Wednesday 31 July 2019

धुंध

स्वाति और अनिल के विवाह को 2 वर्ष ही हुए थे और वे दोनों अभी से एक दूसरे से बेजार नजर आने लगे थे. शायद ही कोईर् ऐसा दिन गुजरता हो जब उन के बीच झगड़ा न होता हो. आखिर ऐसा क्या हो गया कि दोनों के प्यार के इंद्रधनुषी रंग इतनी जल्दी बदरंग हो गए?

स्वाति के घर मेरा अचानक चले आना महज एक इत्तफाक था, क्योंकि उन दिनों सौरभ कुछ अधिक व्यस्तता से घिरे हुए थे और मैं नन्हे धु्रव के साथ सारा दिन एक ढर्रे से बंधी रहती थी. तब सौरभ ने ही स्वाति के घर जाने का सुझाव मुझे दिया था.

उन का कहना था, वह शीघ्र अपने कामकाज निबटा लेंगे और जब मैं चाहूंगी, मुझे लिवा ले जाएंगे. सौरभ के इस अप्रत्याशित सुझाव पर मैं प्रसन्न हो उठी. वैसे भी स्वाति की छोटी सी गृहस्थी, उस का सुखी संसार देखने की लालसा मैं बहुत दिनों से मन में संजोए बैठी थी.

विवाह के पश्चात हनीमून से लौटते हुए स्वाति और अनिल 3-4 दिन के लिए मेरे पास रुके थे, किंतु वे दिन नवदंपती के सैरसपाटे और घूमनेफिरने में किस तरह हवा हो गए, पता नहीं चला. 2 वर्ष बाद धु्रव पैदा हो गया और मैं उस की देखभाल में लग गई.

उधर स्वाति भी अपने घर, अस्पताल और मरीजों में व्यस्त हो गई. अकसर हम दोनों बहनें फोन पर एकदूसरे का हाल मालूम करती रहती थीं. तब स्वाति का एक ही आग्रह होता, ‘दीदी, किसी भी तरह कुछ दिनों के लिए कानपुर चली आओ.’ और, अब यहां आने पर मेरा सारा उत्साह, सारी खुशी किसी रेत के घरौंदे के समान ढह गई जब मैं ने देखा कि नदी के एक किनारे पर स्वाति और दूसरे पर अनिल खड़े थे और बीच में थी उफनती नदी.

अनिल अपनी तरफ से यह दूरी पाटने का प्रयास भी करते तो स्वाति छिटक कर दूर चली जाती. मुझे याद आता, डाक्टर होते हुए भी अति संवेदनशील स्वाति की आंखों में कैसा इंद्रधनुषी आकाश उतर आया था इस रिश्ते के पक्का होने पर. फिर ऐसा क्या हो गया जो इस आकाश पर बदरंग बादल छा गए. शायद ही कोई ऐसा दिन होता हो, जब दोनों के बीच झगड़ा न होता हो. ऐसे में मेरी स्थिति अत्यंत विकट होती.

मेरे लिए चुप रहना असहनीय होता और बीचबचाव करना अशोभनीय.

सुबह दोनों के अस्पताल जाने के पश्चात मैं बहुत अकेलापन महसूस करती. घर के सभी कार्यों के लिए रमिया और उस का पति थे, इसलिए मुझे करने लायक खास कुछ भी काम न था. वैसे कहने को 2 वर्षीय धु्रव मेरे साथ था, जो अपनी तोतली बातों और शरारतों से मुझे उलझाए रखता था, फिर भी स्वाति के उखड़े स्वभाव और घर में व्याप्त तनाव के कारण मन बहुत उदास रहता. ऐसे में सौरभ बहुत याद आते.

दोपहर में बहुत बेमन से मैं ने धु्रव को खाना खिलाया और उस के सोने के पश्चात उपन्यास ले कर पढ़ने बैठ गई. तभी रमिया ने आ कर कहा, ‘‘बहनजी, साहब व मेमसाहब आ गए हैं. आप का भी खाना लगाऊं क्या?’’

‘‘हांहां, लगाओ. मैं भी आ रही हूं,’’ उपन्यास छोड़ कर मैं फुरती से उठी. डाइनिंग टेबल पर खाना लग चुका था और स्वाति व अनिल मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे.

‘‘आज शाम 7 बजे डा. देशपांडे के घर जाना है, आप दोनों तैयार रहिएगा,’’ स्वाति ने सूप की प्लेट में चम्मच घुमाते हुए कहा.

‘‘आज वहां क्या है?’’ मैं ने उत्सुकता जाहिर की.

‘‘आज उन के विवाह की पहली वर्षगांठ है. भूल गईं दीदी, उस दिन शाम को पतिपत्नी हमें आमंत्रित कर गए थे.’’

‘‘स्वाति, तुम और दीदी उन के घर चले जाओ, मैं नहीं जा सकूंगा,’’ अनिल ने अपनी असमर्थता व्यक्त की.

‘‘क्यों?’’ मेरी और स्वाति की निगाहें अनिल की ओर उठ गईं.

‘‘आज रात को 6 नंबर की पेशेंट का औपरेशन है और यह चांस मुझे मिल रहा है,’’ अनिल ने उल्लासभरे स्वर में कहा.

‘‘औपरेशन डा. कपूर कर लेंगे. मैं ने डा. देशपांडे से वादा किया है कि तीनों अवश्य आएंगे,’’ स्वाति ने गंभीर स्वर में कहा.

‘‘नहीं स्वाति, तुम भलीभांति जानती हो डा. कपूर अपने मातहतों को औपरेशन का मौका नहीं देते हैं. पता नहीं कैसे आज उन्होंने यह मौका मुझे दिया है, और मैं इस सुनहरे अवसर को खोना नहीं चाहता.’’

‘‘हां अनिल, तुम्हें यह सुनहरा अवसर बिलकुल नहीं खोना चाहिए, क्योंकि 6 नंबर की रोगी महिला बहुत खूबसूरत है,’’ स्वाति ने गुस्से व व्यंग्य के स्वर में कहा.

अनिल ने आहतभाव से मेरी ओर देखा और आधा खाना छोड़ कर उठ गए. स्वाति की इस बात पर मैं भी अचंभित रह गई. अनिल के लिए कितने घटिया विचार यह लड़की मन में पाले बैठी है. सोचा, किसी दिन बैठा कर इसे अच्छी तरह समझाऊंगी कि इस तरह तो यह लड़की अपनी गृहस्थी ही चौपट कर डालेगी.

मैं ने जल्दी से दूसरी थाली लगाई और अनिल के कमरे की तरफ चल दी. अनिल पलंग पर सिर पर बांह रख कर लेटे थे. एक क्षण को मन में कुछ संकोच आया. फिर हिम्मत कर के मैं ने उन्हें आवाज दी, ‘‘अनिल, खाना खा लो.’’

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‘‘नहीं दीदी, मुझे भूख नहीं है,’’ अनिल उठ कर बैठ गए.

‘‘स्वाति का गुस्सा खाने पर क्यों उतारते हो? दुनिया में कितने लोग हैं, जिन्हें भरपेट भोजन नसीब नहीं होता है. खाना बीच में छोड़ कर उठना अन्न का निरादर करना है,’’ मेरी बड़ेबूढ़ों जैसी बातें सुन कर अनिल खाना खाने बैठ गए.

कुछ क्षण मैं यों ही कुरसी की पीठ पकड़ कर खड़ी रही, फिर बोली, ‘‘अनिल, तुम्हें छोटा भाई समझ कर कह रही हूं. तुम्हारे और स्वाति के बीच जो भी गलतफहमी पैदा हो गई है, उसे ज्यादा दिन पाले रखना ठीक नहीं.’’

‘‘हम दोनों के बीच कोई गलतफहमी नहीं, दीदी,’’ अनिल ने गंभीर स्वर में कहा. फिर कुछ रुक कर बोले, ‘‘बात यह है दीदी, जिन लोगों के जीवन में कोई समस्या नहीं होती, उन्हें समस्याएं पैदा करने का शौक होता है. आप की बहन भी ऐसे ही लोगों की श्रेणी में आती है.’’

अनिल की इस बात का मेरे पास कोई उत्तर न था, इसलिए मैं चुपचाप वहां से हट गई.

उस दिन मैं और स्वाति डा. देशपांडे के घर से रात को 10 बजे वापस आए. जैसे ही हम ने घर में कदम रखा, सौरभ का दिल्ली से फोन आ गया और मैं उन की स्नेहाकुल वाणी के माधुर्य में नहा उठी.

सौरभ का बारबार यह कहना कि मेरे बिना वहां उन का दिल नहीं लग रहा, मेरे सारे अकेलेपन और उदासी को दूर कर गया. फोन रखने के बाद जब मैं स्वाति की ओर मुड़ी, देखा, उस का चेहरा इतना सा निकल आया था. ठीक भी था, मेरे विवाह को 5 वर्ष व्यतीत हो गए थे, किंतु हमारे संबंधों में वही पहले जैसी ताजगी और मधुरता कायम थी, जबकि स्वाति के विवाह को सिर्फ 2 वर्र्ष हुए थे और अभी से ये दोनों एकदूसरे से बेजार लगते थे.

अगले दिन स्वाति और अनिल दोनों की अस्पताल की छुट्टी थी. इसलिए हम तीनों दोपहर खाने के बाद ताश खेलने बैठ गए. खेलतेखेलते जब थक गए तो मैं ने झटपट खरीदारी के लिए बाजार जाने का कार्यक्रम बना डाला, जिसे अनिल ने हंसीखुशी स्वीकार कर लिया. थोड़ी सी नानुकुर के बाद स्वाति भी चलने को राजी हो गई.

थोड़ी देर बाद नीले रंग की कार सड़क पर दौड़ रही थी. हम लोगों ने जीभर कर खरीदारी की, कंपनी बाग में धु्रव को झूला झुलाया और आइसक्रीम खिलाई. फिर थकहार कर कौफी हाउस में जा बैठे. अब तक धु्रव स्वाति की गोद में सो गया था. अनिल ने पैटीज और कौफी मंगा ली. पैटीज खाते हुए हम इधरउधर की बातें कर रहे थे कि तभी जींस और टीशर्ट पहने एक युवती अनिल के करीब आई और बोली, ‘‘हाय अनिल.’’

अनिल ने चौंक कर उस की ओर देखा. एक क्षण को वे असमंजस की स्थिति में बने रहे, फिर खड़े होते हुए बोले, ‘‘अरे, कीर्ति तुम.’’ फिर तुरंत हम से परिचय कराया, ‘‘स्वाति, यह कीर्ति है. हम दोनों मैडिकल कालेज में साथ ही पढ़ते थे. बेचारी का दूसरे साल के बाद पढ़ने में दिल नहीं लगा तो शादी कर के अमेरिका चली गई,’’ अनिल ने हंसते हुए कहा.

‘‘अमेरिका न जाती तो क्या करती, तुम ने तो मौका ही नहीं दिया,’’ कीर्ति ने बेझिझक कहा. फिर बोली, ‘‘अच्छा, स्वाति तुम्हारी पत्नी है और इन का परिचय?’’ उस का संकेत मेरी ओर था.

‘‘ये स्वाति की बड़ी बहन हैं. दिल्ली से आजकल आई हुई हैं.’’

कीर्ति कुछ देर और बात कर के चली गई. इस दौरान स्वाति गंभीर बनी बैठी रही और कुछ भी न बोली. कीर्ति के जाने के बाद अनिल ने कहा, ‘‘स्वाति, तुम्हें कीर्ति से एक बार तो घर आने को कहना ही चाहिए था.’’

स्वाति तुरंत कड़वे लहजे में बोली, ‘‘ऐसी न जाने कितनी चाहने वालियां रोजरोज मिलेंगी. आखिर मैं किसकिस को घर आने का निमंत्रण देती फिरूंगी.’’

‘‘क्या बकती हो?’’ गुस्से और अपमान से जलती निगाहों से अनिल कुछ क्षण स्वाति को घूरते रहे, फिर मेज पर से कार की चाबियां उठाते हुए बोले, ‘‘दीदी, मैं घर जा रहा हूं. आप चलिएगा?’’ तुरंत मैं और स्वाति उठ खड़े हुए. स्वाति ने सोते हुए धु्रव को गोद में उठा रखा था. अनिल ने पैसे का भुगतान किया और हम लोग बाहर आ गए.

रास्तेभर कार में कोई कुछ न बोला. कुछ देर पहले कौफी हाउस में बैठी मैं मन ही मन खुश हो रही थी कि आज का पूरा दिन हंसीखुशी बीत रहा है. किंतु अंत में स्वाति की जरा सी नासमझी ने फिर सब को तनाव में ला कर खड़ा कर दिया था.

घर आ कर अनिल बिना किसी से बात किए अपने कमरे में चले गए. रमिया ने खाने को पूछा तो उन्होंने मना कर दिया. मैं ने धु्रव को पलंग पर सुलाया और कपड़े बदल कर छत पर जा बैठी. मन बहुत उदास हो उठा था. उम्र में मैं स्वाति से 2 वर्ष बड़ी थी. जिस वर्ष मैं इंटरमीडिएट में आई, मांपिताजी दोनों  की एक कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई. स्वाति उस समय 15 वर्ष की थी. उस कच्ची उम्र में हम बिन मांबाप की बच्चियों को भाभी ने अपनी ममता के आंचल में छिपा लिया था. भैयाभाभी का हाथ सिर पर होेने के बावजूद मैं स्वाति की ओर से कभी भी लापरवाह नहीं रही थी. इसलिए आज उस की बिखरी गृहस्थी को देख कर मैं तड़प उठी थी, और उन दोनों को नजदीक लाने का उपाय ढूंढ़ रही थी.

छत पर किसी के कदमों की आहट सुन कर मैं ने मुड़ कर देखा. स्वाति भी मेरी बगल में आ कर बैठ गईर् थी. उसे देख कर मुझे कुछ देर पूर्व की घटना याद हो आई. प्रयत्न करने के बावजूद मैं अपने क्रोध को न दबा पाई, ‘‘क्या बात है स्वाति, क्या अपनी गृहस्थी पूरी तरह चौपट करने का इरादा है? ऐसे  व्यवहार से क्या तुम पति को वश में रख पाओगी? इतनी अवहेलना से तो भले से भला व्यक्ति भी हाथ से निकल जाएगा.’’

‘‘मैं क्या करूं, दीदी? मेरी कुछ समझ में नहीं आता,’’ स्वाति दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ कर बैठ  गई.

मैं ने स्नेहपूर्वक उस की पीठ पर हाथ रखा और कहा, ‘‘स्वाति, मेरी बहन, पहले तुम अपनी दीदी से कभी कुछ नहीं छिपाती थीं, फिर आज मैं क्या इतनी पराई हो गई जो तुम अपने मन की व्यथा मुझ से नहीं कह सकतीं?’’

‘‘कैसे कहूं, दीदी? तुम भी दुखी हो जाओगी जब तुम्हें पता चलेगा कि अनिल के जीवन में पहले भी कोई लड़की आ चुकी है.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’ मैं ने धैर्यपूर्वक पूछा.

‘‘अनिल ने स्वयं मुझे बताया है. वे अपने कालेज की एक लड़की से प्रेम करते थे. दोनों ने जीवनभर साथ निभाने की कसमें खाई थीं, किंतु वह लड़की धोखेबाज निकली. उस ने किसी अमीर युवक से विवाह कर लिया. अनिल ने तो विवाह न करने का फैसला कर लिया था, परंतु घरवालों के विवश करने पर इन्हें मुझ से विवाह करना पड़ा. अब तुम ही बताओ दीदी, इतना बड़ा धोखा खाने के बाद कोई कैसे खुश रह सकता है.’’

‘‘अनिल ने तुम्हें कोई धोखा नहीं दिया,’’ मैं ने स्वाति की बात का विरोध किया, ‘‘उस ने यह सबकुछ विवाह से पूर्व सौरभ को बता दिया था. तब सौरभ ने उसे समझाया था कि उस के जीवन का वह एक दुखद अध्याय था जो अब समाप्त हो चुका था. अब उसे एक नए जीवन की शुरुआत करनी चाहिए. साथ ही, सौरभ ने अनिल को यह आश्वासन भी दिया था कि स्वाति के रूप में उसे मात्र एक पत्नी ही नहीं, बल्कि एक प्रेयसी, एक अच्छी मित्र भी मिलेगी. परंतु मुझे अफसोस है स्वाति कि अनिल को एक प्रेयसी, एक अच्छी मित्र तो क्या, एक अच्छी पत्नी भी न मिली.’’

‘‘दीदी, तुम भी मुझे ही दोषी ठहरा रही हो?’’

स्वाति ने आगे कहना चाहा, किंतु मैं ने उसे बीच में ही रोक दिया, ‘‘अनिल चाहते तो सबकुछ आसानी से छिपा सकते थे. आखिर उन्हें किसी को कुछ भी बताने की आवश्यकता ही क्या थी. यह तो उन की महानता है, जो उन्होंने हमें और तुम्हें सबकुछ बता दिया. किंतु बदले में क्या मिला, इतनी प्रताड़ना और तिरस्कार,’’ बोलतेबोलते मेरा स्वर कुछ तेज हो चला था. स्वाति सिर झुकाए खामोश बैठी थी. शायद उसे कुछकुछ अपनी गलती का एहसास हो रहा था. मैं भी उस के जीवन के इस कड़वे प्रसंग को आज ही समाप्त कर देना चाहती थी. इसलिए फिर बोली, ‘‘स्वाति, मुझे क्षमा करना. आज मैं तुम्हें तुम्हारे जीवन की एक घटना याद दिलाना चाहती हूं. भैया के एक मित्र डा. अवस्थी हमारे घर आते थे. यह जानते हुए भी कि वे विवाहित हैं, तुम उन के मोहजाल में फंस गई थीं. उस समय भाभी के ही वश की बात थी, जो वे तुम्हें उस मोहजाल से मुक्त करा पाई थीं. वरना भैया की तो रातों की नींद हराम हो गई थी.’’

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‘‘उस समय मैं नामसझ थी, दीदी,’’ स्वाति अब बिलकुल रोंआसी हो

उठी थी.

‘‘मानती हूं, तुम नासमझ थीं, फिर भी एक गलत राह की ओर तुम्हारे कदम बढ़े थे. यह बात अनिल को पता चल जाए और वह तुम्हें लांछित करें तब? अनिल का प्रेम कोई भूल न थी, जबकि तुम ने अवश्य भूल की थी. स्वाति, विवाह मात्र प्रणय बंधन ही नहीं, उस के आगे भी बहुत कुछ है. आपसी विश्वास और एकदूसरे को सहारा देने का पक्का भरोसा भी है.’’

‘‘सच कहती हो, दीदी, अनिल ने जब अपनी पिछली जिंदगी के पन्ने मेरे सम्मुख पलटे, मैं विवेकशून्य हो उठी और अपनी जिंदगी के सुनहरे पलों को व्यर्थ गंवा दिया,’’ स्वाति की आंखों में पश्चात्ताप के आंसू थे.

‘‘रो मत स्वाति,’’ मैं उसे धीरज बंधाते हुए बोली, ‘‘समय रहते अपनी भूल सुधार लो. अनिल और तुम कहीं बाहर घूमने चले जाओ और नए जीवन की शुरुआत करो.’’

‘‘अनिल मान जाएंगे?’’

‘‘उन्हें मनाना मेरा काम है.’’

अगली सुबह स्वाति ने चाय के साथ अनिल को जगाया तो वे हतप्रभ हो उठे. पिछले 2 वर्षों से यह कार्य रमिया के जिम्मे था. ‘‘कहीं मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा,’’ अनिल ने अपनी आंखें मलते हुए कहा.

‘‘मुझे क्षमा कर दो, अनिल. मैं ने तुम्हें बहुत दुख पहुंचाया,’’ स्वाति नजरें नीची किए हुए बोली.

‘‘किस बात की क्षमा?’’ अनिल ने स्वाति के हाथ से चाय का कप ले लिया और उसे प्यार से अपने पास बैठा लिया. तभी मैं ने कमरे में प्रवेश किया. मुझे आता देख स्वाति बाहर चली गई.

मैं ने कहा, ‘‘अनिल, शीघ्र चाय पी लो. आज तुम्हें बहुत से काम करने हैं.’’

‘‘कौन से काम, दीदी?’’

‘‘सब से पहले अपनी और स्वाति की लंबी छुट्टी मंजूर कराओ.’’

‘‘छुट्टी? वह किसलिए?’’ अनिल हैरानी से बोले.

‘‘तुम और स्वाति नैनीताल या कहीं भी घूमने जा रहे हो, अपने एक नए जीवन की शुरुआत करने के लिए.’’

‘‘स्वाति मान जाएगी?’’ अनिल शंकित हो कर बोले.

‘‘उस ने तो जाने की तैयारियां भी शुरू कर दी हैं.’’

अनिल ने एक क्षण मेरी ओर देखा. फिर अचानक उस ने मेरे दोनों हाथ पकड़े और श्रद्धापूर्वक उन्हें माथे से लगा लिया, और कहा, ‘‘दीदी, यह नया जीवन आप की ही देन है.’’

अनिल की बात सुन कर मैं भावुक हो उठी. मैं ने उन्हें दूसरे कमरे में लगभग धक्का देते हुए कहा, ‘‘अब तुम यह बड़ीबड़ी बातें छोड़ो. वहां तुम्हारी कोई प्रतीक्षा कर रहा है,’’ अनिल दूसरे कमरे में चले गए. मैं ने परदे की ओट से देखा, वे स्वाति के कान में कुछ कह रहे थे और स्वाति हंसते हुए उन्हें अंगूठा दिखा रही थी. मैं ने सोचा, प्यार का सूरज धुंध के कारण कुछ समय के लिए आंखों में ओझल भले ही हो जाए पर एकदम से खो नहीं सकता. धुंध के छंटते ही सूरज अपनी पूरी आब के साथ फिर चमकने लगता है. मैं मन ही मन खुश थी. मेरे कदम सौरभ को बुलाने के लिए फोन की ओर बढ़ गए.

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स्वाति और अनिल के विवाह को 2 वर्ष ही हुए थे और वे दोनों अभी से एक दूसरे से बेजार नजर आने लगे थे. शायद ही कोईर् ऐसा दिन गुजरता हो जब उन के बीच झगड़ा न होता हो. आखिर ऐसा क्या हो गया कि दोनों के प्यार के इंद्रधनुषी रंग इतनी जल्दी बदरंग हो गए?

स्वाति के घर मेरा अचानक चले आना महज एक इत्तफाक था, क्योंकि उन दिनों सौरभ कुछ अधिक व्यस्तता से घिरे हुए थे और मैं नन्हे धु्रव के साथ सारा दिन एक ढर्रे से बंधी रहती थी. तब सौरभ ने ही स्वाति के घर जाने का सुझाव मुझे दिया था.

उन का कहना था, वह शीघ्र अपने कामकाज निबटा लेंगे और जब मैं चाहूंगी, मुझे लिवा ले जाएंगे. सौरभ के इस अप्रत्याशित सुझाव पर मैं प्रसन्न हो उठी. वैसे भी स्वाति की छोटी सी गृहस्थी, उस का सुखी संसार देखने की लालसा मैं बहुत दिनों से मन में संजोए बैठी थी.

विवाह के पश्चात हनीमून से लौटते हुए स्वाति और अनिल 3-4 दिन के लिए मेरे पास रुके थे, किंतु वे दिन नवदंपती के सैरसपाटे और घूमनेफिरने में किस तरह हवा हो गए, पता नहीं चला. 2 वर्ष बाद धु्रव पैदा हो गया और मैं उस की देखभाल में लग गई.

उधर स्वाति भी अपने घर, अस्पताल और मरीजों में व्यस्त हो गई. अकसर हम दोनों बहनें फोन पर एकदूसरे का हाल मालूम करती रहती थीं. तब स्वाति का एक ही आग्रह होता, ‘दीदी, किसी भी तरह कुछ दिनों के लिए कानपुर चली आओ.’ और, अब यहां आने पर मेरा सारा उत्साह, सारी खुशी किसी रेत के घरौंदे के समान ढह गई जब मैं ने देखा कि नदी के एक किनारे पर स्वाति और दूसरे पर अनिल खड़े थे और बीच में थी उफनती नदी.

अनिल अपनी तरफ से यह दूरी पाटने का प्रयास भी करते तो स्वाति छिटक कर दूर चली जाती. मुझे याद आता, डाक्टर होते हुए भी अति संवेदनशील स्वाति की आंखों में कैसा इंद्रधनुषी आकाश उतर आया था इस रिश्ते के पक्का होने पर. फिर ऐसा क्या हो गया जो इस आकाश पर बदरंग बादल छा गए. शायद ही कोई ऐसा दिन होता हो, जब दोनों के बीच झगड़ा न होता हो. ऐसे में मेरी स्थिति अत्यंत विकट होती.

मेरे लिए चुप रहना असहनीय होता और बीचबचाव करना अशोभनीय.

सुबह दोनों के अस्पताल जाने के पश्चात मैं बहुत अकेलापन महसूस करती. घर के सभी कार्यों के लिए रमिया और उस का पति थे, इसलिए मुझे करने लायक खास कुछ भी काम न था. वैसे कहने को 2 वर्षीय धु्रव मेरे साथ था, जो अपनी तोतली बातों और शरारतों से मुझे उलझाए रखता था, फिर भी स्वाति के उखड़े स्वभाव और घर में व्याप्त तनाव के कारण मन बहुत उदास रहता. ऐसे में सौरभ बहुत याद आते.

दोपहर में बहुत बेमन से मैं ने धु्रव को खाना खिलाया और उस के सोने के पश्चात उपन्यास ले कर पढ़ने बैठ गई. तभी रमिया ने आ कर कहा, ‘‘बहनजी, साहब व मेमसाहब आ गए हैं. आप का भी खाना लगाऊं क्या?’’

‘‘हांहां, लगाओ. मैं भी आ रही हूं,’’ उपन्यास छोड़ कर मैं फुरती से उठी. डाइनिंग टेबल पर खाना लग चुका था और स्वाति व अनिल मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे.

‘‘आज शाम 7 बजे डा. देशपांडे के घर जाना है, आप दोनों तैयार रहिएगा,’’ स्वाति ने सूप की प्लेट में चम्मच घुमाते हुए कहा.

‘‘आज वहां क्या है?’’ मैं ने उत्सुकता जाहिर की.

‘‘आज उन के विवाह की पहली वर्षगांठ है. भूल गईं दीदी, उस दिन शाम को पतिपत्नी हमें आमंत्रित कर गए थे.’’

‘‘स्वाति, तुम और दीदी उन के घर चले जाओ, मैं नहीं जा सकूंगा,’’ अनिल ने अपनी असमर्थता व्यक्त की.

‘‘क्यों?’’ मेरी और स्वाति की निगाहें अनिल की ओर उठ गईं.

‘‘आज रात को 6 नंबर की पेशेंट का औपरेशन है और यह चांस मुझे मिल रहा है,’’ अनिल ने उल्लासभरे स्वर में कहा.

‘‘औपरेशन डा. कपूर कर लेंगे. मैं ने डा. देशपांडे से वादा किया है कि तीनों अवश्य आएंगे,’’ स्वाति ने गंभीर स्वर में कहा.

‘‘नहीं स्वाति, तुम भलीभांति जानती हो डा. कपूर अपने मातहतों को औपरेशन का मौका नहीं देते हैं. पता नहीं कैसे आज उन्होंने यह मौका मुझे दिया है, और मैं इस सुनहरे अवसर को खोना नहीं चाहता.’’

‘‘हां अनिल, तुम्हें यह सुनहरा अवसर बिलकुल नहीं खोना चाहिए, क्योंकि 6 नंबर की रोगी महिला बहुत खूबसूरत है,’’ स्वाति ने गुस्से व व्यंग्य के स्वर में कहा.

अनिल ने आहतभाव से मेरी ओर देखा और आधा खाना छोड़ कर उठ गए. स्वाति की इस बात पर मैं भी अचंभित रह गई. अनिल के लिए कितने घटिया विचार यह लड़की मन में पाले बैठी है. सोचा, किसी दिन बैठा कर इसे अच्छी तरह समझाऊंगी कि इस तरह तो यह लड़की अपनी गृहस्थी ही चौपट कर डालेगी.

मैं ने जल्दी से दूसरी थाली लगाई और अनिल के कमरे की तरफ चल दी. अनिल पलंग पर सिर पर बांह रख कर लेटे थे. एक क्षण को मन में कुछ संकोच आया. फिर हिम्मत कर के मैं ने उन्हें आवाज दी, ‘‘अनिल, खाना खा लो.’’

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‘‘नहीं दीदी, मुझे भूख नहीं है,’’ अनिल उठ कर बैठ गए.

‘‘स्वाति का गुस्सा खाने पर क्यों उतारते हो? दुनिया में कितने लोग हैं, जिन्हें भरपेट भोजन नसीब नहीं होता है. खाना बीच में छोड़ कर उठना अन्न का निरादर करना है,’’ मेरी बड़ेबूढ़ों जैसी बातें सुन कर अनिल खाना खाने बैठ गए.

कुछ क्षण मैं यों ही कुरसी की पीठ पकड़ कर खड़ी रही, फिर बोली, ‘‘अनिल, तुम्हें छोटा भाई समझ कर कह रही हूं. तुम्हारे और स्वाति के बीच जो भी गलतफहमी पैदा हो गई है, उसे ज्यादा दिन पाले रखना ठीक नहीं.’’

‘‘हम दोनों के बीच कोई गलतफहमी नहीं, दीदी,’’ अनिल ने गंभीर स्वर में कहा. फिर कुछ रुक कर बोले, ‘‘बात यह है दीदी, जिन लोगों के जीवन में कोई समस्या नहीं होती, उन्हें समस्याएं पैदा करने का शौक होता है. आप की बहन भी ऐसे ही लोगों की श्रेणी में आती है.’’

अनिल की इस बात का मेरे पास कोई उत्तर न था, इसलिए मैं चुपचाप वहां से हट गई.

उस दिन मैं और स्वाति डा. देशपांडे के घर से रात को 10 बजे वापस आए. जैसे ही हम ने घर में कदम रखा, सौरभ का दिल्ली से फोन आ गया और मैं उन की स्नेहाकुल वाणी के माधुर्य में नहा उठी.

सौरभ का बारबार यह कहना कि मेरे बिना वहां उन का दिल नहीं लग रहा, मेरे सारे अकेलेपन और उदासी को दूर कर गया. फोन रखने के बाद जब मैं स्वाति की ओर मुड़ी, देखा, उस का चेहरा इतना सा निकल आया था. ठीक भी था, मेरे विवाह को 5 वर्ष व्यतीत हो गए थे, किंतु हमारे संबंधों में वही पहले जैसी ताजगी और मधुरता कायम थी, जबकि स्वाति के विवाह को सिर्फ 2 वर्र्ष हुए थे और अभी से ये दोनों एकदूसरे से बेजार लगते थे.

अगले दिन स्वाति और अनिल दोनों की अस्पताल की छुट्टी थी. इसलिए हम तीनों दोपहर खाने के बाद ताश खेलने बैठ गए. खेलतेखेलते जब थक गए तो मैं ने झटपट खरीदारी के लिए बाजार जाने का कार्यक्रम बना डाला, जिसे अनिल ने हंसीखुशी स्वीकार कर लिया. थोड़ी सी नानुकुर के बाद स्वाति भी चलने को राजी हो गई.

थोड़ी देर बाद नीले रंग की कार सड़क पर दौड़ रही थी. हम लोगों ने जीभर कर खरीदारी की, कंपनी बाग में धु्रव को झूला झुलाया और आइसक्रीम खिलाई. फिर थकहार कर कौफी हाउस में जा बैठे. अब तक धु्रव स्वाति की गोद में सो गया था. अनिल ने पैटीज और कौफी मंगा ली. पैटीज खाते हुए हम इधरउधर की बातें कर रहे थे कि तभी जींस और टीशर्ट पहने एक युवती अनिल के करीब आई और बोली, ‘‘हाय अनिल.’’

अनिल ने चौंक कर उस की ओर देखा. एक क्षण को वे असमंजस की स्थिति में बने रहे, फिर खड़े होते हुए बोले, ‘‘अरे, कीर्ति तुम.’’ फिर तुरंत हम से परिचय कराया, ‘‘स्वाति, यह कीर्ति है. हम दोनों मैडिकल कालेज में साथ ही पढ़ते थे. बेचारी का दूसरे साल के बाद पढ़ने में दिल नहीं लगा तो शादी कर के अमेरिका चली गई,’’ अनिल ने हंसते हुए कहा.

‘‘अमेरिका न जाती तो क्या करती, तुम ने तो मौका ही नहीं दिया,’’ कीर्ति ने बेझिझक कहा. फिर बोली, ‘‘अच्छा, स्वाति तुम्हारी पत्नी है और इन का परिचय?’’ उस का संकेत मेरी ओर था.

‘‘ये स्वाति की बड़ी बहन हैं. दिल्ली से आजकल आई हुई हैं.’’

कीर्ति कुछ देर और बात कर के चली गई. इस दौरान स्वाति गंभीर बनी बैठी रही और कुछ भी न बोली. कीर्ति के जाने के बाद अनिल ने कहा, ‘‘स्वाति, तुम्हें कीर्ति से एक बार तो घर आने को कहना ही चाहिए था.’’

स्वाति तुरंत कड़वे लहजे में बोली, ‘‘ऐसी न जाने कितनी चाहने वालियां रोजरोज मिलेंगी. आखिर मैं किसकिस को घर आने का निमंत्रण देती फिरूंगी.’’

‘‘क्या बकती हो?’’ गुस्से और अपमान से जलती निगाहों से अनिल कुछ क्षण स्वाति को घूरते रहे, फिर मेज पर से कार की चाबियां उठाते हुए बोले, ‘‘दीदी, मैं घर जा रहा हूं. आप चलिएगा?’’ तुरंत मैं और स्वाति उठ खड़े हुए. स्वाति ने सोते हुए धु्रव को गोद में उठा रखा था. अनिल ने पैसे का भुगतान किया और हम लोग बाहर आ गए.

रास्तेभर कार में कोई कुछ न बोला. कुछ देर पहले कौफी हाउस में बैठी मैं मन ही मन खुश हो रही थी कि आज का पूरा दिन हंसीखुशी बीत रहा है. किंतु अंत में स्वाति की जरा सी नासमझी ने फिर सब को तनाव में ला कर खड़ा कर दिया था.

घर आ कर अनिल बिना किसी से बात किए अपने कमरे में चले गए. रमिया ने खाने को पूछा तो उन्होंने मना कर दिया. मैं ने धु्रव को पलंग पर सुलाया और कपड़े बदल कर छत पर जा बैठी. मन बहुत उदास हो उठा था. उम्र में मैं स्वाति से 2 वर्ष बड़ी थी. जिस वर्ष मैं इंटरमीडिएट में आई, मांपिताजी दोनों  की एक कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई. स्वाति उस समय 15 वर्ष की थी. उस कच्ची उम्र में हम बिन मांबाप की बच्चियों को भाभी ने अपनी ममता के आंचल में छिपा लिया था. भैयाभाभी का हाथ सिर पर होेने के बावजूद मैं स्वाति की ओर से कभी भी लापरवाह नहीं रही थी. इसलिए आज उस की बिखरी गृहस्थी को देख कर मैं तड़प उठी थी, और उन दोनों को नजदीक लाने का उपाय ढूंढ़ रही थी.

छत पर किसी के कदमों की आहट सुन कर मैं ने मुड़ कर देखा. स्वाति भी मेरी बगल में आ कर बैठ गईर् थी. उसे देख कर मुझे कुछ देर पूर्व की घटना याद हो आई. प्रयत्न करने के बावजूद मैं अपने क्रोध को न दबा पाई, ‘‘क्या बात है स्वाति, क्या अपनी गृहस्थी पूरी तरह चौपट करने का इरादा है? ऐसे  व्यवहार से क्या तुम पति को वश में रख पाओगी? इतनी अवहेलना से तो भले से भला व्यक्ति भी हाथ से निकल जाएगा.’’

‘‘मैं क्या करूं, दीदी? मेरी कुछ समझ में नहीं आता,’’ स्वाति दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ कर बैठ  गई.

मैं ने स्नेहपूर्वक उस की पीठ पर हाथ रखा और कहा, ‘‘स्वाति, मेरी बहन, पहले तुम अपनी दीदी से कभी कुछ नहीं छिपाती थीं, फिर आज मैं क्या इतनी पराई हो गई जो तुम अपने मन की व्यथा मुझ से नहीं कह सकतीं?’’

‘‘कैसे कहूं, दीदी? तुम भी दुखी हो जाओगी जब तुम्हें पता चलेगा कि अनिल के जीवन में पहले भी कोई लड़की आ चुकी है.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’ मैं ने धैर्यपूर्वक पूछा.

‘‘अनिल ने स्वयं मुझे बताया है. वे अपने कालेज की एक लड़की से प्रेम करते थे. दोनों ने जीवनभर साथ निभाने की कसमें खाई थीं, किंतु वह लड़की धोखेबाज निकली. उस ने किसी अमीर युवक से विवाह कर लिया. अनिल ने तो विवाह न करने का फैसला कर लिया था, परंतु घरवालों के विवश करने पर इन्हें मुझ से विवाह करना पड़ा. अब तुम ही बताओ दीदी, इतना बड़ा धोखा खाने के बाद कोई कैसे खुश रह सकता है.’’

‘‘अनिल ने तुम्हें कोई धोखा नहीं दिया,’’ मैं ने स्वाति की बात का विरोध किया, ‘‘उस ने यह सबकुछ विवाह से पूर्व सौरभ को बता दिया था. तब सौरभ ने उसे समझाया था कि उस के जीवन का वह एक दुखद अध्याय था जो अब समाप्त हो चुका था. अब उसे एक नए जीवन की शुरुआत करनी चाहिए. साथ ही, सौरभ ने अनिल को यह आश्वासन भी दिया था कि स्वाति के रूप में उसे मात्र एक पत्नी ही नहीं, बल्कि एक प्रेयसी, एक अच्छी मित्र भी मिलेगी. परंतु मुझे अफसोस है स्वाति कि अनिल को एक प्रेयसी, एक अच्छी मित्र तो क्या, एक अच्छी पत्नी भी न मिली.’’

‘‘दीदी, तुम भी मुझे ही दोषी ठहरा रही हो?’’

स्वाति ने आगे कहना चाहा, किंतु मैं ने उसे बीच में ही रोक दिया, ‘‘अनिल चाहते तो सबकुछ आसानी से छिपा सकते थे. आखिर उन्हें किसी को कुछ भी बताने की आवश्यकता ही क्या थी. यह तो उन की महानता है, जो उन्होंने हमें और तुम्हें सबकुछ बता दिया. किंतु बदले में क्या मिला, इतनी प्रताड़ना और तिरस्कार,’’ बोलतेबोलते मेरा स्वर कुछ तेज हो चला था. स्वाति सिर झुकाए खामोश बैठी थी. शायद उसे कुछकुछ अपनी गलती का एहसास हो रहा था. मैं भी उस के जीवन के इस कड़वे प्रसंग को आज ही समाप्त कर देना चाहती थी. इसलिए फिर बोली, ‘‘स्वाति, मुझे क्षमा करना. आज मैं तुम्हें तुम्हारे जीवन की एक घटना याद दिलाना चाहती हूं. भैया के एक मित्र डा. अवस्थी हमारे घर आते थे. यह जानते हुए भी कि वे विवाहित हैं, तुम उन के मोहजाल में फंस गई थीं. उस समय भाभी के ही वश की बात थी, जो वे तुम्हें उस मोहजाल से मुक्त करा पाई थीं. वरना भैया की तो रातों की नींद हराम हो गई थी.’’

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‘‘उस समय मैं नामसझ थी, दीदी,’’ स्वाति अब बिलकुल रोंआसी हो

उठी थी.

‘‘मानती हूं, तुम नासमझ थीं, फिर भी एक गलत राह की ओर तुम्हारे कदम बढ़े थे. यह बात अनिल को पता चल जाए और वह तुम्हें लांछित करें तब? अनिल का प्रेम कोई भूल न थी, जबकि तुम ने अवश्य भूल की थी. स्वाति, विवाह मात्र प्रणय बंधन ही नहीं, उस के आगे भी बहुत कुछ है. आपसी विश्वास और एकदूसरे को सहारा देने का पक्का भरोसा भी है.’’

‘‘सच कहती हो, दीदी, अनिल ने जब अपनी पिछली जिंदगी के पन्ने मेरे सम्मुख पलटे, मैं विवेकशून्य हो उठी और अपनी जिंदगी के सुनहरे पलों को व्यर्थ गंवा दिया,’’ स्वाति की आंखों में पश्चात्ताप के आंसू थे.

‘‘रो मत स्वाति,’’ मैं उसे धीरज बंधाते हुए बोली, ‘‘समय रहते अपनी भूल सुधार लो. अनिल और तुम कहीं बाहर घूमने चले जाओ और नए जीवन की शुरुआत करो.’’

‘‘अनिल मान जाएंगे?’’

‘‘उन्हें मनाना मेरा काम है.’’

अगली सुबह स्वाति ने चाय के साथ अनिल को जगाया तो वे हतप्रभ हो उठे. पिछले 2 वर्षों से यह कार्य रमिया के जिम्मे था. ‘‘कहीं मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा,’’ अनिल ने अपनी आंखें मलते हुए कहा.

‘‘मुझे क्षमा कर दो, अनिल. मैं ने तुम्हें बहुत दुख पहुंचाया,’’ स्वाति नजरें नीची किए हुए बोली.

‘‘किस बात की क्षमा?’’ अनिल ने स्वाति के हाथ से चाय का कप ले लिया और उसे प्यार से अपने पास बैठा लिया. तभी मैं ने कमरे में प्रवेश किया. मुझे आता देख स्वाति बाहर चली गई.

मैं ने कहा, ‘‘अनिल, शीघ्र चाय पी लो. आज तुम्हें बहुत से काम करने हैं.’’

‘‘कौन से काम, दीदी?’’

‘‘सब से पहले अपनी और स्वाति की लंबी छुट्टी मंजूर कराओ.’’

‘‘छुट्टी? वह किसलिए?’’ अनिल हैरानी से बोले.

‘‘तुम और स्वाति नैनीताल या कहीं भी घूमने जा रहे हो, अपने एक नए जीवन की शुरुआत करने के लिए.’’

‘‘स्वाति मान जाएगी?’’ अनिल शंकित हो कर बोले.

‘‘उस ने तो जाने की तैयारियां भी शुरू कर दी हैं.’’

अनिल ने एक क्षण मेरी ओर देखा. फिर अचानक उस ने मेरे दोनों हाथ पकड़े और श्रद्धापूर्वक उन्हें माथे से लगा लिया, और कहा, ‘‘दीदी, यह नया जीवन आप की ही देन है.’’

अनिल की बात सुन कर मैं भावुक हो उठी. मैं ने उन्हें दूसरे कमरे में लगभग धक्का देते हुए कहा, ‘‘अब तुम यह बड़ीबड़ी बातें छोड़ो. वहां तुम्हारी कोई प्रतीक्षा कर रहा है,’’ अनिल दूसरे कमरे में चले गए. मैं ने परदे की ओट से देखा, वे स्वाति के कान में कुछ कह रहे थे और स्वाति हंसते हुए उन्हें अंगूठा दिखा रही थी. मैं ने सोचा, प्यार का सूरज धुंध के कारण कुछ समय के लिए आंखों में ओझल भले ही हो जाए पर एकदम से खो नहीं सकता. धुंध के छंटते ही सूरज अपनी पूरी आब के साथ फिर चमकने लगता है. मैं मन ही मन खुश थी. मेरे कदम सौरभ को बुलाने के लिए फोन की ओर बढ़ गए.

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August 01, 2019 at 10:28AM

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