Friday 26 February 2021

मन के दीये: राधिका उदास होकर क्या देख रही थी

राधिका बैड के सामने खुलने वाली खिड़की से दिखाई देने वाले उस बंद गेट को मायूसी से देख रही थीं जहां से उन के बेटे उन्हें यहां परायों की भीड़ में शामिल करवा गए थे. उन का चुप रहना, खाने की प्लेट को बिन छुए सरका देना, बैड पर पड़ेपड़े कमरे की छत को देखते रहना जैसे यहां रहने वालों के लिए खास माने नहीं रखता था. 5 दिन से राधिका ऐसी ही गुमसुम थीं, कभी उठ कर बस नहाधो लेतीं, कभी चुपचाप खड़ी बाहर देखती रहतीं. किसी ने उन से बात करने की कोशिश की भी तो उन्होंने मुंह फेर लिया था. किसी ने उन्हें आग्रहपूर्वक कुछ खिलाने की कोशिश की भी तो यह सबकुछ राधिका को सहज नहीं कर पाया था. छठे दिन वे चुपचाप लेटी छत निहार रही थीं कि जैसे कमरे के शांत वातावरण में उत्साहित स्वर गूंज उठा, ‘‘राधिका, तुम्हें रंगोली बनानी आती है? कुछ ही दिनों बाद दीवाली है, सारा काम पड़ा है.’’

राधिका चुप रहीं.

नंदिनी हंसीं, ‘‘गूंगी हो क्या?’’

राधिका करवट बदल कर लेट गईं. उन का जरा भी मन नहीं हुआ जवाब देने का. फिर नंदिनी उन्हें कंधे से सीधा करती हुई बोलीं, ‘‘अरे सौरी, मैं ने अपना परिचय तो दिया ही नहीं. मैं नंदिनी, तुम्हारी रूममेट, यह दूसरा बैड मेरा ही है.’’ राधिका ने अब भी कुछ न कहा तो नंदिनी उन्हें ध्यान से देखते हुए अपना बैड और सामान ठीक करने लगीं. सुबह हुई, राधिका ने नंदिनी पर जैसे ही नजर डाली, नंदिनी ने कहा, ‘‘गुडमौर्निंग राधिका, आंखों से लग रहा है रात को सोईं नहीं ठीक से.’’ राधिका ने जवाब तो नहीं दिया, आंखें भरती चली गईं, बस जैसे खुद से मन ही मन बात की, कैसे आए नींद, जीवन भर पति और दोनों बेटों के आगेपीछे घूमती रही, पति अचानक साइलैंट हार्टअटैक में चले गए तो दोनों बेटों की गृहस्थी के कामों में लगा दिया खुद को, पोतेपोतियों, भरेपूरे परिवार की मालकिन आज मैं यहां पड़ी हूं, इन परायों के बीच, इस वृद्धाश्रम में. क्या गलती की मैं ने, विदेश जाते हुए दोनों ने घर बेच कर मुझे यहां छोड़ दिया, वीजा की समस्या का यही हल ढूंढ़ा उन्होंने, नहीं, वीजा का बहाना था. एक बार भी नहीं सोचा मैं कैसे रहूंगी परायों के बीच.

संतान का मोह भी कैसा मोह है जिस के सामने सभी मोह हथियार डाल देते हैं परंतु यही संतान कैसे इतनी निर्मोही हो जाती है कि अपने मातापिता का मोह भी उसे बंधन जान पड़ता है और वह इस स्नेह और ममता के बंधन से मुक्त हो जाना चाहती है. पिछली दीवाली पर चारों पोतेपोतियों के साथ कितना अच्छा लगा था. कहां विलुप्त हो गए वे क्षण. किस जादूगर ने अपनी छड़ी घुमा कर समेट लिए. सब मेरे साथ ही रहने आ गए थे. वह तो बाद में पता चला कि मकान बेच कर साथ रहने का जो सपना मुझे दिखाया था उस में सिर्फ उन का स्वार्थ और छल था. राधिका बेजान बुत बन कर पड़ी बस, यही सोचे जा रही थीं कि जब बेटे छोटे थे तब उन्हें मातापिता की जरूरत थी. तब हम उन पर स्नेह और ममता लुटाते रहे और उम्र के इस पड़ाव पर जब मुझे उन की जरूरत है तो वे इतने स्वार्थी हो गए कि उन के बुढ़ापे को बोझ समझ कर अकेले ही उसे ढोने के लिए छोड़ दिया, अपनी मां को अकेले, बेसहारा छोड़ देने में उन्हें जरा भी हिचकिचाहट नहीं हुई? उन के दिल पर पड़े फफोले अचानक फूट पड़े, वे जोरजोर से रोने लगीं. नंदिनी ने उन्हें सहारा दे कर बिठाया, उन्हें गले से लगा कर चुप करवाया, फिर बहुत ही स्नेह से कहा, ‘‘चुप हो जाओ, राधिका, तुम फ्रैश हो जाओ, मैं तुम्हारे लिए चाय यहीं लाती हूं, लेकिन बस आज, कल से वहीं सब के साथ पीनी है.’’

राधिका ने पहली बार आंसुओं से भरी आंखें उठा कर नंदिनी को देखा, उस से उम्र में बड़ी ही थीं वे, शांत चेहरा, कोमल स्नेहिल स्पर्श, वे अचानक छोटी बच्ची की तरह नंदिनी से लिपट गईं और कई दिनों से उन के दुखी मन का विलाप नंदिनी के स्नेहिल आगोश में सिमटता चला गया. उसी शाम को राधिका आश्रम की एक बेंच पर चुपचाप बैठी दूर से ही नंदिनी और बाकी रहने वालों को अंत्याक्षरी खेलते देख रही थीं. नंदिनी के स्वर में स्नेहभरा आदेश था जिसे वे चाह कर भी नकार नहीं पाई थीं और अब सब को हंसतेमुसकराते देख रही थीं और सोच रही थीं कि अपने घर व बच्चों से दूर ये लोग इतना खुश किस बात पर हो रहे हैं, क्या बच्चों की याद इन्हें नहीं आती? पुरुषस्त्रियां सब दिल खोल कर गा रहे थे. अब तक राधिका को पता चल गया था, नंदिनी को सब यहां दीदी ही कहते हैं, वे ही यहां उम्र में सब से बड़ी थीं और हैरत की बात यह थी कि वे ही सब से चुस्त और खुशमिजाज थीं. फिर नंदिनी उठ कर राधिका के पास ही बैठ गईं, पूछा, ‘‘राधिका, क्या सोच रही हो?’’

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‘‘यही कि मैं ने क्या गलती की जो मेरे बेटे मुझे यहां छोड़ गए. मैं ने अपने पति का बनाया हुआ इतना सुंदर घर अपने बेटों के कहने पर बेच दिया.’’ ‘‘हां, यही गलती तो की तुम ने. मेरे पति ने अपनी बीमारी के अंतिम दिनों में बैंक में घर गिरवी रख दिया था, इस बात पर दोनों बेटे नाराज भी हुए पर बैंक ही हर महीने अच्छा पैसा देता है मुझे. जब मन होता है घर भी चली जाती हूं, उस घर में मैं ने भी सारी उम्र बिताई है. वहां रहने में अलग ही खुशी मिलती है मुझे पर अकेलापन तो वहां भी है. जब तुम आईं, मैं वहीं गई हुई थी. दीवाली पर वहां की भी थोड़ी सफाई करवा लेती हूं.’’ नंदिनी इधरउधर घूम कर सब के साथ मिल कर दीवाली की साफसफाई करवाने लगीं. मुंबई के ठाणे में ‘यऊर हिल’ के पास यह ‘स्नेह कुटीर’ बनी थी. हर तरफ हरियाली ही हरियाली थी. शहर के शोरशराबे से दूर शांत जगह ऐसा लगता था मानो कोई हिल स्टेशन है, फिर राधिका को यह भी पता चला कि यह ‘स्नेह कुटीर’ नंदिनी ने ही बनवाई है. वे मुंबई यूनिवर्सिटी में ही प्रोफैसर रही हैं, खुश रहती हैं, सब को खुश रहना ही सिखाती हैं.शाम को टहलते हुए नंदिनी ने कहा, ‘‘राधिका, तुम से पूछा था मैं ने, रंगोली बनानी आती है क्या?’’

‘‘मेरा त्योहार मनाने का कोई दिल नहीं है, बच्चों से दूर वृद्धाश्रम में कैसा त्योहार?’’

‘‘मेरी ‘स्नेह कुटीर’ को वृद्धाश्रम क्यों कह रही हो? यहां सब को एकदूसरे का स्नेह मिलता है, खूब महफिलें जमती हैं, यहां बस स्नेह ही लेना है, स्नेह ही बांटना है,’’ कहतेकहते नंदिनी राधिका का हाथ पकड़ कर उसे हौल में ले आईं, वहां भी कोई कह रहा था :‘‘हमेशा बच्चों की हर फरमाइश पूरी की और यही कहते रहे कि सब तुम्हारा ही है.’’

एक स्त्री ने हंसते हुए छेड़ा, ‘‘बस, उन्होंने सब ले लिया.’’ पहले बोलने वाले पुरुष को भी हंसी आ गई थी. राधिका चुपचाप बातें सुन रही थीं. नंदिनी ने उन्हें वहीं एक कुरसी पर बिठा दिया, फिर कहने लगीं, ‘‘यहां अपनी उम्र के लोगों से बात कर के एक अजीब सा सुकून मिलता है. एक जैसी समस्याएं, एक जैसी खुशियां, सबकुछ शेयर करना बहुत अच्छा लगता है. ऐसा लगता है हम अकेले नहीं हैं, हम एकदूसरे के दर्द को आसानी से समझ सकते हैं. सामने वाले के पास हमारी बात को सुनने का समय है, वह हमें गंभीरता से ले रहा है, यह एहसास ही इस उम्र में खासा सुकून देने वाला है,’’ कह कर नंदिनी ने राधिका का कंधा थपथपाया.

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राधिका ने उन्हें देखा, आंखों की आंखों से बात हुई मानो मौन ही मुखर हो कर भावनाओं को बांच रहा हो . इतने में सामने बैठे एक शख्स ने कहा, ‘‘और बेटों के साथ रहने से रहने के अलावा कौन सा संरक्षण मिल रहा था मुझे. अवांछित सा इधरउधर घूमता रहता था. और अगर वे अच्छे भी होते तो क्या हो जाता, मेरे पास रातदिन तो न बैठे रहते न. उन की भी पत्नी है, बच्चे हैं, वहां भी अकेले ही खाता था. यहां तो सब के साथ हंसतेबोलते खाता हूं,’’ फिर उन्होंने राधिका से पूछा, ‘‘राधिकाजी, आप को किस चीज का शौक रहा है?’’राधिका को अभी तक किसी का नाम नहीं पता था, उसे कोई रुचि ही नहीं थी इन लोगों में, इतना ही कहा, ‘‘मैं ने हमेशा पति और बच्चों की पसंद के अलावा कभी कुछ सोचा ही नहीं.’’ नंदिनी ने स्नेहभरी फटकार लगाई, ‘‘महेशजी तुम्हारा शौक पूछ रहे हैं, कुछ न कुछ तो अपने लिए अच्छा ही लगता रहा होगा.’’

‘‘बस मुझे हमेशा परिवार के लिए कुछ न कुछ किचन में बनाना पसंद रहा है, सो कुकिंग ही शौक कह सकती हूं अपना.’’ एक महिला जोर से हंसी, ‘‘वाह, शुक्र है, खाना बनाने का शौकीन कोई तो आया, नहीं तो यहां सब को खाने का ही शौक है, किचन में हमारे श्याम काका और उन की पत्नी सरला काकी को जरा नईनई रेसिपी बता देना, कुछ अलग स्वाद होगा फिर और मजा आएगा.’’ राधिका ने ठंडी गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘नहीं, अब मेरा कुछ भी करने का मन नहीं है.’’ नंदिनी ने बात बदल दी, ‘‘ठीक है, चलो अब बताओ, बाजार से क्याक्या मंगवाऊं, अंजू आज फ्री है. वह शाम को लिस्ट लेने आएगी या अजय भी आ सकता है.’’ इतने में नंदिनी का मोबाइल बजा. वह बात करती हुई हौल से बाहर चली गई. राधिका ने पूछा, ‘‘अजय, अंजू कौन हैं?’’

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‘‘इन का छोटा बेटा, बड़ा बेटा तो विदेश में है, अंजू इन की बेटी है.’’ राधिका को जैसे करंट लगा, ‘‘इन के बच्चे? और ये यहां रहती हैं?’’ ‘‘हां, उन्हें हम सब के साथ अच्छा लगता है, कभीकभी अपने घर भी जाती हैं, तुम आईं तो गई हुई थीं न, नहीं तो तुम्हें इतने दिन रोने थोड़े ही देतीं, यहां हर नए आने वाले का बैड उन के रूम में ही लगता है, इन्हें आता है हम जैसों को तसल्ली दे कर खुश रखना, रिटायरमैंट के बाद इन का काम है, अपने बच्चों से उपेक्षित, उदास, अकेले इंसान को फिर जीवन नए सिरे से जीना,’’ इतने में नंदिनी अंदर आ गईं तो बात वहीं रुक गई. अजय आया और आ कर जिस तरह सब से मिला, राधिका हैरान रह गईं, नंदिनी कह रही थीं, ‘‘अजय, यह रही लिस्ट, कल तक सामान पहुंचा देना और हां, मैं इस बार दीवाली पर यहीं रहूंगी.’’ ‘‘नहीं मां, दीवाली पर तो आप को हमारे पास आना ही है.’’ ‘‘नहीं, अजय, इस बार नहीं,’’ कह कर नंदिनी ने राधिका को देखा, वे कुछ हैरान सी थीं.

अजय लिस्ट ले कर चला गया. अजय अपने साथ गरमगरम कचौरी और जलेबी लाया था. श्याम काका ने नाश्ता प्लेटों में ला कर रखा, सब शुरू हो गए, किसी ने किसी को खाने के लिए नहीं कहा, सब वाहवाह करते हुए खाते रहे. उन 15 लोगों के चेहरों पर छाई शांति देख कर राधिका को अपने अंदर अचानक कुछ पिघलता सा महसूस हुआ, उन्होंने अपने बहते आंसू खुद ही पोंछ लिए थे. बेहद शांत आवाज में वे बोलीं, ‘‘दीदी, रंगोली कहांकहां बनानी है?’’ नंदिनी ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘तुम्हें आती है बनानी? कब से पूछ रही हूं, यहां किसी को नहीं आती, देखने का शौक सब को है. दीवाली वाले दिन मेरे एनजीओ के साथी भी आ रहे हैं यहां.’’ ‘‘रंग हैं? कुछ सामान चाहिए, और किचन में कुछ स्पैशल बनाऊंगी दीवाली वाले दिन, जो आप सब को पसंद हो, बता दें.’’ नंदिनी ने राधिका को गले लगा लिया, बोलीं, ‘‘अभी अजय का फोन मिला कर देती हूं, उसी को बता दो क्याक्या चाहिए.’’ राधिका ने पहली बार अपने आसपास के लोगों के स्वभाव, व्यवहार पर ध्यान दिया. सोच रही थीं, ये सब भी तो उसी के जैसे हैं, ये भी तो जीना सीख ही गए न. मैं भी सीख ही जाऊंगी, निर्मोही बेटों के बिना अकेले. पर अकेली कहां हूं, इतने तो साथी हैं यहां.

पिछली दीवाली पर उन अपनों के लिए क्याक्या बनाती रही जो गैर हो गए, इस बार उन गैरों के लिए बनाऊंगी जो अब हमेशा अपने रहेंगे. इन परायों को अपना मानने के अलावा रास्ता भी क्या है. फिर क्यों न खुशी से ही इस परिवार का हिस्सा बन जाऊं. बहुत दिनों बाद राधिका को अपने मन पर छाया अंधेरा दूर होता सा लगा, दीवाली से पहले ही मन के दीये जो जल उठे थे.   द्

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राधिका बैड के सामने खुलने वाली खिड़की से दिखाई देने वाले उस बंद गेट को मायूसी से देख रही थीं जहां से उन के बेटे उन्हें यहां परायों की भीड़ में शामिल करवा गए थे. उन का चुप रहना, खाने की प्लेट को बिन छुए सरका देना, बैड पर पड़ेपड़े कमरे की छत को देखते रहना जैसे यहां रहने वालों के लिए खास माने नहीं रखता था. 5 दिन से राधिका ऐसी ही गुमसुम थीं, कभी उठ कर बस नहाधो लेतीं, कभी चुपचाप खड़ी बाहर देखती रहतीं. किसी ने उन से बात करने की कोशिश की भी तो उन्होंने मुंह फेर लिया था. किसी ने उन्हें आग्रहपूर्वक कुछ खिलाने की कोशिश की भी तो यह सबकुछ राधिका को सहज नहीं कर पाया था. छठे दिन वे चुपचाप लेटी छत निहार रही थीं कि जैसे कमरे के शांत वातावरण में उत्साहित स्वर गूंज उठा, ‘‘राधिका, तुम्हें रंगोली बनानी आती है? कुछ ही दिनों बाद दीवाली है, सारा काम पड़ा है.’’

राधिका चुप रहीं.

नंदिनी हंसीं, ‘‘गूंगी हो क्या?’’

राधिका करवट बदल कर लेट गईं. उन का जरा भी मन नहीं हुआ जवाब देने का. फिर नंदिनी उन्हें कंधे से सीधा करती हुई बोलीं, ‘‘अरे सौरी, मैं ने अपना परिचय तो दिया ही नहीं. मैं नंदिनी, तुम्हारी रूममेट, यह दूसरा बैड मेरा ही है.’’ राधिका ने अब भी कुछ न कहा तो नंदिनी उन्हें ध्यान से देखते हुए अपना बैड और सामान ठीक करने लगीं. सुबह हुई, राधिका ने नंदिनी पर जैसे ही नजर डाली, नंदिनी ने कहा, ‘‘गुडमौर्निंग राधिका, आंखों से लग रहा है रात को सोईं नहीं ठीक से.’’ राधिका ने जवाब तो नहीं दिया, आंखें भरती चली गईं, बस जैसे खुद से मन ही मन बात की, कैसे आए नींद, जीवन भर पति और दोनों बेटों के आगेपीछे घूमती रही, पति अचानक साइलैंट हार्टअटैक में चले गए तो दोनों बेटों की गृहस्थी के कामों में लगा दिया खुद को, पोतेपोतियों, भरेपूरे परिवार की मालकिन आज मैं यहां पड़ी हूं, इन परायों के बीच, इस वृद्धाश्रम में. क्या गलती की मैं ने, विदेश जाते हुए दोनों ने घर बेच कर मुझे यहां छोड़ दिया, वीजा की समस्या का यही हल ढूंढ़ा उन्होंने, नहीं, वीजा का बहाना था. एक बार भी नहीं सोचा मैं कैसे रहूंगी परायों के बीच.

संतान का मोह भी कैसा मोह है जिस के सामने सभी मोह हथियार डाल देते हैं परंतु यही संतान कैसे इतनी निर्मोही हो जाती है कि अपने मातापिता का मोह भी उसे बंधन जान पड़ता है और वह इस स्नेह और ममता के बंधन से मुक्त हो जाना चाहती है. पिछली दीवाली पर चारों पोतेपोतियों के साथ कितना अच्छा लगा था. कहां विलुप्त हो गए वे क्षण. किस जादूगर ने अपनी छड़ी घुमा कर समेट लिए. सब मेरे साथ ही रहने आ गए थे. वह तो बाद में पता चला कि मकान बेच कर साथ रहने का जो सपना मुझे दिखाया था उस में सिर्फ उन का स्वार्थ और छल था. राधिका बेजान बुत बन कर पड़ी बस, यही सोचे जा रही थीं कि जब बेटे छोटे थे तब उन्हें मातापिता की जरूरत थी. तब हम उन पर स्नेह और ममता लुटाते रहे और उम्र के इस पड़ाव पर जब मुझे उन की जरूरत है तो वे इतने स्वार्थी हो गए कि उन के बुढ़ापे को बोझ समझ कर अकेले ही उसे ढोने के लिए छोड़ दिया, अपनी मां को अकेले, बेसहारा छोड़ देने में उन्हें जरा भी हिचकिचाहट नहीं हुई? उन के दिल पर पड़े फफोले अचानक फूट पड़े, वे जोरजोर से रोने लगीं. नंदिनी ने उन्हें सहारा दे कर बिठाया, उन्हें गले से लगा कर चुप करवाया, फिर बहुत ही स्नेह से कहा, ‘‘चुप हो जाओ, राधिका, तुम फ्रैश हो जाओ, मैं तुम्हारे लिए चाय यहीं लाती हूं, लेकिन बस आज, कल से वहीं सब के साथ पीनी है.’’

राधिका ने पहली बार आंसुओं से भरी आंखें उठा कर नंदिनी को देखा, उस से उम्र में बड़ी ही थीं वे, शांत चेहरा, कोमल स्नेहिल स्पर्श, वे अचानक छोटी बच्ची की तरह नंदिनी से लिपट गईं और कई दिनों से उन के दुखी मन का विलाप नंदिनी के स्नेहिल आगोश में सिमटता चला गया. उसी शाम को राधिका आश्रम की एक बेंच पर चुपचाप बैठी दूर से ही नंदिनी और बाकी रहने वालों को अंत्याक्षरी खेलते देख रही थीं. नंदिनी के स्वर में स्नेहभरा आदेश था जिसे वे चाह कर भी नकार नहीं पाई थीं और अब सब को हंसतेमुसकराते देख रही थीं और सोच रही थीं कि अपने घर व बच्चों से दूर ये लोग इतना खुश किस बात पर हो रहे हैं, क्या बच्चों की याद इन्हें नहीं आती? पुरुषस्त्रियां सब दिल खोल कर गा रहे थे. अब तक राधिका को पता चल गया था, नंदिनी को सब यहां दीदी ही कहते हैं, वे ही यहां उम्र में सब से बड़ी थीं और हैरत की बात यह थी कि वे ही सब से चुस्त और खुशमिजाज थीं. फिर नंदिनी उठ कर राधिका के पास ही बैठ गईं, पूछा, ‘‘राधिका, क्या सोच रही हो?’’

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‘‘यही कि मैं ने क्या गलती की जो मेरे बेटे मुझे यहां छोड़ गए. मैं ने अपने पति का बनाया हुआ इतना सुंदर घर अपने बेटों के कहने पर बेच दिया.’’ ‘‘हां, यही गलती तो की तुम ने. मेरे पति ने अपनी बीमारी के अंतिम दिनों में बैंक में घर गिरवी रख दिया था, इस बात पर दोनों बेटे नाराज भी हुए पर बैंक ही हर महीने अच्छा पैसा देता है मुझे. जब मन होता है घर भी चली जाती हूं, उस घर में मैं ने भी सारी उम्र बिताई है. वहां रहने में अलग ही खुशी मिलती है मुझे पर अकेलापन तो वहां भी है. जब तुम आईं, मैं वहीं गई हुई थी. दीवाली पर वहां की भी थोड़ी सफाई करवा लेती हूं.’’ नंदिनी इधरउधर घूम कर सब के साथ मिल कर दीवाली की साफसफाई करवाने लगीं. मुंबई के ठाणे में ‘यऊर हिल’ के पास यह ‘स्नेह कुटीर’ बनी थी. हर तरफ हरियाली ही हरियाली थी. शहर के शोरशराबे से दूर शांत जगह ऐसा लगता था मानो कोई हिल स्टेशन है, फिर राधिका को यह भी पता चला कि यह ‘स्नेह कुटीर’ नंदिनी ने ही बनवाई है. वे मुंबई यूनिवर्सिटी में ही प्रोफैसर रही हैं, खुश रहती हैं, सब को खुश रहना ही सिखाती हैं.शाम को टहलते हुए नंदिनी ने कहा, ‘‘राधिका, तुम से पूछा था मैं ने, रंगोली बनानी आती है क्या?’’

‘‘मेरा त्योहार मनाने का कोई दिल नहीं है, बच्चों से दूर वृद्धाश्रम में कैसा त्योहार?’’

‘‘मेरी ‘स्नेह कुटीर’ को वृद्धाश्रम क्यों कह रही हो? यहां सब को एकदूसरे का स्नेह मिलता है, खूब महफिलें जमती हैं, यहां बस स्नेह ही लेना है, स्नेह ही बांटना है,’’ कहतेकहते नंदिनी राधिका का हाथ पकड़ कर उसे हौल में ले आईं, वहां भी कोई कह रहा था :‘‘हमेशा बच्चों की हर फरमाइश पूरी की और यही कहते रहे कि सब तुम्हारा ही है.’’

एक स्त्री ने हंसते हुए छेड़ा, ‘‘बस, उन्होंने सब ले लिया.’’ पहले बोलने वाले पुरुष को भी हंसी आ गई थी. राधिका चुपचाप बातें सुन रही थीं. नंदिनी ने उन्हें वहीं एक कुरसी पर बिठा दिया, फिर कहने लगीं, ‘‘यहां अपनी उम्र के लोगों से बात कर के एक अजीब सा सुकून मिलता है. एक जैसी समस्याएं, एक जैसी खुशियां, सबकुछ शेयर करना बहुत अच्छा लगता है. ऐसा लगता है हम अकेले नहीं हैं, हम एकदूसरे के दर्द को आसानी से समझ सकते हैं. सामने वाले के पास हमारी बात को सुनने का समय है, वह हमें गंभीरता से ले रहा है, यह एहसास ही इस उम्र में खासा सुकून देने वाला है,’’ कह कर नंदिनी ने राधिका का कंधा थपथपाया.

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राधिका ने उन्हें देखा, आंखों की आंखों से बात हुई मानो मौन ही मुखर हो कर भावनाओं को बांच रहा हो . इतने में सामने बैठे एक शख्स ने कहा, ‘‘और बेटों के साथ रहने से रहने के अलावा कौन सा संरक्षण मिल रहा था मुझे. अवांछित सा इधरउधर घूमता रहता था. और अगर वे अच्छे भी होते तो क्या हो जाता, मेरे पास रातदिन तो न बैठे रहते न. उन की भी पत्नी है, बच्चे हैं, वहां भी अकेले ही खाता था. यहां तो सब के साथ हंसतेबोलते खाता हूं,’’ फिर उन्होंने राधिका से पूछा, ‘‘राधिकाजी, आप को किस चीज का शौक रहा है?’’राधिका को अभी तक किसी का नाम नहीं पता था, उसे कोई रुचि ही नहीं थी इन लोगों में, इतना ही कहा, ‘‘मैं ने हमेशा पति और बच्चों की पसंद के अलावा कभी कुछ सोचा ही नहीं.’’ नंदिनी ने स्नेहभरी फटकार लगाई, ‘‘महेशजी तुम्हारा शौक पूछ रहे हैं, कुछ न कुछ तो अपने लिए अच्छा ही लगता रहा होगा.’’

‘‘बस मुझे हमेशा परिवार के लिए कुछ न कुछ किचन में बनाना पसंद रहा है, सो कुकिंग ही शौक कह सकती हूं अपना.’’ एक महिला जोर से हंसी, ‘‘वाह, शुक्र है, खाना बनाने का शौकीन कोई तो आया, नहीं तो यहां सब को खाने का ही शौक है, किचन में हमारे श्याम काका और उन की पत्नी सरला काकी को जरा नईनई रेसिपी बता देना, कुछ अलग स्वाद होगा फिर और मजा आएगा.’’ राधिका ने ठंडी गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘नहीं, अब मेरा कुछ भी करने का मन नहीं है.’’ नंदिनी ने बात बदल दी, ‘‘ठीक है, चलो अब बताओ, बाजार से क्याक्या मंगवाऊं, अंजू आज फ्री है. वह शाम को लिस्ट लेने आएगी या अजय भी आ सकता है.’’ इतने में नंदिनी का मोबाइल बजा. वह बात करती हुई हौल से बाहर चली गई. राधिका ने पूछा, ‘‘अजय, अंजू कौन हैं?’’

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‘‘इन का छोटा बेटा, बड़ा बेटा तो विदेश में है, अंजू इन की बेटी है.’’ राधिका को जैसे करंट लगा, ‘‘इन के बच्चे? और ये यहां रहती हैं?’’ ‘‘हां, उन्हें हम सब के साथ अच्छा लगता है, कभीकभी अपने घर भी जाती हैं, तुम आईं तो गई हुई थीं न, नहीं तो तुम्हें इतने दिन रोने थोड़े ही देतीं, यहां हर नए आने वाले का बैड उन के रूम में ही लगता है, इन्हें आता है हम जैसों को तसल्ली दे कर खुश रखना, रिटायरमैंट के बाद इन का काम है, अपने बच्चों से उपेक्षित, उदास, अकेले इंसान को फिर जीवन नए सिरे से जीना,’’ इतने में नंदिनी अंदर आ गईं तो बात वहीं रुक गई. अजय आया और आ कर जिस तरह सब से मिला, राधिका हैरान रह गईं, नंदिनी कह रही थीं, ‘‘अजय, यह रही लिस्ट, कल तक सामान पहुंचा देना और हां, मैं इस बार दीवाली पर यहीं रहूंगी.’’ ‘‘नहीं मां, दीवाली पर तो आप को हमारे पास आना ही है.’’ ‘‘नहीं, अजय, इस बार नहीं,’’ कह कर नंदिनी ने राधिका को देखा, वे कुछ हैरान सी थीं.

अजय लिस्ट ले कर चला गया. अजय अपने साथ गरमगरम कचौरी और जलेबी लाया था. श्याम काका ने नाश्ता प्लेटों में ला कर रखा, सब शुरू हो गए, किसी ने किसी को खाने के लिए नहीं कहा, सब वाहवाह करते हुए खाते रहे. उन 15 लोगों के चेहरों पर छाई शांति देख कर राधिका को अपने अंदर अचानक कुछ पिघलता सा महसूस हुआ, उन्होंने अपने बहते आंसू खुद ही पोंछ लिए थे. बेहद शांत आवाज में वे बोलीं, ‘‘दीदी, रंगोली कहांकहां बनानी है?’’ नंदिनी ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘तुम्हें आती है बनानी? कब से पूछ रही हूं, यहां किसी को नहीं आती, देखने का शौक सब को है. दीवाली वाले दिन मेरे एनजीओ के साथी भी आ रहे हैं यहां.’’ ‘‘रंग हैं? कुछ सामान चाहिए, और किचन में कुछ स्पैशल बनाऊंगी दीवाली वाले दिन, जो आप सब को पसंद हो, बता दें.’’ नंदिनी ने राधिका को गले लगा लिया, बोलीं, ‘‘अभी अजय का फोन मिला कर देती हूं, उसी को बता दो क्याक्या चाहिए.’’ राधिका ने पहली बार अपने आसपास के लोगों के स्वभाव, व्यवहार पर ध्यान दिया. सोच रही थीं, ये सब भी तो उसी के जैसे हैं, ये भी तो जीना सीख ही गए न. मैं भी सीख ही जाऊंगी, निर्मोही बेटों के बिना अकेले. पर अकेली कहां हूं, इतने तो साथी हैं यहां.

पिछली दीवाली पर उन अपनों के लिए क्याक्या बनाती रही जो गैर हो गए, इस बार उन गैरों के लिए बनाऊंगी जो अब हमेशा अपने रहेंगे. इन परायों को अपना मानने के अलावा रास्ता भी क्या है. फिर क्यों न खुशी से ही इस परिवार का हिस्सा बन जाऊं. बहुत दिनों बाद राधिका को अपने मन पर छाया अंधेरा दूर होता सा लगा, दीवाली से पहले ही मन के दीये जो जल उठे थे.   द्

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February 27, 2021 at 10:00AM

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