Friday 25 March 2022

शुक्रिया श्वेता दी: भाग 1

Writer- डा. कविता कुमारी

बालकनी में अकेली बैठी अंकिता की टेबल पर रखी कौफी ठंडी हो रही थी. हलकी बूंदाबांदी अब मूसलाधार बारिश में बदल गई थी. वह पानी की मोटीमोटी धारों को एकटक निहार रही थी लेकिन उस का दिमाग कहीं और था. मम्मीपापा वकील से बात करने गए थे, घर में वह अकेली थी. उस की नजरों के सामने बारबार श्वेता दी का चेहरा आ रहा था.

श्वेता दी… उस की जेठानी. कहने को उन दोनों का रिश्ता देवरानीजेठानी का था लेकिन श्वेता ही सही माने में उस की बड़ी बहन साबित हुई. अगर वह न होती तो न जाने क्या होता उस के साथ. उन्होंने उसे उस नर्क से निकाला जहां वह स्वर्ग की तलाश में गई थी.

हां, स्वर्ग से भी सुंदर अपना घर बसाने की चाहत में उस ने दीपेन का साथ चुना था. दोनों एक ही औफिस में काम करते थे. दोनों में दोस्ती हुई जो धीरेधीरे प्यार में बदल गई. यह कब, कैसे हुआ, अंकिता को पता ही न चला. हर प्रेमी जोड़े की तरह वे साथ जीनेमरने की कसमें खाते, हाथों में हाथ डाले मौल में घूमते, लंचडिनर साथ में करते. दीपेन उस के आगेपीछे डोलता रहता. उस की खूब केयर करता. अंकिता उस के इसी केयरिंग नेचर पर फिदा थी.

उसे याद है, औफिस का वाटर प्यूरीफायर खराब हो गया था. गरमी इतनी थी कि एयरकंडीशंड औफिस में भी गला सूख रहा था. उस ने कहा, ‘दीपेन, मैं प्यास से मर जाऊंगी. मु?ो प्यास कुछ ज्यादा ही लगती है और नौर्मल पानी सूट नहीं करता.’

‘यह बंदा किस दिन काम आएगा, अभी पानी की बोतल ले कर आता

हूं, यार.

‘3-4 किलोमीटर जाना होगा यार. शहर से इतनी दूर, ऐसी साइट पर हमें जौइन ही नहीं करना चाहिए था.’

‘मैडम, एक दिन पानी क्या नहीं मिला, आप ने नौकरी छोड़ने का प्लान बना लिया. बंदे को सेवा का मौका तो दीजिए…’ अदा से ?ाक कर उस ने ऐसे कहा जैसे प्रपोज कर रहा हो और तीर की तरह निकल गया. अंकिता खिड़की के पास आ कर, उस का मोटरसाइकिल स्टार्ट कर के जाना देखती रही. जब आंखों से ओ?ाल हो गया, उस ने मुसकरा कर हौले से सिर हिलाया ‘पागल’ और टेबल पर आ कर काम निबटाने लगी.

मम्मीपापा शादी की बात चलाने लगे थे. एक दिन अंकिता ने मां को फोन पर दीपेन के बारे में बताया. मां अचकचा गई, ‘यह क्या कह रही हो? अपने पापा को नहीं जानती? एक तो लड़का तुम्हारी पसंद का, उस पर जाति भी अलग. तुम जितना आसान सम?ा रही हो, उतना आसान नहीं है.’

‘मम्मी जातिवाति से कुछ नहीं होता. दिल मिलना चाहिए, बस. और मैं पहली लड़की नहीं जो दूसरी जाति के लड़के संग ब्याह रचाऊंगी. कितनी शादियां हो रही हैं समाज में. वह कितना अच्छा और केयरिंग है, तुम लोग एक बार मिल लो, फिर पता चल जाएगा.’

पापा नहीं माने. वह जिद पर अड़ गई. मां दोनों के बीच थी. बड़ी बहन और भाई की शादी हो चुकी थी. उन लोगों ने भी पापा को सम?ाया. मां निश्ंिचत थीं कि उस में कोई उस से छोटा नहीं था कि उस की शादी के बाद किसी तरह की परेशानी होगी. कुछ वक्त लगा. पापा थोड़ेथोड़े नरम पड़े. दीपेन से मिलने को तैयार हुए.

5-6 दिनों तक वे लोग बेंगलुरु के होटल में रुके. अंकिता गर्ल्स होस्टल में रहती थी. उस ने औफिस से छुट्टी ले ली. दीपेन मांपापा को भा गया. लंबा, इकहरा, गोरागोरा दीपेन खूब बातें करता और दिल खोल कर हंसता. सचमुच इतना केयरिंग न उन का बेटा था, न दामाद ही. मम्मी के हाथ में एक छोटा पैकेट भी देखता तो ?ाट ले लेता- ‘अरे आंटी, बेटे के होते आप सामान क्यों ढो रही हैं?’

रास्ते में सब का खयाल रखता. छोटीछोटी बातों का भी उसे ध्यान रहता. किसी चीज की जरूरत तो नहीं, प्यास लगी है क्या, थकावट हो रही होगी, आराम कर लें…

उस के बाद 2-3 बार वे लोग दीपेन से और मिले. वह हर बार हंसतामुसकराता एनर्जी से भरपूर मिला. आखिर पापा ने शादी के लिए हां कर दी. जब उस के मम्मीपापा से मिलने की बारी आई, उस ने कहा कि आप लोग इतनी दूर कहां जाइएगा, मम्मीपापा पटना जाने वाले हैं, वहीं उन से मिल लीजिएगा. उस का अपना घर इलाहाबाद था. उन लोगों को आइडिया ठीक लगा.

बूआ के बेटे की शादी थी. सब लोग

पटना आए. दीपेन के मम्मीपापा,

भाईभाभी और उन के दोनों बच्चे. सभी खुशमिजाज और मिलनसार थे. हां, सुंदरसलोनी भाभी बात कम कर रही थीं. शांत स्वभाव की थीं शायद. अंकिता का रिश्ता वहीं पक्का हो गया. पंडितजी ने दिन, मुहूर्त भी निकलवा दिया. दानदहेज की बात नहीं हुई. दीपेन के पापा ने मजाक में कहा, ‘समधीजी, अंकिता आप  की सब से छोटी और लाड़ली बेटी है. इस के लिए आप ने बहुतकुछ जोड़ कर रखा ही होगा. अब और आप को करना भी क्या है?’

‘भला यह भी कहने की बात है? शादी में समधीजी दिल खोल कर

खर्च करेंगे. यह शादी शानदार होगी,

क्यों समधीजी?’ दीपेन की मां ने हंस

कर कहा.

शादी के दस दिन पहले दीपेन के पापा का फोन आया, ‘समधीजी, दीपेन बड़बोला लगता है लेकिन अंदर से संकोची है. उस की चाहत थी एक गाड़ी अंकिता के लिए आप उसे देते. खुद की गाड़ी खरीदने में तो काफी वक्त लग जाएगा. वैसे, वह आप से कहने को मना कर रहा था लेकिन मैं ने कहा कि इच्छा को इतना क्या दबाना. आप गाड़ी के लिए रुपए ही भेज दीजिए, दीपेन को यहां एक गाड़ी पसंद आ गई है, साढ़े दस लाख की है. लेकिन शोरूम हमारे जानपहचान वालों का है, वे डिस्काउंट दे रहे हैं. दस लाख तक में मिल जाएगी.’

पापा से कुछ कहते नहीं बना. भैया ने सुना तो ताव खा गया, ‘अरे, यह तो सरासर दहेज है. इतनी जल्दी हम कहां से लाएंगे. वे लोग लालची लग रहे हैं.’

अंकिता को बुरा लगा. एक गाड़ी मांग रहा है, वह भी मेरे लिए. भैया वह भी देना नहीं चाहता. शादी के बाद वह बदल गया है. बहन की खुशी कोई माने नहीं रखती. शादी के दिन बहुत कम बचे थे. सारी तैयारी हो चुकी थी. पैसे भी काफी खर्च हो चुके थे. मानमर्यादा की बात थी. सिर्फ इस बात के लिए शादी तोड़ना मूर्खता थी. फिर अंकिता कहां मानने वाली थी. किसी तरह रुपयों का इंतजाम कर के उन लोगों को देना ही पड़ा.

उस के बाद शादी के दिन तक बड़े सलीके से कभी चेन, कभी अंगूठी, कभी सोफा कम बैड और कभी जाने क्याक्या सामानों की डिमांड की गई. अंकिता प्यार में इस तरह अंधी थी, उसे सम?ा में नहीं आ रहा था कि यह डिमांड ही दहेज है. भाई, पापा सम?ाना चाहते तो उसे लगता, ये लोग आज भी दीपेन को दिल से स्वीकार नहीं कर रहे. मां ठीक से सम?ा नहीं पा रही थी कि क्या करे. बेटी का दिल भी नहीं तोड़ना चाहती थी और पति व बेटे के तर्क भी सही लग रहे थे.

…और अंकिता शादी के बाद इलाहाबाद आ गई. बेहद खुश थी वह. घर ज्यादा बड़ा नहीं था. तीन छोटेछोटे कमरे थे. छोटा सा ड्राइंगरूम, किचन और बाथरूम. वह सोचती, यहां रहना कितने दिन है. उसे बेंगलुरू जाना है.

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Writer- डा. कविता कुमारी

बालकनी में अकेली बैठी अंकिता की टेबल पर रखी कौफी ठंडी हो रही थी. हलकी बूंदाबांदी अब मूसलाधार बारिश में बदल गई थी. वह पानी की मोटीमोटी धारों को एकटक निहार रही थी लेकिन उस का दिमाग कहीं और था. मम्मीपापा वकील से बात करने गए थे, घर में वह अकेली थी. उस की नजरों के सामने बारबार श्वेता दी का चेहरा आ रहा था.

श्वेता दी… उस की जेठानी. कहने को उन दोनों का रिश्ता देवरानीजेठानी का था लेकिन श्वेता ही सही माने में उस की बड़ी बहन साबित हुई. अगर वह न होती तो न जाने क्या होता उस के साथ. उन्होंने उसे उस नर्क से निकाला जहां वह स्वर्ग की तलाश में गई थी.

हां, स्वर्ग से भी सुंदर अपना घर बसाने की चाहत में उस ने दीपेन का साथ चुना था. दोनों एक ही औफिस में काम करते थे. दोनों में दोस्ती हुई जो धीरेधीरे प्यार में बदल गई. यह कब, कैसे हुआ, अंकिता को पता ही न चला. हर प्रेमी जोड़े की तरह वे साथ जीनेमरने की कसमें खाते, हाथों में हाथ डाले मौल में घूमते, लंचडिनर साथ में करते. दीपेन उस के आगेपीछे डोलता रहता. उस की खूब केयर करता. अंकिता उस के इसी केयरिंग नेचर पर फिदा थी.

उसे याद है, औफिस का वाटर प्यूरीफायर खराब हो गया था. गरमी इतनी थी कि एयरकंडीशंड औफिस में भी गला सूख रहा था. उस ने कहा, ‘दीपेन, मैं प्यास से मर जाऊंगी. मु?ो प्यास कुछ ज्यादा ही लगती है और नौर्मल पानी सूट नहीं करता.’

‘यह बंदा किस दिन काम आएगा, अभी पानी की बोतल ले कर आता

हूं, यार.

‘3-4 किलोमीटर जाना होगा यार. शहर से इतनी दूर, ऐसी साइट पर हमें जौइन ही नहीं करना चाहिए था.’

‘मैडम, एक दिन पानी क्या नहीं मिला, आप ने नौकरी छोड़ने का प्लान बना लिया. बंदे को सेवा का मौका तो दीजिए…’ अदा से ?ाक कर उस ने ऐसे कहा जैसे प्रपोज कर रहा हो और तीर की तरह निकल गया. अंकिता खिड़की के पास आ कर, उस का मोटरसाइकिल स्टार्ट कर के जाना देखती रही. जब आंखों से ओ?ाल हो गया, उस ने मुसकरा कर हौले से सिर हिलाया ‘पागल’ और टेबल पर आ कर काम निबटाने लगी.

मम्मीपापा शादी की बात चलाने लगे थे. एक दिन अंकिता ने मां को फोन पर दीपेन के बारे में बताया. मां अचकचा गई, ‘यह क्या कह रही हो? अपने पापा को नहीं जानती? एक तो लड़का तुम्हारी पसंद का, उस पर जाति भी अलग. तुम जितना आसान सम?ा रही हो, उतना आसान नहीं है.’

‘मम्मी जातिवाति से कुछ नहीं होता. दिल मिलना चाहिए, बस. और मैं पहली लड़की नहीं जो दूसरी जाति के लड़के संग ब्याह रचाऊंगी. कितनी शादियां हो रही हैं समाज में. वह कितना अच्छा और केयरिंग है, तुम लोग एक बार मिल लो, फिर पता चल जाएगा.’

पापा नहीं माने. वह जिद पर अड़ गई. मां दोनों के बीच थी. बड़ी बहन और भाई की शादी हो चुकी थी. उन लोगों ने भी पापा को सम?ाया. मां निश्ंिचत थीं कि उस में कोई उस से छोटा नहीं था कि उस की शादी के बाद किसी तरह की परेशानी होगी. कुछ वक्त लगा. पापा थोड़ेथोड़े नरम पड़े. दीपेन से मिलने को तैयार हुए.

5-6 दिनों तक वे लोग बेंगलुरु के होटल में रुके. अंकिता गर्ल्स होस्टल में रहती थी. उस ने औफिस से छुट्टी ले ली. दीपेन मांपापा को भा गया. लंबा, इकहरा, गोरागोरा दीपेन खूब बातें करता और दिल खोल कर हंसता. सचमुच इतना केयरिंग न उन का बेटा था, न दामाद ही. मम्मी के हाथ में एक छोटा पैकेट भी देखता तो ?ाट ले लेता- ‘अरे आंटी, बेटे के होते आप सामान क्यों ढो रही हैं?’

रास्ते में सब का खयाल रखता. छोटीछोटी बातों का भी उसे ध्यान रहता. किसी चीज की जरूरत तो नहीं, प्यास लगी है क्या, थकावट हो रही होगी, आराम कर लें…

उस के बाद 2-3 बार वे लोग दीपेन से और मिले. वह हर बार हंसतामुसकराता एनर्जी से भरपूर मिला. आखिर पापा ने शादी के लिए हां कर दी. जब उस के मम्मीपापा से मिलने की बारी आई, उस ने कहा कि आप लोग इतनी दूर कहां जाइएगा, मम्मीपापा पटना जाने वाले हैं, वहीं उन से मिल लीजिएगा. उस का अपना घर इलाहाबाद था. उन लोगों को आइडिया ठीक लगा.

बूआ के बेटे की शादी थी. सब लोग

पटना आए. दीपेन के मम्मीपापा,

भाईभाभी और उन के दोनों बच्चे. सभी खुशमिजाज और मिलनसार थे. हां, सुंदरसलोनी भाभी बात कम कर रही थीं. शांत स्वभाव की थीं शायद. अंकिता का रिश्ता वहीं पक्का हो गया. पंडितजी ने दिन, मुहूर्त भी निकलवा दिया. दानदहेज की बात नहीं हुई. दीपेन के पापा ने मजाक में कहा, ‘समधीजी, अंकिता आप  की सब से छोटी और लाड़ली बेटी है. इस के लिए आप ने बहुतकुछ जोड़ कर रखा ही होगा. अब और आप को करना भी क्या है?’

‘भला यह भी कहने की बात है? शादी में समधीजी दिल खोल कर

खर्च करेंगे. यह शादी शानदार होगी,

क्यों समधीजी?’ दीपेन की मां ने हंस

कर कहा.

शादी के दस दिन पहले दीपेन के पापा का फोन आया, ‘समधीजी, दीपेन बड़बोला लगता है लेकिन अंदर से संकोची है. उस की चाहत थी एक गाड़ी अंकिता के लिए आप उसे देते. खुद की गाड़ी खरीदने में तो काफी वक्त लग जाएगा. वैसे, वह आप से कहने को मना कर रहा था लेकिन मैं ने कहा कि इच्छा को इतना क्या दबाना. आप गाड़ी के लिए रुपए ही भेज दीजिए, दीपेन को यहां एक गाड़ी पसंद आ गई है, साढ़े दस लाख की है. लेकिन शोरूम हमारे जानपहचान वालों का है, वे डिस्काउंट दे रहे हैं. दस लाख तक में मिल जाएगी.’

पापा से कुछ कहते नहीं बना. भैया ने सुना तो ताव खा गया, ‘अरे, यह तो सरासर दहेज है. इतनी जल्दी हम कहां से लाएंगे. वे लोग लालची लग रहे हैं.’

अंकिता को बुरा लगा. एक गाड़ी मांग रहा है, वह भी मेरे लिए. भैया वह भी देना नहीं चाहता. शादी के बाद वह बदल गया है. बहन की खुशी कोई माने नहीं रखती. शादी के दिन बहुत कम बचे थे. सारी तैयारी हो चुकी थी. पैसे भी काफी खर्च हो चुके थे. मानमर्यादा की बात थी. सिर्फ इस बात के लिए शादी तोड़ना मूर्खता थी. फिर अंकिता कहां मानने वाली थी. किसी तरह रुपयों का इंतजाम कर के उन लोगों को देना ही पड़ा.

उस के बाद शादी के दिन तक बड़े सलीके से कभी चेन, कभी अंगूठी, कभी सोफा कम बैड और कभी जाने क्याक्या सामानों की डिमांड की गई. अंकिता प्यार में इस तरह अंधी थी, उसे सम?ा में नहीं आ रहा था कि यह डिमांड ही दहेज है. भाई, पापा सम?ाना चाहते तो उसे लगता, ये लोग आज भी दीपेन को दिल से स्वीकार नहीं कर रहे. मां ठीक से सम?ा नहीं पा रही थी कि क्या करे. बेटी का दिल भी नहीं तोड़ना चाहती थी और पति व बेटे के तर्क भी सही लग रहे थे.

…और अंकिता शादी के बाद इलाहाबाद आ गई. बेहद खुश थी वह. घर ज्यादा बड़ा नहीं था. तीन छोटेछोटे कमरे थे. छोटा सा ड्राइंगरूम, किचन और बाथरूम. वह सोचती, यहां रहना कितने दिन है. उसे बेंगलुरू जाना है.

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March 26, 2022 at 10:24AM

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