Monday 16 May 2022

कठघरे में प्यार- भाग 2: प्रो. विवेक शास्त्री के साथ क्या हुआ

“बहुत कंफ्यूजिंग है, सर,” इला बोली. इला इस ग्रुप की सब से ज्यादा इंटैलीजैंट लड़की मानी जाती थी, पढ़ाई में भी उस से कोई टक्कर नहीं ले पाता था.

“अरे, जब इस जैसी जीनियस को प्यार का सब्जैक्ट कंफ्यूजिंग लग रहा है तो हमारी बिसात ही क्या,” रतन ने मेज पर रखे चाय के कप को उठाते हुए कहा, “इतने सूक्ष्म ज्ञान के बाद पकौड़ों की तलब होने लगी है.” प्रो. शास्त्री की संगति व इंफ्लूएंस में उन के स्टूडैंट्स की हिंदी भी बहुत अच्छी हो गई थी. बहुत चुनचुन कर वे शब्दों का प्रयोग कर अपनी धाक जमाने की कोशिश किया करते थे.

“और ये गरमागरम पकौड़े हाजिर हैं,” रीतिका ने पकौड़ों की प्लेट मेज पर रखते हुए कहा.

“वाह दीदी, आप का जवाब नहीं,” नैना ने झट से एक पकौड़ा अपने मुंह में डालते हुए कहा. नैना बहुत ही चुलबुली किस्म की लड़की थी. बहुत ही धनी परिवार से होने की वजह से थोड़ा दंभ भी कभीकभी झलक जाता था. हमेशा नए डिजाइन के कपड़े पहनती थी और महंगी चीजें खरीदने का शौक था. पढ़ाई में एवरेज थी, पर नाटकों और अन्य गतिविधियों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती थी. “मन करता है कि आप के हाथ चूम लूं,” नैना के नाटकीय अंदाज पर रीतिका ने प्यार से उस के गाल पर हलकी सी चपत लगाई.

“बहुत देर हो चुकी है, अब तुम लोग घर जाओ. कल सिर्फ रिहर्सल करेंगे. बहुत कम दिन हैं हमारे पास. यह नाटक सब के लिए महत्त्वपूर्ण होगा, क्योंकि पहली बार तुम एक बड़े मंच पर इसे प्रस्तुत करोगे.” प्रो. शास्त्री और रीतिका दीदी से विदा ले सब चले गए.

“आज पता चला कि प्रोफैसर साहब के लिए प्यार की परिभाषा क्या है,” रात को सोते समय रीतिका ने उन के बालों को सहलाते हुए कहा.

“कोई संशय है क्या तुम्हारे मन में, आजमा कर देख लेना,” उन्होंने शरारत से मुसकराते हुए कहा.

“यानी कि अगर मुझ से कभी कोई गलती हो गई या मैं ने बेवफाई की तो तुम अपनी जान देने के बजाय या मुझे छोड़ देने के बजाय, मुझे माफ कर दोगे?” रीतिका उन से लिपटते हुए बोली.

“उफ, क्या बेकार की बातों में उलझ रही हो इस वक्त? तुम से कभी कोई गलती हो ही नहीं सकती. सोने का इरादा नहीं है क्या?” विवेक के स्वर में थोड़ी झुंझलाहट थी. उन्होंने रीतिका के हाथों को अपने से अलग कर लाइट बंद की और मुंह फेर कर सो गए.

रीतिका कसमसा कर रह गई. उस का मन कर रहा था कि विवेक इस समय उसे प्यार करें, उस के जिस्म के रेशेरेशे को सहलाएं. पर… सच था कि प्रो. विवेक उस से बहुत प्यार करते थे, लेकिन संबंधों में प्यार, सम्मान, सहयोग या विश्वास के अलावा भी बहुतकुछ होता है जो छोटीछोटी खुशियों को जीने के पल देता है. जिस्मानी भूख इन सब से कभीकभी बहुत बड़ी हो जाती है जो प्यार के सारे आदर्शों को दरकिनार कर व्याकुल कर जाती है. रीतिका अकसर अपनी इस भूख से लड़ती थी, पर कभी अपनी बात कह नहीं पाई. विवेक के प्यार और उन के प्रति सम्मान के आगे वह अपनी इच्छाओं को बेरहमी से कुचल देती थी. सारा दिन काम में अपने को बिजी रखने का प्रयत्न करती. अपने मन और जिस्म को भटकने से बचाने के लिए इधर कुछ दिनों से उसे लग रहा था कि उसे अब कोई नौकरी कर लेनी चाहिए.

प्रो. शास्त्री ने ही कुछ दिनों पहले उसे बताया था कि एक कंपनी में हिंदी औफिसर की जरूरत है क्योंकि वे सरकारी नियमों के अनुसार हिंदी को बढ़ावा देना चाहते हैं. रीतिका ने अपना रिज्यूमे वहां भेज दिया था.

उस की जैसी क्वालीफाइड के लिए नौकरी मिलना मुश्किल नहीं था. रीतिका को काम करते हुए महसूस हुआ कि जैसे उस के सपनों को पंख लग गए हैं. खुली हवा में सांस लेने का एहसास उसे अच्छा लग रहा था. उसे तब लगा कि इतने साल खुद को घर में कैद कर जैसे उस ने अपने साथ ही नाइंसाफी की है, वह भी तब जब विवेक ने कभी उसे किसी बात के लिए रोका नहीं था. वे भी खुश थे और हमेशा की तरह अपने कालेज, स्टूडैंट्स और नाटकों में मस्त, प्यार के नए आयाम और परिभाषाएं गढ़ते हुए.

“आप की हिंदी बहुत ही शुद्ध है,” एक आवाज ने रीतिका का ध्यान भंग किया तो हाथ में पकड़ी मैगजीन को मेज पर रखते हुए उस ने सिर उठा कर देखा. वह इस समय कैंटीन में बैठी थी और कौफी पी रही थी. सामने अकाउंट्स डिपार्टमैंट के रोमेश सहाय खड़े थे. गोरेपन से लिपटे उन के चेहरे में एक आकर्षण था. पुरुषों की जैसी नाक होती है, थोड़ी बेडौल या चोड़ीचपटी, उस की तुलना में एकदम सुतवां नाक. क्लीनशेव्ड रोमेश सहाय को रीतिका ने हमेशा टिपटौप देखा था. ट्राउजर और शर्ट…जो उन की ही तरह बहुत स्मार्ट होती थीं. बहुत ज्यादा बात तो उन से नहीं होती थी पर कभीकभी हैलो हो जाती थी.

“थैंक यू, आप कौफी पिएंगे?” कर्टसी के नाते रीतिका ने पूछा.

“या, श्योर. इस बहाने आप की कंपनी को एंजौय कर पाऊंगा,” बहुत ही बेबाकी से उन्होंने कहा और अपने गोल्डन फ्रेम के कीमती चश्मे को हलका सा हाथ से अपनी नाक के ऊपर से खिसकाया.

रीतिका समझ नहीं पाई कि उन की इस साफगोई पर क्या प्रतिक्रिया करे. वह, बस, हलके से मुसकराई. सहजता के पुल उन के बीच अभी तक नहीं बने थे पर रोमेश को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था. हो सकता है वह ऐसे ही हो…रीतिका ने कौफी का सिप लेते हुए सोचा.

“हिंदी को प्रोमोट किया जा रहा है, यह बात बहुत अच्छी है. वरना नई पीढ़ी तो हिंदी को सीरियसली लेती ही नहीं है. इंग्लिश बोलना तो जैसे स्टेटस सिंबल समझा जाता है,” कुछ बात तो करनी पड़ेगी, यह सोच रीतिका बोली.

“यू आर राइट रीतिका जी. पर सच तो यह है कि आज के बच्चे न तो शुद्ध रूप से हिंदी बोलते हैं, न ही इंग्लिश. वे तो हिंदीइंग्लिश के मिक्सचर पर जीते हैं. दोनों ही भाषाओं की धज्जियां उड़ी हुई हैं. व्हाट्सऐप के मैसेज देखते हैं तो बहुत तकलीफ होती है. लैंग्वेज का शौर्ट फौर्म कर के रख दिया है. इंस्टैंट लाइफ की प्रतीक है नई पीढ़ी.”

भाषा से ले कर उन दोनों के बीच और जाने कितने विषयों पर उस के बाद बातें होती रहीं. पता ही नहीं चला रीतिका को कि उस मुलाकात में सहजता का पुल कैसे निर्मित हो गया. रोमेश का साथ, उस की बातें अच्छी लगीं रीतिका को. जो बातें वह विवेक के साथ भी शेयर नहीं कर पाती थी, उस के साथ बिना झिझक कर पा रही थी. उस के बाद तो उन की मुलाकातें केवल औफिस की कैंटीन तक ही सीमित नहीं रह गईं. कभी किसी मौल में, कभी किसी रैस्तरां में. कभी यों ही सड़क पर वे घूमते नजर आ जाते. 45 वर्षीय रोमेश सहाय कुंआरे थे, क्योंकि कभी उन्हें कोई पसंद ही नहीं आई. इस शहर में अकेले रहते थे. वैसे भी, अपना कहने को उन का सिवा एक बहन के कोई नहीं था जो शादी के बाद सिंगापुर में ही बस गई थी. मस्त और खुश रहते थे और जिंदगी को भरपूर ढंग से जीने में विश्वास रखते थे वे.

The post कठघरे में प्यार- भाग 2: प्रो. विवेक शास्त्री के साथ क्या हुआ appeared first on Sarita Magazine.



from कहानी – Sarita Magazine https://ift.tt/h9uqIxb

“बहुत कंफ्यूजिंग है, सर,” इला बोली. इला इस ग्रुप की सब से ज्यादा इंटैलीजैंट लड़की मानी जाती थी, पढ़ाई में भी उस से कोई टक्कर नहीं ले पाता था.

“अरे, जब इस जैसी जीनियस को प्यार का सब्जैक्ट कंफ्यूजिंग लग रहा है तो हमारी बिसात ही क्या,” रतन ने मेज पर रखे चाय के कप को उठाते हुए कहा, “इतने सूक्ष्म ज्ञान के बाद पकौड़ों की तलब होने लगी है.” प्रो. शास्त्री की संगति व इंफ्लूएंस में उन के स्टूडैंट्स की हिंदी भी बहुत अच्छी हो गई थी. बहुत चुनचुन कर वे शब्दों का प्रयोग कर अपनी धाक जमाने की कोशिश किया करते थे.

“और ये गरमागरम पकौड़े हाजिर हैं,” रीतिका ने पकौड़ों की प्लेट मेज पर रखते हुए कहा.

“वाह दीदी, आप का जवाब नहीं,” नैना ने झट से एक पकौड़ा अपने मुंह में डालते हुए कहा. नैना बहुत ही चुलबुली किस्म की लड़की थी. बहुत ही धनी परिवार से होने की वजह से थोड़ा दंभ भी कभीकभी झलक जाता था. हमेशा नए डिजाइन के कपड़े पहनती थी और महंगी चीजें खरीदने का शौक था. पढ़ाई में एवरेज थी, पर नाटकों और अन्य गतिविधियों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती थी. “मन करता है कि आप के हाथ चूम लूं,” नैना के नाटकीय अंदाज पर रीतिका ने प्यार से उस के गाल पर हलकी सी चपत लगाई.

“बहुत देर हो चुकी है, अब तुम लोग घर जाओ. कल सिर्फ रिहर्सल करेंगे. बहुत कम दिन हैं हमारे पास. यह नाटक सब के लिए महत्त्वपूर्ण होगा, क्योंकि पहली बार तुम एक बड़े मंच पर इसे प्रस्तुत करोगे.” प्रो. शास्त्री और रीतिका दीदी से विदा ले सब चले गए.

“आज पता चला कि प्रोफैसर साहब के लिए प्यार की परिभाषा क्या है,” रात को सोते समय रीतिका ने उन के बालों को सहलाते हुए कहा.

“कोई संशय है क्या तुम्हारे मन में, आजमा कर देख लेना,” उन्होंने शरारत से मुसकराते हुए कहा.

“यानी कि अगर मुझ से कभी कोई गलती हो गई या मैं ने बेवफाई की तो तुम अपनी जान देने के बजाय या मुझे छोड़ देने के बजाय, मुझे माफ कर दोगे?” रीतिका उन से लिपटते हुए बोली.

“उफ, क्या बेकार की बातों में उलझ रही हो इस वक्त? तुम से कभी कोई गलती हो ही नहीं सकती. सोने का इरादा नहीं है क्या?” विवेक के स्वर में थोड़ी झुंझलाहट थी. उन्होंने रीतिका के हाथों को अपने से अलग कर लाइट बंद की और मुंह फेर कर सो गए.

रीतिका कसमसा कर रह गई. उस का मन कर रहा था कि विवेक इस समय उसे प्यार करें, उस के जिस्म के रेशेरेशे को सहलाएं. पर… सच था कि प्रो. विवेक उस से बहुत प्यार करते थे, लेकिन संबंधों में प्यार, सम्मान, सहयोग या विश्वास के अलावा भी बहुतकुछ होता है जो छोटीछोटी खुशियों को जीने के पल देता है. जिस्मानी भूख इन सब से कभीकभी बहुत बड़ी हो जाती है जो प्यार के सारे आदर्शों को दरकिनार कर व्याकुल कर जाती है. रीतिका अकसर अपनी इस भूख से लड़ती थी, पर कभी अपनी बात कह नहीं पाई. विवेक के प्यार और उन के प्रति सम्मान के आगे वह अपनी इच्छाओं को बेरहमी से कुचल देती थी. सारा दिन काम में अपने को बिजी रखने का प्रयत्न करती. अपने मन और जिस्म को भटकने से बचाने के लिए इधर कुछ दिनों से उसे लग रहा था कि उसे अब कोई नौकरी कर लेनी चाहिए.

प्रो. शास्त्री ने ही कुछ दिनों पहले उसे बताया था कि एक कंपनी में हिंदी औफिसर की जरूरत है क्योंकि वे सरकारी नियमों के अनुसार हिंदी को बढ़ावा देना चाहते हैं. रीतिका ने अपना रिज्यूमे वहां भेज दिया था.

उस की जैसी क्वालीफाइड के लिए नौकरी मिलना मुश्किल नहीं था. रीतिका को काम करते हुए महसूस हुआ कि जैसे उस के सपनों को पंख लग गए हैं. खुली हवा में सांस लेने का एहसास उसे अच्छा लग रहा था. उसे तब लगा कि इतने साल खुद को घर में कैद कर जैसे उस ने अपने साथ ही नाइंसाफी की है, वह भी तब जब विवेक ने कभी उसे किसी बात के लिए रोका नहीं था. वे भी खुश थे और हमेशा की तरह अपने कालेज, स्टूडैंट्स और नाटकों में मस्त, प्यार के नए आयाम और परिभाषाएं गढ़ते हुए.

“आप की हिंदी बहुत ही शुद्ध है,” एक आवाज ने रीतिका का ध्यान भंग किया तो हाथ में पकड़ी मैगजीन को मेज पर रखते हुए उस ने सिर उठा कर देखा. वह इस समय कैंटीन में बैठी थी और कौफी पी रही थी. सामने अकाउंट्स डिपार्टमैंट के रोमेश सहाय खड़े थे. गोरेपन से लिपटे उन के चेहरे में एक आकर्षण था. पुरुषों की जैसी नाक होती है, थोड़ी बेडौल या चोड़ीचपटी, उस की तुलना में एकदम सुतवां नाक. क्लीनशेव्ड रोमेश सहाय को रीतिका ने हमेशा टिपटौप देखा था. ट्राउजर और शर्ट…जो उन की ही तरह बहुत स्मार्ट होती थीं. बहुत ज्यादा बात तो उन से नहीं होती थी पर कभीकभी हैलो हो जाती थी.

“थैंक यू, आप कौफी पिएंगे?” कर्टसी के नाते रीतिका ने पूछा.

“या, श्योर. इस बहाने आप की कंपनी को एंजौय कर पाऊंगा,” बहुत ही बेबाकी से उन्होंने कहा और अपने गोल्डन फ्रेम के कीमती चश्मे को हलका सा हाथ से अपनी नाक के ऊपर से खिसकाया.

रीतिका समझ नहीं पाई कि उन की इस साफगोई पर क्या प्रतिक्रिया करे. वह, बस, हलके से मुसकराई. सहजता के पुल उन के बीच अभी तक नहीं बने थे पर रोमेश को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था. हो सकता है वह ऐसे ही हो…रीतिका ने कौफी का सिप लेते हुए सोचा.

“हिंदी को प्रोमोट किया जा रहा है, यह बात बहुत अच्छी है. वरना नई पीढ़ी तो हिंदी को सीरियसली लेती ही नहीं है. इंग्लिश बोलना तो जैसे स्टेटस सिंबल समझा जाता है,” कुछ बात तो करनी पड़ेगी, यह सोच रीतिका बोली.

“यू आर राइट रीतिका जी. पर सच तो यह है कि आज के बच्चे न तो शुद्ध रूप से हिंदी बोलते हैं, न ही इंग्लिश. वे तो हिंदीइंग्लिश के मिक्सचर पर जीते हैं. दोनों ही भाषाओं की धज्जियां उड़ी हुई हैं. व्हाट्सऐप के मैसेज देखते हैं तो बहुत तकलीफ होती है. लैंग्वेज का शौर्ट फौर्म कर के रख दिया है. इंस्टैंट लाइफ की प्रतीक है नई पीढ़ी.”

भाषा से ले कर उन दोनों के बीच और जाने कितने विषयों पर उस के बाद बातें होती रहीं. पता ही नहीं चला रीतिका को कि उस मुलाकात में सहजता का पुल कैसे निर्मित हो गया. रोमेश का साथ, उस की बातें अच्छी लगीं रीतिका को. जो बातें वह विवेक के साथ भी शेयर नहीं कर पाती थी, उस के साथ बिना झिझक कर पा रही थी. उस के बाद तो उन की मुलाकातें केवल औफिस की कैंटीन तक ही सीमित नहीं रह गईं. कभी किसी मौल में, कभी किसी रैस्तरां में. कभी यों ही सड़क पर वे घूमते नजर आ जाते. 45 वर्षीय रोमेश सहाय कुंआरे थे, क्योंकि कभी उन्हें कोई पसंद ही नहीं आई. इस शहर में अकेले रहते थे. वैसे भी, अपना कहने को उन का सिवा एक बहन के कोई नहीं था जो शादी के बाद सिंगापुर में ही बस गई थी. मस्त और खुश रहते थे और जिंदगी को भरपूर ढंग से जीने में विश्वास रखते थे वे.

The post कठघरे में प्यार- भाग 2: प्रो. विवेक शास्त्री के साथ क्या हुआ appeared first on Sarita Magazine.

May 13, 2022 at 11:08AM

No comments:

Post a Comment