दिया है. बोनस भी भरपूर मिला है. आप लोगों को पहले जानता नहीं था, कुछ खिलायापिलाया नहीं. इसे एक बेटे की कमाई समझ कर स्वीकार कीजिए.’’

‘‘अच्छी बात है बेटे. मगर आज दिन का खाना तुम मेरे साथ खाओ तब मुझे आनंद आएगा,’’ बाबूजी ने कहा.

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‘‘ऐसा है चाचाजी, मुझे आज 7-8 और घनिष्ठ मित्रों के घर मिठाई पहुंचानी है. सुप्रियाजी के ससुर के लिए मछली लेनी है. इसलिए आज आप मुझे क्षमा कर दें. मेरा लाया कलैंडर हर पल आप के साथ है न,’’ कह कर चंदनजी ने आज्ञा ली और हाथ जोड़ कर मुझे नमस्कार किया.उन के जाने के बाद बाबूजी ने कहा, ‘‘दुलहन का यह सहकर्मी भला इंसान है. देखो तो, सब की रुचि के अनुसार नववर्ष की भेंट दे कर चला गया. आजकल के युग में ऐसे भलेमानुष दुर्लभ हैं. आकाश बेटे, तुम्हारा क्या विचार है?’’

‘‘मैं आप से विपरीत विचार रखता हूं. मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि अति विनम्रता, अकारण विनम्रता व्यक्ति की धूर्तता पर पड़ा आवरण है. मुझे यह व्यक्ति मतलबी, धोखेबाज और…’’

आकाश की बात बीच में ही काटते हुए मैं ने कहा, ‘‘आप को तो हर बात में मनोविज्ञान नजर आने लगता है. अकारण किसी पर संदेह करना कौन सा बड़प्पन है? कालेज में वे सब के सुखदुख में शामिल रहने वाले आदमी हैं.’’

‘‘ओहो, आप दोनों बहस करने बैठ गए. देखिए, चंदन चाचा का दिया, कलैंडर कितना खूबसूरत है,’’ बेटे ने पिता के गले में बांहें डाल कर लाड़ जताते हुए कहा.

‘‘वाह, साल का नया कलैंडर. बेटे, यह तो मछली को फंसाने के लिए फेंका गया चारा है…चारा. चंदन बीमा एजेंट है और नएनए लोगों को येनकेन प्रकारेण आकर्षित करना उस का खास शगल है,’’ आकाश ने मुंह बनाते हुए कहा और उठ कर स्नानघर में चले गए.

कालेज में सुप्रिया से भेंट हुई. वह मेरी अंतरंग सहेली थी. उस से मैं ने चंदन वाली बात बताई तो उस ने भी मेरे विचारों से सहमत होते हुए कहा, ‘‘ये पति लोग भी बड़े अजीब होते हैं, हमारे मुंह से किसी की तारीफ सुन ही नहीं सकते. कोई न कोई मीनमेख जरूर निकाल लेंगे. न हुआ तो उसे आवारा, बदचलन ही साबित कर देंगे.’’

‘‘ठीक कहती हो तुम. आकाश को भी हर चीज में गड़बड़ नजर आती है. पर मेरे बाबूजी बहुत भले आदमी हैं. वे ही मेरे सब से बड़े हिमायती हैं.’’

‘‘क्या बातें हो रही हैं?’’ दूर से आते हुए चंदनजी ने कहा.

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‘‘जी, कुछ नहीं, नई समयसारणी की चर्चा हो रही थी. 2-2 पीरियड खाली रहने के बाद शाम तक क्लास…’’ सुप्रिया ने बात बदलते हुए कहा.

‘‘लाइए, समयसारणी मुझे दे दीजिए और कक्षाएं कैसेकैसे ऐडजस्ट करनी हैं, इस पर पीछे लिख दीजिए. मैं इंचार्ज से कह कर ठीक करवा दूंगा,’’ चंदन ने विनम्रता से कहा.

सुप्रिया ने समयसारणी निकाली और इच्छानुसार हम दोनों की कक्षाएं निर्धारित कर कागज के पीछे लिख दीं. फिर कागज चंदन को देते हुए कहा, ‘‘इंचार्ज तो बड़े टेढ़े आदमी हैं, संभव है, इसे स्वीकार नहीं करेंगे.’’

‘‘उन्हें समझाना और मनाना मेरा काम है, आप निश्ंचत रहें.’’

‘‘लो, चंदन बहुत ही नेक इंसान है. मैं ने उसे एक झूठी बात कही तो उस ने उस मुश्किल को भी आसान कर दिया,’’ सुप्रिया ने कहा.

‘‘चल, कैंटीन में बैठ कर चाय पीते हैं,’’ कह कर मैं ने सुप्रिया का हाथ थामा और कैंटीन की ओर बढ़ गई.

20 जनवरी को चंदनजी हमारी पदोन्नति का आदेश ले कर रसायनशास्त्र विभाग में पधारे. हमारी खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था. घर बैठे, बिना कुलपति, कुलसचिव की जीहुजूरी किए पदोन्नति हमारी कल्पना से परे थी, अविश्वसनीय थी. सब ने हमें बधाई दी और एक स्वर में कहा, ‘‘चंदन ने आप दोनों के लिए बहुत परिश्रम किया, उसे तो इनाम मिलना चाहिए.’’

इनाम शब्द कह कर कुछ लोग बड़े अजीब ढंग से मुसकराए, जो हमें अजीब लगा.

बाबूजी को जब मैं ने अपनी पदोन्नति का कागज दिया तो वे बेहद खुश हुए और चंदनजी को मन ही मन शुभकामनाएं दीं. दिन बीतते रहे. फरवरी माह में आयकर की विवरणी के संबंध में कार्यालय से एक नोटिस मिला. उस में चेतावनी थी कि अगर हम ने 40 हजार रुपयों का राष्ट्रीय बचतपत्र अथवा अन्य उपाय नहीं किए तो लगभग 8 हजार रुपए आयकर के रूप में जमा करने होंगे. हर वर्ष इस प्रकार की स्थिति आती थी और सामान्यतया आकाश की इच्छानुसार मैं आयकर ही देती आई थी. इस बार भी मेरे जिक्र करने पर आकाश ने कहा, ‘‘8 हजार रुपए बचाने के लिए 40 हजार रुपए निवेश करना हमारे लिए मुश्किल है. हाउसिंग बोर्ड को पैसे देने हैं, बच्चों का दाखिला है…आयकर दे देना.’’

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अकसर मैं वही करती थी जो आकाश चाहते थे. इस से 2 लाभ होते, एक तो परिणाम से मैं निश्ंिचत रहती. जो भी होता, अच्छा या बुरा, आकाश के ऊपर उस की जवाबदेही होती. दूसरे, इस से परिवार में असीम सुख एवं शांति रहती थी. दूसरे दिन दोपहर में मैं अपने ससुर के साथ बैठी पुरानी तसवीरों का अलबम पलट रही थी कि चंदनजी आ गए. बाबूजी को प्रणाम किया और मगही पान का बीड़ा उन को दे कर बोले, ‘‘इस बेटे की ओर से.’’

इधरउधर की बातें होने के बाद चाय की चुसकियों के साथ आयकर की चर्चा छिड़ गई. चंदन ने जीवन बीमा के सैकड़ों फायदों का बखान किया.

मैं ने कहा, ‘‘मेरे पति आयकर देने के ही मूड में हैं.’’

‘‘वह तो ठीक है, परंतु आप सोचिए, सरकारी खजाने में 8 हजार रुपए जाने से सरकार को जो भी लाभ हो, हमें और आप को क्या लाभ है?’’ चंदन ने पूछा.

‘‘देखो बेटा, सरकार को जो पैसा आयकर के रूप में देते हैं, उसी से तो कल्याण कार्य होते हैं,’’ बाबूजी ने कहा.

‘‘पर चाचाजी, जो 8 हजार रुपए सपनाजी टैक्स के रूप में जमा करेंगी, केवल उतने का ही अगर बीमा करवा लें तो मालूम है, अगले 20 वर्षों में उन्हें लगभग 6 लाख रुपए बीमा कंपनी देगी.’’

‘‘हां, यह बात तो ठीक है, पर बाकी राशि तो टैक्स के रूप में भरनी ही होगी,’’ मैं ने 6 लाख रुपए का सपना देखते हुए कहा.

‘‘उस की चिंता आप मुझ पर छोड़ दें, मैं आप को कुछ ऋण दिला दूंगा. आप के आरडी अथवा बीमा के एवज में उन पैसों की अदायगी प्रतिमाह किस्त के रूप में हो जाएगी. पदोन्नति के बाद जो बढ़ोतरी हुई है, उन्हीं पैसों से वह सब हो जाएगा,’’ चंदनजी ने मुसकराते हुए आगे कहा, ‘‘तो लीजिए, यह फौर्म भर दीजिए, मुझे चार पैसे मिल जाएंगे कमीशन के रूप में और आप का भविष्य पूरी तरह सुरक्षित हो जाएगा.’’

मैं ने ससुरजी से कहा, ‘‘जरा भीतर चलिए, बाबूजी.’’

‘‘क्या बात है, बेटी?’’ भीतर जा कर बाबूजी ने पूछा.

‘‘बाबूजी, मैं क्या करूं? आप के पुत्र टैक्स देने को कहते हैं, चंदनजी बीमा कराने को. चंदनजी के अलावा अन्य कोई ऐसा नहीं जो कालेज में हमारी समस्याओं को सुलझा सके.’’

‘‘तुम फौर्म पर दस्तखत कर दो, मैं आकाश को समझा दूंगा,’’ बाबूजी ने मेरे सिर पर हाथ रखते हुए कहा.

मैं ने हस्ताक्षर कर फौर्म चंदनजी को लौटा दिया और बाकी कौलमों को उन्हें स्वयं भर देने का आग्रह किया. चंदनजी ने उन्हें भर दिया और प्रसन्न मन से चले गए. सबकुछ चंदनजी ने ही किया था. ऋण दिलाना, ऋण के पैसों से फिर बचतपत्र खरीद कर ला देना, बीमा की राशि जमा करवा देना वगैरहवगैरह. आकाश से हम ने न तो चर्चा की, न उन्होंने स्वयं कभी इस संबंध में पूछताछ की. एक दिन मैं कालेज से लौटी तो पितापुत्र दोनों मुंह फुलाए बैठे थे.

‘‘क्या बात है, आप लोग चुपचाप हैं?’’ मैं ने हिम्मत कर के पूछ लिया.

‘‘तो क्या जश्न मनाऊं? बीमा कराने का बड़ा शौक है न तुम्हें, पहले का कराया हुआ बीमा ही हम से नहीं संभल रहा है, ऊपर से यह सब…’’ कहते हुए उन्होंने बीमे का बौंड, जो रजिस्टर्ड डाक से आया था, मेरी ओर फेंक दिया.

पहले तो चोरी पकड़ी जाने के एहसास से मैं घबराई, फिर संभलते हुए कहा, ‘‘आप को तो मेरा लिया गया एक भी निर्णय सही नहीं लगता.’’

‘‘बकवास बंद करो, हमेशा उलटा सोचने की आदत है तुम्हारी. अरी पागल, बाबूजी तो सीधेसादे गृहस्थ ठहरे, ये क्या जानें आयकर और बीमावीमा को. इन्होंने इसलिए हां कर दी, क्योंकि तुम्हारे कथनानुसार चंदन तुम्हारी बहुत सहायता करता है. पर जान लो, तुम ने बीमा करा के उस का काम पूरा कर दिया. वह अब तुम से कोई भी मतलब नहीं रखेगा. बीमा न करातीं तो कम से कम वह मृगतृष्णा में ही तुम्हारी मदद करता रहता,’’ इतना कह कर आकाश मुसकरा दिए.

उन का मुसकराना देख बाबूजी हंस पड़े और बोले, ‘‘अब तुम भी हंसो दुलहन. आकाश का गुस्सा जाड़े की धूप की तरह है, बैठो तो सरकता जाए.’’

बहरहाल, वह साल गुजर गया, नया साल फिर आ गया. पूरे दिन मैं मन ही मन चंदनजी का इंतजार करती रही. पुराना कलैंडर उतर चुका था. उस की जगह खाली पड़ी थी. बाबूजी ने शाम को कहा, ‘‘चंदन कहता था कि वह हर साल इतना ही खूबसूरत नया कलैंडर दीवार पर टांगता रहेगा…आया नहीं?’’

‘‘वह अब कभी नहीं आएगा बाबूजी, नया कलैंडर ले कर वह किसी नए शिकार की टोह में निकला होगा,’’ आकाश ने कहा.

‘इंसान भूल भी तो सकता है, व्यस्त भी तो हो सकता है, बीमार भी तो पड़ सकता है. आप को तो बस…’ मैं ने बुदबुदाते हुए कहा. तभी फोन की घंटी बजी. चंदन ने मुबारकबाद दे कर कहा कि इस वर्ष नया कलैंडर मिला ही नहीं.

2 जनवरी को कालेज के बाद सुप्रिया ने कहा, ‘‘मेरी एक सहपाठिन यहां डाक्टर बन कर आई है. उस ने फोन किया था. चलो, आज उस के घर चल कर उसे नए साल की बधाई दे आएं.’’

रास्ते में सुप्रिया मुझे अपनी सहेली के स्वभाव के बारे में बताती रही. उस ने कहा कि वह किसी सहपाठी से प्यार करती है, इसलिए अब तक कुंआरी है.

मैं ने कहा, ‘‘तो शादी क्यों नहीं कर लेती?’’

‘‘कैसे करेगी, प्रेमी तो शादीशुदा है. इसे जब तक मालूम हुआ, पानी सिर से ऊपर पहुंच चुका था. अब यह बिहार में और वह गुजरात में, अपनेअपने दिलों में प्यार छिपाए बैठे हैं.’’

‘‘यह तो पागलपन है, छिछोरापन है,’’ मैं ने कहा.

‘‘क्या राधा पागल थी? कृष्ण छिछोरे थे?’’ उस ने पूछा.

‘‘अब मैं क्या कहूं. वह हमारी तरह साधारण…’’ बात बीच में ही रुक गई. डा. शोभना का निवास आ चुका था.

गैलरी में हम दोनों ठिठक गईं. चंदनजी, शोभना के पिताजी के लिए ताजी मछलियां, डायरी और कलैंडर ले कर हाजिर थे. सुप्रिया ने मुझे चुप रहने का संकेत किया.

चंदनजी कह रहे थे, ‘‘शोभनाजी, 2 माह पूर्व आप आईं, मगर समाजसेवा से मुझे फुरसत कहां जो इतनी महान त्याग की मूर्ति के दर्शन कर सकूं. आज सोचा आप के पिताजी मेरे पिताजी जैसे हैं. कोई ला कर दे, न दे, मैं हर साल पिताजी को पुत्र की तरह नया कलैंडर, नई डायरी और ताजी मछलियां दे कर बधाई दूंगा.’’

‘‘बड़ा सुंदर कलैंडर है,’’ पिताजी ने कहा.

‘‘सीमित मिलता है, कल से ही खासखास मित्रों को बांट रहा हूं. यह अंतिम आप के घर की दीवार पर मेरी याद…’’

मैं ने कहा, ‘‘चंदनजी, हमारा कलैंडर कहां गया?’’

‘‘अरे, तुम दोनों कब आईं?’’ शोभना ने उठ कर स्वागत करते हुए कहा.

‘‘जब ये महोदय तुम्हें खास मित्र, त्याग की मूर्ति और न जाने क्याक्या कह रहे थे,’’ सुप्रिया ने कहा.

चंदनजी को काटो तो खून नहीं. दीवार पर कलैंडर टांगते हुए उन के हाथ रुक से गए. अचानक उन्होंने, ‘नमस्ते पिताजी, नमस्ते शोभनाजी,’ कहा और चले गए.

‘‘बड़ा अजीब आदमी है. अभी साथ में खाना खाने का प्रोग्राम बना रहा था, तुम्हें देखते ही…’’

शोभना की बात बीच में ही काटते हुए मैं ने कहा, ‘‘दुम दबा कर भाग गया.’’ और फिर वहां समवेत ठहाका गूंज उठा

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January 01, 2021 at 10:00AM

हैप्पी न्यू ईयर – भाग 1 : पिंटू के घर से जानें के बाद क्या बदलाव आया

लेखिक : डा. मंजू सिन्हा

पिंटू को अपने बेटे की तरह पाला था मीरा ने. बहन होते हुए मां की तरह अपना कर्तव्यपालन किया था, जिस का फल मीरा को देर से मिला. पर क्या वह फल मीठा था?

डाकिए ने अपनी साइकिल की घंटी जोर से टनटनाई. उस की इस आदत से मु झे चिढ़ सी है. वह तब तक घंटी बजाता रहता है जब तक कि कोई गेट पर जा कर उस से चिट्ठियां न ले ले. मैं ने कितनी बार उसे सम झाया है कि तुम चिट्ठियां गेट के भीतर डाल दिया करो, लेकिन वह मानता ही नहीं.

एक दिन जब नाराज हो कर मैं ने उस से कहा था कि तुम्हारी यह आदत किसी दिन मेरी टांग तुड़वा कर रहेगी, भागती हुई आती हूं, तो उस ने हंस कर कहा था, ‘मैं आ कर सेवा करूंगा, मांजी. गेट के भीतर किसी लावारिस बच्चे की तरह चिट्ठियों को छोड़ जाना भला अच्छा लगता है? कोई उठा ले, हवा में उड़ जाएं या बारिश में भीग जाएं, तो? मैं कब से कहता हूं कि एक लेटरबौक्स टांग दीजिए.’

मैं ने उसे  झिड़कते हुए कहा था, ‘कभीकभार तो कोई चिट्ठी आती है, उस के लिए रुपए खर्च कर के लैटरबौक्स टांग दूं?’

‘‘मांजी, लीजिए, आज 3 न्यू ईयर ग्रीटिंग्स लाया हूं,’’ कह कर उस ने चिट्ठियां मेरे हाथ में रखीं और नमस्ते मांजी कहता हुए पड़ोसियों के गेट की ओर बढ़ गया था. मेरे मन के भीतर का चोर फुसफुसाया, लो, आ गई न भाईभावज की चिट्ठी. तुम कहती थीं अब तुम्हारा पिंटू से कोई रिश्ता ही नहीं रहा. अब क्या कहोगी? मैं सोचसोच कर मन ही मन खुश हुई जा रही थी, चलो, मेरे लाड़ले को अपनी भूल का एहसास तो हुआ. मैंने मुसकरा कर अपने मन के चोर को  झड़का, चुप रहो. अपनों से भला कोई कब तक रूठ सकता है? मैं ने तो गुस्से में कह दिया था कि पिंटू से मेरा कोई वास्ता नहीं. गुस्से में तो आदमी क्याक्या नहीं बोल जाता है. मैं ने तेजी से गेट बंद कर दिया और भीतर आ गई.

बरामदे में रखे सोफे पर बैठ कर मैं ने पहला लिफाफा खोला. मेरे कर्नाटक वाले दोस्त ने भेजा था. उस की पत्नी हर साल मु झे न्यू ईयर ग्रीटिंग भेजती है. ये लोग कभीकभार मु झे चिट्ठियां भी लिखते रहते हैं.

मैं ने दूसरा लिफाफा खोला. दिल्ली से गुडि़या ने ग्रीटिंग भेजा था, स्नेहिल शब्दों में ढेर सारी शुभकामनाएं.

दिल की धड़कनों को बड़ी मुश्किल से संभाल कर मैं ने तीसरा लिफाफा खोला. ‘शुभकामनाओं के साथ’ शाहिद कमाल का नाम पढ़ कर मन की खुशी गुब्बारे की हवा की तरह फुस्स कर के निकल गई. कोई और दिन होता तो मैं कितना खुश होती अपनी धोबिन सकीना के इंजीनियर बेटे शाहिद का न्यू ईयर कार्ड पा कर. अपने इसी घर में रख कर मैं ने उसे पढ़ायालिखाया था. पर आज मैं बहुत उदास हुई. मेरा यह दुख, यह दर्द बहुआयामी था. एक तो पिंटू की कोई चिट्ठी नहीं आई. फिर उस की नकचढ़ी बीवी का बरताव और उस पर से बूढ़े अम्माबाबूजी के हमेशा यह पूछते रहने के बारे में सोच कर कि ‘पिंटू की कोई चिट्ठी आई? उस का फोन आया? उस की पत्नी अपने मायके आई थी? मोतिहारी से मुजफ्फरपुर गए बिना तो जबलपुर की गाड़ी मिलेगी नहीं, क्या वह तुम से मिले बिना चली गई?’ आदि न जाने कितनी बातें सोचती रही.

मुझे बेचैनी होने लगी. लगा, जैसे दम घुट रहा हो. नीलू नाम की एक महिला दमे की मरीज हैं, उन की पीड़ा कई बार मैं ने अपनी आंखों से देखी है. उन्हें ऐसी ही छटपटाहट, ऐसी ही बेचैनी रहती है. कहीं मु झे भी दमे का अटैक तो नहीं हुआ है? मैं ने खुद से सवाल किया. मन के भीतर से आवाज आई, दमावमा कुछ नहीं है, यह अपनों का दिया दर्द है. पराए तो यों ही बदनाम हैं, अपनों का दिया घाव न इस करवट चैन लेने देता है न उस करवट. पिंटू को तुम ने अपने बेटे की तरह पालापोसा, पढ़ायालिखाया. आज उस के लिए उस का ससुराल ही घरपरिवार हो गया है. बस, यही कष्ट है तुम को. उठो, हिम्मत करो.

मैं उठ कर खड़ी हो गईर्. बरामदा पार कर डाइनिंग हौल में आई. फ्रिज खोल कर ठंडा पानी निकाला. उस में थोड़ी सी इलायची की बुकनी डाली और गटागट पी गई. फिर दूसरा गिलास तैयार किया और उसे भी पी गई. मु झे खुद पर आश्चर्य हो रहा था. मैं गरमी में भी एक गिलास से ज्यादा पानी नहीं पी पाती थी और आज इतनी ठंड में भी 2 गिलास पानी पी गई.

तभी फोन की घंटी घनघना उठी. मैं ने रिसीवर उठाया. मेरे पति का फोन था. ‘‘मैं आज जरा देर से आऊंगा, लगभग 10 बजे तक. आप चिंता न करें, इसलिए फोन कर दिया. औफिस में आज नए साल की पूर्र्व संध्या पर एक पार्टी है.’’

मैं ने घड़ी की ओर देखा, 2 बज कर 10 मिनट हुए थे. क्या करूं? वापस जा कर गेट बंद किया. बरामदे का दरवाजा बंद कर, कुंडी लगा दी. बैडरूम में आ गई. लता के दर्दीले गानों का कैसेट लगाया. कमरे में ‘आ जा रे, मैं तो कब से खड़ी इस पार, ये अखियां थक गईं पंथ निहार, आ जा रे…’ की मधुर धुन बिखर गई. कालेज में जब भी कोई टैंशन होती है, मैं घर आ कर यही कैसेट सुनती रहती हूं. जाने कौन सा नाता है इन गीतों से. बड़े अपने से लगते हैं.

मैं पलंग पर तकिए के सहारे लेट गई. गीत की धुन पर मेरे प्राण भी किसी को ‘आ जा रे, आ जा रे’ पुकार रहे थे. पर पिंटू तो सार्वजनिक संपत्ति है, जिसे भ्रमवश मैं अपना मान बैठी थी. सभी बहनों का भाई. अपनी भावनाशून्य बीवी का पति, अपने फ्रौड साले का बहनोई, अपनी मायावी मौसिया सास का दामाद, वह भला मेरा कहां रहा? क्यों उसे याद करता है यह पागल मन? फिर मन अतीत की गहराइयों में खोता चला गया.

बाबूजी के सीबीआई द्वारा ट्रैप किए जाने की बुरी खबर टीवी पर आई थी. मेरे सीधेसादे बाबूजी को आर्थिक अनियमितताओं के बेतुके आरोप में फंसाया गया था. उस घटना को सोच कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

बिना अपना नफानुकसान सोचे, बिना किसी स्वार्थ के मैं भागी हुई गरीबां चली आई थी. आंचल में मां के सारे आंसू और 3 छोटे भाईबहनों को समेट लाई थी. अपने 3 बच्चों एवं 3 भाईबहनों को मैं ने एकसाथ पालना शुरू कर दिया था. बहनें तो ब्याह कर अपनी ससुराल चली गईं लेकिन भाई को तो बिरवा से वृक्ष बनने में अभी देर थी.

उस ने हाईस्कूल पास किया, इंटर पास किया, बीएससी में इलैक्ट्रौनिक लेने की मासूम सी जिद की. उस समय मुजफ्फरपुर जैसे शहर में इस विषय को लोग अलादीन का चिराग सम झते थे. भयानक अफरातफरी मची थी और सीटें थीं मात्र 14. कई बार हिम्मत जवाब दे जाती लेकिन जब पिंटू की भोली आंखें मेरी तरफ प्रश्नवाचक भाव से निहारतीं तो मैं उसे अपनी असमर्थता नहीं बता पाती.

मन में लाखों आशंकाएं लिए मैं स्थानीय विधायक के दरबार में गई. बाप रे, वहां इतनी भीड़ थी कि आदमी की चमड़ी उधड़ जाए. धक्कमधुक्का, मारामारी लगी थी और बाहुबली विधायक एक राजा की तरह सिंहासनारूढ़ हो कर फरियादियों की फरियाद सुनता. क्षणभर में ही दूसरा फरियादी पहले को धकिया कर आगे कर देता. मैं तो हिम्मत ही हार गई. घबरा कर एक कोने में बैठ गई. तभी विधायक का एक चमचा मेरी ओर आया और उस ने पूछा, ‘आप प्रोफैसर मीरा हैं न?’ मैं ने ‘जी हां’ कहा तो  झट बोला, ‘अरे, तब बैठी क्यों हैं, आइए, हम आप को विधायकजी से मिलवा देते हैं.’

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लेखिक : डा. मंजू सिन्हा

पिंटू को अपने बेटे की तरह पाला था मीरा ने. बहन होते हुए मां की तरह अपना कर्तव्यपालन किया था, जिस का फल मीरा को देर से मिला. पर क्या वह फल मीठा था?

डाकिए ने अपनी साइकिल की घंटी जोर से टनटनाई. उस की इस आदत से मु झे चिढ़ सी है. वह तब तक घंटी बजाता रहता है जब तक कि कोई गेट पर जा कर उस से चिट्ठियां न ले ले. मैं ने कितनी बार उसे सम झाया है कि तुम चिट्ठियां गेट के भीतर डाल दिया करो, लेकिन वह मानता ही नहीं.

एक दिन जब नाराज हो कर मैं ने उस से कहा था कि तुम्हारी यह आदत किसी दिन मेरी टांग तुड़वा कर रहेगी, भागती हुई आती हूं, तो उस ने हंस कर कहा था, ‘मैं आ कर सेवा करूंगा, मांजी. गेट के भीतर किसी लावारिस बच्चे की तरह चिट्ठियों को छोड़ जाना भला अच्छा लगता है? कोई उठा ले, हवा में उड़ जाएं या बारिश में भीग जाएं, तो? मैं कब से कहता हूं कि एक लेटरबौक्स टांग दीजिए.’

मैं ने उसे  झिड़कते हुए कहा था, ‘कभीकभार तो कोई चिट्ठी आती है, उस के लिए रुपए खर्च कर के लैटरबौक्स टांग दूं?’

‘‘मांजी, लीजिए, आज 3 न्यू ईयर ग्रीटिंग्स लाया हूं,’’ कह कर उस ने चिट्ठियां मेरे हाथ में रखीं और नमस्ते मांजी कहता हुए पड़ोसियों के गेट की ओर बढ़ गया था. मेरे मन के भीतर का चोर फुसफुसाया, लो, आ गई न भाईभावज की चिट्ठी. तुम कहती थीं अब तुम्हारा पिंटू से कोई रिश्ता ही नहीं रहा. अब क्या कहोगी? मैं सोचसोच कर मन ही मन खुश हुई जा रही थी, चलो, मेरे लाड़ले को अपनी भूल का एहसास तो हुआ. मैंने मुसकरा कर अपने मन के चोर को  झड़का, चुप रहो. अपनों से भला कोई कब तक रूठ सकता है? मैं ने तो गुस्से में कह दिया था कि पिंटू से मेरा कोई वास्ता नहीं. गुस्से में तो आदमी क्याक्या नहीं बोल जाता है. मैं ने तेजी से गेट बंद कर दिया और भीतर आ गई.

बरामदे में रखे सोफे पर बैठ कर मैं ने पहला लिफाफा खोला. मेरे कर्नाटक वाले दोस्त ने भेजा था. उस की पत्नी हर साल मु झे न्यू ईयर ग्रीटिंग भेजती है. ये लोग कभीकभार मु झे चिट्ठियां भी लिखते रहते हैं.

मैं ने दूसरा लिफाफा खोला. दिल्ली से गुडि़या ने ग्रीटिंग भेजा था, स्नेहिल शब्दों में ढेर सारी शुभकामनाएं.

दिल की धड़कनों को बड़ी मुश्किल से संभाल कर मैं ने तीसरा लिफाफा खोला. ‘शुभकामनाओं के साथ’ शाहिद कमाल का नाम पढ़ कर मन की खुशी गुब्बारे की हवा की तरह फुस्स कर के निकल गई. कोई और दिन होता तो मैं कितना खुश होती अपनी धोबिन सकीना के इंजीनियर बेटे शाहिद का न्यू ईयर कार्ड पा कर. अपने इसी घर में रख कर मैं ने उसे पढ़ायालिखाया था. पर आज मैं बहुत उदास हुई. मेरा यह दुख, यह दर्द बहुआयामी था. एक तो पिंटू की कोई चिट्ठी नहीं आई. फिर उस की नकचढ़ी बीवी का बरताव और उस पर से बूढ़े अम्माबाबूजी के हमेशा यह पूछते रहने के बारे में सोच कर कि ‘पिंटू की कोई चिट्ठी आई? उस का फोन आया? उस की पत्नी अपने मायके आई थी? मोतिहारी से मुजफ्फरपुर गए बिना तो जबलपुर की गाड़ी मिलेगी नहीं, क्या वह तुम से मिले बिना चली गई?’ आदि न जाने कितनी बातें सोचती रही.

मुझे बेचैनी होने लगी. लगा, जैसे दम घुट रहा हो. नीलू नाम की एक महिला दमे की मरीज हैं, उन की पीड़ा कई बार मैं ने अपनी आंखों से देखी है. उन्हें ऐसी ही छटपटाहट, ऐसी ही बेचैनी रहती है. कहीं मु झे भी दमे का अटैक तो नहीं हुआ है? मैं ने खुद से सवाल किया. मन के भीतर से आवाज आई, दमावमा कुछ नहीं है, यह अपनों का दिया दर्द है. पराए तो यों ही बदनाम हैं, अपनों का दिया घाव न इस करवट चैन लेने देता है न उस करवट. पिंटू को तुम ने अपने बेटे की तरह पालापोसा, पढ़ायालिखाया. आज उस के लिए उस का ससुराल ही घरपरिवार हो गया है. बस, यही कष्ट है तुम को. उठो, हिम्मत करो.

मैं उठ कर खड़ी हो गईर्. बरामदा पार कर डाइनिंग हौल में आई. फ्रिज खोल कर ठंडा पानी निकाला. उस में थोड़ी सी इलायची की बुकनी डाली और गटागट पी गई. फिर दूसरा गिलास तैयार किया और उसे भी पी गई. मु झे खुद पर आश्चर्य हो रहा था. मैं गरमी में भी एक गिलास से ज्यादा पानी नहीं पी पाती थी और आज इतनी ठंड में भी 2 गिलास पानी पी गई.

तभी फोन की घंटी घनघना उठी. मैं ने रिसीवर उठाया. मेरे पति का फोन था. ‘‘मैं आज जरा देर से आऊंगा, लगभग 10 बजे तक. आप चिंता न करें, इसलिए फोन कर दिया. औफिस में आज नए साल की पूर्र्व संध्या पर एक पार्टी है.’’

मैं ने घड़ी की ओर देखा, 2 बज कर 10 मिनट हुए थे. क्या करूं? वापस जा कर गेट बंद किया. बरामदे का दरवाजा बंद कर, कुंडी लगा दी. बैडरूम में आ गई. लता के दर्दीले गानों का कैसेट लगाया. कमरे में ‘आ जा रे, मैं तो कब से खड़ी इस पार, ये अखियां थक गईं पंथ निहार, आ जा रे…’ की मधुर धुन बिखर गई. कालेज में जब भी कोई टैंशन होती है, मैं घर आ कर यही कैसेट सुनती रहती हूं. जाने कौन सा नाता है इन गीतों से. बड़े अपने से लगते हैं.

मैं पलंग पर तकिए के सहारे लेट गई. गीत की धुन पर मेरे प्राण भी किसी को ‘आ जा रे, आ जा रे’ पुकार रहे थे. पर पिंटू तो सार्वजनिक संपत्ति है, जिसे भ्रमवश मैं अपना मान बैठी थी. सभी बहनों का भाई. अपनी भावनाशून्य बीवी का पति, अपने फ्रौड साले का बहनोई, अपनी मायावी मौसिया सास का दामाद, वह भला मेरा कहां रहा? क्यों उसे याद करता है यह पागल मन? फिर मन अतीत की गहराइयों में खोता चला गया.

बाबूजी के सीबीआई द्वारा ट्रैप किए जाने की बुरी खबर टीवी पर आई थी. मेरे सीधेसादे बाबूजी को आर्थिक अनियमितताओं के बेतुके आरोप में फंसाया गया था. उस घटना को सोच कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

बिना अपना नफानुकसान सोचे, बिना किसी स्वार्थ के मैं भागी हुई गरीबां चली आई थी. आंचल में मां के सारे आंसू और 3 छोटे भाईबहनों को समेट लाई थी. अपने 3 बच्चों एवं 3 भाईबहनों को मैं ने एकसाथ पालना शुरू कर दिया था. बहनें तो ब्याह कर अपनी ससुराल चली गईं लेकिन भाई को तो बिरवा से वृक्ष बनने में अभी देर थी.

उस ने हाईस्कूल पास किया, इंटर पास किया, बीएससी में इलैक्ट्रौनिक लेने की मासूम सी जिद की. उस समय मुजफ्फरपुर जैसे शहर में इस विषय को लोग अलादीन का चिराग सम झते थे. भयानक अफरातफरी मची थी और सीटें थीं मात्र 14. कई बार हिम्मत जवाब दे जाती लेकिन जब पिंटू की भोली आंखें मेरी तरफ प्रश्नवाचक भाव से निहारतीं तो मैं उसे अपनी असमर्थता नहीं बता पाती.

मन में लाखों आशंकाएं लिए मैं स्थानीय विधायक के दरबार में गई. बाप रे, वहां इतनी भीड़ थी कि आदमी की चमड़ी उधड़ जाए. धक्कमधुक्का, मारामारी लगी थी और बाहुबली विधायक एक राजा की तरह सिंहासनारूढ़ हो कर फरियादियों की फरियाद सुनता. क्षणभर में ही दूसरा फरियादी पहले को धकिया कर आगे कर देता. मैं तो हिम्मत ही हार गई. घबरा कर एक कोने में बैठ गई. तभी विधायक का एक चमचा मेरी ओर आया और उस ने पूछा, ‘आप प्रोफैसर मीरा हैं न?’ मैं ने ‘जी हां’ कहा तो  झट बोला, ‘अरे, तब बैठी क्यों हैं, आइए, हम आप को विधायकजी से मिलवा देते हैं.’

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January 01, 2021 at 10:00AM

New Year Special: एक नया सवेरा- रेणु को मुकेश की बहन से क्या दिक्कत था?

प्रधानाचार्या ने पठनपाठन को ले कर सभी शिक्षिकाओं से मीटिंग की थी. इसी कारण रेणु को स्कूल से निकलने में देर हो गई, घर पहुंचतेपहुंचते 5 बज गए. जैसे ही वह घर में घुसी तो देखा कि उस के महल्ले की औरतों के साथ उस की सास और ननदों की पंचायत चालू थी. उस ने मन ही मन सोचा कि सिवा इन के पास पंचायतबाजी और गपशप करने के, कोई काम भी तो नहीं है. सारा दिन दूसरों के घरों की बुराई, एकदूसरे की चुगली और महल्ले की खबरों का नमकमिर्च लगा कर बखान करना, बस यही काम था उन का. कपड़े बदल कर, हाथमुंह धो कर वह वापस कमरे में आई तो उस की नजर घड़ी पर पड़ी. शाम के 6 बज चुके थे. ‘मुकेश अब आते ही होंगे’ यह सोच कर वह रसोई में जा कर चाय बनाने लगी. साथसाथ चिप्स भी तलने लगी.

रेणु का विवाह उस परिवार के इकलौते लड़के मुकेश के साथ हुआ था. घर के खर्चों को सुचारु रूप से चलाने के लिए उसे नौकरी भी करनी पड़ी थी और घर का भी सारा काम करना पड़ता था, जबकि ससुराल में 1 अविवाहित ननद थी और 2 विवाहित, जिन में से एक न एक घूमफिर कर मायके आती ही रहती थी. इन सब ने मिल कर रेणु का जीना हराम कर रखा था. सारा दिन बैठ कर गपें मारना, टीवी देखना और रेणु के खिलाफ मां के कान भरना, बस यही उन का काम होता था.

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अभी वह चाय कपों में डाल ही रही थी कि मुकेश आ गए. मेज पर चाय के कपों को देख कर बोले, ‘‘वाह, क्या बात है. ठीक समय पर आ गया मैं.’’

तभी चापलूसी के अंदाज में छोटी ननद बोली, ‘‘भैया, देखिए न आप के लिए मैं ने चिप्स भी तले हैं.’’

रेणु यह सुन मन ही मन कुढ़ कर रह गई. कुछ कह नहीं पाई क्योंकि सास जो सामने बैठी थी.

बहन की बात सुन कर मुकेश रेणु की ओर देख हंसते हुए बोले, ‘‘देखा, मेरी बहनें मेरे खानेपीने का कितना खयाल रखती हैं.’’

यह सुन कर रेणु के तनबदन में आग लग गई पर वह एक समझदार, शिक्षित युवती थी. घर के माहौल को तनावपूर्ण नहीं बनाना चाहती थी, अतएव चुप रही. मुकेश अपनी मां और बहनों से काफी प्रभावित रहते थे. य-पि रेणु के प्रति उन का रवैया खराब न था मगर उन की आदत कुछ ऐसी थी कि वे मां और बहन के विरुद्ध एक भी शब्द सुनना पसंद नहीं करते थे.

‘‘भैया, शाम के खाने में क्या बनाऊं?’’ छोटी ननद बोली.

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‘‘ऐसा करो कि आलू के परांठे और मटरपनीर की सब्जी बना लो,’’ मुकेश ने उत्तर दिया.

रेणु मन ही मन भन्ना गई कि बातें तो ये ऐसी करती हैं कि मानो सारा काम यही करती हों जबकि हकीकत तो यह थी कि इन को करनाधरना कुछ नहीं होता, सिवा मुकेश के सामने चापलूसी करने के.

चाय पी कर रेणु कपप्लेटें उठा कर रसोई में आ कर उन्हें साफ करने लगी. मगर किसी भी ननद से यह नहीं हुआ कि आखिर भाभी औफिस से थकहार कर आती हैं, उन की जरा सी मदद ही कर दें.

ननदों द्वारा उस के काम में छींटाकशी और नुक्ताचीनी करना प्रतिदिन का काम बन गया था. रेणु को अपमान का घूंट पी कर चुप रह जाना पड़ता था. मन ही मन सोचती कि मांजी का बस चले तो दोनों विवाहिता बेटियों को बुला कर यहीं रखें. उन्हें इस बात का एहसास ही नहीं कि इस महंगाई के जमाने में, इस थोड़ी सी कमाई में अपना ही खर्च ठीक से नहीं चल पाता, ऊपर से ननदों का आनाजाना जो लगा रहता, सो अलग. पर इन सब बातों से उन्हें क्या मतलब?

अगर कभी रेणु कुछ कहे भी, तो वे कहतीं, ‘मैं कौन सी तुम्हारी कमाई पर डाका डाल रही हूं, मैं तो अपने बेटे की कमाई खर्च करती हूं. आखिर वह मेरा बेटा है. उस पर मेरा अधिकार है.’

मुकेश तो इन मामलों में बोलते ही न थे, न ही वे जानते थे. वे तो मां के सामने हमेशा आज्ञाकारी बेटा बने रहते और मांजी उन की कमाई इसी तरह लुटाती रहतीं.

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रेणु ने रसोई में आ कर प्रैशरकुकर में आलू चढ़ा दिए. तभी छोटी ननद आ कर बोली, ‘‘भाभी, मैं भी सीरियल देखने जा रही हूं, बाकी काम आप निबटा लेना.’’

रेणु ने मन ही मन सोचा कि यह तो उन लोगों का रोज का काम है. बस, भैया या फिर उस के मायके से कोई आ जाए तो दिखावे के लिए उस के इर्दगिर्द घूमती रहेंगी. खैर, यह कोई एक दिन की समस्या नहीं है. और उस ने अपने विचारों को किनारे झटक कर एक चूल्हे पर सब्जी चढ़ा दी और दूसरे पर परांठे सेंकने लगी. इधर उस ने परांठे सेंक कर खत्म किए कि सब लोग खाने बैठ गए. सब को परोसनेखिलाने के बाद जो कुछ भी बचा, उसे खा कर वह उठ गई. रात काफी देर तक बरतन आदि साफ कर जब वह अपने कमरे में पहुंची तो मुकेश जाग ही रहे थे. वे कोई पत्रिका पढ़ने में तल्लीन थे. रेणु को देख कर बोले, ‘‘आज तो तुम ने काफी देर लगा दी?’’

‘‘जल्दी आ जाती तो घर के ये काम कौन करता?’’

‘‘क्या घर में मां और बहनें हाथ नहीं बंटातीं?’’

‘‘पहले कभी हाथ बंटाया है जो आज बंटाएं,’’ रेणु ने उत्तर दिया.

‘‘क्यों तुम हमेशा झूठ बात कहती हो, मेरे सामने तो वे सब तुम्हारी मदद करती रहती हैं?’’

‘‘बस, उतनी ही देर जितनी देर आप घर में रहते हैं.’’

‘‘मुझे तो ऐसा नहीं लगता,’’ मुकेश बोला.

बात को आगे न बढ़ने देने के उद्देश्य से रेणु चुप रही.

रेणु जब सुबह सो कर उठी तो देखा कि भोर की किरणें खिड़की के रास्ते कमरे में आहिस्ताआहिस्ता प्रवेश कर रही थीं. वह जल्दी से उठ कर स्नानघर की ओर चल दी, क्योंकि उसे मालूम था कि उस की सास और ननदों में से कोई भी जल्दी सो कर उठने वाला नहीं है. खाना बना कर उस दिन रेणु तैयार हो कर औफिस चल दी. तब तक उस की सास उठ गई थी, जबकि ननदें तब भी सो ही रही थीं. सुबह रेणु कपड़े धो कर छत पर सूखने के लिए डाल गई थी, सो, शाम को जब वह औफिस से लौटी तो उन्हें उठाने के लिए छत पर गई. कपड़ों को ले कर लौट ही रही थी कि न जाने कैसे उस का पैर फिसला और वह धड़ाम से 7-8 सीढि़यां लुढ़कती हुई आ कर आंगन में गिर गई. उस का सिर फट गया और वह बेहोश हो गई थी. सास और ननदों के शोर मचाने पर पूरा महल्ला इकट्ठा हो गया. महल्ले के किसी व्यक्ति ने मुकेश को खबर कर दी थी. सो, वे भी बुरी तरह घबराए हुए अस्पताल पहुंच गए. डाक्टरों ने तुरंत रेणु को आपातकालीन कक्ष में ले जा कर उस का इलाज शुरू कर दिया. उस के सिर में काफी चोट आ गई थी. 4-5 टांके लगाने पड़े. कुछ देर पश्चात सीनियर डाक्टर ने कहा, ‘‘दाहिने पैर की हड्डी टूट गई है. उस पर प्लास्टर चढ़ाना होगा.’’ काफी देर रात तक उस का उपचार चलता रहा. मुकेश ने पूरी रात जाग कर गुजार दी. जब रेणु को होश आया तो उस ने खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पट्टियों से बंधा हुआ पाया. उस ने कराहते हुए पूछा, ‘‘मैं कहां हूं, और यह मुझे क्या हो गया है?’’

‘‘तुम्हें कुछ नहीं हुआ है. बस, सिर व पैर में थोड़ी सी चोट आ गई है,’’ मुकेश ने उस के सिर पर अपनत्व के साथ हाथ फेरते हुए जवाब दिया.

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एक हफ्ते बाद रेणु को अस्पताल से छुट्टी देते हुए डाक्टर ने मुकेश और साथ में खड़ी उस की मां को हिदायत देते हुए कहा, ‘‘मांजी, अब  बहू को 3 महीने के पूर्ण आराम की आवश्यकता है. और हां, मरीज को हर रोज दूध, फल, जूस आदि दिया जाए.’’

घर पहुंच कर मुकेश ने उस का बिस्तर खिड़की के किनारे लगा दिया, जिस से खुली हवा भी आती रहे और बाहर के दृश्य से रेणु का मन भी बहला रहे. इधर रेणु को 3 महीने तक लगातार पूर्ण आराम करने की बात सुन कर उस की सास छोटी बेटी से कहने लगी, ‘‘बेटी, अब घर का काम कैसे होगा? हम लोगों ने तो काम करना ही छोड़ दिया था. सारा काम बहू ही करती थी. फिर, मैं कुछ करना भी चाहती थी तो तू मना कर देती थी.’’

दूसरे दिन मुकेश को औफिस जाना था. उन्हें न समय से चाय मिल सकी और न ही नाश्ता. खाने की मेज पर पहुंचते ही उन की तबीयत खिन्न हो गई क्योंकि मां ने खिचड़ी बना कर रखी थी. मुकेश को खिचड़ी बिलकुल पसंद न थी. जैसेतैसे थोड़ी सी खिचड़ी खा कर मुकेश ने दफ्तर का रास्ता लिया. पिछले 15 दिनों से मुकेश देख रहे थे कि घर की सारी व्यवस्था बिलकुल चरमरा गई थी. घर में कोई भी काम समय से पूरा न होता था. न ढंग से नाश्ता बनता, न समय से चाय मिलती और न ही समय पर खाना मिलता. इधरउधर गंदे बरतन पड़े रहते. जबकि रेणु के ठीक रहने पर घर का कोई भी काम अधूरा न रहता था.

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आखिर एक दिन मुकेश ने गुस्से में आ कर मां के सामने ही कह दिया. छोटी बहन भी खड़ी सुन रही थी, ‘‘इन दिनों आखिर घर को क्या हो गया है? कोई भी काम समय पर, सलीके से क्यों नहीं होता? आखिर पहले इस घर का सारा काम कौन करता था? कैसे समय पर चायनाश्ता, समय पर खाना, कपड़ेलत्ते धुले हुए और सारे घर में झाड़ूपोंछा लगा होता था. हर सामान करीने से सजा और अपनी जगह मिलता था, जबकि अब पूरा घर कूड़ाघर में तबदील हो चुका है. हर सामान अपनी जगह से गायब, कपड़े गंदे, जहांतहां धूल की परतें और हर जगह मक्खियां भिनभिनाती हुईं. आखिर यह घर है या कबाड़खाना?’’

‘‘भैया, हम लोग पूरी कोशिश करते हैं, फिर भी थोड़ीबहुत कमी रह ही जाती है,’’ छोटी बहन बोली.

अब मां और छोटी बहन कहें तो क्या कहें? कैसे अपनी गलती स्वीकार करें? अपनी गलती स्वीकार करने का मतलब था कि इस से पहले वे रेणु के साथ दुर्व्यवहार करती थीं. मगर अब झूठ का परदाफाश होना ही था. आखिर कितने दिन सचाई को झुठलाया जाता.

एक दिन शाम को मां चौके में खाना बना रही थीं जबकि उन की उस दिन तबीयत ठीक नहीं थी. उन्होंने छोटी बेटी को आवाज दे कर कहा, ‘‘बेटी, जरा मेरी मदद कर दे. आज मेरी तबीयत ठीक नहीं है,’’ बेटी रानी आराम से लेट कर टीवी पर फिल्म देख रही थी, अतएव उस ने वहीं से लेटेलेटे उत्तर दिया, ‘‘क्या मां, थोड़े से काम के लिए भी पूरा घर सिर पर उठा रखा है. जरा सा काम क्या करना पड़ा कि मेरी नाक में दम कर दिया है.’’

अपनी ही जाई संतान का टके सा उत्तर सुन कर मां का चेहरा उतर गया. उन्हें अपनी बेटी से ऐसी आशा न थी. वे सोचने लगीं कि रेणु है तो बहू पर उस ने कभी भी उन की किसी बात का पलट कर जवाब नहीं दिया. हमेशा मांजीमांजी कहती उस की जबान नहीं थकती जबकि वे हमेशा उस के हर काम में नुक्ताचीनी करतीं. इन्हीं बेटियों के कहने पर वे रेणु के साथ दुर्व्यवहार करतीं, छींटाकशी करतीं. अब तो वह बिस्तर पर पड़ी है. उस के साथ ज्यादती करना गुनाह होगा. फिर बहू भी तो बेटी ही होती है.

मांजी खाना बनाते हुए सोचती जा रही थीं कि रेणु भी आखिर किसी की बेटी है. फिर उस ने इस घर को सजानेसंवारने में क्या कमी छोड़ी है. मुकेश तो सारा दिन घर पर रहता नहीं, और यह छुटकी सारा दिन इधरउधर कूदा करती है. कल को इस की शादी हुई नहीं कि फुर्र से चिडि़या की तरह उड़ जाएगी और रह जाऊंगी मैं अकेली. फिर मेरी सेवा कौन करेगा? बुढ़ापे में तो बहू को ही काम में आना है. कभी कोई हादसा हो गया तो सिवा बहू के, कोई देखभाल करने वाला न होगा. बेटियों का क्या, 2-4 दिनों के लिए आ कर खिसक लेंगी. काम तो आएगी बहू ही, तो फिर असली बेटी तो बहू ही हुई…एक के बाद एक विचार आजा रहे थे.

अब मांजी ने रेणु की देखभाल कायदे से करनी शुरू कर दी. उसे समय पर दवा देतीं, चाय देतीं, जूस देतीं और पास बैठ कर घंटों उस से बातचीत करती थीं.

तीसरा महीना खत्म होतेहोते रेणु का स्वास्थ्य काफी सुधर गया. अब उस के पैर का प्लास्टर भी काट दिया गया था. फिर भी डाक्टर ने उसे किसी भी प्रकार का काम करने के लिए मना किया था. रेणु ने सुबह उठ कर चाय बनाने की कोशिश की तो मांजी ने उस का हाथ पकड़ कर उसे कुरसी पर बिठा दिया. फिर उन्होंने छुटकी को बुला कर डांटते हुए चाय बनाने का आदेश दिया और बोलीं, ‘‘बहू कुछ दिन और आराम करेगी. चौके का काम अब तुझे संभालना है. बहुत हो चुकी पढ़ाईलिखाई और इधरउधर कूदना.’’

छुटकी ने तपाक से उत्तर दिया, ‘‘मां, जब मुझे कुछ बनाना ही नहीं आता तो कैसे करूंगी यह सब काम?’’

‘‘तुझे अब सबकुछ सीखना होगा, नहीं तो कल को तू भी बड़की की तरह कामकाज से बचने के लिए रोज ससुराल छोड़ कर आ जाया करेगी. यह बहानेबाजी अब और नहीं चलने वाली. तुम सब के चक्कर में ही बहू की यह दशा हुई है.’’

‘‘आखिर भाभी अगर सीढि़यों से गिर पड़ीं तो उस में मेरा क्या दोष?’’ छुटकी ने उत्तर दिया.

‘‘क्या सारे घर के कपड़े सुखानाउठाना उसी का काम है? तुम अगर इतनी ही लायक होतीं तो यह हादसा ही न होता,’’ मांजी बोलीं.

छुटकी हैरानपरेशान थी कि आखिर मां को यह क्या हो गया है जो वे एकदम से भाभी की तरफदारी में लग गईं. आखिर भाभी ने ऐसी कौन सी घुट्टी पिला दी मां को.

शाम को खाने की मेज पर बड़ा ही खुशनुमा पारिवारिक माहौल था. सब खाने की मेज पर बैठे हुए थे. छुटकी सब को खाना परोस रही थी कि तभी मुकेश बोले, ‘‘मां, आज तो छुटकी बड़ी मेहनत कर रही है.’’

‘‘तो कौन सा हम पर एहसान कर रही है. इसे पराए घर जाना है. यह सब इसे सीखना ही चाहिए.’’

मांजी का उत्तर सुन कर मुकेश और रेणु एकदूसरे की ओर देख कर अर्थपूर्ण ढंग से मुसकराए. रेणु समझ नहीं पा रही थी कि मां और ननद इतनी जल्दी कैसे बदल गईं.

उधर मां को रेणु की दुर्घटना से नसीहत के रूप में एक नई दृष्टि मिली थी. रेणु परिवार में परिवर्तन देख कर एक नए सवेरे का एहसास कर रही थी.

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प्रधानाचार्या ने पठनपाठन को ले कर सभी शिक्षिकाओं से मीटिंग की थी. इसी कारण रेणु को स्कूल से निकलने में देर हो गई, घर पहुंचतेपहुंचते 5 बज गए. जैसे ही वह घर में घुसी तो देखा कि उस के महल्ले की औरतों के साथ उस की सास और ननदों की पंचायत चालू थी. उस ने मन ही मन सोचा कि सिवा इन के पास पंचायतबाजी और गपशप करने के, कोई काम भी तो नहीं है. सारा दिन दूसरों के घरों की बुराई, एकदूसरे की चुगली और महल्ले की खबरों का नमकमिर्च लगा कर बखान करना, बस यही काम था उन का. कपड़े बदल कर, हाथमुंह धो कर वह वापस कमरे में आई तो उस की नजर घड़ी पर पड़ी. शाम के 6 बज चुके थे. ‘मुकेश अब आते ही होंगे’ यह सोच कर वह रसोई में जा कर चाय बनाने लगी. साथसाथ चिप्स भी तलने लगी.

रेणु का विवाह उस परिवार के इकलौते लड़के मुकेश के साथ हुआ था. घर के खर्चों को सुचारु रूप से चलाने के लिए उसे नौकरी भी करनी पड़ी थी और घर का भी सारा काम करना पड़ता था, जबकि ससुराल में 1 अविवाहित ननद थी और 2 विवाहित, जिन में से एक न एक घूमफिर कर मायके आती ही रहती थी. इन सब ने मिल कर रेणु का जीना हराम कर रखा था. सारा दिन बैठ कर गपें मारना, टीवी देखना और रेणु के खिलाफ मां के कान भरना, बस यही उन का काम होता था.

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अभी वह चाय कपों में डाल ही रही थी कि मुकेश आ गए. मेज पर चाय के कपों को देख कर बोले, ‘‘वाह, क्या बात है. ठीक समय पर आ गया मैं.’’

तभी चापलूसी के अंदाज में छोटी ननद बोली, ‘‘भैया, देखिए न आप के लिए मैं ने चिप्स भी तले हैं.’’

रेणु यह सुन मन ही मन कुढ़ कर रह गई. कुछ कह नहीं पाई क्योंकि सास जो सामने बैठी थी.

बहन की बात सुन कर मुकेश रेणु की ओर देख हंसते हुए बोले, ‘‘देखा, मेरी बहनें मेरे खानेपीने का कितना खयाल रखती हैं.’’

यह सुन कर रेणु के तनबदन में आग लग गई पर वह एक समझदार, शिक्षित युवती थी. घर के माहौल को तनावपूर्ण नहीं बनाना चाहती थी, अतएव चुप रही. मुकेश अपनी मां और बहनों से काफी प्रभावित रहते थे. य-पि रेणु के प्रति उन का रवैया खराब न था मगर उन की आदत कुछ ऐसी थी कि वे मां और बहन के विरुद्ध एक भी शब्द सुनना पसंद नहीं करते थे.

‘‘भैया, शाम के खाने में क्या बनाऊं?’’ छोटी ननद बोली.

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‘‘ऐसा करो कि आलू के परांठे और मटरपनीर की सब्जी बना लो,’’ मुकेश ने उत्तर दिया.

रेणु मन ही मन भन्ना गई कि बातें तो ये ऐसी करती हैं कि मानो सारा काम यही करती हों जबकि हकीकत तो यह थी कि इन को करनाधरना कुछ नहीं होता, सिवा मुकेश के सामने चापलूसी करने के.

चाय पी कर रेणु कपप्लेटें उठा कर रसोई में आ कर उन्हें साफ करने लगी. मगर किसी भी ननद से यह नहीं हुआ कि आखिर भाभी औफिस से थकहार कर आती हैं, उन की जरा सी मदद ही कर दें.

ननदों द्वारा उस के काम में छींटाकशी और नुक्ताचीनी करना प्रतिदिन का काम बन गया था. रेणु को अपमान का घूंट पी कर चुप रह जाना पड़ता था. मन ही मन सोचती कि मांजी का बस चले तो दोनों विवाहिता बेटियों को बुला कर यहीं रखें. उन्हें इस बात का एहसास ही नहीं कि इस महंगाई के जमाने में, इस थोड़ी सी कमाई में अपना ही खर्च ठीक से नहीं चल पाता, ऊपर से ननदों का आनाजाना जो लगा रहता, सो अलग. पर इन सब बातों से उन्हें क्या मतलब?

अगर कभी रेणु कुछ कहे भी, तो वे कहतीं, ‘मैं कौन सी तुम्हारी कमाई पर डाका डाल रही हूं, मैं तो अपने बेटे की कमाई खर्च करती हूं. आखिर वह मेरा बेटा है. उस पर मेरा अधिकार है.’

मुकेश तो इन मामलों में बोलते ही न थे, न ही वे जानते थे. वे तो मां के सामने हमेशा आज्ञाकारी बेटा बने रहते और मांजी उन की कमाई इसी तरह लुटाती रहतीं.

ये भी पढ़ें-बहुत देर कर दी-भाग 5: हानिया की दीवानी कौन थी?

रेणु ने रसोई में आ कर प्रैशरकुकर में आलू चढ़ा दिए. तभी छोटी ननद आ कर बोली, ‘‘भाभी, मैं भी सीरियल देखने जा रही हूं, बाकी काम आप निबटा लेना.’’

रेणु ने मन ही मन सोचा कि यह तो उन लोगों का रोज का काम है. बस, भैया या फिर उस के मायके से कोई आ जाए तो दिखावे के लिए उस के इर्दगिर्द घूमती रहेंगी. खैर, यह कोई एक दिन की समस्या नहीं है. और उस ने अपने विचारों को किनारे झटक कर एक चूल्हे पर सब्जी चढ़ा दी और दूसरे पर परांठे सेंकने लगी. इधर उस ने परांठे सेंक कर खत्म किए कि सब लोग खाने बैठ गए. सब को परोसनेखिलाने के बाद जो कुछ भी बचा, उसे खा कर वह उठ गई. रात काफी देर तक बरतन आदि साफ कर जब वह अपने कमरे में पहुंची तो मुकेश जाग ही रहे थे. वे कोई पत्रिका पढ़ने में तल्लीन थे. रेणु को देख कर बोले, ‘‘आज तो तुम ने काफी देर लगा दी?’’

‘‘जल्दी आ जाती तो घर के ये काम कौन करता?’’

‘‘क्या घर में मां और बहनें हाथ नहीं बंटातीं?’’

‘‘पहले कभी हाथ बंटाया है जो आज बंटाएं,’’ रेणु ने उत्तर दिया.

‘‘क्यों तुम हमेशा झूठ बात कहती हो, मेरे सामने तो वे सब तुम्हारी मदद करती रहती हैं?’’

‘‘बस, उतनी ही देर जितनी देर आप घर में रहते हैं.’’

‘‘मुझे तो ऐसा नहीं लगता,’’ मुकेश बोला.

बात को आगे न बढ़ने देने के उद्देश्य से रेणु चुप रही.

रेणु जब सुबह सो कर उठी तो देखा कि भोर की किरणें खिड़की के रास्ते कमरे में आहिस्ताआहिस्ता प्रवेश कर रही थीं. वह जल्दी से उठ कर स्नानघर की ओर चल दी, क्योंकि उसे मालूम था कि उस की सास और ननदों में से कोई भी जल्दी सो कर उठने वाला नहीं है. खाना बना कर उस दिन रेणु तैयार हो कर औफिस चल दी. तब तक उस की सास उठ गई थी, जबकि ननदें तब भी सो ही रही थीं. सुबह रेणु कपड़े धो कर छत पर सूखने के लिए डाल गई थी, सो, शाम को जब वह औफिस से लौटी तो उन्हें उठाने के लिए छत पर गई. कपड़ों को ले कर लौट ही रही थी कि न जाने कैसे उस का पैर फिसला और वह धड़ाम से 7-8 सीढि़यां लुढ़कती हुई आ कर आंगन में गिर गई. उस का सिर फट गया और वह बेहोश हो गई थी. सास और ननदों के शोर मचाने पर पूरा महल्ला इकट्ठा हो गया. महल्ले के किसी व्यक्ति ने मुकेश को खबर कर दी थी. सो, वे भी बुरी तरह घबराए हुए अस्पताल पहुंच गए. डाक्टरों ने तुरंत रेणु को आपातकालीन कक्ष में ले जा कर उस का इलाज शुरू कर दिया. उस के सिर में काफी चोट आ गई थी. 4-5 टांके लगाने पड़े. कुछ देर पश्चात सीनियर डाक्टर ने कहा, ‘‘दाहिने पैर की हड्डी टूट गई है. उस पर प्लास्टर चढ़ाना होगा.’’ काफी देर रात तक उस का उपचार चलता रहा. मुकेश ने पूरी रात जाग कर गुजार दी. जब रेणु को होश आया तो उस ने खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पट्टियों से बंधा हुआ पाया. उस ने कराहते हुए पूछा, ‘‘मैं कहां हूं, और यह मुझे क्या हो गया है?’’

‘‘तुम्हें कुछ नहीं हुआ है. बस, सिर व पैर में थोड़ी सी चोट आ गई है,’’ मुकेश ने उस के सिर पर अपनत्व के साथ हाथ फेरते हुए जवाब दिया.

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एक हफ्ते बाद रेणु को अस्पताल से छुट्टी देते हुए डाक्टर ने मुकेश और साथ में खड़ी उस की मां को हिदायत देते हुए कहा, ‘‘मांजी, अब  बहू को 3 महीने के पूर्ण आराम की आवश्यकता है. और हां, मरीज को हर रोज दूध, फल, जूस आदि दिया जाए.’’

घर पहुंच कर मुकेश ने उस का बिस्तर खिड़की के किनारे लगा दिया, जिस से खुली हवा भी आती रहे और बाहर के दृश्य से रेणु का मन भी बहला रहे. इधर रेणु को 3 महीने तक लगातार पूर्ण आराम करने की बात सुन कर उस की सास छोटी बेटी से कहने लगी, ‘‘बेटी, अब घर का काम कैसे होगा? हम लोगों ने तो काम करना ही छोड़ दिया था. सारा काम बहू ही करती थी. फिर, मैं कुछ करना भी चाहती थी तो तू मना कर देती थी.’’

दूसरे दिन मुकेश को औफिस जाना था. उन्हें न समय से चाय मिल सकी और न ही नाश्ता. खाने की मेज पर पहुंचते ही उन की तबीयत खिन्न हो गई क्योंकि मां ने खिचड़ी बना कर रखी थी. मुकेश को खिचड़ी बिलकुल पसंद न थी. जैसेतैसे थोड़ी सी खिचड़ी खा कर मुकेश ने दफ्तर का रास्ता लिया. पिछले 15 दिनों से मुकेश देख रहे थे कि घर की सारी व्यवस्था बिलकुल चरमरा गई थी. घर में कोई भी काम समय से पूरा न होता था. न ढंग से नाश्ता बनता, न समय से चाय मिलती और न ही समय पर खाना मिलता. इधरउधर गंदे बरतन पड़े रहते. जबकि रेणु के ठीक रहने पर घर का कोई भी काम अधूरा न रहता था.

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आखिर एक दिन मुकेश ने गुस्से में आ कर मां के सामने ही कह दिया. छोटी बहन भी खड़ी सुन रही थी, ‘‘इन दिनों आखिर घर को क्या हो गया है? कोई भी काम समय पर, सलीके से क्यों नहीं होता? आखिर पहले इस घर का सारा काम कौन करता था? कैसे समय पर चायनाश्ता, समय पर खाना, कपड़ेलत्ते धुले हुए और सारे घर में झाड़ूपोंछा लगा होता था. हर सामान करीने से सजा और अपनी जगह मिलता था, जबकि अब पूरा घर कूड़ाघर में तबदील हो चुका है. हर सामान अपनी जगह से गायब, कपड़े गंदे, जहांतहां धूल की परतें और हर जगह मक्खियां भिनभिनाती हुईं. आखिर यह घर है या कबाड़खाना?’’

‘‘भैया, हम लोग पूरी कोशिश करते हैं, फिर भी थोड़ीबहुत कमी रह ही जाती है,’’ छोटी बहन बोली.

अब मां और छोटी बहन कहें तो क्या कहें? कैसे अपनी गलती स्वीकार करें? अपनी गलती स्वीकार करने का मतलब था कि इस से पहले वे रेणु के साथ दुर्व्यवहार करती थीं. मगर अब झूठ का परदाफाश होना ही था. आखिर कितने दिन सचाई को झुठलाया जाता.

एक दिन शाम को मां चौके में खाना बना रही थीं जबकि उन की उस दिन तबीयत ठीक नहीं थी. उन्होंने छोटी बेटी को आवाज दे कर कहा, ‘‘बेटी, जरा मेरी मदद कर दे. आज मेरी तबीयत ठीक नहीं है,’’ बेटी रानी आराम से लेट कर टीवी पर फिल्म देख रही थी, अतएव उस ने वहीं से लेटेलेटे उत्तर दिया, ‘‘क्या मां, थोड़े से काम के लिए भी पूरा घर सिर पर उठा रखा है. जरा सा काम क्या करना पड़ा कि मेरी नाक में दम कर दिया है.’’

अपनी ही जाई संतान का टके सा उत्तर सुन कर मां का चेहरा उतर गया. उन्हें अपनी बेटी से ऐसी आशा न थी. वे सोचने लगीं कि रेणु है तो बहू पर उस ने कभी भी उन की किसी बात का पलट कर जवाब नहीं दिया. हमेशा मांजीमांजी कहती उस की जबान नहीं थकती जबकि वे हमेशा उस के हर काम में नुक्ताचीनी करतीं. इन्हीं बेटियों के कहने पर वे रेणु के साथ दुर्व्यवहार करतीं, छींटाकशी करतीं. अब तो वह बिस्तर पर पड़ी है. उस के साथ ज्यादती करना गुनाह होगा. फिर बहू भी तो बेटी ही होती है.

मांजी खाना बनाते हुए सोचती जा रही थीं कि रेणु भी आखिर किसी की बेटी है. फिर उस ने इस घर को सजानेसंवारने में क्या कमी छोड़ी है. मुकेश तो सारा दिन घर पर रहता नहीं, और यह छुटकी सारा दिन इधरउधर कूदा करती है. कल को इस की शादी हुई नहीं कि फुर्र से चिडि़या की तरह उड़ जाएगी और रह जाऊंगी मैं अकेली. फिर मेरी सेवा कौन करेगा? बुढ़ापे में तो बहू को ही काम में आना है. कभी कोई हादसा हो गया तो सिवा बहू के, कोई देखभाल करने वाला न होगा. बेटियों का क्या, 2-4 दिनों के लिए आ कर खिसक लेंगी. काम तो आएगी बहू ही, तो फिर असली बेटी तो बहू ही हुई…एक के बाद एक विचार आजा रहे थे.

अब मांजी ने रेणु की देखभाल कायदे से करनी शुरू कर दी. उसे समय पर दवा देतीं, चाय देतीं, जूस देतीं और पास बैठ कर घंटों उस से बातचीत करती थीं.

तीसरा महीना खत्म होतेहोते रेणु का स्वास्थ्य काफी सुधर गया. अब उस के पैर का प्लास्टर भी काट दिया गया था. फिर भी डाक्टर ने उसे किसी भी प्रकार का काम करने के लिए मना किया था. रेणु ने सुबह उठ कर चाय बनाने की कोशिश की तो मांजी ने उस का हाथ पकड़ कर उसे कुरसी पर बिठा दिया. फिर उन्होंने छुटकी को बुला कर डांटते हुए चाय बनाने का आदेश दिया और बोलीं, ‘‘बहू कुछ दिन और आराम करेगी. चौके का काम अब तुझे संभालना है. बहुत हो चुकी पढ़ाईलिखाई और इधरउधर कूदना.’’

छुटकी ने तपाक से उत्तर दिया, ‘‘मां, जब मुझे कुछ बनाना ही नहीं आता तो कैसे करूंगी यह सब काम?’’

‘‘तुझे अब सबकुछ सीखना होगा, नहीं तो कल को तू भी बड़की की तरह कामकाज से बचने के लिए रोज ससुराल छोड़ कर आ जाया करेगी. यह बहानेबाजी अब और नहीं चलने वाली. तुम सब के चक्कर में ही बहू की यह दशा हुई है.’’

‘‘आखिर भाभी अगर सीढि़यों से गिर पड़ीं तो उस में मेरा क्या दोष?’’ छुटकी ने उत्तर दिया.

‘‘क्या सारे घर के कपड़े सुखानाउठाना उसी का काम है? तुम अगर इतनी ही लायक होतीं तो यह हादसा ही न होता,’’ मांजी बोलीं.

छुटकी हैरानपरेशान थी कि आखिर मां को यह क्या हो गया है जो वे एकदम से भाभी की तरफदारी में लग गईं. आखिर भाभी ने ऐसी कौन सी घुट्टी पिला दी मां को.

शाम को खाने की मेज पर बड़ा ही खुशनुमा पारिवारिक माहौल था. सब खाने की मेज पर बैठे हुए थे. छुटकी सब को खाना परोस रही थी कि तभी मुकेश बोले, ‘‘मां, आज तो छुटकी बड़ी मेहनत कर रही है.’’

‘‘तो कौन सा हम पर एहसान कर रही है. इसे पराए घर जाना है. यह सब इसे सीखना ही चाहिए.’’

मांजी का उत्तर सुन कर मुकेश और रेणु एकदूसरे की ओर देख कर अर्थपूर्ण ढंग से मुसकराए. रेणु समझ नहीं पा रही थी कि मां और ननद इतनी जल्दी कैसे बदल गईं.

उधर मां को रेणु की दुर्घटना से नसीहत के रूप में एक नई दृष्टि मिली थी. रेणु परिवार में परिवर्तन देख कर एक नए सवेरे का एहसास कर रही थी.

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January 01, 2021 at 10:00AM

हैप्पी न्यू ईयर – भाग 2 : पिंटू के घर से जानें के बाद क्या बदलाव आया

लेखिक : डा. मंजू सिन्हा

मेरी बात सुनने के बाद विधायक ने ‘ऐडमिशन नहीं हो रहा है?’ ऐसे कहा जैसे किसी बच्चे से कोई कहता है, ‘टौफी का कागज नहीं खुल रहा है?’ उस ने फोन उठाया और वीसी से बात की, ‘बिहार में रहना है कि नहीं, वीसी महोदय? हमारा एक ठो ऐडमिशन है. नाम नोट कीजिए…’ और मु झ से बोला, ‘जाइए, डाक्टर साहब, आप का काम हो गया.’

पिंटू का ऐडमिशन हो गया था. पिंटू बहुत खुश था. और उसे खुश देख कर मैं भी बहुत खुश थी.

पिंटू धीरेधीरे बड़ा हो गया. सारा महल्ला, सारे परिचित उसे मेरा बेटा सम झते.

उस की खूबसूरती, उस की तेजस्विता, उस का भोलापन मेरे परिचितों, सहेलियों, रिश्तेदारों में चर्चा का विषय बन गया था. सभी कहते, ‘इतने सुंदर लड़के की जोड़ी मिलनी मुश्किल है.’ मैं धीरे से कहती, ‘बिहार में नहीं मिली तो पंजाब से ले आऊंगी अपने वीरे की दुलहन. पर जोड़ी तो मैं मिला कर ही रहूंगी. मां और बाबूजी का एकलौता सपना है यह. उसे तो हर हाल में पूरा करना है.’

उन दिनों मैं काफी उल झन से गुजर रही थी. गांव से सासससुर आ गए थे. दोनों ही बूढ़े थे. बीमार रहते थे. इलाज से एक ठीक होता, तब तक दूसरा बिस्तर पकड़ लेता. बेटे की बोर्डिंग की फीस एकाएक 36 हजार रुपए से  48 हजार रुपए सालाना हो गई. बेटियों की स्कूल ड्रैस हर 6 माह बाद छोटी हो जाती. फल, सब्जियों, दवाइयों की परिधि ढूंढ़ने की कोशिश कर रही थी.

अचानक एक सुबह ससुरजी ने चाय की प्याली हाथ में लेते हुए कहा था, ‘दुलहन, अब हम नहीं बचेंगे. बेटी, मेरी आखिरी ख्वाहिश है कि तुम लोगों का अपना मकान हो. उस में थोड़े से पेड़पौधे हों.’

रात में मैं ने इन से कहा तो ये क्षणभर को चुप हो गए. फिर कहा, ‘बाबूजी ने अपनी हड्डियां गला कर मेरे कैरियर को बनाया है. उन की यह इच्छा मैं हर हाल में पूरी करूंगा.’

घर बनाने का काम शुरू हुआ. एकाएक इतने खर्चे सिर पर आ गए कि हर वक्त पैसे की किल्लत रहने लगी. घर में कभी चीनी, कभी चाय तो कभी सब्जियां कम पड़ने लगीं.

अंतिम वर्ष में आतेआते पिंटू ने प्रतियोगी परीक्षाओं के फौर्म भरने शुरू कर दिए.

‘बाप रे, इतने महंगे फौर्म, कोई गरीब बच्चा कहां से लाएगा इतने पैसे?’ मैं ने एक दिन पिंटू से कहा तो वह हंस कर बोला, ‘काश, ये बातें सरकार सम झ सकती.’

जो कभी नहीं किया वह कर्म (पता नहीं कुकर्म या सद्कर्म) मैं ने किया. इन की जेब में हाथ डालती, पैसे निकालती और भाई की जेब में रख देती. फिर इत्मीनान से इन से कहती, ‘उसे अब बेंगलुरु जाना है, इंटरव्यू देने, कुछ पैसे दे देते तो…’ बिना एक भी शब्द बोले ये अलमारी खोलते, पैसे निकालते और मेरी हथेली पर रख देते. मैं गिनती, कभी हजार, कभी 12 सौ. उसे देने ले जाती तो वह कहता, ‘इतने पैसों का क्या करना?’ मैं कहती, ‘रख ले, फिर कोई फौर्म भर लेना या किसी दूसरे इंटरव्यू में काम आएंगे.’

4-5 इंटरव्यू में वह छंट गया. किसी बच्चे की तरह बिलखता वह मेरी छाती से लग जाता. मैं उसे भरोसा दिलाती, ‘उदास नहीं होते, बेटे. जो नौकरी तुम्हारे लिए है, वह तो तुम्हारा ही इंतजार कर रही होगी. वह कुरसी, वह जगह खाली होने दो.’

 

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लेखिक : डा. मंजू सिन्हा

मेरी बात सुनने के बाद विधायक ने ‘ऐडमिशन नहीं हो रहा है?’ ऐसे कहा जैसे किसी बच्चे से कोई कहता है, ‘टौफी का कागज नहीं खुल रहा है?’ उस ने फोन उठाया और वीसी से बात की, ‘बिहार में रहना है कि नहीं, वीसी महोदय? हमारा एक ठो ऐडमिशन है. नाम नोट कीजिए…’ और मु झ से बोला, ‘जाइए, डाक्टर साहब, आप का काम हो गया.’

पिंटू का ऐडमिशन हो गया था. पिंटू बहुत खुश था. और उसे खुश देख कर मैं भी बहुत खुश थी.

पिंटू धीरेधीरे बड़ा हो गया. सारा महल्ला, सारे परिचित उसे मेरा बेटा सम झते.

उस की खूबसूरती, उस की तेजस्विता, उस का भोलापन मेरे परिचितों, सहेलियों, रिश्तेदारों में चर्चा का विषय बन गया था. सभी कहते, ‘इतने सुंदर लड़के की जोड़ी मिलनी मुश्किल है.’ मैं धीरे से कहती, ‘बिहार में नहीं मिली तो पंजाब से ले आऊंगी अपने वीरे की दुलहन. पर जोड़ी तो मैं मिला कर ही रहूंगी. मां और बाबूजी का एकलौता सपना है यह. उसे तो हर हाल में पूरा करना है.’

उन दिनों मैं काफी उल झन से गुजर रही थी. गांव से सासससुर आ गए थे. दोनों ही बूढ़े थे. बीमार रहते थे. इलाज से एक ठीक होता, तब तक दूसरा बिस्तर पकड़ लेता. बेटे की बोर्डिंग की फीस एकाएक 36 हजार रुपए से  48 हजार रुपए सालाना हो गई. बेटियों की स्कूल ड्रैस हर 6 माह बाद छोटी हो जाती. फल, सब्जियों, दवाइयों की परिधि ढूंढ़ने की कोशिश कर रही थी.

अचानक एक सुबह ससुरजी ने चाय की प्याली हाथ में लेते हुए कहा था, ‘दुलहन, अब हम नहीं बचेंगे. बेटी, मेरी आखिरी ख्वाहिश है कि तुम लोगों का अपना मकान हो. उस में थोड़े से पेड़पौधे हों.’

रात में मैं ने इन से कहा तो ये क्षणभर को चुप हो गए. फिर कहा, ‘बाबूजी ने अपनी हड्डियां गला कर मेरे कैरियर को बनाया है. उन की यह इच्छा मैं हर हाल में पूरी करूंगा.’

घर बनाने का काम शुरू हुआ. एकाएक इतने खर्चे सिर पर आ गए कि हर वक्त पैसे की किल्लत रहने लगी. घर में कभी चीनी, कभी चाय तो कभी सब्जियां कम पड़ने लगीं.

अंतिम वर्ष में आतेआते पिंटू ने प्रतियोगी परीक्षाओं के फौर्म भरने शुरू कर दिए.

‘बाप रे, इतने महंगे फौर्म, कोई गरीब बच्चा कहां से लाएगा इतने पैसे?’ मैं ने एक दिन पिंटू से कहा तो वह हंस कर बोला, ‘काश, ये बातें सरकार सम झ सकती.’

जो कभी नहीं किया वह कर्म (पता नहीं कुकर्म या सद्कर्म) मैं ने किया. इन की जेब में हाथ डालती, पैसे निकालती और भाई की जेब में रख देती. फिर इत्मीनान से इन से कहती, ‘उसे अब बेंगलुरु जाना है, इंटरव्यू देने, कुछ पैसे दे देते तो…’ बिना एक भी शब्द बोले ये अलमारी खोलते, पैसे निकालते और मेरी हथेली पर रख देते. मैं गिनती, कभी हजार, कभी 12 सौ. उसे देने ले जाती तो वह कहता, ‘इतने पैसों का क्या करना?’ मैं कहती, ‘रख ले, फिर कोई फौर्म भर लेना या किसी दूसरे इंटरव्यू में काम आएंगे.’

4-5 इंटरव्यू में वह छंट गया. किसी बच्चे की तरह बिलखता वह मेरी छाती से लग जाता. मैं उसे भरोसा दिलाती, ‘उदास नहीं होते, बेटे. जो नौकरी तुम्हारे लिए है, वह तो तुम्हारा ही इंतजार कर रही होगी. वह कुरसी, वह जगह खाली होने दो.’

 

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January 01, 2021 at 10:00AM

New Year Special: एक नई शुरुआत -निशा 30 साल तक साथ निभाने के बाद अचानक क्यों चली गई

बैंक के जोनल औफिस पहुंचा तो पता चला जोनल मैनेजर मीटिंग में व्यस्त हैं. उन के पीए ने बताया कि लगभग 3 घंटे बाद मैडम फ्री होंगी. उन के आते ही आप के मिलने की स्लिप उन तक पहुंचा दी जाएगी. मेरे पास सिवा इंतजार करने के और कोई चारा न था, इसलिए वहीं सोफे पर बैठ गया. जोनल औफिस, मैं अपनी नियुक्ति के सिलसिले में गया था. मेरा बैंक अधिकारी से शाखा प्रबंधक के लिए प्रमोशन हुआ था. मेरी नियुक्ति मेरे शहर से काफी दूर कर दी गई थी. मैं इतनी दूर जाना नहीं चाहता था क्योंकि पत्नी का देहांत हाल ही में हुआ था और मैं बिलकुल तनहा रह गया था. नए शहर जा कर मुझे और तनहाइयों से रूबरू होना पड़ता, सो स्थानीय नियुक्ति ही चाहता था. बेटाबहू आस्ट्रेलिया में थे. वे चाहते थे कि मैं वीआरएस ले कर उन के साथ रहूं लेकिन मैं ने इनकार कर दिया. मेरी सर्विस के अभी 5 साल बाकी थे. दिन तो बैंक में कट जाता था लेकिन रात काटे नहीं कटती थी.

कुछ मित्रों ने दूसरी शादी की सलाह दी लेकिन इस के लिए मैं राजी न था क्योंकि इस उम्र में शादी के बारे में सोच कर ही शर्म सी महसूस होती थी. बेटेबहू क्या सोचेंगे? लोग क्या कहेंगे? और फिर मैं अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करता था, उस ने मेरा इतना साथ निभाया और अब उम्र के इस मोड़ पर शादी, मेरी नजर में यह उस के साथ विश्वासघात जैसा था. हां, कुदरती जरूरतें पूरी न हो सकने के कारण मैं जिद्दी हो गया था. कामवाली बाई को मैं बिना वजह डांट देता था. वह पासपड़ोस वालों के बीच मुझे ‘सनकी’ कहती थी. अकसर सहकर्मियों और ग्राहकों से मेरी झड़प हो जाती. वे सब मुझे पीठपीछे न जाने क्याक्या कहते रहते.

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‘‘सर, मैडम आ चुकी हैं. प्लीज, अपना नाम बताइए,’’ पीए ने कहा तो मैं वर्तमान में लौट आया.

‘‘जी, शुभेंदु कुमार.’’ थोड़ा इंतजार करने के बाद जैसे ही घंटी बजी, चपरासी दौड़ कर मैडम के केबिन में गया. लौट कर आया तो पता चला मैडम ने मुझे बुलाया है. केबिन में प्रवेश करते ही मैडम को देखा तो ठगा सा रह गया. मेरी उम्र से लगभग 1-2 वर्ष ही छोटी होंगी. देखने में सौम्य और सुंदर. पद की गरिमा से उन का संपूर्ण व्यक्तित्व दमक रहा था.

‘‘आप किस काम से आए हैं?’’ बहुत ही संयमित स्वर में उन्होंने पूछा.

‘‘जी मैडम, मेरी नियुक्ति मेरे शहर से बहुत दूर कर दी गई है. मैं चाहता हूं मुझे स्थानीय नियुक्ति ही मिल जाए.’’

‘‘दूर न जाने की कोई तो वजह होगी शुभेंदुजी?’’

‘‘मैडम, मैं वहां बिलकुल अकेला पड़ जाऊंगा, न जान न पहचान,’’ मैं निरीहभाव से बोला.

‘‘जानपहचान तो धीरेधीरे बढ़ जाएगी, फिर आप अकेले कहां हैं, आप अपनी पत्नी को साथ ले जाइए,’’ मैडम ने हलकी सी मुसकराहट से कहा.

‘‘उन का देहांत हो चुका है,’’ मैं ने भरे स्वर में कहा तो मैडम असहज सी हो उठीं. ‘‘सौरी, शुभेंदुजी, मुझे मालूम नहीं था,’’ कहते हुए वे हलकी सी भावुक हो उठीं. उन की आंखों में मैं ने आंसुओं की नमी को देख लिया था जिसे उन्होंने बड़ी चतुराई से पसीना पोंछने के बहाने अपने रूमाल से पोंछ लिया. वास्तव में नारी बहुत संवेदनशील होती है. जरा सा भी दुख का झोंका उस के करीब से गुजर जाए तो वह सूखे पत्ते की तरह कंपकंपा उठती है, झट से आंखें भर आती हैं. जबकि पुरुष इस मामले में थोड़े अलग होते हैं. वे अपना दुखदर्द अपने अंदर इस तरह जब्त कर लेते हैं कि सामने वाले को इस का एहसास ही नहीं होता. बस, भीतर ही भीतर घुटते रहते हैं, जैसे मैं घुट रहा था.

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फिर वे थोड़ा सहज हुईं. शायद, वे अपने औरत वाले खोल से बाहर आ कर एक अधिकारी वाली छवि से बोलीं, ‘‘शुभेंदुजी, आप के पास कोई ठोस वजह नहीं है कि जिस के आधार पर हम आप की नियुक्ति स्थानीय ही रहने दें. अगर आप प्रमोशन लेना चाहते हैं तो आप को बाहर जाना ही पड़ेगा.’’

‘‘मैडम, गाजियाबाद जैसे शहर में तो मेरा अपना कोई है ही नहीं. अगर संभव हो तो मेरे शहर के आसपास ही मेरी नियुक्ति हो जाए जिस से मैं रोजाना अपडाउन कर सकूं,’’ मैं चापलूसीभरे स्वर में बोला. ‘‘गाजियाबाद में तो मैं भी रहती हूं. रोजाना दिल्ली आती हूं. मेरे फ्लैट की ऊपरी मंजिल खाली है, आप चाहें तो मेरे यहां बतौर पेइंगगैस्ट रह सकते हैं.’’ मैडम की आत्मीयता और अपनापन देख कर मैं गदगद हो उठा. भला कौन इतनी बड़ी अधिकारी अपने ब्रांच मैनेजर के लिए ऐसा सोच सकती है. जाने मुझे क्यों लगा, वे मुझ में दिलचस्पी ले रही हैं. सच कहूं तो वे मुझे अपनी अधिकारी से ज्यादा एक औरत लगीं और उन की गठी हुई देह देख कर इस उम्र में भी मैं रोमांचित हो उठा. जल्दी ही गाजियाबाद ब्रांच में जौइन करने के लिए उतावला हो गया. लेकिन मन में एक अज्ञात भय भी था, कहीं वहां रहते हुए मैं उन से कोई अमर्यादित या अशोभनीय हरकत न कर बैठूं जिस से मैं कहीं खुद अपनी नजरों में न गिर जाऊं.

जल्दी ही अपनी ब्रांच से रिलीव हो कर मैं ने गाजियाबाद की शाखा में जौइन कर लिया. शाम को मैडम के घर पहुंचा तो वहां एक बुजुर्ग पुरुष ने मेरा स्वागत किया, ‘‘आप बैंक मैनेजर शुभेंदुजी हैं न?’’

‘‘जी हां, मैडम ने अपने यहां…’’ मेरा वाक्य पूरा होने से पहले ही वे बोले, ‘‘जी हां, वह मैडम, मेरी बेटी अपूर्वा है, जोनल मैनेजर है. अभी औफिस से आई नहीं है. बस, आने वाली होगी. तब तक हम दोनों एकएक कप चाय पीते हैं,’’ कहते हुए उन्होंने अपने नौकर से चाय के लिए कह दिया. तभी गाड़ी का हौर्न बजा. शायद, मैडम आ गई थीं. मैं ने खड़े हो कर उन का अभिवादन किया तो वे खिलखिला कर बोलीं, ‘‘शुभेंदुजी, यह औफिस नहीं, मेरा घर है. यहां आप मेरे मेहमान हैं. आप मुझे अपूर्वा कहेंगे

तो मुझे अच्छा लगेगा.’’ वे फ्रैश हो कर आईं तो तब तक चाय आ गई थी. फिर हम तीनों ने साथ बैठ कर चाय पी. उन के पिताजी ने जब यह बताया कि अपूर्वा के पति का निधन एक सड़क दुर्घटना में हो गया है तो मुझे उन के प्रति सहानुभूति उमड़ आई. उन की सिर्फ एक ही बेटी थी जो अमेरिका में जौब कर रही थी. मैं घर की ऊपरी मंजिल में पेइंगगैस्ट बन रहने लगा था. मेरा मन वहां लग गया था. उन के पिताजी बहुत सुलझे, समझदार और जिंदादिल इंसान थे. रात का खाना हम तीनों साथ ही खाते थे. एक रोज सब्जी सर्व करते वक्त अपूर्वा का हाथ मुझ से छू गया तो मेरा पूरा जिस्म झनझना उठा.

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बस, ट्रेन और भीड़भाड़ में न जाने कितनी बार स्त्रियों का शरीर मुझ से छुआ होगा लेकिन तब ऐसा कुछ महसूस नहीं हुआ. लेकिन अपूर्वा का क्षणिक स्पर्श मुझे अंदर तक बेचैन कर गया और मैं जल बिन मछली की तरह छटपटाने लगा. उस दिन से वे भी मुझे कुछ असहज सी दिखने लगीं. उस के बाद मुझे ऐसा महसूस होने लगा कि हम दोनों के बीच कुछ ऐसा है जरूर जो अदृश्य तो है लेकिन हम दोनों को जोड़ने के लिए प्रेरित कर रहा है. वह जुड़ाव कुछ भी हो सकता है- मानसिक, शारीरिक या भावात्मक. लेकिन अपनी बेचैनी और छटपटाहट का राज मुझे मालूम था, झूठ नहीं बोलूंगा, मेरा मन उन से शारीरिक जुड़ाव चाहता था. शायद वे मेरी इस मंशा को भांप गई थीं. लेकिन मैं उन का मन नहीं जान पा रहा था. हम दोनों के मध्य चल रहे अंर्तद्वंद्वों को सुलझाने में उन के अनुभवी पिताजी ने पहल की, ‘‘शुभेंदुजी, बिना किसी भूमिका और लागलपेट के मैं आप से स्पष्ट रूप से पूछना चाहता हूं, क्या आप मेरी बेटी से विवाह करेंगे.’’

वे इतनी जल्दी स्पष्ट रूप से शादी की बात पर आ जाएंगे, यह तो मैं ने सोचा ही नहीं था. मैं थोड़ा डर सा गया. यह डर समाज का, बेटेबहू का या खुद अपने अंदर का था, मुझे नहीं मालूम. मैं उन के सामने चुप ही रहा. ‘‘मैं जानता हूं, इस सवाल का जवाब आप के लिए थोड़ा मुश्किल है, इसलिए आप वक्त ले सकते हो. मेरी बेटी और उस के अतीत से तो आप परिचित हैं ही, मेरी धेवती अमेरिका में जौब कर रही है, शादी कर के वहीं सैटल होने का इरादा है उस का. उस ने खुद कहा है, ‘नानू, मौम हमेशा के लिए अमेरिका नहीं आएंगी, इसलिए उन की शादी करा दीजिए.’ ‘‘और सच कहूं, तो मैं भी चाहता हूं उस की जल्दी से शादी हो जाए. मेरा बुलावा पता नहीं कब आ जाए,’’ कहते हुए उन का गला भर आया.

मैं खुद समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहूं, इसलिए उन से क्षमा मांग कर अपने कमरे में चला गया. इस उम्र में दूसरी शादी के बारे में सोचते हुए भी झिझक सी महसूस हुई. बेटेबहू के सामने शादी की बात करने की सोच कर तो शर्म सी महसूस हुई. लोग यही कहेंगे बीवी को मरे एक साल भी नहीं हुआ और दूसरा ब्याह रचा लिया और वह भी बुढ़ापे में. निशा ने पूरे 30 साल साथ निभाया, कितना खयाल रखती थी मेरा. मेरी छोटी से छोटी जरूरत पूरी करने के लिए पूरे दिन घर में चक्करघिन्नी की तरह घूमती रहती थी. यह तो उस के साथ विश्वासघात होगा. और वह भी तो अकसर कहती थी, ‘आप सिर्फ मेरे हो, मेरे. मुझे वचन दो कि मेरे मरने के बाद आप दूसरी शादी नहीं करोगे.’ चाहे वह यह बात सीरियसली कहती हो या मजाक में, लेकिन मैं हंस कर हामी भर देता था. इन्हीं सब वजहों से मैं शादी करने से हिचकिचा रहा था. हां, अपूर्वा का साथ तो चाहता था लेकिन सिर्फ शारीरिक रूप से. 2-3 दिन बाद अपूर्वा के पिताजी बोले, ‘‘शुभेंदु, मैं आप का जवाब जानना चाहता हूं. अपूर्वा चाहती है कि पहले आप जवाब दें.’’ ‘‘बाबूजी, इस उम्र में शादी? थोड़ा सा अजीब सा लगता है. हां, मैं जब तक यहां हूं अपूर्वाजी का पूरा खयाल रखूंगा. उन्हें किसी चीज के लिए कोई परेशानी नहीं होगी,’’ मैं थोड़ा अटकते स्वर में बोला.

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‘‘यानी आप शादी नहीं करना चाहते,’’ उन के स्वर में भरपूर निराशा थी. मैं मन ही मन कुढ़ गया, ‘अजीब बुड्ढा है. शादी के पीछे ही पड़ गया है. बिना शादी के भी तो इस की बेटी खुश रह सकती है मेरे साथ. इस तरह एक पंथ दो काज हो जाएंगे. दोनों को अकेलेपन से छुटकारा मिल जाएगा और कुदरती जरूरत भी पूरी होती रहेगी.’ उसी रात अपूर्वा के पिताजी को हार्टअटैक आ गया तो मैं घबरा उठा, कहीं यह मेरी वजह से तो नहीं हुआ है. रात में ही उन्हें अस्पताल ले गए और उन का इलाज शुरू हो गया. दूसरी रात को उन के विश्वसनीय नौकर ने हम दोनों को घर भेज दिया, और खुद वहीं रुक गया. यह पहला मौका था जब पूरे घर में हम दोनों अकेले थे. कोई और वक्त होता तो शायद अपूर्वा से मैं कुछ कहता. अस्पताल में पूरा दिन हम दोनों ने काटा था, इसलिए थकान स्वभाविक थी. चायबिस्कुट के सिवा कुछ खाया भी नहीं था, इसलिए भूख भी महसूस हो रही थी लेकिन संकोचवश कुछ कह नहीं पा रहा था.

‘‘शुभेंदुजी, मुझे पता है इस वक्त हम दोनों पर थकान और भूख हावी है, इसलिए आप हाथमुंह धो कर जल्दी ही डाइनिंग हौल में आ जाइए, मैं तब तक खिचड़ी बना लेती हूं.’’ डाइनिंग टेबल पर गरमागरम खिचड़ी, साथ में दही, अचार और पापड़ भी थे. हम खिचड़ी खा रहे थे तभी अपूर्वा का मोबाइल बज गया, ‘‘ठीक है, मैं सुबह डाक्टर से बात कर लूंगी.’’

‘‘बाबूजी तो ठीक हैं न?’’ मैं ने चिंता व्यक्त करते हुए पूछा. गहरी सांस भर कर अपूर्वा बोलीं, ‘‘पिताजी कहां ठीक हैं? उन का ब्लडप्रैशर नौर्मल नहीं हो रहा, मुझे ले कर परेशान रहते हैं. बड़ी उम्मीद थी उन्हें आप से कि आप उन की बेटी से शादी कर लेंगे. आप का इनकार सह न सके वे.’’

‘‘अपूर्वाजी, मैं चाहता था…’’

‘‘मुझे पता है आप क्या चाहते थे और क्या चाहते हैं,’’ मेरा वाक्य पूरा होने से पहले ही वे बोल पड़ीं, ‘‘शुभेंदुजी, मैं एक औरत हूं, पूरे 50 वसंत काट चुकी हूं. अपने औफिस में काम के सिलसिले में रोज सैकड़ों पुरुषों से मिलना पड़ता है मुझे. चपरासी से ले कर मेरा पीए भी एक पुरुष है. मैं नादान टीनएजर नहीं हूं. ‘‘अरुण के जाने के बाद बाबूजी को सिर्फ मेरी चिंता खाए जा रही है. आप को देख कर उन्हें लगा, शायद आप उन की बेटी के अच्छे जीवनसाथी साबित हो सकते हो. यही सोच कर उन्होंने इस संबंध में आप से बात की थी. लेकिन अफसोस आप भी उन्हीं मर्दों की श्रेणी में आ गए जो सिर्फ अपने निजी स्वार्थ की खातिर मुझे अपनाना चाहते हैं.

‘‘मुझे से आधी उम्र के युवकों ने भी शादी के लिए हाथ बढ़ाया लेकिन मैं जानती थी कि वे शादी क्यों करना चाहते हैं. सिर्फ मेरी दौलत की खातिर. कुछ ऐसे हमउम्रों ने भी मुझ से विवाह की इच्छा व्यक्त की जो मेरे पद और प्रतिष्ठा से काफी कम थे. वे समाज में अपना रुतबा बढ़ाना चाहते थे अपनी बीवी को ढाल बना कर. ‘‘लेकिन आप को मेरी न तो दौलत की चाह है न पदप्रतिष्ठा की. आप मेरा साथ चाहते हैं लेकिन सिर्फ एक औरत के रूप में, पत्नी के रूप में नहीं.’’ यह सुन कर मेरी घिग्घी बंध गई. उन्होंने जो कुछ भी कहा था वह बिलकुल सच कहा था. वास्तव में वे नादान नहीं थीं. ‘‘शुभेंदुजी, झूठ नहीं बोलूंगी, पहली बार जब अपने केबिन में आप को देखा था और आप ने अपनी पत्नी के विषय में बताया था तो मुझे ऐसा लगा था जैसे आप का और मेरा दर्द एकजैसा है, एकजैसी समस्याएं हैं. तभी से मेरे मन में आप के प्रति कुछ सुप्त भावनाएं जाग उठी थीं. इसलिए मैं ने आप को अपने यहां पेइंगगैस्ट के लिए कहा था. आप सोच रहे होंगे कि यह कैसी औरत है? शुभेंदुजी, औरत सिर्फ देह नहीं होती, एक मन भी होती है जहां उस के ढेरों सपने, इच्छाएं और जज्बात महफूज रहते हैं.

‘‘पर कभीकभी वह इन सपनों, भावनाओं और इच्छाओं को साकार करने और कुछ खास पाने की चाहत करने लगती है. अगर यह चाहत अनैतिक तरीके से पूरी होती है तो सारी जिंदगी आत्मग्लानि और अपराधबोध की भावना पनपती रहती है और अगर यही चाहत पूरी निष्ठा व पवित्रता से हासिल की जाती है तो वह औरत के जीवन का सब से सुंदर और अविस्मरणीय क्षण बन जाता है. ‘‘इसी विशुद्ध चाहत की खातिर मैं ने खुद बाबूजी से आप का जिक्र किया था. लेकिन आप की मंशा और नीयत को मैं ही नहीं, बाबूजी भी भांप गए थे. लेकिन मैं आप को बता देना चाहती हूं कि मैं सिर्फ एक औरत बन कर आप का साथ नहीं दे सकती चाहे कितनी भी कमजोर क्यों न पड़ जाऊं.’’ ‘‘अपूर्वाजी, सत्यता यह है कि मैं अपनी पत्नी को बेहद प्यार करता था और उस के वचन का मान रखना चाहता हूं. बेटेबहू और लोग क्या कहेंगे, यह सोच कर भी मैं हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूं.’’

‘‘शुभेंदुजी, औरत जिस से प्यार करती है, पूरी निष्ठा से करती है. वह बहुत ही भावुक, कोमल और संवेदनशील होती है. भावात्मक और अंतरंग क्षणों में अपने प्रिय से सिर्फ यही चाहती है, मांगती है कि वह सारी जिंदगी सिर्फ उस का हो कर ही रहे लेकिन उस वक्त यथार्थ से वह कोसों दूर होती है. इसी तरह आप की पत्नी भी आप को वचन से बांध गईं. लेकिन उन्होंने यह नहीं सोचा कि उन के न रहने पर उन के जीवनसाथी को कितने दुख, अकेलापन, तनाव झेलने के साथसाथ अनेक मानसिक एवं शारीरिक समस्याओं से जूझना पड़ेगा. इस तरह के वचन में बांधना, यह उन का प्यार नहीं, बल्कि एक ईर्ष्याभाव था कि दूसरी औरत उन के पति को छीन लेगी. जीतेजी तो यह चाहत ठीक है लेकिन मरने के बाद ऐसी चाहत क्यों?

‘‘मैं भी अपने पति से बहुत प्यार करती थी, दिल की गहराइयों से चाहती थी और अंतरंग क्षणों में उन से कहती भी थी, ‘अरुण, आप सिर्फ मेरे हो. मेरे रहते अगर किसी दूसरी औरत के बारे में सोचा भी तो जान दे दूंगी अपनी. लेकिन मेरे मरने के बाद आप दूसरी शादी जरूर कर लेना क्योंकि मैं नहीं चाहती कि आप मेरे बाद अकेलापन भोगने के साथसाथ तमाम समस्याओं से जूझें.’ ‘‘वे सिर्फ मुसकरा देते थे लेकिन कहते कुछ नहीं थे. पर वक्त की बात है. मुझे अकेले छोड़ कर चले गए. आखिरी वक्त उन्होंने पहली बार यह कहा था, ‘अपूर्वा, मैं तुम्हें जान से भी ज्यादा प्यार करता हूं लेकिन तुम शादी जरूर कर लेना क्योंकि मैं तुम से सच्चा प्यार करता हूं और सच्चा प्यार करने वाले कभी नहीं चाहते कि उन के जाने के बाद उन का जीवनसाथी दुखदर्द झेले.’ ‘‘वे जा चुके थे. मैं पत्थर बन गई थी, समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं. लेकिन धीरेधीरे जीवन रूटीन पर आने लगा और मैं इतने बड़े दुख से उबर कर संभल गई. और फिर से औफिस जौइन कर लिया.

‘‘ऐसा नहीं है कि मैं उन की इच्छा पूरी करने या उन की बात का मान रखने के लिए शादी करना चाहती हूं और यह भी नहीं है कि मैं ने उन्हें पूरी तरह भुला दिया है लेकिन शुभेंदुजी, हम ऊपर से जो सच और झूठ बोलते हैं उस के अलावा भी हमारे अंदर का एक सच होता है, वह कोई नहीं जानता, वह सिर्फ हम ही जानते हैं. वह सच होता है हमारे तनमन की इच्छाएं, जज्बात और तूफान जो प्राकृतिक हैं, कभी दबाए नहीं जा सकते. बेशक, हम उन्हें काबू में रखने के भरसक प्रयत्न करें, लेकिन कभीकभी वे बेकाबू हो ही जाते हैं तब उन के परिणाम खुद के लिए, समाज के लिए और परिवार के लिए बेहद घातक होते हैं. इस अप्रिय स्थिति से बचने के लिए हमें अपने अंदर के इस सच को स्वीकार कर लेना चाहिए.

‘‘आप का कहना है कि अगर हम ऐसा कर लेंगे तो समाज और लोग क्या कहेंगे? अरे, वे कुछ न कुछ तो कहेंगे ही क्योंकि उन का तो काम ही कहना है. अगर हम नहीं भी करेंगे तो भी वे कुछ कहेंगे. ‘‘आप सोच रहे होंगे, मैं एक औरत हो कर कैसी बातें कर रही हूं, ऐसी बातें औरत को शोभा नहीं देतीं. लेकिन औरत जब पुरुषों से बराबरी कर रही है, वाहन चला रही है, औफिस व व्यवसाय संभाल रही है तो अपनी बात खुल कर क्यों नहीं कर सकती? ‘‘मैं सच बोलने से नहीं झिझकती. तनहाइयों में अकसर मेरे अंदर का सच मुझ पर हावी हो जाता है और मुझे बहुत मुश्किल, परेशानी, उलझनों व समस्याओं से जूझना पड़ता है. इन्हीं सब को मेरी युवा बेटी और अनुभवी पिता समझते हैं. और मुझ से दूसरी शादी करने के लिए कहते हैं.

‘‘अगर आप के बेटेबहू भी आप के अकेलेपन, तनाव और निजी समस्याओं को दिल से महसूस करते होंगे तो वे भी आप को यही सलाह देंगे.’’ तभी मेरा मोबाइल घनघना उठा. आस्ट्रेलिया से बहू का फोन था, ‘‘पापा, आप सारी जिंदगी इस तरह अकेले कैसे रहोगे? यह सोच कर मैं और सनी बेहद परेशान रहते हैं. इस समस्या का हल मेरी अमेरिका वाली फ्रैंड अक्षरा ने बताया है. उस ने अपनी विडो मौम का रिश्ता आप के लिए सुझाया है. आप उन से मिल लेना. उन का नाम अपूर्वा है. वे दिल्ली में बैंक की जोनल मैनेजर हैं. उन का पता आप को ईमेल कर दिया है. बात बन जाए तो प्लीज पापा, अपनी शादी में बुलाना न भूलना,’’ वह मुसकरा कर बोली तो मैं अचंभित हो उठा. मेरे बेटेबहू मेरे बारे में इतना सोचते हैं और मैं व्यर्थ ही परेशान था.

तभी थोड़ी देर बाद अपूर्वा का भी मोबाइल बज उठा. अमेरिका से उन की बेटी का फोन था. उस ने भी अपनी मां से वही कहा जो मेरी बहू ने मुझ से कहा. हम दोनों हैरानी से एकदूसरे को देखने लगे. यह सब भी अजीब संयोग था. हमारे बच्चे भी हमारे एक होने के बारे में सोच रहे थे. कौन कहता है आजकल के बच्चे अपने मांबाप की फीलिंग्स नहीं समझते, उन की केयर नहीं करते. मांबाप के पैर दबाने और उन की आज्ञा का पालन करने वाले बच्चे ही सिर्फ संस्कारी नहीं होते. अपने पेरैंट्स की प्रौब्लम्स, उन की निजी समस्याओं को समझने व उन के सुखदुख शेयर करने वाले हजारों मील दूर बैठे बच्चे भी स्मार्ट और संस्कारी होते हैं  बातोंबातों में रात कब गुजर गई, पता ही नहीं चला. अपूर्वा अपने कमरे में जाने लगी तो मैं ने कहा, ‘‘अपूर्वा, अपने बेटेबहू को क्या जवाब दूं मैं?’’

‘‘यही सवाल मैं आप से पूछती हूं, मैं अपनी बेटी से क्या कहूं?’’ अपनेअपने सवाल पर हम दोनों खुल कर हंस पड़े. मैं मुसकरा कर बोला, ‘‘मैं अपनी बेटी से बात करूंगा और तुम अपने बेटेबहू से बात करना और हां, बहू को विश जरूर करना वह जल्दी ही तुम्हें दादी बनाने वाली है.’’ यह सुन कर अपूर्वा थोड़ा लजा गई, ‘‘बाबूजी को यह खुशखबरी दे कर, हम अपने जीवन की एक नई शुरुआत करेंगे,’’ कहते हुए वे मेरे सीने से लग गई और मैं ने उसे अपनी बांहों के मजबूत घेरे में कैद कर लिया.

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बैंक के जोनल औफिस पहुंचा तो पता चला जोनल मैनेजर मीटिंग में व्यस्त हैं. उन के पीए ने बताया कि लगभग 3 घंटे बाद मैडम फ्री होंगी. उन के आते ही आप के मिलने की स्लिप उन तक पहुंचा दी जाएगी. मेरे पास सिवा इंतजार करने के और कोई चारा न था, इसलिए वहीं सोफे पर बैठ गया. जोनल औफिस, मैं अपनी नियुक्ति के सिलसिले में गया था. मेरा बैंक अधिकारी से शाखा प्रबंधक के लिए प्रमोशन हुआ था. मेरी नियुक्ति मेरे शहर से काफी दूर कर दी गई थी. मैं इतनी दूर जाना नहीं चाहता था क्योंकि पत्नी का देहांत हाल ही में हुआ था और मैं बिलकुल तनहा रह गया था. नए शहर जा कर मुझे और तनहाइयों से रूबरू होना पड़ता, सो स्थानीय नियुक्ति ही चाहता था. बेटाबहू आस्ट्रेलिया में थे. वे चाहते थे कि मैं वीआरएस ले कर उन के साथ रहूं लेकिन मैं ने इनकार कर दिया. मेरी सर्विस के अभी 5 साल बाकी थे. दिन तो बैंक में कट जाता था लेकिन रात काटे नहीं कटती थी.

कुछ मित्रों ने दूसरी शादी की सलाह दी लेकिन इस के लिए मैं राजी न था क्योंकि इस उम्र में शादी के बारे में सोच कर ही शर्म सी महसूस होती थी. बेटेबहू क्या सोचेंगे? लोग क्या कहेंगे? और फिर मैं अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करता था, उस ने मेरा इतना साथ निभाया और अब उम्र के इस मोड़ पर शादी, मेरी नजर में यह उस के साथ विश्वासघात जैसा था. हां, कुदरती जरूरतें पूरी न हो सकने के कारण मैं जिद्दी हो गया था. कामवाली बाई को मैं बिना वजह डांट देता था. वह पासपड़ोस वालों के बीच मुझे ‘सनकी’ कहती थी. अकसर सहकर्मियों और ग्राहकों से मेरी झड़प हो जाती. वे सब मुझे पीठपीछे न जाने क्याक्या कहते रहते.

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‘‘सर, मैडम आ चुकी हैं. प्लीज, अपना नाम बताइए,’’ पीए ने कहा तो मैं वर्तमान में लौट आया.

‘‘जी, शुभेंदु कुमार.’’ थोड़ा इंतजार करने के बाद जैसे ही घंटी बजी, चपरासी दौड़ कर मैडम के केबिन में गया. लौट कर आया तो पता चला मैडम ने मुझे बुलाया है. केबिन में प्रवेश करते ही मैडम को देखा तो ठगा सा रह गया. मेरी उम्र से लगभग 1-2 वर्ष ही छोटी होंगी. देखने में सौम्य और सुंदर. पद की गरिमा से उन का संपूर्ण व्यक्तित्व दमक रहा था.

‘‘आप किस काम से आए हैं?’’ बहुत ही संयमित स्वर में उन्होंने पूछा.

‘‘जी मैडम, मेरी नियुक्ति मेरे शहर से बहुत दूर कर दी गई है. मैं चाहता हूं मुझे स्थानीय नियुक्ति ही मिल जाए.’’

‘‘दूर न जाने की कोई तो वजह होगी शुभेंदुजी?’’

‘‘मैडम, मैं वहां बिलकुल अकेला पड़ जाऊंगा, न जान न पहचान,’’ मैं निरीहभाव से बोला.

‘‘जानपहचान तो धीरेधीरे बढ़ जाएगी, फिर आप अकेले कहां हैं, आप अपनी पत्नी को साथ ले जाइए,’’ मैडम ने हलकी सी मुसकराहट से कहा.

‘‘उन का देहांत हो चुका है,’’ मैं ने भरे स्वर में कहा तो मैडम असहज सी हो उठीं. ‘‘सौरी, शुभेंदुजी, मुझे मालूम नहीं था,’’ कहते हुए वे हलकी सी भावुक हो उठीं. उन की आंखों में मैं ने आंसुओं की नमी को देख लिया था जिसे उन्होंने बड़ी चतुराई से पसीना पोंछने के बहाने अपने रूमाल से पोंछ लिया. वास्तव में नारी बहुत संवेदनशील होती है. जरा सा भी दुख का झोंका उस के करीब से गुजर जाए तो वह सूखे पत्ते की तरह कंपकंपा उठती है, झट से आंखें भर आती हैं. जबकि पुरुष इस मामले में थोड़े अलग होते हैं. वे अपना दुखदर्द अपने अंदर इस तरह जब्त कर लेते हैं कि सामने वाले को इस का एहसास ही नहीं होता. बस, भीतर ही भीतर घुटते रहते हैं, जैसे मैं घुट रहा था.

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फिर वे थोड़ा सहज हुईं. शायद, वे अपने औरत वाले खोल से बाहर आ कर एक अधिकारी वाली छवि से बोलीं, ‘‘शुभेंदुजी, आप के पास कोई ठोस वजह नहीं है कि जिस के आधार पर हम आप की नियुक्ति स्थानीय ही रहने दें. अगर आप प्रमोशन लेना चाहते हैं तो आप को बाहर जाना ही पड़ेगा.’’

‘‘मैडम, गाजियाबाद जैसे शहर में तो मेरा अपना कोई है ही नहीं. अगर संभव हो तो मेरे शहर के आसपास ही मेरी नियुक्ति हो जाए जिस से मैं रोजाना अपडाउन कर सकूं,’’ मैं चापलूसीभरे स्वर में बोला. ‘‘गाजियाबाद में तो मैं भी रहती हूं. रोजाना दिल्ली आती हूं. मेरे फ्लैट की ऊपरी मंजिल खाली है, आप चाहें तो मेरे यहां बतौर पेइंगगैस्ट रह सकते हैं.’’ मैडम की आत्मीयता और अपनापन देख कर मैं गदगद हो उठा. भला कौन इतनी बड़ी अधिकारी अपने ब्रांच मैनेजर के लिए ऐसा सोच सकती है. जाने मुझे क्यों लगा, वे मुझ में दिलचस्पी ले रही हैं. सच कहूं तो वे मुझे अपनी अधिकारी से ज्यादा एक औरत लगीं और उन की गठी हुई देह देख कर इस उम्र में भी मैं रोमांचित हो उठा. जल्दी ही गाजियाबाद ब्रांच में जौइन करने के लिए उतावला हो गया. लेकिन मन में एक अज्ञात भय भी था, कहीं वहां रहते हुए मैं उन से कोई अमर्यादित या अशोभनीय हरकत न कर बैठूं जिस से मैं कहीं खुद अपनी नजरों में न गिर जाऊं.

जल्दी ही अपनी ब्रांच से रिलीव हो कर मैं ने गाजियाबाद की शाखा में जौइन कर लिया. शाम को मैडम के घर पहुंचा तो वहां एक बुजुर्ग पुरुष ने मेरा स्वागत किया, ‘‘आप बैंक मैनेजर शुभेंदुजी हैं न?’’

‘‘जी हां, मैडम ने अपने यहां…’’ मेरा वाक्य पूरा होने से पहले ही वे बोले, ‘‘जी हां, वह मैडम, मेरी बेटी अपूर्वा है, जोनल मैनेजर है. अभी औफिस से आई नहीं है. बस, आने वाली होगी. तब तक हम दोनों एकएक कप चाय पीते हैं,’’ कहते हुए उन्होंने अपने नौकर से चाय के लिए कह दिया. तभी गाड़ी का हौर्न बजा. शायद, मैडम आ गई थीं. मैं ने खड़े हो कर उन का अभिवादन किया तो वे खिलखिला कर बोलीं, ‘‘शुभेंदुजी, यह औफिस नहीं, मेरा घर है. यहां आप मेरे मेहमान हैं. आप मुझे अपूर्वा कहेंगे

तो मुझे अच्छा लगेगा.’’ वे फ्रैश हो कर आईं तो तब तक चाय आ गई थी. फिर हम तीनों ने साथ बैठ कर चाय पी. उन के पिताजी ने जब यह बताया कि अपूर्वा के पति का निधन एक सड़क दुर्घटना में हो गया है तो मुझे उन के प्रति सहानुभूति उमड़ आई. उन की सिर्फ एक ही बेटी थी जो अमेरिका में जौब कर रही थी. मैं घर की ऊपरी मंजिल में पेइंगगैस्ट बन रहने लगा था. मेरा मन वहां लग गया था. उन के पिताजी बहुत सुलझे, समझदार और जिंदादिल इंसान थे. रात का खाना हम तीनों साथ ही खाते थे. एक रोज सब्जी सर्व करते वक्त अपूर्वा का हाथ मुझ से छू गया तो मेरा पूरा जिस्म झनझना उठा.

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बस, ट्रेन और भीड़भाड़ में न जाने कितनी बार स्त्रियों का शरीर मुझ से छुआ होगा लेकिन तब ऐसा कुछ महसूस नहीं हुआ. लेकिन अपूर्वा का क्षणिक स्पर्श मुझे अंदर तक बेचैन कर गया और मैं जल बिन मछली की तरह छटपटाने लगा. उस दिन से वे भी मुझे कुछ असहज सी दिखने लगीं. उस के बाद मुझे ऐसा महसूस होने लगा कि हम दोनों के बीच कुछ ऐसा है जरूर जो अदृश्य तो है लेकिन हम दोनों को जोड़ने के लिए प्रेरित कर रहा है. वह जुड़ाव कुछ भी हो सकता है- मानसिक, शारीरिक या भावात्मक. लेकिन अपनी बेचैनी और छटपटाहट का राज मुझे मालूम था, झूठ नहीं बोलूंगा, मेरा मन उन से शारीरिक जुड़ाव चाहता था. शायद वे मेरी इस मंशा को भांप गई थीं. लेकिन मैं उन का मन नहीं जान पा रहा था. हम दोनों के मध्य चल रहे अंर्तद्वंद्वों को सुलझाने में उन के अनुभवी पिताजी ने पहल की, ‘‘शुभेंदुजी, बिना किसी भूमिका और लागलपेट के मैं आप से स्पष्ट रूप से पूछना चाहता हूं, क्या आप मेरी बेटी से विवाह करेंगे.’’

वे इतनी जल्दी स्पष्ट रूप से शादी की बात पर आ जाएंगे, यह तो मैं ने सोचा ही नहीं था. मैं थोड़ा डर सा गया. यह डर समाज का, बेटेबहू का या खुद अपने अंदर का था, मुझे नहीं मालूम. मैं उन के सामने चुप ही रहा. ‘‘मैं जानता हूं, इस सवाल का जवाब आप के लिए थोड़ा मुश्किल है, इसलिए आप वक्त ले सकते हो. मेरी बेटी और उस के अतीत से तो आप परिचित हैं ही, मेरी धेवती अमेरिका में जौब कर रही है, शादी कर के वहीं सैटल होने का इरादा है उस का. उस ने खुद कहा है, ‘नानू, मौम हमेशा के लिए अमेरिका नहीं आएंगी, इसलिए उन की शादी करा दीजिए.’ ‘‘और सच कहूं, तो मैं भी चाहता हूं उस की जल्दी से शादी हो जाए. मेरा बुलावा पता नहीं कब आ जाए,’’ कहते हुए उन का गला भर आया.

मैं खुद समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहूं, इसलिए उन से क्षमा मांग कर अपने कमरे में चला गया. इस उम्र में दूसरी शादी के बारे में सोचते हुए भी झिझक सी महसूस हुई. बेटेबहू के सामने शादी की बात करने की सोच कर तो शर्म सी महसूस हुई. लोग यही कहेंगे बीवी को मरे एक साल भी नहीं हुआ और दूसरा ब्याह रचा लिया और वह भी बुढ़ापे में. निशा ने पूरे 30 साल साथ निभाया, कितना खयाल रखती थी मेरा. मेरी छोटी से छोटी जरूरत पूरी करने के लिए पूरे दिन घर में चक्करघिन्नी की तरह घूमती रहती थी. यह तो उस के साथ विश्वासघात होगा. और वह भी तो अकसर कहती थी, ‘आप सिर्फ मेरे हो, मेरे. मुझे वचन दो कि मेरे मरने के बाद आप दूसरी शादी नहीं करोगे.’ चाहे वह यह बात सीरियसली कहती हो या मजाक में, लेकिन मैं हंस कर हामी भर देता था. इन्हीं सब वजहों से मैं शादी करने से हिचकिचा रहा था. हां, अपूर्वा का साथ तो चाहता था लेकिन सिर्फ शारीरिक रूप से. 2-3 दिन बाद अपूर्वा के पिताजी बोले, ‘‘शुभेंदु, मैं आप का जवाब जानना चाहता हूं. अपूर्वा चाहती है कि पहले आप जवाब दें.’’ ‘‘बाबूजी, इस उम्र में शादी? थोड़ा सा अजीब सा लगता है. हां, मैं जब तक यहां हूं अपूर्वाजी का पूरा खयाल रखूंगा. उन्हें किसी चीज के लिए कोई परेशानी नहीं होगी,’’ मैं थोड़ा अटकते स्वर में बोला.

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‘‘यानी आप शादी नहीं करना चाहते,’’ उन के स्वर में भरपूर निराशा थी. मैं मन ही मन कुढ़ गया, ‘अजीब बुड्ढा है. शादी के पीछे ही पड़ गया है. बिना शादी के भी तो इस की बेटी खुश रह सकती है मेरे साथ. इस तरह एक पंथ दो काज हो जाएंगे. दोनों को अकेलेपन से छुटकारा मिल जाएगा और कुदरती जरूरत भी पूरी होती रहेगी.’ उसी रात अपूर्वा के पिताजी को हार्टअटैक आ गया तो मैं घबरा उठा, कहीं यह मेरी वजह से तो नहीं हुआ है. रात में ही उन्हें अस्पताल ले गए और उन का इलाज शुरू हो गया. दूसरी रात को उन के विश्वसनीय नौकर ने हम दोनों को घर भेज दिया, और खुद वहीं रुक गया. यह पहला मौका था जब पूरे घर में हम दोनों अकेले थे. कोई और वक्त होता तो शायद अपूर्वा से मैं कुछ कहता. अस्पताल में पूरा दिन हम दोनों ने काटा था, इसलिए थकान स्वभाविक थी. चायबिस्कुट के सिवा कुछ खाया भी नहीं था, इसलिए भूख भी महसूस हो रही थी लेकिन संकोचवश कुछ कह नहीं पा रहा था.

‘‘शुभेंदुजी, मुझे पता है इस वक्त हम दोनों पर थकान और भूख हावी है, इसलिए आप हाथमुंह धो कर जल्दी ही डाइनिंग हौल में आ जाइए, मैं तब तक खिचड़ी बना लेती हूं.’’ डाइनिंग टेबल पर गरमागरम खिचड़ी, साथ में दही, अचार और पापड़ भी थे. हम खिचड़ी खा रहे थे तभी अपूर्वा का मोबाइल बज गया, ‘‘ठीक है, मैं सुबह डाक्टर से बात कर लूंगी.’’

‘‘बाबूजी तो ठीक हैं न?’’ मैं ने चिंता व्यक्त करते हुए पूछा. गहरी सांस भर कर अपूर्वा बोलीं, ‘‘पिताजी कहां ठीक हैं? उन का ब्लडप्रैशर नौर्मल नहीं हो रहा, मुझे ले कर परेशान रहते हैं. बड़ी उम्मीद थी उन्हें आप से कि आप उन की बेटी से शादी कर लेंगे. आप का इनकार सह न सके वे.’’

‘‘अपूर्वाजी, मैं चाहता था…’’

‘‘मुझे पता है आप क्या चाहते थे और क्या चाहते हैं,’’ मेरा वाक्य पूरा होने से पहले ही वे बोल पड़ीं, ‘‘शुभेंदुजी, मैं एक औरत हूं, पूरे 50 वसंत काट चुकी हूं. अपने औफिस में काम के सिलसिले में रोज सैकड़ों पुरुषों से मिलना पड़ता है मुझे. चपरासी से ले कर मेरा पीए भी एक पुरुष है. मैं नादान टीनएजर नहीं हूं. ‘‘अरुण के जाने के बाद बाबूजी को सिर्फ मेरी चिंता खाए जा रही है. आप को देख कर उन्हें लगा, शायद आप उन की बेटी के अच्छे जीवनसाथी साबित हो सकते हो. यही सोच कर उन्होंने इस संबंध में आप से बात की थी. लेकिन अफसोस आप भी उन्हीं मर्दों की श्रेणी में आ गए जो सिर्फ अपने निजी स्वार्थ की खातिर मुझे अपनाना चाहते हैं.

‘‘मुझे से आधी उम्र के युवकों ने भी शादी के लिए हाथ बढ़ाया लेकिन मैं जानती थी कि वे शादी क्यों करना चाहते हैं. सिर्फ मेरी दौलत की खातिर. कुछ ऐसे हमउम्रों ने भी मुझ से विवाह की इच्छा व्यक्त की जो मेरे पद और प्रतिष्ठा से काफी कम थे. वे समाज में अपना रुतबा बढ़ाना चाहते थे अपनी बीवी को ढाल बना कर. ‘‘लेकिन आप को मेरी न तो दौलत की चाह है न पदप्रतिष्ठा की. आप मेरा साथ चाहते हैं लेकिन सिर्फ एक औरत के रूप में, पत्नी के रूप में नहीं.’’ यह सुन कर मेरी घिग्घी बंध गई. उन्होंने जो कुछ भी कहा था वह बिलकुल सच कहा था. वास्तव में वे नादान नहीं थीं. ‘‘शुभेंदुजी, झूठ नहीं बोलूंगी, पहली बार जब अपने केबिन में आप को देखा था और आप ने अपनी पत्नी के विषय में बताया था तो मुझे ऐसा लगा था जैसे आप का और मेरा दर्द एकजैसा है, एकजैसी समस्याएं हैं. तभी से मेरे मन में आप के प्रति कुछ सुप्त भावनाएं जाग उठी थीं. इसलिए मैं ने आप को अपने यहां पेइंगगैस्ट के लिए कहा था. आप सोच रहे होंगे कि यह कैसी औरत है? शुभेंदुजी, औरत सिर्फ देह नहीं होती, एक मन भी होती है जहां उस के ढेरों सपने, इच्छाएं और जज्बात महफूज रहते हैं.

‘‘पर कभीकभी वह इन सपनों, भावनाओं और इच्छाओं को साकार करने और कुछ खास पाने की चाहत करने लगती है. अगर यह चाहत अनैतिक तरीके से पूरी होती है तो सारी जिंदगी आत्मग्लानि और अपराधबोध की भावना पनपती रहती है और अगर यही चाहत पूरी निष्ठा व पवित्रता से हासिल की जाती है तो वह औरत के जीवन का सब से सुंदर और अविस्मरणीय क्षण बन जाता है. ‘‘इसी विशुद्ध चाहत की खातिर मैं ने खुद बाबूजी से आप का जिक्र किया था. लेकिन आप की मंशा और नीयत को मैं ही नहीं, बाबूजी भी भांप गए थे. लेकिन मैं आप को बता देना चाहती हूं कि मैं सिर्फ एक औरत बन कर आप का साथ नहीं दे सकती चाहे कितनी भी कमजोर क्यों न पड़ जाऊं.’’ ‘‘अपूर्वाजी, सत्यता यह है कि मैं अपनी पत्नी को बेहद प्यार करता था और उस के वचन का मान रखना चाहता हूं. बेटेबहू और लोग क्या कहेंगे, यह सोच कर भी मैं हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूं.’’

‘‘शुभेंदुजी, औरत जिस से प्यार करती है, पूरी निष्ठा से करती है. वह बहुत ही भावुक, कोमल और संवेदनशील होती है. भावात्मक और अंतरंग क्षणों में अपने प्रिय से सिर्फ यही चाहती है, मांगती है कि वह सारी जिंदगी सिर्फ उस का हो कर ही रहे लेकिन उस वक्त यथार्थ से वह कोसों दूर होती है. इसी तरह आप की पत्नी भी आप को वचन से बांध गईं. लेकिन उन्होंने यह नहीं सोचा कि उन के न रहने पर उन के जीवनसाथी को कितने दुख, अकेलापन, तनाव झेलने के साथसाथ अनेक मानसिक एवं शारीरिक समस्याओं से जूझना पड़ेगा. इस तरह के वचन में बांधना, यह उन का प्यार नहीं, बल्कि एक ईर्ष्याभाव था कि दूसरी औरत उन के पति को छीन लेगी. जीतेजी तो यह चाहत ठीक है लेकिन मरने के बाद ऐसी चाहत क्यों?

‘‘मैं भी अपने पति से बहुत प्यार करती थी, दिल की गहराइयों से चाहती थी और अंतरंग क्षणों में उन से कहती भी थी, ‘अरुण, आप सिर्फ मेरे हो. मेरे रहते अगर किसी दूसरी औरत के बारे में सोचा भी तो जान दे दूंगी अपनी. लेकिन मेरे मरने के बाद आप दूसरी शादी जरूर कर लेना क्योंकि मैं नहीं चाहती कि आप मेरे बाद अकेलापन भोगने के साथसाथ तमाम समस्याओं से जूझें.’ ‘‘वे सिर्फ मुसकरा देते थे लेकिन कहते कुछ नहीं थे. पर वक्त की बात है. मुझे अकेले छोड़ कर चले गए. आखिरी वक्त उन्होंने पहली बार यह कहा था, ‘अपूर्वा, मैं तुम्हें जान से भी ज्यादा प्यार करता हूं लेकिन तुम शादी जरूर कर लेना क्योंकि मैं तुम से सच्चा प्यार करता हूं और सच्चा प्यार करने वाले कभी नहीं चाहते कि उन के जाने के बाद उन का जीवनसाथी दुखदर्द झेले.’ ‘‘वे जा चुके थे. मैं पत्थर बन गई थी, समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं. लेकिन धीरेधीरे जीवन रूटीन पर आने लगा और मैं इतने बड़े दुख से उबर कर संभल गई. और फिर से औफिस जौइन कर लिया.

‘‘ऐसा नहीं है कि मैं उन की इच्छा पूरी करने या उन की बात का मान रखने के लिए शादी करना चाहती हूं और यह भी नहीं है कि मैं ने उन्हें पूरी तरह भुला दिया है लेकिन शुभेंदुजी, हम ऊपर से जो सच और झूठ बोलते हैं उस के अलावा भी हमारे अंदर का एक सच होता है, वह कोई नहीं जानता, वह सिर्फ हम ही जानते हैं. वह सच होता है हमारे तनमन की इच्छाएं, जज्बात और तूफान जो प्राकृतिक हैं, कभी दबाए नहीं जा सकते. बेशक, हम उन्हें काबू में रखने के भरसक प्रयत्न करें, लेकिन कभीकभी वे बेकाबू हो ही जाते हैं तब उन के परिणाम खुद के लिए, समाज के लिए और परिवार के लिए बेहद घातक होते हैं. इस अप्रिय स्थिति से बचने के लिए हमें अपने अंदर के इस सच को स्वीकार कर लेना चाहिए.

‘‘आप का कहना है कि अगर हम ऐसा कर लेंगे तो समाज और लोग क्या कहेंगे? अरे, वे कुछ न कुछ तो कहेंगे ही क्योंकि उन का तो काम ही कहना है. अगर हम नहीं भी करेंगे तो भी वे कुछ कहेंगे. ‘‘आप सोच रहे होंगे, मैं एक औरत हो कर कैसी बातें कर रही हूं, ऐसी बातें औरत को शोभा नहीं देतीं. लेकिन औरत जब पुरुषों से बराबरी कर रही है, वाहन चला रही है, औफिस व व्यवसाय संभाल रही है तो अपनी बात खुल कर क्यों नहीं कर सकती? ‘‘मैं सच बोलने से नहीं झिझकती. तनहाइयों में अकसर मेरे अंदर का सच मुझ पर हावी हो जाता है और मुझे बहुत मुश्किल, परेशानी, उलझनों व समस्याओं से जूझना पड़ता है. इन्हीं सब को मेरी युवा बेटी और अनुभवी पिता समझते हैं. और मुझ से दूसरी शादी करने के लिए कहते हैं.

‘‘अगर आप के बेटेबहू भी आप के अकेलेपन, तनाव और निजी समस्याओं को दिल से महसूस करते होंगे तो वे भी आप को यही सलाह देंगे.’’ तभी मेरा मोबाइल घनघना उठा. आस्ट्रेलिया से बहू का फोन था, ‘‘पापा, आप सारी जिंदगी इस तरह अकेले कैसे रहोगे? यह सोच कर मैं और सनी बेहद परेशान रहते हैं. इस समस्या का हल मेरी अमेरिका वाली फ्रैंड अक्षरा ने बताया है. उस ने अपनी विडो मौम का रिश्ता आप के लिए सुझाया है. आप उन से मिल लेना. उन का नाम अपूर्वा है. वे दिल्ली में बैंक की जोनल मैनेजर हैं. उन का पता आप को ईमेल कर दिया है. बात बन जाए तो प्लीज पापा, अपनी शादी में बुलाना न भूलना,’’ वह मुसकरा कर बोली तो मैं अचंभित हो उठा. मेरे बेटेबहू मेरे बारे में इतना सोचते हैं और मैं व्यर्थ ही परेशान था.

तभी थोड़ी देर बाद अपूर्वा का भी मोबाइल बज उठा. अमेरिका से उन की बेटी का फोन था. उस ने भी अपनी मां से वही कहा जो मेरी बहू ने मुझ से कहा. हम दोनों हैरानी से एकदूसरे को देखने लगे. यह सब भी अजीब संयोग था. हमारे बच्चे भी हमारे एक होने के बारे में सोच रहे थे. कौन कहता है आजकल के बच्चे अपने मांबाप की फीलिंग्स नहीं समझते, उन की केयर नहीं करते. मांबाप के पैर दबाने और उन की आज्ञा का पालन करने वाले बच्चे ही सिर्फ संस्कारी नहीं होते. अपने पेरैंट्स की प्रौब्लम्स, उन की निजी समस्याओं को समझने व उन के सुखदुख शेयर करने वाले हजारों मील दूर बैठे बच्चे भी स्मार्ट और संस्कारी होते हैं  बातोंबातों में रात कब गुजर गई, पता ही नहीं चला. अपूर्वा अपने कमरे में जाने लगी तो मैं ने कहा, ‘‘अपूर्वा, अपने बेटेबहू को क्या जवाब दूं मैं?’’

‘‘यही सवाल मैं आप से पूछती हूं, मैं अपनी बेटी से क्या कहूं?’’ अपनेअपने सवाल पर हम दोनों खुल कर हंस पड़े. मैं मुसकरा कर बोला, ‘‘मैं अपनी बेटी से बात करूंगा और तुम अपने बेटेबहू से बात करना और हां, बहू को विश जरूर करना वह जल्दी ही तुम्हें दादी बनाने वाली है.’’ यह सुन कर अपूर्वा थोड़ा लजा गई, ‘‘बाबूजी को यह खुशखबरी दे कर, हम अपने जीवन की एक नई शुरुआत करेंगे,’’ कहते हुए वे मेरे सीने से लग गई और मैं ने उसे अपनी बांहों के मजबूत घेरे में कैद कर लिया.

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January 01, 2021 at 10:00AM