Wednesday 26 June 2019

फांस

जनवरी के दिन थे. कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी. दीवार घड़ी ने थोड़ी देर पहले ही रात के 12 बजने की घोषणा की थी. कामरान और सुलतान अभीअभी सोए थे. कामरान इस वर्ष 12वीं में था और सुलतान 10वीं में. दोनों की बोर्ड की परीक्षाएं थीं. मैं ने आरंभ से ही उन में प्रतिदिन 1 घंटा अभ्यास करने की आदत डाल रखी थी.

केवल शनिवार को उन की छुट्टी होती थी. 1 घंटा अभ्यास करने के बाद वे हम लोगों के साथ मिल कर ताश या कैरम खेलते या कामिक्स पढ़ते थे. दोनों ही अपनीअपनी कक्षा में प्रथम आते थे और अपनी परीक्षाओं में वे दोनों विशेष योग्यता सूची में आएंगे, इस का हमें पूरा विश्वास था.

मैं पढ़ाई में हमेशा से कच्ची रही थी. हमारा जमाना और था. तब लड़कियों पर बहुत पाबंदियां थीं. घर से स्कूल, स्कूल से घर. न अध्यापकों से अधिक बात करो, न साथी लड़कों से मेलजोल बढ़ाओ. न कोई घर में पढ़ाने वाला था, न मार्गदर्शन करने वाला. अब्बू खेतीबाड़ी के कामों में व्यस्त रहते थे और दोनों भाई शहर के विद्यालयों में छात्रावास में रह कर पढ़ते थे.

10वीं पास किया ही था कि सलमान  से विवाह हो गया. बच्चे भी जल्दीजल्दी हो गए. सलमान अपने कारोबार के कारण अधिकतर दौरे पर रहते. मुझे मां और पिता दोनों का ही दायित्व निभाना पड़ता. मेरेबच्चे परीक्षा में अच्छे अंक लाएं, खूब पढ़ेंलिखें, इस के लिए मैं ने उन पर कभी जबरदस्ती नहीं की, बल्कि कुछ ऐसी आदतें उन में डाल दीं, जिस से वे स्वयं धीरेधीरे अपने जीवन का उद्देश्य निर्धारित करते गए.

इतना अवश्य था कि अभ्यास के समय मुझे साथ जागना पड़ता. जब तक वे पढ़ाई करते तब तक मैं सवेरे के लिए सब्जी काट कर फ्रिज में रख देती या पुस्तकें पढ़ती रहती. मार्च में परीक्षा थी. अब वे दोनों रात को 11 बजे तक पढ़ते. मैं ने आधा घंटा पहले ही दोनों को गरम दूध पीने को दिया था. उन के लेटते ही मैं भी लेट गई थी, पर नींद आंखों से कोसों दूर थी.

ये भी पढ़ें- एक प्रश्न लगातार

2 दिन से सलमान ने फोन नहीं किया था. वह जहां कहीं भी होते, वहां से प्रतिदिन फोन पर बात करना उन का नियम था. इधर अब्बू की भी कोई खबर नहीं मिली थी. न जाने क्यों मन अब्बू को बहुत याद कर रहा था. मैं थोड़ी ही देर सोई होऊंगी कि घंटी की आवाज के साथ ही चौकीदार का स्वर कानों में पड़ा, ‘‘बीबीजी, तार ले लीजिए.’’

मैं ने उठ कर द्वार खोला और तार लिया. बब्बन चचा का तार था. अब्बू की हालत खराब बता कर फौरन आने के लिए लिखा था. मैं ने घड़ी पर नजर डाली. रात के 2 बज रहे थे. मैं ने तुरंत निर्णय ले लिया कि सवेरे 5 बजे वाली गाड़ी से निकल पड़ूंगी. चौकीदार से मैं ने बाबू और उस की पत्नी को बुलाने के लिए कहा. वह नौकरों के लिए बने मकानों की ओर गया और मैं ने कामरान को धीरे से जगाया. वह उठा और पूछने लगा, ‘‘क्या बात है, अम्मी? आप इतनी परेशान क्यों हैं?’’

मैं ने कहा, ‘‘बेटे, तुम्हारे नानाजान की तबीयत खराब है. मैं सवेरे की गाड़ी से चली जाऊं?’’

‘‘जरूर जाइए, अम्मी, नानाजान अकेले हैं,’’ वह बोला.

‘‘पर, बेटे, तुम लोगों की पढ़ाई?’’

‘‘अम्मी, हम दोनों बराबर पढ़ाई करेंगे, आप हमारी बिलकुल चिंता न करें.’’

कामरान को सुलतान की देखभाल करने को कह कर मैं ने बाबू और उस की पत्नी को घर सौंपा और थोड़ा सा सामान ले कर स्टेशन की राह ली. स्टेशन 3 किलोमीटर दूर था और सवारी मिलने की कोई संभावना नहीं थी. बाबू ने मेरा बक्सा संभाला और हम लोग निकल पड़े.

2 किलोमीटर चलने के बाद शहर दिखाई देने लगा. होटलों के चूल्हों में आग सुलगनी शुरू हो गई थी. एक रिकशा दिखाई दिया. रिकशा वाला बैठाबैठा ऊंघ रहा था. दोनों पांव लंबे कर के सीट पर फैला रखे थे. बाबू ने उसे बहुत आवाजें दीं, तब कहीं वह जागा. पर स्टेशन चलने से उस ने इनकार कर दिया, ‘‘बहुत सर्दी है,’’ कह कर वह फिर सो गया.

थोड़ी दूरी पर एक दूसरा रिकशा वाला मिला, जो होटल की भट्ठी के सामने खड़ा आग ताप रहा था. बाबू के बोलने पर उस ने चाय पिए बिना वहां से हटने से इनकार कर दिया, जबकि चाय कब बनेगी इस का कोई पता न था. गाड़ी का समय करीब था. मैं और बाबू तेजी से कदम बढ़ाने लगे. तभी एक तख्ती पर मेरी दृष्टि जा पड़ी.

ठंडी राख के ढेर के एक तरफ एक कुत्ता बेखबर सो रहा था और दूसरी तरफ रिकशा वाला एक पतली सी चादर ओढ़े सो रहा था. करीब ही रिकशा खड़ा था, जिस पर गत्ते की एक तख्ती लटक रही थी. कुछकुछ रोशनी में मैं ने पढ़ा, ‘‘आप को रिकशा की जरूरत है और मुझे पैसों की, मुझे सोता देख कर उठाने में हिचकिचाइए मत.’’

बाबू ने उसे आवाज दी. वह एक आवाज में उठ बैठा और चादर लपेट कर रखता हुआ बोला, ‘‘बैठिए, बहनजी, कहां चलना है? भावताव न करें, जो मुनासिब समझें दे दें.’’

मैं बाबू को वापस लौटने को कह कर रिकशे में बैठ गई. रास्ते में मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम ने यह तख्ती क्यों लगा रखी है?’’

उस की बातचीत से वह किसी अच्छे घराने का लड़का लग रहा था. मुझे उस के बारे में जानने की सहज ही उत्सुकता हुई. जो कुछ उस ने बताया वह बहुत ही आश्चर्यजनक था. वह एक साधारण गरीब परिवार से था और एक विद्यालय में चपरासी था. जो वेतन मिलता था उस में पत्नी व बच्चों का पेट बड़ी मुश्किल से भर पाता था. पिछले दिनों उस की बहन को उस के पति ने तलाक दे कर वापस मायके भेज दिया था, उसे कोई बीमारी थी, जिस के लिए रोज 15 रुपए की दवाई लानी पड़ती थी.

‘‘मेरी बहन केवल 18 वर्ष की है, बहनजी, उस ने अभी जिंदगी में देखा ही क्या है? मैं उसे मरने नहीं देना चाहता. इसलिए रात को अपने दोस्त का यह रिकशा चलाता हूं. 15 रुपए हाथ आते ही घर लौट जाता हूं, इतने रुपए न मिलें तो रिकशे पर यह तख्ती लगा कर सो जाता हूं ताकि कोई सवारी हाथ से न चली जाए.’’

मेरा मन श्रद्धा से झुक गया. मैं ने मुक्तकंठ से उस की प्रशंसा की. मन में सोचा कि लौटने पर सलमान से कह कर उसे किसी जगह चौकीदार लगवा दूंगी. उस से विदा ली तो मन में कहीं एक फांस गड़ी सी रह गई. कोई बात दिल में खटक रही थी. पर क्या, पकड़ में ही नहीं आ रही थी. गाड़ी में बैठी तो अब्बू की याद रहरह कर आने लगी.

ये भी पढ़ें- बोया पेड़ बबूल का…

मेरे दोनों बड़े भाई कनाडा और इंडोनेशिया में सिलेसिलाए कपड़ों का कारोबार करते थे. अब्बू को हर महीने नियमित रूप से पैसे भेजते और साल दो साल में आ कर मिल भी जाते. अम्मां तो बहुत चाहती थीं कि दोनों भाभियों में से कोई उन के  पास रहे, पर किसी ने भी यहां रहना पसंद न किया. बेटों से जुदाई अम्मां के लिए जानलेवा सिद्ध हुई.

अम्मां के जाते ही अब्बू नितांत अकेले रह गए. मैं उन्हें अपने पास रखना चाहती थी, पर उन्होंने बेटी के घर रहना पसंद नहीं किया. मैं और सलमान महीने दो महीने में जा कर उन से मिल आते. मैं ने हमेशा यह बात महसूस की कि जितना मेरे मिलने पर वह खुश होते, उस से कहीं ज्यादा मेरे बिछड़ने पर वह रोते. पर

मैं करती भी क्या? अपने घर, अपने

पति और बच्चों के लिए मुझे लौटना ही पड़ता.

घर पहुंची तो बाहरी द्वार खुला हुआ मिला. मैं अब्बू के कमरे की ओर बढ़ी ही थी कि बब्बन चचा की आवाज ने मेरे कदम जड़ कर दिए, ‘‘तुम तो सठिया गए हो. दवाइयां जो लाभ पहुंचाएंगी वह क्या बच्चों की याद कर सकेगी?’’

‘‘मैं कहां याद करता हूं, बब्बन?’’ अब्बू की आवाज बहुत धीमी थी.

‘‘क्या मैं सुनता नहीं? नींद में बेटों से, पोतेपोतियों से बातें करते रहते हो. क्या तुम्हारे याद करने से वे लोग तुम्हारे पास लौट आएंगे?’’

बब्बन चचा की बात में वजन था. इसीलिए अब्बू ने शायद अपनी कमजोरी स्वीकार करते हुए कहा, ‘‘बब्बन, दोनों बच्चे जब छोटे थे तब उन्हें उंगली पकड़ कर चलना सिखाता था और सोचता था कि जब मैं बूढ़ा हो जाऊंगा तो ये दोनों बच्चे दोनों तरफ से थाम कर मुझे चलाएंगे. वे कपड़े गीले कर देते थे तो सोचता था कि मेरी बीमारी में ये ही हाथ कभी मेरे कपड़े बदलेंगे. अपने हाथों से छोटेछोटे कौर बना कर उन के मुंह में देता था और सोचता था ये ही बच्चे बड़े हो कर मुझे दवा पिलाएंगे…’’

‘‘बस करो, मेरे दोस्त,’’ बब्बन चचा की आवाज भर्रा गई, ‘‘इनसान को पेड़ लगा कर स्वयं फल खाने की इच्छा नहीं करनी चाहिए. आज का जमाना ऐसा है कि बच्चों को पालपोस कर बड़ा करना, मांबाप को कर्तव्य समझ कर करना चाहिए. बच्चों से उन के कर्तव्य की बात करना ही गलत है. दोस्त, मेरा खयाल है इस प्रकार एकांत में पड़े रहने से कहीं अच्छा है कि तुम अपनी बेटी के पास चले जाओ.’’

अब्बू बहुत देर तक कुछ नहीं बोले. उन का उत्तर सुनने के लिए मैं बेताब हो गई. बहुत देर बाद वह बोले, ‘‘बिटिया ने तो मुझ से कई बार कहा पर मुझे अच्छा नहीं लगता दामाद के घर रहना, इसीलिए इनकार करता रहा. अब मैं स्वयं उस से कैसे कहूं? बब्बन, बिटिया के बच्चे मुझे चाहते भी बहुत हैं. मैं यहां नहीं रहना चाहता पर अब बेटी से कह भी तो नहीं सकता.’’

‘‘मैं बात करूंगा बिटिया से,’’ बब्बन चचा बोले तो अब्बू ने तड़प कर उन्हें रोक दिया, ‘‘नहीं, ऐसा न करना, बब्बन, बेटी जब ससुराल जाती है तो मांबाप से संबंध रखने में उसे बड़ा चौकस रहना पड़ता है. उसे मायके की इज्जत रखने के साथ ससुराल की इज्जत भी निभानी पड़ती है. बात रुपएपैसे की नहीं. बेटे मुझे कितना रुपया भेजते हैं, पर मैं बैंक से निकालता हूं कभी? पड़े रहें, उन्हीं के काम आएंगे. मैं बेटों से अपनी व्यथा नहीं कहता. बेटी तो ससुराल की इज्जत है, उस से क्या कहूं?’’

मौन के वे क्षण न जाने कितने लंबे हो गए. मैं कोई आहट किए बिना खड़ी थी और भीतर अब्बू और बब्बन चचा मौन भाषा में बात कर रहे थे. कोई 40 मिनट के बाद मैं अपने हवास में लौटी और कमरे में दाखिल हो गई.

‘‘अरे, बिटिया, आ गई,’’ बब्बन चचा के स्वर से अब्बू की आंख खुल गई. मैं उन के पास बैठ कर रोने लगी, वे सभी बातें याद कर जो अभी पिछले 40 मिनट से सुन रही थी. जब बहुत देर तक मेरा रोना नहीं रुका तो अब्बू भी घबरा गए, ‘‘क्या बात है, बिटिया? क्यों इतना रोए जा रही है?’’

‘‘अब्बू, आप के दामाद और बच्चों ने मुझे घर से निकाल दिया है,’’ मैं ठीक ऐसे ही बोली जैसे कोई मंझी हुई अभिनेत्री किसी फिल्म में कहा करती है.

‘‘क्या कह रही है, बेटी?’’ अब्बू एकदम घबरा गए.

मुझे डर लगा कि कहीं सदमा न लग जाए उन्हें, तुरंत बनावटी रुलाई रोते हुए बोली, ‘‘हां, अब्बू, उन लोगों ने कहा है, तुम्हारे अब्बू वहां अकेले बीमार पड़े रहते हैं और मैं ठाट से रहती हूं. इस के लिए मुझे शरम आनी चाहिए.’’

‘‘अरे वाह, यह भी कोई बात हुई,’’ अब्बू सचमुच हैरान थे.

‘‘मुझ से कहा है अपने अब्बू को ले कर आओगी तो घर में घुसने देंगे, नहीं तो नहीं.’’ मैं ने बच्चों की तरह ठुनकते हुए कहा, ‘‘अब्बू, आप को कितनी बार कहा है, मेरे साथ चल कर रहिए. पर आप सुनते ही नहीं. क्या आप मुझ से मेरा घर छुड़वा देंगे? यहां सब लोग ताने देते हैं. मेरी सास कहती है, ‘जो अपने बाप की नहीं हुई वह सासससुर की क्या होगी? जो बाप की सेवा नहीं करती वह बेटी क्या हुई?’’’

अब्बू किसी सोच में पड़ गए, ‘‘बिटिया, सच बता, कामरान और सुलतान मेरी याद करते हैं?’’

‘‘अरे अब्बू, उन्हीं दोनों ने तो अपने अब्बा को बहकाया है. एक दिन बोले, ‘हम दोनों भी बड़े हो कर आप लोगों को अकेला छोड़ देंगे.’ यह सुन कर आप के दामाद डर गए और मुझे यहां भेज दिया. तो फिर आप क्या कहते हैं, अब्बू?’’ मैं ने अब्बू का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

‘‘बेटी, बेटों के होते हुए मैं बेटी के घर रहूं यह अच्छा नहीं लगता.’’ अब्बू का मन नहीं मान रहा था.

मेरा मन पुन: भर आया, ‘‘ठीक है, अब्बू, हमेशा के लिए न सही, पर उस समय तक मेरे घर चल कर रहिए जब तक बड़े भैया आप को लेने नहीं आ जाते.’’

‘‘क्या? बब्बू आ रहा है यहां? कब?’’ अब्बू भावविह्ल हो कर बोले.

‘‘मैं ने बड़े भैया, छोटे भैया दोनों को पत्र लिखा था. बड़े भैया अगले महीने आ कर आप को अपने साथ ले जाएंगे. फिर पता नहीं कब आप की सेवा का अवसर मिले, इसलिए तब तक मेरे घर चल कर रहिए. 20-22 दिन की ही तो बात है.’’

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अब्बू बब्बन चचा का सहारा ले कर उठ बैठे. बब्बन चचा मेरी ओर यों देख रहे थे जैसे वह मेरे मन पर टंगी उस तख्ती को स्पष्ट देख रहे हों जिस पर लिखा है- ‘‘मुझे पितृछाया की जरूरत है.’’

रिकशे वाले से मिलने के बाद से जो फांस मन में गड़ कर पीड़ा पहुंचा रही थी वह अब निकल चुकी थी.

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जनवरी के दिन थे. कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी. दीवार घड़ी ने थोड़ी देर पहले ही रात के 12 बजने की घोषणा की थी. कामरान और सुलतान अभीअभी सोए थे. कामरान इस वर्ष 12वीं में था और सुलतान 10वीं में. दोनों की बोर्ड की परीक्षाएं थीं. मैं ने आरंभ से ही उन में प्रतिदिन 1 घंटा अभ्यास करने की आदत डाल रखी थी.

केवल शनिवार को उन की छुट्टी होती थी. 1 घंटा अभ्यास करने के बाद वे हम लोगों के साथ मिल कर ताश या कैरम खेलते या कामिक्स पढ़ते थे. दोनों ही अपनीअपनी कक्षा में प्रथम आते थे और अपनी परीक्षाओं में वे दोनों विशेष योग्यता सूची में आएंगे, इस का हमें पूरा विश्वास था.

मैं पढ़ाई में हमेशा से कच्ची रही थी. हमारा जमाना और था. तब लड़कियों पर बहुत पाबंदियां थीं. घर से स्कूल, स्कूल से घर. न अध्यापकों से अधिक बात करो, न साथी लड़कों से मेलजोल बढ़ाओ. न कोई घर में पढ़ाने वाला था, न मार्गदर्शन करने वाला. अब्बू खेतीबाड़ी के कामों में व्यस्त रहते थे और दोनों भाई शहर के विद्यालयों में छात्रावास में रह कर पढ़ते थे.

10वीं पास किया ही था कि सलमान  से विवाह हो गया. बच्चे भी जल्दीजल्दी हो गए. सलमान अपने कारोबार के कारण अधिकतर दौरे पर रहते. मुझे मां और पिता दोनों का ही दायित्व निभाना पड़ता. मेरेबच्चे परीक्षा में अच्छे अंक लाएं, खूब पढ़ेंलिखें, इस के लिए मैं ने उन पर कभी जबरदस्ती नहीं की, बल्कि कुछ ऐसी आदतें उन में डाल दीं, जिस से वे स्वयं धीरेधीरे अपने जीवन का उद्देश्य निर्धारित करते गए.

इतना अवश्य था कि अभ्यास के समय मुझे साथ जागना पड़ता. जब तक वे पढ़ाई करते तब तक मैं सवेरे के लिए सब्जी काट कर फ्रिज में रख देती या पुस्तकें पढ़ती रहती. मार्च में परीक्षा थी. अब वे दोनों रात को 11 बजे तक पढ़ते. मैं ने आधा घंटा पहले ही दोनों को गरम दूध पीने को दिया था. उन के लेटते ही मैं भी लेट गई थी, पर नींद आंखों से कोसों दूर थी.

ये भी पढ़ें- एक प्रश्न लगातार

2 दिन से सलमान ने फोन नहीं किया था. वह जहां कहीं भी होते, वहां से प्रतिदिन फोन पर बात करना उन का नियम था. इधर अब्बू की भी कोई खबर नहीं मिली थी. न जाने क्यों मन अब्बू को बहुत याद कर रहा था. मैं थोड़ी ही देर सोई होऊंगी कि घंटी की आवाज के साथ ही चौकीदार का स्वर कानों में पड़ा, ‘‘बीबीजी, तार ले लीजिए.’’

मैं ने उठ कर द्वार खोला और तार लिया. बब्बन चचा का तार था. अब्बू की हालत खराब बता कर फौरन आने के लिए लिखा था. मैं ने घड़ी पर नजर डाली. रात के 2 बज रहे थे. मैं ने तुरंत निर्णय ले लिया कि सवेरे 5 बजे वाली गाड़ी से निकल पड़ूंगी. चौकीदार से मैं ने बाबू और उस की पत्नी को बुलाने के लिए कहा. वह नौकरों के लिए बने मकानों की ओर गया और मैं ने कामरान को धीरे से जगाया. वह उठा और पूछने लगा, ‘‘क्या बात है, अम्मी? आप इतनी परेशान क्यों हैं?’’

मैं ने कहा, ‘‘बेटे, तुम्हारे नानाजान की तबीयत खराब है. मैं सवेरे की गाड़ी से चली जाऊं?’’

‘‘जरूर जाइए, अम्मी, नानाजान अकेले हैं,’’ वह बोला.

‘‘पर, बेटे, तुम लोगों की पढ़ाई?’’

‘‘अम्मी, हम दोनों बराबर पढ़ाई करेंगे, आप हमारी बिलकुल चिंता न करें.’’

कामरान को सुलतान की देखभाल करने को कह कर मैं ने बाबू और उस की पत्नी को घर सौंपा और थोड़ा सा सामान ले कर स्टेशन की राह ली. स्टेशन 3 किलोमीटर दूर था और सवारी मिलने की कोई संभावना नहीं थी. बाबू ने मेरा बक्सा संभाला और हम लोग निकल पड़े.

2 किलोमीटर चलने के बाद शहर दिखाई देने लगा. होटलों के चूल्हों में आग सुलगनी शुरू हो गई थी. एक रिकशा दिखाई दिया. रिकशा वाला बैठाबैठा ऊंघ रहा था. दोनों पांव लंबे कर के सीट पर फैला रखे थे. बाबू ने उसे बहुत आवाजें दीं, तब कहीं वह जागा. पर स्टेशन चलने से उस ने इनकार कर दिया, ‘‘बहुत सर्दी है,’’ कह कर वह फिर सो गया.

थोड़ी दूरी पर एक दूसरा रिकशा वाला मिला, जो होटल की भट्ठी के सामने खड़ा आग ताप रहा था. बाबू के बोलने पर उस ने चाय पिए बिना वहां से हटने से इनकार कर दिया, जबकि चाय कब बनेगी इस का कोई पता न था. गाड़ी का समय करीब था. मैं और बाबू तेजी से कदम बढ़ाने लगे. तभी एक तख्ती पर मेरी दृष्टि जा पड़ी.

ठंडी राख के ढेर के एक तरफ एक कुत्ता बेखबर सो रहा था और दूसरी तरफ रिकशा वाला एक पतली सी चादर ओढ़े सो रहा था. करीब ही रिकशा खड़ा था, जिस पर गत्ते की एक तख्ती लटक रही थी. कुछकुछ रोशनी में मैं ने पढ़ा, ‘‘आप को रिकशा की जरूरत है और मुझे पैसों की, मुझे सोता देख कर उठाने में हिचकिचाइए मत.’’

बाबू ने उसे आवाज दी. वह एक आवाज में उठ बैठा और चादर लपेट कर रखता हुआ बोला, ‘‘बैठिए, बहनजी, कहां चलना है? भावताव न करें, जो मुनासिब समझें दे दें.’’

मैं बाबू को वापस लौटने को कह कर रिकशे में बैठ गई. रास्ते में मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम ने यह तख्ती क्यों लगा रखी है?’’

उस की बातचीत से वह किसी अच्छे घराने का लड़का लग रहा था. मुझे उस के बारे में जानने की सहज ही उत्सुकता हुई. जो कुछ उस ने बताया वह बहुत ही आश्चर्यजनक था. वह एक साधारण गरीब परिवार से था और एक विद्यालय में चपरासी था. जो वेतन मिलता था उस में पत्नी व बच्चों का पेट बड़ी मुश्किल से भर पाता था. पिछले दिनों उस की बहन को उस के पति ने तलाक दे कर वापस मायके भेज दिया था, उसे कोई बीमारी थी, जिस के लिए रोज 15 रुपए की दवाई लानी पड़ती थी.

‘‘मेरी बहन केवल 18 वर्ष की है, बहनजी, उस ने अभी जिंदगी में देखा ही क्या है? मैं उसे मरने नहीं देना चाहता. इसलिए रात को अपने दोस्त का यह रिकशा चलाता हूं. 15 रुपए हाथ आते ही घर लौट जाता हूं, इतने रुपए न मिलें तो रिकशे पर यह तख्ती लगा कर सो जाता हूं ताकि कोई सवारी हाथ से न चली जाए.’’

मेरा मन श्रद्धा से झुक गया. मैं ने मुक्तकंठ से उस की प्रशंसा की. मन में सोचा कि लौटने पर सलमान से कह कर उसे किसी जगह चौकीदार लगवा दूंगी. उस से विदा ली तो मन में कहीं एक फांस गड़ी सी रह गई. कोई बात दिल में खटक रही थी. पर क्या, पकड़ में ही नहीं आ रही थी. गाड़ी में बैठी तो अब्बू की याद रहरह कर आने लगी.

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मेरे दोनों बड़े भाई कनाडा और इंडोनेशिया में सिलेसिलाए कपड़ों का कारोबार करते थे. अब्बू को हर महीने नियमित रूप से पैसे भेजते और साल दो साल में आ कर मिल भी जाते. अम्मां तो बहुत चाहती थीं कि दोनों भाभियों में से कोई उन के  पास रहे, पर किसी ने भी यहां रहना पसंद न किया. बेटों से जुदाई अम्मां के लिए जानलेवा सिद्ध हुई.

अम्मां के जाते ही अब्बू नितांत अकेले रह गए. मैं उन्हें अपने पास रखना चाहती थी, पर उन्होंने बेटी के घर रहना पसंद नहीं किया. मैं और सलमान महीने दो महीने में जा कर उन से मिल आते. मैं ने हमेशा यह बात महसूस की कि जितना मेरे मिलने पर वह खुश होते, उस से कहीं ज्यादा मेरे बिछड़ने पर वह रोते. पर

मैं करती भी क्या? अपने घर, अपने

पति और बच्चों के लिए मुझे लौटना ही पड़ता.

घर पहुंची तो बाहरी द्वार खुला हुआ मिला. मैं अब्बू के कमरे की ओर बढ़ी ही थी कि बब्बन चचा की आवाज ने मेरे कदम जड़ कर दिए, ‘‘तुम तो सठिया गए हो. दवाइयां जो लाभ पहुंचाएंगी वह क्या बच्चों की याद कर सकेगी?’’

‘‘मैं कहां याद करता हूं, बब्बन?’’ अब्बू की आवाज बहुत धीमी थी.

‘‘क्या मैं सुनता नहीं? नींद में बेटों से, पोतेपोतियों से बातें करते रहते हो. क्या तुम्हारे याद करने से वे लोग तुम्हारे पास लौट आएंगे?’’

बब्बन चचा की बात में वजन था. इसीलिए अब्बू ने शायद अपनी कमजोरी स्वीकार करते हुए कहा, ‘‘बब्बन, दोनों बच्चे जब छोटे थे तब उन्हें उंगली पकड़ कर चलना सिखाता था और सोचता था कि जब मैं बूढ़ा हो जाऊंगा तो ये दोनों बच्चे दोनों तरफ से थाम कर मुझे चलाएंगे. वे कपड़े गीले कर देते थे तो सोचता था कि मेरी बीमारी में ये ही हाथ कभी मेरे कपड़े बदलेंगे. अपने हाथों से छोटेछोटे कौर बना कर उन के मुंह में देता था और सोचता था ये ही बच्चे बड़े हो कर मुझे दवा पिलाएंगे…’’

‘‘बस करो, मेरे दोस्त,’’ बब्बन चचा की आवाज भर्रा गई, ‘‘इनसान को पेड़ लगा कर स्वयं फल खाने की इच्छा नहीं करनी चाहिए. आज का जमाना ऐसा है कि बच्चों को पालपोस कर बड़ा करना, मांबाप को कर्तव्य समझ कर करना चाहिए. बच्चों से उन के कर्तव्य की बात करना ही गलत है. दोस्त, मेरा खयाल है इस प्रकार एकांत में पड़े रहने से कहीं अच्छा है कि तुम अपनी बेटी के पास चले जाओ.’’

अब्बू बहुत देर तक कुछ नहीं बोले. उन का उत्तर सुनने के लिए मैं बेताब हो गई. बहुत देर बाद वह बोले, ‘‘बिटिया ने तो मुझ से कई बार कहा पर मुझे अच्छा नहीं लगता दामाद के घर रहना, इसीलिए इनकार करता रहा. अब मैं स्वयं उस से कैसे कहूं? बब्बन, बिटिया के बच्चे मुझे चाहते भी बहुत हैं. मैं यहां नहीं रहना चाहता पर अब बेटी से कह भी तो नहीं सकता.’’

‘‘मैं बात करूंगा बिटिया से,’’ बब्बन चचा बोले तो अब्बू ने तड़प कर उन्हें रोक दिया, ‘‘नहीं, ऐसा न करना, बब्बन, बेटी जब ससुराल जाती है तो मांबाप से संबंध रखने में उसे बड़ा चौकस रहना पड़ता है. उसे मायके की इज्जत रखने के साथ ससुराल की इज्जत भी निभानी पड़ती है. बात रुपएपैसे की नहीं. बेटे मुझे कितना रुपया भेजते हैं, पर मैं बैंक से निकालता हूं कभी? पड़े रहें, उन्हीं के काम आएंगे. मैं बेटों से अपनी व्यथा नहीं कहता. बेटी तो ससुराल की इज्जत है, उस से क्या कहूं?’’

मौन के वे क्षण न जाने कितने लंबे हो गए. मैं कोई आहट किए बिना खड़ी थी और भीतर अब्बू और बब्बन चचा मौन भाषा में बात कर रहे थे. कोई 40 मिनट के बाद मैं अपने हवास में लौटी और कमरे में दाखिल हो गई.

‘‘अरे, बिटिया, आ गई,’’ बब्बन चचा के स्वर से अब्बू की आंख खुल गई. मैं उन के पास बैठ कर रोने लगी, वे सभी बातें याद कर जो अभी पिछले 40 मिनट से सुन रही थी. जब बहुत देर तक मेरा रोना नहीं रुका तो अब्बू भी घबरा गए, ‘‘क्या बात है, बिटिया? क्यों इतना रोए जा रही है?’’

‘‘अब्बू, आप के दामाद और बच्चों ने मुझे घर से निकाल दिया है,’’ मैं ठीक ऐसे ही बोली जैसे कोई मंझी हुई अभिनेत्री किसी फिल्म में कहा करती है.

‘‘क्या कह रही है, बेटी?’’ अब्बू एकदम घबरा गए.

मुझे डर लगा कि कहीं सदमा न लग जाए उन्हें, तुरंत बनावटी रुलाई रोते हुए बोली, ‘‘हां, अब्बू, उन लोगों ने कहा है, तुम्हारे अब्बू वहां अकेले बीमार पड़े रहते हैं और मैं ठाट से रहती हूं. इस के लिए मुझे शरम आनी चाहिए.’’

‘‘अरे वाह, यह भी कोई बात हुई,’’ अब्बू सचमुच हैरान थे.

‘‘मुझ से कहा है अपने अब्बू को ले कर आओगी तो घर में घुसने देंगे, नहीं तो नहीं.’’ मैं ने बच्चों की तरह ठुनकते हुए कहा, ‘‘अब्बू, आप को कितनी बार कहा है, मेरे साथ चल कर रहिए. पर आप सुनते ही नहीं. क्या आप मुझ से मेरा घर छुड़वा देंगे? यहां सब लोग ताने देते हैं. मेरी सास कहती है, ‘जो अपने बाप की नहीं हुई वह सासससुर की क्या होगी? जो बाप की सेवा नहीं करती वह बेटी क्या हुई?’’’

अब्बू किसी सोच में पड़ गए, ‘‘बिटिया, सच बता, कामरान और सुलतान मेरी याद करते हैं?’’

‘‘अरे अब्बू, उन्हीं दोनों ने तो अपने अब्बा को बहकाया है. एक दिन बोले, ‘हम दोनों भी बड़े हो कर आप लोगों को अकेला छोड़ देंगे.’ यह सुन कर आप के दामाद डर गए और मुझे यहां भेज दिया. तो फिर आप क्या कहते हैं, अब्बू?’’ मैं ने अब्बू का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

‘‘बेटी, बेटों के होते हुए मैं बेटी के घर रहूं यह अच्छा नहीं लगता.’’ अब्बू का मन नहीं मान रहा था.

मेरा मन पुन: भर आया, ‘‘ठीक है, अब्बू, हमेशा के लिए न सही, पर उस समय तक मेरे घर चल कर रहिए जब तक बड़े भैया आप को लेने नहीं आ जाते.’’

‘‘क्या? बब्बू आ रहा है यहां? कब?’’ अब्बू भावविह्ल हो कर बोले.

‘‘मैं ने बड़े भैया, छोटे भैया दोनों को पत्र लिखा था. बड़े भैया अगले महीने आ कर आप को अपने साथ ले जाएंगे. फिर पता नहीं कब आप की सेवा का अवसर मिले, इसलिए तब तक मेरे घर चल कर रहिए. 20-22 दिन की ही तो बात है.’’

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अब्बू बब्बन चचा का सहारा ले कर उठ बैठे. बब्बन चचा मेरी ओर यों देख रहे थे जैसे वह मेरे मन पर टंगी उस तख्ती को स्पष्ट देख रहे हों जिस पर लिखा है- ‘‘मुझे पितृछाया की जरूरत है.’’

रिकशे वाले से मिलने के बाद से जो फांस मन में गड़ कर पीड़ा पहुंचा रही थी वह अब निकल चुकी थी.

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June 27, 2019 at 10:21AM

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