Monday 9 May 2022

Mother’s Day 2022- उमंग: पत्नी बनने से पहले ही मैं मां बन गई

‘मां‘ कितना प्यारा, कितना मीठा है यह शब्द. शायद विश्वभर में सब शब्दकोषों में सब से मीठा. कौन स्त्री नहीं चाहती मां बनना. मैं भी चाहती थी. जितनी ब्याही सहेलियां थीं, सब मुझे मां बनने के सुख बयान करती रहतीं – ”प्रसव पीड़ा का भी अपना आनंद है. सहोगी तो समझोगी.

मन रोमाचिंत हो उठा, जब कान में भनक पड़ी कि मौसी एक रिश्ता ले कर आई हैं. पर बात वहां नहीं बनी, और कही भी नहीं. बहुत वर देखे, पर किस्मत में विवाह नहीं था शायद.

मैं इतना तो नहीं, जितना मेरे मांबाप मायूस थे. उन की तलाश नाकाम होती नजर आने लगी. हताश हो गए थे वे. तीनतीन बेटियां. तीनों ही ब्याहनेलायक और एक दिन अचानक जैसे रिश्ता सीधा स्वर्ग से ही आया हो. सुंदर, लंबा, अच्छे खानदान का. शादी सीधीसादी व बिना दानदहेज. लंगड़ा क्या चाहे दो बैसाखियां. मांबाप ने झट हां कर दी.

और मैं मां बन गई. पत्नी बनने से पहले. रिश्ता एक विधुर से आया था. 2 बच्चों के पिता थे. 3 साल पहले एक दुर्घटना में उन की पत्नी का स्वर्गवास हुआ था.

एक बार तो चाहा कि मना कर दूं, पर मांबाप की मूक प्रार्थना, और बहनों का विवाह मेरे कारण न हो, मैं गवारा न कर सकी और एक बलि के बकरे की तरह बैठ गई विवाह मंड़प पर.

विवाह के दिन खूब छेड़छाड़ हुई. कोई मुबारक दे रहा था अमीर घर की, तो कोई अनुभवी पति की, तो कोई बनेबनाए परिवार की. मैं बन गई एक अमीर राजन श्रीवास्तव की पत्नी.

ऐसा देख कई लोगों को रश्क भी हुआ. बढ़ती उम्र में भी मुझे इतना अच्छा घरवर मिल गया. सौतेले बच्चे हैं तो क्या…? पति तो ज्यादा उम्र के नहीं. पैंतालिस साल के आसपास.

ससुराल आई. 2 महीने आंख झपकते ही बीत गए. मैं भूल गई थी कि मेरे पति सिर्फ पति ही नहीं एक पिता भी थे.

एकदम स्वर्ग से धरातल पर आई उस दिन जब राजन ने कहा, “तुम कहो, तो सोनम और सोनाली को अब बुला लें. स्कूल भी खुलने वाले हैं. कब तक रहेंगे मां के पास?”

”सोनम, सोनाली?“ मैं ने हैरान हो कर पूछा.

“हां सोनम, सोनाली, हमारे बच्चे,” हंस कर राजन ने जवाब दिया. वे फिर आगे समझाते हुए बोले, ”उन्हें मां ले गई थीं अपने पास कि हमें कुछ समय मिल जाए एकदूसरे को जानने के लिए.“

मन तो हुआ कह दूं कि कुछ और समय क्यों नहीं, पर कह न सकी. हां में सिर हिला दिया.

3 दिन बाद ही दरवाजे की दस्तक ने बता दिया कि बच्चे लौट आए थे अपनी दादी के साथ.

मैं ने यथावत पैर छुए सास के, पर न जाने किस अनजाने डर से मैं ने बच्चों की तरफ देखा भी नहीं. मैं चुपचाप यंत्रवत रसोईघर में चाय बनाने चली गई. और उस दिन के बाद मैं ने यह ही रवैया अपना लिया. काम से काम, कोई खास बात नहीं.

सास ने शुरूशुरू में मुझ से बात करने की कोशिश की कि मैं उन से घुलमिल जाऊं, पर मैं ने उस की अवहेलना की. सहेलियों ने पहले से ही सतर्क कर दिया था कि उन के झांसे में न आऊं-पति वश में है तो सब अपने काबू में. बस तनमन से मैं ने राजन की सेवा की.

कई बार मुझे राजन के चेहरे से लगा कि वह ज्यादा खुश नहीं थे. पर मुंह से मुझे कुछ नहीं जताया. कभीकभी मेरा मन आशंकित हो जाता था कि कहीं वह मेरी तुलना अपनी पहली पत्नी से तो नहीं करते. और उस तोल में पाते हो मेरा पलड़ा बहुत हलका.

राजेश की खामोशी मुझे बहुत डराती थी. जितना वे खामोश होते गए, मैं उतनी ही मस्त. मैं खुश थी. जिंदगी में पहली बार मैं ने अपनेआप को इतना आजाद पाया. कोई मुझे पूछने वाला नहीं था कि मैं ने कहां खर्च किया, कितना किया, कहां गई और कहां से आई.

सास ने अपना ध्यान बच्चों पर केंद्रित रखा था. मुझे तो कभीकभी रसोई में जा कर देखना पड़ता था कि नौकर ठीक से काम कर रहे हैं कि नहीं, बच्चों को मैं ने कभी कुछ नहीं पूछा. उन का दायित्व उन की दादी पर था. अगर उन को अहंकार है तो मैं भी कम नहीं. वो अगर मुझ से दूर रहना चाहते हैं तो यह दूरी ही सही. मुझ से नाखुश हैं तो मेरी बला से. नहीं चाहते थे तो अपने पिता से कह देते कि न करो दूसरी शादी. कौन से वह दूधपीते बच्चे थे. सोनाली 11 वर्ष की थी और यौन अवस्था की दहलीज पर थी, वहीं सोनम भी 9वें वर्ष में चल रहा था.

शादी मेरी राजन से हुई थी. कोई नौकरानी बन कर तो मैं आई नहीं थी कि बच्चों के कपड़ेखाने की फिक्र करती. मुझे क्या मतलब उन दोनों से. बड़ा समझते हैं अपनेआप को. ऐसी अकड़ कि एक बार भी मुझ से कुछ न कहा. कई बार मैं ने उन्हें अपने पिता से हंसतेबोलते देखा, पर जैसे ही मुझे देखते तीनों चुप हो जाते. मैं काम का बहाना बना कर उलटे पांव लौट जाती. सच अब मालूम हुआ था मुहावरे ‘कबाब में हड्डी‘ का अर्थ. कितनी निरर्थक सी बन गई थी मेरी जिंदगी. बहुत चाहते हुए भी मैं अपनी बात मां से नहीं कह सकी. मेरी शादी की देर थी कि छोटी बहनों के भी रिश्ते हो गए. होते भी क्यों नहीं. बड़ी लड़की इतने अच्छे घर में गई है, कुछ न कुछ तो बात होगी इस परिवार की बेटियों में.

राजन के कारण मेरी ही नहीं, मेरे मांबाप की प्रतिष्ठा भी स्थापित हो गई थी. वे तो राजन को देवता मानते थे. उस के बारे में कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे.

वैसे, मुझे कुछ खास शिकायत भी नहीं थी. बच्चे मुझे कभी तंग नहीं करते थे. कभी भी मुझे मौका नहीं दिया डांटने का. मैं ही मौके ढूंढती रहती थी अपने अस्तित्व का आभास कराने के लिए.

कभीकभी शाम को घूमने जाने लगते तो राजन मेरी तरफ ऐसे देखते जैसे कह रहे हों, “इन्हें भी साथ ले चलें.”

मैं ही जानबूझ कर अनजान सी बन जाती. पराए बच्चों के साथ क्या मजा इंडिया गेट पर आइसक्रीम खाने का. उन का मूक निवेदन मूक ही रह गया.

दिन हफ्तों में और महीने साल में बदल गए. सबकुछ मुझे उबाने लगा. दम घुटने लगा था मेरा ऐसे दमघोंटू वातावरण में.

मैं अपना ज्यादा से ज्यादा समय बाजार में व्यतीत करने लगी. ‘किटी पार्टियां‘ भी मुझे आकर्षित करती थीं. सभी मेरे रवैए को सराहते थे.

राजन मुझे कभी भी कुछ नहीं कहते और खुले दिल से पैसे देते. देरसवेर घर आने पर भी कभी शिकायत नहीं की.

कभीकभी सास ने दबी आवाज में बच्चों की ओर मुझे ध्यान देने को कहा, पर मैं ने उस को भी अनसुना कर दिया.

एक दिन मैं घर से निकलने लगी तो फोन की घंटी बज गई. फोन राजन का था. शाम को पार्टी में जाना था. काफी बड़ेबड़े लोगों ने आना था पार्टी में. वह पार्टी राजन के व्यापार से संबंधित थी. काफी महत्वपूर्ण था कि वे सब खुश हो जाएं. तैयार रहने का वादा कर मैं घर से निकल गई. ब्यूटीपार्लर में भीड़ होने के कारण लौटने में देर हो गई.

घर आ कर जल्दीजल्दी साड़ी चुनी और नौकर को तह हटाने के लिए प्रेस कर रखने को कह मैं नहाने चली गई. बाहर आई तो नौकर खाली हाथ खड़ा था.

”साड़ी कहां है,“ मैं ने चिड़चिड़ा कर पूछा.

“जी…जी…. वह….” हकलाया नौकर. वह आगे न बोला.

”कहता क्यों नहीं… कहीं जला तो नही दी,“ मैं ने गुस्से में तिलमिलाते हुए पूछा, “जा, जल्दी ला कर दिखा” आगे आदेश दिया.

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई और मैं ने झल्लाहट में पूछा ”कौन है?“

”मैं हूं बहू,” सास ने नम्र आवाज में जवाब दिया. नौकर मेरा ध्यान बंटा देख वहां से सटक लिया.

”आ जाए,“ एक कटु जवाब दिया मैं ने. वे आईं और धीमी आवाज में बोलीं, “बहू, क्या कोई और साड़ी नहीं पहन सकती?”

”क्यों उस में क्या बुराई है?“ मैं ने चिढ़ कर पूछा.

“नहीं, बुराई तो कुछ भी नहीं, फिर भी… फिर भी…”

“फिर भी, अरे, यह भी कोई तर्क हुआ.“

“नहीं, मैं कह रही थी…“

”अब जल्दी करें मांजी, आप को पता है कि राजन आते होंगे और उन्हें इंतजार करना अच्छा नहीं लगता. जल्दी कर रामू,“ मैं ने उसी वाक्य में नौकर को भी आवाज दी.वह साड़ी ले आया, पर कभी मुझे तो कभी सास को देखने लगा.

“अब जा, मुझे तैयार होना है,” कह कर मैं ने उसे वहां से दफा किया.

सास के सामने शर्म किए बिना मैं ने गाउन उतारा और साड़ी बांधने लगी. पल्लू ठीक करते हुए मैं ने सास से फिर पूछा, ”क्या कह रही थीं आप?“

“वो… वो… साड़ी…नहीं, हां…वो शीला…” उन्होंने अटकअटक कर कुछ कहना चाहा.

‘शीला?‘ शीला तो राजन की पहली पत्नी का नाम था. सो, यह बात है. वे नहीं चाहतीं कि मैं शीला की मनपसंद रंग की साड़ी पहनूं. एक बार तो मन में आया कि उन की बात मान लूं, पर एक तो देर हो रही थी, दूसरा, मन में खटका हुआ कि कहीं यह उन की चाल तो नहीं.

शायद, वह मुझे सजा दिलवाना चाहती हैं उन के पोतेपोती को नजरअंदाज करने के लिए. मुझे साड़ी बदलने में देर लगेगी और राजन आएंगे और बिगड़ेंगे. मियांबीवी की लड़ाई का तमाशा देखेगी यह.

जी नहीं, मैं भी इतनी कच्ची गोलियां नहीं खेली. खूब जानती हूं इन सासों को. कोई भी नहीं चाहती कि उन का बेटा पत्नी से खुश रहे और उस के काबू में हो जाए. वह तो चाहती ही हैं कि मनमुटाव रहे. बेटा इसी तरह अपना बना रहता है.

मुझे रुकते न देख वो वापस मुड़ीं. अच्छा किया मैं ने, जो उन का कहना नहीं माना, क्योंकि उसी पल नीचे कार के रुकने की आवाज आई. राजन आ गए थे. मुझे तैयार देख कितने प्रसन्न होंगे. मैं मंदमंद मुसकाई और शीशे के आगे खड़ी बालों को आखिरी बार संवारने लगी. राजन आए और बोले, ”तो तैयार हो…“

उन के शब्द अधूरे ही रह गए और वह भौचक्के से मुझे देखते रहे. उन के चेहरे पर एक रंग आता तो दूसरा जाता.

यह देख मैं भी हैरान थी. किसी अनजाने अंदेशे से कांप गई. मैं ने हकला कर पूछा, “क्यों…? क्या हुआ…?”

कुछ जवाब दिए बिना वे उलटे पांव मुड़ गए और दरवाजा खोल कर तेजी से बाहर चले गए. तेज रफ्तार से गाड़ी चलाने की आवाज आई. मैं जड़वत वहीं खड़ी रही. सास ने शायद दरवाजा बंद होने और कार की आवाज सुन ली थी.

अपने कमरे से निकल कर वो मेरे पास आईं. एक खौफनाक सन्नाटा था पूरे घर में. मैं निःस्तब्ध वहीं खड़ी थी. सास ने सिर पर हाथ फेरा. पता नहीं उन की ममता थी या मेरी अपनी निर्बलता, मैं उन के गले लग रोने लगी.

वो प्यार से मेरे सिर पर, पीठ पर हाथ फेरने लगीं. बहुत देर तक हम यों ही खड़े रहे. जैसेतैसे मेरा रोना कम हुआ, तो मैं ने पूछा, ”साड़ी… साड़ी…?“

आगे कुछ न कह सकी मैं. उन्होंने जो बात बताई तो मैं स्तब्ध रह गई. कैसी बेवकूफ हूं मैं. अपने अहम से मैं ने अपने ही घर में आग लगाई. क्यों न करा विश्वास मैं ने, किसी अपने पर, उस से ज्यादा खुद अपने पर?

जिस दिन दुर्घटना हुई थी, शीला ने उस से बहुत ही मिलतीजुलती साड़ी पहनी थी. अनजाने में ही सही, मैं ने उस भयानक याद को जीतीजागती तसवीर बना दिया था. मेरे पश्चाताप के आंसू एक सैलाब बन कर आए और बहा कर ले गए अपने साथ मेरे मन के वहम.

बहुत बातें कीं हम सासबहू ने उस दिन. इंतजार जो करना था हम दोनों ने, और, कितने फासले तय करने थे. दीवार तोड़नी थी, जो मैं ने खड़ी करी थी, हम सब के दरम्यान.

बहुत रात गए राजन आए.

कार की आवाज सुन कर सास उठ बैठीं और मुझे सात्वंना व आश्वासन दे कर राजन के आने से पहले ही कमरे से चली गईं.

राजन अंदर आए. मैं ने धीरे से उन की तरफ देखा. राजन के चेहरे पर कोई भाव नहीं थे. मैं ने धीरे से झुक कर कहा, “मुझे माफ कर दो.”

राजन ने मुझे सहलाते हुए कहा, ”शायद कमी मेरे में, मेरे प्यार में थी. मैं तुम्हें तुम्हारा दर्जा नहीं दे सका.

“आप सब ने तो मुझे सब दे दिया. पर, खरा उतरने के डर ने मुझे ही एक अभिमन्यु बना दिया, जो अपने ही बनाए चक्रव्यूह से नहीं निकल पाया.”

अपनी गलतियों का विश्लेषण करतेकरते रात बीत गई. हम एकदूसरे के बहुत करीब आ गए. शारीरिक दृष्टि से हम पूर्ण थे, पर अब मानसिक दूरियां भी कम होती दिखाई दे रही थीं.

अगला सूरज हमारी जिंदगी में एक नया सवेरा ले कर आया. सुबह जब बच्चों ने मुझे उन का नाश्ता बनाते व स्कूल का टिफिन तैयार करते देखा तो हैरान रह गए.

मैं ने मंदमंद मुसकराते हुए कहा, ”अपनी नई मां को माफ कर सकोगे?“

बच्चे मुंह से तो कुछ न बोले, बस मुझ से आ कर लिपट गए.

यह देख मेरी आखें भर आईं. कितना कुछ खो जाता. मैं अपूर्ण रह जाती. वंचित रह जाती मां होने के आभास से, अगर कुछ दिन और घिरी रहती अपनी ही कुठाओं में.

एक साल बीतने को है. मैं तीसरी बार मां बनने वाली हूं. सोनम और सोनाली बहुत खुश हैं नए मेहमान का सुन कर और राजन के साथ मिल कर मेरा बहुत खयाल करते हैं.

सासू मां कुछ महीने पहले आश्वस्त हो गई थीं कि उन के पोतेपोती सौतेली मां के हाथों सताए नहीं जाएंगे. वह वापस जाना चाहती थीं अपने घर, पर बहुत मुश्किल से हम ने उन्हें रोके रखा. तब तक डाक्टर ने मेरी खबर की पुष्टि कर दी. तीसरे पोते या पोती का मुंह देखने की लालसा व मेरा खयाल रखने के लिए वो रुक गईं.

मैं यह तो नहीं कहूंगी कि हमारी लड़ाई नहीं होती. होती है, पर हर दूसरे आम घरों की तरह. सोनम रूठ जाता है टीवी ज्यादा देखे जाने पर मना करने पर, सोनाली कोपभवन में चली जाती है, जब उसे सहेली के घर देर रात तक नहीं रहने दिया जाता.

बस, ऐसा ही है हमारा परिवार. और अब मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकती हूं ‘मां‘ सब से मीठा शब्द है, जब वह मोहक बच्चों के मुख से निकलता है.

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‘मां‘ कितना प्यारा, कितना मीठा है यह शब्द. शायद विश्वभर में सब शब्दकोषों में सब से मीठा. कौन स्त्री नहीं चाहती मां बनना. मैं भी चाहती थी. जितनी ब्याही सहेलियां थीं, सब मुझे मां बनने के सुख बयान करती रहतीं – ”प्रसव पीड़ा का भी अपना आनंद है. सहोगी तो समझोगी.

मन रोमाचिंत हो उठा, जब कान में भनक पड़ी कि मौसी एक रिश्ता ले कर आई हैं. पर बात वहां नहीं बनी, और कही भी नहीं. बहुत वर देखे, पर किस्मत में विवाह नहीं था शायद.

मैं इतना तो नहीं, जितना मेरे मांबाप मायूस थे. उन की तलाश नाकाम होती नजर आने लगी. हताश हो गए थे वे. तीनतीन बेटियां. तीनों ही ब्याहनेलायक और एक दिन अचानक जैसे रिश्ता सीधा स्वर्ग से ही आया हो. सुंदर, लंबा, अच्छे खानदान का. शादी सीधीसादी व बिना दानदहेज. लंगड़ा क्या चाहे दो बैसाखियां. मांबाप ने झट हां कर दी.

और मैं मां बन गई. पत्नी बनने से पहले. रिश्ता एक विधुर से आया था. 2 बच्चों के पिता थे. 3 साल पहले एक दुर्घटना में उन की पत्नी का स्वर्गवास हुआ था.

एक बार तो चाहा कि मना कर दूं, पर मांबाप की मूक प्रार्थना, और बहनों का विवाह मेरे कारण न हो, मैं गवारा न कर सकी और एक बलि के बकरे की तरह बैठ गई विवाह मंड़प पर.

विवाह के दिन खूब छेड़छाड़ हुई. कोई मुबारक दे रहा था अमीर घर की, तो कोई अनुभवी पति की, तो कोई बनेबनाए परिवार की. मैं बन गई एक अमीर राजन श्रीवास्तव की पत्नी.

ऐसा देख कई लोगों को रश्क भी हुआ. बढ़ती उम्र में भी मुझे इतना अच्छा घरवर मिल गया. सौतेले बच्चे हैं तो क्या…? पति तो ज्यादा उम्र के नहीं. पैंतालिस साल के आसपास.

ससुराल आई. 2 महीने आंख झपकते ही बीत गए. मैं भूल गई थी कि मेरे पति सिर्फ पति ही नहीं एक पिता भी थे.

एकदम स्वर्ग से धरातल पर आई उस दिन जब राजन ने कहा, “तुम कहो, तो सोनम और सोनाली को अब बुला लें. स्कूल भी खुलने वाले हैं. कब तक रहेंगे मां के पास?”

”सोनम, सोनाली?“ मैं ने हैरान हो कर पूछा.

“हां सोनम, सोनाली, हमारे बच्चे,” हंस कर राजन ने जवाब दिया. वे फिर आगे समझाते हुए बोले, ”उन्हें मां ले गई थीं अपने पास कि हमें कुछ समय मिल जाए एकदूसरे को जानने के लिए.“

मन तो हुआ कह दूं कि कुछ और समय क्यों नहीं, पर कह न सकी. हां में सिर हिला दिया.

3 दिन बाद ही दरवाजे की दस्तक ने बता दिया कि बच्चे लौट आए थे अपनी दादी के साथ.

मैं ने यथावत पैर छुए सास के, पर न जाने किस अनजाने डर से मैं ने बच्चों की तरफ देखा भी नहीं. मैं चुपचाप यंत्रवत रसोईघर में चाय बनाने चली गई. और उस दिन के बाद मैं ने यह ही रवैया अपना लिया. काम से काम, कोई खास बात नहीं.

सास ने शुरूशुरू में मुझ से बात करने की कोशिश की कि मैं उन से घुलमिल जाऊं, पर मैं ने उस की अवहेलना की. सहेलियों ने पहले से ही सतर्क कर दिया था कि उन के झांसे में न आऊं-पति वश में है तो सब अपने काबू में. बस तनमन से मैं ने राजन की सेवा की.

कई बार मुझे राजन के चेहरे से लगा कि वह ज्यादा खुश नहीं थे. पर मुंह से मुझे कुछ नहीं जताया. कभीकभी मेरा मन आशंकित हो जाता था कि कहीं वह मेरी तुलना अपनी पहली पत्नी से तो नहीं करते. और उस तोल में पाते हो मेरा पलड़ा बहुत हलका.

राजेश की खामोशी मुझे बहुत डराती थी. जितना वे खामोश होते गए, मैं उतनी ही मस्त. मैं खुश थी. जिंदगी में पहली बार मैं ने अपनेआप को इतना आजाद पाया. कोई मुझे पूछने वाला नहीं था कि मैं ने कहां खर्च किया, कितना किया, कहां गई और कहां से आई.

सास ने अपना ध्यान बच्चों पर केंद्रित रखा था. मुझे तो कभीकभी रसोई में जा कर देखना पड़ता था कि नौकर ठीक से काम कर रहे हैं कि नहीं, बच्चों को मैं ने कभी कुछ नहीं पूछा. उन का दायित्व उन की दादी पर था. अगर उन को अहंकार है तो मैं भी कम नहीं. वो अगर मुझ से दूर रहना चाहते हैं तो यह दूरी ही सही. मुझ से नाखुश हैं तो मेरी बला से. नहीं चाहते थे तो अपने पिता से कह देते कि न करो दूसरी शादी. कौन से वह दूधपीते बच्चे थे. सोनाली 11 वर्ष की थी और यौन अवस्था की दहलीज पर थी, वहीं सोनम भी 9वें वर्ष में चल रहा था.

शादी मेरी राजन से हुई थी. कोई नौकरानी बन कर तो मैं आई नहीं थी कि बच्चों के कपड़ेखाने की फिक्र करती. मुझे क्या मतलब उन दोनों से. बड़ा समझते हैं अपनेआप को. ऐसी अकड़ कि एक बार भी मुझ से कुछ न कहा. कई बार मैं ने उन्हें अपने पिता से हंसतेबोलते देखा, पर जैसे ही मुझे देखते तीनों चुप हो जाते. मैं काम का बहाना बना कर उलटे पांव लौट जाती. सच अब मालूम हुआ था मुहावरे ‘कबाब में हड्डी‘ का अर्थ. कितनी निरर्थक सी बन गई थी मेरी जिंदगी. बहुत चाहते हुए भी मैं अपनी बात मां से नहीं कह सकी. मेरी शादी की देर थी कि छोटी बहनों के भी रिश्ते हो गए. होते भी क्यों नहीं. बड़ी लड़की इतने अच्छे घर में गई है, कुछ न कुछ तो बात होगी इस परिवार की बेटियों में.

राजन के कारण मेरी ही नहीं, मेरे मांबाप की प्रतिष्ठा भी स्थापित हो गई थी. वे तो राजन को देवता मानते थे. उस के बारे में कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे.

वैसे, मुझे कुछ खास शिकायत भी नहीं थी. बच्चे मुझे कभी तंग नहीं करते थे. कभी भी मुझे मौका नहीं दिया डांटने का. मैं ही मौके ढूंढती रहती थी अपने अस्तित्व का आभास कराने के लिए.

कभीकभी शाम को घूमने जाने लगते तो राजन मेरी तरफ ऐसे देखते जैसे कह रहे हों, “इन्हें भी साथ ले चलें.”

मैं ही जानबूझ कर अनजान सी बन जाती. पराए बच्चों के साथ क्या मजा इंडिया गेट पर आइसक्रीम खाने का. उन का मूक निवेदन मूक ही रह गया.

दिन हफ्तों में और महीने साल में बदल गए. सबकुछ मुझे उबाने लगा. दम घुटने लगा था मेरा ऐसे दमघोंटू वातावरण में.

मैं अपना ज्यादा से ज्यादा समय बाजार में व्यतीत करने लगी. ‘किटी पार्टियां‘ भी मुझे आकर्षित करती थीं. सभी मेरे रवैए को सराहते थे.

राजन मुझे कभी भी कुछ नहीं कहते और खुले दिल से पैसे देते. देरसवेर घर आने पर भी कभी शिकायत नहीं की.

कभीकभी सास ने दबी आवाज में बच्चों की ओर मुझे ध्यान देने को कहा, पर मैं ने उस को भी अनसुना कर दिया.

एक दिन मैं घर से निकलने लगी तो फोन की घंटी बज गई. फोन राजन का था. शाम को पार्टी में जाना था. काफी बड़ेबड़े लोगों ने आना था पार्टी में. वह पार्टी राजन के व्यापार से संबंधित थी. काफी महत्वपूर्ण था कि वे सब खुश हो जाएं. तैयार रहने का वादा कर मैं घर से निकल गई. ब्यूटीपार्लर में भीड़ होने के कारण लौटने में देर हो गई.

घर आ कर जल्दीजल्दी साड़ी चुनी और नौकर को तह हटाने के लिए प्रेस कर रखने को कह मैं नहाने चली गई. बाहर आई तो नौकर खाली हाथ खड़ा था.

”साड़ी कहां है,“ मैं ने चिड़चिड़ा कर पूछा.

“जी…जी…. वह….” हकलाया नौकर. वह आगे न बोला.

”कहता क्यों नहीं… कहीं जला तो नही दी,“ मैं ने गुस्से में तिलमिलाते हुए पूछा, “जा, जल्दी ला कर दिखा” आगे आदेश दिया.

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई और मैं ने झल्लाहट में पूछा ”कौन है?“

”मैं हूं बहू,” सास ने नम्र आवाज में जवाब दिया. नौकर मेरा ध्यान बंटा देख वहां से सटक लिया.

”आ जाए,“ एक कटु जवाब दिया मैं ने. वे आईं और धीमी आवाज में बोलीं, “बहू, क्या कोई और साड़ी नहीं पहन सकती?”

”क्यों उस में क्या बुराई है?“ मैं ने चिढ़ कर पूछा.

“नहीं, बुराई तो कुछ भी नहीं, फिर भी… फिर भी…”

“फिर भी, अरे, यह भी कोई तर्क हुआ.“

“नहीं, मैं कह रही थी…“

”अब जल्दी करें मांजी, आप को पता है कि राजन आते होंगे और उन्हें इंतजार करना अच्छा नहीं लगता. जल्दी कर रामू,“ मैं ने उसी वाक्य में नौकर को भी आवाज दी.वह साड़ी ले आया, पर कभी मुझे तो कभी सास को देखने लगा.

“अब जा, मुझे तैयार होना है,” कह कर मैं ने उसे वहां से दफा किया.

सास के सामने शर्म किए बिना मैं ने गाउन उतारा और साड़ी बांधने लगी. पल्लू ठीक करते हुए मैं ने सास से फिर पूछा, ”क्या कह रही थीं आप?“

“वो… वो… साड़ी…नहीं, हां…वो शीला…” उन्होंने अटकअटक कर कुछ कहना चाहा.

‘शीला?‘ शीला तो राजन की पहली पत्नी का नाम था. सो, यह बात है. वे नहीं चाहतीं कि मैं शीला की मनपसंद रंग की साड़ी पहनूं. एक बार तो मन में आया कि उन की बात मान लूं, पर एक तो देर हो रही थी, दूसरा, मन में खटका हुआ कि कहीं यह उन की चाल तो नहीं.

शायद, वह मुझे सजा दिलवाना चाहती हैं उन के पोतेपोती को नजरअंदाज करने के लिए. मुझे साड़ी बदलने में देर लगेगी और राजन आएंगे और बिगड़ेंगे. मियांबीवी की लड़ाई का तमाशा देखेगी यह.

जी नहीं, मैं भी इतनी कच्ची गोलियां नहीं खेली. खूब जानती हूं इन सासों को. कोई भी नहीं चाहती कि उन का बेटा पत्नी से खुश रहे और उस के काबू में हो जाए. वह तो चाहती ही हैं कि मनमुटाव रहे. बेटा इसी तरह अपना बना रहता है.

मुझे रुकते न देख वो वापस मुड़ीं. अच्छा किया मैं ने, जो उन का कहना नहीं माना, क्योंकि उसी पल नीचे कार के रुकने की आवाज आई. राजन आ गए थे. मुझे तैयार देख कितने प्रसन्न होंगे. मैं मंदमंद मुसकाई और शीशे के आगे खड़ी बालों को आखिरी बार संवारने लगी. राजन आए और बोले, ”तो तैयार हो…“

उन के शब्द अधूरे ही रह गए और वह भौचक्के से मुझे देखते रहे. उन के चेहरे पर एक रंग आता तो दूसरा जाता.

यह देख मैं भी हैरान थी. किसी अनजाने अंदेशे से कांप गई. मैं ने हकला कर पूछा, “क्यों…? क्या हुआ…?”

कुछ जवाब दिए बिना वे उलटे पांव मुड़ गए और दरवाजा खोल कर तेजी से बाहर चले गए. तेज रफ्तार से गाड़ी चलाने की आवाज आई. मैं जड़वत वहीं खड़ी रही. सास ने शायद दरवाजा बंद होने और कार की आवाज सुन ली थी.

अपने कमरे से निकल कर वो मेरे पास आईं. एक खौफनाक सन्नाटा था पूरे घर में. मैं निःस्तब्ध वहीं खड़ी थी. सास ने सिर पर हाथ फेरा. पता नहीं उन की ममता थी या मेरी अपनी निर्बलता, मैं उन के गले लग रोने लगी.

वो प्यार से मेरे सिर पर, पीठ पर हाथ फेरने लगीं. बहुत देर तक हम यों ही खड़े रहे. जैसेतैसे मेरा रोना कम हुआ, तो मैं ने पूछा, ”साड़ी… साड़ी…?“

आगे कुछ न कह सकी मैं. उन्होंने जो बात बताई तो मैं स्तब्ध रह गई. कैसी बेवकूफ हूं मैं. अपने अहम से मैं ने अपने ही घर में आग लगाई. क्यों न करा विश्वास मैं ने, किसी अपने पर, उस से ज्यादा खुद अपने पर?

जिस दिन दुर्घटना हुई थी, शीला ने उस से बहुत ही मिलतीजुलती साड़ी पहनी थी. अनजाने में ही सही, मैं ने उस भयानक याद को जीतीजागती तसवीर बना दिया था. मेरे पश्चाताप के आंसू एक सैलाब बन कर आए और बहा कर ले गए अपने साथ मेरे मन के वहम.

बहुत बातें कीं हम सासबहू ने उस दिन. इंतजार जो करना था हम दोनों ने, और, कितने फासले तय करने थे. दीवार तोड़नी थी, जो मैं ने खड़ी करी थी, हम सब के दरम्यान.

बहुत रात गए राजन आए.

कार की आवाज सुन कर सास उठ बैठीं और मुझे सात्वंना व आश्वासन दे कर राजन के आने से पहले ही कमरे से चली गईं.

राजन अंदर आए. मैं ने धीरे से उन की तरफ देखा. राजन के चेहरे पर कोई भाव नहीं थे. मैं ने धीरे से झुक कर कहा, “मुझे माफ कर दो.”

राजन ने मुझे सहलाते हुए कहा, ”शायद कमी मेरे में, मेरे प्यार में थी. मैं तुम्हें तुम्हारा दर्जा नहीं दे सका.

“आप सब ने तो मुझे सब दे दिया. पर, खरा उतरने के डर ने मुझे ही एक अभिमन्यु बना दिया, जो अपने ही बनाए चक्रव्यूह से नहीं निकल पाया.”

अपनी गलतियों का विश्लेषण करतेकरते रात बीत गई. हम एकदूसरे के बहुत करीब आ गए. शारीरिक दृष्टि से हम पूर्ण थे, पर अब मानसिक दूरियां भी कम होती दिखाई दे रही थीं.

अगला सूरज हमारी जिंदगी में एक नया सवेरा ले कर आया. सुबह जब बच्चों ने मुझे उन का नाश्ता बनाते व स्कूल का टिफिन तैयार करते देखा तो हैरान रह गए.

मैं ने मंदमंद मुसकराते हुए कहा, ”अपनी नई मां को माफ कर सकोगे?“

बच्चे मुंह से तो कुछ न बोले, बस मुझ से आ कर लिपट गए.

यह देख मेरी आखें भर आईं. कितना कुछ खो जाता. मैं अपूर्ण रह जाती. वंचित रह जाती मां होने के आभास से, अगर कुछ दिन और घिरी रहती अपनी ही कुठाओं में.

एक साल बीतने को है. मैं तीसरी बार मां बनने वाली हूं. सोनम और सोनाली बहुत खुश हैं नए मेहमान का सुन कर और राजन के साथ मिल कर मेरा बहुत खयाल करते हैं.

सासू मां कुछ महीने पहले आश्वस्त हो गई थीं कि उन के पोतेपोती सौतेली मां के हाथों सताए नहीं जाएंगे. वह वापस जाना चाहती थीं अपने घर, पर बहुत मुश्किल से हम ने उन्हें रोके रखा. तब तक डाक्टर ने मेरी खबर की पुष्टि कर दी. तीसरे पोते या पोती का मुंह देखने की लालसा व मेरा खयाल रखने के लिए वो रुक गईं.

मैं यह तो नहीं कहूंगी कि हमारी लड़ाई नहीं होती. होती है, पर हर दूसरे आम घरों की तरह. सोनम रूठ जाता है टीवी ज्यादा देखे जाने पर मना करने पर, सोनाली कोपभवन में चली जाती है, जब उसे सहेली के घर देर रात तक नहीं रहने दिया जाता.

बस, ऐसा ही है हमारा परिवार. और अब मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकती हूं ‘मां‘ सब से मीठा शब्द है, जब वह मोहक बच्चों के मुख से निकलता है.

The post Mother’s Day 2022- उमंग: पत्नी बनने से पहले ही मैं मां बन गई appeared first on Sarita Magazine.

May 10, 2022 at 09:00AM

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