Sunday 28 February 2021

बेरी का झाड़: सुकुमार सेन शांत स्वभाव का क्यों था

सुकुमार सेन नाम था उस का. घर हो या बाहर, वह अपनी एक नई पहचान बना चुका था. दफ्तर में घुसते ही मानो वह एक मशीन का पुरजा बन जाता हो. उस के चेहरे पर शांति रहती, पर सख्ती भी. उस का चैंबर बड़ा था. वह एसी थोड़ी देर ही चलवाता फिर बंद करवा देता. उस का मानना था कि अगर यहां अधिक ठंडक हुई तो बाहर जा कर वह बीमार पड़ जाएगा. बरामदे में गरम हवा चलती है. सुकुमार के पीए ने बताया, ‘‘साहब ज्यादा बात नहीं करते, फाइल जाते ही निकल आती है, बुला कर कुछ पूछते नहीं.’’

‘‘तो इस में क्या नुकसान है?’’ कार्यालय में सेवारत बाबू पीयूष ने पूछा.

‘‘बात तो ठीक है, पर अपनी पुरानी आदत है कि साहब कुछ पूछें तो मैं कुछ बताऊं.’’

‘‘क्या अब घर पर जाना नहीं होता?’’

‘‘नहीं, कोई काम होता है तो साहब लौटते समय खुद कर लेते हैं या मैडम को फोन कर देते हैं. कभी बाहर का काम होता है तो हमें यहीं पर ही बता देते हैं.’’

‘‘बात तो सही है,’’ पीयूष बोले, ‘‘पर यार, यह खड़ूस भी है. अंदर जाओ तो लगता है कि एक्सरे रूम में आ गए हैं, सवाल सीधा फेंकता है, बंदूक की गोली की तरह.’’

‘‘क्यों, कुछ हो गया क्या?’’ पीए हंसते हुए बोला.

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‘‘हां यार, वह शाहबाद वाली फाइल थी, मुझ से कहा था, सोमवार को पुटअप करना. मैं तो भूल गया था. बारां वाली फाइल ले कर गया. उस ने भीतर कंप्यूटर खोल रखा था, देख कर बोला, ‘आप को आज शाहबाद वाली फाइल लानी थी, उस का क्या हुआ?’

‘‘यार, इतने कागज ले गया, उस का कोई प्रभाव नहीं, वह तो उसी फाइल को ले कर अटक गया. मैं ने देखा, उस ने मेरे नाम का फोल्डर खोल रखा था. वहां पर मेरा नाम लिखा था. लाल लाइन भी आ गई थी. यार, ये नए लोग क्याक्या सीख कर आए हैं?’’

‘‘हूं,’’ पीए बोला, ‘‘मुझे बुलाते नहीं हैं. चपरासी एक डिक्टाफोन ले आया था, उस में मैसेज होता है. मैं टाइप कर के सीधा यहीं से मेल कर देता हूं, वे वहां से करैक्ट कर के, मुझे रिंग कर देते हैं. मैं कौपी निकाल कर भिजवा देता हूं. बातचीत बहुत ही कम हो गई है.’’

सुकुमार, आईआईटी कर के  प्रशासन में आ गया था. जब यहां आया तो पाया कि उस का काम करना क्यों लोगों को पसंद आएगा? दफ्तर के आगे एक तख्ती लगी हुई थी, उस पर लिखा था, ‘मिलने का समय 3 से 4 बजे तक…’ वह देख कर हंसा था. उस ने पीए को बुलाया, ‘‘यहां दिनभर कितने लोग मिलने आते हैं?’’

पीए चौंका था, ‘‘यही कोई 30-40, कभी 50, कभी ज्यादा भी.’’

‘‘तब बताओ, कोई 1 घंटे में सब से कैसे मिल पाएगा?’’

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‘‘सर, मीटिंग भी यहां बहुत होती हैं. आप को टाइम सब जगह देना होता है.’’

‘‘हूं, यह तख्ती हटा दो और जब भी कोई आए, उस की स्लिप तुम कंप्यूटर पर चढ़ा दो. जब भी मुझे समय होगा, मैं बुला लूंगा. हो सकता है, वह तुरंत मिल पाए, या कुछ समय इंतजार कर ले, पास वाला कमरा खाली करवा दो, लोग उस में बैठ जाएंगे.’’

सब से अधिक नाराज नानू हुआ था. वह दफ्तरी था. बाहर का चपरासी. वह मिलाई के ही पैसे लेता था. ‘साहब बहुत बिजी हैं. आज नहीं मिल पाएंगे. आप की स्लिप अंदर दे आता हूं,’ कह कर स्लिप अपनी जेब में रख लेता था. लोग घंटों इंतजार करते, बड़े साहब से कैसे मिला जाए? कभी किसी नेता को या बिचौलिए को लाते, दस्तूर यही था. पर सुकुमार ने रेत का महल गिरा दिया था.सुकुमार को अगर किसी को दोबारा बुलाना होता तो वह उस की स्लिप पर ही अगली तारीख लिख देता, जिसे पीए अपने कंप्यूटर पर चढ़ा देता. भीड़ कम हो गई थी. बरामदा खाली रहता.

उस दिन मनीष का फोन था. वे विधायक थे, नाराज हो रहे थे, ‘‘यह आप ने क्या कर दिया? आप ने तो हमारा काम भी करना शुरू कर दिया.’’

‘‘क्या?’’ वह चौंका, ‘‘सर, मैं आप की बात समझ नहीं पाया.’’

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‘‘अरे भई, जब आप ही सारे कामकाज निबटा देंगे तो फिर हमारी क्या जरूरत रहेगी?’’

सुकुमार का चेहरा, जो मुसकराहट भूल गया था, खिल गया.

‘‘भई, पहले तो फाइलें हमारे कहने से ही खिकसती थीं, चलती थीं, दौड़ती थीं. हम जनता से कहते हैं कि उन का काम हम नहीं करवाएंगे तो फिर हम क्या करेंगे? ठीक है, आप ने प्रशासन को चुस्त कर दिया है. आप की बहुत तारीफ हो रही है, पर हमारे तो आप ने पर ही काट दिए हैं. शाहबाद वाली फाइल को तो अभी आप रोक लें. मैं आप से आ कर बात कर लूंगा. तब मैं मुख्यमंत्री से भी मिला था.’’

सुकुमार चौंक गया, ‘हूं, तभी पीयूष बाबू वह फाइल ले कर नहीं आया था.’

उस दिन पीए बता रहा था, ‘चूड़ावतजी के किसी रिश्तेदार का बड़ा घपला है. यह फाइल बरसों सीएम सैक्रेटेरियट में पड़ी रही है. अब लौटी है. सुना है, आदिवासियों की ग्रांट का मामला था. कभी उन की सहकारी समिति बना कर जमीनें एलौट की गई थीं, बाद में धीरेधीरे ये जमीनें चूड़ावतजी के रिश्तेदार हड़पते चले गए. हजारों बीघा जमीन, जिस पर चावल पैदा होता है, उन के ही रिश्तेदारों के पास है. उन का ही कब्जा है.

‘कभी बीच में किसी पढ़ेलिखे आदिवासी ने यह मामला उठाया था. आंदोलन भी हुए. तब सरकार ने जांच कमेटी बनाई थी और इस सोसाइटी को भंग कर दिया था. फिर धीरेधीरे मामला दबता गया. उस आदिवासी नेता का अब पता भी नहीं है कि वह कहां है. जो अधिकारी जांच कर रहे थे, उन के तबादले हो गए. जमीनें अभी भी चूड़ावतजी के रिश्तेदारों के पास ही हैं.’

‘हूं,’ अचानक उसे राजधानी ऐक्सप्रैस में बैठा वह युवक याद आ गया जो उस के साथ ही गोहाटी से दिल्ली आ रहा था. वह बेहद चुप था. बस, किताबें पढ़ रहा था, कभीकभी अपने लैपटौप पर मैसेज चैक कर लेता था.

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हां, शायद बनारस ही था, जब उस ने पूछा था, ‘क्या वह भी दिल्ली जा रहा है?’

‘हां,’ सुकुमार ने कहा था.

‘आप?’

‘मैं भी…’

‘आप?’

‘मैं प्रशासनिक सेवा में हूं,’ सुकुमार ने कहा.

‘बहुत अच्छे,’ वह मुसकराया था. उस के हाथ में अंगरेजी का कोई उपन्यास था, ‘आप लोगों से ही उम्मीद है,’ वह बोला, ‘मैं किताब पढ़ रहा हूं. इस में झारखंड, बिहार, ओडिशा, मध्य प्रदेश के आदिवासियों के शोषण की कहानी है. हम पढ़ सकते हैं, यही बहुत है, पर अगर हालात नहीं सुधरे तो…’

सुकुमार चुप रहा. ट्रेनिंग के दौरान एक बार वह भी इन पिछड़े इलाकों में रहा था.  वह सोच में डूब गया, ‘यह हमारा भारत है, जो पहले भारत से बिलकुल अलग है.’

‘आप कर सकें तो करें, इन के लिए सोचें. इन लोगों ने जमीन, जंगल, खान, औरत, जो संपत्ति है, सब को बेच सा दिया है. जो मालिक हैं, उन के पास कुछ भी नहीं है. अभी वे मरेंगे, सच है, पर कल वे मारेंगे. आप लोग जो कर सकते हैं, वह सोचें. आप पर अभी हमारा विश्वास है.’सुकुमार ने ज्यादा उस से नहीं पूछा, उसे भी नींद आने लग गई थी, वह सो गया था.पर अचानक चूड़ावत के फोन से मानो वह नींद से जाग गया हो. उसे उस यात्री का चेहरा याद आ गया, वह तो उस से भी अधिक शांत व मौन यात्री था.

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सुनंदा कह रही थी, ‘‘बहन के यहां शादी है, जाना है. तुम्हारे पास तो टाइम नहीं है, गाड़ी भेज दो.’’

‘‘गाड़ी अपनी ले जाओ.’’

‘‘पर मैं गाड़ी चला कर बाजार नहीं जाऊंगी.’’

‘‘मैं ड्राइवर भेज दूंगा. आज मैं टूर पर नहीं हूं.’’

‘‘तुम अफसर हो या…’’

‘‘खच्चर,’’ वह अपनेआप पर हंसा, ‘‘मैं नहीं चाहता कल कोई मुझ पर उंगली उठाए. सरकारी गाड़ी को बाजार में देख कर लोग चौंकते हैं.’’

‘‘ठीक है, तुम्हें मेरे साथ नहीं जाना है, मुझे पता है.’’

‘‘यह बात नहीं, यह काम तुम कर सकती हो, तुम्हारा ही है, तुम चली जाओ. एटीएम कार्ड तुम्हारे पास है, रास्ते में एटीएम मशीन से रुपए निकाल लेना.’’

सुनंदा फीकी हंसी हंस कर बोली, ‘‘मुझे क्या पता था कि तुम…?’’

‘‘क्या?’’ वह बोला.

‘‘बेरी के झाड़ हो.’’‘‘तभी तो जो दरवाजे पर लगा है, काटने नहीं देता. उस दिन पंडितजी आए थे. उन की टोपी बेरी की डाल में अटक गई. उन्हें पता ही नहीं चला कि टोपी कहां है. वे नंगे सिर जब यहां आए तो लोग उन्हें देख कर हंसने लगे.

‘‘उस दिन मिसेज गुप्ता आई थीं. उन की साड़ी डाल में उलझ गई. बोलीं, ‘इसे कटवा क्यों नहीं देते, यह भी कोई ऐंटिक है क्या?’’’

‘‘तुम्हारा यह झाड़ क्या बिगाड़ता है?’’ वह बोला. जवाब नदारद.

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‘‘देखो, जब मैं बाहर जाता हूं तो देखता हूं, पास की झोपड़ी वालों की बकरियां इस के पास खड़ी हो कर इस की पत्तियां खाती हैं, वह उन का भोजन है. इस पर बेर भी मीठे आते हैं, यहां के गरीब अपने घर ले जाते हैं. यह गरीबों का फल है, उन का पेड़ है. यह सागवान या चंदन का होता तो लोग कभी का इसे काट कर ले गए होते.’’

सुनंदा चुप रह जाती. बेर का पेड़, गरीबों का पेड़ बन जाता, वह फालतू के तर्क में नहीं जाना चाहती. पर सुकुमार का दफ्तर भी तंदूर की तरह सिंकने लग गया था, पता नहीं क्या हो गया, पीए भी बुदबुदाता रहता, न दफ्तरी खुश था, न ड्राइवर, नीचे के अफसर भी दबेदबे चुप रहते, पीयूषजी से जब से शाहबाद की फाइल पर डांट लगी थी, वे आंदोलन की राह पर चलने की सोच रहे थे. वे कर्मचारी संघ की बैठक करा चुके थे, पर कोई बड़ा मुद्दा सामने नहीं था. सुकुमार बोलता भी धीरे से था, पर जो कहता वह होता. वह कह देता, फाइल पर नोट चला आता. नोट होता या चार्जशीट, दूसरा पढ़ कर घबरा जाता.

पर उस दिन सुनंदा ने दफ्तर में ही उसे फोन पर याद दिलाया था, ‘‘आज विमलजी के यहां पार्टी है, उन की मैरिज सैरेमनी है, शाम को डिनर वहीं है, याद है?’’

‘‘हांहां,’’ वह बोला, ‘‘मैं शाम को जल्दी पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘विमलजी सिंचाई विभाग में एडिशनल चीफ इंजीनियर हैं. एडिशनल कमिश्नर बता रहे थे कि उन के पास बहुत पैसा है. धूमधाम से पार्टी कर रहे हैं. सिंचाई भवन सजा दिया गया है.’’

वह यह सब सुन कर चुप रहा. सुनंदा का फोन उसे भीतर तक हिला रहा था. उस की भी मैरिज सैरेमनी अगले महीने है. वह शायद आज से ही विचार कर रही है. हम उन के यहां गए हैं, तुम भी औरों को बुलाओ.

शाम होते ही वह आज जल्दी ही दफ्तर से बाहर आ गया. गाड़ी पोर्च में लग चुकी थी. हमेशा की तरह चपरासी ने फाइलें ला कर गाड़ी में रख दी थीं.

दफ्तर से बाहर निकलते ही पाया कि चौराहे पर भारी भीड़ है. बहुत से लोग दफ्तर के ही थे.

‘‘क्या हुआ?’’ वह गाड़ी को रोक कर नीचे उतरा.

ड्राइवर भी तुरंत बाहर आ कर भीड़ के पास जा चुका था. वह तेजी से वापस लौटा, ‘‘सर, गजब हो गया.’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘पीयूषजी के स्कूटर को कोई कार टक्कर मार कर निकल गई.’’

सुकुमार तेजी से आगे बढ़ा, उसे देख कर लोग चौंके.

उस ने देखा, पीयूषजी का शरीर खून से नहाया हुआ था. उन के दोनों पांवों में चोट थी. सिर पर रखे हैलमेट ने उसे बचा तो लिया था पर वे बेहोश हो चुके थे.

‘‘उठाओ इन्हें,’’ उस ने ड्राइवर से कहा, और अपनी‘‘सर, गाड़ी…?’’ ड्राइवर बोला.

‘‘धुल जाएगी.’’

उस के पीछेपीछे दफ्तर के और लोग भी अस्पताल आगए थे. तुरंत पीयूषजी को भरती करा कर उन के घर फोन कर दिया गया था. पीए, दफ्तरी, और सारे बाबू अवाक् थे, ‘सर तो पार्टी में जा रहे थे, वे यहां?’

तभी सुकुमार का मोबाइल बजा. देखा, सुनंदा का फोन था.

‘‘तुम वहां चली जाओ, मुझे आने में देर हो जाएगी.’’

‘‘तुम?’’

‘‘एक जरूरी काम आ गया है, उसे पूरा कर के आ जाऊंगा.’’

‘बेरी का झाड़,’ सुनंदा बड़बड़ाई. बच्चे तो घंटाभर पहले ही तैयार हो गए थे. फोन बंद हो गया था.

‘‘क्या हुआ? मां, पापा नहीं आ रहे?’’

‘‘आएंगे, जरूरी काम आ गया है, वे सीधे वहीं आ जाएंगे. हम लोग चलते हैं,’’ सुनंदा बोली.

वह वहां पहुंचा ही था कि तभी चिकित्सक भी आ गए थे, आईसीयू में पीयूषजी को ले जाया गया था. उन्हें होश आ गया था. उन्होंने देखा, वे अस्पताल के बैड पर लेटे हैं, पर पास में सुकुमार खड़े हैं.

‘‘सर, आप?’’

‘‘अब आप ठीक हैं. आप की मिसेज आ गई हैं. मैं चलता हूं. यहां अब कोई तकलीफ नहीं होगी. सुबह मैं आप को देख जाऊंगा,’’ वह चलते हुए बोला.

उस का चेहरा शांत था, और वह चुप था. तभी उस ने देखा, अचानक बाबुओं की भीड़, जो बाहर जमा थी, वह उसे धन्यवाद देने को आतुर थी. मानो सागर तट पर तेज लहरें चली आई हों, ‘‘यह क्या, नहींनहीं, आप रहने दें. यह अच्छा नहीं है,’’ कहता हुआ सुकुमार उसी तरह अपनी उसी चाल से बाहर चला गया.

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सुकुमार सेन नाम था उस का. घर हो या बाहर, वह अपनी एक नई पहचान बना चुका था. दफ्तर में घुसते ही मानो वह एक मशीन का पुरजा बन जाता हो. उस के चेहरे पर शांति रहती, पर सख्ती भी. उस का चैंबर बड़ा था. वह एसी थोड़ी देर ही चलवाता फिर बंद करवा देता. उस का मानना था कि अगर यहां अधिक ठंडक हुई तो बाहर जा कर वह बीमार पड़ जाएगा. बरामदे में गरम हवा चलती है. सुकुमार के पीए ने बताया, ‘‘साहब ज्यादा बात नहीं करते, फाइल जाते ही निकल आती है, बुला कर कुछ पूछते नहीं.’’

‘‘तो इस में क्या नुकसान है?’’ कार्यालय में सेवारत बाबू पीयूष ने पूछा.

‘‘बात तो ठीक है, पर अपनी पुरानी आदत है कि साहब कुछ पूछें तो मैं कुछ बताऊं.’’

‘‘क्या अब घर पर जाना नहीं होता?’’

‘‘नहीं, कोई काम होता है तो साहब लौटते समय खुद कर लेते हैं या मैडम को फोन कर देते हैं. कभी बाहर का काम होता है तो हमें यहीं पर ही बता देते हैं.’’

‘‘बात तो सही है,’’ पीयूष बोले, ‘‘पर यार, यह खड़ूस भी है. अंदर जाओ तो लगता है कि एक्सरे रूम में आ गए हैं, सवाल सीधा फेंकता है, बंदूक की गोली की तरह.’’

‘‘क्यों, कुछ हो गया क्या?’’ पीए हंसते हुए बोला.

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‘‘हां यार, वह शाहबाद वाली फाइल थी, मुझ से कहा था, सोमवार को पुटअप करना. मैं तो भूल गया था. बारां वाली फाइल ले कर गया. उस ने भीतर कंप्यूटर खोल रखा था, देख कर बोला, ‘आप को आज शाहबाद वाली फाइल लानी थी, उस का क्या हुआ?’

‘‘यार, इतने कागज ले गया, उस का कोई प्रभाव नहीं, वह तो उसी फाइल को ले कर अटक गया. मैं ने देखा, उस ने मेरे नाम का फोल्डर खोल रखा था. वहां पर मेरा नाम लिखा था. लाल लाइन भी आ गई थी. यार, ये नए लोग क्याक्या सीख कर आए हैं?’’

‘‘हूं,’’ पीए बोला, ‘‘मुझे बुलाते नहीं हैं. चपरासी एक डिक्टाफोन ले आया था, उस में मैसेज होता है. मैं टाइप कर के सीधा यहीं से मेल कर देता हूं, वे वहां से करैक्ट कर के, मुझे रिंग कर देते हैं. मैं कौपी निकाल कर भिजवा देता हूं. बातचीत बहुत ही कम हो गई है.’’

सुकुमार, आईआईटी कर के  प्रशासन में आ गया था. जब यहां आया तो पाया कि उस का काम करना क्यों लोगों को पसंद आएगा? दफ्तर के आगे एक तख्ती लगी हुई थी, उस पर लिखा था, ‘मिलने का समय 3 से 4 बजे तक…’ वह देख कर हंसा था. उस ने पीए को बुलाया, ‘‘यहां दिनभर कितने लोग मिलने आते हैं?’’

पीए चौंका था, ‘‘यही कोई 30-40, कभी 50, कभी ज्यादा भी.’’

‘‘तब बताओ, कोई 1 घंटे में सब से कैसे मिल पाएगा?’’

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‘‘सर, मीटिंग भी यहां बहुत होती हैं. आप को टाइम सब जगह देना होता है.’’

‘‘हूं, यह तख्ती हटा दो और जब भी कोई आए, उस की स्लिप तुम कंप्यूटर पर चढ़ा दो. जब भी मुझे समय होगा, मैं बुला लूंगा. हो सकता है, वह तुरंत मिल पाए, या कुछ समय इंतजार कर ले, पास वाला कमरा खाली करवा दो, लोग उस में बैठ जाएंगे.’’

सब से अधिक नाराज नानू हुआ था. वह दफ्तरी था. बाहर का चपरासी. वह मिलाई के ही पैसे लेता था. ‘साहब बहुत बिजी हैं. आज नहीं मिल पाएंगे. आप की स्लिप अंदर दे आता हूं,’ कह कर स्लिप अपनी जेब में रख लेता था. लोग घंटों इंतजार करते, बड़े साहब से कैसे मिला जाए? कभी किसी नेता को या बिचौलिए को लाते, दस्तूर यही था. पर सुकुमार ने रेत का महल गिरा दिया था.सुकुमार को अगर किसी को दोबारा बुलाना होता तो वह उस की स्लिप पर ही अगली तारीख लिख देता, जिसे पीए अपने कंप्यूटर पर चढ़ा देता. भीड़ कम हो गई थी. बरामदा खाली रहता.

उस दिन मनीष का फोन था. वे विधायक थे, नाराज हो रहे थे, ‘‘यह आप ने क्या कर दिया? आप ने तो हमारा काम भी करना शुरू कर दिया.’’

‘‘क्या?’’ वह चौंका, ‘‘सर, मैं आप की बात समझ नहीं पाया.’’

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‘‘अरे भई, जब आप ही सारे कामकाज निबटा देंगे तो फिर हमारी क्या जरूरत रहेगी?’’

सुकुमार का चेहरा, जो मुसकराहट भूल गया था, खिल गया.

‘‘भई, पहले तो फाइलें हमारे कहने से ही खिकसती थीं, चलती थीं, दौड़ती थीं. हम जनता से कहते हैं कि उन का काम हम नहीं करवाएंगे तो फिर हम क्या करेंगे? ठीक है, आप ने प्रशासन को चुस्त कर दिया है. आप की बहुत तारीफ हो रही है, पर हमारे तो आप ने पर ही काट दिए हैं. शाहबाद वाली फाइल को तो अभी आप रोक लें. मैं आप से आ कर बात कर लूंगा. तब मैं मुख्यमंत्री से भी मिला था.’’

सुकुमार चौंक गया, ‘हूं, तभी पीयूष बाबू वह फाइल ले कर नहीं आया था.’

उस दिन पीए बता रहा था, ‘चूड़ावतजी के किसी रिश्तेदार का बड़ा घपला है. यह फाइल बरसों सीएम सैक्रेटेरियट में पड़ी रही है. अब लौटी है. सुना है, आदिवासियों की ग्रांट का मामला था. कभी उन की सहकारी समिति बना कर जमीनें एलौट की गई थीं, बाद में धीरेधीरे ये जमीनें चूड़ावतजी के रिश्तेदार हड़पते चले गए. हजारों बीघा जमीन, जिस पर चावल पैदा होता है, उन के ही रिश्तेदारों के पास है. उन का ही कब्जा है.

‘कभी बीच में किसी पढ़ेलिखे आदिवासी ने यह मामला उठाया था. आंदोलन भी हुए. तब सरकार ने जांच कमेटी बनाई थी और इस सोसाइटी को भंग कर दिया था. फिर धीरेधीरे मामला दबता गया. उस आदिवासी नेता का अब पता भी नहीं है कि वह कहां है. जो अधिकारी जांच कर रहे थे, उन के तबादले हो गए. जमीनें अभी भी चूड़ावतजी के रिश्तेदारों के पास ही हैं.’

‘हूं,’ अचानक उसे राजधानी ऐक्सप्रैस में बैठा वह युवक याद आ गया जो उस के साथ ही गोहाटी से दिल्ली आ रहा था. वह बेहद चुप था. बस, किताबें पढ़ रहा था, कभीकभी अपने लैपटौप पर मैसेज चैक कर लेता था.

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हां, शायद बनारस ही था, जब उस ने पूछा था, ‘क्या वह भी दिल्ली जा रहा है?’

‘हां,’ सुकुमार ने कहा था.

‘आप?’

‘मैं भी…’

‘आप?’

‘मैं प्रशासनिक सेवा में हूं,’ सुकुमार ने कहा.

‘बहुत अच्छे,’ वह मुसकराया था. उस के हाथ में अंगरेजी का कोई उपन्यास था, ‘आप लोगों से ही उम्मीद है,’ वह बोला, ‘मैं किताब पढ़ रहा हूं. इस में झारखंड, बिहार, ओडिशा, मध्य प्रदेश के आदिवासियों के शोषण की कहानी है. हम पढ़ सकते हैं, यही बहुत है, पर अगर हालात नहीं सुधरे तो…’

सुकुमार चुप रहा. ट्रेनिंग के दौरान एक बार वह भी इन पिछड़े इलाकों में रहा था.  वह सोच में डूब गया, ‘यह हमारा भारत है, जो पहले भारत से बिलकुल अलग है.’

‘आप कर सकें तो करें, इन के लिए सोचें. इन लोगों ने जमीन, जंगल, खान, औरत, जो संपत्ति है, सब को बेच सा दिया है. जो मालिक हैं, उन के पास कुछ भी नहीं है. अभी वे मरेंगे, सच है, पर कल वे मारेंगे. आप लोग जो कर सकते हैं, वह सोचें. आप पर अभी हमारा विश्वास है.’सुकुमार ने ज्यादा उस से नहीं पूछा, उसे भी नींद आने लग गई थी, वह सो गया था.पर अचानक चूड़ावत के फोन से मानो वह नींद से जाग गया हो. उसे उस यात्री का चेहरा याद आ गया, वह तो उस से भी अधिक शांत व मौन यात्री था.

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सुनंदा कह रही थी, ‘‘बहन के यहां शादी है, जाना है. तुम्हारे पास तो टाइम नहीं है, गाड़ी भेज दो.’’

‘‘गाड़ी अपनी ले जाओ.’’

‘‘पर मैं गाड़ी चला कर बाजार नहीं जाऊंगी.’’

‘‘मैं ड्राइवर भेज दूंगा. आज मैं टूर पर नहीं हूं.’’

‘‘तुम अफसर हो या…’’

‘‘खच्चर,’’ वह अपनेआप पर हंसा, ‘‘मैं नहीं चाहता कल कोई मुझ पर उंगली उठाए. सरकारी गाड़ी को बाजार में देख कर लोग चौंकते हैं.’’

‘‘ठीक है, तुम्हें मेरे साथ नहीं जाना है, मुझे पता है.’’

‘‘यह बात नहीं, यह काम तुम कर सकती हो, तुम्हारा ही है, तुम चली जाओ. एटीएम कार्ड तुम्हारे पास है, रास्ते में एटीएम मशीन से रुपए निकाल लेना.’’

सुनंदा फीकी हंसी हंस कर बोली, ‘‘मुझे क्या पता था कि तुम…?’’

‘‘क्या?’’ वह बोला.

‘‘बेरी के झाड़ हो.’’‘‘तभी तो जो दरवाजे पर लगा है, काटने नहीं देता. उस दिन पंडितजी आए थे. उन की टोपी बेरी की डाल में अटक गई. उन्हें पता ही नहीं चला कि टोपी कहां है. वे नंगे सिर जब यहां आए तो लोग उन्हें देख कर हंसने लगे.

‘‘उस दिन मिसेज गुप्ता आई थीं. उन की साड़ी डाल में उलझ गई. बोलीं, ‘इसे कटवा क्यों नहीं देते, यह भी कोई ऐंटिक है क्या?’’’

‘‘तुम्हारा यह झाड़ क्या बिगाड़ता है?’’ वह बोला. जवाब नदारद.

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‘‘देखो, जब मैं बाहर जाता हूं तो देखता हूं, पास की झोपड़ी वालों की बकरियां इस के पास खड़ी हो कर इस की पत्तियां खाती हैं, वह उन का भोजन है. इस पर बेर भी मीठे आते हैं, यहां के गरीब अपने घर ले जाते हैं. यह गरीबों का फल है, उन का पेड़ है. यह सागवान या चंदन का होता तो लोग कभी का इसे काट कर ले गए होते.’’

सुनंदा चुप रह जाती. बेर का पेड़, गरीबों का पेड़ बन जाता, वह फालतू के तर्क में नहीं जाना चाहती. पर सुकुमार का दफ्तर भी तंदूर की तरह सिंकने लग गया था, पता नहीं क्या हो गया, पीए भी बुदबुदाता रहता, न दफ्तरी खुश था, न ड्राइवर, नीचे के अफसर भी दबेदबे चुप रहते, पीयूषजी से जब से शाहबाद की फाइल पर डांट लगी थी, वे आंदोलन की राह पर चलने की सोच रहे थे. वे कर्मचारी संघ की बैठक करा चुके थे, पर कोई बड़ा मुद्दा सामने नहीं था. सुकुमार बोलता भी धीरे से था, पर जो कहता वह होता. वह कह देता, फाइल पर नोट चला आता. नोट होता या चार्जशीट, दूसरा पढ़ कर घबरा जाता.

पर उस दिन सुनंदा ने दफ्तर में ही उसे फोन पर याद दिलाया था, ‘‘आज विमलजी के यहां पार्टी है, उन की मैरिज सैरेमनी है, शाम को डिनर वहीं है, याद है?’’

‘‘हांहां,’’ वह बोला, ‘‘मैं शाम को जल्दी पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘विमलजी सिंचाई विभाग में एडिशनल चीफ इंजीनियर हैं. एडिशनल कमिश्नर बता रहे थे कि उन के पास बहुत पैसा है. धूमधाम से पार्टी कर रहे हैं. सिंचाई भवन सजा दिया गया है.’’

वह यह सब सुन कर चुप रहा. सुनंदा का फोन उसे भीतर तक हिला रहा था. उस की भी मैरिज सैरेमनी अगले महीने है. वह शायद आज से ही विचार कर रही है. हम उन के यहां गए हैं, तुम भी औरों को बुलाओ.

शाम होते ही वह आज जल्दी ही दफ्तर से बाहर आ गया. गाड़ी पोर्च में लग चुकी थी. हमेशा की तरह चपरासी ने फाइलें ला कर गाड़ी में रख दी थीं.

दफ्तर से बाहर निकलते ही पाया कि चौराहे पर भारी भीड़ है. बहुत से लोग दफ्तर के ही थे.

‘‘क्या हुआ?’’ वह गाड़ी को रोक कर नीचे उतरा.

ड्राइवर भी तुरंत बाहर आ कर भीड़ के पास जा चुका था. वह तेजी से वापस लौटा, ‘‘सर, गजब हो गया.’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘पीयूषजी के स्कूटर को कोई कार टक्कर मार कर निकल गई.’’

सुकुमार तेजी से आगे बढ़ा, उसे देख कर लोग चौंके.

उस ने देखा, पीयूषजी का शरीर खून से नहाया हुआ था. उन के दोनों पांवों में चोट थी. सिर पर रखे हैलमेट ने उसे बचा तो लिया था पर वे बेहोश हो चुके थे.

‘‘उठाओ इन्हें,’’ उस ने ड्राइवर से कहा, और अपनी‘‘सर, गाड़ी…?’’ ड्राइवर बोला.

‘‘धुल जाएगी.’’

उस के पीछेपीछे दफ्तर के और लोग भी अस्पताल आगए थे. तुरंत पीयूषजी को भरती करा कर उन के घर फोन कर दिया गया था. पीए, दफ्तरी, और सारे बाबू अवाक् थे, ‘सर तो पार्टी में जा रहे थे, वे यहां?’

तभी सुकुमार का मोबाइल बजा. देखा, सुनंदा का फोन था.

‘‘तुम वहां चली जाओ, मुझे आने में देर हो जाएगी.’’

‘‘तुम?’’

‘‘एक जरूरी काम आ गया है, उसे पूरा कर के आ जाऊंगा.’’

‘बेरी का झाड़,’ सुनंदा बड़बड़ाई. बच्चे तो घंटाभर पहले ही तैयार हो गए थे. फोन बंद हो गया था.

‘‘क्या हुआ? मां, पापा नहीं आ रहे?’’

‘‘आएंगे, जरूरी काम आ गया है, वे सीधे वहीं आ जाएंगे. हम लोग चलते हैं,’’ सुनंदा बोली.

वह वहां पहुंचा ही था कि तभी चिकित्सक भी आ गए थे, आईसीयू में पीयूषजी को ले जाया गया था. उन्हें होश आ गया था. उन्होंने देखा, वे अस्पताल के बैड पर लेटे हैं, पर पास में सुकुमार खड़े हैं.

‘‘सर, आप?’’

‘‘अब आप ठीक हैं. आप की मिसेज आ गई हैं. मैं चलता हूं. यहां अब कोई तकलीफ नहीं होगी. सुबह मैं आप को देख जाऊंगा,’’ वह चलते हुए बोला.

उस का चेहरा शांत था, और वह चुप था. तभी उस ने देखा, अचानक बाबुओं की भीड़, जो बाहर जमा थी, वह उसे धन्यवाद देने को आतुर थी. मानो सागर तट पर तेज लहरें चली आई हों, ‘‘यह क्या, नहींनहीं, आप रहने दें. यह अच्छा नहीं है,’’ कहता हुआ सुकुमार उसी तरह अपनी उसी चाल से बाहर चला गया.

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March 01, 2021 at 10:00AM

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