Thursday 30 July 2020

उड़ान- भाग 1: दीपा को बुढ़ापे मेें क्या याद आ रहा था?

देखते ही देखते दीपा की दुनिया बदल गई थी. रजत तो रजत, बच्चे भी मानो अजनबी, अनजान हो चले थे. सुना, पढ़ा था कि इंसान बुढ़ापे में अकेला हो जाता है, स्नेहसिक्त दो बोलों को तरस जाता है, पर यहां तो 40 बसंत, पतझड़ देखते न देखते वृद्धावस्था सी उदासी और एकांतता घिर आई. रजत कार्यालय के कार्यों में व्यस्त, तो बच्चे अपनेआप में मस्त. अकेली पड़ गई दीपा मन को बहलानेफुसलाने का यत्नप्रयत्न करती, ‘पदप्रतिष्ठा के दायित्वों  तले दबे रजत को घोर समयाभाव सही, पर अब भी वह उस से पहले जैसा ही स्नेह रखता है.

‘बच्चे नटखट सही, पर उद्दंड तो नहीं. सभ्य, सुसंस्कृत एवं बुद्धिमान. लेकिन वे अब मुझ से इतना कतराते क्यों हैं? हरदम मुझ से दूर क्यों भागते हैं?’

अकस्मात ही आया यह परिवर्तन दीपा के लिए विस्मयकारी था. उसे सहसा विश्वास ही न होता कि ये वही बच्चे हैं जो ‘मांमां’ करते हर पल उस के आगेपीछे डोलते रहते थे. स्कूल से लौटते ही अपनी नन्हीनन्ही बांहें पसार उस की ओर लपकते थे, कैसा अजब, सुहाना खेल खेलते थे वे, ‘जो पहले मां को छुएगा मां उस की.’ ‘मां मेरी है, मैं ने उसे पहले छुआ.’ ‘नहीं, मां मेरी है मैं ने उसे पहले छुआ.’ होड़ से हुलसते नेह के घेरों में बंधीबंधी दीपा अनुराग से ओतप्रोत हो जाती.

‘अरेअरे, लड़ते क्यों हो, मां तो मैं तुम दोनों की ही हूं न.’

‘नहीं, तुम पहले मेरी हो. मैं ने तुम्हें पहले छुआ था,’ सौरभ ठुनकता.

‘पहले छूने से क्या होता है पागल, मैं बड़ी हूं, मां पहले मेरी ही है,’ रुचि दादी मां की तरह विद्वत्ता जताती.

सौरभ फिर भी हार न मानता, ‘मां ज्यादा मेरी है. मैं ने अभी उसे जल्दी नहीं छुआ क्या?’ रुचि बड़प्पन का हक जताती, ‘नहीं, मां ज्यादा मेरी है. मैं…’

‘अरे, रे झगड़ो नहीं. मैं तुम दोनों की हूं, बिलकुल बराबरबराबर. अब जल्दी करो, बस्ते उतारो, कपड़े बदलो और हाथमुंह धोओ. बड़े जोर की भूख लगी है,’ विलक्षण वादविवाद पर विराम लगाने के लिए दीपा अमोघ अस्त्र चलाती. तीर निशाने पर बैठता. ‘मां को भूख लगी है. ‘मां अकेली खाना नहीं खाएगी.’ तेरीमेरी का हेरफेर भूल दोनों जल्दीजल्दी अपने नन्हेमुन्ने कार्यों में जुट जाते तो दीपा गर्वगरिमा से दीप्त हो उठती कि कितने छोटे हैं, फिर भी कितना ध्यान है मां का. उस के अंतस में फिर अनुराग हिलोरें ले उठता. दोनों ही दौड़ कर पटरों पर जम जाते. नन्ही सी रसोई में दीपा की प्यारी सी दुनिया सिमट आती.

खाने, परोसने, मानमनुहार के साथ बातें चलतीं तो चलती ही चली जातीं. अध्यापिका की बातें, मित्रों की बातें, खेल की, पढ़ाई की, इधरउधर की कहनेसुनाने में दोनों में हरदम होड़ मची रहती. दीपा के मन पर उत्सव सा उल्लास छाया रहता. खापी कर रसोई समेट कर दीपा दो घड़ी लेटने का उपक्रम करती तो फिर घेरी जाती, ‘मां, मां, कहानी सुनाओ न,’ दोनों उस के अगलबगल आ लेटते. ‘अरे, दिन में कहानी थोड़े ही सुनाई जाती है. मामा रास्ता भटक जाएंगे.’ वह अलसा कर बहाना बनाती तो बतकही को बहने का एक और कारण मिल जाता. मामा की बातें, मामी की बातें, मौसी की बातें, दूर बसे स्वजनों की स्नेहिल स्मृतियों को संजोतेसंजोते तीनों ही सपनों के संसार में खो जाते. पर अब, अब सबकुछ कितना बदलाबदला सा है. बच्चे बड़े क्या हुए, मां को ही बिसरा बैठे. और बड़ा होना भी क्या, कच्ची किशोरवयता कोई ऐसी बड़ी परिपक्वता तो नहीं कि अपनी दुनिया अलग ही बसा ली जाए.

‘हाय मां,’ कालेज से लौटी रुचि मुसकराहट उछालती. किताबें पटक कर यंत्रवत काम निबटाती. खाने की मेज पर पहुंचते ही वह किसी पत्रिका में मुंह दे कर बैठ जाती. खाना और पढ़ना साथसाथ चलता.

‘मां, तुम ने खाना खाया?’ अचानक ही याद आने पर पूछती. लेकिन उत्तर सुनने से पहले ही कथा, पात्रों के चरित्रों में गुम हो जाती.

सौरभ को खाने के साथ टीवी देखना भाता. ‘मां, तुम भी आओ न,’ कहते न कहते वह भी दूरदर्शनी चलचित्रों के साथ हंसनेमुसकराने लगता. न मान, न मनुहार. मां को बुलाना भी मात्र औपचारिकता हो मानो. पहले हरदम पल्लू पकड़ कर पीछे पड़ने वाले बच्चों को अब जरा भी मेरी जरूरत नहीं, दीपा खोईखोई सी रहती. हरदम रोंआसी और उदास. उस दिन रुचि की सहेलियां आई हुई थीं. बैठक में हंसी की फुलझडि़यां फूट रही थीं. बेमतलब के ठहाके बरस रहे थे. खूब हंगामा मचा हुआ था. किस को कौन सा फिल्मी हीरो भाता है, बस, इसी बात पर वादविवाद चल रहा था. सभी अपनेअपने प्रिय के गुणों का गुणगान करते हुए अन्य के चहेतों के अवगुणों की खोजपरख में लगी थीं.

दीपा शरबत, नाश्ता ले कर पहुंची तो अपनेपन से वहीं बैठ गई. बच्चों के साथ बच्चा बन जाना उस का सदा का स्वभाव था. पर यह क्या? कमरे में एकाएक ही स्तब्ध सन्नाटा घिर आया. निरंतर बजते कहकहे भी बंद हो गए. सरसता बनाए रखने के लिए दीपा ने सरलता से बातों के क्रम को आगे बढ़ाया, ‘हमारी पसंद भी तो पूछो न,’ उस के इतना कने पर मौन लड़कियां मुसकराईं. ‘भई, हमें तो आज भी अपना अमिताभ ही भाता है,’ पर लड़कियां फिर भी चुप, असहज ही बनी रहीं तो दीपा से बैठा न गया, वह रसोई में काम का बहाना बना, खाली ट्रे उठा, उठ खड़ी हुई. रुचि ने भी बैठने को नहीं कहा. उस के उठते ही कमरा फिर किलकारियों से भर गया. लड़कियां फिर से मुखर हो उठीं.

तो क्या एक वही थी अनचाही, अवांछित. क्या वह अब रुचि की केवल मां है. वह भी एक पीढ़ी की दूरी वाली मां. मित्रवित्र कुछ भी नहीं? पर उस ने तो ममता के साथसाथ, सखीसहेली सा सान्निध्य भी दिया है बेटी को. वह गुडि़या के ब्याह रचाना, वह अपना नन्हा सा ‘घर बसाना’, वह रस्सीकूद, लुकाछिपी का खेल, बीती सारी बातें भूल कैसे गई बेटी? दीपा का मन भर आया. बेटाबेटी, दोनों पर उस का स्नेह समान था. लेकिन अब दोनों ही उस से दूर निकलते जा रहे थे.

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देखते ही देखते दीपा की दुनिया बदल गई थी. रजत तो रजत, बच्चे भी मानो अजनबी, अनजान हो चले थे. सुना, पढ़ा था कि इंसान बुढ़ापे में अकेला हो जाता है, स्नेहसिक्त दो बोलों को तरस जाता है, पर यहां तो 40 बसंत, पतझड़ देखते न देखते वृद्धावस्था सी उदासी और एकांतता घिर आई. रजत कार्यालय के कार्यों में व्यस्त, तो बच्चे अपनेआप में मस्त. अकेली पड़ गई दीपा मन को बहलानेफुसलाने का यत्नप्रयत्न करती, ‘पदप्रतिष्ठा के दायित्वों  तले दबे रजत को घोर समयाभाव सही, पर अब भी वह उस से पहले जैसा ही स्नेह रखता है.

‘बच्चे नटखट सही, पर उद्दंड तो नहीं. सभ्य, सुसंस्कृत एवं बुद्धिमान. लेकिन वे अब मुझ से इतना कतराते क्यों हैं? हरदम मुझ से दूर क्यों भागते हैं?’

अकस्मात ही आया यह परिवर्तन दीपा के लिए विस्मयकारी था. उसे सहसा विश्वास ही न होता कि ये वही बच्चे हैं जो ‘मांमां’ करते हर पल उस के आगेपीछे डोलते रहते थे. स्कूल से लौटते ही अपनी नन्हीनन्ही बांहें पसार उस की ओर लपकते थे, कैसा अजब, सुहाना खेल खेलते थे वे, ‘जो पहले मां को छुएगा मां उस की.’ ‘मां मेरी है, मैं ने उसे पहले छुआ.’ ‘नहीं, मां मेरी है मैं ने उसे पहले छुआ.’ होड़ से हुलसते नेह के घेरों में बंधीबंधी दीपा अनुराग से ओतप्रोत हो जाती.

‘अरेअरे, लड़ते क्यों हो, मां तो मैं तुम दोनों की ही हूं न.’

‘नहीं, तुम पहले मेरी हो. मैं ने तुम्हें पहले छुआ था,’ सौरभ ठुनकता.

‘पहले छूने से क्या होता है पागल, मैं बड़ी हूं, मां पहले मेरी ही है,’ रुचि दादी मां की तरह विद्वत्ता जताती.

सौरभ फिर भी हार न मानता, ‘मां ज्यादा मेरी है. मैं ने अभी उसे जल्दी नहीं छुआ क्या?’ रुचि बड़प्पन का हक जताती, ‘नहीं, मां ज्यादा मेरी है. मैं…’

‘अरे, रे झगड़ो नहीं. मैं तुम दोनों की हूं, बिलकुल बराबरबराबर. अब जल्दी करो, बस्ते उतारो, कपड़े बदलो और हाथमुंह धोओ. बड़े जोर की भूख लगी है,’ विलक्षण वादविवाद पर विराम लगाने के लिए दीपा अमोघ अस्त्र चलाती. तीर निशाने पर बैठता. ‘मां को भूख लगी है. ‘मां अकेली खाना नहीं खाएगी.’ तेरीमेरी का हेरफेर भूल दोनों जल्दीजल्दी अपने नन्हेमुन्ने कार्यों में जुट जाते तो दीपा गर्वगरिमा से दीप्त हो उठती कि कितने छोटे हैं, फिर भी कितना ध्यान है मां का. उस के अंतस में फिर अनुराग हिलोरें ले उठता. दोनों ही दौड़ कर पटरों पर जम जाते. नन्ही सी रसोई में दीपा की प्यारी सी दुनिया सिमट आती.

खाने, परोसने, मानमनुहार के साथ बातें चलतीं तो चलती ही चली जातीं. अध्यापिका की बातें, मित्रों की बातें, खेल की, पढ़ाई की, इधरउधर की कहनेसुनाने में दोनों में हरदम होड़ मची रहती. दीपा के मन पर उत्सव सा उल्लास छाया रहता. खापी कर रसोई समेट कर दीपा दो घड़ी लेटने का उपक्रम करती तो फिर घेरी जाती, ‘मां, मां, कहानी सुनाओ न,’ दोनों उस के अगलबगल आ लेटते. ‘अरे, दिन में कहानी थोड़े ही सुनाई जाती है. मामा रास्ता भटक जाएंगे.’ वह अलसा कर बहाना बनाती तो बतकही को बहने का एक और कारण मिल जाता. मामा की बातें, मामी की बातें, मौसी की बातें, दूर बसे स्वजनों की स्नेहिल स्मृतियों को संजोतेसंजोते तीनों ही सपनों के संसार में खो जाते. पर अब, अब सबकुछ कितना बदलाबदला सा है. बच्चे बड़े क्या हुए, मां को ही बिसरा बैठे. और बड़ा होना भी क्या, कच्ची किशोरवयता कोई ऐसी बड़ी परिपक्वता तो नहीं कि अपनी दुनिया अलग ही बसा ली जाए.

‘हाय मां,’ कालेज से लौटी रुचि मुसकराहट उछालती. किताबें पटक कर यंत्रवत काम निबटाती. खाने की मेज पर पहुंचते ही वह किसी पत्रिका में मुंह दे कर बैठ जाती. खाना और पढ़ना साथसाथ चलता.

‘मां, तुम ने खाना खाया?’ अचानक ही याद आने पर पूछती. लेकिन उत्तर सुनने से पहले ही कथा, पात्रों के चरित्रों में गुम हो जाती.

सौरभ को खाने के साथ टीवी देखना भाता. ‘मां, तुम भी आओ न,’ कहते न कहते वह भी दूरदर्शनी चलचित्रों के साथ हंसनेमुसकराने लगता. न मान, न मनुहार. मां को बुलाना भी मात्र औपचारिकता हो मानो. पहले हरदम पल्लू पकड़ कर पीछे पड़ने वाले बच्चों को अब जरा भी मेरी जरूरत नहीं, दीपा खोईखोई सी रहती. हरदम रोंआसी और उदास. उस दिन रुचि की सहेलियां आई हुई थीं. बैठक में हंसी की फुलझडि़यां फूट रही थीं. बेमतलब के ठहाके बरस रहे थे. खूब हंगामा मचा हुआ था. किस को कौन सा फिल्मी हीरो भाता है, बस, इसी बात पर वादविवाद चल रहा था. सभी अपनेअपने प्रिय के गुणों का गुणगान करते हुए अन्य के चहेतों के अवगुणों की खोजपरख में लगी थीं.

दीपा शरबत, नाश्ता ले कर पहुंची तो अपनेपन से वहीं बैठ गई. बच्चों के साथ बच्चा बन जाना उस का सदा का स्वभाव था. पर यह क्या? कमरे में एकाएक ही स्तब्ध सन्नाटा घिर आया. निरंतर बजते कहकहे भी बंद हो गए. सरसता बनाए रखने के लिए दीपा ने सरलता से बातों के क्रम को आगे बढ़ाया, ‘हमारी पसंद भी तो पूछो न,’ उस के इतना कने पर मौन लड़कियां मुसकराईं. ‘भई, हमें तो आज भी अपना अमिताभ ही भाता है,’ पर लड़कियां फिर भी चुप, असहज ही बनी रहीं तो दीपा से बैठा न गया, वह रसोई में काम का बहाना बना, खाली ट्रे उठा, उठ खड़ी हुई. रुचि ने भी बैठने को नहीं कहा. उस के उठते ही कमरा फिर किलकारियों से भर गया. लड़कियां फिर से मुखर हो उठीं.

तो क्या एक वही थी अनचाही, अवांछित. क्या वह अब रुचि की केवल मां है. वह भी एक पीढ़ी की दूरी वाली मां. मित्रवित्र कुछ भी नहीं? पर उस ने तो ममता के साथसाथ, सखीसहेली सा सान्निध्य भी दिया है बेटी को. वह गुडि़या के ब्याह रचाना, वह अपना नन्हा सा ‘घर बसाना’, वह रस्सीकूद, लुकाछिपी का खेल, बीती सारी बातें भूल कैसे गई बेटी? दीपा का मन भर आया. बेटाबेटी, दोनों पर उस का स्नेह समान था. लेकिन अब दोनों ही उस से दूर निकलते जा रहे थे.

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July 31, 2020 at 10:00AM

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