Wednesday 31 July 2019

काश

कभीकभी व्यक्ति समय के हाथों इतना मजबूर हो जाता है कि चाहते हुए भी वह कुछ नहीं कर पाता. वह हजारों लड़ाइयां लड़ सकता है परंतु अपनेआप से लड़ना सब से ज्यादा कठिन होता है. सच तो यह है कि हम अपने ही दिल के हाथों मजबूर हो जाते हैं. कदम स्वयं ही ऐसी राह पर चलने लगते हैं जिन्हें हम ने नहीं चुना. लेकिन राहें हमें वहां तक पहुंचा देती हैं जहां नियति पहुंचाना चाहती है.

मैं सोफे पर बैठी विचार कर रही थी कि मैं ने क्या खोया क्या पाया. खोने के नाम पर अपना सारा बचपन, सभी रिश्तेनाते, सखीसहेलियां अपना यौवन और पाने के नाम पर एक 9 साल का बेटा और दूसरे पति. पति तो सदा अपनेआप में ही खोए रहते. कहने को वे एक मल्टीनैशनल कंपनी में उच्चाधिकारी थे पर एक सूखी सी नीरस जिंदगी के आदी हो चुके थे. जिन की अपनी जिंदगी ही रंगहीन हो वे भला मुझे क्या सुख देते. लगता है प्रकृति मेरे हाथ में सुख की रेखा बनाना ही भूल गई थी. उस से जरूर कोई भूल हुई है और अब खुद को भुलाना ही मेरी नियति बन चुकी है.

शाम को खाने की टेबल साफ कर मैं ने उन को और बेटे को बुलाया. यंत्रचालित से हम सब खाना खाने लगे. आज तक न कभी किसी खाने की तारीफ, न शिकवा, न शिकायत, भले ही मीठा कम हो या नमक तेज. चुप्पी तोड़ते हुए बेटा बोला, ‘‘पापा, कल बुकफेयर का आखिरी दिन है और आप की छुट्टी भी है. मुझे बुकफेयर जाना है.’’ पति ने खामोशी से स्वीकृति दे दी.

सारा दिन फेयर में घूमतेघूमते मैं अब थक चुकी थी. पति और बेटा तो हर स्टौल पर ऐसे खो जाते जैसे मेरा कोई वजूद ही न हो. मैं ने इधरउधर निगाहें घुमा कर देखा. इस समय मुझे कौफी पीने की तीव्र इच्छा हो रही थी. थोड़ी देर बाद गेट के पास मैं ने कौफी का स्टौल देखा. मैं एक कौफी ले कर पास रखे सोफे पर बैठ गई.

मेरी निगाहें आसपास घूम रहे लोगों पर लगी रहीं. तभी एक चिरपरिचित सा चेहरा देख कर मैं सोच में पड़ गई. उस का मेरे पास से गुजरना और मेरा सोफे से उठना लगभग एकसाथ हुआ. उस ने उड़ती नजर से एक पल के लिए मुझे देखा. मैं एकदम चौंक गई.

‘‘राहुल,’’ मैं ने बहुत धीरे से कहा.

‘‘प्राची,’’ कह कर वह भी एकदम चौंक गया, ‘‘आज तुम यहां कैसे? कैसी हो? लगता है किताबों का शौक अभी तक नहीं गया,’’ एक मधुर सी चिरपरिचित आवाज मेरे कानों में पड़ने लगी.

मैं एकदम खामोश थी. मेरा मन अभी भी मानने को तैयार नहीं था कि उस से दोबारा मुलाकात भी हो  पाएगी.

‘‘अच्छा, मैं भी कौफी ले कर आता हूं,’’ कह कर वह वहां से चलने लगा तो मैं ने कहा, ‘‘रुको, मेरे पति सामने स्टौल पर हैं. मैं ज्यादा देर तक बैठ नहीं पाऊंगी. अपनी सुनाओ, कैसे हो तुम, कहां हो?’’

‘‘मैं कहां जाऊंगा दिल्ली छोड़ कर. तुम को तो शायद पता होगा शुरू से ही मेरा रुझान जर्नलिज्म में था. पहले कई साल अखबारों में काम करता रहा. अब टीवी सीरियल बनाता हूं. ठीकठाक जिंदगी चल रही है, पर ऐसी नहीं जैसी मैं चाहता था.’’

उस का आखिरी वाक्य भेदभरा था. तिरछी नजरों से उस ने मेरी तरफ देखा. कभीकभी आंखों की भाषा भी अपनी जबान कह देती है. हमारे बीच एक लंबा मौन पसर गया. मेरे चेहरे पर कई रंग आनेजाने लगे. उन में से एक रंग मजबूरी का भी था.

‘‘तुम कैसी हो?’’ उस ने चुप्पी तोड़ते हुए गमगीन होते माहौल को सामान्य करते हुए पूछा, ‘‘क्या कर रही हो?’’

‘‘हम औरतों का क्या है. किसी खूंटे पर तो बंधना ही है. खूंटा काठ का हो या सोने का, क्या फर्क पड़ता है.’’ मैं यह सब अचानक कैसे कह गई, मुझे खुद को भी पता नहीं. मैं रोंआसी हो गई. वह देर तक मेरी आंखों में देखता रहा जैसे कुछ पढ़ लेना चाहता हो.

‘‘सुना था औरतें कुछ घटनाएं अपने भीतर कई तहों में छिपा लेती हैं. किसी को इस की हवा तक लगने नहीं देतीं और मरने के बाद ये सब बातें भी दफन हो जाती हैं. पर…’’

‘‘पर ऐसा होता कहां है,’’ मैं ने उस का वाक्य पूरा होने से पहले ही कहा, ‘‘जिंदगी कैसी भी हो, उसे जीना पड़ता ही है.’’

‘‘ऐसा क्या हो गया कि तुम अचानक ही टूट सी गई हो. कालेज में मैं ने तुम जैसी मजबूत लड़की और नहीं देखी थी. दृढ़विश्वास और इरादे तुम्हारी पहचान थे. और फिर मैं ने तो सुना था तुम्हारे पति एक बड़ी कंपनी में डायरैक्टर हैं. समाज में मानसम्मान, सब सुविधाओं से युक्त घर…’’

‘‘सुना था तो आ कर देख भी लेते. क्या मैं बहुत दूर चली गई थी,’’ मैं भावुक हो गई. राहुल, तुम क्यों चले गए मुझे छोड़ कर. एक बार कह कर देख तो लेते, मैं कहना चाहती थी पर रिश्तों की मर्यादा और माथे का सिंदूर सामने आ गया.

मेरी आवाज में अनकही करुणा और कमजोरी के भावों को पढ़ते हुए उस ने बड़ी शालीनता से अपना कार्ड दिया और वहां से नजरें चुरा कर चला गया. आखिर, जिंदगी के कुछ हसीन पल हम ने साथसाथ जिए थे. मेरा मन कसैला सा हो उठा. पति और बेटे के आते ही मैं अनमने मन से उन के साथ वापस लौट आई. उस रात दुनिया मुझे बहुत छोटी लगने लगी.

सुबह दोनों को विदा कर के मैं देर तक पुरानी यादों में खोई रही. मैं जितना उन यादों को पीछे धकेलती, यादें उतनी ही प्रबल हो जातीं.

बीए में हमारा अंतिम वर्ष था. उसी वर्ष राहुल ने हमारी क्लास में ऐडमिशन लिया था. नया सा चेहरा क्लास में पा कर कोई हैरानी नहीं हुई. परंतु न चाहते हुए भी नजर उस की ओर चली जाती. मैं चोरी से उस को देखती और जब भी उस से नजरें मिलतीं, मैं शर्म से आंखें नीचे कर लेती, जैसे मेरी चोरी पकड़ी गई हो. खड़े हो कर जब भी वह किसी प्रश्न का उत्तर धीरे से देता, तो उसे देखने का कोई मौका नहीं छोड़ती. एक नशा सा छा गया था उसे देखने का और यह नशा मैं किसी से बांटना नहीं चाहती थी.

एकसाथ पढ़ते हुए हमारी औपचारिक मुलाकातें होती रहतीं. वह मुझे देख कर मुसकरा देता. उस की यह मीठी मुसकराहट दिल के तारों को भीतर तक झंकृत कर देती. एक दिन मेरे सब्र का बांध टूट गया. मैं सारी लाज, संकोच छोड़ कर उस के पास आ कर बोली, ‘‘राहुल, कोई अच्छा ट्यूटर हो तो बताना. मैं इकोनौमिक्स में बहुत कमजोर हूं. आखिरी वर्ष है. कुछ ऊंचानीचा हो गया तो सारी उम्र रोती रहूंगी.’’

‘‘मैं तो कभी ट्यूशन नहीं पढ़ता. परंतु कोई प्रौब्लम हो तो बताओ,’’ उस का स्वर सहज था. मेरी आशाओं और उमंगों की कपोलें खिलने लगीं. बस, मुझे तो उस से मिलने का बहाना मिल गया. मैं अपनेआप में बेहद मजबूत थी पर उस के सामने आते ही एकदम सुधबुध खो बैठती. शुरू से मैं चंचल प्रकृति की थी. मुझे अपनी सुंदरता व ऊपर से बौबकट बालों पर बेहद नाज था, जो लड़कों को दीवानगी की हदों को पार करने में सक्षम थे. कैंटीन हो या प्लेग्राउंड, कोई फ्री पीरियड हो या कोई असेंबली, मेरे पास आने के लिए लड़केलड़कियां मचलते थे. परंतु राहुल की छवि तो न जाने कैसे मन में बस गई. वह आंखों के रास्ते कब दिल में उतर गया, पता ही नहीं चला.

फिर तो यह क्रम ही बन गया. इधर 3 बजते, उधर मैं लाइब्रेरी में उस के पास पहुंच जाती. किंतु आंखों की भाषा कभी जबान पर न आ सकी. घंटे दिनों में बदल गए, दिन हफ्तों में और हफ्ते महीनों में. संकोच की एक दीवार हमेशा खड़ी रही. एक बार मैं दबेपांव उस से मिलने लाइब्रेरी में पहुंची और चुटकी लेते हुए बोली, ‘इस बार यूनिवर्सिटी टौप करने का इरादा है क्या?’

‘तुम करने दो तब न,’ कह कर उस ने मेरी ओर भरपूर निगाहों से देखा, जैसे कोई रहस्य पढ़ लिया हो.

मैं काठ की मूरत के समान एकदम जड़ हो गई. मैं ने सारी हिम्मत बटोर कर कहा, ‘मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं. क्या हम कहीं बाहर मिल सकते हैं?’

‘तुम कुछ मत कहो,’ कह कर उस ने मुझे देखा. उस का चेहरा और शब्द उम्र से कहीं ज्यादा गंभीर हो गए. उस ने मेरे मुंह पर ताला लगा दिया. वह बोला, ‘जो तुम कहना चाहती हो, मैं जानता हूं. मेरे ऊपर बहुत सारी जिम्मेदारियां हैं इसलिए…’

उस की बात सुने बिना मैं वहां से चली गई. काश, मैं उस दिन वहां से ऐसे न गईर् होती…

जैसेजैसे परीक्षाएं नजदीक आती गईं, मेरा मन भारी होने लगा. मैं चाहती थी कि वह मुझ से बात करे. मुझे कहीं मिलने के लिए बुलाए पर ऐसा कभी कुछ नहीं हुआ. मैं चाह कर भी अपने मन की बात उस से नहीं कह पाई. परीक्षाओं के बाद वही हुआ जो होना था. हमारे रास्ते अलगअलग हो गए. मैं पथरीली आंखों से घर के पास वाली मार्केट में उस का चेहरा ढूंढ़ती रही. शायद वह कहीं से आ जाए. उस का कोई ठिकाना होता तो ढूंढ़ती. पर वह तो कालेज के होस्टल में रहता था. हार कर मुझे ही अपनी कामनाओं के पंख समेटने पड़े. हमारा प्रेम परवान चढ़ने से पहले ही टूट गया. काश, उन दिनों मोबाइल और व्हाट्सऐप होते तो यह हालत न होती.

रिजल्ट आने के बाद मम्मीपापा ने घरवर देखना शुरू कर दिया. मैं ने बहुत जिद की कि मैं आगे पढ़ना चाहती हूं पर पापा चाहते थे कि रिटायरमैंट से पहले हम दोनों बहनों की शादी हो जाए.

मेरी नुमाइश शुरू हो गई. मैं शिकायत करती भी तो किस से. मेरी अंतर्वेदना सुनने वाला अब कोई नहीं था. न राहुल, न मेरे घरवाले. न सूई चली न नश्तर. न तीर चला न तलवार. माला बनने से पहले ही बिखर गई. पापा की कठोर आज्ञा और शास्त्रों के विधान के अनुसार मन के घावों को वक्त पर छोड़ कर मैं ससुराल चली आई.

शादी के बाद यथार्थ की भूमि पर पांव रखते ही मेरे सपनों का महल चरमरा कर गिर गया. मैं ने पाया की जिंदगी वैसी नहीं है जैसी मैं उस को समझती थी. पहले दिन से ही सास ने सारे गहने उतरवा लिए और कई नियमकानून कठोर शब्दों में समझा दिए. उन के दुर्व्यवहार से मुझे धीरेधीरे एहसास हो गया कि मेरा स्थान इस घर में दासी से अधिक कुछ नहीं.

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मेरी मम्मी ने भी मेरी शिकायतों पर कोईर् प्रतिक्रिया नहीं की. बस, समझाती रहीं- ‘धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’ और यह भी समझा दिया कि जब तक पति खाना न खा लें, औरतें कैसे खाना खा सकती हैं. नतीजतन, मुझे हर रात भूखा ही सोना पड़ता. प्रकृति ने हम औरतों के साथ पक्षपात किया है. बराबर का शारीरिक बल होता तो जानती. मैं हर रात पति के जुल्मों का शिकार होती. वह मुझे भूखे भेडि़ए की तरह कुचलता, मसलता और मैं उफ तक न कर पाती.

शादी के कुछ महीनों बाद अगर मेरा पांव भारी न होता तो मैं ने शायद कब की अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली होती. मुझे लगा अपने लिए न सही, आने वाली संतान के लिए जी लूंगी. लेकिन प्रकृति को तो कुछ और ही मंजूर था. 6 महीने का गर्भ लिए मैं सफेद कपड़ों में मायके पहुंचा दी गई. जहरीली शराब पीने से पति की मृत्यु हो गई. इस का सारा दोष मेरे माथे पर मढ़ते हुए मुझे ससुराल से निकाल दिया गया.

मैं औरत के बदले पत्थर पैदा होती तो प्रकृति का क्या जाता. मैं ने मृत बच्चे को जन्म दिया.

वक्त अपनी रफ्तार से गुजरता रहा. धीरेधीरे मैं भी यह जीवन जीने की आदी हो चुकी थी. जल्दी ही मुझे एक औफिस में नौकरी मिल गई. मैं ने घर की वह दहलीज हमेशा के लिए पार कर दी जहां कभी मेरा बचपन बीता था. तब मैं ने यह जाना कि यह मैन्स वर्ल्ड है यानी पुरुषों का संसार, जहां आज भी औरतों को भोगने और मनोरंजन की वस्तु समझा जाता है.

औफिस में आसपास की कुटिल निगाहों से बचने के लिए मैं ने एक विधुर से विवाह करना मंजूर कर लिया जिस का एक बेटा था. मेरा यह दर्द एक ऐसा दर्र्द था जो किसी से बांटा नहीं जा सकता था.

महरी की कई घंटियों से मेरी तंद्रा टूटी. मैं अतीत से वर्तमान में आ गई जहां अब भी बहुत अंधेरा था. मैं ने अनमने मन से दरवाजा खोला. आज मेरा कुछ भी करने को मन नहीं हो रहा था. प्रेम, फासलों और वक्त का मुहताज नहीं है, यह मैं ने आज जाना था.

मैं ने उस का कार्ड निकाला. कई बार पढ़ा. भूलीबिसरी यादें फिर से जीवंत हो उठीं. पता नहीं कैसे मन की परतों में छिपी चिनगारी फिर से भभक उठी. मैं उसे जितना भुलाने का प्रयास करती, पछाड़ खाता समय उतना ही समीप आ बैठता. मैं ने जितनी बार उसे फोन करने के लिए फोन उठाया, मन तेजी से धड़कने लगता और फिर मैं फोन रख देती. किंतु एक दिन मैं स्वयं को रोक नहीं पाई और फोन कर दिया.

‘‘कैसे हो राहुल?’’ मैं ने धीरे से पूछा.

‘‘यह तो अपने दिल से पूछो. तुम ने तो अपना फोन नंबर दिया नहीं था. फिर फोन करने की बारी तो तुम्हारी थी,’’ वह सीधीसरल बातें करने का आदी था.

‘‘कहां हो आजकल? कभी इस तरफ आओ, तो मिलना,’’ मैं ने कहा.

‘‘कभी क्यों, तुम कहो तो कल ही आ जाता हूं. अपना पता एसएमएस कर देना. तुम को बुरा तो नहीं लगेगा?’’

‘‘मैं इंतजार करूंगी,’’ कह कर मैं ने फोन काट दिया.

और वह सचमुच दोपहर को मेरे सामने खड़ा था. मैं बेहद खुशी से उसे भीतर ले आई. उस के चेहरे पर कईर् रंग प्रसन्नता और विस्मयता के थे.

‘‘तुम तो सचमुच आ गए,’’ मैं ने कहा. मेरा मन बहुरंगी फुहारों से भर उठा.

‘‘क्यों, तुम को विश्वास नहीं था कि मैं यहां आऊंगा?’’

‘‘नहीं, मुझे पूरा विश्वास था कि…’’ कहतेकहते मैं रुक गई, ‘‘अच्छा, मैं कुछ ठंडा ले कर आती हूं,’’ कह कर मैं वहां से चली गई.

बातोंबातों में उस ने बताया कि उस का सेलैक्शन बैंक में हो गया था. एक महीने की ट्रेनिंग के लिए हैदराबाद जाना पड़ा. ‘‘सोचा था कि आते ही तुम से मिलूंगा और जब तक तुम को ढूंढ़ता, तुम्हारी शादी हो चुकी थी. अब मिलता भी तो किस से? फिर पता चला कि किन्हीं कारणों से तुम वापस अपने पापा के पास आ गईर् हो. इसी दौरान मैं ने बैंक की नौकरी छोड़ दी और जेएनयू में जर्नलिजम में मास्टर्स में दाखिला ले लिया. वही मेरा पैशन था,’’ राहुल ने कहा.

‘‘और मेरे बारे में तुम्हें कौन बताता रहा?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा, ‘‘तुम मुझ से सीधा भी तो मिल सकते थे?’’

‘‘हां, मिल सकता था. मेरा मन ही जानता है मैं तुम से मिलने के लिए कितना विचलित था. और कहांकहां से तुम्हारे बारे में पूछता रहा. बस, एक संकोच सा था कि तुम कैसे रिऐक्ट करोगी. मैं ने कोई सीधेमुंह जवाब भी तो नहीं दिया था. मेरी सारी आरजुएं मजबूरी में तबदील हो गईं. मैं कहां जानता था कि वही हमारी आखिरी मुलाकात होगी,’’ कह कर उस ने नजरें फेर लीं.

‘‘और घरपरिवार?’’ मैं ने जैसे उस की किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो.

‘‘तुम्हारे बाद फिर कभी कोई मन को नहीं भाया. हो सके तो मुझे माफ कर देना. मैं ही तुम्हारी इस हालत का कारण हूं,’’ वह चुप हो गया.

आंसुओं को आंखों के रास्ते बाहर आने का रास्ता मिल गया. पलकें झपकाझपका कर उस ने बड़ी सफाई से आसुंओं को रोक लिया. हमारे बीच एक अभेद्य सी दीवार खड़ी हो गई. वातावरण एकदम मातमी सा हो गया था जैसे कोई मर गया हो. एक लंबा गहरा सन्नाटा सा पसर गया.

सहसा दीवार की घड़ी ने 2 का घंटा बजाया तो वह बोला, ‘‘अच्छा प्राची, अब मैं चलूंगा. यहां बैठा रहा तो सैलाब उमड़ पड़ेगा.’’

‘‘खाना खा कर जाना, राहुल, मैं झटपट कुछ बना लाती हूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘नहींनहीं, अब बहुत देर हो चुकी है, मुझे अब जाना ही होगा.’’

‘‘मेरे घर से इस तरह मत जाओ राहुल,’’ मैं रोंआसी सी हो गई.

‘‘मेरा खाना तुम पर उधार रहा. मैं वादा करता हूं,’’ कह कर वह उठ गया.

मैं देर तक उसे गली के कोने में देखती रही. मेरा मन फिर से बैठ गया. मन के भीतर के जिन उफनते विचारों के ज्वालामुखी को मैं शांत करना चाहती थी, वे तो और भी भड़क गए.

हमारी बातों का सिलसिला जारी रहा. दिन पखेरू की तरह उड़ने लगे. हमारी मुलाकातें बढ़ती गईं. मैं सपनों में तैरने लगी. मेरी खुशी सातवें आसमान पर थी. प्रकृति के मन में क्या था, यह तो वह जाने, किंतु मेरा वही चुलबुलापन फिर से लौट आया. वह अपने नए सीरियल के बारे में बातें करता, हम बहस करते और आगे बढ़ते जाते.

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उस दिन राहुल ने बड़े चहकते हुए फोन किया, ‘‘आज मैं बहुत खुश हूं. तुम को पार्र्टी देना चाहता हूं. चलो न कहीं चलते हैं.’’

‘‘ऐसा क्या हो गया,’’ मैं ने बाजार में शौपिंग करते हुए पूछा.

‘‘बस, मिलने पर ही बताऊंगा. मैं थोड़ी देर में आ रहा हूं,’’ कह कर उस ने फोन काट दिया. मैं न नहीं कर पाई. वही मेरी प्राथमिकता थी. मैं झट से घर गई. अपना लकी सूट पहना जिस में मैं उस को पहले दिन मिली थी. मैंचिंग चप्पल, होंठों पर हलकी डबल टोन लिपस्टिक, लाख की रंगबिरंगी चूडि़यां और कश्मीरी टुपट्टा, जो उस ने कुछ दिनों पहले ही दिया था.

उस ने कार थोड़ी दूर पर पार्क की और टैक्सी बुला ली. मैं ने पूछा, ‘‘ऐसा क्या हो गया राहुल, आज अचानक?’’

‘‘मेरा सीरियल दूरदर्शन ने पास कर लिया है. मैं बहुत खुश हूं आज. प्राची, जब से तुम मुझे मिली हो, मेरे सब काम बनते जा रहे हैं.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है,’’ मैं ने कहा. उस ने अपना हाथ मेरे हाथ के ऊपर रख दिया. उस के स्पर्श में कितना अपनापन था. मैं बोली, ‘‘तुम खुश हो, इसलिए सब कामों में मन लग रहा है. यही तुम्हारी कामयाबी का राज है.’’

‘‘मेरी खुशी भी तो तुम से ही है,’’ उस ने बड़ी संजीदगी से कहा. वह मेरे इतने करीब बैठा था कि उस की सांसों को मैं महसूस कर सकती थी. मैं यह भी भूल गईर् थी कि मैं एक सम्मानित व्यक्ति की पत्नी हूं.

उस दिन देर तक हम बेमकसद कनाट प्लेस के गलियारों में घूमते रहे. उस की निगाहें मुझ पर टिकी थीं, जिस का सामना करने का साहस शायद मुझ में नहीं था. मैं ने निगाहें फेर लीं.

‘‘पिज्जाहट चलोगी?’’ उस ने पूछा. मैं ने भीड़ का बहाना बना कर टाल दिया. सच तो यह था कि हमारी कालोनी की कई किट्टी पार्टीज यहां चला करती थीं.

‘‘कौफी होम कैसा रहेगा?’’ मैं ने कहा, ‘‘मुझे 4 बजे तक घर भी पहुंचना है. बेटा आता होगा.’’

‘‘ट्रीट के लिए बड़ा चीप लगता है,’’ उस ने कहा, ‘‘चलो, तुम कहती हो तो वहीं चलते हैं.’’ फिर मेरी तरफ देख कर बोला, ‘‘मैं तो भूल ही गया था तुम्हारा एक बेटा भी है.’’

‘‘राहुल, प्लीज मेरी दुखती रग पर हाथ न रखो. शादी की है तो निभाना तो पड़ेगा ही.’’

‘‘तुम वे रिश्ते निभा रही हो जो तुम्हारे अपने नहीं हैं. तो मेरे साथ तुम्हारा यों घूमना…मैं तो समझता था कि…’’ वह बहुत धीरे से बोला.

‘‘आगे कुछ मत कहो, राहुल,’’ मैं ने बात काट कर कहा. उस के इस अप्रत्याशित व्यवहार के लिए मैं बिलकुल तैयार नहीं थी.

‘‘प्लीज, मुझे घर छोड़ दो, कौफी फिर कभी सही,’’ मैं ने कहा, ‘‘जिंदगी में किसी अपने को न पाने की तड़प और टूटन कितनी तकलीफदेह होती है, यह तुम क्या जानो.’’

उस ने आगे कुछ नहीं कहा. चुपचाप उस ने मुझे मेरे गेट पर छोड़ दिया. मैं ने सोचा, शायद वह कुछ कहेगा. और फिर मैं भी उस से अपने कठोर शब्दों के लिए माफी मांग लूंगी. मगर विदाई के लिए न उस के होंठ हिले न हाथ उठे. लगा, जैसे कोई टीस उस के मन को भेद रही है. मैं बड़े भरे मन से अपने घर में आ गई. मैं फूटफूट कर रोने लगी.

थोड़ी देर में उस का एक मैसेज आया, ‘प्राची, सचमुच मुझ से बहुत बड़ा गुनाह हो गया. तुम्हें चाहने का गुनाह. जैसेजैसे हमारी मुलाकातें बढ़ती गईं, मेरा मन तुम से मिलने को बेचैन रहने लगा. मैं यह भी भूल गया था कि तुम एक विवाहिता हो.

‘तुम्हारा भी अपना एक सामाजिक दायरा होगा. मेरा अब तुम से न मिलना ही ठीक रहेगा. बस, इतना याद रखना कि किसी आदमी ने चुपकेचुपके तुम से प्यार किया था. मैं आज तुम्हें मांग भी लूं, तुम शायद मेरी हो भी जाओ, पर जो दूसरे की है वह मेरी कैसे हो सकती है.’

कोई औरत जिंदगी में जितना रो सकती है, मैं रोई. दांपत्य का विकल्प तो संभव है पर प्रेम का नहीं. नाव को पानी में खेने के लिए किनारा छोड़ना ही पड़ता है. न जाने कैसा समय अपने नाम लिखवा कर आई हूं. मैं अकेली रहने के लिए ही जन्मी हूं.

काश, वह दोबारा न मिलता, काश…

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कभीकभी व्यक्ति समय के हाथों इतना मजबूर हो जाता है कि चाहते हुए भी वह कुछ नहीं कर पाता. वह हजारों लड़ाइयां लड़ सकता है परंतु अपनेआप से लड़ना सब से ज्यादा कठिन होता है. सच तो यह है कि हम अपने ही दिल के हाथों मजबूर हो जाते हैं. कदम स्वयं ही ऐसी राह पर चलने लगते हैं जिन्हें हम ने नहीं चुना. लेकिन राहें हमें वहां तक पहुंचा देती हैं जहां नियति पहुंचाना चाहती है.

मैं सोफे पर बैठी विचार कर रही थी कि मैं ने क्या खोया क्या पाया. खोने के नाम पर अपना सारा बचपन, सभी रिश्तेनाते, सखीसहेलियां अपना यौवन और पाने के नाम पर एक 9 साल का बेटा और दूसरे पति. पति तो सदा अपनेआप में ही खोए रहते. कहने को वे एक मल्टीनैशनल कंपनी में उच्चाधिकारी थे पर एक सूखी सी नीरस जिंदगी के आदी हो चुके थे. जिन की अपनी जिंदगी ही रंगहीन हो वे भला मुझे क्या सुख देते. लगता है प्रकृति मेरे हाथ में सुख की रेखा बनाना ही भूल गई थी. उस से जरूर कोई भूल हुई है और अब खुद को भुलाना ही मेरी नियति बन चुकी है.

शाम को खाने की टेबल साफ कर मैं ने उन को और बेटे को बुलाया. यंत्रचालित से हम सब खाना खाने लगे. आज तक न कभी किसी खाने की तारीफ, न शिकवा, न शिकायत, भले ही मीठा कम हो या नमक तेज. चुप्पी तोड़ते हुए बेटा बोला, ‘‘पापा, कल बुकफेयर का आखिरी दिन है और आप की छुट्टी भी है. मुझे बुकफेयर जाना है.’’ पति ने खामोशी से स्वीकृति दे दी.

सारा दिन फेयर में घूमतेघूमते मैं अब थक चुकी थी. पति और बेटा तो हर स्टौल पर ऐसे खो जाते जैसे मेरा कोई वजूद ही न हो. मैं ने इधरउधर निगाहें घुमा कर देखा. इस समय मुझे कौफी पीने की तीव्र इच्छा हो रही थी. थोड़ी देर बाद गेट के पास मैं ने कौफी का स्टौल देखा. मैं एक कौफी ले कर पास रखे सोफे पर बैठ गई.

मेरी निगाहें आसपास घूम रहे लोगों पर लगी रहीं. तभी एक चिरपरिचित सा चेहरा देख कर मैं सोच में पड़ गई. उस का मेरे पास से गुजरना और मेरा सोफे से उठना लगभग एकसाथ हुआ. उस ने उड़ती नजर से एक पल के लिए मुझे देखा. मैं एकदम चौंक गई.

‘‘राहुल,’’ मैं ने बहुत धीरे से कहा.

‘‘प्राची,’’ कह कर वह भी एकदम चौंक गया, ‘‘आज तुम यहां कैसे? कैसी हो? लगता है किताबों का शौक अभी तक नहीं गया,’’ एक मधुर सी चिरपरिचित आवाज मेरे कानों में पड़ने लगी.

मैं एकदम खामोश थी. मेरा मन अभी भी मानने को तैयार नहीं था कि उस से दोबारा मुलाकात भी हो  पाएगी.

‘‘अच्छा, मैं भी कौफी ले कर आता हूं,’’ कह कर वह वहां से चलने लगा तो मैं ने कहा, ‘‘रुको, मेरे पति सामने स्टौल पर हैं. मैं ज्यादा देर तक बैठ नहीं पाऊंगी. अपनी सुनाओ, कैसे हो तुम, कहां हो?’’

‘‘मैं कहां जाऊंगा दिल्ली छोड़ कर. तुम को तो शायद पता होगा शुरू से ही मेरा रुझान जर्नलिज्म में था. पहले कई साल अखबारों में काम करता रहा. अब टीवी सीरियल बनाता हूं. ठीकठाक जिंदगी चल रही है, पर ऐसी नहीं जैसी मैं चाहता था.’’

उस का आखिरी वाक्य भेदभरा था. तिरछी नजरों से उस ने मेरी तरफ देखा. कभीकभी आंखों की भाषा भी अपनी जबान कह देती है. हमारे बीच एक लंबा मौन पसर गया. मेरे चेहरे पर कई रंग आनेजाने लगे. उन में से एक रंग मजबूरी का भी था.

‘‘तुम कैसी हो?’’ उस ने चुप्पी तोड़ते हुए गमगीन होते माहौल को सामान्य करते हुए पूछा, ‘‘क्या कर रही हो?’’

‘‘हम औरतों का क्या है. किसी खूंटे पर तो बंधना ही है. खूंटा काठ का हो या सोने का, क्या फर्क पड़ता है.’’ मैं यह सब अचानक कैसे कह गई, मुझे खुद को भी पता नहीं. मैं रोंआसी हो गई. वह देर तक मेरी आंखों में देखता रहा जैसे कुछ पढ़ लेना चाहता हो.

‘‘सुना था औरतें कुछ घटनाएं अपने भीतर कई तहों में छिपा लेती हैं. किसी को इस की हवा तक लगने नहीं देतीं और मरने के बाद ये सब बातें भी दफन हो जाती हैं. पर…’’

‘‘पर ऐसा होता कहां है,’’ मैं ने उस का वाक्य पूरा होने से पहले ही कहा, ‘‘जिंदगी कैसी भी हो, उसे जीना पड़ता ही है.’’

‘‘ऐसा क्या हो गया कि तुम अचानक ही टूट सी गई हो. कालेज में मैं ने तुम जैसी मजबूत लड़की और नहीं देखी थी. दृढ़विश्वास और इरादे तुम्हारी पहचान थे. और फिर मैं ने तो सुना था तुम्हारे पति एक बड़ी कंपनी में डायरैक्टर हैं. समाज में मानसम्मान, सब सुविधाओं से युक्त घर…’’

‘‘सुना था तो आ कर देख भी लेते. क्या मैं बहुत दूर चली गई थी,’’ मैं भावुक हो गई. राहुल, तुम क्यों चले गए मुझे छोड़ कर. एक बार कह कर देख तो लेते, मैं कहना चाहती थी पर रिश्तों की मर्यादा और माथे का सिंदूर सामने आ गया.

मेरी आवाज में अनकही करुणा और कमजोरी के भावों को पढ़ते हुए उस ने बड़ी शालीनता से अपना कार्ड दिया और वहां से नजरें चुरा कर चला गया. आखिर, जिंदगी के कुछ हसीन पल हम ने साथसाथ जिए थे. मेरा मन कसैला सा हो उठा. पति और बेटे के आते ही मैं अनमने मन से उन के साथ वापस लौट आई. उस रात दुनिया मुझे बहुत छोटी लगने लगी.

सुबह दोनों को विदा कर के मैं देर तक पुरानी यादों में खोई रही. मैं जितना उन यादों को पीछे धकेलती, यादें उतनी ही प्रबल हो जातीं.

बीए में हमारा अंतिम वर्ष था. उसी वर्ष राहुल ने हमारी क्लास में ऐडमिशन लिया था. नया सा चेहरा क्लास में पा कर कोई हैरानी नहीं हुई. परंतु न चाहते हुए भी नजर उस की ओर चली जाती. मैं चोरी से उस को देखती और जब भी उस से नजरें मिलतीं, मैं शर्म से आंखें नीचे कर लेती, जैसे मेरी चोरी पकड़ी गई हो. खड़े हो कर जब भी वह किसी प्रश्न का उत्तर धीरे से देता, तो उसे देखने का कोई मौका नहीं छोड़ती. एक नशा सा छा गया था उसे देखने का और यह नशा मैं किसी से बांटना नहीं चाहती थी.

एकसाथ पढ़ते हुए हमारी औपचारिक मुलाकातें होती रहतीं. वह मुझे देख कर मुसकरा देता. उस की यह मीठी मुसकराहट दिल के तारों को भीतर तक झंकृत कर देती. एक दिन मेरे सब्र का बांध टूट गया. मैं सारी लाज, संकोच छोड़ कर उस के पास आ कर बोली, ‘‘राहुल, कोई अच्छा ट्यूटर हो तो बताना. मैं इकोनौमिक्स में बहुत कमजोर हूं. आखिरी वर्ष है. कुछ ऊंचानीचा हो गया तो सारी उम्र रोती रहूंगी.’’

‘‘मैं तो कभी ट्यूशन नहीं पढ़ता. परंतु कोई प्रौब्लम हो तो बताओ,’’ उस का स्वर सहज था. मेरी आशाओं और उमंगों की कपोलें खिलने लगीं. बस, मुझे तो उस से मिलने का बहाना मिल गया. मैं अपनेआप में बेहद मजबूत थी पर उस के सामने आते ही एकदम सुधबुध खो बैठती. शुरू से मैं चंचल प्रकृति की थी. मुझे अपनी सुंदरता व ऊपर से बौबकट बालों पर बेहद नाज था, जो लड़कों को दीवानगी की हदों को पार करने में सक्षम थे. कैंटीन हो या प्लेग्राउंड, कोई फ्री पीरियड हो या कोई असेंबली, मेरे पास आने के लिए लड़केलड़कियां मचलते थे. परंतु राहुल की छवि तो न जाने कैसे मन में बस गई. वह आंखों के रास्ते कब दिल में उतर गया, पता ही नहीं चला.

फिर तो यह क्रम ही बन गया. इधर 3 बजते, उधर मैं लाइब्रेरी में उस के पास पहुंच जाती. किंतु आंखों की भाषा कभी जबान पर न आ सकी. घंटे दिनों में बदल गए, दिन हफ्तों में और हफ्ते महीनों में. संकोच की एक दीवार हमेशा खड़ी रही. एक बार मैं दबेपांव उस से मिलने लाइब्रेरी में पहुंची और चुटकी लेते हुए बोली, ‘इस बार यूनिवर्सिटी टौप करने का इरादा है क्या?’

‘तुम करने दो तब न,’ कह कर उस ने मेरी ओर भरपूर निगाहों से देखा, जैसे कोई रहस्य पढ़ लिया हो.

मैं काठ की मूरत के समान एकदम जड़ हो गई. मैं ने सारी हिम्मत बटोर कर कहा, ‘मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं. क्या हम कहीं बाहर मिल सकते हैं?’

‘तुम कुछ मत कहो,’ कह कर उस ने मुझे देखा. उस का चेहरा और शब्द उम्र से कहीं ज्यादा गंभीर हो गए. उस ने मेरे मुंह पर ताला लगा दिया. वह बोला, ‘जो तुम कहना चाहती हो, मैं जानता हूं. मेरे ऊपर बहुत सारी जिम्मेदारियां हैं इसलिए…’

उस की बात सुने बिना मैं वहां से चली गई. काश, मैं उस दिन वहां से ऐसे न गईर् होती…

जैसेजैसे परीक्षाएं नजदीक आती गईं, मेरा मन भारी होने लगा. मैं चाहती थी कि वह मुझ से बात करे. मुझे कहीं मिलने के लिए बुलाए पर ऐसा कभी कुछ नहीं हुआ. मैं चाह कर भी अपने मन की बात उस से नहीं कह पाई. परीक्षाओं के बाद वही हुआ जो होना था. हमारे रास्ते अलगअलग हो गए. मैं पथरीली आंखों से घर के पास वाली मार्केट में उस का चेहरा ढूंढ़ती रही. शायद वह कहीं से आ जाए. उस का कोई ठिकाना होता तो ढूंढ़ती. पर वह तो कालेज के होस्टल में रहता था. हार कर मुझे ही अपनी कामनाओं के पंख समेटने पड़े. हमारा प्रेम परवान चढ़ने से पहले ही टूट गया. काश, उन दिनों मोबाइल और व्हाट्सऐप होते तो यह हालत न होती.

रिजल्ट आने के बाद मम्मीपापा ने घरवर देखना शुरू कर दिया. मैं ने बहुत जिद की कि मैं आगे पढ़ना चाहती हूं पर पापा चाहते थे कि रिटायरमैंट से पहले हम दोनों बहनों की शादी हो जाए.

मेरी नुमाइश शुरू हो गई. मैं शिकायत करती भी तो किस से. मेरी अंतर्वेदना सुनने वाला अब कोई नहीं था. न राहुल, न मेरे घरवाले. न सूई चली न नश्तर. न तीर चला न तलवार. माला बनने से पहले ही बिखर गई. पापा की कठोर आज्ञा और शास्त्रों के विधान के अनुसार मन के घावों को वक्त पर छोड़ कर मैं ससुराल चली आई.

शादी के बाद यथार्थ की भूमि पर पांव रखते ही मेरे सपनों का महल चरमरा कर गिर गया. मैं ने पाया की जिंदगी वैसी नहीं है जैसी मैं उस को समझती थी. पहले दिन से ही सास ने सारे गहने उतरवा लिए और कई नियमकानून कठोर शब्दों में समझा दिए. उन के दुर्व्यवहार से मुझे धीरेधीरे एहसास हो गया कि मेरा स्थान इस घर में दासी से अधिक कुछ नहीं.

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मेरी मम्मी ने भी मेरी शिकायतों पर कोईर् प्रतिक्रिया नहीं की. बस, समझाती रहीं- ‘धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’ और यह भी समझा दिया कि जब तक पति खाना न खा लें, औरतें कैसे खाना खा सकती हैं. नतीजतन, मुझे हर रात भूखा ही सोना पड़ता. प्रकृति ने हम औरतों के साथ पक्षपात किया है. बराबर का शारीरिक बल होता तो जानती. मैं हर रात पति के जुल्मों का शिकार होती. वह मुझे भूखे भेडि़ए की तरह कुचलता, मसलता और मैं उफ तक न कर पाती.

शादी के कुछ महीनों बाद अगर मेरा पांव भारी न होता तो मैं ने शायद कब की अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली होती. मुझे लगा अपने लिए न सही, आने वाली संतान के लिए जी लूंगी. लेकिन प्रकृति को तो कुछ और ही मंजूर था. 6 महीने का गर्भ लिए मैं सफेद कपड़ों में मायके पहुंचा दी गई. जहरीली शराब पीने से पति की मृत्यु हो गई. इस का सारा दोष मेरे माथे पर मढ़ते हुए मुझे ससुराल से निकाल दिया गया.

मैं औरत के बदले पत्थर पैदा होती तो प्रकृति का क्या जाता. मैं ने मृत बच्चे को जन्म दिया.

वक्त अपनी रफ्तार से गुजरता रहा. धीरेधीरे मैं भी यह जीवन जीने की आदी हो चुकी थी. जल्दी ही मुझे एक औफिस में नौकरी मिल गई. मैं ने घर की वह दहलीज हमेशा के लिए पार कर दी जहां कभी मेरा बचपन बीता था. तब मैं ने यह जाना कि यह मैन्स वर्ल्ड है यानी पुरुषों का संसार, जहां आज भी औरतों को भोगने और मनोरंजन की वस्तु समझा जाता है.

औफिस में आसपास की कुटिल निगाहों से बचने के लिए मैं ने एक विधुर से विवाह करना मंजूर कर लिया जिस का एक बेटा था. मेरा यह दर्द एक ऐसा दर्र्द था जो किसी से बांटा नहीं जा सकता था.

महरी की कई घंटियों से मेरी तंद्रा टूटी. मैं अतीत से वर्तमान में आ गई जहां अब भी बहुत अंधेरा था. मैं ने अनमने मन से दरवाजा खोला. आज मेरा कुछ भी करने को मन नहीं हो रहा था. प्रेम, फासलों और वक्त का मुहताज नहीं है, यह मैं ने आज जाना था.

मैं ने उस का कार्ड निकाला. कई बार पढ़ा. भूलीबिसरी यादें फिर से जीवंत हो उठीं. पता नहीं कैसे मन की परतों में छिपी चिनगारी फिर से भभक उठी. मैं उसे जितना भुलाने का प्रयास करती, पछाड़ खाता समय उतना ही समीप आ बैठता. मैं ने जितनी बार उसे फोन करने के लिए फोन उठाया, मन तेजी से धड़कने लगता और फिर मैं फोन रख देती. किंतु एक दिन मैं स्वयं को रोक नहीं पाई और फोन कर दिया.

‘‘कैसे हो राहुल?’’ मैं ने धीरे से पूछा.

‘‘यह तो अपने दिल से पूछो. तुम ने तो अपना फोन नंबर दिया नहीं था. फिर फोन करने की बारी तो तुम्हारी थी,’’ वह सीधीसरल बातें करने का आदी था.

‘‘कहां हो आजकल? कभी इस तरफ आओ, तो मिलना,’’ मैं ने कहा.

‘‘कभी क्यों, तुम कहो तो कल ही आ जाता हूं. अपना पता एसएमएस कर देना. तुम को बुरा तो नहीं लगेगा?’’

‘‘मैं इंतजार करूंगी,’’ कह कर मैं ने फोन काट दिया.

और वह सचमुच दोपहर को मेरे सामने खड़ा था. मैं बेहद खुशी से उसे भीतर ले आई. उस के चेहरे पर कईर् रंग प्रसन्नता और विस्मयता के थे.

‘‘तुम तो सचमुच आ गए,’’ मैं ने कहा. मेरा मन बहुरंगी फुहारों से भर उठा.

‘‘क्यों, तुम को विश्वास नहीं था कि मैं यहां आऊंगा?’’

‘‘नहीं, मुझे पूरा विश्वास था कि…’’ कहतेकहते मैं रुक गई, ‘‘अच्छा, मैं कुछ ठंडा ले कर आती हूं,’’ कह कर मैं वहां से चली गई.

बातोंबातों में उस ने बताया कि उस का सेलैक्शन बैंक में हो गया था. एक महीने की ट्रेनिंग के लिए हैदराबाद जाना पड़ा. ‘‘सोचा था कि आते ही तुम से मिलूंगा और जब तक तुम को ढूंढ़ता, तुम्हारी शादी हो चुकी थी. अब मिलता भी तो किस से? फिर पता चला कि किन्हीं कारणों से तुम वापस अपने पापा के पास आ गईर् हो. इसी दौरान मैं ने बैंक की नौकरी छोड़ दी और जेएनयू में जर्नलिजम में मास्टर्स में दाखिला ले लिया. वही मेरा पैशन था,’’ राहुल ने कहा.

‘‘और मेरे बारे में तुम्हें कौन बताता रहा?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा, ‘‘तुम मुझ से सीधा भी तो मिल सकते थे?’’

‘‘हां, मिल सकता था. मेरा मन ही जानता है मैं तुम से मिलने के लिए कितना विचलित था. और कहांकहां से तुम्हारे बारे में पूछता रहा. बस, एक संकोच सा था कि तुम कैसे रिऐक्ट करोगी. मैं ने कोई सीधेमुंह जवाब भी तो नहीं दिया था. मेरी सारी आरजुएं मजबूरी में तबदील हो गईं. मैं कहां जानता था कि वही हमारी आखिरी मुलाकात होगी,’’ कह कर उस ने नजरें फेर लीं.

‘‘और घरपरिवार?’’ मैं ने जैसे उस की किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो.

‘‘तुम्हारे बाद फिर कभी कोई मन को नहीं भाया. हो सके तो मुझे माफ कर देना. मैं ही तुम्हारी इस हालत का कारण हूं,’’ वह चुप हो गया.

आंसुओं को आंखों के रास्ते बाहर आने का रास्ता मिल गया. पलकें झपकाझपका कर उस ने बड़ी सफाई से आसुंओं को रोक लिया. हमारे बीच एक अभेद्य सी दीवार खड़ी हो गई. वातावरण एकदम मातमी सा हो गया था जैसे कोई मर गया हो. एक लंबा गहरा सन्नाटा सा पसर गया.

सहसा दीवार की घड़ी ने 2 का घंटा बजाया तो वह बोला, ‘‘अच्छा प्राची, अब मैं चलूंगा. यहां बैठा रहा तो सैलाब उमड़ पड़ेगा.’’

‘‘खाना खा कर जाना, राहुल, मैं झटपट कुछ बना लाती हूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘नहींनहीं, अब बहुत देर हो चुकी है, मुझे अब जाना ही होगा.’’

‘‘मेरे घर से इस तरह मत जाओ राहुल,’’ मैं रोंआसी सी हो गई.

‘‘मेरा खाना तुम पर उधार रहा. मैं वादा करता हूं,’’ कह कर वह उठ गया.

मैं देर तक उसे गली के कोने में देखती रही. मेरा मन फिर से बैठ गया. मन के भीतर के जिन उफनते विचारों के ज्वालामुखी को मैं शांत करना चाहती थी, वे तो और भी भड़क गए.

हमारी बातों का सिलसिला जारी रहा. दिन पखेरू की तरह उड़ने लगे. हमारी मुलाकातें बढ़ती गईं. मैं सपनों में तैरने लगी. मेरी खुशी सातवें आसमान पर थी. प्रकृति के मन में क्या था, यह तो वह जाने, किंतु मेरा वही चुलबुलापन फिर से लौट आया. वह अपने नए सीरियल के बारे में बातें करता, हम बहस करते और आगे बढ़ते जाते.

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उस दिन राहुल ने बड़े चहकते हुए फोन किया, ‘‘आज मैं बहुत खुश हूं. तुम को पार्र्टी देना चाहता हूं. चलो न कहीं चलते हैं.’’

‘‘ऐसा क्या हो गया,’’ मैं ने बाजार में शौपिंग करते हुए पूछा.

‘‘बस, मिलने पर ही बताऊंगा. मैं थोड़ी देर में आ रहा हूं,’’ कह कर उस ने फोन काट दिया. मैं न नहीं कर पाई. वही मेरी प्राथमिकता थी. मैं झट से घर गई. अपना लकी सूट पहना जिस में मैं उस को पहले दिन मिली थी. मैंचिंग चप्पल, होंठों पर हलकी डबल टोन लिपस्टिक, लाख की रंगबिरंगी चूडि़यां और कश्मीरी टुपट्टा, जो उस ने कुछ दिनों पहले ही दिया था.

उस ने कार थोड़ी दूर पर पार्क की और टैक्सी बुला ली. मैं ने पूछा, ‘‘ऐसा क्या हो गया राहुल, आज अचानक?’’

‘‘मेरा सीरियल दूरदर्शन ने पास कर लिया है. मैं बहुत खुश हूं आज. प्राची, जब से तुम मुझे मिली हो, मेरे सब काम बनते जा रहे हैं.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है,’’ मैं ने कहा. उस ने अपना हाथ मेरे हाथ के ऊपर रख दिया. उस के स्पर्श में कितना अपनापन था. मैं बोली, ‘‘तुम खुश हो, इसलिए सब कामों में मन लग रहा है. यही तुम्हारी कामयाबी का राज है.’’

‘‘मेरी खुशी भी तो तुम से ही है,’’ उस ने बड़ी संजीदगी से कहा. वह मेरे इतने करीब बैठा था कि उस की सांसों को मैं महसूस कर सकती थी. मैं यह भी भूल गईर् थी कि मैं एक सम्मानित व्यक्ति की पत्नी हूं.

उस दिन देर तक हम बेमकसद कनाट प्लेस के गलियारों में घूमते रहे. उस की निगाहें मुझ पर टिकी थीं, जिस का सामना करने का साहस शायद मुझ में नहीं था. मैं ने निगाहें फेर लीं.

‘‘पिज्जाहट चलोगी?’’ उस ने पूछा. मैं ने भीड़ का बहाना बना कर टाल दिया. सच तो यह था कि हमारी कालोनी की कई किट्टी पार्टीज यहां चला करती थीं.

‘‘कौफी होम कैसा रहेगा?’’ मैं ने कहा, ‘‘मुझे 4 बजे तक घर भी पहुंचना है. बेटा आता होगा.’’

‘‘ट्रीट के लिए बड़ा चीप लगता है,’’ उस ने कहा, ‘‘चलो, तुम कहती हो तो वहीं चलते हैं.’’ फिर मेरी तरफ देख कर बोला, ‘‘मैं तो भूल ही गया था तुम्हारा एक बेटा भी है.’’

‘‘राहुल, प्लीज मेरी दुखती रग पर हाथ न रखो. शादी की है तो निभाना तो पड़ेगा ही.’’

‘‘तुम वे रिश्ते निभा रही हो जो तुम्हारे अपने नहीं हैं. तो मेरे साथ तुम्हारा यों घूमना…मैं तो समझता था कि…’’ वह बहुत धीरे से बोला.

‘‘आगे कुछ मत कहो, राहुल,’’ मैं ने बात काट कर कहा. उस के इस अप्रत्याशित व्यवहार के लिए मैं बिलकुल तैयार नहीं थी.

‘‘प्लीज, मुझे घर छोड़ दो, कौफी फिर कभी सही,’’ मैं ने कहा, ‘‘जिंदगी में किसी अपने को न पाने की तड़प और टूटन कितनी तकलीफदेह होती है, यह तुम क्या जानो.’’

उस ने आगे कुछ नहीं कहा. चुपचाप उस ने मुझे मेरे गेट पर छोड़ दिया. मैं ने सोचा, शायद वह कुछ कहेगा. और फिर मैं भी उस से अपने कठोर शब्दों के लिए माफी मांग लूंगी. मगर विदाई के लिए न उस के होंठ हिले न हाथ उठे. लगा, जैसे कोई टीस उस के मन को भेद रही है. मैं बड़े भरे मन से अपने घर में आ गई. मैं फूटफूट कर रोने लगी.

थोड़ी देर में उस का एक मैसेज आया, ‘प्राची, सचमुच मुझ से बहुत बड़ा गुनाह हो गया. तुम्हें चाहने का गुनाह. जैसेजैसे हमारी मुलाकातें बढ़ती गईं, मेरा मन तुम से मिलने को बेचैन रहने लगा. मैं यह भी भूल गया था कि तुम एक विवाहिता हो.

‘तुम्हारा भी अपना एक सामाजिक दायरा होगा. मेरा अब तुम से न मिलना ही ठीक रहेगा. बस, इतना याद रखना कि किसी आदमी ने चुपकेचुपके तुम से प्यार किया था. मैं आज तुम्हें मांग भी लूं, तुम शायद मेरी हो भी जाओ, पर जो दूसरे की है वह मेरी कैसे हो सकती है.’

कोई औरत जिंदगी में जितना रो सकती है, मैं रोई. दांपत्य का विकल्प तो संभव है पर प्रेम का नहीं. नाव को पानी में खेने के लिए किनारा छोड़ना ही पड़ता है. न जाने कैसा समय अपने नाम लिखवा कर आई हूं. मैं अकेली रहने के लिए ही जन्मी हूं.

काश, वह दोबारा न मिलता, काश…

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August 01, 2019 at 10:27AM

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