Thursday 31 December 2020

हैप्पी न्यू ईयर – भाग 1 : पिंटू के घर से जानें के बाद क्या बदलाव आया

लेखिक : डा. मंजू सिन्हा

पिंटू को अपने बेटे की तरह पाला था मीरा ने. बहन होते हुए मां की तरह अपना कर्तव्यपालन किया था, जिस का फल मीरा को देर से मिला. पर क्या वह फल मीठा था?

डाकिए ने अपनी साइकिल की घंटी जोर से टनटनाई. उस की इस आदत से मु झे चिढ़ सी है. वह तब तक घंटी बजाता रहता है जब तक कि कोई गेट पर जा कर उस से चिट्ठियां न ले ले. मैं ने कितनी बार उसे सम झाया है कि तुम चिट्ठियां गेट के भीतर डाल दिया करो, लेकिन वह मानता ही नहीं.

एक दिन जब नाराज हो कर मैं ने उस से कहा था कि तुम्हारी यह आदत किसी दिन मेरी टांग तुड़वा कर रहेगी, भागती हुई आती हूं, तो उस ने हंस कर कहा था, ‘मैं आ कर सेवा करूंगा, मांजी. गेट के भीतर किसी लावारिस बच्चे की तरह चिट्ठियों को छोड़ जाना भला अच्छा लगता है? कोई उठा ले, हवा में उड़ जाएं या बारिश में भीग जाएं, तो? मैं कब से कहता हूं कि एक लेटरबौक्स टांग दीजिए.’

मैं ने उसे  झिड़कते हुए कहा था, ‘कभीकभार तो कोई चिट्ठी आती है, उस के लिए रुपए खर्च कर के लैटरबौक्स टांग दूं?’

‘‘मांजी, लीजिए, आज 3 न्यू ईयर ग्रीटिंग्स लाया हूं,’’ कह कर उस ने चिट्ठियां मेरे हाथ में रखीं और नमस्ते मांजी कहता हुए पड़ोसियों के गेट की ओर बढ़ गया था. मेरे मन के भीतर का चोर फुसफुसाया, लो, आ गई न भाईभावज की चिट्ठी. तुम कहती थीं अब तुम्हारा पिंटू से कोई रिश्ता ही नहीं रहा. अब क्या कहोगी? मैं सोचसोच कर मन ही मन खुश हुई जा रही थी, चलो, मेरे लाड़ले को अपनी भूल का एहसास तो हुआ. मैंने मुसकरा कर अपने मन के चोर को  झड़का, चुप रहो. अपनों से भला कोई कब तक रूठ सकता है? मैं ने तो गुस्से में कह दिया था कि पिंटू से मेरा कोई वास्ता नहीं. गुस्से में तो आदमी क्याक्या नहीं बोल जाता है. मैं ने तेजी से गेट बंद कर दिया और भीतर आ गई.

बरामदे में रखे सोफे पर बैठ कर मैं ने पहला लिफाफा खोला. मेरे कर्नाटक वाले दोस्त ने भेजा था. उस की पत्नी हर साल मु झे न्यू ईयर ग्रीटिंग भेजती है. ये लोग कभीकभार मु झे चिट्ठियां भी लिखते रहते हैं.

मैं ने दूसरा लिफाफा खोला. दिल्ली से गुडि़या ने ग्रीटिंग भेजा था, स्नेहिल शब्दों में ढेर सारी शुभकामनाएं.

दिल की धड़कनों को बड़ी मुश्किल से संभाल कर मैं ने तीसरा लिफाफा खोला. ‘शुभकामनाओं के साथ’ शाहिद कमाल का नाम पढ़ कर मन की खुशी गुब्बारे की हवा की तरह फुस्स कर के निकल गई. कोई और दिन होता तो मैं कितना खुश होती अपनी धोबिन सकीना के इंजीनियर बेटे शाहिद का न्यू ईयर कार्ड पा कर. अपने इसी घर में रख कर मैं ने उसे पढ़ायालिखाया था. पर आज मैं बहुत उदास हुई. मेरा यह दुख, यह दर्द बहुआयामी था. एक तो पिंटू की कोई चिट्ठी नहीं आई. फिर उस की नकचढ़ी बीवी का बरताव और उस पर से बूढ़े अम्माबाबूजी के हमेशा यह पूछते रहने के बारे में सोच कर कि ‘पिंटू की कोई चिट्ठी आई? उस का फोन आया? उस की पत्नी अपने मायके आई थी? मोतिहारी से मुजफ्फरपुर गए बिना तो जबलपुर की गाड़ी मिलेगी नहीं, क्या वह तुम से मिले बिना चली गई?’ आदि न जाने कितनी बातें सोचती रही.

मुझे बेचैनी होने लगी. लगा, जैसे दम घुट रहा हो. नीलू नाम की एक महिला दमे की मरीज हैं, उन की पीड़ा कई बार मैं ने अपनी आंखों से देखी है. उन्हें ऐसी ही छटपटाहट, ऐसी ही बेचैनी रहती है. कहीं मु झे भी दमे का अटैक तो नहीं हुआ है? मैं ने खुद से सवाल किया. मन के भीतर से आवाज आई, दमावमा कुछ नहीं है, यह अपनों का दिया दर्द है. पराए तो यों ही बदनाम हैं, अपनों का दिया घाव न इस करवट चैन लेने देता है न उस करवट. पिंटू को तुम ने अपने बेटे की तरह पालापोसा, पढ़ायालिखाया. आज उस के लिए उस का ससुराल ही घरपरिवार हो गया है. बस, यही कष्ट है तुम को. उठो, हिम्मत करो.

मैं उठ कर खड़ी हो गईर्. बरामदा पार कर डाइनिंग हौल में आई. फ्रिज खोल कर ठंडा पानी निकाला. उस में थोड़ी सी इलायची की बुकनी डाली और गटागट पी गई. फिर दूसरा गिलास तैयार किया और उसे भी पी गई. मु झे खुद पर आश्चर्य हो रहा था. मैं गरमी में भी एक गिलास से ज्यादा पानी नहीं पी पाती थी और आज इतनी ठंड में भी 2 गिलास पानी पी गई.

तभी फोन की घंटी घनघना उठी. मैं ने रिसीवर उठाया. मेरे पति का फोन था. ‘‘मैं आज जरा देर से आऊंगा, लगभग 10 बजे तक. आप चिंता न करें, इसलिए फोन कर दिया. औफिस में आज नए साल की पूर्र्व संध्या पर एक पार्टी है.’’

मैं ने घड़ी की ओर देखा, 2 बज कर 10 मिनट हुए थे. क्या करूं? वापस जा कर गेट बंद किया. बरामदे का दरवाजा बंद कर, कुंडी लगा दी. बैडरूम में आ गई. लता के दर्दीले गानों का कैसेट लगाया. कमरे में ‘आ जा रे, मैं तो कब से खड़ी इस पार, ये अखियां थक गईं पंथ निहार, आ जा रे…’ की मधुर धुन बिखर गई. कालेज में जब भी कोई टैंशन होती है, मैं घर आ कर यही कैसेट सुनती रहती हूं. जाने कौन सा नाता है इन गीतों से. बड़े अपने से लगते हैं.

मैं पलंग पर तकिए के सहारे लेट गई. गीत की धुन पर मेरे प्राण भी किसी को ‘आ जा रे, आ जा रे’ पुकार रहे थे. पर पिंटू तो सार्वजनिक संपत्ति है, जिसे भ्रमवश मैं अपना मान बैठी थी. सभी बहनों का भाई. अपनी भावनाशून्य बीवी का पति, अपने फ्रौड साले का बहनोई, अपनी मायावी मौसिया सास का दामाद, वह भला मेरा कहां रहा? क्यों उसे याद करता है यह पागल मन? फिर मन अतीत की गहराइयों में खोता चला गया.

बाबूजी के सीबीआई द्वारा ट्रैप किए जाने की बुरी खबर टीवी पर आई थी. मेरे सीधेसादे बाबूजी को आर्थिक अनियमितताओं के बेतुके आरोप में फंसाया गया था. उस घटना को सोच कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

बिना अपना नफानुकसान सोचे, बिना किसी स्वार्थ के मैं भागी हुई गरीबां चली आई थी. आंचल में मां के सारे आंसू और 3 छोटे भाईबहनों को समेट लाई थी. अपने 3 बच्चों एवं 3 भाईबहनों को मैं ने एकसाथ पालना शुरू कर दिया था. बहनें तो ब्याह कर अपनी ससुराल चली गईं लेकिन भाई को तो बिरवा से वृक्ष बनने में अभी देर थी.

उस ने हाईस्कूल पास किया, इंटर पास किया, बीएससी में इलैक्ट्रौनिक लेने की मासूम सी जिद की. उस समय मुजफ्फरपुर जैसे शहर में इस विषय को लोग अलादीन का चिराग सम झते थे. भयानक अफरातफरी मची थी और सीटें थीं मात्र 14. कई बार हिम्मत जवाब दे जाती लेकिन जब पिंटू की भोली आंखें मेरी तरफ प्रश्नवाचक भाव से निहारतीं तो मैं उसे अपनी असमर्थता नहीं बता पाती.

मन में लाखों आशंकाएं लिए मैं स्थानीय विधायक के दरबार में गई. बाप रे, वहां इतनी भीड़ थी कि आदमी की चमड़ी उधड़ जाए. धक्कमधुक्का, मारामारी लगी थी और बाहुबली विधायक एक राजा की तरह सिंहासनारूढ़ हो कर फरियादियों की फरियाद सुनता. क्षणभर में ही दूसरा फरियादी पहले को धकिया कर आगे कर देता. मैं तो हिम्मत ही हार गई. घबरा कर एक कोने में बैठ गई. तभी विधायक का एक चमचा मेरी ओर आया और उस ने पूछा, ‘आप प्रोफैसर मीरा हैं न?’ मैं ने ‘जी हां’ कहा तो  झट बोला, ‘अरे, तब बैठी क्यों हैं, आइए, हम आप को विधायकजी से मिलवा देते हैं.’

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लेखिक : डा. मंजू सिन्हा

पिंटू को अपने बेटे की तरह पाला था मीरा ने. बहन होते हुए मां की तरह अपना कर्तव्यपालन किया था, जिस का फल मीरा को देर से मिला. पर क्या वह फल मीठा था?

डाकिए ने अपनी साइकिल की घंटी जोर से टनटनाई. उस की इस आदत से मु झे चिढ़ सी है. वह तब तक घंटी बजाता रहता है जब तक कि कोई गेट पर जा कर उस से चिट्ठियां न ले ले. मैं ने कितनी बार उसे सम झाया है कि तुम चिट्ठियां गेट के भीतर डाल दिया करो, लेकिन वह मानता ही नहीं.

एक दिन जब नाराज हो कर मैं ने उस से कहा था कि तुम्हारी यह आदत किसी दिन मेरी टांग तुड़वा कर रहेगी, भागती हुई आती हूं, तो उस ने हंस कर कहा था, ‘मैं आ कर सेवा करूंगा, मांजी. गेट के भीतर किसी लावारिस बच्चे की तरह चिट्ठियों को छोड़ जाना भला अच्छा लगता है? कोई उठा ले, हवा में उड़ जाएं या बारिश में भीग जाएं, तो? मैं कब से कहता हूं कि एक लेटरबौक्स टांग दीजिए.’

मैं ने उसे  झिड़कते हुए कहा था, ‘कभीकभार तो कोई चिट्ठी आती है, उस के लिए रुपए खर्च कर के लैटरबौक्स टांग दूं?’

‘‘मांजी, लीजिए, आज 3 न्यू ईयर ग्रीटिंग्स लाया हूं,’’ कह कर उस ने चिट्ठियां मेरे हाथ में रखीं और नमस्ते मांजी कहता हुए पड़ोसियों के गेट की ओर बढ़ गया था. मेरे मन के भीतर का चोर फुसफुसाया, लो, आ गई न भाईभावज की चिट्ठी. तुम कहती थीं अब तुम्हारा पिंटू से कोई रिश्ता ही नहीं रहा. अब क्या कहोगी? मैं सोचसोच कर मन ही मन खुश हुई जा रही थी, चलो, मेरे लाड़ले को अपनी भूल का एहसास तो हुआ. मैंने मुसकरा कर अपने मन के चोर को  झड़का, चुप रहो. अपनों से भला कोई कब तक रूठ सकता है? मैं ने तो गुस्से में कह दिया था कि पिंटू से मेरा कोई वास्ता नहीं. गुस्से में तो आदमी क्याक्या नहीं बोल जाता है. मैं ने तेजी से गेट बंद कर दिया और भीतर आ गई.

बरामदे में रखे सोफे पर बैठ कर मैं ने पहला लिफाफा खोला. मेरे कर्नाटक वाले दोस्त ने भेजा था. उस की पत्नी हर साल मु झे न्यू ईयर ग्रीटिंग भेजती है. ये लोग कभीकभार मु झे चिट्ठियां भी लिखते रहते हैं.

मैं ने दूसरा लिफाफा खोला. दिल्ली से गुडि़या ने ग्रीटिंग भेजा था, स्नेहिल शब्दों में ढेर सारी शुभकामनाएं.

दिल की धड़कनों को बड़ी मुश्किल से संभाल कर मैं ने तीसरा लिफाफा खोला. ‘शुभकामनाओं के साथ’ शाहिद कमाल का नाम पढ़ कर मन की खुशी गुब्बारे की हवा की तरह फुस्स कर के निकल गई. कोई और दिन होता तो मैं कितना खुश होती अपनी धोबिन सकीना के इंजीनियर बेटे शाहिद का न्यू ईयर कार्ड पा कर. अपने इसी घर में रख कर मैं ने उसे पढ़ायालिखाया था. पर आज मैं बहुत उदास हुई. मेरा यह दुख, यह दर्द बहुआयामी था. एक तो पिंटू की कोई चिट्ठी नहीं आई. फिर उस की नकचढ़ी बीवी का बरताव और उस पर से बूढ़े अम्माबाबूजी के हमेशा यह पूछते रहने के बारे में सोच कर कि ‘पिंटू की कोई चिट्ठी आई? उस का फोन आया? उस की पत्नी अपने मायके आई थी? मोतिहारी से मुजफ्फरपुर गए बिना तो जबलपुर की गाड़ी मिलेगी नहीं, क्या वह तुम से मिले बिना चली गई?’ आदि न जाने कितनी बातें सोचती रही.

मुझे बेचैनी होने लगी. लगा, जैसे दम घुट रहा हो. नीलू नाम की एक महिला दमे की मरीज हैं, उन की पीड़ा कई बार मैं ने अपनी आंखों से देखी है. उन्हें ऐसी ही छटपटाहट, ऐसी ही बेचैनी रहती है. कहीं मु झे भी दमे का अटैक तो नहीं हुआ है? मैं ने खुद से सवाल किया. मन के भीतर से आवाज आई, दमावमा कुछ नहीं है, यह अपनों का दिया दर्द है. पराए तो यों ही बदनाम हैं, अपनों का दिया घाव न इस करवट चैन लेने देता है न उस करवट. पिंटू को तुम ने अपने बेटे की तरह पालापोसा, पढ़ायालिखाया. आज उस के लिए उस का ससुराल ही घरपरिवार हो गया है. बस, यही कष्ट है तुम को. उठो, हिम्मत करो.

मैं उठ कर खड़ी हो गईर्. बरामदा पार कर डाइनिंग हौल में आई. फ्रिज खोल कर ठंडा पानी निकाला. उस में थोड़ी सी इलायची की बुकनी डाली और गटागट पी गई. फिर दूसरा गिलास तैयार किया और उसे भी पी गई. मु झे खुद पर आश्चर्य हो रहा था. मैं गरमी में भी एक गिलास से ज्यादा पानी नहीं पी पाती थी और आज इतनी ठंड में भी 2 गिलास पानी पी गई.

तभी फोन की घंटी घनघना उठी. मैं ने रिसीवर उठाया. मेरे पति का फोन था. ‘‘मैं आज जरा देर से आऊंगा, लगभग 10 बजे तक. आप चिंता न करें, इसलिए फोन कर दिया. औफिस में आज नए साल की पूर्र्व संध्या पर एक पार्टी है.’’

मैं ने घड़ी की ओर देखा, 2 बज कर 10 मिनट हुए थे. क्या करूं? वापस जा कर गेट बंद किया. बरामदे का दरवाजा बंद कर, कुंडी लगा दी. बैडरूम में आ गई. लता के दर्दीले गानों का कैसेट लगाया. कमरे में ‘आ जा रे, मैं तो कब से खड़ी इस पार, ये अखियां थक गईं पंथ निहार, आ जा रे…’ की मधुर धुन बिखर गई. कालेज में जब भी कोई टैंशन होती है, मैं घर आ कर यही कैसेट सुनती रहती हूं. जाने कौन सा नाता है इन गीतों से. बड़े अपने से लगते हैं.

मैं पलंग पर तकिए के सहारे लेट गई. गीत की धुन पर मेरे प्राण भी किसी को ‘आ जा रे, आ जा रे’ पुकार रहे थे. पर पिंटू तो सार्वजनिक संपत्ति है, जिसे भ्रमवश मैं अपना मान बैठी थी. सभी बहनों का भाई. अपनी भावनाशून्य बीवी का पति, अपने फ्रौड साले का बहनोई, अपनी मायावी मौसिया सास का दामाद, वह भला मेरा कहां रहा? क्यों उसे याद करता है यह पागल मन? फिर मन अतीत की गहराइयों में खोता चला गया.

बाबूजी के सीबीआई द्वारा ट्रैप किए जाने की बुरी खबर टीवी पर आई थी. मेरे सीधेसादे बाबूजी को आर्थिक अनियमितताओं के बेतुके आरोप में फंसाया गया था. उस घटना को सोच कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

बिना अपना नफानुकसान सोचे, बिना किसी स्वार्थ के मैं भागी हुई गरीबां चली आई थी. आंचल में मां के सारे आंसू और 3 छोटे भाईबहनों को समेट लाई थी. अपने 3 बच्चों एवं 3 भाईबहनों को मैं ने एकसाथ पालना शुरू कर दिया था. बहनें तो ब्याह कर अपनी ससुराल चली गईं लेकिन भाई को तो बिरवा से वृक्ष बनने में अभी देर थी.

उस ने हाईस्कूल पास किया, इंटर पास किया, बीएससी में इलैक्ट्रौनिक लेने की मासूम सी जिद की. उस समय मुजफ्फरपुर जैसे शहर में इस विषय को लोग अलादीन का चिराग सम झते थे. भयानक अफरातफरी मची थी और सीटें थीं मात्र 14. कई बार हिम्मत जवाब दे जाती लेकिन जब पिंटू की भोली आंखें मेरी तरफ प्रश्नवाचक भाव से निहारतीं तो मैं उसे अपनी असमर्थता नहीं बता पाती.

मन में लाखों आशंकाएं लिए मैं स्थानीय विधायक के दरबार में गई. बाप रे, वहां इतनी भीड़ थी कि आदमी की चमड़ी उधड़ जाए. धक्कमधुक्का, मारामारी लगी थी और बाहुबली विधायक एक राजा की तरह सिंहासनारूढ़ हो कर फरियादियों की फरियाद सुनता. क्षणभर में ही दूसरा फरियादी पहले को धकिया कर आगे कर देता. मैं तो हिम्मत ही हार गई. घबरा कर एक कोने में बैठ गई. तभी विधायक का एक चमचा मेरी ओर आया और उस ने पूछा, ‘आप प्रोफैसर मीरा हैं न?’ मैं ने ‘जी हां’ कहा तो  झट बोला, ‘अरे, तब बैठी क्यों हैं, आइए, हम आप को विधायकजी से मिलवा देते हैं.’

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January 01, 2021 at 10:00AM

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