Sunday 28 February 2021

Central Railway Recruitment 2021: बिना परीक्षा ही पाएं सरकारी ...

Central Railway Recruitment 2021: बिना परीक्षा ही पाएं सरकारी नौकरी, 2532 पदों पर निकली भर्ती ...

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Central Railway Recruitment 2021: बिना परीक्षा ही पाएं सरकारी नौकरी, 2532 पदों पर निकली भर्ती ...

Special Report: पाकिस्तान की निकली हेकड़ी, डेढ़ करोड़ ...

Special Report: पाकिस्तान की निकली हेकड़ी, डेढ़ करोड़ लोगों की नौकरी बचाने घुटनों के ...

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Special Report: पाकिस्तान की निकली हेकड़ी, डेढ़ करोड़ लोगों की नौकरी बचाने घुटनों के ...

कोरोना काल में विदेश में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों ...

पार्ट टाइम नौकरी खोई. न्यूजीलैंड (New Zealand) में बायोमेडिकल साइंस की पढ़ाई करने ...

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पार्ट टाइम नौकरी खोई. न्यूजीलैंड (New Zealand) में बायोमेडिकल साइंस की पढ़ाई करने ...

Fact Check: 2100 रुपये दें और नौकरी के साथ-साथ पाएं लैपटॉप ...

इतना ही नहीं, वेबसाइट पर कहा जा रहा है कि 2100 रुपये देने पर नौकरी के साथ-साथ लैपटॉप, ...

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इतना ही नहीं, वेबसाइट पर कहा जा रहा है कि 2100 रुपये देने पर नौकरी के साथ-साथ लैपटॉप, ...

एफसीआई और रेलवे में नौकरी के नाम पर 20 लाख की ठगी ...

Times of Indian एफसीआई और रेलवे में नौकरी के नाम पर 20 लाख की ठगी एफसीआई व रेलवे में ...

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Times of Indian एफसीआई और रेलवे में नौकरी के नाम पर 20 लाख की ठगी एफसीआई व रेलवे में ...

समस्तीपुर : अब खाइए फ्लेवर्ड गुड़, स्वाद लेने के साथ ...

बीटेक की पढ़ाई और कुछ वर्षों तक नौकरी कर चुके कल्याणपुर, रतवाड़ा के युवा अफजल ...

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बीटेक की पढ़ाई और कुछ वर्षों तक नौकरी कर चुके कल्याणपुर, रतवाड़ा के युवा अफजल ...

Women’s Day Special: -भाग 3-कागज का रिश्ता-विभा किसके खत को पढ़कर खुश हो जाती थी

विभा की आवाज सुन कर मुकेश ने उस की तरफ पलट कर देखा. विभा ने मुकेश की दी हुई गुलाबी साड़ी पहन रखी थी. उस पर गुलाबी रंग खिलता भी खूब था. कोई और दिन होता तो

मुकेश की धमनियों में आग सी दौड़ने लगती, पर उस समय वह बिलकुल खामोश था. चिंता की गहरी लकीरें उस के माथे पर स्पष्ट उभर आई थीं. उस ने एक गुलाबी लिफाफा अपनी पत्नी के आगे रखते हुए कहा, ‘‘तुम्हारा पत्र आया है.’’

‘‘मेरा पत्र,’’ विभा ने आगे बढ़ कर वह पत्र अपने हाथ में उठाया और चहक कर बोली, ‘‘अरे, यह तो मोहन का पत्र है.’’

मुसकरा कर विभा वह पत्र खोल कर पढ़ने लगी. उस के चेहरे पर इंद्रधनुषी रंग थिरकने लगे थे.

मुकेश पत्नी पर एक दृष्टि फेंक कर सिगरेट सुलगाते हुए बोला, ‘‘यह मोहन कौन है?’’

‘‘मेरे पत्र मित्रों में सब से अधिक स्नेहशील और आकर्षक,’’ विभा पत्र पढ़तेपढ़ते ही बोली.

विभा पत्र पढ़ती रही और मुकेश चोर निगाहों से पत्नी को देखता रहा. पत्र पढ़ कर विभा ने दराज में डाल दिया और फिल्मी धुन गुनगुनाती हुई ड्रैसिंग टेबल के आईने में अपनी छवि निहारते हुए बाल संवारती रही.

मुकेश ने घड़ी में समय देखा और विभा से बोला, ‘‘आज खाना नहीं मिलेगा क्या?’’

‘‘खाना तो लगभग तैयार है,’’ कहते हुए विभा रसोई की तरफ चल दी. जब रसोई से बरतनों की उठापटक की आवाज आनी शुरू हो गई तो मुकेश ने दराज से वह पत्र निकाल कर पढ़ना शुरू कर दिया.

हिमाचल के चंबा जिले के किसी गांव से आया वह पत्र पर्वतीय संस्कृति की झांकी प्रस्तुत करता हुआ, विभा को सपरिवार वहां आ कर कुछ दिन रहने का निमंत्रण दे रहा था.

विभा के द्वारा भेजे गए नए साल के बधाई कार्ड और पूछे गए कुछ प्रश्नों के उत्तर भी उस पत्र में दिए गए थे. पत्र की भाषा लुभावनी और लिखावट सुंदर थी.

विभा ने मेज पर खाना लगा दिया था. पूरा परिवार भोजन करने बैठ चुका था, पर मुकेश न जाने क्यों उदास सा था. राकेश बराबर में बैठा लगातार अपने भैया के मर्म को समझने की कोशिश कर रहा था. उसे अपनी भाभी पर रहरह कर क्रोध आ रहा था.

राकेश ने मटरपनीर का डोंगा भैया के आगे सरकाते हुए कहा, ‘‘आप ने मटरपनीर की सब्जी तो ली ही नहीं. देखिए तो, कितनी स्वादिष्ठ है.’’

‘‘ऐं, हांहां,’’ कहते हुए मुकेश ने राकेश के हाथ से डोंगा ले लिया, पर वह बेदिली से ही खाना खाता रहा.

मुकेश की स्थिति देख कर राकेश ने निश्चय किया कि वह इस बार भाभी के नाम आया कोई भी पत्र मुकेश के ही हाथों में देगा. जितनी जल्दी हो सके, इन पत्रों का रहस्य भैया के आगे खुलना ही चाहिए.

राकेश के हृदय में बनी योजना ने साकार होने में अधिक समय नहीं लिया. एक दोपहर जब वह अपने मित्र के यहां मिलने जा रहा था, उसे डाकिया घर के बाहर ही मिल गया. वह अन्य पत्रों के साथ विभा भाभी का गुलाबी लिफाफा भी अपनी जेब के हवाले करते हुए बाहर निकल गया.

राकेश जब घर लौटा तब मुकेश घर पहुंच चुका था. भाभी रसोई में थीं और मांजी बरामदे में बैठी रेडियो सुन रही थीं. राकेश ने अपनी जेब से 3-4 चिट्ठियां निकाल कर मुकेश के हाथ में देते हुए कहा, ‘‘भैया, शायद एक पत्र आप के दफ्तर का है और एक उमा दीदी का है. यह पत्र शायद भाभी का है. मैं सतीश के घर जा रहा था कि डाकिया रास्ते में ही मिल गया.’’

‘‘ओह, अच्छाअच्छा,’’ मुकेश ने पत्र हाथ में लेते हुए कहा. अपने दफ्तर का पत्र उस ने दफ्तरी कागजों में रख लिया और उमा का पत्र घर में सब को पढ़ कर सुना दिया. विभा के नाम से आया पत्र उस ने तकिए के नीचे रख दिया.

रात को कामकाज निबटा कर विभा लौटी तो मुकेश ने गुलाबी लिफाफा उसे थमाते हुए कहा, ‘‘यह लो, तुम्हारा पत्र.’’

‘‘मेरा पत्र, इस समय?’’ विभा ने आश्चर्य से कहा.

‘‘आया तो यह दोपहर की डाक से था, जब मैं दफ्तर में था. लेकिन अभी तक यह आप के देवर की जेब में था,’’ मुकेश ने पत्नी की तरफ देखते हुए कहा.

विभा ने मुसकरा कर वह पत्र खोला और पढ़ने लगी. शायद पत्र में कोई ऐसी बात लिखी थी, जिसे पढ़ कर वह खिलखिला कर हंस पड़ी. मुकेश ने इस बार पलट कर पूछा, ‘‘मोहन का
पत्र है?’’

‘‘हां, लेकिन आप ने कैसे जान लिया?’’ विभा ने हंसतेहंसते ही पूछा.

‘‘लिफाफे को देख कर. कुछ और बताओगी इन महाशय के बारे में?’’ मुकेश ने पलंग पर बैठते हुए कहा.

‘‘हांहां, क्यों नहीं. मोहन एक सुंदर नवयुवक है. उस का व्यक्तित्व बहुत आकर्षक है. मुझे तो उस की शरारती आंखों की मुसकराहट बहुत भाती है,’’ विभा ने सहज भाव से कहा पर मुकेश शक और ईर्ष्या की आग में जल उठा.

मुकेश ने फिर पत्नी से कोई बात नहीं की और मुंह फेर कर लेट गया. विभा ने एक बार मुकेश की पीठ को सहलाया भी, पर पति का एकदम ठंडापन देख कर वह फिर नींद की आगोश में डूब गई.

घरगृहस्थी की गाड़ी ठीक पहले जैसी ही चलती रही पर मुकेश का स्वभाव और व्यवहार दिनोंदिन बदलता चला गया. अब अकसर वह देर रात घर लौटता. पति के इंतजार में भूखी बैठी विभा से वह ‘बाहर से खाना खा कर आया हूं’ कह कर सीधे अपने कमरे में घुस जाता. मांजी और राकेश भी मुकेश का व्यवहार देख कर परेशान थे. मुकेश और विभा के बीच धीरेधीरे एक ठंडापन पसरने लगा था. दोनों के बीच वार्त्तालाप भी अब बहुत संक्षिप्त होता था. मुकेश अब अगर दफ्तर से समय पर घर लौट भी आता तो सिगरेट पर सिगरेट फूंकता रहता.

आखिर एक शाम विभा ने मुकेश के हाथ से सिगरेट छीनते हुए तुनक कर कहा, ‘‘आप मुझे देखते ही नजरें क्यों फेर लेते हैं? क्या अब मैं सुंदर नहीं रही?’’

मुकेश ने विभा की बात का कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘आप किस सोच में डूबे रहते हैं? देखती हूं, आप आजकल सिगरेट ज्यादा ही पीने लगे हैं. बताइए न?’’ विभा की आंखों में आंसू भर आए.

‘‘तुम तो उतनी ही सुंदर हो जितनी शादी के समय थीं, पर मैं न तो मोहन की तरह सुंदर हूं न ही बलिष्ठ. न मैं उस की तरह योग्य हूं न आकर्षक,’’ मुकेश ने रूखे स्वर में जवाब दिया.

‘‘यह क्या कह रहे हैं आप?’’

‘‘मैं अब तुम्हें साफसाफ बता देना चाहता हूं कि अब मैं तुम्हारे साथ अधिक दिनों तक नहीं निभा सकता. मैं बहुत जल्दी ही तुम्हें आजाद करने की सोच रहा हूं जिस से तुम मोहन के पास आसानी से जा सको,’’ मुकेश ने अत्यंत ठंडे स्वर से कहा.

‘‘यह क्या कह रहे हैं आप?’’ विभा घबरा कर बोली. उसे लगा, संदेह के एक नन्हे कीड़े ने उस के दांपत्य की गहरी जड़ों को क्षणभर में कुतर डाला है.

‘‘मैं वही सच कह रहा हूं जो तुम नहीं कह सकीं और छिप कर प्रेम का नाटक खेलती रहीं,’’ अब मुकेश के स्वर में कड़वाहट घुल गई थी.

‘‘ऐसा मत कहिए. मोहन सिर्फ मेरा पत्र मित्र है और कुछ नहीं. मेरे मन में आप के प्रति गहरी निष्ठा है. आप मुझ पर शक कर रहे हैं,’’ कहते हुए विभा की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

‘‘तुम चाहे अब अपनी कितनी भी सफाई क्यों न दो लेकिन मैं यह नहीं मान सकता कि मोहन तुम्हारा केवल पत्र मित्र है. कौन पति यह सहन कर सकता है कि उस की पत्नी को कोई पराया मर्द प्रेमपत्र भेजता रहे,’’ मुकेश का स्वर अब नफरत में बदलने लगा था.

‘‘आप पत्र पढ़ कर देख लीजिए, यह कोई प्रेमपत्र नहीं है,’’ विभा ने जल्दी से मोहन का पत्र दराज से निकाल कर मुकेश के आगे रखते हुए कहा.

‘‘यह पत्र अब तुम अपने भविष्य के लिए संभाल कर रखो,’’ मुकेश ने मोहन का पत्र विभा के मुंह पर फेंकते हुए कहा.

‘‘तुम जानते नहीं हो मुकेश, मेरी दोस्ती सिर्फ कागज के पत्रों तक ही सीमित है. मेरा मोहन से ऐसावैसा कोई संबंध नहीं है. अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊं?’’ विभा अब सचमुच रोने लगी थी.

‘‘तुम मुझे क्या समझाओगी? शादी के बाद भी तुम्हारी आंखों में मोहन का रूप बसता रहा. तुम्हारे हृदय में उस के लिए हिलोरें उठती हैं. मैं इतना बुद्धू नहीं हूं, समझीं,’’ मुकेश पलंग से उठ कर सोफे पर जा लेटा.

विभा देर तक सुबकती रही.

अगली सुबह मुकेश कुछ जल्दी ही उठ गया. जब तक विभा अपनी आंखों को मलते हुए उठी तब तक तो वह जाने के लिए तैयार भी हो चुका था. विभा ने आश्चर्य से घड़ी की तरफ देखा, 8 बज रहे थे. विभा घबरा कर जल्दी से रसोई में पहुंची. वह मुकेश के लिए नाश्ता बना कर लाई, परंतु वह जा चुका था.

विभा मुकेश को दूर तक जाते हुए देखती रही, नाश्ते की प्लेट अब तक उस के हाथों में थी.

‘‘क्या हुआ, बहू?’’ दरवाजे के बाहर खड़ी उस की सास ने भीतर आते हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं, मांजी,’’ विभा ने सास से आंसू छिपाते हुए कहा.

‘‘मुकेश क्या नाश्ता नहीं कर के गया?’’ उन्होंने विभा के हाथ में प्लेट देख कर पूछा.

‘‘जल्दी में चले गए,’’ कहते हुए विभा रसोई की तरफ मुड़ गई.

‘‘ऐसी भी क्या जल्दी कि आदमी घर से भूखा ही चला जाए. मैं देख रही हूं, तुम दोनों में कई दिनों से कुछ तनाव चल रहा है. बात बढ़ने से पहले ही निबटा लेनी चाहिए, बहू. इसी में समझदारी है.’’

शाम को मुकेश दफ्तर से लौटा तो मां ने उसे अपने समीप बैठाते हुए कहा, ‘‘मुकेश, आजकल इतनी देर से क्यों लौटता है?’’

‘‘मां, दफ्तर में आजकल काम कुछ ज्यादा ही रहता है.’’

‘‘आजकल तू उदास भी रहता है.’’

‘‘नहींनहीं, मां,’’ मुकेश ने बनावटी हंसी हंसते हुए कहा.

‘‘आज कोई पुरानी फिल्म डीवीडी पर लगाना,’’ मां ने हंसते हुए कहा.

‘‘अच्छा,’’ कहते हुए मुकेश उठ कर अपने कमरे में चला गया.

दिनभर के थके और भूख से बेहाल हुए मुकेश ने जैसे ही कमरे की बत्ती जलाई, उसे अपने बिस्तर पर शादी का अलबम नजर आया. कपड़े उतारने को बढ़े हाथ अनायास ही अलबम की तरफ बढ़ गए. वह अलबम देखने बैठ गया. हंसीठिठोली, मानमनुहार, रिश्तेदारों की चुहलभरी बातें एक बार फिर मन में ताजा हो उठीं. तभी विभा ने चाय का प्याला आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘लीजिए.’’

मुकेश का गुस्सा अभी भी नाक पर चढ़ा था, पर उस ने पत्नी के हाथ से चाय का प्याला ले लिया. विभा फिर रसोईघर में चली गई.

मुकेश जब तक हाथमुंह धो कर बाथरूम से निकला, परिवार रात के खाने के लिए मेज पर बैठ चुका था. विमला देवी ने बेटे को पुकारा, ‘‘मुकेश, आओ बेटे, सभी तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.’’

कुरसी पर बैठते हुए मुकेश सामान्य होने का प्रयत्न कर रहा था, पर उस का रूखापन छिपाए नहीं छिप रहा था. सभी भोजन करने लगे तो विमला देवी बोलीं, ‘‘आज मुकेश जल्दीजल्दी में नाश्ता छोड़ गया तो विभा ने भी पूरे दिन कुछ नहीं खाया.’’

‘‘पतिव्रता स्त्रियों की तरह,’’ राकेश ने शरारत से हंसते हुए कहा.

विमला देवी भी मुसकराती रहीं, पर मुकेश चुपचाप खाना खाता रहा. गरम रोटियां सब की थालियों में परोसते हुए विभा ने यह तो जान लिया था कि मुकेश बारबार उस को आंख के कोने से देख रहा है, जैसे कुछ कहना चाहता हो, पर शब्द न मिल रहे हों.

रात में बिस्तर पर बैठते हुए विभा बोली, ‘‘देखिए, मेरे दिल में कोई ऐसीवैसी बात नहीं है. हां, आज तक मैं अपने बरसों पुराने पत्र मित्रों के पत्रों को सहज रूप में ही लेती रही. मेरे समझने में यह भूल अवश्य हुई कि मैं ने कभी गंभीरता से इस विषय पर सोचा नहीं…’’

मुकेश चुपचाप दूसरी तरफ निगाहें फेरे बैठा रहा. विभा ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, ‘‘आज दिनभर मैं ने इस विषय पर गहराई से सोचा. मेरी एक साधारण सी भूल के कारण मेरा भविष्य एक खतरनाक मोड़ पर आ खड़ा हुआ है. हम दोनों की सुखी गृहस्थी अलगाव की तरफ मुड़ गई है. मैं आज ही आप के सामने इन कागज के रिश्तों को खत्म किए देती हूं.’’

यह कहते हुए विभा ने बरसों से संजोया हुआ बधाई कार्डों व पत्रों का पुलिंदा चिंदीचिंदी कर के फाड़ दिया और मुकेश का हाथ अपने हाथ में लेते हुए धीरे से कहा, ‘‘मैं आप को बहुत प्यार करती हूं. मैं सिर्फ आप की हूं.’’

शक के कारण अपनत्व की धुंधली पड़ती छाया मुकेश की पलकों को गीला कर के उजली रोशनी दे गई. वह पत्नी के हाथ को दोनों हाथों में दबाते हुए बोला, ‘‘मुझे अब तुम से कोई शिकायत नहीं है, विभा. अच्छा हुआ जो तुम्हें अपनी गलती का एहसास समय रहते ही हो गया.’’

‘‘जो कुछ हम ने कहासुना, उसे भूल जाओ,’’ विभा ने पति के समीप आते हुए कहा.

‘‘मुझे गुस्सा तुम्हारी लापरवाही ने दिलाया. एक के बाद एक तुम्हारे पत्र आते चले गए और मेरी स्थिति अपने परिवार में गिरती चली गई. जरा सोचो, अगर घर के बुजुर्ग इन पत्रों को गलत नजरिए से देखने लगते तो परिवार में तुम्हारी क्या इज्जत रह जाती?’’ मुकेश ने धीमे स्वर में कहा.

विभा कुछ नहीं बोली. मुकेश ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा, ‘‘उस शाम जब राकेश ने तुम्हारा वह पत्र मेरे हाथों में दिया था तो तुम नहीं जानतीं, वह कैसी विचित्र निगाहों से तुम्हें ताक रहा था. वह लांछित दृष्टि मैं बरदाश्त नहीं कर सकता, विभा. हम ऐसा कोई काम करें ही क्यों जिस में हमारे साथसाथ दूसरों का भी सुखचैन खत्म हो जाए?’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं,’’ विभा ने इस बार मुकेश की आंखों में देखते हुए कहा. उस ने मन ही मन अपने पति का धन्यवाद किया. जिस तरह मुकेश ने भविष्य में होने वाली बदनामी से विभा को बचाया, यह सोच कर वह आत्मविभोर हो उठी. फिर लाइट बंद कर सुखद भविष्य की कल्पना में खो गई.

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विभा की आवाज सुन कर मुकेश ने उस की तरफ पलट कर देखा. विभा ने मुकेश की दी हुई गुलाबी साड़ी पहन रखी थी. उस पर गुलाबी रंग खिलता भी खूब था. कोई और दिन होता तो

मुकेश की धमनियों में आग सी दौड़ने लगती, पर उस समय वह बिलकुल खामोश था. चिंता की गहरी लकीरें उस के माथे पर स्पष्ट उभर आई थीं. उस ने एक गुलाबी लिफाफा अपनी पत्नी के आगे रखते हुए कहा, ‘‘तुम्हारा पत्र आया है.’’

‘‘मेरा पत्र,’’ विभा ने आगे बढ़ कर वह पत्र अपने हाथ में उठाया और चहक कर बोली, ‘‘अरे, यह तो मोहन का पत्र है.’’

मुसकरा कर विभा वह पत्र खोल कर पढ़ने लगी. उस के चेहरे पर इंद्रधनुषी रंग थिरकने लगे थे.

मुकेश पत्नी पर एक दृष्टि फेंक कर सिगरेट सुलगाते हुए बोला, ‘‘यह मोहन कौन है?’’

‘‘मेरे पत्र मित्रों में सब से अधिक स्नेहशील और आकर्षक,’’ विभा पत्र पढ़तेपढ़ते ही बोली.

विभा पत्र पढ़ती रही और मुकेश चोर निगाहों से पत्नी को देखता रहा. पत्र पढ़ कर विभा ने दराज में डाल दिया और फिल्मी धुन गुनगुनाती हुई ड्रैसिंग टेबल के आईने में अपनी छवि निहारते हुए बाल संवारती रही.

मुकेश ने घड़ी में समय देखा और विभा से बोला, ‘‘आज खाना नहीं मिलेगा क्या?’’

‘‘खाना तो लगभग तैयार है,’’ कहते हुए विभा रसोई की तरफ चल दी. जब रसोई से बरतनों की उठापटक की आवाज आनी शुरू हो गई तो मुकेश ने दराज से वह पत्र निकाल कर पढ़ना शुरू कर दिया.

हिमाचल के चंबा जिले के किसी गांव से आया वह पत्र पर्वतीय संस्कृति की झांकी प्रस्तुत करता हुआ, विभा को सपरिवार वहां आ कर कुछ दिन रहने का निमंत्रण दे रहा था.

विभा के द्वारा भेजे गए नए साल के बधाई कार्ड और पूछे गए कुछ प्रश्नों के उत्तर भी उस पत्र में दिए गए थे. पत्र की भाषा लुभावनी और लिखावट सुंदर थी.

विभा ने मेज पर खाना लगा दिया था. पूरा परिवार भोजन करने बैठ चुका था, पर मुकेश न जाने क्यों उदास सा था. राकेश बराबर में बैठा लगातार अपने भैया के मर्म को समझने की कोशिश कर रहा था. उसे अपनी भाभी पर रहरह कर क्रोध आ रहा था.

राकेश ने मटरपनीर का डोंगा भैया के आगे सरकाते हुए कहा, ‘‘आप ने मटरपनीर की सब्जी तो ली ही नहीं. देखिए तो, कितनी स्वादिष्ठ है.’’

‘‘ऐं, हांहां,’’ कहते हुए मुकेश ने राकेश के हाथ से डोंगा ले लिया, पर वह बेदिली से ही खाना खाता रहा.

मुकेश की स्थिति देख कर राकेश ने निश्चय किया कि वह इस बार भाभी के नाम आया कोई भी पत्र मुकेश के ही हाथों में देगा. जितनी जल्दी हो सके, इन पत्रों का रहस्य भैया के आगे खुलना ही चाहिए.

राकेश के हृदय में बनी योजना ने साकार होने में अधिक समय नहीं लिया. एक दोपहर जब वह अपने मित्र के यहां मिलने जा रहा था, उसे डाकिया घर के बाहर ही मिल गया. वह अन्य पत्रों के साथ विभा भाभी का गुलाबी लिफाफा भी अपनी जेब के हवाले करते हुए बाहर निकल गया.

राकेश जब घर लौटा तब मुकेश घर पहुंच चुका था. भाभी रसोई में थीं और मांजी बरामदे में बैठी रेडियो सुन रही थीं. राकेश ने अपनी जेब से 3-4 चिट्ठियां निकाल कर मुकेश के हाथ में देते हुए कहा, ‘‘भैया, शायद एक पत्र आप के दफ्तर का है और एक उमा दीदी का है. यह पत्र शायद भाभी का है. मैं सतीश के घर जा रहा था कि डाकिया रास्ते में ही मिल गया.’’

‘‘ओह, अच्छाअच्छा,’’ मुकेश ने पत्र हाथ में लेते हुए कहा. अपने दफ्तर का पत्र उस ने दफ्तरी कागजों में रख लिया और उमा का पत्र घर में सब को पढ़ कर सुना दिया. विभा के नाम से आया पत्र उस ने तकिए के नीचे रख दिया.

रात को कामकाज निबटा कर विभा लौटी तो मुकेश ने गुलाबी लिफाफा उसे थमाते हुए कहा, ‘‘यह लो, तुम्हारा पत्र.’’

‘‘मेरा पत्र, इस समय?’’ विभा ने आश्चर्य से कहा.

‘‘आया तो यह दोपहर की डाक से था, जब मैं दफ्तर में था. लेकिन अभी तक यह आप के देवर की जेब में था,’’ मुकेश ने पत्नी की तरफ देखते हुए कहा.

विभा ने मुसकरा कर वह पत्र खोला और पढ़ने लगी. शायद पत्र में कोई ऐसी बात लिखी थी, जिसे पढ़ कर वह खिलखिला कर हंस पड़ी. मुकेश ने इस बार पलट कर पूछा, ‘‘मोहन का
पत्र है?’’

‘‘हां, लेकिन आप ने कैसे जान लिया?’’ विभा ने हंसतेहंसते ही पूछा.

‘‘लिफाफे को देख कर. कुछ और बताओगी इन महाशय के बारे में?’’ मुकेश ने पलंग पर बैठते हुए कहा.

‘‘हांहां, क्यों नहीं. मोहन एक सुंदर नवयुवक है. उस का व्यक्तित्व बहुत आकर्षक है. मुझे तो उस की शरारती आंखों की मुसकराहट बहुत भाती है,’’ विभा ने सहज भाव से कहा पर मुकेश शक और ईर्ष्या की आग में जल उठा.

मुकेश ने फिर पत्नी से कोई बात नहीं की और मुंह फेर कर लेट गया. विभा ने एक बार मुकेश की पीठ को सहलाया भी, पर पति का एकदम ठंडापन देख कर वह फिर नींद की आगोश में डूब गई.

घरगृहस्थी की गाड़ी ठीक पहले जैसी ही चलती रही पर मुकेश का स्वभाव और व्यवहार दिनोंदिन बदलता चला गया. अब अकसर वह देर रात घर लौटता. पति के इंतजार में भूखी बैठी विभा से वह ‘बाहर से खाना खा कर आया हूं’ कह कर सीधे अपने कमरे में घुस जाता. मांजी और राकेश भी मुकेश का व्यवहार देख कर परेशान थे. मुकेश और विभा के बीच धीरेधीरे एक ठंडापन पसरने लगा था. दोनों के बीच वार्त्तालाप भी अब बहुत संक्षिप्त होता था. मुकेश अब अगर दफ्तर से समय पर घर लौट भी आता तो सिगरेट पर सिगरेट फूंकता रहता.

आखिर एक शाम विभा ने मुकेश के हाथ से सिगरेट छीनते हुए तुनक कर कहा, ‘‘आप मुझे देखते ही नजरें क्यों फेर लेते हैं? क्या अब मैं सुंदर नहीं रही?’’

मुकेश ने विभा की बात का कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘आप किस सोच में डूबे रहते हैं? देखती हूं, आप आजकल सिगरेट ज्यादा ही पीने लगे हैं. बताइए न?’’ विभा की आंखों में आंसू भर आए.

‘‘तुम तो उतनी ही सुंदर हो जितनी शादी के समय थीं, पर मैं न तो मोहन की तरह सुंदर हूं न ही बलिष्ठ. न मैं उस की तरह योग्य हूं न आकर्षक,’’ मुकेश ने रूखे स्वर में जवाब दिया.

‘‘यह क्या कह रहे हैं आप?’’

‘‘मैं अब तुम्हें साफसाफ बता देना चाहता हूं कि अब मैं तुम्हारे साथ अधिक दिनों तक नहीं निभा सकता. मैं बहुत जल्दी ही तुम्हें आजाद करने की सोच रहा हूं जिस से तुम मोहन के पास आसानी से जा सको,’’ मुकेश ने अत्यंत ठंडे स्वर से कहा.

‘‘यह क्या कह रहे हैं आप?’’ विभा घबरा कर बोली. उसे लगा, संदेह के एक नन्हे कीड़े ने उस के दांपत्य की गहरी जड़ों को क्षणभर में कुतर डाला है.

‘‘मैं वही सच कह रहा हूं जो तुम नहीं कह सकीं और छिप कर प्रेम का नाटक खेलती रहीं,’’ अब मुकेश के स्वर में कड़वाहट घुल गई थी.

‘‘ऐसा मत कहिए. मोहन सिर्फ मेरा पत्र मित्र है और कुछ नहीं. मेरे मन में आप के प्रति गहरी निष्ठा है. आप मुझ पर शक कर रहे हैं,’’ कहते हुए विभा की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

‘‘तुम चाहे अब अपनी कितनी भी सफाई क्यों न दो लेकिन मैं यह नहीं मान सकता कि मोहन तुम्हारा केवल पत्र मित्र है. कौन पति यह सहन कर सकता है कि उस की पत्नी को कोई पराया मर्द प्रेमपत्र भेजता रहे,’’ मुकेश का स्वर अब नफरत में बदलने लगा था.

‘‘आप पत्र पढ़ कर देख लीजिए, यह कोई प्रेमपत्र नहीं है,’’ विभा ने जल्दी से मोहन का पत्र दराज से निकाल कर मुकेश के आगे रखते हुए कहा.

‘‘यह पत्र अब तुम अपने भविष्य के लिए संभाल कर रखो,’’ मुकेश ने मोहन का पत्र विभा के मुंह पर फेंकते हुए कहा.

‘‘तुम जानते नहीं हो मुकेश, मेरी दोस्ती सिर्फ कागज के पत्रों तक ही सीमित है. मेरा मोहन से ऐसावैसा कोई संबंध नहीं है. अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊं?’’ विभा अब सचमुच रोने लगी थी.

‘‘तुम मुझे क्या समझाओगी? शादी के बाद भी तुम्हारी आंखों में मोहन का रूप बसता रहा. तुम्हारे हृदय में उस के लिए हिलोरें उठती हैं. मैं इतना बुद्धू नहीं हूं, समझीं,’’ मुकेश पलंग से उठ कर सोफे पर जा लेटा.

विभा देर तक सुबकती रही.

अगली सुबह मुकेश कुछ जल्दी ही उठ गया. जब तक विभा अपनी आंखों को मलते हुए उठी तब तक तो वह जाने के लिए तैयार भी हो चुका था. विभा ने आश्चर्य से घड़ी की तरफ देखा, 8 बज रहे थे. विभा घबरा कर जल्दी से रसोई में पहुंची. वह मुकेश के लिए नाश्ता बना कर लाई, परंतु वह जा चुका था.

विभा मुकेश को दूर तक जाते हुए देखती रही, नाश्ते की प्लेट अब तक उस के हाथों में थी.

‘‘क्या हुआ, बहू?’’ दरवाजे के बाहर खड़ी उस की सास ने भीतर आते हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं, मांजी,’’ विभा ने सास से आंसू छिपाते हुए कहा.

‘‘मुकेश क्या नाश्ता नहीं कर के गया?’’ उन्होंने विभा के हाथ में प्लेट देख कर पूछा.

‘‘जल्दी में चले गए,’’ कहते हुए विभा रसोई की तरफ मुड़ गई.

‘‘ऐसी भी क्या जल्दी कि आदमी घर से भूखा ही चला जाए. मैं देख रही हूं, तुम दोनों में कई दिनों से कुछ तनाव चल रहा है. बात बढ़ने से पहले ही निबटा लेनी चाहिए, बहू. इसी में समझदारी है.’’

शाम को मुकेश दफ्तर से लौटा तो मां ने उसे अपने समीप बैठाते हुए कहा, ‘‘मुकेश, आजकल इतनी देर से क्यों लौटता है?’’

‘‘मां, दफ्तर में आजकल काम कुछ ज्यादा ही रहता है.’’

‘‘आजकल तू उदास भी रहता है.’’

‘‘नहींनहीं, मां,’’ मुकेश ने बनावटी हंसी हंसते हुए कहा.

‘‘आज कोई पुरानी फिल्म डीवीडी पर लगाना,’’ मां ने हंसते हुए कहा.

‘‘अच्छा,’’ कहते हुए मुकेश उठ कर अपने कमरे में चला गया.

दिनभर के थके और भूख से बेहाल हुए मुकेश ने जैसे ही कमरे की बत्ती जलाई, उसे अपने बिस्तर पर शादी का अलबम नजर आया. कपड़े उतारने को बढ़े हाथ अनायास ही अलबम की तरफ बढ़ गए. वह अलबम देखने बैठ गया. हंसीठिठोली, मानमनुहार, रिश्तेदारों की चुहलभरी बातें एक बार फिर मन में ताजा हो उठीं. तभी विभा ने चाय का प्याला आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘लीजिए.’’

मुकेश का गुस्सा अभी भी नाक पर चढ़ा था, पर उस ने पत्नी के हाथ से चाय का प्याला ले लिया. विभा फिर रसोईघर में चली गई.

मुकेश जब तक हाथमुंह धो कर बाथरूम से निकला, परिवार रात के खाने के लिए मेज पर बैठ चुका था. विमला देवी ने बेटे को पुकारा, ‘‘मुकेश, आओ बेटे, सभी तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.’’

कुरसी पर बैठते हुए मुकेश सामान्य होने का प्रयत्न कर रहा था, पर उस का रूखापन छिपाए नहीं छिप रहा था. सभी भोजन करने लगे तो विमला देवी बोलीं, ‘‘आज मुकेश जल्दीजल्दी में नाश्ता छोड़ गया तो विभा ने भी पूरे दिन कुछ नहीं खाया.’’

‘‘पतिव्रता स्त्रियों की तरह,’’ राकेश ने शरारत से हंसते हुए कहा.

विमला देवी भी मुसकराती रहीं, पर मुकेश चुपचाप खाना खाता रहा. गरम रोटियां सब की थालियों में परोसते हुए विभा ने यह तो जान लिया था कि मुकेश बारबार उस को आंख के कोने से देख रहा है, जैसे कुछ कहना चाहता हो, पर शब्द न मिल रहे हों.

रात में बिस्तर पर बैठते हुए विभा बोली, ‘‘देखिए, मेरे दिल में कोई ऐसीवैसी बात नहीं है. हां, आज तक मैं अपने बरसों पुराने पत्र मित्रों के पत्रों को सहज रूप में ही लेती रही. मेरे समझने में यह भूल अवश्य हुई कि मैं ने कभी गंभीरता से इस विषय पर सोचा नहीं…’’

मुकेश चुपचाप दूसरी तरफ निगाहें फेरे बैठा रहा. विभा ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, ‘‘आज दिनभर मैं ने इस विषय पर गहराई से सोचा. मेरी एक साधारण सी भूल के कारण मेरा भविष्य एक खतरनाक मोड़ पर आ खड़ा हुआ है. हम दोनों की सुखी गृहस्थी अलगाव की तरफ मुड़ गई है. मैं आज ही आप के सामने इन कागज के रिश्तों को खत्म किए देती हूं.’’

यह कहते हुए विभा ने बरसों से संजोया हुआ बधाई कार्डों व पत्रों का पुलिंदा चिंदीचिंदी कर के फाड़ दिया और मुकेश का हाथ अपने हाथ में लेते हुए धीरे से कहा, ‘‘मैं आप को बहुत प्यार करती हूं. मैं सिर्फ आप की हूं.’’

शक के कारण अपनत्व की धुंधली पड़ती छाया मुकेश की पलकों को गीला कर के उजली रोशनी दे गई. वह पत्नी के हाथ को दोनों हाथों में दबाते हुए बोला, ‘‘मुझे अब तुम से कोई शिकायत नहीं है, विभा. अच्छा हुआ जो तुम्हें अपनी गलती का एहसास समय रहते ही हो गया.’’

‘‘जो कुछ हम ने कहासुना, उसे भूल जाओ,’’ विभा ने पति के समीप आते हुए कहा.

‘‘मुझे गुस्सा तुम्हारी लापरवाही ने दिलाया. एक के बाद एक तुम्हारे पत्र आते चले गए और मेरी स्थिति अपने परिवार में गिरती चली गई. जरा सोचो, अगर घर के बुजुर्ग इन पत्रों को गलत नजरिए से देखने लगते तो परिवार में तुम्हारी क्या इज्जत रह जाती?’’ मुकेश ने धीमे स्वर में कहा.

विभा कुछ नहीं बोली. मुकेश ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा, ‘‘उस शाम जब राकेश ने तुम्हारा वह पत्र मेरे हाथों में दिया था तो तुम नहीं जानतीं, वह कैसी विचित्र निगाहों से तुम्हें ताक रहा था. वह लांछित दृष्टि मैं बरदाश्त नहीं कर सकता, विभा. हम ऐसा कोई काम करें ही क्यों जिस में हमारे साथसाथ दूसरों का भी सुखचैन खत्म हो जाए?’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं,’’ विभा ने इस बार मुकेश की आंखों में देखते हुए कहा. उस ने मन ही मन अपने पति का धन्यवाद किया. जिस तरह मुकेश ने भविष्य में होने वाली बदनामी से विभा को बचाया, यह सोच कर वह आत्मविभोर हो उठी. फिर लाइट बंद कर सुखद भविष्य की कल्पना में खो गई.

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March 01, 2021 at 10:00AM

Women’s Day Special: -भाग 2-कागज का रिश्ता-विभा किसके खत को पढ़कर खुश हो जाती थी

इन पत्रों के सिलसिले ने विमला देवी के माथे पर अनायास ही बल डाल दिए. उन्होंने राकेश से पूछा, ‘‘पत्र कहां से आया है?’’

राकेश कंधे उचका कर बोला, ‘‘मुझे क्या मालूम? भाभी के किसी ‘पैन फ्रैंड’ का पत्र है.’’

‘‘ऐं, यह ‘पैन फ्रैंड’ क्या चीज होती है?’’ विमला देवी ने खोजी निगाहों से बेटे की तरफ देखा.

‘‘मां, पैन फ्रैंड यानी कि पत्र मित्र,’’ राकेश ने हंसते हुए कहा.

‘‘अच्छाअच्छा, जब मुकेश छोटा था तब वह भी बाल पत्रिकाओं से बच्चों के पते ढूंढ़ढूंढ़ कर पत्र मित्र बनाया करता था और उन्हें पत्र भेजा करता था,’’ विमला देवी ने याद करते हुए कहा.

‘‘बचपन के औपचारिक पत्र मित्र समय के साथसाथ छूटते चले जाते हैं. भाभी की तरह उन के लगातार पत्र नहीं आते,’’ कहते हुए राकेश ने बाहर की राह ली और विमला देवी अकेली आंगन में बैठी रह गईं.

सर्दियों के गुनगुने दिन धूप ढलते ही बीत जाते हैं. विभा ने जब तक चायनाश्ते के बरतन समेटे, सांझ ढल चुकी थी. वह फिर रात का खाना बनाने में व्यस्त हो गई. मुकेश को बढि़या खाना खाने का शौक भी था और वह दफ्तर से लौट कर जल्दी ही रात का खाना खाने का आदी भी था.

दफ्तर से लौटते ही मुकेश ने विभा को बुला कर कहा, ‘‘सुनो, आज दफ्तर में तुम्हारे भैयाभाभी का फोन आया था. वे लोग परसों अहमदाबाद लौट रहे हैं, कल उन्होंने तुम्हें बुलाया है.’’

‘‘अच्छा,’’ विभा ने मुकेश के हाथ से कोट ले कर अलमारी में टांगते हुए कहा.

अगले दिन सुबह मुकेश को दफ्तर भेज कर विभा अपने भैयाभाभी से मिलने तिलक नगर चली गई. वे दक्षिण भारत घूम कर लौटे थे और घर के सदस्यों के लिए तरहतरह के उपहार लाए थे. विभा अपने लिए लाई गई मैसूर जार्जेट की साड़ी देख कर खिल उठी थी.

विभा की मां को अचानक कुछ याद आया. वे अपनी मेज पर रखी चिट्ठियों में से एक कार्ड निकाल कर विभा को देते हुए बोलीं, ‘‘यह तेरे नाम का एक कार्ड आया था.’’

‘‘किस का कार्ड है?’’ विभा की भाभी शीला ने कार्ड की तरफ देखते हुए पूछा.

‘‘मेरे एक मित्र का कार्ड है, भाभी. नव वर्ष, दीवाली, होली, जन्मदिन आदि पर हम लोग कार्ड भेज कर एकदूसरे को बधाई देते हैं,’’ विभा ने कार्ड पढ़ते हुए कहा.

‘‘कभी मुलाकात भी होती है इन मित्रों से?’’ शीला भाभी ने तनिक सोचते हुए कहा.

‘‘कभी आमनेसामने तो मुलाकात नहीं हुई, न ऐसी जरूरत ही महसूस हुई,’’ विभा ने सहज भाव से कार्ड देखते हुए उत्तर दिया.

‘‘तुम्हारे पास ससुराल में भी ऐसे बधाई कार्ड पहुंचते हैं?’’ शीला ने अगला प्रश्न किया.

‘‘हांहां, वहां भी मेरे कार्ड आते हैं,’’ विभा ने तनिक उत्साह से बताया.

‘‘क्या मुकेश भाई भी तुम्हारे इन पत्र मित्रों के बधाई कार्ड देखते हैं?’’ इस बार शीला भाभी ने सीधा सवाल किया.

‘‘क्यों? ऐसी क्या गलत बात है इन बधाई कार्डों में?’’ प्रत्युत्तर में विभा का स्वर भी बदल गया था.

‘‘अब तुम विवाहिता हो विभा और विवाहित जीवन में ये बातें कोई महत्त्व नहीं रखतीं. मैं मानती हूं कि तुम्हारा तनमन निर्मल है, लेकिन पतिपत्नी का रिश्ता बहुत नाजुक होता है. अगर इस रिश्ते में एक बार शक का बीज पनप

गया तो सारा जीवन अपनी सफाई देते हुए ही नष्ट हो जाता है. इसलिए बेहतर यही होगा कि तुम यह पत्र मित्रता अब यहीं खत्म कर दो,’’ शीला ने समझाते हुए कहा.

‘‘भाभी, तुम अच्छी तरह जानती हो कि हम लोग यह बधाई कार्ड सिर्फ एक दोस्त की हैसियत से भेजते हैं. इतनी साधारण सी बात मुकेश और मेरे बीच में शक का कारण बन सकती है, मैं ऐसा नहीं मानती,’’ विभा तुनक कर बोली.

शाम ढल रही थी और विभा को घर लौटना था, इसलिए चर्चा वहीं खत्म हो गई. विभा अपना उपहार ले कर खुशीखुशी ससुराल लौट आई.

लगभग पूरा महीना सर्दी की चपेट में ठंड से ठिठुरते हुए कब बीत गया, कुछ पता ही न चला. गरमी की दस्तक देती एक दोपहर में जब विभा नहा कर अपने कमरे में आई तो देखा, मुकेश का चेहरा कुछ उतरा हुआ सा है. वह मुसकरा कर अपनी साड़ी का पल्ला हवा में लहराते हुए बोली, ‘‘सुनिए.’’

 

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इन पत्रों के सिलसिले ने विमला देवी के माथे पर अनायास ही बल डाल दिए. उन्होंने राकेश से पूछा, ‘‘पत्र कहां से आया है?’’

राकेश कंधे उचका कर बोला, ‘‘मुझे क्या मालूम? भाभी के किसी ‘पैन फ्रैंड’ का पत्र है.’’

‘‘ऐं, यह ‘पैन फ्रैंड’ क्या चीज होती है?’’ विमला देवी ने खोजी निगाहों से बेटे की तरफ देखा.

‘‘मां, पैन फ्रैंड यानी कि पत्र मित्र,’’ राकेश ने हंसते हुए कहा.

‘‘अच्छाअच्छा, जब मुकेश छोटा था तब वह भी बाल पत्रिकाओं से बच्चों के पते ढूंढ़ढूंढ़ कर पत्र मित्र बनाया करता था और उन्हें पत्र भेजा करता था,’’ विमला देवी ने याद करते हुए कहा.

‘‘बचपन के औपचारिक पत्र मित्र समय के साथसाथ छूटते चले जाते हैं. भाभी की तरह उन के लगातार पत्र नहीं आते,’’ कहते हुए राकेश ने बाहर की राह ली और विमला देवी अकेली आंगन में बैठी रह गईं.

सर्दियों के गुनगुने दिन धूप ढलते ही बीत जाते हैं. विभा ने जब तक चायनाश्ते के बरतन समेटे, सांझ ढल चुकी थी. वह फिर रात का खाना बनाने में व्यस्त हो गई. मुकेश को बढि़या खाना खाने का शौक भी था और वह दफ्तर से लौट कर जल्दी ही रात का खाना खाने का आदी भी था.

दफ्तर से लौटते ही मुकेश ने विभा को बुला कर कहा, ‘‘सुनो, आज दफ्तर में तुम्हारे भैयाभाभी का फोन आया था. वे लोग परसों अहमदाबाद लौट रहे हैं, कल उन्होंने तुम्हें बुलाया है.’’

‘‘अच्छा,’’ विभा ने मुकेश के हाथ से कोट ले कर अलमारी में टांगते हुए कहा.

अगले दिन सुबह मुकेश को दफ्तर भेज कर विभा अपने भैयाभाभी से मिलने तिलक नगर चली गई. वे दक्षिण भारत घूम कर लौटे थे और घर के सदस्यों के लिए तरहतरह के उपहार लाए थे. विभा अपने लिए लाई गई मैसूर जार्जेट की साड़ी देख कर खिल उठी थी.

विभा की मां को अचानक कुछ याद आया. वे अपनी मेज पर रखी चिट्ठियों में से एक कार्ड निकाल कर विभा को देते हुए बोलीं, ‘‘यह तेरे नाम का एक कार्ड आया था.’’

‘‘किस का कार्ड है?’’ विभा की भाभी शीला ने कार्ड की तरफ देखते हुए पूछा.

‘‘मेरे एक मित्र का कार्ड है, भाभी. नव वर्ष, दीवाली, होली, जन्मदिन आदि पर हम लोग कार्ड भेज कर एकदूसरे को बधाई देते हैं,’’ विभा ने कार्ड पढ़ते हुए कहा.

‘‘कभी मुलाकात भी होती है इन मित्रों से?’’ शीला भाभी ने तनिक सोचते हुए कहा.

‘‘कभी आमनेसामने तो मुलाकात नहीं हुई, न ऐसी जरूरत ही महसूस हुई,’’ विभा ने सहज भाव से कार्ड देखते हुए उत्तर दिया.

‘‘तुम्हारे पास ससुराल में भी ऐसे बधाई कार्ड पहुंचते हैं?’’ शीला ने अगला प्रश्न किया.

‘‘हांहां, वहां भी मेरे कार्ड आते हैं,’’ विभा ने तनिक उत्साह से बताया.

‘‘क्या मुकेश भाई भी तुम्हारे इन पत्र मित्रों के बधाई कार्ड देखते हैं?’’ इस बार शीला भाभी ने सीधा सवाल किया.

‘‘क्यों? ऐसी क्या गलत बात है इन बधाई कार्डों में?’’ प्रत्युत्तर में विभा का स्वर भी बदल गया था.

‘‘अब तुम विवाहिता हो विभा और विवाहित जीवन में ये बातें कोई महत्त्व नहीं रखतीं. मैं मानती हूं कि तुम्हारा तनमन निर्मल है, लेकिन पतिपत्नी का रिश्ता बहुत नाजुक होता है. अगर इस रिश्ते में एक बार शक का बीज पनप

गया तो सारा जीवन अपनी सफाई देते हुए ही नष्ट हो जाता है. इसलिए बेहतर यही होगा कि तुम यह पत्र मित्रता अब यहीं खत्म कर दो,’’ शीला ने समझाते हुए कहा.

‘‘भाभी, तुम अच्छी तरह जानती हो कि हम लोग यह बधाई कार्ड सिर्फ एक दोस्त की हैसियत से भेजते हैं. इतनी साधारण सी बात मुकेश और मेरे बीच में शक का कारण बन सकती है, मैं ऐसा नहीं मानती,’’ विभा तुनक कर बोली.

शाम ढल रही थी और विभा को घर लौटना था, इसलिए चर्चा वहीं खत्म हो गई. विभा अपना उपहार ले कर खुशीखुशी ससुराल लौट आई.

लगभग पूरा महीना सर्दी की चपेट में ठंड से ठिठुरते हुए कब बीत गया, कुछ पता ही न चला. गरमी की दस्तक देती एक दोपहर में जब विभा नहा कर अपने कमरे में आई तो देखा, मुकेश का चेहरा कुछ उतरा हुआ सा है. वह मुसकरा कर अपनी साड़ी का पल्ला हवा में लहराते हुए बोली, ‘‘सुनिए.’’

 

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March 01, 2021 at 10:00AM

Women’s Day Special: -भाग 1-कागज का रिश्ता-विभा किसके खत को पढ़कर खुश हो जाती थी

विभा अपने नाम आते गुलाबी खतों को देख खिल जाती थी. लेकिन वह इस बात से अनजान थी कि इन्हीं खतों की वजह से वह परिवार के सभी सदस्यों की नजरों में संदेह के घेरे में आ जाएगी. क्या वाकई खत लिखने वाले के साथ विभा का कोई संबंध था?

‘‘यह लो भाभी, तुम्हारा पत्र,’’ राकेश ने मुसकराते हुए गुलाबी रंग के पत्र को विभा की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

सर्दियों की गुनगुनी धूप में बाहर आंगन में बैठी विमला देवी ने बहू के हाथों में पत्र देखा तो बोलीं, ‘‘किस का पत्र है?’’

‘‘मेरे एक मित्र का पत्र है, मांजी,’’ कहते हुए विभा पत्र ले कर अपने कमरे में दाखिल हो गई तो राकेश अपनी मां के पास पड़ी कुरसी पर आ बैठा.

कालेज में पढ़ने वाला नौजवान हर बात पर गौर करने लगा था. साधारण सी घटना को भी राकेश संदेह की नजर से देखनेपरखने लगा था. यों तो विभा के पत्र अकसर आते रहते थे, पर उस दिन जिस महकमुसकान के साथ उस ने वह पत्र देवर के हाथ से लिया था, उसे देख कर राकेश की निगाह में संदेह का बादल उमड़ आया.

‘‘राकेश बेटा, उमा की कोई चिट्ठी नहीं आती. लड़की की राजीखुशी का तो पता करना ही चाहिए,’’ विमला देवी अपनी लड़की के लिए चिंतित हो उठी थीं.

‘‘मां, उमा को भी तो यहां से कोई पत्र नहीं लिखता. वह बेचारी कब तक पत्र डालती रहे?’’ राकेश ने भाभी के कमरे की तरफ देखते हुए कहा. उधर से आती किसी गजल के मधुर स्वर ने राकेश की बात को वहीं तक सीमित कर दिया.

‘‘पर बहू तो अकसर डाकखाने जाती है,’’ विमला देवी ने कहा.

‘‘आप की बहू अपने मित्रों को पत्र डालने जाती हैं मां, अपनी ननद को नहीं. जिन्हें यह पत्र डालने जाती हैं उन की लगातार चिट्ठियां आती रहती हैं. अब देखो, इस पिछले पंद्रह दिनों में उन के पास यह दूसरा गुलाबी लिफाफा आया है,’’ राकेश ने तनिक गंभीरता से कहा.

‘‘बहू के इन मित्रों के बारे में मुकेश को तो पता होगा,’’ इस बार विमला देवी भी सशंकित हो उठी थीं. यों उन्हें अपनी बहू से कोई शिकायत नहीं थी. वह सुंदर, सुघड़ और मेहनती थी. नएनए पकवान बनाने और सब को आग्रह से खिलाने पर ही वह संतोष मानती थी. सब के सुखदुख में तो वह ऐसे घुलमिल जाती जैसे वे उस के अपने ही सुखदुख हों. घर के सदस्यों की रुचि का वह पूरा ध्यान रखती.

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विभा अपने नाम आते गुलाबी खतों को देख खिल जाती थी. लेकिन वह इस बात से अनजान थी कि इन्हीं खतों की वजह से वह परिवार के सभी सदस्यों की नजरों में संदेह के घेरे में आ जाएगी. क्या वाकई खत लिखने वाले के साथ विभा का कोई संबंध था?

‘‘यह लो भाभी, तुम्हारा पत्र,’’ राकेश ने मुसकराते हुए गुलाबी रंग के पत्र को विभा की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

सर्दियों की गुनगुनी धूप में बाहर आंगन में बैठी विमला देवी ने बहू के हाथों में पत्र देखा तो बोलीं, ‘‘किस का पत्र है?’’

‘‘मेरे एक मित्र का पत्र है, मांजी,’’ कहते हुए विभा पत्र ले कर अपने कमरे में दाखिल हो गई तो राकेश अपनी मां के पास पड़ी कुरसी पर आ बैठा.

कालेज में पढ़ने वाला नौजवान हर बात पर गौर करने लगा था. साधारण सी घटना को भी राकेश संदेह की नजर से देखनेपरखने लगा था. यों तो विभा के पत्र अकसर आते रहते थे, पर उस दिन जिस महकमुसकान के साथ उस ने वह पत्र देवर के हाथ से लिया था, उसे देख कर राकेश की निगाह में संदेह का बादल उमड़ आया.

‘‘राकेश बेटा, उमा की कोई चिट्ठी नहीं आती. लड़की की राजीखुशी का तो पता करना ही चाहिए,’’ विमला देवी अपनी लड़की के लिए चिंतित हो उठी थीं.

‘‘मां, उमा को भी तो यहां से कोई पत्र नहीं लिखता. वह बेचारी कब तक पत्र डालती रहे?’’ राकेश ने भाभी के कमरे की तरफ देखते हुए कहा. उधर से आती किसी गजल के मधुर स्वर ने राकेश की बात को वहीं तक सीमित कर दिया.

‘‘पर बहू तो अकसर डाकखाने जाती है,’’ विमला देवी ने कहा.

‘‘आप की बहू अपने मित्रों को पत्र डालने जाती हैं मां, अपनी ननद को नहीं. जिन्हें यह पत्र डालने जाती हैं उन की लगातार चिट्ठियां आती रहती हैं. अब देखो, इस पिछले पंद्रह दिनों में उन के पास यह दूसरा गुलाबी लिफाफा आया है,’’ राकेश ने तनिक गंभीरता से कहा.

‘‘बहू के इन मित्रों के बारे में मुकेश को तो पता होगा,’’ इस बार विमला देवी भी सशंकित हो उठी थीं. यों उन्हें अपनी बहू से कोई शिकायत नहीं थी. वह सुंदर, सुघड़ और मेहनती थी. नएनए पकवान बनाने और सब को आग्रह से खिलाने पर ही वह संतोष मानती थी. सब के सुखदुख में तो वह ऐसे घुलमिल जाती जैसे वे उस के अपने ही सुखदुख हों. घर के सदस्यों की रुचि का वह पूरा ध्यान रखती.

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March 01, 2021 at 10:00AM

बेरी का झाड़: सुकुमार सेन शांत स्वभाव का क्यों था

सुकुमार सेन नाम था उस का. घर हो या बाहर, वह अपनी एक नई पहचान बना चुका था. दफ्तर में घुसते ही मानो वह एक मशीन का पुरजा बन जाता हो. उस के चेहरे पर शांति रहती, पर सख्ती भी. उस का चैंबर बड़ा था. वह एसी थोड़ी देर ही चलवाता फिर बंद करवा देता. उस का मानना था कि अगर यहां अधिक ठंडक हुई तो बाहर जा कर वह बीमार पड़ जाएगा. बरामदे में गरम हवा चलती है. सुकुमार के पीए ने बताया, ‘‘साहब ज्यादा बात नहीं करते, फाइल जाते ही निकल आती है, बुला कर कुछ पूछते नहीं.’’

‘‘तो इस में क्या नुकसान है?’’ कार्यालय में सेवारत बाबू पीयूष ने पूछा.

‘‘बात तो ठीक है, पर अपनी पुरानी आदत है कि साहब कुछ पूछें तो मैं कुछ बताऊं.’’

‘‘क्या अब घर पर जाना नहीं होता?’’

‘‘नहीं, कोई काम होता है तो साहब लौटते समय खुद कर लेते हैं या मैडम को फोन कर देते हैं. कभी बाहर का काम होता है तो हमें यहीं पर ही बता देते हैं.’’

‘‘बात तो सही है,’’ पीयूष बोले, ‘‘पर यार, यह खड़ूस भी है. अंदर जाओ तो लगता है कि एक्सरे रूम में आ गए हैं, सवाल सीधा फेंकता है, बंदूक की गोली की तरह.’’

‘‘क्यों, कुछ हो गया क्या?’’ पीए हंसते हुए बोला.

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‘‘हां यार, वह शाहबाद वाली फाइल थी, मुझ से कहा था, सोमवार को पुटअप करना. मैं तो भूल गया था. बारां वाली फाइल ले कर गया. उस ने भीतर कंप्यूटर खोल रखा था, देख कर बोला, ‘आप को आज शाहबाद वाली फाइल लानी थी, उस का क्या हुआ?’

‘‘यार, इतने कागज ले गया, उस का कोई प्रभाव नहीं, वह तो उसी फाइल को ले कर अटक गया. मैं ने देखा, उस ने मेरे नाम का फोल्डर खोल रखा था. वहां पर मेरा नाम लिखा था. लाल लाइन भी आ गई थी. यार, ये नए लोग क्याक्या सीख कर आए हैं?’’

‘‘हूं,’’ पीए बोला, ‘‘मुझे बुलाते नहीं हैं. चपरासी एक डिक्टाफोन ले आया था, उस में मैसेज होता है. मैं टाइप कर के सीधा यहीं से मेल कर देता हूं, वे वहां से करैक्ट कर के, मुझे रिंग कर देते हैं. मैं कौपी निकाल कर भिजवा देता हूं. बातचीत बहुत ही कम हो गई है.’’

सुकुमार, आईआईटी कर के  प्रशासन में आ गया था. जब यहां आया तो पाया कि उस का काम करना क्यों लोगों को पसंद आएगा? दफ्तर के आगे एक तख्ती लगी हुई थी, उस पर लिखा था, ‘मिलने का समय 3 से 4 बजे तक…’ वह देख कर हंसा था. उस ने पीए को बुलाया, ‘‘यहां दिनभर कितने लोग मिलने आते हैं?’’

पीए चौंका था, ‘‘यही कोई 30-40, कभी 50, कभी ज्यादा भी.’’

‘‘तब बताओ, कोई 1 घंटे में सब से कैसे मिल पाएगा?’’

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‘‘सर, मीटिंग भी यहां बहुत होती हैं. आप को टाइम सब जगह देना होता है.’’

‘‘हूं, यह तख्ती हटा दो और जब भी कोई आए, उस की स्लिप तुम कंप्यूटर पर चढ़ा दो. जब भी मुझे समय होगा, मैं बुला लूंगा. हो सकता है, वह तुरंत मिल पाए, या कुछ समय इंतजार कर ले, पास वाला कमरा खाली करवा दो, लोग उस में बैठ जाएंगे.’’

सब से अधिक नाराज नानू हुआ था. वह दफ्तरी था. बाहर का चपरासी. वह मिलाई के ही पैसे लेता था. ‘साहब बहुत बिजी हैं. आज नहीं मिल पाएंगे. आप की स्लिप अंदर दे आता हूं,’ कह कर स्लिप अपनी जेब में रख लेता था. लोग घंटों इंतजार करते, बड़े साहब से कैसे मिला जाए? कभी किसी नेता को या बिचौलिए को लाते, दस्तूर यही था. पर सुकुमार ने रेत का महल गिरा दिया था.सुकुमार को अगर किसी को दोबारा बुलाना होता तो वह उस की स्लिप पर ही अगली तारीख लिख देता, जिसे पीए अपने कंप्यूटर पर चढ़ा देता. भीड़ कम हो गई थी. बरामदा खाली रहता.

उस दिन मनीष का फोन था. वे विधायक थे, नाराज हो रहे थे, ‘‘यह आप ने क्या कर दिया? आप ने तो हमारा काम भी करना शुरू कर दिया.’’

‘‘क्या?’’ वह चौंका, ‘‘सर, मैं आप की बात समझ नहीं पाया.’’

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‘‘अरे भई, जब आप ही सारे कामकाज निबटा देंगे तो फिर हमारी क्या जरूरत रहेगी?’’

सुकुमार का चेहरा, जो मुसकराहट भूल गया था, खिल गया.

‘‘भई, पहले तो फाइलें हमारे कहने से ही खिकसती थीं, चलती थीं, दौड़ती थीं. हम जनता से कहते हैं कि उन का काम हम नहीं करवाएंगे तो फिर हम क्या करेंगे? ठीक है, आप ने प्रशासन को चुस्त कर दिया है. आप की बहुत तारीफ हो रही है, पर हमारे तो आप ने पर ही काट दिए हैं. शाहबाद वाली फाइल को तो अभी आप रोक लें. मैं आप से आ कर बात कर लूंगा. तब मैं मुख्यमंत्री से भी मिला था.’’

सुकुमार चौंक गया, ‘हूं, तभी पीयूष बाबू वह फाइल ले कर नहीं आया था.’

उस दिन पीए बता रहा था, ‘चूड़ावतजी के किसी रिश्तेदार का बड़ा घपला है. यह फाइल बरसों सीएम सैक्रेटेरियट में पड़ी रही है. अब लौटी है. सुना है, आदिवासियों की ग्रांट का मामला था. कभी उन की सहकारी समिति बना कर जमीनें एलौट की गई थीं, बाद में धीरेधीरे ये जमीनें चूड़ावतजी के रिश्तेदार हड़पते चले गए. हजारों बीघा जमीन, जिस पर चावल पैदा होता है, उन के ही रिश्तेदारों के पास है. उन का ही कब्जा है.

‘कभी बीच में किसी पढ़ेलिखे आदिवासी ने यह मामला उठाया था. आंदोलन भी हुए. तब सरकार ने जांच कमेटी बनाई थी और इस सोसाइटी को भंग कर दिया था. फिर धीरेधीरे मामला दबता गया. उस आदिवासी नेता का अब पता भी नहीं है कि वह कहां है. जो अधिकारी जांच कर रहे थे, उन के तबादले हो गए. जमीनें अभी भी चूड़ावतजी के रिश्तेदारों के पास ही हैं.’

‘हूं,’ अचानक उसे राजधानी ऐक्सप्रैस में बैठा वह युवक याद आ गया जो उस के साथ ही गोहाटी से दिल्ली आ रहा था. वह बेहद चुप था. बस, किताबें पढ़ रहा था, कभीकभी अपने लैपटौप पर मैसेज चैक कर लेता था.

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हां, शायद बनारस ही था, जब उस ने पूछा था, ‘क्या वह भी दिल्ली जा रहा है?’

‘हां,’ सुकुमार ने कहा था.

‘आप?’

‘मैं भी…’

‘आप?’

‘मैं प्रशासनिक सेवा में हूं,’ सुकुमार ने कहा.

‘बहुत अच्छे,’ वह मुसकराया था. उस के हाथ में अंगरेजी का कोई उपन्यास था, ‘आप लोगों से ही उम्मीद है,’ वह बोला, ‘मैं किताब पढ़ रहा हूं. इस में झारखंड, बिहार, ओडिशा, मध्य प्रदेश के आदिवासियों के शोषण की कहानी है. हम पढ़ सकते हैं, यही बहुत है, पर अगर हालात नहीं सुधरे तो…’

सुकुमार चुप रहा. ट्रेनिंग के दौरान एक बार वह भी इन पिछड़े इलाकों में रहा था.  वह सोच में डूब गया, ‘यह हमारा भारत है, जो पहले भारत से बिलकुल अलग है.’

‘आप कर सकें तो करें, इन के लिए सोचें. इन लोगों ने जमीन, जंगल, खान, औरत, जो संपत्ति है, सब को बेच सा दिया है. जो मालिक हैं, उन के पास कुछ भी नहीं है. अभी वे मरेंगे, सच है, पर कल वे मारेंगे. आप लोग जो कर सकते हैं, वह सोचें. आप पर अभी हमारा विश्वास है.’सुकुमार ने ज्यादा उस से नहीं पूछा, उसे भी नींद आने लग गई थी, वह सो गया था.पर अचानक चूड़ावत के फोन से मानो वह नींद से जाग गया हो. उसे उस यात्री का चेहरा याद आ गया, वह तो उस से भी अधिक शांत व मौन यात्री था.

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सुनंदा कह रही थी, ‘‘बहन के यहां शादी है, जाना है. तुम्हारे पास तो टाइम नहीं है, गाड़ी भेज दो.’’

‘‘गाड़ी अपनी ले जाओ.’’

‘‘पर मैं गाड़ी चला कर बाजार नहीं जाऊंगी.’’

‘‘मैं ड्राइवर भेज दूंगा. आज मैं टूर पर नहीं हूं.’’

‘‘तुम अफसर हो या…’’

‘‘खच्चर,’’ वह अपनेआप पर हंसा, ‘‘मैं नहीं चाहता कल कोई मुझ पर उंगली उठाए. सरकारी गाड़ी को बाजार में देख कर लोग चौंकते हैं.’’

‘‘ठीक है, तुम्हें मेरे साथ नहीं जाना है, मुझे पता है.’’

‘‘यह बात नहीं, यह काम तुम कर सकती हो, तुम्हारा ही है, तुम चली जाओ. एटीएम कार्ड तुम्हारे पास है, रास्ते में एटीएम मशीन से रुपए निकाल लेना.’’

सुनंदा फीकी हंसी हंस कर बोली, ‘‘मुझे क्या पता था कि तुम…?’’

‘‘क्या?’’ वह बोला.

‘‘बेरी के झाड़ हो.’’‘‘तभी तो जो दरवाजे पर लगा है, काटने नहीं देता. उस दिन पंडितजी आए थे. उन की टोपी बेरी की डाल में अटक गई. उन्हें पता ही नहीं चला कि टोपी कहां है. वे नंगे सिर जब यहां आए तो लोग उन्हें देख कर हंसने लगे.

‘‘उस दिन मिसेज गुप्ता आई थीं. उन की साड़ी डाल में उलझ गई. बोलीं, ‘इसे कटवा क्यों नहीं देते, यह भी कोई ऐंटिक है क्या?’’’

‘‘तुम्हारा यह झाड़ क्या बिगाड़ता है?’’ वह बोला. जवाब नदारद.

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‘‘देखो, जब मैं बाहर जाता हूं तो देखता हूं, पास की झोपड़ी वालों की बकरियां इस के पास खड़ी हो कर इस की पत्तियां खाती हैं, वह उन का भोजन है. इस पर बेर भी मीठे आते हैं, यहां के गरीब अपने घर ले जाते हैं. यह गरीबों का फल है, उन का पेड़ है. यह सागवान या चंदन का होता तो लोग कभी का इसे काट कर ले गए होते.’’

सुनंदा चुप रह जाती. बेर का पेड़, गरीबों का पेड़ बन जाता, वह फालतू के तर्क में नहीं जाना चाहती. पर सुकुमार का दफ्तर भी तंदूर की तरह सिंकने लग गया था, पता नहीं क्या हो गया, पीए भी बुदबुदाता रहता, न दफ्तरी खुश था, न ड्राइवर, नीचे के अफसर भी दबेदबे चुप रहते, पीयूषजी से जब से शाहबाद की फाइल पर डांट लगी थी, वे आंदोलन की राह पर चलने की सोच रहे थे. वे कर्मचारी संघ की बैठक करा चुके थे, पर कोई बड़ा मुद्दा सामने नहीं था. सुकुमार बोलता भी धीरे से था, पर जो कहता वह होता. वह कह देता, फाइल पर नोट चला आता. नोट होता या चार्जशीट, दूसरा पढ़ कर घबरा जाता.

पर उस दिन सुनंदा ने दफ्तर में ही उसे फोन पर याद दिलाया था, ‘‘आज विमलजी के यहां पार्टी है, उन की मैरिज सैरेमनी है, शाम को डिनर वहीं है, याद है?’’

‘‘हांहां,’’ वह बोला, ‘‘मैं शाम को जल्दी पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘विमलजी सिंचाई विभाग में एडिशनल चीफ इंजीनियर हैं. एडिशनल कमिश्नर बता रहे थे कि उन के पास बहुत पैसा है. धूमधाम से पार्टी कर रहे हैं. सिंचाई भवन सजा दिया गया है.’’

वह यह सब सुन कर चुप रहा. सुनंदा का फोन उसे भीतर तक हिला रहा था. उस की भी मैरिज सैरेमनी अगले महीने है. वह शायद आज से ही विचार कर रही है. हम उन के यहां गए हैं, तुम भी औरों को बुलाओ.

शाम होते ही वह आज जल्दी ही दफ्तर से बाहर आ गया. गाड़ी पोर्च में लग चुकी थी. हमेशा की तरह चपरासी ने फाइलें ला कर गाड़ी में रख दी थीं.

दफ्तर से बाहर निकलते ही पाया कि चौराहे पर भारी भीड़ है. बहुत से लोग दफ्तर के ही थे.

‘‘क्या हुआ?’’ वह गाड़ी को रोक कर नीचे उतरा.

ड्राइवर भी तुरंत बाहर आ कर भीड़ के पास जा चुका था. वह तेजी से वापस लौटा, ‘‘सर, गजब हो गया.’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘पीयूषजी के स्कूटर को कोई कार टक्कर मार कर निकल गई.’’

सुकुमार तेजी से आगे बढ़ा, उसे देख कर लोग चौंके.

उस ने देखा, पीयूषजी का शरीर खून से नहाया हुआ था. उन के दोनों पांवों में चोट थी. सिर पर रखे हैलमेट ने उसे बचा तो लिया था पर वे बेहोश हो चुके थे.

‘‘उठाओ इन्हें,’’ उस ने ड्राइवर से कहा, और अपनी‘‘सर, गाड़ी…?’’ ड्राइवर बोला.

‘‘धुल जाएगी.’’

उस के पीछेपीछे दफ्तर के और लोग भी अस्पताल आगए थे. तुरंत पीयूषजी को भरती करा कर उन के घर फोन कर दिया गया था. पीए, दफ्तरी, और सारे बाबू अवाक् थे, ‘सर तो पार्टी में जा रहे थे, वे यहां?’

तभी सुकुमार का मोबाइल बजा. देखा, सुनंदा का फोन था.

‘‘तुम वहां चली जाओ, मुझे आने में देर हो जाएगी.’’

‘‘तुम?’’

‘‘एक जरूरी काम आ गया है, उसे पूरा कर के आ जाऊंगा.’’

‘बेरी का झाड़,’ सुनंदा बड़बड़ाई. बच्चे तो घंटाभर पहले ही तैयार हो गए थे. फोन बंद हो गया था.

‘‘क्या हुआ? मां, पापा नहीं आ रहे?’’

‘‘आएंगे, जरूरी काम आ गया है, वे सीधे वहीं आ जाएंगे. हम लोग चलते हैं,’’ सुनंदा बोली.

वह वहां पहुंचा ही था कि तभी चिकित्सक भी आ गए थे, आईसीयू में पीयूषजी को ले जाया गया था. उन्हें होश आ गया था. उन्होंने देखा, वे अस्पताल के बैड पर लेटे हैं, पर पास में सुकुमार खड़े हैं.

‘‘सर, आप?’’

‘‘अब आप ठीक हैं. आप की मिसेज आ गई हैं. मैं चलता हूं. यहां अब कोई तकलीफ नहीं होगी. सुबह मैं आप को देख जाऊंगा,’’ वह चलते हुए बोला.

उस का चेहरा शांत था, और वह चुप था. तभी उस ने देखा, अचानक बाबुओं की भीड़, जो बाहर जमा थी, वह उसे धन्यवाद देने को आतुर थी. मानो सागर तट पर तेज लहरें चली आई हों, ‘‘यह क्या, नहींनहीं, आप रहने दें. यह अच्छा नहीं है,’’ कहता हुआ सुकुमार उसी तरह अपनी उसी चाल से बाहर चला गया.

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सुकुमार सेन नाम था उस का. घर हो या बाहर, वह अपनी एक नई पहचान बना चुका था. दफ्तर में घुसते ही मानो वह एक मशीन का पुरजा बन जाता हो. उस के चेहरे पर शांति रहती, पर सख्ती भी. उस का चैंबर बड़ा था. वह एसी थोड़ी देर ही चलवाता फिर बंद करवा देता. उस का मानना था कि अगर यहां अधिक ठंडक हुई तो बाहर जा कर वह बीमार पड़ जाएगा. बरामदे में गरम हवा चलती है. सुकुमार के पीए ने बताया, ‘‘साहब ज्यादा बात नहीं करते, फाइल जाते ही निकल आती है, बुला कर कुछ पूछते नहीं.’’

‘‘तो इस में क्या नुकसान है?’’ कार्यालय में सेवारत बाबू पीयूष ने पूछा.

‘‘बात तो ठीक है, पर अपनी पुरानी आदत है कि साहब कुछ पूछें तो मैं कुछ बताऊं.’’

‘‘क्या अब घर पर जाना नहीं होता?’’

‘‘नहीं, कोई काम होता है तो साहब लौटते समय खुद कर लेते हैं या मैडम को फोन कर देते हैं. कभी बाहर का काम होता है तो हमें यहीं पर ही बता देते हैं.’’

‘‘बात तो सही है,’’ पीयूष बोले, ‘‘पर यार, यह खड़ूस भी है. अंदर जाओ तो लगता है कि एक्सरे रूम में आ गए हैं, सवाल सीधा फेंकता है, बंदूक की गोली की तरह.’’

‘‘क्यों, कुछ हो गया क्या?’’ पीए हंसते हुए बोला.

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‘‘हां यार, वह शाहबाद वाली फाइल थी, मुझ से कहा था, सोमवार को पुटअप करना. मैं तो भूल गया था. बारां वाली फाइल ले कर गया. उस ने भीतर कंप्यूटर खोल रखा था, देख कर बोला, ‘आप को आज शाहबाद वाली फाइल लानी थी, उस का क्या हुआ?’

‘‘यार, इतने कागज ले गया, उस का कोई प्रभाव नहीं, वह तो उसी फाइल को ले कर अटक गया. मैं ने देखा, उस ने मेरे नाम का फोल्डर खोल रखा था. वहां पर मेरा नाम लिखा था. लाल लाइन भी आ गई थी. यार, ये नए लोग क्याक्या सीख कर आए हैं?’’

‘‘हूं,’’ पीए बोला, ‘‘मुझे बुलाते नहीं हैं. चपरासी एक डिक्टाफोन ले आया था, उस में मैसेज होता है. मैं टाइप कर के सीधा यहीं से मेल कर देता हूं, वे वहां से करैक्ट कर के, मुझे रिंग कर देते हैं. मैं कौपी निकाल कर भिजवा देता हूं. बातचीत बहुत ही कम हो गई है.’’

सुकुमार, आईआईटी कर के  प्रशासन में आ गया था. जब यहां आया तो पाया कि उस का काम करना क्यों लोगों को पसंद आएगा? दफ्तर के आगे एक तख्ती लगी हुई थी, उस पर लिखा था, ‘मिलने का समय 3 से 4 बजे तक…’ वह देख कर हंसा था. उस ने पीए को बुलाया, ‘‘यहां दिनभर कितने लोग मिलने आते हैं?’’

पीए चौंका था, ‘‘यही कोई 30-40, कभी 50, कभी ज्यादा भी.’’

‘‘तब बताओ, कोई 1 घंटे में सब से कैसे मिल पाएगा?’’

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‘‘सर, मीटिंग भी यहां बहुत होती हैं. आप को टाइम सब जगह देना होता है.’’

‘‘हूं, यह तख्ती हटा दो और जब भी कोई आए, उस की स्लिप तुम कंप्यूटर पर चढ़ा दो. जब भी मुझे समय होगा, मैं बुला लूंगा. हो सकता है, वह तुरंत मिल पाए, या कुछ समय इंतजार कर ले, पास वाला कमरा खाली करवा दो, लोग उस में बैठ जाएंगे.’’

सब से अधिक नाराज नानू हुआ था. वह दफ्तरी था. बाहर का चपरासी. वह मिलाई के ही पैसे लेता था. ‘साहब बहुत बिजी हैं. आज नहीं मिल पाएंगे. आप की स्लिप अंदर दे आता हूं,’ कह कर स्लिप अपनी जेब में रख लेता था. लोग घंटों इंतजार करते, बड़े साहब से कैसे मिला जाए? कभी किसी नेता को या बिचौलिए को लाते, दस्तूर यही था. पर सुकुमार ने रेत का महल गिरा दिया था.सुकुमार को अगर किसी को दोबारा बुलाना होता तो वह उस की स्लिप पर ही अगली तारीख लिख देता, जिसे पीए अपने कंप्यूटर पर चढ़ा देता. भीड़ कम हो गई थी. बरामदा खाली रहता.

उस दिन मनीष का फोन था. वे विधायक थे, नाराज हो रहे थे, ‘‘यह आप ने क्या कर दिया? आप ने तो हमारा काम भी करना शुरू कर दिया.’’

‘‘क्या?’’ वह चौंका, ‘‘सर, मैं आप की बात समझ नहीं पाया.’’

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‘‘अरे भई, जब आप ही सारे कामकाज निबटा देंगे तो फिर हमारी क्या जरूरत रहेगी?’’

सुकुमार का चेहरा, जो मुसकराहट भूल गया था, खिल गया.

‘‘भई, पहले तो फाइलें हमारे कहने से ही खिकसती थीं, चलती थीं, दौड़ती थीं. हम जनता से कहते हैं कि उन का काम हम नहीं करवाएंगे तो फिर हम क्या करेंगे? ठीक है, आप ने प्रशासन को चुस्त कर दिया है. आप की बहुत तारीफ हो रही है, पर हमारे तो आप ने पर ही काट दिए हैं. शाहबाद वाली फाइल को तो अभी आप रोक लें. मैं आप से आ कर बात कर लूंगा. तब मैं मुख्यमंत्री से भी मिला था.’’

सुकुमार चौंक गया, ‘हूं, तभी पीयूष बाबू वह फाइल ले कर नहीं आया था.’

उस दिन पीए बता रहा था, ‘चूड़ावतजी के किसी रिश्तेदार का बड़ा घपला है. यह फाइल बरसों सीएम सैक्रेटेरियट में पड़ी रही है. अब लौटी है. सुना है, आदिवासियों की ग्रांट का मामला था. कभी उन की सहकारी समिति बना कर जमीनें एलौट की गई थीं, बाद में धीरेधीरे ये जमीनें चूड़ावतजी के रिश्तेदार हड़पते चले गए. हजारों बीघा जमीन, जिस पर चावल पैदा होता है, उन के ही रिश्तेदारों के पास है. उन का ही कब्जा है.

‘कभी बीच में किसी पढ़ेलिखे आदिवासी ने यह मामला उठाया था. आंदोलन भी हुए. तब सरकार ने जांच कमेटी बनाई थी और इस सोसाइटी को भंग कर दिया था. फिर धीरेधीरे मामला दबता गया. उस आदिवासी नेता का अब पता भी नहीं है कि वह कहां है. जो अधिकारी जांच कर रहे थे, उन के तबादले हो गए. जमीनें अभी भी चूड़ावतजी के रिश्तेदारों के पास ही हैं.’

‘हूं,’ अचानक उसे राजधानी ऐक्सप्रैस में बैठा वह युवक याद आ गया जो उस के साथ ही गोहाटी से दिल्ली आ रहा था. वह बेहद चुप था. बस, किताबें पढ़ रहा था, कभीकभी अपने लैपटौप पर मैसेज चैक कर लेता था.

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हां, शायद बनारस ही था, जब उस ने पूछा था, ‘क्या वह भी दिल्ली जा रहा है?’

‘हां,’ सुकुमार ने कहा था.

‘आप?’

‘मैं भी…’

‘आप?’

‘मैं प्रशासनिक सेवा में हूं,’ सुकुमार ने कहा.

‘बहुत अच्छे,’ वह मुसकराया था. उस के हाथ में अंगरेजी का कोई उपन्यास था, ‘आप लोगों से ही उम्मीद है,’ वह बोला, ‘मैं किताब पढ़ रहा हूं. इस में झारखंड, बिहार, ओडिशा, मध्य प्रदेश के आदिवासियों के शोषण की कहानी है. हम पढ़ सकते हैं, यही बहुत है, पर अगर हालात नहीं सुधरे तो…’

सुकुमार चुप रहा. ट्रेनिंग के दौरान एक बार वह भी इन पिछड़े इलाकों में रहा था.  वह सोच में डूब गया, ‘यह हमारा भारत है, जो पहले भारत से बिलकुल अलग है.’

‘आप कर सकें तो करें, इन के लिए सोचें. इन लोगों ने जमीन, जंगल, खान, औरत, जो संपत्ति है, सब को बेच सा दिया है. जो मालिक हैं, उन के पास कुछ भी नहीं है. अभी वे मरेंगे, सच है, पर कल वे मारेंगे. आप लोग जो कर सकते हैं, वह सोचें. आप पर अभी हमारा विश्वास है.’सुकुमार ने ज्यादा उस से नहीं पूछा, उसे भी नींद आने लग गई थी, वह सो गया था.पर अचानक चूड़ावत के फोन से मानो वह नींद से जाग गया हो. उसे उस यात्री का चेहरा याद आ गया, वह तो उस से भी अधिक शांत व मौन यात्री था.

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सुनंदा कह रही थी, ‘‘बहन के यहां शादी है, जाना है. तुम्हारे पास तो टाइम नहीं है, गाड़ी भेज दो.’’

‘‘गाड़ी अपनी ले जाओ.’’

‘‘पर मैं गाड़ी चला कर बाजार नहीं जाऊंगी.’’

‘‘मैं ड्राइवर भेज दूंगा. आज मैं टूर पर नहीं हूं.’’

‘‘तुम अफसर हो या…’’

‘‘खच्चर,’’ वह अपनेआप पर हंसा, ‘‘मैं नहीं चाहता कल कोई मुझ पर उंगली उठाए. सरकारी गाड़ी को बाजार में देख कर लोग चौंकते हैं.’’

‘‘ठीक है, तुम्हें मेरे साथ नहीं जाना है, मुझे पता है.’’

‘‘यह बात नहीं, यह काम तुम कर सकती हो, तुम्हारा ही है, तुम चली जाओ. एटीएम कार्ड तुम्हारे पास है, रास्ते में एटीएम मशीन से रुपए निकाल लेना.’’

सुनंदा फीकी हंसी हंस कर बोली, ‘‘मुझे क्या पता था कि तुम…?’’

‘‘क्या?’’ वह बोला.

‘‘बेरी के झाड़ हो.’’‘‘तभी तो जो दरवाजे पर लगा है, काटने नहीं देता. उस दिन पंडितजी आए थे. उन की टोपी बेरी की डाल में अटक गई. उन्हें पता ही नहीं चला कि टोपी कहां है. वे नंगे सिर जब यहां आए तो लोग उन्हें देख कर हंसने लगे.

‘‘उस दिन मिसेज गुप्ता आई थीं. उन की साड़ी डाल में उलझ गई. बोलीं, ‘इसे कटवा क्यों नहीं देते, यह भी कोई ऐंटिक है क्या?’’’

‘‘तुम्हारा यह झाड़ क्या बिगाड़ता है?’’ वह बोला. जवाब नदारद.

ये भी पढ़ें-प्रमाण दो

‘‘देखो, जब मैं बाहर जाता हूं तो देखता हूं, पास की झोपड़ी वालों की बकरियां इस के पास खड़ी हो कर इस की पत्तियां खाती हैं, वह उन का भोजन है. इस पर बेर भी मीठे आते हैं, यहां के गरीब अपने घर ले जाते हैं. यह गरीबों का फल है, उन का पेड़ है. यह सागवान या चंदन का होता तो लोग कभी का इसे काट कर ले गए होते.’’

सुनंदा चुप रह जाती. बेर का पेड़, गरीबों का पेड़ बन जाता, वह फालतू के तर्क में नहीं जाना चाहती. पर सुकुमार का दफ्तर भी तंदूर की तरह सिंकने लग गया था, पता नहीं क्या हो गया, पीए भी बुदबुदाता रहता, न दफ्तरी खुश था, न ड्राइवर, नीचे के अफसर भी दबेदबे चुप रहते, पीयूषजी से जब से शाहबाद की फाइल पर डांट लगी थी, वे आंदोलन की राह पर चलने की सोच रहे थे. वे कर्मचारी संघ की बैठक करा चुके थे, पर कोई बड़ा मुद्दा सामने नहीं था. सुकुमार बोलता भी धीरे से था, पर जो कहता वह होता. वह कह देता, फाइल पर नोट चला आता. नोट होता या चार्जशीट, दूसरा पढ़ कर घबरा जाता.

पर उस दिन सुनंदा ने दफ्तर में ही उसे फोन पर याद दिलाया था, ‘‘आज विमलजी के यहां पार्टी है, उन की मैरिज सैरेमनी है, शाम को डिनर वहीं है, याद है?’’

‘‘हांहां,’’ वह बोला, ‘‘मैं शाम को जल्दी पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘विमलजी सिंचाई विभाग में एडिशनल चीफ इंजीनियर हैं. एडिशनल कमिश्नर बता रहे थे कि उन के पास बहुत पैसा है. धूमधाम से पार्टी कर रहे हैं. सिंचाई भवन सजा दिया गया है.’’

वह यह सब सुन कर चुप रहा. सुनंदा का फोन उसे भीतर तक हिला रहा था. उस की भी मैरिज सैरेमनी अगले महीने है. वह शायद आज से ही विचार कर रही है. हम उन के यहां गए हैं, तुम भी औरों को बुलाओ.

शाम होते ही वह आज जल्दी ही दफ्तर से बाहर आ गया. गाड़ी पोर्च में लग चुकी थी. हमेशा की तरह चपरासी ने फाइलें ला कर गाड़ी में रख दी थीं.

दफ्तर से बाहर निकलते ही पाया कि चौराहे पर भारी भीड़ है. बहुत से लोग दफ्तर के ही थे.

‘‘क्या हुआ?’’ वह गाड़ी को रोक कर नीचे उतरा.

ड्राइवर भी तुरंत बाहर आ कर भीड़ के पास जा चुका था. वह तेजी से वापस लौटा, ‘‘सर, गजब हो गया.’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘पीयूषजी के स्कूटर को कोई कार टक्कर मार कर निकल गई.’’

सुकुमार तेजी से आगे बढ़ा, उसे देख कर लोग चौंके.

उस ने देखा, पीयूषजी का शरीर खून से नहाया हुआ था. उन के दोनों पांवों में चोट थी. सिर पर रखे हैलमेट ने उसे बचा तो लिया था पर वे बेहोश हो चुके थे.

‘‘उठाओ इन्हें,’’ उस ने ड्राइवर से कहा, और अपनी‘‘सर, गाड़ी…?’’ ड्राइवर बोला.

‘‘धुल जाएगी.’’

उस के पीछेपीछे दफ्तर के और लोग भी अस्पताल आगए थे. तुरंत पीयूषजी को भरती करा कर उन के घर फोन कर दिया गया था. पीए, दफ्तरी, और सारे बाबू अवाक् थे, ‘सर तो पार्टी में जा रहे थे, वे यहां?’

तभी सुकुमार का मोबाइल बजा. देखा, सुनंदा का फोन था.

‘‘तुम वहां चली जाओ, मुझे आने में देर हो जाएगी.’’

‘‘तुम?’’

‘‘एक जरूरी काम आ गया है, उसे पूरा कर के आ जाऊंगा.’’

‘बेरी का झाड़,’ सुनंदा बड़बड़ाई. बच्चे तो घंटाभर पहले ही तैयार हो गए थे. फोन बंद हो गया था.

‘‘क्या हुआ? मां, पापा नहीं आ रहे?’’

‘‘आएंगे, जरूरी काम आ गया है, वे सीधे वहीं आ जाएंगे. हम लोग चलते हैं,’’ सुनंदा बोली.

वह वहां पहुंचा ही था कि तभी चिकित्सक भी आ गए थे, आईसीयू में पीयूषजी को ले जाया गया था. उन्हें होश आ गया था. उन्होंने देखा, वे अस्पताल के बैड पर लेटे हैं, पर पास में सुकुमार खड़े हैं.

‘‘सर, आप?’’

‘‘अब आप ठीक हैं. आप की मिसेज आ गई हैं. मैं चलता हूं. यहां अब कोई तकलीफ नहीं होगी. सुबह मैं आप को देख जाऊंगा,’’ वह चलते हुए बोला.

उस का चेहरा शांत था, और वह चुप था. तभी उस ने देखा, अचानक बाबुओं की भीड़, जो बाहर जमा थी, वह उसे धन्यवाद देने को आतुर थी. मानो सागर तट पर तेज लहरें चली आई हों, ‘‘यह क्या, नहींनहीं, आप रहने दें. यह अच्छा नहीं है,’’ कहता हुआ सुकुमार उसी तरह अपनी उसी चाल से बाहर चला गया.

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March 01, 2021 at 10:00AM

क्या खोया क्या पाया: मौसी जी के अचानक आने से लोग घबरा क्यों गए

धूप का टुकड़ा बरामदे में प्रवेश कर चुका था. सूरज की कोमल किरणों के स्पर्श का अनुभव करते हुए रविवार की सुबह, अखबार पढ़ने के लोभ से मैं कुरसी पर पसर गई. अभी मैं ने अखबार खोला ही था कि दरवाजे की घंटी बज उठी.

दरवाजे पर मौसीजी को देख कर मैं ने लपक कर दरवाजा खोला.

मौसीजी के इस तरह अचानक आ जाने से मैं किसी बुरी आशंका से घबरा गई थी. पर वे काफी खुश नजर आ रही थीं.

‘‘बात ही कुछ ऐसी है, स्नेहा. मैं खुद आ कर तुम्हें खबर देना चाहती थी. राघव को हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में दाखिला मिल गया है.’’

‘‘अरे वाह, मौसीजी, बधाई हो.’’

मौसीजी के बेटे राघव की सफलता पर मैं खुशी से झूम उठी थी. राघव भैया इंजीनियरिंग की पढ़ाई समाप्त कर चुके थे, लेकिन उन की जिद थी कि एमबीए करेंगे तो हार्वर्ड से ही. हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना हर किसी के बस की बात नहीं है. पर मनुष्य यदि ठान ले तो क्षमता और परिश्रम का योग उसे मंजिल तक पहुंचा कर ही दम लेता है.

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‘‘चलती हूं, ढेर सारा काम पड़ा है,’’ कह कर मौसीजी उठ खड़ी हुईं. मैं मौसीजी को जाते हुए देखती रही. और मेरा मन अतीत की गहराइयों में डूबता चला गया.

मेरी मां और मौसीजी बचपन की सहेलियां थीं. इत्तेफाक से शादी के बाद दोनों को ससुराल भी एक ही महल्ले में मिली. बचपन की दोस्ती अब गाढ़ी दोस्ती में बदल गई थी. मां की जिंदगी में अनगिनत तूफान आए. जबजब मां विचलित हुईं तबतब मौसीजी ने मां को सहारा दिया. उन के द्वारा कहे गए एकएक शब्द, जिन्होंने हमारा पथप्रदर्शन किया था,

मुझे आज भी याद हैं.

राघव भैया और मैं एक ही स्कूल में पढ़ते थे. भैया मेरा हाथ पकड़ कर मुझे स्कूल ले जाते और लाते थे. सगे भाईबहनों सा प्यार था हम दोनों में.

मैं चौथी कक्षा में पढ़ रही थी कि एक दिन पापा का स्कूटर एक गाड़ी की चपेट में आ गया था. दुर्घटना की खबर सुनते ही मौसीजी दौड़ी चली आईं. बदहवासी की हालत में पड़ी मां के साथ साए की तरह रहीं मौसीजी. कई रिश्तेदार पापा को देखने आए, पर सब सहानुभूति जता कर चले गए. किसी ने भी आगे बढ़ कर मदद नहीं की. पैसा पानी की तरह बहाने के बावजूद पापा को बचाया नहीं जा सका.

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पापा की असामयिक और अप्रत्याशित मृत्यु ने मां को तोड़ कर रख दिया था. इस कठिन घड़ी में मौसीजी ने मां को आर्थिक संबल के साथसाथ मानसिक संबल भी प्रदान किया था. सच ही कहा गया है कि मुसीबत के समय ही इंसान की सही परख होती है.

जैसे ही मां थोड़ा संभलीं

उन्होंने पापा की सारी जमा पूंजी निकाल कर मौसीजी के पैसे चुकाए. मौसीजी नाराज हो गई थीं, ‘शीला, जिस दिन तुझे नौकरी मिले, मेरे पैसे लौटा देना.’

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‘तुम ने जो मेरे लिए किया है, जया, उसे मैं कभी नहीं चुका सकती. कल फिर जरूरत होगी तो तुम से ही मांगूंगी न?’ कहा था मां ने. मां के बारबार आग्रह करने पर भी मौसीजी ने नहीं बताया कि उन्होंने पैसों का जुगाड़ कैसे किया था. बाद में जौहरी से मां को पता चला कि मौसीजी ने पैसों के लिए अपने गहने गिरवी रख दिए थे.

अब भविष्य का प्रश्न मां के सामने मुंहबाए खड़ा था.

एक मौसीजी का ही आसरा था. पर जल्द ही मां को पापा की जगह पर नौकरी मिल गई. मां के पास डिगरियां तो काफी थीं पर उन्होंने कभी नौकरी नहीं की थी, इसलिए उन में आत्मविश्वास की कमी थी. उन की घबराहट को भांप कर मौसीजी ने उन का मनोबल बढ़ाते हुए कहा था, ‘अपनी काबिलीयत पर भरोसा रखो, शीला. अकसर हम अपनी क्षमताओं पर अविश्वास कर उन का सही मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं. अपनेआप पर विश्वास कर के हिम्मत जुटा कर आगे बढ़ने पर दुनिया की कोई ताकत हमें कामयाब होने से नहीं रोक सकती. देखना एक दिन ऐसा आएगा जब तुम सोचोगी कि तुम नाहक ही परेशान थीं, तुम तो अपने सभी सहकर्मियों से बेहतर हो.’

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मौसीजी की बातों का गहरा असर पड़ा था मां पर. उस दिन के बाद मां ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. मौसीजी ने मां को मेरी ओर से भी निश्ंिचत कर दिया था. मां की अनुपस्थिति में मैं मौसीजी के घर पर ही रहती थी. मौसीजी के घर, मेरी खुशहाल परवरिश से तृप्त, मां ने अपनेआप को काम में डुबो दिया था. मां की विद्वत्ता, सत्यनिष्ठा और कर्मठता ने रंग दिखाया .

एकएक सीढ़ी चढ़ती हुई मां शिखर के करीब पहुंच गई थीं.

अब मैं बड़ी हो गई थी और मेरे स्कूल का आखिरी साल था. सबकुछ अच्छा चल रहा था कि हमारी जिंदगी में एक दूसरा वज्रपात हुआ. मुझे अच्छी तरह याद है, रविवार का दिन था. मां चक्कर खा कर गिर पड़ी थीं. मैं ने घबरा कर मौसीजी को फोन किया. मौसीजी दौड़ी चली आईं. मां हमें परेशान देख कर कहने लगीं, ‘रिलैक्स जया, इतनी हाइपर मत बनो. मुझे कुछ नहीं हुआ है. सुबह से कुछ खाया नहीं था, इसलिए शुगर डाउन हो गई होगी.’’

मौसीजी की जिद पर मां ने एक हफ्ते की छुट्टी ले ली और जांचों का सिलसिला शुरू हुआ. उस दिन मेरे पैरों तले धरती खिसक गई जिस दिन पता चला कि मां को कैंसर है. मां भर्राए हुए गले से मौसीजी से कहने लगीं, ‘स्नेहा के सिर पर पिता का साया भी नहीं रहा. मुझे कुछ हो गया तो स्नेहा का क्या होगा, जया?’

मौसीजी ने मां को ढाढ़स बंधाया,

‘हर कैंसर जानलेवा ही हो, यह जरूरी नहीं, शीला. धीरज रखो. यू मस्ट फाइट इट आउट.’

मां के चेहरे से हंसी छिन गई थी. मां को उदास देख कर मेरा मन भी उदास हो जाता था. एक दिन मौसीजी मां से मिलने आईं, तो उन्होंने मां को गहन चिंता में डूबी, शून्य में दृष्टि गड़ाए बैठी देखा. मौसीजी ने मां को आड़ेहाथों लिया, ‘किस सोच में डूबी हो, शीला? इस तरह चिंता करोगी तो भविष्य को खींच कर और करीब ले आओगी. आज प्रकृति ने तुम्हें जो मौका दिया है, स्नेहा के साथ हंसनेबोलने का उस के साथ अधिक से अधिक समय बिताने का, उसे यों ही गंवा रही हो. आज से मैं तेरा हंसतामुसकराता चेहरा ही देखना चाहती हूं.’

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मौसीजी की मीठी झिड़की का मां पर ऐसा असर पड़ा कि मैं ने फिर कभी मां को उदास नहीं देखा. इस के बाद जो सुखद पल मैं ने मां के साथ बिताए वे अविस्मरणीय बन गए. मौसीजी की बातों ने मुझे भी समय से पहले ही परिपक्व बना दिया था.

एक दिन मां ने मौसीजी को अपनी वसीयत सौंपी,

जिस के मुताबिक मां की सारी संपत्ति मेरे और मौसीजी के नाम कर दी गई थी. वसीयत देख कर मौसीजी नाराज हो गई थीं. कहने लगीं, ‘शीला, ये पैसे मेरे नाम कर के तुम मुझे पराया कर रही हो. पहले तो तुझे कुछ होगा नहीं, फिर स्नेहा की परवरिश तुम्हारे पैसों की मुहताज नहीं है.’

‘जया, तुम गलत समझ रही हो. वसीयत तो हर किसी को बनानी चाहिए, चाहे वह बीमार हो या न हो. दुर्घटना तो किसी के साथ भी घट सकती है. रही मेरी बात तो इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता कि मैं अब चंद दिनों की मेहमान हूं. वसीयत के अभाव में स्नेहा और पैसों की जिम्मेदारी कोई ऐसा रिश्तेदार लेना चाहेगा, जिसे सिर्फ पैसों से प्यार हो. क्या तुम चाहती हो जया, कि स्नेहा की परवरिश किसी गलत रिश्तेदार के हाथ हो? मुझे तुम्हारे सिवा किसी और पर भरोसा नहीं है, जया,’ कहतेकहते मां भावुक हो गई थीं.

‘मेरे रहते तुम्हें स्नेहा की चिंता करने की जरूरत नहीं है,

शीला,’ यह कह कर मौसीजी ने चुपचाप मां के हाथ से वसीयत ले कर रख ली.महीनाभर भी नहीं बीता कि मां हमें सदा के लिए छोड़ कर चली गईं. अंतिम समय तक उन के चेहरे पर मुसकान थी. शायद मौसीजी की वजह से वे मेरी ओर से निश्ंिचत हो गई थीं.

मां के गुजरते ही वैसा ही हुआ जैसा कि मां को अंदेशा था. कई रिश्तेदार मुझ पर अपना हक जताने आ पहुंचे. मौसीजी मेरे सामने ढाल बन कर खड़ी हो गई थीं. मां की वसीयत को दिखा कर उन्होंने सब को चुप करा दिया था. लेकिन जितने मुंह थे उतनी बातें थीं. मौसीजी पर किसी की बातों का कोई असर नहीं हुआ. वे चट्टान की तरह अडिग खड़ी थीं. उन की दृढ़ता देख कर सब चुपचाप खिसक लिए.

मां की तेरहवीं होने तक मौसीजी मां के घर में मेरे साथ रहीं.

बाद में घर में ताला लगा कर वे मुझे साथ ले कर अपने घर चली गईं. मौसाजी को उन्होंने राघव भैया के कमरे में स्थानांतरित कर दिया. मेरे रहने और पढ़ने की व्यवस्था अपने कमरे में कर दी. मौसीजी की प्रेमपूर्ण छत्रछाया में रह कर मैं ने अपनी पढ़ाई पूरी की. इस के बाद मुझे नौकरी भी मिल गई. मौसीजी मुझे एक पल के लिए भी मां की कमी महसूस नहीं होने देती थीं.

एक दिन मुझे मौसीजी ने विनीत और उस के परिवार वालों से मिलाया. हम ने एकदूसरे को पसंद किया. फिर मेरा ब्याह हो गया. मौसीजी ने मेरे ब्याह में कोई कमी नहीं रखी. उन्होंने वह सबकुछ किया जो एक मां अपनी बेटी के विवाह के वक्त करती है.

दिल्ली में विनीत अपने एक मित्र के साथ किराए के मकान में रहते थे. इसलिए मौसीजी ने शादी के बाद हमें मां के घर की चाबी पकड़ा दी. साथ ही, मौसीजी ने मां की वसीयत और बैंक के सारे जमाखाते मुझे पकड़ा दिए. मैं ने उन पैसों को लेने से इनकार किया तो मौसीजी ने कहा, ‘बेटी, ये तुम्हारी मां की अमानत हैं. इन्हें मां का आशीर्वाद समझ कर स्वीकार कर लो.’

मैं मौसीजी से झगड़ पड़ी थी. मैं ने काफी तर्क किया कि इन पैसों पर उन का हक है. पर मौसीजी टस से मस नहीं हुईं. मैं सोचने लगी, किस मिट्टी की बनी हैं मौसीजी, जिन्होंने मेरे ऊपर खर्च किए गए पैसों की भरपाई भी मां के पैसों से नहीं की और कहां मेरे रिश्तेदार, जिन्होंने मां के पैसे हड़पने चाहे थे. खैर, मैं ने सोच लिया था, मौसीजी पैसे नहीं लेतीं तो क्या हुआ. मैं उन की छोटीछोटी बातों का भी इतना खयाल रखूंगी कि उन्हें किसी चीज की तकलीफ होने ही नहीं दूंगी. जी तो चाहता था कि मैं उन्हें मां कह कर पुकारूं, पर न जाने कौन सा संकोच मुझे रोके रहता.

अचानक विनीत की आवाज सुन कर, मैं जैसे नींद से जागी. बरामदे से धूप का टुकड़ा विलीन हो चुका था.

मैं ने विनीत को राघव भैया के हार्वर्ड जाने की सूचना दी.

आखिर वह दिन भी आ गया जब राघव भैया हार्वर्ड जाने के लिए तैयार थे. हम सब ने उन्हें भावभीनी विदाई दी.

समय पंख लगा कर उड़ गया. पढ़ाई पूरी होते ही राघव भैया 2 हफ्ते के लिए भारत आए. काफी बदलेबदले लग रहे थे. पहले से ही वे बातूनी नहीं थे, लेकिन अब हर वाक्य नापतोल कर बोलते थे. मौसीजी तो ममता से ओतप्रोत अपने बेटे की झलक पा कर ही निहाल हो गई थीं.

वापस लौटने के बाद धीरेधीरे भैया का फोन आना कम होता गया, फोन करते भी तो अकसर शिकायतें ही करते, कि मौसीजी ने उन्हें कितने बंधनों में पाला, उन्हें किसी बात की स्वतंत्रता नहीं दी गई थी, विदेश जा कर ही उन्होंने जीना सीखा. वगैरहवगैरह. मौसीजी उन्हें समझातीं कि बचपन और जवानी में बंधनों का होना जरूरी है वरना बच्चों के भटकने का डर रहता है.

अगर उन के साथ सख्ती नहीं बरती जाती तो वे उस मुकाम पर नहीं पहुंचते, जहां वे आज हैं. भैया के कानों में जूं तक नहीं रेंगती क्योंकि उन का व्यवहार ज्यों का त्यों बना रहा, अब तो भैया पढ़ाई पूरी कर के नौकरी भी करने लगे थे. पर वे अपनी ही दुनिया में जी रहे थे.

इस बीच मौसाजी को हार्टअटैक आ गया. मौसीजी का फोन आते ही मैं तुरंत काम छोड़ कर औफिस से भागी. उन्हें अस्पताल में दाखिल करवाया. समय पर इलाज होने की वजह से उन की हालत में सुधार हुआ. राघव भैया को सूचित किया जा चुका था. पर वे ‘पापा अभी तो ठीक हैं, मुझे छुट्टी नहीं मिलेगी,’ कह कर नहीं आए. मौसाजी को बहुत बुरा लगा. उन्होंने कहा, ‘‘तो क्या वह मेरे मरने पर ही आएगा?’’

कुछ दिनों के बाद मौसाजी को दोबारा हार्टअटैक आया. इस बार भी मैं वक्त जाया किए बिना तुरंत उन्हें अस्पताल ले गई. राघव भैया को तुरंत खबर कर दी गई थी. ऐसा लग रहा था जैसे मौसाजी की तबीयत में सुधार हो रहा है. वे बारबार भैया के बारे में पूछ रहे थे. दरवाजे पर टकटकी लगाए शायद भैया की राह देख रहे थे. लेकिन तीसरे दिन उन की मृत्यु हो गई. राघव भैया मौसाजी के गुजरने के अगले दिन पहुंचे.

मैं सोचने लगी कि काश, भैया, मौसाजी के जीतेजी आते.

तेरहवीं के बाद राघव भैया ने मां से पूछा, ‘‘मां, अब पापा नहीं रहे. यहां कौन है तुम्हारी देखभाल करने वाला? मैं बारबार इंडिया नहीं आ सकता. तुम कहो तो तुम्हारा टिकट भी ले लूं.’’

‘‘राघव, तुम ने वादा किया था कि पढ़ाई खत्म कर के तुम भारत लौट आओगे.’’

‘‘तब की बात और थी, मां. उस वक्त मैं वहां की जिंदगी से वाकिफ नहीं था. उस ऐशोआराम की जिंदगी को छोड़ कर मैं यहां नहीं आ सकता. अब तुम्हें फैसला करना है कि तुम मेरे साथ चल रही हो या नहीं.’’

मौसीजी एक क्षण चुप रहीं. फिर उन्होंने कह दिया, ‘‘बेटा, मैं ने फैसला कर लिया है. मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी, जहां तुम्हारे पिता की यादें बसी हुई हैं. रही मेरे देखभाल की बात, तो मेरी बेटी है न. जिस तरह उस ने तुम्हारे पिता की देखभाल की, वक्त आने पर मेरी भी करेगी.’’

कभीकभी मैं सोचा करती थी कि मौसीजी मुझे अपना नहीं समझतीं, तभी तो मुझ से पैसे नहीं लिए. लेकिन आज मुझे पुत्री का दरजा दे कर, उन्होंने मुझे निहाल कर दिया. गद्गद हो कर मैं ने मौसीजी के पांव पकड़ लिए. आंखें आंसुओं से भर गईं. हाथ ‘धन्यवाद’ की मुद्रा में जुड़ गए. मुख से ‘मौसी मां’ शब्द निकल पड़ा. मौसीजी ने मुझे उठा कर गले से लगा लिया. भर्राए हुए गले से उन्होंने कहा, ‘‘सिर्फ मां कहो, बेटी.’’

उन्हें मां कह कर पुकारते हुए मेरा रोमरोम पुलकित हो गया.

राघव भैया हमें अवाक् हो कर देखते रहे. फिर चुपचाप अपने कमरे की ओर चले गए. उन्हें इस तरह जाते देख मैं सोचती रही, भैया, संसार के इतने बड़े विश्वविद्यालय से पढ़ कर भी आप अनपढ़ ही रहे. मां की अनमोल, निस्वार्थ ममता को ठुकरा कर जा रहे हैं? आप ने जो खोया, उस का आप को भान भी नहीं, पर मौसीजी के रूप में एक वात्सल्यमयी मां पा कर, मैं ने जो पाया वह एक सुखद अनुभूति है. हां, इतना अवश्य कह सकती हूं कि जिंदगी में आज तक मैं ने जितना खोया उस से कहीं अधिक पा लिया. मौसीजी की सेवा करना ही मेरी जिंदगी में सर्वोपरि होगा.

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धूप का टुकड़ा बरामदे में प्रवेश कर चुका था. सूरज की कोमल किरणों के स्पर्श का अनुभव करते हुए रविवार की सुबह, अखबार पढ़ने के लोभ से मैं कुरसी पर पसर गई. अभी मैं ने अखबार खोला ही था कि दरवाजे की घंटी बज उठी.

दरवाजे पर मौसीजी को देख कर मैं ने लपक कर दरवाजा खोला.

मौसीजी के इस तरह अचानक आ जाने से मैं किसी बुरी आशंका से घबरा गई थी. पर वे काफी खुश नजर आ रही थीं.

‘‘बात ही कुछ ऐसी है, स्नेहा. मैं खुद आ कर तुम्हें खबर देना चाहती थी. राघव को हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में दाखिला मिल गया है.’’

‘‘अरे वाह, मौसीजी, बधाई हो.’’

मौसीजी के बेटे राघव की सफलता पर मैं खुशी से झूम उठी थी. राघव भैया इंजीनियरिंग की पढ़ाई समाप्त कर चुके थे, लेकिन उन की जिद थी कि एमबीए करेंगे तो हार्वर्ड से ही. हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना हर किसी के बस की बात नहीं है. पर मनुष्य यदि ठान ले तो क्षमता और परिश्रम का योग उसे मंजिल तक पहुंचा कर ही दम लेता है.

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‘‘चलती हूं, ढेर सारा काम पड़ा है,’’ कह कर मौसीजी उठ खड़ी हुईं. मैं मौसीजी को जाते हुए देखती रही. और मेरा मन अतीत की गहराइयों में डूबता चला गया.

मेरी मां और मौसीजी बचपन की सहेलियां थीं. इत्तेफाक से शादी के बाद दोनों को ससुराल भी एक ही महल्ले में मिली. बचपन की दोस्ती अब गाढ़ी दोस्ती में बदल गई थी. मां की जिंदगी में अनगिनत तूफान आए. जबजब मां विचलित हुईं तबतब मौसीजी ने मां को सहारा दिया. उन के द्वारा कहे गए एकएक शब्द, जिन्होंने हमारा पथप्रदर्शन किया था,

मुझे आज भी याद हैं.

राघव भैया और मैं एक ही स्कूल में पढ़ते थे. भैया मेरा हाथ पकड़ कर मुझे स्कूल ले जाते और लाते थे. सगे भाईबहनों सा प्यार था हम दोनों में.

मैं चौथी कक्षा में पढ़ रही थी कि एक दिन पापा का स्कूटर एक गाड़ी की चपेट में आ गया था. दुर्घटना की खबर सुनते ही मौसीजी दौड़ी चली आईं. बदहवासी की हालत में पड़ी मां के साथ साए की तरह रहीं मौसीजी. कई रिश्तेदार पापा को देखने आए, पर सब सहानुभूति जता कर चले गए. किसी ने भी आगे बढ़ कर मदद नहीं की. पैसा पानी की तरह बहाने के बावजूद पापा को बचाया नहीं जा सका.

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पापा की असामयिक और अप्रत्याशित मृत्यु ने मां को तोड़ कर रख दिया था. इस कठिन घड़ी में मौसीजी ने मां को आर्थिक संबल के साथसाथ मानसिक संबल भी प्रदान किया था. सच ही कहा गया है कि मुसीबत के समय ही इंसान की सही परख होती है.

जैसे ही मां थोड़ा संभलीं

उन्होंने पापा की सारी जमा पूंजी निकाल कर मौसीजी के पैसे चुकाए. मौसीजी नाराज हो गई थीं, ‘शीला, जिस दिन तुझे नौकरी मिले, मेरे पैसे लौटा देना.’

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‘तुम ने जो मेरे लिए किया है, जया, उसे मैं कभी नहीं चुका सकती. कल फिर जरूरत होगी तो तुम से ही मांगूंगी न?’ कहा था मां ने. मां के बारबार आग्रह करने पर भी मौसीजी ने नहीं बताया कि उन्होंने पैसों का जुगाड़ कैसे किया था. बाद में जौहरी से मां को पता चला कि मौसीजी ने पैसों के लिए अपने गहने गिरवी रख दिए थे.

अब भविष्य का प्रश्न मां के सामने मुंहबाए खड़ा था.

एक मौसीजी का ही आसरा था. पर जल्द ही मां को पापा की जगह पर नौकरी मिल गई. मां के पास डिगरियां तो काफी थीं पर उन्होंने कभी नौकरी नहीं की थी, इसलिए उन में आत्मविश्वास की कमी थी. उन की घबराहट को भांप कर मौसीजी ने उन का मनोबल बढ़ाते हुए कहा था, ‘अपनी काबिलीयत पर भरोसा रखो, शीला. अकसर हम अपनी क्षमताओं पर अविश्वास कर उन का सही मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं. अपनेआप पर विश्वास कर के हिम्मत जुटा कर आगे बढ़ने पर दुनिया की कोई ताकत हमें कामयाब होने से नहीं रोक सकती. देखना एक दिन ऐसा आएगा जब तुम सोचोगी कि तुम नाहक ही परेशान थीं, तुम तो अपने सभी सहकर्मियों से बेहतर हो.’

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मौसीजी की बातों का गहरा असर पड़ा था मां पर. उस दिन के बाद मां ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. मौसीजी ने मां को मेरी ओर से भी निश्ंिचत कर दिया था. मां की अनुपस्थिति में मैं मौसीजी के घर पर ही रहती थी. मौसीजी के घर, मेरी खुशहाल परवरिश से तृप्त, मां ने अपनेआप को काम में डुबो दिया था. मां की विद्वत्ता, सत्यनिष्ठा और कर्मठता ने रंग दिखाया .

एकएक सीढ़ी चढ़ती हुई मां शिखर के करीब पहुंच गई थीं.

अब मैं बड़ी हो गई थी और मेरे स्कूल का आखिरी साल था. सबकुछ अच्छा चल रहा था कि हमारी जिंदगी में एक दूसरा वज्रपात हुआ. मुझे अच्छी तरह याद है, रविवार का दिन था. मां चक्कर खा कर गिर पड़ी थीं. मैं ने घबरा कर मौसीजी को फोन किया. मौसीजी दौड़ी चली आईं. मां हमें परेशान देख कर कहने लगीं, ‘रिलैक्स जया, इतनी हाइपर मत बनो. मुझे कुछ नहीं हुआ है. सुबह से कुछ खाया नहीं था, इसलिए शुगर डाउन हो गई होगी.’’

मौसीजी की जिद पर मां ने एक हफ्ते की छुट्टी ले ली और जांचों का सिलसिला शुरू हुआ. उस दिन मेरे पैरों तले धरती खिसक गई जिस दिन पता चला कि मां को कैंसर है. मां भर्राए हुए गले से मौसीजी से कहने लगीं, ‘स्नेहा के सिर पर पिता का साया भी नहीं रहा. मुझे कुछ हो गया तो स्नेहा का क्या होगा, जया?’

मौसीजी ने मां को ढाढ़स बंधाया,

‘हर कैंसर जानलेवा ही हो, यह जरूरी नहीं, शीला. धीरज रखो. यू मस्ट फाइट इट आउट.’

मां के चेहरे से हंसी छिन गई थी. मां को उदास देख कर मेरा मन भी उदास हो जाता था. एक दिन मौसीजी मां से मिलने आईं, तो उन्होंने मां को गहन चिंता में डूबी, शून्य में दृष्टि गड़ाए बैठी देखा. मौसीजी ने मां को आड़ेहाथों लिया, ‘किस सोच में डूबी हो, शीला? इस तरह चिंता करोगी तो भविष्य को खींच कर और करीब ले आओगी. आज प्रकृति ने तुम्हें जो मौका दिया है, स्नेहा के साथ हंसनेबोलने का उस के साथ अधिक से अधिक समय बिताने का, उसे यों ही गंवा रही हो. आज से मैं तेरा हंसतामुसकराता चेहरा ही देखना चाहती हूं.’

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मौसीजी की मीठी झिड़की का मां पर ऐसा असर पड़ा कि मैं ने फिर कभी मां को उदास नहीं देखा. इस के बाद जो सुखद पल मैं ने मां के साथ बिताए वे अविस्मरणीय बन गए. मौसीजी की बातों ने मुझे भी समय से पहले ही परिपक्व बना दिया था.

एक दिन मां ने मौसीजी को अपनी वसीयत सौंपी,

जिस के मुताबिक मां की सारी संपत्ति मेरे और मौसीजी के नाम कर दी गई थी. वसीयत देख कर मौसीजी नाराज हो गई थीं. कहने लगीं, ‘शीला, ये पैसे मेरे नाम कर के तुम मुझे पराया कर रही हो. पहले तो तुझे कुछ होगा नहीं, फिर स्नेहा की परवरिश तुम्हारे पैसों की मुहताज नहीं है.’

‘जया, तुम गलत समझ रही हो. वसीयत तो हर किसी को बनानी चाहिए, चाहे वह बीमार हो या न हो. दुर्घटना तो किसी के साथ भी घट सकती है. रही मेरी बात तो इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता कि मैं अब चंद दिनों की मेहमान हूं. वसीयत के अभाव में स्नेहा और पैसों की जिम्मेदारी कोई ऐसा रिश्तेदार लेना चाहेगा, जिसे सिर्फ पैसों से प्यार हो. क्या तुम चाहती हो जया, कि स्नेहा की परवरिश किसी गलत रिश्तेदार के हाथ हो? मुझे तुम्हारे सिवा किसी और पर भरोसा नहीं है, जया,’ कहतेकहते मां भावुक हो गई थीं.

‘मेरे रहते तुम्हें स्नेहा की चिंता करने की जरूरत नहीं है,

शीला,’ यह कह कर मौसीजी ने चुपचाप मां के हाथ से वसीयत ले कर रख ली.महीनाभर भी नहीं बीता कि मां हमें सदा के लिए छोड़ कर चली गईं. अंतिम समय तक उन के चेहरे पर मुसकान थी. शायद मौसीजी की वजह से वे मेरी ओर से निश्ंिचत हो गई थीं.

मां के गुजरते ही वैसा ही हुआ जैसा कि मां को अंदेशा था. कई रिश्तेदार मुझ पर अपना हक जताने आ पहुंचे. मौसीजी मेरे सामने ढाल बन कर खड़ी हो गई थीं. मां की वसीयत को दिखा कर उन्होंने सब को चुप करा दिया था. लेकिन जितने मुंह थे उतनी बातें थीं. मौसीजी पर किसी की बातों का कोई असर नहीं हुआ. वे चट्टान की तरह अडिग खड़ी थीं. उन की दृढ़ता देख कर सब चुपचाप खिसक लिए.

मां की तेरहवीं होने तक मौसीजी मां के घर में मेरे साथ रहीं.

बाद में घर में ताला लगा कर वे मुझे साथ ले कर अपने घर चली गईं. मौसाजी को उन्होंने राघव भैया के कमरे में स्थानांतरित कर दिया. मेरे रहने और पढ़ने की व्यवस्था अपने कमरे में कर दी. मौसीजी की प्रेमपूर्ण छत्रछाया में रह कर मैं ने अपनी पढ़ाई पूरी की. इस के बाद मुझे नौकरी भी मिल गई. मौसीजी मुझे एक पल के लिए भी मां की कमी महसूस नहीं होने देती थीं.

एक दिन मुझे मौसीजी ने विनीत और उस के परिवार वालों से मिलाया. हम ने एकदूसरे को पसंद किया. फिर मेरा ब्याह हो गया. मौसीजी ने मेरे ब्याह में कोई कमी नहीं रखी. उन्होंने वह सबकुछ किया जो एक मां अपनी बेटी के विवाह के वक्त करती है.

दिल्ली में विनीत अपने एक मित्र के साथ किराए के मकान में रहते थे. इसलिए मौसीजी ने शादी के बाद हमें मां के घर की चाबी पकड़ा दी. साथ ही, मौसीजी ने मां की वसीयत और बैंक के सारे जमाखाते मुझे पकड़ा दिए. मैं ने उन पैसों को लेने से इनकार किया तो मौसीजी ने कहा, ‘बेटी, ये तुम्हारी मां की अमानत हैं. इन्हें मां का आशीर्वाद समझ कर स्वीकार कर लो.’

मैं मौसीजी से झगड़ पड़ी थी. मैं ने काफी तर्क किया कि इन पैसों पर उन का हक है. पर मौसीजी टस से मस नहीं हुईं. मैं सोचने लगी, किस मिट्टी की बनी हैं मौसीजी, जिन्होंने मेरे ऊपर खर्च किए गए पैसों की भरपाई भी मां के पैसों से नहीं की और कहां मेरे रिश्तेदार, जिन्होंने मां के पैसे हड़पने चाहे थे. खैर, मैं ने सोच लिया था, मौसीजी पैसे नहीं लेतीं तो क्या हुआ. मैं उन की छोटीछोटी बातों का भी इतना खयाल रखूंगी कि उन्हें किसी चीज की तकलीफ होने ही नहीं दूंगी. जी तो चाहता था कि मैं उन्हें मां कह कर पुकारूं, पर न जाने कौन सा संकोच मुझे रोके रहता.

अचानक विनीत की आवाज सुन कर, मैं जैसे नींद से जागी. बरामदे से धूप का टुकड़ा विलीन हो चुका था.

मैं ने विनीत को राघव भैया के हार्वर्ड जाने की सूचना दी.

आखिर वह दिन भी आ गया जब राघव भैया हार्वर्ड जाने के लिए तैयार थे. हम सब ने उन्हें भावभीनी विदाई दी.

समय पंख लगा कर उड़ गया. पढ़ाई पूरी होते ही राघव भैया 2 हफ्ते के लिए भारत आए. काफी बदलेबदले लग रहे थे. पहले से ही वे बातूनी नहीं थे, लेकिन अब हर वाक्य नापतोल कर बोलते थे. मौसीजी तो ममता से ओतप्रोत अपने बेटे की झलक पा कर ही निहाल हो गई थीं.

वापस लौटने के बाद धीरेधीरे भैया का फोन आना कम होता गया, फोन करते भी तो अकसर शिकायतें ही करते, कि मौसीजी ने उन्हें कितने बंधनों में पाला, उन्हें किसी बात की स्वतंत्रता नहीं दी गई थी, विदेश जा कर ही उन्होंने जीना सीखा. वगैरहवगैरह. मौसीजी उन्हें समझातीं कि बचपन और जवानी में बंधनों का होना जरूरी है वरना बच्चों के भटकने का डर रहता है.

अगर उन के साथ सख्ती नहीं बरती जाती तो वे उस मुकाम पर नहीं पहुंचते, जहां वे आज हैं. भैया के कानों में जूं तक नहीं रेंगती क्योंकि उन का व्यवहार ज्यों का त्यों बना रहा, अब तो भैया पढ़ाई पूरी कर के नौकरी भी करने लगे थे. पर वे अपनी ही दुनिया में जी रहे थे.

इस बीच मौसाजी को हार्टअटैक आ गया. मौसीजी का फोन आते ही मैं तुरंत काम छोड़ कर औफिस से भागी. उन्हें अस्पताल में दाखिल करवाया. समय पर इलाज होने की वजह से उन की हालत में सुधार हुआ. राघव भैया को सूचित किया जा चुका था. पर वे ‘पापा अभी तो ठीक हैं, मुझे छुट्टी नहीं मिलेगी,’ कह कर नहीं आए. मौसाजी को बहुत बुरा लगा. उन्होंने कहा, ‘‘तो क्या वह मेरे मरने पर ही आएगा?’’

कुछ दिनों के बाद मौसाजी को दोबारा हार्टअटैक आया. इस बार भी मैं वक्त जाया किए बिना तुरंत उन्हें अस्पताल ले गई. राघव भैया को तुरंत खबर कर दी गई थी. ऐसा लग रहा था जैसे मौसाजी की तबीयत में सुधार हो रहा है. वे बारबार भैया के बारे में पूछ रहे थे. दरवाजे पर टकटकी लगाए शायद भैया की राह देख रहे थे. लेकिन तीसरे दिन उन की मृत्यु हो गई. राघव भैया मौसाजी के गुजरने के अगले दिन पहुंचे.

मैं सोचने लगी कि काश, भैया, मौसाजी के जीतेजी आते.

तेरहवीं के बाद राघव भैया ने मां से पूछा, ‘‘मां, अब पापा नहीं रहे. यहां कौन है तुम्हारी देखभाल करने वाला? मैं बारबार इंडिया नहीं आ सकता. तुम कहो तो तुम्हारा टिकट भी ले लूं.’’

‘‘राघव, तुम ने वादा किया था कि पढ़ाई खत्म कर के तुम भारत लौट आओगे.’’

‘‘तब की बात और थी, मां. उस वक्त मैं वहां की जिंदगी से वाकिफ नहीं था. उस ऐशोआराम की जिंदगी को छोड़ कर मैं यहां नहीं आ सकता. अब तुम्हें फैसला करना है कि तुम मेरे साथ चल रही हो या नहीं.’’

मौसीजी एक क्षण चुप रहीं. फिर उन्होंने कह दिया, ‘‘बेटा, मैं ने फैसला कर लिया है. मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी, जहां तुम्हारे पिता की यादें बसी हुई हैं. रही मेरे देखभाल की बात, तो मेरी बेटी है न. जिस तरह उस ने तुम्हारे पिता की देखभाल की, वक्त आने पर मेरी भी करेगी.’’

कभीकभी मैं सोचा करती थी कि मौसीजी मुझे अपना नहीं समझतीं, तभी तो मुझ से पैसे नहीं लिए. लेकिन आज मुझे पुत्री का दरजा दे कर, उन्होंने मुझे निहाल कर दिया. गद्गद हो कर मैं ने मौसीजी के पांव पकड़ लिए. आंखें आंसुओं से भर गईं. हाथ ‘धन्यवाद’ की मुद्रा में जुड़ गए. मुख से ‘मौसी मां’ शब्द निकल पड़ा. मौसीजी ने मुझे उठा कर गले से लगा लिया. भर्राए हुए गले से उन्होंने कहा, ‘‘सिर्फ मां कहो, बेटी.’’

उन्हें मां कह कर पुकारते हुए मेरा रोमरोम पुलकित हो गया.

राघव भैया हमें अवाक् हो कर देखते रहे. फिर चुपचाप अपने कमरे की ओर चले गए. उन्हें इस तरह जाते देख मैं सोचती रही, भैया, संसार के इतने बड़े विश्वविद्यालय से पढ़ कर भी आप अनपढ़ ही रहे. मां की अनमोल, निस्वार्थ ममता को ठुकरा कर जा रहे हैं? आप ने जो खोया, उस का आप को भान भी नहीं, पर मौसीजी के रूप में एक वात्सल्यमयी मां पा कर, मैं ने जो पाया वह एक सुखद अनुभूति है. हां, इतना अवश्य कह सकती हूं कि जिंदगी में आज तक मैं ने जितना खोया उस से कहीं अधिक पा लिया. मौसीजी की सेवा करना ही मेरी जिंदगी में सर्वोपरि होगा.

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March 01, 2021 at 10:00AM

लाचार : गणपत टेलर सो लोगों की क्या दुश्मनी थी

घर से अचानक गायब हुए गणपत टेलर के कपड़े 2-3 दिन के बाद गांव से 2 कोस की दूरी पर नदी के किनारे मिलने से जैसे गांव में हड़कंप मच गया. गणपत टेलर के घर में इस खबर के पहुंचते ही उस की बूढ़ी मां शेवंताबाई छाती पीटने लगी, तो बीवी अनुसूया अपने दोनों बच्चों को गले लगा कर रोने लगी. गणपत टेलर हंसमुख और नेक इंसान था. उस के बारे में उक्त खबर पूरे गांव में फैल गई. लोग अपनेअपने तर्क देने लगे. कोई कह रहा था कि गणपत नहाने के लिए उतरा होगा तभी पैर फिसलने से गिर गया होगा. तो कोई कह रहा था कि नहाने के लिए भला वह इतनी दूर क्यों जाएगा. उन्हीं में से एक ने कहा, गणपत तो अच्छा तैराक था. कई बार बाढ़ के पानी में भी उतर कर उस ने लोगों को बचाया था. इन तर्कों में कुछ भी तथ्य नहीं है, यह बात जल्द ही सब की समझ में आ गई.

घर में गणपत जैसा सुखी आदमी ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलने वाला था. बहू, बेटा और पोतेपोतियों से प्रेम करने वाली मां, अनुसूया जैसी सुंदर और मेहनती पत्नी, 2 सुंदर बच्चे और खापी कर आराम से जिंदगी जीने के लिए पैसा देने वाला टेलरिंग का कारोबार. ऐसा आदमी कैसे और क्यों अपनी जान देगा? जितने मुंह उतनी बातें.गांव के बड़ेबुजुर्गों ने थाने में गणपत के गायब होने की रपट लिखा दी. पुलिस वालों ने खोजबीन शुरू कर दी. तैराक बुला कर नदी में खोजा गया लेकिन कोई सुराग भी न मिला.10-15 दिन ऐसे ही बीत गए. गणपत को जमीन निगल गई या आकाश खा गया, किसी को कुछ पता नहीं. जाने वाला तो चला गया लेकिन अपने पीछे वाले लोगों के सिर पर जिम्मेदारी व चिंता का बोझ छोड़ गया.

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अनुसूया अकेली पड़ गई थी. वह दिनरात यह सोचती कि बच्चों का क्या होगा, गृहस्थी कैसे चलेगी वगैरह. अनुसूया को लगने लगा था कि बच्चों का भविष्य अब अंधकार में डूब गया है. रातरातभर उसे नींद नहीं आती थी. आधी रात को वह चारपाई से उठ कर बैठ जाती और रोने लगती. उसे देख उस की सास शेवंताबाई की भी आंखों से आंसू बह जाते लेकिन अपनी बहू को वह अकसर ढाढ़स बंधाती रहती. आज तक मांबेटी जैसी रहने वाली बहूसास ऊपर से शांत रहने का दिखावा कर अपना दुख छिपा रही थीं.

लेकिन कहते हैं न कि समय सबकुछ सिखा देता है. अब उन के दुख की तीव्रता कम होने लगी थी. एक तरफ शेवंताबाई लोगों के खेतों पर काम करने के लिए जाने लगी तो दूसरी ओर अनुसूया लोगों की सिलाईकढ़ाई का काम करने लगी.  लेकिन इतने भर से काम चलने वाला नहीं था. सिलाईकढ़ाई करने के लिए पूरा कोर्स करना जरूरी था. बच्चे जब थोड़े बड़े हो गए तो उस ने एक सरकारी संस्थान में टेलरिंग कोर्स में दाखिला ले लिया. कुछ ही महीने में वह सिलाईकढ़ाई में ट्रेंड हो गई. अब उस का कोर्स भी पूरा हो गया था. कोर्स पूरा होने के बाद वह गणपत की बंद पड़ी दुकान को बड़ी कुशलता से संभालने लगी.

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बच्चे बड़े हो गए थे. गणपत की मां शेवंताबाई जिम्मेदारियों का बोझा उठाउठा कर अब पूरी तरह थक चुकी थी. गणपत का बेटा आनंदा 24 साल का नौजवान हो चुका था. वह ग्रेजुएट हो कर नौकरी ढूंढ़ रहा था. रंजना ने बीएड कर लिया था.दोनों भाईबहन अब अपने पैरों पर खडे़ हो कर मां का किस तरह हाथ बटाएं, इसी चिंता में थे. लेकिन अनुसूया को तो बेटी की नौकरी से ज्यादा उस की शादी की चिंता सता रही थी. वह चाह रही थी कि सासूमां के जिंदा रहते कम से कम रंजना के हाथ पीले हो जाते तो अच्छा रहता. उस ने अपने रिश्तेदारों से कह भी रखा था कि कोई अच्छा लड़का हो तो बताना. बहुत खोजबीन के बाद आखिरकार दूर के रिश्ते के एक लड़के के साथ उस ने रंजना की शादी तय कर दी. लड़का टीचर  था. खातेपीते घर के लोग थे. खुद की खेतीबाड़ी थी, घर अपना था. और क्या चाहिए था.

लड़के वालों को शादी की जल्दी थी. उन लोगों ने कह दिया था कि शादी में देर नहीं होनी चाहिए. इसलिए शादी की तारीख भी जल्द ही पक्की हो गई.अनुसूया ने पहले से ही सोच रखा था इसलिए अपने सामर्थ्य के अनुरूप उस ने शादी की थोड़ीबहुत तैयारी भी कर रखी थी. जल्द ही वह समय भी आ गया. नातेरिश्तेदार घर में जुटने लगे. शादी को अब 4 दिन ही बचे थे. हलवाई वाले भी आ चुके थे. घर में चहलपहल शुरू हो चुकी थी. मिठाई बननी शुरू हो गई थी. शादी के दिन अनुसूया भी इधरउधर भाग कर थक चुकी थी, इसलिए थोड़ी देर के लिए वह अपने कमरे में लेटने के लिए चली गई.

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उस ने आंखें बंद ही की थीं कि उस की बेटी उस को उठाते हुए बोली, ‘‘मां, बाहर कोई साधुभेष में आया है. देख, अपने बाबा के बारे में पूछ रहा है,’’ रंजना अपने पिता गणपत को बाबा कह कर बुलाती थी. बहुत साल के बाद पति के बारे में पूछने वाला कोई आया था इसलिए अनुसूया भाग कर उन के पास गई और देखा कि कोई सचमुच एक अधेड़ साधु के भेष में खड़ा है. अनुसूया ने विनम्रता से उन से पूछा, ‘‘क्या चाहिए महाराज आप को?’’ वह कुछ न बोल कर सिर्फ उस के चेहरे को देखता रहा. अनुसूया ने उस से दोबारा पूछा, ‘‘क्या चाहिए आप को?’’ लेकिन उस ने कुछ भी जवाब नहीं दिया. अनुसूया को लगा शायद इन्हें खाना चाहिए, इसलिए वह बोली, ‘‘ठहरिए, मैं आप के लिए खाना ले कर आती हूं.’’

तभी वह अधेड़ बोला, ‘‘नहीं, खाना नहीं चाहिए.’’ और उस ने उस को पुकारा ‘‘अनुसूया.’’ यह सुनते ही अनुसूया का रोमरोम खड़ा हो गया. उस ने उन की ओर अपनी आंखें गड़ा दीं और कुछ देर तक देखती रही. यह आवाज तो गणपत की है. तभी उस का ध्यान उस के माथे पर गया. उस के माथे पर वही कैंची से लगा हुआ निशान था. उस ने उसे तुरंत पहचान लिया. अनुसूया को शांत देख वह फिर से बोला, ‘‘अब तक पहचाना नहीं, अनुसूया?’’

‘‘आप? इतने दिन तक कहां थे आप?’’ आगे वह कुछ बोल न सकी.

कुछ भी न बोलते हुए गणपत ने शौल के अंदर से अपने हाथ बाहर निकाले. उस की उंगलियां कटी हुई थीं. यह देख कर अनुसूया स्तब्ध रह गई. उस की आंखों से आंसू झरझर बहने लगे. बड़ी मुश्किल से उस ने अपनेआप को संभाला और थोड़ी देर रुक कर पूछा, ‘‘तुम कहां चले गए थे? इतनी बड़ी घटना हो गई और तुम ने मुझे कुछ नहीं बताया. मुझे अकेला छोड़ खुद निकल गए,’’ यह कहतेकहते वह फूटफूट कर रोने लगी. पिछले 15 सालों से उसे सता रहा सवाल एक ही क्षण में खत्म हो गया था. क्याक्या नहीं सहा 15 सालों में. पति के जिंदा रहते हुए भी एक विधवा की जिंदगी जी रही थी वह. पिता हो कर भी बच्चे अनाथ की सी जिंदगी जी रहे थे.

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अभी दोनों के बीच की बात भी खत्म नहीं हुई थी कि रंजना ‘मांमां’ कहती हुई उस के सामने खड़ी हो गई. अनुसूया अजीब दुविधा में फंस गई थी. उसे एक तरफ गम था तो दूसरी तरफ खुशी भी. बरात आ चुकी थी. सभी रिश्तेदार अनुसूया को पूछ रहे थे. अनुसूया मां का फर्ज निभाने के लिए पति का साथ छोड़ बरात के स्वागत में लग गई. लेकिन मन में वह बारबार गणपत के हालात के बारे में सोच रही थी. धूमधाम से शादी संपन्न हुई और गणपत एक जगह खड़ा अकेला अपनी बेटी को विदा होते देखता रहा. गले लगा कर बेटी को विदा करने का एक पिता का सपना सपना ही रह गया.

अनुसूया ने इन कुछ ही घंटों में एक दृढ़ फैसला ले लिया था. बेटी के विदा होने के बाद अनुसूया रसोई में गई और वहां से 4 लड्डू उठा, थैली में डाल कर गणपत के सामने रख कर बोली, ‘‘लीजिए बाबा, बेटी की शादी के लड्डू हैं,’’ बोल कर दृढ़ता से वह उस की तरफ पीठ फिरा कर पीछे मुड़ कर न देखते हुए अंदर चली गई. अब न उस की आंखों में आंसू थे न मन में उमड़ता तूफान. गणपत टेलर तो 15 साल पहले ही मर गया था. उस का अब आना क्या माने रखता था. जीवन के वे 15 साल, जो उस ने अकेले, बेबसी, मुश्किलों के साथ काटे थे, जो सिर्फ उस ने भोगे थे, पति के साथ की जरूरत तो तब थी उसे, उस के बच्चों को. अब उस का आना…नहीं, अब तन्हा जिंदगी जी लेगी वह

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घर से अचानक गायब हुए गणपत टेलर के कपड़े 2-3 दिन के बाद गांव से 2 कोस की दूरी पर नदी के किनारे मिलने से जैसे गांव में हड़कंप मच गया. गणपत टेलर के घर में इस खबर के पहुंचते ही उस की बूढ़ी मां शेवंताबाई छाती पीटने लगी, तो बीवी अनुसूया अपने दोनों बच्चों को गले लगा कर रोने लगी. गणपत टेलर हंसमुख और नेक इंसान था. उस के बारे में उक्त खबर पूरे गांव में फैल गई. लोग अपनेअपने तर्क देने लगे. कोई कह रहा था कि गणपत नहाने के लिए उतरा होगा तभी पैर फिसलने से गिर गया होगा. तो कोई कह रहा था कि नहाने के लिए भला वह इतनी दूर क्यों जाएगा. उन्हीं में से एक ने कहा, गणपत तो अच्छा तैराक था. कई बार बाढ़ के पानी में भी उतर कर उस ने लोगों को बचाया था. इन तर्कों में कुछ भी तथ्य नहीं है, यह बात जल्द ही सब की समझ में आ गई.

घर में गणपत जैसा सुखी आदमी ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलने वाला था. बहू, बेटा और पोतेपोतियों से प्रेम करने वाली मां, अनुसूया जैसी सुंदर और मेहनती पत्नी, 2 सुंदर बच्चे और खापी कर आराम से जिंदगी जीने के लिए पैसा देने वाला टेलरिंग का कारोबार. ऐसा आदमी कैसे और क्यों अपनी जान देगा? जितने मुंह उतनी बातें.गांव के बड़ेबुजुर्गों ने थाने में गणपत के गायब होने की रपट लिखा दी. पुलिस वालों ने खोजबीन शुरू कर दी. तैराक बुला कर नदी में खोजा गया लेकिन कोई सुराग भी न मिला.10-15 दिन ऐसे ही बीत गए. गणपत को जमीन निगल गई या आकाश खा गया, किसी को कुछ पता नहीं. जाने वाला तो चला गया लेकिन अपने पीछे वाले लोगों के सिर पर जिम्मेदारी व चिंता का बोझ छोड़ गया.

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अनुसूया अकेली पड़ गई थी. वह दिनरात यह सोचती कि बच्चों का क्या होगा, गृहस्थी कैसे चलेगी वगैरह. अनुसूया को लगने लगा था कि बच्चों का भविष्य अब अंधकार में डूब गया है. रातरातभर उसे नींद नहीं आती थी. आधी रात को वह चारपाई से उठ कर बैठ जाती और रोने लगती. उसे देख उस की सास शेवंताबाई की भी आंखों से आंसू बह जाते लेकिन अपनी बहू को वह अकसर ढाढ़स बंधाती रहती. आज तक मांबेटी जैसी रहने वाली बहूसास ऊपर से शांत रहने का दिखावा कर अपना दुख छिपा रही थीं.

लेकिन कहते हैं न कि समय सबकुछ सिखा देता है. अब उन के दुख की तीव्रता कम होने लगी थी. एक तरफ शेवंताबाई लोगों के खेतों पर काम करने के लिए जाने लगी तो दूसरी ओर अनुसूया लोगों की सिलाईकढ़ाई का काम करने लगी.  लेकिन इतने भर से काम चलने वाला नहीं था. सिलाईकढ़ाई करने के लिए पूरा कोर्स करना जरूरी था. बच्चे जब थोड़े बड़े हो गए तो उस ने एक सरकारी संस्थान में टेलरिंग कोर्स में दाखिला ले लिया. कुछ ही महीने में वह सिलाईकढ़ाई में ट्रेंड हो गई. अब उस का कोर्स भी पूरा हो गया था. कोर्स पूरा होने के बाद वह गणपत की बंद पड़ी दुकान को बड़ी कुशलता से संभालने लगी.

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बच्चे बड़े हो गए थे. गणपत की मां शेवंताबाई जिम्मेदारियों का बोझा उठाउठा कर अब पूरी तरह थक चुकी थी. गणपत का बेटा आनंदा 24 साल का नौजवान हो चुका था. वह ग्रेजुएट हो कर नौकरी ढूंढ़ रहा था. रंजना ने बीएड कर लिया था.दोनों भाईबहन अब अपने पैरों पर खडे़ हो कर मां का किस तरह हाथ बटाएं, इसी चिंता में थे. लेकिन अनुसूया को तो बेटी की नौकरी से ज्यादा उस की शादी की चिंता सता रही थी. वह चाह रही थी कि सासूमां के जिंदा रहते कम से कम रंजना के हाथ पीले हो जाते तो अच्छा रहता. उस ने अपने रिश्तेदारों से कह भी रखा था कि कोई अच्छा लड़का हो तो बताना. बहुत खोजबीन के बाद आखिरकार दूर के रिश्ते के एक लड़के के साथ उस ने रंजना की शादी तय कर दी. लड़का टीचर  था. खातेपीते घर के लोग थे. खुद की खेतीबाड़ी थी, घर अपना था. और क्या चाहिए था.

लड़के वालों को शादी की जल्दी थी. उन लोगों ने कह दिया था कि शादी में देर नहीं होनी चाहिए. इसलिए शादी की तारीख भी जल्द ही पक्की हो गई.अनुसूया ने पहले से ही सोच रखा था इसलिए अपने सामर्थ्य के अनुरूप उस ने शादी की थोड़ीबहुत तैयारी भी कर रखी थी. जल्द ही वह समय भी आ गया. नातेरिश्तेदार घर में जुटने लगे. शादी को अब 4 दिन ही बचे थे. हलवाई वाले भी आ चुके थे. घर में चहलपहल शुरू हो चुकी थी. मिठाई बननी शुरू हो गई थी. शादी के दिन अनुसूया भी इधरउधर भाग कर थक चुकी थी, इसलिए थोड़ी देर के लिए वह अपने कमरे में लेटने के लिए चली गई.

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उस ने आंखें बंद ही की थीं कि उस की बेटी उस को उठाते हुए बोली, ‘‘मां, बाहर कोई साधुभेष में आया है. देख, अपने बाबा के बारे में पूछ रहा है,’’ रंजना अपने पिता गणपत को बाबा कह कर बुलाती थी. बहुत साल के बाद पति के बारे में पूछने वाला कोई आया था इसलिए अनुसूया भाग कर उन के पास गई और देखा कि कोई सचमुच एक अधेड़ साधु के भेष में खड़ा है. अनुसूया ने विनम्रता से उन से पूछा, ‘‘क्या चाहिए महाराज आप को?’’ वह कुछ न बोल कर सिर्फ उस के चेहरे को देखता रहा. अनुसूया ने उस से दोबारा पूछा, ‘‘क्या चाहिए आप को?’’ लेकिन उस ने कुछ भी जवाब नहीं दिया. अनुसूया को लगा शायद इन्हें खाना चाहिए, इसलिए वह बोली, ‘‘ठहरिए, मैं आप के लिए खाना ले कर आती हूं.’’

तभी वह अधेड़ बोला, ‘‘नहीं, खाना नहीं चाहिए.’’ और उस ने उस को पुकारा ‘‘अनुसूया.’’ यह सुनते ही अनुसूया का रोमरोम खड़ा हो गया. उस ने उन की ओर अपनी आंखें गड़ा दीं और कुछ देर तक देखती रही. यह आवाज तो गणपत की है. तभी उस का ध्यान उस के माथे पर गया. उस के माथे पर वही कैंची से लगा हुआ निशान था. उस ने उसे तुरंत पहचान लिया. अनुसूया को शांत देख वह फिर से बोला, ‘‘अब तक पहचाना नहीं, अनुसूया?’’

‘‘आप? इतने दिन तक कहां थे आप?’’ आगे वह कुछ बोल न सकी.

कुछ भी न बोलते हुए गणपत ने शौल के अंदर से अपने हाथ बाहर निकाले. उस की उंगलियां कटी हुई थीं. यह देख कर अनुसूया स्तब्ध रह गई. उस की आंखों से आंसू झरझर बहने लगे. बड़ी मुश्किल से उस ने अपनेआप को संभाला और थोड़ी देर रुक कर पूछा, ‘‘तुम कहां चले गए थे? इतनी बड़ी घटना हो गई और तुम ने मुझे कुछ नहीं बताया. मुझे अकेला छोड़ खुद निकल गए,’’ यह कहतेकहते वह फूटफूट कर रोने लगी. पिछले 15 सालों से उसे सता रहा सवाल एक ही क्षण में खत्म हो गया था. क्याक्या नहीं सहा 15 सालों में. पति के जिंदा रहते हुए भी एक विधवा की जिंदगी जी रही थी वह. पिता हो कर भी बच्चे अनाथ की सी जिंदगी जी रहे थे.

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अभी दोनों के बीच की बात भी खत्म नहीं हुई थी कि रंजना ‘मांमां’ कहती हुई उस के सामने खड़ी हो गई. अनुसूया अजीब दुविधा में फंस गई थी. उसे एक तरफ गम था तो दूसरी तरफ खुशी भी. बरात आ चुकी थी. सभी रिश्तेदार अनुसूया को पूछ रहे थे. अनुसूया मां का फर्ज निभाने के लिए पति का साथ छोड़ बरात के स्वागत में लग गई. लेकिन मन में वह बारबार गणपत के हालात के बारे में सोच रही थी. धूमधाम से शादी संपन्न हुई और गणपत एक जगह खड़ा अकेला अपनी बेटी को विदा होते देखता रहा. गले लगा कर बेटी को विदा करने का एक पिता का सपना सपना ही रह गया.

अनुसूया ने इन कुछ ही घंटों में एक दृढ़ फैसला ले लिया था. बेटी के विदा होने के बाद अनुसूया रसोई में गई और वहां से 4 लड्डू उठा, थैली में डाल कर गणपत के सामने रख कर बोली, ‘‘लीजिए बाबा, बेटी की शादी के लड्डू हैं,’’ बोल कर दृढ़ता से वह उस की तरफ पीठ फिरा कर पीछे मुड़ कर न देखते हुए अंदर चली गई. अब न उस की आंखों में आंसू थे न मन में उमड़ता तूफान. गणपत टेलर तो 15 साल पहले ही मर गया था. उस का अब आना क्या माने रखता था. जीवन के वे 15 साल, जो उस ने अकेले, बेबसी, मुश्किलों के साथ काटे थे, जो सिर्फ उस ने भोगे थे, पति के साथ की जरूरत तो तब थी उसे, उस के बच्चों को. अब उस का आना…नहीं, अब तन्हा जिंदगी जी लेगी वह

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March 01, 2021 at 10:00AM