Thursday 25 February 2021

Valentine Special : दूरदर्शिता- माधुरी का रो रोकर बुरा हाल क्यों हो गया था

रो रो कर माधुरी अचेत हो गई थी. समीप बैठी रोती कलपती मां ने उस का सिर अपनी गोद में रख लिया और उसे झकझोरने लगीं, ‘‘होश में आ, बेटी.’’ एक महिला दौड़ कर गिलास में पानी भर लाई. कुछ छींटे माधुरी के मुंह पर मारे तो धीरेधीरे उस ने आंखें खोलीं. वस्तुस्थिति का ज्ञान होते ही वह फिर विलाप करने लगी थी, ‘‘तुम मुझे छोड़ कर नहीं जा सकते. मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी. मां, उन्हें उठाओ न. मैं ने तो कभी किसी का बुरा नहीं किया, फिर मुझ पर यह कहर क्यों टूटा? क्यों मुझे उजाड़ डाला…’’ उसे फिर गश आ गया था.

आंगन में बैठी मातमपुरसी करने आईं सभी महिलाओं की आंखें नम थीं. हादसा ही ऐसा हुआ था कि जिस ने भी सुना, एकबारगी स्तब्ध रह गया. माधुरी का पति विवेक व्यापार के सिलसिले में कार से दूसरे शहर जा रहा था. सामने से अंधी गति से आते ट्रक ने इतनी बुरी तरह से रौंद डाला था कि कार के साथसाथ उस का शरीर भी बुरी तरह क्षतविक्षत हो गया. ट्रक ड्राइवर घबरा कर तेजी से वहां से भाग निकलने में सफल हो गया.

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‘‘कहां है?’’ अचानक होश में आते ही माधुरी ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘गुडि़या सोई हुई है,’’ बड़ी बहन ने धीरे से कहा.

‘‘उसे दूध…’’‘‘मैं ने पिला दिया है.’’

कुछ न करने की मजबूरी से तड़प रहे थें

बड़ी बहन बंबई से आई थी. उस का पति व इकलौता 5 वर्षीय बेटा भी साथ था. विवेक की असमय दर्दनाक मृत्यु से पूरा परिवार भीतर तक हिल गया था. मांबाप अपने सीने पर पत्थर रख बेटी को विदा करते हैं. अगर वही कलेजे का टुकड़ा 2 वर्षों में ही उजड़ कर उन की आंखों के समक्ष आ खड़ा हो तो मांबाप की कारुणिक मनोदशा को सहज ही समझा जा सकता है. पिछले 10 दिनों से रोरो कर उन के आंसू भी सूख चुके थे. बेटी के जीवन में अकस्मात छा गए घटाटोप अंधेरे से वे बुरी तरह विचलित हो गए थे. बेबसी, लाचारी और कुछ न कर पाने की अपनी मजबूरी से वे स्वयं भीतर ही भीतर तड़प रहे थे.

2 वर्ष पहले ही तो माधुरी दुलहन बन विदा हुई थी. क्या उस का रंगरूप था और क्या उस में गुण थे. एक भरीपूरी गुणों और सुंदरता की वह खान थी. रंगरूप ऐसा कि देखने वाला पलभर ठहरने के लिए विवश हो जाए, वह डाक्टर थी. स्वभाव इतना मृदु कि घर वाले उस पर फख्र करते. कभी गुस्से में तो किसी ने देखा ही नहीं था. अपने स्नेह, प्रेम, विश्वास, अपनत्व के लबालब भरे प्याले से वह विवेक को पूरी तरह संतुष्ट रखे हुए थी.

‘सच कहूं माधुरी, तुम्हें पा कर मेरा जीवन धन्य हो गया,’ अकसर विवेक कहता रहता.माधुरी मंदमंद मुसकराती तो वह उसे आलिंगनबद्ध कर प्रेम की फुहार कर देता. तब वह भी तो तृप्त हो जाती थी. कभीकभार हलकी सी तकरार, नोकझोंक भी होती लेकिन वह उन के प्रेम में कमी या दरार न बन कर टौनिक का ही काम करती.एक दिन माधुरी ने कहा था, ‘आज रवींद्र नाट्यगृह में रंगोली की प्रदर्शनी लगी है. चलो, देख कर आते हैं.’

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‘अरे भई, हमें रंगोली से क्या लेनादेना. इस के बजाय कोई फिल्म देख आते हैं. रीगल सिनेमाघर में एक बढि़या अंगरेजी फिल्म लगी है,’ विवेक ने टालते हुए कहा.

‘ऊंह, तुम्हें तो मेरी पसंद से मतलब ही नहीं. हर बार अपनी ही मरजी चलाते हो,’ माधुरी के स्वर में रोष था.

‘कौन सी मरजी चलाई है मैं ने? क्या पिछली बार तुम्हारी पसंद का नाटक देखने नहीं गए थे? उस दिन भी तुम्हारे कहने से फिल्म का प्रोग्राम रद्द किया था…’

‘अच्छा बाबा, बस करो. अब और सूची मत पढ़ो. जो तुम्हारी मरजी हो, करो.’ विवेक चुपचाप कपड़े बदल कर पलंग पर जा लेटा. शायद कुछ खफा हो गया था. माधुरी भी दूसरी ओर मुंह कर के लेट गई. खाना मेज पर पड़ापड़ा ठंडा हो गया. आधा घंटा बीत गया था.

माधुरी सोच रही थी, ‘झूठा, बेईमान, मुझ से हमेशा कहता है कि तुम कभी नाराज मत होना. मैं तुम्हारा मुसकराता चेहरा ही सदा देखना चाहता हूं. तुम्हें छेड़े बिना मुझे तो नींद ही नहीं आती. तुम तो जानती हो, मैं तुम्हारे बगैर रह नहीं सकता.

‘अब घंटेभर से मैं इधर मुंह किए पड़ी हूं तो पूछा तक नहीं कि क्यों नाराज हो? खाना खाया या नहीं? अब कैसे नींद आ रही है मुझे छेड़े बिना? सभी मर्द एक जैसे होते हैं, मतलबी. अपने स्वार्थ के लिए बीवी की तारीफें, खुशामदें करते हैं, मिमियाते हैं और काम निकल जाने पर फिर शेर बन जाते हैं.?

विवेक ने पलट कर देखा, ‘क्या हुआ?’

‘मेरा सिर. घंटेभर से उधर मुंह किए पड़े हो और अब पूछ रहे हो क्या हुआ? न खाना खाया…’ शेष शब्द हलकी सी रुलाई में खो गए.

‘ओह, तो तुम्हें भूख लगी है. फिर इतनी देर से क्यों नहीं कहा?’ विवेक ने उस के आंसुओं से भरे चेहरे को चुंबनों से सराबोर कर दिया, ‘अब तो खुश हो. कल रंगोली देखने चलेंगे. चलो, अब खाना खाते हैं, नाराजगी खत्म.’

फिर खाना गरम कर दोनों ने खाया. ऐसे ही रूठने, मनाने में साल मानो पलों में बीत गया था. घर में ही खोली गई माधुरी की डिस्पैंसरी अच्छी चलने लगी थी. गुडि़या के आ जाने से उन के प्रेम की डोर और दृढ़ हो गई. नाजुक, रुई सी मुलायम गुडि़या को उठाते वक्त विवेक नाटकीय घबराहट दिखाता, ‘भई, मुझे तो इसे उठाने में डर लगता है. गुडि़या रानी, जल्दी से बड़ी हो जाओ. फिर तुम्हारे साथ तुतलाने, बतियाने, खेलने में बड़ा मजा आएगा. तुम भी अपनी मां जैसे नकली रूठनेमनाने के अभिनय करोगी?’ कहते हुए वह माधुरी की ओर शरारत से देखता तो वह भी नकली क्रोध से कहती, ‘अच्छा, तो मेरी नाराजगी आप को नकली लगती है, ठीक है अब असली…’‘न बाबा, न, मैं ने तो मजाक किया था. सचमुच रूठने की बात मत करना.’

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सचमुच की नाराजगी तो विवेक ने ही जाहिर कर दी थी. उस से रूठ कर कितनी दूर चला गया था. उस ने तो कभी स्वप्न में भी इस तरह उजड़ने की कल्पना न की थी.

पिछले 10 दिनों में जब भी माधुरी की चेतना लौटती, यही लगता कि अभी विवेक शरारत से मुसकराते हुए सामने आ खड़ा होगा, ‘देखा, कैसे बुद्धू बनाया तुम्हें. मैं सचमुच में थोड़े ही मरा था. वह तो झूठमूठ अभिनय कर रहा था, तुम्हें तंग करने के लिए.’

माधुरी के चेहरे पर हलकी सी राहत और आंखों में चमक, मुसकराहट देख बड़ी बहन सशंकित हो उठती, ‘‘क्या हुआ, माधुरी?’’

फिर वस्तुस्थिति का भान होते ही वह बहन से लिपट आर्तनाद कर उठती, ‘‘दीदी, मैं क्या करूं? कैसे जिंदगी गुजारूंगी उन के बिना? मेरी गुडि़या अनाथ हो गई…’’ और इस विलाप में वह फिर बेसुध हो जाती.

मां, पिताजी, दीदी, जीजाजी, विवेक की मां, भैयाभाभी देर रात तक बैठते, माधुरी के भविष्य के बारे में विचारविमर्श करते. कोई ठोस निर्णय लेने से पहले माधुरी की राय तो आवश्यक थी ही, पर उस से पहले सर्वसम्मति से किसी निर्णय का आधार तो बनाना था.

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‘‘गुडि़या को माधुरी की बड़ी बहन को सौंप दिया जाए. उस के एक ही बेटा है, गुडि़या वहां भली प्रकार से पल जाएगी. माधुरी अपनी डिस्पैंसरी देखती रहे. फिर जहां जब कोई सुपात्र मिले तो पुनर्विवाह…’’ माधुरी की मां ने धीरेधीरे संकोच के साथ अपने विचार प्रस्तुत कर दिए.

‘‘यह कैसे संभव है?’’ विवेक की मां कुछ तेजी से बोलीं, ‘‘फिर गुडि़या के बगैर माधुरी कैसे रह पाएगी?’’

दीदी, जीजाजी अब तक आपस में काफी गुफ्तगू कर चुके थे. दीदी बोलीं, ‘‘हम गुडि़या को बाकायदा गोद लेने के लिए तैयार हैं.’’

‘‘माधुरी को हम समझा लेंगे. यह तो निश्चित है कि गुडि़या के कारण उस के पुनर्विवाह में अड़चनें आएंगी और यह भी उतना ही सच है कि अपनी ममता को मारने के लिए वह कदापि तैयार नहीं होगी. विवेक के प्रेम की निशानी वह खोना नहीं चाहेगी, पर जीवन में कभीकभी ऐसे निर्णय लेने के लिए विवश होना पड़ता है जिन्हें हमारा मन कहीं गहरे तक स्वीकारने की इजाजत नहीं देता,’’ डबडबा आई आंखों को पल्लू से पोंछते हुए मां ने कहा.

‘‘अगर माधुरी इस निर्णय के लिए तैयार हो तो ठीक है,’’ विवेक की मां के स्वर में निराशा थी, ‘‘लेकिन लोग क्या कहेंगे? समाज द्वारा उठाए गए सवालों, लोगों की चुभती बातों, तानों, उठती उंगलियों…इन सब का सामना…’’ अपनी शंका भी जाहिर कर दी उन्होंने. साथ ही, यह भी कहा, ‘‘हमें लोगों की जबानों या नजरों से अधिक अपनी बेटी के भविष्य की चिंता है. लोग 2 दिन बोल कर चुप हो जाएंगे.’’

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माधुरी के सामने उस के भविष्य की भूमिका बांधते हुए मां ने ही धीरेधीरे झिझकते हुए टुकड़ों में अपनी बात को रखा. परंतु वह सुनते ही बिफर पड़ी, ‘‘आप लोग मेरी गुडि़या मुझ से छीनना चाहते हैं. पति तो पहले ही साथ छोड़ गए…’’

काफी वक्त लगा था उसे सहज होने में. मां ने फिर बड़े धैर्य से उसे समझाया था. साथ ही, दीदी, विवेक की मां, भाभी ने भी अपनी सहमति प्रकट की और पहाड़ सी जिंदगी का हवाला देते हुए निर्णय को स्वीकारने की राय दी.

तेरहवीं के बाद जब गुडि़या को दीदी की गोद में डाला गया तो इस अद्भुत लाचार व दूरदर्शी फैसले पर जहां घर के सदस्यों की आंखें नम थीं, वहीं समाज में तेजी से कानाफूसी आरंभ हो गई थी. पति व बेटी की जुदाई की दोहरी पीड़ा से व्यथित माधुरी की रोती, थकान से बोझिल आंखें पलभर को मुंद गई थीं और सभी यंत्रणाओं से पलभर के लिए उस ने नजात पा ली थी.

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रो रो कर माधुरी अचेत हो गई थी. समीप बैठी रोती कलपती मां ने उस का सिर अपनी गोद में रख लिया और उसे झकझोरने लगीं, ‘‘होश में आ, बेटी.’’ एक महिला दौड़ कर गिलास में पानी भर लाई. कुछ छींटे माधुरी के मुंह पर मारे तो धीरेधीरे उस ने आंखें खोलीं. वस्तुस्थिति का ज्ञान होते ही वह फिर विलाप करने लगी थी, ‘‘तुम मुझे छोड़ कर नहीं जा सकते. मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी. मां, उन्हें उठाओ न. मैं ने तो कभी किसी का बुरा नहीं किया, फिर मुझ पर यह कहर क्यों टूटा? क्यों मुझे उजाड़ डाला…’’ उसे फिर गश आ गया था.

आंगन में बैठी मातमपुरसी करने आईं सभी महिलाओं की आंखें नम थीं. हादसा ही ऐसा हुआ था कि जिस ने भी सुना, एकबारगी स्तब्ध रह गया. माधुरी का पति विवेक व्यापार के सिलसिले में कार से दूसरे शहर जा रहा था. सामने से अंधी गति से आते ट्रक ने इतनी बुरी तरह से रौंद डाला था कि कार के साथसाथ उस का शरीर भी बुरी तरह क्षतविक्षत हो गया. ट्रक ड्राइवर घबरा कर तेजी से वहां से भाग निकलने में सफल हो गया.

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‘‘कहां है?’’ अचानक होश में आते ही माधुरी ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘गुडि़या सोई हुई है,’’ बड़ी बहन ने धीरे से कहा.

‘‘उसे दूध…’’‘‘मैं ने पिला दिया है.’’

कुछ न करने की मजबूरी से तड़प रहे थें

बड़ी बहन बंबई से आई थी. उस का पति व इकलौता 5 वर्षीय बेटा भी साथ था. विवेक की असमय दर्दनाक मृत्यु से पूरा परिवार भीतर तक हिल गया था. मांबाप अपने सीने पर पत्थर रख बेटी को विदा करते हैं. अगर वही कलेजे का टुकड़ा 2 वर्षों में ही उजड़ कर उन की आंखों के समक्ष आ खड़ा हो तो मांबाप की कारुणिक मनोदशा को सहज ही समझा जा सकता है. पिछले 10 दिनों से रोरो कर उन के आंसू भी सूख चुके थे. बेटी के जीवन में अकस्मात छा गए घटाटोप अंधेरे से वे बुरी तरह विचलित हो गए थे. बेबसी, लाचारी और कुछ न कर पाने की अपनी मजबूरी से वे स्वयं भीतर ही भीतर तड़प रहे थे.

2 वर्ष पहले ही तो माधुरी दुलहन बन विदा हुई थी. क्या उस का रंगरूप था और क्या उस में गुण थे. एक भरीपूरी गुणों और सुंदरता की वह खान थी. रंगरूप ऐसा कि देखने वाला पलभर ठहरने के लिए विवश हो जाए, वह डाक्टर थी. स्वभाव इतना मृदु कि घर वाले उस पर फख्र करते. कभी गुस्से में तो किसी ने देखा ही नहीं था. अपने स्नेह, प्रेम, विश्वास, अपनत्व के लबालब भरे प्याले से वह विवेक को पूरी तरह संतुष्ट रखे हुए थी.

‘सच कहूं माधुरी, तुम्हें पा कर मेरा जीवन धन्य हो गया,’ अकसर विवेक कहता रहता.माधुरी मंदमंद मुसकराती तो वह उसे आलिंगनबद्ध कर प्रेम की फुहार कर देता. तब वह भी तो तृप्त हो जाती थी. कभीकभार हलकी सी तकरार, नोकझोंक भी होती लेकिन वह उन के प्रेम में कमी या दरार न बन कर टौनिक का ही काम करती.एक दिन माधुरी ने कहा था, ‘आज रवींद्र नाट्यगृह में रंगोली की प्रदर्शनी लगी है. चलो, देख कर आते हैं.’

ये भी पढ़ें-हमें खाने दो प्लीज

‘अरे भई, हमें रंगोली से क्या लेनादेना. इस के बजाय कोई फिल्म देख आते हैं. रीगल सिनेमाघर में एक बढि़या अंगरेजी फिल्म लगी है,’ विवेक ने टालते हुए कहा.

‘ऊंह, तुम्हें तो मेरी पसंद से मतलब ही नहीं. हर बार अपनी ही मरजी चलाते हो,’ माधुरी के स्वर में रोष था.

‘कौन सी मरजी चलाई है मैं ने? क्या पिछली बार तुम्हारी पसंद का नाटक देखने नहीं गए थे? उस दिन भी तुम्हारे कहने से फिल्म का प्रोग्राम रद्द किया था…’

‘अच्छा बाबा, बस करो. अब और सूची मत पढ़ो. जो तुम्हारी मरजी हो, करो.’ विवेक चुपचाप कपड़े बदल कर पलंग पर जा लेटा. शायद कुछ खफा हो गया था. माधुरी भी दूसरी ओर मुंह कर के लेट गई. खाना मेज पर पड़ापड़ा ठंडा हो गया. आधा घंटा बीत गया था.

माधुरी सोच रही थी, ‘झूठा, बेईमान, मुझ से हमेशा कहता है कि तुम कभी नाराज मत होना. मैं तुम्हारा मुसकराता चेहरा ही सदा देखना चाहता हूं. तुम्हें छेड़े बिना मुझे तो नींद ही नहीं आती. तुम तो जानती हो, मैं तुम्हारे बगैर रह नहीं सकता.

‘अब घंटेभर से मैं इधर मुंह किए पड़ी हूं तो पूछा तक नहीं कि क्यों नाराज हो? खाना खाया या नहीं? अब कैसे नींद आ रही है मुझे छेड़े बिना? सभी मर्द एक जैसे होते हैं, मतलबी. अपने स्वार्थ के लिए बीवी की तारीफें, खुशामदें करते हैं, मिमियाते हैं और काम निकल जाने पर फिर शेर बन जाते हैं.?

विवेक ने पलट कर देखा, ‘क्या हुआ?’

‘मेरा सिर. घंटेभर से उधर मुंह किए पड़े हो और अब पूछ रहे हो क्या हुआ? न खाना खाया…’ शेष शब्द हलकी सी रुलाई में खो गए.

‘ओह, तो तुम्हें भूख लगी है. फिर इतनी देर से क्यों नहीं कहा?’ विवेक ने उस के आंसुओं से भरे चेहरे को चुंबनों से सराबोर कर दिया, ‘अब तो खुश हो. कल रंगोली देखने चलेंगे. चलो, अब खाना खाते हैं, नाराजगी खत्म.’

फिर खाना गरम कर दोनों ने खाया. ऐसे ही रूठने, मनाने में साल मानो पलों में बीत गया था. घर में ही खोली गई माधुरी की डिस्पैंसरी अच्छी चलने लगी थी. गुडि़या के आ जाने से उन के प्रेम की डोर और दृढ़ हो गई. नाजुक, रुई सी मुलायम गुडि़या को उठाते वक्त विवेक नाटकीय घबराहट दिखाता, ‘भई, मुझे तो इसे उठाने में डर लगता है. गुडि़या रानी, जल्दी से बड़ी हो जाओ. फिर तुम्हारे साथ तुतलाने, बतियाने, खेलने में बड़ा मजा आएगा. तुम भी अपनी मां जैसे नकली रूठनेमनाने के अभिनय करोगी?’ कहते हुए वह माधुरी की ओर शरारत से देखता तो वह भी नकली क्रोध से कहती, ‘अच्छा, तो मेरी नाराजगी आप को नकली लगती है, ठीक है अब असली…’‘न बाबा, न, मैं ने तो मजाक किया था. सचमुच रूठने की बात मत करना.’

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सचमुच की नाराजगी तो विवेक ने ही जाहिर कर दी थी. उस से रूठ कर कितनी दूर चला गया था. उस ने तो कभी स्वप्न में भी इस तरह उजड़ने की कल्पना न की थी.

पिछले 10 दिनों में जब भी माधुरी की चेतना लौटती, यही लगता कि अभी विवेक शरारत से मुसकराते हुए सामने आ खड़ा होगा, ‘देखा, कैसे बुद्धू बनाया तुम्हें. मैं सचमुच में थोड़े ही मरा था. वह तो झूठमूठ अभिनय कर रहा था, तुम्हें तंग करने के लिए.’

माधुरी के चेहरे पर हलकी सी राहत और आंखों में चमक, मुसकराहट देख बड़ी बहन सशंकित हो उठती, ‘‘क्या हुआ, माधुरी?’’

फिर वस्तुस्थिति का भान होते ही वह बहन से लिपट आर्तनाद कर उठती, ‘‘दीदी, मैं क्या करूं? कैसे जिंदगी गुजारूंगी उन के बिना? मेरी गुडि़या अनाथ हो गई…’’ और इस विलाप में वह फिर बेसुध हो जाती.

मां, पिताजी, दीदी, जीजाजी, विवेक की मां, भैयाभाभी देर रात तक बैठते, माधुरी के भविष्य के बारे में विचारविमर्श करते. कोई ठोस निर्णय लेने से पहले माधुरी की राय तो आवश्यक थी ही, पर उस से पहले सर्वसम्मति से किसी निर्णय का आधार तो बनाना था.

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‘‘गुडि़या को माधुरी की बड़ी बहन को सौंप दिया जाए. उस के एक ही बेटा है, गुडि़या वहां भली प्रकार से पल जाएगी. माधुरी अपनी डिस्पैंसरी देखती रहे. फिर जहां जब कोई सुपात्र मिले तो पुनर्विवाह…’’ माधुरी की मां ने धीरेधीरे संकोच के साथ अपने विचार प्रस्तुत कर दिए.

‘‘यह कैसे संभव है?’’ विवेक की मां कुछ तेजी से बोलीं, ‘‘फिर गुडि़या के बगैर माधुरी कैसे रह पाएगी?’’

दीदी, जीजाजी अब तक आपस में काफी गुफ्तगू कर चुके थे. दीदी बोलीं, ‘‘हम गुडि़या को बाकायदा गोद लेने के लिए तैयार हैं.’’

‘‘माधुरी को हम समझा लेंगे. यह तो निश्चित है कि गुडि़या के कारण उस के पुनर्विवाह में अड़चनें आएंगी और यह भी उतना ही सच है कि अपनी ममता को मारने के लिए वह कदापि तैयार नहीं होगी. विवेक के प्रेम की निशानी वह खोना नहीं चाहेगी, पर जीवन में कभीकभी ऐसे निर्णय लेने के लिए विवश होना पड़ता है जिन्हें हमारा मन कहीं गहरे तक स्वीकारने की इजाजत नहीं देता,’’ डबडबा आई आंखों को पल्लू से पोंछते हुए मां ने कहा.

‘‘अगर माधुरी इस निर्णय के लिए तैयार हो तो ठीक है,’’ विवेक की मां के स्वर में निराशा थी, ‘‘लेकिन लोग क्या कहेंगे? समाज द्वारा उठाए गए सवालों, लोगों की चुभती बातों, तानों, उठती उंगलियों…इन सब का सामना…’’ अपनी शंका भी जाहिर कर दी उन्होंने. साथ ही, यह भी कहा, ‘‘हमें लोगों की जबानों या नजरों से अधिक अपनी बेटी के भविष्य की चिंता है. लोग 2 दिन बोल कर चुप हो जाएंगे.’’

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माधुरी के सामने उस के भविष्य की भूमिका बांधते हुए मां ने ही धीरेधीरे झिझकते हुए टुकड़ों में अपनी बात को रखा. परंतु वह सुनते ही बिफर पड़ी, ‘‘आप लोग मेरी गुडि़या मुझ से छीनना चाहते हैं. पति तो पहले ही साथ छोड़ गए…’’

काफी वक्त लगा था उसे सहज होने में. मां ने फिर बड़े धैर्य से उसे समझाया था. साथ ही, दीदी, विवेक की मां, भाभी ने भी अपनी सहमति प्रकट की और पहाड़ सी जिंदगी का हवाला देते हुए निर्णय को स्वीकारने की राय दी.

तेरहवीं के बाद जब गुडि़या को दीदी की गोद में डाला गया तो इस अद्भुत लाचार व दूरदर्शी फैसले पर जहां घर के सदस्यों की आंखें नम थीं, वहीं समाज में तेजी से कानाफूसी आरंभ हो गई थी. पति व बेटी की जुदाई की दोहरी पीड़ा से व्यथित माधुरी की रोती, थकान से बोझिल आंखें पलभर को मुंद गई थीं और सभी यंत्रणाओं से पलभर के लिए उस ने नजात पा ली थी.

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February 26, 2021 at 10:00AM

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