Monday 30 September 2019

सर्वे नमंति सुखिन

चाहे इंसान हो, शहर हो, सड़क हो, या फिर कोई स्थान हो, नाम बदलने का फैशन चल पड़ा है. भई, नाम बदलने वालों को लगता है कि वहां की या उस की तस्वीर या फिर दशा बदल जाएगी. पर ऐसा होता है क्या?

आखिर और क्या तरीका हो सकता था इन के जीवन को आसान बनाने का. यदि इन के लिए सार्वजनिक स्थानों, कार्यालयों आदि मैं रैंप बनवाया जाए, व्हीलचेयर की व्यवस्था की जाए, चलिष्णु सीढि़यां लगाई जाएं, बैटरीचालित गाड़ी का प्रबंध किया जाए, तो उस में कितना खर्च होगा. कितना परिश्रम लगेगा.

यदि अंगदान को प्रोत्साहन कर उन्हें वांछित अंग उपलब्ध करवाया जाए या फिर शोध व अनुसंधान के जरिए उन के लिए आवश्यक यंत्र बना कर या विकास कर उपलब्ध करवाया जाए तो यह काफी कष्टकर व खर्चीला होगा. फिर उन्हें वह संतुष्टि नहीं मिलेगी जो दिव्यांग जैसे दिव्य नाम प्राप्त होने से मिली. सो, और कुछ करने की अपेक्षा प्यारा सा, न्यारा सा नाम दे देना ही उचित होगा.

तो कुछ और करने से बेहतर है कि इस तरह के वंचित लोगों को खूबसूरत सा प्रभावी नाम दे दें. और हम ऐसा करते भी आए हैं. विकलांगों को पहले डिफरैंटली एबल्ड या स्पैशली एबल्ड का नाम दिया गया और अब दिव्यांग. हो सकता है आगे चल कर इस से भी तड़कभड़क वाला, इस से भी गरिमामय कोईर् नाम दे दिया जाए.

ये भी पढ़ें- मेरा फुटबौल और बाबा की कुटिया

किसानों को अन्नदाता का नाम और दर्जा दिया जाता रहा है. भले ही वे खुद अन्न के लिए तरसते रहें. भले ही वे अपने ही उपजाए अन्न को फलों को, सब्जियों को कौडि़यों के दाम बेच कर उसे पाने के लिए, खाने के लिए तरसें. अन्नदाता नाम का ही प्रभाव है कि हमारे अधिकांश किसान आत्महत्या नहीं कर रहे हैं. और यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं है. हो सकता है आने वाले दिनों में यह समाचार छपा करे कि आज इतने किसानों ने आत्महत्या नहीं की.

हरिजन नामकरण मात्र मिल जाने से भी विशेष वर्गों को राहत मिली है. भले ही आज भी इन में से कुछ सिर पर मैला ढोने को बाध्य हों पर नाम तो ऐसा मिला है कि ये प्रकृति के साक्षात करीबी माने जा सकते हैं, फिर आम आदमी की बात ही क्या है.

किसी मशहूर लेखक ने दरिद्रनारायण नाम दे कर दरिद्रों को नारायण का दर्जा दे दिया था. दरिद्रतारूपी घाव पर नारायण नाम रूपी मरहम अपनेआप में कितना सुखद एहसास रहा होगा, यह सोचने की बात है.

इसी प्रकार हम सोचविचार कर दबेकुचले, वंचित लोगों को खूबसूरत सा चमत्कारिक नाम दे सकते हैं. बेरोजगारों को अमरबेल कहें तो कैसा रहेगा? जिस प्रकार अमरबेल बगैर जड़ के, बगैर जमीन के भी फैलती रहती है उसी प्रकार बेरोजगार युवकयुवती भी बगैर किसी रोजगार के जीवन के मैदान में डटे रहते हैं और कल की उम्मीद से सटे रहते हैं.

बेघर लोगों को भी इसी प्रकार का नाम दिया जा सकता है. विस्थापित हो कर अपने ही देश में शरणार्थी का जीवन जीने वालों को, बगैर अपराध सिद्ध हुए कारावास में रहने वालों को, दंगापीडि़तों को कोई प्यारा सा नाम दे दिया जाए. बलात्कार पीडि़त लड़की को तो निर्भया नाम दे भी दिया गया है. कोई और भी नाम दिया गया था उसे. शायद दामिनी, पर निर्भया नाम ज्यादा मशहूर हुआ. इतना मात्र उस के और उस के परिवार को राहत देने के लिए काफी नहीं होगा क्या? इसी प्रकार इस तरह की पीडि़त अन्य महिलाओं को भी यही या ऐसा ही कुछ नाम दे दिया जाए.

साइबर अपराधियों द्वारा लूटी गई जनता को कोई अच्छा सा नाम दिया जाए ताकि उसे बेहतरीन एहसास का आनंद मिले. आखिर मोबाइल सेवाप्रदाताओं पर रेवड़ी की भांति सिम वितरण पर रोक क्यों लगाई जाए? क्यों उन्हें केवाईसी नियमों के सही अनुपालन के लिए, केवाईसी के नवीकरण के लिए और उन के सिम का दुरुपयोग होने पर दंडित करने की कल्पना भी मन में लाई जाए?

आखिर ये बड़े स्वामियों के स्वामित्व में होते हैं. वैसे, कानून की नजर में सब बराबर होते हैं. फिर जौर्ज औरवैल ने कहा भी है, ‘औल आर इक्वल बट सम आर मोर इक्वल दैन अदर्स.’ तो ये भी मोर इक्वल हैं.

बात सिर्फ मनुष्यों की नहीं है, स्थानों, सड़कों आदि के नाम भी इसी प्रकार से बदले जा रहे हैं. कहीं  मेन रोड को महात्मा गांधी रोड कहा जा रहा है तो कहीं किसी चौक का नाम किसी शहीद के नाम पर रखा जा रहा है. सड़क को दुरुस्त करने के स्थान पर उसे प्यारा सा देशभक्ति से ओतप्रोत नाम देना ज्यादा श्रेयस्कर होगा. यह बात अलग है कि अधिकांश लोग उस सड़क को पुराने नाम से ही जानते हैं. नया देशभक्ति से ओतप्रोत नाम, बस, फाइलों में ही दबा रहता है.

कहींकहीं तो पूरे शहर का नाम ही बदल दिया जा रहा है. अब शहर को सुव्यवस्थित बनाने में, प्रदूषणमुक्त करने में काफी झमेला है. नया नाम, भले ही वह शहर का पूर्व में रह चुका हो, दे देना ज्यादा आसान है. इस से वर्तमान, गौरवमय अतीत की तरह लगने लगता है.

ये भी पढ़ें- तिकोनी डायरी : भाग 3

इतना ही नहीं, नाम रखने का एक नया फैशन चल पड़ा है. इस फैशन में नाम हिंदी शब्द का होते हुए भी हिंदी नहीं होता. उदाहरण के लिए नीति आयोग को ले लें. नीति वैसे तो हिंदी शब्द है, पर वास्तव में यह इंग्लिश शब्दों का संक्षिप्त रूप है-नैशनल इंस्टिट्यूट फौर ट्रांस्फौर्मिंग इंडिया. इसी प्रकार उदय को ले लें. यह भी इंग्लिश शब्दों का संक्षिप्त रूप है, उज्ज्वल डिस्कौम एश्युरैंस योजना. और फिर इस में डिस्कौम भी अपनेआप में डिस्ट्रिब्यूशन कंपनी का संक्षिप्त रूप है. आखिर इतने नवोन्मेषी नाम हम खोज रहे हैं तो इस का लाभ तो होगा ही.

सो, दे दो प्यारा सा नाम, बस हो गया अपना काम, और बात खत्म.

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चाहे इंसान हो, शहर हो, सड़क हो, या फिर कोई स्थान हो, नाम बदलने का फैशन चल पड़ा है. भई, नाम बदलने वालों को लगता है कि वहां की या उस की तस्वीर या फिर दशा बदल जाएगी. पर ऐसा होता है क्या?

आखिर और क्या तरीका हो सकता था इन के जीवन को आसान बनाने का. यदि इन के लिए सार्वजनिक स्थानों, कार्यालयों आदि मैं रैंप बनवाया जाए, व्हीलचेयर की व्यवस्था की जाए, चलिष्णु सीढि़यां लगाई जाएं, बैटरीचालित गाड़ी का प्रबंध किया जाए, तो उस में कितना खर्च होगा. कितना परिश्रम लगेगा.

यदि अंगदान को प्रोत्साहन कर उन्हें वांछित अंग उपलब्ध करवाया जाए या फिर शोध व अनुसंधान के जरिए उन के लिए आवश्यक यंत्र बना कर या विकास कर उपलब्ध करवाया जाए तो यह काफी कष्टकर व खर्चीला होगा. फिर उन्हें वह संतुष्टि नहीं मिलेगी जो दिव्यांग जैसे दिव्य नाम प्राप्त होने से मिली. सो, और कुछ करने की अपेक्षा प्यारा सा, न्यारा सा नाम दे देना ही उचित होगा.

तो कुछ और करने से बेहतर है कि इस तरह के वंचित लोगों को खूबसूरत सा प्रभावी नाम दे दें. और हम ऐसा करते भी आए हैं. विकलांगों को पहले डिफरैंटली एबल्ड या स्पैशली एबल्ड का नाम दिया गया और अब दिव्यांग. हो सकता है आगे चल कर इस से भी तड़कभड़क वाला, इस से भी गरिमामय कोईर् नाम दे दिया जाए.

ये भी पढ़ें- मेरा फुटबौल और बाबा की कुटिया

किसानों को अन्नदाता का नाम और दर्जा दिया जाता रहा है. भले ही वे खुद अन्न के लिए तरसते रहें. भले ही वे अपने ही उपजाए अन्न को फलों को, सब्जियों को कौडि़यों के दाम बेच कर उसे पाने के लिए, खाने के लिए तरसें. अन्नदाता नाम का ही प्रभाव है कि हमारे अधिकांश किसान आत्महत्या नहीं कर रहे हैं. और यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं है. हो सकता है आने वाले दिनों में यह समाचार छपा करे कि आज इतने किसानों ने आत्महत्या नहीं की.

हरिजन नामकरण मात्र मिल जाने से भी विशेष वर्गों को राहत मिली है. भले ही आज भी इन में से कुछ सिर पर मैला ढोने को बाध्य हों पर नाम तो ऐसा मिला है कि ये प्रकृति के साक्षात करीबी माने जा सकते हैं, फिर आम आदमी की बात ही क्या है.

किसी मशहूर लेखक ने दरिद्रनारायण नाम दे कर दरिद्रों को नारायण का दर्जा दे दिया था. दरिद्रतारूपी घाव पर नारायण नाम रूपी मरहम अपनेआप में कितना सुखद एहसास रहा होगा, यह सोचने की बात है.

इसी प्रकार हम सोचविचार कर दबेकुचले, वंचित लोगों को खूबसूरत सा चमत्कारिक नाम दे सकते हैं. बेरोजगारों को अमरबेल कहें तो कैसा रहेगा? जिस प्रकार अमरबेल बगैर जड़ के, बगैर जमीन के भी फैलती रहती है उसी प्रकार बेरोजगार युवकयुवती भी बगैर किसी रोजगार के जीवन के मैदान में डटे रहते हैं और कल की उम्मीद से सटे रहते हैं.

बेघर लोगों को भी इसी प्रकार का नाम दिया जा सकता है. विस्थापित हो कर अपने ही देश में शरणार्थी का जीवन जीने वालों को, बगैर अपराध सिद्ध हुए कारावास में रहने वालों को, दंगापीडि़तों को कोई प्यारा सा नाम दे दिया जाए. बलात्कार पीडि़त लड़की को तो निर्भया नाम दे भी दिया गया है. कोई और भी नाम दिया गया था उसे. शायद दामिनी, पर निर्भया नाम ज्यादा मशहूर हुआ. इतना मात्र उस के और उस के परिवार को राहत देने के लिए काफी नहीं होगा क्या? इसी प्रकार इस तरह की पीडि़त अन्य महिलाओं को भी यही या ऐसा ही कुछ नाम दे दिया जाए.

साइबर अपराधियों द्वारा लूटी गई जनता को कोई अच्छा सा नाम दिया जाए ताकि उसे बेहतरीन एहसास का आनंद मिले. आखिर मोबाइल सेवाप्रदाताओं पर रेवड़ी की भांति सिम वितरण पर रोक क्यों लगाई जाए? क्यों उन्हें केवाईसी नियमों के सही अनुपालन के लिए, केवाईसी के नवीकरण के लिए और उन के सिम का दुरुपयोग होने पर दंडित करने की कल्पना भी मन में लाई जाए?

आखिर ये बड़े स्वामियों के स्वामित्व में होते हैं. वैसे, कानून की नजर में सब बराबर होते हैं. फिर जौर्ज औरवैल ने कहा भी है, ‘औल आर इक्वल बट सम आर मोर इक्वल दैन अदर्स.’ तो ये भी मोर इक्वल हैं.

बात सिर्फ मनुष्यों की नहीं है, स्थानों, सड़कों आदि के नाम भी इसी प्रकार से बदले जा रहे हैं. कहीं  मेन रोड को महात्मा गांधी रोड कहा जा रहा है तो कहीं किसी चौक का नाम किसी शहीद के नाम पर रखा जा रहा है. सड़क को दुरुस्त करने के स्थान पर उसे प्यारा सा देशभक्ति से ओतप्रोत नाम देना ज्यादा श्रेयस्कर होगा. यह बात अलग है कि अधिकांश लोग उस सड़क को पुराने नाम से ही जानते हैं. नया देशभक्ति से ओतप्रोत नाम, बस, फाइलों में ही दबा रहता है.

कहींकहीं तो पूरे शहर का नाम ही बदल दिया जा रहा है. अब शहर को सुव्यवस्थित बनाने में, प्रदूषणमुक्त करने में काफी झमेला है. नया नाम, भले ही वह शहर का पूर्व में रह चुका हो, दे देना ज्यादा आसान है. इस से वर्तमान, गौरवमय अतीत की तरह लगने लगता है.

ये भी पढ़ें- तिकोनी डायरी : भाग 3

इतना ही नहीं, नाम रखने का एक नया फैशन चल पड़ा है. इस फैशन में नाम हिंदी शब्द का होते हुए भी हिंदी नहीं होता. उदाहरण के लिए नीति आयोग को ले लें. नीति वैसे तो हिंदी शब्द है, पर वास्तव में यह इंग्लिश शब्दों का संक्षिप्त रूप है-नैशनल इंस्टिट्यूट फौर ट्रांस्फौर्मिंग इंडिया. इसी प्रकार उदय को ले लें. यह भी इंग्लिश शब्दों का संक्षिप्त रूप है, उज्ज्वल डिस्कौम एश्युरैंस योजना. और फिर इस में डिस्कौम भी अपनेआप में डिस्ट्रिब्यूशन कंपनी का संक्षिप्त रूप है. आखिर इतने नवोन्मेषी नाम हम खोज रहे हैं तो इस का लाभ तो होगा ही.

सो, दे दो प्यारा सा नाम, बस हो गया अपना काम, और बात खत्म.

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October 01, 2019 at 10:41AM

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