Thursday 31 December 2020

हैप्पी न्यू ईयर – भाग 2 : पिंटू के घर से जानें के बाद क्या बदलाव आया

लेखिक : डा. मंजू सिन्हा

मेरी बात सुनने के बाद विधायक ने ‘ऐडमिशन नहीं हो रहा है?’ ऐसे कहा जैसे किसी बच्चे से कोई कहता है, ‘टौफी का कागज नहीं खुल रहा है?’ उस ने फोन उठाया और वीसी से बात की, ‘बिहार में रहना है कि नहीं, वीसी महोदय? हमारा एक ठो ऐडमिशन है. नाम नोट कीजिए…’ और मु झ से बोला, ‘जाइए, डाक्टर साहब, आप का काम हो गया.’

पिंटू का ऐडमिशन हो गया था. पिंटू बहुत खुश था. और उसे खुश देख कर मैं भी बहुत खुश थी.

पिंटू धीरेधीरे बड़ा हो गया. सारा महल्ला, सारे परिचित उसे मेरा बेटा सम झते.

उस की खूबसूरती, उस की तेजस्विता, उस का भोलापन मेरे परिचितों, सहेलियों, रिश्तेदारों में चर्चा का विषय बन गया था. सभी कहते, ‘इतने सुंदर लड़के की जोड़ी मिलनी मुश्किल है.’ मैं धीरे से कहती, ‘बिहार में नहीं मिली तो पंजाब से ले आऊंगी अपने वीरे की दुलहन. पर जोड़ी तो मैं मिला कर ही रहूंगी. मां और बाबूजी का एकलौता सपना है यह. उसे तो हर हाल में पूरा करना है.’

उन दिनों मैं काफी उल झन से गुजर रही थी. गांव से सासससुर आ गए थे. दोनों ही बूढ़े थे. बीमार रहते थे. इलाज से एक ठीक होता, तब तक दूसरा बिस्तर पकड़ लेता. बेटे की बोर्डिंग की फीस एकाएक 36 हजार रुपए से  48 हजार रुपए सालाना हो गई. बेटियों की स्कूल ड्रैस हर 6 माह बाद छोटी हो जाती. फल, सब्जियों, दवाइयों की परिधि ढूंढ़ने की कोशिश कर रही थी.

अचानक एक सुबह ससुरजी ने चाय की प्याली हाथ में लेते हुए कहा था, ‘दुलहन, अब हम नहीं बचेंगे. बेटी, मेरी आखिरी ख्वाहिश है कि तुम लोगों का अपना मकान हो. उस में थोड़े से पेड़पौधे हों.’

रात में मैं ने इन से कहा तो ये क्षणभर को चुप हो गए. फिर कहा, ‘बाबूजी ने अपनी हड्डियां गला कर मेरे कैरियर को बनाया है. उन की यह इच्छा मैं हर हाल में पूरी करूंगा.’

घर बनाने का काम शुरू हुआ. एकाएक इतने खर्चे सिर पर आ गए कि हर वक्त पैसे की किल्लत रहने लगी. घर में कभी चीनी, कभी चाय तो कभी सब्जियां कम पड़ने लगीं.

अंतिम वर्ष में आतेआते पिंटू ने प्रतियोगी परीक्षाओं के फौर्म भरने शुरू कर दिए.

‘बाप रे, इतने महंगे फौर्म, कोई गरीब बच्चा कहां से लाएगा इतने पैसे?’ मैं ने एक दिन पिंटू से कहा तो वह हंस कर बोला, ‘काश, ये बातें सरकार सम झ सकती.’

जो कभी नहीं किया वह कर्म (पता नहीं कुकर्म या सद्कर्म) मैं ने किया. इन की जेब में हाथ डालती, पैसे निकालती और भाई की जेब में रख देती. फिर इत्मीनान से इन से कहती, ‘उसे अब बेंगलुरु जाना है, इंटरव्यू देने, कुछ पैसे दे देते तो…’ बिना एक भी शब्द बोले ये अलमारी खोलते, पैसे निकालते और मेरी हथेली पर रख देते. मैं गिनती, कभी हजार, कभी 12 सौ. उसे देने ले जाती तो वह कहता, ‘इतने पैसों का क्या करना?’ मैं कहती, ‘रख ले, फिर कोई फौर्म भर लेना या किसी दूसरे इंटरव्यू में काम आएंगे.’

4-5 इंटरव्यू में वह छंट गया. किसी बच्चे की तरह बिलखता वह मेरी छाती से लग जाता. मैं उसे भरोसा दिलाती, ‘उदास नहीं होते, बेटे. जो नौकरी तुम्हारे लिए है, वह तो तुम्हारा ही इंतजार कर रही होगी. वह कुरसी, वह जगह खाली होने दो.’

 

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लेखिक : डा. मंजू सिन्हा

मेरी बात सुनने के बाद विधायक ने ‘ऐडमिशन नहीं हो रहा है?’ ऐसे कहा जैसे किसी बच्चे से कोई कहता है, ‘टौफी का कागज नहीं खुल रहा है?’ उस ने फोन उठाया और वीसी से बात की, ‘बिहार में रहना है कि नहीं, वीसी महोदय? हमारा एक ठो ऐडमिशन है. नाम नोट कीजिए…’ और मु झ से बोला, ‘जाइए, डाक्टर साहब, आप का काम हो गया.’

पिंटू का ऐडमिशन हो गया था. पिंटू बहुत खुश था. और उसे खुश देख कर मैं भी बहुत खुश थी.

पिंटू धीरेधीरे बड़ा हो गया. सारा महल्ला, सारे परिचित उसे मेरा बेटा सम झते.

उस की खूबसूरती, उस की तेजस्विता, उस का भोलापन मेरे परिचितों, सहेलियों, रिश्तेदारों में चर्चा का विषय बन गया था. सभी कहते, ‘इतने सुंदर लड़के की जोड़ी मिलनी मुश्किल है.’ मैं धीरे से कहती, ‘बिहार में नहीं मिली तो पंजाब से ले आऊंगी अपने वीरे की दुलहन. पर जोड़ी तो मैं मिला कर ही रहूंगी. मां और बाबूजी का एकलौता सपना है यह. उसे तो हर हाल में पूरा करना है.’

उन दिनों मैं काफी उल झन से गुजर रही थी. गांव से सासससुर आ गए थे. दोनों ही बूढ़े थे. बीमार रहते थे. इलाज से एक ठीक होता, तब तक दूसरा बिस्तर पकड़ लेता. बेटे की बोर्डिंग की फीस एकाएक 36 हजार रुपए से  48 हजार रुपए सालाना हो गई. बेटियों की स्कूल ड्रैस हर 6 माह बाद छोटी हो जाती. फल, सब्जियों, दवाइयों की परिधि ढूंढ़ने की कोशिश कर रही थी.

अचानक एक सुबह ससुरजी ने चाय की प्याली हाथ में लेते हुए कहा था, ‘दुलहन, अब हम नहीं बचेंगे. बेटी, मेरी आखिरी ख्वाहिश है कि तुम लोगों का अपना मकान हो. उस में थोड़े से पेड़पौधे हों.’

रात में मैं ने इन से कहा तो ये क्षणभर को चुप हो गए. फिर कहा, ‘बाबूजी ने अपनी हड्डियां गला कर मेरे कैरियर को बनाया है. उन की यह इच्छा मैं हर हाल में पूरी करूंगा.’

घर बनाने का काम शुरू हुआ. एकाएक इतने खर्चे सिर पर आ गए कि हर वक्त पैसे की किल्लत रहने लगी. घर में कभी चीनी, कभी चाय तो कभी सब्जियां कम पड़ने लगीं.

अंतिम वर्ष में आतेआते पिंटू ने प्रतियोगी परीक्षाओं के फौर्म भरने शुरू कर दिए.

‘बाप रे, इतने महंगे फौर्म, कोई गरीब बच्चा कहां से लाएगा इतने पैसे?’ मैं ने एक दिन पिंटू से कहा तो वह हंस कर बोला, ‘काश, ये बातें सरकार सम झ सकती.’

जो कभी नहीं किया वह कर्म (पता नहीं कुकर्म या सद्कर्म) मैं ने किया. इन की जेब में हाथ डालती, पैसे निकालती और भाई की जेब में रख देती. फिर इत्मीनान से इन से कहती, ‘उसे अब बेंगलुरु जाना है, इंटरव्यू देने, कुछ पैसे दे देते तो…’ बिना एक भी शब्द बोले ये अलमारी खोलते, पैसे निकालते और मेरी हथेली पर रख देते. मैं गिनती, कभी हजार, कभी 12 सौ. उसे देने ले जाती तो वह कहता, ‘इतने पैसों का क्या करना?’ मैं कहती, ‘रख ले, फिर कोई फौर्म भर लेना या किसी दूसरे इंटरव्यू में काम आएंगे.’

4-5 इंटरव्यू में वह छंट गया. किसी बच्चे की तरह बिलखता वह मेरी छाती से लग जाता. मैं उसे भरोसा दिलाती, ‘उदास नहीं होते, बेटे. जो नौकरी तुम्हारे लिए है, वह तो तुम्हारा ही इंतजार कर रही होगी. वह कुरसी, वह जगह खाली होने दो.’

 

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January 01, 2021 at 10:00AM

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