Friday 27 September 2019

मेरा फुटबौल और बाबा की कुटिया

पच्हत्तर बरस की उम्र में कभी बचपन की शरारतें याद आ जाती हैं तो मैं खिलखिला कर हंस पड़ता हूं. मेरा पोता पूछता, ‘दादाजी अब क्यों हंसे?’ मैं बोलता, ‘कुछ नहीं, बस यूं ही कुछ याद आ गया…’ मगर उस दिन जब मैं देर तक हंसता रहा तो पोते के साथ-साथ बेटा भी कहने लगा, ‘पापा, अकेले-अकेले क्यों हंस रहे हो, हमें भी बताओ न क्या बात है?’

मैं हंसते हुए बोला, ‘अरे, अपने बचपन का एक किस्सा याद आ गया, इसीलिए हंस रहा हूं. बचपन में खूब बदमाशियां की हैं. आओ, सुनाता हूं वह किस्सा.’

फिर तो दोनों वहीं मेरे पलंग पर चढ़ कर बैठ गये. मैंने कहानी शुरू की. बोला – बचपन में तो हम गांव में ही रहे. वहीं पढ़े-लिखे. उन दिनों हमारे गांव के आसपास विद्यालयों की संख्या बहुत ही कम थी. मुझे भी करीब दस किलोमीटर दूर पढ़ने के लिए लिए जाना पड़ता था. मेरे स्कूल के रास्ते में एक नदी पड़ती थी और उसके किनारे एक श्मशान था. नदी किनारे इसी श्मशान में आसपास के गांवों के लोग अपने मृतक परिजनों को जलाते थे. कभी-कभी लाशें आधी-अधूरी ही जलती छोड़ जाते थे. फिर कुत्ते या सियार उनका मांस नोंचते रहते थे और हड्डियां छोड़ जाते थे. उस श्मशान में काफी हड्डियां इधर उधर बिखरी पड़ी रहती थीं. हमारे स्कूल का वक्त सुबह ग्यारह बजे का था और करीब तीन बजे तक पढ़ाई होती थी. स्कूल खत्म होने के बाद भी हम बड़ी देर तक वहीं ग्राउंड में खेलते रहते थे. घर लौटते-लौटते शाम हो जाती थी. सर्दियों के दिनों में तो पांच-छह बजे ही अंधेरा हो जाता था. मेरे साथ के लड़के नदी पर पहुंच कर बहुत डरते थे. श्मशान में अक्सर मुर्दे जलते दिख जाते थे. सारे दोस्त हनुमान चालीसा पढ़ते हुए वहां से निकलते थे, मगर मेरे अंदर डर नाम की चीज ही नहीं थी. मैं सबसे आगे उछलता-कूदता नदी किनारे पड़े नरमुंडों को फुटबाल बनाकर खेलता हुआ चला आता था. फुटबॉल मेरा प्रिय खेल था, मगर पिताजी की आर्थिक हैसियत इतनी नहीं थी कि मुझे फुटबॉल खरीद कर दे पाते. सो मैं नरमुंडों को ही फुटबॉल बना कर खेलता था. घर में कोई सोच ही नहीं सकता था कि एक बारह-तेरह बरस का बालक ऐसी हरकत कर सकता है. हमारे गांव के बाहर ही एक साधु बाबा की कुटिया थी. जिसे गांव वाले ‘बाबा की कुटिया’ के नाम से पुकारते थे. बाबा की कुटिया तक मेरा फुटबॉल का खेल चालू रहता था और फिर मैं वहीं गांव के बाहर नरमुंड को छोड़कर घर आ जाता था.

ये भी पढ़ें- मूव औन माई फुट

एक रोज हुआ यह कि मैंने नरमुंड को किक मारा तो वह उछल कर बाबा की कुटिया के करीब कहीं जा गिरा. मुझे घर आने की जल्दी थी, अंधेरा भी था तो मैं उसे ढूंढने भी नहीं गया. अब साधू बाबा ने जो अपने चबूतरे पर नरमुंड देखा तो बौखला उठे. भागे-भागे गांव में आये, शोर मचाया और फिर हमारे घर के दरवाजे पर बिछी खटिया पर आ गिरे. पिताजी ने बाबा जी को पानी पिलाया. हांफने-कांपने की वजह पूछी तो साधू बाबा कंपकंपाते हुए बोले – कि उनके दरवाजे पर एक नरमुंड पड़ा है. गांव के दूसरे लोग भी वहीं आ जमे. सब परेशान, किसी को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर साधु बाबा के दरवाजे पर नरमुंड कैसे पहुंचा? उस दिन तो पिता जी और गांव के दूसरे लोग किसी तरह समझा-बुझा कर साधु बाबा को उनकी कुटिया तक छोड़ आये. एक लकड़ी की मदद से उस नरमुंड को भी वहां से हटा कर दूर फेंक दिया गया. उस दिन की घटना से मेरा बड़ा मनोरंजन हुआ. मेरा उत्साह बढ़ा. फिर तो यह करीब-करीब रोज का हाल हो गया. मैं स्कूल से लौटते वक्त किसी न किसी नरमुंड को फुटबॉल बनाकर खेलता आता और साधु बाबा की कुटिया के आसपास छोड़ कर घर आ जाता. बाबा जी जब कोई नरमुंड देखते डर के मारे भागे-भागे गांव आते और सबको इकट्ठा कर लेते. मेरा घर गांव में घुसने पर सबसे पहले पड़ता था तो अक्सर वह वहीं बैठ कर पिताजी को ही अपना दुखड़ा सुनाते थे. अब गांव वालों के बीच भी चर्चा होने लगी कि आखिर साधु बाबा के दरवाजे पर ही नरमुंड क्यों आते हैं किसी और के दरवाजे पर क्यों नहीं आते? जरूर यह कोई ढोंगी बाबा होगें, तभी तो भगवान इनसे रुष्ट है और इनको सबक सिखाने के लिए नरमुंड भेजता है. गांव के अनपढ़ लोगों के बीच भ्रांतियां जल्दी विस्तार पा जाती हैं. धीरे-धीरे लोग उन साधु बाबा से दूरी बनाने लगे. पहले हर दिन गांव के किसी न किसी घर से उनका खाना जाता था, लोग दूध-दही और घी भी पहुंचा देते थे, अब वह भी कम हो गया. साधु बाबा बड़े परेशान हुए. एक तो नरमुंडों ने उन्हें डरा रखा था, और दूसरी ओर लोग उनको गलत आदमी समझने लगे थे और उनका फ्री का भोजन-पानी बंद हो गया था.

एक दिन किसी राजनेता के मरने पर हमारे स्कूल की जल्दी छुट्टी हो गयी. दोपहर का वक्त था. मैं रोज की आदत के अनुसार दोस्तों से काफी आगे उछलता-कूदता चला आ रहा था. श्मशान के करीब से गुजरा तो एक बड़ी सी हड्डी पड़ी नजर आयी. मैं हड्डी को अपनी ठोकर से उछालता चला आता था. साधु बाबा की कुटिया के पास पहुंचा तो देखा बाबाजी अपनी कुटिया के चबूतरे पर हुक्का गुड़गुड़ाते बैठे थे. अब आखिरी बार जो ठोकर पर हड्डी उछली तो जाकर सीधी गिरी बाबाजी के सामने.

बाबाजी ने एक नजर हड्डी पर डाली और दूसरी मुझ पर. मैं समझ गया कि आज तो बेटा खैर नहीं. बस्ता लिए तेजी से घर की ओर दौड़ लगा दी. अब आगे-आगे मैं और पीछे-पीछे धोती संभालते बाबाजी. मैं धड़धड़ाते हुए घर का दरवाजा खोलकर भीतर घुस गया. पलंग पर बस्ता पटका ही था कि साधु बाबा भी धड़धड़ाते हुए घर में दाखिल हो गये और गरज कर पिताजी का नाम लेकर बोले, ‘रामसुख बाहर निकालो अपने बदमाश लड़के को, सारी फसाद की जड़ यही है. यही हमारे दरवाजे नरमुंड इकट्ठे करता है.’ उनकी चिल्ल-पुकार सुनकर पिताजी भागे आये.

ये भी पढ़ें- प्रधानमंत्री : सात दिवसीय जन्मोत्सव

मैं अंदर कमरे में डर के मारे मां के पीछे दुबका खड़ा था. साधु बाबा का चीखना-चिल्लाना सुन कर थर-थर कांप रहा था. पक्का था कि आज तो बाबाजी मुझे पिताजी के हाथों पिटवाये बिना जाएंगे नहीं. इतने में पिताजी ने कड़कदार आवाज में मुझे पुकारा. मैं डरता-डरता गया तो उन्होंने पूछा, ‘क्यों रे क्या कह रहे हैं बाबाजी? तू डालता है इनके दरवाजे पर नरमुंड?’

मैंने हकलाते हुए कहा, ‘वो तो मैं खेलते हुए आता हूं… फुटबॉल की तरह…’

मेरे मुंह से सच सुनकर साधु बाबा का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. आखिर मेरे कारण ही तो इतने दिनों से उनका फ्री का भोजन-पानी बंद था. लोग उनसे बच-बच कर चलने लगे थे. उनको पापी समझने लगे थे. उस दिन उनका गुस्सा खूब उबला. चीख-चीख कर गांव भर को इकट्ठा कर दिया. बड़ी मुश्किल से लोगों ने उन्हें समझाया कि बच्चा है, खेल-खेल में समझ नहीं पाया. आखिरकार मेरे पिताजी को बुरा-भला बोलते हुए साधु बाबा चलने को हुए तो फिर पलट कर बोले, ‘बड़ा हैरान किया रामसुख तुम्हारे लड़के ने, समझा कर रखो इसे. इतना घोर पाप किया है इसने. बेकार ही इसे स्कूल भेजते हो, यह तुम्हारा नाम डुबाएगा, कभी किसी जमात में पास नहीं होगा…’ तो ऐसे साधु बाबा मुझे कोसते और भुनभुनाते हुए चले गये.

अब पिताजी बड़े चिन्तित हो गये कि बाबाजी श्राप दे गये, गांव वाले भी कहने लगे कि बाबा जी को नाराज किया है, अब तो इसका पास होना मुश्किल ही है. मगर मेरी मां ने कहा कि जाने दो, मैं जानती हूं अपने बच्चे को, यह ठीक से पढ़ेगा तो काहे को फेल होगा?

तब आठवीं की बोर्ड परीक्षा होती थी. जब मैं आठवीं कक्षा में अच्छे नम्बरों से पास हो गया तो पिताजी यह खुशखबरी मिठाई के साथ साधु बाबा को सुनाने गये. साधु बाबा अब तक मन में गुस्सा लिये बैठे थे, मिठाई तो झट से ले ली मगर भुनभुनाते हुए बोले, ‘घोर कलयुग है… घोर कलयुग है.’

कहानी सुना कर मैं जोर जोर से हंसने लगा और साथ में बेटा और पोता भी खिलखिला उठे.

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पच्हत्तर बरस की उम्र में कभी बचपन की शरारतें याद आ जाती हैं तो मैं खिलखिला कर हंस पड़ता हूं. मेरा पोता पूछता, ‘दादाजी अब क्यों हंसे?’ मैं बोलता, ‘कुछ नहीं, बस यूं ही कुछ याद आ गया…’ मगर उस दिन जब मैं देर तक हंसता रहा तो पोते के साथ-साथ बेटा भी कहने लगा, ‘पापा, अकेले-अकेले क्यों हंस रहे हो, हमें भी बताओ न क्या बात है?’

मैं हंसते हुए बोला, ‘अरे, अपने बचपन का एक किस्सा याद आ गया, इसीलिए हंस रहा हूं. बचपन में खूब बदमाशियां की हैं. आओ, सुनाता हूं वह किस्सा.’

फिर तो दोनों वहीं मेरे पलंग पर चढ़ कर बैठ गये. मैंने कहानी शुरू की. बोला – बचपन में तो हम गांव में ही रहे. वहीं पढ़े-लिखे. उन दिनों हमारे गांव के आसपास विद्यालयों की संख्या बहुत ही कम थी. मुझे भी करीब दस किलोमीटर दूर पढ़ने के लिए लिए जाना पड़ता था. मेरे स्कूल के रास्ते में एक नदी पड़ती थी और उसके किनारे एक श्मशान था. नदी किनारे इसी श्मशान में आसपास के गांवों के लोग अपने मृतक परिजनों को जलाते थे. कभी-कभी लाशें आधी-अधूरी ही जलती छोड़ जाते थे. फिर कुत्ते या सियार उनका मांस नोंचते रहते थे और हड्डियां छोड़ जाते थे. उस श्मशान में काफी हड्डियां इधर उधर बिखरी पड़ी रहती थीं. हमारे स्कूल का वक्त सुबह ग्यारह बजे का था और करीब तीन बजे तक पढ़ाई होती थी. स्कूल खत्म होने के बाद भी हम बड़ी देर तक वहीं ग्राउंड में खेलते रहते थे. घर लौटते-लौटते शाम हो जाती थी. सर्दियों के दिनों में तो पांच-छह बजे ही अंधेरा हो जाता था. मेरे साथ के लड़के नदी पर पहुंच कर बहुत डरते थे. श्मशान में अक्सर मुर्दे जलते दिख जाते थे. सारे दोस्त हनुमान चालीसा पढ़ते हुए वहां से निकलते थे, मगर मेरे अंदर डर नाम की चीज ही नहीं थी. मैं सबसे आगे उछलता-कूदता नदी किनारे पड़े नरमुंडों को फुटबाल बनाकर खेलता हुआ चला आता था. फुटबॉल मेरा प्रिय खेल था, मगर पिताजी की आर्थिक हैसियत इतनी नहीं थी कि मुझे फुटबॉल खरीद कर दे पाते. सो मैं नरमुंडों को ही फुटबॉल बना कर खेलता था. घर में कोई सोच ही नहीं सकता था कि एक बारह-तेरह बरस का बालक ऐसी हरकत कर सकता है. हमारे गांव के बाहर ही एक साधु बाबा की कुटिया थी. जिसे गांव वाले ‘बाबा की कुटिया’ के नाम से पुकारते थे. बाबा की कुटिया तक मेरा फुटबॉल का खेल चालू रहता था और फिर मैं वहीं गांव के बाहर नरमुंड को छोड़कर घर आ जाता था.

ये भी पढ़ें- मूव औन माई फुट

एक रोज हुआ यह कि मैंने नरमुंड को किक मारा तो वह उछल कर बाबा की कुटिया के करीब कहीं जा गिरा. मुझे घर आने की जल्दी थी, अंधेरा भी था तो मैं उसे ढूंढने भी नहीं गया. अब साधू बाबा ने जो अपने चबूतरे पर नरमुंड देखा तो बौखला उठे. भागे-भागे गांव में आये, शोर मचाया और फिर हमारे घर के दरवाजे पर बिछी खटिया पर आ गिरे. पिताजी ने बाबा जी को पानी पिलाया. हांफने-कांपने की वजह पूछी तो साधू बाबा कंपकंपाते हुए बोले – कि उनके दरवाजे पर एक नरमुंड पड़ा है. गांव के दूसरे लोग भी वहीं आ जमे. सब परेशान, किसी को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर साधु बाबा के दरवाजे पर नरमुंड कैसे पहुंचा? उस दिन तो पिता जी और गांव के दूसरे लोग किसी तरह समझा-बुझा कर साधु बाबा को उनकी कुटिया तक छोड़ आये. एक लकड़ी की मदद से उस नरमुंड को भी वहां से हटा कर दूर फेंक दिया गया. उस दिन की घटना से मेरा बड़ा मनोरंजन हुआ. मेरा उत्साह बढ़ा. फिर तो यह करीब-करीब रोज का हाल हो गया. मैं स्कूल से लौटते वक्त किसी न किसी नरमुंड को फुटबॉल बनाकर खेलता आता और साधु बाबा की कुटिया के आसपास छोड़ कर घर आ जाता. बाबा जी जब कोई नरमुंड देखते डर के मारे भागे-भागे गांव आते और सबको इकट्ठा कर लेते. मेरा घर गांव में घुसने पर सबसे पहले पड़ता था तो अक्सर वह वहीं बैठ कर पिताजी को ही अपना दुखड़ा सुनाते थे. अब गांव वालों के बीच भी चर्चा होने लगी कि आखिर साधु बाबा के दरवाजे पर ही नरमुंड क्यों आते हैं किसी और के दरवाजे पर क्यों नहीं आते? जरूर यह कोई ढोंगी बाबा होगें, तभी तो भगवान इनसे रुष्ट है और इनको सबक सिखाने के लिए नरमुंड भेजता है. गांव के अनपढ़ लोगों के बीच भ्रांतियां जल्दी विस्तार पा जाती हैं. धीरे-धीरे लोग उन साधु बाबा से दूरी बनाने लगे. पहले हर दिन गांव के किसी न किसी घर से उनका खाना जाता था, लोग दूध-दही और घी भी पहुंचा देते थे, अब वह भी कम हो गया. साधु बाबा बड़े परेशान हुए. एक तो नरमुंडों ने उन्हें डरा रखा था, और दूसरी ओर लोग उनको गलत आदमी समझने लगे थे और उनका फ्री का भोजन-पानी बंद हो गया था.

एक दिन किसी राजनेता के मरने पर हमारे स्कूल की जल्दी छुट्टी हो गयी. दोपहर का वक्त था. मैं रोज की आदत के अनुसार दोस्तों से काफी आगे उछलता-कूदता चला आ रहा था. श्मशान के करीब से गुजरा तो एक बड़ी सी हड्डी पड़ी नजर आयी. मैं हड्डी को अपनी ठोकर से उछालता चला आता था. साधु बाबा की कुटिया के पास पहुंचा तो देखा बाबाजी अपनी कुटिया के चबूतरे पर हुक्का गुड़गुड़ाते बैठे थे. अब आखिरी बार जो ठोकर पर हड्डी उछली तो जाकर सीधी गिरी बाबाजी के सामने.

बाबाजी ने एक नजर हड्डी पर डाली और दूसरी मुझ पर. मैं समझ गया कि आज तो बेटा खैर नहीं. बस्ता लिए तेजी से घर की ओर दौड़ लगा दी. अब आगे-आगे मैं और पीछे-पीछे धोती संभालते बाबाजी. मैं धड़धड़ाते हुए घर का दरवाजा खोलकर भीतर घुस गया. पलंग पर बस्ता पटका ही था कि साधु बाबा भी धड़धड़ाते हुए घर में दाखिल हो गये और गरज कर पिताजी का नाम लेकर बोले, ‘रामसुख बाहर निकालो अपने बदमाश लड़के को, सारी फसाद की जड़ यही है. यही हमारे दरवाजे नरमुंड इकट्ठे करता है.’ उनकी चिल्ल-पुकार सुनकर पिताजी भागे आये.

ये भी पढ़ें- प्रधानमंत्री : सात दिवसीय जन्मोत्सव

मैं अंदर कमरे में डर के मारे मां के पीछे दुबका खड़ा था. साधु बाबा का चीखना-चिल्लाना सुन कर थर-थर कांप रहा था. पक्का था कि आज तो बाबाजी मुझे पिताजी के हाथों पिटवाये बिना जाएंगे नहीं. इतने में पिताजी ने कड़कदार आवाज में मुझे पुकारा. मैं डरता-डरता गया तो उन्होंने पूछा, ‘क्यों रे क्या कह रहे हैं बाबाजी? तू डालता है इनके दरवाजे पर नरमुंड?’

मैंने हकलाते हुए कहा, ‘वो तो मैं खेलते हुए आता हूं… फुटबॉल की तरह…’

मेरे मुंह से सच सुनकर साधु बाबा का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. आखिर मेरे कारण ही तो इतने दिनों से उनका फ्री का भोजन-पानी बंद था. लोग उनसे बच-बच कर चलने लगे थे. उनको पापी समझने लगे थे. उस दिन उनका गुस्सा खूब उबला. चीख-चीख कर गांव भर को इकट्ठा कर दिया. बड़ी मुश्किल से लोगों ने उन्हें समझाया कि बच्चा है, खेल-खेल में समझ नहीं पाया. आखिरकार मेरे पिताजी को बुरा-भला बोलते हुए साधु बाबा चलने को हुए तो फिर पलट कर बोले, ‘बड़ा हैरान किया रामसुख तुम्हारे लड़के ने, समझा कर रखो इसे. इतना घोर पाप किया है इसने. बेकार ही इसे स्कूल भेजते हो, यह तुम्हारा नाम डुबाएगा, कभी किसी जमात में पास नहीं होगा…’ तो ऐसे साधु बाबा मुझे कोसते और भुनभुनाते हुए चले गये.

अब पिताजी बड़े चिन्तित हो गये कि बाबाजी श्राप दे गये, गांव वाले भी कहने लगे कि बाबा जी को नाराज किया है, अब तो इसका पास होना मुश्किल ही है. मगर मेरी मां ने कहा कि जाने दो, मैं जानती हूं अपने बच्चे को, यह ठीक से पढ़ेगा तो काहे को फेल होगा?

तब आठवीं की बोर्ड परीक्षा होती थी. जब मैं आठवीं कक्षा में अच्छे नम्बरों से पास हो गया तो पिताजी यह खुशखबरी मिठाई के साथ साधु बाबा को सुनाने गये. साधु बाबा अब तक मन में गुस्सा लिये बैठे थे, मिठाई तो झट से ले ली मगर भुनभुनाते हुए बोले, ‘घोर कलयुग है… घोर कलयुग है.’

कहानी सुना कर मैं जोर जोर से हंसने लगा और साथ में बेटा और पोता भी खिलखिला उठे.

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September 28, 2019 at 10:24AM

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