Tuesday 27 April 2021

Short Story : वापसी

आज फिर शुभ्रा का खत आया था, स्पीड पोस्ट से. मैं हैरान था कि हर रोज तो मोबाइल पर इतनी बातें होती हैं फिर खत लिखने की नौबत कैसे आ गई. दरअसल, हमें मिले साल से ऊपर हो गया था, इसीलिए उस के गिलेशिकवे बहुत बढ़ गए थे. भारी मन से मैं उस का खत पढ़ने लगा. उस के खत में शिकायतें, शिकवे, उलाहने थे. अगले पेज पर भी बदस्तूर एकदूसरे की जुदाई में गीली लकडि़यों की तरह सुलगते, पानी के बिना मछली की तरह तड़पते और साबुन की टिकिया की तरह घुलते जाने का जिक्र था.

एक बात हर तीसरे वाक्य के बाद लिखी थी, ‘कहीं तुम मुझ  से दूर तो नहीं हो जाओगे न, मुंह तो नहीं फेर लोगे? मैं ने तो अपना तनमन तुम्हें समर्पित कर दिया, कहीं तुम भी मेरे पति की तरह तो नहीं करोगे? मेरे हो कर भी.’

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फिर भावुक शब्दों में लिखा था, ‘मैं यहां इतने लाखों इंसानों के बीच अकेली, लगातार अपनी पहचान खोती जा रही हूं. तुम में वह नजर आता है जो दूसरों में नजर नहीं आता. मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहने में गर्व महसूस करूंगी. कहीं तुम बदलने तो नहीं लगे हो?’ तुम्हारी बातों से तो लगता है कि तुम हारने लगे हो. तुम मिले थे तो लगा था कि अब मेरा कोई है जिस के सहारे मैं जीवन को सार्थक ढंग से काट सकूंगी. अब लगातार तुम से दूर रह कर एक अनसोचा डर मुझे खाए जा रहा है कि कहीं मैं तुम्हें खो न दूं. अब तुम से कब मुलाकात होगी. तुम मिलो तो दिल का सारा गर्द व गुबार उतरे.’

पिछले 1 साल से शुभ्रा मेरी जिंदगी में तूफान बन कर आई थी. दिन में कई बार फोन करती. अपनी कहानियां मुझ से डिस्कस करती. हमारे बीच हर किस्म का फासला था, उम्र का, स्थान का, खयालात का, नजरिए का. 1 साल पहले दिल्ली में एक साहित्यिक गोष्ठी में शुभ्रा से मेरा परिचय हुआ था. उस गोष्ठी में मेरा महत्त्वपूर्ण आख्यान था. शुभ्रा की शिरकत भी एक वक्ता की हैसियत से थी. वह एक सरकारी कालेज में लैक्चरर थी. उस के 2 कविता संग्रह आ चुके थे. विवाहित थी और 2 बच्चों की मां थी. विश्वविद्यालय परिसर में बने विश्रामगृह में हमें ठहराया गया था. वहां हमारे कमरे आमनेसामने थे. मेरे नाम से वह बहुत पहले से ही वाकिफ थी क्योंकि मेरी कहानियां पिछले कई बरसों से अच्छी पत्रिकाओं में छप रही थीं और मेरे  5 कहानी संग्रह भी छप चुके थे.

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अभी गोष्ठी का पहला ही दिन था और शुभ्रा ने मुझे ढूंढ़ कर अपना परिचय दिया, ‘मैं शुभ्रा वर्मा. आप तो मुझे जानते नहीं होंगे मगर मैं आप को नाम व चेहरे से अच्छी तरह जानतीपहचानती हूं.’

मैं ने मजाक में कहा, ‘क्या मेरा नाम इतना बदनाम है कि बिना अपना परिचय दिए आप ने मुझे पहचान लिया?’

‘नहीं, सर, आप की तो हमारे शहर की सभाओं में अच्छी धूम है. हम तो आप को आमंत्रित करने की योजना बना रहे थे. मैं तो समझती थी कि आप खासे बुजुर्ग होंगे, जैसा कि आप की कहानियों की परिपक्वता से अंदाजा लगता था मगर आप तो मुझ से भी जवान निकले.’

‘अजी, अभी तो मैं जवां हूं मगर आप भी कम हसीन नहीं हैं.’

बड़ी देर तक हम साथसाथ बैठे चहकते रहे. गोष्ठी के पहले सत्र के बाद शाम को हम कनाट प्लेस की तरफ घूमने निकल गए. शुभ्रा का अंतरंग साथ पाने के लिए मैं ने टैक्सी कर ली थी. इतने सारे लोगों की भीड़ होते हुए भी हम एकदूसरे में इतने खो गए थे कि सब से किनारे होते गए और पहले ही दिन एकदूसरे के इतने करीब आ गए कि कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था.

शुभ्रा तो मेरे नाम की दीवानी थी. मेरी बहुत सी कहानियों की कटिंग उस ने फाइलों में संभाल कर रखी हुई थी. कई कहानियों के अंत उसे पसंद नहीं थे. उन के बारे में हम बातें करते रहे. लगातार बातें करते वह जरा नहीं थकी थी. मेरी कई कहानियां उसे जबानी याद थीं. इस वजह से भी मेरी उत्सुकता उस में बढ़ गई थी. एक तो वह गजब की सुंदर थी और फिर बुद्धिजीवी भी. ऐसी स्त्रियां तो कहानियों में ही मिलती हैं. उस ने लेखन के बारे में हजारों सवाल पूछे. वह ठहरी साहित्य में पीएचडी और मैं विज्ञान में स्नातक.

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साहित्य शुभ्रा के रोमरोम में बसता था. वह पागलों की तरह साहित्य को समर्पित थी. बस, एक समस्या थी उस की. पढ़ने के मामले में उस की बात ठीक थी मगर जब कुछ लिखने की बात आती तो कागजकलम दगा दे जाते थे.

उस शाम हम 10 बजे तक कनाट प्लेस के गोल बरामदों में घूमते रहे. पहले दिन ही उस ने अपने जीवन की सारी बातें मुझे बता दीं और मेरे व्यक्तिगत जीवन में भी झांक लिया था. अकेले दिल्ली आने की यह उस की पहली यात्रा थी. उस के पति महोदय को उस के साथ आना था मगर ऐन वक्त पर 1 दिन पहले उसे अपने बौस के साथ कोलकाता जाना पड़ा. बच्चे अपनी मां को सौंप कर शुभ्रा इस 300 किलोमीटर के सफर पर अकेली चली आई थी. विश्वविद्यालय के सभागार में प्रेमचंद पर प्रवचन देने का लोभ वह रोक न पाई. शुभ्रा ने पीएचडी प्रेमचंद के साहित्य पर ही की थी. अगले दिन कवि सम्मेलन था जिस में उसे भी कविता सुनानी थी. देशभर से चुने हुए साहित्यकार आमंत्रित थे.

बारबार शुभ्रा का मुझे सर कहना अखर रहा था. मैं ने कह दिया कि अब हमारी दोस्ती काफी गहरी हो चुकी है, अब तो मुझे सर कह कर न बुलाओ.

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शुभ्रा चहकी, ‘नहीं सर, आप तो मेरे गुरु हैं. अब तो आप की दीक्षा से ही मेरा कल्याण होगा. चाहे दोस्त समझिए या अपनी शिष्या, अब तो आप ही मेरा जीवन सार्थक करेंगे. भागतेभागते मैं थक गई हूं. आप का स्वभाव मुझे बहुत अच्छा लगा और जीवन के प्रति आप का दृष्टिकोण…’

मुझे झिझक हो रही थी. इतनी सुंदर और सुशिक्षित स्त्री, उम्र में मुझ से 10 साल छोटी, सरकारी कालेज में लैक्चरर, मुझ साधारण व्यक्ति की इतनी इज्जत करती है, शायद मेरी कहानियों की वजह से. ऐसी औरत का साथ पाने के लिए जैसे मैं बरसों से तरस रहा था. अब मेरी चिरसंचित इच्छा पूरी होने जा रही थी. अंदर ही अंदर मैं बुरी तरह कांप रहा था. कहीं यह बंद आंखों का सपना तो नहीं. उस के साथ कहां तक जा पाऊंगा मैं.

शुभ्रा कहे जा रही थी, ‘आप की कहानियों की जान है आप की सटीक व सधी हुई भाषा और आज के समय के अनुरूप आप के कथानक. आप पाठक को उलझाते नहीं, उसे सीधे समस्या की जड़ में ले कर जाते हैं. आप की कथाओं में गजब की विविधा है. मैं सोचती थी कि यह आदमी कितनी जगह घूमता होगा. इतने अद्भुत स्थल, इतने अनोखे मंजर, देशदुनिया के हर धर्म व शेड के लोगों को कथा का पात्र बनाना. सर, आप सोच भी नहीं सकते कि कुछ पत्रिकाओं के मैं सारे अंक खरीदती हूं, आप की कोई नई कहानी पढ़ने के लिए. यू टच माई हार्ट, सर. बाकी किताबें तो दिमाग को कंपकंपाती हैं मगर आप के पात्र सीधे मेरे मन को छूते हैं.’

खाना तो हम बाहर ही खा कर आए थे. गैस्ट हाउस के डाइनिंग हाल में अभी मेहमानों ने खाना खत्म नहीं किया था. कुछ लोग मुझे ढूंढ़ रहे थे. मुझे उन से दूर रखने के लिए शुभ्रा मुझे अपने कमरे में ही ले गई. पजैसिव होने की इंतहा थी यह.

मन ही मन मैं भी गहरे रोमांच में था. चाहता था कि हमारा यह संबंध प्रगाढ़ से प्रगाढ़तम हो. मगर बहुत गहरे धंसने का मेरा इरादा नहीं था. मैं तो उसे नजदीक से छू कर महसूस करना चाहता था. हमारे बीच हजार मील का फासला था. हम दोनों शादीशुदा थे, बालबच्चों वाले थे. हमारी दोस्ती का आधार साहित्य ही था और ऐक्सफैक्टर था जो विपरीत लिंगों में अकसर होता है कि वे एकदूसरे के प्रति बड़ी तेजी से खिंचे चले आते हैं मगर बाद में…

शुभ्रा तो दीवानगी की हद तक मुझे पसंद करने लगी थी. इन 3 दिनों की गोष्ठी का एकएक पल मेरे साथ बिताना चाहती थी. दरअसल, मेरी भी कमजोरी थी कि मैं भी उस के रूप पर मोहित हो गया था. इतना कभी किसी ने मुझे नहीं चाहा था. मैं चाहता था कि वह मुझे अपनी बांहों में भर कर मेरा कचूमर निकाल दे.

शुभ्रा कह रही थी, ‘सर, आप का तो पता नहीं मगर मुझे आज मन की मुराद मिल गई है. आप को इतना करीब देख कर मैं ने अपनी सभी वर्जनाओं और मर्यादाओं को तिलांजलि देने का मन बना लिया है. किसी भी कीमत पर मैं आप को सारी उम्र के लिए अपने लिए मांग रही हूं. मेरा सबकुछ ले लो मगर अपना साथ मुझे दे दो. आप के साथ मेरी गजब की कैमिस्ट्री मिलती है. मैं जानती हूं कि इतनी दूर रह कर हम एकदूसरे के साथ किस तरह जुड़े रह सकते हैं. आजकल मोबाइल है, पत्र व्यवहार है और फिर समयसमय पर हम मिलेंगे न. आप सबकुछ जानतेसमझते हैं. मैं खुद ही स्वयं को आप को समर्पित कर रही हूं. समाज इसे गलत समझता होगा मगर आप को सदा के लिए अपने दिल में बसाने के लिए मैं इसे जरूरी समझती हूं. हमारे बीच जिस्म की दीवार नहीं होनी चाहिए. मेरा स्वार्थ आप से कुछ अनुचित काम करवाना नहीं है. मगर आप का साथ अब मुझ से छूटेगा नहीं.’

शुभ्रा मन बना चुकी थी. अब उसे कोई तर्क दे कर समझाना संभव नहीं था. अंदर ही अंदर खुद मैं भी उस के रूप का दीवाना हो चला था. वह मेरे गले से लिपट गई और उस रात हम ने दिल खोल कर एकदूसरे से प्यार किया. धनुष की प्रत्यंचा पर बाण सरीखी चढ़ी शुभ्रा ने दिल से मेरे सामने खुद को प्रस्तुत कर दिया. मैं तो यह देख कर रसविभोर हो गया कि साहित्य में लिखी जाने वाली ये बातें कभी मेरे साथ सच भी हो सकती हैं. मैं ने शुभ्रा से कोई सवाल नहीं किया. उस ने इस जिस्मानी प्रेम को ले कर एक ही तर्क दिया था कि दिमागी खुराफात के साथसाथ अगर हम में एकदूसरे के प्रति शारीरिक आकर्षण भी होगा तो हमारा साथ कभी छूटेगा नहीं. आप मेरी तरफ खिंचे चले आएंगे.

वे 3 रातें मैं ने शुभ्रा के साथ असीम आनंद के साथ काटीं. पहले मुझे लगा था कि शायद पति में कोई कमी होने के कारण शुभ्रा ने पहली ही नजर में मुझ से जिस्मानी संबंध बनाने का मन बना लिया हो मगर जब उस से विस्तार में चर्चा हुई तो पता चला कि अपने पति से उसे कोई शिकायत नहीं थी. एक ही ढर्रे का जीवन जीतेजीते वह बोर हो गई थी. मुझे सामने पा कर उसे लगा कि हजार मील का फासला पाटने के लिए उस के पास एक ही रास्ता है कि वह मुझ से आशिक व महबूब की तरह पेश आए. शुभ्रा के प्रस्ताव में कोई गंदगी नहीं थी. वह आज की औरत की तरह अपने पैरों से चल कर मंजिल तक पहुंचना चाहती थी. साहित्य में दूसरे आदमी के प्रति अतिरिक्त मोह को कागज पर उतारना अलग बात थी मगर कुछ नया अनुभव करने के लिए शुभ्रा ने भी जिस्म की हदों से आगे देखने का साहस करना चाहा और वह कामयाब रही.

चलते समय हमारा मन बहुत भारी था. हमें अपनेअपने घरों को लौटना था. सपनों की दुनिया की अवधि कितनी होती है. आंख खुलते ही आदमी खुद को यथार्थ की जमीन पर पाता है.

आज शुभ्रा के इस भावुक खत ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि हमारे बीच आखिर कैसा रिश्ता है. शुभ्रा भी अपने उद्देश्य से भटक रही थी और मैं भी उसे ही सबकुछ मान बैठा था. ठंडे मन से मैं ने उसे जवाब दिया, ‘शुभ्रा, अपने सुंदर नाम के विपरीत तुम्हारा यह अरण्य रोदन हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा. मान लो, हमें समाज का डर न भी हो तो भी क्या? टीनऐजर्स की तरह हमारा यह व्यवहार कहां तक उचित है. एक सही लेखक समाज को सच्ची राह दिखाता है. साहित्य समाज का दर्पण होता है.

‘एक बार हम बहक गए तो इस का यह अर्थ नहीं कि हम कीचड़ से बाहर ही न निकलें. अपनी सोच को साफ करो और साहित्य को मिशन की तरह समझो और स्वस्थ साहित्य की रचना करो. किसी शायर ने ठीक ही कहा है – जिस्म हमराह बने तो इसे अपना समझो, ये अगर बीच में आए तो हटा दो यारो. तुम से एक अच्छी कहानी के इंतजार में, तुम्हारा… सर.’ पत्र पोस्ट करते ही मेरे मन से सारा बोझ हट गया था.

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आज फिर शुभ्रा का खत आया था, स्पीड पोस्ट से. मैं हैरान था कि हर रोज तो मोबाइल पर इतनी बातें होती हैं फिर खत लिखने की नौबत कैसे आ गई. दरअसल, हमें मिले साल से ऊपर हो गया था, इसीलिए उस के गिलेशिकवे बहुत बढ़ गए थे. भारी मन से मैं उस का खत पढ़ने लगा. उस के खत में शिकायतें, शिकवे, उलाहने थे. अगले पेज पर भी बदस्तूर एकदूसरे की जुदाई में गीली लकडि़यों की तरह सुलगते, पानी के बिना मछली की तरह तड़पते और साबुन की टिकिया की तरह घुलते जाने का जिक्र था.

एक बात हर तीसरे वाक्य के बाद लिखी थी, ‘कहीं तुम मुझ  से दूर तो नहीं हो जाओगे न, मुंह तो नहीं फेर लोगे? मैं ने तो अपना तनमन तुम्हें समर्पित कर दिया, कहीं तुम भी मेरे पति की तरह तो नहीं करोगे? मेरे हो कर भी.’

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फिर भावुक शब्दों में लिखा था, ‘मैं यहां इतने लाखों इंसानों के बीच अकेली, लगातार अपनी पहचान खोती जा रही हूं. तुम में वह नजर आता है जो दूसरों में नजर नहीं आता. मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहने में गर्व महसूस करूंगी. कहीं तुम बदलने तो नहीं लगे हो?’ तुम्हारी बातों से तो लगता है कि तुम हारने लगे हो. तुम मिले थे तो लगा था कि अब मेरा कोई है जिस के सहारे मैं जीवन को सार्थक ढंग से काट सकूंगी. अब लगातार तुम से दूर रह कर एक अनसोचा डर मुझे खाए जा रहा है कि कहीं मैं तुम्हें खो न दूं. अब तुम से कब मुलाकात होगी. तुम मिलो तो दिल का सारा गर्द व गुबार उतरे.’

पिछले 1 साल से शुभ्रा मेरी जिंदगी में तूफान बन कर आई थी. दिन में कई बार फोन करती. अपनी कहानियां मुझ से डिस्कस करती. हमारे बीच हर किस्म का फासला था, उम्र का, स्थान का, खयालात का, नजरिए का. 1 साल पहले दिल्ली में एक साहित्यिक गोष्ठी में शुभ्रा से मेरा परिचय हुआ था. उस गोष्ठी में मेरा महत्त्वपूर्ण आख्यान था. शुभ्रा की शिरकत भी एक वक्ता की हैसियत से थी. वह एक सरकारी कालेज में लैक्चरर थी. उस के 2 कविता संग्रह आ चुके थे. विवाहित थी और 2 बच्चों की मां थी. विश्वविद्यालय परिसर में बने विश्रामगृह में हमें ठहराया गया था. वहां हमारे कमरे आमनेसामने थे. मेरे नाम से वह बहुत पहले से ही वाकिफ थी क्योंकि मेरी कहानियां पिछले कई बरसों से अच्छी पत्रिकाओं में छप रही थीं और मेरे  5 कहानी संग्रह भी छप चुके थे.

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अभी गोष्ठी का पहला ही दिन था और शुभ्रा ने मुझे ढूंढ़ कर अपना परिचय दिया, ‘मैं शुभ्रा वर्मा. आप तो मुझे जानते नहीं होंगे मगर मैं आप को नाम व चेहरे से अच्छी तरह जानतीपहचानती हूं.’

मैं ने मजाक में कहा, ‘क्या मेरा नाम इतना बदनाम है कि बिना अपना परिचय दिए आप ने मुझे पहचान लिया?’

‘नहीं, सर, आप की तो हमारे शहर की सभाओं में अच्छी धूम है. हम तो आप को आमंत्रित करने की योजना बना रहे थे. मैं तो समझती थी कि आप खासे बुजुर्ग होंगे, जैसा कि आप की कहानियों की परिपक्वता से अंदाजा लगता था मगर आप तो मुझ से भी जवान निकले.’

‘अजी, अभी तो मैं जवां हूं मगर आप भी कम हसीन नहीं हैं.’

बड़ी देर तक हम साथसाथ बैठे चहकते रहे. गोष्ठी के पहले सत्र के बाद शाम को हम कनाट प्लेस की तरफ घूमने निकल गए. शुभ्रा का अंतरंग साथ पाने के लिए मैं ने टैक्सी कर ली थी. इतने सारे लोगों की भीड़ होते हुए भी हम एकदूसरे में इतने खो गए थे कि सब से किनारे होते गए और पहले ही दिन एकदूसरे के इतने करीब आ गए कि कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था.

शुभ्रा तो मेरे नाम की दीवानी थी. मेरी बहुत सी कहानियों की कटिंग उस ने फाइलों में संभाल कर रखी हुई थी. कई कहानियों के अंत उसे पसंद नहीं थे. उन के बारे में हम बातें करते रहे. लगातार बातें करते वह जरा नहीं थकी थी. मेरी कई कहानियां उसे जबानी याद थीं. इस वजह से भी मेरी उत्सुकता उस में बढ़ गई थी. एक तो वह गजब की सुंदर थी और फिर बुद्धिजीवी भी. ऐसी स्त्रियां तो कहानियों में ही मिलती हैं. उस ने लेखन के बारे में हजारों सवाल पूछे. वह ठहरी साहित्य में पीएचडी और मैं विज्ञान में स्नातक.

ये भी पढ़ें- किस्तों में बंटती जिंदगी – भाग 3 : द्रोपा अपनी इच्छाओं को पूरा क्यों नहीं कर पा रही थी

साहित्य शुभ्रा के रोमरोम में बसता था. वह पागलों की तरह साहित्य को समर्पित थी. बस, एक समस्या थी उस की. पढ़ने के मामले में उस की बात ठीक थी मगर जब कुछ लिखने की बात आती तो कागजकलम दगा दे जाते थे.

उस शाम हम 10 बजे तक कनाट प्लेस के गोल बरामदों में घूमते रहे. पहले दिन ही उस ने अपने जीवन की सारी बातें मुझे बता दीं और मेरे व्यक्तिगत जीवन में भी झांक लिया था. अकेले दिल्ली आने की यह उस की पहली यात्रा थी. उस के पति महोदय को उस के साथ आना था मगर ऐन वक्त पर 1 दिन पहले उसे अपने बौस के साथ कोलकाता जाना पड़ा. बच्चे अपनी मां को सौंप कर शुभ्रा इस 300 किलोमीटर के सफर पर अकेली चली आई थी. विश्वविद्यालय के सभागार में प्रेमचंद पर प्रवचन देने का लोभ वह रोक न पाई. शुभ्रा ने पीएचडी प्रेमचंद के साहित्य पर ही की थी. अगले दिन कवि सम्मेलन था जिस में उसे भी कविता सुनानी थी. देशभर से चुने हुए साहित्यकार आमंत्रित थे.

बारबार शुभ्रा का मुझे सर कहना अखर रहा था. मैं ने कह दिया कि अब हमारी दोस्ती काफी गहरी हो चुकी है, अब तो मुझे सर कह कर न बुलाओ.

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शुभ्रा चहकी, ‘नहीं सर, आप तो मेरे गुरु हैं. अब तो आप की दीक्षा से ही मेरा कल्याण होगा. चाहे दोस्त समझिए या अपनी शिष्या, अब तो आप ही मेरा जीवन सार्थक करेंगे. भागतेभागते मैं थक गई हूं. आप का स्वभाव मुझे बहुत अच्छा लगा और जीवन के प्रति आप का दृष्टिकोण…’

मुझे झिझक हो रही थी. इतनी सुंदर और सुशिक्षित स्त्री, उम्र में मुझ से 10 साल छोटी, सरकारी कालेज में लैक्चरर, मुझ साधारण व्यक्ति की इतनी इज्जत करती है, शायद मेरी कहानियों की वजह से. ऐसी औरत का साथ पाने के लिए जैसे मैं बरसों से तरस रहा था. अब मेरी चिरसंचित इच्छा पूरी होने जा रही थी. अंदर ही अंदर मैं बुरी तरह कांप रहा था. कहीं यह बंद आंखों का सपना तो नहीं. उस के साथ कहां तक जा पाऊंगा मैं.

शुभ्रा कहे जा रही थी, ‘आप की कहानियों की जान है आप की सटीक व सधी हुई भाषा और आज के समय के अनुरूप आप के कथानक. आप पाठक को उलझाते नहीं, उसे सीधे समस्या की जड़ में ले कर जाते हैं. आप की कथाओं में गजब की विविधा है. मैं सोचती थी कि यह आदमी कितनी जगह घूमता होगा. इतने अद्भुत स्थल, इतने अनोखे मंजर, देशदुनिया के हर धर्म व शेड के लोगों को कथा का पात्र बनाना. सर, आप सोच भी नहीं सकते कि कुछ पत्रिकाओं के मैं सारे अंक खरीदती हूं, आप की कोई नई कहानी पढ़ने के लिए. यू टच माई हार्ट, सर. बाकी किताबें तो दिमाग को कंपकंपाती हैं मगर आप के पात्र सीधे मेरे मन को छूते हैं.’

खाना तो हम बाहर ही खा कर आए थे. गैस्ट हाउस के डाइनिंग हाल में अभी मेहमानों ने खाना खत्म नहीं किया था. कुछ लोग मुझे ढूंढ़ रहे थे. मुझे उन से दूर रखने के लिए शुभ्रा मुझे अपने कमरे में ही ले गई. पजैसिव होने की इंतहा थी यह.

मन ही मन मैं भी गहरे रोमांच में था. चाहता था कि हमारा यह संबंध प्रगाढ़ से प्रगाढ़तम हो. मगर बहुत गहरे धंसने का मेरा इरादा नहीं था. मैं तो उसे नजदीक से छू कर महसूस करना चाहता था. हमारे बीच हजार मील का फासला था. हम दोनों शादीशुदा थे, बालबच्चों वाले थे. हमारी दोस्ती का आधार साहित्य ही था और ऐक्सफैक्टर था जो विपरीत लिंगों में अकसर होता है कि वे एकदूसरे के प्रति बड़ी तेजी से खिंचे चले आते हैं मगर बाद में…

शुभ्रा तो दीवानगी की हद तक मुझे पसंद करने लगी थी. इन 3 दिनों की गोष्ठी का एकएक पल मेरे साथ बिताना चाहती थी. दरअसल, मेरी भी कमजोरी थी कि मैं भी उस के रूप पर मोहित हो गया था. इतना कभी किसी ने मुझे नहीं चाहा था. मैं चाहता था कि वह मुझे अपनी बांहों में भर कर मेरा कचूमर निकाल दे.

शुभ्रा कह रही थी, ‘सर, आप का तो पता नहीं मगर मुझे आज मन की मुराद मिल गई है. आप को इतना करीब देख कर मैं ने अपनी सभी वर्जनाओं और मर्यादाओं को तिलांजलि देने का मन बना लिया है. किसी भी कीमत पर मैं आप को सारी उम्र के लिए अपने लिए मांग रही हूं. मेरा सबकुछ ले लो मगर अपना साथ मुझे दे दो. आप के साथ मेरी गजब की कैमिस्ट्री मिलती है. मैं जानती हूं कि इतनी दूर रह कर हम एकदूसरे के साथ किस तरह जुड़े रह सकते हैं. आजकल मोबाइल है, पत्र व्यवहार है और फिर समयसमय पर हम मिलेंगे न. आप सबकुछ जानतेसमझते हैं. मैं खुद ही स्वयं को आप को समर्पित कर रही हूं. समाज इसे गलत समझता होगा मगर आप को सदा के लिए अपने दिल में बसाने के लिए मैं इसे जरूरी समझती हूं. हमारे बीच जिस्म की दीवार नहीं होनी चाहिए. मेरा स्वार्थ आप से कुछ अनुचित काम करवाना नहीं है. मगर आप का साथ अब मुझ से छूटेगा नहीं.’

शुभ्रा मन बना चुकी थी. अब उसे कोई तर्क दे कर समझाना संभव नहीं था. अंदर ही अंदर खुद मैं भी उस के रूप का दीवाना हो चला था. वह मेरे गले से लिपट गई और उस रात हम ने दिल खोल कर एकदूसरे से प्यार किया. धनुष की प्रत्यंचा पर बाण सरीखी चढ़ी शुभ्रा ने दिल से मेरे सामने खुद को प्रस्तुत कर दिया. मैं तो यह देख कर रसविभोर हो गया कि साहित्य में लिखी जाने वाली ये बातें कभी मेरे साथ सच भी हो सकती हैं. मैं ने शुभ्रा से कोई सवाल नहीं किया. उस ने इस जिस्मानी प्रेम को ले कर एक ही तर्क दिया था कि दिमागी खुराफात के साथसाथ अगर हम में एकदूसरे के प्रति शारीरिक आकर्षण भी होगा तो हमारा साथ कभी छूटेगा नहीं. आप मेरी तरफ खिंचे चले आएंगे.

वे 3 रातें मैं ने शुभ्रा के साथ असीम आनंद के साथ काटीं. पहले मुझे लगा था कि शायद पति में कोई कमी होने के कारण शुभ्रा ने पहली ही नजर में मुझ से जिस्मानी संबंध बनाने का मन बना लिया हो मगर जब उस से विस्तार में चर्चा हुई तो पता चला कि अपने पति से उसे कोई शिकायत नहीं थी. एक ही ढर्रे का जीवन जीतेजीते वह बोर हो गई थी. मुझे सामने पा कर उसे लगा कि हजार मील का फासला पाटने के लिए उस के पास एक ही रास्ता है कि वह मुझ से आशिक व महबूब की तरह पेश आए. शुभ्रा के प्रस्ताव में कोई गंदगी नहीं थी. वह आज की औरत की तरह अपने पैरों से चल कर मंजिल तक पहुंचना चाहती थी. साहित्य में दूसरे आदमी के प्रति अतिरिक्त मोह को कागज पर उतारना अलग बात थी मगर कुछ नया अनुभव करने के लिए शुभ्रा ने भी जिस्म की हदों से आगे देखने का साहस करना चाहा और वह कामयाब रही.

चलते समय हमारा मन बहुत भारी था. हमें अपनेअपने घरों को लौटना था. सपनों की दुनिया की अवधि कितनी होती है. आंख खुलते ही आदमी खुद को यथार्थ की जमीन पर पाता है.

आज शुभ्रा के इस भावुक खत ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि हमारे बीच आखिर कैसा रिश्ता है. शुभ्रा भी अपने उद्देश्य से भटक रही थी और मैं भी उसे ही सबकुछ मान बैठा था. ठंडे मन से मैं ने उसे जवाब दिया, ‘शुभ्रा, अपने सुंदर नाम के विपरीत तुम्हारा यह अरण्य रोदन हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा. मान लो, हमें समाज का डर न भी हो तो भी क्या? टीनऐजर्स की तरह हमारा यह व्यवहार कहां तक उचित है. एक सही लेखक समाज को सच्ची राह दिखाता है. साहित्य समाज का दर्पण होता है.

‘एक बार हम बहक गए तो इस का यह अर्थ नहीं कि हम कीचड़ से बाहर ही न निकलें. अपनी सोच को साफ करो और साहित्य को मिशन की तरह समझो और स्वस्थ साहित्य की रचना करो. किसी शायर ने ठीक ही कहा है – जिस्म हमराह बने तो इसे अपना समझो, ये अगर बीच में आए तो हटा दो यारो. तुम से एक अच्छी कहानी के इंतजार में, तुम्हारा… सर.’ पत्र पोस्ट करते ही मेरे मन से सारा बोझ हट गया था.

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April 28, 2021 at 10:00AM

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