Friday 31 January 2020

आजकल की लड़कियां : भाग 1

‘‘कुछ सुना आप ने, वो अपने मिश्रा जी हैं न… उन की बहू घर छोड़ कर चली गई,’’ औफिस से घर आते ही रमा ने चाय के साथ पति योगेश को यह सनसनीखेज खबर भी परोस दी.

‘‘कौन से मिश्रा जी? वो जो पिछली गली में रहते हैं, जिन के यहां हम भी गए थे शादी में… वो? लेकिन उस शादी के तो अभी 6 महीने भी नहीं हुए. आखिर ऐसा क्या हुआ होगा?’’ योगेश ने चाय के घूंट के साथ खबर को भी गटकने की कोशिश की, लेकिन खबर थी कि गले से नीचे ही नहीं उतर रही थी.

‘‘हांहां वही. बहू कहती है ससुराल में उसे घुटन होती है. ये आजकल की लड़कियां भी न… रिश्तों को तो कुछ समझती ही नहीं हैं. मानो रिश्ते न हुए नए फैशन के कपड़े हो गए. इधर जरा सा अनफिट हुए, उधर अलमारी से बाहर. एक हम थे जो कपड़ों को फटने तक रफू करकर के पहनते रहते थे, वैसे ही रिश्तों को भी लाख गिलेशिकवों के बावजूद निभाते रहते हैं,’’ रमा ने अपने जमाने को याद कर के ठंडी सांस ली.

‘‘लेकिन तुम्हीं ने तो एक बार बताया था कि मिश्राजी अपनी बहू को एकदम बेटी की तरह रखते हैं. न खानेपीने में पाबंदी, न घूमनेफिरने में रोकटोक. यहां तक कि अपनी बिटिया की तरह बहू को भी लेटैस्ट फैशन के कपड़े पहनने की छूट दे रखी है. फिर भला बहू को क्या परेशानी हो गई?’’

‘‘वही तो, मिश्रा जी ने पहले तो जरूरत से ज्यादा लाड़ कर के उसे सिर पर चढ़ा लिया, और देखो, अब वही लाड़ उस के सिर चढ़ कर बोलने लगा. इन बहुओं की लगाम तो कस कर ही रखनी चाहिए जैसी हमारे जमाने में रखी जाती थी. क्या मजाल कि मुंह से चूं भी निकल जाए,’’ रमा ने अपना समय याद किया.

‘‘तो तुम भी कहां खुश थीं मेरी मां से, हर वक्त रोना ही रहता था तुम्हारी जबान पर,’’ योगेश ने उस के खयालों के फूले हुए गुब्बारे को तंज की पिन चुभो कर फुस्स कर दिया.

ये भी पढ़ें- दुश्मन: सोम को अपना चेहरा ही क्यों बदसूरत लगने लगा ?

‘‘बसबस, रहने दो. तुम्हारी मां थीं ही हिटलर की कौर्बनकौपी. उन्हें तो हमेशा मुझ में कमियां ही नजर आती थीं,’’ कहते हुए रमा ने चाय के बरतन उठाए और बड़बड़ाते हुए रसोई की तरफ चल दी. योगेश ने भी टीवी चलाया और न्यूज देखने में व्यस्त हो गया. मिश्रापुराण पर एकबारगी विराम लग गया.

‘‘अरे रमा, सुना तुम ने, वह अपनी किटी ऐडमिन कांता है न, उस की बेटी अपने पति को छोड़ कर मायके वापस आ गई,’’ दूसरे दिन शाम को पार्क में पड़ोसिन शिल्पी ने उसे रोक कर अपने चटपटे अंदाज में यह ब्रेकिंग न्यूज दी तो रमा के दिमाग में एक बार फिर से मिश्राजी की बहू घूम गई.

‘‘क्या बात कर रही हो? उस ने तो लवमैरिज की थी न, फिर ऐसा क्या हुआ?’’ रमा ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘अरे, कुछ मत पूछो. ये आजकल की लड़कियां भी न. न जाने किस दुनिया में जीती हैं. कहती है मुझ से गलती हो गई. शादी के बाद मुझे पता चला कि यह मेरे लिए परफैक्ट मैच नहीं है. यह भी कोई तर्क हुआ भला?’’ शिल्पी ने हाथों के साथसाथ आंखें भी नचाईं.

‘‘अब क्या बताएं, यह तो आजकल घरघर की कहानी हो गई. बहुओं को ज्यादा छूट दो, तो उन के पर निकल आते हैं. कस कर रखो तो उन्हें घुटन होने लगती है. सहनशीलता का तो नाम ही नहीं है इन की डिक्शनरी में. शादी की पहली सालगिरह से पहले ही बेटियां मायके आ जाती हैं और बहुएं ससुराल छोड़ जाती हैं. पता नहीं कहां जाएगी यह 21वीं सदी,’’ कहते हुए रमा ने बात खत्म की और घर लौट आई.

कहने को तो रमा ने बात खत्म कर दी थी लेकिन क्या सचमुच सिर्फ बात को खत्म कर देनेभर से ही मुद्दा भी खत्म हो जाता है? नहीं न, और तब तो बिलकुल भी नहीं जब घर में खुद अपनी ही जवान औलाद हो. रमा रास्तेभर अपने बेटे प्रथम के बारे में सोचती जा रही थी.

ये भी पढ़ें- एक डाली के तीन फूल : भाग 2

उस की उम्र भी तो विवाह लायक हो गई है. सीधे, सरल स्वभाव का प्रथम अपनी पढ़ाईलिखाई पूरी कर के अब एक एमएनसी में आकर्षक पैकेज पर नौकरी कर रहा है, बेंगलुरू में अपना फ्लैट ले कर अकेला रहता है. घर का इकलौता बेटा है. देखने में भी किसी फिल्मी हीरो सा डार्क, टौल और हैंडसम है. क्या ये सब खूबियां किसी की पसंद बनने के लिए काफी नहीं हैं? लेकिन फिर भी क्या गारंटी है कि मेरी होने वाली बहू प्रथम के साथ निबाह कर लेगी. रमा के विचार थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे..

अगले भाग में पढ़ें-  हकीकत से सामना होना अभी बाकी था.

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‘‘कुछ सुना आप ने, वो अपने मिश्रा जी हैं न… उन की बहू घर छोड़ कर चली गई,’’ औफिस से घर आते ही रमा ने चाय के साथ पति योगेश को यह सनसनीखेज खबर भी परोस दी.

‘‘कौन से मिश्रा जी? वो जो पिछली गली में रहते हैं, जिन के यहां हम भी गए थे शादी में… वो? लेकिन उस शादी के तो अभी 6 महीने भी नहीं हुए. आखिर ऐसा क्या हुआ होगा?’’ योगेश ने चाय के घूंट के साथ खबर को भी गटकने की कोशिश की, लेकिन खबर थी कि गले से नीचे ही नहीं उतर रही थी.

‘‘हांहां वही. बहू कहती है ससुराल में उसे घुटन होती है. ये आजकल की लड़कियां भी न… रिश्तों को तो कुछ समझती ही नहीं हैं. मानो रिश्ते न हुए नए फैशन के कपड़े हो गए. इधर जरा सा अनफिट हुए, उधर अलमारी से बाहर. एक हम थे जो कपड़ों को फटने तक रफू करकर के पहनते रहते थे, वैसे ही रिश्तों को भी लाख गिलेशिकवों के बावजूद निभाते रहते हैं,’’ रमा ने अपने जमाने को याद कर के ठंडी सांस ली.

‘‘लेकिन तुम्हीं ने तो एक बार बताया था कि मिश्राजी अपनी बहू को एकदम बेटी की तरह रखते हैं. न खानेपीने में पाबंदी, न घूमनेफिरने में रोकटोक. यहां तक कि अपनी बिटिया की तरह बहू को भी लेटैस्ट फैशन के कपड़े पहनने की छूट दे रखी है. फिर भला बहू को क्या परेशानी हो गई?’’

‘‘वही तो, मिश्रा जी ने पहले तो जरूरत से ज्यादा लाड़ कर के उसे सिर पर चढ़ा लिया, और देखो, अब वही लाड़ उस के सिर चढ़ कर बोलने लगा. इन बहुओं की लगाम तो कस कर ही रखनी चाहिए जैसी हमारे जमाने में रखी जाती थी. क्या मजाल कि मुंह से चूं भी निकल जाए,’’ रमा ने अपना समय याद किया.

‘‘तो तुम भी कहां खुश थीं मेरी मां से, हर वक्त रोना ही रहता था तुम्हारी जबान पर,’’ योगेश ने उस के खयालों के फूले हुए गुब्बारे को तंज की पिन चुभो कर फुस्स कर दिया.

ये भी पढ़ें- दुश्मन: सोम को अपना चेहरा ही क्यों बदसूरत लगने लगा ?

‘‘बसबस, रहने दो. तुम्हारी मां थीं ही हिटलर की कौर्बनकौपी. उन्हें तो हमेशा मुझ में कमियां ही नजर आती थीं,’’ कहते हुए रमा ने चाय के बरतन उठाए और बड़बड़ाते हुए रसोई की तरफ चल दी. योगेश ने भी टीवी चलाया और न्यूज देखने में व्यस्त हो गया. मिश्रापुराण पर एकबारगी विराम लग गया.

‘‘अरे रमा, सुना तुम ने, वह अपनी किटी ऐडमिन कांता है न, उस की बेटी अपने पति को छोड़ कर मायके वापस आ गई,’’ दूसरे दिन शाम को पार्क में पड़ोसिन शिल्पी ने उसे रोक कर अपने चटपटे अंदाज में यह ब्रेकिंग न्यूज दी तो रमा के दिमाग में एक बार फिर से मिश्राजी की बहू घूम गई.

‘‘क्या बात कर रही हो? उस ने तो लवमैरिज की थी न, फिर ऐसा क्या हुआ?’’ रमा ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘अरे, कुछ मत पूछो. ये आजकल की लड़कियां भी न. न जाने किस दुनिया में जीती हैं. कहती है मुझ से गलती हो गई. शादी के बाद मुझे पता चला कि यह मेरे लिए परफैक्ट मैच नहीं है. यह भी कोई तर्क हुआ भला?’’ शिल्पी ने हाथों के साथसाथ आंखें भी नचाईं.

‘‘अब क्या बताएं, यह तो आजकल घरघर की कहानी हो गई. बहुओं को ज्यादा छूट दो, तो उन के पर निकल आते हैं. कस कर रखो तो उन्हें घुटन होने लगती है. सहनशीलता का तो नाम ही नहीं है इन की डिक्शनरी में. शादी की पहली सालगिरह से पहले ही बेटियां मायके आ जाती हैं और बहुएं ससुराल छोड़ जाती हैं. पता नहीं कहां जाएगी यह 21वीं सदी,’’ कहते हुए रमा ने बात खत्म की और घर लौट आई.

कहने को तो रमा ने बात खत्म कर दी थी लेकिन क्या सचमुच सिर्फ बात को खत्म कर देनेभर से ही मुद्दा भी खत्म हो जाता है? नहीं न, और तब तो बिलकुल भी नहीं जब घर में खुद अपनी ही जवान औलाद हो. रमा रास्तेभर अपने बेटे प्रथम के बारे में सोचती जा रही थी.

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उस की उम्र भी तो विवाह लायक हो गई है. सीधे, सरल स्वभाव का प्रथम अपनी पढ़ाईलिखाई पूरी कर के अब एक एमएनसी में आकर्षक पैकेज पर नौकरी कर रहा है, बेंगलुरू में अपना फ्लैट ले कर अकेला रहता है. घर का इकलौता बेटा है. देखने में भी किसी फिल्मी हीरो सा डार्क, टौल और हैंडसम है. क्या ये सब खूबियां किसी की पसंद बनने के लिए काफी नहीं हैं? लेकिन फिर भी क्या गारंटी है कि मेरी होने वाली बहू प्रथम के साथ निबाह कर लेगी. रमा के विचार थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे..

अगले भाग में पढ़ें-  हकीकत से सामना होना अभी बाकी था.

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February 01, 2020 at 10:56AM

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