Friday 6 May 2022

Mother’s Day 2022- टूटते सपने: भाग 1

‘‘अरुणाजी, आप का फोन,’’ वृद्धाश्रम के प्रबंधक मनोहरजी ने कहा.

‘मेरा फोन?’ अरुणा सोचने लगी, कौन हो सकता है.

‘‘आज कोई खास दिन है क्या, मनोहरजी?’’ अरुणा ने जिज्ञासा से पूछा.

‘‘हां, आज तो आप लोगों का ही दिन है.’’

‘‘हमारा दिन?’’ कह अरुणा ने मनोहरजी से फोन ले लिया, ‘‘हैलो.’’

‘‘हैप्पी मदर्स डे, मम्मा,’’ आभास का स्वर सुनाई दिया. अरुणा एक पल को रिसीवर हाथ में पकड़े स्तब्ध खड़ी रही. उस के मुंह से बोल भी नहीं फूट सके थे. बस, आंखें झरझर बह रही थीं, जिह्वा तालू से चिपक गई थी.

‘‘क्या हुआ, मम्मा, आप ठीक तो हैं न? मैं आश्रम वालों को हर माह पेमैंट भेज देता हूं. ओके, टेक केयर,’’ और फोन कट गया.

रिसीवर पकड़े हुए कुछ पल यों ही निशब्द बीत गए.

‘‘हो गई बात?’’

मनोहरजी के कहने पर ‘जी’ कह कर अरुणा ने फोन रख दिया. भारी कदमों से चलती हुई वह अपने कमरे में आ गई.

‘‘क्या हुआ? क्या व्हाइट हाउस से डिनर का निमंत्रण था?’’ मनोरमा ने चुटकी वाले अंदाज में कहा.

‘‘हां, तो? तेरे राम व लक्ष्मण ने नहीं बुलाया क्या? और बुलाएंगे भी क्यों, वे तो तेरे लिए फूलों का गुलदस्ता लाएंगे, घर से पकवान बनवा कर लाएंगे,’’ अरुणा ने भी मनोरमा को छेड़ने वाले अंदाज में कहा और दोनों ही हंसने लगीं.

अरुणा और मनोरमा दोनों आश्रम में रहती थीं और एकदूसरे की अभिन्न मित्र बन गई थीं. एक ही कमरे में दोनों रहती थीं. अरुणा 5 वर्षों से इस वृद्धाश्रम में रह रही थी. जब आभास अमेरिका जा रहा था तभी उस ने अरुणा को इस आश्रम में पहुंचा दिया था यह कह कर कि ‘मां, तुम अकेली कहां रहोगी, इस आश्रम में तुम्हारे सरीखे बहुत लोग हैं, मन भी लगा रहेगा, और उचित अवसर मिलते ही मैं तुम्हें ले जाऊंगा.’ और फिर वह अपनी पत्नी तथा दोनों बच्चों को ले कर चला गया. तब से अरुणा उस उचित अवसर की प्रतीक्षा कर रही थी जो शायद कभी नहीं आने वाला था.

कुछ यही हाल मनोरमा का भी था. वह दबंग किस्म की मुंहफट स्त्री थी. बिना सोचेसमझे किसी से कुछ भी कह देना उस की आदत में शामिल था. वह 2 बेटों की मां थी. दोनों मां की आंखों के तारे थे. उन का विवाह मनोरमा ने बहुत ठोकबजा कर अपनी पसंद की लड़कियों से कर दिया था. लेकिन जिस घड़े को वह इतना ठोकबजा कर लाई थी वही घड़ा पानी पड़ते ही रिसने लगा. कहने को तो वह 2-2 बेटों की मां थी लेकिन जब वृद्धावस्था आई तो उस का जीवन दयनीय हो गया. घर के जिस आंगन में दोनों बेटों की किलकारियां गूंजती थीं, हंसी के फौआरे छूटते थे वही विवाह के कुछ ही वर्षों बाद घर के 2 टुकड़े करवा कर अलगअलग रह रहे थे. वह अवाक् थी. किस के साथ वह रहे, दोनों ही तो उस के अपने थे, किंतु वह केवल यह सोच ही सकती थी. किसी बेटे ने यह नहीं कहा, ‘मां, तुम मेरे साथ रहोगी.’ वह जानती थी कि बेटे अपनीअपनी पत्नियों के अधीन थे और वे वही करेंगे जो उन की पत्नियां कहेंगी.

वह मौन सबकुछ अपने कक्ष से देखती थी किंतु कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं होती थी. क्या बेटे या बहुएं, यह भूल जाते हैं कि कल जब उन की जीवनसंध्या हो रही होगी, जब वे भी अशक्त बूढ़े हो जाएंगे तब उन का भी यही हश्र हो सकता है. उसे यह भी नहीं पता होता था कि आज किस बेटे के घर से उस के लिए खाना आदि आएगा. कभीकभी तो वह भूखी ही रह जाती थी. मां का तो बंटवारा हुआ नहीं था, दोनों ही एकदूसरे पर मां के लिए भोजन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी डाल देते थे.मनोरमा को अपनी परवरिश पर बड़ा नाज था. जब भी किसी स्त्री की दुरावस्था को देखती थी यही कहती थी, ‘पालनपोषण में कहीं कमी रह गई होगी वरना आज ये दिन क्यों देखने पड़ते?’ किंतु जब स्वयं पर गाज गिरी तब उसे अपनी गलती समझ में आने लगी. दूसरों को अपने बच्चों की नकेल को कस कर पकड़ने की सलाह देने वाली क्या स्वयं भी नकेल को कस कर पकड़ सकी थी? स्वभाव की तेज महिला को किसी का भी थोड़ा तेजी से बोलना बरदाश्त नहीं था. शायद उस की इसी तेजी ने या अधिक अपेक्षा रखने की चाहत ने उसे इस कगार पर पहुंचा दिया था. मां की इस दुरावस्था का भान होते ही उस की बेटी उसे अपने घर ले कर चली गई. 2 माह तो वहां ठीक से बीते किंतु उस का भी भरापूरा परिवार था. घर में सासससुर भी थे जिन्हें अब उस की उपस्थिति अखर रही थी. इस बात को मनोरमा अब अच्छी तरह समझ रही थी, कहीं उस के कारण बेटी का जीवन अस्तव्यस्त न हो जाए, उस ने समय रहते ही वहां से भी किनारा कर लिया और चुपचाप इस वृद्धाश्रम में आ गई. उसे पैसों का इतना अभाव नहीं था जितना कि अपनों के स्नेह का.

मनोरमा अपने विचारों में मगन थी कि अरुणा ने उसे कंधे से झकझोर कर हिला दिया, ‘‘क्या हुआ? खाने की घंटी नहीं सुनाई दे रही है? चल भोजनकक्ष में, सभी तो आ चुके हैं हम दोनों के सिवा. आज मिसरानी ने भरवां करेले बनाए हैं और खीर भी बनाई है. आज तो खाने में मजा आ जाएगा,’’ अरुणा ने उसे गुदगुदाने वाले लहजे में कहा किंतु मन्नो तो चुप थी. न जाने क्यों अरुणा की मनोरमा से इतनी मित्रता हो गई थी जबकि मनोरमा का रोबीला अंदाज, अक्खड़ी बोली किसी को भी पसंद नहीं आती थी. किंतु फिर भी दोनों में अच्छा सामंजस्य था, शायद दोनों का दुख एक ही था.

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‘‘अरुणाजी, आप का फोन,’’ वृद्धाश्रम के प्रबंधक मनोहरजी ने कहा.

‘मेरा फोन?’ अरुणा सोचने लगी, कौन हो सकता है.

‘‘आज कोई खास दिन है क्या, मनोहरजी?’’ अरुणा ने जिज्ञासा से पूछा.

‘‘हां, आज तो आप लोगों का ही दिन है.’’

‘‘हमारा दिन?’’ कह अरुणा ने मनोहरजी से फोन ले लिया, ‘‘हैलो.’’

‘‘हैप्पी मदर्स डे, मम्मा,’’ आभास का स्वर सुनाई दिया. अरुणा एक पल को रिसीवर हाथ में पकड़े स्तब्ध खड़ी रही. उस के मुंह से बोल भी नहीं फूट सके थे. बस, आंखें झरझर बह रही थीं, जिह्वा तालू से चिपक गई थी.

‘‘क्या हुआ, मम्मा, आप ठीक तो हैं न? मैं आश्रम वालों को हर माह पेमैंट भेज देता हूं. ओके, टेक केयर,’’ और फोन कट गया.

रिसीवर पकड़े हुए कुछ पल यों ही निशब्द बीत गए.

‘‘हो गई बात?’’

मनोहरजी के कहने पर ‘जी’ कह कर अरुणा ने फोन रख दिया. भारी कदमों से चलती हुई वह अपने कमरे में आ गई.

‘‘क्या हुआ? क्या व्हाइट हाउस से डिनर का निमंत्रण था?’’ मनोरमा ने चुटकी वाले अंदाज में कहा.

‘‘हां, तो? तेरे राम व लक्ष्मण ने नहीं बुलाया क्या? और बुलाएंगे भी क्यों, वे तो तेरे लिए फूलों का गुलदस्ता लाएंगे, घर से पकवान बनवा कर लाएंगे,’’ अरुणा ने भी मनोरमा को छेड़ने वाले अंदाज में कहा और दोनों ही हंसने लगीं.

अरुणा और मनोरमा दोनों आश्रम में रहती थीं और एकदूसरे की अभिन्न मित्र बन गई थीं. एक ही कमरे में दोनों रहती थीं. अरुणा 5 वर्षों से इस वृद्धाश्रम में रह रही थी. जब आभास अमेरिका जा रहा था तभी उस ने अरुणा को इस आश्रम में पहुंचा दिया था यह कह कर कि ‘मां, तुम अकेली कहां रहोगी, इस आश्रम में तुम्हारे सरीखे बहुत लोग हैं, मन भी लगा रहेगा, और उचित अवसर मिलते ही मैं तुम्हें ले जाऊंगा.’ और फिर वह अपनी पत्नी तथा दोनों बच्चों को ले कर चला गया. तब से अरुणा उस उचित अवसर की प्रतीक्षा कर रही थी जो शायद कभी नहीं आने वाला था.

कुछ यही हाल मनोरमा का भी था. वह दबंग किस्म की मुंहफट स्त्री थी. बिना सोचेसमझे किसी से कुछ भी कह देना उस की आदत में शामिल था. वह 2 बेटों की मां थी. दोनों मां की आंखों के तारे थे. उन का विवाह मनोरमा ने बहुत ठोकबजा कर अपनी पसंद की लड़कियों से कर दिया था. लेकिन जिस घड़े को वह इतना ठोकबजा कर लाई थी वही घड़ा पानी पड़ते ही रिसने लगा. कहने को तो वह 2-2 बेटों की मां थी लेकिन जब वृद्धावस्था आई तो उस का जीवन दयनीय हो गया. घर के जिस आंगन में दोनों बेटों की किलकारियां गूंजती थीं, हंसी के फौआरे छूटते थे वही विवाह के कुछ ही वर्षों बाद घर के 2 टुकड़े करवा कर अलगअलग रह रहे थे. वह अवाक् थी. किस के साथ वह रहे, दोनों ही तो उस के अपने थे, किंतु वह केवल यह सोच ही सकती थी. किसी बेटे ने यह नहीं कहा, ‘मां, तुम मेरे साथ रहोगी.’ वह जानती थी कि बेटे अपनीअपनी पत्नियों के अधीन थे और वे वही करेंगे जो उन की पत्नियां कहेंगी.

वह मौन सबकुछ अपने कक्ष से देखती थी किंतु कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं होती थी. क्या बेटे या बहुएं, यह भूल जाते हैं कि कल जब उन की जीवनसंध्या हो रही होगी, जब वे भी अशक्त बूढ़े हो जाएंगे तब उन का भी यही हश्र हो सकता है. उसे यह भी नहीं पता होता था कि आज किस बेटे के घर से उस के लिए खाना आदि आएगा. कभीकभी तो वह भूखी ही रह जाती थी. मां का तो बंटवारा हुआ नहीं था, दोनों ही एकदूसरे पर मां के लिए भोजन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी डाल देते थे.मनोरमा को अपनी परवरिश पर बड़ा नाज था. जब भी किसी स्त्री की दुरावस्था को देखती थी यही कहती थी, ‘पालनपोषण में कहीं कमी रह गई होगी वरना आज ये दिन क्यों देखने पड़ते?’ किंतु जब स्वयं पर गाज गिरी तब उसे अपनी गलती समझ में आने लगी. दूसरों को अपने बच्चों की नकेल को कस कर पकड़ने की सलाह देने वाली क्या स्वयं भी नकेल को कस कर पकड़ सकी थी? स्वभाव की तेज महिला को किसी का भी थोड़ा तेजी से बोलना बरदाश्त नहीं था. शायद उस की इसी तेजी ने या अधिक अपेक्षा रखने की चाहत ने उसे इस कगार पर पहुंचा दिया था. मां की इस दुरावस्था का भान होते ही उस की बेटी उसे अपने घर ले कर चली गई. 2 माह तो वहां ठीक से बीते किंतु उस का भी भरापूरा परिवार था. घर में सासससुर भी थे जिन्हें अब उस की उपस्थिति अखर रही थी. इस बात को मनोरमा अब अच्छी तरह समझ रही थी, कहीं उस के कारण बेटी का जीवन अस्तव्यस्त न हो जाए, उस ने समय रहते ही वहां से भी किनारा कर लिया और चुपचाप इस वृद्धाश्रम में आ गई. उसे पैसों का इतना अभाव नहीं था जितना कि अपनों के स्नेह का.

मनोरमा अपने विचारों में मगन थी कि अरुणा ने उसे कंधे से झकझोर कर हिला दिया, ‘‘क्या हुआ? खाने की घंटी नहीं सुनाई दे रही है? चल भोजनकक्ष में, सभी तो आ चुके हैं हम दोनों के सिवा. आज मिसरानी ने भरवां करेले बनाए हैं और खीर भी बनाई है. आज तो खाने में मजा आ जाएगा,’’ अरुणा ने उसे गुदगुदाने वाले लहजे में कहा किंतु मन्नो तो चुप थी. न जाने क्यों अरुणा की मनोरमा से इतनी मित्रता हो गई थी जबकि मनोरमा का रोबीला अंदाज, अक्खड़ी बोली किसी को भी पसंद नहीं आती थी. किंतु फिर भी दोनों में अच्छा सामंजस्य था, शायद दोनों का दुख एक ही था.

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