Sunday 28 February 2021

क्या खोया क्या पाया: मौसी जी के अचानक आने से लोग घबरा क्यों गए

धूप का टुकड़ा बरामदे में प्रवेश कर चुका था. सूरज की कोमल किरणों के स्पर्श का अनुभव करते हुए रविवार की सुबह, अखबार पढ़ने के लोभ से मैं कुरसी पर पसर गई. अभी मैं ने अखबार खोला ही था कि दरवाजे की घंटी बज उठी.

दरवाजे पर मौसीजी को देख कर मैं ने लपक कर दरवाजा खोला.

मौसीजी के इस तरह अचानक आ जाने से मैं किसी बुरी आशंका से घबरा गई थी. पर वे काफी खुश नजर आ रही थीं.

‘‘बात ही कुछ ऐसी है, स्नेहा. मैं खुद आ कर तुम्हें खबर देना चाहती थी. राघव को हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में दाखिला मिल गया है.’’

‘‘अरे वाह, मौसीजी, बधाई हो.’’

मौसीजी के बेटे राघव की सफलता पर मैं खुशी से झूम उठी थी. राघव भैया इंजीनियरिंग की पढ़ाई समाप्त कर चुके थे, लेकिन उन की जिद थी कि एमबीए करेंगे तो हार्वर्ड से ही. हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना हर किसी के बस की बात नहीं है. पर मनुष्य यदि ठान ले तो क्षमता और परिश्रम का योग उसे मंजिल तक पहुंचा कर ही दम लेता है.

ये भी पढ़ें-कितना सहेगी आनंदिता: भाग 2

‘‘चलती हूं, ढेर सारा काम पड़ा है,’’ कह कर मौसीजी उठ खड़ी हुईं. मैं मौसीजी को जाते हुए देखती रही. और मेरा मन अतीत की गहराइयों में डूबता चला गया.

मेरी मां और मौसीजी बचपन की सहेलियां थीं. इत्तेफाक से शादी के बाद दोनों को ससुराल भी एक ही महल्ले में मिली. बचपन की दोस्ती अब गाढ़ी दोस्ती में बदल गई थी. मां की जिंदगी में अनगिनत तूफान आए. जबजब मां विचलित हुईं तबतब मौसीजी ने मां को सहारा दिया. उन के द्वारा कहे गए एकएक शब्द, जिन्होंने हमारा पथप्रदर्शन किया था,

मुझे आज भी याद हैं.

राघव भैया और मैं एक ही स्कूल में पढ़ते थे. भैया मेरा हाथ पकड़ कर मुझे स्कूल ले जाते और लाते थे. सगे भाईबहनों सा प्यार था हम दोनों में.

मैं चौथी कक्षा में पढ़ रही थी कि एक दिन पापा का स्कूटर एक गाड़ी की चपेट में आ गया था. दुर्घटना की खबर सुनते ही मौसीजी दौड़ी चली आईं. बदहवासी की हालत में पड़ी मां के साथ साए की तरह रहीं मौसीजी. कई रिश्तेदार पापा को देखने आए, पर सब सहानुभूति जता कर चले गए. किसी ने भी आगे बढ़ कर मदद नहीं की. पैसा पानी की तरह बहाने के बावजूद पापा को बचाया नहीं जा सका.

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पापा की असामयिक और अप्रत्याशित मृत्यु ने मां को तोड़ कर रख दिया था. इस कठिन घड़ी में मौसीजी ने मां को आर्थिक संबल के साथसाथ मानसिक संबल भी प्रदान किया था. सच ही कहा गया है कि मुसीबत के समय ही इंसान की सही परख होती है.

जैसे ही मां थोड़ा संभलीं

उन्होंने पापा की सारी जमा पूंजी निकाल कर मौसीजी के पैसे चुकाए. मौसीजी नाराज हो गई थीं, ‘शीला, जिस दिन तुझे नौकरी मिले, मेरे पैसे लौटा देना.’

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‘तुम ने जो मेरे लिए किया है, जया, उसे मैं कभी नहीं चुका सकती. कल फिर जरूरत होगी तो तुम से ही मांगूंगी न?’ कहा था मां ने. मां के बारबार आग्रह करने पर भी मौसीजी ने नहीं बताया कि उन्होंने पैसों का जुगाड़ कैसे किया था. बाद में जौहरी से मां को पता चला कि मौसीजी ने पैसों के लिए अपने गहने गिरवी रख दिए थे.

अब भविष्य का प्रश्न मां के सामने मुंहबाए खड़ा था.

एक मौसीजी का ही आसरा था. पर जल्द ही मां को पापा की जगह पर नौकरी मिल गई. मां के पास डिगरियां तो काफी थीं पर उन्होंने कभी नौकरी नहीं की थी, इसलिए उन में आत्मविश्वास की कमी थी. उन की घबराहट को भांप कर मौसीजी ने उन का मनोबल बढ़ाते हुए कहा था, ‘अपनी काबिलीयत पर भरोसा रखो, शीला. अकसर हम अपनी क्षमताओं पर अविश्वास कर उन का सही मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं. अपनेआप पर विश्वास कर के हिम्मत जुटा कर आगे बढ़ने पर दुनिया की कोई ताकत हमें कामयाब होने से नहीं रोक सकती. देखना एक दिन ऐसा आएगा जब तुम सोचोगी कि तुम नाहक ही परेशान थीं, तुम तो अपने सभी सहकर्मियों से बेहतर हो.’

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मौसीजी की बातों का गहरा असर पड़ा था मां पर. उस दिन के बाद मां ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. मौसीजी ने मां को मेरी ओर से भी निश्ंिचत कर दिया था. मां की अनुपस्थिति में मैं मौसीजी के घर पर ही रहती थी. मौसीजी के घर, मेरी खुशहाल परवरिश से तृप्त, मां ने अपनेआप को काम में डुबो दिया था. मां की विद्वत्ता, सत्यनिष्ठा और कर्मठता ने रंग दिखाया .

एकएक सीढ़ी चढ़ती हुई मां शिखर के करीब पहुंच गई थीं.

अब मैं बड़ी हो गई थी और मेरे स्कूल का आखिरी साल था. सबकुछ अच्छा चल रहा था कि हमारी जिंदगी में एक दूसरा वज्रपात हुआ. मुझे अच्छी तरह याद है, रविवार का दिन था. मां चक्कर खा कर गिर पड़ी थीं. मैं ने घबरा कर मौसीजी को फोन किया. मौसीजी दौड़ी चली आईं. मां हमें परेशान देख कर कहने लगीं, ‘रिलैक्स जया, इतनी हाइपर मत बनो. मुझे कुछ नहीं हुआ है. सुबह से कुछ खाया नहीं था, इसलिए शुगर डाउन हो गई होगी.’’

मौसीजी की जिद पर मां ने एक हफ्ते की छुट्टी ले ली और जांचों का सिलसिला शुरू हुआ. उस दिन मेरे पैरों तले धरती खिसक गई जिस दिन पता चला कि मां को कैंसर है. मां भर्राए हुए गले से मौसीजी से कहने लगीं, ‘स्नेहा के सिर पर पिता का साया भी नहीं रहा. मुझे कुछ हो गया तो स्नेहा का क्या होगा, जया?’

मौसीजी ने मां को ढाढ़स बंधाया,

‘हर कैंसर जानलेवा ही हो, यह जरूरी नहीं, शीला. धीरज रखो. यू मस्ट फाइट इट आउट.’

मां के चेहरे से हंसी छिन गई थी. मां को उदास देख कर मेरा मन भी उदास हो जाता था. एक दिन मौसीजी मां से मिलने आईं, तो उन्होंने मां को गहन चिंता में डूबी, शून्य में दृष्टि गड़ाए बैठी देखा. मौसीजी ने मां को आड़ेहाथों लिया, ‘किस सोच में डूबी हो, शीला? इस तरह चिंता करोगी तो भविष्य को खींच कर और करीब ले आओगी. आज प्रकृति ने तुम्हें जो मौका दिया है, स्नेहा के साथ हंसनेबोलने का उस के साथ अधिक से अधिक समय बिताने का, उसे यों ही गंवा रही हो. आज से मैं तेरा हंसतामुसकराता चेहरा ही देखना चाहती हूं.’

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मौसीजी की मीठी झिड़की का मां पर ऐसा असर पड़ा कि मैं ने फिर कभी मां को उदास नहीं देखा. इस के बाद जो सुखद पल मैं ने मां के साथ बिताए वे अविस्मरणीय बन गए. मौसीजी की बातों ने मुझे भी समय से पहले ही परिपक्व बना दिया था.

एक दिन मां ने मौसीजी को अपनी वसीयत सौंपी,

जिस के मुताबिक मां की सारी संपत्ति मेरे और मौसीजी के नाम कर दी गई थी. वसीयत देख कर मौसीजी नाराज हो गई थीं. कहने लगीं, ‘शीला, ये पैसे मेरे नाम कर के तुम मुझे पराया कर रही हो. पहले तो तुझे कुछ होगा नहीं, फिर स्नेहा की परवरिश तुम्हारे पैसों की मुहताज नहीं है.’

‘जया, तुम गलत समझ रही हो. वसीयत तो हर किसी को बनानी चाहिए, चाहे वह बीमार हो या न हो. दुर्घटना तो किसी के साथ भी घट सकती है. रही मेरी बात तो इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता कि मैं अब चंद दिनों की मेहमान हूं. वसीयत के अभाव में स्नेहा और पैसों की जिम्मेदारी कोई ऐसा रिश्तेदार लेना चाहेगा, जिसे सिर्फ पैसों से प्यार हो. क्या तुम चाहती हो जया, कि स्नेहा की परवरिश किसी गलत रिश्तेदार के हाथ हो? मुझे तुम्हारे सिवा किसी और पर भरोसा नहीं है, जया,’ कहतेकहते मां भावुक हो गई थीं.

‘मेरे रहते तुम्हें स्नेहा की चिंता करने की जरूरत नहीं है,

शीला,’ यह कह कर मौसीजी ने चुपचाप मां के हाथ से वसीयत ले कर रख ली.महीनाभर भी नहीं बीता कि मां हमें सदा के लिए छोड़ कर चली गईं. अंतिम समय तक उन के चेहरे पर मुसकान थी. शायद मौसीजी की वजह से वे मेरी ओर से निश्ंिचत हो गई थीं.

मां के गुजरते ही वैसा ही हुआ जैसा कि मां को अंदेशा था. कई रिश्तेदार मुझ पर अपना हक जताने आ पहुंचे. मौसीजी मेरे सामने ढाल बन कर खड़ी हो गई थीं. मां की वसीयत को दिखा कर उन्होंने सब को चुप करा दिया था. लेकिन जितने मुंह थे उतनी बातें थीं. मौसीजी पर किसी की बातों का कोई असर नहीं हुआ. वे चट्टान की तरह अडिग खड़ी थीं. उन की दृढ़ता देख कर सब चुपचाप खिसक लिए.

मां की तेरहवीं होने तक मौसीजी मां के घर में मेरे साथ रहीं.

बाद में घर में ताला लगा कर वे मुझे साथ ले कर अपने घर चली गईं. मौसाजी को उन्होंने राघव भैया के कमरे में स्थानांतरित कर दिया. मेरे रहने और पढ़ने की व्यवस्था अपने कमरे में कर दी. मौसीजी की प्रेमपूर्ण छत्रछाया में रह कर मैं ने अपनी पढ़ाई पूरी की. इस के बाद मुझे नौकरी भी मिल गई. मौसीजी मुझे एक पल के लिए भी मां की कमी महसूस नहीं होने देती थीं.

एक दिन मुझे मौसीजी ने विनीत और उस के परिवार वालों से मिलाया. हम ने एकदूसरे को पसंद किया. फिर मेरा ब्याह हो गया. मौसीजी ने मेरे ब्याह में कोई कमी नहीं रखी. उन्होंने वह सबकुछ किया जो एक मां अपनी बेटी के विवाह के वक्त करती है.

दिल्ली में विनीत अपने एक मित्र के साथ किराए के मकान में रहते थे. इसलिए मौसीजी ने शादी के बाद हमें मां के घर की चाबी पकड़ा दी. साथ ही, मौसीजी ने मां की वसीयत और बैंक के सारे जमाखाते मुझे पकड़ा दिए. मैं ने उन पैसों को लेने से इनकार किया तो मौसीजी ने कहा, ‘बेटी, ये तुम्हारी मां की अमानत हैं. इन्हें मां का आशीर्वाद समझ कर स्वीकार कर लो.’

मैं मौसीजी से झगड़ पड़ी थी. मैं ने काफी तर्क किया कि इन पैसों पर उन का हक है. पर मौसीजी टस से मस नहीं हुईं. मैं सोचने लगी, किस मिट्टी की बनी हैं मौसीजी, जिन्होंने मेरे ऊपर खर्च किए गए पैसों की भरपाई भी मां के पैसों से नहीं की और कहां मेरे रिश्तेदार, जिन्होंने मां के पैसे हड़पने चाहे थे. खैर, मैं ने सोच लिया था, मौसीजी पैसे नहीं लेतीं तो क्या हुआ. मैं उन की छोटीछोटी बातों का भी इतना खयाल रखूंगी कि उन्हें किसी चीज की तकलीफ होने ही नहीं दूंगी. जी तो चाहता था कि मैं उन्हें मां कह कर पुकारूं, पर न जाने कौन सा संकोच मुझे रोके रहता.

अचानक विनीत की आवाज सुन कर, मैं जैसे नींद से जागी. बरामदे से धूप का टुकड़ा विलीन हो चुका था.

मैं ने विनीत को राघव भैया के हार्वर्ड जाने की सूचना दी.

आखिर वह दिन भी आ गया जब राघव भैया हार्वर्ड जाने के लिए तैयार थे. हम सब ने उन्हें भावभीनी विदाई दी.

समय पंख लगा कर उड़ गया. पढ़ाई पूरी होते ही राघव भैया 2 हफ्ते के लिए भारत आए. काफी बदलेबदले लग रहे थे. पहले से ही वे बातूनी नहीं थे, लेकिन अब हर वाक्य नापतोल कर बोलते थे. मौसीजी तो ममता से ओतप्रोत अपने बेटे की झलक पा कर ही निहाल हो गई थीं.

वापस लौटने के बाद धीरेधीरे भैया का फोन आना कम होता गया, फोन करते भी तो अकसर शिकायतें ही करते, कि मौसीजी ने उन्हें कितने बंधनों में पाला, उन्हें किसी बात की स्वतंत्रता नहीं दी गई थी, विदेश जा कर ही उन्होंने जीना सीखा. वगैरहवगैरह. मौसीजी उन्हें समझातीं कि बचपन और जवानी में बंधनों का होना जरूरी है वरना बच्चों के भटकने का डर रहता है.

अगर उन के साथ सख्ती नहीं बरती जाती तो वे उस मुकाम पर नहीं पहुंचते, जहां वे आज हैं. भैया के कानों में जूं तक नहीं रेंगती क्योंकि उन का व्यवहार ज्यों का त्यों बना रहा, अब तो भैया पढ़ाई पूरी कर के नौकरी भी करने लगे थे. पर वे अपनी ही दुनिया में जी रहे थे.

इस बीच मौसाजी को हार्टअटैक आ गया. मौसीजी का फोन आते ही मैं तुरंत काम छोड़ कर औफिस से भागी. उन्हें अस्पताल में दाखिल करवाया. समय पर इलाज होने की वजह से उन की हालत में सुधार हुआ. राघव भैया को सूचित किया जा चुका था. पर वे ‘पापा अभी तो ठीक हैं, मुझे छुट्टी नहीं मिलेगी,’ कह कर नहीं आए. मौसाजी को बहुत बुरा लगा. उन्होंने कहा, ‘‘तो क्या वह मेरे मरने पर ही आएगा?’’

कुछ दिनों के बाद मौसाजी को दोबारा हार्टअटैक आया. इस बार भी मैं वक्त जाया किए बिना तुरंत उन्हें अस्पताल ले गई. राघव भैया को तुरंत खबर कर दी गई थी. ऐसा लग रहा था जैसे मौसाजी की तबीयत में सुधार हो रहा है. वे बारबार भैया के बारे में पूछ रहे थे. दरवाजे पर टकटकी लगाए शायद भैया की राह देख रहे थे. लेकिन तीसरे दिन उन की मृत्यु हो गई. राघव भैया मौसाजी के गुजरने के अगले दिन पहुंचे.

मैं सोचने लगी कि काश, भैया, मौसाजी के जीतेजी आते.

तेरहवीं के बाद राघव भैया ने मां से पूछा, ‘‘मां, अब पापा नहीं रहे. यहां कौन है तुम्हारी देखभाल करने वाला? मैं बारबार इंडिया नहीं आ सकता. तुम कहो तो तुम्हारा टिकट भी ले लूं.’’

‘‘राघव, तुम ने वादा किया था कि पढ़ाई खत्म कर के तुम भारत लौट आओगे.’’

‘‘तब की बात और थी, मां. उस वक्त मैं वहां की जिंदगी से वाकिफ नहीं था. उस ऐशोआराम की जिंदगी को छोड़ कर मैं यहां नहीं आ सकता. अब तुम्हें फैसला करना है कि तुम मेरे साथ चल रही हो या नहीं.’’

मौसीजी एक क्षण चुप रहीं. फिर उन्होंने कह दिया, ‘‘बेटा, मैं ने फैसला कर लिया है. मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी, जहां तुम्हारे पिता की यादें बसी हुई हैं. रही मेरे देखभाल की बात, तो मेरी बेटी है न. जिस तरह उस ने तुम्हारे पिता की देखभाल की, वक्त आने पर मेरी भी करेगी.’’

कभीकभी मैं सोचा करती थी कि मौसीजी मुझे अपना नहीं समझतीं, तभी तो मुझ से पैसे नहीं लिए. लेकिन आज मुझे पुत्री का दरजा दे कर, उन्होंने मुझे निहाल कर दिया. गद्गद हो कर मैं ने मौसीजी के पांव पकड़ लिए. आंखें आंसुओं से भर गईं. हाथ ‘धन्यवाद’ की मुद्रा में जुड़ गए. मुख से ‘मौसी मां’ शब्द निकल पड़ा. मौसीजी ने मुझे उठा कर गले से लगा लिया. भर्राए हुए गले से उन्होंने कहा, ‘‘सिर्फ मां कहो, बेटी.’’

उन्हें मां कह कर पुकारते हुए मेरा रोमरोम पुलकित हो गया.

राघव भैया हमें अवाक् हो कर देखते रहे. फिर चुपचाप अपने कमरे की ओर चले गए. उन्हें इस तरह जाते देख मैं सोचती रही, भैया, संसार के इतने बड़े विश्वविद्यालय से पढ़ कर भी आप अनपढ़ ही रहे. मां की अनमोल, निस्वार्थ ममता को ठुकरा कर जा रहे हैं? आप ने जो खोया, उस का आप को भान भी नहीं, पर मौसीजी के रूप में एक वात्सल्यमयी मां पा कर, मैं ने जो पाया वह एक सुखद अनुभूति है. हां, इतना अवश्य कह सकती हूं कि जिंदगी में आज तक मैं ने जितना खोया उस से कहीं अधिक पा लिया. मौसीजी की सेवा करना ही मेरी जिंदगी में सर्वोपरि होगा.

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धूप का टुकड़ा बरामदे में प्रवेश कर चुका था. सूरज की कोमल किरणों के स्पर्श का अनुभव करते हुए रविवार की सुबह, अखबार पढ़ने के लोभ से मैं कुरसी पर पसर गई. अभी मैं ने अखबार खोला ही था कि दरवाजे की घंटी बज उठी.

दरवाजे पर मौसीजी को देख कर मैं ने लपक कर दरवाजा खोला.

मौसीजी के इस तरह अचानक आ जाने से मैं किसी बुरी आशंका से घबरा गई थी. पर वे काफी खुश नजर आ रही थीं.

‘‘बात ही कुछ ऐसी है, स्नेहा. मैं खुद आ कर तुम्हें खबर देना चाहती थी. राघव को हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में दाखिला मिल गया है.’’

‘‘अरे वाह, मौसीजी, बधाई हो.’’

मौसीजी के बेटे राघव की सफलता पर मैं खुशी से झूम उठी थी. राघव भैया इंजीनियरिंग की पढ़ाई समाप्त कर चुके थे, लेकिन उन की जिद थी कि एमबीए करेंगे तो हार्वर्ड से ही. हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना हर किसी के बस की बात नहीं है. पर मनुष्य यदि ठान ले तो क्षमता और परिश्रम का योग उसे मंजिल तक पहुंचा कर ही दम लेता है.

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‘‘चलती हूं, ढेर सारा काम पड़ा है,’’ कह कर मौसीजी उठ खड़ी हुईं. मैं मौसीजी को जाते हुए देखती रही. और मेरा मन अतीत की गहराइयों में डूबता चला गया.

मेरी मां और मौसीजी बचपन की सहेलियां थीं. इत्तेफाक से शादी के बाद दोनों को ससुराल भी एक ही महल्ले में मिली. बचपन की दोस्ती अब गाढ़ी दोस्ती में बदल गई थी. मां की जिंदगी में अनगिनत तूफान आए. जबजब मां विचलित हुईं तबतब मौसीजी ने मां को सहारा दिया. उन के द्वारा कहे गए एकएक शब्द, जिन्होंने हमारा पथप्रदर्शन किया था,

मुझे आज भी याद हैं.

राघव भैया और मैं एक ही स्कूल में पढ़ते थे. भैया मेरा हाथ पकड़ कर मुझे स्कूल ले जाते और लाते थे. सगे भाईबहनों सा प्यार था हम दोनों में.

मैं चौथी कक्षा में पढ़ रही थी कि एक दिन पापा का स्कूटर एक गाड़ी की चपेट में आ गया था. दुर्घटना की खबर सुनते ही मौसीजी दौड़ी चली आईं. बदहवासी की हालत में पड़ी मां के साथ साए की तरह रहीं मौसीजी. कई रिश्तेदार पापा को देखने आए, पर सब सहानुभूति जता कर चले गए. किसी ने भी आगे बढ़ कर मदद नहीं की. पैसा पानी की तरह बहाने के बावजूद पापा को बचाया नहीं जा सका.

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पापा की असामयिक और अप्रत्याशित मृत्यु ने मां को तोड़ कर रख दिया था. इस कठिन घड़ी में मौसीजी ने मां को आर्थिक संबल के साथसाथ मानसिक संबल भी प्रदान किया था. सच ही कहा गया है कि मुसीबत के समय ही इंसान की सही परख होती है.

जैसे ही मां थोड़ा संभलीं

उन्होंने पापा की सारी जमा पूंजी निकाल कर मौसीजी के पैसे चुकाए. मौसीजी नाराज हो गई थीं, ‘शीला, जिस दिन तुझे नौकरी मिले, मेरे पैसे लौटा देना.’

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‘तुम ने जो मेरे लिए किया है, जया, उसे मैं कभी नहीं चुका सकती. कल फिर जरूरत होगी तो तुम से ही मांगूंगी न?’ कहा था मां ने. मां के बारबार आग्रह करने पर भी मौसीजी ने नहीं बताया कि उन्होंने पैसों का जुगाड़ कैसे किया था. बाद में जौहरी से मां को पता चला कि मौसीजी ने पैसों के लिए अपने गहने गिरवी रख दिए थे.

अब भविष्य का प्रश्न मां के सामने मुंहबाए खड़ा था.

एक मौसीजी का ही आसरा था. पर जल्द ही मां को पापा की जगह पर नौकरी मिल गई. मां के पास डिगरियां तो काफी थीं पर उन्होंने कभी नौकरी नहीं की थी, इसलिए उन में आत्मविश्वास की कमी थी. उन की घबराहट को भांप कर मौसीजी ने उन का मनोबल बढ़ाते हुए कहा था, ‘अपनी काबिलीयत पर भरोसा रखो, शीला. अकसर हम अपनी क्षमताओं पर अविश्वास कर उन का सही मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं. अपनेआप पर विश्वास कर के हिम्मत जुटा कर आगे बढ़ने पर दुनिया की कोई ताकत हमें कामयाब होने से नहीं रोक सकती. देखना एक दिन ऐसा आएगा जब तुम सोचोगी कि तुम नाहक ही परेशान थीं, तुम तो अपने सभी सहकर्मियों से बेहतर हो.’

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मौसीजी की बातों का गहरा असर पड़ा था मां पर. उस दिन के बाद मां ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. मौसीजी ने मां को मेरी ओर से भी निश्ंिचत कर दिया था. मां की अनुपस्थिति में मैं मौसीजी के घर पर ही रहती थी. मौसीजी के घर, मेरी खुशहाल परवरिश से तृप्त, मां ने अपनेआप को काम में डुबो दिया था. मां की विद्वत्ता, सत्यनिष्ठा और कर्मठता ने रंग दिखाया .

एकएक सीढ़ी चढ़ती हुई मां शिखर के करीब पहुंच गई थीं.

अब मैं बड़ी हो गई थी और मेरे स्कूल का आखिरी साल था. सबकुछ अच्छा चल रहा था कि हमारी जिंदगी में एक दूसरा वज्रपात हुआ. मुझे अच्छी तरह याद है, रविवार का दिन था. मां चक्कर खा कर गिर पड़ी थीं. मैं ने घबरा कर मौसीजी को फोन किया. मौसीजी दौड़ी चली आईं. मां हमें परेशान देख कर कहने लगीं, ‘रिलैक्स जया, इतनी हाइपर मत बनो. मुझे कुछ नहीं हुआ है. सुबह से कुछ खाया नहीं था, इसलिए शुगर डाउन हो गई होगी.’’

मौसीजी की जिद पर मां ने एक हफ्ते की छुट्टी ले ली और जांचों का सिलसिला शुरू हुआ. उस दिन मेरे पैरों तले धरती खिसक गई जिस दिन पता चला कि मां को कैंसर है. मां भर्राए हुए गले से मौसीजी से कहने लगीं, ‘स्नेहा के सिर पर पिता का साया भी नहीं रहा. मुझे कुछ हो गया तो स्नेहा का क्या होगा, जया?’

मौसीजी ने मां को ढाढ़स बंधाया,

‘हर कैंसर जानलेवा ही हो, यह जरूरी नहीं, शीला. धीरज रखो. यू मस्ट फाइट इट आउट.’

मां के चेहरे से हंसी छिन गई थी. मां को उदास देख कर मेरा मन भी उदास हो जाता था. एक दिन मौसीजी मां से मिलने आईं, तो उन्होंने मां को गहन चिंता में डूबी, शून्य में दृष्टि गड़ाए बैठी देखा. मौसीजी ने मां को आड़ेहाथों लिया, ‘किस सोच में डूबी हो, शीला? इस तरह चिंता करोगी तो भविष्य को खींच कर और करीब ले आओगी. आज प्रकृति ने तुम्हें जो मौका दिया है, स्नेहा के साथ हंसनेबोलने का उस के साथ अधिक से अधिक समय बिताने का, उसे यों ही गंवा रही हो. आज से मैं तेरा हंसतामुसकराता चेहरा ही देखना चाहती हूं.’

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मौसीजी की मीठी झिड़की का मां पर ऐसा असर पड़ा कि मैं ने फिर कभी मां को उदास नहीं देखा. इस के बाद जो सुखद पल मैं ने मां के साथ बिताए वे अविस्मरणीय बन गए. मौसीजी की बातों ने मुझे भी समय से पहले ही परिपक्व बना दिया था.

एक दिन मां ने मौसीजी को अपनी वसीयत सौंपी,

जिस के मुताबिक मां की सारी संपत्ति मेरे और मौसीजी के नाम कर दी गई थी. वसीयत देख कर मौसीजी नाराज हो गई थीं. कहने लगीं, ‘शीला, ये पैसे मेरे नाम कर के तुम मुझे पराया कर रही हो. पहले तो तुझे कुछ होगा नहीं, फिर स्नेहा की परवरिश तुम्हारे पैसों की मुहताज नहीं है.’

‘जया, तुम गलत समझ रही हो. वसीयत तो हर किसी को बनानी चाहिए, चाहे वह बीमार हो या न हो. दुर्घटना तो किसी के साथ भी घट सकती है. रही मेरी बात तो इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता कि मैं अब चंद दिनों की मेहमान हूं. वसीयत के अभाव में स्नेहा और पैसों की जिम्मेदारी कोई ऐसा रिश्तेदार लेना चाहेगा, जिसे सिर्फ पैसों से प्यार हो. क्या तुम चाहती हो जया, कि स्नेहा की परवरिश किसी गलत रिश्तेदार के हाथ हो? मुझे तुम्हारे सिवा किसी और पर भरोसा नहीं है, जया,’ कहतेकहते मां भावुक हो गई थीं.

‘मेरे रहते तुम्हें स्नेहा की चिंता करने की जरूरत नहीं है,

शीला,’ यह कह कर मौसीजी ने चुपचाप मां के हाथ से वसीयत ले कर रख ली.महीनाभर भी नहीं बीता कि मां हमें सदा के लिए छोड़ कर चली गईं. अंतिम समय तक उन के चेहरे पर मुसकान थी. शायद मौसीजी की वजह से वे मेरी ओर से निश्ंिचत हो गई थीं.

मां के गुजरते ही वैसा ही हुआ जैसा कि मां को अंदेशा था. कई रिश्तेदार मुझ पर अपना हक जताने आ पहुंचे. मौसीजी मेरे सामने ढाल बन कर खड़ी हो गई थीं. मां की वसीयत को दिखा कर उन्होंने सब को चुप करा दिया था. लेकिन जितने मुंह थे उतनी बातें थीं. मौसीजी पर किसी की बातों का कोई असर नहीं हुआ. वे चट्टान की तरह अडिग खड़ी थीं. उन की दृढ़ता देख कर सब चुपचाप खिसक लिए.

मां की तेरहवीं होने तक मौसीजी मां के घर में मेरे साथ रहीं.

बाद में घर में ताला लगा कर वे मुझे साथ ले कर अपने घर चली गईं. मौसाजी को उन्होंने राघव भैया के कमरे में स्थानांतरित कर दिया. मेरे रहने और पढ़ने की व्यवस्था अपने कमरे में कर दी. मौसीजी की प्रेमपूर्ण छत्रछाया में रह कर मैं ने अपनी पढ़ाई पूरी की. इस के बाद मुझे नौकरी भी मिल गई. मौसीजी मुझे एक पल के लिए भी मां की कमी महसूस नहीं होने देती थीं.

एक दिन मुझे मौसीजी ने विनीत और उस के परिवार वालों से मिलाया. हम ने एकदूसरे को पसंद किया. फिर मेरा ब्याह हो गया. मौसीजी ने मेरे ब्याह में कोई कमी नहीं रखी. उन्होंने वह सबकुछ किया जो एक मां अपनी बेटी के विवाह के वक्त करती है.

दिल्ली में विनीत अपने एक मित्र के साथ किराए के मकान में रहते थे. इसलिए मौसीजी ने शादी के बाद हमें मां के घर की चाबी पकड़ा दी. साथ ही, मौसीजी ने मां की वसीयत और बैंक के सारे जमाखाते मुझे पकड़ा दिए. मैं ने उन पैसों को लेने से इनकार किया तो मौसीजी ने कहा, ‘बेटी, ये तुम्हारी मां की अमानत हैं. इन्हें मां का आशीर्वाद समझ कर स्वीकार कर लो.’

मैं मौसीजी से झगड़ पड़ी थी. मैं ने काफी तर्क किया कि इन पैसों पर उन का हक है. पर मौसीजी टस से मस नहीं हुईं. मैं सोचने लगी, किस मिट्टी की बनी हैं मौसीजी, जिन्होंने मेरे ऊपर खर्च किए गए पैसों की भरपाई भी मां के पैसों से नहीं की और कहां मेरे रिश्तेदार, जिन्होंने मां के पैसे हड़पने चाहे थे. खैर, मैं ने सोच लिया था, मौसीजी पैसे नहीं लेतीं तो क्या हुआ. मैं उन की छोटीछोटी बातों का भी इतना खयाल रखूंगी कि उन्हें किसी चीज की तकलीफ होने ही नहीं दूंगी. जी तो चाहता था कि मैं उन्हें मां कह कर पुकारूं, पर न जाने कौन सा संकोच मुझे रोके रहता.

अचानक विनीत की आवाज सुन कर, मैं जैसे नींद से जागी. बरामदे से धूप का टुकड़ा विलीन हो चुका था.

मैं ने विनीत को राघव भैया के हार्वर्ड जाने की सूचना दी.

आखिर वह दिन भी आ गया जब राघव भैया हार्वर्ड जाने के लिए तैयार थे. हम सब ने उन्हें भावभीनी विदाई दी.

समय पंख लगा कर उड़ गया. पढ़ाई पूरी होते ही राघव भैया 2 हफ्ते के लिए भारत आए. काफी बदलेबदले लग रहे थे. पहले से ही वे बातूनी नहीं थे, लेकिन अब हर वाक्य नापतोल कर बोलते थे. मौसीजी तो ममता से ओतप्रोत अपने बेटे की झलक पा कर ही निहाल हो गई थीं.

वापस लौटने के बाद धीरेधीरे भैया का फोन आना कम होता गया, फोन करते भी तो अकसर शिकायतें ही करते, कि मौसीजी ने उन्हें कितने बंधनों में पाला, उन्हें किसी बात की स्वतंत्रता नहीं दी गई थी, विदेश जा कर ही उन्होंने जीना सीखा. वगैरहवगैरह. मौसीजी उन्हें समझातीं कि बचपन और जवानी में बंधनों का होना जरूरी है वरना बच्चों के भटकने का डर रहता है.

अगर उन के साथ सख्ती नहीं बरती जाती तो वे उस मुकाम पर नहीं पहुंचते, जहां वे आज हैं. भैया के कानों में जूं तक नहीं रेंगती क्योंकि उन का व्यवहार ज्यों का त्यों बना रहा, अब तो भैया पढ़ाई पूरी कर के नौकरी भी करने लगे थे. पर वे अपनी ही दुनिया में जी रहे थे.

इस बीच मौसाजी को हार्टअटैक आ गया. मौसीजी का फोन आते ही मैं तुरंत काम छोड़ कर औफिस से भागी. उन्हें अस्पताल में दाखिल करवाया. समय पर इलाज होने की वजह से उन की हालत में सुधार हुआ. राघव भैया को सूचित किया जा चुका था. पर वे ‘पापा अभी तो ठीक हैं, मुझे छुट्टी नहीं मिलेगी,’ कह कर नहीं आए. मौसाजी को बहुत बुरा लगा. उन्होंने कहा, ‘‘तो क्या वह मेरे मरने पर ही आएगा?’’

कुछ दिनों के बाद मौसाजी को दोबारा हार्टअटैक आया. इस बार भी मैं वक्त जाया किए बिना तुरंत उन्हें अस्पताल ले गई. राघव भैया को तुरंत खबर कर दी गई थी. ऐसा लग रहा था जैसे मौसाजी की तबीयत में सुधार हो रहा है. वे बारबार भैया के बारे में पूछ रहे थे. दरवाजे पर टकटकी लगाए शायद भैया की राह देख रहे थे. लेकिन तीसरे दिन उन की मृत्यु हो गई. राघव भैया मौसाजी के गुजरने के अगले दिन पहुंचे.

मैं सोचने लगी कि काश, भैया, मौसाजी के जीतेजी आते.

तेरहवीं के बाद राघव भैया ने मां से पूछा, ‘‘मां, अब पापा नहीं रहे. यहां कौन है तुम्हारी देखभाल करने वाला? मैं बारबार इंडिया नहीं आ सकता. तुम कहो तो तुम्हारा टिकट भी ले लूं.’’

‘‘राघव, तुम ने वादा किया था कि पढ़ाई खत्म कर के तुम भारत लौट आओगे.’’

‘‘तब की बात और थी, मां. उस वक्त मैं वहां की जिंदगी से वाकिफ नहीं था. उस ऐशोआराम की जिंदगी को छोड़ कर मैं यहां नहीं आ सकता. अब तुम्हें फैसला करना है कि तुम मेरे साथ चल रही हो या नहीं.’’

मौसीजी एक क्षण चुप रहीं. फिर उन्होंने कह दिया, ‘‘बेटा, मैं ने फैसला कर लिया है. मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी, जहां तुम्हारे पिता की यादें बसी हुई हैं. रही मेरे देखभाल की बात, तो मेरी बेटी है न. जिस तरह उस ने तुम्हारे पिता की देखभाल की, वक्त आने पर मेरी भी करेगी.’’

कभीकभी मैं सोचा करती थी कि मौसीजी मुझे अपना नहीं समझतीं, तभी तो मुझ से पैसे नहीं लिए. लेकिन आज मुझे पुत्री का दरजा दे कर, उन्होंने मुझे निहाल कर दिया. गद्गद हो कर मैं ने मौसीजी के पांव पकड़ लिए. आंखें आंसुओं से भर गईं. हाथ ‘धन्यवाद’ की मुद्रा में जुड़ गए. मुख से ‘मौसी मां’ शब्द निकल पड़ा. मौसीजी ने मुझे उठा कर गले से लगा लिया. भर्राए हुए गले से उन्होंने कहा, ‘‘सिर्फ मां कहो, बेटी.’’

उन्हें मां कह कर पुकारते हुए मेरा रोमरोम पुलकित हो गया.

राघव भैया हमें अवाक् हो कर देखते रहे. फिर चुपचाप अपने कमरे की ओर चले गए. उन्हें इस तरह जाते देख मैं सोचती रही, भैया, संसार के इतने बड़े विश्वविद्यालय से पढ़ कर भी आप अनपढ़ ही रहे. मां की अनमोल, निस्वार्थ ममता को ठुकरा कर जा रहे हैं? आप ने जो खोया, उस का आप को भान भी नहीं, पर मौसीजी के रूप में एक वात्सल्यमयी मां पा कर, मैं ने जो पाया वह एक सुखद अनुभूति है. हां, इतना अवश्य कह सकती हूं कि जिंदगी में आज तक मैं ने जितना खोया उस से कहीं अधिक पा लिया. मौसीजी की सेवा करना ही मेरी जिंदगी में सर्वोपरि होगा.

The post क्या खोया क्या पाया: मौसी जी के अचानक आने से लोग घबरा क्यों गए appeared first on Sarita Magazine.

March 01, 2021 at 10:00AM

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