Wednesday 12 January 2022

अन्यपूर्वा: क्यों राजा दशरथ देव ने विवाह न करने की शपथ ली?

Writer- विश्वनाथ यादव

विशाली मयूरपंखी बजरा पद्मा नदी की लहरों को काटता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था. बजरे के पीछे कुछ बड़ी नौकाएं थीं, जिन में शस्त्रधारी सैनिकों के अलावा दासदासियां भी सवार थे. 2 बड़ी नावों पर खाद्य सामग्री लदी हुई थी.

पिछले 12 सालों से वह हर साल दलबल के साथ घूमने निकल पड़ता. राज्य नर्तकियां नृत्य कर उसे लुभाने की, हंसाने की बहुत कोशिश करतीं, किंतु उस का चेहरा गमगीन ही बना रहता. ऐश्वर्य के हर साधन मौजूद होने पर भी वह उन का उपभोग नहीं कर पाता था. वह बंगाल के सोनार गांव का राजा था.

हर साल घूमने के लिए राजा सोनार गांव के किले से निकलता था. अपने राज्य के अधीन गांवों के घाटों पर अपना बजरा रुकवा कर प्रजा का हालचाल पूछता तथा कोई शिकायत होने पर उसे दूर करने की व्यवस्था कर देता.

यद्यपि राजा अपने को व्यस्त रखने की भरपूर कोशिश करता. फिर भी कुछ लम्हे ऐसे आ ही जाते थे जब वह बिलकुल अकेला होता. ऐसे समय पिछली यादें जब भी आतीं तो वह बेचैन हो उठता था.

20 साल हो गए, उस ने उस की सूरत नहीं देखी. अब तो वह उस का चेहरा भी ठीक से याद नहीं कर पाया था. 20 सालों में उस में न जाने कितने परिवर्तन हुए होंगे. उस में भी तो परिवर्तन हुए हैं.

उस राजा की मौसी के गांव का नाम मंदिरपुर था. जब उस का बजरा मंदिरपुर के गांव के सामने से गुजरता तो वह अपने मन को दृढ़ कर लेता. इन 12 वर्षों के राजकीय जीवन में वह हजारों गांवों में गया, किंतु मंदिरपुर नहीं जा सका.

सुबह की मलय समीर बह रही थी. मल्लाह मुस्तैदी से मयूरपंखी बजरे को चला रहे थे. राजा बजरे पर खड़ा था और उस की आंखें हर साल की तरह कुछ ढूंढ़ रही थीं. राजा ने मन में सोचा कि इस गांव के बाद ही तो मंदिरपुर गांव है. कुछ ही देर में दूर से ही गांव का राधाकृष्ण मंदिर का चूड़ा दिखाई देने लगेगा. इस मंदिर के बगल में ही एक जमींदार की हवेली है. उसी में वह रहती होगी और यह सोच वह व्याकुल हो उठा.

20 साल पहले की स्मृतियां उसे बेचैन करने लगीं. मंदिर का चूड़ा अब दिखाई पड़ने लगा था. अनायास ही उस की आंखों से आंसू बहने लगे. उस ने धीमे स्वर में मल्लाहों को मंदिरपुर घाट पर बजरे को रोकने का आदेश दिया. राजकीय पोशाक उतार कर राजा ने साधारण कपड़े पहने और अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को कुछ निर्देश दे वह घाट से मंदिरपुर गांव की ओर अकेला ही चल दिया. राधाकृष्ण मंदिर के पास स्थित जमींदार की हवेली पहुंच कर वह उत्साह से बोला, ‘‘सुरभि…’’

एक वृद्ध दासी बाहर निकल कर बोली, ‘‘मां तो मंदिर गई हैं.’’

‘‘ठीक है, मैं प्रतीक्षा करता हूं.’’

‘‘मां अभी आ जाएंगी, पूजा को गए काफी समय हो गया है,’’ फिर दासी मंदिर की ओर से किसी को आते देख कर बोली, ‘‘लीजिए, मां आ रही हैं.’’

राजा ने सिर घुमा कर देखा. सादे कपड़े में लिपटी एक औरत हाथ में पूजा का थाल लिए धीमे कदमों से चली आ रही थी. औरत नजदीक आते ही राजा को पहचान खुशी से बोली, ‘‘अरे, दशरथ दादा (भाई), तुम?’’

‘‘हां.’’

‘‘चलो, घर के अंदर चलो.’’

राजा किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह सुरभि के पीछेपीछे चल पड़ा. वह दशरथ को ले कर एक कमरे में पहुंची. दशरथ एक सजे पलंग पर बैठ गया. सुरभि ने उसे प्रेम से देख कर कहा, ‘‘20 सालों के बाद तुम्हें देख रही हूं.’’

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‘‘हां, मैं भी.’’

‘‘तुम्हारे लिए भोजन की व्यवस्था करूं, तुम भूखे होगे?’’

‘‘नहीं, तुम बैठो.’’

सुरभि सकुचा कर पलंग के एक तरफ बैठ गई. फिर कुछ याद आने पर पूछा, ‘‘तुम ने विवाह किया?’’

‘‘अभी तक नहीं.’’

‘‘क्या कहते हो, दशरथ दा? राजा महाराजा तो दर्जनों विवाह करते हैं… और तुम?’’

‘‘तुम ने भी तो विवाह नहीं किया?’’

‘‘मेरी बात अलग है. मैं विवाह नहीं कर सकती.’’

‘‘तुम एक जमींदार की बेटी हो.

धनसपंत्ति का तुम्हें अभाव

नहीं है, फिर भी विवाह…’’

दशरथ की बात बीच में काटते हुए सुरभि बोली, ‘‘मेरे पिता अपनी सारी जायदाद देवता को अर्पण कर गए. मैं तो भगवान की दासी हूं.’’

‘‘तुम विवाह करतीं तो क्या कोई तुम्हें रोक देता?’’

‘‘हिंदू विधवा का विवाह होता है?’’

‘‘जहां तक मु?ो खबर है कि तुम्हारा विवाह ही नहीं हुआ. फिर तुम अपने को विधवा कैसे कहती हो?’’

‘‘विवाह न होने पर भी मैं विधवा हूं. जिस व्यक्ति के साथ मेरे पिता ने मेरा विवाह तय किया था वह विवाह करने ही तो आ रहा था. पद्मा नदी पार करते समय नौका डूब जाने से उन की मौत हो गई. हिंदू संस्कार के अनुसार उन की मौत के साथ ही मैं विधवा हो गई.’’

‘‘उस व्यक्ति के साथ तुम ने 7 फेरे नहीं लगाए तो विधवा कैसे हो सकती हो?’’

‘‘ब्राह्मण मु?ा जैसी अभागिनों को विधवा न कह कुछ और कहते हैं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘अन्यपूर्वा.’’

दशरथ ने ‘अन्यपूर्वा’ सुन कर प्रश्न भरी नजरों से सुरभि को देखा.

सुरभि उस का आशय सम?ा कर बोली, ‘‘दादा, मेरे पिता को एक पंडित ने बताया था कि जिस लड़की का विवाह तय हो जाता है और विवाह के पहले उस के भावी पति की मृत्यु हो जाती है वह अन्यपूर्वा कहलाती है. उस का बाद में विवाह नहीं होता है. उसे अपने पिता या भाई के घर जीवनभर आश्रित बन कर रहना पड़ता है.’’

‘‘विधवाओं की तरह?’’

‘‘हां, विधवाओं की तरह.’’

‘‘तुम बताओ. तुम ने अभी तक विवाह क्यों नहीं किया?’’

‘‘आप भूल गईं. 20 वर्ष पहले हम ने शपथ ली कि यदि हम दोनों का विवाह संभव नहीं हुआ तो आजन्म कुंआरे रहेंगे.’’

‘‘मेरी बात अलग है. धर्म और समाज मेरे विरुद्ध है. फिर राधाकृष्ण मंदिर की देखभाल करने की मुझ पर पैतृक जिम्मेदारी है.’’

‘‘मेरी तरफ देखो,’’ दशरथ बोला, ‘‘मैं सोनार गांव का राजा हूं. संपत्ति व शक्ति का अधिकारी. धर्म और समाज मेरे किसी कार्य में बाधक नहीं बनेंगे.’’

‘‘वह 13 वर्ष की अबोध बालिका का पागलपन था. मैं तुम्हारी मौसेरी बहन हूं. हिंदू समाज में मौसेरी बहन से विवाह करने का प्रचलन नहीं.’’

दशरथ खामोश हो गया. उसे 20 वर्ष पूर्व अपनी मां को दिया वचन याद आ गया कि वह अपनी इस मौसेरी बहन से किसी भी दशा में विवाह नहीं करेगा. उस ने एक विश्वास ले कर सुरभि की ओर देखा और बोला, ‘‘सुरभि, मु?ो जोरों से भूख लगी है.’’

वह तुरंत उठ कर भोजन की व्यवस्था करने चली गई.

दशरथ देव अपने पिता दामोदर देव की मौत के बाद 1243 ईसवी में सोनार गांव का राजा बना था. उस ने ‘अरिराज दनुध माधव’ की उपाधि धारण की. किंतु जनसाधारण में वह रायदनुज के नाम से प्रसिद्ध हुआ, पर सुरभि के लिए वह दशरथ दा ही था.

सुरभि के पिता सूर्यमोहन मंदिरपुर के जमींदार थे. उन्होंने अपनी एकमात्र संतान सुरभि का विवाह ?ान?ानी के जमींदार माधवलाल के एकलौते बेटे से तय किया था. दिल से सुरभि इस विवाह के लिए तैयार नहीं थी. सुरभि की मां इस सचाई को जानती थीं कि सुरभि और दशरथ एकदूसरे को चाहते हैं, फिर भी उन्होंने इस बात को अपने पति से छिपा कर रखा.

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नौका डूब जाने के कारण भावी दामाद की मौत हो जाने से जमींदार सूर्यमोहन को काफी सदमा पहुंचा और उन की मौत हो गई. सुरभि की मां पति की मौत के कुछ दिनों बाद ही गुजर गईं.

भोजन करते हुए दशरथ देव सोच रहा था, ‘सुरभि मौसेरी बहन होने के कारण मु?ा से विवाह बंधन में नहीं बंध सकती, किंतु वह किसी अन्य से तो विवाह कर सकती है.’

उसी तरह सुरभि भी सोच रही थी, ‘मैं अब अन्यपूर्वा हूं किंतु दशरथ दा तो किसी सुयोग्य कन्या से विवाह कर सकते हैं.’

भोजन के बाद विश्राम कर जब दशरथ नींद से जागे तो उस समय संध्या हो रही थी. सुरभि अल्पाहार ले कर उन के कमरे में पहुंची. उस के साथ एक नवयुवती थी. दशरथ साथ आई उस नवयुवती को एकटक देख रहे थे.

दशरथ के सामने अल्पाहार रख सुरभि ने उस युवती से कहा, ‘‘दशरथ दा, बहुत बड़े राजा हैं, इन्हें प्रणाम करो.’’

नवयुवती ने लाज भरी आंखों से अपने राजा को देखा, फिर नजरें नीचे ?ाका दोनों हाथ को जोड़ प्रमाण किया.

उस नवयुवती में ऐसा कुछ था जो दशरथ को आकर्षित कर रहा था. वह क्या था? रूप और यौवन? राजा के मन ने खुद से प्रश्न किया और खुद ही उत्तर दिया. शायद नहीं, क्योंकि दशरथ ने उस नवयुवती से भी सुंदर सैकड़ों युवतियों को देखा था, जो उसे आकर्षित नहीं कर सकी थीं. तब? निश्चय ही उस नवयुवती के चेहरे की आभिजात्य तथा बुद्धिमत्ता की छाप दूसरी युवतियों से अलग दिखी थी.

‘‘क्या नाम है इस का?’’ दशरथ ने सुरभि से पूछा.

‘‘पद्मा,’’ सुरभि ने प्रेम से नवयुवती की तरफ देख कर कहा.

‘‘यहीं रहती है?’’ राजा ने पूछा.

‘‘रहती है? यह तो मेरी बेटी है.’’

‘‘तुम्हारा विवाह नहीं हुआ. तुम अपने को अन्यपूर्वा मानती हो. फिर तुम्हारी संतान कब हो गई?’’

‘‘क्या मैं किसी को गोद नहीं ले सकती?’’

‘‘तो यह तुम्हारी पोष्यपुत्री है.’’

‘‘हां, बड़े संयोग से वह मु?ो प्राप्त हुई थी.’’

‘‘कैसा संयोग?’’

‘‘पिता की मौत के 2 साल पहले की घटना है. पिता के साथ नौका पर नारायणगंज जा रही थी. बीच रास्ते में हमारी नौका के सामने एक मिट्टी का बड़ा घड़ा जल में तैरते हुए आ रहा था. नजदीक आने पर उस मिट्टी के घड़े से किसी शिशु के रोने की आवाज आई तो पिताजी ने मल्लाहों को घड़ा नौका पर उठा लाने का आदेश दिया.’’

घड़े के अंदर एक शिशु था. पिता ने घड़े से शिशु को निकाल कर मेरी गोद में देते हुए कहा, ‘बेटी, आज से यह तुम्हारी बेटी हुई. पद्मा नदी में यह मिली है, अत: इस का नाम पद्मा रख रहा हूं.’’’

दशरथ कुछ सोचने लगा. इस पर सुरभि ने पूछा, ‘‘क्या सोचने लगे, दादा?’’

‘‘सोच रहा हूं, नियति ने तुम्हारे साथ कैसा क्रूर उपहास किया है. 7 फेरे नहीं लगाए और अन्यपूर्वा बन गई. सुहाग सुख नहीं मिला और मां बन गई.’’

‘‘सब राधाकृष्ण की कृपा है.’’

‘‘हां, राधा भी तो कृष्णा को प्राप्त नहीं कर सकी थी.’’

राधाकृष्ण मंदिर भव्य और विशाल था. उस के प्रबंध के लिए एक पुरोहित और कुछ नौकर नियुक्त थे. उन्हें वेतन मिलता था. सुरभि सुबहशाम खुद पूजाआरती कर जाती थी.

मंदिर से जब वे लौटे तो रात हो रही थी. सुरभि जब पद्मा के साथ भोजन ले कर आई तो दशरथ ने एक बार फिर गौर से पद्मा को देखा. दशरथ को अपनी तरफ देखते देख पद्मा के कपोलों पर लालिमा दौड़ गई.

भोजन समाप्त कर दशरथ अपने स्थान से उठे, हाथमुंह धोया. भोजन के जूठे बरतन ले कर पद्मा चली गई तो सुरभि ने पूछा, ‘‘दादा, तुम ने क्या निर्णय लिया?’’

‘‘कैसा निर्णय?’’ दशरथ कुछ आश्चर्यचकित हो कर बोले.

‘‘तुम सोनार गांव के राजा हो. तुम्हारा प्रजा के प्रति कुछ कर्तव्य बनता है?’’

‘‘वह तो मैं पूरा कर ही रहा हूं.’’

‘‘कहां? तुम ने सोनार गांव की प्रजा को उस के उत्तराधिकारी से वंचित कर रखा है?’’ दशरथ दा के पास इस का कोई उत्तर नहीं था.

‘‘तुम्हारे सामने योग्य कन्या है. तुम उस से विवाह कर सुखी रहोगे.’’

‘‘कौन है वह?’’ दशरथ प्रश्न कर सकुचा गए.

‘‘पद्मा.’’

‘‘तुम्हारी बेटी?’’

‘‘वह मेरी कोख से जन्मी बेटी नहीं है.’’

‘‘फिर भी तुम उसे अपनी कन्या तो मानती हो?’’

‘‘उस से मेरा रक्त संबंध नहीं है. यह विवाह शास्त्र और समाज की सहमति से ही होगा.’’

दशरथ को सोचते देख सुरभि ने सजल नेत्रों को पोंछते हुए कहा, ‘‘दशरथ दा, पद्मा को स्वीकार लो, उसे मैं ने घर में शिक्षा दी है. वह सब तरह से तुम्हारे योग्य है. मु?ो उबार लो, दशरथ दा.’’

‘‘रोओ मत. तुम जैसा चाहोगी, वैसा ही होगा.’’

‘‘सच,’’ सुरभि ने आंखें फाड़

कर दशरथ की तरफ देखा और पद्मापद्मा पुकारती हुई खुशी से कमरे से बाहर दौड़ी.

पद्मा का सोनार गांव के राजा राय दनुज के साथ दूसरे दिन ही विवाह हो गया. कुछ दिन मंदिरपुर में गुजार कर राजा रायदनुज अपनी नवविवाहिता के साथ राजधानी जाने की तैयारी करने लगे.

जाने के दिन मंदिरपुर घाट पर काफी भीड़ थी. तब तक लोग दशरथ दा का वास्तविक परिचय जान गए थे.

अपने राजा को विदाई देने मंदिरपुर गांव ही नहीं, आसपास के दूसरे गांवों से भी प्रजाजन आए हुए थे.

मयूरपंखी बजरा घाट छोड़ आगे बढ़ने लगा. बजरे पर खड़े हो राजा राय दनुज एकटक सुरभि को देख रहे थे. जिस औरत को उन्होंने प्रेम किया वह मौसेरी बहन होने के कारण उन से विवाह नहीं कर सकी. आज वही औरत उन के सुख के लिए अपनी पालिता कन्या का उन से विवाह करा कर मां का दरजा प्राप्त कर गई. प्रेम की इस उपलब्धि से राजा रायदनुज आप्लावित हो उठे.

मयूरपंखी बजरा घाट छोड़ आगे बढ़ता जा रहा था. राय दनुज की आंखों से आंसू बह रहे थे.

उस के दोनों हाथ सुरभि के लिए अपनेआप श्रद्धा से जुड़ गए. उन की नजरें तब तक सुरभि पर ही जमी रहीं जब तक एक पूर्ण आकृति धीरेधीरे बिंदु बन विलुप्त न हो गई.

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Writer- विश्वनाथ यादव

विशाली मयूरपंखी बजरा पद्मा नदी की लहरों को काटता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था. बजरे के पीछे कुछ बड़ी नौकाएं थीं, जिन में शस्त्रधारी सैनिकों के अलावा दासदासियां भी सवार थे. 2 बड़ी नावों पर खाद्य सामग्री लदी हुई थी.

पिछले 12 सालों से वह हर साल दलबल के साथ घूमने निकल पड़ता. राज्य नर्तकियां नृत्य कर उसे लुभाने की, हंसाने की बहुत कोशिश करतीं, किंतु उस का चेहरा गमगीन ही बना रहता. ऐश्वर्य के हर साधन मौजूद होने पर भी वह उन का उपभोग नहीं कर पाता था. वह बंगाल के सोनार गांव का राजा था.

हर साल घूमने के लिए राजा सोनार गांव के किले से निकलता था. अपने राज्य के अधीन गांवों के घाटों पर अपना बजरा रुकवा कर प्रजा का हालचाल पूछता तथा कोई शिकायत होने पर उसे दूर करने की व्यवस्था कर देता.

यद्यपि राजा अपने को व्यस्त रखने की भरपूर कोशिश करता. फिर भी कुछ लम्हे ऐसे आ ही जाते थे जब वह बिलकुल अकेला होता. ऐसे समय पिछली यादें जब भी आतीं तो वह बेचैन हो उठता था.

20 साल हो गए, उस ने उस की सूरत नहीं देखी. अब तो वह उस का चेहरा भी ठीक से याद नहीं कर पाया था. 20 सालों में उस में न जाने कितने परिवर्तन हुए होंगे. उस में भी तो परिवर्तन हुए हैं.

उस राजा की मौसी के गांव का नाम मंदिरपुर था. जब उस का बजरा मंदिरपुर के गांव के सामने से गुजरता तो वह अपने मन को दृढ़ कर लेता. इन 12 वर्षों के राजकीय जीवन में वह हजारों गांवों में गया, किंतु मंदिरपुर नहीं जा सका.

सुबह की मलय समीर बह रही थी. मल्लाह मुस्तैदी से मयूरपंखी बजरे को चला रहे थे. राजा बजरे पर खड़ा था और उस की आंखें हर साल की तरह कुछ ढूंढ़ रही थीं. राजा ने मन में सोचा कि इस गांव के बाद ही तो मंदिरपुर गांव है. कुछ ही देर में दूर से ही गांव का राधाकृष्ण मंदिर का चूड़ा दिखाई देने लगेगा. इस मंदिर के बगल में ही एक जमींदार की हवेली है. उसी में वह रहती होगी और यह सोच वह व्याकुल हो उठा.

20 साल पहले की स्मृतियां उसे बेचैन करने लगीं. मंदिर का चूड़ा अब दिखाई पड़ने लगा था. अनायास ही उस की आंखों से आंसू बहने लगे. उस ने धीमे स्वर में मल्लाहों को मंदिरपुर घाट पर बजरे को रोकने का आदेश दिया. राजकीय पोशाक उतार कर राजा ने साधारण कपड़े पहने और अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को कुछ निर्देश दे वह घाट से मंदिरपुर गांव की ओर अकेला ही चल दिया. राधाकृष्ण मंदिर के पास स्थित जमींदार की हवेली पहुंच कर वह उत्साह से बोला, ‘‘सुरभि…’’

एक वृद्ध दासी बाहर निकल कर बोली, ‘‘मां तो मंदिर गई हैं.’’

‘‘ठीक है, मैं प्रतीक्षा करता हूं.’’

‘‘मां अभी आ जाएंगी, पूजा को गए काफी समय हो गया है,’’ फिर दासी मंदिर की ओर से किसी को आते देख कर बोली, ‘‘लीजिए, मां आ रही हैं.’’

राजा ने सिर घुमा कर देखा. सादे कपड़े में लिपटी एक औरत हाथ में पूजा का थाल लिए धीमे कदमों से चली आ रही थी. औरत नजदीक आते ही राजा को पहचान खुशी से बोली, ‘‘अरे, दशरथ दादा (भाई), तुम?’’

‘‘हां.’’

‘‘चलो, घर के अंदर चलो.’’

राजा किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह सुरभि के पीछेपीछे चल पड़ा. वह दशरथ को ले कर एक कमरे में पहुंची. दशरथ एक सजे पलंग पर बैठ गया. सुरभि ने उसे प्रेम से देख कर कहा, ‘‘20 सालों के बाद तुम्हें देख रही हूं.’’

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‘‘हां, मैं भी.’’

‘‘तुम्हारे लिए भोजन की व्यवस्था करूं, तुम भूखे होगे?’’

‘‘नहीं, तुम बैठो.’’

सुरभि सकुचा कर पलंग के एक तरफ बैठ गई. फिर कुछ याद आने पर पूछा, ‘‘तुम ने विवाह किया?’’

‘‘अभी तक नहीं.’’

‘‘क्या कहते हो, दशरथ दा? राजा महाराजा तो दर्जनों विवाह करते हैं… और तुम?’’

‘‘तुम ने भी तो विवाह नहीं किया?’’

‘‘मेरी बात अलग है. मैं विवाह नहीं कर सकती.’’

‘‘तुम एक जमींदार की बेटी हो.

धनसपंत्ति का तुम्हें अभाव

नहीं है, फिर भी विवाह…’’

दशरथ की बात बीच में काटते हुए सुरभि बोली, ‘‘मेरे पिता अपनी सारी जायदाद देवता को अर्पण कर गए. मैं तो भगवान की दासी हूं.’’

‘‘तुम विवाह करतीं तो क्या कोई तुम्हें रोक देता?’’

‘‘हिंदू विधवा का विवाह होता है?’’

‘‘जहां तक मु?ो खबर है कि तुम्हारा विवाह ही नहीं हुआ. फिर तुम अपने को विधवा कैसे कहती हो?’’

‘‘विवाह न होने पर भी मैं विधवा हूं. जिस व्यक्ति के साथ मेरे पिता ने मेरा विवाह तय किया था वह विवाह करने ही तो आ रहा था. पद्मा नदी पार करते समय नौका डूब जाने से उन की मौत हो गई. हिंदू संस्कार के अनुसार उन की मौत के साथ ही मैं विधवा हो गई.’’

‘‘उस व्यक्ति के साथ तुम ने 7 फेरे नहीं लगाए तो विधवा कैसे हो सकती हो?’’

‘‘ब्राह्मण मु?ा जैसी अभागिनों को विधवा न कह कुछ और कहते हैं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘अन्यपूर्वा.’’

दशरथ ने ‘अन्यपूर्वा’ सुन कर प्रश्न भरी नजरों से सुरभि को देखा.

सुरभि उस का आशय सम?ा कर बोली, ‘‘दादा, मेरे पिता को एक पंडित ने बताया था कि जिस लड़की का विवाह तय हो जाता है और विवाह के पहले उस के भावी पति की मृत्यु हो जाती है वह अन्यपूर्वा कहलाती है. उस का बाद में विवाह नहीं होता है. उसे अपने पिता या भाई के घर जीवनभर आश्रित बन कर रहना पड़ता है.’’

‘‘विधवाओं की तरह?’’

‘‘हां, विधवाओं की तरह.’’

‘‘तुम बताओ. तुम ने अभी तक विवाह क्यों नहीं किया?’’

‘‘आप भूल गईं. 20 वर्ष पहले हम ने शपथ ली कि यदि हम दोनों का विवाह संभव नहीं हुआ तो आजन्म कुंआरे रहेंगे.’’

‘‘मेरी बात अलग है. धर्म और समाज मेरे विरुद्ध है. फिर राधाकृष्ण मंदिर की देखभाल करने की मुझ पर पैतृक जिम्मेदारी है.’’

‘‘मेरी तरफ देखो,’’ दशरथ बोला, ‘‘मैं सोनार गांव का राजा हूं. संपत्ति व शक्ति का अधिकारी. धर्म और समाज मेरे किसी कार्य में बाधक नहीं बनेंगे.’’

‘‘वह 13 वर्ष की अबोध बालिका का पागलपन था. मैं तुम्हारी मौसेरी बहन हूं. हिंदू समाज में मौसेरी बहन से विवाह करने का प्रचलन नहीं.’’

दशरथ खामोश हो गया. उसे 20 वर्ष पूर्व अपनी मां को दिया वचन याद आ गया कि वह अपनी इस मौसेरी बहन से किसी भी दशा में विवाह नहीं करेगा. उस ने एक विश्वास ले कर सुरभि की ओर देखा और बोला, ‘‘सुरभि, मु?ो जोरों से भूख लगी है.’’

वह तुरंत उठ कर भोजन की व्यवस्था करने चली गई.

दशरथ देव अपने पिता दामोदर देव की मौत के बाद 1243 ईसवी में सोनार गांव का राजा बना था. उस ने ‘अरिराज दनुध माधव’ की उपाधि धारण की. किंतु जनसाधारण में वह रायदनुज के नाम से प्रसिद्ध हुआ, पर सुरभि के लिए वह दशरथ दा ही था.

सुरभि के पिता सूर्यमोहन मंदिरपुर के जमींदार थे. उन्होंने अपनी एकमात्र संतान सुरभि का विवाह ?ान?ानी के जमींदार माधवलाल के एकलौते बेटे से तय किया था. दिल से सुरभि इस विवाह के लिए तैयार नहीं थी. सुरभि की मां इस सचाई को जानती थीं कि सुरभि और दशरथ एकदूसरे को चाहते हैं, फिर भी उन्होंने इस बात को अपने पति से छिपा कर रखा.

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नौका डूब जाने के कारण भावी दामाद की मौत हो जाने से जमींदार सूर्यमोहन को काफी सदमा पहुंचा और उन की मौत हो गई. सुरभि की मां पति की मौत के कुछ दिनों बाद ही गुजर गईं.

भोजन करते हुए दशरथ देव सोच रहा था, ‘सुरभि मौसेरी बहन होने के कारण मु?ा से विवाह बंधन में नहीं बंध सकती, किंतु वह किसी अन्य से तो विवाह कर सकती है.’

उसी तरह सुरभि भी सोच रही थी, ‘मैं अब अन्यपूर्वा हूं किंतु दशरथ दा तो किसी सुयोग्य कन्या से विवाह कर सकते हैं.’

भोजन के बाद विश्राम कर जब दशरथ नींद से जागे तो उस समय संध्या हो रही थी. सुरभि अल्पाहार ले कर उन के कमरे में पहुंची. उस के साथ एक नवयुवती थी. दशरथ साथ आई उस नवयुवती को एकटक देख रहे थे.

दशरथ के सामने अल्पाहार रख सुरभि ने उस युवती से कहा, ‘‘दशरथ दा, बहुत बड़े राजा हैं, इन्हें प्रणाम करो.’’

नवयुवती ने लाज भरी आंखों से अपने राजा को देखा, फिर नजरें नीचे ?ाका दोनों हाथ को जोड़ प्रमाण किया.

उस नवयुवती में ऐसा कुछ था जो दशरथ को आकर्षित कर रहा था. वह क्या था? रूप और यौवन? राजा के मन ने खुद से प्रश्न किया और खुद ही उत्तर दिया. शायद नहीं, क्योंकि दशरथ ने उस नवयुवती से भी सुंदर सैकड़ों युवतियों को देखा था, जो उसे आकर्षित नहीं कर सकी थीं. तब? निश्चय ही उस नवयुवती के चेहरे की आभिजात्य तथा बुद्धिमत्ता की छाप दूसरी युवतियों से अलग दिखी थी.

‘‘क्या नाम है इस का?’’ दशरथ ने सुरभि से पूछा.

‘‘पद्मा,’’ सुरभि ने प्रेम से नवयुवती की तरफ देख कर कहा.

‘‘यहीं रहती है?’’ राजा ने पूछा.

‘‘रहती है? यह तो मेरी बेटी है.’’

‘‘तुम्हारा विवाह नहीं हुआ. तुम अपने को अन्यपूर्वा मानती हो. फिर तुम्हारी संतान कब हो गई?’’

‘‘क्या मैं किसी को गोद नहीं ले सकती?’’

‘‘तो यह तुम्हारी पोष्यपुत्री है.’’

‘‘हां, बड़े संयोग से वह मु?ो प्राप्त हुई थी.’’

‘‘कैसा संयोग?’’

‘‘पिता की मौत के 2 साल पहले की घटना है. पिता के साथ नौका पर नारायणगंज जा रही थी. बीच रास्ते में हमारी नौका के सामने एक मिट्टी का बड़ा घड़ा जल में तैरते हुए आ रहा था. नजदीक आने पर उस मिट्टी के घड़े से किसी शिशु के रोने की आवाज आई तो पिताजी ने मल्लाहों को घड़ा नौका पर उठा लाने का आदेश दिया.’’

घड़े के अंदर एक शिशु था. पिता ने घड़े से शिशु को निकाल कर मेरी गोद में देते हुए कहा, ‘बेटी, आज से यह तुम्हारी बेटी हुई. पद्मा नदी में यह मिली है, अत: इस का नाम पद्मा रख रहा हूं.’’’

दशरथ कुछ सोचने लगा. इस पर सुरभि ने पूछा, ‘‘क्या सोचने लगे, दादा?’’

‘‘सोच रहा हूं, नियति ने तुम्हारे साथ कैसा क्रूर उपहास किया है. 7 फेरे नहीं लगाए और अन्यपूर्वा बन गई. सुहाग सुख नहीं मिला और मां बन गई.’’

‘‘सब राधाकृष्ण की कृपा है.’’

‘‘हां, राधा भी तो कृष्णा को प्राप्त नहीं कर सकी थी.’’

राधाकृष्ण मंदिर भव्य और विशाल था. उस के प्रबंध के लिए एक पुरोहित और कुछ नौकर नियुक्त थे. उन्हें वेतन मिलता था. सुरभि सुबहशाम खुद पूजाआरती कर जाती थी.

मंदिर से जब वे लौटे तो रात हो रही थी. सुरभि जब पद्मा के साथ भोजन ले कर आई तो दशरथ ने एक बार फिर गौर से पद्मा को देखा. दशरथ को अपनी तरफ देखते देख पद्मा के कपोलों पर लालिमा दौड़ गई.

भोजन समाप्त कर दशरथ अपने स्थान से उठे, हाथमुंह धोया. भोजन के जूठे बरतन ले कर पद्मा चली गई तो सुरभि ने पूछा, ‘‘दादा, तुम ने क्या निर्णय लिया?’’

‘‘कैसा निर्णय?’’ दशरथ कुछ आश्चर्यचकित हो कर बोले.

‘‘तुम सोनार गांव के राजा हो. तुम्हारा प्रजा के प्रति कुछ कर्तव्य बनता है?’’

‘‘वह तो मैं पूरा कर ही रहा हूं.’’

‘‘कहां? तुम ने सोनार गांव की प्रजा को उस के उत्तराधिकारी से वंचित कर रखा है?’’ दशरथ दा के पास इस का कोई उत्तर नहीं था.

‘‘तुम्हारे सामने योग्य कन्या है. तुम उस से विवाह कर सुखी रहोगे.’’

‘‘कौन है वह?’’ दशरथ प्रश्न कर सकुचा गए.

‘‘पद्मा.’’

‘‘तुम्हारी बेटी?’’

‘‘वह मेरी कोख से जन्मी बेटी नहीं है.’’

‘‘फिर भी तुम उसे अपनी कन्या तो मानती हो?’’

‘‘उस से मेरा रक्त संबंध नहीं है. यह विवाह शास्त्र और समाज की सहमति से ही होगा.’’

दशरथ को सोचते देख सुरभि ने सजल नेत्रों को पोंछते हुए कहा, ‘‘दशरथ दा, पद्मा को स्वीकार लो, उसे मैं ने घर में शिक्षा दी है. वह सब तरह से तुम्हारे योग्य है. मु?ो उबार लो, दशरथ दा.’’

‘‘रोओ मत. तुम जैसा चाहोगी, वैसा ही होगा.’’

‘‘सच,’’ सुरभि ने आंखें फाड़

कर दशरथ की तरफ देखा और पद्मापद्मा पुकारती हुई खुशी से कमरे से बाहर दौड़ी.

पद्मा का सोनार गांव के राजा राय दनुज के साथ दूसरे दिन ही विवाह हो गया. कुछ दिन मंदिरपुर में गुजार कर राजा रायदनुज अपनी नवविवाहिता के साथ राजधानी जाने की तैयारी करने लगे.

जाने के दिन मंदिरपुर घाट पर काफी भीड़ थी. तब तक लोग दशरथ दा का वास्तविक परिचय जान गए थे.

अपने राजा को विदाई देने मंदिरपुर गांव ही नहीं, आसपास के दूसरे गांवों से भी प्रजाजन आए हुए थे.

मयूरपंखी बजरा घाट छोड़ आगे बढ़ने लगा. बजरे पर खड़े हो राजा राय दनुज एकटक सुरभि को देख रहे थे. जिस औरत को उन्होंने प्रेम किया वह मौसेरी बहन होने के कारण उन से विवाह नहीं कर सकी. आज वही औरत उन के सुख के लिए अपनी पालिता कन्या का उन से विवाह करा कर मां का दरजा प्राप्त कर गई. प्रेम की इस उपलब्धि से राजा रायदनुज आप्लावित हो उठे.

मयूरपंखी बजरा घाट छोड़ आगे बढ़ता जा रहा था. राय दनुज की आंखों से आंसू बह रहे थे.

उस के दोनों हाथ सुरभि के लिए अपनेआप श्रद्धा से जुड़ गए. उन की नजरें तब तक सुरभि पर ही जमी रहीं जब तक एक पूर्ण आकृति धीरेधीरे बिंदु बन विलुप्त न हो गई.

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January 13, 2022 at 09:00AM

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