Tuesday 17 May 2022

आइसोलेशन या आजादी

मैं कोविड हॉस्पिटल के रिसेप्शन पर खड़ा था. हाथ में कोरोना निगेटिव की रिपोर्ट थी. आसपास कुछ लोग तालियां बजा कर उस का अभिनंदन कर रहे थे. दरअसल यह रिपोर्ट मेरे एक कमरे के उस जेल से आजादी का फरमान था जिस में मैं पिछले 10 दिनों से बंद था. मेरा अपराध था कोरोना पॉजिटिव होना और सजा के रूप में मुझे दिया गया था आइसोलेशन का दर्द.

आइसोलेशन के नाम पर मुझे न्यूनतम सुविधाओं वाले एक छोटे से कमरे में रखा गया था जहां रोशनी भी सहमसहम कर आती थी. उस कमरे का सूनापन मेरे दिल और दिमाग पर भी हावी हो गया था. वहां कोई मुझ से बात नहीं करता था न कोई नज़दीक आता था. खाना भी बस प्लेट में भर कर सरका दिया जाता था. मन लगाने वाला कोई साधन नहीं, कोई अपना कोई हमदर्द आसपास नहीं. बस था तो सिर्फ एक खाली कमरा और खामोश लम्हों की कैद में तड़पता मेरा दिल जो पुरानी यादों के साए में अपना मन बहलाने की कोशिश करता रहता था.

इन 10 दिनों की कैद में मैं ने याद किए थे बचपन के उन खूबसूरत दिनों को जब पूरी दुनिया को मैं अपनी मुट्ठी में कैद कर लेना चाहता था. पूरे दिन दौड़भाग, उछलकूद और फिर घर आ कर मां की गोद में सिमट जाना. तब मेरी यही दिनचर्या हुआ करती थी. उस दौर में मां के आंचल में कैद होना भी अच्छा लगता था क्यों कि इस से आजाद होना मेरे अपने हाथ में था.

सचमुच बहुत आसान था मां के प्यार से आजादी पा लेना. मुझे याद था आजादी का वह पहला कदम जब हॉस्टल के नाम पर मैं मां से दूर जा रहा था.

“बेटा, अपने शहर में भी तो अच्छे कॉलेज हैं. क्या दूसरे शहर जा कर हॉस्टल में रह कर ही पढ़ना जरूरी है ?” मां ने उदास स्वर में कहा था.

तब मां को पापा ने समझाया था ,” देखो प्रतिभा पढ़ाई तो हर जगह हो सकती है मगर तेरे बेटे के सपने बाहर जा कर ही पूरे होंगे क्यों कि वहां ए ग्रेड की पढ़ाई होती है.”

“पता नहीं नए लोगों के बीच अनजान शहर में कौन सा सपना पूरा हो जाएगा जो यहां नहीं होगा? मेरे बच्चे को ढंग का खाना भी नहीं मिलेगा और कोई पूछने वाला भी नहीं होगा कि किसी चीज की कमी तो नहीं.”

मां मुझे आजादी देना नहीं चाहती थी मगर मैं हर बंधन से आजाद हो कर दूर उड़ जाना चाहता था.

तब मैं ने मां के हाथों को अपने हाथ में ले कर कहा था,” मान जाओ न मां मेरे लिए…”

और मां ने भीगी पलकों के साथ मुझे वह आजादी दे दी थी. मैं हॉस्टल चला गया था. यह पहली आजादी थी मेरी. अपनी जिंदगी का बेहद खूबसूरत वक्त बिताया था मैं ने हॉस्टल में. पढ़ाई के बाद जल्द ही मुझे नौकरी भी मिल गई थी. नौकरी मिली तो शादी की बातें होने लगीं.

इधर अपने ऑफिस की एक लड़की प्रिया मुझे पसंद आ गई थी. वह दिखने में जितनी खूबसूरत थी दिमाग की भी उतनी ही तेज थी. बातें भी मजेदार किया करती. उस के कपड़े काफी स्टाइलिश और स्मार्ट होते जिन में उस का लुक निखर कर सामने आता. मैं उस पर से नजरें हटा ही नहीं पाता था.

एक दिन मैं ने उसे प्रपोज कर दिया. वह थोड़ा अचकचाई फिर उस ने भी मेरा प्यार स्वीकार कर लिया. यह बात मैं ने घर में बताई तो मेरे दादाजी और पिताजी भड़क उठे.

दादाजी ने स्पष्ट कहा,” ऐसा नहीं हो सकता. तू गैर जाति की लड़की से शादी करेगा तो हमारे नातेरिश्तेदार क्या बोलेंगे?”

मां ने दबी जबान से मेरा पक्ष लिया तो उन लोगों ने मम्मी को चुप करा दिया. तब मैं ने मां के आगे अपनी भड़ास निकालते हुए कहा था,” मां आप एक बात सुन लो. मुझे शादी इसी लड़की से करनी है चाहे कुछ भी हो जाए. आप ही बताओ आज के जमाने में भला जात धर्म की बात कौन देखता है? मैं नहीं मानता इन बंधनों को. अगर मुझे यह शादी नहीं करने दी गई तो मैं कभी भी खुश नहीं रह पाऊंगा.”

मां बहुत देर तक कुछ सोचती रहीं. फिर मेरी खुशी की खातिर मां ने पिताजी और दादा जी को मना लिया. उन्होंने पता नहीं दादा जी को ऐसा क्या समझाया कि वे शादी के लिए तुरंत मान गए. पिताजी ने भी फिर विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा. इस तरह मां ने मुझे जातपांत और ऊंचनीच के उन बंधनों से आजादी दे कर प्रिया के साथ एक खूबसूरत जिंदगी की सौगात दी थी.

प्रिया दुल्हन बन कर मेरे घर आ गई थी. मां बहुत खुश थीं कि उन्हें अब एक बेटे के साथ बेटी भी मिल गई है मगर प्रिया के तो तेवर ही अलग निकले. उसे किसी भी काम में मां की थोड़ी सी भी दखलंदाजी बर्दाश्त के बाहर थी. मां कोई काम अपने तरीके से करने लगतीं तो तुरंत प्रिया वहां पहुंच जाती और मां को बिठा देती. मां धीरेधीरे खुद ही चुपचाप बैठी रहने लगी. वह काफी खामोश हो गई थीं.

इस बीच हमारे बेटे का जन्म हुआ तो पहली दफा मैं ने मां के चेहरे पर वह खुशी देखी जो आज तक नहीं देखी थी. अब तो मां पोते को गोद में लिए ही बैठी रहतीं. शुरू में तो प्रिया ने कुछ भी नहीं कहा क्यों कि उसे बच्चे को संभालने में मदद मिल जाती थी. बेटे के बाद हमारी बिटिया ने भी जन्म ले लिया. मां ने दोनों बच्चों की बहुत सेवा की थी. दोनों को एक साथ संभालना प्रिया के वश की बात नहीं थी. मां के कारण दोनों बच्चे अच्छे से पल रहे थे.

इधर एक दिन अचानक दिल का दौरा पड़ने से पिताजी चल बसे. मां अकेली रह गई थीं मगर बच्चों के साथ अपना दिल लगाए रखतीं. अब बेटा 6 साल का और बेटी 4 साल की हो गई थी. सब ठीक चल रहा था. मगर इधर कुछ समय से प्रिया फिर से मां के कारण झुंझलाई सी रहने लगी थी. वह अक्सर मुझ से मां की शिकायतें करती और मैं मां को बात सुनाता. मां खामोशी से सब सुनती रहतीं.

एक दिन तो हद ही हो गई जब प्रिया अपनी फेवरिट ड्रैस लिए मेरे पास आई और चिल्लाती हुई बोली,” यह देखो अपनी मां की करतूत. जानते हो न यह ड्रैस मुझे मेरी बहन ने कितने प्यार से दी थी. 5 हजार की ड्रैस है यह. पर तुम्हारी मां ने इसे जलाने में 5 सेकंड का समय भी नहीं लगाया.”

“यह क्या कह रही हो प्रिया? मां ने इसे जला दिया?”

“हां सुरेश, मां ने इसे जानबूझ कर जला दिया. मैं इसे पहन कर अपनी सहेली की एनिवर्सरी में जो जा रही थी. मेरी खुशी कहां देख सकती हैं वह? उन्हें तो बहाने चाहिए मुझे परेशान करने के.”

“ऐसा नहीं हैं प्रिया. हुआ क्या ठीक से बताओ. जल कैसे गई यह ड्रैस ?”

” देखो सुरेश, मैं ने इसे प्रेस कर के बेड पर पसार कर रखा था. वहीं पर मां तुम्हारे और अपने कपड़े प्रेस करने लगीं. मौका देख कर गर्म प्रेस इस तरह रखी कि मेरी ड्रैस का एक हिस्सा जल गया,” प्रिया ने इल्जाम लगाते हुए कहा.

“मां यह क्या किया आप ने? थोड़ी तो सावधानी रखनी चाहिए न,” सारी बात जाने बिना मैं मां पर ही बरस पड़ा था.

मां सहमी सी आवाज में बताने लगीं,” बेटा मैं जब प्रेस कर रही थी उसी समय गोलू खेलताखेलता उधर आया और गिर पड़ा. प्रेस किनारे खड़ी कर के मैं उसे उठाने के लिए दौड़ी कि इस बीच नेहा ने हाथ मारा होगा तभी प्रेस पास रखी ड्रैस पर गिर गई और कपड़ा जल गया. ”

मैं समझ समझ रहा था कि गलती मां की नहीं थी मगर प्रिया ने इस मामले को काफी तूल दिया. इसी तरह की और 2 -3 घटनाएं होने के बाद मैं ने प्रिया के कहने पर मां को घर के कोने में स्थित एक अलग छोटा सा कमरा दे दिया और समझा दिया कि आप अपने सारे काम यहीं किया करो. उस दिन के बाद से मां उसी छोटे से कमरे में अपना दिन गुजारने लगीं. मैं कभीकभी उन से मिलने जाता मगर मां पहले की तरह खुल कर बात नहीं करतीं. उन की खामोश आंखों में बहुत उदासी नजर आती मगर मैं इस का कारण नहीं समझ पाता था.

शायद समझना चाहता ही नहीं था. मैं घर की शांति का वास्ता दे कर उन्हें उसी कमरे में रहे आने की सिफारिश करता क्यों कि मुझे लगता था कि मां अपने कमरे में रह कर जब प्रिया से दूर रहेंगी तो दोनों के बीच लड़ाई होने का खतरा भी कम हो जाएगा. वैसे मैं समझता था कि लड़ती तो प्रिया ही है पर इस की वजह कहीं न कहीं मां की कोई चूक हुआ करती थी.

अपने कमरे में बंद हो कर धीरेधीरे मां प्रिया से ही नहीं बल्कि मुझ से और दोनों बच्चों से भी दूर होने लगी थीं. बच्चे शुरूशुरू में दादी के कमरे में जाते थे मगर धीरेधीरे प्रिया ने उन के वहां जाने पर बंदिशें लगानी शुरू कर दी थीं. वैसे भी बच्चे बड़े हो रहे थे और उन पर पढ़ाई का बोझ भी बढ़ता जा रहा था. इसलिए दादी उन के जीवन में कहीं नहीं रह गई थीं.

प्रिया मां को उन के कमरे में ही खाना दे आती. मां पूरे दिन उसी कमरे में चुपचाप बैठी रहतीं. कभी सो जातीं तो कभी टहलने लगतीं. उन के चेहरे की उदासी बढ़ती जा रही थी. मैं यह सब देखता था पर पर कभी भी इस उदासी का अर्थ समझ नहीं पाया था. यह नहीं सोच सका था कि मां के लिए यह एकांतवास कितना कठिन होगा.

पर आज जब मुझे 10 दिनों के एकांतवास से आजादी मिली तो समझ में आया कि हमेशा से मुझे हर तरह की आजादी देने वाली मां को मैं ने किस कदर कैद कर के रखा है. आज मैं समझ सकता हूं कि मां जब अकेली कमरे में बैठी खाना खाती होंगी तो दिल में कैसी हूक उठती होगी. कैसे निबाला गले में अटक जाता होगा. उस समय कोई उन की पीठ पर थपकी देने वाला भी नहीं होता होगा. खाना आधा पेट खा कर ही बिस्तर पर लुढ़क जाती होंगी. कभी आंखें नम होती होंगी तो कोई पूछने वाला नहीं होता होगा. बच्चों के साथ हंसने वाली मां हंसने को तरस जाती होंगी और पुराने दिनों की भूलभुलैया में खुद को मशगूल रखने की कोशिश में लग जाती होंगी. सुबह से शाम तक अपनी खिड़की के बाहर उछलकूद मचाते पक्षियों के झुंड में अपने दुखदर्द का भी कोई साथी ढूंढती रह जाती होंगी.

अस्पताल की सारी कागजी कार्यवाही पूरी करने के बाद मैं ने गाड़ी बुक की और घर के लिए निकल पड़ा. अचानक घर पहुंच कर मैं सब को सरप्राइज करना चाहता था खासकर अपनी मां को. आइसोलेशन के इन 10 दिनों में मैं ने बीती जिंदगी का हर अध्याय फिर से पढ़ा और समझा था. मुझे एहसास हो चुका था कि एकांतवास का दंश कितना भयानक होता है. मैं ने मन ही मन एक ठोस फैसला लिया और मेरा चेहरा संतोष से खिल उठा.

घर पहुंचा तो स्वागत में प्रिया और दोनों बच्चे आ कर खड़े हो गए. सब के चेहरे खुशी और उत्साह से खिले हुए थे. मगर हमेशा की तरह एक चेहरा गायब था. प्रिया और बच्चों को छोड़ मैं सीधा घर के उसी उपेक्षित से कोने वाले कमरे में गया. मां मुझे देख कर खुशी से चीख पड़ीं. वह दौड़ कर आईं और रोती हुई मुझे गले लगा लिया. मेरी आंखें भी भीग गई थीं. मैं झुका और उन के पांवों में पड़ कर देर तक रोता रहा. फिर उन्हें ले कर बाहर आया.

मैं ने पिछले कई सालों से आइसोलेशन का दर्द भोगती अपनी बूढ़ी मां से कहा,” मां आज से आप हम सबों के साथ एक ही जगह रहेंगी. आप अकेली एक कमरे में बंध कर नहीं रहेंगी. मां पूरा घर आप का है.”

मां विस्मित सी मेरी तरफ प्यार से देख रही थीं. आज प्रिया ने भी कुछ नहीं कहा. शायद मेरी अनुपस्थिति में दूर रहने का गम उस ने भी महसूस किया था. बच्चे खुशी से तालियां बजा रहे थे और मेरा दिल यह सोच कर बहुत सुकून महसूस कर रहा था कि आज पहली बार मैं ने मां को एकांतवास से आजादी दिलाई है. उधर मां को लग रहा था जैसे बेटे की नेगेटिव रिपोर्ट से उन की जिंदगी पॉजिटिव हो गई है.

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मैं कोविड हॉस्पिटल के रिसेप्शन पर खड़ा था. हाथ में कोरोना निगेटिव की रिपोर्ट थी. आसपास कुछ लोग तालियां बजा कर उस का अभिनंदन कर रहे थे. दरअसल यह रिपोर्ट मेरे एक कमरे के उस जेल से आजादी का फरमान था जिस में मैं पिछले 10 दिनों से बंद था. मेरा अपराध था कोरोना पॉजिटिव होना और सजा के रूप में मुझे दिया गया था आइसोलेशन का दर्द.

आइसोलेशन के नाम पर मुझे न्यूनतम सुविधाओं वाले एक छोटे से कमरे में रखा गया था जहां रोशनी भी सहमसहम कर आती थी. उस कमरे का सूनापन मेरे दिल और दिमाग पर भी हावी हो गया था. वहां कोई मुझ से बात नहीं करता था न कोई नज़दीक आता था. खाना भी बस प्लेट में भर कर सरका दिया जाता था. मन लगाने वाला कोई साधन नहीं, कोई अपना कोई हमदर्द आसपास नहीं. बस था तो सिर्फ एक खाली कमरा और खामोश लम्हों की कैद में तड़पता मेरा दिल जो पुरानी यादों के साए में अपना मन बहलाने की कोशिश करता रहता था.

इन 10 दिनों की कैद में मैं ने याद किए थे बचपन के उन खूबसूरत दिनों को जब पूरी दुनिया को मैं अपनी मुट्ठी में कैद कर लेना चाहता था. पूरे दिन दौड़भाग, उछलकूद और फिर घर आ कर मां की गोद में सिमट जाना. तब मेरी यही दिनचर्या हुआ करती थी. उस दौर में मां के आंचल में कैद होना भी अच्छा लगता था क्यों कि इस से आजाद होना मेरे अपने हाथ में था.

सचमुच बहुत आसान था मां के प्यार से आजादी पा लेना. मुझे याद था आजादी का वह पहला कदम जब हॉस्टल के नाम पर मैं मां से दूर जा रहा था.

“बेटा, अपने शहर में भी तो अच्छे कॉलेज हैं. क्या दूसरे शहर जा कर हॉस्टल में रह कर ही पढ़ना जरूरी है ?” मां ने उदास स्वर में कहा था.

तब मां को पापा ने समझाया था ,” देखो प्रतिभा पढ़ाई तो हर जगह हो सकती है मगर तेरे बेटे के सपने बाहर जा कर ही पूरे होंगे क्यों कि वहां ए ग्रेड की पढ़ाई होती है.”

“पता नहीं नए लोगों के बीच अनजान शहर में कौन सा सपना पूरा हो जाएगा जो यहां नहीं होगा? मेरे बच्चे को ढंग का खाना भी नहीं मिलेगा और कोई पूछने वाला भी नहीं होगा कि किसी चीज की कमी तो नहीं.”

मां मुझे आजादी देना नहीं चाहती थी मगर मैं हर बंधन से आजाद हो कर दूर उड़ जाना चाहता था.

तब मैं ने मां के हाथों को अपने हाथ में ले कर कहा था,” मान जाओ न मां मेरे लिए…”

और मां ने भीगी पलकों के साथ मुझे वह आजादी दे दी थी. मैं हॉस्टल चला गया था. यह पहली आजादी थी मेरी. अपनी जिंदगी का बेहद खूबसूरत वक्त बिताया था मैं ने हॉस्टल में. पढ़ाई के बाद जल्द ही मुझे नौकरी भी मिल गई थी. नौकरी मिली तो शादी की बातें होने लगीं.

इधर अपने ऑफिस की एक लड़की प्रिया मुझे पसंद आ गई थी. वह दिखने में जितनी खूबसूरत थी दिमाग की भी उतनी ही तेज थी. बातें भी मजेदार किया करती. उस के कपड़े काफी स्टाइलिश और स्मार्ट होते जिन में उस का लुक निखर कर सामने आता. मैं उस पर से नजरें हटा ही नहीं पाता था.

एक दिन मैं ने उसे प्रपोज कर दिया. वह थोड़ा अचकचाई फिर उस ने भी मेरा प्यार स्वीकार कर लिया. यह बात मैं ने घर में बताई तो मेरे दादाजी और पिताजी भड़क उठे.

दादाजी ने स्पष्ट कहा,” ऐसा नहीं हो सकता. तू गैर जाति की लड़की से शादी करेगा तो हमारे नातेरिश्तेदार क्या बोलेंगे?”

मां ने दबी जबान से मेरा पक्ष लिया तो उन लोगों ने मम्मी को चुप करा दिया. तब मैं ने मां के आगे अपनी भड़ास निकालते हुए कहा था,” मां आप एक बात सुन लो. मुझे शादी इसी लड़की से करनी है चाहे कुछ भी हो जाए. आप ही बताओ आज के जमाने में भला जात धर्म की बात कौन देखता है? मैं नहीं मानता इन बंधनों को. अगर मुझे यह शादी नहीं करने दी गई तो मैं कभी भी खुश नहीं रह पाऊंगा.”

मां बहुत देर तक कुछ सोचती रहीं. फिर मेरी खुशी की खातिर मां ने पिताजी और दादा जी को मना लिया. उन्होंने पता नहीं दादा जी को ऐसा क्या समझाया कि वे शादी के लिए तुरंत मान गए. पिताजी ने भी फिर विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा. इस तरह मां ने मुझे जातपांत और ऊंचनीच के उन बंधनों से आजादी दे कर प्रिया के साथ एक खूबसूरत जिंदगी की सौगात दी थी.

प्रिया दुल्हन बन कर मेरे घर आ गई थी. मां बहुत खुश थीं कि उन्हें अब एक बेटे के साथ बेटी भी मिल गई है मगर प्रिया के तो तेवर ही अलग निकले. उसे किसी भी काम में मां की थोड़ी सी भी दखलंदाजी बर्दाश्त के बाहर थी. मां कोई काम अपने तरीके से करने लगतीं तो तुरंत प्रिया वहां पहुंच जाती और मां को बिठा देती. मां धीरेधीरे खुद ही चुपचाप बैठी रहने लगी. वह काफी खामोश हो गई थीं.

इस बीच हमारे बेटे का जन्म हुआ तो पहली दफा मैं ने मां के चेहरे पर वह खुशी देखी जो आज तक नहीं देखी थी. अब तो मां पोते को गोद में लिए ही बैठी रहतीं. शुरू में तो प्रिया ने कुछ भी नहीं कहा क्यों कि उसे बच्चे को संभालने में मदद मिल जाती थी. बेटे के बाद हमारी बिटिया ने भी जन्म ले लिया. मां ने दोनों बच्चों की बहुत सेवा की थी. दोनों को एक साथ संभालना प्रिया के वश की बात नहीं थी. मां के कारण दोनों बच्चे अच्छे से पल रहे थे.

इधर एक दिन अचानक दिल का दौरा पड़ने से पिताजी चल बसे. मां अकेली रह गई थीं मगर बच्चों के साथ अपना दिल लगाए रखतीं. अब बेटा 6 साल का और बेटी 4 साल की हो गई थी. सब ठीक चल रहा था. मगर इधर कुछ समय से प्रिया फिर से मां के कारण झुंझलाई सी रहने लगी थी. वह अक्सर मुझ से मां की शिकायतें करती और मैं मां को बात सुनाता. मां खामोशी से सब सुनती रहतीं.

एक दिन तो हद ही हो गई जब प्रिया अपनी फेवरिट ड्रैस लिए मेरे पास आई और चिल्लाती हुई बोली,” यह देखो अपनी मां की करतूत. जानते हो न यह ड्रैस मुझे मेरी बहन ने कितने प्यार से दी थी. 5 हजार की ड्रैस है यह. पर तुम्हारी मां ने इसे जलाने में 5 सेकंड का समय भी नहीं लगाया.”

“यह क्या कह रही हो प्रिया? मां ने इसे जला दिया?”

“हां सुरेश, मां ने इसे जानबूझ कर जला दिया. मैं इसे पहन कर अपनी सहेली की एनिवर्सरी में जो जा रही थी. मेरी खुशी कहां देख सकती हैं वह? उन्हें तो बहाने चाहिए मुझे परेशान करने के.”

“ऐसा नहीं हैं प्रिया. हुआ क्या ठीक से बताओ. जल कैसे गई यह ड्रैस ?”

” देखो सुरेश, मैं ने इसे प्रेस कर के बेड पर पसार कर रखा था. वहीं पर मां तुम्हारे और अपने कपड़े प्रेस करने लगीं. मौका देख कर गर्म प्रेस इस तरह रखी कि मेरी ड्रैस का एक हिस्सा जल गया,” प्रिया ने इल्जाम लगाते हुए कहा.

“मां यह क्या किया आप ने? थोड़ी तो सावधानी रखनी चाहिए न,” सारी बात जाने बिना मैं मां पर ही बरस पड़ा था.

मां सहमी सी आवाज में बताने लगीं,” बेटा मैं जब प्रेस कर रही थी उसी समय गोलू खेलताखेलता उधर आया और गिर पड़ा. प्रेस किनारे खड़ी कर के मैं उसे उठाने के लिए दौड़ी कि इस बीच नेहा ने हाथ मारा होगा तभी प्रेस पास रखी ड्रैस पर गिर गई और कपड़ा जल गया. ”

मैं समझ समझ रहा था कि गलती मां की नहीं थी मगर प्रिया ने इस मामले को काफी तूल दिया. इसी तरह की और 2 -3 घटनाएं होने के बाद मैं ने प्रिया के कहने पर मां को घर के कोने में स्थित एक अलग छोटा सा कमरा दे दिया और समझा दिया कि आप अपने सारे काम यहीं किया करो. उस दिन के बाद से मां उसी छोटे से कमरे में अपना दिन गुजारने लगीं. मैं कभीकभी उन से मिलने जाता मगर मां पहले की तरह खुल कर बात नहीं करतीं. उन की खामोश आंखों में बहुत उदासी नजर आती मगर मैं इस का कारण नहीं समझ पाता था.

शायद समझना चाहता ही नहीं था. मैं घर की शांति का वास्ता दे कर उन्हें उसी कमरे में रहे आने की सिफारिश करता क्यों कि मुझे लगता था कि मां अपने कमरे में रह कर जब प्रिया से दूर रहेंगी तो दोनों के बीच लड़ाई होने का खतरा भी कम हो जाएगा. वैसे मैं समझता था कि लड़ती तो प्रिया ही है पर इस की वजह कहीं न कहीं मां की कोई चूक हुआ करती थी.

अपने कमरे में बंद हो कर धीरेधीरे मां प्रिया से ही नहीं बल्कि मुझ से और दोनों बच्चों से भी दूर होने लगी थीं. बच्चे शुरूशुरू में दादी के कमरे में जाते थे मगर धीरेधीरे प्रिया ने उन के वहां जाने पर बंदिशें लगानी शुरू कर दी थीं. वैसे भी बच्चे बड़े हो रहे थे और उन पर पढ़ाई का बोझ भी बढ़ता जा रहा था. इसलिए दादी उन के जीवन में कहीं नहीं रह गई थीं.

प्रिया मां को उन के कमरे में ही खाना दे आती. मां पूरे दिन उसी कमरे में चुपचाप बैठी रहतीं. कभी सो जातीं तो कभी टहलने लगतीं. उन के चेहरे की उदासी बढ़ती जा रही थी. मैं यह सब देखता था पर पर कभी भी इस उदासी का अर्थ समझ नहीं पाया था. यह नहीं सोच सका था कि मां के लिए यह एकांतवास कितना कठिन होगा.

पर आज जब मुझे 10 दिनों के एकांतवास से आजादी मिली तो समझ में आया कि हमेशा से मुझे हर तरह की आजादी देने वाली मां को मैं ने किस कदर कैद कर के रखा है. आज मैं समझ सकता हूं कि मां जब अकेली कमरे में बैठी खाना खाती होंगी तो दिल में कैसी हूक उठती होगी. कैसे निबाला गले में अटक जाता होगा. उस समय कोई उन की पीठ पर थपकी देने वाला भी नहीं होता होगा. खाना आधा पेट खा कर ही बिस्तर पर लुढ़क जाती होंगी. कभी आंखें नम होती होंगी तो कोई पूछने वाला नहीं होता होगा. बच्चों के साथ हंसने वाली मां हंसने को तरस जाती होंगी और पुराने दिनों की भूलभुलैया में खुद को मशगूल रखने की कोशिश में लग जाती होंगी. सुबह से शाम तक अपनी खिड़की के बाहर उछलकूद मचाते पक्षियों के झुंड में अपने दुखदर्द का भी कोई साथी ढूंढती रह जाती होंगी.

अस्पताल की सारी कागजी कार्यवाही पूरी करने के बाद मैं ने गाड़ी बुक की और घर के लिए निकल पड़ा. अचानक घर पहुंच कर मैं सब को सरप्राइज करना चाहता था खासकर अपनी मां को. आइसोलेशन के इन 10 दिनों में मैं ने बीती जिंदगी का हर अध्याय फिर से पढ़ा और समझा था. मुझे एहसास हो चुका था कि एकांतवास का दंश कितना भयानक होता है. मैं ने मन ही मन एक ठोस फैसला लिया और मेरा चेहरा संतोष से खिल उठा.

घर पहुंचा तो स्वागत में प्रिया और दोनों बच्चे आ कर खड़े हो गए. सब के चेहरे खुशी और उत्साह से खिले हुए थे. मगर हमेशा की तरह एक चेहरा गायब था. प्रिया और बच्चों को छोड़ मैं सीधा घर के उसी उपेक्षित से कोने वाले कमरे में गया. मां मुझे देख कर खुशी से चीख पड़ीं. वह दौड़ कर आईं और रोती हुई मुझे गले लगा लिया. मेरी आंखें भी भीग गई थीं. मैं झुका और उन के पांवों में पड़ कर देर तक रोता रहा. फिर उन्हें ले कर बाहर आया.

मैं ने पिछले कई सालों से आइसोलेशन का दर्द भोगती अपनी बूढ़ी मां से कहा,” मां आज से आप हम सबों के साथ एक ही जगह रहेंगी. आप अकेली एक कमरे में बंध कर नहीं रहेंगी. मां पूरा घर आप का है.”

मां विस्मित सी मेरी तरफ प्यार से देख रही थीं. आज प्रिया ने भी कुछ नहीं कहा. शायद मेरी अनुपस्थिति में दूर रहने का गम उस ने भी महसूस किया था. बच्चे खुशी से तालियां बजा रहे थे और मेरा दिल यह सोच कर बहुत सुकून महसूस कर रहा था कि आज पहली बार मैं ने मां को एकांतवास से आजादी दिलाई है. उधर मां को लग रहा था जैसे बेटे की नेगेटिव रिपोर्ट से उन की जिंदगी पॉजिटिव हो गई है.

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May 17, 2022 at 12:47PM

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