Thursday 25 February 2021

दोहरा चरित्र -भाग 1: शादी के बाद कंचन के जीवन में क्या बदलाव आएं

कंचन ने जिस सुधीर को विकलांग होते हुए भी अपनाना अपना धर्म समझा था उसी सुधीर ने आज उस के पत्नी होने के अस्तित्व को ललकारा था. आज उस के सामने सुधीर का दोहरा चरित्र जाहिर हो गया था.

सचमुच पुरुष को बदलते देर नहीं लगती. यह वही सुधीर था जिसे मैं ने हर हाल में स्वीकारा. चाहती तो शादी से इनकार कर सकती थी पर मेरे अंतर्मन को गवारा न था. इंगेजमैंट के 1 महीने बाद सुधीर का पैर एक ऐक्सिडैंट में कट गया. भावी ससुर ने संदेश भिजवाया कि क्या मैं सुधीर से इस स्थिति में भी शादी करने के लिए तैयार हूं?

पापा दुविधा में थे. लड़के की सरकारी नौकरी थी. देखनेसुनने में खूबसूरत था. अब नियति को क्या कहें? पैर कटने को लिखा था, सो कट गया. फिर भी मुझ पर उन्होंने जोर नहीं डाला. मुझे अपने तरीके से फैसला लेने की छूट दे रखी थी. दुविधा में तो मैं भी थी. जिस से मेरी शादी होनी थी कल तक तो वह ठीक था. आज उस में ऐब आ गया तो क्या उस का साथ छोड़ना उचित होगा? कल मुझ में भी शादी के बाद कोई ऐब आ जाए और सुधीर मुझे छोड़ दे तब?

मैं दुविधा से उबरी और मन को पक्का कर सुधीर से शादी के लिए हां कर दी. शादी के कुछ साल आराम से कटे. सुधीर ने कृत्रिम पैर लगवा लिया था. इस तरह वह कहीं भी आनेजाने में समर्थ हो गया. मुझे अच्छा लगा कि चलो, सुधीर के मन से हीनभावना निकल जाएगी कि वह अक्षम हैं.

5 साल गुजर गए. काफी इलाज के बाद भी मैं मां न बन सकी तो मैं गहरे अवसाद में डूब गई. कहने को भले ही सुधीर ने कह दिया कि उसे बाप न बन पाने का जरा भी मलाल नहीं है लेकिन मैं ने उस के चेहरे पर उस पीड़ा का एहसास किया जो बातोंबातों में अकसर उभर कर सामने आ जाती. एक दिन मुझ से रहा न गया, कह बैठी, ‘‘अगर एतराज न हो तो मैं एक सलाह दूं.’’

ये भी पढ़ें- स्टैच्यू : दो दीवाने ‘दीवाने शहर’ में

‘‘क्या?’’

‘‘क्यों न हम एक बच्चा गोद ले लें?’’ यह सुन कर सुधीर उखड़ गया, ‘‘मुझे अपना बच्चा ही चाहिए.’’

‘‘वह शायद ही संभव हो,’’ मैं ने दबी जबान में कहा. बिना कोई जवाब दिए सुधीर वहां से चला गया. मेरा मन तिक्त हो गया. यह भी कोई तरीका है अपना नजरिया रखने का. सुधीर की यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती कि मिलबैठ कर कोई सार्थक हल निकालने की जगह वह दकियानूसी व्यवस्था से चिपके रहना चाहता था. मैं ने महसूस किया कि सुधीर में पहले वाली बात नहीं रही. वह मुझ से कम ही बोलता. देर रात टीवी देखता या फिर रात देर से घर लौटता.

मैं पूछती तो यही कहता, ‘अकेला घर काटने को दौड़ता है.’

‘‘अकेले कहां हो तुम. क्या मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं रही?’’ सुधीर टाल जाता. मेरी त्योरियां चढ़ जातीं.

‘‘तुम्हें शर्म नहीं आती जो पत्नी को अकेला छोड़ कर देर रात घर आते हो.’’

‘‘शर्म तुम्हें आनी चाहिए जो मुझे वंश चलाने के लिए एक बच्चा भी न दे सकीं.’’

सुन कर मैं रोंआसी हो गई. एक औरत सिर्फ बच्चा जनने के लिए ब्याह कर लाई जाती है? क्या वह सिर्फ जरूरत की वस्तु होती है? जरूरतों की कसौटी पर खरी उतरी तो ठीक है नहीं तो फेर लिया मुंह. बहरहाल, अपने आंसुओं पर मैं ने नियंत्रण रखा और कोशिश की कि अपनी कमजोरियों को न जाहिर होने दूं.

‘‘मैं तुम्हारी बीवी हूं. मुझे पूरा हक है यह जानने का कि तुम देर रात तक क्या करते हो.’’

‘‘अच्छा तो अब समझा,’’ सुधीर के चेहरे पर व्यंग्य के भाव तिर आए, ‘‘तुम्हें जलन हो रही है न कि मैं ने कहीं दूसरी न रख ली हो?’’

‘‘रख सकते हैं आप. यह कोई नई बात नहीं होगी मेरे लिए.’’

‘‘तो क्यों पूछताछ करती हो. सोच लो कि मैं ने रख ली.’’

भले ही यह कथन झूठा हो तो भी इस से सुधीर की मंशा समझ में तो आ ही गई. वह चला गया पर एक ऐसा दंश दे कर गया जिस की पीड़ा का शूल मेरे अंतस को देर तक भेदता रहा. अकेले में सुबकने लगी. कैसे कोई पुरुष इतना बदल सकता है. 5 साल जिस के साथ सुखदुख साझा किया वह एकाएक कैसे निर्मोही हो सकता है. लाख कोशिशों के बाद भी मैं इस सवाल का जवाब न ढूंढ़ सकी. किसी तरह मैं ने अपनेआप को संभाला.

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कंचन ने जिस सुधीर को विकलांग होते हुए भी अपनाना अपना धर्म समझा था उसी सुधीर ने आज उस के पत्नी होने के अस्तित्व को ललकारा था. आज उस के सामने सुधीर का दोहरा चरित्र जाहिर हो गया था.

सचमुच पुरुष को बदलते देर नहीं लगती. यह वही सुधीर था जिसे मैं ने हर हाल में स्वीकारा. चाहती तो शादी से इनकार कर सकती थी पर मेरे अंतर्मन को गवारा न था. इंगेजमैंट के 1 महीने बाद सुधीर का पैर एक ऐक्सिडैंट में कट गया. भावी ससुर ने संदेश भिजवाया कि क्या मैं सुधीर से इस स्थिति में भी शादी करने के लिए तैयार हूं?

पापा दुविधा में थे. लड़के की सरकारी नौकरी थी. देखनेसुनने में खूबसूरत था. अब नियति को क्या कहें? पैर कटने को लिखा था, सो कट गया. फिर भी मुझ पर उन्होंने जोर नहीं डाला. मुझे अपने तरीके से फैसला लेने की छूट दे रखी थी. दुविधा में तो मैं भी थी. जिस से मेरी शादी होनी थी कल तक तो वह ठीक था. आज उस में ऐब आ गया तो क्या उस का साथ छोड़ना उचित होगा? कल मुझ में भी शादी के बाद कोई ऐब आ जाए और सुधीर मुझे छोड़ दे तब?

मैं दुविधा से उबरी और मन को पक्का कर सुधीर से शादी के लिए हां कर दी. शादी के कुछ साल आराम से कटे. सुधीर ने कृत्रिम पैर लगवा लिया था. इस तरह वह कहीं भी आनेजाने में समर्थ हो गया. मुझे अच्छा लगा कि चलो, सुधीर के मन से हीनभावना निकल जाएगी कि वह अक्षम हैं.

5 साल गुजर गए. काफी इलाज के बाद भी मैं मां न बन सकी तो मैं गहरे अवसाद में डूब गई. कहने को भले ही सुधीर ने कह दिया कि उसे बाप न बन पाने का जरा भी मलाल नहीं है लेकिन मैं ने उस के चेहरे पर उस पीड़ा का एहसास किया जो बातोंबातों में अकसर उभर कर सामने आ जाती. एक दिन मुझ से रहा न गया, कह बैठी, ‘‘अगर एतराज न हो तो मैं एक सलाह दूं.’’

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‘‘क्या?’’

‘‘क्यों न हम एक बच्चा गोद ले लें?’’ यह सुन कर सुधीर उखड़ गया, ‘‘मुझे अपना बच्चा ही चाहिए.’’

‘‘वह शायद ही संभव हो,’’ मैं ने दबी जबान में कहा. बिना कोई जवाब दिए सुधीर वहां से चला गया. मेरा मन तिक्त हो गया. यह भी कोई तरीका है अपना नजरिया रखने का. सुधीर की यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती कि मिलबैठ कर कोई सार्थक हल निकालने की जगह वह दकियानूसी व्यवस्था से चिपके रहना चाहता था. मैं ने महसूस किया कि सुधीर में पहले वाली बात नहीं रही. वह मुझ से कम ही बोलता. देर रात टीवी देखता या फिर रात देर से घर लौटता.

मैं पूछती तो यही कहता, ‘अकेला घर काटने को दौड़ता है.’

‘‘अकेले कहां हो तुम. क्या मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं रही?’’ सुधीर टाल जाता. मेरी त्योरियां चढ़ जातीं.

‘‘तुम्हें शर्म नहीं आती जो पत्नी को अकेला छोड़ कर देर रात घर आते हो.’’

‘‘शर्म तुम्हें आनी चाहिए जो मुझे वंश चलाने के लिए एक बच्चा भी न दे सकीं.’’

सुन कर मैं रोंआसी हो गई. एक औरत सिर्फ बच्चा जनने के लिए ब्याह कर लाई जाती है? क्या वह सिर्फ जरूरत की वस्तु होती है? जरूरतों की कसौटी पर खरी उतरी तो ठीक है नहीं तो फेर लिया मुंह. बहरहाल, अपने आंसुओं पर मैं ने नियंत्रण रखा और कोशिश की कि अपनी कमजोरियों को न जाहिर होने दूं.

‘‘मैं तुम्हारी बीवी हूं. मुझे पूरा हक है यह जानने का कि तुम देर रात तक क्या करते हो.’’

‘‘अच्छा तो अब समझा,’’ सुधीर के चेहरे पर व्यंग्य के भाव तिर आए, ‘‘तुम्हें जलन हो रही है न कि मैं ने कहीं दूसरी न रख ली हो?’’

‘‘रख सकते हैं आप. यह कोई नई बात नहीं होगी मेरे लिए.’’

‘‘तो क्यों पूछताछ करती हो. सोच लो कि मैं ने रख ली.’’

भले ही यह कथन झूठा हो तो भी इस से सुधीर की मंशा समझ में तो आ ही गई. वह चला गया पर एक ऐसा दंश दे कर गया जिस की पीड़ा का शूल मेरे अंतस को देर तक भेदता रहा. अकेले में सुबकने लगी. कैसे कोई पुरुष इतना बदल सकता है. 5 साल जिस के साथ सुखदुख साझा किया वह एकाएक कैसे निर्मोही हो सकता है. लाख कोशिशों के बाद भी मैं इस सवाल का जवाब न ढूंढ़ सकी. किसी तरह मैं ने अपनेआप को संभाला.

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February 26, 2021 at 10:00AM

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