Thursday 31 December 2020

हैप्पी न्यू ईयर – भाग 3 : पिंटू के घर से जानें के बाद क्या बदलाव आया

लेखिक : डा. मंजू सिन्हा

2 साल तक यही सिलसिला चलता रहा. कभी लिखित धोखा दे जाता, कभी मौखिक गड़बड़ हो जाता. एकाध बार इन्होंने कहा, ‘हमेशा पैसों की बरबादी.’ मैं ने दर्द से कराहते हुए कहा, ‘मछुआरा हर बार जाल फेंकता है, लहरें हमेशा तो उस का साथ नहीं देतीं.’ चिढ़ कर इन्होंने कहा था, ‘जेब तो मेरी खाली होती है न? कर्ज ले कर घर बना रहा हूं, उस में से हर माह हजारदोहजार…’ मेरे आंसू निकल पड़े.

अचानक सबकुछ बदल गया. एक सरकारी टैलीग्राम ने घर में खुशियों की बौछार कर दी. मेरा भाई पदाधिकारी हो गया था. जमानत के तौर पर मेरे हस्ताक्षर एवं सरकार को 2 लाख रुपए किसी भी क्षण क्षतिपूर्ति के तौर पर लौटा सकने की क्षमता का प्रमाणपत्र उसे चाहिए था. मैं ने जमीन एवं मकान का कागज लिया, नगरनिगम कार्यालय, जिलाधिकारी कार्यालय का चक्कर लगाया तब कहीं जा कर चौथे दिन कागजात मिले. मैं ने एक माह का खर्च उस की जेब में रखा तो उस ने अश्रुपूरित नेत्रों से निहारते हुए मु झे अपनी बांहों में भर कर कहा, ‘दीदी, तुम जन्मजन्मों से मेरी मां हो.’

‘हां रे हां. चल हट. जातेजाते भी रुलाएगा क्या?’ कह कर मैं ने अपने आंसू पोंछ लिए.

6 महीने के अंदर ही सास और ससुर दोनों का देहांत हो गया. पिंटू के जाने के बाद घर यों ही खालीखाली सा लगता था. सासससुर के मरने के बाद तो घर जैसे वीरान हो गया. अब शुरू हुआ पिंटू के लिए रिश्तों का आना. रोज कहीं न कहीं से कोई रिश्ता ले कर आ जाता और लड़की की तसवीरें, कुंडली, बायोडाटा दे कर चला जाता.

लड़की वालों से मैं ने कह दिया, ‘गांव जाइए, वहां मेरे मांबाप से मिलिए…’ मांबाबूजी साफ कहते, ‘जो करना है, तुम करो. हमें तुम्हारा फैसला मंजूर है…’ लेकिन भाई की रुचि बड़ी कलात्मक थी. उसे तो शांति निकेतन में चित्रकार या मूर्तिकार होना चाहिए था. मेरी परिचिता, जिसे वर्षों से मैं ‘दीदी’ का प्यारभरा, अधिकारभरा संबोधन देती आ रही थी, उन्होंने अपनी दीदी की बेटी का जिक्र किया और शादी के लिए मनुहार भी. मैं ने उन की हथेली थाम कर कहा, ‘दीदी, आप की मैं बड़ी इज्जत करती हूं, इस रिश्ते को पक्का समझिए.’

शगुन हुआ, फलदान हुआ. मेरे पति, जिन्होंने मेरे भाई के लिए पिता की तरह कर्तव्यपालन किया था, फलदान में यों उपेक्षित हुए जैसे उन का होना न होना कोई अर्थ नहीं रखता हो. वर पक्ष वालों के लिए न सूट, न चादर, न रूमाल, न उपहार. मैं ने मन को डांट दिया, ‘बेचारे किसकिस को कपड़े देते? छोड़ो भी…’

तिलक हुआ, अम्मा के लिए साड़ी नहीं, मानो आग में घी पड़ गया. सारे गांव में थुक्काफजीहत मची, ‘बेटी ने बुढ़ापे में अम्मा को उपेक्षित कर डाला. लड़की वालों ने बेटे की मां को एक साड़ी तक नहीं दी, छी… छी… दहेज को मारो गोली, पर रस्मरिवाज तो जरूरी हैं, कैसे लोगों के घर रिश्ता तय किया है आप की लाड़ली ने?’

मैं ने ग्रामीण महिलाओं के अंधतर्कों से लड़ना बेकार सम झा. पंचायत भवन गई, फोन मिलाया और रेणु दी से कहा, ‘एक हजार रुपए की औकात क्या है, दीदी? एक मामूली सी साड़ी और बाबूजी के लिए जोड़ी कुरताधोती आप कल किसी के हाथों भेज दें वरना अम्मा का असहयोग विद्रोह का रूप ले लेगा…’ उधर से रेणु दी ने निश्ंिचतभाव से कहा, ‘गलती हो गई, बहन. यह तो मामूली सी बात थी. मैं कल ही भेज दूंगी.’

 

अम्मा सीधीसादी महिला ठहरीं. बच्चों की तरह  झट मान गईं. खुशीखुशी सारी रस्में पूरी करतीं और सहेलियों से कहतीं, ‘भूल गए बेचारे. बेटी वाले क्या करें? भूलचूक तो होती ही है.’

बरात जाने को 2 दिन रह गए पर सौगात नदारद. अम्मा कभी मु झे कोसतीं, कभी स्वयं रोने लगतीं, ‘हाय, मैं तो पूरे गांव में बेइज्जत हो गई. बेटा जनने का कौन सा सुख मिला मु झे?’ कोई धीरे से कहती, ‘साड़ी, पैसा सब तो बेटी ने दलाली खा ली, मां को क्या मिलेगा?’

मैं फूटफूट कर रोने लगी. हमारी बेबसी, मूर्खता और लोगों की तानाकशी को सुनसुन कर इन्होंने कहा, ‘चलिए, हम लोग शहर से खुद ही साड़ीवाड़ी ला कर मां को दे दें.’ मैं नल पर जा कर हाथमुंह धोने लगी. तभी किसी की आवाज आई, ‘अब ऐसा भी सतयुग नहीं आया है, बहनजी. दाल में जरूर कुछ काला है,  तभी तो मोतिहारी जा कर कपड़ा लाने का प्रोग्राम बन गया है… दलाली का रंग देखिए.’

फिर मैं ने यहां की स्थिति बताने के लिए रेणु दी को फोन किया.

फोन पर रेणु दी गरज उठीं, ‘आप लालची लोग हैं. हम कुछ नहीं भेजेंगे. कोई रस्मवस्म नहीं मानते हम. बरात तो लानी ही होगी आप को, वरना कोर्टकचहरी के लिए तैयार रहिए.’ एक तरफ कुआं दूसरी ओर खाई. पिंटू से कहती तो शादी टूट जाती. मां से कहना व्यर्थ था. कलेजे पर सिल रख ली.

शादी हो गई. दुलहन के आते ही कानाफूसियों का बाजार गरम हो गया. मैं सुबहसुबह मुजफ्फरपुर चली आई.

दिल्ली जाओ, बौंबे जाओ पर बिना मुजफ्फरपुर आए रास्ता कहां है उत्तरी बिहार में. पिंटू इसी रास्ते गया, पर मेरे घर नहीं आया. जितने मुंह उतनी बातें. ताने, छींटे, व्यंग्य, अपमान, बस, यही सब सहती रही. यही है भाईबहन का रिश्ता.

तभी घर की घंटी बजी, दरवाजा खोला तो ‘‘दीदी, दीदी, हैप्पी न्यू ईयर’’ का खिलखिलाता हुआ स्वर कानों में पड़ा. मेरी तंद्रा भंग हुई. पिंटू और उस की दुलहन ने मेरे पांव पर  झुक कर प्रणाम किया मु झ से आशीर्वाद मांग रहे थे.

‘‘युगयुग जीओ, फूलोफलो, सदा सुखी रहो. नित होली, नित दीवाली मनाते जीवन कट जाए. हंसीखुशी…’’ मैं कहती गई.

‘‘बस, बस, दीदी, कुछ अगले साल के लिए भी तो रखो,’’ पिंटू का स्वर था.

मैं खुश थी. बहुत खुश. सारे गिलेशिकवे जाने कहां गुम हो चुके थे.

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2 साल तक यही सिलसिला चलता रहा. कभी लिखित धोखा दे जाता, कभी मौखिक गड़बड़ हो जाता. एकाध बार इन्होंने कहा, ‘हमेशा पैसों की बरबादी.’ मैं ने दर्द से कराहते हुए कहा, ‘मछुआरा हर बार जाल फेंकता है, लहरें हमेशा तो उस का साथ नहीं देतीं.’ चिढ़ कर इन्होंने कहा था, ‘जेब तो मेरी खाली होती है न? कर्ज ले कर घर बना रहा हूं, उस में से हर माह हजारदोहजार…’ मेरे आंसू निकल पड़े.

अचानक सबकुछ बदल गया. एक सरकारी टैलीग्राम ने घर में खुशियों की बौछार कर दी. मेरा भाई पदाधिकारी हो गया था. जमानत के तौर पर मेरे हस्ताक्षर एवं सरकार को 2 लाख रुपए किसी भी क्षण क्षतिपूर्ति के तौर पर लौटा सकने की क्षमता का प्रमाणपत्र उसे चाहिए था. मैं ने जमीन एवं मकान का कागज लिया, नगरनिगम कार्यालय, जिलाधिकारी कार्यालय का चक्कर लगाया तब कहीं जा कर चौथे दिन कागजात मिले. मैं ने एक माह का खर्च उस की जेब में रखा तो उस ने अश्रुपूरित नेत्रों से निहारते हुए मु झे अपनी बांहों में भर कर कहा, ‘दीदी, तुम जन्मजन्मों से मेरी मां हो.’

‘हां रे हां. चल हट. जातेजाते भी रुलाएगा क्या?’ कह कर मैं ने अपने आंसू पोंछ लिए.

6 महीने के अंदर ही सास और ससुर दोनों का देहांत हो गया. पिंटू के जाने के बाद घर यों ही खालीखाली सा लगता था. सासससुर के मरने के बाद तो घर जैसे वीरान हो गया. अब शुरू हुआ पिंटू के लिए रिश्तों का आना. रोज कहीं न कहीं से कोई रिश्ता ले कर आ जाता और लड़की की तसवीरें, कुंडली, बायोडाटा दे कर चला जाता.

लड़की वालों से मैं ने कह दिया, ‘गांव जाइए, वहां मेरे मांबाप से मिलिए…’ मांबाबूजी साफ कहते, ‘जो करना है, तुम करो. हमें तुम्हारा फैसला मंजूर है…’ लेकिन भाई की रुचि बड़ी कलात्मक थी. उसे तो शांति निकेतन में चित्रकार या मूर्तिकार होना चाहिए था. मेरी परिचिता, जिसे वर्षों से मैं ‘दीदी’ का प्यारभरा, अधिकारभरा संबोधन देती आ रही थी, उन्होंने अपनी दीदी की बेटी का जिक्र किया और शादी के लिए मनुहार भी. मैं ने उन की हथेली थाम कर कहा, ‘दीदी, आप की मैं बड़ी इज्जत करती हूं, इस रिश्ते को पक्का समझिए.’

शगुन हुआ, फलदान हुआ. मेरे पति, जिन्होंने मेरे भाई के लिए पिता की तरह कर्तव्यपालन किया था, फलदान में यों उपेक्षित हुए जैसे उन का होना न होना कोई अर्थ नहीं रखता हो. वर पक्ष वालों के लिए न सूट, न चादर, न रूमाल, न उपहार. मैं ने मन को डांट दिया, ‘बेचारे किसकिस को कपड़े देते? छोड़ो भी…’

तिलक हुआ, अम्मा के लिए साड़ी नहीं, मानो आग में घी पड़ गया. सारे गांव में थुक्काफजीहत मची, ‘बेटी ने बुढ़ापे में अम्मा को उपेक्षित कर डाला. लड़की वालों ने बेटे की मां को एक साड़ी तक नहीं दी, छी… छी… दहेज को मारो गोली, पर रस्मरिवाज तो जरूरी हैं, कैसे लोगों के घर रिश्ता तय किया है आप की लाड़ली ने?’

मैं ने ग्रामीण महिलाओं के अंधतर्कों से लड़ना बेकार सम झा. पंचायत भवन गई, फोन मिलाया और रेणु दी से कहा, ‘एक हजार रुपए की औकात क्या है, दीदी? एक मामूली सी साड़ी और बाबूजी के लिए जोड़ी कुरताधोती आप कल किसी के हाथों भेज दें वरना अम्मा का असहयोग विद्रोह का रूप ले लेगा…’ उधर से रेणु दी ने निश्ंिचतभाव से कहा, ‘गलती हो गई, बहन. यह तो मामूली सी बात थी. मैं कल ही भेज दूंगी.’

 

अम्मा सीधीसादी महिला ठहरीं. बच्चों की तरह  झट मान गईं. खुशीखुशी सारी रस्में पूरी करतीं और सहेलियों से कहतीं, ‘भूल गए बेचारे. बेटी वाले क्या करें? भूलचूक तो होती ही है.’

बरात जाने को 2 दिन रह गए पर सौगात नदारद. अम्मा कभी मु झे कोसतीं, कभी स्वयं रोने लगतीं, ‘हाय, मैं तो पूरे गांव में बेइज्जत हो गई. बेटा जनने का कौन सा सुख मिला मु झे?’ कोई धीरे से कहती, ‘साड़ी, पैसा सब तो बेटी ने दलाली खा ली, मां को क्या मिलेगा?’

मैं फूटफूट कर रोने लगी. हमारी बेबसी, मूर्खता और लोगों की तानाकशी को सुनसुन कर इन्होंने कहा, ‘चलिए, हम लोग शहर से खुद ही साड़ीवाड़ी ला कर मां को दे दें.’ मैं नल पर जा कर हाथमुंह धोने लगी. तभी किसी की आवाज आई, ‘अब ऐसा भी सतयुग नहीं आया है, बहनजी. दाल में जरूर कुछ काला है,  तभी तो मोतिहारी जा कर कपड़ा लाने का प्रोग्राम बन गया है… दलाली का रंग देखिए.’

फिर मैं ने यहां की स्थिति बताने के लिए रेणु दी को फोन किया.

फोन पर रेणु दी गरज उठीं, ‘आप लालची लोग हैं. हम कुछ नहीं भेजेंगे. कोई रस्मवस्म नहीं मानते हम. बरात तो लानी ही होगी आप को, वरना कोर्टकचहरी के लिए तैयार रहिए.’ एक तरफ कुआं दूसरी ओर खाई. पिंटू से कहती तो शादी टूट जाती. मां से कहना व्यर्थ था. कलेजे पर सिल रख ली.

शादी हो गई. दुलहन के आते ही कानाफूसियों का बाजार गरम हो गया. मैं सुबहसुबह मुजफ्फरपुर चली आई.

दिल्ली जाओ, बौंबे जाओ पर बिना मुजफ्फरपुर आए रास्ता कहां है उत्तरी बिहार में. पिंटू इसी रास्ते गया, पर मेरे घर नहीं आया. जितने मुंह उतनी बातें. ताने, छींटे, व्यंग्य, अपमान, बस, यही सब सहती रही. यही है भाईबहन का रिश्ता.

तभी घर की घंटी बजी, दरवाजा खोला तो ‘‘दीदी, दीदी, हैप्पी न्यू ईयर’’ का खिलखिलाता हुआ स्वर कानों में पड़ा. मेरी तंद्रा भंग हुई. पिंटू और उस की दुलहन ने मेरे पांव पर  झुक कर प्रणाम किया मु झ से आशीर्वाद मांग रहे थे.

‘‘युगयुग जीओ, फूलोफलो, सदा सुखी रहो. नित होली, नित दीवाली मनाते जीवन कट जाए. हंसीखुशी…’’ मैं कहती गई.

‘‘बस, बस, दीदी, कुछ अगले साल के लिए भी तो रखो,’’ पिंटू का स्वर था.

मैं खुश थी. बहुत खुश. सारे गिलेशिकवे जाने कहां गुम हो चुके थे.

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January 01, 2021 at 10:00AM

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