Wednesday 4 May 2022

उस एक दिन की बात- भाग 1: क्या हुआ था उस दिन?

पीयूषजी ने स्कूटर कंपाउंड में पार्क करते हुए घड़ी की ओर देखा. 7 बज रहे थे. उफ, आज फिर देर हो गई. ट्रैफिक जाम की वजह से हमेशा देर हो जाती है. ऊपर से हर दस कदम पर सिग्नल की फटकार. रैड सिग्नल पर फंसे तो समझिए कि सिग्नल के ग्रीन होने में जितना समय लगेगा उतने में आप आराम से एक कप कौफ़ी सुड़क सकते हैं. मेन रोड के जाम से पिंड छुड़ाने के लिए आसपास की गलियों-उपगलियों को भी आजमाया. वहां समस्याएं अजब तरह की मिलीं. रास्ते के बीचोंबीच गाय, भैंस और सांड जैसे मवेशी बेखौफ हांडते दिखे, मानो गलियां संसद का गलियारा हों जहां नेतागण छुट्टे मटरगश्ती करते रहते हैं.

किसी मवेशी को जरा छू भी गई गाड़ी कि बवाल शुरू. एक महीने पहले तक पीयूषजी को शाम को घर लौटने की इतनी हड़बड़ी नहीं रहती थी. औफिस समय के बाद भी साथियों से गपशप चलती रहती. औफिस से दस कदम पर तिवाड़ी की चाय की गुमटी थी, जायके वाली स्पैशल चाय के लिए मशहूर. चाय के बहाने मिलनेजुलने का शानदार अड्डा. औफिस से निकल कर खास साथियों के साथ वहां चाय के साथ ठहाके चलते.

पीयूषजी पीडब्लूडी में जौब करते हैं. काम का अधिक दबाब नहीं. पुरानी बस्ती में घर है. पति,पत्नी और 6 साल का बेटा आयुष. छोटा परिवार. पत्नी तीखे नाकनक्श और छरहरे बदन की सुंदर युवती. शांत और संतुष्ट प्रकृति की घरेलू जीव. दोनों के बीच अच्छी कैमिस्ट्री थी. शाम को घर लौटने पर पीयूष जी के ठहाकों से घर खिल उठता. पत्नी के इर्दगिर्द बने रहने और उस से चुहल करने के ढेरों बहाने जेहन में उपजते रहते.

पत्नी चौके में व्यस्त रहती, वे बैठक से आवाज लगाते, ‘उर्मि, एक मिनट के लिए आओ,जरूरी काम है.’  पत्नी का जवाब आता, ‘अभी टाइम नहीं. सब्जी बना रही हूं.’  वे तुर्की बतुर्की हुंकारते, ‘ठीक है, मैं ही वहां आ जाता हूं. दोनों मिल कर रागभैरवी में गाते हुए सब्जी बनाएंगे.’ फिर लपकते हुए चौके में आते और उर्मि को बांहों में समेट लेते. उर्मि पति के प्रेमिल जनून पर निहाल हो उठती. टीवी देखते, बंटी के साथ खेलतेबतियाते और उस का होमवर्क करातेकराते समय कब बीत जाता, पता ही न चलता. सुबह उठते और स्वयं बाजार जा कर घर का सौदासुलफ के अलावा दूर सब्जीमंडी से ताजा सब्जी भी लाते, शौक से बिना ऊबे.

सबकुछ ठीक चल रहा था कि एक महीने पहले ऐसा क्या हो गया कि उन की सारी दिनचर्या ही उलटपुलट गई. पीयूषजी की शिक्षादीक्षा कसबे में हुई थी. कसबाई संस्कार से अभी तक मुक्त नहीं हो पाए थे. शहर के लटकेझटके से पूरे अभ्यस्त भी नहीं. सोशल मीडिया का नाम सुना था. यह होता क्या है, बिलकुल नहीं जानते थे. सहकर्मियों के बीच आपसी बातचीत में फेसबुक, व्हाट्सऐप जैसे जुमले उड़ते हुए कानों में पड़ते जरूर पर उन्होंने इन सब पर कभी ध्यान देने की कोशिश नहीं की. उन के पास मोबाइल छोटा वाला था.

औफिस में मिश्रा से उन की ज्यादा पटती. एक दिन शाम को औफिस से निकलते हुए उन्होंने मिश्रा से कहा, ‘आज पुचका खाने का मन कर रहा. चलो, पुचका खाते हैं. अहा हा हा, इमली के खट्टेमीठे पानी की याद आते ही मुंह मे पानी भर आया.’

मिश्रा हिनहिनाते हुए हंसा, ‘सौरी सर, फिर कभी. आज जरूरी काम है.’

ऐसा क्या जरूरी काम आ गया कि दस मिनट भी स्पेयर नहीं कर सकते?’

‘सुगंधा को चैटिंग का टाइम दिया हुआ है 6 बजे का,’ मिश्रा खींसे निपोरा.

‘सुगंधा…?’

‘फेसबुकिया फ्रैंड… कल विस्तार से समझाऊंगा सोशल मीडिया के बारे में, ठीक?’  मिश्रा बाइक पर बैठ कर फुर्र हो गया.

दूसरे दिन औफिस औवर के बाद तिवाड़ी की गुमटी में एक भांड चाय की गुरुदक्षिणा के एवज में मिश्रा ने पीयूषजी को फेसबुक, व्हाट्सऐप, मैसेंजर, ट्विटर आदि सोशल मीडिया की विस्तार से दीक्षा दी तो पीयूषजी के ज्ञानचक्षु खुल गए.

‘देश के हर कोने से दोस्त मिलेंगे. मित्र भी और मित्राणियां भी,’  मिश्रा खिलखिलाया, परिवार के सीमित दायरे के कुएं को हिंद महासागर का विस्तार मिलेगा. यथार्थ से परे किंतु उस के समानांतर एक और विलक्षण दुनिया, जिस की बात ही निराली है. उस में एक बार प्रवेश करें, तभी जान सकेंगे, सर.’

पीयूषजी को एहसास हुआ, मिश्रा के सामने सामान्य ज्ञान के स्तर पर कैसे तो अबोध बच्चे जैसे हैं वे. इलैक्ट्रौनिक तकनीक कितनी उन्नत हो गई, उन्हें पता ही नहीं. लोग घरबैठे

विराट दुनिया का भ्रमण कर रहे हैं, वे अभी भी कुंए के मेढ़क रहे.

दूसरे दिन ही मिश्रा के संग जा कर बढ़िया मौडल का एंड्रौयड फोन खरीद लाए. फोन क्या,

जादुई चिराग ही था जैसे. बटन दबाते ही कहांकहां के तरहतरह के लोगों से संपर्क होते निमिष मात्र लगता. चिराग के व्यापक परिचालन की ट्रेनिंग भी बाकायदा मिश्रा ने उन्हें दे दी.

सोशल मीडिया से जुड़ते ही पीयूषजी की जिंदगी में क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया. फेसबुक पर मित्रों की संख्या देखते ही देखते हनुमान की पूंछ की तरह बढ़ने लगी. विभिन्न रुचि व क्षेत्र के मित्र बने. कई ललनाओं ने ललक कर उन की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया जिन्हें बड़ी नजाकत से उन्होंने थाम लिया. कइयों से खुद अपनी पहल पर दोस्ती गांठी.

फेसबुक के न्यूज़फीड को ऊपर खिसकाते घंटों बीत जाते. न मन भरता और न पोस्ट का ही अंत होता. ऊपर ठेलते रहो, नीचे से पोस्ट द्रौपदी के चीर की तरह निकलते रहते. व्हाट्सऐप और मैसेंजर पर चैट का सिलसिला भी खूब जमने लगा.

कुछ ही समय मे आलम यह हो गया कि हर समय  खुले  मोड में मोबाइल उन के हाथ में रहने लगा. राह में चल रहे हैं, नजरें मोबाइल पर. खाना खा रहे हैं, नजरें मोबाइल पर. किसी से बात कर रहें हैं, नजरें मोबाइल पर. न सूचनाओं का अंत होता न चैट पर विराम. हर दो मिनट पर न्यूजफीड को देर तक ऊपर सरकाने और हर तीसरे मिनट  नोटिफिकेशन चैक करने की लत लग गई. पता नहीं किस मित्र का कब और कैसा मैसेज या कमैंट आ गया हो. अपडेट रहना जरूरी है.

दोपहर ढलते ही नजरें बेसब्री से बारबार घड़ी की ओर उठ जातीं. औफिस समय खत्म होने का इंतजार रहता. लगता, जैसे किसी षड्यंत्र के तहत घड़ी के कांटे जानबूझ कर धीमी चाल से चल रहे हैं. कोफ्त से मन फनफना उठता. औफिस से निकल कर सीधे घर की ओर दौड़ते.

घर आ कर हड़बड़ करते, फ्रैश होते और मोबाइल लिए सोफे पर जो ढहते तो शाम के चायनाश्ता से ले कर रात के डिनर तक का सारा काम वहीं लेटेबैठे होता. पत्नी से संवाद सिर्फ हां-हूं तक सिमट गया. ठहाके और चुहल तो पता नहीं कहां अंतर्ध्यान हो गए थे.

पीयूषजी के पास अब घर के कामकाज के लिए समय नहीं रहा. पहले वे शाम को औफिस स लौट कर चाय पीते, टीवी देखते, आयुष का होमवर्क करा देते थे. होमवर्क कराते हुए उर्मि के साथ चुहल भी चलती रहती. अब उर्मि से साफ कह दिया कि 3 लोगों का खाना बनाने में ऐसा थोड़े ही है कि शाम का सारा समय खप जाए. उन्हें डिस्टर्ब न करें और आयुष का होमवर्क खुद करा दें. सब्जी बाजार व मेन मार्केट घर से दूर पड़ता था. पहले वे स्वयं स्कूटर से जा कर ताजा सब्जी तथा अन्य सामान ले आते थे. अब उन का सारा ध्यान सोशल मीडिया की ऐप्स पर रहता और यह काम भी उर्मि के जिम्मे आ गया.

बैड पर भी मोबाइल उन की  कंगारू-गोद  में दुबका रहता. उर्मि चौके का काम समेट कर और बेटे को सुला कर पास आ लेटती और इंतजार करती कि हुजूर को इधर नजरें इनायत करने की फुरसत मिले तो दोचार प्यार की बातें हों. पर बहुधा ऐसा नहीं हो पाता. उस समय पीयूषजी कुछ खास ललनाओं से चैट में मशगूल रहते. सूखे इंतजार के बाद आखिर उर्मि की आंखें ढलक जातीं.

कई बार ऐसा होता कि रात के 11 बजे किसी मित्र से वीडियो चैट कर रहे होते. उधर से मित्र गरम कौफ़ी की चुस्कियां लेता दिखता. कौफ़ी से उड़ती भाप आभासी होने बावजूद नथुनों में घुस कर खलबली मचाने लगती. वह खलबली कैसे शांत होती. आभासी कौफ़ी हवा से निकल कर तो नमूदार होने से रही. बगल में थकीहारी लेटी उर्मि को जगाते और कौफ़ी बना लाने का आदेश फनफना देते. पतिपरायण उर्मि को मन मार कर उठना ही पड़ता.

घड़ी की ओर नजर गई, साढ़े छह बजे थे. तेजी से कंपाउंड में स्कूटर खड़ा किया और पांच मिनट में फ्रैश हो कर सोफे पर चले आए. उर्मि चायनाश्ते की तैयारी में लग गई. पीयूषजी ने मोबाइल औन कर के पहले फेसबुक पर क्लिक किया. स्क्रीन पर गोलगोल घूमता छोटा वृत्त उभर आया. वृत्त एक लय में घूम रहा था…और घूमे जा रहा था, निर्बाध. ओह, ऐप खुलने में इतनी देर. उन्होंने मोबाइल को बंद कर के फिर औन किया.  प्रकट भये कृपाला  की तर्ज पर फिर वही वृत्त. खीझ कर औफऔन की क्रिया को कई बार दुहरा दिया. वृत्त नृत्य बरकरार रहा. इस्स… झटके से फेसबुक बंद कर के व्हाट्सऐप पर उंगली दबाई. मन में सोचा, फेसबुक बाद में देखेंगे. व्हाट्सऐप पर भी पहले जैसा वृत्त अवतरित हो आया. यह क्या हो रहा है आज. उत्तेजना में एकएक कर के मैसेंजर और ट्विटर से भी नूराकुश्ती की. पर हाय… लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल. हर जगह मुंह चिढ़ाता वही चक्र मौजूद.

उन का ध्यान इंटरनैट चैक कर लेने की ओर गया. धत्त तेरी… नैट तो सींग-पूंछ समेट करकुंभकर्णी नींद में सोया पड़ा है. बिना नैट के कोई भी ऐप खुले, तो कैसे. लेकिन नैट गायब क्यों हो सकता है. पिछले हफ्ते ही 3 महीने का पैक भराया था. कोई तकनीकी अड़चन है शायद. बचपन के दिनों की याद हो आई जब घर में ट्रांजिस्टर हुआ करता था. अकसर ट्रांजिस्टर अड़ियल घोड़ी की तरह स्टार्ट होने से इनकार कर देता. तब पिताजी उस पर दाएंबांए दोचार थाप लगाते तो वह बज उठता. पीयूषजी ने उत्तेजना से भरकर मोबाइल के बटनों को बेतरतीब टीपा, कि शायद नैट जुड़ जाए. पर सब बेकार.

उन्होंने आग्नेय नेत्रों से मोबाइल को घूरा. 15 हजार रुपए का नया सैट. इतनी जल्दी फुस्स. हंह… फनफना कर मिश्रा को फोन लगाया, ‘कैसा मोबाइल दिलाए मिश्राजी, नैट नहीं पकड़ रहा?’

‘मोबाइल चंगा है, सर. नैट कहां से पकड़ेगा, पूरे शहर की इंटरनैट सर्विस 3 दिनों के लिए बंद कर दी है सरकार ने.’

‘अरे,’  पीयूषजी घोर आश्चर्य से भर गए.

‘जामा मसजिद के पास दंगा हो गया. रैफ बुलानी पड़ी.’

जामा मसजिद तो शहर के धुर उत्तरी छोर पर है.’

हां सर, खबर है कि एक समुदाय विशेष के 2 गुटों में आपसी रंजिश से मामूली मारपीट हुई.

दंगा की आशंका से सरकार बहादुर का कलेजा कांप उठा. बस, आव देखा न ताव, ब्रह्मास्त्र

चला कर नैट सस्पैंड.’

इंटरनेट बंद, यानी डेटा बंद. डेटा बंद तो मोबाइल कोमा में जाना ही है क्योंकि इस की जान

तो डेटा नाम के अबूझ से जीव में बसती है न.

अब..?

‘अब’  सलीब की तरह जेहन में टंग गया. समय देखा, सिर्फ 6:45. 11 बजने से पहले नहीं सोते. कैसे कटेगा समय? सामने टेबल पर कछुए सा सींगपूंछ समेटे पड़ा था सैट.

पीयूषजी की आह निकल गई, ‘हाय, तुम न जाने किस जहां में खो गए, हम भरी दुनिया में

तनहा हो गए…’ आभासी दुनिया में विचरण करतेकरते समय कब बीत जाता, पता ही न चलता था. यथार्थ में क्या है…वही घरगृहस्थी, वही पत्नीबच्चे, वही चिंतातनाव. सबकुछ बासी व बेस्वाद. मन सूखे कुएं सा सायंसायं करने लगा. कुछ पल शून्य में देखते हुए निश्च्छल निश्चल बैठे रहे. फिर बुझे मन से उठे. पूरे घर का बेवजह चक्कर लगा कर वापस सोफे पर आ बैठे. रिमोट दबाकर टीवी औन किया. जल्दीजल्दी न्यूज़ व शो के पांचसात चैनल बदल डाले. मन नहीं रमा. चारपांच ऐप्स के सिवा मोबाइल के अन्य उपयोग की न तो जानकारी थी, न ही उन में रुचि. दिमाग बेचैन और जी उदास हो गया. उदासी पलकों तक चली आयी तो दबाव से कुछ पल के लिए पलकें ढलक गईं. वे अबूझ चिंतन में चले गए.

तभी उर्मि नाश्ता ले आई. बेसन के चिल्ले, साथ में गर्मागर्म चाय.

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पीयूषजी ने स्कूटर कंपाउंड में पार्क करते हुए घड़ी की ओर देखा. 7 बज रहे थे. उफ, आज फिर देर हो गई. ट्रैफिक जाम की वजह से हमेशा देर हो जाती है. ऊपर से हर दस कदम पर सिग्नल की फटकार. रैड सिग्नल पर फंसे तो समझिए कि सिग्नल के ग्रीन होने में जितना समय लगेगा उतने में आप आराम से एक कप कौफ़ी सुड़क सकते हैं. मेन रोड के जाम से पिंड छुड़ाने के लिए आसपास की गलियों-उपगलियों को भी आजमाया. वहां समस्याएं अजब तरह की मिलीं. रास्ते के बीचोंबीच गाय, भैंस और सांड जैसे मवेशी बेखौफ हांडते दिखे, मानो गलियां संसद का गलियारा हों जहां नेतागण छुट्टे मटरगश्ती करते रहते हैं.

किसी मवेशी को जरा छू भी गई गाड़ी कि बवाल शुरू. एक महीने पहले तक पीयूषजी को शाम को घर लौटने की इतनी हड़बड़ी नहीं रहती थी. औफिस समय के बाद भी साथियों से गपशप चलती रहती. औफिस से दस कदम पर तिवाड़ी की चाय की गुमटी थी, जायके वाली स्पैशल चाय के लिए मशहूर. चाय के बहाने मिलनेजुलने का शानदार अड्डा. औफिस से निकल कर खास साथियों के साथ वहां चाय के साथ ठहाके चलते.

पीयूषजी पीडब्लूडी में जौब करते हैं. काम का अधिक दबाब नहीं. पुरानी बस्ती में घर है. पति,पत्नी और 6 साल का बेटा आयुष. छोटा परिवार. पत्नी तीखे नाकनक्श और छरहरे बदन की सुंदर युवती. शांत और संतुष्ट प्रकृति की घरेलू जीव. दोनों के बीच अच्छी कैमिस्ट्री थी. शाम को घर लौटने पर पीयूष जी के ठहाकों से घर खिल उठता. पत्नी के इर्दगिर्द बने रहने और उस से चुहल करने के ढेरों बहाने जेहन में उपजते रहते.

पत्नी चौके में व्यस्त रहती, वे बैठक से आवाज लगाते, ‘उर्मि, एक मिनट के लिए आओ,जरूरी काम है.’  पत्नी का जवाब आता, ‘अभी टाइम नहीं. सब्जी बना रही हूं.’  वे तुर्की बतुर्की हुंकारते, ‘ठीक है, मैं ही वहां आ जाता हूं. दोनों मिल कर रागभैरवी में गाते हुए सब्जी बनाएंगे.’ फिर लपकते हुए चौके में आते और उर्मि को बांहों में समेट लेते. उर्मि पति के प्रेमिल जनून पर निहाल हो उठती. टीवी देखते, बंटी के साथ खेलतेबतियाते और उस का होमवर्क करातेकराते समय कब बीत जाता, पता ही न चलता. सुबह उठते और स्वयं बाजार जा कर घर का सौदासुलफ के अलावा दूर सब्जीमंडी से ताजा सब्जी भी लाते, शौक से बिना ऊबे.

सबकुछ ठीक चल रहा था कि एक महीने पहले ऐसा क्या हो गया कि उन की सारी दिनचर्या ही उलटपुलट गई. पीयूषजी की शिक्षादीक्षा कसबे में हुई थी. कसबाई संस्कार से अभी तक मुक्त नहीं हो पाए थे. शहर के लटकेझटके से पूरे अभ्यस्त भी नहीं. सोशल मीडिया का नाम सुना था. यह होता क्या है, बिलकुल नहीं जानते थे. सहकर्मियों के बीच आपसी बातचीत में फेसबुक, व्हाट्सऐप जैसे जुमले उड़ते हुए कानों में पड़ते जरूर पर उन्होंने इन सब पर कभी ध्यान देने की कोशिश नहीं की. उन के पास मोबाइल छोटा वाला था.

औफिस में मिश्रा से उन की ज्यादा पटती. एक दिन शाम को औफिस से निकलते हुए उन्होंने मिश्रा से कहा, ‘आज पुचका खाने का मन कर रहा. चलो, पुचका खाते हैं. अहा हा हा, इमली के खट्टेमीठे पानी की याद आते ही मुंह मे पानी भर आया.’

मिश्रा हिनहिनाते हुए हंसा, ‘सौरी सर, फिर कभी. आज जरूरी काम है.’

ऐसा क्या जरूरी काम आ गया कि दस मिनट भी स्पेयर नहीं कर सकते?’

‘सुगंधा को चैटिंग का टाइम दिया हुआ है 6 बजे का,’ मिश्रा खींसे निपोरा.

‘सुगंधा…?’

‘फेसबुकिया फ्रैंड… कल विस्तार से समझाऊंगा सोशल मीडिया के बारे में, ठीक?’  मिश्रा बाइक पर बैठ कर फुर्र हो गया.

दूसरे दिन औफिस औवर के बाद तिवाड़ी की गुमटी में एक भांड चाय की गुरुदक्षिणा के एवज में मिश्रा ने पीयूषजी को फेसबुक, व्हाट्सऐप, मैसेंजर, ट्विटर आदि सोशल मीडिया की विस्तार से दीक्षा दी तो पीयूषजी के ज्ञानचक्षु खुल गए.

‘देश के हर कोने से दोस्त मिलेंगे. मित्र भी और मित्राणियां भी,’  मिश्रा खिलखिलाया, परिवार के सीमित दायरे के कुएं को हिंद महासागर का विस्तार मिलेगा. यथार्थ से परे किंतु उस के समानांतर एक और विलक्षण दुनिया, जिस की बात ही निराली है. उस में एक बार प्रवेश करें, तभी जान सकेंगे, सर.’

पीयूषजी को एहसास हुआ, मिश्रा के सामने सामान्य ज्ञान के स्तर पर कैसे तो अबोध बच्चे जैसे हैं वे. इलैक्ट्रौनिक तकनीक कितनी उन्नत हो गई, उन्हें पता ही नहीं. लोग घरबैठे

विराट दुनिया का भ्रमण कर रहे हैं, वे अभी भी कुंए के मेढ़क रहे.

दूसरे दिन ही मिश्रा के संग जा कर बढ़िया मौडल का एंड्रौयड फोन खरीद लाए. फोन क्या,

जादुई चिराग ही था जैसे. बटन दबाते ही कहांकहां के तरहतरह के लोगों से संपर्क होते निमिष मात्र लगता. चिराग के व्यापक परिचालन की ट्रेनिंग भी बाकायदा मिश्रा ने उन्हें दे दी.

सोशल मीडिया से जुड़ते ही पीयूषजी की जिंदगी में क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया. फेसबुक पर मित्रों की संख्या देखते ही देखते हनुमान की पूंछ की तरह बढ़ने लगी. विभिन्न रुचि व क्षेत्र के मित्र बने. कई ललनाओं ने ललक कर उन की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया जिन्हें बड़ी नजाकत से उन्होंने थाम लिया. कइयों से खुद अपनी पहल पर दोस्ती गांठी.

फेसबुक के न्यूज़फीड को ऊपर खिसकाते घंटों बीत जाते. न मन भरता और न पोस्ट का ही अंत होता. ऊपर ठेलते रहो, नीचे से पोस्ट द्रौपदी के चीर की तरह निकलते रहते. व्हाट्सऐप और मैसेंजर पर चैट का सिलसिला भी खूब जमने लगा.

कुछ ही समय मे आलम यह हो गया कि हर समय  खुले  मोड में मोबाइल उन के हाथ में रहने लगा. राह में चल रहे हैं, नजरें मोबाइल पर. खाना खा रहे हैं, नजरें मोबाइल पर. किसी से बात कर रहें हैं, नजरें मोबाइल पर. न सूचनाओं का अंत होता न चैट पर विराम. हर दो मिनट पर न्यूजफीड को देर तक ऊपर सरकाने और हर तीसरे मिनट  नोटिफिकेशन चैक करने की लत लग गई. पता नहीं किस मित्र का कब और कैसा मैसेज या कमैंट आ गया हो. अपडेट रहना जरूरी है.

दोपहर ढलते ही नजरें बेसब्री से बारबार घड़ी की ओर उठ जातीं. औफिस समय खत्म होने का इंतजार रहता. लगता, जैसे किसी षड्यंत्र के तहत घड़ी के कांटे जानबूझ कर धीमी चाल से चल रहे हैं. कोफ्त से मन फनफना उठता. औफिस से निकल कर सीधे घर की ओर दौड़ते.

घर आ कर हड़बड़ करते, फ्रैश होते और मोबाइल लिए सोफे पर जो ढहते तो शाम के चायनाश्ता से ले कर रात के डिनर तक का सारा काम वहीं लेटेबैठे होता. पत्नी से संवाद सिर्फ हां-हूं तक सिमट गया. ठहाके और चुहल तो पता नहीं कहां अंतर्ध्यान हो गए थे.

पीयूषजी के पास अब घर के कामकाज के लिए समय नहीं रहा. पहले वे शाम को औफिस स लौट कर चाय पीते, टीवी देखते, आयुष का होमवर्क करा देते थे. होमवर्क कराते हुए उर्मि के साथ चुहल भी चलती रहती. अब उर्मि से साफ कह दिया कि 3 लोगों का खाना बनाने में ऐसा थोड़े ही है कि शाम का सारा समय खप जाए. उन्हें डिस्टर्ब न करें और आयुष का होमवर्क खुद करा दें. सब्जी बाजार व मेन मार्केट घर से दूर पड़ता था. पहले वे स्वयं स्कूटर से जा कर ताजा सब्जी तथा अन्य सामान ले आते थे. अब उन का सारा ध्यान सोशल मीडिया की ऐप्स पर रहता और यह काम भी उर्मि के जिम्मे आ गया.

बैड पर भी मोबाइल उन की  कंगारू-गोद  में दुबका रहता. उर्मि चौके का काम समेट कर और बेटे को सुला कर पास आ लेटती और इंतजार करती कि हुजूर को इधर नजरें इनायत करने की फुरसत मिले तो दोचार प्यार की बातें हों. पर बहुधा ऐसा नहीं हो पाता. उस समय पीयूषजी कुछ खास ललनाओं से चैट में मशगूल रहते. सूखे इंतजार के बाद आखिर उर्मि की आंखें ढलक जातीं.

कई बार ऐसा होता कि रात के 11 बजे किसी मित्र से वीडियो चैट कर रहे होते. उधर से मित्र गरम कौफ़ी की चुस्कियां लेता दिखता. कौफ़ी से उड़ती भाप आभासी होने बावजूद नथुनों में घुस कर खलबली मचाने लगती. वह खलबली कैसे शांत होती. आभासी कौफ़ी हवा से निकल कर तो नमूदार होने से रही. बगल में थकीहारी लेटी उर्मि को जगाते और कौफ़ी बना लाने का आदेश फनफना देते. पतिपरायण उर्मि को मन मार कर उठना ही पड़ता.

घड़ी की ओर नजर गई, साढ़े छह बजे थे. तेजी से कंपाउंड में स्कूटर खड़ा किया और पांच मिनट में फ्रैश हो कर सोफे पर चले आए. उर्मि चायनाश्ते की तैयारी में लग गई. पीयूषजी ने मोबाइल औन कर के पहले फेसबुक पर क्लिक किया. स्क्रीन पर गोलगोल घूमता छोटा वृत्त उभर आया. वृत्त एक लय में घूम रहा था…और घूमे जा रहा था, निर्बाध. ओह, ऐप खुलने में इतनी देर. उन्होंने मोबाइल को बंद कर के फिर औन किया.  प्रकट भये कृपाला  की तर्ज पर फिर वही वृत्त. खीझ कर औफऔन की क्रिया को कई बार दुहरा दिया. वृत्त नृत्य बरकरार रहा. इस्स… झटके से फेसबुक बंद कर के व्हाट्सऐप पर उंगली दबाई. मन में सोचा, फेसबुक बाद में देखेंगे. व्हाट्सऐप पर भी पहले जैसा वृत्त अवतरित हो आया. यह क्या हो रहा है आज. उत्तेजना में एकएक कर के मैसेंजर और ट्विटर से भी नूराकुश्ती की. पर हाय… लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल. हर जगह मुंह चिढ़ाता वही चक्र मौजूद.

उन का ध्यान इंटरनैट चैक कर लेने की ओर गया. धत्त तेरी… नैट तो सींग-पूंछ समेट करकुंभकर्णी नींद में सोया पड़ा है. बिना नैट के कोई भी ऐप खुले, तो कैसे. लेकिन नैट गायब क्यों हो सकता है. पिछले हफ्ते ही 3 महीने का पैक भराया था. कोई तकनीकी अड़चन है शायद. बचपन के दिनों की याद हो आई जब घर में ट्रांजिस्टर हुआ करता था. अकसर ट्रांजिस्टर अड़ियल घोड़ी की तरह स्टार्ट होने से इनकार कर देता. तब पिताजी उस पर दाएंबांए दोचार थाप लगाते तो वह बज उठता. पीयूषजी ने उत्तेजना से भरकर मोबाइल के बटनों को बेतरतीब टीपा, कि शायद नैट जुड़ जाए. पर सब बेकार.

उन्होंने आग्नेय नेत्रों से मोबाइल को घूरा. 15 हजार रुपए का नया सैट. इतनी जल्दी फुस्स. हंह… फनफना कर मिश्रा को फोन लगाया, ‘कैसा मोबाइल दिलाए मिश्राजी, नैट नहीं पकड़ रहा?’

‘मोबाइल चंगा है, सर. नैट कहां से पकड़ेगा, पूरे शहर की इंटरनैट सर्विस 3 दिनों के लिए बंद कर दी है सरकार ने.’

‘अरे,’  पीयूषजी घोर आश्चर्य से भर गए.

‘जामा मसजिद के पास दंगा हो गया. रैफ बुलानी पड़ी.’

जामा मसजिद तो शहर के धुर उत्तरी छोर पर है.’

हां सर, खबर है कि एक समुदाय विशेष के 2 गुटों में आपसी रंजिश से मामूली मारपीट हुई.

दंगा की आशंका से सरकार बहादुर का कलेजा कांप उठा. बस, आव देखा न ताव, ब्रह्मास्त्र

चला कर नैट सस्पैंड.’

इंटरनेट बंद, यानी डेटा बंद. डेटा बंद तो मोबाइल कोमा में जाना ही है क्योंकि इस की जान

तो डेटा नाम के अबूझ से जीव में बसती है न.

अब..?

‘अब’  सलीब की तरह जेहन में टंग गया. समय देखा, सिर्फ 6:45. 11 बजने से पहले नहीं सोते. कैसे कटेगा समय? सामने टेबल पर कछुए सा सींगपूंछ समेटे पड़ा था सैट.

पीयूषजी की आह निकल गई, ‘हाय, तुम न जाने किस जहां में खो गए, हम भरी दुनिया में

तनहा हो गए…’ आभासी दुनिया में विचरण करतेकरते समय कब बीत जाता, पता ही न चलता था. यथार्थ में क्या है…वही घरगृहस्थी, वही पत्नीबच्चे, वही चिंतातनाव. सबकुछ बासी व बेस्वाद. मन सूखे कुएं सा सायंसायं करने लगा. कुछ पल शून्य में देखते हुए निश्च्छल निश्चल बैठे रहे. फिर बुझे मन से उठे. पूरे घर का बेवजह चक्कर लगा कर वापस सोफे पर आ बैठे. रिमोट दबाकर टीवी औन किया. जल्दीजल्दी न्यूज़ व शो के पांचसात चैनल बदल डाले. मन नहीं रमा. चारपांच ऐप्स के सिवा मोबाइल के अन्य उपयोग की न तो जानकारी थी, न ही उन में रुचि. दिमाग बेचैन और जी उदास हो गया. उदासी पलकों तक चली आयी तो दबाव से कुछ पल के लिए पलकें ढलक गईं. वे अबूझ चिंतन में चले गए.

तभी उर्मि नाश्ता ले आई. बेसन के चिल्ले, साथ में गर्मागर्म चाय.

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May 05, 2022 at 08:17AM

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